Saturday, July 18, 2009

आजा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले तो वीराने में भी आ जायेगी बहार....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 145

१९५६ का साल संगीतकार शंकर जयकिशन के लिए एक बहुत कामयाब साल रहा। इस साल उनके संगीत से सजी फ़िल्में आयी थीं - बसंत बहार, चोरी चोरी, हलाकू, क़िस्मत का खेल, न्यु डेल्ही, पटरानी, और राजहठ। 'क़िस्मत का खेल' को छोड़कर बाक़ी सभी फ़िल्में हिट रहीं। दक्षिण का मशहूर बैनर ए.वी.एम की फ़िल्म थी 'चोरी चोरी' जो अंग्रेज़ी फ़िल्म 'रोमन हौलिडे' पर आधारित थी। अनंत ठाकुर ने फ़िल्म का निर्देशन किया और यह फ़िल्म राज कपूर और नरगिस की जोड़ी की आख़िरी फ़िल्म थी। फ़िल्म की एक और ख़ास बात कि इस फ़िल्म ने संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन को दिलवाया उनके जीवन का पहला फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार। शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी साहब के गानें थे और मुकेश के बदले मन्ना डे से राज कपूर का पार्श्वगायन करवाया गया, जिसके बारे में मन्ना दा के उद्‍गार हम पहले ही आप तक पहुँचा चुके हैं 'राज कपूर विशेष' के अंतर्गत। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनिये 'चोरी चोरी' फ़िल्म से लता मंगेशकर और मन्ना डे का गाया एक बड़ा ही सदाबहार रोमांटिक युगल गीत। चांदनी रात में दो प्यार करनेवाले किस तरह से वीराने को बहार में परिवर्तित कर सकते हैं, उसी का बखान किया है हसरत साहब ने अपनी इस सुमधुर रचना में। "आजा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले तो वीराने में भी आज आयेगी बहार, झूमने लगेगा आसमान"। ५ दशक से भी उपर हो गया है इस गीत को बने हुए, लेकिन क्या इस गीत को कोई भुला पाया है आज तक? कभी नहीं। यह गीत आज भी उतना ही तरोताज़ा है, इसकी महक आज भी उसी तरह से बिखर रही है दुनिया की फिजाओं में। लता जी और मन्ना दा के गाये लोकप्रिय युगल गीतों की अगर सूची बनायी जाये तो इस गीत का क्रमांक यक़ीनन शीर्ष की तरफ़ ही रहेगा।

फ़िल्म 'चोरी चोरी' में लता-मन्ना के गाये कुल तीन युगल गीत थे और ये तीनों गीत बहुत कामयाब रहे। प्रस्तुत गीत के अलावा "जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो" और "ये रात भीगी भीगी" को भी अपार शोहरत हासिल हुई। इन गीतों में समानता यह है कि इन तीनों के मुखड़े बहुत ज़्यादा लम्बे हैं, जो उस समय के प्रचलित धारा से हट के था। प्रस्तुत प्रेम गीत को सुनने से पहले जान लेते हैं शंकर जी के चंद शब्द जिनमें वो बता रहे हैं कि ऐसे अच्छे प्रेम गीत को बनाने के लिए संगीत के साथ प्रेम होना कितना ज़रूरी होता है - "आप को शायद मालूम होगा या किसी पेपर में पढ़ा होगा कि मुझे कसरत का भी बड़ा शौक था। और उस वक़्त मैं कसरत भी करता था, कुश्ती भी लड़ता था। यह मेरे ख़याल से आप को ख़ुशी होगी जानकर कि संगीतकार पहलवान भी था। लेकिन उस कुश्ती के साथ साथ मैने छोटेपन से संगीत में भी बड़ी मेहनत की है, उसमें भी कुश्ती की है मैने। लेकिन संगीत की कुश्ती आम कुश्ती की तरह नहीं होती। यह तो प्यार और मोहब्बत से होती है। और संगीत जो है ये हाथ और ताक़त से नहीं चलती है। संगीत आप जितने प्यार से बना सकते हैं, जितना प्यार आप दे सकते हैं, उतना ही संगीत में आनंद और मज़ा आता है।" सच में दोस्तो, शंकर जयकिशन ने अपने संगीत से जिस तरह का प्यार किया है, यही कारण है कि उनका संगीत सदा हिट रहा, आज भी हिट है, और आगे आने वाली कई पीढ़ियों तक हिट रहेगा। इस जोड़ी की संगीत साधना को सलाम करते हुए सुनते हैं "आजा सनम मधुर चांदनी में हम"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल गुलज़ार साहब पहली बार आयेंगें ओल्ड इस गोल्ड की महफिल में, यानी ये गीत है उनका लिखा हुआ.
2. इस फिल्म का और मशहूर गीत मन्ना डे की आवाज़ में है पर इस गीत को उस गायक ने गाया है जिसने ओल्ड इस गोल्ड की १४२ वीं महफिल आबाद की थी.
3. मुखड़े में शब्द है -"धूप".

पिछली पहेली का परिणाम -
दिशा जी समय पर तो आई पर जवाब सही देने में फिर चूक गयी. स्वप्न जी ३२ अंकों की बधाई और साथ में इस बात की भी कि शैल साहब घर वापस आ गए हैं. हाँ आपकी जानकारी के लिए बता दें कि शरद जी के पसंदीदा गीत अभी शुरू नहीं हुए हैं, आपके उनके चुने हुए गीत सुन सकेंगें एपिसोड १७६ से १८० तक तो थोडा सा इंतज़ार और....दिलीप जी हमेशा सही बात उठाते हैं, आप जब प्रस्तुत गीत पर टिपण्णी करते हैं तो बहुत अच्छा लगता है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: ज्ञानी - उपेन्द्रनाथ "अश्क"



उपेन्द्रनाथ अश्क की "ज्ञानी"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने पारुल पुखराज की आवाज़ में उभरते हिंदी साहित्यकार गौरव सोलंकी की कहानी ""बाँहों में मछलियाँ" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उर्दू और हिंदी प्रसिद्ध के साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की एक छोटी मगर सधी हुई कहानी "ज्ञानी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

उर्दू के सफल लेखक उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने मुंशी प्रेमचंद मुंशी प्रेमचन्द्र की सलाह पर हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। १९३३ में प्रकाशित उनके दुसरे कहानी संग्रह 'औरत की फितरत' की भूमिका मुंशी प्रेमचन्द ने ही लिखी थी। अश्क जी को १९७२ में 'सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

धन दौलत तो माया है, बनेरे का काग, आज हमारी मुंडेर पर तो कल दूसरे की।
(उपेन्द्रनाथ "अश्क" की "ज्ञानी" से एक अंश)

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#Thirteeth Story, Gyani: Upendra Nath Ashq/Hindi Audio Book/2009/23. Voice: Anurag Sharma

Friday, July 17, 2009

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 144

जरूह सुल्तानपुरी, क़मर जलालाबादी, प्रेम धवन आदि गीतकारों के साथ काम करने के बाद सन् १९५८ में संगीतकार ओ. पी. नय्यर को पहली बार मौका मिला शायर साहिर लुधियानवी के लिखे गीतों को स्वर्बद्ध करने का। फ़िल्म थी 'सोने की चिड़िया'। इस्मत चुगतई की लिखी कहानी पर आधारित फ़िल्म कार्पोरेशन ऒफ़ इंडिया के बैनर तले बनी इस फ़िल्म का निर्देशन किया था शाहीद लतीफ़ ने, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बलराज साहनी, नूतन और तलत महमूद। जी हाँ दोस्तों, यह उन गिनी चुनी फ़िल्मों में से एक है जिनमें तलत महमूद ने अभिनय किया था। इस फ़िल्म में तलत साहब और आशा भोंसले के गाये कम से कम दो ऐसे युगल गीत हैं जिन्हे अपार सफलता हासिल हुई। इनमें से एक तो था "सच बता तू मुझपे फ़िदा कब हुआ और कैसे हुआ", और दूसरा गाना था "प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ"। और यही दूसरा गीत आज के इस महफ़िल की शान बना है। साहिर साहब के क़लम से निकला हुआ, और प्रेमिका से प्यार करने की इजाज़त माँगता हुआ यह नग़मा प्रेम निवेदन की एक अनूठी मिसाल है। इस भाव पर बहुत सारे गानें बनें हैं, लेकिन इस गीत के बोल हर एक को पीछे छोड़ देते है शब्दों और भाषा की उत्कृष्टता में।

बरसों पहले फ़ौजी भा‍इयों से विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में मुख़ातिब तलत महमूद ने इस गीत के बारे में कहा था - "मैं और कुछ चुनिंदा कलाकार एक बार सिक्किम गये हुए थे आप फ़ौजी भा‍इयों का मनोरंजन करने। तब मुझे समझ में आया कि आप लोग मुझे और मेरे गाये गीतों को कितना पसंद करते हैं। जब भी मैं आप लोगों के लिए प्रोग्राम पेश करता हूँ तो एक गीत की फ़रमाइश अक्सर आती है, और वह गीत है फ़िल्म 'सोने की चिड़िया' का, जिसमें मैं 'हीरो' था और इस गीत में मैं और 'हीरोइन' एक कश्ती पे सवार हो कर गाते हैं।" दोस्तों, एक और अंश 'दस्तान-ए-नय्यर' से हो जाये! नय्यर साहब बता रहे हैं - "तलत साहब की एक तसवीर थी ('सोने की चिड़िया'), फ़िल्म 'बाज़' में वो गाना गाये, "एक हसरत की तसवीर हूँ मैं, जो बन बन के बिगड़े वह तक़दीर हूँ मैं", उसके बाद 'सोने की चिड़िया' में वो एक 'साइड हीरो' के रोल में आये। वो दो गानें मेरे पास गाये - "प्यार पर बस..." और "सच बता..."। वेल्वेट वायस और बहुत शरीफ़ आदमी, वो भी शरीफ़ आदमी कम बात करने वाले, काम से काम रखते थे!" जब नय्यर साहब से अहमद वसी साहब ने सवाल किया कि "क्या आप को कोई दुशवारी नहीं लगी क्यूंकि तलत साहब की गायकी बिल्कुल अलग थी, उनकी गायकी ग़ज़ल से बहुत क़रीब थी?", तो नय्यर साहब का सीधा और बेझिझक जवाब था - "नहीं, गायकी कोई चीज़ नहीं होती है, यह होगी क्लासिकल सिंगर्स की बनायी हुई, 'फ़िल्म लाइन' में कोई गायकी नहीं है, गायकी तो हम बनाते हैं लोगों की। अब रफ़ी साहब की आवाज़ को कितना तंग और दबाके इस्तेमाल किया गया है, यह तो काम्पोसर पे बहुत डिपेंड करता है कि किस गायक से कैसे काम लेना है"। तो दोस्तों, बातें बहुत सी हो गयी, अब बारी गीत सुनने की।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. जब भी सबसे खूबसूरत दोगानों की बात होगी इस गीत का अवश्य जिक्र आएगा.
2. अनंत ठाकुर के निर्देशन में बनी इस फिल्म में सदाबहार हिट नायक और नायिका की जोड़ी थी.
3. मुखड़े में शब्द है -"मधुर".

