'ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष की सातवीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है, और आप सभी को एक बार फिर से ईद-उल-फ़ित्र की हार्दिक मुबारक़बाद। दोस्तों, कल गणेश चतुर्थी का पावन दिन है, जो महाराष्ट्र और मुंबई में दस दिनों तक चलने वाले गणेश उत्सव का पहला दिन भी होता है। बड़े ही धूम धाम से यह त्योहार पश्चिम भारत में मनाया जाता है। मुझे भी दो बार पुणे में इस त्योहार को देखने और मनाने का अवसर मिला था जब मेरी पोस्टिंग् वहाँ पर थी। इस बार के 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें 'के लिए हमने जिस ईमेल को चुना है उसे लिखा है पुणे के श्री योगेश पाटिल ने। आपको याद होगा कि योगेश जी के अनुरोध पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के 'पसंद अपनी अपनी' शृंखला में हमने "तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें" गीत सुनवाया था। ये वोही योगेश पाटिल हैं जिन्होंने गणेश उत्सव से जुड़ी अपने बचपन का एक संस्मरण हमें लिख भेजा है। उनका ईमेल अंग्रेज़ी में आया है, जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह का बनता है....
नमस्ते! मैं योगेश पाटिल पुणे में रहता हूँ। आशा है आप ने मुझे याद रखा है। इससे पहले भी मैंने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में अपनी पसंद का एक गीत सुना था। आज मैं यह ईमेल 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के लिए भेज रहा हूँ।
यह संस्मरण ८० के दशक का है जब मैं बहुत छोटा था। यह भी पुणे की ही बात है। गणपति विसर्जन का दिन था। मैं और मेरा बड़ा भाई विसर्जन समारोह देखने गए थे। निकलते वक़्त मम्मी ने मेरे भाई को सख़्त निर्देश दिया कि वो हर पल मेरा हाथ पकड़े रखेगा क्योंकि भीड़ ही इतनी ज़बरद्स्त हुआ करती थी। लेकिन एक जगह जाकर भीड़ इतनी ज़्यादा अचानक बढ़ गई और अफ़रा-तफ़री सी मच गई और मेरा हाथ मेरे भाई के हाथ से छूट गया। और हम दोनों एक दूसरे से अलग हो गए। लाउडस्पीकर की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि ना मेरी आवाज़ उस तक पहुँच सकती थी ना उसकी आवाज़ मुझ तक। मैं डर गया और समझ नहीं आ रहा था कि किस तरफ़ जाऊँ। मैं रोने लग पड़ा लेकिन उस भीड़ में किसे सुनाई देने वाला था! भीड़ में धक्के खाते हुए इधर से उधर, यहाँ से वहाँ होने लगा। मेरी तो जैसे जान निकली जा रही थी। मैं यहाँ वहाँ भटकता हुआ अपने भाई को ढूँढ़ता हुआ चलता चला जा रहा था। करीब दो घंटे इस तरह से भटकने के बाद मेरी जान में जान आई यह देख कर कि मैं अपने घर के पास ही आ गया हूँ। और मैं डरते डरते घर के अंदर प्रवेश किया। अंदर जाकर देखा कि सब परेशन बैठे हैं। मेरा भाई जो अभी अभी घर पहुँचा था एक कोने में काला मुख किए खड़ा था। यह भाँप कर अब मेरे गाल पर भी एक तमाचा पड़ने वाला है, मैं रोने लग पड़ा और इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर दिया तमाचे से बचने के लिए। आज इतने साल गुज़र चुके हैं, लेकिन यह घटना जैसे मेरे दिल पर एक अमिट छाप की तरह बन गई है।
क्योंकि गणपति उत्सब शुरु होने ही वाला है, तो आप मेरे इस संसमरण के साथ फ़िल्म 'इलाका' का "देवा ओ देवा गली गली में तेरे नाम का है शोर", यह गीत सुनवा दीजिएगा। आभार सहित,
योगेश पाटिल
******************************************************************************** हाँ, तो योगेश जी, वाक़ई बड़ा ही डरावना अनुभव रहा होगा। यह तो बप्पा का ही चमत्कार और आशीर्वाद था कि उन्होंने आपको सही सलामत घर पहूँचा दिया। लेकिन यकीन मानिए कि आप को वापस घर लौटा देख आपके माता पिता को इतनी ख़ुशी हुई होगी कि आप पर वैसे भी तमाचे नहीं पड़ते। :-) ख़ैर, आपने बिलकुल सटीक समय पर यह ईमेल हमें भेजा है। कल गणेश चतुर्थी है, आइए आपके अनुरोध पर गणपति बप्पा की वंदना करते हुए आशा भोसले, किशोर कुमार और साथियों का गाया फ़िल्म 'इलाका' का यह गीत सुनें जो फ़िल्माया गया है माधुरी दीक्षित और मिथुन चक्रबर्ती पर।
गीत - देवा ओ देवा गली गली में (इलाका - आशा व किशोर)
'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक ऐसा साप्ताहिक स्तंभ है जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल करते हैं जिनमें आप अपने किसी याद या संस्मरण से हमारा परिचय करवाते हैं। आप सभी से ग़ुज़ारिश है कि युंही ईमेल भेजते रहिए। जिन दोस्तों के ईमेल शामिल हो चुके हैं वो दोबारा ईमेल भेज सकते हैं, लेकिन उन दोस्तों से, जिन्होंने अभी तक हमें एक भी ईमेल नहीं किया है, उनसे तो ख़ास अनुरोध करते हैं कि जल्द से जल्द इस स्तंभ का हिस्सा बनें और अपनी रंग बिरंगी यादों के ज़रिए इस स्तंभ को और भी ज़्यादा विविध व रंगीन बनाने में हमारा सहयोग करें। और कुछ नहीं तो अपने पसंद के गानें ही लिख भेजिए ना! इसी उम्मीद के साथ कि oig@hindyugm.com पर आपने ईमेल का ताँता लग जाएगा, आज हम विदा ले रहे हैं, कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर एक बेहद ख़ास शृंखला शुरु होने जा रही है। तो पधारना ना भूलिएगा शाम ६:३० बजे। तब तक के लिए हमें दीजिए इजाज़त, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ, और आप सभी को एक बार फिर से गणेश चतुर्थी और गणपति उत्सव की हार्दिक शुभकमनाएँ, नमस्कार!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में भारतेंदु हरिश्चंद्र की कहानी 'सच्चा घोड़ा' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं रामचन्द्र भावे की कन्नड कहानी "छिपकली आदमी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का हिन्दी अनुवाद डी.एन.श्रीनाथ ने किया है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 13 मिनट 57 सेकंड।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
कन्नड साहित्यकार रामचन्द्र भावे की सभी कहानियाँ अंत में सोचने पर विवश करती हैं। हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी तुंगक्का को उस बच्चे के जन्म लेने पर सन्तोष नहीं हुआ, क्योंकि वह पति के वंश को बढ़ाने योग्य नहीं था।
(रामचन्द्र भावे की "छिपकली आदमी" से एक अंश)
नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें
आज आवाज़ महोत्सव में पहली बार एक ऐसा गीत पेश होने जा रहा है, जिसमें रैप गायन है, जो दो पुरुष गायकों की आवाजों में है और जिसमें दो भाषाओं में शब्द लिखे गए हैं. "प्रभु जी" गीत की आपार सफलता के बाद श्रीनिवास पंडा फिर लौटे हैं इस सत्र में और जैसा हर बार होता है वो अपने श्रोताओं के लिए कुछ नया लेकर ही आये हैं. गीत दृभाषीय है, तो यहाँ हिंदी के शब्द सजीव सारथी ने लिखे है अंग्रेजी शब्द रचे हैं खुद रैपर आसिफ ने जो खुद को "रेग्गड स्कल" कहते हैं. श्रीराम की आवाज़ आप इससे पहले सूफी गीत "हुस्न-ए-इलाही" में सुन चुके है, आज के गीत में उनका अंदाज़ एकदम अलग है. ये एक एक्सपेरिमेंटल गीत है जिसमें संगीत के दो अलग अलग आयामों का मिश्रण करने की कोशिश की गयी है, हम उम्मीद करेंगें कि हमारे श्रोताओं को ये प्रयोग अच्छा लगेगा.
गीत के बोल -
सांसे चुभे सीने में जैसे खंजर, गीली हैं ऑंखें धुंधला है सारा मंजर, (2) मेरे पैरों हैं जमीं न सर पे आसमाँ है, जब से वो खफा हुआ, कोई पूछे क्या गिला है, जाने क्या वज़ा है, जो वो बेवफा हुआ……
You should know nothin’ ever gonna last But you dwellin’ on the past and you hurtin’ pretty bad And I hate that I’m blunt but you gonna understand In a week in, a month when you back up on the track I can imagine what you going through I’ve been there Cursin’ sometimes at the times that she been there Lookin at her pictures reminiscing; it was rapture The ones that hurt is the one with all the laughter [x2] But the day will come when you gonna skip to another chapter And then you gonna be smiling hereafter.
कोई कैसे मुस्कुराए, पलकों में छुपाये, आंसू ओं का सैलाब, कोई शम्मा न सितारा, दिल है बेसहारा, मिटने को है बेताब,
खामोशियों में डूबी हर सदा है, बेचैनियों का क्या ये सिलसिला है, मेरे रूठे दो जहाँ हैं, टूटे सब गुमाँ है, जब से वो जुदा हुआ, कोई पूछे क्या गिला है, जाने क्या वज़ा है, जो वो बेवफा हुआ……
I know at nights you be losin’ ya sleep Bleedin inside from your wounds and it’s deep Just breathe – hold it in for a second Expellin’ all ya hurt, exhale the depression Time waits for no man but heals all wounds No time to waste thinkin it ended too soon Never brood over love don’t be lost to the gloom She ain’t know what she lost she ain’t got no clue Remember the things that you loved in her dude But you gotta live your life coz you’re worth one too Gotta forget cuz I am sure that you through.
कोई कैसे भूल पाए, यादों से छुडाये, लाये दिल को बहला, कोई सपना वो नहीं था, अपना था यहीं था, पल में जो है बदला, कैसे सहें हम, गम जो ये मिला है, चाक जिगर कब किसका सिला है, उस पे सब कुछ मिटाके, जान-ओ-दिल लुटाके, क्योंकर मैं फ़िदा हुआ, कोई पूछे क्या गिला है, जाने क्या वज़ा है, जो वो बेवफा हुआ……
Truth is you had something in your life That most never find when they look all the time And you stuck here waitin’ for the hurt to pass But you can’t have the light without the dark it’s a fact Move on – forget the past let it be Where it be and you still got hope so believe That you’ll find – someone more fine With something more divine !!
