सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - कृश्न चन्दर - भाग 2/3
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में प्रेमचंद की अमर कहानी "मंत्र" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी के इस अंश का कुल प्रसारण समय 18 मिनट 27 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ।
( "एक गधे की वापसी" से एक अंश)
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#Eighteeth Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/24. Voice: Anurag Sharma
विकलांगता कोई अभिशाप नहीं है, न ये आपके पूर्वजन्मों के पापों की सजा है न आपके परिवार को मिला कोई श्राप. वास्तविकता यह है कि इस दुनिया में कोई भी परिपूर्ण नहीं है, कोई न कोई कमी हर इंसान में मौजूद होती है, कुछ नज़र आ जाती है तो कुछ छुपी रहती है. इसी तरह हर इंसान में कुछ न कुछ अलग काबिलियत भी होती है. अपनी कमियों को समझकर उस पर विजय पाना ही हर जिंदगी का लक्ष्य है. इंसान वही है जो अपनी खूबियों का पलड़ा भारी कर अपनी कमियों को पछाड़ देता है, और दिए हुए संदर्भों में खुद को मुक्कम्मल साबित करता है. पर ये भी सच है कि सामजिक धारणाओं और संकुचित सोच के चलते शारीरिक विकलांगता के शिकार लोगों को समाज में अपनी खुद की समस्याओं के आलावा भी बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. आवाज़ महोस्त्सव के चौदहवें गीत में आज हम इन्हीं हालातों से झूझ रहे लोगों के लिए ये सन्देश लेकर आये हैं हिम्मत और खुद पे विश्वास कर अगर वो चलें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है. सजीव सारथी के झुझारू बोलों को सुरों में पिरोया है ऋषि एस ने और आपनी आवाज़ से इस गीत में एक नया जोश भरा है बिश्वजीत नंदा ने. आशा है कि हमारा ये प्रयास बहुत से निराश दिलों में प्रेरणा भरने में कामियाब रहेगा.
गीत के बोल -
ना कमी, तुझमें कोई
अब कर ले तू, खुद पे यकीं....
जीतेगा तू, हर कदम,
बस करना है, खुद पे यकीं...
हिम्मत बुलंद यारा,
मुश्किल है ज़ंग यारा,
तुझको कसम जो छोडे हौंसले,
खुद में मुक्कम्मल है तू,
मंजिल के काबिल है तू.
दिल से मिटा दे झूठे फासले,
फासले...
हिम्मत बुलंद यारा....
न कमी तुझमे कोई,
अब करे ले तू खुद पे यकीं,
जीतेगा तू हर कदम,
बस करना है खुद पे यकीं...
तेरी काबिलियत पे
होंगें तकाजे भी,
बंद मिलेंगें तुझको
लाखों दरवाज़े भी,
इन आज़माईशों से
तुझको गुजरना होगा,
हर इम्तहानों पे
सच्चा उतरना होगा,
खुद पे भरोसा कर,
खुद अपना साथी बन
आँधियों में जले,
तू ऐसी एक बाती बन,
ना डगमगाए तेरा....
खुद पे यकीं....
खुद पे यकीं
गुन्जायिश गलतियों की,
तुझको मयस्सर नहीं,
पर तेरी मेहनत हरगिज़,
होगी बेअसर नहीं,
सोये हुनर को अपने
तुझको जगाना होगा
हाँ सबसे बेहतर है तू,
तुझको दिखाना होगा,
हाँ सबसे बेहतर है तू,
तुझको दिखाना होगा,
दुनिया क्या सोचे तू,
इसकी परवा न कर,
जो कुछ हो बस में तू
वो बे डर होकर कर गुजर,
बढ़ता ही जाए तेरा,
खुद पे यकीं,
खुद पे यकीं...
खुद पे यकीं,
खुद पे यकीं...
मेकिंग ऑफ़ "खुद पे यकीं" - गीत की टीम द्वारा
ऋषि एस:लगभग ८-९ महीने हुए जब से इस गीत की धुन बनी पड़ी है, इस दौरान मेरे संगीत में बहुत से सकारात्मक बदलाव आ चुके थे. इतने विलंबित गीत को फिर से शुरू करने के पीछे एक कारण इसका सशक्त शब्द संयोजन भी था, जिसके लिए सजीव जिम्मेदार हैं. बिस्वजीत के साथ इतने लंबे समय के बाद काम करके बहुत मज़ा आया. जो कुछ भी मेरे जेहन में था इस गीत के लिए उनके गायन में लगभग वही परिपक्क्वता मिली मुझे, जबकि मुझे उन्हें कुछ खास निर्देशन नहीं देना पड़ा, केवल मेरे गाये संस्करण को सुनकर ही उन्होंने ये कर दिखाया.
बिस्वजीत:'खुद पे यकीन' पे काम करना मेरे खुद के लिए एक ब्लेस्सिंग है. सही में मेरा मानना है की कमी अगर कही होती है वो मन में होती है. मैं मोटिवेशनल स्पीकर निक उजिसिक जी का एक बड़ा फैन हूँ जो पैदा हुए थे बिना पांव और बिना हाथ के. लकिन उनका मानना है की ईश्वर उनको ऐसा बनाए क्योंकि वो जीसस के खास बंदे है. वो बोलते है कोई घर में जब एक छोटा सा बच्चा आता है मम्मी उसका मुंह देखने के लिए तरस जाती है और जब निक ने इस दुनिया में कदम रखा, उनकी मम्मी मुंह मोड लिए थे उनसे, वो सह नहीं पाए ऐसे एक बच्चे को देखने के लिए, ऐसी ज़िंदगी थी उनकी. पर आज वो ऐसे सक्सेस की बुलंदियों को छुए है जिसको मॅग्ज़िमम लोग शायद सपनो में भी सोच नहीं सकते. आज सिर्फ़ 20/25 साल के उम्र में दुनिया के वन ऑफ दा ग्रेटेस्ट मोटिवेशनल स्पीकर है और सारे दुनिया में बाइबल का ट्रू मीनिंग लोगो को समझते है. उनका ऑर्गनाइज़ेशन आज कितने डिसेबल्ड लोगो को फाइनान्शियल और नों-फाइनान्शियल हेल्प प्रवाइड करती है. पूरे बचपन में वो एक ही सवाल पूछे थे GOD से कि उन्होने उनको ऐसा क्यों बनाए, बाइबल से आन्सर खोजे, और उनको आन्सर मिला कि भगवान जब कोई फिज़िकल कमी देते है ये बताते है की वो इंसान उनके करीब होता है. फिर वो कभी नहीं रुके, पूरे दुनिया में जीसस की बातो को स्प्रेड किए, आज एक मिलियनेर है, कितने लोगो को रोज़गार दिए है, कितने डिसेबल्ड लोगो को वो फाइनान्शियल और नों फाइनान्शियल मदद देते है. अगर ये कमी है तो सबको ऐसी कमी मिले. एसलिए कमी नहीं होती है इंसान में, अगर कोई कमी है तो सोच में. खुद पे यकीन सबको मोटीवेट करे यही आशा कर रहा हूँ.
