Saturday, June 13, 2009

चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे...अमर कर दिया है रफी साहब ने इस गीत को अपनी आवाज़ से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 110

न् १९६४ की फ़िल्म 'दोस्ती' संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है। सत्येन बोस निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुधीर कुमार और सुशील कुमार जिन्होने इस फ़िल्म में दो अपाहिज दोस्तों के किरदार अदा किये थे। इस फ़िल्म का लता मंगेशकर का गाया एकमात्र गीत हम आपको इस शृंखला में पहले ही सुनवा चुके हैं। फ़िल्म के बाक़ी सभी गीत (मेरे ख़याल से ६ में से ५ गीत) रफ़ी साहब की एकल आवाज़ मे हैं। "जानेवालों ज़रा मुड़के देखो मुझे, एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह", "कोई जब राह न पाये, मेरे संग आये और पग पग दीप जलाये, मेरी दोस्ती मेरा प्यार", "राही मनवा दुख की चिंता क्युं सताती है, दुख तो अपना साथी है", "मेरा तो जो भी क़दम है तुम्हारी राहों में है" जैसे गीत ज़ुबाँ ज़ुबाँ पर चढ़ गये थे, लेकिन सबसे ज़्यादा जिस गीत को ख्याती मिली थी वह गीत था "चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे, आवाज़ मैं न दूँगा", और यही गीत आज आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। कहा जाता है कि शुरु में यह गीत लताजी गाने वाली थीं और मजरूह साहब ने बोल भी नायिका की दृष्टि से लिखे हुए थे। लेकिन गीत की धुन सभी को इतनी अच्छी लगी कि इस गीत को फ़िल्म के नायक पर फ़िल्माने का निर्णय लिया गया क्यूंकि यह नायक प्रधान फ़िल्म थी। लता का स्वर तो इस गाने मे नहीं गूँज पाया लेकिन रफ़ी साहब की आवाज़ कमाल कर गयी।

प्यारेलाल ने एक बार कहा था कि १९६३ में प्रदर्शित उनकी पहली कामयाब फ़िल्म 'पारसमणि' के लिए उन्हे कुछ ४००० रूपए मिले थे, लेकिन उसके अगले ही साल आयी फ़िल्म 'दोस्ती' के लिए उन्होने लिया था १०,००० रूपए, जो उन दिनों के हिसाब से काफ़ी बड़ी रकम थी। यह तो आपको पता ही होगा दोस्तों कि फ़िल्म 'दोस्ती' के लिये लक्ष्मी-प्यारे को उस साल के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार मिला था। लेकिन इस पुरस्कार को पाने के लिए उन्होने क्या किया था, यह आप पढ़िये ख़ुद प्यारेलालजी के ही शब्दों में, विविध भारती के सौजन्य से - "१०,००० रूपए हमने लिया था, और फ़िल्म-फ़ेयर अवार्ड के लिए ६५,००० रुपयों का हमने लोन लिया था। फ़िल्म-फ़ेयर में वो भरने के लिए, फ़िल्म-फ़ेयर के फ़ार्म भरने के लिए ६५,००० रूपए हमने लगाये। फ़िल्म-फ़ेयर की एक कापी ख़रीदनी पड़ती थी, उसमें एक फ़ार्म होता था, उसमें आपको 'बेस्ट म्युज़िक' के अंदर अपना नाम लिखना पड़ता था। यह उस ज़माने में होता था, वही आज भी चल रहा है। इसमें कोई बुरी बात नहीं है, यह 'बिज़नस' है, जब तक आप कुछ करेंगे नहीं तो 'बिज़नस' चलेगा नहीं। आप बहुत सत चलेंगे तो नहीं चल पायेंगे। तो हमने फ़िल्म-फ़ेयर की कापी लेकर 'हीरो', 'हीरोइन', 'डायरेक्टर', सब ख़रीद लिए, रकम तो मुझे याद नहीं लेकिन लाख दो लाख रूपया होगा। तो हमने, मान लीजिये २५,००० फ़िल्म-फ़ेयर की प्रतियाँ ख़रीदी, उसमें हर प्रति में एक फ़ार्म है, तो सब में 'बेस्ट म्युज़िक डिरेक्टर' में अपना नाम लिख कर भेज दिया। वैसे ही 'हीरो' के लिए, 'डिरेक्टर' के लिए। इसमें फ़ायदा कुछ नहीं है, बस हमको शौक था।" तो देखा दोस्तों, प्यारेजी ने किस इमानदारी से यह बात पूरे देश की जनता को बता दी। आपको बता दें कि उस साल प्रतियोगिता में मदन मोहन की 'वो कौन थी' और शंकर जयकिशन का 'संगम' इसी पुरस्कार की दौड़ में शामिल थे। लेकिन इसमें भी कोई शक़ नहीं कि 'दोस्ती' के गीत भी यह पुरस्कार जीतने के उतने ही क़ाबिल थे जितने कि इन दोनों फ़िल्मों के गीत। तो सुनते हैं अब यह गीत और उससे पहले आपको यह भी बता दें कि रफ़ी और मजरूह साहब ने भी इसी फ़िल्म के लिए फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार जीते थे।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कल विश्व बाल श्रम दिवस था, ये गीत बच्चों पर फिल्माए गए बेहतरीन गीतों में एक है.
२. गीतकार शैलेन्द्र ने इस फिल्म में एक छोटी सी भूमिका भी की थी.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"भीख".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी एक बार फिर बधाई, लगता है आप इतने आगे निकल जायेंगें कि दूसरों के लिए आपको पकड़ पाना मुश्किल हो जायेगा, आपके अंक हो गए बढ़ कर -१६. मनु जी, मंजू जी, तपन जी और शमिख जी सबके जवाब सही पर हमेशा की तरह इस बार भी आप सब ज़रा सा पिछड़ गए.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




सुनो कहानी: विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष



विष्णु प्रभाकर की "फ़र्क"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी प्रेमचंद की कहानी बांका ज़मींदार का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर इस विशेष प्रस्तुति में हम लेकर आये हैं विष्णु प्रभाकर की "फ़र्क", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 41 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


मेरे जीने के लिए सौ की उमर छोटी है
~विष्णु प्रभाकर (१२ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९)

विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष
हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी


उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।
(विष्णु प्रभाकर की "फ़र्क" से एक अंश)


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#Twenty-fifth Story, Fark: Vishnu Prabhakar/Hindi Audio Book/2009/20. Voice: Anurag Sharma

Friday, June 12, 2009

जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है...जिंदगी के अनसुलझे रहस्यों पर मनन करती मुकेश की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 109

"ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है!" ज़िंदगी कब क्या इरादा करती है यह तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन हर किसी के दिल मे हसरत ज़रूर होती है ज़िंदगी को खूबसूरत बनाने की। फ़िल्म जगत मे कुछ बड़ा कर दिखाने की हसरत लिए बम्बई पधारे थे संगीतकार बृज भूषण। लेकिन उनकी ज़िंदगी और क़िस्मत का इरादा कुछ और ही था। भले ही उन्होने कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया और उनके कुछ गानें बहुत चले भी, लेकिन बदक़िस्मती उनकी कि वो कभी अपने ज़माने के तमाम चर्चित संगीतकारों की तरह शोहरत की बुलंदियों को नहीं छू सके। बृज भूषण का जन्म श्रीनगर मे हुआ और उनकी पढ़ाई दिल्ली मे हुई। बचपन से ही आकाशवाणी पर वे कार्यक्रम प्रस्तुत किया करते थे। अभिनय और संगीत का शौक उन्हे बम्बई खींच लाया। फ़िल्म 'बिरहन' मे उन्होने बतौर नायक मधुबाला के साथ अभिनय किया। १९६० में फ़िल्म 'पठान' में उन्होने संगीत दिया था पहली बार। उनकी कुछ और संगीत से सजी फ़िल्में हैं 'मिलाप', 'ज़रूरत', 'एक नदी किनारे दो', 'कामशास्त्र' और 'ज़िंदगी और तूफ़ान'। और ऐसे ही एक कमचर्चित गीतकार थे राम अवतार त्यागी जिनका नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा। इस गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने १९७५ की फ़िल्म 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में एक साथ काम किया था और इसी फ़िल्म से मुकेश का गाया हुआ एक गीत लेकर आज हम हाज़िर हुए हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में।

"एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले, मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले, ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है"। गीत के ये बोल सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे ये इस गीतकार और संगीतकार के लिए ही लिखा गया है। "जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है, देखते देखते दुनिया ही उजड़ जाती है" जैसे निराशावादी स्वर इस गाने में गूंजते है। हालांकि गीत का अंत एक आशावादी लहर के साथ होता है जब त्यागी साहब लिखते हैं कि "आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है, पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है, आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है", लेकिन यह बेहद अफ़्सोस की बात है कि इस गीत को लिखने वाले गीतकार और स्वरबद्ध करने वाले संगीतकार के तक़दीरों ने इस क्षेत्र में उनका बहुत ज़्यादा साथ नहीं दिया। गीत का अंत बहुत ही सुंदर बन पड़ता है जब "ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है" बन जाता है "आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है", यानी भाव यह है कि तक़दीर पर भरोसा करने वालों को निराशावादी और मेहनत पर भरोसा करने वालों को आशावादी का पर्याय दिया गया है। उमेश माथुर द्वारा निर्देशित 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में मुख्य कलाकार थे साजिद ख़ान, संजय ख़ान, रेहाना और सुलभा देशपांडे, और प्रस्तुत गीत साजिद ख़ान पर ही फ़िल्माया गया था। दोस्तों, आपको शायद याद हो, कुछ दिन पहले 'सन औफ़ इंडिया' फ़िल्म से शांति माथुर का गाया गीत सुनवाया था हमने आपको जो बाल कलाकार साजिद ख़ान पर फ़िल्माया गया था। 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में बतौर नायक यह वही "नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ" वाले साजिद ख़ान हैं जो मशहूर फ़िल्मकार महबूब ख़ान के बेटे हैं। साजिद ख़ान भी बहुत ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाये। तो लीजिए सुनिए आज का सुनहरा गीत और याद कीजिये इस फ़िल्म से जुड़े सभी कमचर्चित कलाकारों को।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. इस संगीतकार जोड़ी ने इस कामियाब फिल्म के बाद कभी पीछे मुड कर नहीं देखा.
२. इस फिल्म के सभी गीत एकल स्वरों में है, प्रस्तुत गीत है रफी साहब का गाया, लिखा है मजरूह ने.
३. मुखड़े में शब्द है -"सांझ".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
एक और सही जवाब के साथ १२ से १४ अंकों पर पहुँच गए हैं शरद जी, मंजू जी आप काफी करीब थी इस बार. दिलीप जी ने जो कहा वो हमारे भी दिल की आवाज़ है, आशा है हमारे सभी श्रोता उनकी बात पर गौर करेंगे.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी

Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




पत्थर सही ये वक्त, गुजर जाएगा कभी...... महफ़िल-ए-दिलनवाज़ और "पिनाज़"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२०

