'ओल्ड इस गोल्ड' के सभी दोस्तों को हमारा नमस्कार! इस शनिवार विशेष प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है| जिस तरह से 'ओल्ड इज गोल्ड' का नियमित स्तम्भ ५६० अंक पूरे कर चूका है, वैसे ही यह शनिवार विशेष भी आज पूरा कर रहा है अपना २५-वां सप्ताह| शनिवार की इस ख़ास प्रस्तुति में आपने ज़्यादातर 'ईमेल के बहाने यादों के खजाने' पढ़े और इस और आप सब का भरपूर सहयोग हमें मिला जिस वजह से हम इस साप्ताहिक पेशकश की आज 'रजत जयंती अंक' प्रस्तुत कर पा रहे हैं| आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद, और उन दोस्तों से, जो हमारी इस महफ़िल में शामिल तो होते हैं, लेकिन हमें इमेल नहीं भेजते, उनसे ख़ास गुजारिश है की वो अपने जीवन की खट्टी मीठी यादों को संजो कर हमें ईमेल करें जिन्हें हम पूरी दुनिया के साथ बाँट सके|
दोस्तों, आज मैं जिस ईमेल को यहाँ शामिल कर रहा हूँ, उसके लिखने वाले के लिए मुझे किसी औपचारिक भाषा के प्रयोग करने की कोई ज़रुरत नहीं है, क्योंकि वह शख्स मेरा बहुत अच्छा दोस्त भी है और मेरा छोटा भाई भी, जिसे कहते हैं 'फ्रेंड फिलोसोफर एंड गाइड'| आईये आज मेरे इस दोस्त सुमित चक्रवर्ती का ईमेल पढ़ा जाए|
सर्वप्रथम मैं आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५५० अंक पूरे होने पर हार्दिक बधाई देना चाहूँगा| मैं आपके द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले 'ई-मेल के बहाने यादों के तराने' का बहुत बड़ा फ़ैन हो गया हूँ तथा इसे नियमित रूप से पढ़ता हूँ| मधुर गीतों से जुड़ी लोगों की यादों और भावनाओं को जानकार बहुत ही आनंद मिलता है| इसी तरह मैने भी सोचा कि क्यों न मैं भी अपने बचपन की एक ऐसी ही याद को न केवल आपके, अपितु यदि हो सके तो आवाज़ के अन्य पाठकों के समक्ष रखूं| मैं भली-भाँति जानता हूँ कि आपको लगातार पाठकों के ई-मेल मिलते होंगे, मुझे आपको यह लिखते हुए बहुत ही संकोच हो रहा है परंतु यदि आप उचित समझें तो इसे 'ई-मेल के बहाने यादों के तराने' शृंखला में पेश कर दीजिएगा| यदि न हो सके तो भी मुझे कोई अफ़सोस न होगा, और न ही मेरा स्नेह कभी आपके लिए कम होगा|
हाल ही में मैं फ़िल्म 'वीर-ज़ारा' के संगीत रचना का वीडियो देख रहा था| हम सब जानते हैं कि इस फ़िल्म में स्वर्गीय मदन मोहन जी द्वारा कृत संगीत का प्रयोग किया गया है, ऐसा संगीत जिसने इस फ़िल्म को सिनेमा जगत में एक मील का पत्थर साबित कर दिया| इसी वीडियो में दो ऐसी शख्सियतों का साक्षात्कार भी पाया जिन्होंने इसमे "आया तेरे दर पर दीवाना" क़व्वाली गाई है, वे हैं - उस्ताद अहमद हुसैन तथा उस्ताद मोहम्मद हुसैन| वे बता रहे थे की किस तरह वे स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं जो उन्हें स्वर्गीय मदन मोहन साहब की तरन्नुम पर गाने का सौभाग्य मिला| हुसैन भाईयों को पर्दे पर देख मुझे अपने बचपन का एक वाक़िया याद आ गया| बात तब की है जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था| संगीत में अत्याधिक रूचि होने के कारण मैं अक्सर स्कूल तथा चंडीगढ़ ऐडमिनिस्ट्रेशन द्वारा आयोजित कई गायन प्रतियोगिताओं में भाग लेता था| ऐसी ही एक प्रतियोगिता में उस्ताद एहमद हुसैन तथा उस्ताद मोहम्मद हुसैन निर्णायक बनकर आए थे| मैने प्रतियोगिता में लता दीदी तथा भूपेंद्र जी का गाया हुआ, फ़िल्म 'सितारा' का गीत "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ" गाया था| पहली बार इतने विशिष्ट ग़ज़ल गायकों के समक्ष गाने के कारण मैं काफ़ी नर्वस भी हुआ| परंतु मेरे होंश तब उड़ गये जब उन दोनो ने मंच पे आकर अपना निर्णय सुनाया| उस प्रतियोगिता में मैं सिल्वर सर्टिफिकेट पाकर दूसरे स्थान पर रहा| मेरी तो जैसे ख़ुशी की सीमा ही न रही| मेरे बचपन की यह घटना मेरे हृदय के बेहद क़रीब है| आपसे निवेदन है कि आप इन दोनो गीतों को अपनी अगली प्रस्तुति में सुनायें|
आपसे सदैव स्नेह करने वाला, आपका अनुज,
सुमित *********************************
सुमित, तुमसे और क्या कहूं, तुम्हे मेरी तरफ से और पूरे 'हिंद युग्म' की तरफ से एक उज्वल भविष्य की शुभकामना ही दे सकता हूँ| और ये रहे तुम्हारी पसंद के ये दो गीत, पहला गीत है फिल्म 'सितारा' का, और दूसरा फिल्म 'वीर जारा' की कव्वाली. सुनो और हमेशा खुश रहो|
गीत - थोड़ी सी ज़मीन (सितारा)
गीत - आया तेरे दर पे दीवाना (वीर जारा)
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के खजाने' जो आज रोशन हुआ सुमित चक्रवर्ती के बचपन की एक ख़ास याद के उजाले से| अगले हफ्ते फिर हाज़िर होंगे, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, और कल सुबह 'सुर संगम' में ज़रूर पधारिएगा, नमस्कार!
