'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उन्हीं की हिंदी कहानी "माय नेम इज खान" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं इस्मत चुगताई की एक सुन्दर, मार्मिक कथा "दो हाथ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 42 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है।
~ इस्मत चुगताई (1911-1991) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी बिलकुल बेवकूफ है तू।
(इस्मत चुगताई की "दो हाथ" से एक अंश)
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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें: VBR MP3 #Seventy Sixth Story, Do Hath: Ismat Chugtai/Hindi Audio Book/2010/21. Voice: Anurag Sharma
पिछले ४५ दिनों से, यानी डेढ़ महीनों से आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं रिवाइवल सुनहरे दौर के सदाबहार नग़मों का, जिन्हे हमारे कुछ जाने पहचाने साथियों की आवाजों में। आज हम आ पहुँचे हैं इस विशेष शृंखला की अंतिम कड़ी पर। इस शृंखला में जिन जिन गायक गायिकाओं ने हमारे सुर में सुर मिला कर इस शृंखला को इस सुरीले अंजाम तक पहुँचाया है, हम उन सभी कलाकारों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं, और साथ ही साथ हम आप सभी सुधी श्रोताओं का भी आभार व्यक्त करते हैं जिन्होने इन गीतों को सुन कर अपनी राय और तारीफ़ें लिख भेजी। तो आइए आज इस सुरीली शृंखला को एक सुरीला अंजाम प्रदान करते हैं और सुनते हैं फ़िल्म 'चितचोर' से "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िंदगी हो जाए सफल"। आपको बता दें कि इस गीत के लिए हेमलता को उस साल का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। इससे पहले कि आप यह गीत सुनें, इस गीत की रिकार्डिंग् की कहानी सुनिए ख़ुद हेमलता से जो उन्होने विविध भारती के एक इंटरव्यू में कहे थे। "इस गीत की रिकार्डिंग् के दिन मैं स्टुडियो लेट पहुँची। किस कारण से लेट हुई थी यह अब तो याद नहीं, बस लेट हो गई थी। वहाँ येसुदास जी आ चुके थे। गाने की रिकार्डिंग् के बाद दादा ने मुझसे कहा कि अगर तुम मेरे गुरु की बेटी नहीं होती तो वापस कर देता। यह सुन कर मैं इतना रोयी उस दिन। मुझे उन पर बहुत अभिमान हो गया, कि वो मुझे सिर्फ़ इसलिए गवाते हैं क्योंकि मैं उनके गुरु की बेटी हूँ? बरमन दादा, कल्याणजी भाई, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ये सब भी तो मुझसे गवाते हैं, तो फिर उन्होने ऐसा क्यों कह दिया! मुझे बहुत बुरा लगा और मैं दिन भर बैठके रोयी। मैं दादा से जाकर यह कहा कि देर से आने के लिए अगर आप मुझे बाहर निकाल देते तो मुझे एक सबक मिलता, बुरा नहीं लगता, पर आप ने ऐसा क्यों कहा कि अगर गुरु की बेटी ना होती तो बाहर कर देता। तो उन्होने मुझसे बड़े प्यार से कहा कि एक दिन ऐसा आएगा कि जब तुम्हारे लिए सारे म्युज़िक डिरेक्टर्स वेट करेंगे, तुम नहीं आओगी तो रिकार्डिंग् ही नहीं होगी'।" तो दोस्तों, आइए अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की अंतिम कड़ी के इस गीत को सुना जाए और आपको यह बताते चलें कि सोमवार से हम वापस लौटेंगे अपनी उसी पुराने स्वरूप में और दोबारा शुरु होगा गोल्डन दौर के गोल्डन गीतों का कारवाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नंबर ४११ के साथ। साथ ही पहेली प्रतियोगिता और 'क्या आप जानते हैं' स्तंभ भी हम वापस ले आएँगे। तो ज़रूर पधारिएगा 'आवाज़' के मंच पर सोमवार यानी ७ जून को। एक बार फिर से उन सभी गायक गायिकाओं का शुक्रिया अदा करते हुए जिन्होने 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की इस शृंखला को मुकम्मल बनाया, हम ले रहे हैं इजाज़त, नमस्कार!
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत -तू जो मेरे सुर में... कवर गायन -रश्मि नायर और एन वी कृष्णन
ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं
रश्मि नायर इन्टरनेट पर बेहद सक्रिय और चर्चित रश्मि मूलत केरल से ताल्लुक रखती हैं पर मुंबई में जन्मी, चेन्नई में पढ़ी, पुणे से कॉलेज करने वाली रश्मि इन दिनों अमेरिका में निवास कर रही हैं और हर तरह के संगीत में रूचि रखती हैं, पर पुराने फ़िल्मी गीतों से विशेष लगाव है. संगीत के अलावा इन्हें छायाकारी, घूमने फिरने और फिल्मों का भी शौक है एन वी कृष्णन मधुर आवाज़ के धनी एन वी कृष्णन साहब मूल रूप से कालीकट केरल के हैं और मुंबई में रहते हैं, जीवन यापन की दौड धूप में उन्हें अपने जूनून संगीत को समय देने के मौका नहीं मिला, पर इन्टरनेट क्रांति ने उनके गायन को आज एक नया आकाश दे दिया है, कृष्णन साहब अपनी इस दूसरी पारी को खूब एन्जॉय कर रहे हैं इन दिनों
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
गुलज़ार, राहुल देव बर्मन, आशा भोसले। ७० के दशक के आख़िर से लेकर ८० के दशक के मध्य भाग तक इस तिकड़ी ने फ़िल्म सम्गीत को एक से एक यादगार गीत दिए हैं। लेकिन इनमें जिस फ़िल्म के गानें सब से ज़्यादा सुने और पसंद किए गए, वह फ़िल्म थी 'इजाज़त'। इस फ़िल्म में आशा जी का गाया हर एक गीत कालजयी साबित हुआ। ख़ास कर "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है"। गुलज़ार साहब ने शब्दों के ऐसे ऐसे जाल बुने हैं इस गीत में कि ये बस वो ही कर सकते हैं। चाहे ख़त में लिपटी रात हो या एक अकेली छतरी में आधे आधे भीगना, या युं कहें कि मन का आधा आधा भीगना, सूखे वाले हिस्से का घर ले आना और गिले मन को बिस्तर के पास छोड़ आना, इस तरह के ऒब्ज़र्वेशन और कल्पना गुलज़ार साहब के अलावा कोई दूसरा आज तक नहीं कर पाया है। विविध भारती में गुलज़ार साहब एक बार 'जयमाला' कार्यक्रम में यह गीत बजाया था। तो उन्होने अपने ही शायराना अंदाज़ में इस गीत को पेश करने से पहले कुछ इस तरह से कहे थे - "दिल में ऐसे संभलते हैं ग़म जैसे कोई ज़ेवर संभालता है। टूट गए, नाराज़ हो गए, अंगूठी उतारी, वापस कर दिए। कंगन उतारी, सात फेरों के साथ वापस कर दिए। पर बाक़ी ज़ेवर जो दिल में रख लिए उनका क्या होगा?" तो आइए सुनते हैं हम यह गीत और हमारा दावा है कि शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे यह गीत पसंद नहीं!
