आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' के तहत पेश है फ़िल्म 'दो रास्ते' का वही सदाबहार गीत "ये रेशमी ज़ुल्फ़ें, ये शरबती आँखें"। सन् २००५ में विविध भारती ने रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर कई विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया था। और इसी के तहत संगीतकार प्यारेलाल जी को आमंत्रित किया गया था रफ़ी साहब को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए फ़ौजी भाइयों की सेवा में 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए। इस कार्यक्रम में प्यारेलाल जी ने रफ़ी साहब के गाये उनके कुछ पसंदीदा गानें तो सुनवाये ही थे, उनके साथ साथ रफ़ी साहब से जुड़ी कुछ बातें भी कहे थे। और सब से ख़ास बात यह कि फ़िल्म 'दो रास्ते' का प्रस्तुत गीत भी उनकी पसंद के गीतों में शामिल था। प्यारेलाल जी ने कहा था - "आज आप से रफ़ी साहब के बारे में बातें करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है। रफ़ी साहब का नेचर ऐसा था कि उन्होने सब को हेल्प किया, चाहे कोई भी जात का हो, या म्युज़िशियन हो, या कोई भी हो, सब को समान समझते थे। इससे मुझे याद आ रहा है फ़िल्म 'दोस्ती' का वह गाना "मेरा तो जो भी क़दम है वो तेरी राहों में है, के तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाहों में है"। एक बात और बताऊँ आपको? जब राजेश खन्ना इंडस्ट्री में आये, तो उनके लिए कई आवाज़ों की बात चल रही थी। 'दो रास्ते' में गाना था "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें", हम ने कहा कि 'चाहे कुछ भी हो जाये, यह गाना रफ़ी साहब ही गायेंगे, इसे और कोई नहीं गा सकता।' सुनिए उन्होने क्या गाया है, नये लड़के इसे क्या गायेंगे! क्या शोख़पन है!" दोस्तों, क्योंकि यह रिवाइवल है पुराने ज़माने के सुनहरे गीतों का, इसलिए हम आज यह गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में नहीं बल्कि एक नयी आवाज़ में सुनेंगे। उम्मीद है आपको पसंद आएगा।
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं
हैरी चोप
रफ़ी साहब के बहुत बड़े फैन हैरी की कोई फोटो उपलब्ध नहीं है, संगीत इनका पैशन है, दिल्ली के एक रियल एस्टेट कंपनी में वित्तीय प्रबंध का काम देखने वाले हरीश अपने व्यस्त जीवन चर्या में भी संगीत और गायन के लिए समय निकाल ही लेते है
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार पंडित सुदर्शन की कहानी "साईकिल की सवारी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं हिंदी और उर्दू के अमर साहित्यकार पंडित सुदर्शन की प्रसिद्ध कहानी "अठन्नी का चोर", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी ने। यथार्थ से आदर्श का सन्देश देने वाले सुदर्शन जी की कहानियों का लक्ष्य समाज व राष्ट्र को सुन्दर व मजबूत बनाना है । इस कहानी मे न्यायिक व्यवस्था पर व्यंग है ।
पंडित सुदर्शन की कालजयी रचना "हार की जीत", को सुनो कहानी में शरद तैलंग की आवाज़ में हम आपके लिए पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं।
कहानी "अठन्नी का चोर" का कुल प्रसारण समय 21 मिनट 28 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
“अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”
~ सुदर्शन (मूल नाम: पंडित बद्रीनाथ भट्ट)
(1895-1967) पांचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में पहली बार "हार का जीत" पढी थी। तब से ही इसके लेखक के बारे में जानने की उत्सुकता थी। दुःख की बात है कि हार की जीत जैसी कालजयी रचना के लेखक के बारे में जानकारी बहुत कम लोगों को है। गुलज़ार और अमृता प्रीतम पर आपको अंतरजाल पर बहुत कुछ मिल जाएगा मगर यदि आप पंडित सुदर्शन की जन्मतिथि, जन्मस्थान (सिआलकोट) या कर्मभूमि के बारे में ढूँढने निकलें तो निराशा ही होगी। मुंशी प्रेमचंद और उपेन्द्रनाथ अश्क की तरह पंडित सुदर्शन हिन्दी और उर्दू में लिखते रहे हैं। उनकी गणना प्रेमचंद संस्थान के लेखकों में विश्वम्भरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि के साथ की जाती है। लाहोर की उर्दू पत्रिका हज़ार दास्ताँ में उनकी अनेकों कहानियां छपीं। उनकी पुस्तकें मुम्बई के हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा भी प्रकाशित हुईं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों ही में महारत थी। पंडित जी की पहली कहानी "हार की जीत" १९२० में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। मुख्य धारा के साहित्य-सृजन के अतिरिक्त उन्होंने अनेकों फिल्मों की पटकथा और गीत भी लिखे हैं. सोहराब मोदी की सिकंदर (१९४१) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है। सन १९३५ में उन्होंने "कुंवारी या विधवा" फिल्म का निर्देशन भी किया। वे १९५० में बने फिल्म लेखक संघ के प्रथम उपाध्यक्ष थे। वे १९४५ में महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार सभा वर्धा की साहित्य परिषद् के सम्मानित सदस्यों में थे। उनकी रचनाओं में तीर्थ-यात्रा, पत्थरों का सौदागर, पृथ्वी-वल्लभ, बचपन की एक घटना, परिवर्तन, अपनी कमाई, हेर-फेर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। फिल्म धूप-छाँव (१९३५) के प्रसिद्ध गीत तेरी गठरी में लागा चोर, बाबा मन की आँखें खोल आदि उन्ही के लिखे हुए हैं।
(निवेदक: अनुराग शर्मा) बच्चे बीमार हैं और रुपया नहीं।
(पंडित सुदर्शन की "अठन्नी का चोर" से एक अंश)
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(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें: VBR MP3
#71th Story, Athanni Ka Chor: Pt. Sudarshan/Hindi Audio Book/2010/16. Voice: Archana
युं तो आज महिलायें हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहीं हैं, लेकिन जहाँ तक फ़िल्मों में संगीत देने या गीत लिखने का सवाल है, उसमें आज भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन फ़िल्म संगीत के इतिहास में कम से कम दो ऐसी महिला संगीतकारा हुईं हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत में बहुत बड़ा योगदान दिया है, फ़िल्मी गीतों के ख़ज़ाने को समृद्ध किया है। एक तो थीं सरस्वती देवी जिन्होने बौम्बे टाकीज़ की बहुत सारी फ़िल्मों में बहुत ही कामयाब संगीत दिया, और दूसरी हैं उषा खन्ना, जिन्होने ६०, ७० और ८० के दशकों में बहुत सारी फ़िल्मों में बहुत ही उम्दा संगीत दिया है। आम तौर पर हम इन दो महिला संगीतकारों के नाम जानते हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि सरस्वती देवी से भी पहले जड्डन बाई (अभिनेत्री नरगिस की माँ) एक संगीतकारा रह चुकीं हैं, जिन्होने सन् १९३५ में 'तलाश-ए-हक़' नामक फ़िल्म में संगीत दिया था! बहरहाल, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम उषा खन्ना जी का स्वरबद्ध किया हुआ एक बेहद ख़ूबसूरत गीत आपको सुनवाने जा रहे हैं। अजी ख़ूबसूरत क्या, एक थिरकता मचलता नग़मा फ़िल्म 'दिल देके देखो' से। महीला संगीत निर्देशिकाओं में सब से ज़्यादा नाम कमाया उषा खन्ना ने। बतौर संगीतकार, अपनी पहली फ़िल्म में ही लोकप्रियता की शिखर पर पहुँच गईं थीं उषा खन्ना। एस. मुखर्जी ने उनकी संगीत के प्रति लगाव को देख कर अपनी फ़िल्म 'दिल देके देखो' के संगीत का उत्तरदायित्व उन्हे दे दिया, और इस तरह से पार्श्व गायिका उषा खन्ना बन गईं संगीत निर्देशिका उषा खन्ना। तो आइए उषा जी की उसी पहली पहली फ़िल्म का शीर्षक गीत सुनते हैं आज।
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत - दिल देके देखो... कवर गायन - मुकेश वाला
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मुकेश वाला मैं एक बिसनस मैन हूँ और साथ में लिखने का शौक रखता हूँ. गुजरती भाषा में मेरी लिखी हुई दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, कुछ कुछ गायिकी, धुन और की–बोर्ड बजा लेता हूँ, आशा रखता हूँ कि मेरी गायिकी आपको पसंद आएगी
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ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
आवाज़ के लिए शुक्रवार का मतलब होता है बिलकुल ताज़ा। खुद के लिए और श्रोताओं के लिए ताज़े संगीत से सजे एक गीत को प्रस्तुत करना। संगीतबद्ध गीतों का तीसरा सत्र जो हमारे बिना किसी प्रयास के नये संगीतकारों-गायकों-लेखकों में आवाज़ महोत्सव 2010 के रूप में जाना जाने लगा है, में अब तक 4 नये गीत रीलिज हो चुके हैं। पाँचवें गीत के माध्यम से हम एक बिल्कुल नया संगीतकार सतीश वम्मी आवाज़ की दुनिया को दे रहे हैं। इस गीत के रचयिता आवाज़ के जाने-माने स्तम्भकार हैं जो किसी एक ग़ज़ल पर इतनी चर्चा करते हैं कि इंटरनेट पर कहीं एक जगह इतना-कुछ मिलना लगभग असम्भव है। गीत की आत्मा यानी गायिका कुहू गुप्ता 'जो तुम आ जाते एक बार' और 'प्रभु जी' से श्रोताओं के दिल में निवास करने लगी हैं।
गीत के बोल -
मुखड़ा :
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
तू बता मैं किस अदा से
ज़ीनत का दूँ हर शै को पता..