यह गीत अब आर्टिस्ट एलोड़ पर बिक्री के लिए उपलब्ध है...जिसकी शर्तों के चलते इस पृष्ठ से निकाल दिया गया है, कृपया सुनने और खरीदने के लिए यहाँ जाएँ.
मेकिंग ऑफ़ "सांसें चुभे" - गीत की टीम द्वारा
श्रीनिवास पंडा: मैंने अपने बहुत से दोस्तों को अक्सर "ब्रेक अप" के बाद बेहद निराश और उदास होते देखा है. तो मन में ख्याल आया कि क्यों न एक गीत के माध्यम से उस दौर से गुजर रहे अपने साथियों कुछ प्रेरणा दूं. मैं इस गीत में रैप चाहता था, तो विचार आया कि इसे एक संवाद रूप में बनाया जाए, दो किरदारों के लिए अलग अलग स्वर लेकर. मैंने एक धुन बनायीं और सजीव जी से इस बारे में बात की. कुछ दिनों में ही उन्होंने इतना बढ़िया गाना उस धुन पर लिख भेजा कि मेरा भी अर्रेंज्मेंट करने का उत्साह बढ़ गया. इस गीत में सबसे बड़ी चुनौती थी, एक अच्छा रैपर ढूँढने की. इस काम में मित्र राहुल सोमन ने मदद की. हमें आसिफ जैसा रैपर ढूँढने में करीब ४ महीने लगे. अधिकतर रैपर अपने शब्द खुद लिखते हैं. आसिफ ने भी अपने लिखे शब्दों को गा कर मुझे भेजा अपनी तमाम व्यस्ताओं के बीच भी, वो भी मात्र एक माह में. इसी दौरान ऋषि के माध्यम से मुझे श्रीराम का परिचय मिला, उन्होंने भी गाने का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिए और इस तरह करीब ६ महीनों की मेहनत के बाद बन कर तैयार हुआ ये गीत.
श्रीराम ईमनि: जब श्रीनि ने पहली बार मुझसे इस गीत की बात की तो उनकी बातों से लगा कि ये बहुत ही आसान सा गाना होगा. पर जब मैंने इसे सुना तो तो इसकी होंटिंग धुन और सोलफुल शब्दों ने मुझे डुबो ही दिया. उपर से रेग्गड़ स्कल के शानदार रैप इस पर चार चाँद लगा रहा था. मैंने फैसला किया कि मैं इस गीत को भरपूर समय दूँगा और जब तक पूरी तरह से रिहर्स न कर लूं अंतिम टेक नहीं लूँगा. धुन जो सुनने में सरल लगती है बहुत से उतार छडाव से भरी है, और दूसरी चुनौती ये थी कि अधिकतर पंक्तियाँ एक सांस में गाने वाली थी, तमाम शब्दों में छुपे भावों के ध्यान में रखकर. मुझे लगता है कि अंतिम परिणाम से श्रीनि भाई संतुष्ट होंगें. मैं रैपर रेग्गड़ स्कल को विशेष बधाई देना चाहूँगा, जब मैंने पहली बार सुना तो लगा कि किसी विदेशी फनकार ने किया होगा. यक़ीनन ये बहुत ही प्रो है. सजीव जी के शब्द और श्रीनिवास का अर्रेंज्मेंट ने इस गीत को एक अलग ही मुकाम दिया है, मेरे लिए इस गीत में काम करना एक संतोषजनक तजुर्बा रहा
सजीव सारथी: इस गीत में दो किरदार हैं और मेरा काम एक किरदार को शब्द देना था जो अपनी महबूबा या प्रेमिका के धोखे से बेहद दुखी और निराश है, उसकी सोच नकारात्मक है. काफी क्लीशे सिचुएशन था पर देखिये श्रीनि ने इसमें भी कितना नयापन प्रस्तुत कर दिखाया है. धुन का बहाव बहुत ही बढ़िया था, तो मुझे लगा कि यहाँ शब्दों को तोड़ तोड़ कर खेला जा सकता है. इस गीत पर काम करने में बहुत मज़ा आया, और श्रीराम को ख़ास आभार कि उन्होंने उन तोड़े हुए शब्दों को बेहद अच्छे से और भाव में डूब कर गाया. श्रीनि के साथ काम करना हमेशा ही एक सुखद अनुभव होता है, और मुझे ख़ुशी है कि उन्होंने इस अनूठे और दिलचस्प गीत का मुझे हिस्सा बनाया. राहुल और आसिफ को ख़ास धन्येवाद जिनके योगदान के बिना शायद ये संभव नहीं हो पाता.
आसिफ अकबर (Ragged Skull): जब श्रीनिवास ने पहले मुझे ये गीत सुनाया तो मुझे लगा कि ये मेरे लिए एक नयी जमीं पर खुदाई करने जैसा होगा. दरअसल मैं रोजमर्रा के जीवन पर अपनी कलम चलाता था, पर पहले कभी इस तरह के किसी विषय पर लिखने का नहीं सोचा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यादें कभी मरती नहीं हैं, वो छुपी रहती है, और जब कोई कुरेदे तो फिर जाग उठती हैं, तो यक़ीनन आसान नहीं है कहना कि भूल जाओ...श्रीनिवास की धुन में गीत के थीम के सभी भाव थे मुझे बस उसके बीट पकड़ने थे अपने शब्दों के लिए, सजीव ने जो लिखा उसने निश्चित ही मुझे प्रेरणा दी. ये मेरे पहले के सभी प्रोजेक्ट्स से अलग था, क्योंकि श्रीनिवास के जेहन में बिलकुल साफ़ था कि वो क्या चाहते हैं. अंतिम शब्द सरंचना से पहले हमारे बीच बहुत सी चर्चाएं हुई. मैं अपने काम से बेहद संतुष्ट हूँ और श्रीनिवास, सजीव और श्रीराम के साथ और भी इस तरह के विचारोत्तेजक गीतों में काम करना चाहूँगा.
श्रीराम ईमनि मुम्बई में जन्मे और पले-बढे श्रीराम गायन के क्षेत्र में महज़ ७ साल की उम्र से सक्रिय हैं। ये लगभग एक दशक से कर्नाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं। आई०आई०टी० बम्बे से स्नातक करने के बाद इन्होंने कुछ दिनों तक एक मैनेजमेंट कंसल्टिंग कंपनी में काम किया और आज-कल नेशनल सेंटर फॉर द परफ़ोर्मिंग आर्ट्स (एन०सी०पी०ए०) में बिज़नेस डेवलपेंट मैनेज़र के तौर पर कार्यरत हैं। श्रीराम ने अपने स्कूल और आई०आई०टी० बम्बे के दिनों में कई सारे स्टेज़ परफोरमेंश दिए थे और कई सारे पुरस्कार भी जीते थे। ये आई०आई०टी० के दो सबसे बड़े म्युज़िकल नाईट्स "सुरबहार" और "स्वर संध्या" के लीड सिंगर रह चुके हैं। श्रीराम हर ज़ौनर का गाना गाना पसंद करते हैं, फिर चाहे वो शास्त्रीय रागों पर आधारित गाना हो या फिर कोई तड़कता-फड़कता बालीवुड नंबर। इनका मानना है कि कर्नाटक संगीत में ली जा रही शिक्षा के कारण हीं इनकी गायकी को आधार प्राप्त हुआ है। ये हर गायक के लिए शास्त्रीय शिक्षा जरूरी मानते हैं। हिन्द-युग्म (आवाज़) पर यह इनका दूसरा गाना है।
श्रीनिवास पंडा तेलगू, उड़िया और हिंदी गीतों में संगीत देने वाले श्रीनिवास पंडा का एक उड़िया एल्बम 'नुआ पीढ़ी' रीलिज हो चुका है। इन दिनों मुंबई में हैं और बैंक ऑफ अमेरिका में कार्यरत हैं। गीतकास्ट में लगातार चार बार विजेता रह चुके हैं। 'काव्यनाद' एल्बम में इनके 3 गीत संकलित हैं। पेशे से तकनीककर्मी श्रीनिवास हर गीत को एक नया ट्रीटमेंट देने के लिए जाने जाते हैं
सजीव सारथी हिन्द-युग्म के 'आवाज़' मंच के प्रधान संपादक सजीव सारथी हिन्द-युग्म के वरिष्ठतम गीतकार हैं। हिन्द-युग्म पर इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीत निर्माण का बीज सजीव ने ही डाला है, जो इन्हीं के बागवानी में लगातार फल-फूल रहा है। कविहृदयी सजीव की कविताएँ हिन्द-युग्म के बहुचर्चित कविता-संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में संकलित है। सजीव के निर्देशन में ही हिन्द-युग्म ने 3 फरवरी 2008 को अपना पहला संगीतमय एल्बम 'पहला सुर' ज़ारी किया जिसमें 6 गीत सजीव सारथी द्वारा लिखित थे। पूरी प्रोफाइल यहाँ देखें।
आसिफ (रेग्गड़ स्कल) आसिफ एक रैपर हैं जो त्रिचूर केरल में रहते है, बहुत से व्यावसायिक विज्ञापनों के लिए गा चुके हैं, मलयालम फिल्म "अनवर" के लिए भी गायन कर चुके हैं. हिंद युग्म के ये पहले रैपर हैं. अभी अंग्रेजी में गाते हैं, पर हमें उम्मीद है कि हिंद युग्म इनसे कभी हिंदी रैप भी गवा लेगा
Song - Sansen Chubhe (Tears and Hope) Vocals - Sreeram Emaani & Asif (Ragged Skull) Music - Srinvias Panda Lyrics - Sajeev Sarathie (hindi) rap lyrics - Asif (Ragged Skull) Graphics - Prashen's media
Song # 19, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm
इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए
आप सभी को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से ईद-उल-फ़ित्र की दिली मुबारक़बाद। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आए ऐसी हम कामना करते हैं। ईद-उल-फ़ित्र के साथ रमज़ान के महीने का अंत होता है और इसी के साथ क़व्वालियों की इस ख़ास मजलिस को भी आज हम अंजाम दे रहे हैं। ४० के दशक से शुरु कर क़व्वालियों का दामन थामे हर दौर के बदलते मिज़ाज का नज़ारा देखते हुए आज हम आ गए हैं ८० के दशक में। जिस तरह से ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ख़त्म होने की कगार पर था, वही बात फ़िल्मी क़व्वालियों के लिए भी लागू थी। क़व्वालियों की संख्या भी कम होती जा रही थी। फ़िल्मों में क़व्वालियों के सिचुएशन्स आने ही बंद होते चले गए। कभी किसी मुस्लिम सबजेक्ट पर फ़िल्म बनती तो ही उसमें क़व्वाली की गुंजाइश रहती। कुछ गिनी चुनी फ़िल्में ८० के दशक की जिनमें क़व्वालियाँ सुनाई दी - निकाह, नूरी, परवत के उस पार, फ़कीरा, नाख़ुदा, नक़ाब, ये इश्क़ नहीं आसाँ, ऊँचे लोग, दि बर्निंग् ट्रेन, अमृत, दीदार-ए-यार, आदि। इस दशक की क़व्वालियों का प्रतिनिधि मानते हुए आज की कड़ी के लिए हमने चुनी है फ़िल्म 'निकाह' की क़व्वाली "चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में"। फ़िल्मी क़व्वलियों की बात चलती है तो आशा जी का नाम गायिकाओं में सब से उपर आता है। क़व्वाली गायन में गायिका के गले में जिस तरह की हरकत होनी चाहिए, जिस तरह की शोख़ी, अल्हड़पन और एक आकर्षण होनी चाहिए, उन सभी बातों का ख़्याल आशा जी ने रखा और शायद यही वजह है कि उन्होंने ही सब से ज़्यादा फ़िल्मी क़व्वालियाँ गाई हैं। तो आज का यह एपिसोड भी कल की तरह आशा जी के नाम, और उनके साथ इस क़व्वली में आप आवाज़ें सुनेंगे महेन्द्र कपूर, सलमा आग़ा और साथियों की। हसन कमाल के बोल और रवि का संगीत।