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत -मेरा कुछ सामान... कवर गायन -कुहू गुप्ता
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कुहू गुप्ता कुहू गुप्ता पेशे से पुणे में कार्यरत एक सॉफ्टवेर एन्जिनेअर हैं लेकिन इनका संगीत के साथ लगाव बचपन से ही रहा है. कहा जा सकता है कि इन्हें भगवान ने एक मधुर आवाज़ से नवांजा है और इनकी कोशिश यही है कि अपनी गायकी को हर दिन बेहतर बनाती जाएँ. इन्होने हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत कि शिक्षा ११ साल की उम्र से शुरू की और ४ साल तक सीखा. ज़ी टीवी के मशहूर प्रोग्राम सारेगामापा में ये २ बार अपनी गायकी दिखा चुकी हैं. इन्होने कुछ मूल रचनाएँ भी गई हैं, जिनमे से एक हिंद युग्म के काव्य नाद एल्बम का हिस्सा है और कुछ व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल हुई हैं. इनके गाये हुए हिन्दी फिल्मों के गानों के कवर्स आज कल इन्टरनेट डेक्कन रेडियो पर भी सुनाये जा रहे हैं. इन सब के साथ साथ ये स्टेज शोव्स भी करती हैं.
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ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
राज कपूर कैम्प की एक मज़बूत स्तम्भ रहीं हैं लता मंगेशकर। दो एक फ़िल्मों को छोड़कर राज साहब की सभी फ़िल्मों की नायिका की आवाज़ बनीं लताजी। राज कपूर और लताजी के संबंध भी बहुत अच्छे थे। इसी सफल फ़िल्मकार-गायिका जोड़ी के नाम आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह शाम! दोस्तों, २ जुन १९८८ को राज कपूर इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ गये थे। इसके कुछ ही दिन पहले लताजी का एक कॊन्सर्ट लंदन मे आयोजित हुआ था जिसका नाम था 'लता - लाइव इन इंगलैंड'। इस कॊन्सर्ट की रिकार्डिंग् मेरे पास उपलब्ध है दोस्तों, और उसी मे लताजी ने राज कपूर की दीर्घायु कामना करते हुए जनता से क्या कहा था वो मैं आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - "भाइयों और बहनों, हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रोड्युसर, डायरेक्टर, हीरो, और किसी हद तक मैं कहूँगी म्युज़िक डायरेक्टर भी, राज कपूर साहब बहुत बीमार हैं दिल्ली में, मैं आप लोगों से यह प्रार्थना करूँगी कि आप लोग उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करें कि उनकी तबीयत ठीक हो जायें। हम लोगों ने कम से कम ४० साल एक साथ काम किया है, और हमारा मन वही है, रोज़ ही हमें मालूम हो रहा है कि आज तबीयत कैसी है, कैसी है, बस् यही दुआ चाहते हैं सबसे की वो ठीक हो जायें"। जब लताजी की ये बातें चल रही थीं उस कॊन्सर्ट मे, वहीं 'बैकग्राउंड' में राज कपूर की रिकार्डेड आवाज़ भी साथ साथ गूँजती सुनाई दे रही थी जिसमें वो लताजी की तारीफ़ें कर रहे थे। और उनकी वो तारीफ़ें ख़त्म हुई इस पंक्ति से - "ख़ूशनसीब हूँ मैं कि अब तक मुझमें साँस हैं, जान है, और इनसे कह सकता हूँ कि सुन साहिबा सुन प्यार की धुन, मैनें तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन"। यह सुनते ही लताजी के साथ साथ पूरा स्टेडियम हँस पड़ा। ख़ैर, अब आते हैं आज के गीत पर। सुनहरे दौर के तीन गायकों वाले गीतों की श्रेणी में मेरे ख़याल से जिस गीत को सब से ज़्यादा लोकप्रियता मिली, वही गीत हम आज इस महफ़िल में आपको सुनवाने जा रहे हैं। जी हाँ, फ़िल्म 'संगम' का वही लता-मुकेश-महेन्द्र कपूर का गाया "हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा"।
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गीत -हर दिल जो प्यार करेगा... कवर गायन -पारसमणि आचार्य, प्रदीप सोम सुन्दरन और आज़म खान
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डाक्टर पारसमणी आचार्य मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं
प्रदीप सोमसुन्दरन जो लोग टीवी पर म्यूजिकल शो देखने के शौक़ीन हैं, उन्होंने भारतीय टेलीविजन पर पहले सांगैतिक आयोजन 'मेरी आवाज़ सुनो' को ज़रूर देखा होगा। प्रदीप सोमसुंदरन को इसी कार्यक्रम में सन 1996 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक चुना गया था और लता मंगेशकर सम्मान से सम्मानित किया गया था। 26 जनवरी 1967 को नेल्लूवया, नेल्लूर, केरल में जन्मे प्रदीप पेशे से इलेक्ट्रानिक के प्राध्यापक हैं। त्रिचुर की श्रीमती गीता रानी से 12 वर्ष की अवस्था में ही प्रदीप ने कर्नाटक-संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दी थी और 16 वर्ष की अवस्था में स्टेज-परफॉर्मेन्स देने लेगे थे। प्रदीप कनार्टक शास्त्रीय गायन के अतिरिक्त हिन्दी, मलयालम, तमिल, तेलगू, अंग्रेज़ी और जापानी आदि भाषाओं में ग़ज़लें और भजन गाते हैं। इन्होंने कई मलयालम फिल्मी गीतों में अपनी आवाज़ दी है। और गैर मलयालम फिल्मी तथा गैर हिन्दी फिल्मी गीतों में ये काफी चर्चित रहे हैं।
आज़म खान रफ़ी साहब, किशोर कुमार, येसुदास, हरिहरन, सुरेश वाडेकर, सोनू निगम और उदित नारायण इनके पसंदीदा गायक हैं. आज़म फर्मवेयर इंजिनियर है अमेरिका में और गायन का विशेष शौक रखते हैं. इन्टरनेट पर बहुत से संगीत मंचों पर इनकी महफिलें सजती रहती हैं