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी बहुत बहुत बधाई. ओल्ड इस गोल्ड पहेली के सबसे पहले विजेता हैं आप. जल्द ही आपकी पसंद गीत शामिल होने इस कारवाँ में. पूरा ओल्ड इस गोल्ड परिवार जोरदार तालियों से कर रहा है आज अपने इस पहले विजेता की ताजपोशी, अदा जी देखते हैं अब आपको कौन टक्कर देगा, अभी तक तो आप पराग जी से बहुत आगे हैं, पर फिर भी मुकाबला कड़ा होगा ऐसी उम्मीद है. दिशा जी अगर थोडा समय से (अमूमन ६.३० बजे शाम भारतीय समय अनुसार) यदि आ पायें तो सब पर भारी पड़ सकती हैं. मनु जी पीछे रह जाते हैं, वैसे रचना जी, दिलीप जी, और कभी कभी सुमित जी भी अपना जलवा दिखा ही देते हैं. खैर अगला विजेता कोई भी हो, पर फिलहाल तो रंग जमा रखा है शरद तैलंग जी ने. शरद जी ओल्ड इस गोल्ड से युहीं जुड़े रहिये, यदि बाकी सब जवाब देने में असमर्थ रहे तो आपको ही जवाब देना पड़ेगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तेरी आवाज़ आ रही है अभी.... महफ़िल-ए-शाइर और "नासिर"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३०

"महफ़िल-ए-गज़ल" के २५वें वसंत (यूँ तो वसंत साल में एक बार हीं आता है, लेकिन हम ने उसे हफ़्ते में दो बार आने को विवश कर दिया है) पर हमने कुछ नया करने का सोचा, सोचा कि क्यों ना अपनी और अपने पाठकों की याद्दाश्त की मालिश की जाए। गौरतलब है कि हम हर बार एक ऐसी गज़ल या गैर फिल्मी नज़्म लेकर हाज़िर होते हैं, जिसे जमाना भुला चुका है या फिर भुलाता जा रहा है। आज कल नए-नए वाद्ययंत्रों की बाढ-सी आ गई है और उस बाढ में सच्चे और अच्छे शब्द गुम होते जा रहे हैं। इन्हीं शब्दों, इन्हीं लफ़्ज़ों को हमें संभाल कर रखना है। तो फिर गज़लों से बढिया खजाना कहाँ मिलेगा, जहाँ शुद्ध संगीत भी है, पाक गायन भी है तो बेमिसाल लफ़्ज़ भी हैं। इसलिए हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि ऐसी गज़लों, ऐसी नज़्मों को न सिर्फ़ एक बार सुने बल्कि बार-बार सुनते रहें। फिर जिन फ़नकारों ने इन गज़लों की रचना की है,उनके बारें में जानना भी तो ज़रूरी है और बस जानना हीं नहीं उन्हें याद रखना भी। अब हम तो एक कड़ी में एक फ़नकार के बारे में बता देते हैं और फिर आगे बढ जाते हैं। अगर हमें उन फ़नकारों को याद रखना है तो कुछ अंतराल पर हमें पीछे भी मुड़ना होगा और बीती कड़ियों की सैर करनी होगी। यही एक वज़ह थी कि हमने २५वें एपिसोड से पिछले एपिसोड तक प्रश्नों की श्रृंखला चलाई थी और यकीन मानिए, उन प्रश्नों का हमें बहुत फ़ायदा हुआ..यकीनन आप सबको भी असर तो दिखा हीं होगा। तो इन पाँच कड़ियों के बीत जाने के बाद हमें अपना विजेता भी मिल गया है। हमने तो यह सोचा था कि विजेता एक होगा, जिससे हम तीन गज़लों की माँग करेंगे और उन गज़लों को ३१वें एपिसोड से ३५वें एपिसोड के बीच में सुनवाएँगे। लेकिन यहाँ तो दो-दो लोग जीत गए हैं। इसलिए हम अपनी पुरानी बात पर अडिग तो नहीं रह सकते,लेकिन वादा भी तो नहीं तोड़ा जा सकता। सारी स्थिति को देखते हुए, हमने यह निर्णय लिया है कि "शरद" जी और "दिशा" जी हमें अपनी पसंद की पाँच-पाँच गज़लों का नाम(हो सके तो एलबम का नाम या फिर फ़नकार का नाम भी) भेज दें, हाँ ध्यान यह रखें कि उन गज़लों में कुछ न कुछ भिन्नता जरूर हो ताकि हर एपिसोड में हमें एक हीं बात न लिखनी पड़े(आखिर उन गज़लों के बारे में हमें जानकारी भी तो देनी है) , फिर उन ५-५ गज़लों में से हम ३-३ उन गज़लों का चुनाव करेंगे जो आसानी से हमें उपलब्ध हो जाएँ और इस तरह जमा हुए इन ६ गज़लों को ३२वें से ४०वें एपिसोड के बीच महफ़िल-ए-गज़ल में पेश करेंगे। तो हम अपने दोनों विजेताओं से यह दरख्वास्त करते हैं कि वे गज़लों (या कोई भी गैर फ़िल्मी नज़्म) की फ़ेहरिश्त hindyugm@gmail.com पर जितनी जल्दी हो सके, मेल कर दें। गज़लें किस क्रम में पोस्ट की जाएँगी, इसका निर्णय पूर्णत: हमारा होगा, ताकि कुछ न कुछ तो सरप्राइज एलिमेंट बचा रहे।

चलिए अब हम अपने पुराने रंग में वापस आते हैं और एक नई गज़ल से अपनी इस महफ़िल को सजाते हैं। आज की गज़ल को हमने जिस एलबम से लिया है उसका नाम है "चंद गज़लें, चंद गीत"। इस एलबम में एक से बढकर एक गज़लें हैं,लेकिन हमने उस गज़ल का चुनाव किया है जो औरों-सी होकर भी औरों से अलग है। ऐसा क्यों है, वह आप खुद समझ जाएँगे। आज की गज़ल को अगर आप गुनगुनाएँगे तो आपको कुछ सालों पहले रीलिज हुई एक हिंदी फ़िल्म "दिल का रिश्ता" के शीर्षक गाने की याद आ जाएगी- "दिल का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है,कितना पागल ये दिल हमारा है।" ना ना- हम अर्थ में समानता की बात नहीं कर रहे, बल्कि इस गाने की धुन उस गज़ल से हू-ब-हू मिलती है, आखिर मिले भी क्यों ना, जब उसी से उठाई हुई है। नदीम-श्रवण साहबान पाकिस्तानी गीतों और गज़लों के जबर्दस्त प्रशंसक रहे हैं और इसका प्रमाण उनके कई सारे गानों की धुनों में छुपा है। मसलन "मुसर्रत नज़ीर" के "चले तो कट हीं जाएगा सफ़र" को इन दोनों ने बना दिया "तुम्हें अपना बनाने की कसम खाई है", "नुसरत" साहब के "सानु एक पल चैन न आए", "किस्सेन दा यार न विछड़े" और "किन्ना सोणा" को इन दोनों फ़नकारों ने क्रमश: "मुझे एक पल चैन न आए", "किसी का यार न बिछड़े" और "कितना प्यारा तुझे रब ने बनाया" का रूप दे दिया। गज़लों से तो इन दोनों का खासा लगाव रहा है। मल्लिका-ए-तरन्नुम "नूरजहां" के "वो मेरा हो न सका", "बेगम अख्तर" के "ऐ मोहब्बत तेरे अंज़ाम पर रोना आया" और "मेहदी हसन" साहब के "ना कोई गिला" को नए रूप में जब ढाला गया तो ये बन गए क्रमश: "दिल मेरा तोड़ दिया उसने" , "कितना प्यारा है ये चेहरा जिसपे हम मरते हैं" और "गा रहा हूँ इस महफ़िल में" । इतनी बेदर्दी से इन गज़लों का दोहन किया गया है कि सुन कर शर्म आती है, लेकिन क्या कीजिएगा पैसों की इस दुनिया में ईमानदारी का क्या मोल। और पहले तो छुप-छुपकर चोरियाँ होती थीं, लेकिन आज तो संगीतकार खुले-आम कहते हैं कि हम नहीं चाहते थे कि किसी अंग्रेजी गाने से धुन की नकल करें,क्योंकि लोगों ने वह गाना सुना होता है, इसलिए हमने यह धुन तुर्की से उठाई है तो यह धुन स्पेन से। वैसे हम भी कहाँ उलझ गए, आज की गज़ल की बात करते-करते न जाने किस भावावेश में बह निकले। जिस गज़ल को लेकर हम प्रस्तुत हुए हैं उसे अपनी आवाज़ से मक़बूल किया है "गुलाम अली" साहब ने। शायद संगीत भी उन्हीं का है। वैसे "गुलाम अली" साहब पर एक कड़ी लेकर हम पहले हीं हाज़िर हो चुके हैं, इसलिए आज की कड़ी को गज़लगो के सुपूर्द करते हैं।

८ दिसम्बर १९२५ को अंबाला में जन्मे "सैय्यद नासिर रज़ा काज़मी" छोटी बहर की गज़लों के बेताज़ बादशाह माने जाते हैं। १९४० में इन्होंने जनाब "अख्तर शेरानी" के अंदाज़ में रूमानी कविताएँ और नज़्मों की रचना शुरू की। आगे चलकर जनाब "हाफ़िज़ होशियारपुरी"(इनकी बात हमने महफ़िल-ए-गज़ल की १८वीं कड़ी में की थी, जब हमने इक़बाल बानो की आवाज़ में "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे" सुनवाया था) की शागिर्दगी में इन्होंने गज़ल-लेखन शुरू किया। "मीर तक़ी मीर" की गज़लों का इन पर गहरा असर था, इसलिए इनकी गज़लों में "अहसास-ए-महरूमी" को आसानी से महसूस किया जा सकता है। "हाफ़िज़" साहब का प्रकृति प्रेम इनकी लेखनी में भी उतर गया था। "याद के बे-निशां जज़ीरों से, तेरी आवाज़ आ रही है अभी"- इस पंक्ति में "जज़ीरों" का प्रयोग देखते हीं बनता है। "नासिर काज़मी" के बारे में कहा जाता है कि ये गज़लों को न सिर्फ़ कलम और कागज़ देते थे, बल्कि अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा भी उनके साथ पिन कर देते थे। इन्होंने ज़िन्दगी की छोटी-छोटी अनुभूतियों को ग़ज़ल का विषय बनाया और अपनी अनुभव सम्पदा से उसे समृद्ध करते हुए एक ऐसे नये रास्ते का निर्माण किया, जिस पर आज एक बड़ा काफ़िला रवाँ-दवाँ है। इनके जीवन काल में इनका सिर्फ़ एक ही ग़ज़ल संग्रह ‘बर्ग-ए-नै’ सन् १९५२ में प्रकाशित हो सका, जिसकी ग़ज़लों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया। इनका दूसरा और महत्वपूर्ण संग्रह ‘दीवान’ इनके निधन के कुछ महीनों बाद प्रकाशित हुआ, जिसकी ग़ज़लों ने उर्दू जगत में धूम मचा दी। एक ही जमीन में कही गयी इनकी पच्चीस ग़ज़लों का संग्रह ‘पहली बारिश’ भी इनकी मृत्यु के बाद ही सामने आया। इन्होंने न सिर्फ़ गज़लें लिखीं बल्कि एक ऐसा दौर भी आया, जब गज़लों से इन्हें हल्की विरक्ति-सी हो गई । उस दौरान इन्होंने "सुर की छाया" नामक एक नाटिका की रचना की, जो पूरी की पूरी छंद में थी। गज़लों और नाटिकाओं के अलावा इन्हें दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का तर्ज़ुमा करना भी पसंद था। "वाल्ट विटमैन" के "क्रासिंग ब्रुकलिन फ़ेरि" का अनुवाद "ब्रुकलिन घाट के पार" उर्दू भाषा की एक मास्टरपिश मानी जाती है। इनके बारे में बातें करने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन आज बस इतना हीं। चलिए आगे बढने से पहले, इन्हीं का लिखा एक शेर देख लेते हैं, जिन्हें कितनों ने "गुलाम अली" साहब की आवाज़ में कई बार सुना होगा:

अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ।


गुलाम अली साहब की आवाज़ की मिठास को ज्यादा देर तक थामे रखना संभव न होगा। इसलिए ज़रा भी देर किए बिना आज की गज़ल से मुखातिब होते हैं। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:

दिल में इक लहर-सी उठी है अभी,
कोई ताज़ा हवा चली है अभी।

शोर बरपा है खाना-ए-दिल में,
कोई दीवार-सी गिरी है अभी।

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी।

याद के बे-निशां जज़ीरों से,
तेरी आवाज़ आ रही है अभी।

शहर की बे-चराग़ गलियों में,
ज़िंदगी तुझको ढूँढती है अभी।


कुछ शेर जो इस गज़ल में नहीं हैं:

सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

भरी दुनिया में दिल नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमीं है अभी

वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

कहीं नहीं कोई ___, धुंआ धुंआ है फिज़ा,
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो...

आपके विकल्प हैं -
a) दीपक, b) चाँद, c) सूरज, d) रोशनी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "वहशत" औए शेर कुछ यूं था -

तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया...

सबसे पहले सही जवाब दिया दिशा जी ने, बधाई हो. दिशा जी ने कुछ शेर भी फरमाए -

वहशत इस कदर इंसा पर छायी है
कि जर्रे जर्रे में दहशत समायी है
कहाँ से लाऊँ अब मैं अमन का पानी
ये मुसीबत खुद ही तो बुलायी है...

बहुत खूब दिशा जी...
शरद जी ज़रा से देरी से आये पर इस शेर को सुनकर समां बाँध दिया आपने -

ग़म मुझे, हसरत मुझे, वहशत मुझे, सौदा मुझे,
एक दिल देके खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे ।

वाह...
शमिख जी आपने बिलकुल सही पहचाना, साहिर साहब को सलाम...वाह क्या ग़ज़ल याद दिलाई आपने ख़ास कर ये शेर तो लाजवाब है -

फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं

मंजू जी ने अपने शेर में महफिल-ए-ग़ज़ल की ही तारीफ कर डाली, शुक्रिया आपका...और अंत में हम आपको छोड़ते हैं वहशत शब्द पर कहे मनु जी के बड़े अंकल और हम सबके चाचा ग़ालिब के इस सदाबहार शेर के साथ...

इश्क मुझको नहीं 'वहशत' ही सही
मेरी 'वहशत' तेरी शोहरत ही सही...

वाह....मनु जी आप बीच का एक एपिसोड भूल गए...अरे जनाब कहाँ रहता है आपका ध्यान आजकल.....चलिए अब आनंद लीजिये आज की महफिल का, और हमें दीजिये इजाज़त अगले मंगलवार तक.खुदा हाफिज़.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Thursday, July 16, 2009

दिल का दिया जला के गया ये कौन मेरी तन्हाई में...संगीतकार चित्रगुप्त ने रचा था इस मधुर गीत को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 143

ज 'ओल्ड इस गोल्ड' में संगीतकार चित्रगुप्त के संगीत की बारी। इससे पहले हमने आप को उनके संगीत से सजी भोजपुरी फ़िल्म 'लागी नाही छूटे राम' का लोक रंग में डूबा एक गीत सुनवाया था। आज का गीत लोक संगीत पर तो आधारित नहीं है लेकिन गीत इतना मधुर बन पड़ा है कि बार बार सुनने को जी चाहता है। लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है फ़िल्म 'आकाशदीप' का, जिसे लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने। "दिल का दीया जलाके गया ये कौन मेरी तन्हाई में, सोये नग़में जाग उठे होठों की शहनाई में"; पहला पहला प्यार किस तरह से नायिका के नाज़ुक दिल पर असर करती है, उसका बेहद बेहद ख़ूबसूरत वर्णन हुआ है इस कोमल गीत में। मजरूह साहब ने क्या ख़ूब लिखा है कि "प्यार अरमानों का दर खटकाये, ख़्वाब जागी आँखों से मिलने को आये, कितने साये डोल पड़े सूनी सी अँगनाई में"। बोल, संगीत और गायकी के लिहाज़ से यह गीत उत्कृष्ट है, उत्तम है। 'आकाशदीप' फ़िल्म आयी थी १९६५ में फणी मजुमदार के निर्देशन में। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे धर्मेन्द्र, नंदा, निम्मी, अशोक कुमार, और महमूद। इस फ़िल्म में धर्मेन्द्र पर फ़िल्माया गया रफ़ी साहब का गाया "मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था मुझे आप किसलिए मिल गये" गीत भी चित्रगुप्त की बेहतरीन रचनायों में गिना जाता है।

चित्रगुप्त जी के बेटे आनंद और मिलिंद ने भी बतौर संगीतकार जोड़ी अच्छा नाम कमाया है फ़िल्म जगत में। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए, अपने पिता को याद करते हुए और ख़ासकर 'आकाशदीप' फ़िल्म के गीतों को याद करते हुए मिलिंद जी बताते हैं (सौजन्य: विविध भारती) - "मुझे कई बार याद है, हमारे घर में राईटर्स और म्युज़िक डिरेक्टरस की मीटिंगस हुआ करती थी, खाना वाना भी बनता था। एक दिन स्कूल से आया तो देखा कि बक्शी साहब (आनंद बक्शी) बाहर बैठे हैं, उस समय उन्हे ब्रेक नहीं मिला था। अंदर गया तो देखा कि प्रेम धवन बैठे हैं, दूसरे दिन मजरूह सुल्तानपुरी बैठे थे। लता जी से भी मुलाक़ात हुई, उन्हे हम लता दीदी नहीं बल्कि लता आंटी कहते थे। मेरा नाम 'मिलिंद', जो कि महाराष्ट्रीयन नाम है, लता आंटी ने ही रखा है। पिताजी हमेशा यही कहते थे कि जितना मेलडी पर कन्सेन्ट्रेट करोगे, गाना उतना ही अच्छा बनेगा। हम दोनों ने कुछ बनाकर एक दिन जब उनको सुनाया तो उन्होने कहा कि 'यह आप का कलर है, मेरा नहीं, मैं यही चाहता था कि आप के संगीत में मेरा प्रभाव न पड़े, क्यूंकि समय के हिसाब से आप को चलना है'. उनके बहुत से गानें हम दोनों को पसंद है, लेकिन जो 'फ़र्स्ट थौट' पे याद आ जाते हैं वो हैं "जाग दिल-ए-दीवाना", "मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था", और "दिल का दीया जलाके गया"। लताजी के गाये इस गीत के बारे में मिलिंद का कहना है "यह गीत दुर्लभ है क्यूंकि लता आंटी ने इसे 'हस्की टोन' में गाया है, 'हस्की सॊफ़्ट टोन' में। इस तरह से उन्होने बहुत कम गाये हैं, उनके गीत ऊँची 'टोन' में होते हैं। तो यह जो 'हस्की फ़ील' थी, बहुत कमाल की थी।" वाक़ई दोस्तों, लता जी की आवाज़ बड़ा ही अनोखा सुनाई देता है इस गीत में। ख़ास कर जब वो गाती हैं कि "काँपते लबों को मैं खोल रही हूँ" तो सचमुच जैसे काँपते हुए लब हमारी आँखों के सामने आ जाते हैं। लता जी ने अपनी आवाज़ और गायकी के ज़रिए इस गीत में जो अभिनय किया है वो शायद बड़ी बड़ी अभिनेत्रियाँ न कर पाये। सुनिये यह गीत, और इसमे अपनी पसंद के साथ साथ मेरी पसंद भी शामिल कर लीजिए, क्युंकि मुझे यह गीत बेहद बेहद बेहद पसंद है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. इस्मत चुगताई की लिखी कहानी पर आधारित थी ये फिल्म.
2. इस गीत के गायक ने इस फिल्म में अभिनय भी किया था. अभिनेत्री थी नूतन.
3. मुखड़े की पहली लाइन में शब्द है -"बस" (कंट्रोल).

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह पराग जी आखिरकार बाज़ी मार ही ली आपने. ८ अंकों के लिए बधाई. कल शरद जी हमारे चूक गए हम तो ये मान बैठे थे कि हमें हमारा पहला विजेता मिल गया, खैर कल नहीं शरद जी आज सही. कल ओल्ड इस गोल्ड की रौनक लौटी बहुत दिनों बाद, हमारा मतलब स्वप्न मंजूषा जी लौटी. ओल्ड इस गोल्ड की पूरी टीम और आवाज़ परिवार उनके पति के शीघ्र स्वस्थ लाभ की दुआ कर रहा है ताकि मोहतरमा जल्दी से वापस एक्टिव हो जाये. मनु जी अब आप भी थोडी फुर्ती दिखाएँ ज़रा...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तू न बदली मैं न बदला, दिल्ली सारी देख बदल गयी....जी हाँ बदल रहा है "लव आजकल"



ताजा सुर ताल (10)

तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ...

साहिर साहब ने ये शब्द बहुत दुःख के साथ कहे होंगे, अक्सर हमारी फिल्मों में नायक नायिका को जब किसी कारणवश अलग होना पड़ता है तो अमूमन वो बहुत दुःख की घडी होती है, मन की पीडा "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम" जैसे किसी दर्द से भरे गीत के माध्यम से परदे पर जाहिर होती रही है, शायद ही कभी हमारे नायक-नायिका ने उस बात पर गौर किया हो जो साहिर ने उपरोक्त शेर की अगली पंक्तियों में कहा है -

वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...

