Saturday, October 9, 2010

ओल्ड इस गोल्ड - सफर अब तक



'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। दोस्तों, अभी परसों ही हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५००-वें पड़ाव पर आ कर रुके हैं, और कल से यह सुरीला कारवाँ फिर से चल पड़ेगा अपने १०००-वें पड़ाव की तरफ़। इस उपलब्धि पर आप सब ने जिस तरह से हमें बधाई दी है, जिस तरह से हमारे प्रयास को स्वीकारा और सराहा है, हम अपनी व्यस्त ज़िंदगी से बहुत ही मुश्किल से समय निकाल कर इस स्तंभ को प्रस्तुत करते हैं, लेकिन आप सब के इतने प्यार और सराहना पाकर हमें वाक़ई ऐसा लगने लगा है कि हम अपनी मक़सद में कामयाब हुए हैं। और इंदु जी ने तो बिल्कुल सही कहा है कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की बदौलत हम जैसे एक परिवार में बंध गये हैं। हम एक दूसरे को जानने और पहचानने लगे हैं। और ये पुराने सुमधुर गानें ही जैसे एक डोर से हमें आपस में बांधे हुए हैं। तो दोस्तों, कल से इस सुरीले सफ़र पर फिर से चल निकलने से पहले क्यों ना आज हम पीछे मुड़ कर एक बार फिर से गुज़रें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पीछे छोड़ आये उन सुरीले गलियारों से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के कई ऐसे श्रोता व पाठक हैं जो हम से इस स्तंभ के पहले अंक से अब तक जुड़े हुए हैं, और बहुत से साथी ऐसे भी हैं जो बाद में हमसे जुड़े, और कुछ साथी तो अभी हाल ही में जुड़े हैं। तो आप सभी के लिए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह विशेषांक 'ओल्ड इज़ गोल्ड - सफ़र अब तक'। इस आलेख को पढ़ने के बाद हमारे नये साथियों को एक अंदाज़ा हो जाएगा कि किस तरह से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र अब तक हमने तय किया है, किस तरह के गानें इसमें बजे हैं, और कैसी रही अब तक की यह सुमधुर यात्रा।

२० फ़रवरी २००९ को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का पहला अंक प्रस्तुत हुआ था जिसमें बजा था फ़िल्म 'नीला आकाश' का गीत "आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है"। आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के गाये इस युगल गीत से इस शृंखला का आग़ाज़ हुआ था, इसलिए आपको लगे हाथ यह भी बताते चलें कि आशा-रफ़ी के कुल १० युगल गीत अब तक इस स्तंभ में बज चुके हैं और ये बाकी के ९ गानें हैं - "रात के हमसफ़र थक के घर को चले", "देखो क़सम से कहते हैं तुमसे हाँ", नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है", "बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी", "ज़मीं से हमें आसमाँ पर", दीवाना मस्ताना हुआ दिल", "ओ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली", "आप युही अगर हमसे मिलते रहे" और "राज़ की बात कहदूँ तो जाने महफ़िल में फिर क्या हो"। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५०-वाँ अंक हमने समर्पित किया फ़िल्म जगत के पहले सिंगिंग सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल साहब को और हमने बजाया फ़िल्म 'शाहजहाँ' से "ग़म दिये मुस्तक़िल कितना नाज़ुक है दिल"। दोस्तों, जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शुरु हुआ था, उस समय हम इसे लघु शृंखलाओं में नहीं बाँटा करते थे। १००-वें अंक तक हम इसमें मिले-जुले गानें ही बजाते रहे। १००-वाँ हमने मनाया 'मुग़ल-ए-आज़म' की मशहूर रचना "प्यार किया तो डरना क्या" के साथ।

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के १०० अंक हो जाने पर हमें लगा कि अब इसमें कुछ बदलाव करना ज़रूरी है। इसी के मद्देनज़र हमनें तय किया कि मिले जुले गानों के साथ साथ बीच बीच में कुछ लघु शंखलाएँ भी चलाई जाए जो केन्द्रित हो किसी कलाकार विशेष पर। इस राह पर हमारी पहली प्रस्तुति थी राज कपूर विशेष', जिसके तहत हमने कुल ७ गीत बजाये 'बरसात', 'आवारा', 'जागते रहो', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'श्री ४२०', 'http://podcast.hindyugm.com/2009/06/laali-laali-dolia-mein-laali-re.html' और 'मेरा नाम जोकर' फ़िल्मों से। क्योंकि उन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' रोज़ाना पेश होता था, इसलिए इन लघु शृंखलाओं को हम ७ कड़ियों में सीमित करते थे। 'राज कपूर विशेष' के बाद करीब करीन १ महीने के अंतराल के बाद हमारी दूसरी लघु शृंखला आयी संगीतकार मदन मोहन के संगीत से सजी हुई। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के १५०-वें अंक के लिए हमने चुना अनोखे संगीतकार सज्जाद साहब का स्वरबद्ध गीत "ये हवा ये रात ये चांदनी", फ़िल्म 'संगदिल' से। ३१ जुलाई को रफ़ी साहब के याद का दिन होता है और ४ अगस्त हमारे किशोर दा का जन्मदिवस। तो इन दोनों अज़ीम फ़नकारों के नाम हमने एक के बाद एक दो लघु शृंखलाएँ समर्पित किए - पहली शृंखला थी 'दस चेहरे और एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' तथा 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़ - किशोर कुमार'। जैसे कि इन शीर्षकों से साफ़ ज़ाहिर है, अब ये शृंखलाएँ १० कड़ियों के बन चुके थे। किशोर दा के इस शृंखला के तुरंत बाद १५ अगस्त २००९ के अवसर पर हमने एक के बाद एक तीन देश भक्ति गीत शामिल किए - "ताक़त वतन की तुमसे है", "छोड़ो कल की बातें", और "मेरे देश की धरती सोना उगले"।

'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ का एक ख़ास आकर्षण होता है 'पहेली प्रतियोगिता'। हर रोज़ हम आपको कुछ सूत्र देते हैं अगले दिन के गीत के बारे में और आपको अंदाज़ा लगाना पड़ता है उस गीत का। तो इस प्रतियोगिता के पहले विजेयता बने थे शरद तैलंग जी, और उन्हें इनाम स्वरूप हमने उन्हें मौका दिया था अपने पसंद के पाँच गीत बजाने का। उनके पसंद के पाँच गानें बजे थे १७६ से लेकर १८० कड़ी के बीच। २७ अगस्त २००९ को मुकेश की पुण्यतिथि के अवसर पर हमने मुकेश जी के ही पसंद के १० गीतों को चुन कर प्रस्तुत की लघु शृंखला 'दस गीत जो थे मुकेश को प्रिय'। फिर बारी आयी ८ सितंबर को गायिका आशा भोसले को जन्मदिन की बधाई देने की। बधाई स्वरूप हमने आयोजित की लघु शृंखला 'दस गायक और एक आपकी आशा'। आशा भोसले के साथ १० अन्य गायकों के गाये युगल गीतों की यह शृंखला सम्पन्न हुई 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के २००-वें अंक पर और उस दिन हमने बजाया था "दीवाना मस्ताना हुआ दिल", फ़िल्म 'बम्बई का बाबू' से। फिर हमें मिली 'पहेली प्रतियोगिता' की दूसरी विजेयता स्वप्न मंजुषा शैल 'अदा' और हमने उनके भी पसंद के पाँच गानें सुनवाए। आज अदा जी हमारी महफ़िल में नहीं पधारतीं, लेकिन वो जहाँ कहीं भी हैं हमारी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं।

सितंबर के महीने का आख़िरी सप्ताह हो और हम लता जी के गीतों को याद ना करें ऐसा भला कैसे हो सकता है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि लता के गाये किन १० गीतों को चुने? अगर उनके गाये लोकप्रिय गीतों को चुनने की बात है तो फिर किन १० गीतॊं को चुना जाए यह एक बेहद मुश्किल और नामुमकिन सा सवाल खड़ा हो जाता है। इसलिए हमने तय किया कि लता जी के गाये १० दुर्लभ गीतों को आपके साथ बाँटा जाए। हमारे इस प्रयास में सहयोग के लिए सामने आए नागपुर के श्री अजय देशपाण्डे, जिन्होंने लता जी के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीत हमें चुन कर भेजे और जिनसे सजाकर हमने पेश की 'मेरी अवाज़ ही पहचान है'। यह तो थी सन् २००९ की। अजय जी ने इस साल भी उससे भी ज़्यादा दुर्लभ गीतों की एक और सीरीज़ हमें भेजी और इस साल भी हाल ही में हमने उन्हें आप तक पहुँचाया 'लता के दुर्लभ दस' लघु शृंखला के तहत। इस तरह से २००९ और २०१०, दोनों साल हमने बहुत ही ख़ास तरीके से मनाया लता जी का जन्मदिन।

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के २२०-वे अंक से हमने फिर एक बार अपना रुख़ ज़रा सा मोड़ा। अब तक हम लघु शृंखलाएँ केवल कलाकारों पर केन्द्रित ही करते आये थे, लेकिन अब हमें लगा कि कुछ अन्य विषयों पर भी ऐसी शृंखलाएँ चलाई जाएँ ताकि फ़िल्म संगीत के विभिन्न पक्षों पर और गहराई और करीबी से नज़र डाल सकें। इस प्रयास में पहली शृंखला पेश हुई 'दस राग दस रंग', जिसमें १० शास्त्रीय रागों पर आधारित १० गीत आपको सुनवाए। अक्तुबर २००९ के अंतिम सप्ताह के आसपास साहिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन, दोनों की ही पुण्यतिथि आती है, और इत्तेफ़ाक़ की बात है कि इन दोनों ने साथ साथ बहुत काम किए हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमने साहिर साहब के लिखे और बर्मन दादा के स्वरबद्ध किए १० गीतों की एक लघु शृंखला आयोजीत की 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। "जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?" इसी नज़्म के साथ पूरी हुई थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २५०-वीं कड़ी।

