Saturday, March 14, 2009

पंकज सुबीर के कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' का विमोचन कीजिए



दोस्तो,

आज सुबह-सुबह आपने भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित कथा-संग्रह 'डर' का विमोचन किया और इस संग्रह से एक कहानी भी सुनी। अब बारी है लोकप्रिय ब्लॉगर, ग़ज़ल प्रशिक्षक पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के विमोचन की। गौरतलब है कि इस पुस्तक के साथ-साथ १२ अन्य हिन्दी साहित्यिक कृतियों के विमोचन का कार्यक्रम आज ही हिन्दी भवन सभागार, आईटीओ, नई दिल्ली में चल रहा है। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता २००६ के भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित कवि कुँवर नारायण कर रहे हैं। सभी पुस्तकों का विमोचन दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के हाथों होना है।

लेकिन घबराइए नहीं। हम आपको ऑनलाइन और पॉडकास्ट विमोचन का नायाब अवसर दे रहे हैं, जिसके तहत आप इस कहानी-संग्रह का विमोचन अपने हाथों कर सकेंगे, वह भी शीला दीक्षित से पहले। साथ ही साथ हम इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी भी सुनवायेंगे। तो कर दीजिए लोकार्पण


आपको बताते चलें कि युवा कहानीकार पंकज सुबीर के इस कथासंग्रह में अलग-अलग रंगों की १५ कहानियाँ सम्मिलित हैं। संग्रह में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अलावा अन्य कहानियां हैं कुफ्र, अंधेरे का गणित, घेराव, ऑंसरिंग मशीन, हीरामन, घुग्घू, तस्वीर में अवांछित, एक सीप में, ये कहानी नहीं है, रामभरोस हाली का मरना, तमाशा, शायद जोशी, छोटा नटवरलाल, तथा और कहानी मरती है हैं। ये सारी ही कहानियां वर्तमान पर केन्द्रित हैं। शीर्षक कहानी ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी उस मानसिकता की कहानी है जिसमें उंगली पकड़ते ही पहुंचा पकड़ने का प्रयास किया जाता है। कुफ्र कहानी में धर्म और भूख के बीच के संघर्ष का चित्रण किया गया है। अंधेर का गणित में समलैंगिकता को कथावस्‍तु बनाया गया है तो घेराव और रामभरोस हाली का मरना में सांप्रदायिक दंगे होने के पीछे की कहानी का ताना बाना है। आंसरिंग मशीन व्‍यवस्‍था द्वारा प्रतिभा को अपनी आंसरिंग मशीन बना लेने की कहानी है। हीरामन ग्रामीण परिवेश में लिखी गई एक बिल्‍कुल ही अलग विषय पर लिखी कहानी है। घुग्‍घू कहानी में देह विमर्श कथा के केन्‍द्र में है जहां गांव से आई एक युवती के सामन कदम-कदम पर दैहिक आमंत्रण हैं। तस्‍वीर में अवांछित कहानी एक ऐसे पुरुष की कहानी है जो कि अपनी व्‍यस्‍तता के चलते अपने ही परिवार में अवांछित होता चला जाता है। एक सीप में तीन लड़कियां रहती थीं मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें एक ही घर में रहने वाली तीन बहनों की कहानी है जो एक एक करके हालात का शिकार होती हैं। ये कहानी नहीं है साहित्‍य के क्षेत्र में चल रही गुटबंदी और अन्‍य गंदगियों पर प्रकाश डालती है। तमाशा एक लड़की के अपने उस पिता के विद्रोह की कथा है जो उसके जन्‍म के समय उसे छोड़कर चला गया था। शायद जोशी मनोवैज्ञानिक कहानी है। छोटा नटवरलाल में समाचार चैनलों द्वारा समाचारों को लेकर जो घिनौना खेल खेला जाता है उसे उजागर करती है। और कहानी मरती है लेखक की हंस में प्रकाशित हो चुकी वो कहानी है जिसमें कहानी के पात्र कहानी से बाहर निकल निकल कर उससे लड़तें हैं और उसे कटघरे में खड़ा करते हैं। ये पंद्रह कहानियां अलग अलग स्‍वर में वर्तमान के किसी एक विषय को उठाकर उसकी पड़ताल करती हैं और उसके सभी पहलुओं को पाठकों के सामने लाती हैं।

आने वाले दिनों में आप कहानी-कलश पर इस कहानी-संग्रह की कुछ कहानियाँ पढ़ सकेंगे और साथ उनके पॉडकास्ट भी सुन सकेंगे। फिलहाल सुनिए अनुराग शर्मा की आवाज़ में शीर्षक कहानी 'ईस्ट इंडिया कम्पनी'






अपने हाथों कीजिए कहानी-संग्रह 'डर' (नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित) का विमोचन



जैसाकि आपने १२ मार्च को ख़बरों में पढ़ा था कि १४ मार्च २००९ को सुबह ११ बजे हिन्दी भवन, आईटीवो, नई दिल्ली में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के हाथों १३ नई साहित्यिक कृतियों का विमोचन होगा। इन १३ पुस्तकों में हिन्द-युग्म के कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय का प्रथम कहानी-संग्रह 'डर' भी शामिल है। उल्लेखनीय है भारत की सर्वोच्च साहित्यिक संस्था भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हर वर्ष दो लेखकों की कृतियों (एक गद्य तथा दूसरा पद्य में) को नवलेखन पुरस्कार दिया जाता है, जिसमें रु २५,००० ना नग़द इनाम और उस संग्रह का प्रकाशन शामिल है। वर्ष २००८ के गद्य का नवलेखन पुरस्कार विमल चंद्र पाण्डेय को उनके पहले कहानी-संग्रह 'डर' के लिए दिया गया है।

