Saturday, April 30, 2011

ओल्ड इस गोल्ड -शनिवार विशेष - 'वन्देमातरम' गीत का एक और नवीन प्रयोग



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में मैं, कृष्णमोहन मिश्र आप सभी का हार्दित स्वागत करता हूँ।

मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग एवं उस्ताद अलाउद्दीन खां कला अकादमी के संयुक्त प्रयासों से चन्देल राजाओं की संस्कृति-समृद्ध भूमि, खजुराहो में महत्वाकांक्षी "खजुराहो नृत्य समारोह" प्रतिवर्ष आयोजित होता है| इस वर्ष समारोह की तीसरी संध्या में 'भरतनाट्यम' नृत्य शैली की विदुषी नृत्यांगना डाक्टर ज्योत्सना जगन्नाथन ने अपने नर्तन को 'भारतमाता की अर्चना' से विराम दिया| उन्होंने बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति -'वन्देमातरम ....' का चयन किया| इस गीत में भारतमाता के जिस स्निग्ध स्वरुप का वर्णन कवि ने शब्दों के माध्यम से किया है, विदुषी नृत्यांगना ने उसी स्वरुप को अपनी भंगिमाओं, हस्तकों, पद्संचालन आदि के माध्यम से मंच पर साक्षात् साकार कर दिया|

आमतौर पर शास्त्रीय नर्तक/नृत्यांगना, नृत्य का प्रारम्भ 'मंगलाचरण' से तथा समापन द्रुत या अतिद्रुत लय की किसी नृत्य-संरचना से करते हैं| सुश्री ज्योत्सना ने 'वन्देमातरम' से अपने नर्तन को विराम देकर एक सुखद प्रयोग किया है| दक्षिण भारतीय संगीत संरचना में निबद्ध 'वन्देमातरम' सुन कर इस अलौकिक गीत के कुछ पुराने पृष्ठ अनायास खुल गए|

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस गीत की भूमिका पर अनगिनत पृष्ठ लिखे जा चुके हैं और लिखे जाते रहेंगे| 1896 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर ए.आर. रहमान तक सैकड़ों गायकों ने 'वन्देमातरम' गीत को अपनी-अपनी धुनों और स्वरों में गाया है| इस विषय पर विस्तार से चर्चा फिर किसी विशेष अवसर पर होगी| आज इस गीत के बहुप्रचलित रूप पर कुछ चर्चा कर ली जाए|

15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग- देश में निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था| आजादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय थी| ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान दिया| इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है| (पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकॉर्ड संख्या STC 048 7102 में मौजूद है|)

24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय| डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया| "वन्देमातरम' को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला| आज भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम' से ही होता है| (इसकी रेकॉर्डिंग Government of India website पर उपलब्ध है|)

आज भी कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में 'वन्देमातरम' गीत का पूरा-पूरा गायन किया जाता है| 1952 में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास- "आनन्दमठ" पर इसी नाम से एक फिल्म बनी थी, जिसमें 'वन्देमातरम' गीत भी शामिल था| हेमेन गुप्ता निर्देशित इस फिल्म में हेमन्त कुमार का संगीत है| फिल्म में उस समय के चर्चित कलाकारों- पृथ्वीराज कपूर, भारतभूषण, गीता बाली, प्रदीप कुमार आदि ने अभिनय किया था| फिल्म में हेमंत दा' ने 'वन्देमातरम' को एक 'मार्चिंग सांग' के रूप में संगीतबद्ध किया| गीत के दो संस्करण हैं- पहले संस्करण में लता मंगेशकर की और दूसरे में हेमन्त कुमार की आवाज है| "आनन्दमठ" के अलावा 'लीडर', 'अमर आशा' आदि कुछ अन्य फिल्मों में भी गीत के अंश अथवा इसकी धुन का प्रयोग किया गाया है| कुछ वर्ष पहले संगीतकार ए.आर. रहमान ने महबूब द्वारा किये हिन्दी/उर्दू अनुवाद को गाकर युवा वर्ग में खूब लोकप्रिय हुए थे|

और आइए अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की रवायत को बरकरार रखते हुए सुनें और देखें बंकिमचंद्र के उसी उपन्यास 'आनंदमठ' पर बनी हिंदी फ़िल्म से यह गीत सुनें लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार की आवाज़ो में। फ़िल्म में संगीत हेमन्त दा का ही था। और विडियो भी देखें।

हेमन्त कुमार


लता मंगेशकर


और अब आज के इस प्रस्तुति को विराम देने की दीजिये मुझे इजाज़त, नमस्कार!

सुनो कहानी: अल्ताफ़ फ़ातिमा की "गैर मुल्की लडकी"



अल्ताफ़ फ़ातिमा की कहानी गैर मुल्की लडकी

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में जयशंकर प्रसाद की कहानी 'ममता' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं अल्ताफ़ फ़ातिमा की कहानी "मुल्की लडकी", जिसको स्वर दिया है प्रीति सागर ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 17 मिनट 20 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



अल्ताफ़ फ़ातिमा
जन्म 1929 में लखनऊ में।
माता-पिता: जहाँ मुम्ताज़ और फज़ले मुहम्मद अमीन
वर्तमान निवास: लाहौर पाकिस्तान

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

अब कैसी चुप्पी साधी है बडी बी ने।
(अल्ताफ़ फ़ातिमा की "गैर मुल्की लडकी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
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#127th Story, Gair Mulki Ladki: Altaf Fatima/Hindi Audio Book/2011/9. Voice: Priti Sagar

Friday, April 29, 2011

बेहद प्रयोगधर्मी है शोर इन द सिटी का संगीत



Taaza Sur Taal (TST) - 10/2011 - Shor In The City

'ताज़ा सुर ताल' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! पिछले कई हफ़्तों से 'टी.एस.टी' में हम ऐसी फ़िल्मों की संगीत समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं जो लीक से हटके हैं। आज भी एक ऐसी ही फ़िल्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, जो २०१० में पुसान अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव और दुबई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के लिए मनोनीत हुई थी। इस फ़िल्म के लिये निर्देशक राज निदिमोरु और कृष्णा डी.के को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला न्यु यॉर्क के MIAAC में। वैसे भारत के सिनेमाघरों में यह फ़िल्म २८ अप्रैल को प्रदर्शित हो रही है। शोभा कपूर व एकता कपूर निर्मित इस फ़िल्म का शीर्षक है 'शोर इन द सिटी'।

'शोर इन द सिटी' तुषार कपूर, सेन्धिल रामामूर्ती, निखिल द्विवेदी, पितोबश त्रिपाठी, संदीप किशन, गिरिजा ओक, प्रीति देसाई, राधिका आप्टे और अमित मिस्त्री के अभिनय से सजी है। फ़िल्म का पार्श्वसंगीत तैयार किया है रोशन मचाडो नें। फ़िल्म के गीतों का संगीत सचिन-जिगर और हरप्रीत नें तैयार किया हैं। हरप्रीत के दो गीत उनकी सूफ़ी संकलन 'तेरी जुस्तजू' से लिया गया है। गीतकार के रूप में समीर और प्रिया पांचाल नें काम किया है। आइए अब इस ऐल्बम के गीतों की एक एक कर समीक्षा की जाये!