२५१ से लेकर २५५ अंकों में हमने बजाये थे पहेली प्रतियोगिता की तीसरी विजेयता पूर्वी जी के पसंद के पाँच गानें। फिर उसके बाद बाल दिवस के आसपास हमने सुनें बच्चों के कुछ गानें 'बचपन के दिन भुला ना देना' शृंखला के अंतर्गत। इसमें "नानी तेरी मोरनी", "नन्हा मुन्ना राही हूँ", "बच्चे मन के सच्चे", "मास्टरजी की आ गई चिट्ठी", "इचक दाना बीचक दाना", "चक्के पे चक्का", "दादी अम्मा मान जाओ", "है ना बोलो बोलो", "तेरी है ज़मीं" और "लकड़ी की काठी" जैसे लोकप्रिय गानें हमने शामिल किए थे। उसके बाद आई लघु शृंखला 'गीतांजली', यानी कि गायिका गीता दत्त के गाए १० गीत जो फ़िल्माये गये हैं १० अलग अलग अभिनेत्रियों पर। और इन्हें और इन गीतों के बारे में तमाम जानकारियाँ इकत्रित कर हमें भेजा था गीता जी के परम भक्त श्री पराग सांकला जी ने। गीत दत्त के तुरंत बाद हमने आयोजित की गीतकार शैलेन्द्र की रचनाओं पर केन्द्रित शृंखला 'शैलेन्द्र - आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी'। शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें कुछ ऐसे गानें बजे होंगे जो राज कपूर निर्मित फ़िल्में नहीं थीं। पराग सांकला जी का एक बार फिर से ज़िक्र करना ज़रूरी है क्योंकि वो ही बने थे हमारे पहेली प्रतियोगिता के चौथे विजेयता और उनके पसंद के पाँच गानें हमने सुने थे २९१ से २९५ कड़ियों के बीच। और २९६ से ३०० कड़ियों में हमने एक बार फिर से बजाये शरद तैलंग जी के पसंद के गानें जो एक बार फिर से पहेली प्रतियोगिता के विजेयता बने थे। इस तरह से शरद जी को हमने महागुरु की उपाधि दे दी। और इसी के साथ साल २००९ का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र पूरा हो गया।

चंद रोज़ के अंतराल के बाद १ जनवरी २०१० से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र फिर से शुरु हुआ और क्योंकि ४ जनवरी को आर.डी.बर्मन की पुण्यतिथि होती है, इसलिए उन्ही पर केन्द्रित शृंखला से यह सफ़र शुरु हुआ। 'पंचम के दस रंग' शृंखला के बाद श्रद्धांजली के सिलसिले को बरकरार रखते हुए हमने आयोजित की शृंखला 'स्वरांजली' जिसके तहत हमने उन कलाकारों को श्रद्धांजली अर्पित की जिनका जनवरी के महीने में जन्मदिवस या पुण्यतिथि होती है। जिन कलाकारों को हमने इसमें शामिल किया था वो हैं येसुदास, सी. रामचन्द्र, जयदेव, चित्रगुप्त, कैफ़ी आज़्मी, ओ.पी.नय्यर, जावेद अख़्तर, कुंदन लाल सहगल, क़मर जलालाबादी और महेन्द्र कपूर। "ऐसिच हूँ मैं" कहकर सबका दिल जीतने वाली हमारी प्यारी दोस्त इंदु जी बनीं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' की अगली विजेयता और उन्होंने हमे सुनवाये अपने पसंद के पाँच लाजवाब गानें ३२१ से ३२५ अंकों में। साल २००९ के अंतिम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी, यानी कि ३००-वीं कड़ी में हमने पूछा था एक महासवाल, जिसमें कुल १० सवाल थे। इन दस सवालों में सब से ज़्यादा सही जवाब दिया शरद तैलंग जी ने और बनें इस महासवाल प्रतियोगिता के महाविजेयता। इसलिए इंदु जी के पाँच गीतों के बाद हमने उनकी पसंद के भी चार गीत सुनें, और ३३० वीं कड़ी में ३० जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी को श्रद्धा सुमन स्वरूप हमने बजाया था फ़िल्म 'जागृति' का गीत "साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल"।

फिर उसके बाद हमने एक के बाद एक दो ऐसी शृंखलाएँ प्रस्तुत कीं जिनमें थे भूले बिसरे रंग। पहली शृंखला थी 'हमारी याद आयेगी' जिसमें हमने दस कमचर्चित गायिकाओं के गानें शामिल किए, और दूसरी शृंखला थी 'प्योर गोल्ड' जिसमें ४० के दशक के १० सालों के एक एक गीत बजाये गये। इस तरह से हम पहुँच गये ३५० वीं मंज़िल पर। तलत महमूद के गाये दस ग़ज़लों से कारवाँ फिर आगे बढ़ा और हमने मनायी होली दस रंगीन गीतों के साथ शृंखला 'गीत रंगीले' के माध्यम से। 'दस गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला को भी लोगों ने पसंद किया और उसके बाद हम गीतकार आनंद बक्शी साहब के लिखे गीतों का आनंद लिया 'मैं शायर तो नहीं' शृंखला में। 'सखी सहेली', फ़ीमेल डुएट्स पर केन्द्रित इस शृंखला के अंतिम गीत के रूप में हमने चुना था लता और आशा का गाया "मन क्यों बहका री बहका" और वह था 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का अंक क्रमांक - ४००। इस मंज़िल तक पहुँचने के बाद हमें लगा कि अब बिना किसी शर्त के, बिना किसी प्रतियोगिता के हमारे दोस्तों को मौका देना चाहिए अपने पसंदीदा गीत को सुनने का। इसलिए आमंत्रित किए आप ही के फ़रमाइशी गानें और इस तरह से चल पड़ी शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'।

४१० एपिसोड्स हो जाने के बाद हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को करीब करीब डेढ़ महीने के लिए बंद रखा, लेकिन हम आपसे दूर नहीं गये। बल्कि हमने शुरु की 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल', जिसके तहत नये गायक गायिकाओं के गाये पुराने गीतों के कवर वर्ज़न शामिल किए गए। मिली-जुली प्रतिक्रिया रही,. लेकिन ज़्यादातर लोगों को अच्छा ही लगा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पुराने स्वरूप में हम फिर वापस आये 'दुर्लभ दस' शृंखला के साथ जिसमें कुछ बेहद दुर्लभ गीतों और जानकारियों को सजाकर आपके समक्ष रख दिया। इसे भी ख़ूब सराहना मिली थी। कल्याणजी-आनंदजी पर केन्द्रित 'दिल लूटने वाले जादूगर' शृंखला के बाद आयी सावन का स्वागत करती 'रिमझिम के तराने'। 'गीत अपना धुन पराई', 'सहरा में रात फूलों की', 'मुसाफ़िर हूँ यारों', 'मजलिस-ए-क़व्वाली', और 'रस माधुरी' शृंखलाओं से गुज़रती हुई 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आ पहुँची अपने ५०० वे पड़ाव पर।

तो दोस्तों, यह था 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का अब तक का सफ़र। और अब चलते चलते कुछ आँकड़ें आपको बता दिए जाएँ।

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में अब तक -

३५२ एकल, १३५ युगल और १३ अन्य गीत बजे हैं।
४० के दशक के ४३, ५० के दशक के १५६, ६० के दशक के १८६, ७० के दशक के ८५, और ८० के दशक के २८ गीत बजे हैं।
सब से ज़्यादा गीत लता मंगेशकर के शामिल हुए हैं। एकल, युगल और समूह मिला कर लता जी के कुल १५४ गीत बजे हैं जो कि लगभग ३१ % है।
संगीतकारों में शंकर जयकिशन के ४९, सचिन देव बर्मन के ४७, और राहुल देव बर्मन के ३३ गीत बजे हैं।
गीतकारों में शैलेन्द्र के ५७, मजरूह सुल्तानपुरी के ५६, और साहिर लुधियानवी के ४७ गीत बजे हैं।


हाँ तो दोस्तों, यह था 'ओल्ड इज़ गोल्ड - सफ़र अब तक'। कल से हम फिर चल निकलेंगे अपनी इस सुरीले सफ़र पर। चलते चलते बस यही कहेंगे कि "तुम अगर साथ देने का वादा करो, हम युंही मस्त नग़में लुटाते रहें"। आप सभी को नवरात्री की ढेरों शुभकामनाएँ। तो लीजिए इसी अवसर पर आज सुनिए गरबा के रंग में रंगा फ़िल्म 'सरस्वतीचंद्र' का यह मशहूर गीत लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में। कहा जाता है यह पहली फ़िल्मी रचना है जो गरबा नृत्य पर आधारित है। इंदीवर और कल्याणजी-आनंदजी का कमाल है। सुनिये और हमें इजाज़त दीजिये, नमस्कार!

गीत - मैं तो भूल चली बाबुल का देस (सरस्वतीचंद्र)


एक खास निवेदन - हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी)को.

प्रस्तुति: सुजॊय

सुनो कहानी: तरह तरह के बिच्छू - अनुराग शर्मा



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने कविता वर्मा की आवाज़ में आर के नारायण की कहानी "ज्योतिषी का नसीब" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "तरह तरह के बिच्छू", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "तरह तरह के बिच्छू" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 22 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

काफी देर तक तो बेचारे बिच्छू कसमसाते रहे मगर आखिर मेंढकों का अत्याचार कब तक सहते।
(अनुराग शर्मा की "तरह तरह के बिच्छू" से एक अंश)


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#One hundred Sixth Story, Tarah Tarah Ke Bichchhoo: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/38. Voice: Anurag Sharma

Thursday, October 7, 2010

ओल्ड इज़ गोल्ड - 500 : जब 'हिंद-युग्म' ने रिवाइव किया पहले हिंदी फ़िल्मी गीत "दे दे खुदा के नाम पर" को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 500/2010/200

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस माइलस्टोन एपिसोड में। एक सुरीला सफ़र जो हमने शुरु किया था २० फ़रवरी २००९ की शाम, वह सफ़र बहुत सारे सुमधुर पड़ावों से होता हुआ आज, ७ अक्तुबर को आ पहुँच रहा है अपने ५००-वें मंज़िल पर। दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस यादगार मौक़े पर हम सब से पहले आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। जिस तरह का प्यार आपने इस स्तंभ को दिया है, जिस तरह से आपने इस स्तंभ का साथ दिया है और इसे सफल बनाया है, उसी का यह नतीजा है कि आज हम इस मुक़ाम तक पहुँच पाये हैं।

