Saturday, October 22, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 64 - जब एक ही धुन पर बने कई गीत



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। आज के अंक के लिए मैं ढूंढ़ लाया हूँ कुछ ऐसे गीत जो हैं अलग अलग दौर के, अलग अलग फ़िल्मों के, अलग अलग शब्दों से सजे हुए, पर उन सब में जो समानता है, वह है उनकी धुनें। ये सभी के सभी गीत एक ही मूल धुन पर आधारित है।

गीतकार साहिर लुधियानवी का पहला कामयाब गीत था फ़िल्म 'नौजवान' में "ठण्डी हवायें लहरा के आयें, रुत है जवाँ, तुमको यहाँ, कैसे बुलायें"। दादा सचिन देब बर्मन की यह धुन थी और लता जी की कमसिन आवाज़। गीत बेहद कामयाब हुआ और आज भी इन तीनों कलाकारों के यादगार गीतों में शामिल किया जाता है। सुनते हैं इस गीत को, और फिर उसके बाद देखें कि और कौन से ऐसे छह गीत बने हैं इसी धुन से मिलती-जुलती धुन पर। वैसे आपको बता दें कि यह धुन दादा बर्मन की भी ऑरिजिनल धुन नहीं है, बल्कि एक करीबीयन बैण्ड की धुन का भारतीय संसकरण है।

गीत - ठण्डी हवायें लहरा के आयें (नौजवान)


'नौजवान' फ़िल्म के इस गीत की रेकॉर्डिंग् के समय दादा बर्मन के साहबज़ादे, यानी कि राहुल देब बर्मन भी वहाँ पर मौजूद थे। विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में आशा भोसले और गुलज़ार से बातें करते हुए उन्होंने इस गीत के बारे में कहा था - "अच्छा मुझे एक बात याद आ गई है, कि एक दफ़ा, जैसे कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि जब मैं पहली बार लता बाई से मिला तो "ठण्डी हवायें" करके एक गाना था, उस गाने की रेकॉर्डिंग्‍ में मिला था। उसके कुछ, कुछ, कम से कम २५ साल बाद, एक ऐसी पार्टी हुई कि रोशन जी हमारे घर में आये, और वो भी पिताजी को बहुत प्यार करते थे। तो उन्होंने कहा कि 'दादा, आपका एक गाना मैंने चुराया है'। तो इन लोगों की ऐसी बातें हुआ करती थीं, मैं सुना करता था। तो उन्होंने कहा कि 'भई, कौन सा गाना?' तो बोले कि "ठण्डी हवायें"। तो देखिये रोशन भी कैसे मीटर को लेके अलग गाना बनाते थे। आप "ठण्डी हवायें" अगर गाना सुनें, जो मेरे पिताजी ने बनाया था, उसका मीटर, और रोशन जी नें 'ममता' करके एक पिक्चर किया था, जिसमें "रहें न रहें हम", उसका मीटर सेम है। आप ख़ुद ही गाके देखिये कि किस तरह से वो मीटर लेके यह गाना बनाया। क्यों न हम यह गाना सुनें?"

गीत - रहें न रहें हम (ममता)


इसी तरह से संगीतकार मदन मोहन नें भी इसी धुन और मीटर का इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म 'आपकी परछाइयाँ' में गीत कम्पोज़ किया "यही है तमन्ना तेरे घर के सामने, मेरी जान जाए, मेरी जान जाए"। रफ़ी साहब की आवाज़ और राजा मेहन्दी अली ख़ान के बोल। वैसे मदन मोहन नें यह काम रोशन से पहले ही कर चुके थे क्योंकि 'ममता' बनी थी १९६६ में जबकि 'आपकी परछाइयाँ' प्रदर्शित हुई थी १९६२ में। धर्मेन्द्र और उनकी नायिका सुप्रिया चौधरी पर फ़िल्माया यह गीत एक पेप्पी नंबर है जिसमें धर्मेन्द्र की ख़ास "नृत्य शैली" देखी जा सकती है। सुनते हैं इस गीत को भी।

गीत - यही है तमन्ना (आपकी परछाइयाँ)


दोस्तों, पंचम नें तो यह कह दिया कि रोशन नें उनके पिताजी की धुन का इस्तेमाल किया। पर इसी धुन का पंचम नें भी एक बार नहीं बल्कि दो दो बार इस्तेमाल किया। पहली बार १९८१ की फ़िल्म 'नरम गरम' में, जिसमें आशा भोसले का गाया गीत "हमें रास्तों की ज़रूरत नहीं है, हमें तेरे पाँव के निशां मिल गए हैं"। गीतकार थे गुलज़ार। दोस्तों, अब ज़रा इन्हीं बोलों को आप "हमें और जीने की चाहत न होती" गीत की धुन पर गाने की कोशिश करके देखिए ज़रा। गा सके न? जी हाँ, 'अगर तुम न होते' फ़िल्म का शीर्षक गीत भी कुछ कुछ इसी मीटर पे है। इस बार गीतकार हैं गुलशन बावरा। लीजिए दोनों गीत सुनिए एक के बाद एक...