पहला गीत है श्रेया घोषाल और तोची रैना की आवाज़ों में "साइबो"। गीत के बोल हैं "धीरे धीरे, नैनों को धीरे धीरे, जिया को धीरे धीरे, अपना सा लागे है साइबो"। सचिन-जिगर नें अपने पारी की अच्छी शुरुआत की है। भले ही फ़िल्म का नाम है 'शोर इन द सिटी', लेकिन यह गीत शोर-गुल से कोसों दूर है। श्रेया अपनी नर्म मीठी आवाज़ में गीत शुरु करती है, जिसमें पंजाबी अंदाज़ भी है। उसके बाद तोची उसमें अपना रंग भरते हैं। इस गीत की ख़ास बात है इसमें प्रयोग हुए विभिन्न साज़ों का संगम। भारतीय और पाश्चात्य साज़ों का कैसा ख़ूबसूरत मेल है इस गीत में, इसे सुन कर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। इस सुंदर कर्णप्रिय गीत के रीमिक्स संस्करण की क्या आवश्यक्ता पड़ गयी थी, कभी मौका मिले तो संगीतकार व फ़िल्म के निर्माता से ज़रूर पूछूंगा। फ़िल्म के प्रोमोशन में इसी गीत का इस्तमाल हो रहा है।

'शोर इन द सिटी' का दूसरा गीत है फ़िल्म के शीर्षक को सार्थक करता है। जी हाँ, शोर शराबे से भरपूर सूरज जगन, प्रिया पांचाल (जो इस गीत की गीतकार भी हैं) और स्वाति मुकुंद की आवाज़ों में "साले कर्मा इस अ बिच" गीत को सेन्सर बोर्ड कैसे पास करती है, यह भी सोचने वाली बात है। गीत के बीच बीच में रोबोट शैली की आवाज़ों का प्रयोग है। हो सकता है कुछ नौजवानों को गीत पसंद आये, लेकिन मुझे तो केवल शोर ही सुनाई दिया इस गीत में। गीत में रॉक शैली, दमदार गायकी और सख़्त शब्दों का प्रयोग है जो इस गीत को एक "शहरी" रूप प्रदान करती है।

पिछले हफ़्ते 'मेमोरीज़ इन मार्च' में मोहन की आवाज़ में "पोस्ट बॉक्स" गीत की चर्चा आपको याद होगी। 'शोर इन द सिटी' में भी 'अग्नि' के मोहन कन्नन की आवाज़ में एक गीत है "शोर"। गीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ शुरु होती है तो लगता है कि यह कर्णप्रियता बनी रहेगी, लेकिन तुरंत पाश्चात्य साज़ों की भीड़ उमड पड़ती है और गीत एक रॉक रूप ले लेता है। इंटरल्युड्स में फिर से शास्त्रीय संगीत और आलाप का फ़्युज़न है। इस तरह का संगीत पाक़िस्तानी बैण्ड्स की खासियत मानी जाती है। गीत की अपनी पहचान है, लेकिन ऐसी भी कोई ख़ास बात नहीं जो भीड़ मे अलग सुनाई दे। गीत को थोड़ा और कर्णप्रिय ट्रीटमेण्ट दिया जा सकता था।

अतिथि संगीतकार हरप्रीत सिंह की धुन पर श्रीराम अय्यर की आवाज़ में "दीम दीम ताना" को सुनकर भी एक बैण्ड गीत की ही याद आती है। काफ़ी तेज़ रफ़्तार वाला गीत है ठीक एक शहर की ज़िंदगी की तरह। ये सब गानें फ़िल्म संगीत की प्रचलित फ़ॉरमैट से अलग तो लगते हैं, लेकिन यह प्रयोग, यह एक्स्पेरीमेण्ट कितना सफल होगा, यह तो वक़्त ही बताएगा। वैसे कुछ साल पहले तक भी ज़माना ऐसा हुआ करता था कि कम से कम कुछ गीत हमारी ज़ुबान पर ज़रूर चढ़ते थे, जिन्हें हम जाने अंजाने गुनगुनाया करते थे। लेकिन आजकल कोई ऐसा गीत सुनाई नहीं देता जो हमारी होठों की शान बन सके। आज मेरे होठों पर जो सब से नया गीत सजता है, वह है 'सिंह इज़ किंग' का "तेरी ओर"। पता नहीं क्यों, इस गीत के बाद कोई ऐसा गीत मुझे भाया ही नहीं जिसे गुनगुनाने को जी चाहे। ख़ैर, मुद्दे पर वापस आते हैं, "दीम दीम ताना" भी एक "अलग" गीत है जिसमें हिंदी रैप का भी प्रयोग हुआ है और अरेंजमेण्ट भी अच्छा है, लेकिन सबकुछ होते हुए भी दिल को छू पाने में असमर्थ है। माफ़ी चाहता हूँ।

ये तो थे इस फ़िल्म के ऑरिजिनल गानों की समीक्षा। इस ऐल्बम में तीन बोनस ट्रैक्स भी है। रूप कुमार राठौड़ का "तेरी जुस्तजू", अग्नि का "उजाले बाज़" और कैलासा का "बबम बम बबम"। दोस्तों, एक पंक्ति में अगर 'शोर इन द सिटी' के साउण्डट्रैक के बारे में बताया जाये तो यही कह सकते हैं कि इस फ़िल्म का संगीत पूर्णत: प्रयोगधर्मी है, जिसमें से ग़ैरफ़िल्मी ऐल्बम के गीतों की महक आतीhttp://www.blogger.com/img/blank.gif है। गानें हो सकता है कि बहुत ख़ास न हो, लेकिन 'ताज़ा सुर ताल' में इसकी समीक्षा प्रस्तुत करने का हमारा उद्येश्य यही है कि हम नये संगीत में हो रहे प्रयोगों की तरफ़ अपना और आपका ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं। और हमें पूरा पूरा हक़ भी है कि अगर संगीत कर्णप्रिय नहीं है, अगर उसमें केवल अनर्थक साज़ों का महाकुम्भ है, तो हम उसे नकार दे, उसे अस्वीकार कर दें। इस ऐल्बम को हम दे रहे हैं ७.५ की रेटिंग् और इस ऐल्बम से हमारा पिक है, निस्संदेह, "साइबो"।

फिल्म के गाने आप यहाँ सुन सकते हैं

इसी के साथ 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिये, नमस्कार!