अब जब रिश्ता ऐसी अवस्था में आ गया है कि साथ चल कर कोई मंजिल नहीं पायी जा सकेगी, और बिछड़ना लाजमी हो जाए तो क्यों न इस बिछड़ने के पलों को भी खुल कर जी लिया जाए. घुटन भरे रिश्ते से मिली आजादी को खुल कर आत्मसात कर लिया जाए...कुछ ऐसा ही तय किया होगा आने वाली फिल्म "लव आजकल" के युवा जोड़ी ने. तभी तो बना ये अनूठा गीत, याद नहीं कभी किसी अन्य फिल्म में कोई इस तरह का गीत आया हो जहाँ नायक नायिका बिछड़ने के इन पलों इस तरह आनंद के साथ जी रहे हों. तो इस मामले में गीतकार के उपर अतिरिक्त भार आ जाता है कि वो इस नयी सिचुअशन के लिए अपनी कलम चलाये और एक मिसाल कायम करे और गीतकार इरशाद कामिल ने इस काम को बाखूबी अंजाम दिया है, "जब वी मेट" की हिट जोड़ी प्रीतम और इरशाद कामिल ने "लव आजकल" में भी अपेक्षाओं पर खरा काम किया है. इस फिल्म का एक मस्ती भरा गीत "ट्विस्ट" आप पहले ही इस शृंखला में सुन चुके हैं, आज का ये गीत भी हमें यकीन है आपको खूब भायेगा खास कर इसके शब्दों का नयापन और संगीत की तेजी आपका दिल चुरा लेगी.

प्रीतम के पसंदीदा गायक नीरज श्रीधर हैं इस गीत में भी गायक और उनका साथ दिया है सुनिधि चौहान ने. गीतकार इरशाद कामिल की खासियत ये है कि उनका हिंदी और उर्दू के साथ साथ पंजाबी डिक्शन भी बेहद मजबूत है जिस कारण उनके पास शब्दों की कभी कमी नहीं पड़ती. लीक से हटकर बनी फिल्म "चमेली" में उन्होंने सन्देश सान्दालिया के साथ मिलकर "भागे रे मन कहीं..." जैसा नर्मो-नाज़ुक गीत लिखा. "अहिस्ता अहिस्ता" में हिमेश रेशमिया के लिए भी उन्होंने बेहद मधुर गीतों को शब्दबद्ध किया पर सही मायनों में आम आदमी तक उनका नाम पहुंचाया फिल्म "जब वी मेट" ने. "ये इश्क हाय..", मौजा ही मौजा", "ना है ये पाना", "आओगे जब तुम साजना..." और "नगाडा" जैसे गीतों ने मजबूर कर दिया संगीत प्रेमियों को वो पहुंचे इन गीतों के गीतकार के नाम तक भी. इरशाद कम लेकिन अच्छा काम करना चाहते हैं, किरदार को भले से समझकर गीत रचना चाहते हैं ताकि ढर्रे से चली आ रही फ़िल्मी सिचुअशनों पर भी नए शब्दों के गीत रचे जा सकें. खुद उन्हीं के शब्दों में -

मैं वो हूँ जिसके खून में खुद्दारी और जिद्द भी है,
मेरे साथ चल मेरी शर्त पर, चल न सके तो न सही...

इरशाद अब गीतकारी के आलावा फिल्म लेखन में भी हाथ आजमा रहे हैं, उनकी लिखी फिल्म "a wednesday" दर्शकों और समीक्षकों द्वारा बेहद सराही गयी थी. इरशाद को शुभकामनाएं देते हुए आज सुनें फिल्म "लव आजकल" से ये जबरदस्त नया गीत. बोल कुछ यूं है -

चोर बाजारी दो नैनों की,
पहले थी आदत जो हट गयी,
प्यार की जो तेरी मेरी,
उम्र आई थी वो कट गयी,
दुनिया की तो फ़िक्र कहाँ थी,
तेरी भी अब चिंता मिट गयी...

तू भी तू है मैं भी मैं हूँ
दुनिया सारी देख उलट गयी,
तू न जाने मैं न जानूं,
कैसे सारी बात पलट गयी,
घटनी ही थी ये भी घटना,
घटते घटते ये भी घट गयी...

चोर बाजारी...

तारीफ तेरी करना, तुझे खोने से डरना ,
हाँ भूल गया अब तुझपे दिन में चार दफा मरना...
प्यार खुमारी उतारी सारी,
बातों की बदली भी छट गयी,
हम से मैं पे आये ऐसे,
मुझको तो मैं ही मैं जच गयी...
एक हुए थे दो से दोनों,
दोनों की अब राहें पट गयी...

अब कोई फ़िक्र नहीं, गम का भी जिक्र नहीं,
हाँ होता हूँ मैं जिस रस्ते पे आये ख़ुशी वहीँ...
आज़ाद हूँ मैं तुझसे, अज़स्द है तू मुझसे,
हाँ जो जी चाहे जैसे चाहे करले आज यहीं...
लाज शर्म की छोटी मोटी,
जो थी डोरी वो भी कट गयी,
चौक चौबारे, गली मौहल्ले,
खोल के मैं सारे घूंघट गयी...
तू न बदली मैं न बदला ,
दिल्ली सारी देख बदल गयी...
एक घूँट में दुनिया सारी,
की भी सारी समझ निकल गयी,
रंग बिरंगा पानी पीके,
सीधी साधी कुडी बिगड़ गयी...
देख के मुझको हँसता गाता,
जल गयी ये दुनिया जल गयी....



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. उपर हमने फिल्म "जब वी मेट" के कुछ गीतों का जिक्र किया है, इसी फिल्म का एक और हिट गीत जिसका नाम जान बूझ कर हमने छोडा है, आप बतायें शहीद कपूर और करीना पर फिल्माया वो गीत कौन सा है जो हमसे छूट गया, और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब दिया सिर्फ मनु जी ने, जिनका मानना है कि नए संगीत में उनका ज्ञान कम है, फिर भी जवाब एकदम सही है मनू जी, बधाई आपको. पर हमें शिकायत है कि आप श्रोता इन नए गीतों पर अपनी रेटिंग नहीं दे रहे हैं. दिशा जी, मंजू जी, विनोद जी और मनु जी आप सब कृपया रेटिंग अवश्य दें.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, July 15, 2009

है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आएगा....हेमंत दा ने ऐसी मस्ती भरी है इस गीत कि क्या कहने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 142

से बहुत से गानें हैं जिनमें किसी एक ख़ास साज़ का बहुत प्रौमिनेंट इस्तेमाल हुआ है, यानी कि पूरा का पूरा गीत एक विशेष साज़ पर आधारित है। 'माउथ ऒर्गन' की बात करें तो सब से पहले जो गीत ज़हन में आता है वह है हेमन्त कुमार का गाया 'सोलवां साल' फ़िल्म का "है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आयेगा"। अभी कुछ ही दिन पहले हम ने आप को फ़िल्म 'दोस्ती' के दो गीत सुनवाये थे, "गुड़िया हम से रूठी रहोगी" और "चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे"। फ़िल्म 'दोस्ती' में संगीतकार थे लक्ष्मीकांत प्यरेलाल और ख़ास बात यह थी कि इस फ़िल्म के कई गीतों व पार्श्व संगीत में राहुल देव बर्मन ने 'माउथ ओर्गन' बजाया था। इनमें से एक गीत है "राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है". 'दोस्ती' १९६४ की फ़िल्म थी। इस फ़िल्म से ६ साल पहले, यानी कि १९५८ में एक फ़िल्म आयी थी 'सोलवां साल', और इस फ़िल्म में भी राहुल देव बर्मन ने 'माउथ ओर्गन' के कुछ ऐसे जलवे दिखाये कि हेमन्त दा का गाया यह गाना तो मशहूर हुआ ही, साथ ही 'माउथ ओर्गन' के इस्तेमाल का सब से बड़ा और सार्थक मिसाल बन गया यह गीत। जी हाँ, पंचम ने ही बजाया था अपने पिता सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में और हेमन्त कुमार के गाये इस कालजयी गीत में 'माउथ ओर्गन' । आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आ गयी है इसी कालजयी गीत की बारी।

'सोलवां साल' चन्द्रकांत देसाई की फ़िल्म थी। राज खोसला निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे देव आनंद और वहीदा रहमान। मजरूह साहब ने गानें लिखे और संगीतकार का नाम तो हम बता ही चुके हैं। आज इस फ़िल्म के बने ५० साल से उपर हो चुके हैं, और आज अगर यह फ़िल्म याद की जाती है तो केवल फ़िल्म के प्रस्तुत गीत की वजह से। माउथ ओर्गन सीखने वाले विद्यार्थियों के लिए यह गीत किसी बाइबल से कम नहीं। इस गीत का फ़िल्मांकन भी बहुत सुंदर हुआ है। ट्रेन में सफ़र करते हुए देव आनंद इस गीत को गा रहे हैं और 'माउथ ओर्गन' पर उन्हे संगत कर रहे हैं उनके दोस्त (दोस्त की भूमिका में थे हास्य अभिनेता सुंदर)। इस गीत का एक सेड वर्ज़न भी है जिसमें बाँसुरी और वायलिन की धुन प्राधान्य रखती है। यूं तो इस फ़िल्म के कई और भी गानें ख़ूबसूरत हैं जैसे कि आशा-रफ़ी-सुधा मल्होत्रा का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "देखो मोहे लगा सोलवां साल" और आशा की एकल आवाज़ में "यह भी कोई रूठने का मौसम है"; लेकिन कुल मिलाकर यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि हेमन्त दा का गाया "है अपना दिल तो आवारा" दूसरे सभी गीतों पर बहुत ज़्यादा भारी पड़ा और आज इस फ़िल्म के साथ बस इसी गीत को यकायक जोड़ा जाता है। और सब से बड़ी बात यह कि इस गीत को उस साल के अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'बिनाका गीतमाला' के वार्षिक कार्यक्रम में सरताज गीत के रूप में चुना गया था, यानी कि सन् १९५८ का यह सब से लोकप्रिय गीत रहा। आज भी जब अंताक्षरी खेलते हैं तो जैसे ही 'ह' से शुरु होने वाले गीत की बारी आती है तो सब से पहले लोग इसी गीत को गाते हैं, यह मैने कई कई बार ग़ौर किया है। क्या आप को भी ऐसा महसूस हुआ है कभी?



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. संगीतकार चित्रगुप्त का एक बेहद मधुर गीत.
2. मजरूह साहब ने लिखा है इस गीत को.
3. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"तन्हाई".