दोस्तों, इस यादगार शाम को कुछ ख़ास तरीक़े से मनाने के लिए हमने सोचा कि क्यों ना कुछ ऐसा किया जाए कि जिससे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह ५००-वाँ एपिसोड वाक़ई एक यादगार एपिसोड बन जाए। १४ मार्च, १९३१ भारतीय सिनेमा के लिए एक यादगार दिन था, क्योंकि इसी दिन बम्बई के मजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी इस देश की पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा'। 'आलम आरा' से ना केवल बोलती फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ, बल्कि इसी से शुरुआत हुई फ़िल्मी गीतों की, फ़िल्म संगीत की। आज फ़िल्म संगीत मनोरंजन का सब से अहम और लोकप्रिय साधन है, शायद उनकी फ़िल्मों से भी ज़्यादा। दोस्तों, जिस 'आलम आरा' से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई थी, बेहद अफ़सोस की बात है कि आज 'आलम आरा' का प्रिण्ट नष्ट हो चुका है। और क्योंकि उस ज़माने में 'आलम आरा' के गीतों को ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड पर उतारे नहीं गये थे, इसलिए फ़िल्म के प्रिण्ट के साथ साथ इस फ़िल्म के गानें भी खो गए, हमेशा हमेशा के लिए। कुछ सूत्रों से इस फ़िल्म के गीतों के बोल तो हमने हासिल किए हैं, लेकिन उनकी धुनें कैसी रही होंगी, किस तरह से उन्हें गाया गया होगा, यह आज कोई नहीं बता सकता। इस फ़िल्म में वज़ीर मोहम्मद ख़ान के गाये "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की" गीत को पहला फ़िल्मी गीत माना जाता है, लेकिन इस गीत का केवल मुखड़ा ही लोगों को पता है। क्या इस गीत के अंतरे भी थे, यह कोई नहीं जानता। इसलिए हमने यह सोचा कि क्यों ना इस पहले पहले फ़िल्मी गीत को रिवाइव किया जाए। क्यों ना इसके अंतरे नये तरीक़े से लिखे जाएँ, और फिर पूरे गीत को स्वरबद्ध कर किसी नए गायक से गवाया जाए! और क्यों ना इस गीत को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५००-वें अंक में रिलीज़ किया जाए! जब हमने यह सुझाव 'हिंद-युग्म' के सदस्यों को बताया, तो सभी ने हाथों हाथ इसे स्वीकारा और 'हिंद युग्म' की पूरी टीम जुट गयी हमारे इस सपने को साकार करने के लिए।

शुरु हो गई तैयारी पहली बोलती फ़िल्म के पहले गीत को रिवाइव करने की। इसके लिए सब से पहले ज़रूरत थी इस गीत के बोलों को पूरा करने की क्योंकि जैसा कि हमने आपको बताया कि इस गीत का केवल मुखड़ा ही आज हमें मालूम है। फ़िल्म के नष्ट हो जाने से गीत का बाक़ी का हिस्सा भी उसके साथ खो गया। मुखड़ा कुछ ऐसा है - "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की, चाहे अगर तो माँग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की"। तो 'हिंद-युग्म' ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया और उसके तहत आमंत्रित किए कुछ ऐसे शेर जो इस ग़ज़ल/गीत को पूरा कर सके। हमें बहुत सारे एन्ट्रीज़ मिले, जिनमें से हमने चुने दो शेर और इस तरह से यह ग़ज़ल मुकम्मल हुई। आगे बढ़ने से पहले आइए आपको बता दें कि जिन दो शख़्स के शेर हमने चुने हैं उनके नाम हैं स्वपनिल तिवारी 'आतिश' और निखिल आनंद गिरि। इस तरह से आर्दशिर ईरानी का लिखा मुखड़ा एक गीत की शक्ल में पूरा हुआ। आगे बढ़ने से पहले, ये रहे वो दो शेर -

इत्र, परांदी और महावर, जिस्म सजा, पर बेमानी,
दुल्हन रूह को कब है ज़रूरत सजने और सँचरने की।
---- स्वपनिल तिवारी 'आतिश'

चला फ़कीरा हँसता हँसता, फिर जाने कब आयेगा,
जोड़ जोड़ कर रोने वाले फ़ुरसत कर कुछ देने की।
---- निखिल आनंद गिरि

लिखने का कार्य तो पूरा हो गया, अब बात आई इसे स्वरबद्ध करने की। इसके लिए भी एक प्रतियोगिता की घोषणा की गई। हमें कुल ९ प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें से हमारी टीम ने इस प्रविष्टि को चुना जो आज इस महफ़िल में बज रहा है। तो साहब पहले फ़िल्मी गीत को री-कम्पोज़ किया है हमारे बेहद कामियाब संगीतकार कृष्ण राज ने, जिन्होंने इस गीत का संगीत संयोजन भी ख़ुद ही किया। आपको याद होगा कि किस प्रकार कृष्ण राज हमारी "काव्यनाद" प्रतियोगिता में भाग लेते रहे हैं, और सफल भी होते रहे हैं. इस गीत में गीटार के लिए विशेष सहयोग उन्हें मिला विशाल रोमी से। धुन और ट्रैक तैयार हो जाने के बाद उसे भेज दिया गया गायक मनु वर्गीज़ के पास और उन्होंने अपनी दिलकश आवाज़ से इस गीत को सजाकर हमारे सपने को पूर्णता प्रदान की। इस तरह से रिवाइव हो गया पहली बोलती फ़िल्म का पहला गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे"। दोस्तों, यह गीत भले ही १९३१ की फ़िल्म का गीत है, लेकिन क्योंकि आज २०१० में हम इसे रिवाइव कर रहे हैं, इसलिए इसका अंदाज़ भी हमने कुछ इसी ज़माने का रखा है। लेकिन इस बात का भी पूरा पूरा ध्यान रखा गया है कि मेलडी और गीत के मूड के साथ, उसके स्तर के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता ना करना पड़े। गीत कैसा बना है यह तो हम आप ही पर छोड़ते हैं। इस गीत के निर्माण से जुड़े प्रत्येक कलाकार ने अपनी तरफ़ से भरपूर कोशिश की है कि अपना बेस्ट इसमें दें, आगे आपकी राय सर आँखों पर। चूँकि कृष्ण और उनकी टीम की ये प्रविष्ठी इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ चुनी गयी है, हिंद युग्म इस टीम को दे रहा है ५००० रूपए का नकद पुरस्कार. ये पुरस्कार हिंद युग्म के वार्षिक आयोजन के दौरान दिया जायेगा. इस गीत के ज़रिए 'हिंद युग्म' सलाम करती है 'आलम आरा' फ़िल्म से जुड़े समस्त कलाकारों को, जिनकी लगन और मेहनत ने बोलती फ़िल्मों का द्वार खोल दिया था इस देश में और साथ ही फ़िल्मी गीतों का भी।

और अब 'आलम आरा' से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें आपको बतायी जाए! इस फ़िल्म का निर्माण किया था अर्दशिर ईरानी और अब्दुल अली युसूफ़ भाई ने 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' के बैनर तले। यह फ़िल्म आंशिक रूप से सवाक थी। इस फ़िल्म को जिस तरह का पब्लिक रेस्पॊन्स मिला था, वह अकल्पनीय था। उस ज़माने में किसी फ़िल्म का टिकट चंद आने में मिल जाता था, लेकिन इस फ़िल्म के टिकट बिके ४ रूपए में, जो उस ज़माने के हिसाब से एक बहुत बड़ी रकम थी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मास्टर विट्ठल, ज़ुबेदा, पृथ्विराज कपूर, जिल्लो बाई, याकूब, जगदिश सेठी और वज़ीर मोहम्मद ख़ान। फ़िल्म का निर्देशन आर्दशिर ईरानी ने ही किया और कहा जाता है कि फ़िल्म के गानें भी उन्होंने ही लिखे और इनकी धुनें भी उन्होंने ही तय की थी, हालाँकि क्रेडिट्स में फ़ीरोज़शाह एम. मिस्त्री और बी. ईरानी के नाम दिए गये थे बतौर संगीतकार। 'आलम आरा' में कुल सात गानें थे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि १९४६ और १९७३ में 'आलम आरा' फ़िल्म फिर से बनी और इनमें भी वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने अभिनय किया। ज़ुबेदा की आवाज़ में इस फ़िल्म का एक अन्य गीत "बदला दिलवाएगा या रब तू सितमगारों से" भी उस ज़माने में ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। और अब हम आपके लिए कहीं से खोज लाये हैं आर्दशिर ईरानी के कहे हुए शब्द जो उन्होंने कहे थे इस फ़िल्म के गीतों के रेकॊर्डिंग् के बारे में - "There were no sound-proof stages, we preferred to shoot indoors and at night. Since our studio is located near a railway track most of our shooting was done between the hours that the trains ceased operation. We worked with a single system Tamar recording equipment. There were also no booms. Microphones had to be hidden in incredible places to keep out of camera range". 'आलम आरा' १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित हुई थी; २३ मार्च १९३१ को 'टाइम्स ऒफ़ इण्डिया' में एक शख़्स ने इस फ़िल्म की साउण्ड क्वालिटी के बारे में रिव्यू में लिखा था -"Principal interest naturally attaches to the voice production and synchronization. The latter is syllable perfect; the former is somewhat patchy, due to inexperience of the players in facing the microphone and a consequent tendency to talk too loudly". दोस्तों ये सब बातें पढ़कर कैसा रोमांच हो आता है न? कैसा रहा होगा उस ज़माने में फ़िल्म निर्माण के तौर तरीक़े, कैसे रेकॊर्ड होते होंगे गानें? कितनी कठिनाइयों, परेशानियों और सीमित साधनों के ज़रिए काम करना पड़ता होगा। उन अज़ीम फ़नकारों की मेहनत और लगन का ही नतीजा है, यह उसी का फल है कि हिंदी फ़िल्में आज समूचे विश्व में सर चढ़ कर बोल रहा है। तो आइए अब सुना जाए यह गीत; 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक समर्पित है 'आलम आरा' फ़िल्म के पूरे टीम के नाम। हमें आपकी राय का इंतज़ार रहेगा, टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com पर भी आप अपनी राय भेज सकते हैं।

गीत - दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे (२०१० संस्करण)


क्या आप जानते हैं...
कि वज़ीर मोहम्मद ख़ान का १४ अक्तुबर १९७४ को निधन हो गया, यानी कि आज से ठीक ७ दिन बाद उनकी पुण्यतिथि है।

मेकिंग ऑफ़ "दे दे खुदा के नाम पर (२०१० संस्करण)" - गीत की टीम द्वारा

विशाल रोमी: मैं ईश्वर को धन्येवाद देता हूँ कि मुझे मौका मिला, कृष्ण (जो कि इस प्रोजेक्ट के प्रमुख हैं) की टीम के साथ काम करने का. कृष्ण राज ने हमेशा मेरी गलतियों को सुधारा है और मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित किया है. मनु ने भी बहुत अच्छे से इस गीत को निभाया है. ये बिलकुल अलग तरह का गीत था जिस पर काम करने में मुझे बहुत आनंद आया.

