'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में आप सभी का स्वागत है। पिछले हफ़्ते की प्रस्तुति के लिए हमें दो टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं थीं। उसमें पहली टिप्पणी थी इंदु जी की जिन्होंने शरद तैलंग जी की आवाज़ में गानें सुनना चाहा हैं। तो शरद जी, इंदु जी ने जो ज़िम्मेदारी हमें सौंपी थीं, वह अब हम आपको सौंप रहे हैं। जल्द से जल्द आप अपने स्वरबद्ध किए हुए द्ष्यंत कुमार की ग़ज़ल अपनी आवाज़ में रेकॊर्ड कर हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भेजें। और उस प्रस्तुति की दूसरी टिप्पणी थी महेन्द्र वर्मा जी का जिन्होंने हमसे ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल करने का अनुरोध किया है। तो महेन्द्र जी, इसके जवाब में हम यही कह सकते हैं कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का जो स्वरूप है, उसमें हम केवल सुनहरे दौर के फ़िल्मी गीत ही सुनवाते हैं और उनसे जुड़ी बातें करते हैं। ग़ैर फ़िल्मी गीतों और ग़ज़लों के लिए 'आवाज़' का एक दूसरा स्तंभ है 'महफ़िल-ए-ग़ज़ल' जो हर बुधवार को पेश होता है। उसमें आप अपनी पसंद पूरी कर सकते हैं और अपने सुझाव आप उस स्तंभ मे रख सकते हैं।
और अब आज के ईमेल की बारी। आज के इस अंक के लिए हमने हमारे जिस दोस्त का ईमेल चुना है, वो हैं ख़ानसाब ख़ान। इन्होंने हमें कई ईमेल भेजे हैं समय समय पर और 'ओल्ड इज़ गोल्ड'की तारीफ़ भी की है। उनके कुछ चुनिंदे ईमेलों का मिला-जुला रूप हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं। **********************************************************************
आदाब,
मैं आपकी इस शानदार जानदार महफ़िल में १३ अप्रैल को शामिल हुआ हूँ। मैं तो युंही शम्मी कपूर जी के बारे में पढ़ना चाह रहा था कि ये साइट खुल गई और आप से मुलाक़ात हो गई। मैं इससे पहले रेडियो पर भी ऐसे प्रोग्रामों में भाग ले चुका हूँ। मुझे इस तरह के प्रोग्राम बहुत बहुत अच्छे लगते हैं।
'सेहरा में रात फूलों की', इस शृंखला में आप ने तो, युं कहें कि फ़िल्म संगीत की ग़ज़लों के १० बेहतरीन मोती चुन कर हम सब को निहाल कर दिया है। ये सब कुछ पढ़कर, सुन कर इतना दिल को भाया कि ऐसा लगता है कि बस इन्हीं को सुनते जाएँ, सुनते जाएँ, बस सुनते ही जाएँ। काश कि ये शृंखला कुछ और लम्बी होती। आख़िर में जो ग़ज़ल आप ने चुनी, "फिर छिड़ी रात बात फूलों की", यह तो दिल-ओ-दिमाग़ में ही उतर गई है। ख़य्याम साहब का संगीत वाक़ई लाजवाब है। इतनी सुंदर शृंखला के लिए आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद।
रोज़ शाम को इस क़दर आप से मुलाक़ात होती है,
जाने आमने सामने ही हमारी युं बात होती है।
आपकी इस महफ़िल का क्या कहना, जितनी भी इसकी तारीफ़ की जाए कम लगता है। इतनी प्यारी प्यारी जानकारियाँ मिलती है कि पूछिए मत कि दिल को कितना अच्छा लगता है। मैं भी कभी कभी छोटी मोटी ग़ज़लें आसान उर्दू में ख़ुद बना लेता हूँ। मैं पिछले सात सालों से ऐसी करगुज़ारियाँ कर रहा हूँ। कभी मौका मिलता है तो कहीं छपवा भी देता हूँ। मैं आपकी इस महफ़िल में भी यह क़दम आगे बढ़ाना चाहता हूँ। अपनी लिखी हुई एक ग़ज़ल भेज रहा हूँ - आशिक़ी।
दिल में आशिक़ी का छाया जो सुरूर है,
दो दिलों के दरमियां कुछ तो जरूर है।
मिलते हैं तो धडकने लगता है ये दिल,
अब आप ही बताएं, ये क्या मेरे हुजूर है।
दूर नजरों से जाना अब और अच्छा नहीं,
नजरों की रूमानीयत में हम मगरूर हैं।
पल दो पल नहीं, सदियों तक साथ रहो,
तेरा साथ, मेरी दीवानगी का ग़ुरूर है।
मिल जाया कीजिए कभी इधर से जाते हुए,
मुलाकातें राहे-मुहब्बत का हंसी नूर है।
चले आओ, हम तन्हा तुम भी तन्हा हो,
फिजा में बहारें, चमन के कब रहती दूर है।
ख़ुदा हाफ़िज़!