ताज़ा सुर ताल के वाहक बनिये

अगर आप में नये फ़िल्म संगीत के प्रति लगाव है और आपको लगता है कि आप हर सप्ताह एक नई फ़िल्म के संगीत की समीक्षा लिख सकते हैं, तो हम से सम्पर्क कीजिए oig@hindyugm.com के पते पर। हमें तलाश है एक ऐसे वाहक की जो 'ताज़ा सुर ताल' को अपनी शैली में नियमीत रूप से प्रस्तुत करे, और नये फ़िल्म संगीत के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ाये!




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, April 28, 2011

लपक झपक तू आ....सुनिए ये अनूठा अंदाज़ भी मन्ना दा के गायन का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 645/2010/345

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों का मैं कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ गायक मन्ना डे पर केन्द्रित शृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' में। कल की कड़ी में आपसे मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी के अन्तरंग सम्बन्धों के बारे में कुछ दिलचस्प जानकारी हमने बाँटने का प्रयास किया था| आज की कड़ी में हम उनके प्रारम्भिक दिनों के कुछ और साथियों से अन्तरंग क्षणों की चर्चा करेंगे। मन्ना डे की संगीत शिक्षा, संगीत के प्रति उनका समर्पण, हर विधा को सीखने-समझने की ललक और इन सब गुणों से ऊपर साथी कलाकारों से मधुर- आत्मीय सम्बन्ध, उन्हें उत्तरोत्तर सफलता की ओर लिये जा रहा था। प्रारम्भिक दौर में मन्ना डे का ध्यान पार्श्वगायन से अधिक संगीत रचना की ओर था। उन दिनों मन्ना डे संगीतकार खेमचन्द्र प्रकाश के सहायक थे। एक बार खेमचन्द्र प्रकाश के अस्वस्थ हो जाने पर मन्ना डे नें फिल्म 'श्री गणेश महिमा' का स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन भी किया था। मन्ना डे को वो पुत्रवत मानते थे। उन दिनों एक नया चलन शुरू हुआ था। हर अभिनेता चाहता था कि उसकी आवाज़ से मिलते-जुलते आवाज़ का गायक उसके लिए पार्श्व गायन करे। इस तलाश में दिलीप कुमार को पहले तलत महमूद और फिर मोहम्मद रफ़ी की और राज कपूर को मुकेश की आवाज़ मिल गई। मन्ना डे ने खुद को इस दौड़ से हमेशा अपने को अलग रखा। उन्हें तो बहुआयामी गायक बनना था। अपने लक्ष्य को पाने के लिए उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

यहाँ हम कई वर्ष पहले मन्ना डे से डा. मन्दार द्वारा की गयी लम्बी बातचीत का वह अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे यह पता चलता है कि वो राज कपूर की आवाज़ बनते-बनते कैसे रह गए और वह स्थान मुकेश को मिल गया। मन्ना डे नें बताया था -"खेमचन्द्र जी मुझे पुत्र जैसा मानते थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया कि अगर मैं चाहूँ तो मुझे राज कपूर के लिए गाने का मौका मिल सकता है। यह फिल्म रोबिन चटर्जी और फली मिस्त्री बना रहे थे। मैंने उस फिल्म में खुद गाने के बजाय वो गाने अपने मित्र शंकर दासगुप्त से गवाया।" ये दोनों गीत थे- "कबसे भरा हुआ है दिल...." तथा- "हम क्या जाने क्यों हमसे दूर हो गया...."। बाद में ये दोनों गीत हिट हुए थे। मन्ना डे नें बताया था कि वो किसी अभिनेता की आवाज़ बन कर बंधना नहीं चाहते थे। सचमुच, मन्ना डे किसी खास अभिनेता की आवाज़ तो नहीं बने परन्तु अपने समकालीन प्रायः सभी अभिनेताओं के लिए गाने गाये। बातचीत में मन्ना डे ने आगे बताया, -"मैंने राज कपूर की कई फिल्मों में गाने गाये। वो मेरे गाने से हमेशा संतुष्ट रहते थे। 1954 में राज जी की फिल्म 'बूट पालिश" प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में गाने के लिए शंकर-जयकिशन ने मुझे बुलवाया। गाने की संगीत रचना राग आधारित थी। राज साहब अपनी फिल्म के गानों के रिहर्सल में उपस्थित रहा करते थे और रिहर्सल के दौरान ढोलक लेकर बैठते थे। उन्होंने बताया कि यह गाना पक्के राग पर आधारित है मगर इसे हास्य स्थिति में फिल्माया जाना है। मैंने अपनी ओर से कोशिश की और राज साहब संतुष्ट हो गए। फिल्म प्रदर्शित होने पर यह गाना हिट हो गया"।

'बूट पालिश' के इस गीत के बोल हैं -"लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूखी जाये..." और इसे अभिनेता डेविड व साथियों पर फिल्माया गया है जेल के अंदर। चूँकि इस गीत को मन्ना डे ने ध्रुवपद अंग में गाया है और सामान्य रूप से सुनने पर राग 'मल्हार' के किसी प्रकार की ओर संकेत भी मिलता है, किन्तु इस संगीत रचना में कई रागों- दरबारी कान्हड़ा, अडाना, मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार जैसे रागों की झलक मिलती है। मन्ना डे के गीतों के संग्रह में इस गीत का राग- 'मल्हार' बताया गया है, जबकि स्वतंत्र रूप से 'मल्हार' कोई राग नहीं है। इसमें मेघ, मियाँ, सूर, गौड़ आदि प्रकार जब जुड़ते हैं तब यह एक स्वतंत्र राग कहलाता है। बहरहाल 'फिल्म संगीत और राग' विषय के शोधकर्ता एस.एन. टाटा ने इस गीत के राग को 'अडाना मल्हार' नाम देकर विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया है। वैसे भी सुगम या फिल्म संगीत की रचना जब राग आधारित की जाती है तो उसमे राग की शुद्धता की बहुत अधिक अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। फिल्म की गीत-संगीत रचना कथानक के प्रसंग और फिल्माए जाने वाले दृश्य के अनुकूल होनी चाहिए। इस प्रयास में गायक को कभी-कभी स्वरों को तोडना-मरोड़ना भी पड़ता है। मन्ना डे को भी राग 'मियाँ की मल्हार' के मूल स्वरों में हास्य उत्पन्न करने के प्रयास में ऐसा करना पड़ा होगा। जो भी हो, 'बूट पालिश' का यह आकर्षक गीत सुनिए और मन्ना डे के गायन कौशल की मुक्त-कंठ से सराहना कीजिये -



हिन्दी फिल्मों में ध्रुवपद अंग में गाये इक्के-दुक्के गीत ही मिलते हैं। 'बूट पालिश' के इस गीत ध्रुवपद अंग की झलक भी मिलती है और अन्तरों के बीच लोक संगीत का आनन्द भी मिलता है। इस फिल्म के अलावा 1943 में बनी फिल्म 'तानसेन' में कुन्दन लाल सहगल ने और 1962 में बनी फिल्म 'सगीत सम्राट तानसेन' में मन्ना डे ने ही राग 'कल्याण' अथवा 'अवधूत कल्याण' में तानसेन जी की धुवपद रचना -"सप्त सुरन तीन ग्राम..." गाया है।

पहेली 06/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक भजन है ये.