मनु वर्गीस: एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने से अच्छा अनुभव और क्या होगा. मैं अपने मित्र कृष्ण राज का बेहद आभारी हूँ जिसने मुझे मेरे अब तक के सफर के सबसे बहतरीन इस गीत को गाने का मौका दिया. और यक़ीनन मैं परमेश्वर का धन्येवाद कहना चाहूँगा जिसने मुझे अपने राज्य से हिंदी का प्रतिनिधित्व करने का ये मौका दिया और इस गीत को गाने का अवसर प्रदान किया. अच्छे संगीत की जय हो, यही कामना है.

कृष्ण राज: यह तो एक बिलकुल ही जबरदस्त अनुभव था मेरे लिए. सच कहूँ तो मैं बहुत शंकित था कि क्या मैं इस गीत के साथ न्याय कर पाऊंगा. ये भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा का गीत है, जाहिर है जब हिंद युग्म इसे दुबारा से बनाने की योजना बनाएगा तो श्रोताओं की उम्मीदें बढ़ जायेगीं. ऐसे में मेरे शक अपनी जगह सही थे. इस गीत के मेकिंग के दौरान बहुत सी कठिनाईयां मेरे सामने आई. मसलन मैं बीमार पड़ गया. यही वजह थी कि मुझे गायन के लिए किसी और को चुनना पड़ा, ऐसे में मैंने अपने मित्र गायक मनु से आग्रह किया क्योंकि आवाज़ बहुत नर्म है और इस तरह के गानों पर जचती है, और मनु ने इसे बहुत बढ़िया से गाया. विशाल भी बहुत जबरदस्त गीटारिस्ट है. ईश्वर को धन्येवाद कि मुझे एक बहुत अच्छी टीम मिली हुई है. और अंत में शुक्रिया अदा करना चाहूँगा अपने साउंड इंजिनियर नितिन का जिन्होंने इस गीत को मिक्स किया, वो जो पीछे आप कोरस में आवाजें सुन रहे हैं वो भी नितिन की ही है, उम्मीद है कि हम सब आपकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगें.
कृष्ण राज
कृष्ण राज कुमार ने काव्यनाद प्रतियोगिता की हर कड़ी में भाग लिया है। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्रथम पुरस्कार, सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए द्वितीय पुरस्कार, महादेवी वर्मा के लिए भी प्रथम पुरस्कार। निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' के लिए भी इनकी प्रविष्टि उल्लेखनीय थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम! आज उनकी जय बोल' के लिए द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया। कृष्ण राज कुमार जो मात्र २४ वर्ष के हैं, और B.Tech की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने संगीत करियर को सजाने सवांरने में जी जान से लगे हैं, पिछले 14 सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। अभी तीसरे सत्र में उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया ऋषि ने अपने गीत लौट चल के लिए. ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।

मनु वर्गीस
२५ वर्षीया गायक मनु वर्गीस कर्णाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं श्री पी आर मुरली से. कुछ समय के लिए 'टीम ध्वनि" का हिस्सा रहे, और उनकी पहली अल्बम स्लेमबुक में एक सोलो गीत भी गाया. कोच्ची के मशहूर संगीतकार जैरी अमल्देव के साथ पिछले २ वर्षों से कार्यरत हैं. कोच्ची में आयोजित रफ़ी साहब के गीतों की एक प्रतियोगिता में पहला स्थान प्राप्त कर चुके हैं. कुछ आत्मीय अलबमों में काम कर चुके हैं और "कैरली" टी वी पर भी कुछ कार्यक्रमों का भी हिस्सा रह चुके हैं मनु.

विशाल रोमी
विशाल एक वित्तीय कंपनी में कार्यरत हैं और संगीत में बतौर गीटार वादक अपनी पहचान बनाने में सक्रीय हैं. विशाल पिछले ६ सालों के इस वाध्य की शिक्षा ले रहे हैं. कृष्ण राज की टीम में उनके साथ कई प्रोजेक्ट्स कर चुके हैं. यह युवा गीटार वादक संगीत के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाने की प्रबल इच्छा रखता है.

Song - De De Khuda Ke Naam Par (2010 edition, The Returns Of Alam Aara)
Music - Krishn Raj Kumar
Lyrics - Adarshir Irani, Nikhil Aanand Giri, and Swapnil Tiwari Aatish.
Guitor - Vishaal Romi
Vocal - Manu Varghese
Mixing - Nitin

Original Composition covered under Creative Commons license. All rights reserved with Hind yugm and the Artists concerned.

Wednesday, October 6, 2010

ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं.....वीभत्स रस को क्या खूब उभरा है रफ़ी साहब ने इस दर्द भरे नगमें में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 499/2010/199

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज है इस स्तंभ की ४९९ वीं कड़ी। नौ रसों की चर्चा में अब बस एक ही रस बाक़ी है और वह है विभत्स रस। जी हाँ, 'रस माधुरी' लघु शृंखला की अंतिम कड़ी में आज ज़िक्र विभत्स रस का। विभत्स रस का अर्थ है अवसाद, या मानसिक अवसाद भी कह सकते हैं इसे। अपने आप से हमदर्दी इस रस का एक लक्षण है। कहा गया है कि विभत्स रस से ज़्यादा क्षतिकारक और व्यर्थ रस और कोई नहीं। विभत्स उस भाव को कहते हैं कि जिसमें है अतृप्ति, अवसाद और घृणा। गाली गलोच और अश्लीलता भी विभत्स रस के ही अलग रूप हैं। विभत्स रस के चलते मन में निराशावादी विचार पनपने लगते हैं और इंसान अपने धर्म और कर्म के मार्ग से दूर होता चला जाता है। शक्ति और आत्मविश्वास टूटने लगता है। यहाँ तक कि आत्महत्या की भी नौबत आ सकती है। अगर इस रस का ज़्यादा संचार हो गया तो आदमी मानसिक तौर पर अस्वस्थ होकर उन्मादी भी बन सकता है। विभत्स रस से बाहर निकलने का सब से अच्छा तरीक़ा है शृंगार रस का सहारा लेना। अच्छे मित्र और अच्छी रुचियाँ इंसान को मानसिक अवसाद से बाहर निकालने में मददगार साबित हो सकती हैं। दोस्तों, विभत्स रस के ये तमाम विशेषताओं को पढ़ने के बाद आप समझ गए होंगे कि हमारी फ़िल्मों में इस रस के गीतों की कितनी प्रचूरता है। "तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, अब तो पास बुलाले" जैसे गीत इस रस के उदाहरण है। तलत महमूद साहब ने इस तरह के निराशावादी और ग़मगीन गीत बहुत से गाए हैं। लेकिन हमने आज के लिए जिस गीत को चुना है, वह है १९७१ की फ़िल्म 'हीर रांझा' का मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं"। अपनी हीर से जुदा होकर दीवाना बने रांझा की ज़ुबान से निकले इस गीत में शब्दों के रंग भरे हैं गीतकार कैफ़ी आज़्मी ने और संगीत है मदन मोहन का।

वैसे तो मदन मोहन के साथ लता मंगेशकर का नाम जोड़ा जाता है अपने सर्वोत्तम गीतों के लिए, लेकिन सच्चाई यह है कि मदन मोहन साहब ने जितने भी गायक गायिकाओं से अपने गीत गवाए हैं, उन सभी से वो उनके १००% पर्फ़ेक्शन लेकर रहे हैं। फिर चाहे आशा भोसले हो या किशोर कुमार, मुकेश हो या तलत महमूद, भूपेन्द्र हो या फिर रफ़ी साहब। और यही बात गीतकारों के लिए भी लागू होती है। कैफ़ी आज़्मी के साथ मदन मोहन ने फ़िल्म 'हक़ीक़त' में काम किया जिसके गानें कालजयी बन गये हैं। और फ़िल्म 'हीर रांझा' के गानें भी उसी श्रेणी में शोभा पाते हैं। इस गीत के बोल मुकम्मल तो हैं ही, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी कमाल के हैं। फ़िल्म के सिचुएशन और सीन के मुताबिक़ गीत के इंटरल्युड संगीत में कभी बांसुरी पर भजन या कीर्तन शैली की धुन है तो अगले ही पल क़व्वाली का रीदम भी आ जाता है। तो आइए सुनते हैं यह गीत और इसी के साथ नौ रसों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'रस माधुरी' यहीं सम्पन्न होती है। आशा है इन रसों का आपने भरपूर रसपान किया होगा और हमारे चुने हुए ये नौ गीत भी आपको भाए होंगे। आपको यह शृंखला कैसी लगी, यह आप हमें टिप्पणी के अलावा हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भी भेज सकते हैं। दोस्तों, कल है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक। इस ख़ास अवसर पर हमने कुछ विशेष सोच रखा है आपके मनोरंजन के लिए। तो अवश्य पधारिएगा कल इसी समय अपने इस मनपसंद ब्लॊग पर। और हाँ, आज जो हम पहेली पूछने जा रहे हैं, वह होगा उस गीत के लिए जो बजेगा हमारे ५०१ अंक में। तो अब हमें इजाज़त दीजिए, और आप हल कीजिए आज की पहेली का और आनंद लीजिए रफ़ी साहब की आवाज़ का। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि मुम्बई के ब्रीच कैण्डी का बॊम्बेलिस रेस्तराँ मदन मोहन की पसंदीदा जगहों में से एक थी जहाँ तलत महमूद और जयकिशन भी जाया करते थे। जिस दिन तीनों वहाँ मौजूद हों तो उनमें एक होड़ सी लग जाती थी कि कितनी लड़कियाँ किससे ऒटोग्राफ़ माँगती हैं। इसमें तलत की ही अक्सर जीत होती थी।