गीत - हमें रास्तों की ज़रूरत नहीं है (नरम गरम)


गीत - हमें और जीने की चाहत न होती (अगर तुम न होते)


"ठण्डी हवायें" का 'नरम गरम' के अलावा पंचम नें 'सागर' फ़िल्म के शीर्षक गीत में भी १९८५ में फिर एक बार इस्तेमाल किया। लता-किशोर का गाया यह डुएट ८० के दशक के सब से हिट डुएट्स में से एक है। गीतकार जावेद अख़्तर। जब पंचम नें ही उस मुलाकात में बताया कि "बाप का माल बहुत चुराया मैंने", तो आशा जी नें कहा कि "आजकल लोग चुराते हैं, बाप का माल ही चुरायें तो अच्छा है"। यह सुन कर तीनों (पंचम, आशा और गुलज़ार) ज़ोर से हँस पड़े।

गीत - सागर किनारे दिल ये पुकारे (सागर)


अरे हाँ दोस्तों, एक और पंचं नंबर याद आ रही है मुझे। १९७६ में एक फ़ैन्टसी फ़िल्म आई थी 'बंडलबाज़' के नाम से जिसमें राजेश खन्ना और सुलक्षणा पण्डित थे और शम्मी कपूर नें तो बोतल में बन्द एक जीन की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी से एक बड़ा ख़ूबसूरत गीत गवाया गया था "नग़मा हमारा गायेजा ज़माना"। मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत था। आख़िर इस गीत के मुखड़े की शुरुआती धुन भी तो "सागर किनारे" जैसे ही लगती है!

गीत - नग़मा हमारा गायेगा ज़माना (बंडलबाज़)


यहीं पे आके इस धुन की प्रेरणा ख़त्म नहीं हो जाती। अगली पीढ़ी के संगीतकार राम लक्ष्मण नें भी इस धुन का सहारा लेकर अपनी फ़िल्म 'प्यार का तराना' का शीर्षक गीत रच डाला "कहा था जो तुमने क्यों मैंने माना, कि ज़िन्दगी है प्यार का तराना"। लता मंगेशकर और उदित नारायण की आवाज़ों में यह गीत था सन् १९९३ की इस फ़िल्म का। आइए सुनते हैं इस गीत को।

गीत - कहा था जो तुमने क्यों मैंने माना (प्यार का तराना)


तो देखा दोस्तों, किस तरह से एक मूल धुन में फेर बदल कर संगीतकारों नें कितने कामयाब गीत रच डाले हैं। आशा है आपको आज का यह अंक पसन्द आया होगा, आगे भी इस तरह का "स्वर-छाया" आप तक पहुँचाते रहेंगे। अब आज की इस प्रस्तुति को समाप्त करने की अपने दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार!

मुंशी प्रेमचन्द की "निर्वासन"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में घुघूतीबासूती के व्यंग्य ओह! का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की हृदयविदारक कहानी "निर्वासन", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 14 मिनट 20 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट सत्यार्थमित्र ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

"तुम इतने दिनों कहाँ रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहाँ किसके साथ आयीं?"
 (प्रेमचंद की "निर्वासन" से एक अंश)


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#150th Story, Nirvasan: Munshi Premchand/Hindi Audio Book/2011/31. Voice: Archana Chaoji & Anurag Sharma

Thursday, October 20, 2011

माँ ही गंगा...जात्रागान शैली का ये गीत नीरज की कलम से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210

पूर्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक-धुनों और शैलियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'पुरवाई' की अन्तिम कड़ी में आप सभी का मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, सिनेमा के आने से पहले मनोरंजन का एक मुख्य ज़रिया हुआ करता था नाट्य, जो अलग अलग प्रांतों में अलग अलग रूप में पेश होता था। नाट्य, जिसे ड्रामा या थिएटर आदि भी कहते हैं, की परम्परा कई शताब्दियों से चली आ रही है इस देश में, और इसमें अभिनय, काव्य और साहित्य के साथ साथ संगीत भी एक अहम भूमिका निभाती आई है। प्राचीन भारत नें संस्कृत नाटकों का स्वर्ण-युग देखा। उसके बाद ड्रामा का निरंतर विकास होता गया। जिस तरह से अलग अलग भाषाओं का जन्म हुआ और हर भाषा का अपने पड़ोसी प्रदेश के भाषा के साथ समानताएँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार अलग अलग ड्रामा और नाट्य शैलियाँ भी विकसित हुईं एक दूसरे से थोड़ी समानताएँ और थोड़ी विविधताएँ लिए हुए। पूर्वोत्तर के आसाम राज्य में “ओजापाली” का चलन हुआ, तो बंगाल में "जात्रा-पाला" का, पंजाब में "स्वांग" तो कश्मीर में "जश्न"। केरल के कथाकली नृत्य शैली से प्राचीन लोक-कथायों को साकार करने की परम्परा भी बहुत पुरानी है। बंगाल में प्रचलित 'जात्रा' का शाब्दिक अर्थ है यात्रा। मूलत: जात्रा में पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं को स्टेज पर नाट्य के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। संवाद और गीत-संगीत के माध्यम से जात्रा की अवधि लगभग ४ घंटे की होती है। क्योंकि प्राचीन काल में महिलाओं का नाटक और संगीत में आने नहीं दिया जाता था, इसलिए जात्रा पुरुष कलाकारों द्वारा निभाई जाती है और नारी चरित्र भी पुरुष ही निभाते हैं। १९-वीं सदी से महिलाएँ भी जात्रा के किरदार निभाने लगीं।