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ५७०-वीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं और जैसा कि इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं कि सी. रामचन्द्र के संगीत और गायकी से सजी लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज हम आ गये हैं इस शृंखला के अंजाम पर। आज इसकी अंतिम कड़ी में आपको सुनवा रहे हैं चितलकर और साथियों का गाया एक और मशहूर गीत। सी. रामचन्द्र के संगीत के दो पहलु थे, एक जिसमें वो शास्त्रीय और लोक संगीत पर आधारित गानें बनाते थे, और दूसरी तरफ़ पाश्चात्य संगीत पर उनके बनाये हुए गानें भी गली गली गूंजा करते थे। इस शृंखला में भी हमने कोशिश की है इन दोनों पहलुओं के गानें पेश करें। आज की कड़ी में सुनिए उसी पाश्चात्य अंदाज़ में १९५० की फ़िल्म 'सरगम' से एक हास्य गीत "मैं हूँ एक खलासी, मेरा नाम है भीमपलासी"। एक गज़ब का रॊक-एन-रोल नंबर है जिससे आज ६० साल बाद भी उतनी ही ताज़गी आती है। माना जाता है कि किसी हिंदी फ़िल्म में रॊक-एन-रोल का प्रयोग होने वाला यह पहला गाना था। और वह भी उस समय जब रॊक-एन-रोल विदेश में भी उतना लोकप्रिय नहीं माना जाता था। राज कपूर, रेहाना और अन्य कलाकारों पर फ़िल्माया यह एक नृत्य गीत है। पी. एल. संतोषी ने फ़िल्म के गीत लिखे थे।
'सरगम' फ़िल्म का हर एक गीत अपने आप में एक प्रयोग था। इसी फ़िल्म का लता, चितलकर और साथियों का गाया "मौसमे बहार यार, दिल है गुलज़ार यार" में अरबी शैली को अपनाया गया था। लता, रफ़ी और चितलकर के गाये "सबसे बड़ा रुपैया" में लोक धुनों पर विदेशी रिदम का मिश्रण महसूस किया जा सकता है। इस फ़िल्म में एक और पहला प्रयोग था लता-चितलकर के गाये "मोम्बासा" गीत में, जिसमें सी. रामचन्द्र ने अफ़्रीकन संगीत का इस्तेमाल किया। १९५० में ही एक और फ़िल्म आयी थी 'संगीता', जिसमें भी उन्होंने देशी और विदेशी साज़ों के फ़्युज़न से लता-चितलकर का गाया "गिरगिट की तरह रंग बदलते फ़ैशन वाले बाबू" अपने आप में एक नया प्रयोग था। १९५१ में फ़िल्म 'ख़ज़ाना' में लता, चितलकर और साथियों ने गाया था "बाबड़ी बूबडी बम", जिसमें लैटिन अमेरिकी और कैरिबीयन बीट्स का प्रयोग था। इस तरह से बहुत सारे प्रयोग सी. रामचन्द्र ने किए हैं। ऐसे में उन्हें एक क्रांतिकारी संगीतकार के रूप में सम्मानित करना बहुत ही सटीक रहा। आज सी. रामचन्द्र के गये हुए ३० साल होने हो गये, लेकिन उनके रचे सदाबहार नग़में आज भी उनकी यादों को बिल्कुल ताज़ा रखे हुए है। दोस्तों, हमें उम्मीद है कि सी. रामचन्द्र के स्वरबद्ध और चितलकर के गाये इन गीतों का आपने पिछले दो हफ़्तों से आनंद लिया होगा। यह शृंखला आपको कैसी लगी, ज़रूर बताइएगा ईमेल के द्वारा। हमारा ईमेल आइडी है oig@hindyugm.com इसी के साथ अब सी. रामचन्द्र को समर्पित इस शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिए, और सुनिए यह मस्ती भरा गीत। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के साथ हम फिर हाज़िर होंगे शनिवार की शाम, तब तक के लिए, नमस्कार!
क्या आप जानते हैं... कि 'सरगम' के नाम पर सी. रामचन्द्र ने बांद्रा में बनवाए अपने बंगले का नामकरण किया था। वह बंगला तो बिक गया था, लेकिन बाद में पुणे के जिस बंगले में उनका परिवार रहता है, उसका नाम भी 'सरगम' है।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 11/शृंखला 08 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - लता की आवाज़ जैसे जादू है इस गीत में
सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - वाह..हमारी ये शृंखला बेहद शानदार रहे, अमित जी ने शरद जी का बहुत जम कर मुकाबला किया, मगर उनके ९ अंकों पर शरद जी के १० अंक भारी पड़े, तो इस कारण एक शृंखला और शरद जी के नाम हुई, पर इस शृंखला में हमें दीपा जी, विजय दुआ और हिन्दुस्तानी जी जैसे नए योधा मिले, जो अगर इसी तरह चलते रहे तो आने वाली श्रृंखलाएं जबरदस्त होंगीं ये तय है....वैसे हमारे श्याम कान्त जी अभी तक गायब ही हैं, वैसे हम आपको बताते चलें कि अब तक श्याम जी ४, शरद जी ३ और अमित जी १ शृंखला जीत चुके हैं.....नयी शृंखला के लिए सभी को शुभकामनाएँ...
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
सी. रामचन्द्र पर केन्द्रित लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' में पिछले कुछ दिनों से हम कुछ ऐसे गीत सुन रहे हैं जिनका संगीत सी. रामचन्द्र ने तैयार किए तो हैं ही, ये गानें उन्हीं की आवाज़ में भी है जिन्हें वो चितलकर के नाम से गाया करते थे। हमने उनके कुछ एकल गीत शामिल किए, और युगल गीतों की बात करें तो लता मंगेशकर और आशा भोसले के साथ उनके गाये हुए गानें बजाये हैं। लता और आशा के बाद अगर किसी गायिका का ज़िक्र चितलकर के साथ आना चाहिए तो वो हैं शम्शाद बेगम। शम्शाद जी ने सी. रामचन्द्र के संगीत में कुल २५ फ़िल्मों में ६२ गीत गाये हैं और उनमें से सब से लोकप्रिय रहा है 'पतंगा' फ़िल्म का "मेरे पिया गये रंगून" और 'शहनाई' फ़िल्म का "आना मेरी जान सण्डे के सण्डे"। ये दोनों ही गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजा चुके हैं। शम्शाद और चितलकर की आपस की केमिस्ट्री ग़ज़ब की थी और शम्शाद बेगम ही सी. रामचन्द्र की प्रिय गायिका थीं लता के आने के पहले तक। जिस तरह से आशा के आने के बाद, ओ. पी. नय्यर ने शम्शाद और गीता दत्त को भुला दिया, ठीक वैसे ही लता के आ जाने से दूसरे संगीतकारों ने भी अन्य गायिकाओं से मुंह मोड़ लिया और सी. रामचन्द्र भी उनमें से एक थे। दोस्तों, आइए आज का यह अंक शम्शाद बेगम और चितलकर के नाम करते हैं।
आज के अंक में आपको सुनवाने के लिए लाये हैं फ़िल्म 'पतंगा' से "ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी"। रोमांटिक कॊमेडी की एक और मिसाल, जिसके लिए सी. रामचन्द्र जाने जाते थे। 'पतंगा' १९४९ की फ़िल्म थी जो एच. एस. रवैल की पहली निर्देशित फ़िल्म थी। वर्मा फ़िल्म्स के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप ने इस फ़िल्म में लौरेल और हार्डी का भारतीयकरण किया और लोगों को हँसा हँसा कर लोट पोट कर दिए। फ़िल्म के गानें लिखे राजेन्द्र कुष्ण ने। आइए आज राजु भारतन के उसी किताब से एक अंश यहाँ पेश करें जिसमें उन्होंने सी. रामचन्द्र से शम्शाद बेगम के बारे में पूछा है कि क्यों उन्होंने शम्शाद बेगम को नज़रंदाज़ कर लता से रिश्ता जोड़ लिया। इसका मैं अनुवाद नहीं कर रहा हूँ ताकि आप ऒरिजिनल वार्तालाप का आनंद ले सकें।
“But what made you get so transfixed on Lata?” I asked. “After all, unlike in the case of Shanker- Jaikishan, your career hadn’t begun with Lata. Indeed, Lata had been one of your choral singers, you had attained repeated silver jubilee success, before her advent in your repertoire, with vocals of Amirbai, Zohrabai, Lalita Dewoolkar, Binapani Mukherjee, Geeta Roy, Shamshad Begum, to mention just a few. Shamshad Begum, in fact, was your swinging favorite until Lata happened in your life.”
