"मुझसे चलता है सर-ए-बज़्म सुखन का जादू, चांद ज़ुल्फ़ों के निकलते हैं मेरे सीने से, मैं दिखाता हूँ ख़यालात के चेहरे सब को, सूरतें आती हैं बाहर मेरे आइने से।
हाँ मगर आज मेरे तर्ज़-ए-बयाँ का ये हाल, अजनबी कोई किसी बज़्म-ए-सुखन में जैसे, वो ख़यालों के सनम और वो अलफ़ाज़ के चांद, बेवतन हो गए अपने ही वतन में जैसे।
फिर भी क्या कम है, जहाँ रंग ना ख़ुशबू है कोई, तेरे होंठों से महक जाते हैं अफ़कार मेरे, मेरे लफ़ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तेरी, सरहदें तोड़ के उड़ जाते हैं अशार मेरे।
तुझको मालूम नहीं या तुझे मालूम भी हो, वो सिया बख़्त जिन्हे ग़म ने सताया बरसों, एक लम्हे को जो सुन लेते हैं तेरा नग़मा, फिर उन्हें रहती है जीने की तमन्ना बरसों।
जिस घड़ी डूब के आहंग में तू गाती है, आयतें पढ़ती है साज़ों की सदा तेरे लिए, दम ब दम ख़ैर मनाते हैं तेरी चंग़-ओ-रबाब, सीने नए से निकलती है दुआ तेरे लिए।
नग़मा-ओ-साज़ के ज़ेवर से रहे तेरा सिंगार, हो तेरी माँग में तेरी ही सुरों की अफ़शाँ, तेरी तानों से तेरी आँख में रहे काजल की लक़ीर, हाथ में तेरे ही गीतों की हिना हो रखशाँ।"
बरसों पहले शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने कुछ इसी तरह से बाँधा था उस गायिका के तारीफ़ों का पुल जिनकी आवाज़ कानों में ही नहीं बल्कि अंतरात्मा में मिसरी घोल देती है, जिसे सुन कर मन की हर पीड़ा दूर हो जाए, जिस आवाज़ की शीतल छाँव के नीचे बैठ कर इंसान ज़िंदगी की दुख तकलीफ़ों को पल में भूल जाए, और जिस आवाज़ की सुरगंगा में नहाकर मन पवित्र हो जाए, ६ दशकों से हवाओं में अमृत घोलती आ रही उस गायिका को आप और हम लता मंगेशकर के नाम से जानते हैं।
'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला के तहत इन दिनों आप सुन रहे हैं लता मंगेशकर के गाए गुज़रे ज़माने के कुछ ऐसे भूले बिसरे नग़में जो बेहद दुर्लभ हैं और जिन्हे हमें उपलब्ध करवाया है नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे जी ने, जिनका हम दिल से आभारी हैं। उनके भेजे हुए गीतों में से आज की कड़ी के लिए हम ने जिस गीत को चुना है वह है सन् १९४९ की फ़िल्म 'भोली' का। दोस्तों, कल जो गीत आप ने सुना था वह गीता बाली पर फ़िल्माया गया था, और संयोग वश आज का गीत भी उन्ही का है। फ़िल्म 'भोली' के मुख्य कलाकार थे प्रेम अदीब और गीता बाली। मुरली मूवीज़ के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया था राम दर्यानी ने। पंडित गोबिन्दराम थे इस फ़िल्म के संगीतकार और गानें लिखे आइ. सी. कपूर ने। पंडित गोबिन्दराम गुज़रे ज़माने के उन प्रतिभाशाली संगीतकारों में से हैं जिनकी आज चर्चा ना के बराबर होती है। क्या आप जानते हैं कि संगीतकार सी. रामचन्द्र जिन दो संगीतकारों से प्रभावित हुए थे उनमें से एक थे सज्जाद हुसैन और दूसरे थे गोबिन्दराम। पंडित गोबिन्दराम ने अपनी फ़िल्मी यात्रा शुरु की थी सन् १९३७ में। फ़िल्म थी 'जीवन ज्योति'। ४० के दशक के शुरुआती सालों में उनकी चर्चित फ़िल्में रहीं १९४१ की 'हिम्मत' और १९४३ की तीन फ़िल्में - 'आबरू', 'सलमा', और 'पगली'। जब गोबिन्दराम के श्रेष्ठ फ़िल्मों का ज़िक्र होता है तो 'भोली' और 'माँ का प्यार' फ़िल्मों का ज़िक्र किए बग़ैर बात ख़तम नहीं समझी जा सकती। 'माँ का प्यार' भी इसी साल, यानी कि १९४९ में बनी थी और इस फ़िल्म में भी लता जी के गीत थे। नूरजहाँ के अंदाज़ में लता जी ने इस फ़िल्म के गीत गाए और पहली बार यह साबित भी कर दिया था कि वो कितनी भी ऊँची पट्टी पर गा सकती हैं। 'माँ का प्यार' फ़िल्म का लता जी का गाया हुआ एक प्रसिद्ध गीत है "तूने जहाँ बना कर अहसान क्या किया है"। लेकिन आज हम सुनने जा रहे हैं फ़िल्म 'भोली' से एक दर्दीला गीत, "इतना भी बेक़सों को ना आसमाँ सताए, के दिल का दर्द लब पे फ़रियाद बन के आए", सुनिए!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. 3 अंकों के लिए बूझिये लता का गाया ये गीत. २. इस नाम की कम से कम दो फिल्में बाद में बनी एक में अमिताभ थे नायक संगीत रविन्द्र जैन का था तो दूसरी फिल्म में थे राज कुमार और दिलीप कुमार. ३. मुखड़े में शब्द है -"भंवर".