जात्रा में काफ़ी नाटकीयता होती है और कलाकार अपने संवाद और गीत ऊंची आवाज़ में बोलते/ गाते हैं। अलग अलग भावों को व्यक्त करने के लिए जात्रा के कलाकार ज़ोर से ज़ोर से हँसते, रोते, गाते, लड़ते हैं। सिनेमा के आने के बाद थिएटर का चलन थोड़ा कम हो गया है ज़रूर, पर ख़ास तौर से ग्रामीण इलाकों में जात्रा का आज भी ख़ूब चलन है। थिएटर कंपनियाँ आज भी गाँवों और छोटे शहरों में डेरा डालती है। जात्रा का मौसम सितम्बर से शुरु होता है; दुर्गा पूजा से जात्रा की शुरुआत होती है और अगले साल मानसून से पहले जाकर समाप्त होती है। यानि कि सितम्बर से लेकर अगले साल मई तक जात्रा आयोजित होते हैं। जात्रा की शुरुआत १६-वीं शताब्दी से मानी जाती है जब श्री चैतन्य महाप्रभु का भक्तिवाद चल रहा था। उस समय भगवान श्री कृष्ण के भक्तगण कीर्तन शैली के संवाद और गीतों के माध्यम से श्रीकृष्ण-नाम गाया करते थे। यहीं से जात्रा की शुरुआत होती है। आधुनिक काल में भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जात्रा नें जनजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन जात्राओं को 'स्वदेशी जात्रा' कहा जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इप्टा नें भी कई जात्रा स्टेज किए। जात्रा में गाये जाने वाले गीतों को 'जात्रागान' कहते हैं। आज के अंक में हम जो गीत सुनवाने जा रहे हैं वह भी जात्रागान शैली की है। लता मंगेशकर, कमल बारोट, नीलिमा चटर्जी और साथियों की आवाज़ों में यह गीत है फ़िल्म 'मंझली दीदी' का गीतकार नीरज का लिखा हुआ। गीत में लवकुश की गाथा को दर्शाया जा रहा है। यह शरतचन्द्र की प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित मीना कुमारी - धर्मेन्द्र अभिनीत १९६७ की फ़िल्म है जिसमें संगीत था हेमन्त कुमार का। आइए सुना जाये बंगाल के ग्रामीण स्पर्श लिए जात्रा-संगीत पर आधारित यह गीत और इस शृंखला को समाप्त करने की दीजिए मुझे अनुमति, शृंखला के बारे में अपने विचार टिप्पणी में ज़रूर व्यक्त कीजिएगा, नमस्कार!



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
जगजीत के स्वरों से महकी इस अमर गज़ल के एक शे'र में शब्द आता है -"जहर"

पिछले अंक में
एक बार फिर से बधाई अमित जी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 19, 2011

श्याम रंग रंगा रे...येसुदास के पावन स्वरों से महका एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 769/2011/209

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! लघु शृंखला 'पुरवाई' की नवी कड़ी में आज हम लेकर आये हैं बंगाल के कीर्तन और श्यामा संगीत पर आधारित एक गीत। हर राज्य का अपना भक्ति-संगीत का स्वरूप होता है। जैसे कि असम के भक्ति-संगीत पर आधारित एक गीत इसी शृंखला में हमने सुनवाया था, वैसे ही बंगाल में भी कई तरह के भक्ति गीतों की लोकप्रियता है जिनमें कीर्तन शैली और श्यामा संगीत का काफ़ी नाम है। श्यामा संगीत की बात करें तो ये भक्ति रचनाएँ माँ काली को समर्पित रचनाएँ होती हैं ('श्यामा' शब्द काली माता के लिए प्रयोग होता है), और इन्हें शक्तिगीति भी कहते हैं। और क्योंकि बंगाल में माँ काली को लोग बहुत मानते हैं, इसलिए श्यामा-संगीत भी ख़ूब लोकप्रिय है। श्यामा संगीत इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि इसमें माँ और उसके बच्चे के रिश्ते की बातें होती हैं। साधारण पूजा-पाठ के नियमों से परे होता है श्यामा संगीत। १२-वीं और १३-वीं शताब्दी में जब शक्तिवाद बंगाल में पनपने लगी, तब कई कवि और लेखक प्रेरीत हुए माँ काली पर गीत और कविताएँ लिखने के लिए। १५८९ में मुकुन्दरामा, जिन्हें 'कविकंकन' भी कहा जाता है, नें अपनी मशहूर कविता लिखी 'चंडी'। १८-वीं शताब्दी के मध्य भाग में कवि रामाप्रसाद सेन नें इसे नया जीवन देते हुए इसे बंगला गीतों की एक श्रेणी ही बना डाली। रामाप्रसाद के बाद कई संगीतकार जैसे कमलाकान्त भट्टाचार्य (१७७२-१८२१), रसिकचन्द्र राय (१८२०-१८९३), रामचन्द्र दत्त (१८६१-१८९९) और नीलकान्त मुखोपाध्याय नें श्यामा-संगीत की परम्परा को समृद्ध किया और आगे बढ़ाया। आधुनिक समय में रबीन्द्रनाथ ठाकुर और काज़ी नज़रूल इस्लाम नें श्यामा-संगीत की कविताएँ लिखीं।

श्यामा-संगीत को दो भागों में बांटा जा सकता है - भक्तिमूलक गीत और उमासंगीत/ आगमनी या विजय गीत। भक्तिमूलक गीत भक्ति और आध्यात्मिक भावों से प्रेरीत होता है, जबकि विजय गीतों में दैनन्दिन पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों का उल्लेख होता है। श्यामा-संगीत के बारे में एडवार्ड थॉमप्सन नें जो बातें १९२३ में कहे थे, वो आज भी सार्थक हैं। उन्होंने कहा था -

But the Śākta poems are a different matter. These have gone to the heart of a people as few poets' work has done. Such songs as the exquisite 'This day will surely pass, Mother, this day will pass,' I have heard from coolies on the road or workers in the paddy fields; I have heard it by broad rivers at sunset, when the parrots were flying to roost and the village folk thronging from marketing to the ferry. Once I asked the top class in a mofussil high school to write out a song of Rabindranath Tagore's; two boys out of forty succeeded, a result which I consider showed the very real diffusion of his songs. But, when I asked for a song of Rāmprasād's, every boy except two responded. Truly, a poet who is known both by work and name to boys between fourteen and eighteen, is a national poet. Tagore's songs are heard in Calcutta streets, and have been widely spread by the student community and the Brahmo Samaj; but in the villages of Bengal they are unknown, while Rāmprasād's are heard everywhere. 'The peasants and the paṇḍits enjoy his songs equally. They draw solace from them in the hour of despair and even at the moment of death. The dying man brought to the banks of the Ganges asks his companions to sing Rāmprasādī songs.

दोस्तों, कीर्तन और श्यामा-संगीत पर आधारित जिस फ़िल्मी गीत को हमने आज चुना है, उसके संगीतकार हैं बप्पी लाहिड़ी। येसुदास और साथियों का गाया यह है फ़िल्म 'अपने पराये' का गीत "श्याम रंग रंगा रे, हर पल मेरा रे, मेरा मतवाला है मन, मधुबन तेरा रे"। भले ही इस गीत में भगवान कृष्ण की बातें हो रही हैं, पर संगीत के लिए बप्पी लाहिड़ी नें श्यामा-संगीत शैली को अपनाया है। साथ ही बंगाल का कीर्तन रूप भी साकार हो उठता है इस गीत में। गीतकार योगेश का लिखा यह गीत सुन कर मन बड़ा शान्त हो जाता है। बप्पी लाहिड़ी पे यह इलज़ाम है कि उन्होंने फ़िल्म-संगीत को अनर्थक साज़ और शोर शराबे से प्रदूषित किया है। इस बात में सच्चाई है, पर अगर हम उन पर यह आरोप लगा रहे हैं तो कम से कम 'अपने पराये' के प्रस्तुत गीत के लिए उन्हें बधाई भी तो देनी चाहिए! चलिए सुना जाये यह भक्ति रचना।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
नीरज के लिखे गीत में "गंगा" का वंदन है

पिछले अंक में
बप्पी दा ने ऐतबार में "किसी नज़र को तेरा" और शराबी में "मंजिलें अपनी जगह है" जैसे यादगार और सुरीले गीतों को रचा था.
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, October 18, 2011

धितंग धितंग बोले, मन तेरे लिए डोले....सलिल दा की ताल पर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 768/2011/208

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनो जारी लघु शृंखला 'पुरवाई' की आठवीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपके लिए लेकर आये हैं बंगाल की एक लोकगाथा, या रूपकथा (fairy-tale) भी कह सकते हैं। इस कहानी का शीर्षक है 'सात भाई चम्पा और एक बहन पारुल'। चम्पा और पारुल बंगाल में पाये जाने वाले पेड़ हैं। बहुत समय पहले सुन्दरपुर में एक राजा अपनी सात रानियों के साथ रहता था। वह राजा बहुत ही नेक और साहसी था और इमानदारी को हर चीज़ से उपर रखता था। इसलिए प्रजा भी उन्हें बहुत प्यार करती थी। पर उनके पहली छह रानियाँ बहुत ही स्वार्थी और क्रूर थीं और छोटी रानी से जलती थीं क्योंकि वह राजा की प्यारी थी। राजा के मन में बस एक दुख था कि उनका कोई सन्तान नहीं था। किसी भी रानी से उन्हें सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। जैसे जैसे दिन गुज़रते गए, राजा एक सन्तान की आस में बेचैन होते गए। जब एक दिन उन्हें पता चला कि छोटी रानी गर्भवती है, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। राजा नें एक दिन छोटी रानी को सोने का एक घण्टा के साथ सोने की एक चेन बांध कर दिया और कहा कि जैसे ही बच्चे का जन्म हो तो इस घण्टे को बजाना, और मैं तुरन्त तुम्हारे पास आ जाउंगा। यह कह कर राजा अपने कक्ष में चला गया। उधर बच्चे के जन्म के समय बाकी छह रानियाँ वहाँ मौजूद थीं। उनसे छोटी रानी का सुख देखा नहीं गया। छोटी रानी नें सात लड़के और एक लड़की को जन्म दिया। छोटी रानी तो बेहोश थी, बाकी रानियों ने मिल कर नवजातों को बगीचे में ले जा कर दफ़ना दिया। वापस आकर उन दुष्ट रानियों नें छोटी रानी के बगल में सात चूहे और एक केंकड़ा रख दिया। बड़ी रानी नें फिर घण्टा बजाया और राजा दौड़ कर वहाँ आया। चूहों और केंकड़े को देख कर रजा गुस्से से तिलमिला उठा, छोटी रानी को जादूगरनी और चुड़ैल कहते हुए अपने महल से जिकाल दिया। इस दुखभरी कहानी का और कोई न सही पर प्रकृति चश्मदीद गवाह थी। प्रकृति को यह अन्याय सहन नहीं हुई। इसके विरोध में प्रकृति नें उस राज्य में पेड़ों पर फूल खिलाने बन्द कर दिए, नदियाँ सूख गईं। राज्य में सूखा पड़ गया, राजा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। फिर एक दिन सुबह राज-पुरोहित भागा भागा राजा के पास आया और कहा - "महाराज, आश्चर्य की बात है कि जहाँ पूरे राज्य में कहीं कोई फूल नहीं खिला है, केवल आपके बगीचे में सात चम्पा और एक पारुल फूल खिले हुए हैं। पर जैसे ही मैं फूल तोड़ने लगा तो ऊंचाई पर चढ़ गए और कहा कि केवल राजा उन्हें तोड़ सकता है।" राजा भागते भागते बगीचे में गए, और जैसे ही उन फूलों को देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे वो उन्हीं की सन्तानें हैं। राजा को देख कर पारुल नें अपने साथ भाई चम्पा फूलों को भी जगाया। उन फूलों नें राजा को आदेश दिया कि उनकी छोटी रानी को बुलाया जाए, केवल वो ही उन्हें छू सकती हैं। छोटी रानी को ढूंढ़ कर लाया गया और एक एक कर सारे फूल उनकी कदमों में गिर गए; पारुल एक सुन्दर राजकुमारी में परिवर्तित हो गई और साथ चम्पा भाई रूपान्तरित हो गए सात सुन्दर राजकुमारों में। फिर राजा अपनी छोटी रानी और आठ बच्चों के साथ सुखी-सुखी जीवन बिताने लगे।

दोस्तों, आप शायद यह सोच रहे होंगे कि हमने आपको चम्पा और पारुल की यह कहानी क्यों सुनाई? वह इसलिए कि आज हम जिस गीत की धुन पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं उस मूल गीत में भी इन्हीं चम्पा भाइयों और पारुल का ज़िक्र है। बल्कि दो गीत हैं, पहला गीत है "धितांग धितांग बोले, ए मादोले तान तोले, कार आनोन्दे उच्छोले आकाश भोरे जोछोनाय..... आय रे आय, लगन बोये जाय, मेघ गुर गुर कोरे चाँदेर शिमानाय, पारुल बोन डाके चम्पा छुटे आए..."। और दूसरा गीत है "सात भाई चम्पा जागो रे जागो रे...." (पारुल अपने सात चम्पा भाइयों को जगाते हुए यह गीत गा रही है)। इस धितांग धितांग बोले गीत की धुन पर आधारित गीत सलिल चौधरी नें ज़िया सरहदी निर्देशित 'महबूब प्रोडक्शन्स' की फ़िल्म 'आवाज़' के एक गीत में किया था, जिसके बोल थे "धितंग धितंग बोले, मन तेरे लिए डोले"। प्रेम धवन के लिखे और लता मंगेशकर और साथियों के गाये इस गीत में जहाँ बंगाल के संगीत की छाया है, वहीं इसके संगीत संयोजन में सलिल दा नें कई प्रान्तों के संगीत का प्रयोग किया है। लावणी की ताल से शुरु कर गोवा के लोक-संगीत की रिदम की तरफ़ कितनी सुन्दरता से ले गए हैं। पंकज राज अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में इस गीत के बारे में लिखते हैं कि "कैरेबियन बीट २-४ इस गीत में दादरा ताल ६-८ मात्रा बन कर अचम्भित कर देती है। ढोलक की तेज़ गति से लावणी का आभास देकर झटके से कोमल सुरों के साथ एकॉर्डियन और हारमोनियम की तरंग और फिर कोरस के साथ "आए रे आए प्यार के दिन आए" के साथ लहराते सुरों में इस गीत को बांधना सलिल की रचनात्मकता का अनुपम उदाहरण है।" तो दोस्तों, आइए इस गीत का आनन्द लिया जाए।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
येसुदास की आवाज़ में ये गीत है जिसके मुखड़े में "मधुबन" शब्द आता है, पर ये पहला नहीं है

पिछले अंक में
अमित जी बहुत से हिंट दे देंगें तो आप पक्के हो जायेंगें कि फलां गीत है, जरा सा संशय रहने दीजिए, वैसे कल आपके बहुत सी कोशिशों में से एक सही निशाने पर टिका है बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, October 17, 2011

साजन की हो गयी गोरी...सुन्दर बाउल संगीत पर आधारित देवदास की अमर गाथा से ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 767/2011/207