सवाल १ - फिल्म के अभिनेता के भाई ने ही फिल्म का निर्माण किया था, क्या नाम है उनका - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - इस बेहद सफल फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और अनजाना जी एक बार सर से सर भिड़ा चुके हैं, श्यामकांत जी कहाँ है

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, April 27, 2011

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...एक मुश्किल प्रतियोगिता के दौर में भी मन्ना दा ने अपनी खास पहचान बनायीं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 644/2010/344

न्ना डे को फिल्मों में प्रवेश तो मिला किन्तु एक लम्बे समय तक वो चर्चित नहीं हो सके। इसके बावजूद उन्होंने उस दौर की धार्मिक-ऐतिहासिक फिल्मों में गाना, अपने से वरिष्ठ संगीतकारों का सहायक रह कर तथा अवसर मिलने पर स्वतंत्र रूप से भी संगीत निर्देशन करना जारी रखा। अभी भी उन्हें उस एक हिट गीत का इन्तजार था जो उनकी गायन क्षमता को सिद्ध कर सके। थक-हार कर मन्ना डे ने वापस कोलकाता लौट कर कानून की पढाई पूरी करने का मन बनाया। उसी समय मन्ना डे को संगीतकार सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फिल्म 'मशाल' का गीत -"ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल......." गाने का अवसर मिला। गीतकार प्रदीप के भावपूर्ण साहित्यिक शब्दों को बर्मन दादा के प्रयाण गीत की शक्ल में आस्था भाव से युक्त संगीत का आधार मिला और जब यह गीत मन्ना डे के अर्थपूर्ण स्वरों में ढला तो गीत ज़बरदस्त हिट हुआ। इसी गीत ने पार्श्वगायन के क्षेत्र में मन्ना डे को फिल्म जगत में न केवल स्थापित कर दिया बल्कि रातो-रात पूरे देश में प्रसिद्ध कर दिया। 'मशाल' के प्रदर्शन अवसर पर गीतों का जो रिकार्ड जारी हुआ था उसमे गीत का एक अन्तरा शामिल नहीं था, किन्तु गीत की सफलता के बाद रिकार्ड कम्पनी ने पूरा गीत जारी किया।

आमतौर पर जब किसी कलाकार को रातो-रात सफलता मिलती है तो वह अभिमानी होने से बच नहीं पाता, किन्तु मन्ना डे को संगीत साधना कर, गुरुजनों के आशीष पाकर और अपनी संगीत-निष्ठा के बल पर सफलता मिली थी। मन्ना डे ने जिस विनम्र भाव से फिल्मों में प्रवेश किया था वह विनम्रता उनके स्वभाव में आज भी है। पत्रकार अनुराधा सेनगुप्ता से एक बातचीत में उन्होंने कहा था- "मैंने अपने कार्य के प्रति पूरी ईमानदारी बरतने का प्रयास किया। गाना कोई भी हो मैंने अपना शत-प्रतिशत देने का प्रयास किया। गाने किसी भी भाषा के हों, उनके शब्दों के अर्थ जब तक मुझे समझ में न आ जाए और संगीत निर्देशक के साथ जब तक रिहर्सल नहीं होता, मैं रिकार्डिंग शुरू नहीं करता"। अपने इन्हीं गुणों के कारण मन्ना डे समकालीन गायक कलाकारों और संगीतकारों के प्रिय थे। संगीतकार सचिन देव बर्मन और अनिल विश्वास का कहना था- "मन्ना डे अपने समकालीन गायकों- रफ़ी, किशोर, मुकेश और तलत के किसी भी गाने को गा सकते हैं किन्तु यह सभी लोग कंठ-स्वर और तकनीकी कौशल की दृष्टि से मन्ना डे के गाने नहीं गा सकते।" पुरुष पार्श्वगायकों में मोहम्मद रफ़ी उनके सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी थे, किन्तु यह भी आश्चर्यजनक सत्य है कि दोनों गहरे मित्र भी थे। टेलीविजन के एक संगीत प्रतिभा खोज कार्यक्रम में युवा गायक सोनू निगम से मन्ना डे ने कहा था- "रफ़ी साहब से मेरा परिचय तब हुआ जब उन्होंने मेरे संगीत निर्देशन में कोरस में गाया था। वह जितने अच्छे गायक थे उतने ही अच्छे इन्सान भी थे। फिल्म पार्श्व गायन के क्षेत्र में वो स्वयं एक घराना थे। हम दोनों बांद्रा में पास-पास रहते थे और पतंग उड़ाने का शौक हम दोनों को था। मैं हमेशा उनकी पतंग काट देता था। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि हर बार उनकी पतंग ही क्यों कट जाती है, उनके इस सवाल पर मैंने उनसे कहा कि आप जैसे सीधे और सरल हैं, वैसे ही पतंग उड़ाने के मामले में भी हैं। आपको पेंच लड़ाना नहीं आता"।

मोहम्मद रफ़ी भी मन्ना डे का बहुत सम्मान करते थे। एक बार पत्रकारों से बात करते हुए रफ़ी ने कहा था- "आप लोग मेरे गाये गाने सुनते हैं और मैं सिर्फ मन्ना डे को सुनता हूँ"। मन्ना डे ने मोहम्मद रफ़ी के साथ लगभग एक सौ से अधिक गाने गाये हैं, जिनमें से कुछ गीत तो लोकप्रियता के शिखर पर हैं। फिल्म 'बरसात की रात' की कव्वाली - "ये इश्क इश्क है....." तथा फिल्म 'परिवरिश' का हास्य गीत -"मामा ओ मामा....." में विषय की विविधता है। राग आधारित गीतों की श्रेणी में मोहम्मद रफ़ी के साथ मन्ना डे ने तीन उल्लेखनीय गीत गाये हैं। 1960 में बनी फिल्म 'कल्पना' में संगीतकार ओ.पी. नैयर ने दोनों दिग्गजों से गीत -"तू है मेरा प्रेम देवता...." गवाया था। यह राग 'ललित' पर आधारित एक मोहक गीत है। इस गीत में खास बात यह भी है कि पूरा गीत 'तीन ताल' में है जबकि अन्तरा के बीच में दक्षिण भारतीय ताल का प्रयोग हुआ है। इस जोड़ी का दूसरा गीत -"सुध बिसर गयी आज...." फिल्म 'संगीत सम्राट तानसेन' का है। 1962 में बनी इस फिल्म के संगीत निर्देशक एस.एन. त्रिपाठी नें इस गीत को राग 'हेमन्त' के स्वरों में और फिल्मों में कम प्रचलित ताल 'झपताल' में ढाला है। मोहम्मद रफ़ी के साथ मन्ना डे का गाया तीसरा गीत 1965 में बनी मनोज कुमार की फिल्म 'शहीद' का है। इस गीत में तीसरा स्वर सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक राजेन्द्र मेहता का है। देश की आज़ादी के मतवालों का आततायियों को चुनौती देता यह गीत आज हमने आपको सुनाने के लिए चुना है। पहले आप यह गीत सुनिए-