“And Shamshad told me how exactly Lata happened to you,” I continued. “It came about when Lata had already replaced Shamshad Begum, and all other singers, in your mindset. One day you called Shamshad for recording. She failed to get a phrase absolutely right, whereupon you upbraided her right there in front of the musicians, saying: ‘Can’t you understand once you are taught how?’ Shamshad’s answer to that, she told me, was to snap her songbook shut and leave the studio without a word. ‘At other times,’ she said, ‘there would have been a call from Chitalkar to me, profusely apologizing. But no such call came this time, so I knew it was the end.’ Were you fair to Shamshad Begum?” I asked C Ramchandra.
“I was most unfair to her,” conceded Anna (C. Ramchandra). “In fact, I apologized to her, when the gesture had lost all grace, as she came to my home, forgetting all that had happened, to invite me for the Shamshad Nite years later. I was ill, very ill, running a temperature when Shamshad came. I told her I would make a special effort for her by getting well and not only coming, but coming on the stage to sing with her Meri jaan meri jaan Sunday Ke Sunday. Shamshad, remember, sang that vital, more modern second portion of the Sunday Ke Sunday ‘Shehnai’ duet with me and it was the number with which I grew an overnight sensation as a totally new-style music director in the industry. How ungrateful of me to have eased out Shamshad Begum like that! But there was no help for it, once Lata came into my life, she came into my life.”
तो लीजिए, शम्शाद बेगम और चितलकर की आवाज़ों में सुनिए फ़िल्म 'पतंगा' का यह गीत।
क्या आप जानते हैं... कि रंगमंच पर 'भुलाए ना बने' कार्यक्रम में सी. रामचन्द्र काफ़ी अरसे तक अपनी पुरानी फ़िल्मों के गीत स्वयं पेश किया करते थे। मराठी के पुराने कवियों पर आधारित उनका कार्यक्रम 'रसयात्रा' चर्चित रहा था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 10/शृंखला 07 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -एक सुन्दर हास्य गीत है ये ?
सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - फिल्म का नायक बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - शरद जी, अमित जी और दीपा जी को बधाई.....रोमेंद्र जी यानी कन्फुशन वैसे के वैसा ही रहा
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
ग़ज़लों की दुनिया में ग़ालिब का सानी कौन होगा! कोई नहीं! है ना? फिर आप उसे क्या कहेंगे जिसके एक शेर पर ग़ालिब ने अपना सारा का सारा दीवान लुटाने की बात कह दी थी.. "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।" इस शेर की कीमत आँकी नहीं जा सकती, क्योंकि इसे खरीदने वाला खुद बिकने को तैयार था। आपको पता न हो तो बता दूँ कि यह शेर उस्ताद मोमिन खाँ ’मोमिन’ का है। अब बात करते हैं उस शायर की, जिसने इस शेर पर अपना रंग डालकर एक रोमांटिक गाने में तब्दील कर दिया। न सिर्फ़ इसे तब्दील किया, बल्कि इस गाने में ऐसे शब्द डाले, जो उससे पहले उर्दू की किसी भी ग़ज़ल या नज़्म में नज़र नहीं आए थे - "शाह-ए-खुबां" (इस शब्द-युग्म का प्रयोग मैंने भी अपने एक गाने "हुस्न-ए-इलाही" में कर लिया है) एवं "जान-ए-जानाना"। दर-असल ये शायर ऐसे प्रयोगों के लिए "विख्यात"/"कुख्यात" थे। इनके गानों में ऐसे शब्द अमूमन हीं दिख जाते थे, जो या तो इनके हीं गढे होते थे या फिर न के बराबर प्रचलित। फिर भी इनके गानों की प्रसिद्धि कुछ कम न थी। इन्हें यूँ हीं "रोमांटिक गानों" का बादशाह नहीं कहा जाता। बस इनसे यही शिकायत रही थी कि ये नामी-गिरामी और किवदंती बन चुके शायरों के शेरों को तोड़-मरोड़कर अपने गानों में डालते थे (जैसा कि इन्होंने "मोमिन" के शेर के साथ किया), जबकि दूसरे गीतकार उन शेरों को जस-का-तस गानों में रखते थे/हैं और इस तरह से उन शायरों को श्रद्धांजलि देते थे/हैं। मेरे हिसाब से "गुलज़ार" ने सबसे ज्यादा अपने गानों में "ग़ालिब", "मीर", "जिगर" एवं "बुल्ले शाह" की रचनाओं का इस्तेमाल किया है, लेकिन उन शायरों के लिखे एक भी हर्फ़ में हेर-फेर नहीं किया, इसलिए कोई भी सुधि श्रोता/पाठक इनसे नाराज़ नहीं होता। हमारे आज के शायर ने यही एक गलती कर दी है... इसलिए मुमकिन है कि जब भी ऐसी कोई बात उठेगी तो ऊँगली इनकी तरफ़ खुद-ब-खुद हीं उठ जाएगी। खैर छोड़िये... हम भी कहाँ आ गए! हमें तो अपने इस रोमांटिक शायर से बहुत कुछ सुनना है, बहुत कुछ सीखना है और इनके बारे में बहुत कुछ जानना भी है।
बहुत देर से हम "इस" और "ये" के माया-जाल में फँसे थे, तो इस जाल से बाहर निकलते हुए, हम यह बता दें कि जिनकी बात यहाँ की जा रही है, वे और कोई नहीं राज कपूर साहब के चहेते जनाब "हसरत जयपुरी" हैं। ये क्या थे.... चलिए यह जानने के लिए हम कुछ चिट्ठों को खंगाल मारते हैं (साभार: लाईव हिन्दुस्तान, सुरयात्रा, पत्रिका, ड्रीम्स एवं कविताकोश)
१५ अप्रैल, १९१८ को जन्मे हसरत जयपुरी का मूल नाम इकबाल हुसैन था। उन्होंने जयपुर में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद अपने दादा फिदा हुसैन से उर्दू और फारसी की तालीम हासिल की। बीस वर्ष का होने तक उनका झुकाव शेरो-शायरी की तरफ होने लगा और वह छोटी-छोटी कविताएं लिखने लगे। वर्ष १९४० मे नौकरी की तलाश में हसरत जयपुरी ने मुंबई का रुख किया और आजीविका चलाने के लिए वहां बस कंडक्टर के रुप में नौकरी करने लगे। इस काम के लिए उन्हे मात्र ११ रुपये प्रति माह वेतन मिला करता था। इस बीच उन्होंने मुशायरा के कार्यक्रम में भाग लेना शुरू किया। ऐसे हीं एक मुशायरे मे उन्होंने मजदूरों के बीच अपनी कविता "मजदूर की लाश" पढ़ी, जिसे पृथ्वीराज कपूर ने भी सुना। उनकी काबिलियत से प्रभावित होकर वे उन्हें पृथ्वी थिएटर ले आए और राज कपूर से मिलने की सलाह दी। राज कपूर ने उनकी कविता "मैं बाजारों की नटखट रानी" सुनकर अपनी दूसरी फिल्म "बरसात" के गीत लिखने का ऑफर दे दिया। १५० रूपए माहवार पर उनकी नौकरी पक्की हो गई। इसे महज एक संयोग ही कहा जायेगा कि फिल्म बरसात से ही संगीतकार शंकर जयकिशन ने भी अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी।
राजकपूर के कहने पर शंकर जयकिशन ने हसरत जयपुरी को एक धुन सुनाई और उसपर उनसे गीत लिखने को कहा। धुन के बोल कुछ इस प्रकार थे- "अंबुआ का पेड़ है वहीं मुंडेर है आजा मेरे बालमा काहे की देर है" शंकर जयकिशन की इस धुन को सुनकर हसरत जयपुरी ने गीत लिखा "जिया बेकरार है छाई बहार है आजा मेरे बालमा तेरा इंतजार है"। वर्ष १९४९ में प्रदर्शित फिल्म बरसात में अपने इस गीम की कामयाबी के बाद हसरत जयपुरी रातोंरात बतौर गीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फिल्म की कामयाबी के बाद राजकपूर, हसरत जयपुरी और शंकर जयकिशन की जोड़ी ने कई फिल्मों मे एक साथ काम किया। इनमें आवारा, श्री 420, चोरी चोरी, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, तीसरी कसम, दीवाना, एराउंड द वर्ल्ड, मेरा नाम जोकर, कल आज और कल जैसी फिल्में शामिल है। यह जोड़ी १९७१ तक अनेक फिल्मो में साथ काम करती रही, "मेरा नाम जोकर " के फेल होने और जयकिशन के निधन होने के बाद राज कपूर ने इस टीम को छोड़ दिया और अपनी नयी टीम आनंद बक्षी - लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ बना ली, लेकिन अपनी फ़िल्म "राम तेरी गंगा मैली" में हसरत को वापस ले आये, जहाँ हसरत ने "सुन साहिबा सुन" लिखा, लेकिन राज कपूर की मौत के बाद हसरत का फिल्मी सफ़र थम सा गया था, फिर भी वे कुछ संगीतकारों के साथ काम करते रहे।
हसरत जयपुरी को दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष १९६६ में फिल्म सूरज के गीत बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है के लिए दिया गया। वर्ष १९७१ मे फिल्म अंदाज में जिंदगी एक सफर है सुहाना गीत के लिए भी वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। हसरत जयपुरी वर्ल्ड यूनिवर्सिटी टेबुल के डाक्ट्रेट अवार्ड और उर्दू कान्फ्रेंस में जोश मलीहाबादी अवार्ड से भी सम्मानित किए गए। फिल्म मेरे हुजूर में हिन्दी और ब्रज भाषा में रचित गीत झनक झनक तोरी बाजे पायलिया के लिए वह अम्बेडकर अवार्ड से सम्मानित किए गए।
अपने गीतों से कई वर्षों तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाला यह शायर और गीतकार १७ सिंतबर, १९९९ को संगीतप्रेमियों को रोता और तनहा छोड़कर चला गया।
इन जानकारियों के बाद आज की नज़्म की ओर रुख करें.. उससे पहले बड़ी हीं मज़ेदार बात आपसे बाँटने का जी कर रहा है। २८ जुलाई, २००९ को सुजॉय जी ने अपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर हमें एक गीत सुनाया था "ये मेरा प्रेम-पत्र पढकर" और उस आलेख में लिखा था कि "हसरत साहब ने इस गीत में अपने आप को इस क़दर डूबो दिया है कि सुनकर ऐसा लगता है कि उन्होने इसे अपनी महबूबा के लिए ही लिखा हो! इससे बेहतर प्रेम-पत्र शायद ही किसी ने आज तक लिखा होगा!" और इतना कहते-कहते सुजॉय जी रूक गए थे। तो दर-असल बात ये है कि "हसरत" साहब ने यह गीत अपने महबूबा के लिए हीं लिखा था। यह रही पूरी कहानी: लगभग बीस साल की उम्र में उनका राधा नाम की हिन्दू लड़की से प्रेम हो गया था, लेकिन उन्होंने अपने प्यार का इजहार नहीं किया। उन्होंने पत्र के माध्यम से अपने प्यार का इजहार करना चाहा, लेकिन उसे देने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाए। वह लड़की उनकी प्रेरणा बन गई और उसी को कल्पना बनाकर वे जीवनभर शायरी करते रहे। बाद में राजकपूर ने उस पत्र में लिखी कविता 'ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना...' का इस्तेमाल अपनी फिल्म संगम के लिए किया। नाकाम एकतरफ़ा प्रेम क्या-क्या न करवा देता है.. कोई हम जैसों से पूछे!! चलिए इसी बहाने एक शायर तो मिला हमें!
हमने एक बार जब "मुहम्मद हुसैन" और "अहमद हुसैन" यानि कि "हुसैन बंधुओं" की ग़ज़ल आप सबको सुनवाई थी तो लिखा था कि इनका हसरत जयपुरी से बड़ा हीं गहरा नाता है। आज उसी नाते के कारण हम आज की यह नज़्म लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं। "हुसैन बंधुओं" ने इस "रोमांटिक"-से नज़्म को किस कशिश से गाया है, इसका अंदाजा बिना सुने नहीं लगाया जा सकता। इसलिए आईये हम और आप डूब जाते हैं "प्यार के इस सागर" में और जानते हैं कि "प्यार कहते किसे हैं":
नज़र मुझसे मिलाती हो तो तुम शरमा-सी जाती हो
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
जबाँ ख़ामोश है लेकिन निग़ाहें बात करती हैं
अदाएँ लाख भी रोको अदाएँ बात करती हैं।
नज़र नीची किए दाँतों में ____ को दबाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
छुपाने से मेरी जानम कहीं क्या प्यार छुपता है
ये ऐसा मुश्क है ख़ुशबू हमेशा देता रहता है।
तुम तो सब जानती हो फिर भी क्यों मुझको सताती हो?
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
तुम्हारे प्यार का ऐसे हमें इज़हार मिलता है
हमारा नाम सुनते ही तुम्हारा रंग खिलता है
और फिर साज़-ए-दिल पे तुम हमारे गीत गाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
तुम्हारे घर में जब आऊँ तो छुप जाती हो परदे में
मुझे जब देख ना पाओ तो घबराती हो परदे में
ख़ुद ही चिलमन उठा कर फिर इशारों से बुलाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "मोह-जाल" और मिसरे कुछ यूँ थे-
वर्त्तमान के मोह-जाल में,
आने वाला कल न भुलाएँ।
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
निश्छल, निष्कपट भावना हो
स्नेह से हो हर मन सुरभित
उलझे ना कोई भी मोहजाल में
उल्लास से हो हर मन कुंजित - शन्नो जी
जान लिखकर लगा दिए चार चाँद ,
सृजन कराता लिखने का मोह जाल . - मंजु जी
मोह-जाल का जाल न मोह सके
जीवन को सच का प्राण मिले - अवनींद्र जी
शुभ रेखांकित सप्त पदी से,
सरस नेत्र ने थामी अंगुल,
लिये हाथ में हाथ सदी से,
नव निर्मित बादामी अंगुल.