पिछली पहेली का परिणाम - पराग जी बोनस अंकों का फायदा देखिये....आप सीधे ३३ अंकों पर पहुँच गए हैं...यानी मंजिल के कुछ और करीब. शरद जी और पूर्वी जी दिखाईये ज़रा सी और फुर्ती जी....
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में काका हाथरसी की कहानी "प्यार किया तो मरना क्या" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "बोर", जिसको स्वर दिया है नितिन व्यास ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 12 मिनट 33 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी मैंने कहा, "तुझे बालों की पडी है, यहाँ मेरी गर्दन कट रही है।" (हरिशंकर परसाई की "बोर" से एक अंश)
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जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लता मंगेशकर के गाए हुए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों की एक बेहद ख़ास शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है'। १९४७ और १९४८ की दो फ़िल्मों के गीत सुनने के बाद आज हम एक साल और आगे बढ़ते हैं, यानी कि १९४९ में। लता जी के संगीत सफ़र का शायद सब से महत्वपूर्ण साल रहा होगा यह। क्यों ना हो, 'महल', 'बरसात', 'बाज़ार', 'एक थी लड़की', 'लाहौर', और 'बड़ी बहन' जैसी फ़िल्मों में एक से एक सुपरहिट गीत गा कर लता जी एक दम से अग्रणी पार्श्व गायिका बन गईं। उनके इस तरह से छा जाने पर जैसे फ़िल्म संगीत की धारा ने एक नया मोड़ ले लिया हो! इन तमाम फ़िल्मों के संगीतकार थे खेमचंद प्रकाश, शंकर जयकिशन, विनोद, श्यामसुंदर, और हुस्नलाल भगतराम। १९४९ में फ़िल्म जगत की पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल भगतराम के संगीत से सज कर कुल १० फ़िल्में प्रदर्शित हुईं, जिनके नाम हैं - अमर कहानी, बड़ी बहन, बलम, बंसरिया, हमारी मंज़िल, जल तरंग, जन्नत, नाच, राखी, और सावन भादों। 'बड़ी बहन' में तो लता जी के गाए "चले जाना नहीं" और "चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है" ने सफलता के कई झंडे गाढ़े, लेकिन फ़िल्म 'बंसरिया' का एक गीत ज़रा कम सुना सा रह गया। जिस गीत की हम बात कर रहे हैं, उसे भी कुछ कुछ "चुप चुप खड़े हो" के अंदाज़ में ही बनाया गया था, लेकिन इसे वह कामयाबी नहीं मिली जितना की उस गीत को मिली थी। फ़िल्म 'बंसरिया' का प्रस्तुत गीत है "चाहे चोरी चोरी आओ चाहे छुप छुप आओ, पर हमको पिया आज ज़रूर मिलना"। फ़िल्म 'बंसरिया' का निर्माण 'निगारिस्तान फ़िल्म्स' ने किया था, जिसे निर्देशित किया राम नारायण दवे और मुख्य भूमिकाओं में थे रणधीर और गीता बाली। फ़िल्म के गानें लिखे मुल्कराज भाकरी ने।
दोस्तों, आज का यह गीत सुनने से पहले आइए लता जी के बारे में कुछ ऐसे कलाकारों के उद्गार जान लेते हैं जो आज के इस दौर के कलाकार हैं। इस नई पीढ़ी के कलाकारों के दिलों में भी लता जी के लिए उतनी ही इज़्ज़त और सम्मान है जितने कि पिछले सभी पीढ़ियों के दिलों में हुआ करती है। ये तमाम बातें हम विविध भारती के अलग अलग 'जयमाला' और 'सरगम के सितारे' कार्यक्रमों से मिला-जुला कर प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रसून जोशी - मुझे याद है कि बचपन में एक प्रतियोगिता में मैने इस गीत को गाने की कोशिश की थी, लेकिन बीच में ही मैं बेसुरा हो गया और गा नहीं पाया। तब मुझे अहसास हुआ कि यह गीत कितना मुश्किल है और लता जी ने इसे कितनी आसानी से गाया है। यह गीत है "रसिक बलमा", बहुत सुंदर गीत है, बहुत सुंदर संगीत है, और इस गीत को सुनकर आप समझ सकते हैं कि लता जी लता जी क्यों है!!!