कीं मानिए, आज की महफ़िल का अंदाज हीं कुछ अलग-सा होने वाला है। यूँ तो हम गज़ल के बहाने किसी न किसी फ़नकार की जीवनी आपके सामने लाते रहते हैं,लेकिन ऐसा मौका कम हीं होता है, जब किसी गज़ल से जुड़े तीनों हीं फ़नकारों (शायर,संगीतकार और गायक) की जानकारी आपको मिल जाए। यह अंतर्जाल की दुआ का असर है कि आज हम अपने इस मिशन में कामयाब होने वाले हैं। तो चलिए जानकारियों का दौर शुरू करते हैं आज की फ़नकारा से जिन्होंने अपने सुमधुर आवाज़ की बदौलत इस गज़ल में चार चाँद लगा दिये हैं। एक पुरानी कहावत है कि "शक्ल पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ", वही कहावत इन फ़नकार पर सटीक बैठती है। यूँ तो पारसी परिवार से होने के कारण हीं कोई यह नहीं सोच सकता कि इन्हें उर्दू का अच्छा खासा ज्ञान होगा या फिर इनके उर्दू का उच्चारण काबिल-ए-तारीफ़ होगा और उसपर सितम यह कि इनका हाल-औ-अंदाज़ भी गज़ल-गायकों जैसा नहीं है। फिर भी इनकी मखमली आवाज़ में गज़ल को सुनना एक अलग हीं अनुभव देता है। अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो १९८०-९० के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले उनके कार्यक्रम के दीवाने रहे हैं। गज़ल-गायकी के क्षेत्र में ऐसे कम हीं लोग हैं, जिन्हें "गोल्ड डिस्क" (स्वर्ण-तश्तरी) से नवाज़ा गया है। लेकिन इन फ़नकारा का जादू देखिए कि न सिर्फ़ इनके खाते में तीन स्वर्ण तश्तरियाँ हैं, बल्कि एक प्लेटिनम तश्तरी भी इनकी शख्सियत को शोभायमान करने के लिए मौजूद है। इनके बारे में और क्या कहूँ, क्या इतना कहना काफी न होगा कि १९९६ में उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हें "शहजादी तरन्नुम" की पदवी दी थी, जो इनकी प्रसिद्धि और इनकी प्रतिभा का एक सबूत है। तो आखिर कौन हैं वो..... बस अपने दिल पर हाथ रखिए और दिल से पूछिए ...जवाब खुद-ब-खुद उभर आएगा और अगर न भी आए तो हम किस मर्ज की दवा हैं।

उस्ताद फैयाज़ खानसाहब के शागिर्द और आगरा घराने के मशहूर क्लासिकल सिंगर "डोली मसानी" के घर जन्मी मोहतरमा "पिनाज़ मसानी" अपने लुक के कारण हमेशा हीं सूर्खियों में रही हैं। खुद उनका कहना है कि "जिस तरह का मेरा व्यक्तित्व है, उसे देखकर लोग मुझे गज़ल सिंगर नहीं, बल्कि पॉप सिंगर कहते हैं।" वैसी उनकी छवि कैसी भी हो, लेकिन उनका ज्ञान किसी भी मामले में बाकी के गज़ल-गायकों से कमतर नहीं है। "पिनाज़" ने गायकी की पहली सीढी उस्ताद अमानत हुसैन खान की उंगली पकड़कर चढी थी और बाद में गज़ल-साम्राज्ञी "मधुरानी" के यहाँ उनकी दीक्षा हुई। वैसे उन्होंने प्रसिद्धि का पहला स्वाद तब चखा जब १९७८ में "सुर श्रृंगार शमसाद" पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया और इस पुरस्कार से खुद चार बार नवाज़े जा चुके प्रख्यात संगीतकार "जयदेव" की उन पर नज़र गई। एक वो दिन था और एक आज का दिन है, "पिनाज़" ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। लगभग पचास फिल्मों और २५ से भी ज्यादा एलबमों में गा चुकी पिनाज़ पहली फ़नकारा हैं, जिन्होंने भारत में ५०० से भी ज्यादा "सोलो" कार्यक्रम दिए हैं। वैसे आजकल कुछ लोगों की यह शिकायत है कि वे "पैसों" के कारण "गज़लों" से दूर भाग रही हैं और बिना सिर-पैर के गानों में अपना वक्त और अपनी गायकी बर्बाद करने पर तुली हैं। इसमें कुछ तो सच्चाई है और इसलिए मैं यह दुआ करता हूँ कि वो वापस अपने पहले प्यार की ओर लौट जाएँ! आमीन!

चलिए अब हम "गायिका" से "गज़लगो" की और रूख करते हैं। "आज भी हैं मेरे कदमों के निशां आवारा", "दर्द की बारिश सही मद्धम ज़रा आहिस्ता चल", "घर छोड़ के भी ज़िंदगी हैरानियों में है", "हश्र जैसी वो घड़ी होती है", "मुझ से मेरा क्या रिश्ता है हर इक रिश्ता भूल गया", "पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पा न था", "कहीं तारे कहीं शबनम कहीं जुगनू निकले" - न जाने ऐसी कितनी हीं गज़लों को तराशने वाले जनाब "मुमताज़ राशिद" ने हीं आज की गज़ल की तख्लीक की है। मुशायरों में उनका जोश से भरा अंदाज और एक गज़ल के खत्म होते-होते दूसरे गज़ल की पेशगी उन्हें औरों से मुख्तलिफ़ करती है। भले हीं आज हम उनके अंदाज-ए-बयाँ का लुत्फ़ न ले पाएँ, लेकिन उनका बयाँ तो हमारे सामने है। अरे ठहरिये अभी कहाँ,उससे पहले गज़ल के "संगीतकार" की भी बातें होनी भी तो जरूरी हैं। पंडित पन्नालाल घोष के शिष्य मशहूर बाँसुरी-वादक "पंडित रघुनाथ सेठ" की मकबूलियत भले हीं आज की पीढी के दरम्यान न हो,लेकिन शास्त्रीय संगीत से जुड़े लोग "बाँसुरी वादन" और "बाँसुरी" के सुधार में उनका योगदान कतई नहीं भूल सकते। "पंडित" जी ने बाँस से बने एक ऐसे यंत्र का ईजाद किया है, जिससे सारे हीं राग एक-सी मेहनत से प्ले किए जा सकते हैं, यहाँ तक कि सबसे नीचले नोट से सबसे ऊँचे नोट तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। इतना सब सुनकर शायद आपको यह लगे कि पंडित जी बस शास्त्रीय संगीत तक हीं अपने आप को सीमित रखे हुए हैं, लेकिन यह बात नहीं है। उन्होंने कई सारे फिल्मी और गैर-फिल्मी गानों के लिए संगीत दिया है। जैसे आज की हीं गज़ल ले लीजिए ...इस गज़ल को संगीतबद्ध करके उन्होंने अपनी "बहुमुखी" प्रतिभा का एक नमूना पेश किया है। "तू वो नशा नहीं जो उतर जाएगा कभी"- आह! यादों की ऐसी पेशकश, यादों का ऐसा दीवानापन कि याद बस याद हीं न रह जाए, बल्कि रोजमर्रे की ज़िंदगी का एक हिस्सा हो जाए तो फिर उस याद को भूलाना क्या और अगर भूलाना चाहो तो भी भूलाना कैसे!! इन्हीं बातों को जनाब "मुमताज़" साहब अपनी प्रेमिका, अपनी हबीबा के बहाने से समझाने की कोशिश कर रहे हैं। उन बहानों,उन दास्तानों की तरफ़ बढने से पहले "मुमताज़" साहब के हीं एक शेर की तरफ़ नज़र करते हैं:

शिद्दते-गमींए-अहसास से जल जाऊंगा
बर्फ़ हूं, हाथ लगाया तो पिघल जाऊँगा


मालूम होता है कि "मुमताज़" साहब ग़म के शायर हैं, तभी तो ग़म की कारस्तानी को बड़े हीं आराम से समझा जाते हैं। १९९१ में रीलिज हुई एलबम "दिलरूबा" में भी "मुमताज़" साहब कुछ ऐसा हीं फ़रमा रहे हैं।मुलाहजा फ़रमाईयेगा :

हल्का कभी पड़ेगा, उभर जाएगा कभी,
तू वो नशा नहीं जो उतर जाएगा कभी।

मैं उसका आईना हूँ तो देखेगा वो ज़रूर,
वो मेरा अक्स है तो संवर जाएगा कभी।

जीना पड़ेगा अपनी खामोशियों के साथ,
वो शख्स तो कदा है बिखर जाएगा कभी।

कितना हसीन है ये मेरी तिश्नगी का ख्वाब,
दरिया जो बह रहा है ठहर जाएगा कभी।

"राशिद" न खत्म हो कभी सीसों की आरजू,
पत्थर सही ये वक्त, गुजर जाएगा कभी।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो,
मेरे इन हाथों में ___ के सिवा कुछ भी नहीं.

आपके विकल्प हैं -
a) तकदीरों, b) जजीरों, c) लकीरों, d) सपनों

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था - बारिशें, और शेर कुछ यूँ था -

कहीं आँसूओं की है दास्ताँ, कहीं मुस्कुराहटों का बयां,
कहीं बरकतों की है बारिशें, कहीं तिशनगी बेहिसाब है...

ओल्ड इस गोल्ड में रंग जमा रहे शरद तैलंग जी ने अब महफिल- ए-ग़ज़ल में भी जौहर दिखा रहे हैं. न सिर्फ सही जवाब दिया बल्कि खुद का लिखा एक शेर भी अर्ज किया कुछ यूँ -

आंसू ही मेरी आंख के बारिश से कम नहीं थे
बस इसलिए बरसात में घर में छुपा रहा...

सही जवाब के साथ हाज़िर हुई मंजू जी भी और रजिया राज जी ने ऐसा शेर या कहें एक ऐसी ग़ज़ल याद दिला दी जो बारिश शब्द सुनते ही सबके जेहन में अंगडाई लेने लगती है -

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो।
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी।
मगर मुज़को लौटादो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो "बारिश" का पानी।

शमिख फ़राज़ जी इस महफिल में चुप बैठना गुनाह है, कुछ फरमाया भी कीजिये :)

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Thursday, June 11, 2009

नदी नारे न जाओ श्याम पैयां पडूँ...जयदेव ने दिया इस लोक गीत को नया जन्म



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 108

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हीरक जयंती पर्व और फिर उसके बाद राज कपूर विशेषांकों के बाद आज हम वापस लौट आये हैं हमारे नियमित अंक पर। दोस्तों, अगर हम डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की बात करें तो सबसे पहले जिस फ़िल्म का नाम हमारे ज़हन मे आता है वह है 'शोले'। इस फ़िल्म मे गब्बर सिंह के रूप में अमजद ख़ान ने वह इतिहास रचा है कि फिर उनके बाद किसी ने भी डाकू की ऐसी सशक्त भूमिका अदा नहीं की। 'शोले' ७० के दशक की फ़िल्म थी। लेकिन अगर हम एक दशक पीछे की ओर जायें, तो उस ज़माने मे डाकू के रूप मे सुनिल दत्त साहब का नाम बड़ा मशहूर था। उनकी ऐसी तमाम फ़िल्मों में जो फ़िल्म सब से ज़्यादा मशहूर हुई वह थी 'मुझे जीने दो'। १९६३ मे बनी इस फ़िल्म का निर्माण भी सुनिल दत्त और उनके भाई सोम दत्त ने मिलकर किया था। यह उनकी दूसरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता, पहली फ़िल्म थी 'ये रास्तें हैं प्यार के' जो १९६३ मे ही बनी थी। 'मुझे जीने दो' की कहानी यह दर्शाती है कि किस तरह प्यार की कोमलता कट्टर से कट्टर डाकू को भी ज़िंदगी की सही राह पर वापस ले जा सकती है। यह कहानी है डाकू जरनैल सिंह (सुनिल दत्त) और चमेली (वहीदा रहमान) की। डाकुओं के लिए मशहूर मध्य प्रदेश के चंबल घाटी में ही इस फ़िल्म के कई दृश्य फ़िल्माये गये थे, जिससे इस फिल्म की जीवंतता और भी बढ़ गयी थी। मोनी भट्टाचार्य निर्देशित इस फ़िल्म के संगीतकार थे जयदेव और गीतकार थे साहिर लुधियानवी। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे सुनिए इसी फ़िल्म से आशा भोंसले का गाया एक गीत।

चमेली के रूप में वहीदा रहमान का अभिनय भी सराहनीय रहा इस फ़िल्म में। लेकिन सुनिल दत्त साहब ही मैदान मार गये और उन्हे इस फ़िल्म के लिए उस साल के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार मिला। इस फ़िल्म से जुड़ी पुरस्कारों की बात करें तो फ़िल्म के निर्देशक का नाम उस साल के 'कान्स फ़िल्म महोत्सव' के लिए मनोनीत किया गया था। और अब आते हैं आज के गीत पर। यूँ तो आशा भोंसले की आवाज़ हर तरह के गानों के लिए नम्बर वन है, लेकिन जब भी लोक शैली मे किसी गीत को गाने की बात आती है तो उनकी आवाज़ से वह खनक, वह लचीलापन, वह शरारत छलकने लगती है कि गीत को सुनते हुए हम वाक़ई भारत के किसी सुदूर गाँव में पहुँच जाते हैं। "नदी नारे न जायो श्याम पैंयाँ पड़ूँ" में भी कुछ इसी तरह का जादू बिखेरा है आशाजी ने। शास्त्रीय और लोक संगीत के रंगों से सराबोर इस गीत से जहाँ एक तरफ़ कृष्ण और गोपियों के दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इस गीत में मुजरे के रंग को भी महसूस किया जा सकता है। सुनिये...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. इस गीत के संगीतकार हैं ब्रिज भूषण.
२. राम अवतार त्यागी के लिखे इस गीत को जिस कलाकार पर फिल्माया गया है उन पर बतौर बाल कलाकार फिल्माया एक गीत ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है.
३. मुखड़े में शब्द है -"इरादा".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मंजू जी इस बार आपका जवाब एकदम सही है, पर शरद जी एक बार फिर आपसे पहले आकर बाज़ी मार ही गए. ठीक ६.३० भारतीय समय अनुसार ओल्ड इस गोल्ड पोस्ट आती है, हमें लगता है की थोडी सी फुर्ती दिखा कर आप शरद जी को टक्कर दे पाएंगीं बहरहाल आज के लिए तो शरद जी को बधाई आपके अंक बढ़ कर हुए - १२. जानिए अपने होस्ट सुजॉय के बारे में कुछ दिलचस्प बातें इस साक्षात्कार में यहाँ
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी

Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




सुजॉय की यह कोशिश वेब रेडियो की बेहतरीन कोशिश है



सुजॉय चटर्जी एक ऐसा नाम जिससे आवाज़ के सभी नियमित श्रोता अब तक पूरी तरह से परिचित हो चुके हैं. रोज शाम वो ओल्ड इस गोल्ड पर लेकर आते हैं एक सोने सा चमकता नगमा हम सब के लिए, और खोल देते हैं बातों का एक ऐसा झरोखा जहाँ से आती खुशबू घोल देती है सांसों में ढेरों खट्टी मीठी गुजरे दिनों की यादें. ओल्ड इस गोल्ड ने पूरे किये अपने १०० एपिसोड और इस एतिहासिक अवसर पर हमने सोचा कि क्यों न आपके रूबरू लेकर आया जाए आपके इतने प्यारे ओल्ड इस गोल्ड के होस्ट सुजॉय चटर्जी को, तो मिलिए आज सुजॉय से -

हिंद युग्म - सुजॉय स्वागत है आपका, हमारे श्रोता ओल्ड इस गोल्ड के माध्यम से आपको जानते हैं. इतने सारे पुराने गीतों के बारे में आपकी जानकारी देखकर कुछ लोग अंदाजा लगते हैं कि आपकी उम्र कोई ४०-५० साल की होगी. तो सबसे पहले तो श्रोताओं को अपनी उम्र ही बताईये. ?


सुजॉय - वैसे अविवाहित लड़कों से उनकी उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए, चलिए फिर भी बता देता हूँ कि मैं ३१ साल का हूँ।

हिंद युग्म - अच्छा अब अपना परिचय भी दीजिये...

सुजॉय - हम लोग बंगाल के रहनेवाले हैं, लेकिन मेरी पिताजी की नौकरी गुवाहाटी, असम में होने की वजह से मेरा जन्म और पूरी पढाई वहीं हुई। इसलिए मैं अपने आप को असम का ही रहनेवाला मानता हूँ। फ़िल्हाल मैं चण्डीगढ़ में नौकरी कर रहा हूँ। पेशे से मैं 'टेलीकाम इंजिनीयर' हूँ, और मेरी दिलचस्पी है हिंदी फ़िल्म संगीत में, फ़ोटोग्राफ़ी में, और खाना बनाने में।

हिंद युग्म - सुजॉय, ये ओल्ड इस गोल्ड का कॉन्सेप्ट कैसे बना ?

सुजॉय - सच पूछिए तो यह कॉन्सेप्ट सजीवजी का है, मैने तो बस उनके इस कॉन्सेप्ट को अंजाम दिया है। एक बात जो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के श्रोताओं को शायद ही मालूम हो कि जितने भी गाने आप इसमें सुनते हैं वे सभी सजीवजी के ही चुने हुए होते हैं। एक बार गीतों की लिस्ट मेरे हाथ लगी कि मैं अपना काम शुरु कर देता हूँ उनके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारियाँ इकट्ठा करने में। कभी कभी बहुत अच्छी बातें हाथ लगती हैं, और कभी कभी थोड़े में ही गुज़ारा करना पड़ता है। लेकिन जो भी है, मुझे बड़ा आनंद आता है इस सीरीज़ के लिए आलेख लिखने में। शायद इसी तरह का कुछ दबा हुआ था मेरे अंदर जो मैं हमेशा से करना चाहता था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का मंच पाकर ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी उस पराधीन चाहत को आज़ाद कर दिया हो!

हिंद युग्म - ओल्ड इस गोल्ड को बहुत पसंद किया जा रहा है. एक श्रोता ने हिंद युग्म को लिखा कि ओल्ड इस गोल्ड पर आकर वो अपने बीते दिनों को जैसे फिर से जी रहे हैं. कैसा लगता है जब इस तरह के फीडबैक मिलते हैं ?

सुजॉय - बहुत अच्छा लगता है जानकर कि श्रोताओं और पाठकों को यह शृंखला पसंद आ रही है। उससे भी ज़्यादा अच्छा तब लगता है जब लोग आलेख में छुपी हुई ग़लतियों को ढूंढ निकालते हैं। इतने मनयोग से लोगों को पढ़ते हुए देखकर लगता है कि जैसे मेरी मेहनत सफल हुई। यह शृंखला लोगों को अपने बीते दिनों को याद करवाने में सहायक का काम कर रही है जानकर बहुत ख़ुशी हुई। आगे भी ऐसा ही प्रयास रहेगा।

हिंद युग्म - ओल्ड इस गोल्ड से पहले से ही आप इन्टरनेट पर विविध भारती समुदाय के माध्यम से बहुत लोकप्रिय थे, कैसे कर पाते हैं इतने सारे कार्यक्रमों को आप अपने जेहन में कैद ?

सुजॉय - शुरु शुरु में 'रेडियो' सुनते हुए ही इन कार्यक्रमों में बोली जा रही ज़रूरी बातों को 'शौर्ट हैंड' की तरह नोट कर लेता था, और फिर बाद में आलेख की शक्ल में लिख लेता था। बाद में जब मेरी 'मोबाइल फ़ोन' की पदोन्नती हुई तो उसमें रिकार्ड करने की क्षमता भी उत्पन्न हुई और तब से इन कार्यक्रमों को उस पर रिकार्ड करके बाद मे लिख लेता हूँ। इसे मेरी हॉबी ही समझिये या पागलपन! शायद ही दुनिया में कोई और इस तरह से रेडियो से रिकार्ड कर कम्प्युटर पर टाइप करता होगा!

हिंद युग्म - और फिर पूरे के पूरे कार्यक्रम को टाइप करना, क्या इन सब में बहुत समय नहीं लगता. ?

सुजॉय - समय तो लगता ही है, आख़िर मेरे भी दो हाथ हैं, और फिर औफ़िस भी जाता हूँ, खाना भी पकाता हूँ। मेरा ऐसा विचार है कि अगर आप किसी काम को शौकिया तौर पर करना चाहें तो आप उसके लिए अपनी व्यस्तता के बावजूद समय निकाल सकते हैं।

हिंद युग्म - ओल्ड इस गोल्ड में गीतों की प्रस्तुति में आपका विविध भारती का अनुभव कितना काम आता है ?

सुजॉय - बहुत ज़्यादा! बचपन से ही विविध भारती के अलग अलग कार्यक्रम और आकाशवाणी गुवाहाटी से प्रसारित होनेवाली फ़िल्म संगीत पर आधारित 'सैनिक भाइयों का कार्यक्रम' सुनते हुए ही बड़ा हुआ हूँ। लेकिन मैने अपनी तरफ़ से जो अच्छा काम किया वह यह था कि इन कार्यक्रमों को सुनने के साथ साथ इनमें दी जा रही जानकारियों को भी मैं अपनी डायरी में और बाद में अपने कम्प्युटर में संग्रहित करता चला गया। और अब हाल यह है कि ६०० से ज़्यादा रेडियो कार्यक्रमों का आलेख मेरे इस ख़ज़ाने मे क़ैद हो चुका है, जिनका मैं भरपूर इस्तेमाल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बिना कंजूसी के कर रहा हूँ। उस वक्त मुझे यह पता भी नहीं था कि एक दिन इन सब का इस्तेमाल यूँ किया जाएगा। मेहनत से किया गया कोई भी काम कभी बेकार नहीं जाता, यह अब मैं मान गया हूँ।

हिंद युग्म - हर गीत की प्रस्तुति से पहले क्या तैयारियां करते हैं ?