सजीव सारथी:ऋषि के साथ इतने गाने कर चुका हूँ कि अब हम बिना बोले एक दूसरे के मन में क्या है ये समझ लेते हैं. ऋषि की सबसे बड़ी खासियत ये है कि हमेशा लीक से हटकर अर्थात रोमांस आदि विषयों से हटकर कुछ ऐसे गीत रचने की कोशिश करते हैं को समाज के लिए किसी न किसी रूप में हितकारी हों. "जीत के गीत" और "वन वर्ल्ड" जैसे गीत इन्हीं कोशिशों का नतीजा है. दरअसल मैं खुद भी कुछ नया करने में अधिक रूचि लेता हूँ. चूँकि मैं खुद भी एक शारीरिक चुनौती से लड़ रहा हूँ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में, तो मेरे लिए आप समझ सकते हैं कि ये गीत महज एक गीत ही नहीं है. ये मेरे जीवन के लक्ष्यों में से एक है. मेरा विश्वास है कि इस दुनिया में हर इंसान के जीवन का एक उद्देश्य अवश्य होता है. और यदि आपके हिस्से में कोई शारीरिक चुनौती आई है तो उसे भी पोसिटीविली लें और बिना रुके थमे अपनी राह पर चलते चलें. मैं शुक्रगुजार हूँ ऋषि और बिस्वा का जिन्होंने इस गीत को इस अंजाम तक पहुंचाकर मेरे लक्ष्य में मेरी मदद की है. अगर इस गीत से कोई एक शख्स भी मोटिवेट होता है तो मैं खुद को खुशकिस्मत समझूंगा
बिस्वजीत
बिस्वजीत युग्म पर पिछले 1 साल से सक्रिय हैं। हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।
ऋषि एस
ऋषि एस॰ ने हिन्द-युग्म पर इंटरनेट की जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीतों के निर्माण की नींव डाली है। पेशे से इंजीनियर ऋषि ने सजीव सारथी के बोलों (सुबह की ताज़गी) को अक्टूबर 2007 में संगीतबद्ध किया जो हिन्द-युग्म का पहला संगीतबद्ध गीत बना। हिन्द-युग्म के पहले एल्बम 'पहला सुर' में ऋषि के 3 गीत संकलित थे। ऋषि ने हिन्द-युग्म के दूसरे संगीतबद्ध सत्र में भी 5 गीतों में संगीत दिया। हिन्द-युग्म के थीम-गीत को भी संगीतबद्ध करने का श्रेय ऋषि एस॰ को जाता है। इसके अतिरिक्त ऋषि ने भारत-रूस मित्रता गीत 'द्रुजबा' को संगीत किया। मातृ दिवस के उपलक्ष्य में भी एक गीत का निर्माण किया। भारतीय फिल्म संगीत को कुछ नया देने का इरादा रखते हैं।
सजीव सारथी
हिन्द-युग्म के 'आवाज़' मंच के प्रधान संपादक सजीव सारथी हिन्द-युग्म के वरिष्ठतम गीतकार हैं। हिन्द-युग्म पर इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीत निर्माण का बीज सजीव ने ही डाला है, जो इन्हीं के बागवानी में लगातार फल-फूल रहा है। कविहृदयी सजीव की कविताएँ हिन्द-युग्म के बहुचर्चित कविता-संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में संकलित है। सजीव के निर्देशन में ही हिन्द-युग्म ने 3 फरवरी 2008 को अपना पहला संगीतमय एल्बम 'पहला सुर' ज़ारी किया जिसमें 6 गीत सजीव सारथी द्वारा लिखित थे। पूरी प्रोफाइल यहाँ देखें।
Song - Khud Pe Yakeen
Voice - Biswajith Nanda
Backup voice - Rishi S
Music - Rishi S
Lyrics - Sajeev Sarathie
Graphics - samarth garg
Song # 14, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm
इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए
रिमझिम के तरानों पर सवार होकर हम आज पहुंचे हैं इस भीगी भीगी शृंखला की अंतिम कड़ी पर। 'रिमझिम के तराने' में आज प्रस्तुत है संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की एक बेहतरीन रचना की। एल.पी ने सावन के कई हिट गीत हमें दिए हैं, जैसे कि "आया सावन झूम के", "कुछ कहता है यह सावन", "झिलमिल सितारों का आँगन होगा", और आज का प्रस्तुत गीत "रिमझिम के गीत सावन गाए हाए भीगी भीगी रातों में"। यह १९६९ की फ़िल्म 'अनजाना' का गीत है। बताना ज़रूरी है कि यह वही साल था जिस साल 'आराधना' में "रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना" जैसा सेन्सुअस गीत आया था जो एक नया प्रयोग था। उसके बाद से तो जैसे एक ट्रेण्ड सा ही बन गया कि बारिश से बचने के लिए हीरो और हीरोइन किसी सुनसान और खाली पड़े मकान में शरण लेते हैं, और वहाँ पर बारिश को सलाम करते हुए एक रोमांटिक गीत गाते हैं। तो एक तरह से इसे "रूप तेरा मस्ताना" जौनर भी कह सकते हैं। लता-रफ़ी की आवाज़ में फ़िल्म 'अनजाना' का यह गीत बेहद ख़ूबसूरत है हर लिहाज़ से। बोल जितने अच्छे हैं, संगीत भी उतना ही सुरीला। राजेन्द्र कुमार और बबिता पर फ़िल्माया गया यह गीत भी सेन्सुअस है जो भीगी भीगी रात में एक आग सी लगा देती है मन में। "मेरा दिल भी है दीवाना, तेरे नैना भी हैं नादान से, कुछ ना सोचा कुछ ना देखा, कुछ भी पूछा ना इस अनजान से, चल पड़े साथ हम कैसे, ऐसे बनके साथी राहों में, के रिमझिम के गीत सावन गाए हाए भीगी भीगी रातों में"।
दोस्तों, आज इस लघु शृंखला 'रिमझिम के तराने' की अंतिम कड़ी है। तो क्यों ना आज भी कुछ शायराना बातें हो जाए सावन पर। तो अर्ज़ किया है...
सावन की पहली बारिश में बचपन में नहाना याद है, रिमझिम रिमझिम टप टप टप टप बारिश का गाना याद है। वो बादलों के मजमे को देख कर वो हम सब का शोर मचाना, वो भीग भीग कर नाच नाचना बन कर दीवाना याद है। बादलों का गरजना बिजली का चमकना सावन की बरसात में, कोयल का मीठा मीठा प्यारा प्यारा सुंदर तराना याद है। मस्ती मे डूब जाना सब बंदिशें भूल ख़ुशियाँ मनाना, ज़मीन पे गिरे पानी में सब दोस्तों को भीगाना याद है। बारिश के पानी को चखना मौसम की पहली बरसात में, सावन की पहली बारिश में बचपन में नहाना याद है।
दोस्तों, हम यह पता तो नहीं लगा पाए कि यह किसने लिखा है, लेकिन वाक़ई बचपन का वह ज़माना याद आ दिला दिया इन अल्फ़ाज़ों ने। उम्मीद है आपको भी अपने बचपन के बारिश के दिन याद आ गए होंगे, वो काग़ज़ की कश्तियाँ, वो बारिश का पानी! 'रिमझिम के तराने' शृंखला तो हो गई पूरी, लेकिन सावन का महीना जारी है, और इस रूमानीयत भरे भीगे मौसम में हमारी तरफ़ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। सावन का आनंद लीजिए, हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर एक नई शृंखला के साथ फिर वापस आएँगे रविवार की शाम। तब तक के लिए अलविदा, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ। धन्यवाद!