फिल्म 'शहीद' का यह गीत राग 'दरबारी कान्हड़ा' पर आधारित है। इसकी विशेषता यह है कि इस राग में अति कोमल 'गन्धार' और अति कोमल 'धैवत' स्वरों का बड़ा बारीक प्रयोग होता है, जिसकी अपेक्षा किसी सुगम अथवा फिल्म संगीत कि रचना में नहीं की जानी चाहिए | 'शहीद' के इस गीत में इन दोनों अति कोमल स्वरों के सटीक इस्तेमाल से गीत की संवेदनशीलता किस तरह बढ़ गई है, इसे सुन कर ही अनुभव किया जा सकता है |

पहेली 05/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - मन्ना दा की आवाज़ में ये गीत कुछ हास्य रंग का.

सवाल १ - किस अभिनेता पर फिल्माया गया है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी जल्दबाजी में काम खराब कर गए आप, अनजाना जी सही जवाब ले उड़े. प्रतीक जी और शरद को भी पूरे अंक मिलेगें. अवध जी भूल सुधार दिया गया है. आपका बहुत आभार.

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, April 26, 2011

क्यों अखियाँ भर आईं, भूल सके न हम तुम्हे....सुनिए मन्ना दा का स्वरबद्ध एक गीत भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 643/2010/343

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे पर केन्द्रित इस शृंखला में मैं, कृष्णमोहन मिश्र आप सभी का एक बार फिर स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमने आपसे मन्ना डे को फ़िल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में मिले पहले अवसर के बारे में चर्चा की थी। दरअसल फिल्म 'रामराज्य' का निर्माण 1942 में शुरू हुआ था किन्तु इसका प्रदर्शन 1943 में हुआ। इस बीच मन्ना डे ने फिल्म 'तमन्ना' के लिए सुरैया के साथ एक युगल गीत भी गाया। इस फिल्म के संगीत निर्देशक मन्ना डे के चाचा कृष्ण चन्द्र डे थे। सुरैया के साथ गाये इस युगल गीत के बोल थे- 'जागो आई उषा, पंछी बोले....'। कुछ लोग 'तमन्ना' के इस गीत को मन्ना डे का पहला गीत मानते हैं। सम्भवतः फिल्म 'रामराज्य' से पहले प्रदर्शित होने के कारण फिल्म 'तमन्ना' का गीत मन्ना डे का पहला गीत मान लिया गया हो। इन दो गीतों के रूप में पहला अवसर मिलने के बावजूद मन्ना डे का आगे का मार्ग बहुत सरल नहीं था। एक बातचीत में मन्ना डे ने बताया कि पहला अवसर मिलने के बावजूद मुझे काफी प्रतीक्षा करनी पड़ी। "रामराज्य" का गीत गाने के बाद मन्ना डे के पास धार्मिक गानों के प्रस्ताव आने लगे। उस दौर में उन्होंने फिल्म 'कादम्बरी', 'प्रभु का घर', विक्रमादित्य', 'श्रवण कुमार', 'बाल्मीकि', 'गीतगोविन्द' आदि कई फिल्मों में गीत गाये किन्तु इनमें से कोई भी गीत मन्ना डे को श्रेष्ठ गायक के रूप में स्थापित करने में सफल नहीं हुआ। हालाँकि इन फिल्मों के संगीतकार अनिल विश्वास, शंकर राव व्यास, पलसीकर, खान दत्ता, ज़फर खुर्शीद, बुलो सी रानी, सुधीर फडके आदि थे।

इस स्थिति का कारण पूछने पर मन्ना डे बड़ी विनम्रता से कहते हैं- "उन दिनों मुझसे बेहतर कई गायक थे जिनके बीच मुझे अपनी पहचान बनानी थी"। मन्ना डे का यह कथन एक हद तक ठीक हो सकता है किन्तु पूरी तरह नहीं। अच्छा गाने के बावजूद पहचान न बन पाने के दो कारण और थे। मन्ना डे से हुई बातचीत में यह तथ्य भी उभरा कि उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड पर गायक कलाकार का नाम नहीं दिया जाता था, जिससे उनके कई अच्छे प्रारम्भिक गाने अनदेखे और अनसुने रह गए। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस दौर में उन्हें अधिकतर धार्मिक फिल्मों के हलके-फुल्के गाने ही मिले। इस परिस्थिति से मन्ना डे लगातार संघर्ष करते रहे।

मन्ना डे कोलकाता से मुम्बई अपने चाचा के सहायक की हैसियत से आए थे। उनकी यह भूमिका अपनी पहचान न बना पाने के दौर में अधिक महत्वपूर्ण हो गई थी। वो अपने चाचा को पितातुल्य मानते थे। एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने कहा भी था- "मेरे लिए वो आराध्य, मित्र और मार्गदर्शक थे। वह उन दिनों बंगाल के संगीत जगत, विशेषकर कीर्तन गायन के क्षेत्र में शिखर पुरुष थे। मैंने अपने चाचा को कीर्तन गाते हुए देखा था। जब वो गाते थे, श्रोताओं की ऑंखें आँसुओं से भींगी होती थी। उनका सहायक बनना मेरे लिए सम्मान की बात थी। बर्मन दादा (सचिन देव बर्मन) और पंकज मल्लिक जैसे संगीतकार मेरे चाचा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आया करते थे"। ऐसे योग्य कलासाधक की छत्र-छाया में रह कर मन्ना डे संगीत रचना भी किया करते थे। टेलीविजन के कार्यक्रम 'सा रे गा म प' में एक बार गायक सोनू निगम से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था कि अपने कैरियर के शुरुआती दौर में वो अपने चाचा के अलावा सचिन देव बर्मन, खेमचन्द्र प्रकाश और अनिल विश्वास के सहायक भी रहे और स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक भी। उन्होंने सोनू निगम से यह भी कहा था- "संगीत रचना मैं आज भी कर सकता हूँ, यह मेरा सबसे पसन्दीदा कार्य है।"

