Saturday, May 9, 2009

आप आये तो ख़्याल-ए-दिले नाशाद आया....साहिर के टूटे दिल का दर्द-ए-बयां बन कर रह गया ये गीत.



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 75

निर्माता-निर्देशक बी. आर. चोपड़ा अपनी फ़िल्मों के लिए हमेशा ऐसे विषयों को चुनते थे जो उस समय के समाज की दृष्टि से काफ़ी 'बोल्ड' हुआ करते थे। और यही वजह है कि उनकी फ़िल्में आज के समाज में उस समय की तुलना में ज़्यादा सार्थक हैं। हमारी पुरानी फ़िल्मों में नायिका का चरित्र बिल्कुल निष्पाप दिखाया जाता था। तुलसी के पत्ते की तरह पावन और गंगाजल से धुला होता था नायिका का चरित्र। शादी से बाहर किसी ग़ैर पुरुष से संबंध रखने वाली नायिका की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन ऐसा ही कुछ कर दिखाया चोपड़ा साहब ने सन १९६३ की फ़िल्म 'गुमराह' में। एक शादी-शुदा औरत (माला सिन्हा) किस तरह से अपने पति (अशोक कुमार) से छुपाकर अपने पहले प्रेमी (सुनिल दत्त) से संबंध रखती है, लेकिन बाद में उसे पता चलता है कि जिस आदमी से वो छुप छुप कर मिल रही है उसकी असल में शादी हो चुकी है (शशीकला से)। इस कहानी को बड़े ही नाटकीय और भावुक अंदाज़ में पेश किया गया है इस फ़िल्म में। अशोक कुमार, सुनिल दत्त, माला सिन्हा और शशीकला के जानदार अभिनय, बी. आर. चोपड़ा के सशक्त निर्देशन, और साहिर-रवि के गीत संगीत ने इस फ़िल्म को कालजयी बना दिया है।

गीतकार साहिर लुधियानवी, संगीतकार रवि, गायक महेन्द्र कपूर और गायिका आशा भोंसले बी. आर. फ़िल्म्स के नियमित सदस्य हुआ करते थे। इस बैनर की कई फ़िल्मों में इस टीम का योगदान रहा है, और 'गुमराह' इन्ही में से एक उल्लेखनीय फ़िल्म है। सुनिल दत्त का किरदार इस फ़िल्म में एक गायक का था और इस वजह से उन पर कई गाने फ़िल्माये भी गये जिन्हें अपनी आवाज़ से नवाज़ा महेन्द्र कपूर ने। इस फ़िल्म के महेन्द्र कपूर के गाये कुछ 'हिट' गानें गिनायें आपको? "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनो", "ये हवा ये हवा..... आ भी जा आ भी जा", "इन हवाओं में इन फिजाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे" जैसे मशहूर गानो ने इस फ़िल्म की शोभा बढ़ाई। इसी फ़िल्म में एक और गीत भी था "आप आये तो ख्याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया", महेन्द्र कपूर की आवाज़ में यह गीत सिर्फ़ संगीत की दृष्टि से ही नहीं बल्कि साहिर साहब की बेहतरीन उर्दू शायरी की वजह से भी एक अनमोल नग्मा बन कर रह गया है। "आपके लब पे कभी अपना भी नाम आया था, शोख़ नज़रों से कभी मोहब्बत का सलाम आया था, उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था", अपनी ज़िन्दगी की अनुभवों, निराशाओं, और व्यर्थतायों को साहिर अपने कलम से काग़ज़ पर उतारते चले गये। बचपन में ही उनकी माँ उनके पिता की अय्याशियों से तंग आकर उनसे अलग हो गयीं और साहिर को लेकर घर छोड़ दिया था। और तभी से फूटने लगा साहिर के कोमल मन में विद्रोह का अंकुर। ज़िन्दगी की परेशानियों ने उन्हे तोड़कर रख दिया था। कालेज के पहले असफल प्रेम ने उन्हे एक बार फिर से झकझोर कर रख दिया। बाद में गीतकार बनने के बाद जब भी कभी किसी टूटे हुए दिल की पुकार लिखने की बात आयी तो साहिर ने जैसे अपने दिल की भड़ास, अपना वही पुराना दर्द उड़ेल कर रख दिया। और फ़िल्म 'गुमराह' का यह नग्मा भी कुछ इसी अंदाज़ का है। "रूह में जल उठे बुझती हुई यादों के दिए, कैसे दीवाने थे हम आपको पाने के लिए, यूँ तो कुछ कम नहीं जो आपने अहसान किये, पर जो माँगे से न पाया वो सिला याद आया, कितने भूले हुए जख्मों का पता याद आया"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मुकेश का एक दर्द भरा गीत.
२. इसी फिल्म में एक मशहूर "राखी" गीत भी था जो आगे चल कर इस त्यौहार का ही पर्याय बन गया.
३. मुखड़े में शब्द है - "संगदिल".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी ने फिर से बाज़ी मारी है आज. अवध जी, फिल्म गुमराह है, हमराज़ नहीं, वैसे हमराज़ के भी सभी गीत लाजवाब हैं और फिल्म भी जबरदस्त. रचना जी आपका भी जवाब सही है. मनु जी आप तो "सेंटी" हो गए...आचार्य जी महफिल की शोभा बढाने के लिए आपका भी आभार

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



मंटो का जन्म दिन



मंटो की टोबा टेक सिंह
जहाँ तक मंटो को भारत और पाकिस्तान में मिलने वाले सम्मान का सवाल है तो पाकिस्तान का समाज तो ख़ैर एक बंद समाज था और वहाँ उनकी कहानियों पर प्रतिबंध लगा और उन पर मुक़दमे चले। लेकिन मैं समझता हूँ कि भारत में प्रेमचंद के बाद यदि किसी लेखक पर काम हुआ है तो वह मंटो है। हिंदी में भी, उर्दू में भी।
~ कमलेश्वर (प्रसिद्ध लेखक और उपन्यासकार)

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रेमचंद की कहानी 'समस्या' का पॉडकास्ट सुना था। 11 मई को सआदत हसन अली मंटो का जन्म दिन है। इस अवसर पर आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मंटो की टोबा टेक सिंह, जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: १७ मिनट २६ सेकंड।

इस कहानी का टेक्स्ट बीबीसी हिन्दी पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।





पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था.
~ स'आदत हसन मंटो (१९१२-१९५५)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी


चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दी उसका नाम मुहम्मद अली था
(मंटो की "टोबा टेक सिंह" से एक अंश)



नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Twenteeth Story, Toba Tek Singh: Sa'adat Hasan Manto/Hindi Audio Book/2009/15. Voice: Anurag Sharma

Friday, May 8, 2009

गुमसुम सा ये जहाँ....ये रात ये समां...गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने रचा था ये प्रेम गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 74

फ़िल्म जगत के इतिहास में बहुत सारी फ़िल्में ऐसी हैं जो अगर आज याद की जाती हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके गीत संगीत की वजह से। और इनमें से कुछ फ़िल्में तो ऐसी भी हैं कि जिनका केवल एक गीत ही काफ़ी था फ़िल्म को यादगार बनाने के लिए। एक ऐसी ही फ़िल्म थी 'दुनिया झुकती है' जिसके केवल एक मशहूर गीत की वजह से इस फ़िल्म को आज भी सुमधुर संगीत के सुधी श्रोता बड़े प्यार से याद करते हैं। हेमन्त कुमार और गीता दत्त की युगल आवाज़ों में यह गीत है "गुमसुम सा ये जहाँ, ये रात ये हवा, एक साथ आज दो दिल धड़केंगे दिलरुबा"। रात का समा, चाँद और चाँदनी, ठंडी हवायें, सुहाना मौसम, प्रेमी-प्रेमिका का साथ, इन सब को लेकर फ़िल्मों में गाने तो बेशुमार बने हैं। लेकिन प्रस्तुत गीत अपनी नाज़ुकी अंदाज़, ग़ज़ब की 'मेलडी', रुमानीयत से भरपूर बोल, और गायक गायिका की बेहतरीन अदायिगी की वजह से भीड़ से जैसे कुछ अलग से लगते है। तभी तो आज तक यह गीत अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए है। चाँद का बदली की ओट में छुपना, नील गगन का प्यार के आगे झुकना, दो प्रेमियों का दुनिया से दूर होकर अपनी प्यार की मंज़िल के पास आ जाना, यही सब तो है इस गीत में।

'दुनिया झुकती है' फ़िल्म आयी थी सन् १९६० में और इसमें मुख्य कलाकार थे सुनिल दत्त, कुमकुम और श्यामा। हेमन्त कुमार का संगीत था और गीतकार थे राजेन्द्र कृष्ण। दोस्तों, मुझे हमेशा से ही ऐसा लगता है कि गीतकार राजेन्द्र कृष्ण को इस इंडस्ट्री ने वो सम्मान नहीं दिया जितने के वो हक़दार थे। इसमें कोई दोराय नहीं है कि उन्होने कई दशकों तक फ़िल्मों में अनगिनत 'हिट' गीत दिये हैं। लेकिन बावजूद इसके जब भी कभी सुनहरे दौर के गीतकारों का नाम लिया जाता है, तो उनका नाम साहिर, शैलेन्द्र, हसरत, मजरूह, शक़ील जैसे नामों के तले दब कर रह जाता है। मेरे कहने का अर्थ यही है कि राजेन्द्र कृष्ण को इस इंडस्ट्री ने थोड़ा सा 'अंडर-रेट' किया है। हो सकता है कि उनकी जो घोड़ों की रेस में बाज़ी लगाने की आदत थी वो उनके लिए नकारात्मक रूप से काम करता रहा हो! कहा जाता है कि एक बार उन्होने ४६ लाख रूपए का 'जैक-पॊट' जीता भी था। हेमन्त कुमार और राजेन्द्र कृष्ण का साथ फ़िल्म संगीत के लिए बड़ा ज़बरदस्त साथ रहा। नागिन, मिस् मैरी, चम्पाकली, लगन, पायल, दुर्गेश-नन्दिनी और भी न जाने कितनी ऐसी फ़िल्में थीं जिनमें इन दोनो ने साथ साथ काम किया और हमें दिए एक से एक नायाब नग्में। राजेन्द्रजी ने अपने फ़िल्मी सफ़र में लगभग ३०० फ़िल्मों में गीत लिखे और इनमें से करीब १०० फ़िल्मों में उन्ही का स्क्रीनप्ले भी था। १९८८ में उनके निधन के बाद एच.एम.वी ने उनके सम्मान में १२ गीतों का एक एल.पी. रिकार्ड जारी किया था। तो दोस्तों, आज हमने राजेन्द्र कृष्ण साहब की कुछ बातें करी, और अब आप सुनिये आज का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. साहिर - रवि की जोड़ी का गीत.
२. सुनील दत्त फिल्माया गया गीत.
३. बात हो रही कुछ याद आने की, मुखड़े में शब्द है -"नाशाद".