फ़िल्म 'निकाह' एक मुस्लिम सामाजिक फ़िल्म थी और बेहद कमयाब भी साबित हुई थी। बी. आर. चोपड़ा की यह फ़िल्म थी जो डॊ. अचला नागर की लिखी एक नाटक पर आधारित थी। २४ सितंबर १९८२ को प्रदर्शित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज बब्बर, दीपक पराशर, सलमा आग़ा, हिना कौसर प्रमुख। यह फ़िल्म तो आपने देखी ही होगी, फ़िल्म की कहानी तलाक़ और मुस्लिम पुनर्विवाह के मसलों के इर्द गिर्द घूमती है। इस्लामिक मैरिज ऐक्ट के मुताबिक़, किसी तलाक़शुदा महिला से उसका पूर्व पति तभी दुबारा शादी कर सकता है जब वो किसी और से शादी कर के तलाक़ ले आए। बस इसी बात को केन्द्रबिंदु में रख कर लिखी गई थी नाटक 'निकाह' की कहानी, जिस पर आगे चलकर यह फ़िल्म बनी। इस फ़िल्म को बहुत सराहना मिली थी और आज भी मुस्लिम सामाजिक फ़िल्मों के जौनर की सब से मक़बूल फ़िल्म मानी जाती है। फ़िल्म में गायिका अभिनेत्री सलमा आग़ा ने कुछ ऐसे दिल को छू लेने वाले गीत गाए कि वो गानें सदाबहार नग़मों में दर्ज हो चुके हैं। "दिल के अरमाँ आसुओं में बह गए" के लिए उन्हें उस साल फ़िल्मफ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका के ख़िताब से नवाज़ा गया था। इसके अलावा "फ़ज़ा भी है जवाँ जवाँ, हवा भी है रवाँ रवाँ" तथा महेन्द्र कपूर के साथ गाया युगल गीत "दिल की यह आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले" भी ख़ासा लोकप्रिय हुए थे। वैसे इस क़व्वाली में आशा भोसले और महेन्द्र कपूर की आवाज़ें ही मुख्य रूप से सुनाई देती है, सलमा आग़ा बस एक लाइन गाती हैं आख़िर की तरफ़ - "यह झूठ है कि तुमने हमें प्यार किया है, हमने तुम्हे ज़ुल्फ़ों में गिरफ़्तार किया है"। आइए सुना जाए यह दिलकश क़व्वाली जिसमें है प्यार मोहब्बत के खट्टे मीठे गिले शिकवे और तकरारें हैं। और इसी के साथ 'मजलिस-ए-क़व्वाली' शृंखला पूरी होती है। आपको यह शृंखला कैसी लगी, क्या ख़ामियाँ रह गईं, आप अपने विचार हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर लिख भेजें। और अगर कोई और क़व्वाली आप सुनना चाहते हैं 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में, तो उसका भी ज़िक्र आप कर सकते हैं। तो अब आपसे अगली मुलाक़ात होगी शनिवार की शाम, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, और एक बार फिर से आप सभी को ईद-उल-फ़ित्र की हार्दिक शुभकामनाएँ।
क्या आप जानते हैं... कि हाल ही में आशा भोसले का नाम दुनिया के सब से लोकप्रिय १० कलाकारों में शामिल हुआ है। यह सर्वे सी.एन.एन के तरफ़ से आयोजित किया गया है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. यह गीत एक अमर प्रेमिक और प्रेमिका की प्रेम कहानी पर बनी फ़िल्म का है जिसका निर्माण ४० के दशक के आख़िर के तरफ़ के किसी साल में हुआ था। फ़िल्म का नाम बताएँ। १ अंक। २. फ़िल्म में कुल तीन संगीतकार हैं, जिनमें दो जोड़ी के रूप में हैं। इस जोड़ी के एक सदस्य आगे चलकर एक सफल संगीतकार सिद्ध हुए लेकिन एक अन्य नाम से। बताइए इस गीत के तीनों संगीतकारों के नाम। ४ अंक। ३. यह गीत एक पारम्परिक रचना है जिसका इस्तेमाल उसी सफल संगीतकार ने आगे चलकर अपनी एक बेहद उल्लेखनीय फ़िल्म में किया है और जिनसे गवाया है वो भी उनके ही परिवार की एक सदस्या हैं। इस पारम्परिक रचना को पहचानिए। ३ अंक। ४. इस गीत की गायिका का नाम बताएँ जिन्होंने इसी फ़िल्म में जी. एम. दुर्रानी के साथ मिलकर युगल गीत भी गाया है। २ अंक।
पिछली पहेली का परिणाम - पवन जी और इंदु जी एकदम सही हैं, प्रतिभा जी आपने हसन कमाल को देखिये तो जरा क्या लिख दिया :), रोमेंद्र जी एकदम सही हैं. सभी मित्रों को ईद की बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
दोस्तों नमस्कार! रमज़ान का पाक़ महीना चल रहा है और हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। कल की क़व्वाली में यह कहा गया था कि जीना उसी का जीना होता है जिसे यह राज़ मालूम हो कि औरों के काम आने में ही सच्चा सुख है। कल चलते चलते हमनें यह भी कहा था कि आज की कड़ी में भी हम किसी राज़ की बात बताने वाले हैं। तो लीजिए अब वह वक़्त आ गया है। लेकिन राज़ की बात हम बता तो देंगे, पर फिर महफ़िल में जाने क्या हो! राज़ की बात यह कि आज है आशा भोसले का जन्मदिन। तो 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम आशा जी को दे रहे हैं जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ। ईश्वर उन्हें दीर्घायु करें और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें। उनकी संगीत साधना को सलाम करते हुए आज और कल, दोनों दिन हम उनकी गाई क़व्वाली का आनंद लेंगे। अब एक और राज़ की बात यह कि अब हम आपको क़व्वाली के इतिहास की कुछ और बातें बताने वाले हैं। जैसा कि दूसरी कड़ी में हमने बताया था कि क़व्वाली का जन्म करीब करीब उसी वक़्त से माना जाता है जब मुहम्मद का जन्म हुआ था। क़व्वाली के रूप-रंग का पहली बार व्याख्या १०-वीं और ११-वीं शताब्दी के दौरान हुआ था। क़व्वाली के विशेषताओं, या फिर युं कहिए कि नियमों को, क़व्वाली की परिभाषा के लिए जिन्हें श्रेय दिया जाता है वो हैं अल-ग़ज़ली। हालाँकि उनसे पहले भी दूसरे इस्लामी विशेषज्ञों ने इस तरह के संगीत के आध्यात्मिक पक्ष पर प्रकाश डाल चुके थे। भारत और पाक़िस्तान में क़व्वाली की लोकप्रियता और प्रचार-प्रसार में सूफ़ी के चिश्ती स्कूल का बड़ा हाथ है। ऐसी मान्यता है कि इस स्कूल की स्थापना ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती (११४३ - १२३४) ने की थी, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है। एक और संत जिन्होंने क़व्वालियों के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण कार्य किया, वो हैं शेख़ निज़ामुदीन औलिया (१२३६ - १३२५)। वो एक महात्मा संत थे जो क़व्वालियों के ज़रिए शिक्षा देते थे और अल्लाह का गुणगान करते थे। चिश्ती और निज़ामुद्दीन औलिया, दोनों ही अपने अपने जगह प्रेरणा स्रोत रहे और हर साल लाखों की संख्या में लोग उनके मज़ार पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुँचते हैं। लेकिन एक नाम जो सब से उपर आता है जब क़व्वालियों के प्रचार प्रसार की बात चलती है, वो नाम है अमीर ख़ुसरौ (१२५४ - १३२४) का। उनका परिचय एक दार्शनिक और संगीतज्ञ के रूप में मिलता है। उन्होंने क़व्वाली के विकास में बहुत से अलग अलग साज़ों का मिश्रण करवाया जो अलग अलग संस्कृति से उन्होंने बटोरे थे, और इस तरह से क़व्वाली में भारत, परशिया (इरान) और तुर्की के संगीत को मिलाया और आज जो क़व्वाली का रूप हम पाते हैं, उनमें भी वही बात सामने आती है।
और अब आज की क़व्वाली। राज़ की बात कह दूँ तो जाने महफ़िल में फिर क्या हो! जी नहीं, अब और किसी राज़ में हम आपको नहीं उलझा रहे हैं। फ़िल्म 'धर्मा' की यह क़व्वाली आज पेश-ए-ख़िदमत है आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी और साथियों की आवाज़ों में। १९७३ में बनी इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नवीन निश्चल, रेखा और प्राण। फ़िल्म में गीत लिखे वर्मा मलिक ने तथा संगीत था सोनिक ओमी की जोड़ी का। इस क़व्वाली के बनने के पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है, पढ़िये ओमी जी की शब्दों में, जो उन्होंने कहे थे विविध भारती के किसी कार्यक्रम में। "बम्बई में क़व्वाल बहुत हैं और क़व्वाली के कॊम्पीटिशन्स भी होते रहते हैं। तो एक बार हमारे पास रिक्वेस्ट आया कि हम वहाँ किसी क़व्वाली कॊम्पीटिशन में जज बन कर जाएँ। हम उस कॊम्पीटिशन में गए, क़व्वाली शुरु हुई, पर देखते ही देखते उसमें गाली गलोच शुरु हो गई, और उसके क्लाइमैक्स में एक दूसरे ने चाकू तक निकाल लिए और लड़ाई शुरु हो गई। हम वहाँ से निकलने लगे तो ऒर्गेनाइज़र ने हमसे कहा कि आप जज हैं, अपना फ़ैसला तो सुनाते जाइए। हमने कहा कि उसके लिए किसी चाकूबाज़ को ही बुलाइए, यह हमारा काम नहीं। तो इस घटना के कुछ दिन बाद फ़िल्म 'धर्मा' के लिए एक ऐसा ही सिचुएशन आई जिसमें प्राण और बिंदु के बीच क़व्वाली की टक्कर होनी थी। तो वो घटना हमें याद आई और उससे हमें बहुत हेल्प मिली इस क़व्वाली को तैयार करने में। वर्मा मलिक ने इसके बोल लिखे थे।" तो लीजिए, आप भी मज़ा लीजिए प्राण साहब और बिंदु जी के बीच की इस लड़ाई का रफ़ी साहब और आशा जी की आवाज़ों के साथ। आशा जी को जन्मदिन की एक बार फिर से हार्दिक बधाई।
क्या आप जानते हैं... कि सोनिक ओमी की जोड़ी बनने से पहले सोनिक जी १९५२ में 'ममता' और 'ईश्वर भक्ति' तथा १९५९ में एक पंजाबी फ़िल्म में संगीत दे चुके थे।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. महेंद्र कपूर और आशा भोसले के साथ किस गायिका की आवाज़ सुनाई देती है इस कव्वाली में - ३ अंक. २. संगीतकार बताएं - २ अंक. ३. मुखड़े में शब्द है -"आग", गीतकार बताएं - २ अंक. ४ डॊ. अचला नागर के लिखे एक नाटक पर आधारित थी ये क्लास्सिक सामाजिक फिल्म नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - इंदु जी फॉर्म में हैं, कनाडा टीम की वापसी सुखद लगी, महेंद्र जी को आनंद आया और हमें भी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं|
अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं|
गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं|
हमारे यहाँ कुछ शायर ऐसे हुए हैं, जिन्हें हमने उनकी कुछ ग़ज़लों (कभी-कभी तो महज़ एक ग़ज़ल या एक नज़्म) तक हीं बाँधकर रखा है। ऐसे हीं एक शायर हैं, "मोहम्मद इक़बाल"। अभी हमने ऊपर जो शेर पढे, उन शेरों में से कम-से-कम एक शेर तो (पहला शेर हीं) अमूमन हर इंसान की जुबान पर काबिज़ है ,लेकिन ऐसे कितने हैं, जिन्हें इन शेरों के शायर का नाम पता है। हाँ, "इक़बाल" के नाम से सभी वाकिफ़ हैं, लेकिन कितनों की इसकी जानकारी है कि "सितारों के आगे... " कहकर लोगों में आशा की एक नई लहर पैदा करने वाला शायर "इक़बाल" हीं है। हमारे लिए तो इक़बाल बस "सारे जहां से अच्छा" तक हीं सीमित हैं। और यही कारण है कि जब हम बड़े शायरों की गिनती करते हैं तो ग़ालिब के दौर के शायरों को गिनने के बाद सीधे हीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक पहुँच जाते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि इन दो दौरों के बीच भी एक शायर हुआ है, जिसने पुरानी शायरी और नई शायरी के बीच एक पुल की तरह काम किया है। मेरे हिसाब से ऐसी गलती या ऐसी अनदेखी बस हिन्दुस्तान में हीं होती है, क्योंकि पाकिस्तान के तो ये क़ौमी शायर (राष्ट्रकवि) हैं और इनके जन्म की सालगिरह पर यानि कि ९ नवंबर को वहाँ सार्वजनिक (राष्ट्रीय) छुट्टी होती है।
मैंने अपने कई लेखों में यह लिखा है कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ग़ालिब के एकमात्र उत्तराधिकारी थे, यह बात शायद सच हो, लेकिन यह भी सच है कि उर्दू भाषा ने ‘ग़ालिब’ के अतिरिक्त अभी तक इक़बाल से बड़ा शायर उत्पन्न नहीं किया। ग़ालिब के उत्तराधिकारी होने वाली बात इसलिए सच हो सकती है क्योंकि इक़बाल पर सबसे ज्यादा प्रभाव मौलाना 'रूमी' का था। हाँ, साथ-हीं-साथ ये ग़ालिब और जर्मन शायर 'गेटे' को भी खूब पढा करते थे, लेकिन ’रूमी’ की बात तो कुछ और हीं थी। इक़बाल की शायरी प्रसिद्धि के मामले में ग़ालिब के आस-पास ठहरती है, ऐसा कईयों का मानना है.. उन्हीं में से एक हैं उर्दू पत्रिका "मख़जन" के भूतपूर्व संपादक "स्वर्गीय शेख अब्दुल कादिर बैरिस्टर-एट-लॉ"। उन्होंने कहा था (साभार: प्रकाश पंडित):
"अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ‘ग़ालिब’ को उर्दू और फ़ारसी शायरी से जो इश़्क था उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इन्सानी जिस्म में पहुँचकर शायरी के चमन की सिंचाई करे; और उसने पंजाब के एक गोशे में, जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया।"
इक़बाल के बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए प्रकाश पंडित जी की पुस्तक "इक़बाल और उनकी शायरी" को खंगालते हैं:
सन् १८९९ में इक़बाल ने पंजाब विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। और यही वह ज़माना था जब लाहौर के सीमित क्षेत्र से निकलकर उनकी शायरी की चर्चा पूरे भारत में पहुँची। पत्रिका ‘मख़ज़न’ उन दिनों उर्दू की सर्वोत्तम पत्रिका मानी जाती थी। उसके सम्पादक स्वर्गीय शेख़ अब्दुल क़ादिर ‘अंजुमने-हिमायते-इस्लाम’ के जल्सों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और देख चुके थे कि इन दर्द-भरी नज़्मों को सुनकर उपस्थिति सज्जनों की आँखों में आँसू आ जाते हैं। उन्होंने इक़बाल की नज़्मों को ‘मख़ज़न’ में विशेष स्थान देना शुरू किया। पहली नज़्म ‘हिमालय’/’हिमाला’ के प्रकाशन पर ही, जो अप्रैल १९०१ के अंक में निकली, पूरा उर्दू-जगत् चौंक उठा। सभाओं द्वारा प्रार्थनाएं की जाने लगीं कि उनके वार्षिक सम्मेलनों में वे अपनी नज़्मों के पाठ द्वारा लोगों को लाभान्वित करें। स्वर्गीय अब्दुल क़ादिर के कथनानुसार उन दिनों इक़बाल शे’र कहने पर आते तो एक-एक बैठक में अनगिनत शे’र कह डालते। "मैंने उन दिनों उन्हें कभी काग़ज़-क़लम लेकर शे’र लिखते नहीं देखा। गढ़े-गढ़ाए शब्दों का एक दरिया या चश्मा उबलता मालूम होता था। अपने शे’र सुरीली आवाज़ में, तरन्नुम से (गाकर) पढ़ते थे। स्वयं झूमते थे, औरों को झुमाते थे। यह विचित्र विशेषता है कि मस्तिष्क ऐसा पाया था कि जितने शे’र इस प्रकार ज़बान से निकलते थे, सब-के-सब दूसरे समय और दूसरे दिन उसी क्रम से मस्तिष्क में सुरक्षित होते थे।"
शायरी कैसी हो, इस बारे में इक़बाल का ख्याल था: "अगरचे आर्ट के मुतअ़ल्लिक़ दो नज़रिये (दृष्टिकोण) मौजूद हैं : अव्वल यह कि आर्ट की ग़रज़ (उद्देश्य) महज़ हुस्न (सौंदर्य) का अहसास (अनुभूति) पैदा करना है और दोयम यह है कि आर्ट से ज़िन्दगी को फ़ायदा पहुँचाना चाहिए। मेरा ज़ाती ख़याल यह है कि आर्ट ज़िन्दगी के मातहत है। हर चीज़ को इन्सानी ज़िन्दगी के लिए वक़्त होना चाहिए और इसलिए हर आर्ट जो ज़िन्दगी के लिए मुफ़ीद हो, अच्छा और जाइज़ है। और जो ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ हो, जो इन्सानों की हिम्मतों को पस्त और उनके जज़बाते-आलिया (उच्च भावनाओं) को मुर्दा करने वाला हो, क़ाबिले-नफ़रत है और उसकी तरवीज (प्रसार) हुकूमत की तरफ़ से ममनू (निषिद्ध) क़रार दी जानी चाहिए।" इसी ख्य़ाल के तहत १९०५ तक (जब तक वे उच्च शिक्षा के लिए यूरोप नहीं गए थे) वे देश-प्रेम में डूबी हुई तथा भारत की पराधीनता और दरिद्रता पर खून के आँसू रुलाने वाली नज़्मों की रचना करते रहे। उन्होंने हर किसी के मुख में यह प्रार्थना डाली:
हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
फिर १९०५ में उनका यूरोप जाना हुआ। वहाँ छोटे-बड़े और काले-गोरे का भेद-भाव देखकर उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। अब विशाल अध्ययन तथा विस्तृत निरीक्षण के बाद उनकी क़लम से ऐसे शेर निकलने लगे:
दियारे-मग़रिब के रहनेवालों खुदा की बस्ती दुकां नहीं है
खरा जिसे तुम समझ रहे हो, वो अब ज़रे-कम-अयार होगा
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही खुदकशी करेगी
जो शाख़े-नाजुक पे आशियाना बनेगा नापायदार होगा
वे अब प्रगतिशील शायरी की और कूच करने लगे। ये इक़बाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘इंक़िलाब’ (क्रान्ति) का प्रयोग राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन के अर्थों में किया और उर्दू शायरी को क्रान्ति का वस्तु-विषय दिया। पूँजीपति और मज़दूर, ज़मींदार और किसान, स्वामी और सेवक, शासक और पराधीन की परस्पर खींचातानी के जो विषय हम आज की उर्दू शायरी में देखते हैं, उन सबपर सबसे पहले इक़बाल ने ही क़लम उठाई थी और यही वे विषय हैं जिनसे उनके बाद की पूरी पीढ़ी प्रभावित हुई और यह प्रभाव राष्ट्रवादी, रोमांसवादी और क्रान्तिवादी शायरों से होता हुआ आधुनिक काल के प्रगतिशील शायरों तक पहुँचा है।
१९०८ में यूरोप से लौटने के बाद वे उर्दू की बजाय फ़ारसी में अधिक लिखने लगे। फ़ारसी इस्तेमाल करने का कारण यह था कि उर्दू भाषा का शब्द-भण्डार फ़ारसी के मुक़ाबले में बहुत कम है। वहीं कुछ लोगों का मत यह है कि अब वे केवल भारत के लिए नहीं, संसार-भर के मुसलमानों के लिए शे’र कहना चाहते थे। कारण कुछ भी हो, वास्तविकता यह है कि फ़ारसी भाषा में शे’र कहने से उनका यश भारत से निकलकर न केवल ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिश्र तक पहुँचा, बल्कि ‘असरारे-ख़ुदी’ (अहंभाव के रहस्य) पुस्तक की रचना और डॉक्टर निकल्सन के उसके अंग्रेज़ी अनुवाद से तो पूरे यूरोप और अमरीका की नज़रें इस महान भारतीय कवि की ओर उठ गईं। और फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की श्रेष्ठ उपाधि प्रदान की।
इक़बाल का जन्म ९ नवंबर १८७७ को स्यालकोट में हुआ था। पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे जिन्होंने तीन सौ वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और कश्मीर से निकलकर पंजाब में आ बसे थे। उनके पिता एक अच्छे सूफी संत थे। यह उनके पिता की हीं तालीम थी कि इक़बाल की शायरी में गहरी सोच के दर्शन होते हैं। जैसे कि इन्हीं शेरों को देखिए:
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
ख़ुदा के बन्दे तो हैं हज़ारों बनो में फिरते हैं मारे-मारे
मैं उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ
इक़बाल के बारे में इतनी जानकारियों के बाद चलिए अब हम आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल को अपनी मखमली आवाज़ से मुकम्मल किया है उस्ताद मेहदी हसन ने। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है "राख" को परीशां करके "दिल" बना देने वाली ग़ज़ल, जो इक़बाल की पुस्तक "बाम-ए-जिब्रील" में दर्ज़ है:
परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है यारब फिर वोही मुश्किल न बन जाए
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
___ सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए
बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैगा-गराँ मुझको
ये मेरी ख़ुद निगहदारी मेरा साहिल न बन जाए
अरूज़-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
के ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "बेगाने" और शेर कुछ यूँ था-
गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
चलो अच्छा है अपनों में कोई गैर तो निकला.