सुजॉय - सबसे पहले तो दो चार दिन तक गीतों को मन ही मन मंथन करता हूँ, और उठते बैठते सोते जागते यह सोचता रहता हूँ कि फ़लाना गीत की क्या खासियत है। फिर उसके बाद 'रेडियो' प्रोग्रामों की लिस्ट पे नज़र दौड़ाता हूँ कि कहीं कुछ जानकारियाँ पहले से ही मेरे पास उपलब्ध है या नहीं। फिर उसके बाद इंटर्नेट पर जितना हो सके सर्च करता हूँ, और सारी बातों को आलेख की शक्ल में लिख डालता हूँ। यूँ समझ लीजिए कि १० गीतों का आलेख लिखने के लिए ७ से १० दिन लग ही जाते हैं।

हिंद युग्म - ओल्ड इस गोल्ड के शतक पूरे करने की एक बार फिर बधाई. आप यूहीं अच्छे अच्छे गीत हम सभी को सुनाते रहें. हिंद युग्म को उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि आप इस खोज और आलेख प्रस्तुतीकरण का भरपूर आनंद ले पा रहे हैं. जारी रहे ये सफ़र...सब श्रोताओं की तरफ से शुभकामनायें स्वीकार करें.

सुजॉय - बहुत धन्यवाद! वैसे शुक्रिया मुझे हिंद युग्म का अदा करनी चाहिए मुझे यह मंच देने के लिए। जो काम मैं हमेशा से करना चाहता था और नहीं कर पा रहा था, हिंद युग्म ने मुझे वह काम करने का मौका दिया, इससे ज़्यादा और मैं हिंद युग्म से क्या माँग सकता हूँ। चलते चलते वही लाइन फिर से कहूँगा जो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की हीरक जयंती अंक मे मैने कहा था कि "तुम अगर साथ देने का वादा करो, हम यूँही मस्त नग़में लुटाते रहें"। बहुत धन्यवाद!

ओल्ड इस गोल्ड के श्रोताओं में कुछ ऐसे नाम भी हैं जिन्होंने इस शृंखला के विषय में मीडिया के माध्यम से जानकारी देकर संगीत प्रेमियों को इससे जुड़ने के लिए प्रेरित किया है, मशहूर ब्लॉग "मोहल्ला" के संचालक अविनाश जी भी इन्हीं में से एक हैं जिन पर सुजॉय का जादू जम कर चला है. तभी तो मशहूर साहित्यिक पत्रिका "कथादेश" में उन्होंने अपने "ओल्ड इस गोल्ड" अनुभव को कुछ यूँ व्यक्त किया है. पढिये -

पूरा आलेख पढ़ने के लिए निम्न चित्र पर क्लिक करें


Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




Wednesday, June 10, 2009

जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी राहों में....वाकई कहाँ खो गए वो दिन, वो फनकार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 107

'राज कपूर के फ़िल्मों के गीतों और बातों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'राज कपूर विशेष' की अंतिम कड़ी मे। आपको याद होगा कि गायक मुकेश हमें बता रहे थे राज साहब के फ़िल्मी सफ़र के तीन हिस्सों के बारे में। पहला हिस्सा हम आप तक पहुँचा चुके हैं जिसमें मुकेश ने 'आग' का विस्तार से ज़िक्र किया था। दूसरा हिस्सा था उनकी ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्मों का जो शुरु हुआ था 'बरसात' से। 'बरसात' के बारे में हम बता ही चुके हैं, अब आगे पढ़िये मुकेश के ही शब्दों में - "ज़बरदस्त, अमीन भाई, फ़िल्में देखिये, 'आवारा', 'श्री ४२०', 'आह', 'जिस देश में गंगा बहती है', और 'संगम'।" एक सड़कछाप नौजवान, 'आवारा', जिस पर दिल लुटाती है एक इमानदार लड़की, 'हाइ सोसायटी' के लोगों का पोल खोलता हुआ 'श्री ४२०', 'आह' मे मौत के साये में ज़िंदगी को पुकारता हुआ प्यार, डाकुओं के बीच घिरा हुआ एक सीधा सच्चा नौजवान, 'जिस देश में गंगा बहती है', और मोहब्बत का इम्तिहान, 'संगम', और उसके बाद शुरु होता है तीसरा हिस्सा, बता रहें हैं एक बार फिर मुकेश - "अब होता है अमीन भाई, जोकर का दौर शुरु। आप सब को मालूम ही है कि जोकर सबको हँसाता है और ख़ुद रोता है। देखिये, जोकर के साथ क्या क्या गुज़रा। पहले इनके साथी शैलेन्द्र चले गये। उसके बाद शैलेन्द्र का ग़म भूल भी न पाये थे,कि जयकिशन। उसके बाद पापाजी की बीमारी और यह डर कि यह साया भी हमारे सर से उठ जानेवाला है। फिर 'मेरा नाम जोकर' रिलीज़ हुई, वह भी लोगों को पसंद नही आयी! कर्ज़ा, अमीन भाई, सिर्फ़ पैसों का नहीं था, लेकिन एक फ़िल्म बनानेवाले की हैसीयत से जो अपने चाहनेवालों का कर्ज़ा था, वो उन्हे पूरा मार डाला। हालाँकि कमर टूट चुकी थी, मगर जनाब हिम्मत नहीं हारे। जस्बा वही था कि 'द शो मस्ट गो औन', और तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए उन्होने 'बॉबी' शुरु किया। रेज़ल्ट क्या हुआ मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है।"

'मेरा नाम जोकर' को लेकर राज कपूर की बहुत सारी आशायें थीं। इस फ़िल्म मे उन्होने अपना सारा पैसा भी लगा दिया था। रूस से सर्कस के कलाकार बुलाये गये। यहाँ के बड़े बड़े अभिनेता अभिनेत्रियों को लिया गया। लेकिन इस फ़िल्म के बुरी तरह से पिट जाने से उन्हे बेहद धक्का लगा। लेकिन उन्होने अपने आप को संभाल लिया और आगे चलकर 'बौबी', 'सत्यम शिवम् सुन्दरम‍', 'प्रेम रोग', 'राम तेरी गंगा मैली', और 'हिना' जैसी सफल फ़िल्में बनायी। आज राज कपूर साहब को समर्पित इस ख़ास शृंखला को समाप्त करते हुए आपको सुनवा रहे हैं १९७० की फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' से एक बड़ा ही दिल को छू लेनेवाला गीत "जाने कहाँ गये वो दिन, कहते थे तेरी राह में नज़रों को हम बिछायेंगे।" राग भैरवी के साथ साथ राज कपूर और शंकर जयकिशन ने मिलकर राग शिवरंजनी का भी बहुत इस्तेमाल अपने गीतों में किया है, और यह गीत भी उन्ही में से एक है। इस फ़िल्म में शैलेन्द्र और हसरत के साथ साथ नीरज ने भी कुछ गानें लिखे थे। यह गीत हसरत साहब का लिखा हुआ है। जब भी यह गीत मैं सुनता हूँ न दोस्तों, हर बार मेरी आंखें भर आती हैं, क्यों...मैं नहीं जानता! शायद आपके साथ भी ऐसा होता होगा। हम बस इतना ही कहेंगे कि राज कपूर ने फ़िल्म जगत को जो योगदान दिया है उसका मोल कोई नहीं चुका सकता। आज ना तो राज कपूर हैं, ना शैलेन्द्र, ना हसरत हैं, ना शंकर जयकिशन, और ना ही मुकेश। हम इस पूरी टीम के लिए बस इतना ही कह सकते हैं कि "चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुमको उम्र भर, तुमको न भूल पायेंगे"। हिंद युग्म की तरफ़ से राज कपूर और उनकी पूरी टीम को शत शत नमन!

गीत सुनने के बाद आप हमें यह बताइयेगा कि इस गीत के शुरूआती संगीत को आगे चलकर किस संगीतकार ने अपने किस गीत के शुरूआती संगीत के रूप में इस्तेमाल किया था। और यह भी बताइयेगा कि राज कपूर के किस फ़िल्म के पार्श्व संगीत यानी कि 'बैकग्राउंड म्युज़िक' में इस गाने का इंटरल्यूड बजाया गया है। अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालिये और बने रहिये हिंद-युग्म के संग।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सुनील दत्त इस फिल्म में डाकू जरनैल सिंह बने थे.
२. साथ थी वहीदा रहमान.
३. आशा भोंसले की आवाज़ में इस गीत में श्याम से विनती की जा रही है.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मंजू जी फिल्म का नाम जरूर सही है पर गाना गलत, अरे शरद जी आपसे कैसे भूल हो गयी. रचना जी ने भी खाता खोलने का अच्छा मौका हाथ से गँवा दिया और बाज़ी मारी "डार्क होर्से" सुमित जी ने. सुमित जी २ अंक मिले आपको बधाई. प्रकाश गोविन्द जी पूरी जानकारी दे दी आपने. धन्येवाद, नहीं नहीं कहानी मत सुनाईये, बस ज़रा सी फुर्ती और दिखाईये और विजेता बन जाईये

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




छायावादी कविता-गायन में इस बार गायें पंत की कविता 'प्रथम रश्मि'



गीतकास्ट प्रतियोगिता की शुरूआत बहुत ही धमाकेदार रही। आवाज़ को उम्मीद से अधिक प्रतिभागी मिले और आदित्य प्रकाश को उनकी पसंद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को उम्मीद से बेहतर गायकी और संगीत-संयोजन। हम जब गीतकास्ट प्रतियोगिता की शुरूआत करने जा रहे थे तभी तय कर लिया था कि हिन्दी के सभी महत्वपूर्ण कवियों की कम से कम एक कविता को स्वरबद्ध/सुरबद्ध ज़रूर करवायेंगे। और यह कहना अनुचित नहीं होगा कि स्वप्न मंजूषा 'शैल' और कृष्ण राज कुमार के प्रयास ने हमें हौसला दिया और प्रायोजकों को विश्वास की इस तरह का प्रयास भी सराहा जा सकता है।

पिछले रविवार डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते पर जब स्वप्न मंजूषा और कृष्ण राज कुमार की आवाज़ उभरी तो उसे दुनिया ने सुना और सर-आँखों पर बिठा लिया।

जैसाकि हमने अपनी पहली प्रतियोगिता के परिणाम को प्रकाशित करते समय इस बात का ज़िक्र किया था कि हम शुरूआत में छायावाद के चारों प्रमुख कवियों की कविताओं के साथ यह अभिनव प्रयोग करेंगे, आज इस कड़ी में हम सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध कविता 'प्रथम रश्मि' को आपके समक्ष रख रहे हैं। इस बार आपको इसी कविता को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करके हमें भेजना है।

आपको यह जानकर खुशी होगी कि इस बार से इनाम की राशि भी बढ़ाई जा रही है। अब से प्रथम और द्वितीय दो पुरस्कार दिये जायेंगे । प्रथम विजेता को रु 2000 का नग़द इनाम और द्वितीय स्थान के विजेता को रु 1000 का नग़द इनाम दिया जायेगा। इस बार के इन इनामों के प्रायोजक हैं शेर बहादुर सिंह जोकि अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के वरिष्ठ सदस्य तथा इसके न्यू यार्क चैप्टर के अध्यक्ष हैं।

गीत को केवल पढ़ना नहीं बल्कि गाकर भेजना होगा। हर प्रतिभागी इस गीत को अलग-अलग धुन में गाकर भेजे (कौन सी धुन हो, यह आपको खुद सोचना है)।