कुछ याद आया...?

पिछली पहली का परिणाम -
पराग जी लगातार चौकों पे चौके मार रहे हैं, नीरज जी और मनु जी तो तगड़ा मुकाबला मिल रहा है, हमारे शरद तैलंग और भरत पांडया जी निरंतर दस्तक नहीं देते हैं, वरना वो भी जबरदस्त पारखी हैं पुराने गीतों के. इस बार रचना जी ने भी सही गीत पकडा. नीलम जी आज का गीत कैसा लगा आपको, शन्नो जी धन्येवाद, अनाम जी (किश) आपने बहुत सही गलती पकड़ी है....भई बहुत बहुत आभार, सुधार कर लिया गया है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



"छोटे से पंख" - सार्थक लघु फिल्म निर्माण के क्षेत्र में युग्म का पहला प्रयास.



आपकी रचनात्मकता तभी सार्थक है जब आप खुद की जिम्मेदारी से ऐसा कुछ करते हैं जिससे समाज में एक सकारात्मक बदलाव आये। भारत में दृश्य और श्रव्य, जन साधारण तक अपनी बात पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है। कविता के भावों को सुरों में सजाकर सरल रूप में लोगों तक पहुँचने के लिए जुलाई २००८ में आवाज़ की शुरूआत की थी हिंद युग्म ने। आज इस कड़ी में एक और नयी पहल जुड़ रही है। नए संगीत का दूसरा कामियाब महासत्र पूरा करने के बाद अब युग्म ने दृश्य माध्यम से भी जन चेतना जगाने का बीडा उठाया है। ये शुरुआत मनुज मेहता, जगदीप सिंह, दिव्य प्रकाश दुबे और अकबर-आज़म जैसे युवा फिल्मकारों के दम पर हो रही है। इसी शृंखला की पहली फिल्म का आज विमोचन हो रहा है। हिंद युग्म के दिव्य प्रकाश दुबे जिन्हें हम DPD के नाम से भी संबोधित करते हैं, ने अपनी खुद की प्रोडक्शन "मास्टरस्ट्रोक प्रोडक्शन" के बैनर तले बनायी है ये लघु फिल्म। अधिक जानते हैं खुद दिव्य से-


"मुझे हमेशा से लगा है कि कुछ लोग हमारी दुनिया को बेहतर बनाने की दिशा में सतत प्रयासरत हैं और बहुत ही शांति से, धीरे-धीरे अपने मकसद की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं ...

मुझे लगता है कि ऐसी हर बात हर कोशिश ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचनी चाहिए| इस बार जैसे ही मुझे फुर्सत मिली तो मैंने सोचा कि एक शोर्ट मूवी बनाने की हिम्मत की जाये ..क्योंकि कई बार कविता बहुत अधूरी बात ही कह पाती है और उसमें वो सब नहीं आ पाता जो आप कहना चाहते हैं ..तो बस मैंने अपने कॉलेज (http://sibm.edu/) के मित्र (समर्थ) के साथ मिल के एक मूवी बना डाली ...दिक्कतें आयीं थोडी बहुत और उन थोड़ी बहुत दिक्कतों की वजह से ही हम बहुत सी बातें सीख भी पाए |"

Behind the scenes जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )

Movie (छोटे से पंख ) के बारे में थोड़ा सा

हम सब में से कईयों के घर में पुरानी साइकिल पड़ी होती है। किसी-किसी के घर में एक से ज्यादा होती है जो बेकार पड़ी रहती है कई बार .... एक NGO इस दिशा में काम कर रहा है जो शहरों से ऐसी ही साइकिल लेते हैं ... और गाँव में वो साईकिल बाँट देते हैं ताकि कोई बच्चा स्कूल जा पाए, उसको स्कूल के लिए मीलों पैदल न चलना पड़े!!

इस विचार ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तब हमने एक ऐसी मूवी बनाने की सोची जो इस विचार को आगे बढा पाए ...

कलाकार

रूबी - हमारे मोहल्ले में काम करने वाले माली की बिटिया है जो की अपनी क्लास में सेकंड आयी है, इसलिए उसको साईकिल चाहिए।

गौरांग- कॉन्वेंट में पढ़ने वाला मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का है, जिसको साईकिल नहीं स्कूटी चलाना बहुत पसंद है।

(ये वो पात्र हैं जो आप सभी को अपने घर के आस पास मिल जायेंगे, गौरांग शायद आपके घर में हो, पड़ोस में हो ...और रूबी घर के बाहर खेलते हुए, पैदल स्कूल जाते हुए जरूर दिखती होगी आपको)



हो सकता कुछ लोग जानना चाहें कि Master Stroke क्या है ? कैसे बना, वो सब जानने के लिए यहाँ क्लिक करें

आग्रह -अपने ईमानदार, बेबाक सुझाव दें ...इससे हमारी अगली कोशिश को बेहतर होने में मदद मिलेगी !!

- दिव्य प्रकाश दुबे


हमारे अन्य फिल्मकार भी कुछ इसी तरह के सार्थक विषयों पर अपनी बात कहेंगे जिन्हें हम समय समय पर अपने मंच के माध्यम से आप तक पहुंचाते भी रहेंगे. यदि आप भी कुछ ऐसी बात "विसुअल" माध्यम से जन जन तक पहुंचाना चाहें तो हमसे संपर्क करें. हिंद युग्म के फिल्मकार मनुज मेहता ने दिल्ली के रेड लाइट इलाके को केंद्र कर जो डॉक्युमेंटरी फिल्म बनायीं थी उसका प्रीमियर भी हमने पिछले साल आवाज़ पर किया था, यदि अब तक आपने नहीं देखी तो इसे भी अवश्य देखें.
एक संवेदनशील फिल्म जी बी रोड की सच्चाईयों पर...

Thursday, May 7, 2009

देखो कसम से...कसम से, कहते हैं तुमसे हाँ.....प्यार की मीठी तकरार में...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 73

दोस्तों, अभी हाल ही में हमने आपको फ़िल्म 'तुमसा नहीं देखा' का एक गीत सुनवाया था रफ़ी साहब का गाया हुआ। आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने इसी फ़िल्म से एक दोगाना चुना है जिसमें रफ़ी साहब के साथ हैं आशा भोंसले। फ़िल्म 'तुमसा नहीं देखा' से संबंधित जानकारियाँ तो हमने उसी दिन आपको दे दिया था, इसलिए आज यहाँ पर हम उन्हे नहीं दोहरा रहे हैं। आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी साहब की जोड़ी ने फ़िल्म संगीत जगत को तीन दशकों तक बेशुमार लाजवाब युगल गीत दिए हैं जो बहुत से अलग अलग संगीतकारों के धुनों पर बने हैं। सफलता की दृष्टि से देखा जाये तो ओ. पी. नय्यर साहब का 'स्कोर' इस मामले में बहुत ऊँचा रहा है। इस फ़िल्म में नय्यर साहब के संगीत में आशाजी और रफ़ी साहब के कई युगल गीत लोकप्रिय हुए थे जैसे कि "सर पर टोपी लाल हाथ मे रेशम का रूमाल हो तेरा क्या कहना", "आये हैं दूर से मिलने हुज़ूर से, ऐसे भी चुप ना रहिए, कहिए भी कुछ तो कहिए दिन है के रात है" और "देखो क़सम से क़सम से कहते हैं तुमसे हाँ, तुम भी जलोगे हाथ मलोगे रूठ के हमसे हाँ"। यही तीसरा गीत आज हम यहाँ पर आपके लिए पेश कर रहे हैं। नय्यर साहब का एक अंदाज़ ऐसा भी था कि मुखड़े के बाद जैसे ही अंतरा शुरु होता है तो गाने का 'रिदम' बिलकुल बदल जाती है, और यह गीत भी कुछ इसी तरह के अंदाज़ का है। मुखड़ा पाश्चात्य संगीत को छू रहा है तो अंतरे में तबले के ठेके मचलने लगते हैं। अमीन सयानी के गीतमाला कार्यक्रम के वार्षिक अंक में फ़िल्म 'तुमसा नहीं देखा' के दो गीत शामिल हुए थे। उनमें से एक था "सर पे टोपी लाल", जो १४-वीं पायदान पे था और दूसरा गीत था "यूँ तो हमने लाख हसीं देखे हैं", जिसको स्थान मिला १० नंबर का। प्रस्तुत गीत को भले कोई पुरस्कार ना मिला हो लेकिन सुननेवालों का स्नेह ज़रूर नसीब हुआ और आज भी वही प्यार साफ़ झलकता है।

"ओ दिलबर-जानिया, रूठने मनाने में ना बीते ये जवानियाँ", जी हाँ, इस गीत में भी रूठने मनाने की बात हो रही है। नायक के रूठ जाने पर नायिका उसे क़सम दे रही है। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस छेड़-छाड़ वाले गीत में अपनी लेखनी का बड़ा ख़ूबसूरत नमूना पेश किया है। गीत सुनते हुए आप जैसे ही अनुभव करेंगे कि "क़सम" शब्द बहुत ज़्यादा हो रहा है गाने में, तभी रफ़ी साहब गा उठते हैं कि "क्या लगाई तुमने यह 'क़सम क़सम से', लो ठहर गये हम कुछ कहो भी हम से"। यही है इस गाने की ख़ासीयत कि ख़ुद अंतरा ही अपने मुखड़े में किसी एक शब्द के भरमार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही है। तो लीजिए बोलचाल की भाषा में लिखी गयी इस मज़ेदार गीत का आनंद उठाते हैं आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में याद करते हुए शम्मी कपूर और अमीता की उस नोक-झोंक वाले अंदाज़ को।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. हेमंत दा और गीता दत्त की आवाजों में एक मधुर युगल गीत.
२. राजेंदर कृष्ण के बोल और हेमंत दा का संगीत.
३. गीत शुरू होता है सी शब्द से - "गुमसुम".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी, नीरज जी, मनु जी और संगीता जी आप सभी का जवाब सही है...बहुत बहुत बधाई हो.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