दोस्तों आज पहेली नहीं है. बल्कि एक निमंत्रण है, कल के ओल्ड इस गोल्ड के लिए, जो कि हमारी इस कोशिश में एक मील का पत्थर एपिसोड होने वाला है. कल ओल्ड इस गोल्ड भारतीय समय अनुसार सुबह ९ बजे प्रसारित होगा. जिसमें हम बात करेंगें भारत की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" की जिसके माध्यम से से हमें फिल्म संगीत की अनमोल धरोहर आज मिली हुई है. उन कलाकारों की जिन्होंने एक असंभव से लगते कार्य को अंजाम दिया. और एक बड़ी कोशिश हम कर रहे हैं. जैसा कि आप जानते होंगें भारत के पहली हिंदी फ़िल्मी गीत "दे दे खुदा के नाम पर" जो कि इसी फिल्म का था, कहीं भी ऑडियो विडियो के रूप में उपलब्ध नहीं है. एक प्रतियोगिता के माध्यम से हमने इस गीत को मुक्कमल किया (उपलब्ध बोलों को विस्तरित कर) और प्रतियोगिता के माध्यम से ही उसे हमारे संगीतकार मित्रों से स्वरबद्ध करा कर. जिस प्रविष्ठी को हमने चुना है इस गीत के नए संस्करण के रूप में उसे भी हम कल के एतिहासिक एपिसोड में आपके सामने रखेंगें....यदि आप को हमारी ये कोशिश अच्छी लगेगी तो हम इस तरह के प्रयोग आलम आरा के अन्य गीतों के साथ भी करना चाहेंगें. तो कल अवश्य पधारियेगा हमारी इस यादगार महफ़िल में. जहाँ तक पहेली का सवाल है ये एक नए रूप में आपके सामने होगी ५०१ वें एपिसोड से. शरद जी और अवध जी १०० का आंकड़ा छूने में सफल रहे हैं. इनके लिए एक खास तोहफा है जो हम देंगें इन्हें हमारे वार्षिक महोत्सव में. इसके आलावा जिन प्रतिभागियों ने बढ़ चढ कर पहेली में हिस्सा लिया उन सब का आभार तहे दिल से.....सबका नाम शायद नहीं ले पायें यहाँ पर जहाँ तक "." का चिन्ह आपको दिखे समझिए वो सब आप श्रोताओं के नाम हैं.....इंदु जी, प्रतिभा जी, नवीन जी, पदम सिंह जी, पाबला जी, मनु जी, सुमित जी, तन्हा जी, दिलीप जी, महेंद्र जी, निर्मला जी, स्वप्न मंजूषा जी, किशोर जी, राज सिंह जी, नीलम जी, शन्नो जी, ......................................................... सभी का आभार.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, October 5, 2010

फूल अहिस्ता फैको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं....इसे कहते है नाराज़ होने, शिकायत करने का लखनवी शायराना अंदाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 498/2010/198

नौ रसों में कुछ रस वो होते हैं जो अच्छे होते है, और कुछ रस ऐसे हैं जिनका अधिक मात्रा में होना हमारे मन-मस्तिष्क के लिए हानिकारक होता हैं। शृंगार, हास्य, शांत, वीर पहली श्रेणी में आते हैं जबकि करुण, विभत्स और रौद्र रस हमें एक मात्रा के बाद हानी पहुँचाते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, 'रस माधुरी' शृंखला में आज बातें रौद्र रस की। जब हमारी आशाएँ पूरी नहीं हो पाती, तब हमें लगता है कि हमें नकारा गया है और यही रौद्र रस का आधार बनता है। यह ज़रूरी नहीं कि ग़ुस्से से हमेशा हानी ही पहुँचती है, कभी कभी रौद्र का इस्तेमाल सकारात्मक कार्य के लिए भी हो सकता है जैसे कि माँ का बच्चे को डाँटना, गुरु का शिष्य को डाँटना, मित्र का अपने मित्र को भलाई के मार्ग पर लाने के लिए डाँटना इत्यादि। लेकिन निरर्थक विषयों पर नाराज़ होना और बात बात पर नाराज़ होकर सीन क्रीएट कर लेना अपने लिए भी और पूरे वातावरण के लिए हानिकारक ही होता है। यह जानना बहुत ज़रूरी है कि ग़ुस्से से कोई भी समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि वह समस्या और विस्तारित होती है। मन अशांत होता है तो समस्या के समाधान के लिए उचित राह नहीं खोज पाता। रौद्र रस का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है माँ दुर्गा का रौद्र का दानव महिषासुर का वध करना। यह पौराणिक कहानी हमें सिखाती है कि किस तरह से हम अपने अंदर के रौद्र रूपी दानव का वध कर सकते हैं अपने अच्छे और दैवीय शक्तियों, जैसे कि क्षमा, स्वीकारोक्ति, विनम्रता, और हास्य आदि के इस्तेमाल से। प्राकृतिक कारणो से रौद्र बहुत देर तक हमारे अंदर नहीं रहता, इसलिए अगर हम रौद्र का भरण-पोषण नहीं करेंगे तो थोड़े समय के बाद यह ख़ुद अपने आप ही ख़त्म हो जाता है। अलग अलग प्राणियों में देखा गया है कि किसी में यह रस बहुत ज़्यादा होता है तो किसी किसी में बहुत कम। निष्कर्ष यही है कि हम अपने अंदर जितना कम रौद्र रखेंगे, हमारी सेहत के लिए उतना ही बेहतर होगा। अब फ़िल्मी गीतों पर आते हैं। रौद्र रस पर आधारित कोई गीत याद आता है आपको? फ़िल्म 'नगीना' का "मैं तेरी दुश्मन दुश्मन तू मेरा, मैं नागिन तू सपेरा", या फिर फ़िल्म 'राम लखन' का "बेक़दर बेख़बर बेवफ़ा बालमा, ना मैं तुझको मारूँगी, ना मैं तुझको छोडूँगी...", या फिर 'मेरा गाँव मेरा देश' फ़िल्म का "मार दिया जाए के छोड़ दिया जाए", जैसे बहुत से गानें हैं। लेकिन हमने जिस गीत को चुना है, वह यकायक सुनने पर शायद रौद्र रस का ना लगे, लेकिन ध्यान से सुनने पर और शब्दों पर ग़ौर करने पर पता चलता है कि किस ख़ूबसूरती से, बड़े ही नाज़ुक तरीके से रौद्र को प्रकट किया गया है इस गीत में। फ़िल्म 'प्रेम कहानी' का युगल गीत "फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं"। लता-मुकेश की आवाज़ें, आनंद बख्शी के बोल और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत।

'प्रेम कहानी' १९७५ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया लेखराज खोसला ने और निर्देशन किया था राज खोसला ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शशि कपूर, राजेश खन्ना, मुमताज़ और विनोद खन्ना। संवाद डॊ. राही मासूम रज़ा के थे और फ़िल्म के गानें लिखे आनंद बख्शी ने। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के धुनों से सजे इस फ़िल्म के सभी गानें ख़ूब सुने गए, ख़ास कर लता-किशोर के दो युगल गीत "प्रेम कहानी मे एक लड़का होता है" और "चल दरिया में डूब जाएँ"। लता और मुकेश की आवाज़ों में आज का प्रस्तुत गीत भी गली गली गूँजा करता था एक समय। दोस्तों, इस गीत में जिस तरह से नाराज़गी ज़ाहिर की गई है, उसे सही तरीक़े से महसूस करने के लिए हम इस गीत के पूरे बोल यहाँ पर लिख रहे हैं। इन्हें पढ़िए और ख़ुद ही महसूस कीजिए इस गीत में छुपे रौद्र रस को।

मुकेश:
कहा आपका यह वजह ही सही, के हम बेक़दर बेववा ही सही,
बड़े शौक से जाइए छोड़ कर, मगर सहर-ए-गुलशन से युं तोड़ कर,
फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं,
वैसे भी तो ये बदक़िस्मत नोक पे कांटों की सोते हैं।

लता:
बड़ी ख़ूबसूरत शिकायत है ये, मगर सोचिए क्या शराफ़त है ये,
जो औरों का दिल तोड़ते हैं, लगी चोट उनको तो ये कहते हैं,
कि फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं,
जो रुलाते हैं लोगों को, एक दिन ख़ुद भी रोते हैं।

मुकेश:
किसी शौख़ को बाग़ की सैर में, जो लग जाए कांटा कोई पैर में,
वफ़ा हुस्न फूलों से हो किसलिए, ये मासूम है बेख़ता इसलिए,
फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं,
ये करेंगे कैसे घायल ये तो ख़ुद घायल होते हैं।

लता:
गुलों के बड़े आप हमदर्द हैं, भला क्यों ना हो आप भी मर्द हैं,
मुकेश:
हज़ारों सवालों का है एक जवाब, परे बेनज़र ये ना हो ऐ जनाब,
लता:
फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं,
सब जिसे कहते हैं शबनम फूल के आँसू होते हैं।

मेरा ख़याल है कि बख्शी साहब के लिखे सब से ख़ूबसूरत गीतों में से एक है यह गीत। पता नहीं आप मुझसे सहमत होंगे या नहीं, लेकिन कहने को दिल चाहता है कि जिस तरह से मख़्दूम मोहिउद्दिन ने "फिर छिड़ी रात बात फूलों की" ग़ज़ल लिखी थी, ठीक वैसे ही फूल शब्द के इस्तेमाल में फ़िल्मी गीतों के जगत में यह गीत उसी तरह का मुक़ाम रखता है। आइए सुना जाए यह गीत जो आधारित है राग मिश्र शिवरंजनी पर।



क्या आप जानते हैं...
कि 'प्रेम कहानी' फ़िल्म में महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु के फ़ूटेज दिखाए गए थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. एक अमर प्रेमिक प्रेमिका की प्रेम कहानी पर बनी यह फ़िल्म थी सन् १९७१ की। गीतकार बताइए। ४ अंक।
२. इस गीतकार ने इस फ़िल्म के संगीतकार के साथ युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी एक बेहद चर्चित फ़िल्म में काम किया था। संगीतकार पहचानिए। ३ अंक।
३. गीत के मुखड़े में शब्द है "महफ़िल"। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
४. इस फ़िल्म के एक अन्य गीत के मुखड़े में, जिसे इसी गीत के गायक ने गाया है, शब्द है "कूचे"। गायक पहचानिए। १ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह बहुत खूब एकदम सही पहचाना आपने. अब रौद्र रस से बाहर आ जाईये जनाब....सोचिये आज की पहेली का जवाब....सभी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"क्रूक" में कुमार के साथ तो "आक्रोश" में इरशाद कामिल के साथ मेलोडी किंग प्रीतम की जोड़ी के क्या कहने!!



ताज़ा सुर ताल ३८/२०१०


सुजॊय - दोस्तों, नमस्कार, स्वागत है आप सभी का इस हफ़्ते के 'ताज़ा सुर ताल' में। विश्व दीपक जी, इस बार के लिए मैंने दो फ़िल्में चुनी हैं, और ये फ़िल्में हैं 'क्रूक' और 'आक्रोश'।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, क्या कोई कारण है इन दोनों को इकट्ठे चुनने के पीछे?