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दैनिक जीवन में आपका ऐसे इंसानों से ज़रूर पाला पड़ा होगा जिनके बारे में लोग दो तरह के ख्यालात रखते हैं, मतलब कि कुछ लोग उन्हें नितांत हीं शरीफ़ और वफ़ादार मानते हैं तो वहीं दूसरे लोगों की नज़र में उनसे बड़ा अवसरवादी कोई नहीं। हमारे आज के शायर की हालत भी कुछ ऐसी हीं है। कहीं कुछ लोग उन्हें राष्ट्रवादी मानते हैं तो कुछ उन्हें "छिपकली की तरह रंग बदलने वाला" छद्म-राष्ट्रवादी। उनका चरित्र-चित्रण करने के लिए जहाँ एक और "अली सरदार जाफरी" का "कहकशां"(धारावाहिक) है तो वहीं "प्रकाश पंडित" की "जोश और उनकी शायरी"(पुस्तक)। जी हाँ हम जोश की हीं बात कर रहे हैं। जोश अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी अच्छाईयाँ और बुराईयाँ बराबर-मात्रा में अंतर्जाल पर उपलब्ध है, इसलिए समझ नहीं आ रहा कि मैं किसका पक्ष लूँ। अगर "कहकशां" देखकर कोई धारणा निर्धारित करनी हो तब तो जोश ने जो भी किया वह समय की माँग थी। उनके "पाकिस्तान-पलायन" के पीछे उनकी मजबूरी के अलावा कुछ और न था। जान से प्यारा "देश" उन्हें बस इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके परिवार-वालों ने उनका जीना मुहाल कर दिया था। जाते-जाते उन्होंने नेहरू (जो कि जोश के जिगरी दोस्त थे) के सामने अपनी मजबूरियों का हवाला दिया। तब नेहरू ने उन्हें बीच का रास्ता दिखाते हुए कहा कि आप जाओ लेकिन साल में तीन महिने हिन्दुस्तान में गुजारना, इससे आपका यह अपराध-बोध भी जाता रहेगा कि आपने हिन्दुस्तान छोड़ दिया है। लेकिन एक बार पाकिस्तान जाने के बाद यह हो न पाया। यह था "अली सरदार जाफरी" का मत। इस मुद्दे पर "प्रकाश" कुछ नहीं कहते, लेकिन इस मुद्दे पर "अंतर्जाल" चुप नहीं। मुझे कहीं यह पढने को मिला कि "जोश" पाकिस्तान इसलिए गए थे क्योंकि "वहां उन्हें रिक्शा चलाने के लाइसेंस मिले, कुछ सिनेमाघरों में हिस्सेदारी मिली और शासकों के कशीदे काढ़ने के लिए मोटी रकम। " साथ हीं साथ पाकिस्तान के मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक सिकंदर मिर्ज़ा उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे। लेकिन दु:ख की बात यह है कि मिर्जा के पतन के बाद पाकिस्तान में जोश को गद्दार कहकर सार्वजनिक रूप से दुत्कारा गया। इसलिए कई बार उन्होंने भारत लौटने की कोशिश भी की। कहा जाता है कि "तब स्वर्गीय मौलाना आजाद अड़ गए, वे एक ही शर्त पर जोश के भारत लौटने पर सहमत थे कि लौटने पर उन्हें जेल में रखा जाए।" अब यह किस हद तक सच है यह मालूम नहीं लेकिन अगर आप इस वाक्ये पर नज़र दौड़ाएँगे तो ऊपर कही बात पर यकीन करने का मन न होगा:
जोश साहिब और मौलाना आज़ाद भी दोस्त थे तथा वह प्राय: आज़ाद साहिब से मिलने जाते रहते थे। एक बार जब वह मौलाना से मिलने गए, तो वह अनेक सियासी लोगों में घिरे हुए थे। दस-बीस मिनट इंतज़ार के बाद जोश साहिब ने यह शेर कागज़ पर लिखकर उनके सचिव को दिया और उठकर चल पड़े—
नामुनासिब है ख़ून खौलाना
फिर किसी और व़क्त मौलाना
जोश अभी बाहरी गेट तक भी नहीं पहुंचे थे कि सचिव भागे आगे आए और रुकने को कहा। जोश साहिब ने मुड़कर देखा। मौलाना कमरे के बाहर खड़े मुस्कुरा रहे थे।
यानि कि जोश और मौलाना में अच्छी दोस्ती थी, फिर मौलाना क्योंकर यह चाहने लगें कि जोश को जेल में डाल दिया जाए। यही तो दिक्कत है.... दो अलग तरह के विचार अंतर्जाल पर चक्कर काट रहे हैं और मुझे इन दोनों विचारों को पढकर कोई निष्कर्ष निकालना है। अब मुझमें इतना तो सामर्थ्य नहीं कि कुछ अपनी तरफ़ से कह सकूँ या कोई निर्णय हीं दे सकूँ इसलिए मुझे जो भी हासिल हुआ है आप सबके सामने रख रहा हूँ। सबसे पहले जोश का परिचय (सौजन्य: प्रकाश पंडित):
शबीर हसन खां जोश का जन्म ५ दिसम्बर, १८९४ ई. को मलीहाबाद (जिला लखनऊ) के एक जागीरदार घराने में हुआ। परदादा फ़कीर मोहम्मद ‘गोया’ अमीरुद्दौला की सेना में रिसालदार भी थे और साहित्यक्षेत्र के शहसवार भी। एक ‘दीवान’, (ग़ज़लों का संग्रह) और गद्य की एक प्रसिद्ध पुस्तक ’बस्ताने-हिकमत’ यादगार छोड़ी। दादा मोहम्द अहमद खाँ ‘अहमद’ और पिता बशीर अहमद ख़ाँ ‘बशीर’ भी अच्छे शायर थे। यों जोश ने उस सामन्ती वातावरण में पहला श्वास लिया जिसमें काव्यप्रवृत्ति के साथ साथ घमंड स्वेच्छाचार, अहं तथा आत्मश्लाघा अपने शिखर पर थी। गाँव का कोई व्यक्ति यदि तने हुए धनुष की तरह शरीर को दुहरा करके सलाम न करता था तो मारे कोडों के उसकी खाल उधेड़ दी जाती थी। ज़ाहिर है कि जन्म लेते ही ‘जोश’ इस वातावरण से अपना पिंड न छुड़ा सकते थे, अतएव उनमें भी वही ‘गुण’ उत्पन्न हो गए जो उनके पुरखों की विशेषता थी। इस वातावरण में पला हुआ रईसज़ादा जिसे नई शिक्षा से पूरी तरह लाभान्वित होने का बहुत कम अवसर मिला और जिसके स्वभाव में शुरू ही से उद्दण्डता थी, अत्यन्त भावुक और हठी बन गया। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनके कथनानुसार वे बड़ी सख्ती से रोज़े-नमाज़ के पाबंद हो चुके थे। नमाज़ के समय सुगन्धित धूप जलाते और कमरा बन्द कर लेते थे। दाढ़ी रख ली और चारपाई पर लेटना और मांस खाना छोड़ दिया था और भावुकता इस सीमा पर पहुँच चुकी थी कि बात-बात पर उनके आँसू निकल आते थे। इस मंजिल पर पहुँचकर उनकी भावुकता ने उनके सामाजिक सम्बन्धों पर कुठाराघात किया। उन्होंने अपने पिता से विद्रोह किया। जोश लिखते हैं- "मेरे पिता ने बड़ी नर्मी से मुझे समझाया, फिर धमकाया, मगर मुझ पर कोई असर न हुआ। मेरी बग़ावत बढ़ती ही चली गई। नतीजा यह हुआ कि मेरे बाप ने वसीयतनामा लिखकर मेरे पास भेज दिया कि अगर अब भी मैं अपनी जिद पर कायम रहूँगा तो सिर्फ १०० रुपये माहवार वज़ीफ़े के अलावा कुल ज़ायदाद से महरूम कर दिया जाऊँगा लेकिन मुझ पर इसका कोई असर न हुआ"