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहाँ जाते. (राजेंद्र कृष्ण)
अगर पाना है सुकून तो कुछ बेगाने तलाश कर
अपनों के यहाँ तो आजकल महफ़िल नहीं होती (अवनींद्र जी)
जब से वे दिल की महफ़िल से रुखसत हुए ,
सारे मोसम अपने अब बेगाने हो गए . (मंजु जी)
अपनों- बेगानों का फ़रक न रहा होता ,
कभी वो नजरें यूं चुरा के न गया होता
जाना ही था तो बता के जाता ,
रास्ता हमने खुद ही दिखा दिया होता (नीलम जी)
जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं| (हबीब जालिब)
ख्वाबों पे कोई जोर नहीं उनकी मनमानी होती है
बेगाने दिल में बसने की उनसे नादानी होती है. (शन्नो जी)
यूँ तो पिछली महफ़िल के सबसे पहले मेहमान थे "नीरज रोहिल्ला" जी, लेकिन सही शब्द की पहचान कर अवध जी महफ़िल की शान बने। नीरज जी, सच कहूँ तो महफ़िल सजाने से पहले मुझे भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि "ख़ूब परदा है... " वाला शेर "दाग़" का है। मैं बता नहीं सकता कि महफ़िल लिखने का मुझे कितना फायदा हो रहा है। आलेख पसंद करने के लिए आपका और अन्य मित्रों का तह-ए-दिल से आभार। अवध जी, ये हाज़िर-गैरहाज़िर होने का खेल कब तक खेलते रहिएगा.. हमारे नियमित पाठक/श्रोता क्यों नहीं बन जाते.. :) अवनींद्र जी, आपके इस स्वरचित शेर के क्या कहने.. इसी तरह हर बार महफ़िल में चार चाँद लगाते रहें। मंजु जी और नीलम जी, हमें अच्छा लगा कि हमारे बहाने आपको भी छुट्टी मिल गई :) लेकिन आगे से ऐसा नहीं होगा.. हम इसका आपको यकीन दिलाते हैं। सजीव जी, महफ़िल जैसी भी बन पड़ी है, सब आपकी दुआओं का हीं असर है.. हमारे लिए यूँ हीं दुआ करते रहिएगा। शन्नो जी, आपको भी जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ, और हाँ ईद, तीज और गणेश-चतुर्थी की शुभकामनाएँ भी लगे हाथों कबूल कीजिए। (बस शन्नो जी हीं क्यों.. ये बधाईयाँ तो हरेक स्वजन के लिए हैं)। आशीष जी, हबीब साहब के शेरों से हमें रूबरू कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'मजलिस-ए-क़व्वाली' की आज की कड़ी में हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ७० के दशक का प्रतिनिधित्व करने वाले संगीतकारों में एक महत्वपूर्ण नाम है राहुल देव बर्मन का। और जहाँ तक उनके बनाए क़व्वालियों की बात है, तो उन्होंने कई फ़िल्मों में हिट क़व्वालियाँ दी हैं और दो ऐसी क़व्वालियाँ तो उनके फ़िल्मों के शीर्षक गीत भी थे। ये दो फ़िल्में हैं 'ज़माने को दिखाना है' और 'हम किसी से कम नहीं'। फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा" और 'आंधी' फ़िल्म में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं" भी दो उत्कृष्ट क़व्वालियाँ हैं पंचम के बनाए हुए। लेकिन आज जो हम उनकी क़व्वाली लेकर आए हैं वह एक ऐसी क़व्वाली है जिसे बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया। यह एक दार्शनिक क़व्वाली है; इस विषय पर बहुत सारे गीत लिखे गए हैं, लेकिन क़व्वाली की बात करें तो इस तरह की यह एकमात्र फ़िल्मी क़व्वाली ही मानी जाएगी। १९७१ की फ़िल्म 'अधिकार' की यह क़व्वाली है "जीना तो है उसी का जिसने यह राज़ जाना, है काम आदमी का औरों के काम आना"। एस. नूर निर्मित 'अधिकार' का निर्देशन किया था एस. एम. सागर ने। अशोक कुमार, नंदा और देब मुखर्जी अभिनीत इस लो बजट फ़िल्म के संवाद व गानें लिखे रमेश पंत ने। इस क़व्वाली के अलावा फ़िल्म का "रेखा ओ रेखा जब से तुम्हे देखा" गीत भी उस ज़माने में मशहूर हुआ था, लेकिन आज ना इस फ़िल्म का ज़िक्र कहीं आता है और ना ही फ़िल्म के गानें सुनाई देते हैं। कमचर्चित गीतकार रमेश पंत ने जिन फ़िल्मों में गीत लिखे हैं वो है 'अधिकार' (१९७१), 'सुरक्षा' (१९७९), 'वारदात' (१९८१), और 'इसी का नाम ज़िंदगी' (१९९२)। वैसे रमेश पंत एक सफल संवाद व पटकथा लेखक रहे हैं और उन्होंने कई कामयाब फ़िल्मों के संवाद और पटकथा लिखे हैं जिनमें शामिल है हाफ़ टिकट, कश्मीर की कली, ये रात फिर ना आएगी, दो दिलों की दास्तान (१९६६), ऐन ईवनिंग् इन पैरिस, दो भाई (१९६९), आराधना, पगला कहीं का, अमर प्रेम, अधिकार, राखी और हथकड़ी, मेरे जीवन साथी, राजा जानी, बनारसी बाबू, झील के उस पार, आपकी क़सम, आक्रमण, काला सोना, हरफ़न मौला, एक से बढ़कर एक, भँवर, भोला भाला, सुरक्षा, आशा, आसपास, अगर तुम ना होते, अफ़साना प्यार का, इसी का नाम ज़िंदगी।
मोहम्मद रफ़ी और साथियों की आवाज़ों में यह एक बहुत ही ख़ूबसूरत क़व्वाली है, जिसे असली क़व्वालों से गवाया गया है। रफ़ी साहब ने भी क्या पैशन और डूब कर गाया है इस क़व्वाली को कि इसमें जान फूँक दी है। फ़िल्म के सिचुएशन के मुताबिक़ यह क़व्वाली एक बच्चे के जन्म की ख़ुशी पर हो रहे जलसे में गाया जा रहा है, जैसे कि शुरुआती पंक्तियों में कहा गया है कि "ऐसी चीज़ सुनाए कि महफ़िल दे ताली पे ताली, वरना अपना नाम नहीं है बन्ने ख़ाँ भोपाली, मुन्ने मिया बधाई बनो ख़ूब होनहार, दोनों जहाँ की नेमतें हों आप पे निसार, बचपन हो ख़ुशगवार, जवानी सदा बहार, अल्लाह करे यह दिन आए हज़ार बार"। इस तरह से इसे हम 'हैप्पी बर्थडे क़व्वाली' भी कह सकते हैं और यह आम "हुस्न" और "इश्क़" जैसी विषयों से बिलकुल अलग हट कर है। फ़िल्म के पर्दे पर इसे अंजाम दिया है प्राण साहब ने जिन्होंने क़व्वाल बन्ने ख़ाँ भोपाली का किरदार निभाया था। फ़िल्म 'उपकार' से पहले उन पर गानें फ़िल्माए नहीं जाते थे, लेकिन 'उपकार' में "कस्मे वादे प्यार वफ़ा" गीत के बाद उन पर गीत फ़िल्माए जाने लगे, यहाँ पर फ़िल्म 'ज़ंजीर' की मशहूर क़व्वाली "यारी है इमान मेरा" का उल्लेख करना अनिवार्य हो जाता है। वैसे यह क़व्वाली भी इस शृंखला में शामिल होने का पूरा पूरा हक़ रखती है, लेकिन क्या करें, सब को इसमें समेटना तो संभव नहीं, फिर कभी किसी और बहाने हम इस क़व्वाली को भी ज़रूर सुनवाएँगे। फिलहाल "जीना तो है उसी का जिसने यह राज़ जाना"। वैसे आपको बता दें कि कल भी किसी और राज़ से हम पर्दा उठाएँगे...