सोनू निगम - मुझे याद है वह १ अप्रैल १९९९ का दिन था, यानी कि 'अप्रैल फ़ूल्स डे'। लता जी पहले पहले गा रही थी ("ख़ामोशियाँ गुनगुनाने लगी"), और मुझे उनके ख़तम होने के बाद गाना था। वो गाने का अपना पोर्शन ख़तम कर जब बाहर आयीं तो मुझे कहने लगीं कि उन्होने मेरा 'सा रे गा मा पा' शो टी.वी पर देखा था जिसमें मैने तलत महमूद साहब का गाया एक गीत गाया था और वह उन्हे बहुत पसंद आया था। फिर उन्होने कहा कि वो मुझे सुनना चाहती हैं जब मैं अपना हिस्सा रिकार्ड करूँ। लेकिन उस दिन काफ़ी देर हो गई थी, इसलिए उन्हे निकलना पड़ा। उस दिन का एक्स्पेरियन्स मेरे लिए एक बहुत 'फ़ैन्टास्टिक एक्स्पेरियन्स' था।
श्रेया घोषाल - एक बार मैं किसी स्टुडियो में रिकार्डिंग कर रही थी, और वहाँ पर एक रिकार्डिस्ट को यह पता था कि मैं लता जी की बहुत बड़ी फ़ैन हूँ। नसीब से उस दिन लता जी भी उसी स्टुडियो में उपस्थित थीं। वो संगीतकार के साथ बैठी हुईं थीं। उस रिकार्डिस्ट ने मुझे कहा आ कर कि लता जी आई हुईं हैं, क्या मैं मिलना चाहूँगी? मैने कहा 'औफ़कोर्स'। फिर वो मुझे लता जी के पास ले गए। मैं कभी नहीं भूल सकती उस दिन को। लता जी के चेहरे पर एक नूर है। उनकी ऊंचाई ज़्यादा नहीं है लेकिन उनमें एक कमाल का व्यक्तित्व है। उनके सामने मैं गूँगी हो गई और एक शब्द मेरे मुँह से नहीं निकला। तब वो बोलीं 'श्रेया, मैने तुम्हारी एक इंटरव्यू देखा है, मैं माफ़ी चाहती हूँ लेकिन तुम्हारी बंगला प्रोनन्सिएशन अच्छा नहीं है।' मुझे इतनी ख़ुशी हुई यह सोच कर कि मुझ जैसी नई और छोटे सिंगर को उन्होने सुना है और मेरे बारे में इतना कुछ नोटिस भी किया है। वो महान हैं। फिर वहाँ बैठे संगीतकार ने मुझे कहा कि अभी अभी लता जी मेरी तारीफ़ कर रहीं थीं। यह सुनकर तो मैं सातवें आसमान पर उड़ने लगी। इससे ज़्यादा मैं क्या माँग सकती हूँ!
सुनिधि चौहान - लता जी तो भगवान हैं। तो उनके मुख से सिर्फ़ मेरा नाम निकलना ही बहुत बड़ी बात है। तो अगर वो मेरी तारीफ़ करती हैं तो इससे बड़ी बात मेरे लिए और कोई हो नहीं सकती। उनको तो मैं शुक्रिया अदा भी नहीं कर सकती। यही बोलूँगी कि अगर वो मुझे चाहती हैं तो बस उनका आशिर्वाद रहे और मैं अपनी तरफ़ से उनको निराश नहीं करूँगी। उनकी अगर उम्मीदें हैं मुझ से तो मैं ज़रूर कोशिश करूँगी। शुरु से ही उनके साथ एक अजीब सा रिश्ता रहा है, 'मेरी आवाज़ सुनो' के टाइम से, जब मैने ट्राफ़ी उनके हाथ से ली थी। कौम्पिटिशन में हिस्सा ही इसलिए लिया था कि एक दिन लता जी के दर्शन हो जाए। दिल्ली से थी तो मेरे लिए तो सपना सा था कि उनको छू के देखूँ कि वो कैसी दिखती हैं सामने से, और सोचा भी नहीं था कि जीतूँगी, बस यह कोशिश थी कि काफ़ी राउंड्स क्लीयर कर लूँ और मेगा फ़ाइनल तक पहुँच जाऊँ ताकि लता जी से मिल सकूँ। जीती तो ख़ुशी का कोई अंदाज़ा ही नहीं था, फिर उनका मुझे ट्राफ़ी देना, मेरे आँसू पोंछ कर मुझसे बोलना कि 'अगर तुमको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मैं हूँ'। मेरे लिए तो उससे बड़ा दिन ही नहीं था, सब से बड़ा ज़िंदगी का दिन वह था, और उसके बाद, वो सब हो जाने के बावजूद मेरी हिम्मत भी नहीं होती कि उनको फ़ोन करूँ, बात करूँ, तो दीदी से आज तक इतने सालों में मेरे ख़याल से ३ या ४ बार बात की होगी।
महालक्ष्मी अय्यर - अब मैं एक ऐसी गायिका का गाया गीत सुनाने जा रही हूँ जिनका गाना जितना सुरीला है उनकी बातें उससे भी मीठी। मेरे इस 'सिंगिंग लाइन' में आने का एक कारण भी वो ही हैं। जी हाँ, लता मंगेशकर जी। मैं हमेशा चाहती हूँ कि अगर लता जी के ५००० गानें हैं तो मेरा सिर्फ़ एक गाना उनके जैसा हो।