'पुरवाई' शृंखला में इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं पूर्वी और उत्तरपूर्वी भारत के लोक संगीत पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों का अपने दोस्त सुजॉय चटर्जी और साथी सजीव सारथी के साथ। आज हम जिस लोक-शैली की चर्चा करने जा रहे हैं उसे बंगाल में बाउल के नाम से जाना जाता है। बाउल एक धार्मिक गोष्ठी भी है और संगीत की एक शैली भी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाउल में वैष्णव हिन्दू भी आते हैं और सूफ़ी मुसलमान भी। इस तरह से यह साम्प्रदायिक सदभाव का भी प्रतीक है। हालाँकि बाउल बंगाल की जनसंख्य का एक बहुत छोटा सा अंश है, पर बंगाल की संस्कृति में बाउल का महत्वपूर्ण योगदान है। सन् २००५ में बाउल शैली को UNESCO के 'Masterpieces of the Oral and Intangible Heritage of Humanity' की फ़ेहरिस्त में शामिल किया गया है। बाउल की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई इसका सटीक पता नहीं चल पाया है, पर 'बाउल' शब्द बंगाली साहित्य में १५-वीं शताब्दी से ही पाया जाता है। बाउल संगीत एक प्रकार का लोक गीत है जिसमें हिन्दू भक्ति धारा और सूफ़ी संगीत, दोनों का प्रभाव है। बाउल गीतों में प्रयोग होने वाला मुख्य साज़ है इकतारा। इकतारे के बिना बाउल गीत सम्भव नहीं। इसके अलावा दोतारा, डुग्गी, ढोल, खोल, खरताल और मंजिरा और बांसुरी का भी प्रयोग होता है बाउल गीतों में।

बाउल लोक-गीतों की अपनी अलग पहचान होती है, इसे हम शब्दों में तो नहीं समझा सकते लेकिन यू-ट्युब में आप बंगला बाउल गीतों को सुन कर इस शैली का एक अन्दाज़ा लगा सकते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में भी बाउल संगीत शैली का इस्तेमाल हुआ है जब जब बंगाल की पृष्ठभूमि पर फ़िल्में बनी हैं। बिमल राय की १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' के लिए उन्होंने सलिल चौधरी की जगह सचिन देब बर्मन को बतौर संगीतकार चुना। इस फ़िल्म में दो गीत ऐसे थे जो बाउल संगीत शैली के थे। दोनों ही गीत मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों में था, इनमें से एक गीत "आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे" तो हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा ही चुके हैं, दूसरा गीत है "साजन की हो गई गोरी"। क्यों न आज इसी गीत को सुना जाए! दिलीप कुमार, वैजयन्तीमाला और सुचित्रा सेन अभिनीत इस फ़िल्म की तमाम जानकारियाँ तो हम "आन मिलो श्याम सांवरे" गीत की कड़ी में ही दे दिया था; आज के प्रस्तुत गीत का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह से किया गया है कि पारो (सुचित्रा सेन) आंगन में गुमसुम बैठी है, और एक बाउल जोड़ी उसकी तरफ़ इशारा करते हुए गाते हैं "साजन की हो गई गोरी, अब घर का आंगन बिदेस लागे रे"। साहिर लुधियानवी नें कितने सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है इस गीत में और बंगाल का वह बाउल परिवेश को कितनी सुन्दरता से उभारा गया है इस गीत में। २००२ के 'देवदास' में इस तरह का तो कोई गीत नहीं था, पर जसपिन्दर नरूला और श्रेया घोषाल के गाये "मोरे पिया" गीत के भाव से इस गीत का भाव थोड़ा बहुत मिलता जुलता है। तो आइए आनन्द लिया जाये "साजन की हो गई गोरी" का।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
प्रेम धवन की कलम से निकले इस गीत के मुखड़े में शब्द है -"दीवाने"

पिछले अंक में
वाह अमित जी वाह, वैसे इस शब्द से शुरू होने वाले साहिर के और गीतों को खोजिये अच्छी रिसर्च हो जायेगी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 16, 2011

सुन री पवन, पवन पुरवैया.. भटयाली संगीत की लहरों में बहाते बर्मन दा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 766/2011/206

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का इस नए सप्ताह में हार्दिक स्वागत है। इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'पुरवाई' जिसके अन्तर्गत आप आनन्द ले रहे हैं पूर्व और पुर्वोत्तर भारत के लोक और पारम्परिक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की। आज हम आपको लिए चलते हैं पूर्वी बंगाल, यानि कि वो जगह जिसका ज़्यादातर अंश आज बंगलादेश में पड़ता है। आपको बता दें कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और गीत-संगीत में बहुत अन्तर है। असम और त्रिपुरा में भी पूर्वी बंगालियों का एक बड़ा समूह वास करता है। आज के इस कड़ी में हम पूर्वी बंगाल के बहुत प्रचलित लोक-गीत शैली पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे भटियाली लोक-गीत कहा जाता है। भटियाली मांझी गीत है जिसे नाविक भाटे के बहाव में गाते हैं। जी हाँ, ज्वार-भाटा वाला भाटा। क्योंकि भाटे में चप्पु चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसलिए मांझी लोग गुनगुनाने लग पड़ते हैं। और इस "भाटा-संगीत" को ही भटियाली कहते हैं। मूलत: इस शैली का जन्म मीमेनसिंह ज़िले में हुआ था जहाँ मांझी ब्रह्मपुत्र नदी में नाव चलाते हुए गाते थे। धीरे धीरे यह संगीत फैला और समूचे बंगाल (पूर्वी और पश्चिम) में गाया जाने लगा। भटियाली गीतों का विषय मूलत: नाव चलाने, मछलियाँ पकड़ने और नदियों से सम्बन्धित हुआ करते हैं। बंगलादेश के कुल १४ किस्म के लोक गीतों में भटियाली प्रकृति-तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। अन्य तत्वों में शामिल है देह-तत्व (शरीर के विषय में) और मुर्शिद-तत्व (गुरु के विषय में)।