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बहुत ख़ूब ख़ानसाब। आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आप ने जिस तरह से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की तारीफ़ की है, हम सचमुच बहुत ख़ुश हुए हैं और जैसे एक नया जोश आ गया है इसे और भी बेहतर बनाने के लिए। आपको 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला अच्छी लगी यह जानकर हमें भी बहुत अच्छा लगा। वाक़ई ख़य्याम साहब का संगीत बहुत ही सुकूनदायक है। जब भी उनके स्वरबद्ध गानें सुनें तो मन को एक अजीब सी शांति मिलती है। आप ने अपने ईमेल में लिखा है शम्मी कपूर जी के बारे में ढूंढ़ते हुए आप हमारी साइट पर आ धमके और युंही हमारे साथ आपकी मुलाक़ात हो गई। तो इसी बात पर हम कहेंगे वही जो नक्श ल्यालपुरी ने कहे थे ख़य्याम साहब की तर्ज़ पर कि "ये मुलाक़ात एक बहाना है, प्यार का सिलसिला पुराना है"। क्यों ना इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल का आनंद लिया जाए आज यहाँ पर! लता जी की आवाज़ में यह ग़ज़ल भी आपको उतनी ही अच्छी लगेगी जितनी "फिर छिड़ी रात" लगी थी। इस ग़ज़ल से जुड़ी यादें नक्श साहब ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहे थे, आइए उन पर भी नज़र दौड़ाते चलें।
"मैं उस वक़्त बहुत तंग हालातों से घिरा था जब ख़य्याम साहब ने पहली बार मुझे अपनी फ़िल्म में गाने लिखवाने के लिए बुलाया था। मेरी बीवी प्रेगनेण्ट थी और बच्चा उल्टा था। मेरे पास बहुत काम था और बीवी के लिए टेनशन तो थी ही। इसलिए मैंने पहले ख़य्याम साहब को मना कर दिया क्योंकि मैं मेन्टली अपसेट था। ख़य्याम साहब मुझसे दो गीत और जाँनिसार अख़्तर से दो गीत लिखवाना चाहते थे। उसके कुछ समय बाद हम लोग साथ में आए 'ट्रेन टू पाक़िस्तान' में जिसमें कैफ़ी आज़्मी साहब भी हमारे साथ थे। लेकिन वह फ़िल्म कभी नहीं बनी क्योंकि पाक़िस्तान में शूटिंग् करने का परमिशन नहीं मिल सकी। एक दिन मैं अपनी बैल्कनी पर बैठे अखबार पढ़ रहा था, जुहु में, कि ख़य्याम साहब ने सामने सड़क पर से आवाज़ दी कि एक प्रोड्युसर सुबह १० बजे उनसे मिलने आ रहे हैं अपनी नई फ़िल्म 'ख़ानदान' के लिए, और इसलिए ख़य्याम साहब चाहते हैं कि मैं उस फ़िल्म में गानें लिखूँ। मुझे दो गानें लिखने को कहा गया, दो गानें अनजान के पास गए और दो गानें मिले एम. जी, हशमत को। फ़िल्म के निर्देशक थे अनिल गांगुली जिनका 'कोरा काग़ज़' बहुत बड़ा हिट था और जिसमें हशमत साहब ने गानें लिखे थे। इसलिए वो चाहते थे कि हशमत साहब ही 'ख़ानदान' में गानें लिखे। किसी तरह से ख़य्याम साहब ने उन्हें राज़ी करवाया कि फ़िल्म के पहले दो गीत नक्शल्यालपुरी लिखेंगे। तब मैंने लिखा "ये मुलाक़ात एक बहाना, प्यार का सिलसिला पुराना है"। इस को सुनने के बाद सब ने अपना मन बदल दिया और मुझे फ़िल्म के सभी के सभी गीत लिखने का ऒफ़र दे दिया।"
ये मुलाक़ात एक बहाना है,
प्यार का सिलसिला पुराना है।
धड़कनें धड़कनों में खो जाएँ,
दिल को दिल के क़रीब लाना है।
मैं हूँ अपने सनम की बाहों में,
मेरे क़दमों तले ज़माना है।
ख़्वाब तो काँच से भी नाज़ुक है,
टूटने से इन्हें बचाना है।
मन मेरा प्यार का शिवाला है,
आपको देवता बनाना है।
गीत - ये मुलाक़ात एक बहाना है (ख़ानदान)
आप सभी के लिए हम कहेंगे कि मुलाक़ातों का सिलसिला युंही बनाए रखिएगा आगे भी। आप सभी तमाम दोस्त हमें ईमेल भेजते रहें, हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहें, अपनी यादें, यादगार लम्हें, पसंद के गानें और उनसे जुड़ी बातें और यादें हमारे साथ बांटिये हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर ईमेल भेज कर। कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक में, तब तक के लिए दीजिए इजाज़त, और अब सुनिए फ़िल्म 'ख़ानदान' का यह मीठा सा गीत। नमस्कार!
प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी