Saturday, March 6, 2010

केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले...दो दिग्गजों की अनूठी जुगलबंदी से बना एक अनमोल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 365/2010/65

भारतीय शास्त्रीय संगीत के राग ना केवल दिन के अलग अलग प्रहरों से जुड़े हुए हैं, बल्कि कुछ रागों का ऋतुओं, मौसमों से भी निकट का वास्ता है। ऐसा ही एक राग है बहार। और फिर राग बहार से बना है राग बसन्त बहार भी। जब बसंत, फागुन और होली गीतों की यह शृंखला चल रही है, ऐसे में अगर इस राग का उल्लेख ना करें तो शायद रंगीले गीतों की यह शृंखला अधूरी ही रह जाएगी। इसलिए आज जो गीत हमने चुना है वह आधारित है राग बसन्त बहार पर, और फ़िल्म का नाम भी वही है, यानी कि 'बसन्त बहार'। शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी, और इस गीत को दो ऐसे गायकों ने गाए हैं जिनमें से एक तो शास्त्रीय संगीत के आकाश का एक चमकता सितारा हैं, और दूसरे वो जो हैं तो फ़िल्मी पार्श्व गायक, लेकिन शास्त्रीय संगीत में भी उतने ही पारदर्शी जितने कि कोई अन्य शास्त्रीय गायक। ये दो सुर गंधर्व हैं पंडित भीमसेन जोशी और हमारे मन्ना डे साहब। 'गीत रंगीले' में आज इन दो सुर साधकों की जुगलबंदी पेश है, "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले"। ऋतुराज बसन्त को समर्पित इससे उत्कृष्ट फ़िल्मी गीत शायद ही किसी और गीतकार, संगीतकार या गायक ने दिए होंगे। दोस्तों, हमने इस फ़िल्म के दो गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पहले सुनवाए हैं, रफ़ी साहब का गाया हुआ "दुनिया ना भाए मोहे" और लता जी का गाया हुआ "जा जा रे जा बालमवा"। अत: इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी ज़ाहिर है बता चुके होंगे, इसलिए आइए आज इस फ़िल्म के तीसरे गीत को सुनवाने से पहले आपको इसी गीत के बनने की कहानी बताएँ, और वह भी सीधे मन्ना दा के शब्दों में जो उन्होने विविध भारती पर कमल शर्मा द्वारा लिए गए एक मुलाक़ात में कहे थे सन् १९९८ में:

"'बसंत बहार' पिक्चर में शंकर जयकिशन म्युज़िक डिरेक्टर थे। वैसे तो मैंने सुना था कि जब यह पिक्चर बन रही थी, भारत भूषण के भाइसाहब इसे बना रहे थे और उन्होने चाहा कि गानें सब रफ़ी साहब गाएँ। सब कोई सोच रहे थे कि रफ़ी साहब ही गाएँगे, लेकिन शंकर ने कहा कि मैं चाहता हूँ कि मन्ना डे गाएँगे ये गानें। पहला गाना रिकार्ड किया "सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं"। वह बहुत अच्छा गाना था और बहुत अच्छी तरह से मैंने गाया था। फिर जयकिशन ने बनाया वह गाना "भय भंजना वंदना सुन हमारी"। वह मैने गाया। फिर एक डुएट, लता और मैंने गाया "नैन मिले चैन कहाँ"। फिर एक सिचुयशन कहाँ से निकाले उन लोगों ने, शंकर ने कहा कि मन्ना बाबू, तैयार हो जाइए, कमर कस के बाँध लीजिए, आप के लिए यह गाना है, बहुत ज़बरदस्त गाना है। मैंने कहा ठीक है, गाउँगा। बोले कि यह डुएट है। डुएट है, कौन गाएगा मेरे साथ? लता? आशा? कौन गाएगा? नहीं, यह कॊम्पिटिशन का गाना है। किसके साथ कॊम्पीट करना है? बोले, भीमसेन जोशी के साथ। मैंने कहा, शंकर जी, क्या आप पागल हो गए हैं? भीमसेन जोशी के साथ मैं कॊम्पिटिशन में गाऊं और उनको हरा दूँ? नहीं, यह नहीं हो सकता, मैं यह कर नहीं पाउँगा। कर नहीं पाएँगे? आप हीरो के लिए गाएँगे, उनको तो हारना ही है। आप हीरो के लिए गा रहे हैं, हीरो को तो जीतना पड़ेगा ना! आप चाहे कुछ भी कर लीजिए, मैं गाउँगा नहीं, आप रफ़ी साहब को बुला लीजिए। मैं घर आ गया, अपनी बीवी से कहा कि चलो, हम लोग भाग जाते हैं कुछ दिनों के लिए यहाँ से। हम लोग भाग जाएँगे, किसी को बताएँगे नहीं कि कहाँ जा रहे हैं। १५ दिन बाद वापस आएँगे, तब तक यह गाना रिकार्ड हो जाएगा। तो मेरी बीवी ने कहा कि कैसी बातें करते हैं आप, यही तो मौका है। मैंने कहा आप तो गाएँगी नहीं, गाना तो मुझे पड़ेगा। और फिर भीमसेन जोशी के साथ में बैथ के गाना, यह कोई मामूली बात नहीं है। वो बोलीं कि यही तो आप भूल कर रहे हैं, सिचुयशन इस ढंग से बनाया है कि आपको जीतना है, आप जीतेंगे, हीरो जीतेंगे, और आप जब गाएँगे तो भीमसेन जोशी थोड़ा कम गाएँगे, और आप थोड़ा और आउट गाइए, तो हो जाएगा। तो मैंने गाया वह गाना और भीमसेन जोशी जी ने कहा कि मन्ना साहब, आप क्लासिकल गाया कीजिए, आप अच्छा गाते हैं। वो आप लोगों ने सुने होंगे, "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले"। बहुत अच्छा गाना है, बहुत अच्छा गाना है, क्या गाया था उन्होने! अब भीमसेन जोशी की बात क्या करें!" तो दोस्तों, इस गीत के बनने की दास्तान तो आप ने जान ली, आइए अब बसंत बहार के इस गीत को सुनते हैं और ज़रा सोचिए कि क्यों नहीं बनते हैं ऐसे मास्टरपीस आजकल!



क्या आप जानते हैं...
कि शंकर-जयकिशन को नौ बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया है, और ये नौ फ़िल्में हैं 'चोरी चोरी', 'अनाड़ी', 'दिल अपना और प्रीत पराई', 'प्रोफ़ेसर', 'सूरज', 'ब्रह्मचारी', 'पहचान', 'मेरा नाम जोकर', और 'बेइमान'।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. गीत का एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"महक"-३ अंक.
2. सुनील दत्त और आशा पारेख अभिनीत इस फिल्म के संगीतकार का नाम बताएं -२ अंक.
3. राग आधारित इस गीत को किसने लिखा है- २ अंक.
4. प्रकृति की सुंदरता को बयां करने वाले इस मुश्किल गीत को किस गायिका ने गाया है-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी पहले आये पर ३ के बजाय २ अंक के सवाल का जवाब दिया, अरे सर एक्साम में अच्छे विद्यार्थी ऐसा नहीं करते हैं :), इंदु जी चूकी तो शरद जी बाज़ी मार गए. पर इंदु जी ने भी एक जवाब तो सही दिया ही. बधाई आप तीनों को
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: चारा काटने की मशीन - उपेन्द्रनाथ "अश्क"



उपेन्द्रनाथ अश्क की "चारा काटने की मशीन"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में इब्ने इंशा की कहानी "हमारा मुल्क" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उर्दू और हिंदी प्रसिद्ध के साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की एक सधी हुई कहानी "चारा काटने की मशीन", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 10 मिनट 39 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



उर्दू के सफल लेखक उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने मुंशी प्रेमचंद मुंशी प्रेमचन्द्र की सलाह पर हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। १९३३ में प्रकाशित उनके दुसरे कहानी संग्रह 'औरत की फितरत' की भूमिका मुंशी प्रेमचन्द ने ही लिखी थी। अश्क जी को १९७२ में 'सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

''हुजूर, इस मकान पर तो मेरा ताला पड़ा था। मेरा सारा सामान ...''
(उपेन्द्रनाथ "अश्क" की "चारा काटने की मशीन" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Sixty Third Story, Chara Machine: Upendra Nath Ashq/Hindi Audio Book/2010/8. Voice: Anurag Sharma

Friday, March 5, 2010

रंग बसंती, अंग बसंती, संग बसंती छा गया, मस्ताना मौसम आ गया...और क्या कहें इसके बाद



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 364/2010/64

मानव मन पर नवचेतना और नई ताज़गी का संचार करने हर वर्ष आता है ऋतुराज बसंत। प्रकृति मानो नींद से जाग उठती है और चारों तरफ़ बहार ही बहार छा जाती है। पीले सरसों के लहलहाते खेत अपने पूरे शबाब पर होते हैं जैसे किसी ने पीले रंग की चादर चढ़ा दिया हो दूर दूर तक। तभी तो बसंत ऋतु के पहले दिन, जिसे हम बसंत पंचमी के रूप में मनाते हैं, लोग पीले कपड़े पहनते हैं और ऋतुराज का स्वागत करते हैं। सर्दियों की वजह से जो पशु, पक्षी, कीट, पतंगे हमारी नज़रों से ओझल हो गये थे, वो भी जैसे ख़ुश होकर एक साथ बाहर निकल पड़ते हैं, चारों तरफ़ कलरव, चहचहाहट की मधुर ध्वनियाँ गूंजने लगती है। और इंसान भी जैसे झूम उठते हैं, नाच उठते हैं, गा उठते हैं। आज मुझे रतलाम निवासी शिव चौहान 'शिव' की लिखी हुई कविता का ज़िक्र करने का मन हो रहा है, जिसमें उन्होने कहा है -

बसंत मदमस्त हुई, बयार खिल आए,
टेंसुओं के फूल सेमल सुधा की,
बूंदें टपकें, अमलतस के फूल लहरें,
सरसों के खेतों ने पीली चादर ओढ़ी।
महुआ ने मादकता छोड़ी,
अमुआँ गाए, बौराए,
कूक उठी कोयल भी
पिया मिलन को दिल आकुले।

इस बसंती मौसम को और भी ज़्यादा रंगीन बनाता है गीत संगीत। और आज हमने अपनी इस 'गीत रंगीले' शृंखला के लिए जिस गीत को चुना है वह है एक बेहद मस्ती भरा, छेड़ छाड़ वाला समूह गीत। इस तरह के गीत गाँव के खेतों खलिहानों में ग्रामवासी गाया करते हैं। कम से कम हमारी फ़िल्मों में ऐसा ही कुछ दिखाया जाता है। फ़िल्म 'राजा और रंक' का यह गीत है मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में, "संग बसंती, अंग बसंती, रंग बसंती छा गया, मस्ताना मौसम आ गया"।

'राजा और रंक' १९६८ की फ़िल्म थी, जिसका निर्माण प्रसाद प्रोडक्शन्स के बैनर तले हुआ था। के. पी. आत्मा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे संजीव कुमार, कुमकुम, नज़ीमा, निरुपा रॊय, अजीत प्रमुख। आनंद बक्शी के गीत और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत था इस फ़िल्म में। इस फ़िल्म के गानें बेहद मक़बूल हुए थे जिनमें शामिल हैं रफ़ी साहब का गाया "ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना", लता जी के गाए "मेरा नाम है चमेली", "तू कितनी अच्छी है ओ माँ", तथा लता-रफ़ी का गाया आज का यह झूमता हुआ गीत। दोस्तों, इस गीत को सुनते हुए बसंत ऋतु का पूरा नज़ारा हमारी आँखों के सामने आ जाता है। शब्दों में और संगीत में वह शक्ति होती है कि किसी भी तरह के जज़्बात और वातावरण को जीवन्त किया जा सकता है, जैसा कि इस गीत ने किया है। इस गीत के कई पहलू हैं। पहला तो यही कि बसन्त के आ जाने से जो ख़ुशी की लहर पूरे गाँव में दौड़ गई है, उसका वर्णन है। अब देखिए, बात हो रही है बसन्त की, लेकिन उसी में नायक नायिका के आँचल की तुलना सावन के झूलों के साथ कर रहा है। आगे वह यह भी कहता है कि नायिका उसका दिल कुछ उसी तरह से चुरा ले गई है जिस तरह से बसन्त में सरसों के पीले फूल हमारा मन मोह लेती है। इस तरह की छेड़ छाड़ के बाद, गीत के आख़िरी अंतरे में गीत में एक देश भक्ति का रंग भी समा जाता है जब देश में हर तरफ़ ख़ुशियों की लहर दौड़ाने की बातें होती है। चलिए अब आप ख़ुद ही मज़ा लीजिए इस थिरकते हुए गीत का। ज़बरदस्त ऒर्केस्ट्रेशन है इस गीत में, जिसके लिए लक्ष्मी-प्यारे हमेशा से जाने जाते हैं, इस गीत में भी उनके उसी अंदाज़ का नज़ारा मिलता है। आइए सुनें।



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर ने सब से ज़्यादा गानें संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए गाए हैं।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. शास्त्रीय रंग में रंगे इस गीत के पहली चार पंक्तियों में ये शब्द है -"संग" -३ अंक.
2. दो गायकों के गाये इस युगल गीत में कौन कौन हैं गायक-२ अंक.
3. शंकर जयकिशन के संगीतबद्ध इस गीत के गीतकार कौन हैं- २ अंक.
4. फिल्म के नाम में इस ऋतू का भी नाम है जिस पर ये शृंखला आधारित है, नाम बताएं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी के ३ और अवध जी के २ अंक जुड़े, इन्द्रनील जी एकदम सही कहा आपने, इंदु जी क्या बात है, आपने तो दिल जीत लिया. दिलीप जी आपने नियमों की उल्लंगना की आपको अंक नहीं दिए जा सकते :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, March 4, 2010

मोहे भी रंग देता जा मोरे सजना...संगीत के विविध रंगों से सजा एक रंगीला गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 363/2010/63

रंग रंगीले गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'गीत रंगीले' जारी है 'आवाज़' पर। "आजा रंग दूँ तेरी चुनरिया प्यार के रंग में", दोस्तों, अक्सर ये शब्द प्रेमी अपनी प्रेमिका को कहता है। लेकिन कभी कभी हालात ऐसे भी आन पड़ते हैं कि नायिका ख़ुद अपनी कोरी चुनरिया को रंग देने का अनुरोध कर बैठती है। कुछ साल पहले इस तरह का एक गीत फ़िल्म 'तक्षक' में ए. आर. रहमान ने स्वरब्द्ध किया था जिसे आशा भोसले और साथियों ने गाया था, "मुझे रंग दे, मुझे रंग दे, मुझे अपने प्रीत विच रंग दे"। लेकिन प्यार के रंग में रंगने की नायिका की यह फ़रमाइश हिंदी फ़िल्मों में काफ़ी पुराना है। ५० के दशक के आख़िर में, यानी कि १९५९ में एक फ़िल्म आई थी 'चार दिल चार राहें', जिसमें एक बेहद लोकप्रिय गीत था मीना कपूर की आवाज़ में, "कच्ची है उमरिया, कोरी है चुनरिया, मोहे भी रंग देता जा मोरे सजना, मोहे भी रंग देता जा"। जब रंगीले गीतों की बात चल रही हो, तो हमने सोचा कि क्यों ना इस अनूठे गीत को भी इसी शृंखला में शामिल कर लिया जाए! अनूठा हमने इसलिए कहा क्योंकि इस गीत का जो संगीत है, जो इसका संगीत संयोजन है, वह वाक़ई कमाल का है और विविधताओं से भरा हुआ है, और यह कमाल कर दिखाया था फ़िल्म संगीत के वरिष्ठ संगीतकार अनिल बिस्वास जी ने, और गीतकार साहिर लुधियानवी ने भी अलग अलग प्रांतीय संगीत के समावेश में बेहद असरदार शब्द इस गीत में पिरोये थे। १९९७ में विविध भारती में तशरीफ़ लाए थे अनिल बिस्वास जी और उनकी गायिका पत्नी मीना कपूर जी, और उन दोनों के साथ बातचीत की थी उस ज़माने के युवा संगीतकार तुषार भाटिया ने, और इस बातचीत को गीतों में बुन कर 'रसिकेशु' शृंखला के शीर्षक से 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में कुल २६ अंकों के ज़रिए प्रसारित किया गया था। उस शृंखला में आज के इस प्रस्तुत गीत की विस्तृत चर्चा हुई थी, जिसे आज हम यहाँ आप के लिए पेश कर रहे हैं:

तुषार भाटिया: दादा, आप का जन्म बंगाल में हुआ है, ज़ाहिर है कि बंगला संगीत तो आप के ख़ून में बसा हुआ है। लेकिन आप के संगीत में देश के हर प्रांत का रंग नज़र आता है। एक पंजाबी रंग में ढला हुआ गाना मुझे याद आ रहा है, दीदी, आप ही का गाया हुआ, "कच्ची है उमरिया"।
मीना कपूर: मुझे याद है कि यह गीत मैंने अपनी चहेती हीरोइन मीना जी के लिए गाया था, मीना कुमारी जी के लिए।
अनिल बिस्वास: अच्छा इसमें ख़ास बात यह थी कि "कच्ची है उमरिया" पंजाब से शुरु होके बंगाल में जाके ख़त्म होता है।
मीना: ओ हाँ, शुरु होते ही "राधा संग खेले होली गोविंदा", यह तो मराठा अंग हुआ। उसके बाद "गोविंदा" में वैष्णव स्टाइल हो गया।
अनिल: हाँ, अब जैसे "गोपाल गोपाल" गाया था ना पारुल जी ने, वैसे इसमें "गोविंदा गोविंदा" है। मगर इसकी बिगिनिंग् का जो सुर है, जहाँ से मैंने लिया है, वह तुम सुनोगे तो...
मीना: हाँ हाँ हाँ हाँ, वह पंजाब से ही है, "अड़ी रे अड़ी... मोती पे अड़ी, लागी सौंधी जड़ी, दूध पी ले बालमा, मैं तो कदध खड़ी..."
अनिल: मैंने लगा दिया इसको भी। अब इसके बीच म्युज़िक आया था ना! मद्रास में सांप खेलाने वाले ऐसे गाते हैं। वह बीच में लगा दिया क्योंकि वह इसके बहुत नज़दीक थी। मैंने कहा चलो पंजाब से शुरु करते हैं, फिर मद्रास होते हुए हम बरिसाल (बरिसाल अनिल दा का जन्मस्थान है) चले जाएँगे।
तुषार: अरे क्या बात है! इसमें बहुत भड़कती हुई रीदम और ज़ोरदार कोरस है, और दीदी ने तो...
अनिल: होली का गाना था ना!
तुषार: तो यह गाना सुना देते हैं।
अनिल: इसको ज़रूर सुनाओ।


दोस्तों, अनिल दा की बनाई इस होली गीत को सुनने से पहले हम उनके बनाए चंद और होली गीतों का ज़िक्र यहाँ पर करना चाहेंगे जिनकी तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करवाया है पंकज राग ने अपनी क़िताब "धुनों की यात्रा" के ज़रिए, जिसमें वो लिखते हैं कि "यदि स्वतंत्रता-पूर्व की 'ज्वार भाटा' के होली गीत "सा रा रा रा" लोक अभिव्यक्ति का विशुद्ध रूप था, तो स्वतंत्रता पश्चात् की 'राही' के रसिया गीत "होली खेले नंदलाला" और 'महात्मा कबीर' की होरी "सियावर रामचन्द्र" भी ग्रामीण सामूहिक संस्कृति को उतनी ही कुशलता से उभारते थे।" और आइए अब सुना जाए मीना कपूर की आवाज़ में यह थिरकता मचलता होली गीत फ़िल्म 'चार दिल चार राहें' से।



क्या आप जानते हैं...
कि ख़्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म 'चार दिल चार राहें' में राज कपूर और मीना कुमारी के अलावा इस फ़िल्म में पुराने दौर के संगीतकार बद्रीप्रसाद की भी बतौर अभिनेता एक प्रमुख भूमिका थी।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में शब्द है "आँचल", गीत बताएं -३ अंक.
2. प्रसाद फिल्म्स के बैनर पर बनी इस फिल्म के नाम में तीन शब्द हैं और बीच का शब्द है "और", नाम बताएं-२ अंक.
3. बसन्त की बात करता हुआ गीत अंतिम अंतरे में देशभक्ति रंग में ढल जाता है, गीतकार बताएं - २ अंक.
4. कौन हैं इस मचलते गीत के संगीतकार -सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
चलिए आज स्कोर बताये देते हैं, शरद जी लीड कर रहे हैं ३६ अंकों के साथ, इंदु जी आपके परसों के अंक हमने हिसाब में ले लिए हैं और अब आप हैं २२ अंकों पर तो अवध जी हैं १८ अंकों पर. मुकाबला रोचक है :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, March 3, 2010

लाई है हज़ारों रंग होली...और हजारों शुभकामनाएं संगीतकार रवि को जन्मदिन की भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 362/2010/62

'गीत रंगीले' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। दोस्तों, आप ने बचपन में अपनी दादी नानी को कहते हुए सुना होगा कि "उड़ गया पाला, आया बसंत लाला"। ऋतुराज बसंत के आते ही शीत लहर कम होने लग जाती है, और एक बड़ा ही सुहावना सा मौसम चारों तरफ़ छाने लगता है। थोड़ी थोड़ी सर्दी भी रहती है, ओस की बूँदों से रातों की नमी भी बरकरार रहती है, ऐसे मदहोश कर देने वाले मौसम में अपने साजन से जुदाई भला किसे अच्छा लगता है! तभी तो किसी ने कहा है कि "मीठी मीठी सर्दी है, भीगी भीगी रातें हैं, ऐसे में चले आओ, फागुन का महीना है"। ख़ैर, हम तो आज बात करेंगे होली की। होली फागुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता, और आम तौर पर फागुन का महीना ग्रेगोरियन कलेण्डर के अनुसार फ़रवरी के मध्य भाग से लेकर मार्च के मध्य भाग तक पड़ता है। और यही समय होता है बसंत ऋतु का भी। दोस्तों, आज हमने जो गीत चुना है इस रंगीली शृंखला में, वह कल के गीत की ही तरह एक होली गीत है। और क्योंकि आज संगीतकार रवि जी का जनमदिन है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना उन्ही का स्वरबद्ध किया हुआ वह मशहूर होली गीत सुनवा दिया जाए जिसे आशा भोसले और साथियों ने फ़िल्म 'फूल और पत्थर' के लिए गाया था, "लाई है हज़ारों रंग होली, कोई तन के लिए, कोई मन के लिए"!

'फूल और पत्थर' १९६६ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन ओ. पी. रल्हन ने किया था। मीना कुमारी, धर्मेन्द्र और शशिकला के अभिनय से सजी यह फ़िल्म बेहद सराही गई थी। इस फ़िल्म के लिए इन तीनों कलाकारों का नाम फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों के लिए क्रम से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के लिए नामांकित किया गया था। लेकिन इस फ़िल्म के लिए जिन दो कलाकारों ने पुरस्कार जीते, वो थे शांति दास (सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन) तथा वसंत बोरकर (सर्वश्रेष्ठ एडिटिंग्)। इस फ़िल्म में शक़ील बदायूनी और रवि ने मिलकर कुछ कालजयी गानें हमें दिए हैं, जैसे कि "सुन ले पुकार आई आज तेरे द्वार", "शीशे से पी या पयमाने से पी", "ज़िंदगी में प्यार करना सीख ले" और आज का होली गीत। दोस्तों, जैसा कि हमने बताया कि यह होली गीत शक़ील साहब का लिखा हुआ है, तो मुझे एकाएक यह ख़याल आया कि शक़ील साहब ने अपने करीयर में कुछ बेहद महत्वपूर्ण होली गीत हमारी फ़िल्मों को दे गए हैं। आइए कम से कम दो ऐसे गीतों का उल्लेख यहाँ पर किया जाए। फ़िल्म 'कोहिनूर' में उन्होने लिखा था "तन रंग लो जी आज मन रंग लो", जिसका शुमार सर्वोत्तम होली गीतों में होनी चाहिए। फ़िल्म 'मदर इंडिया' में भी एक ऐसा ही मशहूर होली गीत शक़ील साहब ने लिखा था जो आज भी होली के अवसर पर उसी ताज़गी से सुनें और सराहे जाते हैं। याद है ना शम्शाद बेग़म का गाया "होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी"! 'फूल और पत्थर' के अलावा शक़ील और रवि के जोड़ी की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म है 'चौधवीं का चाँद', 'दो बदन', 'घराना', 'घुंघट', और 'दूर की आवाज़' प्रमुख। तो दोस्तों, आइए रवि साहब को एक बार फिर से जनमदिन की शुभकानाएँ देते हैं, आप दीर्घायु हों, उत्तम स्वास्थ्य लाभ करें, और ख़ुशियों के सभी रंग आपकी ज़िंदगी को रंगीन बनाए रखे बिल्कुल आपके गीतों की तरह, और ख़ास कर के आप की बनाई हुई आज के इस प्रस्तुत होली गीत की तरह।



क्या आप जानते हैं...
कि गुरु दत्त साहब के अनुरोध पर शक़ील बदायूनी ने पहली बार नौशाद साहब के बग़ैर फ़िल्म 'चौधवीं का चाँद' में संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे, काम शुरु करने से पहले शक़ील ने रवि से कहा था कि "मैंने बाहर कहीं काम नहीं किया है, मुझे संभाल लेना"।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में शब्द है "उमरिया", गीत बताएं -३ अंक.
2. इस अनूठे गीत के संगीतकार का नाम बताएं - ३ अंक.
3. इस फिल्म के नाम में दो बार एक संख्या का नाम आता है, फिल्म का नाम बताएं- २ अंक.
4. मीना कपूर की आवाज़ में इस गीत के गीतकार कौन हैं -सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी आपका जवाब तो सही है, पर बाकी दुरंधर कहाँ गए, लगता है होली का रंग उतरा नहीं अभी :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ.. नूरजहां की काँपती आवाज़ में मचल पड़ी ग़ालिब की ये गज़ल



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७३

लाजिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और,
तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और।

ग़ालिब की ज़िंदगी बड़ी हीं तकलीफ़ में गुजरी और इस तकलीफ़ का कारण महज़ आर्थिक नहीं था। हाँ आर्थिक भी कई कारण थे, जिनका ज़िक्र हम आगे की कड़ियों में करेंगे। आज हम उस दु:ख की बात करने जा रहे हैं, जो किसी भी पिता की कमर तोड़ने के लिए काफ़ी होता है। ग़ालिब पर चिट्ठा(ब्लाग) चला रहे अनिल कान्त इस बारे में लिखते हैं:
ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़’ की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था.

वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(३६ साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि जिंदगी में उनका दल फिर कभी न उभरा. इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने जो ग़ज़ल लिखी उसमें उनकी वेदना साफ़ दिखाई देती है. कुछ शेर :

आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ,
माना कि नहीं आज से अच्छा कोई दिन और।
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या ख़ूब? क़यामत का है गोया कोई दिन और।
दिल पर पड़ती और पड़ चुकी कई सारी चोटों की वज़ह से ग़ालिब अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव के आते-आते अपनी मौत की दुआएँ करने लगे थे। हर साल अपनी मौत की तारीख निकाला करते थे और यह देखिए कि हर साल वह तारीख गलत साबित हो जाती थी। एक बार ऐसी हीं किसी तारीख का ज़िक्र जब उन्होंने अपने एक शागिर्द से किया तो शागिर्द के मुँह से बरबस हीं यह निकल पड़ा कि "इंशा अल्लाह, यह तारीख भी ग़लत साबित होगी।" लाख ग़मों में गर्त होने के बावजूद ग़ालिब अपने मजाकिया लहज़े से कहाँ बाज़ आने वाले थे। फिर ग़ालिब ने भी कह डाला कि "देखो साहब! तुम ऐसी फ़ाल मुँह से न निकालो। अगर यह तारीख ग़लत साबित हुई तो मैं सिर फोड़कर मर जाउँगा।" इसे कहते हैं मौत में ज़िंदगी के मज़े लेना या फिर मौत के मज़े लेना। अब जबकि मौत की हीं बात निकल पड़ी है तो क्यों न एक और वाकये का ज़िक्र कर दिया जाए। एक बार जब दिल्ली में महामारी पड़ी तो ग़ालिब के मित्र मीर मेहदी हसन ’मज़रूह’ ने उनका हाल जानने के लिए उन्हें खत लिखा। ग़ालिब ने महामारी की बात तो की लेकिन महामारी को महामारी मानने से इंकार करते हुए यह जवाब भेजा कि "भई, कैसी वबा? जब एक सत्तर बरस के बुड्ढे और सत्तर बरस की बुढ़िया को न मार सकी।" जवाब पढकर मज़रूह लाजवाब हो गए। यह थी ग़ालिब की अदा जो गमों को भी सकते में डाल देती थी कि भाई हमने किससे पंगा लिया है।

ग़ालिब ने अपने इस हालात पर कई सारे शेर कहे हैं। अपनी ज़िंदगी के अंतिम दिनों में ग़ालिब अपने एक शेर का यह मिसरा गुनगुनाया करते थे:
ऐ मर्गे-नागहाँ ! तुझे क्या इंतज़ार है ?

ग़ालिब के गमों की बातें तो हो गईं, अब क्यों न ग़ालिब की हाज़िर-जवाबी की बात कर ली जाए। ग़ालिब अव्वल दर्ज़े के हाज़िर-जवाब थे। मौके को परखना और संभालना उन्हें खूब आता था और संभालते वो भी कुछ इस तरह थे कि सामने वाले को इसकी भनक भी नहीं लगती थी। इस बारे में उस्ताद ज़ौक़ से जुड़ा एक किस्सा हम आपसे बाँटना चाहेंगे जिसे गुलज़ार साहब ने बड़ी हीं खूबसूरती से अपने सीरियल "मिर्ज़ा ग़ालिब" में पेश किया है। यह तो सबको पता है कि ग़ालिब और ज़ौक़ में एक अनबन-सी ठनी रहती थी। तो हुआ यूँ कि:

उस्ताद ज़ौक़ की पालकी मिर्ज़ा के पास गुज़री। उनके मुलाज़िम पालकी के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। ग़ालिब ने पालकी देखकर तंज़ किया।

हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता।

ग़ालिब के पास खड़े दो-एक अशख़ास ने दाद दी। "वाह-वाह... मिर्ज़ा मुकर्रर- इरशाद फ़रायें।" पास खड़े लोगों ने मिसरा दोहराया।

उस्ताद ज़ौक़ जब अपनी हवेली पहुँचे तो वे ग़ालिब की फ़िकरेबाज़ी पर काफ़ी नाराज़ थे। उनके सारे शागिर्दों ने अपने-अपने अंदाज़ में नाराज़गी ज़ाहिर की। बातचीत के बाद यह निर्णय लिया गया कि इस वाकये का ज़िक्र बहादुरशाह ज़फ़र से की जाए और किसी भी तरह ग़ालिब को किले में बुलाया जाए। एक शागिर्द ने कहा - "आती जुमेरात मुशायरा है।" दूसरे ने कहा- "बुलवा लीजिए किले में। मट्टी पलीद करके भेजेंगे।" आखिरकार ग़ालिब को दावतनामा भेजा गया।

कि़ले के अंदर- मुशायरे की शाम थी। शायरों में ज़ौक़ के बग़ल में वली और ज़फ़र, ग़ालिब, मुफ़ती वग़ैरह बैठे थे। ज़फ़र ने मुशायरा शुरू होने से पहले हाज़रीन की तरफ़ देखकर कहा -
"हम मश्कुर हैं उन तमाम शोरा और उन सुख़नवर हज़रात के जो आज के मुशायरे में शरीक हो रहे हैं। लेकिन मुशायरे के इफ़तता होने से पहले हम एक बात वाज़य कर देना चाहते हैं कि कुछ शोरा हज़रात शायद हमारे उस्ताद शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ से नालां हैं और सरेराह उनपर जुमले कसते हैं, जो उनके अपने वक़ार को ज़ेब नहीं होता। हम चाहते हैं कि वह ऐसा न करें और आइंदा बाहमी आपसी आदाब-ओ इख़लाक़ की पाबंदी में रहें।"

ग़ालिब समझ गए कि बात किसकी हो रही है। ’यास’ ने सामने आकर ग़ालिब पर वार किया - "मिर्ज़ा नौशा ने सरेराह उस्ताद की शान में जुमला कसा और कहा।" सभी ग़ालिब की तरह देखने लगे। आज़रदा ने पूछा - "क्या कहा.... " ’यास’ ने वह मिसरा दुहरा दिया।

ज़फ़र ने सीधे ग़ालिब से मुख़ातिब होकर पूछा- "क्या यह सच है मिर्ज़ा नौशा?"
ग़ालिब ने इक़बाले जुर्म किया- "जी हुजूर, सच है| मेरी गज़ल के मक़ता का मिसरा-उला(पहली पंक्ति) है।" नाज़रीन चौकन्न हो गए।
आज़रदा ने पूछा- "मक़्ता इरशाद फ़रमायेंगे आप?"

ग़ालिब ने अबु ज़फ़र की तरफ़ देखा, एक लंबी साँस ली और शेर पूरा किया-

वगरना शहर में ’ग़ालिब’ की आबरू क्या है।

अब याद के चौंकने की बारी थी। आज़रदा ने बेअख्तियार दाद दी। ज़फ़र ने ज़ौक़ की तरफ़ देखा। ज़ौक़ ने बात आगे बढाई - "अगर मक़्ता इतना ख़ूबसूरत है तो पूरी गज़ल क्या होगी, सुनी जाए।"
ज़फ़र ने ग़ालिब से गुजारिश की - "मिर्ज़ा अगर ज़हमत न हो तो पूरी गज़ल सुनाएँ। आज के मुशायरे का आगाज इसी गज़ल से किया जाए।"
रावी ने एलान किया- "शमा महफ़िल असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब के सामने लाई जाती है।"

मिर्ज़ा ने जेब टटोली, काग़ज़ निकालकर उँगलियों में रखा और तरन्नुम से अपनी गज़ल पेश की-
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है।

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख से हीं न टपका तो फिर लहू क्या है।


मुशायरे में नई जान आ गई। चारों तरफ़ मिर्ज़ा ग़ालिब की वाह-वाह होने लगी} ख़ुद अबु जफ़र भी दाद देते रहे। ज़ौक़ भी इस शेर पर दाद दिये बगैर न रह सके।
मुफ़ती सदरूद्दीन ग़ालिब के पास हीं बैठे थे। उन्होंने झुककर ग़ालिब के सामने काग़ज़ पर लिखी गज़ल को देखा। काग़ज़ बिलकुल कोरा। उधर नाज़रीन वाह-वाह कर रहे थे। मुकर्रर-मुकर्रर... की आवाज़ें आ रहीं थीं।

यूँ हीं नहीं लोग ग़ालिब के अंदाज़-ए-बयाँ की कद्र करते हैं, मिसालें देते हैं। अगर आपको अब तक यकीन न आया हो तो इन दो शेरों पर जरा गौर कर लें:

मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती


ग़ालिब के बारे में आज बहुत कुछ कहा और बहुत कुछ सुना और अब महफ़िल-ए-गज़ल की रवायतों को मद्देनज़र रखते हुए ग़ालिब की गज़ल सुनने का वक़्त हो चला है। आज की गज़ल जिस फ़नकारा की आवाज़ में है, वो किसी भी नाम की मोहताज़ नहीं हैं। हम इनके ऊपर पहले भी एक कड़ी पेश की थी जिसमें हमने इन्हें तफ़शील से जाना था। जी हाँ, आपने सही पहचाना हम मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की बात कर रहे हैं। तो लीजिए पेश है नूरजहाँ की आवाज़ में यह गज़ल जिसे हमने उनके एलबम "ज़मीन" से लिया है:

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं ____ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाये क्यूँ

क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यूँ




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफ़िल में जिन श्रोताओं ने हिस्सा लिया उन सब का आभार, आज हम समय की कमी के चलते सब के नाम के साथ चर्चा नहीं कर पा रहे हैं, माफ़ी चाहेंगें, पर अगली बार दुगनी बातचीत होगी ये वादा है

खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, March 2, 2010

पिया संग खेलूँ होली फागुन आयो रे...मौसम ही ऐसा है क्यों न गूंजें तराने फिर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 361/2010/61

होली का रंगीन त्योहार आप सभी ने ख़ूब धूम धाम से और आत्मीयता के साथ मनाया होगा, ऐसी हम उम्मीद करते हैं। दोस्तों, भले ही होली गुज़र चुकी है, लेकिन वातावरण में, प्रकृति में जो रंग घुले हुए हैं, वो बरक़रार है। फागुन का महीना चल रहा है, बसंत ऋतु ने चारों तरफ़ रंग ही रंग बिखेर रखी है। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिले हैं, जो मंद मंद हवाओं पे सवार होकर जैसे झूला झूल रहे हैं। उन पर मंडराती हुईं तितलियाँ और भँवरे, ठंडी ठंडी हवाओं के झोंके, कुल मिलाकर मौसम इतना सुहावना बन पड़ा है इस मौसम में कि इसके असर से कोई भी बच नहीं सकता। इन सब का मानव मन पर असर होना लाज़मी है। इसी रंगीन वातावरण को और भी ज़्यादा रंगीन, ख़ुशनुमा और सुरीला बनाने के लिए आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं दस रंगीन गीतों की एक लघु शृंखला 'गीत रंगीले'। इनमें से कुछ गानें होली गीत हैं, तो कुछ बसंत ऋतु को समर्पित है, किसी में फागुन का ज़िक्र है, तो किसी में है इस मौसम की मस्ती और धूम। दोस्तों, मुझे श्याम 'साहिल' की लिखी हुई एक कविता याद आ रही है, जो कुछ इस तरह से है:

महक महक उठा मन फागुनी बसन्त में,
बहक बहक उठा तन फागुनी बसन्त में।
समझ नहीं पाया क्या जीवन अभिशाप है,
उलझा सा जीवन पथ पुण्य है या पाप है,
तभी ये बयार आई बसन्ती गीत लिए,
कानों में गुनगुनाई, नयनों में प्रीत लिए,
फूंक दिए प्राण फिर जीवन पंथ में,
महक महक उठा मन फागुनी बसन्त में,
बहक बहक उठा तन फागुनी बसन्त में।
पीताम्बर ओढे हुए धरती मधुमास है,
अंबर की छांव तले छाया उल्हास है,
कण कण में घुला हुआ जीवन का सार है,
जड और चेतन का सुखमय आधार है,
तृप्त हुआ अन्तरमन आदि और अनन्त में,
महक महक उठा मन फागुनी बसन्त में,
बहक बहक उठा तन फागुनी बसन्त में।

तो दोस्तों, इस फ़ागुनी और बसंती वातावरण में इस रंग-रंगीली सुरीली शृंखला की शुरुआत की जाए लता मंगेशकर और सखियों की गाई फ़िल्म 'फागुन' के होली गीत से, "पिया संग खेलूँ होली फागुन आयो रे"। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल, सचिन देव बर्मन का संगीत। जब भी हमारी फ़िल्मों में किसी होली गीत के फ़िल्मांकन की बात आती है तो हर फ़िल्मकार उसे बड़े ही शानदार और रंगीन तरीक़े से फ़िल्माने की कोशिश करता है। गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकारों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है ऐसे गीतों की कामयाबी में; लेकिन जब तक होली गीत का फ़िल्माकंन सही तरीके से ना हो तो उसका कालजयी बन पाना ज़रा सा मुश्किल हो जाता है। युं तो हिंदी फ़िल्मों में बेशुमार होली गीत हुए हैं, जिन्हे आप हर साल होली के दिन विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों पर सुनते और देखते आए हैं, लेकिन कुछ होली गीत ऐसे भी रहे हैं जो उस ज़माने में तो काफ़ी प्रसिद्ध हुए, लेकिन आज उनकी गूंज ज़रा सी कम होती जा रही है। ऐसा ही एक गीत है फ़िल्म 'फागुन' का जिसे हमने आज के अंक के लिए चुना है। फ़िल्म 'फागुन' का नाम सुनते ही हमें १९५८ की ओ. पी. नय्यर साहब के संगीत वाली फ़िल्म की याद आती है। लेकिन सन् १९७३ में भी इस शीर्षक से एक फ़िल्म बनी थी जो बॊक्स ऒफ़िस पर कामयाब नहीं हो सकी, लेकिन इस फ़िल्म का यह होली गीत ख़ूब बजा। धर्मेन्द्र और वहीदा रहमान अभिनीत इस फ़िल्म को आज केवल इसी गीत की वजह से लोगों ने याद रखा है। चलिए आज हम भी इस गीत के साथ थोड़ा सा मन ही मन होली खेल लेते हैं, और आप सभी को एक बार फिर से होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं!



क्या आप जानते हैं...
कि वहीदा रहमान की सब से निकट की सहेली (Best Friend) हैं अभिनेत्री नंदा, जिनके साथ उन्होने फ़िल्म 'काला बाज़ार' (१९६०) में काम किया था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. कल इस गीत के संगीतकार का जन्मदिन है नाम बताये -३ अंक.
2. मीना कुमारी अभिनीत इस फिल्म के निर्देशक का नाम बताएं - २ अंक.
3. इस होली गीत के गीतकार का नाम बताएं, ये वही हैं जिन्होंने मदर इंडिया का वो क्लास्सिक होली गीत रचा था- २ अंक.
4. फिल्म के नायक कौन हैं-सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
कल पहेली जरा देर से पोस्ट हुई,पर फिर भी शरद जी मुश्तैद रहे और ३ अंक चुरा लिए
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, March 1, 2010

कहीं शेर-ओ-नग़मा बन के....तलत साहब की आवाज़ में एक दुर्लभ गैर फ़िल्मी गज़ल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 360/2010/60

'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़', तलत महमूद पर केन्द्रित इस ख़ास पेशकश की अंतिम कड़ी में आपका फिर एक बार हम स्वागत करते हैं। दोस्तों, किसी भी इंसान की जो जड़ें होती हैं, वो इतने मज़बूत होती हैं, कि ज़िंदगी में एक वक़्त ऐसा आता है जब वह अपने उसी जड़ों की तलाश करता है, उसी की तरफ़ फिर एक बार रुख़ करने की कोशिश करता है। तलत महमूद सहब के गायन की शुरुआत ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं के साथ हुई थी जब उन्होने "सब दिन एक समान नहीं था" से अपना करीयर शुरु किया था। फिर उसके बाद कमल दासगुप्ता के संगीत में उनका पहला कामयाब ग़ैर फ़िल्मी गीत आया, "तसवीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी"। तलत साहब के अपने शब्दों में "१९४१ में मैंने अपना पहला गीत रिकार्ड करवाया था "तसवीर तेरी दिल मेरा..."। फ़य्याज़ हशमी ने इसे लिखा था और कमल दासगुप्ता की तर्ज़ थी। मैं अपनी तारीफ़ ख़ुद नहीं करना चाहता पर तसवीर पर इससे बेहतरीन गीत आज तक नहीं हुआ है।" तो हम बात करे थे अपने जड़ों की ओर वापस मुड़ने की। तो तलत साहब, जिन्होने ग़ैर फ़िल्मी गीत से अपने पारी की शुरुआत की थी, ५० के दशक के आते आते वो फ़िल्म जगत में अपना क़दम जमा लिया, लेकिन फिर एक समय ऐसा आया जब वो वापस ग़ैर फ़िल्मी जगत का रुख़ किया। यह दौर था ७० और ८० के दशकों का। एक से एक मशहूर शायरों की ग़ज़लों को उन्होने ना केवल गाया बल्कि उनकी धुनें भी बनाई। "मुझे भी धुनें बनाने का शौक है, फ़िल्मों के लिए नहीं, बल्कि मेरे ग़ैर फ़िल्मी गीतों के लिए। मैंने अपने कई गीतों का संगीत तैयार किया है। अब मैं आपको ऐसी एक ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ, जिसे लिखा है शक़ील बदायूनी ने और जिसकी तर्ज़ मैंने ही बनाई थी। और यक़ीन मानिए मैंने पूरी ग़ज़ल की ट्युन १५ मिनट में तैयार कर दिया था।" दोस्तो, जिस ग़ज़ल की तरफ़ तलत साहब ने इशारा किया, वह ग़ज़ल थी "तुमने यह क्या सितम किया"। आज भी हम आपको एक ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़ल ही सुनवा रहे हैं, लेकिन यह वाली नहीं, बल्कि शायर और गीतकार ख़ुमार बाराबंकवी का लिखा "कहीं शेर-ओ-नग़मा बन के दिल आँसुओं में ढलके"। तर्ज़ तलत साहब की ही है।

दोस्तों, तलत साहब की गाई हुई ग़ज़लों की इस ख़ास शृंखला की अंतिम कड़ी में आइए आज ग़ज़लों से संबंधित कुछ बातें की जाए जो गुलज़ार साहब ने ग़ज़लों पर जारी एक विशेष सी.डी '50 Glorious Years of Popular Ghazals' की भूमिका में कहे थे! "ग़ज़ल उसने छेड़ी मुझे साज़ देना, ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना। उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ दी तो बहुत दूर तक गूँजती चली गई। क़रीब उस इत्तदा तक जहाँ साज़ पर ग़ज़ल छेड़ी गई थी, और रिकार्ड होनी शुरु हुई थी। ग़ज़ल लिखने के बाद क़िताब में महफ़ूज़ हो चुकी थी, लेकिन साज़ पर गाए जाने के बाद पहली बार रिकार्ड पर और फिर टेप पर महफ़ूज़ हुई। ख़याल महफ़ूज़ था लेकिन आवाज़ पहली बार महफ़ूज़ होनी शुरु हुई थी। एक और सफ़र शुरु हुआ ग़ज़ल का यहाँ से। जी चाहा इस सफ़र को शुरु से दोहरा कर देखें।" दोस्तों, उस सी.डी में फिर उसके बाद एक के बाद एक कुल १०० ग़ज़लें शामिल की गयीं थी। लेकिन हमारी यह शृंखला उस सी.डी से बिल्कुल अलग रही, और इस शृंखला में शामिल कोई भी ग़ज़ल उस सी.डी का हिस्सा नहीं है। आइए अब सुना जाए आज की ग़ज़ल, जिसके तीन शेर कुछ इस तरह से हैं-

कहीं शेर-ओ-नग़मा बन के कहीं आँसुओं में ढलके,
तुम मुझे मिले थे लेकिन कई सूरतें बदल के।

ये चराग़-ए-अंजुमन तो हैं बस एक शब के महमान,
तू जला वो शम्मा ऐ दिल जो बुझे कभी ना जल के।

न तो होश से तआरूफ न जुनूं से आशनाई,
ये कहाँ पहुँच गए हम तेरी बज़्म से निकल के।



क्या आप जानते हैं...
कि तलत महमूद साहब की शख़सीयत इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुआ करती थी कि अमरीकी ५५५ स्टेट एक्स्प्रेस सिगरेट कंपनी ने अपने भारतीय विज्ञापनों के लिए तलत साहब को चुना था ५० के दशक में।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक माह का नाम है गीत के मुखड़े में, गीत बताएं -३ अंक.
2. संगीतकार हैं एस डी बर्मन गीतकार कौन हैं बताएं - २ अंक.
3. इसी नाम की एक फिल्म पहले भी बनी थी जिसमें ओ पी नय्यर साहब का जबरदस्त संगीत था, बताएं फिल्म का नाम- २ अंक.
4. फिल्म की नायिका का नाम बताएं -सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी, ३ अंक आपके कोई नहीं रोक सकता, बधाई, शरद जी ने तो ३ अंक चुरा ही लिए, बहुत मुश्किल गज़ल पहचान कर, वैसे तीसरे सवाल का जवाब आसान था, पर किसी से कोशिश नहीं की, उम्मीद है आप सब ने बढ़िया होलि खेली होगी आज
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"अमन की आशा" है संगीत का माधुर्य, होली पर झूमिए इन सूफी धुनों पर



ताज़ा सुर ताल ०९/२०१०

सुजॊय - सभी पाठकों को होली पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ और सजीव, आप को भी!
सजीव - मेरी तरफ़ से भी 'आवाज़' के सभी रसिकों को होली की शुभकामनाएँ और सुजॊय, तुम्हे भी।
सुजॊय - होली का त्योहार रंगों का त्योहार है, ख़ुशियों का त्योहार है, भाइचारे का त्योहार है। गिले शिकवे भूलकर दुश्मन भी गले मिल जाते हैं, चारों तरफ़ ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है।
सजीव - सुजॊय, तुमने भाइचारे की बात की, तो मैं समझता हूँ कि यह भाइचारा केवल अपने सगे संबंधियों और आस-पड़ोस तक ही सीमित ना रख कर, अगर हम इसे एक अंतर्राष्ट्रीय रूप दें, तो यह पूरी की पूरी पृथ्वी ही स्वर्ग का रूप ले सकती है।
सुजॊय - जी बिल्कुल! आज कल जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय उग्रवाद बढ़ता जा रहा है, विनाश और दहशत के बादल इस पूरी धरा पर मंदला रहे हैं। ऐसे में अगर कोई संस्था अगर अमन और शांति का दूत बन कर, और सीमाओं को लांघ कर दो देशों को और ज़्यादा क़रीब लाने का प्रयास करें, तो हमें खुले दिल से उसकी स्वागत करनी चाहिए।
सजीव - हाँ, और ऐसी ही दो संस्थाओं ने मिल कर अभी हाल में एक परियोजना बनाई है भारत और पाक़िस्तान के रिश्तों को मज़बूत करने की। ये संस्थाएँ हैं भारत का सब से बड़ा मीडिया ग्रूप 'टाइम्स ग्रूप', पाक़िस्तान का मीडिया जायण्ट 'जंग ग्रूप', तथा 'जीओ टीवी ग्रूप', और इस परियोजना का शीर्षक है 'अमन की आशा'। ये मीडिया जायण्ट्स मिल कर दोनों देशों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंधों में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं। जहाँ तक सांस्कृतिक पक्ष का सवाल है, तो इन दोनों देशों के जानेमाने कलाकारों के गीतों का एक संकलन हाल ही में जारी किया गया है।
सुजॊय - डबल सी डी पैक वाले 'अमन की आशा' ऐल्बम में ऐसे ऐसे कालजयी कलाकारों की रचनाएँ शामिल किए गए हैं कि कौन सा गीत किससे बेहतर है बताना मुश्किल है। इनमें से कुछ फ़िल्मी रचनाएँ हैं तो कुछ ग़ैर-फ़िल्मी, लेकिन हर एक गीत एक अनमोल नगीने की तरह है जो इस ऐल्बम में जड़े हैं। और क्यों ना हो जब लता मंगेशकर, गुलज़ार, भुपेन्द्र सिंह, शंकर महादेवन, हरीहरण, रूप कुमार राठोड़, नूरजहाँ, गु़लाम अली, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, अबीदा परवीन, मेहदी हसन, राहत फ़तेह अली ख़ान, वडाली ब्रदर्स जैसे अज़ीम फ़नकारों के गाए गानें इसमें शामिल हों। इनमें से कुछ गानें नए हैं तो कुछ कालजयी रचनाएँ हैं। और कुछ पारम्परिक गानें तो आप ने हर दौर में अलग अलग गायकों की आवाज़ों में सुनते आए हैं।
सजीव - इस ऐल्बम में कुल २० गानें हैं, जिनमें से हम ५ ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं को आज के इस 'ताज़ा सुर ताल' की कड़ी में शामिल कर रहे हैं। बाक़ी गीत आप समय समय पर 'आवाज़' के अन्य स्तंभों में सुन पाएँगे। तो सुजॊय, चलो बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने से पहले एक गीत हो जाए अबीदा परवीन का गाया हुआ!

गीत - मैं नारा-ए-मस्ताना


सजीव- वाह ये तो कोई जादू था सुजॉय, मैं तो अभी तक झूम रहा हूँ...
सुजॊय -बिलकुल ठीक, अबीदा परवीन का जन्म १९५४ में हुआ था पाकिस्तान के सिंध के लरकाना के अली गोहराबाद मोहल्ले में। संगीत की तालीम उन्होने शुरुआती समय में अपने पिता उस्ताद ग़ुलाम हैदर से ही प्राप्त किया। बाद में शाम चौरसिया घराने के उस्ताद सलामत अली ख़ान से उन्हे संगीत की शिक्षा मिली। अपने पिता के संगीत विद्यालय में जाते हुए अबीदा परवीन में संगीत के जड़ मज़बूत होते चले गए। उनका प्रोफ़ेशनल करीयर रेडियो पाक़िस्तान के हैदराबाद केन्द्र से शुरु हुआ था सन् १९७३ में। उनका पहला हिट गीत एक सिंधी गीत था "तूहींजे ज़ुल्फ़न जय बंद कमंद विधा"। सूफ़ियाना संगीत में अबीदा जी का एक अलग ही मुक़ाम है। मूलत: वो ग़ज़लें गाती हैं, लेकिन उर्दू प्रेम गीत और ख़ास तौर पर काफ़ी पर उनका जैसे अधिकार सा बना हुआ है। वो उर्दू, सिंधी, सेरैकी, पंजाबी और पारसी में गाती हैं।
सजीव - व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो अबीदा परवीन ने रेडियो पाक़िस्तान के सीनियर प्रोड्युसर ग़ुलाम हुसैन शेख़ से शादी की, जिनका अबीदा जी के शुरुआती करीयर में एक गायिका के रूप में उभरने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। पुरस्कारों की बात करें तो अबीदा परवीन को १९८२ में 'प्राइड ऒफ़ परफ़ॊर्मैंस' का 'प्रेसिडेण्ट ऒफ़ पाक़िस्तान अवार्ड' मिला था। अभी कुछ वर्ष पहले २००५ में उन्हे 'सितारा-ए-इमतियाज़' के सम्मान से नवाज़ा गया था।
सुजॊय - वैसे तो अबीदा जी के असंख्य ऐल्बम बनें हैं, उनमें से कुछ के नाम हैं आपकी अबीदा, अरे लोगों तुम्हारा क्या, बेस्ट ऒफ़ अबीदा परवीन (१९९७), बाबा बुल्ले शाह, अबीदा परवीन सिंग्स् सॊंग्स् ऒफ़ दि मिस्टिक्स, अरीफ़ाना क़लाम, फ़ैज़ बाइ अबीदा, ग़ालिब बाइ अबीदा परवीन, ग़ज़ल का सफ़र, हर तरन्नुम, हीर बाइ अबीदा, हो जमालो, इश्क़ मस्ताना, जहान-ए-ख़ुसरो, कबीर बाइ अबीदा, काफ़ियाँ बुल्ले शाह, काफ़ियाँ ख़्वाजा ग़ुलाम फ़रीद ख़ज़ाना, कुछ इस अदा से आज, लट्ठे दी चादर, मेरे दिल से, मेरी पसंद, रक़्स-ए-बिस्मिल, सरहदें, तेरा इश्क़ नचया, दि वेरी बेस्ट ऒफ़ अबीदा, यादगार ग़ज़लें, आदि। इन नामों से ही आप अंदाज़ा ल्गा सकते हैं कि अबीदा परवीन किन शैलियों में महारथ रखती हैं।
सजीव - अबीदा परवीन के बारे में अच्छी बातें हमने जान ली, और अब 'अमन की आशा' में आगे बढ़ते हुए दूसरा गीत रूप कुमार राठोड़ और देवकी पंडित की आवाज़ों में, यह एक आध्यात्मिक गीत है, दैवीय सुर गूंजते हैं इस भक्ति रचना में जिसके बोल हैं "अल्लाहू"। 'अमन की आशा' सूफ़ी संगीत को एक और ही मुक़ाम तक ले जाती है।

गीत - अल्लाहू


सजीव - अगला गीत है वडाली ब्रदर्स का गाया "याद पिया की आए"। ये दोनों भाई जब किसी महफ़िल में गाते हैं तो एक ऐसा समा बंध जाता है कि महफ़िल के ख़त्म होने तक श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हे सुनते हैं, और महफ़िल के समापन के बाद भी जिसका असर लम्बे समय तक बरक़रार रहता है। सुजॊय, इन दो भाइयों के बारे में कुछ बताना चाहोगे?
सुजॊय - ज़रूर! पूरनचंद वडाली और प्यारेलाल वडाली भी सूफ़ी गायक व संगीतज्ञ हैं जिनका ताल्लुख़ पंजाब के अमृतसर के गुरु की वडाली से है। वडाली ब्रदर्स सूफ़ी संतों के उपदेशों व विचारों को गीत-संगीत के माध्यम से लोगों तक पहुँचाने वाले कलाकारो की पाँचवी पीढ़ी के सदस्य हैं। ये दो भाई एक ग़रीब परिवार से ताल्लुख़ रखते थे। बड़े भाई पूरनचंद २५ वर्ष के लम्बे समय तक कुश्ती के अखाड़े से जुड़े हुए थे। छोटा भाई प्यारेलाल अपने घर की अर्थिक स्थिति को थोड़ा बेहतर बनाने के लिए गाँव के रासलीला में श्री कृष्ण की भूमिक निभाया करते थे। भगवान के आशीर्वाद से दोनों भाइयों ने मिलकर आज जो मुक़ाम हासिल किया है, वह उल्लेखनीय है।
सजीव - जहाँ तक मैम्ने सुना है इनके पिता ठाकुर दास ने पूरनचंद को ज़बरदस्ती संगीत में धकेला जब कि उनकी दिलचस्पी अखाड़े में थी। ख़ैर, पूरनचंद ने पंडित दुर्गादास और उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान से तालीम ली, जब कि प्यारेलाल को पूरनचंद ने ही संगीत सीखाया। आज भी प्यारेलाल अपने बड़े भाई को ही अपना गुरु और्व सर्वस्व मानते हैं। अपने गाँव के बाहर इन दो भाइयों ने अपना पहला पब्लिक परफ़ॊर्मैंस जलंधर के हरबल्लभ मंदिर में दिया था।
सुजॊय - पता है वडाली ब्रदर्स दरसल जलंधर में आयोजित हरबल्लभ संगीत सम्मेलन में भाग लेने के लिए ही गए थे, लेकिन उनके वेश-भूषा को देख कर उन्हे वहाँ गाने का मौका नहीं दिया गया। निराश होकर इन्होने तय किया कि वो हरबल्लभ मंदिर के बाहर ही अपना संगीत प्रस्तुत करेंगे। और इन्होने ऐसा ही किया। संयोगवश उस वक़्त वहाँ आकाशवाणी जलंधर के संगीत विभाग के एक सदस्य मौजूद थे जिनको उनकी गायकी अच्छी लगी और आकाशवाणी जलंधर में उनकी पहली रिकार्डिंग् हुई।
सजीव - वडाली ब्रदर्स के बारे में अभी और भी बहुत सी बातें हैं बताने को, लेकिन वो हम फिर किसी दिन बताएँगे। यहाँ पर बस यह बताते हुए कि वडाली ब्रदर्स काफ़ी, गुरबाणी, ग़ज़ल और भजन शैलियों में महारथ रखते है, आपको सुनवा रहे है 'अमन की आशा' ऐल्बम में उनका गाया "याद पिया की आए"।
सुजॊय - सजीव, "याद पिया की आए" उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान साहब ने ठुमरी के अंदाज़ में गाया था। लेकिन वडाली ब्रदर्स के गाए इस वर्ज़न में तो उन्होने इसका नज़रिया ही बिल्कुल बदल के रख दिया है। चलिए सुनते हैं इस रूहानी रचना को।

गीत - याद पिया की आए


सजीव - "याद पिया की आए" की तरह एक और पारम्परिक रचना है "दमादम मस्त कलंदर, अली दम दम दे अंदर", जिसे हर दौर में अलग अलग फ़नकारों ने गाए हैं, जैसे कि नूरजहाँ, अबीदा परवीन, रूना लैला, नुसरत फ़तेह अली ख़ान और भी बहुत सारे। 'अमन की आशा' में इस क़व्वाली का जो संस्करण शामिल किया गया है उसे गाया है रफ़ाक़त अली ख़ान ने।
सुजॊय - रफ़ाक़त अली ख़ान पाक़िस्तान के अग्रणी गायक हैं जिनका ताल्लुख़ शाम चौरसी घराने से है। गायन के साथ साथ कई साज़ बजाने में वो माहिर हैं और अपने गीतों में पाश्चात्य साज़ों का भी वो ख़ूब इस्तेमाल करते हैं। तबला, ढोलक, हारमोनियम, इलेक्ट्रिक ड्रम और सीन्थेसाइज़र वो ख़ूब बजा लेते हैं। रफ़ाक़त साहब का जन्म लाहौर में हुअ था। संगीत उन्हे विरासत में ही मिली, पिता उस्ताद नज़ाक़त अली ख़ान, चाचा उस्ताद सलामत अली ख़ान, स्व: उस्ताद नौरत फ़तेह अली ख़ान और जवाहर वत्तल जानेमाने गायक हुए हैं।
सजीव - हाल की उनके दो ऐल्बम 'अल्लाह तेरा शुक्रिया' और 'मान' काफ़ी चर्चित रहे। रफ़ाक़त साहब के पसंदीदा फ़नकारों में लता मंगेशकर, किशोर कुमार, हरीहरन और शंकर महादेवन शामिल हैं।
सुजॊय - रफ़ाक़त अली ख़ान के बारे में एक और दिलचस्प बात यह कि वो जिम्नास्टिक्स में यूनिवर्सिटी व नैशनल चैम्पियन रह चुके हैं। तो आइए सुनते हैं यह मशहूर पारम्परिक उर्दू सूफ़ी क़लाम।

गीत - दमादम मस्त कलंदर


सजीव - और अब इस ऐल्बम का शीर्षक गीत पेश है शंकर महादेवन और राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ों में। गुलज़ार साहब के लिखे इस गीत को 'अमन की आशा' मिशन का ऐंथेम माना जा रहा है।
सुजॊय - "नज़र में रहते हो जब तुम नज़र नहीं आते, ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते"। २ मिनट का यह गीत दरअसल एक ऐंथेम की तरह ही है, सीधे सादे बोल लेकिन गहरा भाव छुपा हुआ है, शांति का प्रस्ताव भी है, अमन की आशा भी है। शंकर और राहत साहब के अपने अपने अनोखे अंदाज़ से इसमें एक जो कॊण्ट्रस्ट पैदा हुआ है, वही इसकी खासियत है।
सजीव - इस गीत को सुनने से पहले हम बस यही कहेंगे अपने पाठकों व श्रोताओं को कि यह ऐल्बम एक मास्टर पीस ऐल्बम है और अच्छे संगीत के क़द्रदान इसे ज़रूर ख़रीदें। यह उपलब्ध है टाइम्स म्युज़िक पर।
सुजॊय - सभी को एक बार फिर से होली की ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए हम अमन और शांति की आशा करते हैं।

नज़र में रहते हो (अमन की आशा)


"अमन की आशा" के संगीत को आवाज़ रेटिंग *****
भाई अब जहाँ ऐसे ऐसे फनकार होंगें उस अल्बम की समीक्षा कोई क्या करे, अल्बम का हर गीत अपने आप में बेमिसाल है, खासकर आबिदा के कुछ जबरदस्त सूफी गीतों को इसमें स्थान दिया गया है. संगीत प्रेमियों के लिए अति आवश्यक है ये अल्बम, हर हाल में खरीदें सुनें.

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # २६- अभी हाल में वडाली ब्रदर्स ज़ी टीवी के किस कार्यक्रम में अतिथि बन कर पधारे थे?
TST ट्रिविया # २७ आबिदा की किस अल्बम पर पीटर मार्श ने टिपण्णी की थी कि वो शौपिंग लिस्ट भी गाकर श्रोताओं को रुलाने की कुव्वत रखती है ?
TST ट्रिविया # २८ अभी हाल ही में देविका पंडित की कौन सी अलबम बाजार में आई है


TST ट्रिविया में अब तक -
सीमा जी ने जबरदस्त वापसी की है सभी सवालों का सही जवाब देकर, बधाई

Sunday, February 28, 2010

यादों का सहारा न होता हम छोड के दुनिया चल देते....और चले ही तो गए तलत साहब



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 359/2010/59

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोताओं व पाठकों को हमारी तरफ़ से होली की हार्दिक शुभकामनाएँ। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है तलत महमूद पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। जैसा कि हमने आप से पहली ही कहा था कि तलत महमूद की गाई ग़ज़लों की इस ख़ास शृंखला के दस में से नौ ग़ज़लें फ़िल्मों से चुनी हुई होगी और आख़िरी ग़ज़ल हम आपको ग़ैर फ़िल्मी सुनवाएँगे। तो आज बारी है आख़िरी फ़िल्मी ग़ज़ल की। ६० के दशक के आख़िर के सालों में फ़िल्म संगीत पर पाश्चात्य संगीत इस क़दर हावी हो गया कि गीतों से नाज़ुकी और मासूमियत कम होने लगी। ऐसे में वो कलाकार जो इस बदलाव के साथ अपने आप को बदल नहीं सके, वो धीरे धीरे फ़िल्मों से दूर होते चले गए। इनमें कई कलाकार अपनी स्वेच्छा से पीछे हो लिए तो बहुत सारे अपने आप को इस परिवर्तन में ढाल नहीं सके। तलत महमूद उन कलाकारों में से थे जो स्वेच्छा से ही इस जगत को त्याग दिया और ग़ैर फ़िल्म संगीत जगत में अपने आप को व्यस्त कर लिया। आज हमने एक ऐसी ग़ज़ल चुनी है जो बनी थी सन‍ १९६९ में। फ़िल्म 'पत्थर के ख़्वाब' फ़िल्मी की यह ग़ज़ल पाल प्रेमी साहब का लिखा हुआ है और संगीत है एन. दत्ता का। है बड़ा ही सीधा सादा, लेकिन इस ग़ज़ल को सुनते हुए इसकी धुन कुछ इस तरह से ज़हन में रच बस जाती है कि केवल एक बार सुन कर जी नहीं भरता। झूठ नहीं बोलूँगा, मैंने यह ग़ज़ल पहले कभी नहीं सुनी थी। इस शृंखला के लिए यह ग़ज़ल मैंने पहली बार सुनी और पहली ही बार में यह मुझे इतना अच्छा लगा कि अब तक ५ मर्तबा सुन चुका हूँ। "यादों का सहारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते, ये दर्द जो प्यारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते"। जाने क्या बात है इस ग़ज़ल में कि यह सुनने वाले को अपनी ओर आकर्षित करती है। ऒर्केस्ट्रेशन भी सरल है। तबले का अच्छा प्रयोग है, इंटरल्युड में स्ट्रिंग्स सुनने को मिलते हैं।