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी बस एक और सही जवाब और आप बन जायेंगें हमारे पहले को-होस्ट और आपकी पसंद के ५ गीत बजेंगें ओल्ड इस गोल्ड पर. वाकई लगता है बाकी सब ने पहले से ही हार मान ली है.:) मनु जी, रचना जी, शमिख फ़राज़ जी, और निर्मला कपिला जी आप सब का भी आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

आजा आजा दिल निचोड़े....लौट आई है गुलज़ार और विशाल की जोड़ी इस जबरदस्त गीत के साथ



ताजा सुर ताल (9)

रसों पहले मनोज कुमार की फिल्म आई थी- "रोटी कपडा और मकान", यदि आपको ये फिल्म याद हो तो यकीनन वो गीत भी याद होगा जो जीनत अमान पर फिल्माया गया था- "हाय हाय ये मजबूरी...". लक्ष्मीकांत प्यारेलाल थे संगीतकार और इस गीत की खासियत थी वो सेक्सोफोन का हौन्टिंग पीस जो गीत की मादकता को और बढा देता है. उसी पीस को आवाज़ के माध्यम से इस्तेमाल किया है विशाल भारद्वाज ने फिल्म "कमीने" के 'धन ताना न" गीत में जो बज रहा है हमारे ताजा सुर ताल के आज के अंक में. पर जो भी समानता है उपरोक्त गीत के साथ वो बस यहीं तक खत्म हो जाती है. जैसे ही बीट्स शुरू होती है एक नए गीत का सृजन हो जाता है. गीत थीम और मूड के हिसाब से भी उस पुराने गीत के बेहद अलग है. दरअसल ये धुन हम सब के लिए जानी पहचानी यूं भी है कि आम जीवन में भी जब हमें किसी को हैरत में डालना हो या फिर किसी बड़े राज़ से पर्दा हटाना हो, या किसी को कोई सरप्राईस रुपी तोहफा देना हो, तो हम भी इस धुन का इस्तेमाल करते है, हमारी हिंदी फिल्मों में ये पार्श्व संगीत की तरह खूब इस्तेमाल हुआ है, शायद यही वजह है कि इस धुन के बजते ही हम स्वाभाविक रूप से गीत से जुड़ जाते हैं. "ओमकारा" और "नो स्मोकिंग" के बाद विशाल भारद्वाज और गुलज़ार साहब की हिट जोड़ी लौटी है इस गीत के साथ -

आजा आजा दिल निचोड़े,
रात की मटकी फोडें,
कोई गुड लक् निकालें,
आज गुल्लक तो फोडें...


सुखविंदर की ऊर्जा से भरी हुई आवाज़ को सुनकर यूं भी जोश आ जाता है, साथ में जो गायक हैं उनका चयन एक सुखद आश्चर्य है, ये हैं विशाल शेखर जोड़ी के विशाल दादलानी. जब एक संगीतकार किसी दूसरे संगीतकार की आवाज़ का इस्तेमाल अपने गीत के लिए करे तो ये एक अच्छा चिन्ह है.

दिल दिलदारा मेरा तेली का तेल,
कौडी कौडी पैसा पैसा पैसे का खेल....
धन ताना ताना न न.....


गुलज़ार साहब अपने शब्द चयन से आपको कभी निराश नहीं करते, बातों ही बातों में कई बड़े राज़ भी खोल जाते हैं वो जिन्दगी के. गौर फरमाएं -

आजा कि वन वे है ये जिन्दगी की गली
एक ही चांस है....
आगे हवा ही हवा है अगर सांस है तो ये रोमांस है....
यही कहते हैं यही सुनते हैं....
जो भी जाता है जाता है, वो फिर से आता नहीं....

आजा आजा....

संगीत संयोजन विशाल का अद्भुत है जो पूरे गाने में आपको चूकने नहीं देता. बेस गीटार की उठती हुई धुन, और ताल का अनोखा संयोजन गीत को ऐसी गति देता है जो उसके मूड को पूरी तरह जचता है -

कोई चाल ऐसी चलो यार अब कि समुन्दर भी
पुल पे चले,
फिर मैं चलूँ उसपे या तू चले शहर हो अपने पैरों तले...
कई खबरें हैं, कहीं कब्रे हैं,
जो भी सोये हैं कब्रों में उनको जगाना नहीं.....

आजा आजा....


शहर की रात और सपनों की उठान, मस्ती और जीने की तेज़ तड़प, बहुत कम समय में बहुत कुछ पाने की ललक, ये गीत इस सभी जज्बातों को एकदम सटीक अभिव्यक्ति देता है. आर डी बर्मन साहब के बाद यदि कोई संवेदनात्मक तरीके गुलज़ार साहब की काव्यात्मक लेखनी को परवाज़ दे सकता है तो वो सिर्फ और सिर्फ विशाल भारद्वाज ही हैं. ख़ुशी की बात ये है कि फिल्म "कमीने" के संगीत ने इस जोड़ी की सफलता में एक पृष्ठ और जोड़ दिया है, अन्य गीतों का जिक्र आगे, अभी सुनते हैं फिल्म "कमीने" से ये दमदार गीत.



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. विशाल के संगीत निर्देशन में एक सूफी गीत दिलेर मेहंदी ने गाया है, गुलज़ार साहब का लिखा. क्या याद है आपको वो गीत ? और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Tuesday, July 14, 2009

वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी....और फिर याद आई संगीतकार मदन मोहन की



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 141

दन मोहन के संगीत की सुरीली धाराओं के साथ बहते बहते आज हम आ पहुँचे हैं 'मदन मोहन विशेष' की अंतिम कड़ी पर। आज है १४ जुलाई, आज ही के दिन सन् १९७५ में मदन साहब इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ गये थे। विविध भारती के वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा के शब्दों में - "मदन मोहन के धुनों की मोहिनी में कभी प्रेम का समर्पण है तो कभी मादकता से भरी हैं, कभी विरह की वेदना है और कभी स्वर लहरी से भर देती हैं दिल को, जिसका मध्यम मध्यम नशा है। मदन मोहन के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों में साज़ों की अनर्थक ऐसी भीड़ भी नहीं है जिससे गाने की आत्मा ही खो जाये। उनके धुनों की स्वरधारा पर्वत से उतरती है और सुर सरिता में विलीन हो जाती है। धाराओं में धारा समाने लगते हैं, और ऐसी ही एक धारा में नहाकर आत्मा तृप्त हो जाती हैं। व्यक्तिगत अनुभव के स्तर पर हर श्रोता को कोई संगीतकार, गीतकार या गायक दूसरों से ज़्यादा पसंद आते हैं जिनकी कोई मौलिकता उन्हे प्रभावित कर जाती हैं। मदन मोहन के संगीत में भी मौलिकता है। फ़िल्म संगीत एक कला होने के साथ साथ एक व्यावसाय भी है जिसमें कई बार कलाकारों को समझौता करना पड़ता है। मदन मोहन जैसे संगीतकार को भी कहीं कहीं समझौता करना पड़ा है, लेकिन कल्पनाशील संगीतकार वो है जो कोई ना कोई रास्ता निकाल लेता है और हर बार अपना छाप छोड़ जाता है। मदन मोहन उनमें से एक हैं।" आज इस विशेष प्रस्तुति के अंतिम अध्याय में हमें याद आ रही है वो भूली दास्ताँ जिसे दशकों पहले लता मंगेशकर ने बयाँ किया था राजेन्द्र कृष्ण के शब्दों में, १९६१ की फ़िल्म 'संजोग' के प्रस्तुत गीत में। दर्द का ऐसा असरदार फ़ल्सफ़ा हर रोज़ बयाँ नहीं होता। और यही वजह है कि यह गीत मदन मोहन के 'मास्टर-पीस' गीतों में गिना जाता है।

प्रमोद चक्रवर्ती निर्देशित 'संजोग' के मुख्य कलाकार थे प्रदीप कुमार और अनीता गुहा। दोस्तों, आप को याद होगा कि 'मदन मोहन विशेष' का पहला गीत "बैरन नींद न आये" (चाचा ज़िंदाबाद) भी अभिनेत्री अनीता गुहा पर ही फ़िल्माया गया था। सही में यह संजोग की ही बात है कि इस शृंखला का अंतिम गीत फिर एक बार अनीता गुहा पर फ़िल्माया हुआ है। इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद सुरीले भी हैं और लोकप्रिय भी, लेकिन प्रस्तुत गीत में कुछ ऐसी बात है कि जो इसे दूसरे गीतों के मुकाबिल दो क़दम आगे को रखती है। यह मदन मोहन और लता जी के हौंटिंग मेलडीज़ का एक बेमिसाल नग़मा है जो दिल को उदास भी कर देता है और साथ ही इसका सुरीलापन मन को एक अजीब शांति भी प्रदान करता है। और्केस्ट्रेशन की तो क्या बात है, शुरुवाती संगीत अद्‍भुत है, पहले इंटर्ल्युड में सैक्सोफ़ोन पुर-असर है, कुल मिलाकर पूरा का पूरा गीत एक मास्टरपीस है। "बड़े रंगीन ज़माने थे, तराने ही तराने थे, मगर अब पूछता है दिल वो दिन थे या फ़साने थे, फ़कत एक याद है बाक़ी, बस एक फ़रियाद है बाक़ी, वो ख़ुशियाँ लुट गयीं लेकिन दिल-ए-बरबाद है बाक़ी"। सच दोस्तों, कहाँ गये वो सुरीले दिन, फ़िल्म संगीत का वह सुनहरा युग! आज मदन मोहन हमारे बीच नहीं हैं, जुलाई का यह भीगा महीना बड़ी शिद्दत से उनकी याद हमें दिलाता है, पर आँखें नम करने का हक़ हमें नहीं है क्यूंकि उन्ही का एक गीत हम से यह कहता है कि "मेरे लिए न अश्क़ बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या"। हिंद युग्म की तरफ़ से मदन मोहन की संगीत साधना को प्रणाम!



पिछले वर्ष हमने मदन मोहन साहब को याद किया था संजय पटेल जी के इस अनूठे आलेख के माध्यम से. आज फिर एक बार जरूर पढें और सुनें ये भी.
नैना बरसे रिमझिम रिमझिम.....इस गीत से जुडा है एक मार्मिक संस्मरण


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. माउथ ओरगन की धुन इस गीत की खासियत है.
2. राहुल देव बर्मन ने बजायी थी वह धुन इस गीत में.
3. मस्ती से भरे इस गीत के एक अंतरे में "काज़ी" का जिक्र है.