क्या आप जानते हैं... कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ऐसे पहले संगीतकार बने जिन्होने लगातार चार साल (१९७८ से १९८१) सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता (अमर अकबर ऐंथनी, सत्यम शिवन सुंदरम, सरगम, कर्ज़)। इस कड़ी को तोड़ा ख़य्याम साहब ने १९८२ में फ़िल्म 'उमरावजान' के ज़रिए।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. डीन मार्टिन के एक अंग्रेजी गीत की धुन से प्रेरित है ये गीत, संगीतकार बताएं - ३ अंक. २. नूतन ने सहयोग दिया है इस गीत में मूल गायक का, कौन हैं जिनकी आवाज़ ने इस गीत को एक अलग मुकाम दे दिया है- २ अंक. ३. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक. ४. इस फिल्म के जरिये किस अभिनेत्री को लॉन्च किया गया था फिल्मों में - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - इस सप्ताहांत भी शरद जी ने बढ़त बरकरार रखी है, आप हैं ५६ पर, अवध जी ४९ पर और इंदु जी हैं जरा पीछे २३ पर. वीकेंड का आनंद लीजिए. फिर मिलेंगें चलते चलते :)
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
तीन दशक बीत चुके हैं, लेकिन जब भी जुलाई का यह महीना आता है तो कलेण्डर का पन्ना इशारा करती है १४ जुलाई के दिन की तरफ़ जिस दिन एक महान संगीतकार हम से बिछड़े थे। ये वो संगीतकार हैं जो जाते वक़्त हमसे कह गए थे कि "मेरे लिए ना अश्क़ बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या"। कितनी सच बात है कि उनके गानें हमारे साथ वफ़ा ही तो करती आई है आज तक। कुछ ऐसा जादू है उनके गीतों में कि हम चाह कर भी उन्हे नहीं अपने दिल से मिटा सकते। दोस्तों, जुलाई और सावन का जब जब यह महीना आता है, संगीतकार मदन मोहन की सुरीली यादें भी जैसे छम छम बरसने लग पड़ती हैं। ऐसे में जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सावन के फुहारों की इन दिनों बातें कर रहे हैं तो आज के दिन मदन मोहन साहब के संगीत से आपको कैसे वंचित रख सकते हैं! आज हम इस कड़ी में सुनने जा रहे हैं मदन साहब की धुनों से सजी एक रिमझिम फुहारों भरा गीत। वैसे तो "रिमझिम" के साथ अगर मदन मोहन को जोड़ा जाए तो सब से पहले फ़िल्म 'वो कौन थी' का वही मशहूर गीत "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, पिया तोरे आवन की आस" की ही याद आती है। यह गीत भले ही रिमझिम बारिश की याद दिलाती हो, लेकिन यह गीत बारिश का गीत नहीं है। इसलिए हमने आज जिस गीत को चुना है वह है सन् १९६५ की फ़िल्म 'शराबी' का गीत जिसे लिखा है राजेन्द्र कृष्ण ने और गाया है मोहम्मद रफ़ी ने। शराबी अंदाज़ में ही गाया हुआ यह नग़मा है "सावन के महीने में, एक आग सी सीने में, लगती है तो पी लेता हूँ, दो चार घड़ी जी लेता हूँ"। क्योंकि यह गीत शराब में चूर नायक गा रहे हैं, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी उसी शराबी अंदाज़ का किया है मदन साहब ने।
प्रस्तुत गीत की खासियत यह है कि इसके दो वर्ज़न हैं। दोनों ही शराब पीकर गाने वाले नायक के। लेकिन एक में है मस्ती तो दूसरे में है ग़म। बात साफ़ है कि पहले में नायक ख़ुश होकर शराब पी कर गीत गा रहे हैं तो दूसरे में किसी दर्द भरी शाम में शराब और सावन को अपना साथी बनाकर यह गीत गा रहे हैं। पहले वर्ज़न में अगर पूरे रीदम और बीट्स के साथ वेस्टर्ण ऒरकेस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है तो दूसरे वर्ज़न में कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है और उसके अंतरों में तो बिलकुल ही बीट्स नहीं प्रयोग हुआ है। मदन मोहन के शब्दों में "संगीत रचना भी एक तरह का नशा है। सूरज ढल चुका था, सामने जाम था, मीना थीं, और फ़िल्म 'शराबी' की एक सिचुएशन। तो युंही जब जाम ख़ाली होने लगे, तो दो चार मिनटों में मस्तक से पाँव तक एक नग़मा बन चुका था। साज़िंदों के साज़ हाथों पर, और राजेन्द्र कृष्ण के होठों से गाने के बोल फुटते हुए, कुछ ऐसे..." तो लीजिए दोस्तों, पेश है यह गीत, सब से पहले आप सुनेंगे मदन मोहन की बोलती हुई आवाज़ में ये ही शब्द, उसके बाद रफ़ी साहब की आवाज़ में गीत के दोनों वर्ज़न, पहले दर्द भरे अंदाज़ में और फिर उसके बाद मस्ती भरे अंदाज़ में। सावन के महीने में इस नशीले गीत को सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से यही कहेंगे कि सावन का आनंद ज़रूर लीजिए लेकिन शराब के साथ नहीं। नशा करना ही है तो ज़िंदगी का नशा कीजिए, यकीन मानिए बड़ी नशीली है यह ज़िंदगी अगर आपने जीना सीख लिया है तो। चलते चलते संगीतकार मदन मोहन को 'आवाज़' की श्रद्धांजली।
क्या आप जानते हैं... कि फ़िल्म 'वीर ज़ारा' का मशहूर गीत "तेरे लिए हम हैं जिए होठों को सिए" की धुन सब से पहले मदन मोहन ने फ़िल्म 'मौसम' के गीत "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन" के लिए तैयार किया था। उस वक्त यह धुन 'मौसम' के गीत में इस्तेमाल नहीं हुई और बरसों बाद उनके बेटे ने इसी धुन को 'वीर ज़ारा' में इस्तेमाल करवाया।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इसी माह में इस अभिनेता की जयंती भी है और पुण्य तिथि भी, जिन पर ये गीत फिल्माया गया है, हम किसकी बात कर रहे हैं - ३ अंक. २. संगीतकार बताएं इस युगल गीत के- २ अंक. ३. रफ़ी लता के गाये इस गीत को किसने लिखा है - २ अंक. ४. १९६९ में आई इस सुपर हिट संगीतमयी फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - एक बार फिर सही साबित हुए शरद जी और अवध जी बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
"नारी-मन की व्यथा को अपनी मर्मस्पर्शी शैली के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाली पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं।" - यह कहना है सुरेश कुमार का, जिन्होंने "परवीन शाकिर" पर "खुली आँखों में सपना" नाम की पुस्तक लिखी है। सुरेश कुमार आगे लिखते हैं:
बीसवीं सदी के आठवें दशक में प्रकाशित परवीन शाकिर के मजमुआ-ए-कलाम ‘खुशबू’ की खुशबू पाकिस्तान की सरहदों को पार करती हुई, न सिर्फ़ भारत पहुँची, बल्कि दुनिया भर के उर्दू-हिन्दी काव्य-प्रेमियों के मन-मस्तिष्क को सुगंधित कर गयी। सरस्वती की इस बेटी को भारतीय काव्य-प्रेमियों ने सर-आँखों पर बिठाया। उसकी शायरी में भारतीय परिवेश और संस्कृति की खुशबू को महसूस किया:
ये हवा कैसे उड़ा ले गयी आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
परवीन शाकिर की शायरी, खुशबू के सफ़र की शायरी है। प्रेम की उत्कट चाह में भटकती हुई, वह तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी आस्था समाप्त नहीं होती। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए, वह अपने धैर्य का परीक्षण भी करती है।
कमाल-ए-ज़ब्त को खुद भी तो आजमाऊँगी
मैं अपने हाथ से उसकी दुलहन सजाऊँगी
प्रेम और सौंदर्य के विभिन्न पक्षों से सुगन्धित परवीन शाकिर की शायरी हमारे दौर की इमारत में बने हुए बेबसी और विसंगतियों के दरीचों में भी अक्सर प्रवेश कर जाती है-
ये दुख नहीं कि अँधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
पाकिस्तान की इस भावप्रवण कवयित्री और ख़्वाब-ओ-ख़याल के चाँद-नगर की शहज़ादी को बीसवीं सदी की आखिरी दहाई रास नहीं आयी। एक सड़क दुर्घटना में उसका निधन हो गया। युवावस्था में ही वह अपनी महायात्रा पर निकल गयी।
कोई सैफो हो, कि मीरा हो, कि परवीन उसे
रास आता ही नहीं चाँद-नगर में रहना
परवीन शाकिर के मौत की बरसी पर "स्टार न्युज़ एजेंसी" ने यह खबर छापी थी:
आज परवीन शाकिर की बरसी है...परवीन शाकिर ने बहुत कम अरसे में शायरी में वो मुकाम हासिल किया, जो बहुत कम लोगों को ही मिल पाता है. कराची (पाकिस्तान) में २४ नवंबर १९५२ को जन्म लेने वाली परवीन शाकिर की ज़िन्दगी २६ दिसंबर १९९४ को इस्लामाबाद के कब्रस्तान की होने तक किस-किस दौर से गुज़री...ये सब उनकी चार किताबों खुशबू, खुद कलामी, इनकार और माह तमाम की सूरत में हमारे सामने है...माह तमाम उनकी आखिरी यादगार है...