1) गीत को रिकॉर्ड करके भेजने की आखिरी तिथि 30 जून 2009 है। अपनी प्रविष्टि podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।
2) इसे समूह में भी गाया जा सकता है। यह प्रविष्टि उस समूह के नाम से स्वीकार की जायेगी।
3) इसे संगीतबद्ध करके भी भेजा जा सकता है।
4) श्रेष्ठ दो प्रविष्टियों को शेर बहादुर सिंह की ओर से क्रमशः रु 2000 और रु 1000 के नग़द इनाम दिये जायेंगे।
5) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को डलास, अमेरिका के एफ॰एम॰ रेडियो स्टेशन रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रम 'कवितांजलि' में बजाया जायेगा। इस प्रविष्टि के गायक/गायिका से आदित्य प्रकाश (कार्यक्रम के संचालक) कार्यक्रम में सीधे बातचीत करेंगे, जिसे दुनिया में हर जगह सुना जा सकेगा।
6) अन्य 2 प्रविष्टियों को भी कवितांजलि में बजाया जायेगा।
7) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को 'हिन्दी-भाषा की यात्रा-कथा' नामक वीडियो/डाक्यूमेंट्री में भी बेहतर रिकॉर्डिंग के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है।
8) श्रेष्ठ प्रविष्टि के चयन का कार्य आवाज़-टीम द्वारा किया जायेगा। अंतिम निर्णयकर्ता में आदित्य प्रकाश का नाम भी शामिल है।
9) हिन्द-युग्म का निर्णय अंतिम होगा और इसमें विवाद की कोई भी संभावना नहीं होगी।
10) निर्णायकों को यदि अपेक्षित गुणवत्ता की प्रविष्टियाँ नहीं मिलती तो यह कोई ज़रूरी भी नहीं कि पुरस्कार दिये ही जायँ।

सुमित्रा नंदन पंत की 'प्रथम रश्मि' कविता से कुछ पंक्तियों को हटाया गया है ताकि संगीतबद्ध करना आसान हो और ज्यादा लम्बी रिकॉर्डिंग न हो।

पंत की कविता 'प्रथम रश्मि'

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने यह गाना?

सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊंघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।

स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।

कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!

छिपा रही थी मुख शशिबाला,
निशि के श्रम से हो श्री-हीन
कमल क्रोड़ में बंदी था अलि
कोक शोक में दीवाना।

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनी
पाया यह स्वर्गिक गाना ............

हम समय-समय पर इस तरह का आयोजन करते रहेंगे। आप भी अपनी ओर से हिन्दी के स्तम्भ कवियों की कविताओं को सुरबद्ध करने के काम को प्रोत्साहित करना चाहते हों, अपनी ओर से इनाम देना चाहते हों, तो संपर्क करें।

रिकॉर्डिंग संबंधी सहायता यहाँ उपलब्ध है।

Tuesday, June 9, 2009

लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया...राज का अभिनय अपने चरम पे था इस फिल्म में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 106

'राज कपूर विशेष' मे आज गीतकार शैलेन्द्र और राज कपूर के साथ की बात। शैलेन्द्र एक ऐसे रोशन सितारे हैं जो अपने बहुत छोटे से संगीत सफ़र में ही न जाने कितने अमर गीत हमें दे गये हैं। उनके ये अमर गीत दुनिया के होंठों पर सदियों तक थिरकते रहेंगे। शैलेन्द्र भाषा और साहित्य के विद्वान थे। रूसी साहित्य जानने के लिए उन्होने रूसी भाषा सीखा। रबींद्रनाथ टैगोर की नोबल जयी कृति 'गीतांजली' को समझने के लिए उन्होने बंगला भी सीखा। राज कपूर उन्हे पुश्किन कहा करते थे। सन् १९६६ मे शैलेन्द्र निर्माता बने और फणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी 'मारे गये गुलफ़ाम' को सेल्युलायड के परदे पर उतारा 'तीसरी क़सम' के शीर्षक से। यह फ़िल्म 'सेल्युलायड' के परदे पर लिखी गयी एक कविता है। आज इस फ़िल्म को फ़िल्म इतिहास का एक सुनहरा अध्याय के रूप मे भले ही स्वीकारा जाये, उस समय यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी थी और इस फ़िल्म से निर्माता शैलेन्द्र को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। कई कड़वे अनुभवों से उन्हे गुज़रना पड़ा था। कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उन्ही लोगों ने उनको पहुँचाया भारी नुकसान। शैलेन्द्र की इस महत्वाकांशी फ़िल्म को बाद मे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन अफ़सोस, वह दिन देखने के लिए शैलेन्द्र जीवित नहीं थे। बासु भट्टाचार्य निर्देशित और राज कपूर - वहीदा रहमान अभिनीत इस फ़िल्म का एक गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। आशा भोंसले और साथियों की आवाज़ों में यह गीत आपको सुदूर किसी गाँव मे हो गयी किसी के बिटिया की शादी मे ले जायेगा। लोक रंग मे रंगा यह गीत बेहद सुरीला है, मिट्टी की ख़ुशबू लिए हुए है जिसकी महक आज भी वैसी भी बरकरार है। संगीतकार और कोई नहीं, शंकर जयकिशन ही हैं।

दोस्तों, ३० अगस्त २००६ को शैलेन्द्र के जन्मदिवस के उपलक्ष पर दुबई स्थित '१०४.४ आवाज़ FM' रेडियो चैनल पर शैलेन्द्र के बेटे मनोज शैलेन्द्र से एक मुलाक़ात प्रसारित हुआ था, जिसका एक अंश मैं यहाँ पर प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जिसे पढ़कर आप को शैलेन्द्र, राज कपूर और 'तीसरी क़सम' से जुड़ी कई बातें जानने को मिलेंगी।

प्रश्न: अच्छा मनोज साहब, मैं आपसे यह सवाल करना चाहूँगा कि फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बाबा (शैलेन्द्र) की ज़िंदगी में एक अजीब मोड़ लेकर आयी और यही फ़िल्म कारण बनी उनके इस दुनिया से जाने का, बल्कि मैने यहाँ तक पढ़ा है कि जब यह फ़िल्म 'रिलीज़' हुई तो उसके 'प्रिमीयर' मे भी बाबा नहीं गये थे।

मनोज: जी हाँ, यह सच है। बाबा तो एक कलाकार थे और जज्बातों में बह जाया करते थे। उनको हरदम यह था कि जब फ़िल्म बनने लगी, तो काफ़ी परेशानियाँ झेलनी पड़ी। राज कपूर अपनी फ़िल्मों में काफ़ी बिज़ी थे, पहले 'संगम', फिर 'मेरा नाम जोकर', इसलिए उनसे डेट्स मिलना मुश्किल हो रहा था। और ख़ास तौर से इसी वजह से फ़िल्म मे देर होती चली गयी। और बाबा ठहरे कलाकार आदमी, दूसरे निर्मातायों की तरह उन्होने किसी फ़िल्म वितरक से पैसे नहीं लिए अपनी फ़िल्म को प्रायोजित करने के लिए। बल्कि उन्होने अपना जमा पूंजी लगा दी और ख़ुद पैसे उधार लिए अधिक ब्याज पर। जितनी फ़िल्म देर होती चली गयी, ब्याज और बढ़ता चला गया। जैसे जैसे फ़िल्म बनती गयी, उन्होने देखा कि उनके सारे दोस्त उन्हे हतोत्साहित करने मे लगे हैं। बाबा ने हमें बताया था कि जब फ़िल्म पूरी बन गयी तब राज कपूर ने उन्हे फ़िल्म के क्लाइमैक्स को बदलने का सुझाव दिया क्योंकि उन्हे लगा कि एक दुखद अंत फ़िल्म को कामयाब नहीं बना सकती। राज साहब ने अपनी फ़िल्म 'आह' का उदाहरण भी दिया जो दुखद अंत की वजह से फ्लॉप हो गयी थी। लेकिन बाबा कहानी मे कोई फेर बदल नहीं करना चाहते थे। राज साहब ने फिर उनसे उस फ़िल्म को 'आर.के' बैनर तले रिलीज़ करने का सुझाव दिया ताकी फ़िल्म वितरक जुटाने मे सुविधा हो। बाबा इस बात को भी नहीं माने और 'इमेज मेकर्स' के साथ ही बने रहे। यह बहुत ग़लत धारणा लोगों में फैली है कि 'तीसरी क़सम' के फ़्लाप हो जाने से जो आर्थिक क्षति हुई थी, उसने बाबा की जान ले ली। यह ग़लत है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त मै १५ साल का था और एक दिन बाबा अपने कमरे मे अकेले बैठे थे। मैं उनके कमरे मे गया और मालूम नहीं क्यों उन्होने मुझसे कहा कि 'देखो, मैं अपने हर गीत के लिए बहुत बड़ा पारिश्रमिक लेता हूँ, आज शंकर जयकिशन के हाथ ५० फ़िल्में हैं, और उनमें हर फ़िल्म मे अगर मैं एक गीत भी लिखूँ तो इतना कमा सकता हूँ कि सारा कर्ज़ अदा हो जाये।' इससे यह साबित होता है कि आर्थिक कारण नहीं था बाबा के गुजर जाने का।"

दोस्तों, इस इंटरव्यू का पूरा आलेख मेरे पास उपलब्ध है जिसे हम 'हिन्द-युग्म' पर ज़रूर प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे, फिलहाल 'तीसरी क़सम' की याद ताज़ा कीजिये यह गीत सुनकर।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. "दा शो मस्ट गो ऑन" यही नारा था इस अमर फिल्म का.
२. मुकेश की आवाज़ में राज का दर्द.
३. दूसरे अंतरे की अंतिम पंक्ति में ये शब्द है -"साया".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह शरद जी पूरे दस अंकों के लिए बधाई आपको और भूल सुधार के लिए धन्यवाद. जी हाँ ये एक कहानी ही है, लिखते समय उपन्यास लिखा गया गलती से. पराग जी आपने सही कहा, ये गीत अन्य गीतों के मुकाबले कम ही सुना गया है पर जैसा मनु ने कहा मधुर धुन, शब्द और फिल्मांकन के कारण वाकई ये गीत बेहद मीठा और प्यारा लगता है. रचना जी और निर्मला जी आप भी बने रहिये इस महफिल में.

