Saturday, January 22, 2011

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (२६)- प्रदीप चटर्जी नाम से कोई गीतकार नहीं -हरमंदिर सिंह 'हमराज़'



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में एक बार फिर आप सभी का हम स्वागत करते हैं। इस साप्ताहिक स्तंभ में हम साधारणतः 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' पेश किया करते हैं। कई बार यादों के ख़ज़ानें तो नहीं शामिल हो पाते, लेकिन जो भी पेश होता है वो ईमेल के बहाने से ही होता है। हर बार की तरह इस बार भी हम आप सभी से गुज़ारिश करते हैं कि इस शीर्षक को सार्थक करने के लिए आप अपने जीवन से जुड़ी किसी यादगार घटना या संस्मरण हमारे साथ बांटिये जिसे हम इस मंच के माध्यम से पूरी दुनिया के साथ बांट सके। ईमेल भेजने के लिए हमारा आइ.डी है oig@hindyugm.com।

दोस्तों, इसमें कोई शक़ नहीं कि इंटरनेट ने तथ्य तकनीकी और दूरसंचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, और ऐसी क्रांति आई है, ऐसा बदलाव लाया है कि अब इंटरनेट के बिना सब काम काज जैसे ठप्प सा हो जाता है। लेकिन जिस तरह से हर अच्छे चीज़ के साथ कुछ बुरी चीज़ें भी समा जाती हैं, ऐसा ही कुछ इंटरनेट के साथ भी है। जी नहीं, हम अश्लील वेबसाइटों की बात नहीं कर रहे; हम तो बात कर रहे हैं ग़लत जानकारियों की जो इंटरनेट पर अपलोड होते रहते हैं। दरअसल बात यह है कि इंटरनेट पर हर कोई अपना तथ्य अपलोड कर सकता है, अपने ब्लॊग या वेबसाइट या किसी सोशल नेटवर्किंग् साइट के ज़रिए। ऐसे में किसी भी दी जा रही जानकारी की सत्यता पर प्रश्न-चिन्ह लग जाता है। अब कैसे हर बात पर यकीन करें कि जो बात हम किसी वेबसाइट पर पढ़ रहे हैं, वह सच भी है या नहीं! तभी तो 'रिसर्च-पेपर्स' या डाक्टरेट की थीसिस में इंटरनेट से प्राप्त तथ्यों का रेफ़रेन्स मान्य नहीं होता। हम भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आलेख लिखते वक़्त जब इंटरनेट पर शोध करते हैं किसी गीत या फ़िल्म पर, तब हमें भी कुछ गड़बड़ी वाले तथ्य नज़र आ जाते हैं, और ऐसा नहीं है कि हम ख़ुद कभी ग़लतियाँ नहीं करते, हमसे भी कई बार जाने-अंजाने ग़लतियाँ हो जाती हैं, और वही बात हम पर भी लागू हो जाती है।

दोस्तों, पिछले दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चितलकर रामचन्द्र पर केन्द्रित लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' आयोजित की गई थी, जिसमें फ़िल्म 'पैग़ाम' का गीत शामिल हुआ था, जिसके बोल थे "दौलत ने पसीने को आज लात है मारी", जिसके गीतकार का नाम हमने बताया था कवि प्रदीप। अब क्योंकि कुछ वेबसाइटों पर इस फ़िल्म के गीतकार का नाम प्रदीप चटर्जी दिया गया है, तो हमारे कुछ मित्रों ने भी पहेली का जवाब देते वक़्त प्रदीप चटर्जी का नाम लिखा, जिस वजह से काफ़ी संशय पैदा हो गया गीतकार के नाम का। हम भी यकीन के साथ नहीं कर पाये कि क्या कवि प्रदीप और प्रदीप चटर्जी एक ही इंसान हैं या दो अलग। इंटरनेट पर काफ़ी खोजबीन करने के बाद भी जब मेरे हाथ कुछ ठोस ना लगा, तो मैंने सोचा कि क्यों ना उस इंसान से मदद माँगी जाये जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी हिंदी फ़िल्म गीत कोष तैयार करने में लगा दी है! जी हाँ, ठीक समझे आप, मैं हरमंदिर सिंह 'हमराज़' साहब की ही बात कर रहा हूँ। उन्होंने १९३१ से लेकर शायद १९९० तक के सभी फ़िल्मों के सभी गीतों को 'गीत-कोष' के रूप में प्रकाशित किया है और दशकों से 'लिस्नर्स बुलेटिन' नामक पत्रिका भी चला रहे हैं कानपुर से। तो मैंने जब हमराज़ जी को ईमेल भेजकर जानना चाहा कि आख़िर कवि प्रदीप और प्रदीप चटर्जी का क्या माजरा है और 'नास्तिक' और 'पैग़ाम' जैसी फ़िल्मों के गीतकार कौन हैं, तो उन्होंने तुरंत मेरे ईमेल का जवाब देते हुए कुछ ऐसा लिखा ---

"प्रदीप चटर्जी के नाम से कोई गीतकार १९३१ से लेकर अब तक इस फ़िल्म इण्डस्ट्री में नहीं हुए हैं। वो कवि प्रदीप ही थे, दादा साहब फाल्के सम्मानित, जिन्होंने 'नास्तिक' और 'पैग़ाम' में गीत लिखे हैं। यहाँ हर कोई आज़ाद है इंटरनेट पर लोगों को गुमराह करने के लिए। लखनऊ में एक डॊ. डी. सी. अवस्थी रहते हैं जिन्हें कवि प्रदीप पर शोध करने के लिए डाक्टरेट की डिग्री दी गई है।"

तो दोस्तों, आशा है आप सभी का संशय अब दूर हो गया होगा, प्रदीप चटर्जी नामक कोई गीतकार नहीं है, प्रदीप के नाम से जितने भी गीत आते हैं, वो सब कवि प्रदीप के ही लिखे हुए हैं, जिनका जन्म मध्य प्रदेश में हुआ है और जो बंगाली तो बिल्कुल नहीं हैं, इसलिए चटर्जी होने का सवाल ही नहीं। हाँ, आपकी जानकारी के लिए यह बता दूँ कि पंडित प्रदीप चटर्जी एक शास्त्रीय गायक ज़रूर हैं और यूट्युब में आप उनका गायन सुन सकते हैं। ख़ैर, अब आपको एक गीत सुनवाने की बारी है। कवि प्रदीप का लिखा एक ऐसा गीत आज सुनिए जिसे आप ने बहुत दिनों से नहीं सुना होगा, ऐसा हम दावा करते हैं। क्योंकि कवि प्रदीप का उल्लेख सी. रामचन्द्र पर केन्द्रित शृंखला में आयी है, इसलिए आज जिस गीत को हमने चुना है, उसे कवि प्रदीप ने लिखा और सी. रामचन्द्र ने ही स्वरबद्ध किया है। यह साल १९६० की फ़िल्म 'आँचल' का गीत है जिसे आशा भोसले, सुमन कल्याणपुर और सखियों ने गाया है। "नाचे रे राधा", यह एक नृत्य गीत है, बड़ा ही मीठा गाना है, हमें उम्मीद है कि गीत सुनते वक़्त आपके क़दम भी थिरक उठेगे, मचल उठेंगे। गीत की एक और खासियत है कि इसके दो वर्ज़न हैं, दोनों में वही आवाज़ें हैं लेकिन बोल अलग हैं। आइए ये दोनों वर्ज़न सुना जाये एक एक करके। गीत का संगीत संयोजन भी कमाल का है, बेहद सुरीला है। 'आँचल' वसंत जोगलेकर निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, नंदा, निरुपा रॊय और ललिता पवार। नंदा को इस फ़िल्म के लिए फ़िल्मफ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था और ललिता पवार भी इसी पुरस्कार के लिए नामांकित हुई थीं।

गीत - नाचे रे राधा -१ (आँचल)


गीत - नाचे रे राधा -२ (आँचल)


तो दोस्तों, ये था इस हफ़्ते का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', आपको यह गीत सुनकर कैसा लगा ज़रूर बताइएगा, और हमें ईमेल ज़रुर कीजिएगा अपने सुझावों और अपने जीवन की किसी यादगार घटना के साथ, oig@hindyugm.com के पते पर।