तू बता जो इस फ़िज़ा को
ज़ीनत सौंपूँ तो होगी ख़ता?
होठों को खोलूँ न खोलूँ, बता,
आँखों से बोलूँ न बोलूँ, बता,
साँसों की भीनी-सी खुशबू को मैं,
बातों में घोलूँ न घोलूँ, बता..
अंतरा 1:
है ये मेरे तक हीं,
ज़ीनत है ये किसकी
आखिर तेरा है जादू छुपा...
मैं तो मानूँ मन की
ज़ीनत जो है चमकी
आखिर तेरी हीं है ये ज़िया...
तू जाने कि तूने हीं दी है मुझे,
ये ज़ीनत कि जिससे मेरा जी सजे,
तो क्यों ना मेरा जी गुमां से भरे?
तो क्यों ना मैं जी लूँ उड़ा के मज़े?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
अंतरा 2:
यूँ तो फूलों पर भी,
ज़ीनत की लौ सुलगी,
लेकिन जी की सी ज़ीनत कहाँ?
जैसे हीं रूत बदली,
रूठी ज़ीनत उनकी,
लेकिन जी की है ज़ीनत जवाँ..
जो फूलों से बढके मिली है मुझे,
ये ज़ीनत जो आँखों में जी में दिखे,
तो क्यों ना मैं बाँटूँ जुबाँ से इसे?
तो क्यों ना इसी की हवा हीं चले?
हाँ तो मैं हँस लूँ न हँस लूँ, बता,
फूलों का मस्स लूँ न मस्स लूँ, बता,
धीरे से छूकर कलियाँ सभी,
बागों से जश लूँ न जश लूँ बता..
तू बता मैं गुलसितां से
ज़ीनत माँगूँ या कर दूँ अता....
मेकिंग ऑफ़ "ज़ीनत" - गीत की टीम द्वारा
सतीश वम्मी: "ज़ीनत" इंटरनेट की जुगलबंदी से बनाया मेरा पहला गाना है। इस गाने से न सिर्फ़ हम तीन लोग जुड़े हैं बल्कि तीन और लोगों का इसमें बहुत महत्वपूर्ण हाथ है: के के (गिटार, विशाखापत्तनम), श्रीकांत (बांसुरी, चेन्नई), शंपक (मिक्सिंग इंजीनियर, कोलकाता)। मैंने इन तीनों का साथ की-बोर्ड पर दिया है। बदकिस्मती है कि मैं अपनी टीम में से किसी से नहीं मिला हूँ, लेकिन आने वाले समय में इनसे जरूर मिलना चाहूँगा। मुझे याद है कि मैंने पहला डेमो जब विश्व को भेजा था तो उसमें अंतरा नहीं था। हमने सोचा कि हम पूरे गाने में केवल मुखड़े के ट्युन को नए शब्दों के साथ दुहराते रहेंगे। लेकिन जब विश्व ने मुझे इस गाने का मूल-भाव (थीम) बताया (ज़ीनत = आंतरिक और बाह्य... दोनों तरह की सुंदरता) तो मुझे लगा कि इस गाने को और भी खूबसूरत बनाया जा सकता है और फिर हमने इसमें दो अंतरे जोड़े। विश्व को धुन(गाने की ट्युन) की बारीकियों की अच्छी खासी समझ है और वे हर बार ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं जो धुन पर पूरी तरह से फिट आते हैं। कुहू की गायकी का मैं पहले से हीं कायल रहा हूँ, मैंने उनके गाने मुज़िबू पर सुने थे, लेकिन कभी उनसे बात नहीं हुई थी। मुझे आज भी याद है कि जब मैंने और विश्व ने ये निर्णय लिया था कि यह गाना कुहू हीं गाएँगी तो मैं उनकी हाँ सुनने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। मैं इससे ज्यादा क्या कहूँ कि कुहू ने इस गाने को एक नई ऊँचाई दी है। मुझे उम्मीद है कि आप सबों को हमारा यह प्रयास पसंद आएगा।
कुहू गुप्ता: सतीश के साथ ये मेरा पहला गाना है और हमेशा याद रहेगा. इनका परिचय मुझे विश्व ने करवाया जब सतीश उनके फीमेल सोलो गाने के लिए आवाज़ तलाश रहे थे. विश्व के साथ में पहले बहुत गाने कर चुकी हूँ लेकिन इस बार टीम में सतीश नए थे. हमेशा की तरह शुरू में उनसे बातचीत बहुत ही औपचारिक तौर पर हुई लेकिन जल्दी ही गाने पर साथ काम करते हुए हमें मज़ा आने लगा. जीनत एक बहुत ही सुन्दर रचना है जिसे आँखें बंद करके सुना जाए तो मन को शान्ति का अनुभव होता है. इस सुन्दर रचना को और मज़बूत बनाने के लिए विश्व की कलम ने बखूबी साथ दिया. इस गाने के शब्द मुश्किल ज़रूर हैं लेकिन जैसा कि गाने का नाम है जीनत यानी खूबसूरती, एक एक शब्द बहुत ही खूबसूरती से चुना गया है. अभी तक जितनी भी मूल रचनाएँ मैंने कि हैं उसमे से ये गाना मुझे इसलिए ख़ास याद रहेगा क्योकि ये पहला ऐसा गाना था जिसका अरेंजमेंट मेरे गाना गाने के बाद पूरा हुआ, जिसे मैं मज़ाक में रहमान स्टाइल कहती हूँ. अरेंजमेंट और गायन दोनों ही साथ साथ विकसित हुए जो मेरे लिए एक नया अनुभव था. इस गीत में हमेशा की तरह प्रयोग किये जाने वाले synthesizer के अलावा लाइव बांसुरी और गिटार का भी प्रयोग किया गया है जो गीत की खूबसूरती को और निखारता है।
विश्व दीपक: भले हीं यह लगे कि सतीश जी के साथ "ज़ीनत" मेरा पहला गाना है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि किसी और गाने के बीच में "ज़ीनत" की धुन निकल आई थी। दर-असल सतीश जी के पास बरसों से एक ट्युन पड़ी थी जिसे उन्होंने "डियर लिरिसिस्ट" नाम दिया था। उन्हें इस ट्युन के लिए किसी हिन्दी-गीतकार की ज़रूरत थी। सतीश जी ने मुझे मुज़िबू पे ढूँढा और मैंने उनकी यह धुन ढूँढ ली। मैंने कहा कि हाँ मैं लिखूँगा। फिर इस तरह से हमारा "बेशक" (अगला गाना जो इस गाने के बाद रीलिज होने वाला है) बनके तैयार हुआ। तब तक हमने यह सोचा नहीं था कि यह गाना किसे देना है , उसी बीच सतीश जी "ज़ीनत" की ट्युन लेकर हाज़िर हुएँ और हम "बेशक" को रोक कर "ज़ीनत" में जुड़ गए। गाना जब आधा हुआ तभी सतीश जी ने पूछा कि आपके लिए "मन बता" जिन्होंने गाया है वो हमारा यह गाना गाएँगी। मैंने कहा कि मैं उनसे बात कर लेता हूँ और मुझे पक्का यकीन है कि वो ना नहीं कहेंगीं। फिर मैंने कुहू जी से बात की और कुहू जी ने लिरिक्स पढने और ट्युन सुनने के बाद हामी भर दी। फिर क्या था गाने पर काम शुरू हो गया और महज़ ७ या फिर १० दिनों में गाना बनकर तैयार भी हो गया। यह होली के आस-पास की घटना है। अब आप सोचेंगे कि गाना जब तभी हो गया था तो इतनी देर कहाँ लगी तो इसमें सारा दोष सतीश जी का(कुछ हद तक शंपक का भी, जो गाने की मिक्सिंग को परफ़ेक्ट करने में लगे थे) है :) वे अपने गाने से संतुष्ट हीं नही होते और इस गाने को अंतिम रूप देने में उन्होंने डेढ महीना लगा दिया। खैर कोई बात नहीं... वो कहते हैं ना कि इंतज़ार का फल मीठा होता है तो हमें इसी मीठे फल का इंतज़ार है। उम्मीद करता हूँ कि "न हम आपको निराश करेंगे और न आप हीं हमें निराश करेंगे।"
सतीश वम्मी
सतीश वम्मी मूलत: विशाखापत्तनम से हैं और इन दिनों कैलिफ़ोर्निया में रहते हैं। बिजनेस एवं बायोसाइंस से ड्युअल मास्टर्स करने के लिए इनका अमेरिका जाना हुआ। 2008 में डिग्री हासिल करने के बाद से ये एक बहुराष्ट्रीय बायोटेक कम्पनी में काम कर रहे हैं। ये अपना परिचय एक संगीतकार के रूप में देना ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन इनका मानना है कि अभी इन्होंने संगीत के सफ़र की शुरूआत हीं की है.. अभी बहुत आगे जाना है। शुरू-शुरू में संगीत इनके लिए एक शौक-मात्र था, जो धीरे-धीरे इनकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। इन्होंने अपनी पढाई के दिनों में कई सारे गाने बनाए जो मुख्यत: अंग्रेजी या फिर तेलगु में थे। कई दिनों से ये हिन्दी में किसी गाने की रचना करना चाहते थे, जो अंतत: "ज़ीनत" के रूप में हम सबों के सामने है। सतीश की हमेशा यही कोशिश रहती है कि इनके गाने न सिर्फ़ औरों से बल्कि इनके पिछले गानों से भी अलहदा हों और इस प्रयास में वो अमूमन सफ़ल हीं होते हैं। इनके लिए किसी गीत की रचना करना एक नई दुनिया की खोज करने जैसा है, जिसमें आपको यह न पता हो कि अंत में हमें क्या हासिल होने वाला है, लेकिन रास्ते का अनुभव अद्भुत होता है।