राजकुमार जी ने शरद तैलंग जी को सही पदवी दी और एक पहेली उन्होंने भी पूछ डाली। हम तो राज जी को होस्ट के तौर पर लायेंगे और चाहेंगे कि प्रस्तुतिकरण को और दिलकश बनायें।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी

Listen Sadabahar Geetओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




आप आएँगे करार आ जाएगा.. .. महफ़िल-ए-चैन और "हुसैन"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१९

से कितने सारे गज़ल गायक होंगे जो यह दावा कर सकते हों कि उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। अगर इतना भी हो तो बहुत है, लेकिन अगर मैं यह पूछूँ कि किनका यह सौभाग्य रहा है कि उनके संगीत एलबम का विमोचन खुद भारत के प्रधानमंत्री ने किया हो , तो मुझे नहीं लगता कि आज के फ़नकार को छोड़कर और कोई होगा। यह समय और किस्मत का एक खेल हीं कहिए को जिनको खुदा ने धन नहीं दिया, उन्हें ऐसा बाकपन परोसा है कि सारी दुनिया बस इसी एक "तमगे" के लिए उनसे रश्क करती है, आखिर करे भी क्यों न, इस तमगे, इस सम्मान के सामने बाकियों की क्या बिसात! यह सन् ७६ की बात है, जब हमारे इन फ़नकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति "श्री फखरूद्दीन अली अहमद" के सामने अपनी गज़ल की तान छेड़ी थी। इस मुबारक घटना के छह साल बाद यानी कि १९८२ में इनके "रिकार्ड" को श्रीमती इंदिरा गाँधी ने अपने कर-कमलों से विमोचित किया था। सरकारी महकमों तक में अपनी छाप छोड़ने वाले इन फ़नकारों( दर-असल आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वे महज एक फ़नकार नही, बल्कि दो हैं, जी हाँ हम गायक-बंधुओं की बात कर रहे हैं) ने ना सिर्फ़ गज़ल-गायकी का नाम रोशन किया है, बल्कि गज़ल के साथ "शास्त्रीय संगीत" का मिश्रण कर भारतीय संस्कृति के अमूल्य धरोहरों की भी निगेहबानी की है। यह खुदा की दुआ है कि १९५८ से संगीत का सफर शुरू करने वाले इन फ़नकारों की साधना अब तक जारी है। वैसे इतनी सारी जानकारी उन फ़नकारों की पहचाने के लिए काफ़ी होगी । लेकिन अगर फिर भी न पहचाना हो तो इतना बता दूँ कि कुछ सालों पहले "यश चोपड़ा" की एक महत्वाकांक्षी फिल्म, जो कि भारत-पाकिस्तान में बसे लोगों के रिश्तों को मद्देनज़र रखकर बनाई गई थी, में एक बेहद हीं खूबसूरत क़व्वाली को गाकर इन दोनों ने फ़िल्मी दुनिया में अपना कदम रखा था।

"ग्वालियर घराने" से ताल्लुक रखने वाले "उस्ताद अहमद हुसैन" और "उस्ताद मोहम्मद हुसैन", जिन्हें दुनिया एक साथ "हुसैन बंधु" या फिर "हुसैन ब्रदर्स" के नाम से जानती है के पिता जी "उस्ताद अफ़ज़ल हुसैन जयपुरी" भी एक जमाने में गज़ल और ठुमरी-गायन में अपना मुकाम रखते थे। यही कारण है कि इन दोनों की शास्त्रीय संगीत में बचपन से हीं रूचि रही। यह बात वाकई काबिल-ए-गौर है कि संगीत के क्षेत्र में भाईयों की ऐसी कोई दूसरी जोड़ी नहीं है ,जिन्होंने एक साथ महफ़िलों से लेकर एलबमों तक गज़ल और भजन को बराबर का सम्मान दिया हो और जिसे प्रशंसकों से भी भरपूर प्यार मिला हो। "हुसैन बंधु" की सबसे बड़ी खासियत यह कि इन्होंने कभी भी पैसों के लिए नहीं गाया, बल्कि जरूरत आने पर मुफ़्त में भी अपने कार्यक्रम किए। इनकी नेकदिली और दरियादिली के कई सारे किस्से प्रसिद्द हैं। इन्होंने अपने गायन में छुपी "आध्यात्मिक शक्ति" का प्रयोग कैंसर से पीड़ित इंसानों के उपचार के लिए भी किया है। अब जब कोई शख्स दूसरों के लिए इतना करे तो फिर उसके लिए खुदा कुछ न करे, ऐसा हो हीं नहीं सकता। "हुसैन बंधुओं" के बारे में कहने को बहुत कुछ है, लेकिन मुझे लगता है कि इसके लिए एक अलग अंक की जरूरत होगी, इसलिए अब सीधे गज़ल की ओर रूख करता हूँ।

आज हो जो गज़ल आपके सामने पेश कर रहे हैं, उसे हमने "गोल्डन मोमेंट्स- प्यार का जज़्बा" एलबम से लिया है। इस गज़ल के बोल जनाब दिनेश ठाकुर ने लिखे हैं। यूँ तो हसरत जयपुरी साहब "हुसैन बंधुओं" की पसंद रहे हैं,लेकिन ऐसा नहीं है कि इन दोनों ने दूसरे शायरों से परहेज किया हो। अन्य शायरों के साथ भी इन दोनों भाईयों ने कई सारी नामचीन गज़लें दी हैं। वैसे आपको यह बता दूँ कि "जयपुर" का होने के कारण और "हसरत जयपुरी" से इतना बढिया रिश्ता होने के कारण कई लोग यह भी मानते हैं कि "हसरत जयपुरी" हीं इनके पिता हैं। शुक्र है कि मुझे उनके पिता का नाम मिल गया, नहीं तो मुमकिन था कि मैं भी यही मान बैठता । चलिए अब कुछ लीक से हटकर बात करता हूँ। आप लोगों ने यह महसूस किया होगा कि आज का अंक बाकी के अंकों से काफ़ी छोटा है, इसका कारण यह है कि मुझे यह पूरा का पूरा आलेख बेमन से लिखना पड़ा। दर-असल मैं जब यह लिखने बैठा तभी मुझे "हिन्दी साहित्य के तीन बड़े कवियों की दुर्घटना में मृत्यु" की जानकारी मिली। पूरा ब्योरा जानने के लिए यहाँ जाएँ। इसके बाद मै लाख कोशिशों के बावजूद अपने मन को संयत न कर सका। भले हीं मेरे पास "हुसैन बंधुओं" के बारे में अच्छी-खासी जानकारी थी, लेकिन जब दिल और दिमाग हीं काम न करे तो उन जानकारियों का क्या फ़ायदा। वैसे मैं आपको यह विश्वास दिलाता हूँ कि आने वाले कुछ दिनों में मैं इन दोनों बंधुओं पर एक आलेख लेकर हाजिर होऊँगा, लेकिन आज मुझे मुआफ़ कीजिए। ग़म की इस घड़ी में "हसरत जयपुरी" का लिखा एक शेर मुझे याद आ रहा है, जिसे संयोगवश "हुसैन बंधुओं" ने हीं अपनी आवाज़ से सजाया था। ध्यान देंगे:

आपके दम से हीं कायम है निज़ाम-ए-ज़िंदगी,
एक पल के वास्ते भी छोड़ न जाना हमें।


इस बात का ग़म है कि हमें वे लोग छोड़ गएं,लेकिन उनके शब्द हमारे बीच हमेशा जिंदा रहेंगे, क्योंकि हम सबने उनकी कला से इश्क किया था और इश्क के दरिया में उतरने वाले डूब कर भी उभर जाते हैं। :

इश्क के दरिया में जब आ जाएगा,
दिल ग़मों से खुद उभरता जाएगा।

तोड़ देगा ये हदों को एक दिन,
बहते पानी को जो रोका जाएगा।

हम हुए बर्बाद भी तो देखना,
कुछ सबब तुमसे भी पूछा जाएगा।

मुंतज़िर है हम इसी उम्मीद पर,
आप आएँगे करार आ जाएगा।

हश्र के दिन को भी हमारी रूह को,
आप के कूचे में ढूँढा जाएगा।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

कहीं आँसूओं की है दास्ताँ, कहीं मुस्कुराहटों का बयां,
कहीं बरकतों की है ___, कहीं तिशनगी बेहिसाब है...

आपके विकल्प हैं -
a) बारिशें, b) रहमतें, c) बरसातें, d) तोहमतें

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का सही शब्द था -"अँधेरा". पर कोई भी श्रोता सही जवाब नहीं दे पाया. सब ने "घर जला" कर उजाला होने की बात सोच ली, पर मैकदे में जहाँ घर जलाकर शराब पी जाए वहां उजाला कैसे हो सकता है. शायर ने बहुत समझदारी से यहाँ विरोधाभासी शब्दों का तालमेल बिठाया है. सही शेर कुछ यूँ था -

इसीलिए तो अँधेरा है मैकदे में बहुत,
यहाँ घरों को जलाकर शराब पीते हैं ...

मंजू जी और जाकिर जी आपका महफ़िल में स्वागत है. रचना जी, सुमित जी, फ़राज़ जी, आशीष जी, मनु जी, कुलदीप अंजुम जी, आप सब ने कोशिश की...आज आप सब सही जवाब देंगें हमें यकीन है. बहरहाल कुछ शेर जो आप सब ने याद दिलाये उनमें से कुछ में "अँधेरा" शब्द भी आया है. कुछ चुनिन्दा शेर गौर फरमाएं-

चिरागो ने जब अंधेरो से दोस्ती की है,
जला के अपना घर हमने रोशनी की है। (सुमित)

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही (आशीष)

उजालो में अब हमे दिखाई नहीं देता
अँधेरे में कोई बाहर जाने नहीं देता (कुलदीप अंजुम)

चलिए महफिले शाद रहे आबाद रहे हम तो बस यही दुआ करेंगे...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Monday, June 8, 2009

मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के...सफलता की राह में मुड़ कर न देखा राज ने कभी पीछे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 105

'राज कपूर को समर्पित इन विशेषांकों में हम न केवल राज साहब के फ़िल्मों के गाने आप तक पहुँचा रहे हैं, बल्कि उनके साथ अन्य कलाकारों से जुड़ी बातें भी साथ साथ बताते जा रहे हैं। इसी अंदाज़ को क़ायम रखते हुए आज हम बात करेंगे राज कपूर और मन्ना डे के साथ की। उन दिनों मुकेश राज कपूर का प्लेबैक कर रहे थे। ऐसे मे मन्ना डे किस तरह से राज कपूर की आवाज़ बने, पढ़िये मन्ना डे साहब के ही शब्दों में जो उन्होने विविध भारती को एक बार बताया था - "संगीतकार शंकर मुझसे हमेशा कहते थे कि आप की आवाज़ को संगीतकारों ने ठीक से 'एक्सप्लायट' नहीं कर पाये; जब भी सही मौका आयेगा, मैं आपको गवाउँगा। और वह फ़िल्म थी 'चोरी चोरी'। जब मैं 'चोरी चोरी' फ़िल्म का एक गीत गाने के लिए 'रिकॉर्डिंग स्टूडियो' पहुँचा, लताजी भी वहीं पर थीं। फ़िल्म के निर्माता चेटानी साहब ने शंकर से कहा कि 'यह बहुत 'इम्पार्टेंट' गाना है, मुकेश को क्यों नहीं बुलाया?' यह सुनकर मेरा तो दिल बिल्कुल बैठ गया। शंकर जयकिशन ने उन्हे समझाया कि मन्ना डे की आवाज़ मे यह गीत ज़्यादा अच्छा लगेगा। जब गाना 'रिकार्ड' हुआ तो राज कपूर साहब ने मुझे कहा कि 'मुझे पता ही नहीं था कि आप इतना अच्छा गाते हैं।' और इस तरह से मेरी 'एंट्री' 'रोमांटिक' गानों में हुई, 'थैंक्स टू शंकर'!" तो देखा दोस्तों आपने कि किस तरह से मन्ना दा राज कपूर की टोली में शामिल हुए थे! यह तो थी फ़िल्म 'चोरी चोरी' के "ये रात भीगी भीगी" गीत के 'रिकॉर्डिंग‍' का क़िस्सा। लेकिन आज राज कपूर और मन्ना डे की जोड़ी का जो गीत हम लेकर आये हैं वह है फ़िल्म 'श्री ४२०' का। आशा भोंसले, मन्ना डे और साथियों की आवाज़ों में बेहद लोकप्रिय यह क्लब गीत है "मुड़ मुड़ के ना देख मुड़ मुड़ के"।