Thursday, January 20, 2011

मेरे नैना सावन भादो, फिर भी मेरा मन प्यासा....दर्द की ऐसी गहरी अभिव्यक्ति वाकई दुर्लभ है दोस्तों



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 575/2010/275

ल्बर्ट आइन्स्टाइन ने कहा था कि "Energy can neither be created, nor destroyed; it can only be transformed from one form to another"| उधर हज़ारों साल पहले गीता में भी तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था कि आत्मा अमर है, वह बस एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर का रूप धारण कर लेती है। क्या आइन्स्टाइन और गीता की इन दो बातों का आपस में कोई ताल्लुख़ है? और अगर है तो क्या पुनर्जनम को वैज्ञानिक स्वीकृति दी जा सकती है? 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस अजीब-ओ-गरीब शृंखला में जिसका नाम है 'मानो या ना मानो'। जी हाँ, यह पूर्णत: आप पर है कि आप किस बात पर यकीन करे और किस बात पर नहीं। और हम भी आप पर कुछ थोपना नहीं चाहते। किसी भी बात को अपनी बुद्धि और ज्ञान से तोलकर उस पर विश्वास करना ही उचित है। हम तो बस इस शृंखला में ऐसी बातें और घटनाएँ बता रहे हैं जो प्रचलित हैं, मशहूर हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि विज्ञान सम्मत भी हो। ख़ैर, जैसा कि कल हमने वादा किया था कि आज की कड़ी में हम आपको दो मशहूर पुनर्जनम की कहानियाँ बताएँगे, तो लीजिए पहली कहानी यह रही। हम सब के दिलों में कल्पना चावला की यादें तो अब तक ताज़ी होंगी। जी हाँ, वही ऐस्ट्रॊनौट कल्पना चावला जिनका १ फ़रवरी २००३ को कोलम्बिया स्पेस शटल में महाकाश से वापसी के दौरान मृत्यु हो गई थी जब वह स्पेस शटल पृथ्वी पर पहूँचने से पूर्व टुकड़े टुकड़े हो गया था। २३ मार्च २००३ को बुलंदशहर, उत्तर-प्रदेश में उपासना का जन्म हुआ जिसके बारे में सुना जाता है कि वह कल्पना चावला का पुनर्जनम है। जब उपासना चार साल की थी, वह कहती थी कि उसे हवाईजहाज़ से डर लगता है क्योंकि उसकी मृत्यु एक एयरक्रैश में हुई थी। उसने कल्पना चावला के पिता का नाम भी सटीक बता दिया था और यही नहीं कल्पना चावला के तमाम प्रोफ़ेसर्स और मेण्टर्स के नाम भी बड़ी फ़ुर्ती के साथ बता दिये थे। अब आप ही बताइए कि कल्पना चावला के प्रोफ़ेसर्स के नाम इस छोटे से शहर की इस नन्ही सी बच्ची को कैसे मालूम होगा? बात यहीं पे ख़त्म नहीं होती, उपासना के पिता राज कुमार ने यह बताया कि जब से उपासना ने बोलना सीखा है, वह अपना नाम कल्पना चावला ही बताती थी। वैसे यह भी सच है कि वैज्ञानिक तौर पर उपासना के पुनर्जनम की इस कहानी की पुष्टि नहीं हो पायी है। दूसरी कहानी है उत्तर-प्रदेश के सहारनपुर के बिलासपुर गाँव के १४ साल के राजेश की, जो नवीं कक्षा का छात्र है। राजेश उस वक़्त सबकी नज़र में छा गया जब उसने यकायक बिल्कुल शुद्ध अमेरिकी उच्चारण में अंग्रेज़ी बोलने लगा। वह अपनी मातृ भाषा भूल गया और ऐसे बात करने लगा जैसे कोई ४० वर्ष का वैज्ञानिक बात करता है। यही नहीं, वह दूसरे छात्रों को फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री तक पढ़ाने लग पड़ा। वह ऐसी ऐसी बातें ब्लैकबोर्ड पर लिखने लगा कि सभी चकित रह गये। वह महाकाशविज्ञान की बातें करता रहता। लेकिन ना तो वो कभी अमेरिका गया है और ना ही किसी से अंग्रेज़ी बोलना सीखा है। हुआ कुछ ऐसा था कि राजेश का पिता, जो एक मानसिक रोगी था, एक बार अपने ही सर पे चोट लगा ली और बहुत बुरी तरह ज़ख्मी हो गये। अपने पिता की ऐसी हालत देख राजेश ने भी चुप्पी साध ली और तीन महीनों तक एक शब्द मुंह से नहीं निकाला और अपने कमरे में बंद रहने लगा। तीन महीने बाद जब वो बाहर आया तो पूरी तरह से बदल चुका था। उसकी भाषा उसकी अनपढ़ माँ नहीं समझ पाती थी। लोग कहने लगे कि शायद राजेश किसी अमेरिकी वैज्ञानिक का पुनर्जनम है, जिसे अपने पिछले जनम की याद आ गयी है। लेकिन यह सिद्ध नहीं हो सका कि उस अमेरिकी वैज्ञानिक का नाम क्या था। अब क्या यह पुनर्जनम का मिसाल है या 'स्प्लिट पर्सनलिटी' का, यह तो शोध से ही पता चलेगा।

पुनर्जनम की जिस फ़िल्म का आज हम गीत सुनेंगे, वह है 'महबूबा'। राजेश खन्ना और हेमा मालिनी अभिनीत इस फ़िल्म के गानें तो आप सभी ने सुने ही होंगे। "मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा"। लता और किशोर का डबल-वर्ज़न गीत है, आज हम सुनेंगे इस गीत को किशोर दा की आवाज़ में। इस गीत के बारे में ख़ुद पंचम से जानने से पहले आपको यह बता दें कि राजेश खन्ना और हेमा मालिनी ने साथ में एक और पुनर्जनम पर आधारित फ़िल्म की थी, जिसका नाम था 'कुद्रत'। "मेरे नैना सावन भादों" राग शिवरंजनी पर आधारित है। इस गीत से जुड़ा एक मज़ेदार क़िस्सा बता रहे हैं इस गीत के संगीतकार राहुल देव बर्मन। "यह गाना लताबाई ने भी गाया और किशोर दा ने भी। मैंने जब गाना सुनाया तो किशोर दा ने कहा कि 'नहीं भाई, यह गाना तो मुझसे नहीं होगा, तुम लता को पहले गवाओ'। मैंने लता जी को जाकर रिक्वेस्ट किया, उसके बाद किशोर दा को कहा कि यह शिवरंजनी राग है। वो बोले 'राग की तो ऐसी की तैसी, मुझे गाना सुनाओ लता का गाया हुआ, मैं बाइ-हार्ट करके वैसा ही गाऊँगा'। तो उन्होंने गाना सुना और कम से कम ७ दिनों तक सुनते रहे, उनके गाने के बाद ऐसा नहीं लग रहा था कि वो सीख कर गा रहे हैं। वो मन से ही गा रहे हैं। कितना डेडिकेशन था उनमें!" जी हाँ दोस्तों, किशोर दा के इसी डेडिकेशन को सलाम करते हुए सुनते हैं आनंद बक्शी का लिखा फ़िल्म 'महबूबा' का यह सदाबहार हौण्टिंग् नंबर।



क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी को तीन बार फ़िल्मफ़ेयर के तहत सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कर मिला - "आदमी मुसाफ़िर है" (अपनापन), "तेरे मेरे बीच में" (एक दूजे के लिए) और "तुझे देखा तो ये जाना सनम" (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे) गीतों के लिए।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक और शानदार सस्पेंस थ्रिल्लर.