आज सुबह ११ बजे इस पुस्तक का विमोचन भी होगा, इसी कार्यक्रम में विमल चंद्र पाण्डेय का कथापाठ भी होगा। अभी कुछ महीने पहले से हमने राकेश खण्डेलवाल के पहले कविता (गीत)-संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' का पॉडकास्ट और ऑनलाइन विमोचन कर हिन्दी पुस्तकों के विमोचन करने की परम्परा को नया रूप दिया है। अनुराग शर्मा तथा अन्य ५ कवियों के पहले कविता-संग्रह 'पतझड़ सावन बसंत बहार' की कविताओं को रचनाकार की ही आवाज़ में रिकॉर्ड कर पॉडकास्ट कवि सम्मेलन में जोड़कर विमोचन को और व्यापक किया था। हमारे ऑनलाइन विमोचन की ख़ास बात यह है कि इसमें हर पाठक व श्रोता अपने हाथों पुस्तक का विमोचन करता है, माउस रूपी कैंची से ग्राफिक्स रूपी फीते को काटकर।

आज हम इस कड़ी में एक और नया पृष्ठ जोड़ रहे हैं, जिसके तहत विमल चंद्र पाण्डेय के प्रथम कथा-संग्रह 'डर' का ऑनलाइन व पॉडकास्ट विमोचन आपके हाथों करवा रहे हैं। नीचे के ग्राफिक्स से आप सारी बात समझ जायेंगे।

'डर' कहानी-संग्रह की सभी कहानियाँ पढ़ने के लिए यहाँ जायें।

हम इस विमोचन में संग्रह की रचना/रचनाओं का पॉडकास्ट भी प्रसारित करते हैं। 'डर' कहानी-संग्रह से सुनिए कहानी 'स्वेटर' का पॉडकास्ट। कहानी में आवाज़ें हैं शोभा महेन्द्रू और शिवानी सिंह की। कहानी को आप यहाँ पढ़ भी सकते हैं।

(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)




यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)

VBR MP3 64Kbps MP3 Ogg Vorbis


आज हिन्द-युग्म के शैलेश भारतवासी विमोचन को रिकॉर्ड करने की भी कोशिश करेंगे। जिसमें विमल चंद्र पाण्डेय का कथापाठ भी होगा।

आपको याद दिला दें कि इन तेरह किताबों में हिन्द-युग्म के यूनिग़ज़लप्रशिक्षक पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' का विमोचन भी शामिल हैं। इस कहानी-संग्रह का विमोचन करने के लिए तथा अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस कहानी-संग्रह की शीर्षक कहानी का कथापाठ सुनने के लिए यहाँ जायें।।




Friday, March 13, 2009

जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों रोये...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 22

"मेरे लिए न अश्क बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या, ज़िंदा रहेगा प्यार मेरा मैं नहीं तो क्या". दोस्तों, मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध इस गीत का एक एक शब्द जैसे उन्हीं के लिए लिखा गया हो. आज भले ही वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका अमर संगीत युगों युगों तक सुननेवालों के दिलों पर राज करता रहेगा. आज की शाम मदन मोहन, लता मंगेशकर और राजा महेंदी अली ख़ान के नाम. सन् 1964 में बनी फिल्म "वो कौन थी" अपने गीत संगीत की वजह से कालजयी बन गयी. आज 45 साल बाद भी जब हम इस फिल्म के गीतों को सुनते हैं तो इनमें वही ताज़गी, वही असर पाते हैं. शायद यही ख़ासीयत थी फिल्म संगीत के उस सुनहरे दौर की. दोस्तों, आशा भोंसले की आवाज़ में "वो कौन थी" फिल्म का एक गीत हमने कुछ दिन पहले आपको सुनवाया है. आज सुनिए इसी फिल्म से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक दर्द भरा नग्मा . 1958 की फिल्म "अदालत" में भी लताजी और मदन मोहन साहब ने एक इसी तरह का गीत बनाया था "यूँ हसरतों के दाग़ मोहब्बत में धो लिए". कुछ ऐसा ही ग़मज़दा अंदाज़ "वो कौन थी" के इस गाने में भी, राजा महेंदी अली ख़ान साहब का रहा है. "जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई आप क्यूँ रोए, तबाही तो हमारे दिल पे आई आप क्यूँ रोए". अमीन सयानी के लोकप्रिय 'रेडियो प्रोग्राम' बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में उस साल यह गीत 15-वें पायदान पर रहा.

इससे पहले कि आप यह गीत सुने, क्या आप जानना नहीं चाहेंगे कि लताजी ने अपने मदन भैया के ग़ज़लों के बारे में क्या कहा था अपनी श्रद्धांजलि में? लताजी ने कहा था - "पहले ग़ज़ल गाने का एक ख़ास रंग हुआ करता था. गिनी चुनी तर्जें हुआ करती थी. मदन भैया ने अलग अलग रंग के ग़ज़ल गानेवालों को सुना, और जब खुद ग़ज़लों की तर्जें बनाना शुरू किये, तो उनमें अपना एक नया रंग भर दिया, जो अनोखा था. सुर ऐसे चुने जिनमें सोज़ भी था, सुरूर भी. इसीलिए उनके ग़ज़लों के तेवर भी अलग थे. एक अजीब बांकपन था. फिल्मों के लिए ग़ज़लों की तर्जें कैसे बनाई जाती है, उन्हे कितने रूपों में पेश किया जा सकता है, यह मदन भैया हम सबको बता गये. मैं मदन भैया को ग़ज़लों का बादशाह मानती हूँ" तो उसी बादशाह की याद में पेश है आज का 'ओल्ड इस गोल्ड'.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मुकेश के शुरआती दौर के नायाब गीतों में से एक.
२. नौशाद साहब का संगीत और शकील के कलम से निकला ये दर्द भरा नग्मा.
३. मुखड़े में शब्द है -"याद न आ"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीलम जी ने खूब रंग जमाया, साथ में मनु जी और आचार्य जी को भी बधाई.
एक सूचना -कल आवाज़ पर दो बड़ी पुस्तकों के विमोचन के चलते "ओल्ड इस गोल्ड" की अगली कड़ी का प्रसारण रविवार शाम होगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