50 के दशक में मन्ना डे ने खेमचन्द्र प्रकाश के साथ फिल्म 'श्री गणेश जन्म' और 'विश्वामित्र' तथा स्वतंत्र रूप से फिल्म 'महापूजा', 'अमानत', 'चमकी', 'शोभा', 'तमाशा' आदि में संगीत निर्देशन किया था। फिल्म 'चमकी' में मुकेश ने गीतकार प्रदीप का लिखा गीत- "कैसे ज़ालिम से पड़ गया पाला..." तथा फिल्म 'तमाशा' में लता मंगेशकर ने मन्ना डे के संगीत निर्देशन में गीत- "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." गाया | इस गीत को भरत व्यास ने लिखा है | आइए मन्ना डे की संगीत-रचना-कौशल का उदाहरण सुनते हुए आगे बढ़ते हैं |



दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक सुप्रसिद्ध गीत.

सवाल १ - कौन सी दो आवाजें हैं और हैं इस गीत में, याद रहे दोनों गायकों के नाम बताने पर ही पूरे अंक मिलेंगे- ३ अंक
सवाल २ - किस शायर की है मूल रचना - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, अनजाना जी, प्रदीप जी और क्षितिज जी को बधाई

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



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Monday, April 25, 2011

अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाये....जब वयोवृद्ध महर्षि वाल्मीकि की आवाज़ बने युवा मन्ना डे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 642/2010/342

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों को कृष्णमोहन मिश्र का नमस्कार! स्वरगंधर्व मन्ना डे पर केन्द्रित लघु शृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की कल पहली कड़ी में आपने मन्ना डे की बाल्यावस्था, उनकी शिक्षा-दीक्षा, अभिरुचि और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त की। आपने यह भी जाना कि वो अपने कैरियर के दोराहे पर खड़े होकर बैरिस्टर बनने की अपेक्षा संगीतकार या गायक बनने के मार्ग पर चलना अधिक उपयुक्त समझा। मन्ना डे के इस निर्णय से उनके पिता बहुत संतुष्ट नहीं थे, बावजूद इसके उन्होंने अपने पुत्र के इस निर्णय में कोई बाधा नहीं डाली। अपने अंध-संगीतज्ञ चाचा कृष्णचन्द्र डे के साथ 1940 में मन्ना डे मुम्बई (तब बम्बई या बॉम्बे) के लिए रवाना हुए। उस समय उनके पास बाउल गीत, रवीन्द्र संगीत, थोडा-बहुत ख़याल, ठुमरी, दादरा आदि की संचित पूँजी थी | साथ में चाचा के.सी. डे का वरदहस्त उनके सर पर था।

प्रारम्भ में मन्ना डे अपने चाचा के सहायक के रूप में कार्य करने लगे। गीतों की धुन बनाने में सहयोग देने, धुन तैयार होने पर उसकी स्वरलिपि लिखने, यथास्थान वाद्ययंत्रों की संगति निर्धारित करने तथा पूर्वाभ्यास की व्यवस्था सँभालने का दायित्व मन्ना डे पर हुआ करता था। उन्ही दिनों निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट 'रामराज्य' नामक फिल्म बना रहे थे। यह फिल्म अपने शीर्षक के अनुरूप रामायण की कालजयी कथा पर बन रही थी। फिल्म के एक प्रसंग में 'रामायण' के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि पर एक गीत फिल्माया जाना था। निर्देशक विजय भट्ट और संगीतकार शंकरराव व्यास ने इस गीत को स्वर देने के लिए के.सी. डे का चुनाव किया। परन्तु के.सी. डे ने इस गीत को गाने में असमर्थता जताते हुए मन्ना डे का नाम प्रस्तावित कर दिया। शंकरराव व्यास मन्ना डे के नाम पर थोड़ा असमंजस में पड़ गए। उनकी चिन्ता का कारण यह था कि 20 -22 साल के नवजवान की आवाज़ वयोवृद्ध महर्षि वाल्मीकि के अनुकूल भला कैसे हो सकती है, परन्तु पूर्वाभ्यास में मन्ना डे के गायन से वह अत्यन्त प्रभावित हुए। 1942 में बनने वाली इस फिल्म में मन्ना डे नें महर्षि वाल्मीकि के लिए गीत गाया- 'अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाए...'। इसके गीतकार रमेश चन्द्र गुप्त हैं।



एक बातचीत में मन्ना डे नें बताया था- 'रामराज्य' मेरी पहली फिल्म थी। मेरे लिए यह एक बड़ी चुनौती थी कि मुझे महर्षि वाल्मीकि के लिए गाना था।' मन्ना डे ने इस एकल गीत के अलावा इस फिल्म में बेबी तारा के साथ एक युगल गीत भी गाया था। परन्तु इन दोनों गीतों से ज्यादा प्रसिद्धि सरस्वती राणे के गाये गीत- 'वीणा मधुर मधुर कछु बोल....' को मिली। इस फिल्म के साथ दो सुखद प्रसंग भी जुड़े हैं | पहला- इस फिल्म को महात्मा गाँधी ने देखा और सराहना भी की। दूसरा प्रसंग यह कि 1947 में अमेरिका में पहली बार न्यूयार्क के माडर्न आर्ट म्यूजियम में यह फिल्म प्रदर्शित की गई थी। तो आइए मन्ना डे कि आवाज़ में उनका पहला रिकार्ड किया गीत सुनते हैं...

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इस गीत को हमने चुना है मन्ना डे साहब के एक और संगीत कौशल के नमूने के रूप में यानी बतौर संगीतकार.