कुहू गुप्ता
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है। इस संगीत के सत्र में भी यह इनका तीसरा गीत है।
विश्व दीपक 'तन्हा' विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।
Song - Zeenat
Voices - Kuhoo Gupta
Music - Satish Vammi
Lyrics - Vishwa Deepak
Graphics - Samarth Garg
Song # 05, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm
इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए
शमशाद बेग़म की आवाज़ में ४० के दशक का वह गीत याद है ना "काहे कोयल शोर मचाए रे, मोहे अपना कोई याद आए रे"? आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में इसी गीत की बारी। गीत सुनने से पहले ये हैं गायक मुकेश के उदगार राज कपूर की इस पहली पहली फ़िल्म के बारे में। "जिस मोती के बारे मे मै आज ज़िक्र कर रहा हूँ अमीन भाई, उस मोती का नाम है राज कपूर। और मैं राज के ज़िंदगी से ही तीन हिस्से पेश करूँगा। बिल्कुल साफ़ है अमीन भाई, पहले हिस्से को कहूँगा 'आग', दूसरे को 'बरसात से संगम', और तीसरे को 'जोकर से बौबी'। मैं उस ज़माने की बात कर रहा हूँ जब रणजीत स्टूडियो के अंदर हम लोग 'ट्रेनिंग्' किया करते थे। राज कपूर को लेकर चंदुलालजी के पास आये पापाजी। पापाजी यानी कि पृथ्वीराज साहब। और कहने लगे कि 'देखिये, यह मेरे साहबज़ादे हैं, यह फ़िल्म मे जाना चाहता है, और मै चाहूँगा कि यह 'फ़िल्म-मेकिंग्' के हर एक 'ब्रांच' को सीखे और कूली के काम से शुरु करे'। अमीन भाई, ऐसा है कि पापाजी ने राज मे कुछ गुण तो देख ही लिये थे पृथ्वी थियटर्स मे काम करते वक़्त, तो वो चाहते थे कि जब यह फ़िल्म मे जा ही रहा है तो पूरी पूरी तरह से सारा काम सीखे। तो वो बन गये वहाँ किदार शर्मा साहब के सहायक। वह क्या था कि शर्मा जी ने सहायक के अंदर 'हीरो' भी देख लिया, और शर्माजी ने उन्हे 'नीलकमल' मे 'हीरो' बना दिया। अमीन भाई, एक दिन हम रणजीत स्टूडियो मे बैठे थे। हज़रत के पास एक टूटी-फूटी फ़ोर्ड गाड़ी हुआ करती थी उन दिनों। तो उसमे बिठाया हमें और ले गये बहुत दूर एक जगह। वहाँ ले जाकर अपना फ़ैसला सुनाया कि 'हम एक फ़िल्म 'आग' बनाना चाहते हैं'। तो कुछ 'सीनस्' भी सुनाये। 'सीनस्' तो पसंद आये ही थे मगर मुझे जो ज़्यादा बात पसंद आयी, वह थी कि जिस जोश के संग वो बनाना चाहते थे 'आग' को।" लेकिन 'आग' बनाते समय राज कपूर को काफ़ी तक़लीफ़ों का सामना करना पड़ा था, इस सवाल पर मुकेश कहते हैं - "काफ़ी तकलीफ़ें, अमीन भाई कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पैसे की तकलीफ़ें, डेटों की तकलीफ़ें, यानी कि फ़िल्म बनाते समय जो जो तकलीफ़ें आ सकती हैं एक 'प्रोड्युसर' को। वह इम्तिहान था राज कपूर का। फ़िल्म बन भी गयी तो कोई ख़रीदार नहीं। ख़रीदार आये तो हमारा मज़ाक उड़ाया करे। एक ने तो यहाँ तक भी कहा कि 'राज साहब, अगर 'आग' आप ने बनायी है तो अपना थियटर भी बना लीजिये, ताकी आग लगे तो आप ही की थियटर मे लगे।' और आग की जलन मिटाने के लिए फिर 'बरसात' बनी। 'आग' के फ़ेल हो जाने के बावजूद राज कपूर पास हो गये।"
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
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डाक्टर पारसमणी आचार्य मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में जयदेव का संगीत, साहिर लुधियानवी के बोल, फ़िल्म 'हम दोनो' का वही सदाबहार गीत "अभी ना जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं", जिसे आज भी सुन कर मानो दिल नहीं भरता और बार बार सुनने को जी करता है। दोस्तों, यह गीत उस दौर का है जब जयदेव साहब की धुनों पर बर्मन दादा यानी कि सचिन दा के धुनों का असर साफ़ सुनाई देता था। बाद में सचिन दा के ही कहने पर जयदेव जी ने अपनी अलग शैली बनाई और अपनी मौलिकता का परिचय दिया। जयदेव जी के परम भक्त और सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक सुरेश वाडेकर उन्हे याद करते हुए कहते हैं - "पापाजी ने बहुत मेलडियस काम किया है, ख़ूबसूरत ख़ूबसूरत गानें दिए श्रोताओं के लिए। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैने उनको ऐसिस्ट किया ६/८ महीने। 'सुर सिंगार' प्रतियोगिता जीतने के बाद मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। वो मेरे गुरुजी के क्लोज़ फ़्रेंड्स में थे। मेरे गुरुजी थे पंडित जियालाल बसंत। लाहौर से वो उनके करीबी दोस्त थे। पापाजी ने मेरे गुरुजी से कहा कि इसे मेरे पास भेजो, एक्स्पिरीयन्स हो जाएगा कि गाना कैसे बनता है, एक अच्छा अनुभव हो जाएगा। मैं गया उनके पास, वहीं पे मेरी लता जी से जान पहचान हो गई, उस समय वो फ़िल्म 'तुम्हारे लिए' का गाना "तुम्हे देखती हूँ तो लगता है ऐसे" के लिए आया करती थीं। मुझे वहाँ मज़ा आता था। कभी रीदम सेक्शन, कभी सिटिंग्स् में जाया करता था, तबला लेकर उनके साथ बैठता, कैसे गाना बनता है, शायर भी होते थे वहाँ, फिर गाना बनने के बाद 'ऐरेंजमेंट' कैसे किया जाता है, ये सब मैने देखा और सीखा। जयदेव जी के गीतों में फ़ोक का एक रंग होता था मीठा मीठा सा, गीत क्लासीक़ी और मेलडी भरा होता था, गाने में चैलेंज हमेशा होता था। पापाजी की साँस थोड़ी कम थी, इसको ध्यान में रख कर गाना बनाते थे कमाल का। "मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया" में छोटे छोटे टुकड़ों में इतना अच्छा लगता है। गाना शुरु होते ही लगता है कि ये तो पापाजी का गाना है। उनकी पहचान, उनका स्टैम्प उनके गानों में होता था। मैं बहुत भाग्यशाली रहा, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।"
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत - अभी न जाओ छोड के... कवर गायन - रश्मि नायर/ हेमंत बदया
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रश्मि नायर इन्टरनेट पर बेहद सक्रिय और चर्चित रश्मि मूलत केरल से ताल्लुक रखती हैं पर मुंबई में जन्मी, चेन्नई में पढ़ी, पुणे से कॉलेज करने वाली रश्मि इन दिनों अमेरिका में निवास कर रही हैं और हर तरह के संगीत में रूचि रखती हैं, पर पुराने फ़िल्मी गीतों से विशेष लगाव है. संगीत के अलावा इन्हें छायाकारी, घूमने फिरने और फिल्मों का भी शौक है
हेमंत बदया हेमंत एक संगीतमय परिवार से हैं. बैंगलोर के श्री लक्ष्मी केशवा से इन्होने ललित संगीत और पंडित परमेश्वर हेगड़े से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गुर सीखे. टोरोंटो में रहने वाले हेमंत जी टीवी के अन्ताक्षरी और मस्त मस्त शोस में शान के साथ नज़र आये और कन्नडा संघ आईडल भी बने
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ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