"इन हाथों की ताज़ीम करो..."- अली सरदार जाफरी के बोल और शुभम् का संगीत



आवाज़ पर इस सप्ताह हमने आपको मिलवाया कुछ ऐसे फनकारों से जो यूँ तो आवाज़ और हिंद युग्म से काफी लम्बे समय से जुड़े हुए हैं पर किसी न किसी कारणवश मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाए. इसी कड़ी में आज मिलिए -
दिल्ली के शुभम् अग्रवाल से




संगीतकार शुभम् अग्रवाल युग्म से उन दिनों से जुड़े हैं जब युग्म की पहली एल्बम "पहला सुर" पर काम चल रहा था. शुभम् कुछ सरल मगर गहरे अर्थों वाले गीत तलाश रहे थे, पर बहुत गीत भेजने के बावजूद उन्हें कुछ जच नहीं रहा था. फिर तय हुआ कि उनकी किसी धुन पर लिखा जाए. बहरहाल गीत लिखा गया और इस बार उन्हें पसंद भी आ गया. वो गीत अपनी अंतिम चरण में था पर तभी उन्हें लगा कि उनकी गायकी, गीत के बोल और धुन का सही ताल मेल नहीं बैठ पा रहा है. "पहला सुर" को प्रकाशित करने का समय नजदीक आ चुका था, और शुभम् उलझन में थे. उन दिनों वो मेरठ में थे, फिर दिल्ली आ गए. दूसरे सत्र के शुरू होने तक दिल्ली आकर शुभम् बेहद व्यस्त हो गए. पर निरंतर संपर्क में रहे. यहाँ उन्होंने अपनी नयी कंपनी के लिए एक जिंगल भी बनाया. वो आवाज़ से जुड़ना चाहते थे और युग्म भी अपने इस प्रतिभाशाली संगीतकार/गायक को अपने माध्यम से आप सब तक पहुँचने को बेताब था. इसी उद्देश्य से आज हम पहली बार आपके समुख लेकर आये हैं, शुभम् अग्रवाल के संगीत और गायिकी का एक नमूना जहाँ उन्होंने साहित्य अकादमी से सम्मानित मशहूर उर्दू शायर अली सरदार जाफ़री की एक उन्दा ग़ज़ल को अपने सुरों और आवाज़ से सजाया है. तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का -







Thursday, March 12, 2009

जब जब फूल खिले तुझे याद किया हमने, देख अकेला हमें घेर लिया गम ने...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 21

दोस्तों, जब मैं कहता हूँ कि "जब जब फूल खिले" तो आपको क्या याद आता है? शशि कपूर और नंदा अभिनीत वो फिल्म, या फिर कश्मीर की वो डल झील, उसमें तैरते शिकारे, या फिर वो गीत "परदेसियों से ना अखियाँ मिलाना"? आप में से ज़्यादातर लोगों को शायद ऐसा ही कुछ ख्याल आता होगा! लेकिन आप में से कुछ ऐसे भी होंगे, जिनके ज़हन में झट से 1953 की फिल्म "शिकस्त" का वो गीत आया होगा जिसे लता मंगेशकर और तलत महमूद ने गाया था. जी हाँ, आप ठीक समझे, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम आपको सुनवा रहे हैं "जब जब फूल खिले तुझे याद किया हमने, देख अकेला हमें घेर लिया गम ने".

शिकस्त फिल्म बनी थी सन् 1953 में जिसका निर्देशन किया था रमेश सहगल ने. जी हाँ, यह वही रमेश सहगल हैं जिन्होने इससे पहले "शहीद" और "समाधी" जैसे फिल्मों का निर्देशन किया था. दिलीप कुमार और नलिनी जयवंत इस फिल्म में पर्दे पर नज़र आए. उन दिनों दिलीप साहब के लिए तलत महमूद पार्श्वगायन किया करते थे. बाद में मोहम्मद रफ़ी दिलीप कुमार की आवाज़ बने. अगर एकल गीतों की बात करें तो तलत साहब ने दिलीप साहब के लिए इस फिल्म में दो सुंदर गीत गाए - "सपनों की सुहानी दुनिया को आँखों में बसाना मुश्किल है" और "तूफान में घिरी हैं मेरी तक़दीर की राहें, रोती हैं मेरे हाल पे सावन की घटायें". लेकिन लता मंगेशकर के साथ गाया हुया उनका यह युगल गीत भी बहुत ख़ास है. शैलेंद्रा का लिखा और शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध किया यह गाना आज भी उस ज़माने की याद दिलाते हैं जब फिल्म संगीत अपने पूरे शबाब पर था. इस गीत में साज़ों की अनर्थक भीड नहीं है. तबले और ढोलक के ठेके पर गीत को खडा किया गया है. तो सुनिए और उस सुनहरे दौर को याद कीजिए.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मदन मोहन और राजा मेहंदी अली खान का संगम.
२. लता की पुरकशिश आवाज़.
३. मुखड़े में शब्द है -"तबाही"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह मनु जी आपका तुक्का भी सही लगा....आज गाना सुन बहुत कुछ याद आया होगा आपको. तन्हा जी होली मना रहे हैं घर पर अभी आपका गुब्बारा उन तक पहुंचा नहीं होगा. वैसे आज की पहेली वाकई मुश्किल थी. इसलिए आपको तुक्के के भी बधाई.