तुझसे तेरे जज्बात कहूँ.... महफ़िल-ए-पुरनम और "बेगम"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११

यूँ तो गज़ल उसी को कहते हैं जो आपके दिल-औ-दिमाग दोनों को हैरत में डाल दे। पर आज की गज़ल को सुनकर एकबारगी तो मैं सकते में आ गया या यह कहिए कि गज़ल को सुनकर और फ़िर उसके बारे में जाँच-पड़ताल करने के बाद मैं कुछ देर तक अपने को संभाल हीं नहीं सका। गु्लूकार की आवाज़ इतनी बुलंद कि मैं सोच हीं बैठा था कि वास्तव में यह कोई गुलूकार हीं है और उसपर सोने पे सुहागा कि गज़ल के बोल भी मर्दों वाले।लेकिन जब गज़ल की जड़ों को ढूँढने चला तो अपने कर्णदोष का आभास हुआ। आज की गज़ल को किसी गुलूकार ने नहीं बल्कि एक गुलूकारा ने अपनी आवाज़ से सजाया है। इन फ़नकारा के बारे में क्या कहूँ... गज़ल-गायकी के क्षेत्र में इन्हें बेगम का दर्जा दिया जाता है और बेगम की हैसियत क्या होती है वह हम सब बखूबी जानते हैं। यह "बेगम" १९७३ से हीं इस पदवी पर काबिज है। वैसे अगर आपके घर में हीं संगीत का इतना बढिया माहौल हो तो लाजिमी है कि आपमें भी वैसे हीं गुण आएँगे। लेकिन इनके लिए बदकिस्मती यह थी कि यह जिस समाज से आती हैं वहाँ महिलाओं को निचले दर्जे का नागरिक माना जाता है और वहाँ महिलाओं के लिए संगीत तो क्या पढाई-लिखाई की भी अनुमति नहीं मिलती। लेकिन "बेगम" साहिबा के पिताजी उस्ताद गुलाम हैदर, जो खुद एक प्रख्यात गायक थे, ने समाज की एक न मानी और इन्हें अपना शागिर्द बना लिया। "गुलाम हैदर" साहब के बाद उस्ताद सलामत अली खान से इन्हें संगीत की शिक्षा मिली। इन उस्तादों का हीं असर था कि "बेगम" साहिबा आगे बढती रहीं और अंतत: पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "सितारा-ए-इम्तियाज" की उपाधि से नवाज़ा। "बेगम" साहिब न सिर्फ़ उर्दू की जानकारा हैं बल्कि उर्दू के अलावा इन्होंने सिंधी(जो इनकी मातृभाषा है),पंजाबी, सराइकी(सिंधी और पंजाबी का अपभ्रंश) और फारसी के नज़्मों और गज़लों को भी गाया है। तो लीजिए मैने इतना हिंट दे दिया, अब आप खुद इन फ़नकारा को पहचानिए।

२००० में रीलिज हुई "हो जमालो" हो या फिर १९८७ की "काफ़ियां बुल्ले शाह", २००७ की "लाल शाहबाज़ की चादर हो" या फिर २००७ की हीं "इश्क कलंदर", "बेगम आबिदा परवीन" की हर एक नज़्म, हर एक गज़ल उस ऊपर वाले से जोड़ने का एक जरिया रही है। वैसे कहते भी हैं कि "सूफ़ी" कलामों में वह जादू होता है जो आपकी आत्मा को परमात्मा के सुपूर्द कर देता है। आप खो-से जाते हैं, आपको जहां की फ़िक्र नहीं रहती। "बेगम" साहिबा मूलत: "काफ़ी" और "गज़लें" गाती हैं और इनकी आवाज़ का सुनने वालों पर गहरा असर होता है। कहा जाता है कि जैसा "तानसेन" अपनी धुनों और अपनी आवाज़ से बीमारों का इलाज कर देते थे, वैसा हीं कुछ "आबिदा" की आवाज़ सुनकर होता है। इस बात में कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं वह तो वैज्ञानिक शोधों का विषय है ,लेकिन दीगर बात यह है कि "आबिदा" की आवाज़ आपको सम्मोहित तो जरूर करती है,आप एक दूसरी हीं दुनिया में पहुँच जाते है। आपको यकीन न हो तो आज की गज़ल हीं सुन लें। खुद सुनियेगा तो खुद मानिएगा...वैसे भी संस्कृत की एक कहावत है "प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्" मतलब कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता।

सूफ़ी कलामों में इश्क का एक अपना हीं महत्व है। सु्नने पर तो यह किसी इंसान से इश्क की बात लगती है,लेकिन वास्तव में आत्मा-रूपी प्रेमी परमात्मा से मिलन की बाट जोहता है,गुहार लगाता है। इन कलामों की खासियत यही है कि आप चाहें तो इसे अपनी प्रेमिका/अपने प्रेमी को भी सुना दें,ऎसा लगेगा मानो उसी के लिए लिखी गई हो। १९९७ में "इश्क मस्ताना" नाम से आबिदा की गज़लों की एक एलबम रीलिज हुई थी,जिसमें एक से बढकर एक आठ गज़लें थी। उन गज़लों को संगीत दिया था "तफ़ु खान" ने और आवाज़ थी......कहना पड़ेगा क्या?...आबिदा की हीं। आज की गज़ल हमने उसी एलबम से चुनी है। गज़ल के बोल लिखे हैं "इमाद अली अल्वी" ने। "ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा" - इस गज़ल के बारे में क्या कहूँ...सबसे पहले तो यह कि आज तक किसी भी गज़ल में मैने इतना बड़ा रदीफ़ "तू और नहीं मैं और नहीं" इस्तेमाल हो्ते नहीं देखा है। अमूमन लोग एक हर्फ़ या एक शब्द रखते हैं रदीफ़ में या फिर वह भी नहीं रखते। लेकिन छ: लफ़्जों का रदीफ़!! - गज़लगो को दाद देनी होगी। शिल्प से अब चलते हैं भाव की ओर... इश्क अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचता है जब आशिक अपने महबूब/अपनी महबूबा में अपने वजूद को डूबो दे, जब वास्तव में दो जिस्म-एक जां हो जाएँ, जब वह यकीं से अपने हबीब से कह सके: "कैसा शर्माना,कैसी चिंता! जब हम तुम एक हैं तो फ़िर फ़िराक की कैसी फ़िक्र!" और यकीं मानिए जिस दिन किसी आशिक ने अपनी आशिकी से यह कह दिया, उस दिन इश्क के दु्श्मनों को अपना बोरिया-बिस्तर बाँधना होगा,उस दिन के बाद उनकी एक न चलने वाली।

तो अगर आपको अपने इश्क की फ़िक्र है, महबूब/महबूबा का ख़्याल है तो पहले उसे अपने मोहब्बत का यकीं दिलाईये ,दुनिया का क्या है, दुनिया की पड़ी किसको है! :
मैं बात यही बेबात कहूँ,
तुझसे तेरे जज्बात कहूँ।


मुझे तो बस मौका चाहिए अपने जज्बातों को सबके सामने लाने का, मु्झे छोड़िए और आबिदा परवीन की दमदार आवाज़ में गोता लगाने को तैयार हो जाईये :

ऎ यार न मुझसे मुँह को छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं,
है शक्ल तेरी मेरा नक्शा, तू और नहीं मैं और नहीं।

मैं तुझको गैर समझता था और खुद को और समझता था,
पर चश्म-ए-गौर से जब देखा, तू और नहीं मैं और नहीं।

अव्वल तू है,आखिर तू है, ज़ाहिर तू है, ..........
मैं तुझमें हूँ, तु मु्झमें छुपा, तू और नहीं मैं और नहीं।

मैं तालिब-ए-वस्ल जो यार से था,वो ना........
तू मैं हीं तो हैं....... ,तू और नहीं मैं और नहीं।


यहाँ आपने गौर किया होगा कि अंतिम दो शेरों में कुछ शब्द गायब हैं। दर-असल सुनकर भी मैं उन शब्दों को पकड़ नहीं सका। इसलिए आप सबसे गुज़ारिश करूँगा कि अगर आपको इन शब्दों की जानकारी हो तो कृप्या टिप्पणी में डाल दें ताकि यह गज़ल मुकम्मल हो सके।



चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
__ ने फिर पानी पकाया देर तक...

आपके विकल्प हैं -
a) दीदी, b) वालिद, c) बा, d) माँ

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था -"गुल", शेर कुछ यूँ था-

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा...

सबसे पहले सही जवाब देकर शान-ए-महफिल बने हैं मनु जी, पर दिए हुए शब्द पर पहले शेर जडा सलिल जी ने-

गुलबदन जब 'गुल' हुई तो धड़कनें रुक सी गयीं.
देखकर गुलशेर को गुलफाम रोके न रुके.

तभी मनु जे ने फरमाया -

असर दिखला रहा है खूब मुझ पर गुल बदन मेरा
उसी के रंग जैसा हो चला है पैरहन मेरा..

वाह वाह ...

उसके बाद शन्नो जी, नीलम जी और मनु जी ने जम कर रंग जमाया महफ़िल में. राज जी को भी महफ़िल में खूब आनंद आया. सभी का आभार....