तो दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में लता जी के ज़िक्र के द्वारा हमने गुज़रे दौर और आज के दौर का संगम महसूस किया। यानी कि गुज़रे दौर के लता जी का गाया गीत बज रहा है और साथ में इस दौर के फ़नकारों के दिलों में लता जी के लिए प्यार और इज़्ज़त के चंद अंदाज़-ए-बयाँ आप ने पढ़े। कल कौन सा गीत बजने वाला है उसका आप अंदाज़ा लगाइए नीचे दिए गए पहेली के सुत्रों से, और अब मुझे आज के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का एक बेहद दर्द भरा नगमा. २. पंडित गोविन्दराम और आई सी कपूर थे इस गीत में गीत-संगीत के जोडीदार. ३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"आसमाँ"
पिछली पहेली का परिणाम - लगता है बेहद मुश्किल पहेली थी कल वाली....चलिए कोई बात नहीं आज कोशिश कीजिये....शुभकामनाएँ
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
पिछली कड़ी में पूछे गए दो सवालों में से एक सवाल था "गुलज़ार" साहब के उस मित्र का नाम बताएँ जिसने गुलज़ार साहब के बारे में कहा था कि "कहीं पहले मिले हैं हम"। जहाँ तक हमें याद है हमने महफ़िल-ए-गज़ल की ३६वीं कड़ी में उन महाशय का परिचय "मंसूरा अहमद" के रूप में दिया था। जवाब के तौर पर सीमा जी, शरद जी और शामिख जी में बस सीमा जी ने हीं "मंसूरा अहमद" लिखा, बाकियों ने "मंसूरा" को शायद टंकण में त्रुटि समझकर "मंसूर" कर दिया। चाहते तो हम "मंसूर" को गलत उत्तर मानकर अंकों में कटौती कर देते, लेकिन हम इतने भी बुरे नहीं। इसलिए आप दोनों को भी पूरे अंक मिल रहे हैं। लेकिन आपसे दरख्वास्त है कि आगे से ऐसी गलती न करें। वैसे अगर आपने कहीं "मंसूर अहमद" पढ रखा है तो कृप्या हमें भी अवगत कराएँ ताकि हमें उनके बारे में और भी जानकारी मिले। अभी तो हमारे पास उन कविताओं के अलावा कुछ नहीं है। हाँ तो इस बात को मद्देनज़र रखते हुए पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक, शामिख जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) अपनी बहन "दिना" की जगह पर एक कार्यक्रम पेश करके संगीत की दुनिया में उतरने वाली एक फ़नकारा जिसे १९७४ में रीलिजे हुई एक फ़िल्म के टाईटल ट्रैक ने रातोंरात स्टार बना दिया। फ़नकारा के साथ-साथ उस फिल्म की भी जानकारी दें। २) दो गायक बंधु जिनकी प्रसिद्धि के साथ भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का भी नाम जुड़ा है और जिनके बारे में कई लोगों को लगता है कि हसरत जयपुरी उनके पिता है। उन दोनों के साथ-साथ उनके पिता का भी नाम बताएँ।
आज हम जिस गज़ल को लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं, उस गज़ल को अपनी सधी हुई आवाज़ से सजाने वाले फ़नकार की तबियत आजकल कुछ नासाज़ चल रही है। यूँ तो इस फ़नकार की एक गज़ल हम आपको पहले हीं सुनवा चुके हैं, लेकिन उस समय हमने इनके बारे में ज्यादा बातें नहीं की थी या यूँ कहिए कि हम उस कड़ी में बस उनका जीवन-वृंतात हीं समेट पाए थे। हमने सोचा कि क्यों न आज कुछ हटकर बातें की जाए। इस लिहाज़ से उनके स्वास्थ्य के बारे में बात करना सबसे जरूरी हो जाता है। २९ मार्च २००९ को उनके बारे में नवभारत टाईम्स में यह खबर आई थी: १९२७ में राजस्थान के लूना में जन्मे मेहदी हसन नौ बरस पहले पैरलाइसिस के चलते मौसिकी से दूर हो गए थे। फिलहाल, वह फेफड़ों के संक्रमण के कारण पिछले डेढ़ महीने से कराची के आगा खान यूनिवर्सिटी अस्पताल में भर्ती हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें छुट्टी मिलने वाली है क्योंकि उनका परिवार मेडिकल बिल भरने में असमर्थ है। उनके बेटे आरिफ हसन ने कराची से को दिए इंटरव्यू में कहा, एक बार हिन्दुस्तान आना चाहते हैं। लता से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी गजल के इस बादशाह के मुरीदों में शामिल हैं। आरिफ ने बताया, लताजी को उनकी बीमारी के बारे में पता चला तो उन्होंने मुंबई आकर इलाज कराने की पेशकश की। उन्होंने खुद सारा खर्च उठाने की भी बात कही। उनके भतीजे आदिनाथ ने हमें फोन किया था। उन्होंने बताया कि २००२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी पत्र लिखकर हसन के जल्दी ठीक होने