जोश ने घर पर उर्दू फारसी की पाठ्य पुस्तकें पढ़ीं। फिर अंग्रेजी शिक्षा के लिए सीतापुर स्कूल, जुबली स्कूल लखनऊ और सेंट पीटर कॉलेज आगरा और अलीगढ़ में भी प्रविष्ट हुए, लेकिन पूरी तरह कहीं भी न पढ़ सके। अपनी शायरी के लटके बारे में वे कहते हैं कि "मैंने नौ बरस की उम्र से शेर कहना शुरू कर दिया था। शेर कहना शुरू कर दिया था-यह बात मैंने खिलाफ़े-वाक़ेआ और ग़लत कही है। क्योंकि यह किसी इन्सान की मज़ाल नहीं कि वह खुद से शेर कहे। शेर अस्ल में कहा नहीं जाता, वो तो अपने को कहलवाता है। इसलिए यही तर्ज़े-बयान अख़्तियार करके मुझे यह कहना चाहिए कि नौ बरस की उम्र से शेर ने मुझसे अपने को कहलावाना शुरू कर दिया था। जब मेरे दूसरे हम-सिन (समवयस्क) बच्चे पतंग उड़ाते और गोलियाँ खेलते थे, उस वक़्त किसी अलहदा गोशे (एकान्त स्थान) में शेर मुझसे अपने को कहलवाया करता था।" उस समय उनकी आयु २३-२४ वर्ष की थी जब उन्होंने पहले ‘उमर ख़य्याम’ और फिर ‘हाफ़िज़’ की शायरी का अध्ययन किया। फ़ारसी भाषा के ये दोनों महान कवि अपने काल के विद्रोही कवि थे। अध्ययन का अवसर मिलने पर जोश मिल्टन, शैले, बायरन और वर्डजवर्थ से भी प्रभावित हुए और आगे चलकर गेटे, दांते, शॉपिनहार, रूसों और नित्शे से भी। विशेषकर नित्शे से वे बुरी तरह प्रभावित हुए। नित्शे, गेटे के बाद वाली पीढ़ी का दार्शनिक साहित्यकार था, जिसने जर्मनी में एक जबरदस्त राज्य और केन्द्रीय शक्ति का समर्थन किया और हर प्रकार के नैतिक सिद्धान्त अहिंसा और समानता को अस्वीकार किया। जोश ने नित्शे के हर विचार को अपनी नीति और नारा बना लिया और अपनी हर रचना पर बिस्मिल्लाह (ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ) के स्थान पर ब-नामे कुब्वतों बयात (शक्ति तथा जीवन के नाम) लिखना शुरू कर दिया। इन सबके अतिरिक्त देश की राजनैतिक परिस्तिथियों ने भी उन पर सीधा प्रभाव डाला और उनकी विद्रोही प्रवृत्ति को बड़ी शक्ति मिली। अंग्रेजी राज्य में बुरी तरह पिसी जा रही देश की जनता ने उनके नारों को उठा लिया और इस तरह उन्हें शायर-ए-इंकलाब की उपाधि हासिल हुई।
जोश का स्वभाव बागी था और इसमें कोई दो राय भी नहीं है। वह किसी भी एक निज़ाम से कभी संतुष्ट नहीं हुए। हैदराबाद में निज़ाम दक्कन की मुलाज़मत में होते हुए, उसी के ख़िलाफ़ एक स़ख्त नज़्म लिख दी। जिस पर उन्हें चौबीस घंटे के अंदर-अंदर हैदराबाद छोड़ देने का आदेश मिला। अगर प्रकाश पंडित की मानें तो जोश साहब अपनी कही बात पर कभी भी टिकते नहीं थे। जोश साहब के विचारों का यह परस्पर विरोध उनकी पूरी शायरी में मौजूद है और इसकी गवाही देते हैं ‘अ़र्शोफ़र्श’ (धरती-आकाश) ‘शोला-ओ-शबनम (आग और ओस) संबलों-सलासिल (सुगन्धित घास और ज़ंजीरें) इत्यादि उनके कविता-संग्रहों के नाम। और उनकी निम्नलिखित रूबाई से तो उनकी पूरी शायरी के नैन-नक्श सामने आ जाते हैं;
झुकता हूँ कभी रेगे-रवाँ की जानिब,
उड़ता हूँ कभी कहकशाँ की जानिब,
मुझ में दो दिल हैं, इक मायल-ब-ज़मीं,
और एक का रुख़ है आस्माँ की जानिब।
रेगे-रवाँ - बहती हुई रेत
कहकशाँ - आकाशगंगा
मायल-ब-जमीं- धरती की ओर जिसका रूख है
न सिर्फ जोश साहब के विचारों में परस्पर विरोध था, बल्कि उनकी शायरी में छुपे भावों और शायरी के स्तर में भी कभी-कभी आसमान-जमीन का अंतर दिख पड़ता है। अगर आपसे कहा जाए कि जिस शायर ने आज की गज़ल लिखी है उसी की कलम से कभी "मोरे जोबना का देखो उभार" भी निकला था तो आप निस्संदेह हीं दंग रह जाएँगे। अगर मेरी बात पर आपको यकीन न हो तो यहाँ जाएँ। खैर उन सब बातों पर चर्चा कभी और करेंगे अभी तो आज की गज़ल का लुत्फ़ उठाने का समय है। हाँ, जोश के बारें आप क्या ख्याल रखते हैं, अपनी टिप्पणियों के माध्यम से यह जरूर बताईयेगा।
आज हम जो गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं उन्हें अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है "मेहदी हसन" साहब ने। तो पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:
नक़्श-ए-ख़याल दिल से मिटाया नहीं हनोज़
बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़
तेरी हीं जुल्फ़-ए-नाज़ का अब तक असीर हूँ,
यानि किसी के दाम में आया नहीं हनोज़
या दस-बा-खैर (?) जिसपे कभी थी तेरी नज़र
वो दिल किसी से मैंने लगाया नहीं हनोज़
वो सर जो तेरी राहगुज़र में था सज्दा-रेज़
मैं ने किसी क़दम पे झुकाया नहीं हनोज़
बेहोश हो के जल्द तुझे होश आ गया
मैं ______ होश में आया नहीं हनोज़
मर कर भी आयेगी ये सदा क़ब्र-ए-"जोश" से
बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "सूफ़ी" और शेर कुछ यूँ था-
ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
इस शब्द को सबसे पहले पहचाना "सीमा" जी ने लेकिन शेर लेकर सबसे पहले हाज़िर हुए अवनींद्र जी।
ये रहे अवनींद्र जी के शेर:
मेरी मुहब्बत पे इतनी हैरत न जताओ
आशिक़ सी फितरत है सूफी न बनाओ (स्वरचित )...... माशा-अल्लाह! इस इश्क़ पर वारा जाऊँ!!
जिस तरह पत्थर पे घिस के रंग हिना देती है
आशिकी हद से जो गुजरे सूफी बना देती है ... पहले शेर में हद मालूंम थी शायद जो इस शेर में टूट गई :)
और ये सारे शेर सीमा जी ने पेश किए:
जिसे पा सका न ज़ाहिद जिसे छू सका न सूफ़ी,
वही तीर छेड़ता है मेरा सोज़-ए-शायराना (मुईन अहसन जज़्बी)
ज़ाहिद को तआज्जुब है, सूफ़ी को तहय्युर है।
सद-रस्के-तरीक़त है, इक लग़ज़िशे-मस्ताना॥ (असग़र गोण्डवी)
डाक्टर अनुराग साहब, आपका दस्तखत, आपकी उपस्थिति इस मंच पर देखकर मैं बता नहीं सकता कि मुझे कितनी खुशी हासिल हुई है। आप तो शेर-ओ-शायरी और त्रिवेणियों के उस्ताद हैं फिर खाली हाथ इस महफ़िल में आने का सबब? अगली बार ऐसा नहीं चलेगा :)
नीलम जी, तो इस तरह आप भी शेरो-शायरी के कुरूक्षेत्र में उतर हीं गईं। चलिए अच्छा है, अवनींद्र जी को टक्कर देने के लिए एक और रथी/महारथी की जरूरत थी। यह रहा आपका शेर, जो मुझे खासा पसंद आया:
तेरी ये इबादत सूफी न बना दे मुझको
मेरी ये हसरत,इन्सां ही नजर आऊँ तुझको (स्वरचित)
शन्नो जी, आप भी कमर कस लीजिए। नीलम जी मैदान में उतर चुकी हैं। यह रहा आपकी तरकश का तीर:
हर शख्श जो शायरी करते हुये रोता है
वह दिल सूफी न होगा तो क्या होगा..?