लेकिन क़सीम अब्बासी भाई ने आवाज़ पर पहली बार शिरकत की और पहले का बिलकुल सही उत्तर दिया। क़सीम भी आगे भी आते रहें।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



भीग गया मन- हरिहर झा की संगीतबद्ध कविता



नये गीतों, नई संगीतबद्ध कविताओं को सुनवाने का सिलसिला हमने बंद नहीं किया है। अभी ३ दिन पहले ही आपने शिशिर पारखी की आवाज़ में जिगर मुरादाबादी का क़लाम सुना। कल होली के दिन सबने लीपिका भारद्वाज के होरी-गीत का खूब आनंद लिया। आज हम फिर से कुछ नये कलाकारों की प्रतिभा को आपके समक्ष प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बार सुनिए हिन्द-युग्म के अप्रवासी कवि हरिहर झा की कविता 'भीग गया मन' का संगीतबद्ध संस्करण। कविता में संगीत और आवाज़ है संदीप नागर की। तबला पर संगत कर रहे हैं नयन। ये दोनों कलाकार हरिहर झा की जन्मभूमि बांसवाडा (राजस्थान) के उभरते हुये कलाकार हैं। जब इनकी कला को हरिहर झा ने देखा, तो वे प्रभावित हुये बिना न रह सके। इनकी प्रतिभा के विषय में कहने की अपेक्षा यह गीत सुनना उपयुक्त होगा। भविष्य में आप इन कलाकारों के सहयोग से कविताओं का पूरा एल्बम ही सुन सकेंगे। उसके लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा।



हरिहर झा ने हमारे पहले एल्बम 'पहला सुर' के लिए भी कुछ गीत भेजे थे, लेकिन उनकी रिकॉर्डिंग-गुणवत्ता बढ़िया न होने के कारण हम सम्मिलित नहीं कर सके थे।




Wednesday, March 11, 2009

सुनिए सपन चक्रवर्ती की आवाज़ में एक दुर्लभ होली गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 20
होली विशेषांक
वाज़ के आप सभी पाठकों और श्रोताओं को रंगों के इस त्यौहार होली पर हमारी ओर से बहुत बहुत शुभकामनाएँ. होली का यह त्यौहार आपके जीवन को और रंगीन बनाए, आपके सभी सात रंगोंवाले सपने पूरे हों, ऐसी हम कामना करते हैं. दोस्तों, हिन्दी फिल्मों में जब भी कभी होली की 'सिचुयेशन' आयी है, तो फिल्मकारों ने उन उन मौकों पर अच्छे अच्छे से होली गीत बनाने की कोशिश की है और उनका फ़िल्मांकन भी बडे रंगीन तरीके से किया है. या यूँ कहिए की हिन्दी फिल्मी गीतों में होली पर बेहद खूबसूरत खूबसूरत गाने बने हैं जिन्हे होली के दिन सुने बिना यह त्यौहार अधूरा सा लगता है. और आज होली के दिन 'ओल्ड इस गोल्ड' में अगर हम कोई होली गीत ना सुनवाएँ तो शायद आप में से कई श्रोताओं को हमारा यह अंदाज़ अच्छा ना लगे. इसलिए आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में पेश है होली की हुडदंग. यूँ तो होली पर बने फिल्मी गीतों की कोई कमी नहीं है, एक से एक 'हिट' होली गीत हमारे पास हैं, लेकिन 'ओल्ड इस गोल्ड' की यह रवायत है की हम उसमें ऐसे गीत शामिल करते हैं जो कुछ अलग "हट्के" हो, थोडे अनोखे हो, कोई अलग बात हो. इसलिए हमने जो होली गीत चुना है वो ना तो फिल्म "शोले" का है और ना ही फिल्म "पराया धन" का, ना वो "मदर इंडिया" का है, और ना ही "मशाल" का. यह गीत है 1976 में बनी फिल्म "बालिका वधु" का. इससे पहले की इस गीत से संबंधित कुछ बातें आपको बताएँ, क्यूँ ना थोड़ी देर के लिए हिन्दी फिल्मों में होली गीतों के इतिहास में झाँक लिया जाए! 30 के दशक में फिल्मी होली गीतों के बारे में तो मैं कुछ ढूँढ नहीं पाया, लेकिन क्योंकि उस वक़्त ठुमरी का काफ़ी चलन था फिल्म संगीत में और ठुमरी का अर्थ ही है कृष्ण से संबंधित गीत, तो ज़ाहिर है की ठुमरी के रूप में ज़रूर होली गीत भी रहे होंगे. जो सबसे पुराना होली गीत मुझे प्राप्त हुआ वो है 1940 की फिल्म "होली" में ए आर ओझा और सितारा का गाया "फागुन की रुत आई रे", जिसके संगीतकार थे खेमचंद प्रकाश. और फिर लता मंगेशकर का पहला गाना "पा लागूँ कर ज़ोरी रे, श्याम मोसे ना खेलो होरी" भी तो एक होली गीत था, फिल्म "आप की सेवा में", जो आई थी 1947 में. 1950 की फिल्म "जोगन" में गीता रॉय ने बहुत सारे मीरा भजन गाये, साथ ही साथ पंडित इंद्रा के लिखे दो होरी गीत भी गाये जिनके बोल थे “चंदा खेले आँख मिचोली बदली से नदी किनारे, दुल्हन खेले फागुन होली पिया करो ना हमसे ठिठोली” और “डारो रे रंग डारो रे रसिया फागुन के दिन आए रे”. गीता रॉय की ही आवाज़ में 1953 की फिल्म "लाडली" में एक होली गीत था “बाट चलत नयी चुनरी रंग डारी, हे तोहे बेदर्दी बनवारी”. और फिर 1957 में "मदर इंडिया" में शक़ील बदयुनीं ने लिखा “होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बाँसुरी”. यह गीत बेहद मशहूर हो गया और इसके बाद तो जैसे फिल्मों में होली गीतों का तांता लग गया.