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Wednesday, May 6, 2009

चोरी चोरी जो तुमसे मिली तो लोग क्या कहेंगे....लक्ष्मी-प्यारे की मधुर धुन पर वाह वाह कहेंगे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 72

'लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' एक ऐसा नाम है जिनकी शोहरत वक़्त के ग्रामोफोन पर बरसों से घूम रही है। इस जोड़ी की पारस प्रतिभा ने जिस गीत को भी हाथ लगा दिया वह सोना बन गया। ऐसी पारस प्रतिभा के धनी लक्ष्मी-प्यारे की जोड़ी की पहली मशहूर फ़िल्म थी 'पारसमणि'। तो क्या आप जानना नहीं चाहेंगे कि यह जो जोड़ी थी गीतों को सोना बनानेवाली, यह जोड़ी कैसे बनी, वह कौन सा दिन था जब इन दोनो ने एक दूसरे के साथ में गठबंधन किया और कैसे बना 'पारसमणि' का सदाबहार संगीत? अगर हाँ तो ज़रा पढ़िए तो सही कि विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में प्यारेलालजी ने क्या कहा था - "देखिए, जब हम दोस्त थे, साथ में काम करते थे, बजाते थे, तब अपनी दोस्ती शुरु हुई, लेकिन 1957 के अंदर यह हमारी बात हुई कि भई हम बैठ के साथ काम करेंगे। यह अपना शिवाजी पार्क में शिवसेना भवन है, उसके पास एक होटल था जिसमें 'कटलेट्‍स' बहुत अच्छे मिलते थे, हम वहाँ बैठ के खाते थे। उस समय वहाँ सी. रामचन्द्रजी का हॉल हुआ करता था; हम वहाँ जाते थे। तो वहाँ लंच करके हम निकल गए। तो जब यह बात निकली तो मैने कहा कि "मैं निकल जाऊँगा दो-तीन महीनों में", तो वो बोले कि "क्यूँ ना हम साथ में मिलकर काम करें", और बाहर भी क्या करते, इसलिए हमने "हाँ" कर दी और हमने शुरू किया 'काम्पोज़' करना। जब 'पारसमणि' पिक्चर के कास्ट छपवाये, तो उसमें संगीतकार का नाम लिखा गया था 'प्यारेलाल - लक्ष्मीकांत'। यह लिखा था बाबा मिस्त्री ने। लक्ष्मीजी ने कुछ नहीं कहा, मैनें बोला कि "नहीं, मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ, और वो तीन साल बड़े भी हैं, इसलिए इसे आप 'लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' कर दीजिए।" तो इस तरह से बनी 'लक्ष्मी-प्यारे' की जोड़ी। अब ज़रा प्यारेलालजी से यह भी सुन लीजिए कि 'पारसमणि' कैसे इनके हाथ लगी - "तो हम जहाँ काम करते थे, कल्याणजी-आनंदजी के यहाँ, वहाँ हमें मिले बाबा मिस्त्री। उन्होने देखा कि ये लड़के होशियार हैं, तो उन्होने हमको चान्स दिया 'पारसमणि' में। कल्याणजी-आनंदजी को जो पहला ब्रेक दिया था इन्होने ही दिया था फ़िल्म सम्राट चन्द्रगुप्त में, और हमको उन्होंने दिया 'पारसमणि' में। लक्ष्मीजी ने तो अपने बंगले का नाम भी 'पारसमणि' रखा था।"

तो देखा दोस्तों कि किस तरह से हँसता हुआ नूरानी चेहरा लेकर लक्ष्मी-प्यारे फ़िल्म संगीत संसार में आये और उसके बाद बिल्कुल छा गये! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में फ़िल्म 'पारसमणि' का एक बहुत ही प्यारा सा युगल गीत पेश है लता और मुकेश की आवाज़ों में। गीतकार फ़ारूक़ क़ैसर के बोल हैं और 1963 में प्रदर्शित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार महिपाल और गीतांजलि पर फ़िल्माया हुआ यह गीत है "चोरी-चोरी जो तुमसे मिली तो लोग क्या कहेंगे"। पिछले कई दशकों में 'चोरी-चोरी' से शुरू होनेवाले आपने बहुत सारे गाने सुने होंगे और ज़्यादातर यह देखा गया है कि ये गाने कामयाब भी रहे हैं। 'चोरी-चोरी' से शुरू होनेवाले गाने 50 के दशक के शुरू से प्रचलित होने लगे थे। 1951 की फ़िल्म 'ढोलक' में सुलोचना कदम की आवाज़ में "चोरी चोरी आग सी दिल में लगाके चल दिये" बहुत ही मशहूर गीत है। 1952 में तलत महमूद और गीता राय का गाया फ़िल्म 'काफ़िला' का गीत "चोरी-चोरी दिल में समाया सजन" और इसी साल फ़िल्म 'जाल' में लता मंगेशकर और साथियों का गाया "चोरी-चोरी मेरी गली आना है बुरा" भी अपने ज़माने के मशहूर गीत रहे हैं। दो और सदाबहार गीत जो शुरू तो 'चोरी-चोरी' से नहीं होते लेकिन मुखड़े में ज़रूर ये शब्द आते हैं, वो हैं फ़िल्म 'चोरी-चोरी' का शीर्षक गीत "जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो, चोरी चोरी मेरे दिल में समाते हो", और दूसरा गीत है "बाप रे बाप' फ़िल्म का "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे.... चोरी चोरी चोरी काहे हमें पुकारे, तुम तो बसी हो गोरी दिल में हमारे"। 1957 की फ़िल्म 'एक गाँव की कहानी' में लता और तलत का गाया और शैलेंद्र का लिखा एक गीत था "ओ हाये कोई देख लेगा, देखो सुनो पिया घबराये मोरा जिया रे, ओ कोई क्या देख लेगा, प्रीत की यह डोरी दुनिया से नहीं चोरी रे"। कुछ इसी तरह का भाव 'पारसमणि' के प्रस्तुत युगल-गीत में भी व्यक्त किया गया है। तो बातें तो बहुत सी हो गयी दोस्तों, अब गीत आप सुनिये लता और मुकेश की आवाज़ों में।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. नय्यर साहब का एक और मचलता दोगाना.
२. मजरूह के बोल है इस रूठने मनाने के गीत में.
३. मुखड़े में शब्द आता है - "हाथ".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी एकदम सही जवाब.... शन्नो जी यही तो ख़ास बात थी इन गीतों, हम सभी का अनुभव आप जैसा ही है। भरत जी आपके दोनों जवाब गलत हैं। हाँ आप संगीतकार ठीक पहचाना है।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



आदित्य प्रकाश की भाषा साधना, कवितांजलि तीसरे वर्ष में



हिन्दी भाषा तथा साहित्य की जितनी सेवा हिन्दी को उच्च-शिक्षा के दरम्यान विषय न रखने वाले हिन्दी-प्रेमियों ने की है, उतनी शायद हिन्दी साहित्य में शोध तक करने वाले हिन्दीविदों ने भी नहीं की। कई हिन्दी प्रेमियों के लिए उनकी भाषा ही खाना-पीना व ओढ़ना-बिछाना है। ऐसे ही एक हिन्दी प्रेमी हैं आदित्य प्रकाश

आदित्य प्रकाश से इंटरनेट पर विचरने वाले ज्यादातर हिन्दी प्रेमी परिचित हैं। डैलास, अमेरिका से और इंटरनेट से चौबीसों घंटे चलने वाले एफ एम चैनल 'रेडियो सलाम नमस्ते' पर हर रविवार स्थानीय समय अनुसार रात्रि 9 बजे उनकी आवाज़ सुनाई देती है। आदित्य प्रकाश अंतराष्ट्रीय हिन्दी समिति की ओर से संकल्पित हिन्दी कविता के विशेष कार्यक्रम 'कवितांजलि' को प्रस्तुत करते हैं। यह कार्यक्रम अपने तीसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है।

'कवितांजलि' की सराहना कई कारणों से ज़रूरी है। भारत में, जहाँ कि हिन्दी बहुत बड़े भूभाग पर बोली जाती है, वहाँ के रेडियो चैनलों या अन्य मीडिया माध्यमों में कवितांजलि जैसे कार्यक्रम नहीं होते। यदि होते भी हैं तो बहुत ही स्थानीय स्तर पर। राष्ट्रीय रेडियो चैनलों में 1-2 कवियों का एकल-पाठ, सुनने वालों को कोई खास आकर्षित नहीं करता, इसलिए कोई सुनता भी नहीं। लेकिन आदित्य प्रकाश ने अपने प्रयासों से हिन्दी कविता के कार्यक्रम को बहुत रोचक और सुनने लायक बना रखा है।

हिन्दी, संस्कृत, नेपाली और अंग्रेजी जैसी भाषाओं पर पकड़ रखने वाले आदित्य प्रकाश प्राणि विज्ञान में एम एस सी करने के बाद भारत और नेपाल में जीव विज्ञान पढ़ाते रहे। पटना में इन्होंने शैरोन पब्लिक स्कूल की स्थापना की और उसके प्रिसिंपल भी रहे। 1998 में ये अमेरिका आ गये और डलास शहर में बस गये। यहाँ एक डिफेन्स फम्पनी के माइक्रोवेब इंजीनियरिंग विभाग में काम करते हुए भी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हैं। शायद हिन्दी भाषा का कोई कर्ज था या स्व-भाषाप्रेम जो विदेश में भी इन्होंने भाषा सेवा नहीं छोड़ी।

कवितांजलि कार्यक्रम को बहुत शुरू से ही आदित्य प्रकाश प्रस्तुत कर रहे हैं और वो भी पूर्णतया बिना किसी धनार्जन के। अपने घर से रेडियो सलाम नमस्ते आने और लौटने तक की यात्रा में जो पेट्रोल उड़ता है, वो खर्च भी नहीं लेते आदित्य प्रकाश। इतना होने के बाद भी इनके समर्पण में कभी कोई कमी नहीं आई। पिछले 2 साल से अनवरत हर रविवार नियत समय पर यह कार्यक्रम होता रहा। कितना सुखद है कि यह कार्यक्रम जीवंत प्रस्तुत होता है। जिसने भी इस कार्यक्रम को सुना आदित्य प्रकाश की आवाज़ में इतना ज़रुर याद रख गया- मंगल कामनाओं का अनवरत राग- यानी कवितांजलि।