की कामना की थी। उन्होंने भी हिन्दुस्तान सरकार की ओर से हरसंभव मदद का प्रस्ताव रखा था। आरिफ ने कहा, हसन साहब ने फन की सौदेबाजी नहीं की लिहाजा पैसा कभी जोड़ नहीं पाए। रेकॉर्डिंग कंपनियों से मिलने वाला पैसा ही आय का मुख्य जरिया था जो उस समय बहुत कम होता था। शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचने पर भी उन्हें सीखने का जुनून रहा। उनका कहना है कि संगीत तो एक समंदर की तरह है जितना इसमें उतरा, उतना ही अपने अज्ञान का पता चलता है। अफज़ल सुभानी ,जो अपने बारे में कहते हैं कि "पाकिस्तान से बाहर का मैं पहला शागिर्द हूं, जिसे मेहदी हसन साहब ने गंडा बांध कर विधिवत शिष्य बनाया है", मेहदी साहब की हालत से बड़े हीं परेशान नज़र आते हैं। मेहदी साहब की बात चलने पर कुछ याद करके वो कहते हैं: मुझे आज भी याद है, जब हमने उनके लकवाग्रस्त होने के बाद फोन पर बात की थी। मैं उनकी महान आवाज़ नहीं पहचान पाया। मैं रो पड़ा। लकवा ने उनके वोकल कॉर्डस पर असर डाला था. पर बहुत ही कम समय में वो समय भी आया जब उन्होंने अपनी उसी आवाज़ में घोषणा की “मेरी आवाज़ वापस आ गई है”, मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं सुना।" आखिर कौन होगा जिसे मेहदी साहब की फ़िक्र न होगी। हमारे हिन्दुस्तान, पाकिस्तान या यूँ कहिए कि पूरे विश्व के लिए वे एक धरोहर के समान हैं। हमारी तो यही दुआ है कि वे फिर से उसी रंग में वापस आ जाएँ, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है।
आकाशवाणी से प्रकाशित एक भेंटवार्ता के दौरान मन्ना डे साहब से जब यह पूछा गया कि "इतनी अधिक सफलता, लोकप्रियता, पुरस्कार, मान-सम्मान सभी कुछ मिलने के बाद भी क्या आपके मन में कोई इच्छा ऐसी है जो अभी भी पूरी नहीं हुई है"। तो उनका उत्तर कुछ यूँ था: हां! दो इच्छाएं अभी भी मेरे मन में हैं। एक तो यह कि मैं अपने अंतिम समय में मोहम्मद रफ़ी के गाये गीतों को सुनता रहूं, और दूसरी यह कि मैं कभी मेहदी हसन की तरह ग़ज़ल गा सकूं| संगीत की देवी के दो लाडले बेटों को इस कदर याद करना खुद मन्ना दा की संगीत-साधना को दर्शाता है। इसी तरह की एक भेंटवार्ता में मेहदी साहब से जब यह पूछा गया था कि "क्या मुल्कों को बाँटने वाली सरहदें बेवजह हैं?" तो उन्होंने कहा था कि "हाँ बेकार की चीज़े हैं ये सरहदें, पर जो अल्लाह को मंज़ूर होता है वही होता है"। वैसे भी संगीत-प्रेमियों के लिए सरहद कोई मायने नहीं रखती और यही कारण है कि हम भी फ़नकारों से यही उम्मीद रखते हैं कि उनकी गायकी में सरहदों की सोच उभरती नहीं होगी। यूँ तो कई जगहों पर और कई बार मेहदी साहब ने यह तमन्ना ज़ाहिर की है कि वे हिन्दुस्तान आना चाहते हैं(क्योंकि हिन्दुस्तान उनकी सरजमीं है, उनका अपना मुल्क है जिसकी गोद में उन्होंने अपना बचपन गुजारा है), फिर भी कुछ लोग यह कहते हैं कि मेहदी साहब तरह-तरह के विवादास्पद बयान देकर हिंदुस्तान के कुछ श्रेष्ठतम कलाकारों की बेइज्जती का प्रयास करते रहे हैं। हम यहाँ पर कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहते लेकिन उन घटनाओं को लोगों के सामने रखनें में कोई बुराई नहीं है। "शहंशाहे-गज़ल - मेहदी हसन" शीर्षक से प्रकाशित एक आलेख में ऐसे हीं कुछ वाक्यात जमा हैं(सौजन्य: सृजनगाथा): उनका एक बयान कि "हिंदुस्तान में किसी को गाना ही नहीं आता है", विश्व प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रफ़ी को आहत कर गया था; जबकि उनका दूसरा बयान कि "हिंदुस्तान की गायिकाएं कोठेवाली गायिकाएं हैं", स्वर-सम्राज्ञी लता मंगेश्कर को भी दुखी कर गया था। प्रख्यात संगीतकार निर्देशक ख़्य्याम से तो मेहदी हसन की ज़बरदस्त झड़प अनगिनत प्रतिष्ठित कलाकारों के सामने ही हो गयी थी। मेहदी हसन ने ख़य्याम से मशहूर गायक मुकेश के बारे में कह दिया था कि "ख़य्याम साहब, आप जैसे गुणी म्यूज़िक डायरेक्टर को एक बेसुरे आदमी