सवाल १ - गीतकार बताएं - 2 अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी आपने दूसरी कोशिश में और अंजाना जी ने तीसरी कोशिश में सही जवाब पकड़ा, पर शरद जी भी ठीक समय पर आये और अमित जी के ही बराबर २ अंक के हकदार बन गए...कह सकते हैं कि अमित जी भाग्यशाली रहे कल कि समय रहते उन्हें सही राग याद आ गया. हाँ पर हमारे अवध जी पहली बार में ही सही जवाब के साथ हाज़िर हुए, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, January 19, 2011

तुझको पुकारे मेरा प्यार.....पुनर्जन्म के प्रेमी की सदा रफ़ी साहब के स्वरों में भीगी हुई



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 574/2010/274

'मानो या ना मानो' शृंखला में पिछले तीन अंकों में हमने आपको बताया देश विदेश की कुछ ऐसी जगहों के बारे में जिन्हे हौण्टेड माना जाता है, हालाँकि ऐसा मानने के पीछे कोई ठोस वजह अभी तक विज्ञान विकसित नहीं कर पाया है। ख़ैर, आगे बढ़ते हैं इस शृंखला में और आज हम चर्चा करेंगे पुनर्जनम की। जी हाँ, पुनर्जनम, जिसे लेकर भी लोगों में उत्सुक्ता की कोई कमी नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में ५०% जनता पुनर्जनम में यकीन रखता है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसके पीछे क्या कारण है? शायद हिंदु आध्यात्म, और शायद समय समय पर मीडिया में पुनर्जनम के क़िस्सों का दिखाया जाना। भोपाल के Government Arts & Commerce College के प्रिंसिपल डॊ. स्वर्णलता तिवारी पुनर्जनम का एक मशहूर उदाहरण है। उनके पुनर्जनम की कहानी दुनिया की उन ७ पुनर्जनम कहानियों में से है जिन पर वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। एक मुलाक़ात में स्वर्णलता जी ने अपने तीन जन्मों के बारे में बताया है। आइए उनके इस दिलचस्प और रहस्यमय पुनर्जनम घटना क्रम को और थोड़ा करीब से देखा जाये। २ मार्च १९४८ में स्वर्णलता का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने माता-पिता को उस समय भयभीत कर दिया जब उन्होंने उन्हें बताया कि उनका नाम दरअसल बिया पाठक है और वो पहले कटनी में रहती थीं। तफ़तीश करने पर पता चला कि बिया पाठक नाम की महिला का १९३९ में निधन हुआ था। बिया का फिर जनम हुआ कमलेश के नाम से सन् १९४० में असम के सिल्हेट में (सिल्हेट अब बंगलादेश का हिस्सा है), और बहुत ही कम उम्र में १९४७ में कमलेश का भी निधन हो गया। १९४८ में कमलेश ने फिर जनम लिया स्वर्णलता के रूप में मध्य प्रदेश के शाहपुर तिकमगढ़ ज़िले में। स्वर्णलता को अपने पहले के दोनों जन्मों की कहानी याद है और तीनों बार उनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ है। उनके इस पुनर्जनम की कहानी का वर्जिनीया विश्वविद्यालय के मशहूर प्रोफ़ेसर डॊ. इयान स्टीवेन्सन ने तदंत किया और इस सिलसिले में वो १९९७ में भारत भी आये थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में स्वर्णलता की कहानी को "authentically correct" करार दिया। वर्तमान में स्वर्णलता भोपाल में अपने पति के. पी. तिवारी के साथ रहती हैं जो एक सीनियर आइ. पी. एस. अफ़सर हैं। स्वर्णलता ख़ुद एक बोटानिस्ट हैं और उनके दो बेटे हैं। दोस्तों, स्वर्णलता के बारे में जानकर शायद आप में से जो लोग अब तक पुनर्जनम पर यकीन नहीं करते थे, हमारी इस रिपोर्ट ने आपको भी सोचने पर मजबूर कर दिया होगा। दोस्तों, अगर यह क़िस्सा किसी अनपढ़ गँवार ग्रामीण महिला से जुड़ा होता तो हम शायद यकीन ना करते, लेकिन जब किसी नामी कॊलेज के प्रिंसिपल ने ख़ुद यह बताया तो इसमें कुछ तो सच्चाई ज़रूर होगी। पुनर्जनम की दो और मशहूर क़िस्सों के बारे में हम कल की कड़ी में फिर से चर्चा करेंगे।

जहाँ तक पुनर्जनम का हिंदी फ़िल्मों से संबंध है, तो इस राह पर भी हमारे फ़िल्मकार चले हैं। 'महल' फ़िल्म की चर्चा हम कर चुके हैं। उसके बाद १९५८ में आयी थी फ़िल्म 'मधुमती' जिसने 'महल' के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिये। 'मधुमती' फ़िल्म के बारे में आप भी जानते हैं और हमने भी कई कई बार इस फ़िल्म को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल किया है। इसलिए आज 'मधुमती' की यादों को एक तरफ़ रखते हुए आगे बढ़ते हैं, और पहूँच जाते हैं ६० के दशक में। आपको याद होगा एक फ़िल्म आयी थी 'नीलकमल', जिसमें नीलकमल (वहीदा रहमान) का पुनर्जनम हुआ था सीता के नाम से। नीलकमल का प्रेमी था चित्रसेन (राजकुमार) और उस जनम में दोनों का मिलन नहीं हो पाया था, जिस वजह से चित्रसेन की आत्मा भटक रही थी महल में जो एक खण्डहर में परिवर्तित हो चुका था। उधर नीलकमल का दोबारा जन्म होता है सीता के रूप में। लेकिन उसे अपने पिछले जन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं। सीता का राम (मनोज कुमार) से विवाह होता है, लेकिन जल्द ही उसे नींद में किसी के पुकारने की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं। और वो नींद में ही उठकर घर से निकल जाती है, जैसे कोई उसे अपनी ओर खींच ले जा रहा हो। ऐसे में सीता के ससुराल वाले उस पर शक़ करते हैं कि रात के वक़्त नई नवेली बहू कहाँ जाती है! और एक रोज़ उसकी सास उसे घर से ही निकाल देती है। अंत में सीता उस महल में पहूँच जाती है जहाँ चित्रसेन की आत्मा उसका इंतज़ार कर रहा होता है। फ़िल्म का अंत कैसे होता है, यह तो आप ख़ुद ही देख लीजिएगा, हम तो बस इतना कहेंगे कि जिस गीत के माध्यम से चित्रसेन की आत्मा नीलकमल को अपनी ओर आकर्षित करती थी, वह गाना था "तुझको पुकारे मेरा प्यार, आजा मैं तो मिटा हूँ तेरी चाह में"। बहुत ही मशहूर गीत इस फ़िल्म का, और सिर्फ़ यह गीत ही क्यों, 'नीलकमल' के तमाम गीत हिट हुए थे। साहिर और रवि की जोड़ी का एक बेहद चर्चित फ़िल्म। रफ़ी साहब की आवाज़ में इस हौण्टिंग् नंबर के आनंद लेने का आज के अंक से बेहतर भला और कौन सा अंक हो सकता है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। तो आइए सुनते हैं चित्रसेन की सदा नीलकमल



क्या आप जानते हैं...
कि 'नीलकमल' का यह गीत "तुझको पुकारे मेरा प्यार" राग पहाड़ी पर आधारित है।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 05/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इतना बहुत है इस यादगार गीत को पहचानने के लिए.

सवाल १ - किस मशहूर राग पर आधारित है ये गीत - 2 अंक
सवाल २ - इस फिल्म की सफल जोड़ी ने एक और पुनर्जन्म पर आधारित फिल्म में साथ काम किया था, उस फिल्म का नाम बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अमित जी और शरद जी का जलवा है, और अनजाना जी अनजान मत रहिये प्लीस

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, January 18, 2011

झूम झूम ढलती रात....सिहरन सी उठा जाती है लता की आवाज़ और कमाल है हेमन्त दा का संगीत संयोजन भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 573/2010/273