सवाल १ - किस गायिका की आवाज़ है - १ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रदीप जी जरा से चूक गए आप. खैर हिन्दुस्तानी जी भी २ अंक ले उड़े. अमित जी और अनजाना जी वाकई कमाल हैं आप दोनों तो, श्याम कान्त जी कहाँ है आप

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, April 24, 2011

दूर है किनारा....आईये किनारे को ढूंढती मन्ना दा की आवाज़ के सागर में गोते लगाये हम भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 641/2010/341

'ओल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का इस स्तंभ में फिर एक बार स्वागत करता हूँ। युं तो इस शृंखला का वाहक मैं और सजीव जी हैं, लेकिन समय समय पर आप में से कई श्रोता-पाठक इस स्तंभ के लिए उल्लेखनीय योगदान करते आये हैं, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो! यह हमारा सौभाग्य है कि हाल में हमारी जान-पहचान एक ऐसे वरिष्ठ कला संवाददाता व समीक्षक से हुई, जो अपने लम्बे करीयर के बेशकीमती अनुभवों से हमारा न केवल ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, बल्कि 'सुर-संगम' स्तंभ में भी अपना अमूल्य योगदान समय समय पर दे रहे हैं। और अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक पूरी की पूरी शृंखला के साथ हाज़िर हैं। आप हैं लखनऊ के श्री कृष्णमोहन मिश्र। मिश्र जी का परिचय कुछ शब्दों में संभव नहीं, इसलिए आप यहाँ क्लिक कर उनके बारे में विस्तृत रूप से जान सकते हैं। तो दोस्तों, आइए अगले दस अंकों के लिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आनंद लें श्री कृष्णमोहन मिश्र जी के साथ। एक और बात, कृष्णमोहन जी नें इस शृंखला के हर अंक में इतने सारे तथ्य भरे हैं कि अलग से "क्या आप जानते हैं?" की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। इसलिए इस शृंखला में यह सह-स्तंभ पेश नहीं होगा।
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'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ। भारतीय फिल्मों ने जब से बोलना सीखा, तब से ही गीत-संगीत उसकी आवश्यकता भी थी और विशेषता भी। पहले दशक (1931-1941) के संगीतकारों नें फिल्म संगीत में शास्त्रीय और लोक तत्वों का जो बीजारोपण किया, उसका प्रतिफल दूसरे और तीसरे दशक (1941-1961) की अवधि में खूब मुखर होकर सामने आया। दूसरे दशक में पुरुष गायक- मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार और तलत महमूद जैसे समर्पित गायकों का आगमन हुआ, जिन्होंने अगले कई दशकों तक फिल्म संगीत जगत पर एकछत्र शासन किया। इसी दशक की कोकिलकंठी लता मंगेशकर और वैविध्यपूर्ण गायन शैली के धनी मन्ना डे आज भी हमारे बीच फिल्म संगीत के सजीव इतिहास के रूप में उपस्थित हैं। ऐसे ही बहुआयामी प्रतिभा के धनी मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु श्रृंखला "अपने सुरों में मेरे सुरों को मिला लो" आज से शुरू हो रही है। रविवार 1 मई को मन्ना डे 92 वर्ष के हो जाएँगे। यह श्रृंखला हम उनके स्वस्थ रहने और दीर्घायु होने की कामना करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं |

1 मई 1919 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक सामान्य मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में जन्में मन्ना डे का वास्तविक नाम प्रबोधचन्द्र डे था। 'मन्ना' उनका घरेलू नाम था। आगे चलकर वो इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। मन्ना डे के पिता का नाम पूर्णचंद्र डे, माता का नाम महामाया डे तथा चाचा का नाम कृष्णचंद्र डे (के.सी. डे) था जो एक संगीत शिक्षक के रूप में विख्यात थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इंदु बाबूर पाठशाला (इंदु बाबू की पाठशाला) से, माध्यमिक शिक्षा स्कोटिश चर्च कालेज से तथा स्नातक की पढ़ाई विद्यासागर कालेज से हुई। बचपन में मन्ना डे को खेलकूद में काफी रूचि थी। उनका प्रिय खेल फुटबाल, कुश्ती और मुक्केबाजी रहा। अपनी इस रूचि के कारण वो अपने साथियों के बीच काफी लोकप्रिय थे। मन्ना डे को संगीत के प्रति अनुराग चाचा के.सी. डे की प्रेरणा से ही विरासत में प्राप्त हुआ। इण्टरमिडिएट में पढाई के दिनों में उनके संगीत प्रतिभा की चर्चा साथियों के बीच खूब होती थी। होता यह था कि खाली समय या मध्यान्तर में मन्ना डे को उनके साथी कक्षा में घेर कर बैठ जाते थे। मन्ना डे मेज को ताल वाद्य बना लेते और फिर गाने का सिलसिला शुरू हो जाता। इसी दौरान मन्ना डे नें अन्तरविद्यालय संगीत प्रतियोगिता के तीन वर्गों में भाग लिया और तीनों वर्गों में उन्हें प्रथम स्थान मिला। पहले तो उन्हें चाचा के.सी. डे ही संगीत का पाठ पढ़ाते थे लेकिन उनकी बढ़ती रुझान देखते हुए चाचा ने उस्ताद दबीर खां से भी विधिवत संगीत शिक्षा दिलाने कि व्यवस्था कर दी। मन्ना डे पढाई में तो अच्छे थे ही, अच्छा गाने के कारण भी वो कालेज में खूब लोकप्रिय हो गए थे। स्नातक की परीक्षा में सफल होने के बाद मन्ना डे के सामने दो रास्ते खुले हुए थे। पहला यह कि कानून की पढाई कर बैरिस्टर बना जाये और दूसरा, चाचा की छत्र-छाया में संगीत क्षेत्र में भाग्य आजमाया जाये। काफी सोच-विचार के बाद मन्ना डे ने दूसरा रास्ता चुना और अपने चाचा के साथ माया नगरी मुम्बई की ओर चल पड़े |

यहाँ थोडा रुक कर हम मन्ना डे की उस समय की मनोदशा का अनुमान लगाते है- 'सौदागर' फिल्म के इस गीत के माध्यम से।

दूर है किनारा


1973 में प्रदर्शित इस फिल्म में मन्ना डे ने बंगाल की बेहद चर्चित भटियाली धुन (माँझी गीत) में इस गीत को गाया है| फिल्म के संगीतकार रवीन्द्र जैन हैं। टेलीविजन के एक चैनल पर 'इण्डियन एक्सप्रेस' के संपादक शेखर गुप्ता से अपने साक्षात्कार में मन्ना डे नें फिल्म 'सौदागर' के इस गीत के बारे में कहा था- "बचपन से ही हुगली नदी के प्रति मेरा विशेष लगाव रहा है। माँझी गीतों की लोक धुन बचपन से ही मन में बसी है। 'सौदागर' अमिताभ बच्चन की प्रारम्भिक फिल्मों मे से एक अच्छी फिल्म है। संगीतकार रवीन्द्र जैन की धुन भी बहुत अच्छी है | यह सब कुछ मेरे लिए इतना अनुकूल था कि सचमुच एक अच्छा गीत तैयार हो गया।"

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - मन्ना दा ने इस फिल्म में बेबी तारा के साथ एक युगल गीत भी गाया था.