इस कार्यक्रम के लिए आदित्य केवल इतना ही नहीं करते। बल्कि अपने खर्चे से दुनिया भर से हिन्दी कवियों को खोजना और उन्हें फोन करने के साथ-साथ उनसे लगातार संपर्क बनाए रखना ताकि इन नवांकुरों लगातार लिखने और भाषा की सेवा करने का प्रोत्साहन मिलता रहे। आदित्य प्रकाश हम हिन्दी कर्मियों के लिए एक प्रेरणा हैं। इनके इस समर्पण का सम्मान अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिती ने इस वर्ष 'भाषा सेवा सम्मान' देकर किया। इससे पहले भी छत्तीसगढ़ की संस्था सृजन-सम्मान द्वारा इन्हें प्रवासी सम्मान दिया जा चुका है। लेकिन ये सारे सम्मान फीके पड़ जाते हैं जब हम कभी कवितांजलि सुनते हैं और उस कार्यक्रम के श्रोताओं का प्रेम आदित्य प्रकाश के प्रति महसूस करते हैं।

आदित्य प्रकाश के प्रयासों से हमारे भूगोल के अलग-अलग भाग से कवितांजलि में 60 से अधिक कवियों ने अपना राग सुनाया है। कुछ महत्वपूर्ण नामों को गिनाना भी ज़रूरी समझता हूँ-

भारत से- मनीषा कुलश्रेष्ठ (हिन्दी नेस्ट डॉट कॉम की संपादिका), कुमार विश्वास, दीपक गुप्ता, राजेश चेतन, गजेन्द्र सोलंकी, सुरेन्द्र दुबे, सुनील जोगी, पवन दीक्षित, ओम व्यास ओम, उदय भानू हंस, कविता वाचकनवी, दिनेश रघुवंशी, मनोज कुमार मनोज, नलिनी पुरोहित, जयप्रकाश मानस (सृजनगाथा डॉट कॉम के संपादक), मधुमोहिनी मिश्रा, अर्जुन सिसोदिया, सुरेन्द्र अवस्थी, गौरव सोलंकी, विपुल शुक्ला, अनुपमा चौहान, निखिल आनंद गिरि, सुनीता चोटिया, रंजना भाटिया, आलोक शंकर, अनुराग शर्मा, मनीष वंदेमातरम् इत्यादि।

भारत के बाहर से- लावण्या शाह, डॉ॰ अंजना संधीर, अभिनव शुक्ला, सुधा ओम धींगरा, रेखा मैत्रा, प्रो॰ महाकवि हरिशंकर आदेश, डॉ॰ ज्ञान प्रकाश, देवेन्द्र सिंह, अर्चना पाण्डा, शशि पाधा, रेनुका भटनागर, राहुल उपाध्याय, डॉ॰ चमन लाल रैना, दॉ॰ सुषम बेदी, डॉ॰ बिन्देश्वरी अग्रवाल, इला प्रसाद, कुसुम सिन्हा, रेनू राजवंशी, डॉ॰ सुरेन्द्र गम्भीर, प्रो॰ ओलेफन हारमन, सुरेन्द्र तिवारी, रिपुदमन पचौरी, डॉ॰ कमल सिंह, अमरेन्द्र कुमार, सौमित्र सक्सेना, रचना श्रीवास्तवा, वीणा शर्मा, शैलेश मिश्रा इत्यादि।

आज यही आदित्य प्रकाश आवाज़ के श्रोताओं के लिए अपना संदेश लेकर आये हैं। सुनें-



हिन्दी के साथ-साथ आदित्य अमेरिका में भोजपुरी के भी प्रचार-प्रसार में प्रयासरत हैं। सामुदायिक पत्रिकाओं का संपादन भी करते हैं।

हमारा सलाम!!

Tuesday, May 5, 2009

तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा...पति प्रेम की पवित्र भावनाओं को समर्पित एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 71

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड'के लिए हमने जिस गीत को चुना है उसमें एक पत्नी का अपने पति के लिए जो निष्पाप पवित्र प्रेम है उसका वर्णन हुआ है। इस गीत के बोल इतने सुंदर हैं कि जो पति-पत्नी के प्रेम को और भी कई गुना पावन कर देता है। लताजी की दिव्य आवाज़ और संगीतकार रवि का सुमधुर संगीत ने राजेन्द्र कृष्ण के बोलों को और भी ज़्यादा प्रभावशाली बना दिया है। लताजी की आवाज़ एक कर्तव्य-परायन भारतीय नारी के रूप को साकार करती है। और भारतीय नारी का यही रूप प्रस्तुत गीत में भी कूट कूट कर भरा हुआ है। फ़िल्म 'ख़ानदान' का यह गीत है "तुम ही मेरे मंदिर तुम ही मेरी पूजा तुम ही देवता हो"। यूँ तो १९६५ की इस फ़िल्म में मुमताज़, सूदेश कुमार, और प्राण भी थे, लेकिन वरिष्ठ जोड़ी के रूप में सुनिल दत्त और नूतन नज़र आये और यह गीत भी इन दोनो पर ही फ़िल्माया गया है। भारतीय संस्कृति मे पत्नी के लिए पति का रूप परमेश्वर का रूप होता है। आज के समाज में यह कितना सार्थक है इस बहस में हम पड़ना नहीं चाहते, लेकिन इस गीत का भाव कुछ इसी तरह का है। पत्नी की श्रद्धा और प्रेम की मिठास गीत के हर एक शब्द में झलक रहा है। इस गीत में नूतन को अपने बीमार अपाहिज पति (सुनिल दत्त) को बहलाते हुए दिखाया गया है। जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है, वह एक लोरी की शक्ल ले लेती है। "बहुत रात बीती चलो मैं सुला दूँ, पवन छेड़े सरगम मैं लोरी सुना दूँ" लाइन के ठीक बाद लताजी जिस नरमोनाज़ुक अंदाज़ में बिना बोलों के गुनगुनाती हैं, उसका असर बहुत से बोलों वाले लोरियों से भी कई गुना ज़्यादा है। इस गीत के लिए संगीतकार रवि को उस साल का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का 'फ़िल्म-फ़ेयर' पुरस्कार मिला था। फ़िल्म 'ख़ानदान' की एक और ख़ास बात यह है कि इस फ़िल्म के एक नहीं बल्कि दो दो गीतों को अमीन सयानी के 'गीतमाला' के वार्षिक कार्यक्रम में स्थान मिला था। आशा भोंसले और मोहम्मद. रफ़ी का गाया "नील गगन पर उड़ते बादल आ" १४-वीं पायदान पर था और प्रस्तुत गीत "तुम्ही मेरे मंदिर" उस साल तीसरे पायदान पर था। दूसरे पायदान के लिए 'हिमालय की गोद में' फ़िल्म का "एक तू ना मिला" और पहले पायदान के लिए 'सहेली' फ़िल्म का "जिस दिल में बसा था प्यार तेरा" गीत चुने गये थे।

अब आपको आज के गीत के संगीतकार रवि और उनके साथ इस गीत के रिश्ते की बात बताते हैं। रवि के संघर्ष के दिनों में उनकी पत्नी ने बहुत दुख-दर्द झेलें हैं और अपने पति की ख़ातिर कई निस्वार्थ त्याग भी किये। इस बात का ज़िक्र रवि ने विविध भारती की एक मुलाक़ात में कई बार किया था। तो जब रविजी से यह पूछा गया कि उनके बनाए गीतों को सुनकर उनकी पत्नी का क्या विचार रहता था, उन्होने कहा था, "हलाँकि वो शब्दों में बयान नहीं करती थी, लेकिन मैं उसके चेहरे से जान जाता था कि वो ख़ुश है। और मुझे जब भी 'फ़िल्मफ़ेयर अवाराड्स‍' मिलते थे तब भी वो बहुत ख़ुश हो जाती थी। मैंने कभी उसके लिए कोई गीत नहीं बनाया, लेकिन उसे 'ख़ानदान' फ़िल्म का गीत "तुम ही मेरे मंदिर तुम ही मेरी पूजा" बहुत पसंद था। वो अकसर कहा करती थी कि इस तरह के गाने और बनने चाहिए।" रविजी की पत्नी कांता देवी का सन् १९८६ में स्वर्गवास हो गया। तो लीजिए रविजी की स्वर्गवासी पत्नी के त्याग और प्रेम को श्रद्धाजंली अर्पित करते हुए आज का यह गीत सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. इस बेहद सफल संगीतकार जोड़ी में से एक संगीतकार ने अपने बंगले का नाम इसी फिल्म के नाम पर रखा.
२. लता और मुकेश की आवाजों में एक प्यारा सा गीत.
३. गीत शुरू होता है इस शब्द युगल से - "चोरी चोरी"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी एकदम सही जवाब....इस बार तो सभी ने बिलकुल सही जवाब दिया...दिलीप जी, नीलम जी, नीरज जी,संजीव जी सभी को बधाई, पराग जी, फिल्म का नाम बताना अनिवार्य नहीं है....आपने बस गीत का अंदाजा लगाना है. शन्नो जी सही कहा आपने ये गीत वाकई बहुत मजेदार है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



आफ़रीन आफ़रीन...कौन न कह उठे नुसरत साहब की आवाज़ और जावेद साहब को बोलों को सुन...



बात एक एल्बम की # 05

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर



उन दिनों मैं राजस्थान की यात्रा पर था, जहाँ एक बस में मैंने उसके घटिया ऑडियो सिस्टम में खड़खड़ के बीच, "आफरीन-आफरीन.." सुना था. ज़्यादा समझ में नहीं आया पर धुन कहीं अन्दर जाकर समां गई- वहीँ गूँजती रही. फिर जब उदयपुर की एक म्यूजिक शाप पर फिर उसी धुन को सुना जो अबकी बार कहीं ज़्यादा बेहतर थी तो एक नशा-सा छा गया. यह आवाज़ थी जनाब नुसरत फतह अली भुट्टो साहब की. क्या शख्सियत, आवाज़ में क्या रवानगी, क्या खनकपन, क्या लहरिया, क्या सुरूर और क्या अंदाज़ गायकी का, जैसे खुदा खुद ज़मी पर उतर आया हो.