से गीत गवाने की क्या ज़रूरत है"। ख़य्याम ने सरेआम मेहदी हसन को बहुत बुरी तरह डांट दिया था और बात बिगड़ती देखकर कुछ महत्वपूर्ण कलाकारों ने ख़य्याम और मेहदी हसन को एक-दूसर से काफ़ी दूर हटा दिया।" हमारा मानना है कि हर फ़नकार के साथ अच्छी और बुरी दोनों तरह की बातें जुड़ी होती हैं। फ़नकार का व्यक्तित्व जिस तरह का भी हो, हमें बस उसकी फ़नकारी से मतलब रखना चाहिए। अगर फ़नकार दिल से अच्छा हो तो वह एक तरह से अपना हीं भला करता है, नहीं तो सभी जानते हैं कि प्रशंसकों की याद्दाश्त कितनी कम होती है! चलिए, हसन साहब (खां साहब) के बारे में बहुत बातें हो गईं। हम अब आज की गज़ल के गज़लगो को याद कर लेते हैं। इस गज़ल को लिखा है "फ़रहत शहज़ाद" ने, जिनकी कई सारी गज़लें मेहदी हसन साहब ने गाई हैं। हम जल्द हीं इनके बारे में भी आलेख लेकर हाज़िर होंगे। आज बस उनके लिखे इस शेर से काम चला लेते हैं: फ़ैसला तुमको भूल जाने का, एक नया ख्वाब है दीवाने का।
और यह रही आज़ की गज़ल। "नियाज़ अहमद" के संगीत से सनी इस गज़ल को हमने लिया है "कहना उसे" एलबम से। तो आनंद लीजिए हमारी आज की पेशकश का: क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यूँ चेहरा कुम्हलाया है तन्हा तन्हा रोने वालो कौन तुम्हें याद आया है
चुपके चुपके सुलग़ रहे थे याद में उनकी दीवाने इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है
रंग बिरंगी इस महफ़िल में तुम क्यूँ इतने चुप चुप हो भूल भी जाओ पागल लोगो क्या खोया क्या पाया है
शेर कहाँ है ख़ून है दिल का जो लफ़्ज़ों में बिखरा है दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गर्माया है
अब 'शहज़ाद' ये झूठ न बोलो वो इतना बेदर्द नहीं अपनी चाहत को भी परखो गर इल्ज़ाम लगाया है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
मुसीबत का पहाड़ आखिर किसी दिन कट ही जायेगा मुझे सर मार कर ___ के मर जाना नहीं आता ...
आपके विकल्प हैं - a) दीवार , b) पत्थर, c) तेशे, d) आरी
पिछली महफिल का सही शब्द था "आईना" और शेर कुछ यूं था -
वो मेरा आईना है मैं उसकी परछाई हूँ, मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन....
निदा फ़ाज़ली साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। सीमा जी, आप पिछली न जाने कितनी कड़ियों से हमारी महफ़िल की शान बनी हुई हैं। आगे भी ऐसा हीं हो, यही दुआ है। आपने कुछ शेर महफ़िल के सुपूर्द किए:
हर एक चेहरे को ज़ख़्मों का आईना न कहो| ये ज़िन्दगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो| (राहत इन्दौरी)
यही कहा था मेरे हाथ में है आईना तो मुझपे टूट पड़ा सारा शहर नाबीना। (अहमद फ़राज़)
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है। (शहरयार)
सीमा जी के बाद महफ़िल में हाज़िरी लगाई शरद जी ने। आपने अपने विशेष अंदाज में दो शेर पेश किए:
पुराने आइने में शक्ल कुछ ऐसी नज़र आई कभी तिरछी नज़र आई कभी सीधी नज़र आई लुटी जब आबरु उसकी तो मैं भी चुप लगा बैठा मग़र फिर ख्वाब में अपनी बहन बेटी नज़र आई। (आह!!!)
शामिख जी, आपकी पेशकश भी कमाल की रही। ये रही बानगी:
बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे। (कुँवर बेचैन)
अब मोहब्बत की जगह दिल में ग़मे-दौरां है आइना टूट गया तेरी नज़र होने तक। (कृष्ण बिहारी नूर)
मंजु जी, वाकई चेहरा ज़िंदगी का सच बतलाता है। आप अपनी बात कहने में सफ़ल हुई हैं:
चेहरा है आईना जिन्दगी का , सच है बतलाता जिन्दगी का।
अवध जी, आपने महफ़िल में पहली मर्तबा तशरीफ़ रखा, इसलिए आपका विशेष स्वागत है। आपने "अनवर" और "आशा सचदेव" के बारे में जो कुछ हमसे पूछा है, उसका जवाब देने में हम असमर्थ हैं। कारण यह कि अनवर साहब के व्यक्तिगत साईट पर भी ऐसा कुछ नहीं लिखा। आप यहाँ देखें। साथ हीं पेश है आपका यह शेर:
आइना देख अपना सा मुंह ले कर रह गए. साहेब को दिल न देने पे कितना गुरूर था.