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, आप सभी को हमारा नमस्कार! पिछली दो कड़ियों में हमने आपको भारत के दो ऐसे जगहों के बारे में बताया जिनके बारे में लोगों की यह धारणा बनी हुई है कि वहाँ पर भूत-प्रेत का निवास है। हालाँकि वैज्ञानिक तौर पर कुछ भी प्रमाणित नहीं हो पाया है, लेकिन इस तरह की बातें एक बार फैल जाये तो ऐसी जगहों से लोग ज़रा दूर दूर रहना ही पसंद करते हैं। और हमने आपको दो ऐसी ही सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्मों की कहानियां भी बताई - 'महल' और 'बीस साल बाद', और इन फ़िल्मों से लता मंगेशकर के गाये दो हौण्टिंग् नंबर्स भी सुनवाये। दोस्तों, आज हम अपने देश की सीमाओं को लांघ कर ज़रा विदेश में जा निकलते हैं। यकीन मानिए, भूत प्रेत की जितनी कहानियाँ हमारे यहाँ मशहूर हैं, उतनी ही कहानियाँ हर देश में पायी जाती है। आइए अलग अलग देशों के कुछ ऐसी ही जगहों के बारे में आज आपको बतायी जाये। ऒस्ट्रेलिया के विक्टोरिया शहर में एक असाइलम है, जिसका नाम है 'बीचवर्थ लुनाटिक असाइलम'। कहते हैं कि यहाँ पर कई मरीज़ों की आत्माएँ निवास करती हैं। यह असाइलम १८६७ में बनी थी और १९९५ में इसे बंद कर दिया गया। उसके बाद अब वहाँ कोई नहीं रहता लेकिन अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें अब भी सुनने को मिलती है रातों में। ब्राज़िल के साओ-पाओलो में जोल्मा बिल्डिंग् में १ फ़रवरी १९७४ को भीषण आग लगी थी। उस अग्निकाण्ड में १३ लोगों की लिफ़्ट के अंदर जलकर मौत हो गई थी। सुनने में आता है कि अब भी उनकी आत्माएँ उस बिल्डिंग् में भटकती हैं। वह बिल्डिंग् अब भी "Mystery of the Thirteen Souls" के नाम से मशहूर है। इण्डोनेशिया में एक जगह है पेलाबुहन रातु। पौराणिक कहानी के अनुसार राजा प्रभु सिलिवांगी की बेटी रोरो किदुल, जिन्हें Queen of the South Sea कहा जाता था, ने उसी दक्षिणी समुद्र (South Sea) में कूदकर आत्महत्या की थी। अब लोग कहते हैं कि आज भी अगर कोई उस समुद्र में हरे रंग की पोशाक पहनकर तैरने जाता या जाती है, तो रोरो की आत्मा उसे समुंदर के गहरे में खींच ले जाती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 'समुद्र बीच होटल' का कमरा नं-३०८ आज भी आरक्षित है रानी के लिए। ताइवान के ताइपेइ में हयात होटल में भूतों का निवास है, और तभी तो उसकी लॊबी में चीनी भाषा में भूत-निवारण का इंतज़ाम देखा जा सकता है। सिंगापुर में 'The Old Changi Hospital' में भूतों का वास है ऐसा कहा जाता है। ३० के दशक में इस अस्पताल का निर्माण हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्धबंधियों को अस्पताल में बंदी बनाकर रखा जाता था और बाद में मौत के घाट उतार दिया जाता था। कहा जाता है कि विभिन्न जाति और देशों के युद्दबंधियों की आत्माएँ महसूस की जा सकती है आज भी। और दोस्तों, सब से ज़्यादा भूत-प्रेत की कहानियाँ जिस देश में सुनी जाती है, वह है इंगलैण्ड। इसलिए हमने सोचा कि इस देश की प्रचलित भूतिया क़िस्सों को हम आगे चलकर एक अंक में अलग से पेश करेंगे। ये सब तो थे ऐसे क़िस्से जो सालों से, दशकों से, युगों से लोगों की ज़ुबाँ से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, लेकिन वैज्ञानिक तौर पर किसी की भी पुष्टि नहीं हो पायी है। लेकिन हम बस इन घटनाओं और क़िस्सों को बताकर ही इस शृंखला का समापन नहीं करेंगे। आगे चलकर इस शृंखला में एक ऐसा भी अंक पेश होगा जिसमें हम भूत-प्रेत और आत्माओं के अस्तित्व को लेकर वैज्ञानिक चर्चा भी करेंगे।

आइए आज सुनते हैं हेमंत कुमार की ही एक और सस्पेन्स थ्रिलर 'कोहरा' का एक डरावना गीत - "झूम झूम ढलती रात, लेके चली मुझे अपने साथ"। फिर एक बार लता जी की आवाज़, हेमंत दा का संगीत, कैफी आज़मी के बोल, और फिर एक बार एक सफल सस्पेन्स थ्रिलर। इस फ़िल्म की कहानी के बारे में भी आपको बताना चाहेंगे। अपने पिता के मौत के बाद राजेश्वरी अनाथ हो जाती है, और बोझ बन जाती है एक विधवा पर जो माँ है एक ऐसे बेटे रमेश की जिसकी मानसिक हालत ठीक नहीं। उस औरत का यह मानना है कि अगर राजेश्वरी रमेश से शादी कर ले तो वो ठीक हो जाएगा। लेकिन राजेश्वरी को कतई मंज़ूर नहीं कि वो उस पागल से शादी करे, इसलिए वो आत्महत्या करने निकल पड़ती है। लेकिन संयोगवश उसकी मुलाक़ात हो जाती है राजा अमित कुमार सिंह से। दोनों मिलते हैं, उन्हे एक दूजे से प्यार हो जाता है, और फिर वे शादी कर लेते हैं। राजेश्वरी का राजमहल में स्वागत होता है। इस ख़ुशी को अभी तक वो हज़म भी नहीं कर पायी थी कि उसे पता चलता है कि अमित का पूनम नाम की किसी लड़की से एक बार शादी हुई थी जो अब इस दुनिया में नहीं है। और तभी शुरु होता है डर! राजेश्वरी को महसूस होता है कि पूनम की आत्मा अब भी महल में मौजूद है। ख़ास कर उनके शयन कक्ष में जहाँ वो देखती है कि कुर्सियाँ ख़ुद ब ख़ुद हिल रहीं हैं, बिस्तर पर बैठते ही लगता है कि जैसे अभी कोई लेटा हुआ था वहाँ, खिड़कियाँ अपने आप ही खुल जाया करती हैं, और उसे किसी की आवाज़ भी सुनाई देती है। और फिर एक दिन पुलिस बरामद करता है पूनम का कंकाल!!! किसने कत्ल किया था पूनम का? क्या अमित ही ख़ूनी है? क्या वाक़ई पूनम की आत्मा भटक रही है हवेली में? अब क्या होगा राजेश्वरी का? यही थी कोहरा की कहानी, जो अपने ज़माने की एक मशहूर सस्पेन्स थ्रिलर रही। तो लीजिए आज का गीत सुनिए....



क्या आप जानते हैं...
कि हेमन्त कुमार 'बीस साल बाद' के "कहीं दीप जले कहीं दिल" को पहले पहले गीता दत्त से गवाना चाह रहे थे। पर उनके घर में रिहर्सल के दौरान "ज़रा मिलना नज़र पहचान के" का वह आवश्यक नाज़ुक लहज़ा जब गीता नहीं ला पाई तो हेमन्त ने उनसे माफ़ी माँग कर लता को बुला लिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इतना बहुत है इस यादगार गीत को पहचानने के लिए.

सवाल १ - गीतकार बताएं - 2 अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी छाये हुए हैं, शरद जी और इंदु जी भी सही हैं...इंदु जी हम बढ़ावा नहीं दे रहे हैं....की ये जो फ़िल्में हैं इन बातों को बढ़ाव दे रही है ? नहीं दरअसल इन सब में मानव मन की स्वाभाविक दिलचस्पी रहती है, तो महज उसे बांटा जा रहा है. कृपया लडें नहीं बाबा....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

"यमला पगला दीवाना" का रंग चढाने में कामयाब हुए "चढा दे रंग" वाले अली परवेज़ मेहदी.. साथ है "टिंकू जिया" भी