'श्री ४२०' १९५५ की सबसे बड़ी ब्लाकबस्टर फ़िल्म थी। राज कपूर, नरगिस, नादिरा और ललिता पवार के जानदार अभिनय तो थे ही, साथ ही शंकर जयकिशन और हसरत-शैलेन्द्र के धूम मचाते गीत संगीत ने इस फ़िल्म को अमर बना दिया है। फ़िल्म का हर एक गीत कहानी के साथ कहानी को आगे बढ़ाते हुए ले जाता है। गीतों के मूड और रफ़्तार भी किरदारों के मन की स्थिति को बयाँ करते हैं। जैसे कि इसी गीत को ले लीजिये, गीत शुरु होता है नादिरा की धीमी नशीली चाल के साथ, लेकिन बाद मे राज कपूर वाले हिस्से मे उसकी रफ़्तार तेज़ हो जाती है जो उनके दिल की हलचल और बेक़रारी की स्थिति को दर्शाता है। ऐसा कहा जाता है कि यह गीत शुरु मे फ़िल्म मे नही था। लेकिन राज कपूर को जब नादिरा की नृत्यकला के बारे मे पता चला तो उन्होने ख़ास उनके नृत्य को फ़िल्म मे जगह देने के लिए एक 'सिचुयशन' बनाया और शंकर जयकिशन से गाना तैयार करने को कहा। नादिरा फ़िल्म मे खलनायिका की भूमिका मे थीं, इसलिए उसी अंदाज़ में यह गाना लिखा गया, संगीतबद्ध किया गया और उसी मादक अंदाज़ मे गाया भी गया। ट्रम्पेट साज़ का बेहद ख़ूबसूरत इस्तेमाल इस गीत मे सुनने को मिलता है। तो अब और देरी किस बात की, सुनिए और झूमिये।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. एक मशहूर साहित्यकार के मशहूर उपन्यास पर आधारित थी ये फिल्म.
२. फिल्म के निर्माता ने अपना सब कुछ झोंक दिया इस फिल्म में, पर फिल्म को मिले राष्ट्रपति सम्मान को पाने के लिए जीवित न रह सके.
३. इस लोक गीत रुपी गीत के मुखड़े में शब्द है -"पियारी".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका स्कोर ८ पर आ गया है बधाई...आपने अपने बारे में जो बताया उसे जानकार ख़ुशी हुई, अपने अनुभव कभी हम सब के साथ बांटिएगा. पराग जी आपकी स्पिरिट कबीले तारीफ है. बहुत बहुत शुभकामनाएं. मनु जी और मनोज मिश्र जी बने रहिये इस महफ़िल में.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रोज़-ए-अव्वल ही से आवारा हूँ, आवारा रहूंगा...गुलज़ार साहब का ऐलान उस्ताद अमजद अली खान के संगीत में.



बात एक एल्बम की (9)
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - वादा
फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - उस्ताद अमजद अली खान, गुलज़ार, रूप कुमार राठोड, साधना सरगम.


एल्बम "वादा" से अब तक आप तीन रचनायें सुन चुके हैं. आज आपको सुनवाते हैं दो और नायाब गीत इसी एल्बम से. गुलज़ार साहब पर हम आवाज़ पर पहले भी काफी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं- मैं इस जमीन पर भटकता रहा हूँ सदियों तक और गुलज़ार - एक परिचय जैसे आलेखों में. महफ़िल-ए-ग़ज़ल में जब भी उनका जिक्र छिड़ा, तख्लीक-ए-गुलज़ार और परवाज़-ए-गुलज़ार से फिजा गुलज़ार नुमा हो गयी. फिल्मों में उनके लिखे ढेरों गीत हमेशा हमेशा संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज़ करेंगें पर ये भी एक सच है कि उन्होंने ढेरों गैर फिल्म संगीत एल्बम को अपनी कलम से प्रेरणा दी. उनके साथ काम कर चुके ढेरों कलाकारों ने जब भी कभी फिल्मों से इतर अपनी कला का मुजाहरा करने का मन बनाया गुलज़ार साहब की कविताओं/ ग़ज़लों ने उन्हें अपने प्रेम पाश में बाँध लिया. फिर चाहे वो भूपेंद्र सिंह हो, सुरेश वाडेकर, भूपेन हजारिका, विशाल भारद्वाज हो या फिर जगजीत सिंह, कोई भी उनकी कविताओं के नर्मो-नाज़ुक जादू से बच नहीं पाया. गुलज़ार साहब खुद जिन फनकारों के मुरीद रहे उनके काम को जन जन तक पहुंचाने में भी उनकी अहम् भूमिका रही. मिर्जा ग़ालिब और अमृता प्रीतम के नाम इनमें प्रमुख हैं. अमृता प्रीतम की कविताओं को जिस एल्बम के माध्यम से गुलज़ार ने नयी सांसें दी उस एल्बम का भी हम आवाज़ पर ज़िक्र कर चुके हैं.

अब इसे दुर्भाग्य ही कहिये कि उनके बहुत से उन्दा काम पर्याप्त प्रचार और स्टार वेल्यू के अभाव में उतनी कमियाबी को नहीं पा सके जिसके कि वो हक़दार थे. "बूढे पहाडों पर" और "वादा" उनकी ऐसी ही कुछ अल्बम्स हैं. हाँ पर उनके दीवानों की कहीं कोई कमी नहीं है, जो हर उस एल्बम को अपने संग्रह का हिस्सा बनाते हैं जिनसे उनका नाम जुड़ जाता है. अक्सर उनकी कवितायें गहरे भाव और सरल शब्दों में गुंथी होने के कारण संगीतकारों को उन्हें स्वरबद्ध करने के लिए प्रेरित करती ही है. विशाल ने उनकी कविता "यार जुलाहे" को बहुत खूबसूरत रूप से स्वरबद्ध किया था. ऐसे में उस्ताद अमजद अली खान साहब भी कहाँ पीछे रहते भला. वादा एल्बम में भी गुलज़ार साहब के लिखे कुछ बेहद गहरे उतरते शब्दों को खान साहब ने बहुत प्यार से सुरों में पिरो कर पेश किया है.

"रोजे-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा..." कहानी है एक अनजाने अजनबी खला में भटकते यायावर की. गीत से पहले और बीच बीच में गुलज़ार साहब की आवाज़ में कुछ पंक्तियाँ है, संगीत ऐसा है कि यदि ऑंखें बंद सुनेंगें तो आप खुद को इतना हल्का महसूस करेंगे कि कहीं अन्तरिक्ष की खलाओं में भ्रमण करते हुए पायेंगें, जहाँ गुलज़ार साहब आपको चेताते मिलेंगें -"उल्काओं से बच के गुजरना, कॉमेट हो तो पंख पकड़ना..." तो चलिए हमारे साथ आज इस सफ़र में सुनिए ये गीत एल्बम "वादा" से.



अब सुनिए एक और डूबता गीत, जो पहले गीत से बिलकुल अलग रंग का है. रूप कुमार राठोड के गाये बहतरीन गीतों में इसका शुमार है. सुनिए इसी एल्बम से -"डूब रहे हो और बहते हो..." जहाँ गुलज़ार साहब लिखते हैं - "याद आते हैं वादे जिनके, तेज़ हवा में सूखे तिनके, उनकी बातें क्यों कहते हो....."



(जारी....)



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की.यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.

Sunday, June 7, 2009

ओ बसन्ती पवन पागल न जा रे न जा रोको कोई...मगर रोक न पायी कोई सदा राज को जाने से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 104

'राज कपूर विशेष' की चौथी कड़ी मे आप सभी का स्वागत है। राज कपूर कैम्प की एक मज़बूत स्तम्भ रहीं हैं लता मंगेशकर। दो एक फ़िल्मों को छोड़कर राज साहब की सभी फ़िल्मों की नायिका की आवाज़ बनीं लताजी। राज कपूर और लताजी के संबंध भी बहुत अच्छे थे। इसी सफल फ़िल्मकार-गायिका जोड़ी के नाम आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह शाम! दोस्तों, २ जुन १९८८ को राज कपूर इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ गये थे। इसके कुछ ही दिन पहले लताजी का एक कॊन्‍सर्ट लंदन मे आयोजित हुआ था जिसका नाम था 'लता - लाइव इन इंगलैंड'। इस कॊन्‍सर्ट की रिकार्डिंग मेरे पास उपलब्ध है दोस्तों, और उसी मे लताजी ने राज कपूर की दीर्घायू कामना करते हुए जनता से क्या कहा था वो मैं आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - "भाइयों और बहनों, हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रोड्युसर, डायरेक्टर, हीरो, और किसी हद तक मैं कहूँगी म्युज़िक डायरेक्टर भी, राज कपूर साहब बहुत बीमार हैं दिल्ली में, मैं आप लोगों से यह प्रार्थना करूँगी कि आप लोग उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करें कि उनकी तबीयत ठीक हो जायें। हम लोगों ने कम से कम ४० साल एक साथ काम किया है, और हमारा मन वही है, रोज़ ही हमें मालूम हो रहा है कि आज तबीयत कैसी है, कैसी है, बस यही दुआ चाहते हैं सबसे की वो ठीक हो जायें"। जब लताजी की ये बातें चल रही थीं उस कॊन्‍सर्ट मे, वहीं 'बैकग्राउंड' में राज कपूर की रिकार्डेड आवाज़ भी साथ साथ गूँजती सुनाई दे रही थी जिसमें वो लताजी की तारीफ़ें कर रहे थे। और उनकी वो तारीफ़ें ख़त्म हुई इस पंक्ति से - "ख़ूशनसीब हूँ मैं कि अब तक मुझमें साँस हैं, जान है, और इनसे कह सकता हूँ कि सुन साहिबा सुन प्यार की धुन, मैनें तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन"। यह सुनते ही लताजी के साथ साथ पूरा स्टेडियम हँस पड़ा। दोस्तों, लताजी और तमाम लोगों की प्रार्थना ईश्वर ने नहीं सुनी और राज साहब हमेशा के लिए हमसे दूर चले गये। इस जाते हुए बसंती पवन को कोई नहीं रोक सका। राज कपूर की याद में आज इस शृंखला मे सुनिए सन् १९६० की फ़िल्म 'जिस देश मे गंगा बहती है" फ़िल्म का गीत लताजी की आवाज़ में - "ओ बसंती पवन पागल ना जा रे ना जा"। शैलेन्द्र का गीत और शंकर जयकिशन का संगीत। गीत आधारित है राग बसंत मुखारी पर और फ़िल्माया गया है फ़िल्म की नायिका पद्मिनी पर।