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब नुसरत साहब गाते होगें, खुदा भी वहीँ-कहीं आस-पास ही रहता होगा, उन्हें सुनता हुआ मदहोश-सा. धन्य हैं वो लोग, जो उस समय वहां मौजूद रहें होगें. उनकी आवाज़-उनका अंदाज़, उनका वो हाथों को हिलाना, चेहरे पर संजीदगी, संगीत का उम्दा प्रयोग, यह सब जैसे आध्यात्म की नुमाइंदगी करते मालूम देते हैं. दुनिया ने उन्हें देर से पहचाना, पर जब पहचाना तो दुनिया भर में उनके दीवानों की कमी भी नहीं रहीं. १९९३ में शिकागो के विंटर फेस्टिवल में वो शाम आज भी लोगो को याद हैं जहाँ नुसरत जी ने पहली बार राक-कंसर्ट के बीच अपनी क़व्वाली का जो रंग जमाया,लोग झूम उठे-नाच उठे, उस 20 मिनिट की प्रस्तुति का जादू ता-उम्र के लिए अमेरिका में छा गया. वहीं उन्होंने पीटर ग्रेबियल के साथ उनकी फिल्म्स को अपनी आवाज़ दी और उनके साथ अपना अल्बम "शहंशाह" भी निकाला. नुसरत साहब की विशेषता थी पूर्व और पश्चिम के संगीत का संगम करके उसे सूफियाना अंदाज़ में पेश करना. क़व्वाली को उन्होंने एक नया मुकाम दिया. संगीत की सभी शैलियों को आजमाते हुए भी उन्होंने सूफियाना अंदाज़ नहीं छोडा और न ही कोई छेड़-छाड़ की खुद से. दुनिया यूँ ही उनकी दीवानी नहीं है. क़व्वाली के तो वे बे-ताज बादशाह थे.

कव्वालों के घराने में 13 अक्तूबर 1948 को पंजाब के फैसलाबाद में जन्मे नुसरत फतह अली को उनके पिता उस्ताद फतह अली खां साहब जो स्वयं बहुत मशहूर और मार्रुफ़ कव्वाल थे, ने अपने बेटे को इस क्षेत्र में आने से रोका था और खानदान की 600 सालों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना चाहा था पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था, लगता था जैसे खुदा ने इस खानदान पर 600 सालों की मेहरबानियों का सिला दिया हो, पिता को मानना पड़ा कि नुसरत की आवाज़ उस परवरदिगार का दिया तोहफा ही है और वो फिर नुसरत को रोक नहीं पाए और आज इतिहास हमारे सामने है.

जब नुसरत जी गुरु नानक की वाणी,"कोई कहे राम-राम,कोई खुदाए...."को अपनी आवाज़ देते हैं तो तो सुनने वाला मदहोशी में डूब जाता है. ऐसा निराला अंदाज़, दुनिया भर में जो लोग पंजाबी-उर्दू और क़व्वाली नहीं भी समझ पाते थें, पर उनकी आवाज़ और अंदाज़ के दीवानें थें. उन्हीं दीवानों में से एक -"गुडी", जो स्वयं एक मशहूर कम्पोजर और निर्माता रहे हैं, ने नुसरत जी को समझने के लिए अनुवादक का सहारा लिया और इस गायक को समझा. फिर दोनों दीवानों ने मिलकर एक अल्बम."डब क़व्वाली" के नाम से भी निकाला. गुडी ने नुसरत साहब के काम को दुनिया भर में फैलाया.गुडी बड़ी विनम्रता से कहते हैं,"यह उनके लिए बड़े भावनात्मक पल रहे हैं." इसी अल्बम में "बैठे-बैठे,कैसे-कैसे...." सुनिए,शुरुआती ३० सेकेण्ड ही काफी हैं, नशे में डूब जाने के लिए. पूर्व और पश्चिम में के आलौकिक फ्यूजन में भी उन्होंने अपना पंजाबीपन और सूफियाना अंदाज़ नहीं छोडा और फ्यूजन को एक नई परिभाषा दी. उन्होंने सभी सीमाओं से परे जाकर गायन किया. खाने के बेहद शौकीन नुसरत जी ने सिर्फ इस मामले में अपने डाक्टरों की कभी नहीं सुनी. जी भरकर गाया और जी भरकर खाया. महान सूफी संत और कवि रूमी की कविता को नुसरतनुमा अंदाज़ में क़व्वाली की शक्ल में सुनना, दावे से कहता हूँ कि बयां को लफ्ज़ नहीं मिलेगें. जिबरिश करने को जी चाहेगा. नुसरत और रूमी, मानो दो रूह मिलकर एक हो गई हों. बस आप सुनते चले जाएँ और कहीं खोते चले जाए.

मैं लिखता चला जाऊं और आप इस गायक को सुनते चले जाएँ और सब सुध-बुध खो बैठे, ऐसा हो सकता है.सुनिए,"मेरा पिया घर आया....","पिया रे-पिया रे.....","सानु एक पल चैन...","तेरे बिन.....","प्यार नहीं करना...." "साया भी जब साथ छोड़ जाये....","साँसों की माला पे...."और न जाने ऐसे कितने गीत हैं, ग़ज़ल हैं, कव्वालियाँ है, दुनिया भर का संगीत खुद में समेटे हुए, इस गायक को यदि नहीं सुना हो सुनने निकलिए, हिंदी फिल्मों से, पंजाबी संगीत से, सूफी संगीत से, फ्यूजन से कहीं भी चले जाइए, यह गायक, नुसरत फतह अली भुट्टो, आपको मिल जायेगा, आपको मदहोश करने के लिए-आपको अध्यात्मिक शांति दिलाने के लिए.....हर जगह -हर रूप में मौजूद है नुसरत साहब. इन्हें आप किसी भी नामी म्यूजिक -शाप में "वर्ल्ड-म्यूजिक" की श्रेणी में ही पायेगें. 16 अगस्त १९९७ को जब नुसरत साहब ने दुनिया-ए-फानी को अलविदा कहा, विश्व-संगीत में एक गहरा शोक छा गया. पश्चिम ने शोक में डूबकर कहा, पाकिस्तान ने दुनिया को जो अनमोल रत्न दिया था, आज हम उसे खो बैठे हैं और उनके पूर्व वालों की जैसे सिसकियाँ ही नहीं टूट रहीं हो, उन्हें लगा जैसे उनके बीच से खुदा की आवाज़ ही चली गई है.

नुसरत साहब पर और बातें होंगीं पर फिलहाल बढ़ते हैं इस माह के फीचर्ड अल्बम की तरफ. अपने पाकिस्तानी अल्बम्स से भारत में धूम मचाने के बाद नुसरत साहब को जब बॉलीवुड में फिल्म का न्योता मिला तो उन्होंने शायर के मामले में अपनी पसंद साफ़ कर दी कि वो काम करेंगें तो सिर्फ जावेद अख्तर साहब के साथ. इसी जोड़ी ने एक बहतरीन अल्बम में भी एक साथ काम किया, जिसे शीर्षक दिया गया - "संगम", दो मुल्कों के दो बड़े फनकारों का संगम और क्या आश्चर्य जो इस अल्बम का एक एक गीत अपने आप में एक मिसाल बन जाये तो...

तो चलिए शुरुआत करते हैं "संगम" के सबसे हिट गीत "अफरीन अफरीन" से. क्या बोल लिखे हैं जावेद साहब ने और अपनी धुन और गायिकी से नुसरत साहब ने इस गीत को ऐसी रवानगी दी है कि गीत ख़तम होने का बाद भी इसका नशा नहीं टूटता. "आफरीन-आफरीन" सूफी कलाम में एक बड़ा मुकाम रखती है. इसे ऑडियो में सुनना एक आध्यात्मिक अनुभव से गुजरना होता है तो विजुअल में देखना एक आलौकिक अनुभव से गुजरना होता है. एक ही तर्ज़ के दो अनुभव, लिखने को शब्द नहीं मिलते हैं, कहने को कुछ बचता नहीं है. तो बस सुनते हैं हमारी फीचर्ड एल्बम संगम से ये पहला तराना -



साप्ताहिक आलेख - नीरज गुरु "बादल"



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की. इस स्तम्भ को आप तक ला रहे हैं युवा स्तंभकार नीरज गुरु. यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.



Monday, May 4, 2009

ओ दिलदार बोलो एक बार, क्या मेरा प्यार पसंद है तुम्हें...कवि प्रदीप का एक गीत ये भी...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 70

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ७०-वीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। सुरीले फ़िल्म संगीत का यह सफ़र पिछले ७० दिनो से चला आ रहा है और आप भी इसमें पूरी तरह से हिस्सेदारी निभा रहे हैं जिस वजह से हमें भी रोज़ नयी ऊर्जा मिल रही है बेहतर से बेहतर गाने और उनसे संबंधित जानकारियाँ खोजने में। कभी कभी जब जानकारियों में कुछ गड़बड़ हो जाती है तो आप उसका सुधार भी कर देते हैं जिसके लिए हम आप के तह-ए-दिल से आभारी हैं। आगे भी आप हमारा इसी तरह से मार्ग-दर्शन करते रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। तो चलिये इसी बात पर अब हम आते हैं आज के गाने पर। दोस्तों, कुछ दिन पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपको एक गीत सुनवाया था लता मंगेशकर और तलत महमूद का गाया हुआ फ़िल्म 'मौसी' का - "टिम टिम टिम तारों के दीप जले नीले आकाश तले"। याद है न आपको? इस गीत को भरत व्यास ने लिखा था और संगीत था वसंत देसाई का। आज इस गीत से मिलता-जुलता एक और गीत हम लेकर आये हैं, इसे भी लताजी और तलत साहब ने गाया है और संगीत भी एक बार फिर वसंत देसाई साहब का है। बस गीतकार भरत व्यास के जगह आ गये हैं कवि प्रदीप। फ़िल्म 'स्कूल मास्टर' के इस गीत के साथ हमने 'मौसी' फ़िल्म के गाने का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि जब भी हम इनमें से कोई भी गीत सुनते हैं तो दूसरा गीत अपने आप ही जेहन में आ जाता है। कुछ तो है समानता इन दोनो गीतों में। गीत सुनने के बाद आप ख़ुद इस ब्लाग पर लिखियेगा अगर आपको भी इन गीतों में कोई समानता नज़र आती हो तो।

१९५९ में बनी फ़िल्म 'स्कूल मास्टर' के मुख्य कलाकार थे बी.सरोजा देवी और राजा गोस्वामी। ए. एल. एस प्रोडक्शन्स के बैनर तले बनी यह फ़िल्म एक मराठी फ़िल्म की रीमेक थी। फ़िल्म तो बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं रही लेकिन इस फ़िल्म का कम से कम से यह गाना बेहद सुना गया और आज भी जब इस गीत को कहीं सुनने को मिलता है तो दिल के साथ साथ पाँव भी अपने आप ही जैसे थिरकने लगते हैं। कुछ ऐसी संक्रामक है इस गीत की धुन। यूँ तो कवि प्रदीप ज़्यादातर गम्भीर विषयों और काव्य को ही अपने गीतों में स्थान दिया करते थे, लेकिन यह एक ऐसा गीत है जिसमें उन्होने बड़े ही हल्के-फुल्के बोलों का प्रयोग किया है, जिस वजह से यह गीत आम जनता में इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ है। तो अब आप सुनिये यह गीत और मैं चला अगले गीत की जानकारियाँ समेटने।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. संगीतकार रवि का एक बेहद शानदार गीत.
२. लता के स्वर की पवित्रता अपने चरम पर है इस गीत में
३. "मंदिर" और मंदिर के "देवता" का जिक्र है मुखड़े में.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
एक मुश्किल गाने को पहचान लिया मनु जी ने...भाई वाह बधाई....