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
"कुछ लोगों के बारे में कहा जाता है कि फ़लाना व्यक्ति इतनी भाग्यशाली है कि मिट्टी को भी हाथ लगाए तो वह सोना बन जाती है। कुमारी लता मंगेशकर के लिए यह बात शत प्रतिशत सही बैठती है। कितनी ही नगण्य संगीत रचना क्यों न हो, लता जी की आवाज़ उसे ऊँचा कर देती है।" दोस्तों, ये अल्फ़ाज़ थे गुज़रे दौर के बहुत ही प्रतिभाशाली और सुरीले संगीतकार एस. एन त्रिपाठी साहब के। 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, अगर मदन मोहन और लता जी के साथ की बात करें तो आम धारणा यही है कि मदन साहब ने लता जी को पहली बार सन् १९५० की फ़िल्म 'अदा' में गवाया था और तभी से उनकी जोड़ी जमी। जी हाँ यह बात सच ज़रूर है, लेकिन क्या आपको पता है कि सन् १९४८ में लता जी और मदन मोहन ने साथ साथ एक युगल गीत रिकार्ड करवाया था? चलिए आप को ज़रा तफ़सील से आज बताया जाए। हुआ युं कि मास्टर विनायक ने लता को काम दिलाने के लिए संगीतकार ग़ुलाम हैदर साहब के पास ले गए। हैदर साहब लता की आवाज़ और गायकी के अंदाज़ से इतने प्रभावित हुए कि वो उसे अपनी अगली फ़िल्म 'शहीद' में गवाने की ख़ातिर फ़िल्मिस्तान के एस. मुखर्जी के पास ले गए। लेकिन मुखर्जी साहब ने यह कह कर लता को रीजेक्ट कर दिया कि उसकी आवाज़ बहुत पतली है उस ज़माने की वज़नदार गायिकाओं के सामने। उसी वक़्त सब के सामने मास्टर ग़ुलाम हैदर ने यह घोषणा की थी कि एक दिन यही पतली आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। उनकी यह भविष्यवाणी पत्थर की लक़ीर बन कर रह गई। ख़ैर, हैदर साहब लता को फ़िल्म 'शहीद' में तो नहीं गवा सके, और 'शहीद' के गाने चले गए सुरिंदर कौर, ललिता देयोलकर और गीता राय के खाते में। लेकिन हैदर साहब ने इस फ़िल्म के लिए लता और मदन मोहन की आवाज़ों में एक युगल गीत रिकार्ड किया जो कि भाई बहन के रिश्ते पर आधारित था। एस. मुखर्जी ने इस गीत को फ़िल्म में रखने से इंकार कर दिया और इसलिए फ़िल्म के ग्रामोफ़ोन रिकार्ड पर भी यह गीत जारी नहीं हुआ।
चाहते हुए भी ग़ुलाम हैदर 'शहीद' में लता को नहीं गवा पाए, लेकिन उन्हे बहुत ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ा। उसी साल, यानी कि १९४८ में बौम्बे टाकीज़ ने बनाई फ़िल्म 'मजबूर'। और इसमें बात बन गई। ग़ुलाम हैदर के संगीत में लता के गाए इस फ़िल्म के गानें नज़रंदाज़ नहीं हुए, और लता को मिला अपना पहला लोकप्रिय गीत गाने का मौका। याद है ना आपको इस फ़िल्म का "दिल मेरा तोड़ा, हाए कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने"! हिंदू-मुसलिम प्रेम कहानी पर आधारित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे श्याम और मुनव्वर सुल्ताना। नई नई आज़ादी का जश्न मनाते हुए इस फ़िल्म में लता और मुकेश ने गाए "अब डरने की बात नहीं अंग्रेज़ी छोरा चला गया"। यह गीत भी पसंद की गई। लेकिन दोस्तों, क्योंकि यह शृंखला है लता जी के कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों को सुनने का, इसलिए हम आज इस 'मजबूर' फ़िल्म से चुन लाए हैं एक ऐसा गीत जिसे बहुत कम सुना गया और आज तो बिल्कुल नहीं सुनाई देता है कहीं से भी। यह गीत है "अब कोई जी के क्या करे जब कोई आसरा नहीं, दिल में तुम्हारी याद है और कोई इल्तिजा नहीं"। गीतकार नज़ीम पानीपती ने इस गीत को लिखा था। इससे पहले की आप यह गीत सुनें, क्यों ना अमीन सायानी द्वारा लता जी के लिए उस इंटरव्यू का एक अंश पढ़ लें जिसमें लता जी ने मास्टर ग़ुलाम हैदर से उनकी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र किया था। "मैं १९४५ में बम्बई आयी, मैं नाना चौक में, एक जगह है जहाँ हम लोग रहने लगे। हमारी कंपनी में एक कैमरामैन थे, वो मेरे पास आए, कहने लगे कि एक म्युज़िक डिरेक्टर हैं जिन्हे नई सिंगर की ज़रूरत है। तो तुम अगर गाना चाहो तो चलो। हरिशचंद्र बाली उनका नाम था। उनको मैने गाना सुनाया तो उनको बहुत अच्छा लगा। जब उनके गाने मैं रिकार्ड कर रही थी तब एक एक्स्ट्रा सप्लायर होते हैं ना हमारी फ़िल्मों में, वो एक आया, उसने मुझे आ के कहा कि कल तुम फ़िल्मिस्तान में आना, मास्टर ग़ुलाम हैदर आए हैं, उन्होने तुमको बुलाया है। जब मै मास्टर जी को मिलने गई तो उन्होने कहा कि तुम गाना सुनाओ। मैने एक गाना उनका सुनाया, उनकी ही पिक्चर का का कोई गाना। ग़ुलाम हैदर से मैने एक बात सीखी थी कि बोल बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए और दूसरी बात यह कि जहाँ पर 'बीट' आता है, थोड़ा सा ज़ोर देना ताकी गाना एक दम उठे।" तो दोस्तों आज की इस कड़ी में लता जी के साथ साथ मास्टर ग़ुलाम हैदर, मदन मोहन, एस. एन. त्रिपाठी, और थोड़ी बहुत हरिशचंद्र बाली की भी बातें हो गईं, तो चलिए अब इस दुर्लभ गीत को सुना जाए, जिसे हमें उपलब्ध करवाया नागपुर के अजय देशपाण्डे जी ने, जिनके हम बेहद आभारी हैं।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का एक और दुर्लभ गीत. २. गीतकार हैं मुल्कराज भाकरी. ३. हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में बने इस गीत को "चुप चुप खड़े हो" वाले अंदाज़ में बुना गया है.