Taaza Sur Taal 02/2011 - Yamla Pagla Deewana

"अपने तो अपने होते हैं" शायद यही सोच लेकर अपना चिर-परिचित देवल परिवार "अपने" के बाद अपनी तिकड़ी लेकर हम सब के सामने फिर से हाजिर हुआ है और इस बार उनका नारा है "यमला पगला दीवाना"। फिल्म पिछले शुक्रवार को रीलिज हो चुकी है और जनता को खूब पसंद भी आ रही है। यह तो होना हीं था, जबकि तीनों देवल अपना-अपना जान-पहचाना अंदाज़ लेकर परदे पर नज़र आ रहे हों। "गरम-धरम" , "जट सन्नी" और "सोल्ज़र बॉबी"... दर्शकों को इतना कुछ एक हीं पैकेट में मिले तो और किस चीज़ की चाह बची रहेगी... हाँ एक चीज़ तो है और वो है संगीत.. अगर संगीत मन का नहीं हुआ तो मज़े में थोड़ी-सी खलल पड़ सकती है। चूँकि यह एक पंजाबी फिल्म है, इसलिए इससे पंजाबी फ़्लेवर की उम्मीद तो की हीं जा सकती है। अब यह देखना रह जाता है कि फ़िल्म इस "फ़्रंट" पर कितनी सफ़ल हुई है। तो चलिए आज की "संगीत-समीक्षा" की शुरूआत करते हैं।

"यमला पगला दीवाना" में गीतकारों-संगीतकारों और गायक-गायिकाओं की एक भीड़-सी जमा है। पहले संगीतकारों की बात करते हैं। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (ओरिजनल "मैं जट यमला पगला दीवाना" .. फिल्म "प्रतिज्ञा" से), अनु मलिक, संदेश सांडिल्य, नौमान जावेद, आर०डी०बी० एवं राहुल बी० सेठ.. इन सारे संगीतकारों ने फिल्म के गानों की कमान संभाली है और इनके संगीत पर जिन्होंने बोल लिखे हैं वे हैं: आनंद बक्षी (ओरिजनल "मैं जट यमला पगला दीवाना"), धर्मेन्द्र (जी हाँ, अपने धरम पा जी भी अब गीतकार हो गए हैं, इन्होंने फिल्म में "कड्ड के बोतल" नाम का गाना लिखा है), इरशाद कामिल, नौमान जावेद, राहुल बी० सेठ एवं आर०डी०बी०।

इस बार से हमने निर्णय लिया है कि हम फिल्म के सारे गाने नहीं सुनवाएँगे, बस वही सुनवाएँगे एलबम का सर्वश्रेष्ठ गाना हो या कि जिसे जनता बहुत पसंद कर रही हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए, आईये हम और आप सुनते हैं "अली परवेज़ मेहदी" की आवाज़ों में "चढा दे रंग":

Chadha de rang



Chadha de rang (Sad version)



हमारा यह सौभाग्य है कि हमें "परवेज़ मेहदी" से कुछ सवाल-जवाब करने का मौका हासिल हुआ। हमारे अपने "सजीव जी" ने इनसे "ई-मेल" के द्वारा कुछ सवाल पूछे, जिनका बड़े हीं प्यार से परवेज़ भाई ने जवाब दिया। यह रही वो बातचीत:

आवाज़: परवेज़ भाई फिल्म "यमला पगला दीवाना" में हम आपका गाना सुनने जा रहे हैं, हमारे श्रोताओं को बताएँ कि कैसा रहा आपका अनुभव इस गीत का।

अली परवेज़: निर्माता-निर्देशक समीर कार्णिक और देवल परिवार के लिए काम करने में बड़ा मज़ा आया, बॉलीवुड के लिए यह मेरा पहला गाना है। मैंने इस गाने के लिए इतनी बड़ी सफ़लता की उम्मीद नहीं की थी, आम लोगों को गाना अच्छा लगा हीं है लेकिन गाने के समझदार लोगों से भी वाह-वाह मिली है..और वो मेरे लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात है।

आवाज़: जी सही कहा आपने। अच्छा यह बताईये कि इस गीत को राहत साहब ने भी गाया है, लेकिन एलबम में आपकी आवाज़ को पहली तरजीह दी गई है, इससे बेहतर सम्मान की बात क्या हो सकती है.. आप इस बारे में क्या सोचते हैं।

अली परवेज़: राहत साहब के बारे में जो भी कहूँ वो कम होगा। उनको कौन नहीं जानता, उनको किसने नहीं सुना, ये तो मेरी खुश-नसीबी है कि मुझे भी वो हीं गाना गाने का मौका मिला जो उनसे गवाया गया था। अब मुझे क्यों पहली तरजीह दी गई है, इसे जनता से बेहतर भला कौन बता पाएगा?

आवाज़: अपने अब तक के संगीत-सफ़र के बारे में भी संक्षेप में कुछ कहें।

अली परवेज़: जनाब परवेज़ मेहदी साहब मेरे वालिद थे, और वो हीं मेरे सबसे बड़े गुरू थे और मेरे सबसे बड़े आलोचक भी.. वो हीं मेरे गुणों के पारखी थे। उनका अपना घराना था, अपनी गायकी थी... बस मैं उनकी बनाई हुई इस संगीत की राह पर कुछ सुरीला सफ़र तमाम करूँ, यही अल्लाह से दुआ करता हूँ।

आवाज़: यमला पगला दीवाना के गाने इन दिनों खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। क्या आपको फिल्म के कलाकारों या क्रू से मिलने का मौका मिला है कभी?

अली परवेज़: नहीं, मुझे कास्ट से मिलने का मौका नहीं मिला, क्योंकि मैं यू०एस०ए० में सेटल्ड हूँ, और मैंने अपने स्टुडियो में गाना रिकार्ड किया था।

आवाज़: प्राईवेट एलबम्स के बारे में आपके क्या विचार हैं, क्या आप खुद किसी एलबम पर काम कर रहे हैं? आने वाले समय में किन फ़िल्मों में हम आपको सुन पाएँगे?

अली परवेज़: मेरे ख़्याल में हर फ़नकार को कम से कम एक मौका प्राईवेट एलबम बनाने का ज़रूर मिलना चाहिए, क्योंकि उसमें कलाकार को अपनी सोच (प्रतिभा) दिखाने का मौका मिलता है और उसकी गायकी के अलग-अलग रंग दिखते हैं। एलबम कोई फ़िल्म नहीं होता, इसमें कोई स्टोरी-लाईन नहीं होती, इसलिए फ़नकार अपने मन का करने के लिए आज़ाद होता है। इंशा-अल्लाह हम लोग कुछ प्रोजेट्स पर काम कर रहे हैं, जो आपके सामने बहुत हीं जल्द आएँगे।

आवाज़: परवेज़ भाई, आपने हमें समय दिया, इसके लिए आपका हम तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं।

अली परवेज़: आपका भी शुक्रिया!

फिल्म के सर्वश्रेष्ठ गानों के बाद आईये हम सुनते हैं "जनता की पसंद"। ललित पंडित द्वारा संगीतबद्ध और उन्हीं के लिखे हुए "मुन्नी बदनाम", इसी तरह "विशाल-शेखर" द्वारा संगीतबद्ध और विशाल की हीं लेखनी से उपजे "शीला की जवानी" के बाद शायद यह ट्रेंड निकल आया है कि एक ऐसा आईटम गाना तो ज़रूर हीं होना चाहिए जिसे संगीतकार हीं अपने शब्द दे। शायद इसी सोच ने इस फिल्म में "टिंकु जिया" को जन्म दिया है। इस गाने के कर्ता-धर्ता "अनु मलिक" हैं और "मुन्नी बदनाम" की सफ़लता को भुनाने के लिए इन्होंने "उसी" गायिका को माईक थमा दी है। जी हाँ, इस गाने में आवाज़ें हैं ममता शर्मा और जावेद अली की। यह गाना सुनने में उतना खास नहीं लगता, लेकिन परदे पर इसे देखकर सीटियाँ ज़रुर बज उठती हैं। अब चूँकि गाना मक़बूल हो चुका है, इसलिए हमने भी सोचा कि इसे आपके कानों तक पहुँचा दिया जाए।

Tinku Jiya



हमारी राय – फ़िल्म जनता को भले हीं बेहद पसंद आई हो, लेकिन संगीत के स्तर पर यह मात खा गई। दो-एक गानों को छोड़कर संगीत में खासा दम नहीं है। वैसे बॉलीवुड को "अली परवेज़ मेहदी" के रूप में एक बेहतरीन गायक हासिल हुआ है। उम्मीद और दुआ करते हैं कि ये हमें आगे भी सुनने को मिलेंगे। इन्हीं बातों के साथ आईये आज की समीक्षा पर विराम लगाते हैं। धन्यवाद!