सारे शायरों ने अपनी तरफ से "सूफ़ी" का सही अर्थ जानने की पूरी कोशिश की , लेकिन मुझे लगता है कि अभी भी कुछ छूट रहा है, इसलिए यह लिंक यहाँ डाले देता हूँ:
http://en.wikipedia.org/wiki/Sufism
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में आज हम जिस गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न लेकर आए हैं, वह है सन् १९९१ में बनी फ़िल्म 'लेकिन' से। हृदयनाथ मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध इस गीत को लता जी ने गाया था। ९० के दशक के शुरु शुरु में आई इस फ़िल्म के गीतों के माध्यम से लता जी ने यह एक बार फिर से साबित किया था कि इस नए दशक में भी अगर वो चाहें तो राज कर सकती हैं। लता जी ने सन् १९८३ में विविध भारती पर जयमाला कार्यक्रम प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होने कुल ९ गीतों में से ५ गानें उन्होने अपने भाई हृदयनाथ के चुने। इनमें से एक गीत तो मराठी में था, बाक़ी के गानें थे "मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम" (मशाल), "तुम आशा विश्वास हमारे" (सुबह), "फ़ुटपाथों के हम रहनेवाले" (मशाल) तथा "ये आँखें देख कर हम सारी दुनिया भूल जाते हैं" (धनवान)। उसी कार्यक्रम में लता जी ने हृदयनाथ जी के बारे में यह कहा था - "मुझे कुछ ऐसा लग रहा है कि हृदयनाथ पर एक ठप्पा लग गया है ग़ैर फ़िल्मी गीत कॊम्पोज़ करने का, या फिर उनके गानों में क्लासिकल म्युज़िक की प्रचूरता है। लेकिन ऐसा नहीं है। एक गीत आपको सुनवाती हूँ जिसमें फ़िल्मी गीत का रीदम भी है, फ़िल्मी सिचुयशन के अनुरूप वेस्टर्ण म्युज़िक भी है और मिठास भी है।" और वह गीत था "फ़ुटपाथों के हम..."। तो दोस्तों, आइए अब आज का गीत सुना जाए, जिसे लिखा है गुलज़ार साहब ने।
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत -यारा सिली सिली... कवर गायन -कुहू गुप्ता
ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं
कुहू गुप्ता कुहू गुप्ता पेशे से पुणे में कार्यरत एक सॉफ्टवेर एन्जिनेअर हैं लेकिन इनका संगीत के साथ लगाव बचपन से ही रहा है. कहा जा सकता है कि इन्हें भगवान ने एक मधुर आवाज़ से नवांजा है और इनकी कोशिश यही है कि अपनी गायकी को हर दिन बेहतर बनाती जाएँ. इन्होने हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत कि शिक्षा ११ साल की उम्र से शुरू की और ४ साल तक सीखा. ज़ी टीवी के मशहूर प्रोग्राम सारेगामापा में ये २ बार अपनी गायकी दिखा चुकी हैं. इन्होने कुछ मूल रचनाएँ भी गई हैं, जिनमे से एक हिंद युग्म के काव्य नाद एल्बम का हिस्सा है और कुछ व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल हुई हैं. इनके गाये हुए हिन्दी फिल्मों के गानों के कवर्स आज कल इन्टरनेट डेक्कन रेडियो पर भी सुनाये जा रहे हैं. इन सब के साथ साथ ये स्टेज शोव्स भी करती हैं.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' के आज के अंक में आप सब का स्वागत है। विश्व दीपक जी, पिछले हफ़्ते फ़िल्म 'काईट्स' प्रदर्शित हुई, लेकिन आश्चर्य की बात रही कि फ़िल्म को वो लोकप्रियता हासिल नहीं हो सकी जिसकी उम्मीदें की गईं थी। ऐसा सुनने में आया है कि जिन लोगों को अंग्रेज़ी फ़िल्में देखने का शौक है, उन्हे यह फ़िल्म पसंद आई, लेकिन बॊलीवुड मसाला फ़िल्मों के दर्शकों को यह फ़िल्म ज़्यादा हज़म नहीं हुई। आपके क्या विचार हैं 'काइट्स' को लेकर?
विश्व दीपक - सुजॊय जी, मैंने अभी तक काईट्स देखी नहीं है, इसलिए कुछ भी कहने की हालत में नहीं हूँ। इस शनिवार देखने का विचार है, उसी के बाद अपने विचार जाहिर करूँगा। हाँ, लेकिन यह तो है कि ज्यादातर दर्शकों को फिल्म की कहानी में कुछ भी नया नज़र नहीं आया है, उन सब का कहना है कि ऋतिक रोशन का इस फिल्म के लिए ढाई साल का ब्रेक लेना हजम नहीं होता। वहीं मुझे एकाध ऐसे भी लोग मिले हैं जिन्हें यह फिल्म "फिल्मांकन" (सिनेमाटोग्राफी) के कारण पसंद आई है तो दो-चार ऐसे भी हैं जिन्हें बारबारा मोरी के अभिनय ने प्रभावित किया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस फिल्म को इसी के हाईप (हद से ज्यादा प्रचार और उम्मीदों) से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।
सुजॊय - चलिए, हम काईट्स से आगे बढते हैं। आज हम जिस फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने जा रहे हैं, उस फ़िल्म से भी लोगों की उम्मीदें हैं। और क्यों ना हो जब फ़िल्म करण जोहर के 'धर्मा प्रोडक्शन्स' के बैनर तले बन रही हो! जी हाँ, आज 'ताज़ा सुर ताल' में ज़िक्र 'आइ हेट लव स्टोरीज़' के संगीत की।
विश्व दीपक - इस फ़िल्म के संगीत की चर्चा तो हम करेंगे, लेकिन आपने ग़ौर किया है कि फ़िल्म के टाईटल को किस तरह से स्पेल किया गया है? 'I Hate Luv Storys' - जिस तरह से हम SMS में टाइप करते हैं, उसी शैली को अपनाया गया है, शायद टाईटल के ज़रिये भी आज के युवा वर्ग को आकर्षित करने का प्रयास हुआ है। ख़ैर, 'आइ हेट लव स्टोरीज़' में इमरान ख़ान और सोनम कपूर ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं। मूलत: यह एक रोमांटिक कॊमेडी है जिसका निर्देशन किया है नवोदित निर्देशक पुनीत मल्होत्रा ने, जो मशहूर डिज़ाइनर मनीष मल्होत्रा के भतीजे हैं और जिन्होने पहले करण जोहर के सहायक के रूप में काम कर चुके हैं। यह फ़िल्म प्रदर्शित हो रही है २ जुलाई के दिन।