किंचित सरस नेत्र शरमाया,
मधुर मोह जाल यह पाया,
अधर पहन कर अधरों पर,
भरती लजीली हामी अंगुल. - पूजा जी (पूरी कविता हीं पेश कर रहा हूँ क्योंकि मुझे यह रचना बेहद पसंद आई.. पूजा जी, आपने सारी शिकायतें पल में हीं दूर कर दीं)
पिछली महफ़िल की शान बनीं "शन्नो जी"। आपने "मोह-जाल" पर इतनी सारी पंक्तियाँ पेश कीं कि हम भी आपके मोह-जाल में फँस गए। अपना यह प्यार ऐसे हीं बनाए रखियेगा। शन्नो जी के बाद महफ़िल का हिस्सा बने अवध जी। हाँ, मोह-जाल शब्द थोड़ा अलग तरह का है, इसलिए इस पर शेर या दोहा लिखना आसान नहीं, लेकिन यह क्या, आप दुबारा आने का वादा करके मुकर गए, आए हीं नहीं.. ऐसे नहीं चलेगा :) इसकी सज़ा यह है कि आप आज की महफ़िल के कम से कम चार चक्कार लगाएँ। सही है ना? अगली बारी थी मंजु जी की। मंजु जी ने छुट्टियाँ का मोह-जाल समेटे हुए नए वर्ष में कदम रखा और हमें भी नए वर्ष की बधाईयाँ दी। आपका स्वागत है! नीलम जी, हम आपकी भी पंक्तियाँ इस महफ़िल में शामिल करते, लेकिन आपसे एक गलती हो गई। आपने "मोह-जाल" को एक शब्द की तरह नहीं रखा, बल्कि इसे "मोह का कोई जाल" बना दिया। आगे से ध्यान रखियेगा। पिछली महफ़िल में जिन दो फ़नकारों ने चार चाँद लगाए, वे हैं "अवनींद्र" जी एवं "पूजा" जी। मैं चाहता तो था कि अवनींद्र जी की भी कविता अपनी टिप्पणी में डालूँ, लेकिन वह बहुत बड़ी है, इसलिए उनका बस "ज़िक्र" हीं कर पा रहा हूँ, जहाँ तक पूजा जी की बात है तो आपने हमारा दिल जीत लिया। और क्या कहूँ! :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'कितना हसीं है मौसम', सी. रामचन्द्र को सपर्पित इस लघु शृंखला में आज हम चितलकर और साथियों का गाया एक जोश भरा गीत सुनेंगे। इस गीत के बारे में बताने से पहले आपको याद दिला दें कि कल की कड़ी में हम ज़िक्र कर रहे थे लता मंगेशकर और सी. रामचन्द्र के बीच के अनबन के बारे में। हमने कुछ कही सुनी बातें तो जानी, सी. रामचन्द्र का राजु भारतन को दिए इंटरव्यु के बारे में भी जाना; लेकिन इस चर्चा को तब तक पूरी नहीं मानी जा सकती जब तक हम लता जी से इसके बारे में ना पूछ लें। और हमारे इस काम को अंजाम दिया अमीन सायानी साहब ने जिन्होंने लता जी से इसके बारे में पूछा और लता जी ने विस्तार से बताया। लीजिए पेश है उस इंटरव्यु का वही अंश, यह प्रस्तुत हुआ था 'सरगम के सितारों की महफ़िल' रेडियो प्रोग्राम में।
अमीन सायानी: सी. रामचन्द्र से क्या बात हो गई, कैसे अनबन हो गई, क्यों हो गई, और ना होती तो कितना अच्छा होता?
लता मंगेशकर: (हँसते हुए) नहीं, अगर आप ऐसे सोचें तो मेरा दुश्मन कोई नहीं है, ना ही मैं किसी की दुश्मन हूँ। पर इतने सारे म्युज़िक डिरेक्टर्स के साथ जब हम काम करते हैं, इतने लोग मिलते हैं रोज़, तो कहीं ना कहीं छोटी मोटी बात हो ही जाती है। उनके साथ क्या हुआ था कि एक रेकॊर्डिंस्ट थे जो मेरे पीठ पीछे कुछ बात करते थे, मुझे मालूम हुआ था और वो जिसने मुझे बताया था वो अदमी मुझे बहुत ज़्यादा प्यार करता था, कहता था 'मैं सुन नहीं सकता हूँ लता जी कि वो आपके बारे में बात ऐसी ऐसी करते हैं'। और मेरी रेकॊर्डिंग् थी सी. रामचन्द्र की जो उसी स्टुडिओ में थी। मैंने अन्ना को कहा कि 'अन्ना, मैं इस रेकॊर्डिस्ट के पास रेकॊर्डिंग् नहीं करूँगी, क्योंकि यह मेरे लिए बहुत ख़राब बात करता है, जब मैं गाऊँगी मेरा मन नहीं लगेगा यहाँ और मैं जब गाती हूँ मेरे दिमाग को अच्छा लगना चाहिए, सुकून मिलना चाहिए कि भई जो गाना मैं गा रही हूँ, अच्छा लग रहा है, तभी गाना अच्छा बन सकता है'। उनको पता नहीं क्या हुआ, उन्होंने कहा कि 'लता, तुम अगर नहीं गाओगी तो मैं अपने दोस्त को भी नहीं छोड़ सकता हूँ, मैं तुम्हारी जगह किसी और को लाऊँगा'।
अमीन: अरे!!!
लता: मैंने कहा 'बिल्कुल आप ला सकते हैं, किसी को भी ले आइए'। और मैंने वो काम छोड़ा, पर मेरा उनका झगड़ा ऐसा नहीं हुआ। मैंने वो गाना, मतलब रिहर्सल किया हुआ, मैं छोड़ के चली गई और उन्होंने फिर किसी और से वह गाना लिया, और वह मराठी गाना था, मराठी पिक्चर का था। तो वो गाना होने के बाद, उस समय उनके पास काम भी बहुत कम था, और फिर बाद में मेरी उनकी बात नहीं हुई, मुलाक़ात नहीं हुई, कुछ नहीं। और फिर अगर उनका मेरा इतना झगड़ा होता तो फिर वो फिर मेरे पास दोबारा आए "ऐ मेरे वतन के लोगों" के लिए।
अमीन: हाँ, बिल्कुल बिल्कुल बिल्कुल!
लता: तो झगड़ा तो था ही नहीं। और "ऐ मेरे वतन के लोगों" के लिए वो मेरे घर में आये बुलाने के लिए, वो और प्रदीप जी, दोनों ने आकर कहा कि 'यह गाना तुमको गाना ही पड़ेगा'। मैंने कहा 'मैं गाऊँगी नहीं, मेरी तबीयत ठीक नहीं, मुझे आप यह मत कीजिए, मुझे रिहर्सल करना पड़ेगा, दिल्ली जाना पड़ेगा'। मैंने कहा कि 'दिल्ली जाना भी मुझे इतना पसंद नहीं इस वक़्त'। पर उस गाने के लिए प्रदीप जी ने बहुत ज़ोर लगाया। प्रदीप जी ने कहा कि 'लता, अगर तुम यह गाना नहीं गाओगी तो फिर मैं यह गाना दूँगा ही नहीं'। तो उनका दिल नहीं तोड़ सकी मैं। मैंने कहा 'अच्छी बात है, मैं गाती हूँ', और उनके घर जाकर मैंने रिहर्सल वगेरह किए और मैंने वह गाना गाया।
और इस अमर गीत ने लता जी और चितलकर साहब के बीच के अनबन को मिटाया। चलिए अब वापस आते हैं आज बजने वाले गीत की तरफ़। अभी उपर "ऐ मेरे वतन के लोगों" का ज़िक्र हुआ तो याद आया कि एक फ़िल्म थी 'पैग़ाम' जिसमें भी देशभक्ति और समाजोद्धार के विषयों पर बनें गीत हैं जिन्हें प्रदीप ने लिखे थे और सी. रामचन्द्र ने स्वरबद्ध किए थे। आइए आज इस फ़िल्म से चितलकर और साथियों का गाया एक गीत सुनते हैं, "दौलत ने पसीने को आज लात है मारी, हरगिज़ ना रूकेगी अब हरताल हमारी"। 'पैग़ाम' १९५९ की फ़िल्म थी जिसका एस.एस.वासन ने 'जेमिनि पिक्चर्स' के बैनर तले निर्माण व निर्देशन किया था। दिलीप कुमार, राज कुमार और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के संवाद लिखे थे रामानंद सागर ने, जिसके लिए उन्हें उस साल के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया था। आज के प्रस्तुत गीत की बात करें तो मिल मज़दूरों और उनके हरतालों को लेकर इस गीत को बनाया गया है। तो लीजिए प्रस्तुत है फ़िल्म 'पैग़ाम' में चितलकर और साथियों की आवाज़ें।
क्या आप जानते हैं... कि शुरु शुरु में "ऐ मेरे वतन के लोगों" गीत का रिहर्सल आशा भोसले से करवाया गया था, लेकिन बाद में गीत लता से गवाया गया, इसका आशा भोसले को हमेशा मलाल रहा।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 09/शृंखला 07 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -आसान है न ?
सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - फिल्म की नायिका बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - वाह अमित जी आपने शरद जी बहुत बढ़िया टक्कर दी है इस बार...दीपा, प्रदीप दुआ और हिन्दुस्तानी (कृपया अपना सही नाम बताएं) के आने से नए योद्धाओं की जबरदस्त जंग देखने को मिल रही है....जहाँ तक गीतकार का सवाल है, कवि प्रदीप ही परदीप चट्टर्जी के नाम से कहीं कहीं नज़र आये हैं....क्या प्रदीप चट्टर्जी नाम के कोई अन्य गीतकार हैं ? मेरा (सजीव) और सुजॉय का मानना है कि नास्तिक व नया फिल्मों के गीत कवि प्रदीप जी के लिखे हुए है....इस बारे में आप लोग यदि पक्की जानकारी रखते हैं तो हमें बताएं....बहुत से श्रोताओं का मार्गदर्शन होगा
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी का एक बार फिर बहुत बहुत स्वागत है। सी. रामचन्द्र के स्वरबद्ध और गाये गीतों की शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं। कल हमने आपसे वादा किया था कि आज की कड़ी में हम आपको सी. रामचन्द्र और लता मंगेशकर के बीच के अनबन के बारे में बताएँगे। दोस्तों, राजु भारतन लिखित लता जी की जीवनी को पढ़ने पर पता चला कि इस किताब के लिखने के दौरान भारतन साहब सी. रामचन्द्र से मिले थे और सी. रामचन्द्र ने कहा था, "she wanted to marry me, but i was already married.... all i wanted was some fun, but that was not to be.." इसी किताब में "ऐ मेरे वतन के लोगों" के किस्से के बारे में भी लिखा गया है कि शुरु शुरु में यह एक डुएट गीत के रूप में लिखा गया था जिसे लता और आशा, दोनों को मिलकर गाना था। लेकिन जिस दिन मंगेशकर बहनों को दिल्ली जाना था उस फ़ंक्शन के लिए, आशा जी ने सी. रामचन्द्र को फ़ोन कर यह कह दिया कि दीदी अकेली जा रही हैं और वो इससे ज़्यादा और कुछ नहीं कहना चाहतीं। इसी गीत को प्रस्तुत करते हुए दिलीप कुमार ने गायिका और गीतकार के नामों की तो घोषणा कर दी लेकिन संगीतकार का नाम बताना भूल गए। इस बात से सी. रामचन्द्र आगबबूला होकर जब बैकस्टेज पर दिलीप साहब को टोका तो दिलीप साहब ने बस इतना ही कहा कि "अन्ना, मुझे नहीं मालूम था कि आपने इस गीत की धुन बनाई है"। राजु भारतन के किताब के अलावा सी. रामचन्द्र की मराठी में लिखी आत्मकथा 'माझ्या जीवांची सरगम' में उन्होंने बड़ी कुशलता के साथ उस "गायिका" का नाम हटा दिया है लेकिन उस आत्मकथा को पढ़ने वाला हर इंसान समझ सकता है कि इशारा किसकी तरफ़ है। उस आत्मकथा में जिस "सीता" का उन्होंने उल्लेख किया है, वो लता जी के सिवा और कोई नहीं है, यह बात भी हर कोई समझ सकता है। यह तो थी एक तरफ़ की कहानी। उधर लता जी के चाहनेवालों का यह मानना है कि सी. रामचन्द्र ने ही लता को एक बार प्रेम निवेदन किया था जिसे लता ने ठुकरा दिया था। इस अशालीन प्रस्ताव से गुस्से में आकर लता जी ने उनके साथ वही सलूक करना ठीक समझा जो उन्होंने नय्यर साहब और अपनी बहन आशा के साथ किया था। लता जी कभी शादी नहीं करना चाहती थी और ख़ास उस समय तो बिल्कुल नहीं जब उनके कंधों पर उनके पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी थी। दोस्तों, ये सब बातें जो अभी मैंने कहे, वो सब सुनी और पढ़ी हुई बातें हैं। असलियत क्या है यह किसी को भी नहीं मालूम। और हमें भी क्या लेना देना इन महान कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन से। हमें तो इसी बात से ख़ुश रहना चाहिए कि क्या क्या नायाब गीत इन दोनों ने हमें दिए हैं।
दोस्तों, आज के अंक के लिए हमने जिस लता-चितलकर डुएट को चुना है, वह है फ़िल्म 'शगुफ़ा' का। १९५३ में एच. एस. रवैल ने दो ऐसी फ़िल्में निर्देशित की जिनमें संगीत सी. रामचन्द्र का था। इनमें से एक थी 'लहरें' जिसमें किशोर कुमार और श्यामा मुख्य कलाकार थे, और दूसरी फ़िल्म थी 'शगुफ़ा'। यह अभिनेता प्रेम नाथ की ही फ़िल्म थी उन्ही के बैनर पी. एन. फ़िल्म्स तले। प्रेम नाथ और बीना रॊय अभिनीत इस फ़िल्म में राजेन्द्र कृष्ण और सी. रामचन्द्र का फिर एक बार साथ हुआ और फिर एक बार जन्म लिए एक से एक सुमधुर गीत। इस फ़िल्म के अधिकतर गीत लता जी के गाये हुए थे जैसे कि "छीन सके तो छीन ले ख़ुशियाँ मेरे नसीब की, लायेगी रंग एक दिन आह किसी ग़रीब की", लोक शैली में रची "छोटा सा देखो मेरा नादान बालमा", हल्के फुल्के अंदाज़ में बना "ये कैसी ख़ुशी है ये कैसा नशा है, मुझे क्या हुआ है", जुदाई के दर्द में डूबी "घिर घिर आयी कारी बदरिया", और मिलन के रंग में रंगी "ये हवा ये समा चांदनी है जवाँ"। गीता दत्त और साथियों नें गाया "मेरी बहकी बहकी चाल" जिसका भी एक अलग ही मज़ा है। गीता दत्त ने सुंदर के साथ मिलकर एक हास्य क़व्वाली "कैसे खेल मोहब्बत में खेलें सितमगर तेरे लिए" ने एक बार फिर राजेन्द्र कृष्ण को हास्य गीतों के बादशाह के रूप में प्रमाणित किया। और इस फ़िल्म का जो ख़ास गीत रहा वह था लता और चितलकर का गाया आज का प्रस्तुत युगल गीत "तुम मेरी ज़िंदगी में तूफ़ान बनके आये"। ऐसा लगता है जैसे इस गीत के बोल भी लता और चितलकर के तरफ़ ही इशारा कर रहे हों। तो लीजिए पेश-ए-ख़िदमत है फ़िल्म 'शगुफ़ा' का यह गीत।
क्या आप जानते हैं... कि सी. रामचद्र ने 'Academy of Indian Music' नामक संस्था भी चलाई, जहाँ प्रमिला दातार और कविता कृष्णमूर्ति उनकी शिष्याएँ रहीं।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 08/शृंखला 07 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -चितलकर और साथियों का गाया एक जोश भरा गीत है ये.
सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - बहुत खुशी हो रही है देखकर कि नए प्रतिभागियों कमान संभाल रखी है....अमित जी दीपा जी और हिन्दुस्तानी जी को बहुत बधाई
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीतों को सुनने और उनके बारे में जानने का सिलसिला जारी है। इन दिनों हम करीब से जान रहे हैं सी. रामचन्द्र को जिनके स्वरबद्ध और गाये हुए गानें हम शामिल कर रहे हैं उन पर केन्द्रित शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' में। दोस्तों, युं तो सी. रामचन्द्र ने ज़्यादातर युगल गानें लता जी के साथ ही गाये थे, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि जब उन दोनों के बीच अनबन हो गई और लता जी ने उनके लिए गाना बंद कर दिया। इसके बारे में विस्तार से हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे, आज बस इतना कहते हैं कि लता का विकल्प आशा बनीं और ५० के दशक के आख़िर के कुछ सालों में अन्नासाहब ने आशा भोसले से कई गीत गवाये। तो आइए आज उन चंद सालों में सी. रामचन्द्र और आशा भोसले के संगम से उत्पन्न गीतों की बात करें। इन फ़िल्मों में जो नाम सब से उपर आता है, वह है १९५८ की फ़िल्म 'नवरंग'। आज इसी फ़िल्म से एक गीत आपको सुनवाने जा रहे हैं। वैसे इस फ़िल्म के दो गीत हम आपको सुनवा चुके हैं - "तू छुपी है कहाँ" (आशा-मन्ना) और "आधा है चन्द्रमा" (आशा-महेन्द्र)। लेकिन आज हम सुनेंगे आशा और चितलकर यानी सी. रामचन्द्र की आवाज़ों में एक बड़ा ही अद्भुत गीत "कारी कारी कारी अंधियारी सी रात"। इस गीत में चितलकर काव्य शैली में बोल गाते हैं, और उसके बाद आशा शास्त्रीय संगीत पर उन्हीं बोलों को गा उठती हैं और एक अलग ही समा सा बंध जाता है। सावन पर बहुत सारे, ढेर सारे फ़िल्मी गीत बनें हैं, लेकिन अगर उत्कृष्ट गीतों को इस लम्बी फ़ेहरिस्त से छाँटा जाये तो इस गीत को निश्चित रूप से उसमें स्थान मिलेगा। इस गीत से सी. रामचन्द्र के ना केवल संगीतकार के रूप में महानता का पता चलता है, बल्कि एक बेहतरीन और प्रतिभाशाली गायक होने का भी आभास दिलाता है। भरत व्यास के काव्यात्मक शब्दों ने गीत की सुंदरता में चार चांद लगा दिया है, और आशा भोसले की आवाज़ तो सोने पे सुहागा का काम करती है। गीत के संगीत संयोजन में अन्य साज़ों के बीच में शहनाई भी सुनाई देती है जिसे रामलाल ने बजाया था। जी हाँ, वही रामलाल जो 'सेहरा' और 'गीत गाया पत्थरों ने' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया था।
हम बात कर रहे थे चितलकर और आशा भोसले के गाये गीतों की। 'नवरंग' के गीतों का लेखक पंकज राग ने अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में जिन शब्दों में वर्णन किया है, वो इस प्रकार है - "नवरंग के लोकप्रिय गीतों में आशा और महेन्द्र का वर्चस्व रहा। पर मालकौंस पर आधारित "आधा है चन्द्रमा" और "तू छुपी है कहाँ" जैसे हिट गीतों हों, अभिनेत्री संध्या की शैली के अनुरूप अनूठे इठलाते अंदाज़ में गाया "आ दिल से दिल मिला ले" या प्रणय को एक पवित्र भाव से प्रस्तुत करता "तुम मेरे मैं तेरी" हों, सौंदर्य का एक कोमल संगीतात्मक वर्णन करता "श्यामल श्यामल वरण" हो, कवि-सम्मेलन की शैली का "कविराजा कविता के मत कान मरोड़ो" या पहाड़ी के सुरों को लेकर बनाये गये होली गीत "जा रे हट नटखट" का आह्लाद हो, लोकप्रियता के बावजूद इन गीतों की शैली सी. रामचन्द्र वाली कम और वी. शांताराम के प्रभाववाली अधिक लगती है।" ठीक ही तो कहा है पंकज जी ने, भले ही ये गानें चले हों, लेकिन इनमें निस्संदेह वो बात नहीं आई जो लता के लिए बनाये उनके गीतों में आते थे। १९५९ की फ़िल्म 'पैगाम' में भी आशा की आवाज़ थी और १९६० में 'आँचल' में आशा-महेन्द्र का गाया "गा रही है ज़िंदगी" और सुमन ने लता की शैली में "सांवरिया रे अपनी मीरा को भूल ना जाना" गाया, लेकिन ये तमाम गानें ज़्यादा चले नहीं। १९६० में ही आशा और चितलकर ने फ़िल्म 'सरहद' में "नाचो घूम घूम घूम के" गाया जो पश्चिमी रिदम पर था। इसी फ़िल्म में आशा और साथियों का गाया "आजा रे लागे न मोरा जिया" में सी. रामचन्द्र का विशिष्ट प्रभाव कम ही नज़र आया। प्रभु दयाल निर्देशित १९६१ की फ़िल्म 'अमर रहे यह प्यार' में आशा की गाई "मेरे अंधेरे घर में चाँद कोई छाया" की सफलता भी सीमित ही रही। १९६१ में ही लता और सी. रामचन्द्र का एक बार फिर साथ हुआ शांताराम की ही फ़िल्म 'स्त्री' में। तो आइए अब आज का गीत सुना जाये। आशा भोसले और चितलकर रामचंद्र की आवाज़ में फ़िल्म 'नवरंग' की यह सुंदर रचना।
क्या आप जानते हैं... कि सी. रामचन्द्र अपनी धुनों के नोटेशन्स एक पॊकेट डायरी में लिखा करते थे। एक दिन वह डायरी फोकेट्मार हो गई और उन्हें बहुत नुकसान हुआ। इस क़िस्से का ज़िक्र गायिका ललिता देवूलकर से करते वक़्त वो रो पड़े थे।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 07/शृंखला 07 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -इतना सुनने के बाद गीत पहचानना मुश्किल नहीं.
सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - आवाज़ पहचाने - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - वाह अमित जी, बहुत बधाई....दीपा जी और हिन्दुस्तानी जी को भी सही जवाब की बधाई
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
उन दोनों में जो आपसी सम्मान और प्यार था, वो उनकी प्रस्तुतिओं में साफ़ महसूस की जा सकती थी। जब भी ये दोनों साथ में कॊन्सर्ट्स करते थे तो शो हाउसफ़ुल हुआ करता था, और जब दोनों साथ में रेकॊर्डिंग् करते थे तो उनके रेकॊर्ड्स भी हज़ारों, लाखों की तादाद में बिकते और आज भी बिकते हैं।
सुप्रभात! रविवार की इस ठिठुरती सुबह में शास्त्रीय संगीत के इस स्तंभ 'सुर संगम' के साथ मैं, सुजॊय हाज़िर हूँ। पिछले सप्ताह से इस साप्ताहिक स्तंभ की शुरुआत हुई थी और हमने सुनी थी उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब की गाई राग गुणकली। आज बारी एक जुगलबंदी की, और जिन दो कलाकारों की यह जुगलबंदी है, वे दोनों ही अपनी अपनी विधाओं में, अपने अपने साज़ों में बहुत ऊँचा मुकाम बनाया है, महारथ हासिल है। इनमें से एक हैं सुविख्यात सितार वादक उस्ताद विलायत ख़ान और दूसरे हैं शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान। सन् १९६७ में इन दोनों के जुगलबंदी की एक रेकॊर्ड जारी हुई थी 'Duets From India' के शीर्षक से। हमने जुगलबंदी तो कहा, लेकिन तकनीकी दृष्टि से इसे जुगलबंदी नहीं कहेंगे, बल्कि यह एक भैरवी आधारित ठुमरी है। इस रेकॊर्ड में एक जुगलबंदी भी है इन दोनों की जो राग गुजरी तोड़ी पर आधारित है। और एक चैती धुन भी बजाया था इन दोनों से इसमें। तो आज हम इनमें से भैरवी ठुमरी सुनेंगे सितार और शहनाई पर इन दो महान कलकारों का बजाया हुआ।
जहाँ तक जुगलबंदी का सवाल है, उस्ताद विलायत ख़ान ने इस ओर बहुत ज़्यादा कार्य नहीं किया, लेकिन १९५० के दशक में उन्होंने सरोद सम्राट उस्ताद अली अक़बर ख़ान साहब के साथ कई यादगार कॊन्सर्ट्स किये हैं, जिनके वो कायल भी थे। ६० के दशक में विलायत साहब के दो एल.पी रेकॊर्ड्स जारी हुए उन्हीं के भाई उस्ताद इमरात ख़ान के साथ, सुरबहार पर। इस एल.पी रेकॊर्ड की सफलता के बाद इस सितार - सुरबहार डुएट को कई कॊन्सर्ट्स में शामिल किये गये। ८० के दशक के शुरुआती सालों से उस्ताद विलायत ख़ान सुर-बहार पर अपने पुत्र शुजात ख़ान के साथ बजाना शुरु किया। लेकिन अगर सब से ज़्यादा सफल जोड़ी की बात करें, तो वह जोड़ी उनकी बनी थी शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान के साथ। उन दोनों में जो आपसी सम्मान और प्यार था, वो उनकी प्रस्तुतिओं में साफ़ महसूस की जा सकती थी। जब भी ये दोनों साथ में कॊन्सर्ट्स करते थे तो शो हाउसफ़ुल हुआ करता था, और जब दोनों साथ में रेकॊर्डिंग् करते थे तो उनके रेकॊर्ड्स भी हज़ारों, लाखों की तादाद में बिकते और आज भी बिकते हैं।
दोस्तों, आइए आज उस्ताद विलायत ख़ाँ साहब के जीवन पर थोड़ा प्रकाश डाला जाये। उनका जन्म बंगाल के मीमेनसिंह के गौरीपुर में २८ अगस्त १९२८ को हुआ था जो अब बंगलादेश में है। उनका पहला ७८-आर.पी.एम डिस्क तब जारी हुआ था जब उनकी आयु केवल ८ वर्ष की थी।, और उसके बाद ७५ वर्ष की आयु तक साल २००४ तक वो कॊन्सर्ट्स देते रहे। विलायत साहब के पिता ईनायत ख़ाँ थे जो ख़ुद एक सितार उस्ताद थे। उनके पूर्वज मुग़ल राजाओं के सभाओं में संगीत प्रस्तुत किया करते थे। उनके पिता सुरबहार (बेस सितार) के जाने माने कलाकार थे और उनके दादा इमदाद ख़ान भी। विलायत साहब को शिक्षा पारिवारिक तरीकों से ही मिली, जिसे इमदादख़ानी घराना या ईटावा घराना कहते हैं। ईटावा आग्रा के पास एक गाँव है जहाँ इमदाद ख़ाँ रहते थे। जब विलायत ख़ाँ केवल ९ वर्ष के थे, तभी उनके पिता ईनायत साहब का इंतकाल हो गया। इसलिए उन्हें संगीत की शिक्षा उनके चाचा वाहिद ख़ाँ से मिली जो ख़ुद एक जानेमाने सितार और सुरबहार वादक थे। इनके अलावा अपने नाना बंदे हसन ख़ान (जो एक गायक थे) और माँ बशीराम बेगम से भी उन्हें संगीत मिला। विलायत ख़ाँ के चाचा ज़िंदे हसन उनकी रियाज़ पर नज़र रखा करते थे। बालावस्था में विलायत एक गायक बनना चाहते थे, लेकिन उनकी माँ को, जो ख़ुद एक गायक परिवार से ताल्लुख़ रखती थीं, यह लगा कि विलायत को अपने पिता के परिवार के सितार परम्परा को ही आगे बढ़ाना चाहिए। इस तरह से विलायत बन गये उस्ताद विलायत हुसैन ख़ान, दुनिया का एक नामचीन सितार वादक।
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की भी क्या तारीफ़ करें। वो किसी तारीफ़ के मोहताज नहीं। तारीफ़ तो उस उपरवाले की जिन्होंने ऐसे ऐसे रत्न इस धरती पर पैदा किये। इस रत्न के बारे में हम आगे चलकर इस स्तंभ में चर्चा करेंगे। फ़िल्हाल प्रस्तुत है इन दो उस्तादों द्वारा सितार और शहनाई पर बजाया हुआ भैरवी ठुमरी।
भैरवी ठुमरी पर आधारित फ़िल्मी गीतों की बात करें तो जिस गीत की याद सब से पहले आती है, वह है के. एल. सहगल और कानन देवी का गाया फ़िल्म 'स्ट्रीट सिंगर' का गीत "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये"। इस गीत को हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में भी शामिल किया था कुछ हफ़्ते पहले। लेकिन यह उन गीतों में से है जिन्हें बार बार सुनने पर भी दिल नहीं भरता। इसलिए आइए आज फिर एक बार इस गीत का आनंद लेते हैं।
गीत - बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये (स्ट्रीट सिंगर)
तो ये था इस सप्ताह का 'सुर संगम'। अगले हफ़्ते फिर किसी शास्त्रीय महारथी के साथ हम हाज़िर होंगे। तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
आप बताएं क्या इन दोनों कलाकारों की जुगलबंदी वाली कोई और एल्बम आपको याद आ रही है ?
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
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यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
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