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, January 17, 2011

कहीं दीप जले कहीं दिल.....एक ऐसा गीत जिसने लता जी का खोया आत्मविश्वास लौटाया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 572/2010/272

'मानो या ना मानो' - दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है यह लघु शृंखला। भूत-प्रेत और आत्मा के अस्तित्व के बारे में बहस लम्बे समय से चली आ रही है, जिसकी अभी तक कोई ठोस वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पायी है। दुनिया के हर देश में भूत प्रेत की कहानियाँ और क़िस्से सुनने को मिलते हैं, और हमारे देश में भी बहुत ऐसे उदाहरण पाये जाते हैं। आज के ज़माने में अधिकांश लोगों को भले ही ये सब बातें ढोंगी लोगों की करतूत लगे, लेकिन उसे आप क्या कहेंगे अगर Archaeological Survey of India ही ऐसा बोर्ड लगा दे कि रात के बाद फ़लाने जगह पर जाना खतरनाक या हानीकारक हो सकता है? जी हाँ, राजस्थान में भंगढ़ नामक जगह है जहाँ पर ASI ने एक साइनबोर्ड लगा दिया है, जिस पर लिखा है - "Entering the borders of Bhangarh before sunrise and after sunset is strictly prohibited." जो पर्यटक वहाँ जाते हैं, वो कहते हैं कि भंगढ़ की हवाओं में एक अजीब सी बात महसूस की जा सकती है जो दिल में बेचैनी पैदा करती है। आइए इस जगह के इतिहास के बारे में आपको कुछ बताया जाये। १७-वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में अम्बर के माधो सिंह ने भंगढ़ को अपनी राजधानी बनाई थी। ऐसा उन्होंने बाबा बलानाथ, जो वहाँ तपस्या कर रहे थे, से अनुमति माँग कर किया था। लेकिन उन्होंने उनसे एक शर्त भी ली कि "अगर तुम्हारे राज-प्रासाद की साया मुझ पर पड़ गई तो सब कुछ ख़त्म हो जाएगा, तुम्हारे राज्य का अस्तित्व ही मिट जाएगा"। लेकिन अज्ञानता की वजह से अजब सिंह, जो माधो सिंह के उत्तराधिकारियों में से एक थे, ने उस प्रासाद का निर्माण करते हुए इतनी ऊंचाई तक ले गया कि उसकी छाया उस साधु पर पड़ गई, और उसी से भंगढ़ का क़िला ढेर हो गया, और कहा जाता है कि तभी से इसमें भौतिक गतिविधियाँ महसूस की जाती है। एक अन्य पौराणिक कहानी के अनुसार रानी रत्नावली और सिंह सेवरा के बीच एक तांत्रिक युद्ध हुआ था। सिंह सेवरा रानी की सुंदरता पर मुग्ध हो गया और तांत्रिक पद्धतियों के द्वारा रानी को अपने वश में करने की कोशिश की लेकिन बार बार असफल होता रहा। उन दोनों के बीच अंतिम युद्ध के दौरान रानी का क्रोध इतना ज़्यादा बढ़ गया कि उन्होंने कांच की शिशि में रखी तेल को एक बड़े पत्थर में परिवर्तित कर दिया और उस पहाड़ी की तरफ़ दे मारा जिस पर वह दानव बैठा हुआ था। यह इतना अकस्मात हुआ कि सेवरा को अपनी बचाव का कोई मौका ना मिल सका। लेकिन मरते मरते वह अभिशाप दे गया कि "मैं मर रहा हूँ, लेकिन रत्नावली भी यहाँ नहीं रह सकेगी। ना रत्नावली, ना ही उसका कोई सगा संबंधी, ना ही इस राज्य की दीवारें; यहाँ की कोई भी चीज़ कल सुबह का सूरज नहीं देख सकेगी"। तब रात भर में पूरे शहर का स्थानांतरण कर दिया गया अजबगढ़, और सुबह होते होते भंगढ़ का सबकुछ धूलीसात हो गया। दोस्तों, यह कितनी पुरानी मान्यताएँ हैं, लेकिन आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यहां अद्भुत गतिविधियाँ महसूस की जा सकती हैं। हमारे राजस्थान के दोस्तों से अनुरोध है कि आप इस जगह के बारे में अपनी राय बताएँ। शरद तैलंग जी, आप सुन रहे हैं ना!

और आइए अब आज के गीत के बारे में बताने की बारी। फ़िल्म 'महल' के बाद इस जौनर में जिस फ़िल्म की याद आती है, वह है 'मधुमती'। लेकिन इस फ़िल्म के कई गीत आपको सुनवाए जा चुके हैं, इसलिए आज इस फ़िल्म के बाजु में रखते हुए हम बढ़ जाते हैं आगे और हमारे हाथ लगती है एक और सस्पेन्स थ्रिलर 'बीस साल बाद', जो उस ज़माने की एक बेहद मशहूर डरावनी फ़िल्म थी। गायक-संगीतकार हेमंत कुमार ने ख़ुद इस फ़िल्म का निर्माण किया था 'गीतांजली पिक्चर्स' के बैनर तले। फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि वहशी ठाकुर एक जवान लड़की की इज़्ज़त लूटता है जिसके बाद वह लड़की आत्महत्या कर लेती है। उसके बाद उस ठाकुर की भी मौत हो जाती है और गाँववाले कहते हैं कि उस लड़की की भटकती आत्मा ने ही उसका ख़ून किया है। फिर उसके बाद ठाकुर के बेटे की भी कुछ उसी तरह से मौत होती है। मौत का सिलसिला जारी रहता है और ठाकुर का भाई भी मौत के घाट उतरता है। बीस साल बाद ठाकुर का पोता कुमार विजय सिंह (बिस्वजीत) विदेश से लौटता है अपने पूर्वजों की हवेली में। उन्हें लोगों से सलाह मिलती है कि वो उस हवेली से दूर ही रहे जिसने उसके पूरे परिवार की जान ली है, लेकिन विदेश में पला बढ़ा विजय ठान लेता है कि वह असली क़ातिल को ढ़ूंढ निकालेगा। इस प्रयास में वो एक निजी जासूस गोपीचंद जासूस (असित सेन) को नियुक्त करते हैं। कुमार की मुलाक़ात राधा (वहीदा रहमान) से होती है जो एक स्थानीय चिकित्सक रामलाल वैद (मनमोहन कृष्ण) की पुत्री है; और दोनों में प्यार हो जाता है। तभी अचानक एक दिन एक आदमी की लाश मिलती है जिसने कुमार विजय सिंह की पोशाक पहनी हुई है। यानी कि कातिल ने ग़लती से कुमार की जगह उस आदमी को मार डाला है। कुमार को अब फ़ैसला करना है कि क्या वो उस हवेली में रहना जारी रखेगा और हर रोज़ मौत का ख़ौफ़ लिये जीता रहेगा, या फिर वहाँ से दूर, बहुत दूर चला जाएगा। यही थी 'बीस साल बाद' के कहानी की भूमिका। इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए। हेमंत दा का कर्णप्रिय संगीत बहुत सराहा गया। तो इस फ़िल्म से आपको सुनवा रहे हैं वह गीत जिसके लिए लता मंगेशकर को अपना दूसरा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। जी हाँ, "कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख ले आकर परवाने, तेरी कौन सी है मंज़िल"। सस्पेन्स भरे गीतों में यह गीत एक अहम स्थान रखता है। जितने रूहाने इसके बोल हैं (शक़ील बदायूनी), उतना ही रहस्यजनक है इसका संगीत और लता जी का आलाप तो जैसे वाक़ई दिल में एक डर सा पैदा कर देता है। और जब वो गाती हैं कि "ना मैं सपना हूँ न कोई राज़ हूँ, एक दर्द भरी आवाज़ हूँ", तो जैसे डर के साथ एक दर्द भी दौड़ जाता है नस नस में। इस गीत के साथ लता जी के ज़िंदगी का एक बहुत महत्वपूर्ण मोड़ जुड़ा हुआ है। इस क़िस्से को हम पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' से ही प्रस्तुत कर रहे हैं। "दरअसल लता इन दिनों काफ़ी बीमार हो गईं थीं और बीमारी से उठने के बाद उन्हें लगने लगा था कि उनकी आवाज़ पर भी बीमारी का बुरा असर पड़ा है। लता को लगने लगा कि रिहर्सलों में बात नहीं बन पा रही है, पर हेमन्त ने लता को बिना बताये उनके एक रिहर्सल को ही रेकॊर्ड कर लिया और उसी को रेकॊर्डिंग् मानकर लता को सुनाया और विश्वास दिला दिया कि लता की आवाज़ अभी भी लता की ही आवाज़ थी। इस मुश्किल गीत को जब वो सफलतापूर्वक गा सकीं तो उन्हें अपना खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिल गया। यह भी एक कारण है कि इस गीत को १९६७ में उनके द्वारा उद्घोषित अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में लता ने स्थान दिया।" तो चलिए, डरावने माहौल का आप भी ज़रा लुत्फ़ उठाइए लता जी की आवाज़ के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि 'बीस साल बाद' फ़िल्म की कहानी आर्थर कॊनन डायल के प्रसिद्ध उपन्यास 'The Hound of the Baskervilles' से प्रभावित थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इतना बहुत है इस यादगार गीत को पहचानने के लिए.