सुजॊय - इस फ़िल्म में संगीत है विशाल-शेखर का, और गानें लिखे हैं अन्विता दत्त गुप्तन, कुमार और विशाल दादलानी। विशाल-शेखर का ट्रैक-रिकार्ड अच्छा रहा है। 'ओम शांति ओम', ’दोस्ताना’ और 'बचना ऐ हसीनों' के हिट संगीत के बाद अब देखना है कि क्या उनका कमाल इस फ़िल्म में भी चलता है। वैसे काफ़ी यंग फ़िल्म है और म्युज़िक भी भी उसी अंदाज़ का है। तो सुनते हैं पहला गीत जिसे विशाल दादलानी ने गाया है और लिखा है अन्विता ने।
गीत: जब मिला तू
सुजॊय - यह एक पेप्पी नंबर था, और कई ईलेक्ट्रॊनिक इन्स्ट्रूमेण्ट्स के इस्तेमाल से एक शार्प फ़ील आया है गीत में। "रु तु रु तु" गीत का कैच लाइन है जो गीत को दिल-ओ-दिमाग़ पर बसाने का काम करता है। विशाल ने अपने जानदार गायकी से गीत को वही रफ़ फ़ील दिया है जिसकी इस गीत को ज़रूरत थी। अच्छी बात यह भी है कि पाश्चात्य और पेपी नंबर होते हुए भी गीत के बोल वज़नदार हैं। कहने का मतलब यह कि सिर्फ़ संगीत पर ही नहीं, बल्कि बोलों पर भी ध्यान दिया गया है। और विश्व दीपक जी, अन्विता के लिखे इस गीत को सुनते हुए यकायक फ़िल्म 'दोस्ताना' के "जाने क्यों दिल चाहता है" गीत की याद आ ही जाती है। कुछ कुछ वैसा अंदाज़ मिलता है इस गीत में। मेरे ख़याल से तो इस गीत को अच्छा रेस्पॊन्स मिलने वाला है।
विश्व दीपक - जी सुजॊय जी, मेरा भी यही ख्याल है। जहाँ विशाल अपनी अलग तरह की आवाज़ के लिए जाने जाते हैं तो अन्विता भी इन दिनों अपने शब्दों का लोहा मनवा रही हैं। मेरे जहन में अन्विता का लिखा "खुदा जाने" (बचना ऐ हसीनों) अभी तक जमा हुआ है। तब से मैं इनकी लेखनी का फैन हूँ। अभी हाल में हीं "बदमाश कंपनी" का "चस्का" भी इनके लफ़्ज़ों के कारण लीक से हटकर साबित हुआ है। गौरतलब है कि बालीवुड में महिला गीतकारों की बेहद कमी है, इसलिए दुआ करता हूँ कि अन्विता इस पुरूष-प्रधान संगीत की दुनिया में अपना स्थान पक्का कर लें।
सुजॊय - आमीन! चलिए अब सुना जाए दूसरा गीत जिसे शफ़ाक़त अमानत अली और सुनिधि चौहान ने गाया है, गीतकार हैं विशाल दादलानी। जी हाँ, विशाल आज के दौर के उन गिने चुने कलाकारों में से हैं जो एक संगीतकार भी हैं, एक गायक भी, और एक गीतकार के हैसियत से भी अच्छा परिचय दे रहे हैं। कोरस और अकॊस्टिक गिटार के साथ गीत आरम्भ होता है। शफ़ाक़त अमानत अली, जो करण जोहर की कई फ़िल्मों में गीत गा चुके हैं ("मितवा" - कभी अलविदा ना कहना, "तेरे नैना" - माइ नेम इज़ ख़ान), इस गीत में भी उनकी आवाज़ ने वही असर किया है, और इस गीत के मूड के मुताबिक उनकी आवाज़ अच्छी जमी है।
गीत: बिन तेरे
विश्व दीपक - गीत को सुनकर यह कहना ही पड़ेगा कि विशाल दादलानी एक बहुत ही अच्छे गीतकार हैं। उन्होंने इस गीत में रोमांस का माहौल बनाने के लिए उर्दू का जिस तरह इस्तेमाल किया है, वैसा इस्तेमाल आजकल के गीतों में बहुत कम ही सुनाई देता है। सुनिधि की आवाज़ इस गीत में अंतिम हिस्से में आतॊ है और बहुत ही नाज़ुकी के साथ उन्होने गाया है। दर=असल सुनिधि के आवाज़ के दो रूप हैं, एक रूप वह जिसमें वो "धूम मचाले" और "ऐसा जादू डाला रे" जैसे गीत गाती हैं और दूसरा रूप वह जिसमें वो इस तरह की नरमी वाले गानें गाती हैं। और दोनों ही में उन्हे महारथ हासिल है। इसमें कोई शक़ नहीं कि इस दौर की अग्रणी गायिका हैं सुनिधि। लेकिन जहाँ तक इस गीत की बात है, कुछ कमी सी लगती है, वह एक्स-फ़ैक्टर मिसिंग है जो गीत को हिट बनाने के लिए ज़रूरी होता है। देखते हैं कैसा चलता है यह गीत।
सुजॊय - और अब इस फ़िल्म का शीर्षक गीत और एक बार फिर विशाल दादलानी की आवाज़। इस बार गीतकार हैं कुमार। गीत एक डान्स नंबर है जिसकी धुन बहुत ही कैची है, बहुत ही ऐडिक्टिव है, जिसे फ़िल्म के परदे पर इमरान ख़ान एक क्लब में डान्स करते हुए नज़र आएँगे। 'जाने तू या जाने ना' के "पप्पु काण्ट डान्स साला" के लोकप्रिय डान्स के बाद अब देखना यह है कि क्या इस डान्स नंबर को भी वही सफलता प्राप्त होती है। चलिए गीत सुन लेते हैं, फिर इस गीत की थोड़ी और चर्चा करते हैं।
गीत: आइ हेट लव स्टोरीज़
सुजॊय - "मिल गए जो छोरा छोरी, हुई मस्ती थोड़ी थोड़ी, बस प्यार का नाम ना लेना, आइ हेट लव स्टोरीज़" - शायद आज की युवा पीढी को काफ़ी रास आएँगे ये बोल। जो भी है, विशाल दादलानी ने फिर एक बार गायक और संगीतकार की दोहरी भूमिका निभाई है। कुमार के शब्द हास्यप्रद होते हुए भी रचनात्मक सुनाई देते हैं। जिस तरह का चलन आज कर फ़िल्मी गीतों में छाया हुआ है कि हर गीत में कुछ कुछ अंग्रेज़ी के शब्द डाले जा रहे हैं, तो इस फ़िल्म के गीतों में भी मौजूद हैं, और विशाल शेखर एक ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्होने इस शैली का काफ़ी इस्तेमाल किया है।
विश्व दीपक - जी सही कह रहे हैं आप। मज़े की बात तो यह है कि अन्विता की तरह "कुमार" भी विशाल-शेखर के काफी प्रिय हैं। आप ’दोस्ताना’ का ’माँ दा लाडला’ कैसे भूल सकते हैं! कुमार इस तरह के गाने लिखने में खासे माहिर हैं। इन दिनों तो "कुमार" लगभग हर फिल्म में नज़र आ रहे हैं। जैसे कि "आल द बेस्ट", "जश्न", "दिल दोस्ती इटीसी", "चांस पे डांस", "गोलमाल", "गोलमाल रिटर्न्स", "सिकंदर" और "लाईफ़ पार्टनर"। वैसे क्या आपको यह पता है कि "ओम शांति ओम" में "जावेद अख्तर" और "विशाल दादलानी" (आँखों में तेरे) के अलावा एक और गीतकार थे और वो थे "कुमार"। उन्होंने उस फिल्म का सबसे ज्यादा सोलफुल नंबर (जग सूना-सूना लागे) लिखा था। मुझे यह बात जानकर बड़ा हीं सुखद आश्चर्य हुआ और मैं इस बात को आपसे शेयर किए बिना नहीं रह पाया।