शरद तैलंग और भरत पंडया जी को भी बधाई। शरद जी आप ईमेल से पहेली मिलने का इंतज़ार करने की बजाय रोज़ाना भारतीय समयानुसार शाम 6 से 7 बजे के बीच http://podcast.hindyugm.com खोल लें तो आप पहले विजेता हो सकते हैं।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था......महफ़िल-ए-गज़ल में छाया की माया



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०

रीब एकतीस साल पहले मुज़फ़्फ़र अली की एक फ़िल्म आई थी "गमन"। फ़ारूख शेख और स्मिता पाटिल की अदाकारियों से सजी इस फ़िल्म में कई सारी दिलकश गज़लें थीं। यह तो सभी जानते हैं कि मुज़फ़्फ़र अली को संगीत का अच्छा-खासा इल्म है, विशेषकर गज़लों का। इसलिए उन्होंने गज़लों को संगीतबद्ध करने का जिम्मा उस्ताद अली अकबर खान के शागिर्द जयदेव वर्मा को दिया। और मुज़फ़्फ़र अली की दूरगामी नज़र का कमाल देखिए कि इस फ़िल्म के लिए "जयदेव" को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया। भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में अब तक केवल तीन हीं संगीतकार हुए हैं,जिन्हें तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार (रजत कमल पुरस्कार) पाने का अवसर मिला है: जयदेव, ए आर रहमान और इल्लैया राजा। हाँ तो हम "गमन" की गज़लों की बात कर रहे थे। इस फ़िल्म की एक गज़ल "आप की याद आती रही रात भर" ,जिसे "मक़दू्म मोहिउद्दिन" ने लिखा था, के लिए मुज़फ़्फ़र अली को एक नई आवाज़ की तलाश थी और यह तलाश हमारी आज की फ़नकारा पर खत्म हुई। इस गज़ल के बाद तो मानो मुज़फ़्फ़र अली इस नए आवाज़ के दिवाने हो गए। यूँ तो मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्मों (गमन,उमराव जान) के लिए जाने जाते हैं,लेकिन कम हीं लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि इन्होंने कई सारी हीं गज़लों को संगीतबद्ध किया है। "रक़्स-ए-बिस्मिल","पैगाम-ए-मोहब्बत","हुस्न-ए-जानां" ऎसी हीं कुछ खुशकिस्मत गज़लों की एलबम हैं,जिन्हें मुज़फ़्फ़र अली ने अपनी सुरों से सजाया है। बाकी एलबमों की बात कभी बाद में करेंगे, लेकिन "हुस्न-ए-जानां" का जिक्र यहाँ लाजिमी है। अमिर खुसरो का लिखा "ज़िहाल-ए-मस्कीं" न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग अंदाज़ में गाया जा चुका है, यहाँ तक कि "गुलामी" के लिए गुलज़ार साहब ने इसे एक अलग हीं रूप दे दिया था, लेकिन कहा जाता है कि इस गाने को हमारी आज की फ़नकारा ने जिस तरह गाया है,जिस अंदाज में गाया है, वैसा दर्द वैसा गम-ए-हिज्र आज तक किसी और की आवाज़ में महसूस नहीं होता। ऎसी है मुज़फ़्फ़र अली की परख और ऎसा है इस फ़नकारा की आवाज़ का तिलिस्म....। तो चलिए मैंने तो उस फ़नकारा के बारे में इतना कुछ कह दिया; अब आप की बारी है,पता कीजिए उस फ़नकारा का नाम..

उस फ़नकारा के नाम से पर्दा हटाने के पहले मैं आज की गज़ल से जुड़े एक और हस्ती के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। आज की गज़ल को साज़ों से सजाने वाला वह इंसान खुद एक कामयाब गज़ल-गायक है। गज़लों से परे अगर बात करें तो कई सारे फ़िल्मी-गानों को उन्होंने स्वरबद्ध किया है। एक तरह से वे गु्लज़ार के प्रिय रहे हैं। "दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन", "नाम गुम जाएगा", "एक अकेला इस शहर में", "हुज़ूर इस कदर भी न इतराके चलिए" कुछ ऎसे हीं मकबूल गाने हैं,जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और "भूपिन्दर सिंह" ने अपनी आवाज़ दी। जी हाँ,हमारी आज की गज़ल के संगीतकार "भूपिन्दर सिंह" जी ही है। तो अब तक हम गज़ल के संगीतकार से रूबरू हो चुके है, अब इस महफ़िल में बस गज़लगो और गायिका की हीं कमी है। दोस्तों...मुझे उम्मीद है कि मैने गायिका की पहचान के लिए जो हिंट दिए थे,उनकी मदद से आपने अब तक गायिका का नाम जान हीं लिया होगा। और अगर...अभी तक आप सोच में डूबे हैं तो मैं हीं बता देता हूँ। हम आज जिस फ़नकारा की बात कर रहे हैं, उनका नाम है "छाया गांगुली" । "छाया गांगुली" से जुड़ी मैने कई सारी बातें आपको पहले हीं बता दी हैं, अब उनके बारे में ज्यादा लिखने चलूँगा तो आलेख लंबा हो जाएगा। इसलिए अच्छा होगा कि मैं अब गज़ल की ओर रूख करूँ।

कई साल पहले "नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" नाम से गज़लों की एक एलबम आई थी। आज हम उसी एलबम की प्रतिनिधि गज़ल आपको सुना रहे हैं.... । प्रतिनिधि गज़ल होने के कारण यह तो साफ़ हीं है कि उस गज़ल के भी बोल यही हैं..."नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था" । इस सुप्रसिद्ध गज़ल के बोल लिखे थे "इब्राहिम अश्क़" ने। कभी मौका आने पर "इब्राहिम अश्क" साहब के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे..अभी अपने आप को बस इस गज़ल तक हीं सीमित रखते हैं। इस गज़ल की खासियत यह है कि बस चार शेरों में हीं पूरी दुनिया की बात कह दी गई है। गज़लगो कभी खुद पर नाज़ करता है, कभी जहां की तल्ख निगाहों का ब्योरा देता है तो कभी अपने महबूब पर गुमां करता है। भला दूसरी कौन-सी ऎसी गज़ल होगी जो चंद शब्दों में हीं सारी कायनात का जिक्र करती हो। शुक्र यह है कि इश्क-वालों के लिए कायनात बस अपने इश्क तक हीं सिमटा नहीं है। वैसे इसे शुक्र कहें या मजबूरी ...क्योंकि इश्क-वाले तो खुद में हीं डूबे होते हैं, उन्हें औरों से क्या लेना। अब जब औरों को इनकी खुशी न पचे तो ये दुनिया की शिकायत न करें तो क्या करें।

इश्क-वालों ने किए जब अलहदा हैं रास्ते,
राह-भर में खार किसने बोए इनके वास्ते।


तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल...लुत्फ़ लें और अगर अच्छी लगे तो हमारे चुनाव की दाद दें:

नाज़ था खुद पर मगर ऎसा न था,
आईने में जब तलक देखा न था।

शहर की महरूमियाँ मत पूछिये,
भीड़ थी पर कोई भी अपना न था।

मंजिलें आवाज़ देती रह गईं,
हम पहुँच जाते मगर रस्ता न था।

इतनी दिलकश थी कहाँ ये ज़िंदगी,
हमने जब तक आपको चाहा न था।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

___ से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो,
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा..


आपके विकल्प हैं -
a) दरख्त , b) गुल , c) टहनी, d) पंखुडी

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का सही शब्द था "खुद", यानी कि शेर कुछ यूँ था-
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम,
थोडी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे...

सबसे पहले सही जवाब देकर मैदान मारा शन्नो जी ने. मनु जी और सलिल जी ने भी सही जवाब दिया. सलिल जी ने एक सदाबहार शेर याद दिलाया -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है....

वाह...
नीलम जी ने भी सही जवाब दिया, और एक फ़िल्मी गाने को याद किया, पर गीत के बोल भूल गयी, जिसे बाद में मनु जी ने याद दिलवाया पर आदत अनुसार इस बार कोई शेर नहीं सुनाया उन्होंने.

पूजा जी, पहेली का अपना अलग मज़ा है, जो भी विकल्प आपको सही लगे उस पर कुछ सुनाया भी कीजिये. आपकी और सुशील जी की पसंद का गाना भी जल्द ही सुनवाने की कोशिश रहेगी. और चलते चलते सलिल जी का एक और शेर उसी महफिल से-
खुद को खुद पर हो यकीन तो दुनिया से लड़ जाईये,
मंजिलों की फ़िक्र क्यों हो, पैर- नीचे पाईये...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Sunday, May 3, 2009

गर्मी के मौसम राहत की फुहार लेकर आया गीत -"झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे..."