भटियाली गीत-संगीत से जुड़े प्रसिद्ध संगीतकार और गीतकारों में कुछ उल्लेखनीय नाम हैं मिराज़ अली, उकिल मुन्शी, राशीदुद्दीन, जलाल ख़ान, जंग बहादुर, शाह अब्दुल करीम और उमेद अली। १९३० से १९५० का समय भटियाली संगीत का स्वर्णयुग था और ये तमाम फ़नकार उसी दौर के थे। गायक अब्बासुद्दीन नें इस गायन शैली को लोकप्रिय बनाया, और सबसे लोकप्रिय गीत उनका रहा "आमाय भाशाइली रे, आमय डुबाइली रे" (मुझे बहा ले गया, मुझे डुबो ले गया)। आज के दौर के दो प्रमुख भटियाली गायक हैं मलय गांगुली और बारी सिद्दिक़ी। अब आते हैं फ़िल्मी गीतों पर। क्योंकि सचिन देव बर्मन का जन्म और बचपन त्रिपुरा में प्रकृति के बहुत करीब से बीता, इसलिए वहाँ का हर तरह का लोक-संगीत उनके ख़ून में रच-बस गया था। अन्य तमाम लोक-शैलियों के साथ साथ भटियाली संगीत का भी उन्होंने कई कई बार प्रयोग किया। "मेरे साजन है उस पार" और "सुन मेरे बन्धु रे" इस श्रेणी के दो सबसे ज़्यादा उल्लेखनीय गीत हैं। उनकी आवाज़ में एक मशहूर भटियाली गीत था "के जाश रे, भाटी गांग बाइया...." (कौन जा रहा है उधर, नाव खेते हुए...)। यह बड़ा ही मार्मिक गीत है जिसे सुन कर हर लड़की की आँखों में आंसू आ जाते हैं। गीत का भाव कुछ ऐसा है कि ससुराल में घर-संसार सम्भालते हुए लड़की बहुत सालों से माइके नहीं जा पा रही हैं। ऐसे में वो दूर नदी में जा रही नाव के नाविकों को पुकार कर कह रही है कि अरे ओ कौन जा रहे हो, ज़रा मेरे घर में जा कर मेरे भाई से कहना कि वो आकर मुझे कुछ दिनों के लिए यहाँ से ले माइके ले जाए। कितने दिन हो गए माइके गए हुए। फिर गीत के अन्तरों में लड़की अपने बचपन के दिनों को याद करती है, माता-पिता और भाई-बहनों, सखी-सहेलियों को याद करती हैं। इस गीत को आप इस लिंक पर सुन सकते हैं। कहीं मैंने पढ़ा है कि इस गीत के बोल बर्मन दादा की पत्नी मीरा देब बर्मन नें लिखी हैं, पर इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है।

और अब इसी धुन पर आधारित सुनिए बर्मन दादा का ही स्वरबद्ध किया फ़िल्म 'अनुराग' का गीत "सुन री पवन, पवन पुरवइया, मैं हूँ अकेली अलबेली तू सहेली मेरी बन जा साथिया"। इस गीत का भाव भी इसके बंगला संस्करण की ही तरह अकेलेपन से ताल्लुख़ रखता है, पर यहाँ लड़की ससुराल में अकेला नहीं महसूस कर रही है, बल्कि वो नेत्रहीन है और किसी जीवन-साथी की आस में बैठी है। लता मंगेशकर की अद्वितीय आवाज़ में आनन्द बख्शी की रचना प्रस्तुत है 'पुरवाई' शृंखला की छठी कड़ी में, भटियाली सुरों के साथ।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
साहिर का लिखा ये गीत "साजन" शब्द से शुरू होता है

पिछले अंक में
आपने बहुत अच्छे अच्छे गीत सुझाए शरद जी जिसमें 'अलबेली" शब्द आया है, बाकी श्रोता भी इस तरह बताएं तो हमारे पास एक शब्द प्रयुक्त गीतों की खासी सूची बन जायेगी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

‘जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धँसी अढ़ाई हाथ.....’ बुन्देलखण्ड की लोकप्रिय लोक-गायकी शैली



सुर संगम- 39 – वीर रस का संचार करती लोक-काव्य की अजस्र धारा- आल्हा पर एक चर्चा


शास्त्रीय तथा लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ ‘सुर संगम’ के आज एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हम उत्तर भारत में प्रचलित लोक गीत-संगीत की एक ऐसी विधा पर आपसे चर्चा करेंगे, जो श्रोताओं में वीर रस का संचार करने में सक्षम है। लोक संगीत की यह शैली ‘आल्हा’ के नाम से लोकप्रिय है।