सवाल १ - गीतकार बताएं - 1 अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, शरद जी और अवध जी को बधाई...इंदु जी आप कभी गलत हुईं है क्या ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, January 16, 2011

मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना....और भुला पाना उन फनकारों को जिन्होंने हिंदी सिनेमा में सस्पेंस थ्रिलर की नींव रखी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 571/2010/271

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस नए सप्ताह में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, बचपन में आप सभी ने कभी ना कभी अपनी दादी-नानी से भूत-प्रेत की कहानियाँ तो ज़रूर सुनी होंगी। सर्दी की रातों में खाना खाने के बाद रजाई ओढ़कर मोमबत्ती या लालटेन की रोशनी में दादी-नानी से भूतों की कहानी सुनने का मज़ा ही कुछ अलग होता था, है न? और कभी कभी तो बच्चे अगर ज़िद करे या शैतानी करे तो भी उन्हें भूत-प्रेत का डर दिखाकर सुलाया जाता है, आज भी। लेकिन जब हम धीरे धीरे बड़े होते है, तब हमें अहसास होने लगता है कि ये भूत-प्रेत बस कहानियों में ही वास करते हैं। हक़ीक़त में इनका कोई वजूद नहीं है। लेकिन क्या वाक़ई यह सच है कि आत्मा या भूत-प्रेत का कोई वजूद नहीं, बस इंसान के मन का भ्रम या भय है? दोस्तों, सदियों से सिर्फ़ हमारे देश में ही नही, बल्कि समूचे विश्व में भूत-प्रेत की कहानियाँ तो प्रचलित हैं ही, बहुत सारे क़िस्से ऐसे भी हुए हैं जिनके द्वारा लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि भूत-प्रेत और आत्माओं का अस्तित्व है। हर देश में इस तरह के किस्से, इस तरह की घटनाओं का ब्योरा मिलता है। तो हमने भी सोचा कि क्यों ना देश विदेश की ऐसी ही तमाम "सत्य" घटनाओं को संजोकर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक लघु शृंखला चलाई जाये, जिसमें हम देश विदेश की इन रोमहर्षक घटनाओं का ज़िक्र तो करेंगे ही, साथ ही यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि विज्ञान क्या कहता है इनके बारे में। और लगे हाथ हम कुछ ऐसे गीत भी सुनेंगे जो सपेन्स थ्रिलर या हॊरर फ़िल्मों से चुने हुए होंगे। तो प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'मानो या ना मानो'। आज इसकी पहली कड़ी में हम ज़िक्र करना चाहेंगे आकाशवाणी कोलकाता की। अब आप हैरान हो रहे होंगे कि भूत प्रेत से आकाशवाणी कोलकाता का क्या रिश्ता है! बात ऐसी है कि आकाशवाणी कोलकाता का जो पुराना ऒफ़िस था गार्स्टिन प्लेस नामक जगह में, जो अब परित्यक्त है, ऐसा सुनने में आता है कि यह जगह हौण्टेड है। अभी हाल ही में स्टार आनंद (स्टार टीवी का बंगला चैनल) पर कई कलाकारों के विचार दिखाये गये थे जिन्होंने इस बात की पुष्टि की है, और इनमें से एक गायिका हेमंती शुक्ला भी हैं। हेमंती जी ने बताया कि उन्हें गुज़रे ज़माने के कुछ कलाकारों ने बताया कि उस जगह पर अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें सुनी जा सकती है। अपने आप ही पियानो के बजने की आवाज़ भी कई लोगों ने सुनी है रात के वक़्त। १ गार्स्टिन प्लेस, जहाँ पर ऒल इण्डिया रेडिओ कोलकाता का जन्म हुआ था, उसके विपरीत अब जॊब चारनॊक की कब्र है, और शायद यह भी एक कारण है लोगों के इस जगह को हौण्टेड मानने का। भले ही आज लोग रात के वक़्त इस जगह के आसपास से गुज़रना पसंद नहीं करते हों, लेकिन वैज्ञानिक तौर पर इस रहस्य के पीछे का कारण पता नहीं चल सका है।

दोस्तों, क्योंकि यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला है, इसलिए चाहे कितनी भी क़िस्से और कहानियाँ आपको सुनवाएँ, घूम फिर कर तो हमें पुराने फ़िल्मी गीतों की तरफ़ मुड़ना ही है। हिंदी फ़िल्मों में सस्पेन्स और हॊरर फ़िल्मों की बात करें तो जिस फ़िल्म की याद हमें सब से पहले आती है, वह है १९४९ की 'महल'। 'बॊम्बे टॊकीज़' बम्बई के मलाड में स्थित था। उसका कैम्पस बहुत बड़ा था, कंपनी में काम करने वालों के बच्चों के लिए स्कूल व अन्य सुविधाएँ भी मौजूद थी वहाँ। एक बार ऐसी बात चल पड़ी कि उस कैम्पस में भूत हैं और यहाँ तक कि हिमांशु राय का जो बंगला है, वह हौण्टेड है। जब दादामुनि अशोक कुमार ने इस बात का ज़िक्र कमाल अमरोही से किया, तो उनके दिमाग़ में पुनर्जनम की एक कहानी सूझी जिसका नतीजा था 'महल'। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि हरिशंकर (अशोक कुमार) अपने पूर्वजों की जायदाद, एक परित्यक्त महल को देखने के लिए जाते हैं। इस 'शबनम महल' का अतीत बहुत ज़्यादा सुखदायी नहीं था। इतने बरसों के बाद उस महल में वो गये और उस वक़्त हैरान रहे गये जब उन्होंने देखा कि उनका ही एक चित्र दीवार पर टंगा हुआ है। महल की देखरेख करने वाले बूढ़े आदमी ने उस चित्र के पीछे की कहानी बताई और बताया कि किस तरह से वहाँ एक प्रेमी का और उसकी प्रेमिका का अंत हुआ था। बाद में हरिशंकर एक लड़की को देखते है गाते हुए, कभी बग़ीचे में झूला झूलते हुए, लेकिन जब भी वो उसके पास जाते हैं, वो ग़ायब हो जाती है। उस बूढ़े चौकीदार और उनका वकील दोस्त श्रीनाथ, दोनों ही उन्हें उस महल से दूर रहने की सलाह देते हैं। हरिशंकर जितना दूर जाने की कोशिश करते हैं, कुछ बात उन्हें और ज़्यादा उस महल के करीब ले जाती है, और वो क्रमश: उस महल में फैली गहरी भूतिया अंधकार में धँसते चले जाते हैं। फ़िल्म का हौण्टिंग् नंबर "आयेगा आनेवाला" हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं। राजकुमारी का भी गाया हुआ "घबरा के जो हम सर को टकराएँ तो अच्छा" भी आपने सुना था इसी महफ़िल में। आइए आज इस फ़िल्म से सुनें लता मंगेशकर की आवाज़ में "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"। खेमचंद प्रकाश का संगीत और नक्शब जराचवी के बोल। राग पहाड़ी पर आधारित यह गीत है जो फ़िल्माया गया है मधुबाला पर। किसी भी सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्म की सफलता में पार्श्व संगीत या बकग्राउण्ड म्युज़िक का बहुत बड़ा हाथ होता है और साथ ही बड़ा हाथ होता है छायांकन का। इन दो क्षेत्रों में क्रम से खेमचंद प्रकाश और जोसेफ़ विर्स्चिंग् ने अतुलनीय काम किया, और इस फ़िल्म ने हिंदी सस्पेन्स थ्रिलर की नीव रखी और एक ट्रेण्डसेटर फ़िल्म सिद्ध हुई। तो लीजिए, लता जी के करीयर के शुरुआती दौर का यह यादगार गीत सुनिए और आवाज़ दीजिए उस गुज़रे सुरीले ज़माने को। कल कुछ और दिलचस्प तथ्यों और एक और हौण्टिंग् नंबर के साथ हाज़िर होंगे, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि किशोर कुमार को पहली बार पार्श्वगायक के रूप में दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने वाले संगीतकार खेमचंद प्रकाश ही थे और वह फ़िल्म थी 'ज़िद्दी' (१९४८)।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इतना बहुत है इस यादगार गीत को पहचानने के लिए.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - फिल्म की नायिका जून है - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
दोस्तों पिछली शृंखला के परिणाम बताते हुए हमसे एक भूल हुई, अमित जी के कुछ अंक हमसे गलती से छूट गए...दरसअल अमित जी के १२ अंक है शरद जी के १० अंकों की तुलना में, तो इस तरह ७ वीं शृंखला अमित जी ने नाम रही....अमित जी ने हमारा ध्यान इस तरफ़ आकर्षित करवाया, और उन्हीं से हमें पता चला कि उनका पूरा नाम अमित तिवारी है और वो उस अमित जी से अलग हैं जो पहले एक शृंखला जीत चुके हैं. बहरहाल अब की सात श्रृंखलाओं में स्कोर अब इस प्रकार है - श्याम जी -४, शरद जी २, और अमित और अमित तिवारी जी एक एक. असुविधा के लिए क्षमा चाहेंगें. नयी शृंखला में एक बार फिर अमित तिवारी जी ने बढ़त बनाई है २ अंक लेकर शरद जी और प्रतिभा जी पर जिन्हें १-१ अंक मिले हैं.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - उस्ताद अमीर ख़ान का गायन - राग मालकौन्स