२६ दिसंबर १९९४ को इस्लामाबाद में एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई थी. जिस दिन परवीन शाकिर को कब्रस्तान में दफ़नाया गया, उस रात बारिश भी बहुत हुई, लगा आसमान भी रो पड़ा हो...सैयद शाकिर के घराने का ये रौशन चराग इस्लामाबाद के कब्रस्तान की ख़ाक में मिल गया हो, लेकिन उसकी रौशनी और खुशबू अदब की दुनिया में रहती दुनिया तक कायम रहेगी..
परवीन की मौत के बाद उनकी याद में एक "क़िता-ए-तारीख" की तख्लीक की गई थी:
सुर्ख फूलों से ढकी तुरबत-ए-परवीन है आज
जिसके लहजे से हर इक सिम्त है फैली खुशबू
फ़िक्र-ए-तारीख-ए-अजल पर यह कहा हातिफ़ ने
फूल! कह दो "है यही बाग-ए-अदब की खुशबू
उपरोक्त पंक्तियाँ "तनवीर फूल" की पुस्तक "धुआँ धुआँ चेहरे" में दर्ज हैं।
परवीन शाकिर अच्छी-खासी पढी-लिखी थीं। अच्छी-खासी कहने से अच्छा है कि कहूँ अव्वल दर्जे की शिक्षित महिला थीं क्योंकि उनके पास एक नहीं तीन-तीन "स्नातकोत्तर" की डिग्रियाँ थीं.. वे तीन विषय थे - अंग्रेजी साहित्य, लिग्विंसटिक्स एवं बैंक एडमिनिस्ट्रेशन। वे नौ वर्ष तक शिक्षक रहीं, उसके बाद वे प्रशासनिक सेवा का हिस्सा बन गईं। १९८६ में उन्हें CBR का सेकेंड सेक्रेटरी नियुक्त किया गया। उन्होंने कई सारी किताबें लिखीं। उनकी पहली किताब "खुशबू" ने उन्हें "अदमजी" पुरस्कार दिलवाया। आगे जाकर उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च पुरस्कार "प्राईड ऑफ परफ़ोरमेंश" से भी नवाज़ा गया। पहले-पहल परवीन "बीना" के छद्म नाम से लिखा करती थीं। वे "अहमद नदीम क़ासमी" को अपना उस्ताद मानती थीं और उन्हें "अम्मुजान" कहकर पुकारती थीं। परवीन का निकाह डाक्टर नसिर अहमद से हुआ था लेकिन परवीन की दुखद मौत से कुछ दिनों पहले हीं उन दोनों का तलाक हो गया।
यह था परवीन का संक्षिप्त परिचय। इनके बारे में अगर ज्यादा जान हो तो यहाँ जाएँ। मैं अगर सही हूँ और जहाँ तक मुझे याद है, हमारी इस महफ़िल में आज से पहले किसी शायरा की आमद नहीं हुई थी यानि कि परवीन पहली शायरा हैं, जिनके नाम पर पूरी की पूरी महफ़िल सजी है। हमें इस बात का गर्व है कि देर से हीं सही लेकिन हमें किसी शायरा की इज़्ज़त-आफ़जाई करने का मौका तो मिला। हम आगे भी ऐसी कोशिश करते रहेंगे क्योंकि ग़़ज़ल की दुनिया में शायराओं की कमी नहीं।
परवीन की शायरी अपने-आप में एक मिसाल है। इनकी गज़लों के एक-एक शेर मुखर हैं। मन तो हुआ कि सारी गज़लें यहाँ डाल दूँ लेकिन जगह अनुमति नहीं देती। इसलिए बगिया से कुछ फूल चुनकर लाया हूँ। खुशबू कैसी है, कितनी मनभावन है यह जानने के लिए आपको इन फूलों को चुमना होगा, गुनना होगा:
आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है
सर छुपाएँ तो बदन खुलता है
ज़ीस्त मुफ़लिस की रिदा हो जैसे
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये
परवीन शाकिर के बारे में ज्यादा कुछ न कह सका क्योंकि मेरी "तबियत" आज मेरा साथ नहीं दे रही। पहले तो लगा कि आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल सजेगी हीं नहीं, लेकिन "मामूल" से पीछे हटना मुझे नहीं आता, इसलिए जितना कुछ हो पाया है, वही लेकर आपके बीच आज हाज़िर हूँ। उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी मजबूरी समझेंगे और बाकी दिनों की तरह आज भी महफ़िल को ढेर सारा प्यार नसीब होगा। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल की ओर रूख कर लेते हैं। इस ग़ज़ल को अपनी मखमली आवाज़ से मुकम्मल किया है ग़ज़लगायकी के बादशाह मेहदी हसन साहब ने। यूँ तो मेहदी साहब ने बस ३ हीं शेर गाए हैं, लेकिन मैंने पूरी ग़ज़ल यहाँ उपलब्ध करा दी है, ताकि बचे हुए शेरों की ज़ीनत भी खुलकर सामने आए। तो पेश-ए-खिदमत है आज की ग़ज़ल:
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न ____ शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "पालकी" और शेर कुछ यूँ था-
मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
पिछली महफ़िल की शोभा बनीं नीलम जी। आपने अपने खास अंदाज में हमें धमका भी दिया.. आपकी यह अदा हमें बेहद पसंद आई। नीलम जी के बाद महफ़िल की शम्मा शरद जी के सामने ले जाई गई। इस बार शरद जी का अंदाज़ अलहदा-सा था और उन्होंने स्वरचित शेरों के बजाय नीरज के शेरों से महफ़िल को रौशन किया। भले हीं शरद जी दूसरे रास्ते पर निकल गए हों लेकिन मंजु जी ने अपनी लीक नहीं छोड़ी.. उन्होंने तो स्वरचित शेर हीं पेश करना सही समझा। इंदु जी, आपने सही कहा.. बशीर बद्र साहब और हुसैन बंधु ये तीनॊं ऐसी हस्तियाँ हैं, जिन्हें उनके हक़ की मक़बूलियत हासिल नहीं हुई। मनु जी, कुछ और भी कह देते.. खैर आप ठहरे "रमता जोगी".. आप किसकी सुनने वाले :) अवध जी, आपने "नीरज" की नज़्म याद दिलाकर महफ़िल में चार चाँद लगा दिए। शन्नो जी, ग़ज़ल और आलेख आपके पसंद आए, हमें इससे ज्यादा और क्या चाहिए। अमित जी, हमारी महफ़िल तो इसी कोशिश में है कि फ़नकार चाहे जो भी हो, अगर अच्छा है तो उसे अंधकार से प्रकाश में आना चाहिए। सीमा जी, इस बार एक हीं शेर.. ऐसा क्यों? और इस बार आपने देर भी कर दी है। अगली बार से ऐसा नहीं चलेगा :) अवनींद्र जी, आप आए नहीं थे तो मुझे लगा कि कहीं फिर से नाराज़ तो नहीं हो गएँ.. अच्छा हुआ कि नीलम जी ने पुकार लगाई और आप खुद को रोक न सके। अगली बार से यही उपाय चाहिए होगा क्या? :)
बातों के बाद अब बारी है पिछली महफ़िल के शेरों की:
सोचता था कैसे दम दूं इन बेदम काँधों को अपने
पिता ने काँधे से लगाया जब ,मेरी पालकी को अपने (नीलम जी)