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी, मात्र ४ अंक पीछे हैं अब आप अपनी मंजिल से, बहुत बहुत बधाई....पता नहीं हमारी स्वप्न मंजूषा जी कहाँ गायब हैं, पराग जी भी यही सवाल कर रहे हैं. जी पराग जी आपने सही कहा ये गीत रेडियो पर बहुत सुना गया है पर हमें तो यही लगता है कि यह गीत उस श्रेणी का है जिसे जितनी भी बार सुना जाए मन नहीं भरता.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कोई जुगनू न आया......"सुरेश" की दिल्लगी और महफ़िल-ए-ताजगी



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२९

लीजिए देखते-देखते हम अपनी महफ़िल को उस मुकाम तक ले आएँ, जहाँ पहला पड़ाव खत्म होता है और दूसरे पड़ाव की तैयारी जोर-शोर से शुरू की जाती है। आज महफ़िल-ए-गज़ल की २९वीं कड़ी है और २५वीं कड़ी में सवालों का जो दौर हमने शुरू किया था, उस दौर उस मुहिम का आज अंत होने वाला है। अब तक बीती चार कड़ियों में हमने बहुत कुछ पाया हीं है और खुशी की बात यह है कि हमने कुछ भी नहीं खोया। बहुत सारे नए हमसफ़र मिले जो आज तक बस "ओल्ड इज गोल्ड" के सुहाने सफ़र तक हीं अपने आप को सीमित रखे हुए थे। हमने हर बार हीं यह प्रयास किया कि सवाल ऐसे पूछे जाएँ जो थोड़े रोचक हों तो थोड़े मुश्किल भी, जिनके जवाब अगर आसानी से मिल जाएँ तो भी पढने वाले को पिछली कड़ियों का एक चक्कर तो ज़रूर लगाना पड़े। शायद हम अपने इस प्रयास में सफ़ल हुए। वैसे अभी तक तो सवालों का बस तीन हीं लोगों ने जवाब दिया है, जिनमें से दो हीं लोगों ने अपनी सक्रियता दिखाई है। अब चूँकि आज इस मुहिम का अंतिम सोपान है, इसलिए यकीनन नहीं कह सकता कि गुजारिश का कितना असर होगा, फिर भी लोगों से यही दरख्वास्त है कि कम से कम आज की कड़ी के प्रश्नों पर माथापच्ची कर लें। वैसे कहते भी हैं कि "अंत भला तो सब भला।" चलिए, आगे बढने से पहले पिछली कड़ी का हिसाब-किताब करते हैं। दिशा जी ने एक बार फिर से सबसे पहले सही जवाब दिया और उनके जवाब के बाद शरद जी भी अपने जवाब के साथ हाजिर हुए। इस तरह दिशा जी को मिले ४ अंक और शरद जी को ३ अंक। इस तरह अंकों का माज़रा कुछ इस तरह बनता है: शरद जी: १३ अंक, दिशा जी: १२ अंक, कुलदीप जी: १ अंक। अंकों का यह अंकगणित अगर इसी तरह चलता रहा तो अगली कड़ी आते-आते शरद जी और दिशा जी १६ अंकों के साथ शीर्ष पर विराजमान हो जाएँगे। शरद जी तभी अकेले विजयी हो सकते हैं, जब आज की कड़ी का जवाब वे दिशा जी से पहले दे दें। देखते हैं क्या होता है! हम आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब आज के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है,मतलब कि उससे जुड़ी बातें किस अंक में की गई थी। इस तरह, पाँचों कड़ियों को मिलाकर जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) एक ऐसे सूफ़ी संत जिनके गुरू यूँ तो पेशे से माली थे, लेकिन उन्होंने "दस्तूर-उल-अमल", "इस्लाह-उल-अमल", "लताइफ़-इ-ग़ैब्या", "इशरतुल तालिबिन" जैसी पुस्तकों की रचना की थी। इस महान संत के पूर्वज बरसों पहले "सुरख-बुखारा" से "मुल्तान" आए थे।
२) संगीत की एक विधा, जिसकी शुरूआत "ली स्क्रैच पेरी" और "किंग टैबी" जैसे संगीत के निर्माताओं ने की थी और "अगस्तस पाब्लो" और "माइकी ड्रेड" जैसे महानुभावों ने इसका प्रचार-प्रसार किया था। २००७ में इसी संगीत की रूमानियत से सनी "कव्वालियों" की एक एलबम रीलिज हुई थी।


हिंदी संगीत उद्योग ने यूँ तो कई सारे फ़नकारों को ज़र्रे से उठाकर अर्श तक पहुँचाया है, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि अच्छे खासे गुणी लोग उतना रूतबा,उतना सम्मान न पा सके, जिनके वे हक़दार थे। ऐसे हीं फ़नकारों में से एक हैं स्वर-कोकिला लता मंगेशकर के बेहद अज़ीज़ श्री "सुरेश वाडेकर" साहब। न जाने कितनी हीं कालजयी रचनाओं को इन्होंने स्वर-बद्ध किया है। इनकी वाणी में इतनी मिठास है कि सुनने वाला एक बार इनकी तरफ़ कान करे तो तब तक नहीं हिलता जब तक इनके कंठों से आ रही ध्वनि विश्राम करने के लिए कहीं ठहर न जाए। हमने पिछली दो कड़ियों में मुजफ़्फ़र अली की फिल्म "गमन" की बातें की थी, जिसके गीतों को संगीत से सजाया था जयदेव ने। "सुरेश वाडेकर" की संगीत यात्रा की शुरूआत एक तरह से "गमन" से हीं हुई थी। १९७६ में आयोजित "सुर श्रृंगार" प्रतियोगिता, जिसके कई सारे निर्णयकर्त्ताओं में जयदेव भी एक थे को जितने के बाद इन्हें जयदेव की तरफ़ से गायकी का निमंत्रण मिला। "सीने में जलन" अगर इनका पहला गीत न भी हुआ तो भी शुरूआती दिनों के सदाबहार गाने में इसे ज़रूर हीं गिना जा सकता है। लता दीदी इनकी आवाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल","खय्याम","कल्याण जी-आनंद जी" जैसे संगीतकारों से इनकी सिफ़ारिश कर डाली। अब अगर आवाज़ में दम हो और सिफ़ारिश लता दीदी की हो तो किस संगीतकार में इतना माद्दा है कि प्रतिभा को उभरने से रोक सके। सो, इनकी गाड़ी चल निकली। वैसे प्रसिद्धि का सही स्वाद इन्होंने तब चखा जब राज कपूर की फिल्म "प्रेम रोग" में "संतोष आनंद","नरेंद्र शर्मा" और "अमिर क़ज़लबश" जैसे धुरंधरों के लिखे और "एल-पी" के संगीत से सजे गानों को गाने का इन्हें अवसर मिला। उस पर से किस्मत ये कि दोगानों में इनका साथ दिया स्वयं लता मंगेशकर ने। "प्रेम रोग" के अलावा "क्रोधी", "हम पाँच", "प्यासा सावन","मासूम", "सदमा", "बेमिसाल", "राम तेरी गंगा मैली", "ओंकारा" जैसी फिल्मों में भी इन्होंने सदाबहार गाने गाए हैं। इनकी मखमली आवाज़ का हीं जादू है कि २००७ में महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें "महाराष्ट्र प्राईड अवार्ड" से सम्मानित किया है।

यूँ तो फ़नकार के लिए यही खुशी की बात होती है कि उनके फ़न को दुनिया मे पहचान मिले,लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इस फ़न को लोगों में बाँटना चाहते हैं, ताकि आने वाले दिनों में उन जैसे कई और महारथी मैदान में उतर सकें। "सुरेश वाडेकर" साहब भी कुछ ऐसा हीं कर रहे हैं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सुधिजनों तक पहुँचाने के लिए "संगीत प्रशिक्षण संस्थान" की स्थापना की है। इस बारे में अपना अनुभव बाँटते हुए वे कहते हैं:- "मेरे पास अपना क्या है? हमने पूज्य गुरु से जो सीखा है, उसे आने वाली पीढ़ी को और बच्चों को दे रहा हूँ। आखिर उसे छाती पर बाँधकर कहाँ ले जाएँगे। विद्या को जितना बाँटेंगे, मस्तिष्क उतना ही जागृत और परिष्कृत होगा। गाना सिखाने से आपका अपना रियाज तो होगा ही, आपकी सूझबूझ और खयाल विस्तृत होगा। जो आदमी खुद की आत्मसात विद्या को छाती पर बाँधकर ले जाता है, वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वार्थी व कंजूस व्यक्ति है। विद्या बाँटने से बढ़ती है, न घटती है और न ही कम होती है।" "वाडेकर" साहब में नाम-मात्र का भी दंभ नहीं है। यह बात उनके इन वक्तव्यों से ज़ाहिर होती है: "मैं बहुत भाग्यशाली रहा कि जब-जब भी अच्छे और कुछ अलग किस्म के गाने बने तो मुझे बुलाया गया। हमारा बड़ा भाग्य रहा कि पूरी इंडस्ट्री में जब अनेक नामचीन और स्थापित गायक कार्यरत थे तो रवीन्द्र जैनजी ने मुझे अवसर दिया। यह मामूली बात नहीं है कि जब फिल्म इंडस्ट्री में पैर रखना मुश्किल होता था तो मुझ जैसे नए कलाकार के हिस्से में इतनी मुश्किल तर्जे आई और गाने को मिली। आज उन्हीं सब बुजुर्गों, गुरुजनों और सुनने वालों के आशीर्वाद से मैं ३३ साल से गाने की कोशिश कर रहा हूँ।" इन महानुभाव के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन बाकी फिर कभी। अब आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की गज़ल हमने ली है "आप की दिल्लगी" नामक एलबम से। वैसे हमारी यह बदकिस्मती है कि लाख कोशिशों के बावजूद आज की गज़ल के गज़लगो और संगीतकार के बारे में हम जानकारी हासिल नहीं कर पाए। सुकून इस बात का है कि इसी एलबम की एक और गज़ल "क्या ये भी ज़िंदगी" है के बारे में कुछ मालूमात हासिल हुए हैं। जैसे कि उस गज़ल की रचना की है स्वर्गीय "कृष्णमोहन जी" ने और संगीत से सजाया है "मधुरेश पाइ" ने। हो सकता है कि आज की गज़ल के रचनाकार भी यही दोनो हो। "मधुरेश पाइ" "सुरेश वाडेकर" जी के शिष्य हैं और उन्हीं के "संगीत विद्यालय" से प्रशिक्षित हुए हैं। ये ज्यादातर मराठी गीतों, गज़लों और भक्ति-संगीत पर काम करते हैं। वैसे इनकी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण है स्वर-कोकिला लता मंगेशकर के साथ इनका तैयार किया हुआ एलबम "सादगी"। कभी समय मिले तो इस एलबम की गज़लों को ज़रूर सुनिएगा। आखिर कुछ तो बात है इस इंसान में और इसके संगीत में कि लता दीदी १७ सालों बाद किसी एलबम पर काम करने को राजी हो गईं। कभी "सादगी" और इससे १७ साल पहले रीलिज हुए "सज़दा" के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे, अभी इन दो मिसरों पर गौर फरमाईयेगा। बड़े दिनों बाद कुछ लिखा है मैने:

खुदा मेरी खुदी का जो तलबगार हो गया,
बिना कहे कोई मेरा मददगार हो गया।


यकीनन बड़ी देर हो गई। वक्त को अब ज्यादा थामे रहना मुनासिब न होगा। तो लीजिए पेश है आज की गज़ल:

कोई जुगनू न आया खेलता-हँसता अंधेरे में,
मैं कितनी देर तक बैठा रहा तन्हा अंधेरे में।

तुम्हारे साथ क्यों सुलगी तुम्हारे घर की दीवारें,
बुझा दो रोशनी कि सोचते रहना अंधेरे में।

अगर अंदर की थोड़ी रोशनी बाहर न आ जाती,
मैं अपने आप से टकरा गया होता अंधेरे में।

अगर खुद जल गया होता तो शायद सुबह हो जाती,
मैं सूरज की दुआ क्यों माँगने बैठा अंधेरे में।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में ____ नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया...