तो इतनी जानकारी के बाद अब हम वापस आते हैं बालिका वधु फिल्म के होली गीत पर. शक्ति सामंता ने इस फिल्म का निर्माण किया था इसी नाम से लिखी गयी शरतचंद्रा चट्टोपाध्याय की प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यास के आधार पर. तरु मजूमदार निर्देशित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे सचिन और रजनी शर्मा. गाने लिखे आनंद बक्शी ने और संगीतकार थे राहुल देव बर्मन. इस फिल्म में आशा भोंसले, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार,अमित कुमार और चंद्राणी मुखेर्जी ने तो गीत गाए ही थे, ख़ास बात यह है कि इस फिल्म में आनंद बक्शी,राहुल देव बर्मन और उनके सहायक सपन चक्रवर्ती ने भी गाने गाए, और वो भी अलग अलग एकल गीत. प्रस्तुत होली गीत सपन चक्रवर्ती और साथियों की आवाज़ों में है. राहुल देव बर्मन अगर चाहते तो किसी भी नामी गायक से इस गीत को गवा सकते थे. लेकिन उन्हे लगा कि गाँव की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म के होली गीत के गायक की आवाज़ कुछ ऐसी अलग होनी चाहिए, एक ऐसी आवाज़ जो धरती के बहुत करीब लगे, लोक संगीत और ख़ास कर होली पर गाए जानेवाले लोकसंगीत के गायक की तरह लगे. बस, पंचम दा ने अपने सहायक और गायक सपन चक्रवर्ती से यह गीत गवा लिया और सचमुच उन्होने जैसा सोचा था, सपन चक्रवर्ती की आवाज़ ने बिल्कुल वैसा ही जादू कर डाला इस गीत में. आज भले ही यह गीत दूसरे होली गीतों की तुलना में बहुत ज़्यादा सुनाई ना दे, लेकिन होली पर बना यह एक अनूठा फिल्मी गीत है, और हमें पूरा यकीन है कि हमारी यह पसंद आपकी भी पसंद होगी. तो सुनिए "आओ रे आओ खेलो होली बिरज में".



गीत सुनकर मस्ती छा गयी होगी...है न...भाई अब होली हो और कोई छेड़खानी या मस्ती न हो तो क्या है मज़ा. "ओल्ड इस गोल्ड" के तेंदुलकर की उपाधि से सम्मानित हमारे प्रिय मनु "बे-तक्ख्ल्लुस" जी लाये हैं कुछ कार्टूनों के गुलाल और गुब्बारे. चलिए तैयार हो जाईये भाई....होली है....

पहला गुब्बारा आपके लिए है "तन्हा" जी


नीलम जी आप कहाँ जा रही हैं बच के


अरे भाई इन्होने तो मुझे भी नहीं छोडा


सुजॉय आप कहाँ छुपे बैठे हैं रंग जाईये आज आप भी इस रंग में



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. दिलीप कुमार और नलनी जयवंत पर फिल्मांकित है ये गीत.
२. टीम है शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन, लता और तलत की.
३. गीत में शब्द युगल है - "फूल खिले".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
उज्जवल जी, आचार्य जी और मनु जी...गलत जवाब....दूसरा सूत्र देखिये...कटी पतंग नाम का कोई धरावाहिक नहीं आता :). चलिए होली में सब माफ़ है.ये होली गीत कैसा लगा अवश्य बताईयेगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

खेलें मसाने में होरी दिगम्बर खेलें मसाने में होरी



लोकगायक छन्नूलाल मिश्रा की आवाज़ में 'होली के रंग टेसू के फूल' एल्बम के सभी गीत

होली त्योहार के साहित्य में होली का सबसे अधिक जिक्र बृजभाषा के साहित्य में मिलता है। मेरे दीमाग में यह बात थी कि इस होली पर श्रोताओं को कुछ ओरिजनल सुनाया जाय। होली की वहीं खुश्बू बिखराई जाये जो बृज गये बिना महसूस कर पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन लोकगायक पंडित छन्नूलाल मिश्रा अपनी बेमिसाल गायकी से यह काम आसान कर देते हैं।

पिछले महीने जब मैं पश्चिम बंगाल, झारखण्ड औरे उत्तर प्रदेश की यात्रा पर था तो संयोग से बनारस जाना हुआ। विश्वप्रसिद्द शास्त्रीय गायक छन्नूलाल वहीं निवासते हैं। सोचा कि उनका इंटरव्यू लेता चलूँ और साथ ही साथ उन्हीं की आवाज़ में एक होरी-गीत की जीवंत रिकॉर्डिंग भी कर लूँ। लेकिन फिर सोचा कि पहले अपने श्रोताओं को छन्नूलाल मिश्रा से परिचय तो कराऊँ, साक्षात्कार तो कभी भी ले लूँगा। उसी दिन तय कर लिया था कि छन्नूलाल के प्रसिद्ध एल्बम 'होली के रंग टेसू के फूल' के गीत पहले श्रोताओं को सुनावाउँगा।

दोस्तो, ३ अगस्त १९३६ को उ॰ प्र॰ के आजमगढ़ जनपद के हरिहरपुर गाँव में जन्में छन्नूलाल मिश्रा भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घराने 'किराना घराना' के विशेष रूप से ख्याल गायन और पूरब-अंग (ठुमरी) के कलाकार के तौर पर जाने जाते हैं। इनके दादा पंडित शांता प्रसाद (गुदाई महाराज) ए चर्चित तबलावादक थे। छन्नूलाल बिहार के तबलावादक अनोखेलाल जी महाराज के दामाद हैं। शुरूआत में इन्होंने अपने पिता पंडित बद्री प्रसाद मिश्रा से ही संगीत की शिक्षा लेनी आरम्भ की, जो कि किराना घराने के उस्ताद अब्दुल ग़नी ख़ान तक ज़ारी रही। बहुत बाद में ये ठाकुर जयदेव सिंह के भी शागिर्द रहे।

आज ये अपनी बनारसी गायकी और पंजाब गायकी के लिये लोगों में पहचाने जाते हैं। (विशेषतौर पर ख्याल, दादरा, ठुमरी, चैती, कजरी, होरी और भजन)।

आज हम इनकी गायकी की उन्हीं विविधरंगों में होरी का रंग लेकर आये हैं। 'होली के रंग टेसू के फूल' एल्बम का गीत 'खेलें मसाने में होरी दिगम्बर' इनका चर्चित होरी गीत है, जिसका लाइव कंसर्ट संस्करण हम आपको सुनवा रहे हैं।
(यह गीत एल्बम के गीत से थोड़ा सा अलग है)