सवाल १ - किस पौराणिक किरदार के लिए था मन्ना दा का ये गीत - २ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और अनजाना जी ने शानदार शुरुआत की है, प्रतीक जी और शरद जी भी खाता खोल चुके हैं, श्याम कान्त जी बहुत बहुत बधाई और स्वागत एक बार फिर हमें यकीन है अब मुकाबले में और रोचकता आ जायेगी

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - लोकप्रिय तालवाद्य घटम की चर्चा



सुर संगम - 17 - घटम
जब विक्कु अपना अरंगेत्रम् देने मंच पर जा रहे थे, तब 'गणेश' नामक एक बच्चे ने उनका घटम तोड़ दिया। इसे घटना को वे आज भी अपने करियर के लिए शुभ मानते हैं।

सुप्रभात! सुर-संगम के आज के अंक में मैं, सुमित चक्रवर्ती आपका स्वागत करता हूँ। भारतीय संगीत में ताल की भूमिका सबसे महत्त्व्पूर्ण मानी गयी है। ताल किसी भी तालवाद्य से निकलने वाली ध्वनि का वह तालबद्ध चक्र है जो किसी भी गीत अथवा राग को गाते समय गायक को सुर लगाने के सही समय का बोध कराता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में जहाँ कुछ ताल बहुत रसद हैं वहीं कुछ ताल बहुत ही जटिल व जटिल भी हैं। तालों के लिए कई वाद्‍यों का प्रयोग किया जाता है जिनमें तबला, ढोलक, ढोल, मृदंगम, घटम आदि कुछ नाम हम सब जानते हैं। आज के इस अंक में हम चर्चा करेंगे एक बहुत ही लोकप्रिय तालवाद्य - घटम के बारे में।

घटम मूलतः दक्षिण भारत के कार्नाटिक संगीत में प्रयोग किया जाने वाला तालवाद्य है। राजस्थान में इसी के दो अनुरूप मड्गा तथा सुराही के नामों से प्रचलित हैं। यह एक मिट्टी का बरतन है जिसे वादक अपनी उँगलियो, अंगूठे, हथेलियों व हाथ की एड़ी से इसके बाहरी सतह पर मार कर बजाते हैं। इसके मुख खुले हाथों से एक हवादर व कम आवाज़ ध्वनि उत्पन्न की जाती है जिसे 'गुमकी' कहते हैं। कभी-कभी कलाकार इसके मुख को अपने नग्न पेट से दबाकर एक गहरी गुमकी की ध्वनि भी उत्पन्न करते हैं। घटम के भिन्न भागों को बजाकर भिन्न - भिन्न ध्वनियाँ उत्पादित की जा सकती हैं। आइये इसी का एक उदाहरण देखें इस वीडियो द्वारा जिसमें इस वाद्य को बजा रहें हैं वर्तमान भारत के सबसे लोकप्रिय घटम वादक 'विक्कु विनायकराम'।



वर्तमान काल के सबसे प्रसिद्ध घटम वादकों में सबसे पहला नाम आता है 'श्री थेटकुड़ी हरिहर विनायकराम' का, जिन्हें प्यार से 'विक्कु विनायकराम' भी कहा जाता है। इस अनोखे तालवाद्य कि कला को बचाने तथा इसे विश्व प्रसिद्ध करने में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा है। विक्कु जई का जन्म सन् १९४२ में मद्रास में हुआ। उनके पिता श्री कलईमणि टि. आर. हरिहर शर्मा स्वयं एक प्रतिभावान संगीतज्ञ तथा संगीत के प्राध्यापक थे। विक्कु जी ने ७ वर्ष की अल्पायु में ही इस वाद्य कला का प्रशिक्षण प्रारंभ कर दिया था तथा उन्होंने अपनी अरंगेत्रम्‍ (प्रथम सार्वजनिक प्रस्तुति) दी मात्र १३ वर्ष कई आयु में, वर्ष १९५५ में श्री राम नवमि उत्सव के दौरान। इससे सम्बन्धित एक रोचक घटना भी है, वह यह कि जब विक्कु अपना अरंगेत्रम् देने मंच पर जा रहे थे, तब 'गणेश' नामक एक बच्चे ने उनका घटम तोड़ दिया। इसे घटना को वे आज भी अपने करियर के लिए शुभ मानते हैं। उन्होंने स्वयं को इतनी कम उम्र में इस प्रकार सिद्ध कर दिया कि शीघ्र ही वे 'मंगलमपल्लि बालमुरलीकृष्ण', 'जी. एन. बालासुब्रमणियम', 'मदुरई मणि अय्यर' और 'एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी' जैसे कार्नाटिक संगीत के दिग्गजों के साथ कार्यक्रम करने लगे। विक्कु जी का अन्तर्राष्ट्रीय सफ़र शुरु हुआ ७० के दशक में कोलम्बिया(अमरीका) 'शक्ति' नामक बैण्ड से जुड़े जिसमें मुख्य सदस्य थे जॉन मक्लॉफ़्लिन तथा उस्ताद ज़ाकिर हुसैन। इसके बाद उनकी ख्याति में और वृद्धि हुई वर्ष १९९२ में जब उन्हें 'प्लैनेट ड्रम' नामक एक अन्तर्राष्ट्रिय संगीत ऎल्बम के लिए विश्व के सबसे बड़े पुरस्कार - 'ग्रैमी' पुरस्कार से सम्मनित किया गया। तो लीजिए ये तो रही कुछ जानकारी विक्कु विनायकराम जी के बारे मे। इस कड़ी को समाप्त करते हुए आपको ले चलते हैं उनके द्वारा एक विशेष प्रस्तुति के वीडियो की ओर। आप सोच रहे होंगे कि आज मैं आपको केवल वीडियो ही क्यों दिखा रहा हूँ? अजी विक्कु जी का घटम वादन का अंदाज़ ही इतना रोचक व अनूठा है कि केवल सुनने से मज़ा नहीं आएगा। आप इस वीडियो में देख सकेंगे कि किस प्रकार उनके अनोखे अन्दाज़ ने उस्ताद ज़किर हुसैन साहब का मन भी मोह लिया और वे उनकी वाह- वाही ही करते रहे।



और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

हमने सोचा कि क्यों न आज की पहेली को थोड़ा सा कठिन बनाया जाए। इस लिए आज कोई भी राग अथवा धुन का हिस्सा नहीं सुनाएँगे।

पहेली: पाश्चात्य संगीत का हवायन गिटार इस तन्त्र वाद्य का वैकल्पिक रूप है।

पिछ्ली पहेली का परिणाम: एक बार पुन: इंदौर की श्रीमति क्षिति तिवारी जी बाज़ी ले गईं हैं। इन्हें मिलते हैं ५ अंक, हार्दिक बधाई!

तो यह था आज का सुर-संगम, कार्नाटिक शास्त्रीय संगीत के एक बहुत ही सरलदर्शि परन्तु अनुपम वाद्य घटम पर आधारित। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामी रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने साथी सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए| और हाँ! शाम ६:३० बजे हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के प्यारे साथी सुजॉय चटर्जी के साथ पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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