सुजॊय - अरे वाह! मुझे तो यह पता हीं नहीं था। हम आगे बढेंगे तो हमें ऐसी हीं और भी बातें मालूम चलेंगी। तो चलिए फ़िल्म का चौथा गीत सुनते हैं जिसमें आवाज़ें हैं श्रेया घोषाल और सोना महापात्रा की। श्रेया का नाम सुनते ही सॊफ़्ट रोमांटिक गीत की कल्पना हम करते हैं। इस गीत में भी वही बात है। ९० के दशक में कई गीत ऐसे बने थे जिनमें इला अरुण ने राजस्थानी लोक शैली में कुछ कुछ पंक्तियाँ गाईं थीं जैसे कि फ़िल्म 'लम्हे' में "मोरनी बागा मा बोले आधी रात मा" या फिर "मेघा रे मेघा", फ़िल्म 'बटवारा' में "हाए उसके डंक बिछवा का", आदि। इन सभी गीतों में मुख्य गायिका रहीं लता जी। अब 'आइ हेट...' के इस गानें में मुख्य गायिका हैं श्रेया और राजस्थानी के शब्द गाईं हैं सोना महापात्रा ने। इन दोनों की आवाज़ों में जो कॊन्ट्रास्ट है, वही है गीत का आकर्षण। "बहारा बहारा हुआ दिल पहली बार है", सुनते हैं यह गीत और देखें कि आपका दिल भी बहारा हो पाता है या नहीं। और इस गीत के ज़रिए इस चिलचिलाती गरमी में हम निमंत्रण देते हैं सावन को। गीतकार हैं कुमार।
गीत: बहारा बहारा हुआ दिल पहली बार है
विश्व दीपक - सुजॊय जी, आपने तो इस गीत के बारें में सब कुछ हीं कह दिया है। इसलिए मेरे कहने के लिए कुछ ज्यादा नहीं बचता। फिर भी मैं सोना महापात्रा के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। सोना कालेज आफ़ इन्जीनियरिंग एंड टेक्नोलोजी, भुवनेश्वर से अभियांत्रिकी स्नातक (बी०ई०) हैं, उन्होंने पुणे के सिम्बायोसिस से एम०बी०ए० की डिग्री हासिल की है और वो मारिको, इंडिया में बांड मैनेजर भी रह चुकी हैं। उनकी छोटी बहन प्रतीचि महापात्रा "विवा" बैंड के लिए गाती हैं। विशाल-शेखर की प्रिय "अनुश्का मनचंदा" भी इसी बैंड की हैं। सोना का पहला वीडियो सिंगल "बोलो ना" एम०टी०वी० पे सबसे ज्यादा देखा गया और फरमाईश किया गया वीडियो है। वहीं "तेरे इश्क़ नचाया" तो इतना ज्यादा म़क़बूल हुआ कि इसे विश्व के अमूमन हर चैनल पर प्रसारित किया गया। कुल मिलाकर "सोना" को ब्युटी विद व्याएस एंड ब्रेन कहा जा सकता है।
सुजॊय - जी। वैसे क्या आपको यह पता है कि "सोना" का नया एलबम "दिलजले" हिन्दुस्तान का पहला और एकमात्र ऐसा डिजीटल एलबम है जिसे पूरे विश्व के नोकिया म्युज़िक स्टोर्स में एक साथ रीलिज किया गया/जा रहा है। इस एलबम में संगीत है "राम संपत" का और बोल लिखे हैं "मुन्ना धीमन" और "राम संपत" ने। खैर ये सब बातें कभी और। अभी तो इस फ़िल्म के अंतिम गीत की बारी है। सूरज जगन और महालक्ष्मी अय्यर की आवाज़ों में "सदका किया यूँ इश्क़ का", बोल अन्विता के। साधारणत: सूरज जगन ने अब तक तेज़ और हार्ड हिटिंग रॊक शैली के गाने गाए हैं, लेकिन इस गीत में उनके आवाज़ के नरम पक्ष का परिचय हमें मिलता है। लगता है इस गीत को वही कामयाबी मिलेगी जो कामयाबी "ख़ुदा जाने ये क्या हुआ है" को मिली है। विश्व दीपक जी, आपका क्या कहना है इस गीत के बारे में?
विश्व दीपक - इस गीत की जो बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई, वह है इस गीत का "कैची फ्रेज" यानि कि "सदका किया"। "अन्विता" ने बहुत हीं प्यारा लेकिन अनूठा शब्द हमारे बीच रखा है। मैं ज्यादा गहराई में तो नहीं जाना चाहूँगा लेकिन इतना बताता चलूँ कि सदका करने का अर्थ होता है ईश्वर या अल्लाह के नाम पर दान करना, किसी पर कुछ निछावर करना। आपने "सदके जाऊँ" का इस्तेमाल तो कई जगह देखा और सुना होगा। तो वहाँ भी यही सदका है। अरे, सदका करते-करते तो मैं "सूरज जगन" को भूल हीं गया। माफ़ कीजिएगा। तो जहाँ तक "सूरज" का सवाल है तो हमने उन्हें पहली मर्तबा "प्यार में कभी-कभी" में "हम नवजवां" गाते हुए सुना था। लेकिन वह गाना कुछ ज्यादा चला नहीं, इसलिए सूरज का भी नाम न हुआ। सही मायनें में सूरज को जाना गया "दिल दोस्ती ईटीसी" के "दम लगा" के कारण। उसके बाद "रॊक ऒन" के "जहरीले" ने तो उन्हें "रॊक स्टार" हीं बना दिया। आगे की कहानी तो जगजाहिर है। तो चलिए हम इसी बात पर "सदका किया" का लुत्फ़ उठाते हैं।
गीत: सदका किया
"आइ हेट लव स्टोरीज़" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
सुजॊय - इस पूरे एल्बम की बात करें तो मुझे इसके ज़्यादातर गानें पसंद आए हैं, ख़ास तौर से "जब मिला तू", "बहारा बहारा" और "सदका किया"। विशाल शेखर ने हमें निराश नहीं किया।
विश्व दीपक - सुजॊय जी, निराश करना तो दूर की बात है, उल्टे मैं यह कहूँगा कि विशाल-शेखर उम्मीदों से बढकर साबित हुए हैं। मुझे इस फिल्म के सारे गाने पसंद आएँ। इन पाँच गानों के अलावा एलबम में दो और गाने हैं- पहला शेखर की आवाज़ में बिन तेरे (रिप्राईज) और दूसरा राहत फतेह अली खान की आवाज़ में बहारा (चिल वर्सन)। ये दोनों वर्सन्स भी कमाल के बन पड़े हैं। मैं सभी पाठकों/श्रोताओं से यह आग्रह करूँगा कि वे इन दोनों गानों को भी जरूर सुनें, खासकर शेखर की आवाज़ में "बिन तेरे"। इस गाने में "शेखर" की आवाज़ को बेहद सराहा गया है।
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # ५८- फ़िल्मी संगीतकार बनने से पहले विशाल दादलानी किस मशहूर बैण्ड में गाया करते थे(आज भी गाते हैं)?