सुजॊय - जी हाँ, मैं बस उसी पे आ रहा था। एक नहीं बल्कि दो दो समानताएँ हैं इन दोनों फ़िल्मों में। एक तो यह कि दोनों के संगीतकार हैं प्रीतम। और उससे भी बड़ी समानता यह है कि इन दोनों की कहानी दो ज्वलंत सामयिक विषयों पर केन्द्रित है। जहाँ एक तरफ़ 'क्रूक' की कहानी आधारित है हाल में ऒस्ट्रेलिया में हुए भारतीयों पर हमले पर, वहीं दूसरी तरफ़ 'आक्रोश' केन्द्रित है हरियाणा में आये दिन हो रहे ऒनर किलिंग्स की घटनाओं पर।

विश्व दीपक - वाक़ई ये दो आज के दौर की दो गम्भीर समस्यायें हैं। तो शुरु किया जाए 'क्रूक' के साथ। मुकेश भट्ट निर्मित और मोहित सूरी निर्देशित 'क्रूक' के मुख्य कलाकार हैं इमरान हाश्मी, अर्जुन बजवा और नेहा शर्मा। प्रीतम का संगीत और कुमार के गीत। पहला गीत सुनते हैं "छल्ला इण्डिया तों आया"। पूरी तरह से पंजाबी फ़्लेवर का गाना है जिसे गाया है बब्बु मान और सुज़ेन डी'मेलो ने। पंजाबी भंगड़ा के साथ वेस्टर्ण फ़्युज़न में प्रीतम को महारथ हासिल है। "मौजा ही मौजा", "नगाड़ा", "दिल बोले हड़िप्पा" के बाद अब "छल्ला"।

सुजॊय - तो आइए इस थिरकन भरे गीत से आज के इस प्रस्तुति की शुरुआत की जाये।

गीत - छल्ला


सुजॊय - 'क्रूक' का दूसरा गीत है "मेरे बिना" जिसे गाया है निखिल डी'सूज़ा ने। अब तक निखिल की आवाज़ कई गायकों वाले गीतों में ही ली गयी थी जिसकी वजह से उनकी आवाज़ को अलग से पहचानने का मौका अब तक हमें नहीं मिल सका था। लेकिन इस गीत में केवल उन्ही की आवाज़ है। जिस तरह से जावेद अली और कार्तिक आजकल कामयाबी के पायदान चढ़ते जा रहे हैं, लगता है निखिल के भी अच्छे दिन उन्हें बाहें पसार कर बुला रहे हैं।

विश्व दीपक - गीत की बात करें तो इस गीत में रॊक इन्फ़्लुएन्स है और एक सॊफ़्ट रोमांटिक नंबर है यह। शुरु शुरु में इस गीत को सुनते हुए कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती, लेकिन गीत के ख़तम होते होते थोड़ी सी हमदर्दी होने लगती है इस गीत के साथ। निखिल ने अच्छा गाया है और क्योंकि उनका यह पहला एकल गाना है, तो उन्हें हमें मुबारक़बाद देनी ही चाहिए। वेल डन निखिल!

सुजॊय - वैसे निखिल ने हाल ही में 'अंजाना अंजानी' का शीर्षक गीत भी गाया है। 'उड़ान' और 'आयेशा' में भी गीत गाये हैं। लेकिन यह उनका पहला सोलो ट्रैक है। आइए अब सुनते हैं इस गीत को।

गीत - मेरे बिना


विश्व दीपक - 'क्रूक' भट्ट कैम्प की फ़िल्म है और नायक हैं इमरान हाश्मी। तो ज़ाहिर है कि इसके गानें उसी स्टाइल के होंगे। वही यूथ अपील वाले इमरान टाइप के गानें। पिछले कुछ फ़िल्मों में इमरान ने ऒनस्क्रीन किस करना बंद कर दिया था और वो फ़िल्में कुछ ख़ास नहीं चली (वन्स अपॉन ए टाईम इन मुंबई को छोड़कर) शायद इसलिए वो इस बार 'क्रूक' में अपने उसी सिरियल किसर वाले अवतार में नज़र आयेंगे। ख़ैर, अगले गीत की बात की जाये। इस बार के.के की आवाज़। इमरान हाश्मी के फ़िल्मों में एक गीत के.के की आवाज़ में ज़रूर होता है क्योंकि के.के की आवाज़ में इमरान टाइप के गानें ख़ूब जँचते हैं।

सुजॊय - यह गीत है "तुझी में"। यह भी रॊक शैली में कम्पोज़ किया गाना है, लेकिन निखिल के मुक़ाबले के.के की दमदार आवाज़ को ध्यान में रखते हुए हार्डकोर रॊक का इस्तेमाल किया गया है। ड्रम्स और पियानो का ख़ूबसूरत संगम सुनने को मिलता है इस गीत में। लेकिन जो मुख्य साज़ है वह है १२ स्ट्रिंग वाला गिटार जो पूरे गीत में प्रधानता रखता है।

विश्व दीपक - यह सच है कि इस तरह के गानें प्रीतम पहले भी बना चुके हैं, लेकिन शायद अब तक हम इस अंदाज़ से उबे नहीं हैं, इसलिए अब भी इस तरह के गानें अच्छे लगते हैं। आइए सुनते हैं।

गीत - तुझी में


सुजॊय - और अब एक और गीत 'क्रूक' का हम सुनेंगे, फिर 'आक्रोश' की तरफ़ बढ़ेंगे। यह गीत है मोहित चौहान की आवाज़ में, "तुझको जो पाया"। इस गीत में अकोस्टिक गीटार मुख्य साज़ है, कोई रीदम नहीं है गाने में। मोहित चौहान की दिलकश आवाज़ से गीत में जान आयी है। दरसल यह गीत निखिल के गाये "मेरे बिना" गीत का ही एक दूसरा वर्ज़न है।

विश्व दीपक - इन दोनों की अगर तुलना करें तो मोहित चौहान की आवाज़ में जो गीत है वह ज़्यादा अच्छा सुनाई दे रहा है। मोहित चौहान का ताल्लुख़ हिमाचल की पहाड़ियों से है। और अजीब बात है कि उनकी आवाज़ में भी जैसे पहाड़ों जैसी शांति है, सुकून है। कम से कम साज़ों के इस्तेमाल वाले गीतों में मोहित की शुद्ध आवाज़ को सुन कर वाक़ई दिल को सुकून मिलता है। इस पीढ़ी के पार्श्व गायकों का प्रतिनिधित्व करने वालों में मोहित चौहान का नाम एक आवश्यक नाम है। लीजिए सुनिए इस गीत को।

गीत - तुझको जो पाया


सुजॊय - आइए अब बढ़ा जाये 'आक्रोश' की ओर। क्योंकि इस फ़िल्म की कहानी हरियाणा के ऒनर किलिंग्स पर है (लेकिन मेरे हिसाब से फिल्म यूपी, बिहार के किसी गाँव को ध्यान में रखकर फिल्माई गई है), शायद इसलिए इसका संगीत भी उसी अंदाज़ का है। प्रीतम के स्वरबद्ध इन गीतों को लिखा है इरशाद कामिल ने। अजय देवगन, अक्षय खन्ना और बिपाशा बासु अभिनीत इस फ़िल्म का एक आइटम नंबर आजकल टीवी चैनलों में ख़ूब सुनाई व दिखाई दे रहा है - "तेरे इसक से मीठा कुछ भी नहीं"।

विश्व दीपक - "मुन्नी बदनाम" के बाद अब "इसक से मीठा"। और इस बार ठुमके लगा रही हैं समीरा रेड्डी। लेकिन हाल के आइटम नंबर की बात करें तो अब भी गुलज़ार साहब के "बीड़ी जल‍इ ले" से मीठा कुछ भी नहीं। ख़ैर, आइए हम ख़ुद ही सुन कर यह निर्णय लें, इस गीत को गाया है कल्पना पटोवारी और अजय झिंग्रन ने। कल्पना यूँ तो असम से संबंध रखती है, लेकिन इन्हें प्रसिद्धि मिली भोजपुरी गानों से। "जा तार परदेश बलमुआ" और "ए गो नेमुआ" जैसे सुपरहिट भोजपुरी गानों को गाने वाली यह गायिका हाल में हीं सिंगिंग के एक रियालटी शो में असम का प्रतिनिधित्व करती नज़र आईं थी। जहाँ तक इस गाने की बात है तो यह पूर्णत: एक कमर्शियल आइटम नंबर है और फ़िल्म की कहानी के लिए इसकी ज़रूरत थी भी। तो आइए इस गीत को सुन ही लिया जाये।

गीत - तेरे इसक से मीठा कुछ भी नहीं


सुजॊय - अगला गीत ज़रा हट कर है। प्रीतम ने एक इंटरव्यु में कहा है कि उन्हें वो गानें कम्पोज़ करने में ज़्यादा अच्छे लगते है जिनमें मेलडी होता है। तो साहब इस बार उन्हें मेलडियस कम्पोज़िशन का मौका मिल ही गया। इस गीत में, जिसका शीर्षक है "सौदे बाज़ी", नवोदित गायक अनुपम आमोद ने अपनी आवाज़ दी है। प्रीतम की नये नये गायकों की खोज जारी है और इस बार वे अनुपम को ढूंढ़ लाये हैं। लगता है यह गीत अनुपम को दूर तक लेके जाएगा।

विश्व दीपक - वैसे इसी गीत का एक और वर्ज़न है जिसे जावेद अली से गवाया गया है। लेकिन आज हम अनुपम का स्वागत करते हुए उन्ही का गाया गीत सुनेंगे। पता नहीं इस गीत की धुन को सुनते हुए ऐसा लग रहा है कि जैसे इसी तरह की धुन का कोई और गाना पहले बन चुका है। शायद बाद में याद आ जाए!