जैसे कहार लूट लें दुल्हन की पालकी
हालत वही है आजकल हिन्दोस्तान की (नीरज)
अल्लाउदीन से मिलने गई जब रानी पदमनी ,
उसे हर पालकी में नजर आई रानी पदमनी (मंजु जी)
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वोह गिरी
पुंछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे (नीरज)
उसे लेकर गयी पालकी जहाँ उसकी कोई कदर न थी
जो जहान था उसके लिये उसकी नजर कहीं और थी. (शन्नो जी)
शब्द की नित पालकी उतरी सितारों की गली में
हो अलंकॄत गंध के टाँके लगाती हर कली में (राकेश खंडेलवाल )
मन की पालकी मैं वेदना निढाल सी
अश्क मैं डूबी हुई भावना निहाल सी (अवनींद्र जी)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'रिमझिम के तराने' शृंखला की आज है आठवीं कड़ी। दोस्तों, हमने इस बात का ज़िक्र तो नहीं किया था, लेकिन हो सकता है कि शायद आप ने ध्यान दिया हो, कि इस शृंखला में हम बारिश के १० गीत सुनवा रहे हैं जिन्हे १० अलग अलग संगीतकारों ने स्वरबद्ध किए हैं। अब तक हमने जिन संगीतकारों को शामिल किया, वो हैं कमल दासगुप्ता, वसंत देसाई, शंकर जयकिशन, हेमन्त कुमार, सचिन देव बर्मन, रवीन्द्र जैन, और राहुल देव बर्मन। आज जिस संगीतकार की बारी है, वह एक बेहद सुरीले और गुणी संगीतकार हैं, जिनकी धुनें हमें एक अजीब सी शांति और सुकून प्रदान करती हैं। एक सुकून दायक ठहराव है जिनके संगीत में। उनके गीतों में ना अनर्थक साज़ों की भीड़ है, और ना ही बोलों में कोई सस्तापन। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं ख़य्याम साहब की। आज की कड़ी में सुनिए आशा भोसले की आवाज़ में सन् १९८० की फ़िल्म 'थोड़ी सी बेवफ़ाई' का रिमझिम बरसता गीत "बरसे फुहार, कांच की जैसी बूंदें बरसे जैसे, बरसे फुहार"। गुलज़ार साहब का लिखा हुआ गीत है। इस फ़िल्म के दूसरे गानें भी काफ़ी मशहूर हुए थे, मसलन लता-किशोर के गाए "आँखों में हमने आप के सपने सजाए हैं" और "हज़ार राहें मुड़के देखीं"; भुपेन्द्र का गाया "आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं", अनवर और सुलक्षणा का गाया "मौसम मौसम लवली मौसम"; तथा जगजीत कौर व सुलक्षणा का गाया "सुनो ना भाभी"। अंतिम दो गीतों को छोड़कर बाकी सभी गीतों में ख़य्याम साहब का ठहराव भरा अंदाज़ साफ़ झलकता है, जिन्हे जितनी भी बार सुना जाए उतना ही अच्छा लगता है और दिल को सुकून पहुँचाता है। अगर आप के शहर में बारिश ना भी हो रही हो, तो भी इन गीतों को, और ख़ास कर आज के प्रस्तुत गीत को सुन कर आपके तन-मन में ठंडक का अहसास हो जाएगा, ऐसा हमारा ख़याल है!
दोस्तों, आइए आज ख़य्याम साहब की कुछ बातें की जाए। बातें जो ख़य्याम साहब ने ख़ुद बताया था विविध भारती के किसी कार्यक्रम में: "पंडित अमरनाथ, हुस्नलाल जी, भगतराम जी, तीन भाई, इन लोगों से मैंने संगीत सीखा सब से पहले। उन दिनों ऐक्टर बनने का शौक था मुझे। लेकिन उन दिनों ऐक्टर बनने के लिए भी संगीत सीखना ज़रूरी था। लाहौर में मेरी मुलाक़ात हुई चिशती बाबा से, जो उन दिनों टॊप के संगीतकार हुआ करते थे। एक बार वो एक म्युज़िकल कॊम्पीटिशन कर रहे थे। आधे घंटे के बाद उन्होनें अपने ऐसिस्टैण्ट को बोला कि मैंने वह जो धुन बजाई थी, वह मैंने क्या बजाया था, बजाओ ज़रा! उन दिनों आज की तरह धुन रिकार्ड नहीं किया जाता था। मैं कोने में बैठा हुआ था, मैंने उनसे कहा कि मैं बजा सकता हूँ। तो उन्होने मुझसे कहा कि तुम कैसे बजाओगे, तुम्हे याद है? फिर मैंने बजाया और वो बोले कि तुम मेरे साथ काम करो, तुम्हारा जेहन अच्छा है संगीत का, मेरे ऐसिस्टैण्ट रहो और शिष्य भी। मैंने कहा कि मुझे तो ऐक्टर बनना है। तो उन्होने कहा कि मेरे साथ रहो, इस तरह से लोगों से मिल भी सकते हो, ऐक्टर भी बन जाओगे।" दोस्तों, ख़य्याम ऐक्टर तो नहीं बने, लेकिन उनके संगीतकार बनने की आगे की कहानी हम फिर किसी दिन आपको सुनवाएँगे। फिलहाल सुनते हैं आशा जी की आवाज़ में यह सुकून भरा नग़मा "बरसे फुहार"।
क्या आप जानते हैं... कि संगीतकार ख़य्याम ने सन १९४७ के आसपास शर्माजी के नाम से कई फ़िल्मों में संगीत दिया था। ऐसा उन्हे उन दिनों बम्बई में चल रही साम्प्रदायिक तनाव के मद्देनज़र करना पड़ा था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस नाम से ८० के दशक में भी एक फिल्म आई थी जिसमें अमिताभ ने यादगार अभिनय किया था, संगीतकार बताएं-३ अंक. २. मुखड़े में शब्द है -"आग", गीतकार का नाम बताएं - २ अंक. ३. रफ़ी साहब के गाये इस बहके बहके गीत की फिल्म का नाम बताएं - २ अंक. ४. गीत के दो वर्जन हैं, फिल्म में, पहली पंक्ति बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - अवध जी, गलती के लिए माफ़ी चाहेंगें, वैसे एक बार आप और शरद जी एकदम सही ठहरे
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' मे सभी श्रोताओं व पाठकों को मेरा नमस्कार, और विश्व दीपक जी आपको भी।
विश्व दीपक - सभी को मेरा भी नमस्कार, और सुजॊय जी आपको भी।
सुजॊय - फ़िल्मी गीत फ़िल्म की कहानी, किरदार, और सिचुएशन के मुताबिक ही बनाने पड़ते हैं। यानी कि फ़िल्मी गीतों के कलाकारों को एक दायरे में बंधकर ही अपने कला के जोहर दिखाने पड़ते हैं। और अगर फ़िल्म की कहानी ऐसी हो कि जो फ़ॊरमुला फ़िल्मों की कहानी से बिल्कुल हट के हो, अगर उसमें हीरो-हीरोइन वा्ला कॊनसेप्ट ही ना हो, और फ़िल्म के निर्देशक और संगीतकार प्रयोगधर्मी हों, तब ऐसे फ़िल्म के संगीत से हम कुछ ग़ैर पारम्परिक उम्मीदें ही कर सकते हैं। है ना विश्व दीपक जी?