क्या आप जानते हैं... कि रमेश पंत को १९७१ की फ़िल्म 'अमर प्रेम' में संवाद लिखने के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एक हिंट तो ऊपर ही दिया जा चुका है, फिल्म बताएं - १ अंक. २. जिस गायिका की आवाज़ है इस कव्वाली में, कल उनका जन्मदिन है, नाम बताएं- २ अंक. ३. फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री कौन हैं - २ अंक. ४ गीतकार और संगीतकार बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - वाह इंदु जी सबसे पहले हाज़िर होकर ३ अंक बटोरे बधाई, पवन जी, अवध जी, और रोमेंद्र जी को भी बधईयाँ, अवध जी गलती सुधारने के लिए धन्येवाद. हमारी कनाडा टीम कहाँ गायब है इन दिनों....आप लोगों की कमी खल रही है
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' में आज उस फ़िल्म की बारी जिसकी इन दिनों लोग, ख़ास कर युवा वर्ग, बड़ी बेसबरी से इंतज़ार कर रहे हैं। रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फ़िल्म 'अंजाना अंजानी', जिसमें विशाल शेखर के संगीत से लोग बहुत कुछ उम्मीदें रखे हुए हैं।
सुजॊय - और अक्सर ये देखा गया है कि जब इस तरह के यूथ अपील वाले रोमांटिक फ़िल्मों की बारी आती है, तो विशाल शेखर अपना कमाल दिखा ही जाते हैं। और इस फ़िल्म के निर्देशक सिद्धार्थ आनंद हैं जिनकी पिछली तीन फ़िल्मों - सलाम नमस्ते, ता रा रम पम, बचना ऐ हसीनों - में विशाल शेखर का ही संगीत था, और इन तीनों फ़िल्मों के गानें हिट हुए थे।
विश्व दीपक - ये तीनों फ़िल्में, जिनका ज़िक्र आपने किया, ये यश राज बैनर की फ़िल्में थीं, लेकिन 'अंजाना अंजानी' के द्वारा सिद्धार्थ क़दम रख रहे हैं यश राज के बैनर के बाहर। यह नडियाडवाला की फ़िल्म है, और इस बैनर ने भी 'हाउसफ़ुल', 'हे बेबी', 'कमबख़्त इश्क़' और 'मुझसे शादी करोगी' जैसी कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में दी हैं। इसलिए 'अंजाना अंजानी' से लोगों की बहुत उम्मीदें हैं।
सुजॊय - विशाल शेखर की पिछली फ़िल्म थी 'आइ हेट लव स्टोरीज़'। फ़िल्म तो ख़ास नहीं चली, लेकिन फ़िल्म के गानें पसंद किए गए और उन्हें हिट का दर्जा दिया जा चुका है। देखते हैं 'अंजाना अंजानी' उससे भी आगे निकल पाते हैं या नहीं। 'अंजाना अंजानी' की बातें आगे बढ़ाने से पहले आइए सुनते हैं इस फ़िल्म का पहला गीत - "अंजाना अंजानी की कहानी"।
गीत - अंजाना अंजानी की कहानी
विश्व दीपक - निखिल डी'सूज़ा और मोनाली ठाकुर की आवाज़ों में यह गाना था। इस गीत के बारे में कम से कम शब्दों में अगर कुछ कहा जाए तो वो है 'पार्टी मटिरीयल'। गीटार, ड्रम्स, ब्रास, रीदम, और गायन शैली, सब कुछ मिलाकर ७० के दशक के "पंचम" क़िस्म का एक डान्स नंबर है यह, जो आपकी क़दमों को थिरकाने वाला है अगले कुछ दिनों तक। हिंग्लिश में लिखा हुआ यह गीत नीलेश मिश्रा के कलम से निकला हुआ है। निखिल और मोनाली, दोनों ही नए दौर के गायक हैं। मोनाली ने इससे पहले फ़िल्म 'रेस' में "ज़रा ज़रा टच मी" और 'बिल्लू' में "ख़ुदाया ख़ैर" जैसे हिट गीत गा चुकी हैं। आज कल वो 'ज़ी बांगला' के 'स रे गा मा पा लिट्ल चैम्प्स' शो की जज हैं।
सुजॊय - और इस गीत में विशाल शेखर की शैली गीत के हर मोड़ पे साफ़ झलकती है। और अब 'अंजाना अंजानी' के टीम मेम्बर्स के नाम। साजिद नडियाडवाला निर्मित और सिद्धार्थ राज आनंद निर्देशित इस फ़िल्म में रणबीर और प्रियंका के अलावा ज़ायेद ख़ान ने भी भूमिका अदा की है। संगीतकार तो बता ही चुके है, गानें लिखे हैं नीलेश मिश्रा, विशाल दादलानी, शेखर, अमिताभ भट्टाचार्य, अन्विता दत्तगुप्तन, कुमार , इरशाद कामिल और कौसर मुनीर। और गीतकारों की तरह गायकों की भी एक पूरी फ़ौज है इस फ़िल्म के साउण्डट्रैक में - निखिल डी'सूज़ा, मोनाली ठाकुर, लकी अली, शेखर, कारालिसा मोण्टेरो, मोहित चौहान, श्रुति पाठक, विशाल दादलानी और शिल्पा राव।
विश्व दीपक - आइए अब फ़िल्म का दूसरा गीत सुना जाए लकी अली की आवाज़ में।
गीत - हैरत
सुजॊय - पहले गीत ने जिस तरह से हम सब के दिल-ओ-दिमाग़ के तारों को थिरका दिया था, "हैरत" की शुरुआत तो कुछ धीमी लय में होती है, लेकिन एक दम से अचानक इलेक्ट्रॊनिक गीटार की धुनें एक रॊक क़िस्म का आधार बन कर सामने आती है। लकी अली की आवाज़ बहुत दिनों के बाद सुनने को मिली, और कहना पड़ेगा कि ५१ वर्ष की आयु में भी उनकी आवाज़ में उतना ही दम अब भी मौजूद है। 'सुर' और 'कहो ना प्यार है' में उनके गाए गानें सब से ज़्यादा मशहूर हुए थे, हालाँकि उन्होंने कई और फ़िल्मों में भी गानें गाए हैं।
विश्व दीपक - इस गीत को लिखा था ख़ुद विशाल दादलानी ने, और अच्छा लिखा है। इससे पहले भी वे कई गानें लिख चुके हैं। विशाल के बोल और लकी अली की आवाज़ के कॊम्बिनेशन का यह पहला गाना है, शायद इसी वजह से इस गीत में एक ताज़गी है। इस गीत के प्रोमो आजकल टीवी पर चल रहे हैं और इस गीत के फ़िल्मांकन को देख कर ऐसा लग रहा है कि इस गीत की तरह फ़िल्म भी दमदार होगी।
सुजॊय - तो कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि लकी अली और विशाल-शेखर की "हैरत" ने हमें "हैरत" में डाल दिया है। और इस गीत से जो नशा चढ़ा है, उसे बनाए रखते हुए अब सुनते हैं तीसरा गीत राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में। एक और बेहतरीन गायक, एक और बेहतरीन गीत।
गीत - तू ना जाने आस-पास है ख़ुदा
विश्व दीपक - आजकल राहत साहब एक के बाद एक फ़िल्मी गीत गाते चले जा रहे हैं और कामयाबी की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते जा रहे हैं। उनका गाया हर गीत सुनने में अच्छा लगता है। अभी पिछले ही दिनों फ़िल्म 'दबंग' में उनका गाया "तेरे मस्त मस्त दो नैन" आपको सुनवाया था, और आज ये गीत आप सुन रहे हैं। लेकिन एक बात ज़रूर खटकती है कि राहत साहब से हर संगीतकार एक ही तरह के गीत गवा रहे हैं। ऐसे तो भई राहत साहब बहुत जल्दी ही टाइपकास्ट हो जाएँगे!