पि छली दस कड़ियों में हमने बिना रूके चचा ग़ालिब की हीं बातें की। हमारे लिए वह सफ़र बड़ा हीं सुकूनदायक रहा और हमें उम्मीद है कि आपको भी कुछ न कुछ हासिल तो ज़रूर हुआ होगा। यह बात तो जगजाहिर है कि ग़ालिब शायरी की दुनिया के ध्रुवतारे हैं और इस कारण हमारा हक़ बनता है कि हम उनसे वाकिफ़ हों और उनसे गज़लकारी के तमाम नुस्खे जानें। हमने पिछली दस कड़ियों में बस यही कोशिश की और शायद कुछ सफ़ल भी हुए। "कुछ" इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ग़ालिब को पूरी तरह जान लेना किसी के बस में नहीं। फिर भी जितना कुछ हमारे हाथ आया, सारा का सारा मुनाफ़ा हीं तो था। अब जब हमें मुनाफ़े का चस्का लग हीं गया है तो क्यों ना आसमान के उस ध्रुवतारे के आस-पास टिमटिमाते, चमकते, दमकते तारों की रोशनी पर नज़र डाली जाए। ये तारे भले हीं ध्रुवतारा के सामने मंद पड़ जाते हों, लेकिन इनमें भी इतना माद्दा है, इतनी चमक है कि ये गज़ल-रूपी ब्रह्मांड के सारे ग्रहों को चकाचौंध से सराबोर कर सकते हैं। तो अगली दस कड़ियों में (आज की कड़ी मिलाकर) हम इन्हीं तारों की बातें करने जा रहे हैं। बात अब और ज्यादा नहीं घुमाई जाए तो अच्छा....इसीलिए सीधे-सीधे हम मुद्दे पर आते हैं और आज के सितारे से आप सबको रूबरू कराते हैं।
आज की कड़ी जिस शायर के नाम है, उसे मशहूर लेखक और पत्रकार "खुशवन्त सिंह" "आज की उर्दू शायरी का बादशाह" करार देते हैं। अगर यही बात है तो इस सफ़र की शुरूआत के लिए इनसे अच्छा और सटीक शायर और कौन हो सकता है। जी हाँ, हम जिनकी बात कर रहें हैं, उन्हें शायरी की दुनिया में "कैफ़ी" के नाम से जाना जाता है....जबकि उनका पूरा(मूल) नाम सैयद अख़्तर हुसैन रिज़वी है। "कैफ़ी" आज़मी के बारे में खुद कुछ कहने से अच्छा है कि उनकी सुपुत्री "शबानी आज़मी" से उनका परिचय जान लिया जाए। शबाना कहती हैं:
बाप होने के नाते तो अब्बा मुझे ऐसे लगते हैं जैसे एक अच्छा बाप अपनी बेटी को लगेगा, मगर जब उन्हें एक शायर के रूप में सोचती हूँ तो आज भी उनकी महानता का समन्दर अपरम्पार हीं लगता है। मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी शायरी को पूरी तरह समझती हूँ और उसके बारे में सब कुछ जानती हूँ, मगर फिर भी उनके शब्दों से जो तस्वीरें बनती हैं, उनके शेरों में जो ताक़त छुपी होती है, उनकी सोच का जो विस्तार है, वो मुझे हैरान-सा कर देता है। वो अपने दु:ख और अपने ग़म को भी दुनिया के दु:ख-दर्द से मिलाकर देखते हैं। उनके सपने सिर्फ़ अपने लिए नहीं, दुनिया के इन्सानों के लिए हैं। चाहे वह झोपड़पट्टी वालों के लिए काम हो या नारी अधिकार की बात या सांप्रदायिकता के विरूद्ध मेरी कोशिश, उन सब रास्तों में अब्बा की कोई न कोई नज़्म मेरी हमसफ़र है। वो "मकान" हो, "औरत" हो या "बहरूपनी" - ये वो मशालें हैं जिन्हें लेकर मैं अपने रास्तों पर चलती हूँ। दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक होती है। अब्बा ऐसे इंसान हैं- उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है। मैंने उनसे ये हीं सीखा है कि सिर्फ़ सही सोचना और सही कहना हीं काफ़ी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए। अब्बा की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िन्दगी को पूरी तरह भरपूर जी के देखा है। इनकी शायरी में आप बार-बार देखेंगे- वो अपने दु:खों के मुंडेरों में घिर के नहीं रह जाते बल्कि अपने दु:ख को दुनिया के तमाम लोगों से जोड़ लेते हैं। फिर उनकी बात सिर्फ़ एक इन्सान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इन्सानों के दिलों की बात हो जाती है और आप महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा-आपका-सबका दिल धड़क रहा है।
शबाना जी ने अपने अब्बा को बड़ी हीं बारीकी से याद किया। अब हम ऐसा करते हैं कि कैफ़ी आज़मी की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनते हैं:
अपने बारे में यकीन से मैं इतना हीं कह सकता हूँ कि मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिन्दुस्तान में बूढा हुआ और सोशलिस्ट हिन्दुस्तान में करूँगा। समाजवाद के लिए सारे संसार में और स्वयं मेरे देश में एक समय से जो महान संघर्ष हो रहा है, उससे सदैव मेरा और मेरी शायरी का संबंध रहा है। इस विश्वास ने उसी कोख से जन्म लिया है।
मैं उत्तर प्रदेश के जिला आज़मगढ के एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ। शायरी तो एक तरह से मुझे खानदानी मिली। मेरे अब्बा सय्यद फ़तह हुसैन रिज़वी मरहूम बाक़ायदा शायर तो नहीं थे, लेकिन शायरी को अच्छी तरह समझते थे। घर में उर्दू-फ़ारसी के दीवान बड़ी संख्या में थे। मैंने ये किताबें उस उम्र में पढीं जब उनका बहुत हिस्सा समझ में नहीं आता था। मुझसे बड़े तीनों भाई भी बाक़ायदा शायर थे यानि बयाज़ (डायरी) रखते थे और तख़ल्लुस भी। सबसे बड़े भाई सैय्यद ज़फ़र हुसैन महरूम की तख़ल्लुस "मज़रूह" थी। उनसे छोटे भाई सैय्यद हुसैन की तख़ल्लुस "बेताब" थी। उनसे छोटॆ भाई सैय्यद शब्बीर हुसैन की तख़ल्लुस "वफ़ा" थी। भाई साहबान जब छुट्टियों में अलीगढ और लखनऊ से घर आते थे तो घर पर अक्सर शे’री महफ़िलें होती थीं जिनमें भाई साहबान के अलावा पूरे क़स्बे के शोअरा शरीक होते थे। भाई साहबान जब अब्बा को अपना कलाम सुनाते और अब्बा उसकी तारीफ़ करते तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं बड़ी हसरत से अपने सवाल करता - क्या मैं बःई कभी शे’र कह सकूँगा? लेकिन मैं जब भाईयों के शे’र सुनने के लिए खड़ा हो जाता या चुपचाप कहीं बैठ जाता तो फ़ौरन किसी बुजुर्ग की डाँट पड़ती कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो? तुम्हारी समझ में क्या आएगा? घर में जाओ और पान बनवाकर लाओ। मैं पाँव पटकता तक़रीबन रोता हुआ घर में बाजी के पास जाता कि देखिए, मेरे साथ यह हुआ। मैं एक दिन इन सबसे बड़ा शाइर बनकर दिखा दूँगा। बाजी मुस्कुराकर कहती - क्यों नहीं, तुम ज़रूर कभी बड़े शाइर बनोगे, अभी तो यह पान ले जाओ और बाहर दे आओ।
इसी उम्र में एक घटना यह है कि अब्बा बहराइच में थे, क़ज़लबाश स्टेट के मुख़्तार आम या पता नहीं क्या। वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। भाई साहबान लखनऊ से आए थे। बहराइच, गोण्डा, नानपारा और क़रीब-दूर के बहुत से शायर बुलाए गए थे। मुशायरे के अध्यक्ष "मानी जायसी" साहब थे। उनके शेर सुनने का एक खास तरीक़ा था कि वह शे’र सुनने के लिए अपनी जगह पर उकड़ूँ बैठ जाते और अपना सर दोनों घुटनों में दबा लेते और झूम-झूम कर शे’र सुनते और दाद देते। उस वक्त शायर सीनियरिटी से बिठाए जाते थे। एक छोटी-सी चौकी पर क़ालीन बिछा होता और गावतकिया लगा होता। जिस शायर की बारी आती वह इसी चौकी पर आकर एक तरह बहुत आदर से घुटनों के बल बैठता। मुझे मौका मिला तो मैं भी इसी तरह आदर से चौकी पर घुटनों के बल बैठकर अपनी ग़ज़ल जो "तरह" में थी, सुनाने लगा। "तरह" थी "मेहरबां होता, राज़दाँ होता"... वग़ैरह। मैंने एक शे’र पढा:
वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़ देते हैं,
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्सा-ए-ग़म भी बयाँ होता!