विश्व दीपक - सही कहा, और आज हम ऐसी ही एक लीक से बाहर की फ़िल्म 'उड़ान' के गीतों को लेकर उपस्थित हुए हैं। यह फ़िल्म अनुराग कश्यप की है, जिसे निर्देशित किया है विक्रमादित्य मोटवाणी ने। ये वही विक्रमादित्य हैं जिन्होंने "देव-डी" की कहानी लिखी थी। अनुराग की पिछली फ़िल्मों की तरफ़ अगर एक नज़र दौड़ा ली जाए तो 'देव-डी', 'ब्लैक फ़्राइडे' और 'गुलाल' के प्रयोगधर्मी संगीत की तरह 'उड़ान' के संगीत से भी हम कुछ नए की उम्मीदें लगा ही सकते हैं। आज इस स्तंभ में बजने वाले गीतों को सुनने के बाद हम सभी ये अंदाजा लगा पाएँगे कि संगीतकार अमित त्रिवेदी और गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य वाक़ई लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरे हैं या नही।
सुजॊय - तो चलिए गीतों का सिलसिला शुरु किया जाए, सुनते हैं पहला गीत।
गीत: आँखों के परदों पे
विश्व दीपक - जॉय बरुआ और नोमान पिंटो का गाया हुआ यह गाना था। "आँखों के परदों पे प्यारा सा जो था वो नज़ारा, धुआँ सा बन कर उड़ गया अब न रहा, बैठे थे हम तो ख़्वाबों की छाँव तले, छोड़ के उनको जाने कहाँ को चले, कहानी ख़त्म है या शुरुआत होने को है, सुबह है ये नई या फिर रात होने को है"। इन बोलों को सुन कर मतलब साफ़ है कि फ़िल्म के दो नायक अपने भविष्य को लेकर कुछ संशय में हैं। उन्हे यह नहीं पता कि जो हो रहा है वो अच्छे के लिए या ग़लत हो रहा है। दर-असल इन बोलों के साथ आज का हर युवा अपने आप को कनेक्ट कर सकेगा। अक्सर ऐसा होता है आजकल कि बच्चा कुछ बनने का सपना देखता है, जिसमें उसकी रूचि है, लेकिन कभी हालात की वजह से, कभी माँ-बाप के सपनों की वजह से, या फिर किसी और वजह से उसे ज़बरदस्ती ऐसे क्षेत्र में करीयर बनाना पड़ता है जिसमें उसे सफलता तो मिलती है लेकिन उसमें उसकी रूचि नहीं है। यह गीत उन सभी युवाओं के दिल को छू जाएगा ऐसा मेरा विचार है।
सुजॊय - आपने कहा कि फ़िल्म के दो नायकों के मन में संशय है, तो यहाँ पर इस फ़िल्म की कहानी की थोड़ी सी भूमिका मैं देना चाहूँगा। यह विक्रमादित्य मोटवाणे निर्देशित फ़िल्म है जिसकी कहानी एक युवक के सपनों की कहानी है, सपनों को पूरा करने की कहानी है। और इस युवक की भूमिका अदा की है रजत बरमेचा ने। साथ में हैं रोनित रॉय, आयान बोराडिआ, राम कपूर, मनजोत सिंह, आनंद तिवारी, सुमन मस्तकर और राजा हुड्डा। 'उड़ान' ६३-वीं कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भारत की एकमात्र एंट्री है। और शायद इसी वजह से इस फ़िल्म की तरफ़ सब की निगाहें टिकी हुई हैं।
विश्व दीपक - इस गीत का जहाँ तक सवाल है, गीत केवल साढ़े तीन मिनट अवधि की है, और उसमें भी शुरुआती १:२० मिनट प्रील्युड म्युज़िक है जिसमें गीटार का सुंदर इस्तेमाल है। मुखड़े के दूसरे हिस्से से गीत में सॊफ़्ट रॊक शैली समा जाती है। गीत भले ही छोटा है लेकिन इसकी छाप गहरी पड़ने वाली है। और अब आगे बढ़ते हैं दूसरे गीत की तरफ़।
गीत: गीत में ढलते लफ़्ज़ों में .... कुछ नया तो ज़रूर है
सुजॊय - अमित त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य की आवाज़ें थी इस गीत में। और बड़ी दिलचस्प बात है कि इस गीत को गीतकार-संगीतकार जोड़ी ने गाया है। मुझे नहीं लगता पहले कभी ऐसा हुआ है कि कोई युगल गीत हो और उसमें दो आवाज़ें उसी फ़िल्म के गीतकार और संगीतकार की हो। वाक़ई कुछ नया तो ज़रूर है! गीत के रीदम को सुनते हुए 'देव-डी' के "एक हलचल सी" की याद आ ही जाती है।
विश्व दीपक - और साथ ही बोलों को सुनते हुए फ़िल्म 'इक़बाल' का "आशाएँ खिले दिल की" गीत की भी याद आती है। जो पहला गीत था उसमें संशय था आशा और निराशा का, लेकिन इस गीत में आशावादी भाव ही उभर कर सामने आया है। और धुन भी अमित ने ऐसा बनाया है कि जल्दी ही दिल को छू लेता है। सॊफ़्ट रॊक शैली का इस्तेमाल इसमें भी हुआ है और ७० के दशक का टीपिकल रीदम जिसमें ईलेक्ट्रिक गीटार, किक ड्रमिंग और परक्युशन्स का इस्तेमाल हुआ है।
सुजॊय - अब अगला गीत लोक संगीत और पश्चिमी ऒरकेस्ट्रेशन का फ़्युज़न है। अगर आपको 'देव-डी' का "ढोल यारा" याद है तो आपको यह भी याद होगा कि इस गीत को कितनी सरहना मिली थी उस प्रयोग के लिए। अब 'उड़ान' में ऐसा ही गीत है "नाव - चढ़ती लहरें लांघ ना पाए"। आवाज़ गायक मोहन की है। इस गीत के लिए जिस तरह की रस्टीक वॊयस की ज़रूरत थी, मोहन ने वैसे ही इसे गाया है। मोहन के बारे में जिन लोगों को जानकारी नहीं है, उन्हें बता दें कि ये वही गायक हैं जिन्होंने "लंदन ड्रीम्स" का "खानाबदोश" गाया था। मोहन "अग्नि" बैंड से ताल्लुक रखते हैं। जहाँ तक इस गाने की बात है तो "नाव" कैलाश खेर वाले अंदाज़ का गाना है जिसको मोहन ने अच्छा अंजाम दिया है। तो आइए सुनते हैं यह गाना:
गीत: नाव
विश्व दीपक - वाक़ई कैलाश खेर की याद आ गई! और अब 'उड़ान' के शीर्षक गीत की बारी। इस फ़िल्म के लगभग सभी गीत प्रेरणादायक हैं, इंसपिरेशनल हैं। पता नहीं क्यों, बार बार फ़िल्म 'इक़बाल' की याद आ रही है! "नदी में तलब है कहीं जो अगर, समंदर कहाँ दूर है,... एक उड़ान कब तलक युं क़ैद रहेगी, रोको न छोड़ दो इसे" - एक और आशावादी और प्रेरणादायक गीत, और इस बार आवाज़ें अमित त्रिवेदी, जॉय बरुआ और नोमान पिंटो की। संगीत में वही रॉक अंदाज़। गीत का रीदम धीरे धीरे तेज़ होता जाता है जिससे जोश बढ़ता जाता है जो गीत के भाव को और ज़्यादा पुख़्ता करता जाता है।
सुजॊय - इस गीत का संगीत संयोजन लगभग पहले के तीन गीतों जैसा ही है, लेकिन इन सभी गीतों को सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे एक सामंजस्य है, एक सूत्र है जो इन सभी गीतों को आपस में जोड़े रखता है, संगीत के लिहाज़ से भी, और शब्दों के लिहाज़ से भी। हमने आपने तो यह गीत सुन लिया है, आइए अब हम अपने श्रोताओं को भी यह गीत सुनवाएँ।
विश्व दीपक - जी क्यों नहीं!
गीत: एक उड़ान कब तलक क़ैद रहेगी
विश्व दीपक - और अब आज की इस प्रस्तुति का अंतिम गीत। एक और आशावादी गीत - "पैरों की बेड़ियाँ ख़्वाबों को बांधे नहीं रे, कभी नहीं रे, मिट्टी की परतों को नन्हे से अंकुर भी चीरें, धीरे धीरे , इरादे हरे हरे जिनके सीनों में घर करे, वो दिल की सुने, करे, ना डरे"। अमित त्रिवेदी, नोमान पिंटो, निखिल डी'सूज़ा और अमिताभ भट्टाचार्य की समूह स्वरों में यह सॉफ़्ट नंबर एक बार फिर से कुछ नया कर दिखाने का जुनून लिए हुए है। गीत का शीर्षक रखा गया है "आज़ादियाँ", जो गीत शुरु होने के २:५० मिनट बाद गीत में आता है। और इस गीत को उसी अंदाज़ में बनाया गया है जैसा कि पहला गीत "आँखों के परदों पे" को बनाया गया है। इन सभी गीतों का इस्तेमाल थीम सॉँग के हैसीयत से फ़िल्म में किया गया होगा!