सुजॊय - हाँ, और हमारे यहाँ लोग आजकल की फ़ास्ट ज़िंदगी में किसी एक चीज़ को बहुत ज़्यादा दिनों तक पसंद नहीं करते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि राहत फ़तेह अली ख़ान अपनी मौलिकता को बनाए रखते हुए अलग अलग तरह के गीत गाएँ, तभी वो एक लम्बी पारी फ़िल्म संगीत में खेल पाएँगे। इस गीत के बारे में यही कहेंगे कि एक टिपिकल "राहत" या "कैलाश खेर" टाइप का गाना है।
विश्व दीपक - सूफ़ी आध्यात्मिकता लिए हुए इस गीत को लिखा है विशाल दादलानी और शेखर रविजानी ने। इसी गाने का एक 'अनप्लग्ड' वर्ज़न भी है जिसमें श्रुति पाठक की आवाज़ भी मौजूद है। बहरहाल आइए सुनते हैं 'अंजाना अंजानी' का अगला गीत शेखर और कारालिसा मोण्टेरो की आवाज़ों में।
गीत - तुमसे ही तुमसे
सुजॊय- विशाल दादलानी और शेखर, दोनों अच्छे गायक भी हैं। जहाँ एक तरफ़ विशाल की आवाज़ में बहुत दम है, रॊक क़िस्म के गानें उनकी आवाज़ में ख़ूब जँचते हैं, उधर दूसरी तरफ़ शेखर की आवाज़ में है नर्मी। बहुत ही प्यारी आवाज़ है शेखर की और ये जो गीत अभी आपने सुना, उसमें भी उनका वही नरम अंदाज़ सुनने को मिलता है। कारालिसा ने अंग्रेज़ी के बोल गाए हैं और गीत की आख़िर में उनकी गायकी गीत में अच्छा इम्पैक्ट लाने में सफल रही है। कुल मिलाकर यह गीत एक कर्णप्रिय गीत है और मुझे तो बहुत अच्छा लगा।
विश्व दीपक - हाँ, और इस गीत में भी एक ताज़गी है और एक अलग ही मूड बना देता है। बस अपनी आँखें मूंद लीजिए और अपने किसी ख़ास दोस्त को याद करते हुए इस गीत का आनंद लीजिए। इस गीत के अंग्रेज़ी के बोल कारालिसा ने ख़ुद ही लिखे है। हिन्दी के बोल अन्विता दत्त गुप्तन और अमिताभ भट्टाचार्य की कलमों से निकले हैं। अब अगले गीत की तरफ़ बढ़ते हैं। श्रुति पाठक और मोहित चौहान की आवाज़ों में यह एक और ख़ूबसूरत गीत है इस फ़िल्म का - "तुझे भुला दिया फिर", आइए सुनते हैं।
गीत - तुझे भुला दिया फिर
विश्व दीपक - एक हौंटिंग प्रील्युड के साथ गीत शुरु हुआ और श्रुति के गाए पंजाबी शब्द सुनने वाले के कान खड़े कर देते हैं। और ऐसे में मोहित की अनोखी आवाज़ (कुछ कुछ लकी अली के अंदाज़ की) आकर गीत को हिंदी में आगे बढ़ाती है। बिना रीदम के मुखड़े के तुरंत बाद ही ढोलक के ठोकों का सुंदर रीदम और कोरस के गाए अंतरे "तेरी यादों में लिखे जो...", इस गीत की चंद ख़ासियत हैं। यह तरह का एक्स्पेरीमेण्ट ही कह सकते हैं कि एक ही गीत में इतने सारे अलग अलग प्रयोग। कुल मिलाकर एक सुंदर गीत।
सुजॊय - जी हाँ, ख़ास कर धीमी लय वाले मुखड़े के बाद इंटरल्युड में क़व्वाली शैली के ठेके और कोरस का गायन एक तरह का फ़्युज़न है क़व्वाली और आधुनिक गीत का। आपको बता दें कि इस गीत को विशाल दादलानी ने लिखा है, लेकिन क़व्वाली वाला हिस्सा लिखा है गीतकार कुमार ने। यह गीत सुन कर एक "फ़ील गुड" का भाव मन में जागृत होता है।
विश्व दीपक - "फ़ील गूड" की बात है, तो अब जो अगला गाना है उसके बोल ही हैं "आइ फ़ील गुड"। एक रॊक अंदाज़ का गाना है विशाल दादलानी और शिल्पा राव की आवाज़ों में, आइए इसे सुनते हैं।
गीत - आइ फ़ील गुड
सुजॊय - विशाल और शिल्पा के रॊक अंदाज़ से हम सभी वाकिफ़ हैं। वैसे शिल्पा से अब तक संगीतकार दबे हुए गीत ही गवाते आ रहे हैं, सिर्फ़ "वो अजनबी" ही एक ऐसा गीत था जिसमें उनकी दमदार आवाज़ सामने आई थी। "आइ फ़ील गुड" में भी उनकी आवाज़ खुल के बाहर आई है। और इसके बाद शायद अनुष्का मनचंदा की तरह उन्हें भी इस तरह के और गानें गाने के अवसर मिलेंगे।
विश्व दीपक - इस गीत को भी विशाल ने ही लिखा है, लेकिन अगर फ़ील गुड की बात करें तो पिछला गाना इससे कई गुना ज़्यादा बहतर था। ख़ैर, अब हम आ पहुँचे हैं आज के अंतिम गीत पर। और इसे भी विशाल और शिल्पा ने ही गाया है। "अंजाना अंजानी" फ़िल्म का एक और शीर्षक गीत, इस बार सॊफ़्ट रॊक शैली में, जिसे लिखा है कौसर मुनीर ने। वैसे इस गीत का मुखड़ा इरशाद कामिल ने लिखा है। सिद्धार्थ आनंद की हर फ़िल्म में इस क़िस्म का एक ना एक रोमांटिक युगल गीत ज़रूर होता है, जैसे 'सलाम नमस्ते' का "माइ दिल गोज़ म्म्म्म", 'ता रा रम पम' का "हे शोना", या फिर "ख़ुदा जाने" 'बचना ऐ हसीनों' का।
सुजॊय - भई मुझे तो इस गीत में "सदका किया" की छाप मिलती है। चलिए, जो भी है, गाना अच्छा है, अपने श्रोताओं को भी सुनवा देते हैं।
गीत - अंजाना अंजानी
सुजॊय - इन तमाम गीतों को सुनने के बाद फिर एक बार वही बात दोहराउँगा कि ये गानें कुछ ऐसे बनें हैं कि अगर फ़िल्म चल पड़ी तो ये गानें भी चलेंगे। और फ़िल्म पिट गई तो चंद रोज़ में ही ये भी गुमनामी में खो जाएँगे। 'बचना ऐ हसीनों' फ़िल्म नहीं चली थी, लेकिन "ख़ुदा जाने" गीत बेहद मक़बूल हुआ और आज भी सुना जाता है। लेकिन "ख़ुदा जाने" वाली बात मुझे इस फ़िल्म के किसी भी गाने में नज़र नहीं आई, लेकिन सभी गाने अपनी अपनी जगह पे अच्छे हैं। मुझे जो दो गीत सब से ज़्यादा पसंद आए, वो हैं "तुमसे ही तुमसे" और "तुझे भुला दिया फिर"। मेरी तरफ़ से इस ऐल्बम को ३ की रेटिंग, और 'अंजाना अंजानी' की पूरी टीम को इस फ़िल्म की कामयाबी के लिए ढेरों शुभकामनाएँ।
विश्व दीपक - सुजॉय जी, मैं आपकी बातों से सहमत भी हूँ और असहमत भी। सहमत इसलिए कि मुझे भी वही दो गाने सबसे ज्यादा पसंद आए जो आपको आए हैं और असहमत इसलिए कि मुझे बाकी गाने भी अच्छे लगे इसलिए मेरे हिसाब से इस फिल्म के गाने इतनी आसानी से गुमनामी के गर्त में धंसेंगे नहीं। इस फिल्म के सभी गानों में विशाल-शेखर की गहरी छाप है, हर गाने में उनकी मेहनत झलकती है। इसलिए मैं अपनी तरफ़ से विशाल-शेखर को "डबल थंब्स अप" देते हुए आपके दिए हुए रेटिंग्स में आधी रेटिंग जोड़कर इसे साढे तीन बनाने की गुस्ताखी करने जा रहा हूँ। संगीतकार के बाद गीतकार की बात करते हैं। सच कहूँ तो मैंने और किसी फिल्म में गीतकारों की इतनी बड़ी फौज़ नहीं देखी थी। ७ गानों के लिए नौ गीतकार.. जबकि विशाल चार गीतों में खुद मौजूद हैं गीतकार की हैसियत से। मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि एक गीत तीन गीतकार मिलकर कैसे लिख सकते हैं। "तुमसे हीं तुमसे" के अंग्रेजी बोलों के लिए कारालिसा की जरूरत पड़ी, यह बात तो पल्ले पड़ती है, लेकिन यह बात मुझे अचंभित कर रही है कि बाकी बचे हिन्दी के कुछ लफ़्ज़ों के लिए अन्विता दत्त गुप्तन और अमिताभ भट्टाचार्य जैसे दिग्गज मैदान में उतर गए। "तुझे भुला दिया फिर" और "अंजाना अंजानी हैं मगर" ये दो ऐसे गीत हैं, जिनका मुखरा एक गीतकार ने लिखा है और अंतरे दूसरे ने.. ये क्या हो रहा है भाई? जहाँ कभी पूरी फिल्म के गाने एक हीं गीतकार लिखा करते थे, वहीं एक गीत में हीं दो-दो, तीन-तीन गीतकार .. तब तो कुछ दिनों में ऐसा भी हो सकता है कि एक-एक पंक्ति एक-एक गीतकार की हो.. एक गीतकार के लिए उससे बुरा क्षण क्या हो सकता है! अगर ऐसा हुआ तो हम जैसे भावी गीतकारों का भविष्य अधर में हीं समझिए :) खैर, कितने गीतकार रखने हैं और कितने संगीतकार- यह निर्णय तो निर्माता-निर्देशक का होता है.. हम कुछ भी नहीं कर सकते.. बस यही कर सकते हैं कि जितना संभव हो सके, अच्छे गाने चुनते और सुनते जाएँ। तो चलिए इन्हीं बातों के साथ हम आज की समीक्षा को विराम देते हैं। अगली बार हम एक लीक से हटकर एलबम के साथ हाज़िर होंगे.. नाम जानने के लिए आप अगली कड़ी का इंतज़ार करें।
आवाज़ रेटिंग्स: अंजाना अंजानी: ***१/२
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # १००- कौसर मुनीर का लिखा वह कौन सा युगल गीत है जिस फ़िल्म में सैफ़ अली ख़ान थे और जिस गीत में एक आवाज़ महालक्ष्मी की है?
TST ट्रिविया # १०१- राहत फ़तेह अली ख़ान ने हिंदी फ़िल्म जगत में सन् २००४ में क़दम रखा था और उस साल फ़िल्म 'पाप' में "लागी तुमसे मन की लगन" गीत मक़बूल हुआ था। इसी साल एक और फ़िल्म में भी उन्होंने गीत गाया था, बताइए उस फ़िल्म का नाम।
TST ट्रिविया # १०२- विशाल-शेखर के शेखर ने इससे पहले भी एक गीत गाया था जो परेश रावल पर फ़िल्माया गया था। क्या आप बता सकते हैं वह गीत कौन सा था?
TST ट्रिविया में अब तक - पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:
१. "कुछ मेरे दिल ने कहा" (तेरे मेरे सपने)
२. मधुश्री
३. 'पद्म शेशाद्री हायर सेकण्डरी स्कूल'।
एक बार फिर सीमा जी ने तीनों सवालों के सही जवाब दिए। बधाई स्वीकारें!