दोस्तों, 'पत्थर के ख़्वाब' फ़िल्म आई थी १९६९ में जिसका निर्माण हुआ था नागिन प्रोडक्शन्स के बैनर तले। महीपाल, परवीन चौधरी, डी. के. सप्रू, मोहन चोटी प्रमुख अभिनीत इस फ़िल्म को निर्देशित किया था पाल प्रेमी ने। जी हाँ, वही पाल प्रेमी जिन्होने इस ग़ज़ल को भी लिखा। पाल प्रेमी साहब ना केवल निर्देशक और गीतकार थे, बल्कि उन्होने अभिनय के क्षेत्र में भी अपना हाथ आज़माया था। १९६५ की फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' में उन्होने अभिनय किया। बतौर निर्देशक 'पत्थर के ख़्वाब' के अलावा १९६७ की फ़िल्म 'हमारे ग़म से मत खेलो' का भी निर्देशन किया। १९५५ की फ़िल्म 'हातिमताई की बेटी' में उन्होने सह निर्देशक के रूप में काम किया था। दोस्तों, पाल प्रेमी साहब के बारे में हम केवल इतनी ही जानकारी बटोर सके। अगर आप उनके फ़िल्मी करीयर या जीवन से संबंधित किसी बात की जानकारी रखते हों तो हमारे साथ ज़रूर बाँटिएगा। इस फ़िल्म के संगीतकार एन. दत्ता ने चोपड़ा कैम्प की कई बड़ी फ़िल्मों में संगीत दिया है। लेकिन वक़्त बहुत ज़ालिम होता है। जब इंसान का वक़्त अच्छा होता है तो हर कोई साथ देता है और वक़्त बुरा हो तो हर चीज़ मुंह मोड़ लेती है। दत्त साहब के साथ भी यही हुआ। जब तक स्वास्थ्य ने साथ दिया, उन्हे बड़ी फ़िल्में मिलती रहीं, लेकिन जब स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो चोपड़ा कैम्प भी संगीतकार रवि की ओर मुड गया। एन. दत्ता कमचर्चित फ़िल्मों में संगीत देने लगे और गुमनामी की तरफ़ निकल पड़े। आज की यह फ़िल्म भी एक ऐसी ही फ़िल्म है, जिसने सफलता की किरण तो नहीं देखी, लेकिन ख़ास कर तलत साहब की गाई इस ग़ज़ल ने आज तक इस फ़िल्म के नाम को ज़िंदा कर रखा है। यक़ीन मानिए या आप ख़ुद आजमा लीजिए कि गूगल पर अगर आप 'पत्थर के ख़्वाब' ढ़ूंढते हैं तो ज़्यादातर इस ग़ज़ल के ही रेज़ल्ट्स आते हैं, ना कि इस फ़िल्म के। आइए अब इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाया जाए। हम तो भई यही कहेंगे कि अगर तलत साहब के गाए गीतों और ग़ज़लों का सहारा फ़िल्म संगीत को नहीं मिलता तो इस धरोहर की क़ीमत बहुत कम होती। पेश-ए-ख़िदमत है यह ग़ज़ल और इसके तमाम शेर इस प्रकार हैं:

यादों का सहारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते,
ये दर्द जो प्यारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते।

टूटा हुआ दिल टूटे अरमान तेरी हैं अमानत पास मेरे,
ये दिल जो तुम्हारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते।

शायद के तेरे काम आ जाए ये जान मेरी ओ जान-ए-जिगर,
क़िस्मत का इशारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते।

रुक जाए कहाँ है किसको ख़बर दौरान-ए-सफ़र या मंज़िल पर,
गरदिश में सितारा ना होता हम छोड़ के दुनिया चल देते।



क्या आप जानते हैं...
कि तलत महमूद ने १२ भारतीय भाषाओं में कुल ७४७ गीत गाए हैं, और ये भाषाएँ हैं - उर्दू/ हिंदी, बंगला, भोजपुरी, तेलुगू, गुजराती, मराठी, मलयालम, पंजाबी, सिंधी, अवधी, मारवारी और असमीया।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मतले में ये दो शब्द है - "आंसुओं" और "सूरतों", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस गज़ल को किसने लिखा है बताएं - ३ अंक.
3. गज़ल के संगीतकार का नाम बताएं- २ अंक.
4. तलत साहब एक अमेरिकी सिगरेट कम्पनी के विज्ञापन में भी नज़र आये थे, कौन सी थी वो कंपनी-सही जवाब के मिलेंगें ३ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
एक बार फिर शरद जी न सिर्फ सही जवाब देकर ३ अंक कमाए, बल्कि हमारी गलती को दुरुस्त भी किया, जाहिर है शरद जी बेहद ध्यान से हमारी हर पोस्ट पढते हैं, उनके जैसा श्रोता हमें कोई शायाद ही मिल पाए, इंदु जी, बधाई आपने भी ३ अंक जोड़े अपने खाते में, अब आपके क्या कहने, अवध जी भी २ अंकों के हकदार बनें, पाबला जी फिर गायब हो गए :), चलिए आप सभी को होली की ढेरों ढेरों शुभकामनाएं. ईश्वर आप सब के जीवन में भी प्रेम के रंगों की ऐसी बौछार करें कि आने वाला हर दिन आप के जीवन में खुशियों से लदा लदा आये....
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

फागुनी पॉडकास्ट कवि सम्मेलन और एक सरप्राइज



Rashmi Prabha
रश्मि प्रभा
Khushboo
खुश्बू
दुनिया के लगभग सभी त्योहार बदलाव-सूचक हैं। और ये बदलाव दुखों से लगातार लड़ते मनुष्य के मन में, आगे सुख की रोशनी है- की आशा का संचार करते हैं। होली त्योहार भी वैमनस्यकता, ईर्ष्या, द्वेष के खिलाफ भाईचारे का उद्‍घोष है। इसी तरह की कुछ आवाज़ों को कवि सम्मेलन में पिरोकर हम फागुन के अंत में आपके के लिए लाये हैं। ये संवेदना की आवाज़ें हैं। इस बार रश्मि प्रभा इस कवि सम्मेलन में एक सरप्राइज के साथ उपस्थित हुई हैं। और चूँकि वह सरप्राइज है इसलिए जानने के लिए आपको कवि सम्मेलन सुनना होगा। हम होली की शुभकामना देकर हटते हैं, आप सुनिए इस बार का कवि सम्मेलन-



प्रतिभागी कवि- सरस्वती प्रसाद, नवीन कुमार, नीलम प्रभा, दीपाली आब, शन्नो अग्रवाल, आर्यमन, चेतस पाण्डेय, गौरव वशिष्ठ और *सरप्राइज़*।


संचालन- रश्मि प्रभा

तकनीक- खुश्बू


यदि आप इसे सुविधानुसार सुनना चाहते हैं तो कृपया नीचे के लिंकों से डाउनलोड करें-
WMAMP3




आप भी इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनें

आप इस तकनीकी कवि सम्मेलन का हिस्सा होकर दुनिया भर के लाखों कविता प्रेमियों से सीधे जुड़ सकते हैं। प्रक्रिया बहुत सरल है। रश्मि प्रभा के साथ यदि आप भी अतिथि संचालक होना चाहते हैं तो भी हमें लिखें।

1॰ अपनी साफ आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके भेजें।
2॰ जिस कविता की रिकॉर्डिंग आप भेज रहे हैं, उसे लिखित रूप में भी भेजें।
3॰ अधिकतम 10 वाक्यों का अपना परिचय भेजें, जिसमें पेशा, स्थान, अभिरूचियाँ ज़रूर अंकित करें।
4॰ अपना फोन नं॰ भी भेजें ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम तुरंत संपर्क कर सकें।
5॰ कवितायें भेजते समय कृपया ध्यान रखें कि वे 128 kbps स्टीरेओ mp3 फॉर्मेट में हों और पृष्ठभूमि में कोई संगीत न हो।
6॰ उपर्युक्त सामग्री भेजने के लिए ईमेल पता- podcast.hindyugm@gmail.com
7. मार्च 2010 अंक के लिए कविता की रिकॉर्डिंग भेजने की आखिरी तिथि- 21 मार्च 2010
8. मार्च 2010 अंक का पॉडकास्ट सम्मेलन रविवार, 28 मार्च 2010 को प्रसारित होगा।


रिकॉर्डिंग करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। हमारे ऑनलाइन ट्यूटोरियल की मदद से आप सहज ही रिकॉर्डिंग कर सकेंगे। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

# Podcast Kavi Sammelan. Part 18. Month: February 2010.
कॉपीराइट सूचना: हिंद-युग्म और उसके सभी सह-संस्थानों पर प्रकाशित और प्रसारित रचनाओं, सामग्रियों पर रचनाकार और हिन्द-युग्म का सर्वाधिकार सुरक्षित है।

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