सुजॊय - सितार की ध्वनियाँ गीत के एक इंटरल्युड में सुनाई देती है और एक सुकून सा दे जाती है। वैसे गीत का जो मूड है, जो म्युज़िक अरेंजमेण्ट है, वह किसी रॊक कॊनसर्ट के लिए परफ़ेक्ट है। इतने सारे गायकों के आवाज़ों के संगम की वजह से इस गीत में एक कॊलेज कैम्पस जैसा फ़ील आया है। एक बात जो इस फ़िल्म के गीतों में कोई भी गायिका की आवाज़ मौजूद नहीं है। यह पूरी तरह से मेल डॊमिनेटेड ऐल्बम है। आइए आज का यह आख़िरी गीत सुन लेते हैं।
गीत: आज़ादियाँ
"उड़ान" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
सुजॊय - हाँ, तो इन तमाम गीतों को सुनने के बाद मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि अमित त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य ने जो उड़ान भरी है, वह सुरक्षित लैण्ड करेगी श्रोताओं के दिलों में। हालाँकि इस ऐल्बम वह वैरायटी नहीं है जो 'देव-डी' में थी, हो सकता है कि इसका कारण फ़िल्म की स्टोरी-लाइन हो, जो भी है, हम इस फ़िल्म की पूरी टीम को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। अमित त्रिवेदी ने 'आमिर', 'देव-डी' और 'वेक अप सिड' के लिए जो तारीफ़ें बटोरी थी, उससे भी ज़्यादा मक़बूलियत इस फ़िल्म से वो हासिल करें। और आख़िर में अमिताभ भट्टाचार्य को भी सलाम करता हूँ इतने अच्छे बोल इन धुनों में पिरोने के लिए। पिछले कुछ हफ़्तों से 'ताज़ा सुर ताल' प्रस्तुत करते हुए मुझे ऐसा लगने लगा है कि अच्छे बोल, स्तरीय बोल, एक बार फिर से फ़िल्मी गीतों में धीरे धीरे वापस आ रही है।
विश्व दीपक - अमित त्रिवेदी से मेरी उम्मीदें हमेशा हीं खास रहती हैं और अच्छी बात है कि वे कभी भी निराश नहीं करते। आपने "आमिर" ,"देव-डी" और "वेक अप सिड" का ज़िक्र किया, ये सारी बड़ी और नामी-गिरामी फिल्में थी, लेकिन अमित ने तो "एडमिशन्स ओपन" जो कि कुछ भी नाम न कर सकी में भी ऐसा बढिया संगीत दिया था, जिसका एक-दहाईं संगीत भी बड़े-बड़े संगीतकार बड़ी-बड़ी फिल्मों में नहीं दे पाते। अमित रहमान को अपना आदर्श मानते हैं लेकिन दूसरे भक्तों की तरह ये रहमान की नकल नही करते.. यह अमित की सबसे बड़ी खासियत है। अमित और अमिताभ की जोड़ी अभी तक कमाल करती आई है और इस जोड़ी ने हमेशा हीं अलग तरह का माहौल तैयार किया है अपने गानों से। इस फिल्म के गानों में भी वही बात है इसलिए पसंद न करने का कोई सवाल हीं नहीं उठता। चलिए तो इस तरह आज की समीक्षा समाप्त हुई। हाँ, यह भी बताते चलें कि अगली बार हमारे साथ होगी "आयशा" और उसे भी संजाने-संवारने का काम "अमित" ने हीं किया है। तो अगली कड़ी में हम फिर से साथ होंगे अमित के। तब तक के लिए "खुदा हाफ़िज़"!
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # ७६- 'उड़ान' शीर्षक से किसी ज़माने में दूरदर्शन पर एक लोकप्रिय धारावाहिक हुआ करता था जो एक लड़की के अपने सपनों को पूरा करने की कहानी थी। बताइए उस लड़की का चरित्र किस कलाकार ने निभाया था?
TST ट्रिविया # ७७- गायक जॉय बरुआ ने साल २००६ की एक फ़िल्म में भी गीत गाया था, बताइए फ़िल्म का नाम।
TST ट्रिविया # ७८- फ़िल्म 'देव-डी' का मशहूर गीत "इमोसनल अत्याचार" गाया था बैण्ड मास्टर्स रंगीला और रसीला ने (क्रेडिट्स के अनुसार)। लेकिन यह हक़ीक़त नहीं है। क्या आप बता सकते हैं कि इस गीत को किन दो गायकों ने गाया था जिनका नाम क्रेडिट्स पर नहीं आया?
TST ट्रिविया में अब तक - पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:
१. "साथिया" का "चोरी पे चोरी" २. "आई ऐम इन लव" यह पंकित तीनों फिल्मों के किसी न किसी गाने में थी ३. "द किलर" का "फिरता रहूँ दर-ब-दर"
सीमा जी आपने तीनों सवालों के सही जवाब दिए। बधाई स्वीकारें!
नमस्कार दोस्तों! सावन के महीने की एक और परम्परा है झूलों का लगना। शहरों में तो नहीं दिखते, लेकिन गावों में आज भी लड़कियाँ पेड़ों की शाखों पर झूले डालते हैं और सावन के इन दिनों में ख़ूब झूला झूलते हैं। यह एक परम्परा के तौर पर चली आ रही है। और तभी तो फ़िल्मी गीतों में भी कई कई बार सावन में पड़ने वाले झूलों का ज़िक्र होता आया है। "पड़ गए झूले सावन ऋत आई रे" (बहू बेग़म), "बदरा छाए के झूले पड़ गए हाए" (आया सावन झूम के), "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया" (निगाहें), और भी न जाने ऐसे कितने गानें हैं जिनमें सावन के झूलों का उल्लेख है। आज इनमें से हमने जिस गीत को चुना है वह है राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'जुर्माना' का मधुर गीत "सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ"। कितने सीधे सरल बोल हैं, लेकिन असर इतना कि सावन पर बने तमाम गीतों में यह गीत एक ख़ास मुक़ाम रखता है। आनंद बक्शी के लिखे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शास्त्रीय संगीत का रंग है। इसी फ़िल्म का एक और शास्त्रीय अंदाज़ वाला गीत "ए सखी राधिके बावरी हो गई" हमने आपको इस साल की पहली जनवरी को सुनवाया था पंचम पर केन्द्रित लघु शृंखला में। पंचम एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होने पश्चिमी संगीत का जिस व्यापक्ता के साथ इस्तेमाल किया, उतना ही न्याय भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ भी किया अपने गीतों में। राग पहाड़ी का कितना सुंदर इस्तेमाल हुआ है इस गीत की धुन में।
दोस्तों, आज सावन पर एक कविता हो जाए यहाँ! लखनऊ के श्री विजय कुमार गुप्ता रचित यह है कविता 'देख तमाशा सावन का'।
छाए बादल उभरी आस नैना अटके बीच आकाश चमके बिजली कांपे मनवा ओढ़ी चादर चांदी की नील गगन में देख तमाशा सावन का।
दुबके पक्षी छुप गए तारे हवा चली तीव्र वेग से उजड़े नीड़ नाची शाखा देख तमाशा सावन का।
मंज़िल दूर उपर शोर तांडव गर्जन हैरान पथिक उफ़ने नाल तलैया डूबे घाट ढूंढ़े आसरा पक्षी आज उड़े ख़ूब दाना दूर हैरान सभी माँगे धूप देख तमाशा सावन का।
आशा है आपको यह कविता अच्छी लगी होगी। और अब सुनते हैं आज का गीत।