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 69

"सावन आये या ना आये, जिया जब झूमे सावन है"। दोस्तों, अगर मै आप से बरसात पर कुछ गाने गिनवाने के लिए कहूँ तो शायद आप बिना कोई वक़्त लिए बहुत सारे गाने एक के बाद एक बताते जायेंगे। जब भी फ़िल्मों में बारिश की 'सिचुयशन' पर गीत बनाने की बात आयी है तो हमारे गीतकारों और संगीतकारों ने एक से एक बेहतरीन गाने हमें दिये हैं, और फ़िल्म के निर्देशकों ने भी बहुत ही ख़ूबसूरती से इन गानों का फ़िल्मांकन भी किया है। आज हम एक ऐसा ही रिमझिम सावन बरसाता हुआ एक बहुत ही मीठा गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में लेकर आये हैं। हमने बरसात पर इतने सारे गीतों में से इसी गीत को इसलिए चुना क्योंकि यह गीत बहुत सुंदर सुरीला होते हुए भी लोगों ने इसे ज़रा कम सुना है और आज बहुत ज़्यादा किसी रेडियो चैनल पर सुनाई भी नहीं देता है। आज बहुत दिनो के बाद यह गीत सुनकर आप ख़ुश हो जायेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। यह गीत है १९५६ की फ़िल्म परिवार से "झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे"।

सन १९५६ संगीतकार सलिल चौधरी के लिए एक अच्छा साल साबित हुआ क्योंकि इस साल उनके संगीत से सजी तीनों फ़िल्में नामचीन बैनर्स के तले बनी थी, जैसे कि बिमल राय प्रोडक्शन्स, आर. के. फ़िल्म्स और महबूब प्रोडक्शन्स। बिमलदा और सलिलदा की दोस्ती बहुत पुरानी थी। बिमलदा के साथ इससे पहले सलिलदा 'दो बीघा ज़मीन', 'बिराज बहू','नौकरी' और 'अमानत' जैसी फ़िल्मों में काम कर चुके थे। १९५६ में बिमलदा और सलिलदा एक बार फिर साथ में आये फ़िल्म 'परिवार' लेकर जिसमें मुख्य कलाकार थे जयराज और उषा किरण। ख़ुद एक उम्दा निर्देशक होते हुए भी इस फ़िल्म का निर्देशन बिमलदा ने नहीं बल्कि असित सेन ने किया था। इस फ़िल्म में सलिल चौधरी ने शास्त्रीय संगीत को आधार बनाकर गीतों में संगीत दिया। इस फ़िल्म का लताजी और मन्नादा का गाया "जा तोसे नहीं बोलूं कन्हैया" इस फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गीत रहा है जो आधारित है राग हंसध्वनि पर। एक और युगल गीत है इस फ़िल्म में जो शास्त्रीयता की दृष्टि से थोड़ा सा हल्का-फुल्का है लेकिन 'मेलडी' और शब्दों की ख़ूबसूरती में किसी से कम नहीं। लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार की आवाज़ों में झिर झिर सावन बरसाता हुआ यह गीत आज यहाँ पेश हो रहा है। यूँ तो बारिश के गाने ज़्यादातर 'आउट-डोर' में ही फ़िल्माया जाता है और नायक नायिका को भीगते हुए दिखाया जाता है, लेकिन इस गीत का फ़िल्मांकन काफ़ी वास्तविक है क्योंकि इस गाने में नायक और नायिका को अपने घर में बैठकर बाहर हो रही बारिश का आनंद लेते हुए दिखाया गया है। तो चलिये इस गीत की सुरीली बौछारों से हम भी भीग जाते हैं आज!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कवी प्रदीप का लिखा गीत, वसंत देसाई का संगीत.
२. लता तलत का एक और जादूई दोगाना.
३. मुखड़े में नायिका सवाल कर रही है और नायक जवाब दे रहा है...मुखड़े में एक शब्द है -"सुकुमार".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी ने सही जवाब तो दिया पर सर्च करके इसलिए उन्हें विजेता का खिताब नहीं दे पायेंगें. हाँ भरत पाण्डेय जी एकदम सही जवाब दिया है बधाई आपको....मुश्किल था हम मानते हैं, पर बीच-बीच में मुश्किल सवाल न पूछे तो आप लोग भी सही जवाब देते देते ऊब सकते हैं न :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (4)



दोस्तों, यादें बहुत अजीब होती हैं, अक्सर हम हंसते हैं उन दिनों को याद कर जब साथ रोये थे, और रोते हैं उन पलों को याद कर जब साथ हँसे थे. इसी तरह किसी पुराने गीत से गुजरना यादों की उन्हीं खट्टी मीठी कड़ियों को सहेजना है. यदि आप २५ से ४० की उम्र-समूह में हैं तो हो सकता है आज का ये एपिसोड आपको फिर से जवानी के उन दिनों में ले जाये जब पहली पहली बार दिल पर चोट लगी थी.

बात १९९१ के आस पास की है, भारतीय फिल्म संगीत एक बुरे दशक से गुजरने के बाद फिर से "मेलोडी" की तरफ लौटने की कोशिश कर रहा था. सुनहरे दौर की एक खासियत ये थी कि लगभग हर फिल्म में कम से कम एक दर्द भरा नग्मा अवश्य होता था, और मुकेश, रफी, किशोर जैसी गायकों की आवाज़ में ढल कर वो एक मिसाल बन जाता था. मारधाड़ से भरी फिल्मों के दौर में दर्दीले नग्में लगभग खो से चुके थे तो जाहिर है उन दिनों दिल के मारों के लिए उन पुराने नग्मों की तरफ लौंटने के सिवा कोई चारा भी नहीं था. ऐसे में सरहद पार से आई एक ऐसी सदा जिसने न सिर्फ इस कमी को पूरा कर दिया बल्कि टूटे दिलों के खालीपन को कुछ इस तरह से भर दिया, कि सदायें लबालब हो उठी.

जी हाँ हम बात कर रहे हैं पाकिस्तान के मशहूर लोक गायक और शायर अताउल्लाह खान की. गुलशन कुमार अपनी टी सीरीज़ के माध्यम से संगीत जगत में बदलाव का डंका बजा चुके थे. उन्होंने ही सबसे पहले अत्ता की ग़ज़लों की भारत में उतरा. पहली दो अल्बम्स की साधारण सफलता के बाद आई वो अल्बम जिसने पूरे भारत में धूम मचा दी. "बेदर्दी से प्यार" था इसका शीर्षक और "अच्छा सिला दिया", "मुझको दफना कर" और "ये धोखे प्यार के" जैसी ग़ज़लें हर खासो आम की जुबान पर चढ़ गए. सच पूछा जाए तो टी सीरीज़ का साम्राज्य इन्हीं अलबमों की नींव पर खडा हुआ और आगे चलकर गुलशन ने अताउल्लाह खान के कवर वर्ज़न गवा कर सोनू निगम, अभिजीत और नितिन मुकेश जैसे गायकों को स्थापित किया.

उस बेहद सफल अल्बम के साथ एक कहानी भी आई सरहद पार से. अत्ता के प्यार की कहानी. बात फ़ैल गयी कि अत्ता को इश्क में अपनी महबूबा से धोखे मिले और गुस्से में उन्होंने अपनी माशूका का ही कत्ल कर दिया, जेल में बैठकर उन्होंने "बेवफा सनम" की याद में ग़ज़लें लिखी, जिन्हें बाद में उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड कर बाज़ार में पहुँचाया गया. पता नहीं कहानी कितनी सच्ची है कितनी झूठी. पर लगभग ३५ संस्करण के बाद अचानक अत्ता की आवाज़ गायब हो गयी और तब लोगों ने कहना शुरू किया कि अत्ता अब नहीं रहे, उन्हें फांसी हो गयी. कहते हैं गुलशन कुमार कृत "बेवफा सनम" फिल्म अताउल्लाह खान के जीवन पर ही आधारित थी. इन सब किस्सों ने अत्ता की ग़ज़लों को लोकप्रिय बनाने में जम कर सहयोग दिया, और उसके बाद आई उनकी हर अल्बम ने कामियाबी के फलक को छुआ.

समय के साथ अत्ता की ग़ज़लें भुला दी गयी. कुछ लोगों ने उन्हें बाजारू और सस्ता कह कर खारिज कर दिया. उनकी आवाज़ में कोई मिठास नहीं थी न ही कोई विविधता. हर ग़ज़ल का मूड भी लगभग एक सा ही होता था, पर कुछ तो था उस दर्द भरी आवाज़ में जिसने करोडों को रुलाया. उनके बाद उनकी नक़ल की कोई भी कोशिश उनकी सफलता की दूर दूर तक बराबरी न कर पायी.

रोता है दिल उसे याद करके
वो तो चला गया मुझे बर्बाद करके

या फिर
आदमी लाख संभल कर भी चले पर "सादिक",
हादसे होते ही रहते हैं ये होने वाले....

कितनी सरल शायरी है पर इन्हीं शब्दों ने एक ज़माने में आम आदमी के सीने में छुपे दर्द को झकझोरा था. पता नहीं अत्ता आज जिन्दा है या नहीं, अगर हैं तो आज भी वो गाते हैं या नहीं. उनके बारे में सुनी गयी उन कहानियों में कितनी सच्चाई है मुझे आज तक नहीं पता. पर इतने जानता हूँ, कि आज भी उनकी आवाज़ में उन ग़ज़लों को सुनना एक अलग ही तरह का अनुभव है मेरे लिए. यादों के कई झरोखे खुल जाते हैं जेहन में. उनके कुछ लाइव कार्यक्रम भी हुए हैं जिनकी कुछ क्लिप्पिंग्स अंतरजाल पर उपलब्ध हैं. तो दोस्तों इस रविवार सुबह की कॉफी पेश है अताउल्लाह खान की दर्द भरी ग़ज़लों के साथ.

अच्छा सिला दिया....


कमीज तेरी काली....


ये थेवा मुंदरी दा...


तुझे भूलना तो चाहा...


बेदर्दी से प्यार का....


मुझको दफना कर वो जब....


ओ दिल तोड़ के ...


अल्लाह हू अल्लाह हू...


यदि आपमें से किसी श्रोता के पास अताउल्लाह खान साहब के बारे में अधिक जानकारी हों तो कृपया हमारे साथ बाँटें, वैसे उनकी ढेरों ग़ज़लें हमारे संकलन में उपलब्ध हैं यदि आप पसंद करें तो फिर किसी रविवार को कुछ और अत्ता की ग़ज़लों लेकर हम ज़रूर उपस्थित हो जायेंगें. फिलहाल के लिए इजाज़त.

आलेख - सजीव सारथी


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.




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