गीत सुनने से पहले लताजी और जयकिशन से जुड़ा एक क़िस्सा आपको बताना चाहेंगे। हुआ युँ कि 'बरसात' की प्लानिंग ज़ोर शोर से चल रही थी। एक दिन राज कपूर ने १९ वर्षीय जयकिशन से कहा कि वो लता के घर जाकर उसे अपने साथ ले आये क्यूंकि वो 'बरसात' के गानों की रिकॉर्डिंग करना चाहते हैं अपने चेम्बूर के स्टूडियो मे। लता उस समय तारदेव मे एक कमरे के एक मकान मे रहती थीं जो चेम्बूर से लगभग १५ मील दूर था। तो जयकिशन उनके घर जा पहुँचे और दरवाज़े पर खड़े हो गये। ख़ूबसूरत और जवान जयकिशन को देखकर लता पहले यह समझीं कि वो राज कपूर के कोई रिश्तेदार होंगे। जयकिशन ने भी अपना परिचय नहीं दिया और लता को लेकर पृथ्वी स्टूडियो पहुँच गये। जयकिशन लता को रिकॉर्डिंग रूम मे ले गये और हारमोनियम को अपने पास खींचकर लता को धुन समझाने लगे। लता तो बिल्कुल हैरान रह गयीं यह देखकर कि १९ साल का वो लड़का ना तो राज कपूर का कोई रिश्तेदार था और ना ही उनका कोई संदेशवाहक, बल्कि वो था फ़िल्म का संगीतकार! तो लीजिए राज कपूर, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की याद में सुनिए लताजी की मधुर आवाज़ में आज का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. राज की सफलतम फिल्मों में से एक.
२. इस युगल गीत में मन्ना डे ने दी थी राज कपूर को आवाज़.
३. मुखड़े में शब्द है -"हमसफ़र".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी, लगातार तीसरा सही जवाब और आपके अंक हो गए हैं- 6. लगे रहिये, नीरज जी जानकारी के लिए धन्येवाद. शमिख जी, संगीता जी, मनु जी थोडी सी और फुर्ती दिखाईये. पराग जी यदि कोई ग़लतफ़हमी रह गयी हो तो माफ़ी चाहेंगें, यदि आप आवाज़ पर साइड में लगे राज कपूर के पोस्टर पर भी देखेंगें तो वहां भी यही लिखा है कि राज साहब पर फिल्माए गए गीत होंगें, फिल्माए जाने का मतलब ये ज़रूरी नहीं है कि उसी कलाकार ने गीत की लिप्सिंग की हो, "जिंदगी ख्वाब है" गीत में राज साहब मौजूद हैं, ठीक वैसे ही जैसे "ओ बसंती" में, जो कि पूरी तरह पद्मिनी द्वारा ही फिल्म में गाया गया है. इसे आप खेल भावना से ही लीजिये. आप शरद जी को जबरदस्त टक्कर दे सकते हैं. अभी सफ़र लम्बा है...शुभकामनायें.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



जयशंकर प्रसाद की कविता का सुरबद्ध और संगीतबद्ध रूप (परिणाम)



गीतकास्ट प्रतियोगिता- परिणाम-1: अरुण यह मधुमय देश हमारा

पिछले महीने जब महान कवियों की कविताओं को सुरबद्ध और संगीतबद्ध करने का विचार बना था, तो हमारे मन एक डर था कि बहुत सम्भव है कि इसमें प्रतिभागिता बहुत कम हो। क्योंकि यह प्रतियोगिता कविता प्रतियोगिता जितनी सरल नहीं है। इसमें एक ही कविता को कई बार गाकर, रिकॉर्ड करके साधना होता है। लेकिन आपको भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि गीतकास्ट प्रतियोगिता के पहले ही अंक में 12 प्रतिभागियों ने भाग लिया। जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को 12 अलग धुनों में पिरोया गया। इतना ही नहीं, हमने बहुत से प्रतिभागियों से जब यह कहा कि रिकॉर्डिंग और उच्चारण में कुछ कमी रह गई है, तो उन्होंने दुबारा, तिबारा रिकॉर्ड करके भेजा।

गीतकास्ट प्रतियोगिता के माध्यम से हमारी कोशिश है कि पॉडकास्टिंग की रचनात्मक परम्परा हिन्दी में जुड़े। इस शृंखला में हम पहला प्रयोग या प्रयास छायावाद के चार स्तम्भ कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करके करना चाहते हैं। पाठकों, श्रोताओं, गायकों और संगीतकारों की पूर्ण सहभागिता के बिना यह सफल नहीं हो पायेगा। छायावाद के कवियों की कविताओं के संगीत-संयोजन की पहली कड़ी गीतकास्ट प्रतियोगिता की पहली कड़ी है, जिसमें हमने जयशंकर प्रसाद की कविता को संगीतबद्ध/सुरबद्ध करवाया है। अगली कड़ी सुमित्रानंदन पंत की कविता की होगी, जिसकी उद्‍घोषणा 10 जून 2009 को की जायेगी।

जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्राप्त कुल 12 प्रविष्टियों से श्रेष्ठ प्रविष्टि चुनने के लिए दो चरणों में निर्णय कराया गया। पहले चरण में तीन निर्णयकर्ता रखे गये। यहाँ से 6 प्रविष्टियों को अंतिम निर्णयकर्ता आदित्य प्रकाश को भेजा गया। आदित्य प्रकाश पहले और दूसरे स्थान की प्रविष्टि में उलझ गये। बहुत सोचा कि किसे प्रथम रखूँ, किसे द्वितीय? यह तय कर पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था क्योंकि एक प्रविष्टि में कविता की आत्मा पूरी तरह से मुखरित हो रही थी तो दूसरे में संगीत का नया प्रयोग नवपीढ़ियों को लगभग 100 साल पुरानी कविता से जोड़ पा रहा था। एक में आवाज़ की मधुरता मन मोह रही थी तो दूसरे में संगीत की विविधता थिरका रही थी। तो आखिरकार आदित्य प्रकाश ने यह निर्णय लिया कि दोनों को प्रथम स्थान दिया जाय और रु 1000 का नग़द इनाम दोनों को ही दिया जाय। मतलब कुल रु 2000 का नगद इनाम पहले स्थान के लिए।

ये दोनों कौन हैं और इन्होंने कैसा गाया है आप खुद पढ़ लें और सुन लें।

स्वप्न मंजूषा 'शैल'

24 अगस्त को राँची में जन्मी स्वप्न मंजूषा 'शैल' कविमना हैं। कला के प्रति रुझान बचपन से रहा, नाटक और संगीत में भरपूर रूचि होने के कारण आकाशवाणी और दूरदर्शन से लम्बे समय तक जुड़ी रहीं, टी-सीरिज में गाने का सौभाग्य मिला और प्रोत्साहन भी, संगीत की बहुत सारी प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पुरस्कृत हुईं। आकाशवाणी रांची और दिल्ली के कई नाटकों में आवाज़ दी, जैसे महाभारत में रामायण, एक बेचारा शादी-शुदा इत्यादि। इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय में, सॉफ्टवेर इंजिनियर के पद पर ५ वर्षों तक कार्यरत होने के बाद, मॉरीसस ब्रोडकास्टिंग कारपोरेशन के लिए २ वर्षों तक टेलिविज़न पर प्रोग्राम प्रस्तुत किया, मॉरीसस में, हिंदी को टेलिविज़न के माध्यम से लोकप्रिय, बनाने की शुरुआत में, पति संतोष शैल और इन्होंने एक छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पिछले कई वर्षों से कनाडा में हैं और कनाडियन गवर्नमेंट के विभिन्न विभागों ( HRDC, PWGSC, National Defence, Correctional Services of Canada ) में सिस्टम्स अनालिस्ट के पद पर कार्यरत रह चुकी हैं। अब पेशे से प्रोजेक्ट मैनेजेर हैं, हाल ही में Ethiopian Govenment की Educational Television Program production का प्रोजेक्ट जिसमें ४५० फिल्में मात्र ३ महीने में बनायीं गई, कि प्रोजेक्ट मैनेजेर ये ही थीं।
२००४ में कनाडा में Chin Radio पर हिंदी में "आरोही " प्रोग्राम ९७.९ FM की शुरुआत की और उसे लोगों के दिलों तक पहुँचाया, इस कार्यक्रम ने लोकप्रियता का नया कीर्तमान ओटावा कि भूमि पर स्थापित किया।
बचपन से ही कविता लिखने का शौक़ रहा, इनकी २ कवितायेँ पुरस्कृत हुई हैं "गुमशुदा" और 'एकादशानन' ।
कई कविताएँ 'काव्यालय', 'अभिव्यक्ति', 'अनुभूति', 'गर्भनाल', जैसी साइट्स पर छप चुकीं हैं, इनकी एक पुस्तक भी छपी है, जिसका नाम है 'काव्य मंजूषा'।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 1000 का नग़द इनाम
विशेष- भारतीय समयानुसार 8 जून 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।
गीत सुनें-
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कृष्ण राज कुमार

एक नौजवान संगीतकार और गायक हैं। कृष्ण राज कुमार जो मात्र २२ वर्ष के हैं, और जिन्होंने अभी-अभी अपने B.Tech की पढ़ाई पूरी की है, पिछले १४ सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 1000 का नग़द इनाम
विशेष- भारतीय समयानुसार 8 जून 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।
गीत सुनें-

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अब हम बात करते हैं तीसरे स्थान के विजेता की, जिन्होंने संगीतबद्ध तो नहीं किया, लेकिन सुरबद्ध ज़रूर किया है।

धर्मेंद्र कुमार सिंह

हिंदी-भोजपुरी के युवा गायक हैं. स्टेज, रेडियो, दूरदर्शन और विभिन्न चैनलों पर कार्यक्रम पेश कर चुके हैं, लेकिन अभी भी एक ऐसा प्लेटफार्म मिलना बाकी है जो इन्हें मुकाम तक पहुँचा सके। आजकल भोजपुरी के स्तरीय गीतों और गज़लों को आवाज देने में लगे हैं।

पुरस्कार- तृतीय पुरस्कार, रु 500 का नग़द इनाम
विशेष- भारतीय समयानुसार 15 जून 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।
गीत सुनें-
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इसके अतिरिक्त हमारी टीम को मनोहर लेले की प्रविष्टि भी सराहनीय लगी। हम वह प्रविष्टि भी अपने श्रोताओं के समक्ष रख रहे हैं।



विभा झालानी, लतिका भटनागर, कमल किशोर सिंह, रमेश धुस्सा, पूजा अनिल, कमलप्रीत सिंह, मुकेश सोनी और अम्बरीष श्रीवास्तव के भी आभारी हैं जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। इन सभी प्रतिभागियों की प्रविष्टियों में भी कविता को अलग ढंग से सुनने का अपना आनंद है, लेकिन कविता और रिकॉर्डिंग दोनों की तकनीकी और कलात्मक खूबियों और ख़ामियों के मद्देनज़र हमारी टीम ने उपर्युक्त निर्णय लिया है। हम उम्मीद करते हैं कि सभी प्रतिभागी इसे सकारात्मक लेंगे और गुजारिश करते हैं कि अगली बार भी गीतकास्ट आयोजन में ज़रूर भाग लें।

इस कड़ी के प्रायोजक रेडियो सलाम नमस्ते के उद्‍घोषक, कवि, वैज्ञानिक और हिन्दीकर्मी आदित्य प्रकाश हैं। यदि आप भी इस आयोजन को स्पॉनसर करता चाहते हैं तो hindyugm@gmail.com पर सम्पर्क करें।

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