क्या आप जानते हैं... कि फ़िल्म 'जुर्माना' के गीत "सावन के झूले पड़े" के दो वर्ज़न हैं और दोनों ही लता जी की आवाज़ में है। एक में ज़्यादा ठहराव है तो एक में शास्त्रीय मुड़कियाँ और हरकतें थोड़ी ज्यादा हैं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. गुलज़ार के शब्दों को किस संगीतकार ने संगीत का जामा पहनाया है इस गीत में, बताएं -३ अंक. २. मुखड़े में शब्द है -"कांच", फिल्म का नाम बताएं - २ अंक. ३. गायिका का नाम बताएं - २ अंक. ४. १९८० में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं, इस नाम में तीन शब्द हैं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - ३ अंक शरद जी चुरा गए और २ अंक अवध जी के खाते में भी आये, बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
नमस्कार दोस्तों! सावन की रिमझिम फुहारों का आनंद इन दिनों आप ले रहे होंगे अपनी अपनी जगहों पर। और अगर अभी तक बरखा रानी की कृपा दृष्टि आप के उधर नहीं पड़ी है, तो कम से कम हमारी इस लघु शॄंखला के गीतों को सुन कर ही बारिश का अनुभव इन दिनों आप कर रहे होंगे, ऐसा हमारा ख़याल है। युं तो बारिश की फुहारों को "टिप-टिप" या "रिमझिम" के तालों से ही ज़्यादातर व्यक्त किया जाता है, लेकिन आंचलिक भाषाओं में और भी कई इस तरह के विशेषण हो सकते हैं। जैसे कि बंगला में "टापुर टुपुर" का ख़ूब इस्तेमाल होता है। मेरे ख़याल से "टापुर टुपुर" की बारिश "टिप टिप" के मुक़ाबले थोड़ी और तेज़ वाली बारिश के लिए प्रयोग होता है। तो दोस्तों, धीरे धीरे आप समझने लगे होंगे कि हम किस गीत की तरफ़ बढ़ रहे हैं आज की इस कड़ी में। जी हाँ, रवीन्द्र जैन की लिखी और धुनों से सजी सन् १९७७ की फ़िल्म 'पहेली' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत, सुरेश वाडकर और हेमलता की युगल आवाज़ों में - "सोना करे झिलमिल झिलमिल, रूपा हँसे कैसे खिलखिल, आहा आहा बॄष्टि पड़े टापुर टुपुर, टिप टिप टापुर टुपुर"। दोस्तों, हम एक तरह से आप से क्षमा ही चाहेंगे कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ४३५ कड़ियाँ पूरे हो चुके हैं और अब तक हमने रवीन्द्र जैन जी की कोई भी रचना आपको नहीं सुनवाई है। ऐसे गुणी कलाकार के गीतों से हमने आपको अब तक वंचित रखा, इसके लिए हमें अफ़सोस है। लेकिन देर आए पर दुरुस्त आए! हमारा मतलब है कि एक ऐसा गीत लेकर आए जिसे सुन कर मन यकायक प्रसन्न हो जाता है। पता नहीं इस गीत में ऐसा क्या ख़ास है कि सुनते ही जैसे मन पुलकित हो उठता है। शायद इस गीत की सरलता और सादगी ही इसकी विशेषता है।
रवीन्द्र जैन जी ने ये जो "टापुर टुपुर" का प्रयोग इस गीत में किया है, क्या आप जानते हैं इसकी प्रेरणा उन्हे कहाँ से मिली? आप को शायद मालूम हो कि जैन साहब एक लम्बे अरसे तक कलकत्ता में रहे थे, इसलिए उन्हे बंगला भाषा भी मालूम है, और एक बेहद गुणी इंसान होने की वजह से उन्होने वहाँ के साहित्य को पढ़ा है, वहाँ की संस्कृति को जाना है। उन्हे दरअसल "टापुर टुपुर" शब्दों को इस्तेमाल करने की प्रेरणा कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक बेहद लोकप्रिय कविता (या फिर नर्सरी राइम भी कह सकते हैं) से मिली, जिसकी शुरुआती पंक्ति है "बॄष्टि पौड़े टापुर टुपुर नोदे एलो बान, शिब ठाकुरेर बिये हौबे, तीन कोन्ने दान"। अर्थात, टापुर टुपुर बारिश हो रही है, नदी में बाढ़ आई हुई है, ऐसे में शिव जी का ब्याह होने वाला है। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में सन् २००७ में रवीन्द्र जैन जी से अमरकांत दुबे की बातचीत सुनवाई गई थी। उसमें नए गायक गायिकाओं के ज़िक्र के दौरान यकायक इस फ़िल्म का उल्लेख उभर आया था। आइए वही अंश यहाँ पर प्रस्तुत करते हैं।
प्र: दादु, ये जो बातचीत हमारी जारी है गायकों की, और इसमें आप ने बताया कि नए कलाकारों को कैसे आपने मौका दिया, और जो स्थापित कलाकार थे, उन्होने किस तरह से आपके साथ सहयोग किया, और किस तरह से आपकी रचनाओं ने उनको भी प्रसिद्धि दिलाई...
उ: नहीं, ऐसा अगर नहीं किया होता तो शायद नए कलाकार नहीं आए होते, उनके सहयोग ने ही ऐसा रास्ता खोला।
प्र: अच्छा इसमें, इसी सिलसिले में आपकी एक फ़िल्म याद आती है दादु, 'पहेली'।
उ: जी जी, सुरेश वाडकर।
प्र: सुरेश वाडकर को आप ने इसी फ़िल्म में पहली बार गवाया था।
उ: इसका एक गाना 'पॊपुलर' हुआ था।
प्र: वही "बृष्टि पड़े टापुर टुपुर"।
उ: ये, जैसे हमारी इंडस्ट्री में राइमिंग्स हैं ना, उसी तरह से बंगला में भी राइमिंग् है, उसको वहाँ "छौड़ा" बोलते हैं। "बॄष्टि पौड़े टापुर टुपुर नोदे एलो बान, शिब ठाकुरेर बिये हौबे, तीन कोन्ने दान"। एक पंच लाइन, तो वही इस्तेमाल किया। बहुत अच्छा गाया उन्होने, और साथ में हेमलता है। सुरेश को हम इसमें लेकर आए थे। बहुत ही गुणी और सीखे हुए कलाकार हैं, गुरु-शिष्य की परंपरा से सीखते हैं। सुरेश ने बृज मोहन जी की 'सुर सिंगार' प्रतियोगिता में भाग लिया था और उसमें विनर बने थे। फिर जयदेव जी ने उनको 'गमन' में गवाया "सीने में जलन" और हमने 'पहेली' में।
तो दोस्तों, अब वक्त है फ़िल्म 'पहेली' के इस गीत को सुनने का और गीत सुन कर आज की पहेलियों के जवाबों का अंदाज़ा लगाना ना भूलिएगा! फिर मिलेंगे कल की कड़ी में, धन्यवाद!
क्या आप जानते हैं... कि १९६९ में निर्माता राधेश्याम झुनझुनवाला रवीन्द्र जैन को बम्बई ले आए फ़िल्म 'लोरी' में संगीत देने के लिए। यह फ़िल्म तो नहीं बनी लेकिन कुछ गीत अवश्य रिकार्ड किए गए जिनमें मुकेश के गाए दो अति सुंदर और अति दुर्लभ गीत थे "दुख तेरा हो कि मेरा हो" और "पल भर जो बहला दे"।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. राग पहाड़ी पर आधारित है ये गीत, संगीतकार बताएं -३ अंक. २. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से "आँचल", गीतकार बताएं - २ अंक. ३. फिल्म के इस गीत के कई संस्करण हैं, गायिका बताएं - २ अंक. ४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - शरद जी को ३ और अवध जी, इंदु जी को २-२ अंक बधाई सहित.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
हमसे जुड़ें
आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
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