TST ट्रिविया # ५९- आपने पहली बार फ़िल्म 'फ़ैमिली' में गीत गाया था। उसके बाद फ़िल्म 'जम्बो' में सोनू निगम के साथ आपने अपना पहला युगल गीत गाया था। आपने इंजिनीयरिंग् की हुई है और आप एम.बी.ए. भी हैं। बताइए हम किस गायक/गायिका की बात कर रहे हैं?
TST ट्रिविया # ६०- सूरज जगन ने हाल में एक ब्लॊकबस्टर फ़िल्म में एक गीत गाया था जो बेहद बेहद कामयाब हुई थी। गीत के बोल अंग्रेज़ी के थे जिसका भाव कुछ ऐसा था कि मुझे एक मौका और दे दो, मैं फिर से एक बार छोटे से बड़ा होना चाहता हूँ। बहुत आसान है, बताइए हम सूरज जगन के गाए किस गीत की बात कर रहे हैं?
TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:
१. किशोर कुमार की जीवनी पर बनने वाली फ़िल्म में रणबीर किशोर दा का चरित्र निभाएँगे। लता से किशोर दा की शख़सीयत के कुछ पहलुओं से अपने आप को अवगत करवाने के लिए वो लता जी से मिलने वाले थे।
२. फ़िल्म 'बाबुल' का "कहता है बाबुल ओ मेरी बिटिया"।
३. फ़िल्म 'हिप हिप हुर्रे' में।
सीमा जी, आपने पहले सवाल का सही जवाब दिया है। तीसरे सवाल में आप बहुत नज़दीक थीं। बधाई स्वीकारें!!
कल ही हम यह बात कर रहे थे कि शक़ील साहब ने ज़्यादातर काम नौशाद साहब के साथ किया है, तो लीजिए इस मशहूर जोड़ी के नाम करते हैं आज की 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' कड़ी को। मुस्लिम सबजेक्ट पर बनी फ़िल्मों में 'मेरे महबूब' का शुमार उल्लेखनीय फ़िल्मों में होता है। इस फ़िल्म का गीत संगीत का पक्ष बेहद मज़बूत रहा और आज भी इसके गीतों इज़्ज़त से सुने जाते हैं। लीजिए आज इसी फ़िल्म का शीर्षक गीत पेश-ए-ख़िदमत है। क्योंकि आज हम इस गीत के रफ़ी साहब वाले वर्ज़न का रिवाइव्ड रूप सुनेंगे, इसलिए आइए एक बार फिर से रुख़ करते हैं नौशाद साहब द्वारा प्रस्तुत दो कार्यक्रमों की ओर जिनमें वो रफ़ी साहब की तारीफ़ कर रहे हैं अपने अंदाज़ में। विविध भारती के 'संगीत के सितारे' कार्यक्रम में नौशाद साहब ने रफ़ी साहब की तारीफ़ कुछ इस तरह से की थी - "एक फ़नकार को जो अहसासात होने चाहिये, वो रफ़ी साहब में भरपूर था। एक गीत था राग मधुमंती पर। गाना रिकार्ड होने के बाद रफ़ी साहब ने उसे सुना और बार बार सुनते रहे। बोले कि 'शोरगुल से हट कर यह गाना सितना सुकून दे रहा है!' मैने कहा कि 'पहले यह बताइये कि आप पैसे कितने लोगे?' उन्होने कहा कि 'इसके पैसे नहीं चाहिये, सुकून पैसे से नहीं मिलता है।' उनकी तारीफ़ मैं कहाँ तक बयान करूँ?" दोस्तों, एक बार और नौशाद साहब विविध भारती के 'नौशाद-नामा' कार्यक्रम में रफ़ी साहब के बारे में कुछ बातें कही थी जो इस तरह से हैं - "जब मोहम्मद रफ़ी मेरे पास आये तो दूसरा विश्व युद्ध ख़तम होने की कगार पर था। मुझे साल याद नहीं है। उस वक़्त प्रोड्युसरों को कम से कम एक 'वार प्रोपागंडा फ़िल्म' बनानी ही पड़ती थी। रफ़ी साहब मेरे पास आये लखनउ से मेरे वालिद साहब से एक सिफ़ारिशी ख़त लिखवाकर। छोटा सा तम्बुरा हाथ में लिये खड़े थे मेरे सामने। मैने उनसे पूछा कि क्या उन्होने किसी से संगीत की तालीम ली है, तो बोले कि उस्ताद बरकत अली ख़ाँ साहब से शास्त्रीय संगीत सीखा है। उस्ताद बरकत अली ख़ाँ साहब, जो उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खाँ साहब के छोटे भाई हैं। मैने उनसे कहा कि अभी मेरे पास कोई गीत नहीं है, लेकिन एक कोरस गीत है जिसमें वो अगर चाहे तो चंद लाइनें गा सकते हैं। श्याम, जी. एम. दुरानी और कुछ और लोग भी उसमें गा रहे थे। और वह गीत था "हिंदुस्ताँ के हम हैं हिंदुस्ताँ हमारा", फ़िल्म 'पहले आप'। रफ़ी साहब ने दो लाइनें गाई और उन्हे १० रूपए मिले।"
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत -मेरे महबूब तुझे... कवर गायन -रफीक शेख
ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
युं तो शक़ील बदायूनी ने ज़्यादातर संगीतकार नौशाद साहब के लिए ही गीत लिखे, लेकिन दूसरे संगीतकारों के लिए लिखे उनके गानें भी उतने ही मक़बूल हुए थे। उन संगीतकारों में से कुछ नाम शक़ील साहब ने ख़ुद बताए थे अमीन सायानी के एक पुराने इंटरव्यू में जो रिकार्ड हुआ था १९६९ में, जब अमीन भाई ने उनसे पूछा था कि उनकी ज़बरदस्त कामयाबी का सब से ख़ास, सब से अहम राज़ क्या है। शक़ील साहब का जवाब था - "सन् '४६ का गीतकार होकर आज सन् '६९ में भी वही दर्जा हासिल किए हुए हूँ, इसका राज़ इसके सिवा कुछ नहीं अमीन साहब कि मैने हमेशा क्वांटिटी के मुक़ाबले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान दिया। हालाँकि इस बात से मुझे कुछ माली क़ुरबानियाँ भी करनी पड़ी, मगर मेरा ज़मीर मुतमैन है कि मैने फ़िल्म इंडस्ट्री की ज़्यादा से ज़्यादा ख़िदमत की है, और मुझे फ़क्र है मैने बड़े बड़े पुराने संगीतकारों यानी कि खेमचंद प्रकाश, श्यामसुंदर, ग़ुलाम मोहम्मद, ख़ुर्शीद अनवर, सी. रामचन्द्र, सज्जाद, और नौशाद से लेकर रवि, हेमंत कुमार, कल्याणजी, एस. डी. बर्मन, सोनिक ओमी तक के साथ काम किया।" दोस्तों, आइए सुनते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की ४०-वीं कड़ी में आज शक़ील और हेमंत कुमार की जोड़ी का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' से।
ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण
गीत -पिया ऐसो जिया में... कवर गायन -पारसमणी आचार्य
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पारसमणी आचार्य मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
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