सुजॊय - इस गीत की ख़ासियत है इसकी सादगी। भारतीय साज़ों की ध्वनियाँ सुनने को मिलती हैं भले ही सिन्थेसाइज़र पर तय्यार किया गया हो। सुनते हैं अनुपम आमोद की आवाज़।

गीत - सौदे बाज़ी


विश्व दीपक - आज के दौर के एक और गायक जो सूफ़ी गीतों में ख़ूब अपना नाम कमा रहे हैं, वो हैं अपने राहत फ़तेह अली ख़ान साहब। कैलाश खेर ने जो मुक़ाम हासिल किया था, आज वही मुकाम राहत साहब का है। इस फ़िल्म में भी उनका उन्ही के टाइप का एक गाना है "मन की मत पे मत चलियो ये जीते जी मरवा देगा"।

सुजॊय - सचमुच आज हर फ़िल्म में राहत साहब का एक गीत जैसे अनिवार्य हो गया है। क्योंकि आजकल वो 'छोटे उस्ताद' में नज़र आ रहे हैं, मैंने एक बात उनकी नोटिस की है कि वो बहुत ही विनम्र स्वभाव के हैं और बहुत ज़्यादा इमोशनल भी हैं। बात बात पे उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। और बार बार वो लेजेन्डरी गायकों का ज़िक्र करते रहते हैं। इतनी सफलता के बावजूद उनके अंदर जो विनम्रता है, वो साफ़ झलकती है।

विश्व दीपक - "मन की मत पे मत चलियो", इरशाद कामिल ने यमक अलंकार का क्या ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है "मत" शब्द में। दो जगह "मत" आता है लेकिन अलग अलग अर्थ के साथ।

सुजॊय - ठीक वैसे ही जैसे रवीन्द्र जैन ने लिखा था "सजना है मुझे सजना के लिए" और "जल जो ना होता तो जग जाता जल"। तो आइए सुनते हैं राहत साहब की आवाज़ में "मन की मत"।

गीत - मन की मत पे मत


विश्व दीपक - और अब आज की प्रस्तुति का अंतिम गीत एक भक्ति रचना सुखविंदर सिंह की आवाज़ में "राम कथा", जिसमें रामायण के उस अध्याय का ज़िक्र है जिसमें भगवान राम ने रावण का वध कर सीता को मुक्त करवाया था। एक पौराणिक कथा के रूप में ही इस गीत में उसकी व्याख्या की गई है।

सुजॊय - देखना है कि फ़िल्म में इसका फ़िल्मांकन कैसे किया गया है। तब कहेंगे कि क्या "पल पल है भारी विपदा है आयी" के साथ इसका कोई टक्कर है या नहीं! आइए सुन लेते हैं यह गीत।

गीत - राम कथा


सुजॊय - हाँ तो दोस्तों, कैसे लगे इन दोनों फ़िल्मों के गानें? हमने दोनों फ़िल्मों के चार चार गानें आपको सुनवाये और एक एक गानें छोड़ दिये हैं, लेकिन आपको यकीन दि्ला दें कि उससे आप किसी अच्छे गीत से वंचित नहीं हुए हैं। अगर आप मेरी पसंद की बात करें तो 'क्रूक' का "तुझको जो पाया" (मोहित चौहान) और 'आक्रोश' का "मन की मत पे मत जाना" (राहत फ़तेह अली ख़ान) मुझे सब से ज़्यादा पसंद आये। बाक़ी गानें सो-सो लगे। रेटिंग की बात है तो मेरी तरफ़ से दोनों ऐल्बमों को ३ - ३ अंक।

विश्व दीपक - सुजॉय जी, मैं आपकी टिप्पणियों को सर-आँखों पर रखते हुए मैं आपके द्वारा दिए गए रेटिग्स को बरकरार रखता हूँ। जहाँ तक प्रीतम के संगीत की बात है तो वो हर बार हर फिल्म में ऐसे कुछ गाने जरूर देते हैं, जिन्हें श्रोताओं
का भरपूर प्यार नसीब होता है। दोनों फिल्मों में ऐसे एक्-दो गाने जरूर हैं। संगीत और इन्स्ट्रुमेन्ट्स के बारे में आपने तो लगभग सब कुछ हीं कह दिया है, इसलिए मैं थोड़ा "बोलों" का जिक्र करूँगा। "कुमार" और "इरशाद कामिल" दोनों हीं अलग तरह के गाने लिखने के लिए जाने जाते हैं। फिर भी अगर मुझसे पूछा जाए कि किसके गाने "अन-कन्वेशनल" होते हैं और दिल को ज्यादा छूते हैं तो मैं इरशाद भाई का नाम लूँगा। इरशाद भाई ने जहाँ एक तरफ "तू जाने ना" लिखकर एकतरफा प्यार करने वालों को एक एंथम दिया है, वहीं "न शहद, न शीरा, न शक्कर" लिखकर "नौटंकी" वाले गानों को कुछ नए शब्द मुहैया कराए हैं। मैं उनके शब्द-सामर्थ्य और शब्द-चयन का कायल हूँ। आने वाली फिल्मों में भी मैं उनसे ऐसे हीं नए शब्दों और बोलों की उम्मीद रखता हूँ। चलिए तो इन्हीं बातों के साथ आज की समीक्षा पर विराम लगाते हैं। उससे पहले सभी श्रोताओं के लिए एक सवाल/एक आग्रह/एक अपील: मैं चाहता हूँ कि हम समीक्षा में रेटिंग न दें, बल्कि बस इतना हीं लिख दिया करें कि कौन-सा गाना बहुत अच्छा है और कौन-सा थोड़ा कम। मैंने यह बात सुजॉय जी से भी कही है और उनके जवाब का इंतज़ार कर रहा हूँ। उनके जवाब के साथ-साथ मैं आप सबों की राय भी जानना चाहूँगा।

आवाज़ रेटिंग्स: क्रूक: ***, आक्रोश: ***

पाठको की रूचि में कमी होती देख आज से सवालों का सिलसिला(ट्रिविया) समाप्त किया जाता है.. सीमा जी, हमें मुआफ़ कीजिएगा, लेकिन आपके अलावा कहीं और से जवाब नहीं आता और आप भी पिछली कुछ कड़ियों में नदारद थीं, इसलिए सीने पर पत्थर रखकर हमें यह निर्णय लेना पड़ा :)

TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. 'लम्हा'।
२. "जियो, उठो, बढ़ो, जीतो"।
३. 'तलाश'।

Monday, October 4, 2010

मेरा रंग दे बसंती चोला....जब गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन मिले अमर शहीद भगत सिंह की माँ से तब जन्मा ये कालजयी गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 497/2010/197

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं नव रसों पर आधारित फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'रस माधुरी'। आज बारी है वीर रस की। वीर रस, यानी कि वीरता और आत्मविश्वास का भाव जो हर इंसान में होना अत्यधिक आवश्यक है। प्राचीन काल में राजा महाराजाओं, सेनापतियों और सैनिकों को वीर की उपाधि दी जाती थी जो युद्ध भी अगर लड़ते थे तो पूरे नियमों को ध्यान में रखते हुए। पीठ पीछे वार करने में कोई वीरता नहीं है, बल्कि उसे कायर कहते हैं। वीरता के रस अपने में उत्पन्न करने के लिए इंसान को धैर्य और प्रशिक्षण की ज़रूरत है। आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा अपने अंदर। वीर रस का एक महत्वपूर्ण पक्ष है प्रतियोगिता का, जो बहुत ज़रूरी है अपने काबिलियत को बढ़ाने के लिए। लेकिन हार या जीत को अगर हम बहुत ज़्यादा व्यक्तिगत रूप से लेंगे तो फिर मुश्किल ही होगी। वीर रस की वजह से इंसान स्वाधीन होना चाहेगा, उसे किसी का डर नहीं होगा, और वह बढ़ निकलेगा अपने आप को बंधनों से आज़ाद कराने के लिए। भारत ने हमेशा अमन और सदभाव का राह चुना है। हमने कभी किसी को नहीं ललकारा। हज़ारों सालों का हमारा इतिहास गवाह है कि हमने किसी पर कभी पहले वार नहीं किया। जंग लड़ना हमारी फ़ितरत नहीं। ख़ून बहाना हमारा धर्म नहीं और ना ही हम इसे वीरता समझते हैं। वीरता होती है अपने साथ साथ दूसरों की रक्षा करने में। लेकिन जब जब दुश्मनों ने हमारी इस धरती को अपवित्र करने की कोशिश की है, हम पर ज़ुल्म करने की कोशिश की है, तो हमने भी अपनी मर्यादा और सम्मान की रक्षा की है। ना चाहते हुए भी बंसी के बदले बंदूक थामे हैं हम प्रेम पुजारियों ने।

"मातृभूमि के लिए जो करता अपने रक्त का दान, उसका जीवन देवतूल्य है उसका जन्म महान।" स्वर्ग से महान अपनी इस मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणो की आहुति देने वाले शहीदों को समर्पित है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आज का यह एपिसोड। वीर रस पर आधारित जिस गीत को हमने इस कड़ी के लिए चुना है वह गीत हमें याद दिलाता है तीन ऐसे शहीदों की जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जो योगदान दिया, उनके नाम इस देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जा चुका है। ये तीन अमर शहीद हैं सरदार भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव। २३ मार्च १९३१ के दिन ये फाँसी पर चढ़ कर शहीद हो गए और इस देश के स्वाधीनता के लिए अमर बलिदान दे गए। १९६५ में मनोज कुमार ने जब शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदान पर अपनी कालजयी फ़िल्म 'शहीद' बनाई तो भगत सिंह के किरदार में ख़ुद मोर्चा सम्भाला, राजगुरु बनें आनंद कुमार और सुखदेव की भूमिका में थे प्रेम चोपड़ा। चन्द्रशेखर आज़ाद की भूमिका अदा की मनमोहन ने। भगत सिंह की माँ का रोल निभाया कामिनी कौशल ने। दोस्तों, जब यह फ़िल्म बन रही थी, तब भगत सिंह की माँ जीवित थीं। इसलिए मनोज कुमार अपनी पूरी टीम के साथ भगत सिंह के गाँव जा पहुँचे, उस बूढ़ी माँ से मिले और भगत सिंह के जीवन से जुड़ी बहुत सी बातें मालूम की जिन्हें वापस आकर उन्होंने इस फ़िल्म में उतारा। भगत सिंह की माँ से मुलाक़ात करने वाले इस टीम का एक सदस्य इस फ़िल्म के गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन भी थे, जिन्होंने इस संस्मरण का उल्लेख अपने 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम में किया था। पेश है वही अंश। "यह मेरी ख़ुशनसीबी है कि शहीद भगत सिंह की माँ से मिलने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। हम उस गाँव में गए थे जहाँ भगत सिंह की माँ रहती थीं। उनसे हम लोग मिले और भगत सिंह के जीवन से जुड़ी कई बातें उन्होंने हमे बताईं। उनकी एक बात जो मेरे दिल को छू गई, वह यह था कि फाँसी से एक दिन पहले वो अपने बेटे से मिलने जब जेल गईं तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। तब भगत सिंह ने उनसे कहा कि 'माँ, मत रो, अगर तुम रोयोगी तो कोई भी माँ अपने बेटे को क़ुर्बानी की राह पर नहीं भेज पाएगी'। इसी बात से प्रेरित होकर मैंने इस फ़िल्म में यह गीत लिखा "तू ना रोना के तू है भगत सिंह की माँ, मर के भी तेरा लाल मरेगा नहीं, घोड़ी चढ़के तो लाते हैं दुल्हन सभी, हंसकर हर कोई फाँसी चढ़ेगा नहीं"। इसी फ़िल्म का मेरा लिखा एक और गीत है जो बहुत मशहूर हुआ था "मेरा रंग दे बसंती चोला"। बसंती रंग क़ुर्बानी का रंग होता है। ऐ माँ, तू मेरा चोला बसंती रंग में रंग दे, मुझे क़ुर्बान होने जाना है इस देश की ख़ातिर, बस यही एक अरमान है मेरा, तू रंग दे बसंती चोला" तो लीजिए दोस्तों, मुकेश, महेन्द्र कपूर और राजेन्द्र मेहता की आवाज़ों में प्रेम धवन का लिखा व स्वरबद्ध किया १९६५ की फ़िल्म 'शहीद' का यह देश भक्ति गीत सुनिए और सलाम कीजिए उन सभी शहीदों को जिनकी क़ुर्बानियों की वजह से हम आज़ाद हिंदुस्तान में जनम ले सके हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही भगत सिंह को उनकी जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र ने श्रद्धाजन्ली दी थी, वहीं पिछले हफ्ते ही गायक मेहन्द्र कपूर की दूसरी पुनातिथि भी थी. आईये इस गीत में बहाने हम उन्हें भी आज याद करें.