'होली के रंग टेसू के फूल' एल्बम के सारे गीत यहाँ से सुनें और लोकधुनों की बयार में खुद को भुला दें।



जल्द ही छन्नूलाल जी से एक भेंटवार्ता भी सुनवाउँगा।

इससे आगे>>>>'ओल्ड इज गोल्ड' शृंखला के तहत सुजॉय-सजीव की होली विशेष प्रस्तुति सुनना न भूलें

Album: Holi Ke Rang Tesu Ke Phool, Composer & Singer: Pandit Channulal Mishra
Tracks:
01 - Aaye Khelan Hori
02 - Holi Khelat Nandkumar
03 - Rang Darungi Darungi Rang Darungi
04 - Barjori Karo Na Mose Hori Mein
05 - Holi Ke Din Dekho Aayee Re
06 - Kanhaiya Ghar Chalo Guiya
07 - Girdharilal Chhar Mori Bahiyaan
08 - Khalayn Masanay Mayn Hori Digamber

"आज बिरज में होरी रे रसिया...."- लीपिका भट्टाचार्य की आवाज़ में सुनिए "होरी" गीत



सभी पाठकों और श्रोताओं को होली की शुभकामनायें. आज होली के अवसर पर आवाज़ पर भी कुछ बहुत ख़ास है आपके लिए. इस शुभ दिन को हमने चुना है आपको एक उभरती हुई गायिका से मिलवाने के लिए जो आपको अपनी मधुर आवाज़ में "होरी" के रंगों से सराबोर करने वाली हैं.

गायिका और संगीत निर्देशिका लीपिका भट्टाचार्य लगभग तभी से युग्म के साथ जुडी हैं जब से हमने अपने पहले संगीतबद्ध गीत के साथ युग्म पर संगीत रचना की शुरुआत की थी. उन दिनों वो एक जिंगल का काम कर चुकी थी. पर चूँकि हमारा काम इन्टरनेट आधारित रहा तो इसमें अलग अलग दिशाओं में बैठे कलाकारों के दरमियाँ मेल बिठाने के मामले में अक्सर परेशानियाँ सामने आती रही. लीपिका भी इसी परेशानी में उलझी रही, इस बीच उन्होंने अपनी दो कृष्ण भजन की एल्बम का काम मुक्कमल कर दिया जिनके नाम थे -"चोरी चोरी माखन" और "हरे कृष्ण". इन सब व्यस्तताओं के बीच भी उनका आवाज़ से सम्पर्क निरंतर बना रहा. बीच में उनके आग्रह पर हमने शोभा महेन्द्रू जी का लिखा एक शिव भजन उन्हें भेजा था स्वरबद्ध करने के लिए पर बात बन नहीं पायी. अब ऐसी प्रतिभा की धनी गायिका को आपसे मिलवाने का होली से बेहतर मौका और क्या हो सकता था. तो आईये लीपिका के स्वरों और सुरों के रंग में रंग जाईये और डूब जाईये होली की मस्ती में. यदि आप होली नहीं भी खेलते तो हमारा दावा है लीपिका के इस "होरी" गीत को सुनने के बाद आपका भी मन मचल उठेगा रंग खेलने के लिए. लीजिये सुनिए -



इसके आगे है>>>>>होरी गीतों के मशहूर जनगायक पंडित छन्नूलाल मिश्रा के गीतों से सजी शैलेश भारतवासी की प्रस्तुति

होली मुबारक



Tuesday, March 10, 2009

मोहे भूल गए सांवरिया....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 19

दोस्तों, जब शास्त्रीय रागों की बात आती है तो फिल्मी गीतों में संगीतकारों ने समय समय पर बहुत से रागों का बहुत ही खूबसूरत इस्तेमाल किया है. लेकिन अगर ज़रा गौर किया जाए तो हम पाते हैं की कुछ राग ऐसे हैं जिनका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है. राग भैरवी ऐसा ही एक राग है. संगीतकार जोडी शंकर जयकिशन का यह सबसे पसंदीदा राग रहा है और इस राग पर आधारित उनके बहुत से लोकप्रिय गीत हैं. जहाँ तक राग भैरवी का सवाल है, तो संगीतकार नौशाद भी इसके असर से बच नहीं पाए हैं. उनके कई ऐसे फिल्म हैं जिनमें राग भैरवी पर आधारित गाने हैं. ऐसी ही एक फिल्म है "बैजू बावरा". इस फिल्म में कम से कम दो गीत ऐसे हैं जो इस राग पर आधारित हैं. इनमें से एक गीत तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत है, जी हाँ, "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा", और क्या आपको पता है दूसरा गीत कौन सा है? दूसरा गीत है "मोहे भूल गये साँवरिया".

बैजू बावरा फिल्म का हर एक गीत किसी ना किसी शास्त्रीय राग पर आधारित है. नौशाद साहब के बारे में यही कहा जाता है की भारतीय शास्त्रीय संगीत को सरल तरीके से उन्होने आम जनता तक पहुँचाया है, जिसे हर आम आदमी गुनगुना सकता है. बैजू बावरा, नौशाद साहब के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण पडाव था. विजय भट्ट और शंकर भट्ट ने प्रकाश पिक्चर्स के 'बॅनर' तले इस फिल्म का निर्माण किया था. इस फिल्म का हर एक गीत 'मास्टरपीस' है, और हर एक गीत इस 'ओल्ड इस गोल्ड' शृंखला में शामिल होने की काबलियत रखता है. तो लीजिए सुनिए लता मंगेशकर की आवाज़, शक़ील बदायूँनी के बोल और नौशाद का दिव्य संगीत फिल्म बैजू बावरा से.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कल होली है और ये गीत भी होली के रंगों में डूबा हुआ है.
२. ये गीत जिस फिल्म का है उस फिल्म के नाम का एक धारावाहिक आजकल बहुत लोकप्रिय है.
३. आर डी बर्मन और आनंद बक्षी की जोड़ी, शक्ति सामंता का निर्देशन.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी स्वागत आपका. सही जवाब के साथ एंट्री की है आपने. आचार्य जी आपकी पसंद का गीत भी जल्द ही आएगा. आशा है आपने आज के गीत का भरपूर आनंद लिया होगा. विनय जी और अन्य समस्त श्रोताओं को भो होली की शुभकामनायें. कल हमारा होली विशेषांक सुनना मत भूलियेगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