मानी साहब को न जाने शे’र इतना क्यों पसन्द आया कि उन्होंने खुश होकर पीठ ठोंकने के लिए मेरी पीठ पर एक हाथ मारा। मैं चौंकी से ज़मीन पर आ रहा। मानी साहब का मुँह घुटनों में छिपा हुआ था इसलिए उन्होंने नहीं देखा कि क्या हुआ, झूम-झूमकर दाद देते रहे और शे’र दुबारा पढवाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शेर दुहराता रहा। यह पहला मुशायरा था जिसमें शायर की हैसियत से मैं शरीक़ हुआ। इस मुशायरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक परेशान रहता हूँ। उस ज़माने में रोज़ ही कुछ न कुछ लिख किया करता था। कोई नौहा, कोई सलाम, कोई ग़ज़ल।
मेरी नज़्मों और गज़लों के अब तक चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं:
१. झंकार २. आखिर-ए-शब ३. आवारा सज्दे ४. इब्लिस की मज्लिस-ए-शूरा (दूसरा इज्लास)
आवारा सज्दे देवनागरी लिपि में मेरा पहला प्रकाशन है। यह मेरी कविताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें ‘झंकार’ की चुनी हुई चीज़ें भी हैं ‘आख़िर-शब’ की भी। ‘आवारा सज्दे’ मुकम्मल है। मेरी नज़्मों और ग़ज़लों के इस भरपूर संकलन के जरिए मेरे दिल की धड़कन उन लोगों तक पहुँचती है, जिनके लिए वह अब तक अजनबी थी। ’आवारा सज्दे’ की तारीफ़ कई खेमों में हुई। इसी किताब पर मुझे सोवियत लैण्ड नेहरू एवार्ड भी मिला। ’आवारा सज्दे’ पर मुझे साहित्य अकादमी ने भी इनाम दिया। मेरी पूरी साहित्यिक सेवा पर मुझे लोटस एवार्ड भी मिला।
कैफ़ी साहब यूँ तो अपनी क्रांतिकारी गज़लों और नज़्मों के लिए जाने जाते हैं लेकिन चूँकि यहाँ पर हम उनकी एक बड़ी हीं रूमानी गज़ल पेश करने जा रहे हैं तो क्या ना माहौल बनाने के लिए उनका यह शेर देख लिया जाए:
बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में
और अब वक़्त है आज की गज़ल से पर्दा उठाने का। तो आज जिस गज़ल से हमारी यह महफ़िल सजने जा रही है, उसे हमने "प्यार का जश्न" एलबम से लिया है। रूप कुमार राठौर की मलाईदार आवाज़ में घुलकर यह गज़ल कुछ ज्यादा हीं मीठी हो गई है। यकीन नहीं होता तो आप खुद हीं आजमा लीजिए। यहाँ पर भले हीं हम यह गज़ल "ओडियो" रूप में आपके सामने पेश कर रहे हैं, लेकिन हम आपसे यह इल्तज़ा करेंगे कि आप इसे युट्युब पर ज़रूर देखें। आखिर "आमिर खान" और "गौरी कार्णिक" को एक-साथ देखने का मौका फिर कहाँ मिलेगा। हमें पूरा विश्वास है कि आपको यह गज़ल अवश्य पसंद आएगी:
जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को
सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं।
फूल क्या, ____ क्या, चाँद क्या, सितारे क्या,
सब रक़ीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं।
फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में,
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं।
लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है,
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "खयाल" और शेर कुछ यूँ था-
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी खयाल में
"ग़ालिब" सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
इस शब्द ने शायद शरद जी के कई सारे जज़्बात जगा दिए तभी तो शरद जी खयालों की दुनिया में ऐसे खोए कि ५-६ शेरों के बाद हीं उन्हें अपनी मदहोशी का इल्म हुआ। आपकी यह पेशकश हमें खूब पसंद आई:
रोज़ अखबारों में पढ़ कर ये ख़याल आया हमें,
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार । (दुश्यंत कुमार )
इसी ख़याल से मैं रात भर नहीं सोया,
ख्वाब में आके मुझे फिर से वो तड़पाएंगे । (स्वरचित)
कही बे-खयाल हो कर यूं ही छू लिया किसी ने
कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बे-खुदी ने ।
अवध जी, बड़ा हीं बेहतरीन शेर है ये। वाकई साहिर साहब की कलम का कोई जवाब नहीं:
आप आये तो ख्याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया.
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया.
शन्नो जी, आपका इशारा किसकी तरफ़ है.. कहीं नीलम जी तो नहीं :) सच में दिल खोलकर रख दिया है आपने:
अदा का ख्याल क्या आयेगा उसको
जिसे खाकसारी से ही फुर्सत न हो.