आल्हा, वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत और परमाल रासो पर आधारित बुन्देली और अवधी का एक महत्त्वपूर्ण छन्दबद्ध काव्य है। इस काव्य का प्रणयन लगभग सन १२५० में माना जाता है। इसमें महोबा के वीर आल्हा और ऊदल के वीरता की गाथा होती है। यह उत्तर प्रदेश के अवध और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक लोकप्रिय वीर-गाथा है। पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक समूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों प्रदेशों में आल्हा-गायन होता है। आल्हा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें कहीं ५२ तो कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इस लोकमहाकाव्य की गायकी की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जगनिक के लोककाव्य “आल्ह-खण्ड” की लोकप्रियता देशव्यापी है। महोबा के शासक परमाल के दोनों शूरवीर भाइयों- आल्हा और ऊदल की शौर्य-गाथा केवल बुन्देलखण्ड तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अवध, कन्नौज, रूहेलखण्ड, ब्रज आदि क्षेत्रों की बोलियों में भी विकसित हुईं। आल्हा या वीर छन्द अर्द्धसम मात्रिक छन्द है, जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६ मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है। यह छन्द वीररस से ओत-प्रोत होता है। इस छन्द में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है। एक लोककवि ने आल्हा के छन्द-विधान को इस प्रकार समझाया है-

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।


आल्हा-गायन में प्रमुख संगति वाद्य ढोलक, झाँझ, मँजीरा आदि है। विभिन्न क्षेत्रों में संगति-वाद्य बदलते भी हैं। ब्रज क्षेत्र की आल्हा-गायकी में सारंगी के लोक-स्वरूप का प्रयोग किया जाता है, जबकि अवध क्षेत्र के आल्हा-गायन में सुषिर वाद्य क्लेरेनेट का प्रयोग भी किया जाता है। आल्हा का मूल छन्द कहरवा ताल में निबद्ध होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। आइए, ब्रज क्षेत्र की परम्परागत आल्हा-गायकी का एक उदाहरण आपको लोक-गायक बलराम सिंह के स्वरों में सुनवाते हैं।

आल्हा गायन : स्वर – बलराम सिंह : प्रसंग – इन्दल हरण


राजा परमाल देव चन्देल वंश के अन्तिम राजा थे। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में यह वंश समाप्त हो गया। वर्तमान में महोबा एक साधारण कस्बा है, परन्तु ११वीं और १२वीं शताब्दी में चन्देलों की राजधानी था। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमाल देव के दरबार के योद्धा थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनके पिता जसराज एक लड़ाई में मारे गए। राजा को अनाथ बच्चों पर दया आई। राजा परमाल आल्हा और ऊदल को राजमहल में ले आए और अपनी रानी मलिनहा को सौंप दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परिवरिश और लालन-पालन अपने पुत्र के समान ही किया। युवा होते ही दोनों भाई वीरता में अद्वितीय हुए। आल्हा-काव्य इन दोनों भाइयों की वीरता की ही गाथा है।

बारहवीं शताब्दी में चन्देल राजपूतों की वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा-महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली होगी, जितनी आल्हा गीत के नायकों आल्हा और ऊदल को मिली। आल्हा और ऊदल का अपने स्वामी और अपने राजा के लिए प्राणों का बलिदान करना ही इस लोक-गाथा का मूल तत्व है। आल्हा और ऊदल की वीरता के कारनामे चन्देली कवि ने उन्हीं के काल में गाये थे। वीर रस के इस काव्य में अलंकारों का प्रयोग अत्यन्त रोचक है। अतिशयोक्ति अलंकार का एक उदाहरण देखें- “जा दिन जनम लियो आल्हा ने धरती धँसी अढ़ाई हाथ...”। आल्हा-ऊदल और महोबा की सेना की वीरता के सन्दर्भ में “आल्ह-खण्ड” में थोड़े शाब्दिक हेर-फेर के साथ यह पंक्ति कई बार दोहराई गई है- “बड़े लड़इया महोबे वाले, जिनके बल को वार न पार...”। एक महाकाव्य मे जो साहित्यिक गुण होने चाहिए, वह सब इस लोक-गाथा में हैं। “आल्ह-खण्ड” का साहित्यिक विवेचना करने वाले तथा परम्परागत आल्हा गायकी के दीवानों के मानस में तो आल्हा और ऊदल यथार्थ चरित्र के रूप में बसे हुए हैं, किन्तु वैज्ञानिक ढंग से विवेचना करने वाले इन्हें काल्पनिक चरित्र ही मानते हैं। इस सम्बन्ध में हमने बुन्देलखण्ड की लोक कलाओं और लोक साहित्य के वरिष्ठ अध्येता और शोधकर्त्ता अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से आल्हा की ऐतिहासिकता के विषय पर बातचीत की है, जिसे हम अगले सप्ताह ‘सुर संगम’ में प्रस्तुत करेंगे। आज के अंक को विराम देने से पहले आइए आपको अवध क्षेत्र में प्रचलित आल्हा का एक उदाहरण सुनवाते हैं। उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के सुप्रसिद्ध लोक-गायक लल्लू बाजपेयी के स्वरों में यह आल्हा है। गायन के बीच-बीच में विभिन्न चरित्रों द्वारा गद्य संवाद भी बोले गए हैं।

आल्हा गायन : स्वर – लल्लू बाजपेयी : प्रसंग – मचला हरण


अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम आल्हा गायकी के सम्बन्ध में इस आलेख के दूसरे भाग के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

चित्र परिचय : वीर आल्हा


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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