"तुझमें रब दिखता है..." रफीक ने दिया इस गीत को एक नया रंग



युग्म पर लोकप्रिय गीतों का चुनाव जारी है, कृपया इसे अचार संहिता का उल्लंघन न मानें. :) रफीक शेख दूसरे सत्र के गायकों में सबसे अधिक उभरकर सामने आये. अपनी तीन शानदार ग़ज़लों में उन्होंने गजब की धूम मचाई. हालांकि कभी कभार उन पर रफी साहब के अंदाज़ के नक़ल का भी आरोप लगा, पर रफीक, रफी साहब के मुरीद होकर भी अपनी खुद की अदायगी में अधिक यकीन रखते हैं. आप श्रोताओं ने अभी तक उनके ग़ज़ल गायन का आनंद लिया है, पर हम आपको बताते हैं कि रफीक हर तरफ गीतों को गाने की महारत रखते हैं.

आज हम श्रोताओं को सुनवा रहे हैं रफीक के गाया एक कवर वर्ज़न फिल्म "रब ने बना दी जोड़ी" से. गीत है "तुझ में रब दिखता है यारा मैं क्या करुँ...." मूल गीत को गाया है रूप कुमार राठोड ने. रफीक ने इस गीत से साबित किया है कि उनकी रेंज और आवाज़ से वो हर तरह के गानों में रंग भर सकते हैं. तो सुनते हैं रफीक शेख को एक बार फिर एक नए अंदाज़ में -


Monday, March 9, 2009

मेरी जान तुम पे सदके...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 18

'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और शाम लेकर हम हाज़िर हैं. आज की यह शाम थोडी शायराना है, जिसमें थोड़ी सी रूमानियत है, थोड़ी बेचैनी है, थोड़ी सी प्यास भी है, और थोड़ी सी चाहत भी. 60 के दशक के आखिर में संगीतकार ओ पी नय्यर के स्वरबद्ध गीत कम होने लगे थे. लेकिन जब भी किसी फिल्म को उन्होने अपना पारस हाथ लगाया तो वो जैसे सोना बन गया. 1966 में बनी फिल्म "सावन की घटा" आज अगर याद की जाती है तो सिर्फ़ उसके महकते हुए गीत संगीत के लिए. ओ पी नय्यर और एस एच बिहारी इस फिल्म के संगीतकार और गीतकार थे. इस फिल्म के लगभग सभी गीत 'हिट' हुए थे. आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी ने ज़्यादातर गीत भी गाए इस फिल्म में. लेकिन एक गीत ऐसा था जिसे नय्यर साहब ने महेंद्र कपूर से गवाया. इसी गीत का एक दूसरा 'वर्जन' भी था जिसे आशाजी ने गाया था. "मेरी जान तुमपे सदके अहसान इतना कर दो, मेरी ज़िंदगी में अपनी चाहत का रंग भर दो". इसमें कोई शक़ नहीं की महेंद्र कपूर ने इस गीत में अपनी गायकी का वो रंग भरा है जो आज तक उतरने का नाम नहीं लेती.

हालाँकि ओ पी नय्यर के चहेते गायक रहे हैं मोहम्मद रफ़ी, लेकिन महेंद्र कपूर को भी उन्होने कई बार गवाया है. महेंद्र और नय्यर साहब के सुरीले संगम से निकले कुछ गीतों के नाम गिनाएँ आपको? "लाखों है यहाँ दिलवाले और प्यार नहीं मिलता", "आँखों में क़यामत के काजल, होंठों पे ग़ज़ब की लाली है", यह दोनो फिल्म किस्मत के गाने हैं, फिर "यह रात फिर ना आएगी" का वो गाना "मेरा प्यार वो है कि मरकर भी तुमको जुदा अपनी बाहों से होने ना देगा", बहारें फिर भी आएँगी फिल्म में "बदल जाए अगर माली चमन होता नहीं खाली", और फिर "दिल और मोहब्बत" फिल्म में "कहाँ से लाई ओ जानेमन" और आशा भोंसले के साथ "हाथ आया है जब से तेरा हाथ में", इन गीतों को हम 'ओल्ड इस गोल्ड' में आनेवाले समय में शामिल करने की कोशिश करेंगे. लेकिन आज सुनिए फिल्म "सावन की घटा" से यह गाना.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. आवाज़ पर नौशाद की तीन बहतरीन फिल्मों के जिक्र में इस फिल्म का भी नाम शामिल था.
२. बोल है शकील बदायुनीं के और आवाज़ है लता की.
३. मुखड़े से पहले एक शेर में जिसमें शब्द आता है - "ढिंढोरा"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
उज्जवल कुमार जी बधाई....आपने एकदम सही जवाब दिया

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ख्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे...जिगर मुरादाबादी की ग़ज़ल और शिशिर की आवाज़




पुणे के शिशिर पारखी हालाँकि हमारे नए गीतों से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ सके पर श्रोताओं को याद होगा कि उनके सहयोग से हमने उस्ताद शायरों की एक पूरी श्रृंखला आवाज़ पर चलायी थी, जहाँ उनकी आवाज़ के माध्यम से हमने आपको मिर्जा ग़ालिब, मीर तकी मीर, बहादुर शाह ज़फर, अमीर मिनाई, इब्राहीम ज़ौक, दाग दहलवी और मोमिन जैसे शायरों की शायरी और उनका जीवन परिचय आपके रूबरू रखा था. उसके बाद हमने आपको शिशिर का के विशेष साक्षात्कार भी किया था. शिशिर आज बेहद सक्रिय ग़ज़ल गायक हैं जो अपनी पहली मशहूर एल्बम "एहतराम" के बाद निरंतर देश विदेश में कंसर्ट कर रहे हैं बावजूद इसके वो रोज आवाज़ पर आना नहीं भूलते और समय समय पर अपने कीमती सुझाव भी हम तक पहुंचाते रहते हैं. आज फिर एक बार उनकी आवाज़ का लुत्फ़ उठाईये. ये लाजवाब ग़ज़ल है शायरों के शायर जिगर मुरादाबादी की -

तेरी ख़ुशी से अगर गम में भी ख़ुशी न हुई,
वो जिंदगी तो मोहब्बत की जिंदगी न हुई.