सुर संगम - 03

उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया।

जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर, आँखों पे खींच कर तेरे दामन के साये को, आंधे पड़े रहे, कभी करवट लिए हुए"। गुलज़ार के इन अल्फ़ाज़ों से बेहतर शायद ही कोई अल्फ़ाज़ होंगे जाड़ों की इस सुहानी सुबह के आलम का बयाँ करने के लिए। 'आवाज़' के दोस्तों, सर्दी की इस सुहाने रविवार की सुबह में मैं आप सभी का 'आवाज़' के इस साप्ताहिक स्तंभ 'सुर-संगम' में स्वागत करता हूँ। आज इस स्तंभ का तीसरा अंक है। पहले अंक में आपने उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का गायन सुना था राग गुनकली में, और दूसरे अंक में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान और उस्ताद विलायत ख़ान से शहनाई और सितार पर एक भैरवी ठुमरी। आज हम लेकर आये हैं उस्ताद अमीर ख़ान का गायन, राग है मालकौन्स।

उस्ताद अमीर ख़ान का जन्म १५ अगस्त १९१२ को इंदौर में एक संगीत परिवार में हुआ था। पिता शाहमीर ख़ान भिंडीबाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे। उनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। अमीर अली की माँ का देहान्त हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे। अमीर और उनका छोटा भाई बशीर, जो बाद में आकाशवाणी इंदौर में सारंगी वादक बने, अपने पिता से सारंगी सीखते हुए बड़े होने लगे। लेकिन जल्द ही उनके पिता ने महसूस किया कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ़ है। इसलिए उन्होंने अमीर अली को ज़्यादा गायन की तालीम देने लगे। ख़ुद इस लाइन में होने की वजह से अमीर अली को सही तालीम मिलने लगी और वो अपने हुनर को पुख़्ता, और ज़्यादा पुख़्ता करते गए। अमीर ने अपने एक मामा से तबला भी सीखा। अपने पिता के सुझाव पर अमीर अली ने १९३६ में मध्यप्रदेश के रायगढ़ संस्थान में महाराज चक्रधर सिंह के पास कार्यरत हो गये, लेकिन वहाँ वे केवल एक वर्ष ही रहे। १९३७ में उनके पिता की मृत्यु हो गई। वैसे अमीर ख़ान १९३४ में ही बम्बई स्थानांतरित हो गये थे और स्टेज पर पर्फ़ॊर्म भी करने लगे थे। साथ ही साथ ६ ७८-आर.पी.एम रेकॊर्ड्स भी जारी करवाये। इसी दौरान वे कुछ वर्ष दिल्ली में और कुछ वर्ष कलकत्ते में भी रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद स्थायी रूप से बम्बई में जा बसे।

उस्ताद अमीर ख़ान के गायकी का जहाँ तक सवाल है, उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की, जिसमें अब्दुल वाहिद ख़ान का विलंबित अंदाज़, रजब अली ख़ान के तान और अमन अली ख़ान के मेरुखण्ड की झलक मिलती है। इंदौर घराने के इस ख़ास शैली में आध्यात्मिक्ता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं। उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। उस्ताद अमीर ख़ान का यह मानना था कि किसी भी ख़याल कम्पोज़िशन में काव्य का बहुत बड़ा हाथ होता है, इस ओर उन्होंने 'सुर रंग' के नाम से कई कम्पोज़िशन्स ख़ुद लिखे हैं। अमीर ख़ान ने तराना को लोकप्रिय बनाया। झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे, और संगत देने वाले तबला वादक से वो साधारण ठेके की ही माँग करते थे।

फ़िल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर ख़ान का योगदान उल्लेखनीय है। 'बैजु बावरा', 'शबाब', 'झनक झनक पायल बाजे', 'रागिनी', और 'गूंज उठी शहनाई' जैसी फ़िल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया। बंगला फ़िल्म 'क्षुधितो पाशाण' में भी उनका गायन सुनने को मिला था। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर ख़ान को १९६७ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और १९७१ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। नियती के क्रूर हाथों ने एक सड़क दुर्घटना में ख़ाँ साहब को १३ फ़रवरी १९७४ के दिन हम से हमेशा हमेशा के लिए छीन लिया। तो आइए, उस्ताद अमीर ख़ान का गाया राग मालकौन्स सुनते हैं।

गायन: उस्ताद अमीर ख़ान (राग मालकौन्स)


राग मालकौन्स पर फ़िल्मी संगीतकारों की भी ख़ूब रुचि रही है। कुछ जाने-पहचाने गीत जो इस राग पर आधारित हैं - "अखियन संग अखियाँ लागी आज" (बड़ा आदमी), "आये सुर के पंछी आये" (सुर संगम), "ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े" (जय चित्तौड़), "दीप जलाये जो गीतों के मैंने" (कलाकार), "आधा है चंद्रमा रात आधी", "तू छुपी है कहाँ" (नवरंग), "मन तड़पत हरि दर्शन को आज" (बैजु बावरा), "पंख होती तो उड़ आती रे" (सेहरा), आदि। तो लीजिए आज इस राग पर आधारित सुनिये फ़िल्म 'सेहरा' का यही गीत। लता मंगेशकर की आवाज़, हसरत जयपुरी के बोल, और रामलाल चौधरी का अनूठा और अनोखा संगीत ही नहीं, संगीत-संयोजन भी।

गीत - पंख होती तो उड़ आती रे (सेहरा)


तो ये था, आज का 'सुर-संगम'। अगले रविवार किसी और दिग्गज शास्त्रीय फ़नकार को लेकर हम उपस्थित होंगे इस स्तंभ में। आपकी और मेरी फिर मुलाकात होगी आज शाम को ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। तो बने रहिये 'आवाज़' के साथ और फ़िल्हाल मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!

आप बताएं
फिल्म "दिया और तूफ़ान" एक गीत जो हमने हाल ही में ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवाया था, इसी राग पर आधारित था...बूझिये तो ज़रा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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