मंजु जी, आपके शेरों में आपकी लगन, आपकी मेहनत , आपकी कोशिश झलकती है। मैं इसी का कायल हूँ।
ख़याल की महफिल में तुम जब -जब आए ,
अमावस्या भी पूर्णिमा -सी नजर है आए . (मेरे हिसाब से अमावस और पूनम ज्यादा अच्छे लगते.. )
मनु जी, जगजीत सिंह से आपकी कोई नाराज़गी है क्या। अगर नहीं तो ऐसी टिप्पणी का कारण? :)
उपासना जी (मल्लिका-ए-मक्तूब), आवाज़ पर आपके नक्श-ए-पा देखकर थोड़ी हैरत हुई तो बहुत सारा सुकून भी मिला... भले हीं बहाना "ग़ालिब" का हो, लेकिन जब एक बार आना हो हीं चुका है तो मेरे हिसाब से यह गलती बार-बार की जा सकती है :) क्या कहती हैं आप? और हाँ चचा ग़ालिब के लिए आपका यह शेर भी कमाल का है:
गुफ्तगू में रहे या ख़यालों में हो,
बात ये है कि वो यूँ ही दिल में रहे।
सीमा जी, बड़ी देर कर दी आपने इस बार। खैर.. दिल तो नहीं तोड़ा :) ये रहे आपके शेर:
मिस्ल-ए-ख़याल आये थे आ कर चले गये
दुनिया हमारी ग़म की बसा कर चले गये (फ़ानी बदायूनी )
जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही (बशीर बद्र )
पूजा जी, चचा ग़ालिब पर आधारित यह छोटी-सी श्रृंखला पसंद करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। आपका यह शेर मैं तो समझ हीं गया था, हाँ आपने शब्दार्थ देकर बाकियों का भला ज़रूर किया है। :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
जहाँ तक 'बंदिनी' फ़िल्म के गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म का कोई भी गीत ऐसा नहीं जो प्रचलित न हुआ हो। सचिन दा और शैलेन्द्र की टीम तो थी ही, साथ ही नये उभरते गीतकार गुलज़ार ने भी एक गीत इस फ़िल्म में लिखा था "मोरा गोरा अंग लइ ले"। लता जी की आवाज़ में इस गीत के अलावा एक दूसरा गीत था "जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे"। मुकेश की आवाज़ में "ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना", मन्ना डे की आवाज़ में "मत रो माता लाल तेरे बहूतेरे", बर्मन दादा की आवाज़ में "मेरे साजन हैं उस पार", तथा आशा भोसले की आवाज़ में "ओ पंछी प्यारे" और आज का यह प्रस्तुत गीत "अब के बरस भेज भइया को बाबुल", ये सारे गानें आज सदाबहार नग़मों की फ़ेहरिस्त में दर्ज है। दोस्तों, अभी कुछ महीने पहले मैं विविध भारती पर ग़ैर फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम 'गुल्दस्ता' सुन रहा था। अचानक एक गीत बज उठा सुधा मल्होत्रा का गाया हुआ और संगीतकार का नाम बताया गया शिवराम कृष्ण। गीत कुछ ऐसा था "निम्बुआ तले डोला रख दे मुसाफ़िर, आयी सावन की बहार रे"। अब आप ज़रा इस लाइन को "अब के बरस भेज भइया को बाबुल" की धुन पर गाने की कोशिश कीजिए ज़रा! जी हाँ, उस रात मैं भी चौंक गया था यह सुनकर कि इन दोनों गीतों की धुन हू-ब-हू एक है। मेरे दिल में हलचल होती रही कि कौन सा गीत पहले बना होगा, क्या एक संगीतकार दूसरे संगीतकार की धुन से प्रभावित होकर अपना गीत बनाए होंगे, वगेरह वगेरह। मेरी तफ़तीश अगले दिन समाप्त हुई जब मुझे पता चला कि यह असल में एक पारम्परिक लोक रचना है। यह एक कजरी है जिसे कई कई शास्त्रीय गायकों ने गाया है समय समय पर। सावन की ऋतू पर यह गीत गाँव गाँव में सुनने को मिलता है आज भी। और 'बंदिनी' के इस गीत में भी सावन का ही ज़िक्र है। तो आइए इस चिलचिलाती गर्मी में सावन की ठंडी फुहार की तरह कोमल और शीतल इस गीत को सुना जाए।
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मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं
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ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
सुजॊय - ताज़ा सुर ताल' के एक नए अंक के साथ हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। पिछले हफ़्ते किसी कारण से 'टी.एस.टी' की यह महफ़िल सज नहीं पाई थी। दोस्तों, सजीव जी इन दिनों छुट्टियों के मूड में हैं, इसलिए आज मेरे साथ 'ताज़ा सुर ताल' में उनकी जगह पर हैं विश्व दीपक तन्हा जी। विश्व दीपक जी, वैसे तो आप 'आवाज़' में नए नहीं हैं, लेकिन इस स्तंभ में आप पहली बार मेरे साथ हैं। इसलिए मैं आपका स्वागत करता हूँ।
विश्व दीपक - शुक्रिया सुजॊय जी! मुझे भी बेहद आनंद आ रहा है इस स्तंभ में शामिल हो कर। वैसे मैं एक बार आपकी अनुपस्थिति में फ़िल्म 'रण' के गीत संगीत की चर्चा कर चुका हूँ इसी स्तंभ में। इसलिए यह कह सकते हैं कि यह दूसरी मर्तबा है कि मैं इस स्तंभ में शामिल हूँ बतौर होस्ट और जिस तरह का सजीव जी का मूड है, उस हिसाब से मुझे लगता है कि अगले एक-डेढ महीने तक मैं आपके साथ रहूँगा। खैर यह बताईये कि आज किस फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने का इरादा है?
सुजॊय - देखिए इन दिनों जिन फ़िल्मों के प्रोमोज़ और गीतों की झलकियाँ दिखाई व सुनाई दे रहीं हैं, उनमें कुछ नाम हैं 'बदमाश कंपनी', 'हाउसफ़ुल', 'मुस्कुराकर देख ज़रा'। लेकिन इन सब से बिल्कुल अलग हट कर जो फ़िल्म आनेवाली है और जिसके प्रति लोगों की उत्सुक्ता दिन ब दिन बढ़ती सी दिखाई दे रही है, वह फ़िल्म है 'रावण'। ऐसे में इस फ़िल्म की चर्चा इस स्तंभ में अनिवार्य हो जाता है।
विश्व दीपक - बिल्कुल ठीक कहा। मणिरत्नम निर्मित एवं निर्देशित इस फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय, विक्रम, गोविंदा, प्रियामणि, रविकिशन और निखिल द्विवेदी ने। गुलज़ार के गीत हैं और संगीत ए. आर. रहमान का।
सुजॊय - यानि कि पूरी की पूरी एक ज़बरदस्त टीम। देखना है कि अभिषेक-ऐश के साथ रहमान की तिकड़ी क्या वही कमाल दिखाती है जो कमाल फ़िल्म 'गुरु' में हुआ था!
विश्व दीपक - सिर्फ़ अभि-ऐश के साथ ही क्यों, मणिरत्नम और रहमान की ऐतिहासिक जोड़ी शुरु हुई थी १९९२ में 'रोजा' से। उसके बाद 'बॊम्बे', 'दिल से', 'साथिया', 'युवा' और 'गुरु' जैसी यादगार फ़िल्में। ऐसे में अगर लोगों को 'रावण' के म्युज़िक से उम्मीदें हैं तो वो जायज़ हीं हैं। तो चलिए शुरू करते हैं गीतों का सिलसिला। सुनते हैं पहला गीत और फिर चर्चा आगे बढ़ाते हैं।
गीत: बीरा बीरा
सुजॊय - दरअसल यह गीत फ़िल्म के मुख्य पात्र बीरा (अभिषेक बचन) से संबंधित है। जैसा कि आपने सुना कि गीत की धुन और रीदम ट्राइबल अंदाज़ का है। विजय प्रकाश, मुस्तफ़ा कुटोन और कीर्ति सगठिया का गाया यह गीत हो सकता है कि अलग से सुन कर बहुत ज़्यादा अपील ना करे, लेकिन फ़िल्म की कहानी, पात्र और सिचुयशन के मुताबिक ज़रूर सटीक होगी!
विश्व दीपक - और इस गीत की अवधि भी इतनी कम है कि जब तक इसकी रीदम और धुन ज़हन में चढ़ती है, तब तक गीत समाप्त हो चुका होता है। वैसे इसी तरह का एक गीत गुलज़ार साहब ने "ओंकारा" में भी लिखा था। वहाँ भी मुख्य नायक के इंट्रोडक्शन के लिए एक विशेष गीत की ज़रूरत थी। अलग बात यह है कि वहाँ पर गाने में दो अंतरे थे, लेकिन यहाँ पर गुलज़ार साहब को अपनी बात एक हीं अंतरे में कहनी थी। और मेरे हिसाब से वो इसमें सफ़ल हुए हैं। सुजोय जी, शायद आपने यह ध्यान न दिया हो लेकिन इस गीत में रहमान की भी आवाज़ है, भले हीं उनका नाम सीडी कवर पर नहीं दिखता। यह तो आपको मानना हीं पड़ेगा कि अलग किस्म का संगीत है इसमें और हाँ कुछ-कुछ अफ़्रीकन तो कुछ-कुछ चाईनीज अफ़ेक्ट भी है।
सुजॊय - जी.. मुस्तफ़ा कुटोन का इस्तेमाल रहमान ने शायद इसी कारण से किया है। क्योंकि उनकी आवाज़ में एक्ज़ोटिक टच है।
विश्व दीपक - बहुत हद तक संभव है। चलिए अब आगे बढ़ते हैं और आ जाते है दूसरे गीत पर। पहले गीत से बिल्कुल अलग यह गीत है "बहने दे मुझे बहने दे"। इस गीत को सुनते हुए फ़िल्म 'दिल से' के "सतरंगी रे" की याद आ ही जाती है।
सुजॊय - हाँ, ख़ास कर "बहने दे" "सतरंगी रे" के अंतरे "थोड़ा थोड़ा उन्स हुआ... मुझे मौत की गोद में सोने दे" से कुछ कुछ मिलता जुलता है। और इन दोनों गीतों में रहमान का स्टाइल साफ़ झलकता है। "सतरंगी" सोनू निगम की आवाज़ में था, और यह गीत गाया है कार्तिक ने। कार्तिक से रहमान ने फ़िल्म 'गजनी' में "बहका मैं बहका" गवाया था।
विश्व दीपक - कार्तिक ने हिंदी में बहुत कम गानें गाए हैं, लेकिन जो भी दो चार गानें इन्होने गाए हैं, सभी अच्छे हैं। उन्हे और ज़्यादा मौके मिलने चाहिए। इस गीत में बहुत सी अलग-अलग ध्वनियों का सहारा लिया गया है। कई उतार चढ़ाव को पार करते हुए ६ मिनट के इस गीत में कार्तिक एक ऐसे शख़्स के दिल की ख़्वाहिशें बयान करते हैं जो सारे बंधनों को तोड़ कर एक ज़िंदगी जीना चाहता है जो उसकी उसूलों पर हो।
गीत: बहने दे
सुजॊय - 'रावण' फ़िल्म का तीसरा गीत एक बार फिर "बीरा बीरा" के अंदाज़ का है। सुखविंदर सिंह की आवाज़ में एक ऐटिट्युड है, जो उन्होने कई गीतों में समय समय पर दिखाया है। इस गीत में भी उनकी गायकी का वही ऐटिट्युड भरा अंदाज़ सुनाई देता है। यह गीत है "ठोक दे किल्ली"
विश्व दीपक - इस गीत का संगीत संयोजन भी कमाल का है। ढोलक, पार्श्व में कोरस, शहनाई, और इलेक्ट्रिक गिटार, इन सब के फ़्युज़न से यह गीत एक प्रयोगधर्मी गीत बन गया है, और उस पर गुलज़ार साहब के ग़ैर पारंपरिक बोलों से गीत अनूठा बन गया है। लेकिन यह बात भी सच है कि इस तरह के गानें पूरी तरह से सिचुयशनल होते हैं जो फ़िल्म के परदे पर ही फ़िट बैठते हैं। आम जनता की ज़ुबाँ पर ये गानें मुश्किल से ही चढ पाते हैं।
सुजॊय - दरअसल यह फ़िल्म पर निर्भर करता है कि उसका संगीत किस तरह का होना चाहिए। अगर कहानी और प्लॊट अनुमति नहीं दे रहे हैं, तो संगीतकार भी कुछ ख़ास नहीं कर पाता। कुछ फ़िल्में संगीत के बलबूते पर चलती है और कुछ कहानी, अभिनय के बलबूते। उम्मीद करता हूँ कि यह फिल्म दोनों मायनों में सफ़ल हो।
विश्व दीपक - सुजोय जी, मैं आपकी बातों से इत्तेफ़ाक रखता हूँ। और वैसे भी कोई गाना कितना भी सिचुएशनल क्यों न हो, अगर उस गाने में रहमान और गुलज़ार साहब के नाम जुड़ जाते है, तो उस गाने का असर दूसरे सिचुएशनल गानों से कहीं ज्यादा होता है। जैसे कि इसी गाने को ले लीजिए... गुलज़ार साहब ने बड़े हीं आसान शब्दों (किल्ली, बिल्ली, खिल्ली, दिल्ली... ) में बहुत हीं बड़ी कह दी है.. उदाहरण के लिए यह पंक्ति "अबकी बार हिसाब चुका ले, छिन के ले ले अपना हिस्सा.. अपना खून भी लाल हीं होगा... खोल के देख ले खाल की झिल्ली"।
गीत: ठोक दे किल्ली
विश्व दीपक - चौथा गीत है "रांझा रांझा ना कर हीरे जग बदनामी होये"। रेखा भारद्वाज, जावेद अली और अनुराधा श्रीराम के गाए इस गीत से आपको सुभाष घई की फ़िल्म 'ताल' के संगीत की याद न आ जाए तो कहिएगा। लोक शैली पर बना यह गीत जोशीला भी है, सेन्शुयल भी है, और सूफ़ियाना अंदाज़ का है। लोक संगीत के साथ में मोडर्न बीट्स और गिटार का सुंदर फ़्युज़न किया गया है इस गाने में।
सुजॊय - अनुराधा श्रीराम की आवाज़ बहुत दिनों के बाद सुनने में आई है। गुलज़ार साहब के लोकशैली के बोल बेहद असरदार हैं। वैसे गीत के शुरुआती बोलों(रांझा-रांझा करदी वे मैं आप्पे रांझा होई.. रांझा-रांझा सद्दो नी मैनु हीर न आंके कोई) का क्रेडिट सूफ़ी कवि बाब बुल्ले शाह को दिया गया है। मेरा ख़याल है इस साल के टॊप-१० गीतों में यह गीत शोभा पाएगी, देखते हैं क्या होता है!
विश्व दीपक - जी हाँ, मुझे भी इस गीत से पुरी उम्मीद है। "रेखा भारद्वाज" अपनी आवाज़ से ऐसा मायाजाल बुनती हैं कि उससे बाहर निकलना हम जैसे संगीत के साधकों के लिए संभव नहीं। "रांझा-रांझा" कहते समय उनकी आवाज़ का "हस्कीनेस" चरम पर मालूम पड़ता है। जावेद अली रहमान के पसंदीदा गायक होते जा रहे हैं और इस गाने में रेखा भारद्वाज के साथ इन्हें मौका देकर (जबकि इन दोनों की गायन-शैली पूरी अलग है) रहमान ने जावेद अली में अपना यकीन दर्शाया है। वैसे मैं यह सोच रहा था कि अगर जावेद अली की जगह कैलाश खेर होते तो गाने का सूफ़ियाना असर कमाल का होता। हो सकता है कि रहमान ने कुछ और सोचा हो। चलिए हम यह गाना सुन लेते हैं।
गीत: रांझा रांझा
सुजॊय - 'रावण' का साउंडट्रैक विविधता से भरा है। अब जो पाँचवा गीत हम सुनने जा रहे हैं, वह एक बहुत ही नर्म और कर्णप्रिय गीत है रीना भारद्वाज की आवाज़ में। यह गीत है "खिली रे"। यह एक उपशास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत है। इसमें नवीन कुमार की बांसुरी और असद ख़ान का बजाया सितार सुनने को मिलता है। तबले का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
विश्व दीपक - रीना भारद्वाज की आवाज़ बहुत ही मीठी है, पता नहीं उन्हे गायन के ज़्यादा मौके क्यों नहीं मिल पाए हैं। रीना जी ने जितने भी गानें गाए है, वो ज़्यादातर रहमान के लिए ही हैं। फिर एक बार सिचुयशनल गीत होने की वजह से इसकी लोकप्रियता पर प्रशचिन्ह लग जाता है। इस गीत को ऐश्वर्य राय पर फ़िल्माया गया होगा और रीना जी की आवाज़ उन पर बहुत ही फ़िट बैठी है। यानी कि अच्छा प्लेबैक!!
गीत: खिली रे
विश्व दीपक - 'रावण' एल्बम का आख़िरी गीत एक समूहगान है "कटा कटा बकरा"। दरसल यह एक हास्य रस का गीत है। सिचुयशन है कि एक आदमी की शादी हो रही है और उसके दोस्त लोग उसका मज़ाक उड़ाते हुए गा रहे हैं "कटा कटा बकरा"। समूह स्वरों में आप इला अरुण, सपना अवस्थी और कुणाल गांजावाला की आवाज़ें भी महसूस कर सकते हैं।
सुजॊय - इतना हीं नहीं इन तीनों के अलावा इस गाने में आठ और आवाज़े हैं.. लगता है कि रहमान बैकिंग वोकल्स में भी कोई समझौता नहीं करना चाहते। जहाँ तक इला अरुण और सपना अवस्थी की गायकी का सवाल है तो इन दोनों की आवाज़ों में बहुत हद तक समानता है, लेकिन इससे पहले ये दोनों कभी साथ में सुनाई नहीं दी थीं।
विश्व दीपक -इस गीत का मूल भाव कुछ-कुछ फ़िल्म 'रोजा' के "रुकमणि रुकमणि" जैसा लगता है। सुनने मे आया है कि "कटा कटा" गीत के लिए मणिरत्नम ने ५०० डान्सर्स का सहारा लिया है और इस गीत की शूटिंग ५ दिनों में पूरी की गई है। बहुत सारे ड्रम, ढोलक, तालियों की थापें, और शहनाई से इस गाने का संयोजन किया गया है। इसके लिए श्रेय जाता है मशहूर संगीत संयोजक रंजीत बारोट को। क्या आपको इसमें 'जोधा अकबर' के "अज़ीम-ओ-शान शहन्शाह" की झलक मिलती है?
गीत: कटा कटा
"रावण" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
सुजॊय - तो विश्व दीपक जी, इस सभी ६ गीतों को सुनने के बाद मेरा रवैय्या इस फ़िल्म के साउंडट्रैक के बारे में यह बनता है कि रहमान ने नए क़िस्म का संगीत और संगीत संयोजन हमें दिया है, लेकिन सभी गीत सिचुयशनल होने की वजह से जनता की ज़ुबान पर चढ़ पाना मुश्किल सा लगता है। मेरी व्यक्तिगत पसंद है "रांझा रांझा" गीत। इस फ़िल्म को मेरी तरफ़ से शुभकामनाएँ!!!
विश्व दीपक - आपका अंदेशा बेबुनियाद नहीं है। हो सकता है कि ये गाने फिल्म रीलिज होने के बाद हीं लोगों को पसंद आएँ। लेकिन मेरा हमेशा हीं यह व्यक्तिगत मत रहा है कि रहमान के गाने लोगों की समझ और लोगों की ज़हन पर धीरे-धीरे चढते हैं। इन दिनों रहमान हर फिल्म में कोई नया प्रयोग कर रहे हैं और इस कारण संगीत की मामूली या नहीं के बराबर समझ रखने वाले लोगों को रहमान के ये प्रयोग अटपटे-से लगते हैं। फिर भी मैं हर किसी से यह गुजारिश करूँगा कि बस एक बार(या एक बार भी नहीं) सुनकर इन गानों को खारिज़ न करें। गानों को आप पर असर करने का समय दें, फिर देखना कि आप कैसे इन गानों के दिवाने हो जाते हैं।
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # ४६- रीना भारद्वाज ने अपना पहला गीत रहमान की धुन पर ही गाया था। फ़िल्म और गीत बताइए।
TST ट्रिविया # ४७- अनुराधा श्रीरम की गायकी में लोक शैली की झलक हम इससे पहले अनिल कपूर आभिनीत एक फ़िल्म में सुन चुके हैं। फ़िल्म और गीत बताइए।
TST ट्रिविया # ४८- यह अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्य राय की एक फ़िल्म का युगलगीत है। इस गीत के पुरुष गायक ने हृतिक रोशन के करीयर के पहली सुपरहिट फ़िल्म में भी एक धमाकेदार गीत गाया था। गीत के अंतरे में एक लाइन है "जीता था पहले भी मगर युं था लगता, सीने में शायद तेरी कुछ कमी है"। बताइए हम किस गीत की बात कर रहे हैं, फ़िल्म का नाम क्या है, और गायक कौन हैं?
TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:
१. इन तीनों फ़िल्मों में अभिनेताओं ने गीत गाए हैं, 'जोश' में शहरुख़ ख़ान (अपुन बोला तू मेरी लैला), 'हेल्लो ब्रदर' में सलमान ख़ान (चांदी की डाल पर सोने का मोर), और 'काइट्स' में हृतिक रोशन।
२. फ़िल्म 'अनुभव' के लिए राजेश रोशन ने गाया था "बाहों में आजा, सीने से मेरे तू लग जा सनम, दिल मेरा है बेक़रार"।
३. हृतिक ने ६ वर्ष की आयु में जीतेन्द्र - रीना रॊय अभिनीत फ़िल्म 'आशा' में पहली बार अभिनय किया था।
राजेश रोशन ने अपने करीयर में कई बार रबीन्द्र संगीत से धुन लेकर हिंदी फ़िल्मी गीत तैयार किया है। इनमें से सब से मशहूर गीत रहा है फ़िल्म 'याराना' का "छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा"। आज इस गीत की बारी 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में। क्योंकि यह गीत अंजान ने लिखा है, तो आज जान लेते हैं इस गीत के बारे में अनजान साहब के बेटे समीर क्या कह रहे हैं विविध भारती पर। "उन्होने (अंजान ने) मुखड़ा मुझे सुनाया "छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा", मुझे लगा कि बहुत ख़ूबसूरत गाना बनेगा। मगर जब हम गाँव से वापस आए और सिटिंग् हुई और रिकार्डिंग् पर जब गाना पहुँचा तो संजोग की बात थी कि रिकार्डिंग् में जाने से पहले तक प्रोड्युसर ने वो गाना नहीं सुना था। और रिकार्डिंग् में जब प्रोड्युसर आया और उन्होने जैसे ही गाना सुना तो बोले कि रिकार्डिंग् कैन्सल करो, मुझे यह गाना रिकार्ड नहीं करना है। उन्होने कहा कि इतना बेकार गाना मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं सुना, इतना खराब गाना राजु तुमने हमारी फ़िल्म के लिए बनाया है, मुझे यह गाना रिकार्ड नहीं करना है। अब राजेश रोशन का दिमाग़ उस ज़माने में, उनको ग़ुस्सा बहुत आता था, उन्होने कहा कि गफ़्फ़ार भाई, उनका नाम था गफ़्फ़ार नाडियाडवाला, सूरज नाडियाडवाला, हमीद नाडियादवाला, हमीद उसके प्रोड्युसर थे, हमीद, यह फ़िल्म बने ना बने, यह गाना रहे ना रहे, लेकिन यह गाना मैं रिकार्ड करने जा रहा हूँ और यह गाना मैं अपने पैसे से रिकार्ड करने जा रहा हूँ। और तुम अभी इसी वक़्त इस रिकार्डिंग् स्टुडियो से निकल जाओ, मुझे तुम्हारी शकल नही देखनी है, तुमको यह गाना नहीं समझ में आएगा, मैं यह गाना रिकार्ड करूँगा, तुमको इसका पैसा नहीं देना है, मैं अपने पैसे से रिकार्ड करूँगा। और उस आदमी ने अपने पैसे से वह गाना रिकार्ड किया और गाना रिकार्ड होके जब अमिताभ बच्चन तक पहुँचा तो उन्होने यह बात कही थी कि अगर यह गाना नहीं होगा तो मैं यह फ़िल्म नहीं करूँगा। और वह गाना माइलस्टोन बना।"
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत - छूकर मेरे मन को कवर गायन - रफीक शेख
ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं
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'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की पाँचवीं कड़ी में आज प्रस्तुत है १९६४ की फ़िल्म 'बहारें फिर भी आएँगी' का गीत "आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कसूर है"। इस गीत को मोहम्मद रफ़ी ने गाया है, ओ.पी. नय्यर ने स्वरबद्ध किया है, और लिखा है गीतकार अंजान ने। अंजान बनारस में कवि सम्मेलनों और मुशायरों में जाया करते थे। उन्हे हिंदी से बहुत लगाव था और अपनी रचनाओं में कम उर्दू का प्रयोग करते थे, लेकिन यह बात भी सच है कि बनारस में वो मुशायरों की शान थे। उनकी पकड़ उर्दू पर भी कम मज़बूत नहीं थी। इसका प्रमाण आज का प्रस्तुत गीत ही है। अंजान साहब लिखते हैं "जहाँ जहाँ पड़े क़दम वहाँ फ़िज़ा बदल गई, कि जैसे सर बसर बहार आप ही में ढल गई, किसी में यह कशिश कहाँ जो आप में हुज़ूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कसूर है"। अंजान ने अपनी फ़िल्मी करीयर शुरु की १९५३ में बनी प्रेम नाथ की फ़िल्म 'प्रिज़नर्स ऒफ़ गोलकोण्डा' में गीत लिख कर। फिर उसके बाद कई कम बजट फ़िल्मों में गीत लिखे। इनमें फ़िल्म 'लम्बे हाथ' का गाना लोकप्रिय हुआ था, "प्यार की राह दिखा दुनिया को, रोके जो नफ़रत की आंधी, तुम में ही कोई गौतम होगा, तुम में ही कोई होगा गांधी"। 'बहारें फिर भी आएँगी' गुरु दुत्त साहब की आख़िरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता। फ़िल्म को निर्देशित किया शाहिद लतीफ़ ने, लिखा अबरार अल्वी ने, और मुख्य कलाकार थे शर्मेन्द्र, माला सिन्हा, तनुजा और रहमान। महत्वपूर्ण बात इस फ़िल्म के बारे में यह है कि इस फ़िल्म का निर्माण गुरु दत्त साहब को नायक बना कर ही शुरु हुआ था, लेकिन उनकी अकाल मृत्यु की वजह से इसे फिर से शुरु करना पड़ा और इस बार धर्मेन्द्र को नायक बनाया गया। तो लीजिए १९६६ की इस फ़िल्म का यह यादगार गीत सुनिए।
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
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हेमंत बदया
हेमंत एक संगीतमय परिवार से हैं. बैंगलोर के श्री लक्ष्मी केशवा से इन्होने ललित संगीत और पंडित परमेश्वर हेगड़े से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गुर सीखे. टोरोंटो में रहने वाले हेमंत जी टीवी के अन्ताक्षरी और मस्त मस्त शोस में शान के साथ नज़र आये और कन्नडा संघ आईडल भी बने
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डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
यदि आप अपनी कविताओं/गीतों/कहानियों को एक प्रोफेशनल आवाज़ में डब्ब ऑडियो बुक के रूप में देखने का ख्वाब रखते हैं तो हमसे संपर्क करें-hindyugm@gmail.com व्यवसायिक संगीत/गीत/गायन से जुडी आपकी हर जरुरत के लिए हमारी टीम समर्पित है