किसी की मस्त निगाही ने हाथ थाम लिया,
शरीके हाल जहाँ मेरी बेखुदी न हुई,

ख्याल -ए- यार सलामत तुझे खुदा रखे,
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई.

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी,
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई.

गए थे हम भी "जिगर" जलवा गाहे-जानाँ में
वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई.







Sunday, March 8, 2009

मैं हूँ झुम झुम झुम झुम झुमरूं, फक्कड़ घूमूं बन के घुमरूं ...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 17

किशोर कुमार ने जब हिन्दी फिल्म संगीत संसार में क़दम रखा तो शायद पहली बार फिल्म जगत को एक खिलंदड, मस्ती भरा गायक मिला था. किशोर के इस खिलंदड रूप को देखकर कई गण्य मान्य लोगों ने उन्हे गायक मानने से इनकार कर दिया. लेकिन किशोर-दा को अपने विरोधियों के इस रुख से कोई फरक नहीं पडा और वो अपनी ही धुन में गाते चले गये. किशोर-दा जैसी 'रेंज' बहुत कम गायकों को नसीब होती है. और कम ही लोगों को इतने तरह के गीत गाने को मिलते हैं. सच-मुच किशोरदा के हास्य गीत तो जैसे उस सुरमे की तरह है जो किसी के भी बेजान आँखों में चमक पैदा कर सकती है. और आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में ऐसी ही चमक पैदा करने के लिए हम किशोर-दा के गाए गीतों के ख़ज़ाने से चुनकर लाए हैं फिल्म "झुमरू" का शीर्षक गीत.

1961 में बनी फिल्म "झुमरू" किशोर कुमार के बहुमुखी प्रतिभा की एक मिसाल है. उन्होने न केवल इस फिल्म में अभिनय किया और गाने गाए, बल्कि वो इस फिल्म के संगीतकार भी थे. शंकर मुखेर्जी निर्देशित इस फिल्म में किशोर कुमार और मधुबाला की जोडी पर्दे पर दिखाई दी और इस फिल्म के गाने लिखे मजरूह सुल्तानपुरी ने. झुमरू फिल्म के इस शीर्षक गीत में किशोर-दा ने अपनी पूरी मस्ती और खिलंदडपन का प्रमाण दिया है. 'यूड़ेल्लिंग' जो उनके गायिकी की पहचान थी, इस गाने में भरपूर सुनने को मिलती है. इस गीत का 'ऑर्केस्ट्रेशन' भी सुंदर है जिसके लिए श्रेय जाता है सुहरीद कर को. अगर आप ने यह फिल्म देखी है तो आपको याद होगा की यह गीत फिल्म के पहले 'सीन' में ही आता है और इसी गीत के दौरान फिल्म की नामावली दिखाई जाती है. और साथ ही पहाड़ों के बीच में से गुज़रती हुई 'ट्रेन' और 'ट्रेन' में बैठी मधुबाला. लेकिन दूर दूर तक किशोर कुमार का कोई आता पता नज़र नहीं आता इस गीत में. तो चलिए अब जल्दी से नीचे 'क्लिक' कीजिए और मस्त हो जाइए किशोर कुमार के साथ.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मेहन्द्र कपूर की आवाज़.
२. ओ पी नय्यर और एस एच बिहारी की टीम.
३. मुखड़े में शब्द है - "एहसान"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
दिलीप जी ने सही जवाब के साथ वापसी की है. संगीता जी और मनु जी भी नहीं चूके, पर आचार्य सलिल जी गडबडा गए...फिर भी कोशिश की इसके लिए बधाई. पारुल और शोभा जी का भी आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मन के मंजीरे आज खनकने लगे



अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष


हिंद युग्म आवाज़ के सभी महिला श्रोताओं को अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की ढेरों शुभकामनायें. दुनिया की आधी आबादी को समर्पित इस दिन को सलाम. सशक्त होती नारी शक्ति को सलाम. फिर भी कुछ सवाल हैं आज भी, जो अनुत्तरित हैं. ऐसे ही कुछ सवालों पर केन्द्रित विचार लेकर उपस्थित हैं नीलम मिश्रा. स्वागत करें नीलम जी का -



आज के समाज में महिलायें हर क्षेत्र में अपनी काबलियत साबित कर चुकी हैं. घर बाहर दोनों के बीच सामंजस्य बिठाती आज की नारी पढ़ी लिखी है, महत्वकांक्षी है, और अपने स्वस्थ, और परिवार की जरूरतों के प्रति जगुरुक भी. आवाज़ मंच पर भी नीलम जी के अलावा, रंजना जी, शोभा जी, शिवानी जी, अनीता जी, सीमा जी, पूजा अनिल और पारुल के साथ मृदुल जी और शन्नो जी ने अपनी आवाज़ और रचनात्मकता का लोहा मनवाया है. गायिकाओं में भी मानसी, मिथिला, प्रत्याक्षा, रम्या और तरन्नुम मालिक जैसी गायिकाओं ने यहाँ अपनी प्रतिभा से सबके मन को जीता है. आप सभी को समर्पित है शुभा मुदगल की आवाज़ में ये जोरदार गीत - "मन के मंजीरे".






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