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है रमज़ान के मौके पर कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों की ख़ास शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। क़व्वाली का जो मूल उद्देश्य है, उसे लोगों तक पहुँचाना क़व्वालों का काम है। अब जहाँ पर फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल लोग आम बोलचाल में नहीं करते हैं, वहाँ पर क़व्वाली का अर्थ लोगों तक पहुँचाने के लिए संगीत और रीदम का सहारा लिया जाने लगा और उस रूप को, उस शैली को इतना ज़्यादा प्रभावशाली बनाया कि क़व्वाली सुनते हुए लोग ट्रान्स में चले जाने लगे। लोगों को सारे अल्फ़ाज़ भले ही समझ में ना आते हों, लेकिन संगीत और रीदम कुछ ऐसे सर चढ़ के बोलता है क़व्वालियों में कि सुनने वाला उसके साथ बह निकलता है और क़व्वाली के ख़त्म होने के बाद ही होश में वापस आता है। और इसी तरह से क़व्वाली का विकास हुआ और धीरे धीरे संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बन गई। पिछले पाँच दशकों में पाक़िस्तान में क़व्वालियों की शैलियों में बदलाव लाने वाले क़व्वाल गोष्ठियों में ६ नाम प्रमुख हैं और ये नाम हैं - उस्ताद फ़तेह अली व मुबारक अली ख़ान, उस्ताद करम दीन टोपई वाले, उस्ताद छज्जु ख़ान, उस्ताद मोहम्मद अली फ़रीदी, उस्ताद संतु ख़ान, उस्ताद बख़्शी सलामत, तथा उस्ताद मेहर अली ख़ान व उस्ताद शेर अली ख़ान। किसी भी क़व्वाली का मुख्य गायक, जिसे मोहरी कहते हैं, स्टेज के दाहिने तरफ़ बैठते हैं। अवाज़िआ उनके बाएँ तरफ़ और एक और अच्छा गायक अवाज़िआ के बाएँ तरफ़ बैठा करते हैं। इस दूसरे "बैक-अप" गायक का काम है मुख्य गायक को सहारा देना और आपातकाल में स्थिति को संभाल लेना। तबले को मध्य भाग में रखा जाता है। इस बैक-अप सिंगर का कॊनसेप्ट शायद जोड़ियों की वजह से जन्मा होगा, जैसे कि दो भाइयों की जोड़ी या पिता-पुत्र की जोड़ी। लेकिन दोस्तों, आज हम आपको जिस क़व्वाली से आपका मनोरंजन करने जा रहे हैं उसमें कोई बैक-अप सिंगर नहीं है। जी हाँ, लता जी ने अकेले ही शुरु से आख़िर तक इस क़व्वाली को सुरीला अंजाम दिया है। आज हम आपको सुनवा रहे हैं लता मंगेशकर और साथियों की गाई फ़िल्म 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में, रूठे पल में न माने महीनों में"।
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' १९६८ की फ़िल्म थी। फ़िल्म के निर्माता थे केवल कुमार और निर्देशक थे अमर कुमार। कहानी निर्मल कुमारी की, स्क्रीनप्ले अमर कुमार का, और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी के। धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर, मुमताज़, रहमान, ओम प्रकाश, अचला सचदेव और निगार सुल्ताना अभिनीत इस फ़िल्म के गानें लिखे मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीत था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का। लक्ष्मी-प्यारे के संगीत में अगर क़व्वाली की बात करें तो 'अमर अक़बर ऐन्थनी' की क़व्वाली "पर्दा है पर्दा" ही सब से लोकप्रिय मानी जाएगी, लेकिन 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की यह क़व्वाली भी बहुत ही प्यारी क़व्वाली है। बोल जितने प्यारे हैं, लक्ष्मी-प्यारे ने रीदम सेक्शन में ढोलक और तबले के ठेकों का इस ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है कि दिल मचल उठता है इसे सुनते हुए। वैसे भी लक्ष्मी-प्यारे के गीत उनके ख़ास रीदम और ठेकों के लिए जाने जाते रहे हैं। फ़ास्ट और स्लो रीदम का जो ट्रान्ज़िशन इस क़व्वाली में होता है, वह कमाल का है और शायद इस क़व्वाली की खासियत भी। आपको यह बताते हुए कि यह क़व्वाली फ़िल्मायी गई है धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक पार्टी में जिसे गाती हैं मुमताज़, सुनते हैं यह क़व्वाली, जो मुझे बेहद पसंद है, और शायद आपको भी। है न!
क्या आप जानते हैं... कि लता मंगेशकर का फ़ेवरीट आशा नंबर है फ़िल्म 'दिल ही तो है' की क़व्वाली "निगाहें मिलाने को जी चाहता है", ऐसा लता जी ने हाल ही में अपने ट्विटर पेज पर लिखा है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एस एम् सागर निर्देशित इस फिल्म का नाम बताएं - १ अंक. २. मुखड़े में शब्द है "राज़" संगीतकार बताएं - २ अंक. ३. गीतकार बताएं - ३ अंक. ४ प्रमुख आवाज़ है रफ़ी साहब की, किस अभिनेता पर फिल्माया गया है इसे - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - केवल ३ ही सही जबाव आये, इंदु जी, रोमेंद्र जी और दूसरी कोशिश में पवन जी, सभी को बधाई...मेहन्द्र जी और अनीता जी का आभार, अनीता जी कहाँ थे इतने दिन बहुत दिनों में इस महफ़िल की याद आई. अनाम जी अपना नाम तो बताईये, एक तरीका हम बता सकते हैं आपकी "उनको" मानाने का, एक अच्छा सा गीत सोचिये, और कुछ उनकी तारीफ़ में लिख कर हमें भेज दीजिए. शनिवार शाम जब वो गीत बजेगा तो वो यक़ीनन मान जायेंगीं, आजमा के देखिये
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
रमज़ान का मुबारक़ महीना चल रहा है और इस पाक़ मौक़े पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी रंगीन और सुरीला बनाने के लिए इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। अब तक आपने इसमें पाँच क़व्वालियाँ सुनी। ४० के दशक के मध्य भाग से शुरू कर हम आ पहुँचे थे १९६० में और उस साल बनी दो बेहद मशहूर क़व्वालियाँ आपको हमने सुनवाई फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' और 'बरसात की रात' से। अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं और आ जाते है साल १९६५ में। इस साल बनी थी हिंदी फ़िल्म इतिहास की पहली मल्टिस्टरर फ़िल्म 'वक़्त'। सुनिल दत्त, साधना, राज कुमार, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, बलराज साहनी, निरुपा रॊय, मोतीलाल और रहमान जैसे मंझे हुए कलाकारों के पुर-असर अभिनय से सजा थी 'वक़्त'। पहले बी. आर. चोपड़ा इस फ़िल्म को पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटे राज, शम्मी और शशि को लेकर बनाना चाहते थे, लेकिन हक़ीक़त में केवल शशि कपूर को ही फ़िल्म में 'कास्ट' कर पाए। और पिता के किरदार में पृथ्वीराज जी के बदले लिया गया बलराज साहनी को। 'वक़्त' ने १९६६ में बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि धरम चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र), अख़्तर-उल-इमान (सर्वश्रेष्ठ संवाद), यश चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), अख़्तर मिर्ज़ा (सर्वश्रेष्ठ कहानी), राज कुमार (सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता), और बी. आर. चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म)। भले ही इस फ़िल्म के गीत संगीत के लिए किसी को कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन असली पुरस्कार तो जनता का प्यार है जो इस फ़िल्म के गीतों को भरपूर मिला और आज भी मिल रहा है। युं तो आशा भोसले और महेन्द्र कपूर ने नई पीढ़ी के अभिनेताओं का प्लेबैक किया, एक क़व्वाली पिछली पीढ़ी, यानी बलराज साहनी और निरुपा रॊय पर भी फ़िल्मायी गयी थी। और यही क़व्वाली सब से मशहूर साबित हुई। मन्ना डे की आवाज़ में बलराज साहब पर्दे पर अपनी पत्नी (अचला सचदेव) की तरफ़ इशारा करते हुए गाते हैं "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ, तुझपे क़ुर्बान मेरी जान मेरी जान"। साहिर लुधियानवी के बोल और रवि का संगीत। फ़िल्म में इस क़व्वाली के ख़त्म होते ही प्रलयंकारी भूकम्प आता है और बलराज साहनी का पूरा परिवार बिखरकर रह जाता है।
दोस्तों, बरसों पहले संगीतकार रवि को विविध भारती पर साहिर लुधियानवी पर चर्चा करने हेतु आमंत्रित किया गया था। उस चर्चा में शामिल थे शायर और उद्घोषक अहमद वसी, रज़िया रागिनी और कमल शर्मा। पेश है उसी बातचीत से एक अंश जिसमें रवि जी साहिर साहब के बारे में बता रहे हैं और इस क़व्वाली का भी ज़िक्र है उस अंश में।
रवि जी, अब आप साहिर साहब की शख़्सीयत के बारे में कुछ बताइए।
रवि: साहिर साहब बड़े ही सिम्पल क़िस्म के थे। वो गम्भीर से गम्भीर बात को भी बड़े आसानी से कह डालते थे। एक क़िस्सा आपको सुनाता हूँ। उन दिनों हम ज़्यादातर बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों के लिए काम करते थे। तो शाम के वक़्त हम मिलते थे, बातें करते थे। तो एक दिन साहिर साहब ने अचानक कहा 'देश में इतने झंडे क्यों है? और अगर है भी तो उनमें डंडे क्यों है?' (इस बात पर वहाँ मौजूद सभी ज़ोर से हँस पड़ते हैं)।
रवि साहब, हमने सुना है कि साहिर साहब अपने गीतों में हेर-फेर पसंद नहीं करते थे, इस बारे में आपका क्या ख़याल है?
रवि: साहिर साहब के गानें ऐसे होते थे कि उनमें किसी तरह का हेर-फेर करना पॊसिबल ही नहीं होता था। अब फ़िल्म 'वक़्त' के "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं" को ही ले लीजिए। जब उन्होंने यह गीत लिखा तो सभी ने कहा कि आम आदमी "ज़ोहरा-जबीं" को नहीं समझ पाएँगे। पर साहिर साहब ने कहा कि क्यों नहीं समझ पाएँगे, इससे अच्छा शब्द और क्या हो सकता है! और जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यही गीत सब से पॊपुलर साबित हुई। साहिर हर तरह के गानें लिखते थे और बहुत ही कामयाबी के साथ लिखते थे, चाहे भजन हो, क़व्वाली हो, कुछ भी।
क्या आप जानते हैं... कि रवि की पहली फ़िल्म 'वचन' के गीत "चंदा मामा दूर के पुए पकाए गुड़ के" के मुखड़े और अंतरे के बीच के इंटरल्युड में रवि ने गणेश चतुर्थी पर बजनेवाली एक धुन को पिरोया था, और वर्षों बाद इसी धुन पर लक्ष्मी-प्यारे ने 'तेज़ाब' का सुपरहिट गीत "एक दो तीन" बनाकर माधुरी दीक्षित को रातोंरात सुपरस्टार बना दिया। (सौजन्य: 'धुनों की यात्रा', पंकज राग)
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. कव्वाली में हसीनों का जिक्र है गायिकाओं की आवाज़ में, फिल्म बताएं - १ अंक. २. केवल कुमार निर्देशित फिल्म के नायक कौन थे - २ अंक. ३. संगीतकार बताएं - २ अंक. ४ मूल गायिका हैं लता मंगेशकर, गीतकार बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - पवन जी, इंदु जी, क्रिश जी और प्रतिभा जी को बहुत बधाई. अवध जी, पाबला जी और बाकी सब साथियों ने मिलकर जिस प्रकार पूरी फिल्म की कहानी लिख डाली उसमें हमें बहुत मज़ा आया
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
हिन्द-युग्म YouTube Channel
आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
हमसे जुड़ें
आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
यदि आप अपनी कविताओं/गीतों/कहानियों को एक प्रोफेशनल आवाज़ में डब्ब ऑडियो बुक के रूप में देखने का ख्वाब रखते हैं तो हमसे संपर्क करें-hindyugm@gmail.com व्यवसायिक संगीत/गीत/गायन से जुडी आपकी हर जरुरत के लिए हमारी टीम समर्पित है