क्या आप जानते हैं...
कि "मेरा रंग दे बसंती चोला" गीत राग भैरवी पर आधारित है जब कि इसी फ़िल्म का एक और देश-भक्ति गीत "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" को प्रेम धवन ने राग दरबारी काबड़ में स्वरबद्ध किया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. युं तो यह गीत रौद्र रस पर आधारित है लेकिन जिस वस्तु के माध्यम से ग़ुस्सा प्रकट किया जा रहा है, वह एक बहुत ही नाज़ुक सी चीज़ है। इस युगल गीत के गायक का नाम बताएँ। ४ अंक।
२. इस फ़िल्म में ७० के दशक की एक सुपरहिट नायक-नायिका की जोड़ी है और ठीक वैसे ही एक सफल गीतकार-संगीतकार की जोड़ी भी। फ़िल्म का नाम बताएँ। १ अंक।
३. पहले अंतरे में "ख़ूबसूरत शिकायत" शब्द आते हैं। मुखड़ा पहचानिए। २ अंक।
४. फ़िल्म के निर्देशक बताएँ। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार नए प्रतिभागी ने सबको पीछे छोड़ा, वैसे इस गीत को पहचानना मुश्किल भी नहीं था, आज का गीत पहचाने तो मानें :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, October 3, 2010

गुमनाम है कोई....जब पर्दों में छुपा हो रहस्य, और भय के माहौल में सुरीली आवाज़ गूंजे लता की



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 496/2010/196

When there is nothing to lose, there is nothing to fear. डर मन-मस्तिष्क का एक ऐसा भाव है जो उत्पन्न होता है अज्ञानता से या फिर किसी दुष्चिंता से। 'ओल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'रस माधुरी' शृंखला की छठी कड़ी में आज बातें भयानक रस की। भयानक रस का अर्थ है डर या बुरे की आशंका। ज़ाहिर है कि हमें जितना हो सके इस रस से दूर ही रहना चाहिए। भयानक रस से बचने के लिए ज़रूरी है कि हम अपने आप को सशक्त करें, सच्चाई की तलाश करें और सब से प्यार सौहार्द का रिश्ता रखें। अक्सर देखा गया है कि डर का कारण होता है अज्ञानता। जिसके बारे में हम नहीं जानते, उससे हमें डर लगता है। भूत प्रेत से हमें डर क्यों लगता है? क्योंकि हमने भूत प्रेत को देखा नहीं है। जिसे किसी ने नहीं देखा, उसकी हम भयानक कल्पना कर लेते हैं और उससे डर लगने लगता है। भय या डर हमारे दिमाग़ की उपज है जो किसी अनजाने अनदेखे चीज़ के बारे में ज़रूरत से ज़्यादा ही बुरी कल्पना कर बैठता है, जिसका ना तो कोई अंत होता है और ना ही कोई वैज्ञानिक युक्ति। वैसे कुछ ऐसे भय भी होते हैं जो हमारे लिए अच्छा है, जैसे कि भगवान से डर। भगवान से अगर डर ना हो तो आदमी बुराई के मार्ग पर चल निकलने के लिए प्रोत्साहित हो जाएगा जो समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। भय से बचने के लिए हमें चाहिए कि अच्छे मित्र बनाएँ, आत्मीय जनों से प्रेम का रिश्ता रखें ताकि ज़रूरत के वक़्त वे हमारे साथ खड़े हों। और आख़िर में बस यही कहेंगे कि भय से कुछ हासिल नहीं होता, सिवाय ब्लड प्रेशर बढ़ाने के। भविष्य में जो होना है वह तो होकर रहेगा, इसलिए आज ही ख़ामख़ा डर कैसा! वह उस गीत में कहा गया है न कि "सोचना क्या जो भी होगा देखा जाएगा, कल के लिए तू आज को ना खोना, आज ये ना कल आएगा"। बस यही बात है।

भयानक रस पर आधारित फ़िल्मी गीतों की बात करें तो इस तरह के गानें भी हमारी फ़िल्मों में ख़ूब चले हैं। अलग अलग तरह से भय को गीतों में उतारा है हमारे गीतकारों नें। फ़िल्म 'एक पल' में लता जी का गाया एक गाना था "जाने क्या है जी डरता है, रो देने को जी करता है, अपने आप से डर लगता है, डर लगता है क्या होगा"। बादलों के गरजने से भी जो डर लगता है उसका वर्णन भरत व्यास जी के गीत "डर लागे गरजे बदरिया कारी" में मिलता है। किसी को ब्लैकमेल करते हुए "मेरा नाम है शबनम.... लेकिन डरो नहीं, राज़ राज़ ही रहेगी" में भी भय का आभास है। लेकिन इस रस का सब से अच्छा इस्तेमाल भूत प्रेत या सस्पेन्स थ्रिलर वाली फ़िल्मों के गीतों में सब से अच्छा हुआ है। 'महल', 'बीस साल बाद', 'वो कौन थी', 'सन्नाटा', 'जनम जनम' आदि फ़िल्मों में एक गीत ऐसा ज़रूर था जिसमें सस्पेन्स वाली बात थी। लेकिन इन गीतों में सस्पेन्स को उजागर किया गया उसके फ़िल्मांकन के ज़रिए और संगीत संयोजन के ज़रिए, जब कि बोलों में जुदाई या विरह की ही प्रचूरता थी। शब्दों में भय का इतना रोल नहीं था। लेकिन एक फ़िल्म आई थी 'गुमनाम' जिसके शीर्षक गीत में वह सारी बातें थीं जो एक भयानक रस के गीत में होनी चाहिए। फ़िल्मांकन हो या संगीत संयोजन, गायक़ी हो या गाने के बोल, हर पक्ष में भय का प्रकोप था। "गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई, किसको ख़बर, कौन है वो, अंजान है कोई"। हसरत जयपुरी का लिखा गीत और संगीत शंकर जयकिशन का। १९६५ की इस सुपरहिट सस्पेन्स थ्रिलर को निर्देशित किया था राजा नवाथे ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मनोज कुमार, नंदा, हेलेन, प्राण, महमूद प्रमुख। जहाँ तक इस गीत की धुन का सवाल है, तो शंकर जयकिशन को इसकी प्रेरणा हेनरी मैनसिनि के 'शैरेड' (Charade) फ़िल्म के थीम से मिली थी। तो आइए सुना जाए यह गीत, हम इस गीत के बोल लिखना चाहेंगे ताक़ि आप महसूस कर सकें कि किस तरह से इस गीत की हर पंक्ति से भय टपक रहा है।

गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई,
किसको ख़बर कौन है वो, अंजान है कोई।

किसको समझें हम अपना, कल का नाम है एक सपना,
आज अगर तुम ज़िंदा हो तो कल के लिए माला जपना।

पल दो पल की मस्ती है, बस दो दिन की बस्ती है,
चैन यहाँ पर महँगा है और मौत यहाँ पर सस्ती है।

कौन बला तूफ़ानी है, मौत तो ख़ुद हैरानी है,
आये सदा वीरानों से जो पैदा हुआ वो फ़ानी है।

दोस्तों, जब मैं यह आलेख लिख रहा हूँ, इस वक़्त रात के डेढ़ बज रहे हैं, एक डरावना माहौल सा पैदा हो गया है मेरी आसपास और शायद मेरे अंदर, इसलिए यह आलेख अब यहीं पे ख़त्म करता हूँ, फिर मिलेगे गर ख़ुदा लाया तो। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'गुमनाम' के लिए महमूद और हेलेन, दोनों को ही उस साल के फ़िल्मफ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता के पुरस्कार के लिए नमोनीत किया गया था, लेकिन ये पुरस्कार दोनों में से किसी को भी नहीं मिल पाया।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. वीर रस पर आधारित तमाम देशभक्ति गीतों में एक ख़ास मुकाम रखता है यह गीत जिसे तीन मुख्य गायकों ने गाया है। एक हैं मुकेश, आपको बताने हैं बाक़ी दो गायकों के नाम। ३ अंक।
२. एक बेहद मशहूर स्वाधीनता सेनानी के जीवन पर बनी थी यह फ़िल्म। उस सेनानी का नाम बताएँ। २ अंक।
३. फ़िल्म में गीत और संगीत एक ही शख़्स ने दिया है। उनका नाम बताएँ। ४ अंक।
४. इसी फ़िल्म के एक अन्य गीत का मुखड़ा शुरु होता है "जोगी" शब्द से। कल बजने वाले गीत के बोल बताएँ। १ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी एक बार फिर जल्दबाजी कर गए, मगर शरद जी ने संयम से काम लिया. लगता है प्रतिभा जी के मन में भी कोई भय समां गया था जवाब देते समय :)खैर श्याम कान्त जी शायद नए जुड़े है, जवाब सही है जनाब. सभी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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