आपके विकल्प हैं -
a) दहशत, b) वहशत, c) बरकत, d) गुरबत

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"मिजाज़" और सबसे पहले इसे पहचाना अदा जी ने, सही शेर कुछ यूं था -

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज़ का शहर है, ज़रा फासले से मिला कीजिये...

जी हाँ, बशीर साहब का लिखा हुआ शेर है ये, बशीर बद्र साहब के कुछ और शेर याद दिलाये कुलदीप अंजुम साहब ने -

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलने में

फाख्ता की मजबूरी कि ये भी तो कह नहीं सकती
कि कौन सांप रखता है उसके आशियाने में

वाह साहब....अंजुम साहब ने मिजाज़ शब्द पर भी कुछ शेर सुनाये -

वो ही मिजाज़ वो ही चाल है ज़माने की ,
हमें भी हो गयी आदत फरेब खाने की !

विजेता अदा जी के शेर का भी जिक्र करें -

मिज़ाज-ए-गरामी,दुआ है आपकी
बड़ी ख़ूबसूरत अदा है आपकी...

क्या बात है अदा जी...दिशा जी ने कुछ यूं फ़रमाया अपना मिजाज़ -

सुना है मौसम ने अपना मिज़ाज बदला है
तभी तो कहीं पे बाढ़ और कहीं पे सूखा है...

आज के हालत पर सही कटाक्ष...मंजू गुप्ता जी लगता है जहाँ रहती है वहां मानसून आ चुका है तभी तो कह रही हैं -

मौसम का मिजाज़ आशिकाना है .
मेघा सन्देश पिया को दे आना...

शरद जी ने अपने मित्र की एक ग़ज़ल पेश की. कुछ उसकी झलक पेश है -

शहरे-वफ़ा का आज ये कैसा रिवाज है
मतलबपरस्त अपनों का ख़ालिस मिजा़ज है ।
फुटपाथ पर ग़रीबी ये कहती है चीख कर
क्यूँ भूख और प्यास का मुझ पर ही राज है ।
जलती रहेंगीं बेटियाँ यूँ ही दहेज पर
क़ानून में सुबूत का जब तक रिवाज है ।
शायद इसी का नाम तरक्की है दोस्तो,
नंगी सड़क पे हर बहू-बेटी की लाज है ।

गज़लकार चाँद "शेरी" को हमारा भी सलाम कहियेगा....शमिख फ़राज़, अम्बरीश श्रीवास्तव, और राज भाटिया जी, हमारी भी यही दुआ है कि आप इस महफिल में आयें तो कभी वापस न जायें. अर्श जी आप तो खुद भी अच्छे गुलुकार हैं और बिना कुछ कहे सुने चले गए, बुरी बात....चलिए अब दीजिये इजाज़त अगली महफिल तक. खुदा हाफिज़.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Monday, July 13, 2009

मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो.....स्वर्गीय मदन साहब के गीत बोले रफी के स्वरों में ढल कर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 140

न् १९२४ में इराक़ के बग़दाद में जन्मे मदन मोहन कोहली को द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौजी बनकर बंदूक थामनी पड़ी थी। लेकिन बंदूक की जगह साज़ों को थामने की उनकी बेचैनी उन्हे संगीत के क्षेत्र में आख़िरकार ले ही आयी। १९४६ में आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में वो कार्यरत हुए और वहीं वो सम्पर्क में आये उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और बेग़म अख्तर जैसे नामी फ़नकारों के। १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' में उन्होने बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली बार संगीत दिया। फ़िल्म 'मदहोशी' के एक गीत में उन्होने पहली बार लता मंगेशकर और तलत महमूद को एक साथ ले आये थे। १९८० में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आयी थी 'चालबाज़'. १९५० से १९८० के इन ३० सालों में उन्होने एक से बढ़कर एक धुन बनायी और सुननेवालों को मंत्रमुग्ध किया। उनका हर गीत जैसे हम से यही कहता कि "मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो"। फ़िल्म 'नौनिहाल' के इस गीत की तरह कई अन्य गानें उनके ऐसे हैं जिनको समझने के लिए अहसास की ज़बान ही काफ़ी है। मदन मोहन के संगीत में समुन्दर सी गहराई है, रात की तन्हाई है, उनके दर्द भरे गानें भी अत्यन्त मीठे लगते हैं। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में आज सुनिये फ़िल्म 'नौनिहाल' का प्यार का राग सुनाता यही गीत। गीतकार हैं कैफ़ी आज़मी।

फ़िल्म 'नौनिहाल' बनी थी सन् १९६७ में। बलराज साहनी, संजीव कुमार और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ज़्यादा नहीं चली, लेकिन मदन मोहन का संगीत ज़रूर चला। यूं तो लता मंगेशकर, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर, कमल बारोट और कृष्णा कल्ले ने इस फ़िल्म के कई गीत गाये, लेकिन रफ़ी साहब के गाये दोनों के दोनों एकल गीतों ने बाज़ी मार ली। आज इस फ़िल्म को याद किया जाता है रफ़ी साहब के गाये हुए इन दो गीतों की वजह से। एक तो है आज का प्रस्तुत गीत और दूसरा गीत है "तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शाम कर लूँगा, सफ़र एक उम्र का पल में तमाम कर लूँगा"। इस गीत को कैफ़ी आज़मी ने नहीं बल्कि राजा मेहंदी अली ख़ान ने लिखा था। बहरहाल वापस आते हैं आज के गीत पर। "मेरी आवाज़ सुनो" की अवधि है ६ मिनट ४३ सेकन्ड्स। उस समय की औसत अवधि से जो काफ़ी लम्बी है। संगीत वही है जिसकी संगती दिल को मोह ले। संगीत जो सिर्फ़ कानों में ही नहीं बल्कि दिल में भी रस घोल दे। मदन मोहन की धुनों का सुरूर भी कुछ ऐसा ही है। तो लीजिये पेश है मदन साहब की एक और बेमिसाल रचना। चलने से पहले आप को यह भी बता दें कि कल है १४ जुलाई, यानी कि मदन मोहन साहब का स्मृति दिवस और इस 'मदन मोहन विशेष' की अंतिम कड़ी। तो आज की तरह कल भी 'आवाज़' के इस स्तंभ पर पधारियेगा ज़रूर!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. मदन साहब के मास्टरपीस गीतों में से एक.
2. अभिनेत्री अनीता गुहा पर फिल्माया गया है ये गीत.
3. मुखड़े की आखिरी पंक्ति में शब्द है - "घटा".

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी को बधाई, ४४ अंक हो गए हैं आपके. पराग जी वाकई आपका दिल बड़ा है....मान गए. शमिख फ़राज़ और मनु जी आपका भी आभार. निर्मला जी आपकी पसंद का गीत पहले ही ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है, लीजिये आप भी सुनिए यहाँ.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"कल नौ बजे तुम चाँद देखना..."- चाँद है आज भी प्रेम गीतों के लिए गीतकारों की प्रेरणा



ताजा सुर ताल (8)

९० के दशक के शुरुआत में एक बेहद कामियाब फिल्म आई थी "क़यामत से क़यामत तक" जिसने युवाओं को अपना दीवाना बना दिया था. इस फिल्म में नायक जब पहली बार नायिका से जुदा होता है तो कहता है कि जब भी शाम ढले तो तुम डूबते सूरज को देखना मैं भी देखूंगा और इस तरह हम एक दूजे को याद करेंगें. इस खूबसूरत से ख्याल ने बहुत से युवा प्रेमी-प्रेमिकाओं के दिल को धड्काया था उस दौर में. करीब २० साल बाद जावेद अख्तर साहब उसी संवाद में छुपे ख्याल को एक गीत रूप में लेकर हाज़िर हुए हैं आज के "ताजा सुर ताल" गीत में. आवाजें हैं गायक सोनू निगम और और गायिका अलका याग्निक की. दोनों ही फनकार प्रेम गीतों को निभाने में महारत रखते हैं, तो जाहिर है इन दो मधुर आवाजों में ढलने से गीत की शोभा और बढ़ी ही है. संगीतकार तिकडी है शंकर एहसान लॉय की.

शंकर एहसान और लॉय जब सामूहिक रूप से संगीतकार टीम बन कर नहीं आये थे और तब जब शंकर महादेवन बतौर गायक अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहे थे, तभी से जावेद अख्तर का साथ उन्हें मिला, शंकर की एल्बम "ब्रेथलेस" के लिए जावेद साहब ने ही गीत लिखे, जहाँ शंकर ने एक ही सांस में पूरा गीत गाकर धूम मचा दी थी, ये हिट गीत था "कोई जो मिला तो...". इस गीत का विडियो भी जावेद साहब के साहबजादे फरहान अख्तर ने बड़े ही रचनात्मक अंदाज़ का बनाया था. बाद में फरहान जब निर्देशक बने तो उन्होंने शंकर एहसान लॉय और जावेद साहब की चौकडी को ही इस्तेमाल किया अपनी फिल्मों के लिए. इस हिट टीम (शंकर एहसान लोय और जावेद अख्तर)ने "कल हो न हो", "अरमान", "मिशन कश्मीर", "रॉक ओन्" और "लक्ष्य" जैसी फिल्मों में शानदार गीत संगीत की रचना की है. पर इधर कुछ दिनों से ("लक बाई चांस" के बाद) शंकर एहसान लॉय ने कुछ ख़ास तीर नहीं छोडे हैं अपनी संगीत कमान से. प्रस्तुत गीत भी जिस फिल्म का (शोर्ट कट) है उसमें भी इस नामी टीम ने कोई चमत्कारिक संगीत से श्रोताओं को हैरान नहीं किया है पर हाँ ये गीत अपनी मधुरता और सरल शब्दों के चलते कुछ हद तक अपनी छाप छोड़ने में कामियाब रहा है.

कल नौ बजे तुम चाँद देखना,
मैं भी देखूंगा,
और यूं दोनों की निगाहें,
चाँद पर मिल जायेंगीं...

कल नौ बजे तुम चाँद देखना,
मैं भी देखूंगी,
और यूं दोनों की निगाहें,
चाँद पर मिल जायेंगीं...

कौन कह सकता है कल मैं हूँ कहाँ,
और तुम हो कहाँ..
चाँद लेकिन युहीं निकलेगा,
यहाँ और वहां...
चाँद इस चेहरे को आइना दिखा ही देगा...
चाहती हूँ मैं तुम्हें चाँद गवाही देगा...
कल नौ बजे....

तुम मेरे साथ हो तो,
राहें सभी रोशन है,
तुम न होगे तो अँधेरा यहाँ छा जायेगा...
तुम न घबराना कि फिर चाँद यहाँ निकल आएगा,

कल नौ बजे...




आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को ३ की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. फिल्म "अरमान" में एक दर्द भरा गीत था इसी टीम का रचा जिसमें जिंदगी से कुछ सवाल पूछे गए थे. क्या याद है आपको वो गीत ? और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, July 12, 2009

वो देखो जला घर किसी का....लता- मदन मोहन टीम का एक बेहतरीन गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 139

'मदन मोहन विशेष' की पाँचवीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। मदन मोहन ने गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ान के लिखे अनेक गीतों को संगीतबद्ध किया था। फ़िल्म 'अनपढ़' के एक गीत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसकी धुन मदन मोहन ने अपने घर से 'रिकॉर्डिंग स्टुडियो' जाते वक़्त टैक्सी में बैठे बैठे केवल १० मिनट में बना लिया था। वह मन को छू लेनेवाली अमर रचना लता मंगेशकर की आवाज़ में थी "आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे"। इसी फ़िल्म में लता जी का गाया "जिया ले गयो जी मोरा साँवरिया" और "है इसी में प्यार की आबरू" गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे। इनकी तुलना में लता जी का ही गाया एक ऐसा गीत भी था जो थोड़ा सा कम सुना गया, या फिर यूं कहिए कि जिसकी चर्चा कम हुई। वह गीत है "वह देखो जला घर किसी का, ये टूटे हैं किसके सितारे, वो क़िस्मत हँसीं और ऐसी हँसीं के रोने लगे ग़म के मारे"। अक्सर ऐसा देखा गया है फ़िल्मों में कि फ़िल्म के चंद मशहूर गीतों की चमक धमक से कुछ दूसरे गीत इस क़दर खो जाते हैं कि उनकी उत्कृष्टता लोगों तक सही अर्थों में पहुँच नहीं पाती। 'अनपढ़' फ़िल्म का प्रस्तुत गीत भी ऐसा ही एक गीत है।

फ़िल्म 'अनपढ़' आयी थी सन् १९६२ में। राजेन्द्र भाटिया निर्मित और मोहन कुमार निर्देशित इस फ़िल्म क्र मुख्य पात्रों में थे माला सिंहा, बलराज साहनी और धर्मेन्द्र। प्रस्तुत गीत संगीत संयोजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। बहुत सारे साज़ों के सम्मीश्रण से और्केस्ट्रेशन तैयार किया गया था। ४.५० मिनट के इस गीत का प्रील्युड संगीत ही करीब ५० सेकन्ड्स का है। इंटर्ल्युड संगीत में भारी भरकम और्केस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है। लेकिन मुखड़े और अंतरों के संगेत संयोजन को बहुत ही सीधा सरल रखा गया है। गीत के बोलों के साथ इंटर्ल्युड संगीत का जो कॊन्ट्रस्ट है, वह कुल मिलाकर इस गीत को और भी ज़्यादा मज़बूत बनाती है। राजा मेहंदी अली ख़ान के लिखे प्रस्तुत गीत में टूटे क़िस्मत के टूकड़ों का ज़िक्र है। "गया जैसे झोंका हवा का हमारी ख़ुशी का ज़माना, दिये हमको क़िस्मत ने आँसू जब आया हमें मुकुराना"। एक अन्य अंतरे में ख़ान साहब लिखते हैं कि "इधर रो रही हैं ये आँखें, उधर आसमाँ रो रहा है, मुझे करके बरबाद ज़ालिम, पशेमान अब हो रहा है, ये बरखा कभी तो रुक जायेगी, रूकेगी ना आँसू हमारे"; बरसात की धाराओं के साथ आँखों से बहती धारा की तुलना बेहद ख़ूबसूरत बन पड़ी है इस बात से कि बरसात तो रुक भी जायेगी लेकिन वो बरसात कैसे रुके जो आँखों से बरस रही है! सुनते हैं लता मंगेशकर और मदन मोहन के जोड़ी का एक और नायाब गीत 'मदन मोहन विशेष' के अंतर्गत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. मदन मोहन के संगीत को ही सलाम करता है ये गीत.
2. जवाहर लाल नेहरु की स्मृति में लिखा और गाया गया है ये गीत.
3. आपके इस प्रिय जालस्थल का नाम है इस गीत के मुखड़े में.

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी एक बार फिर माफ़ी, फिर एक बार वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था....पहेली के सूत्रों के मुताबिक वो गीत भी सही है जो आपने बताया, पर हमने जो चुना वो गीत तो अब आप जान ही चुके हैं....अन्तः सबसे निवेदन है कि इस स्तिथि में कल की पहेली को निरस्त माना जाए.....सभी का धन्येवाद...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (९)



जून २५, २००९ को संगीत दुनिया का एक आफताबी सितारा हमेशा के लिए रुखसत हो गया. माइकल जोसफ जैक्सन जिन्हें लोग प्यार से "जैको" भी कहते थे, आधुनिक संगीत के एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्तम्भ थे, जिन्हें "किंग ऑफ़ पॉप" की उपाधि से भी नवाजा गया. एक संगीतमय परिवार में जन्में जैक्सन ने १९६८ में अपने पूरे परिवार के सम्मिलित प्रयासों से बने एल्बम "जैक्सन ५" से अपना सफ़र शुरू किया. १९८२ में आई उनकी एल्बम "थ्रिलर" विश्व भर में सबसे अधिक बिकने वाली एल्बम का रिकॉर्ड रखती है. "बेड", "डेंजरस" और "हिस्ट्री" जैसी अल्बम्स और उनके हिट गीतों पर उनके अद्भुत और अनूठे नृत्य संयोजन, उच्चतम श्रेणी के संगीत विडियो, संगीत के माध्यम से सामाजिक सरोकारों की तरफ दुनिया का ध्यान खीचना, अपने लाइव कार्यक्रमों के माध्यम से अनूठे प्रयोग कर दर्शकों का अधिकतम मनोरंजन करना आदि जैको की कुछ ऐसी उपलब्धियां हैं, जिन्हें छू पाना अब शायद किसी और के बस की बात न हो. जैको का प्रभाव पूरे विश्व संगीत पर पड़ा तो जाहिर है एशियाई देशों में भी उनका असर देखा गया. उनके नृत्य की नक़ल ढेरों कलाकारों ने की, हिंदी फिल्मों में तो नृत्य संयोजन का नक्शा ही बदल गया. सरोज खान और प्रभु देवा जैसे नृत्य निर्देशकों ने अपने फन पर उनके असर के होने की बात कबूली है. पॉप संगीत की ऐसी आंधी चली कि ढेरों नए कलाकारों ने हिंदी पॉप के इस नए जेनर में कदम रखा और कमियाबी भी पायी. अलीशा चुनोय, सुनीता राव, आदि तो चले ही, सरहद पार पाकिस्तान से आई आवाजों ने भी अपना जादू खूब चलाया भारतीय श्रोताओं पर. नाजिया हसन का जिक्र हमें पिछले एक एपिसोड में किया था. आज बात करते हैं है एक और ऐसी ही आवाज़ जो सरहद पार से आई एक "हवा" के झोंके की तरह और सालों तक दोनों मुल्कों के संगीत प्रेमियों पर अपना जादू चला कर फिर किसी खला में में ऐसे खो गयी कि फिर किसी को उनकी कोई खबर न मिल सकी.

"हवा हवा ऐ हवा, खुशबू लुटा दे..." गीत कुछ यूं आया कि उसकी भीनी खुशबू में सब जैसे बह चले. हसन जहाँगीर घर घर में पहचाने जाने लगे. बच्चे बूढे और जवान सब उनके संगीत के दीवाने से होने लगे. पाकिस्तान विभाजन के बाद बंगलादेश से पाकिस्तान आ बसे हसन जहाँगीर ने पाकिस्तान की विश्व विजेता टीम के कप्तान इमरान खान के लिए गीत लिखा "इमरान खान सुपरमैन है" और चर्चा में आये. उनकी एल्बम "हवा हवा" की कई लाखों में प्रतियाँ बिकी. चलिए इस रविवार हम सब भी MJ को श्रद्धाजंली देते हैं हसन जहाँगीर के इसी सुपर डुपर हिट एल्बम को सुनकर क्योंकि ८० के दशक में इस और ऐसी अन्य अल्बम्स की आपार लोकप्रियता का काफी श्रेय विश्व संगीत पर माइकल का प्रभाव भी था. दक्षिण एशिया के इस पहले पॉप सनसनी रहे हसन जहाँगीर ने हवा हवा के बाद भी कुछ अल्बम्स की पर हवा हवा की कामियाबी को फिर दोहरा न सके. हिंदी फिल्मों के लिए भी हसन ने कुछ गीत गाये जिसमें से अनु मालिक के लिया गाया "अपुन का तो दिल है आवारा" लोकप्रिय हुआ था, पर इसके बाद अचानक हसन कहीं पार्श्व में खो गए. धीरे धीरे लोग भी भूलने लगे. हालाँकि हसन ने कभी भी अपने इस मशहूर गीत के अधिकार किसी को नहीं बेचे पर इस गीत के बहुत से फूहड़ संस्करण कई रूपों में बाज़ार में आता रहा, पर उस दौर के संगीत प्रेमी मेरा दावा है आज तक उस जूनून के असर को नहीं भूल पाए होंगें जो उन दिनों हसन की गायिकी ने हर किसी के दिल में पैदा कर दिया था.

बरसों तक हसन क्यों खामोश रहे, ये तो हम नहीं जानते पर आज एक बार फिर वो चर्चा में हैं, अभिनेत्री से निर्देशक बनी रेवती ने अब पहली बार उनके उसी हिट गीत को अधिकारिक रूप से अपनी नयी फिल्म "आप के लिए हम" में इस्तेमाल करने की योजना बनायीं है. इसके लिए उन्होंने बाकायदा हसन की इजाज़त ली है और ये भी संभव हो सकता है कि खुद हसन जहाँगीर इस गीत पर अभिनय भी करते हुए दिखें. इसी फिल्म से रवीना टंडन अपनी वापसी कर रही है. बहरहाल हवा हवा गीत के इस नए संस्करण का तो हम इंतज़ार करेंगे, पर फिलहाल इस रविवार सुबह की कॉफी के साथ आनंद लीजिये उस लाजवाब अल्बम के बाकी गीतों का. यकीन मानिये जैसे जैसे आप इन गीतों को सुनते जायेंगें, आपके भी मन में यादों के झरोखे खुलते जायेंगें, आज भी हसन की आवाज़ में वही ताजगी और उनके संगीत में वही सादापन नज़र आता है. यदि आप उस दौर के नहीं हैं तब तो अवश्य ही सुनियेगा, क्योंकि हमें पूरा विश्वास है कि आज भी इन गीतों को सुनकर आपको भी हसन जहाँगीर की उस नशीली आवाज़ से प्यार हो जायेगा. तो पेश है अल्बम "हवा हवा" के ये जोरदार गीत -

आजा न दिल है दीवाना ...


दिल जो तुझपे आया है...


जिंदगी है प्यार....


मेघा जैसे रोये साथी.....(मेरा सबसे पसंदीदा गीत)


ले भी ले दिल तू मेरा ओ जानेमन....


शावा ये नखरा गोरी का...


न जाओ ज़रा मेहंदी लगाओ....


ये फैशन के नए रंग है....


जी जी ओ पारा डिस्को...


किस नाम से पुकारूं...




"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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