पिछली पहेली का परिणाम - रोहित जी वाह एक दम सही जवाब ...३ अंक जुड़े आपके खाते में, पराग जी आपने जिस गीत की याद दिलाई वो भी गजब का है
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
ताजा सुर ताल में आज में आज सुनिए हिंदुस्तान की अब तक की सबसे महंगी फिल्म "ब्लू" का एक गुस्ताख गीत
सुजॉय - सजीव, लगता है कि अब वह वक़्त आ गया है कि हमारे यहाँ भी पारंपरिक फ़िल्मी कहानियों से आगे निकलकर हॉलीवुड की तरह नए नए विषयों पर फ़िल्में बनने लगी हैं।
सजीव- किस फ़िल्म की तरफ़ तुम्हारा इशारा है सुजॉय?
सुजॉय- अक्षय कुमार की नई फ़िल्म 'ब्लू'। इस ऐक्शन फ़िल्म की कहानी केन्द्रित है समुंदर के नीचे छुपे हुए ख़ज़ाने की जिसकी रखवाली कर रहे हैं शार्क मछलियाँ। अमेरिकी लेखक जोशुआ लुरी और ब्रायान सुलिवन ने इस कहानी को लिखा है और गायिका कायली मिनोग ने भी अतिथी कलाकार के रूप में इस फ़िल्म में एक गीत गाया है जो उन्ही पर फ़िल्माया गया है।
सजीव- हाँ, मैने भी सुना है इस फ़िल्म के बारे में। क्यों ना थोड़ी सी जानकारी और दी जाए इस फ़िल्म से संबंधित! कहानी ऐसी है कि सागर और सैम दो भाई हैं, जिन्हे गुप्तधन ढ़ूंढने का ज़बरदस्त शौक है। सागर की पत्नी मोना के साथ वे बहामा के लिए निकल पड़ते हैं समुंदर के २०० फ़ीट नीचे छुपे किसी ख़ज़ाने को ढ़ूंढने के लिए। लेकिन उनकी मुलाक़त होती है आरव से जो उसी गुप्तधन को ढ़ूंढने के लिए वहाँ पे आया हुआ है। फ़िल्म का ज़्यादातर हिस्सा समुंदर के नीचे फ़िल्माया गया है, और इसीलिए फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया है 'ब्लू'।
सुजॉय- भई, मुझे तो बहुत इंटरेस्टिंग लग रही है, मैं तो ज़रूर देखूँगा यह फ़िल्म। वैसे फ़िल्म में कलाकार भी अच्छे हैं - संजय दत्त, अक्षय कुमार, ज़ायद ख़ान और लारा दत्ता। इन्ही चार लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है कहानी। सुना है कि बैंकॉक में इन सभी कलाकारों को फ़िल्म की शूटिंग शुरु होने से पहले स्कूबा डायविंग की ट्रेनिंग लेनी पड़ी है। अच्छा सजीव, पता है फ़िल्म में संगीत किसका है?
सजीव- हाँ, ए. आर. रहमान का। कुल ७ ट्रैक्स हैं इस ऐल्बम में। गानें लिखे हैं अब्बास टायरवाला, मयूर पुरी और रक़ीब आलम ने, और गीतों में आवाज़ें हैं सोनू निगम, उदित नारायण, श्रेया घोषाल, सुखविंदर सिंह, राशिद अली, नीरज श्रीधर, मधुश्री, सोनू कक्कर, विजय प्रकाश, जसप्रीत सिंह, दिल्शाद और रक़ीब की, साथ ही एक गीत में कायली मिनोग और सुज़ैन डी'मेलो की भी आवाज़ें हैं।
सुजॉय- यानी की ये ऑस्कर में जीत के बाद रहमान साहब की पहली प्रर्दशित फिल्म होगी, तो आज हम कौन सा गीत सुनवाएँगे?
सजीव- वही गीत जो इन दिनों काफ़ी सुना और देखा जा रहा है। श्रेया और सुखविंदर का गाया "आज दिल गुस्ताख़ है, पानियों में आग है"। ये एक पेशानेट गीत है और श्रेया ने खूब जम कर गाया है इसे, ३ बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित इस गायिका ने खुद को कभी किसी इमेज में कैद नहीं होने दिया....हाँ सुखविंदर की आवाज़ कुछ ख़ास नहीं जमी इस गीत में....हो सकता है उनका चुनाव नायक संजय दत्त को जेहन में रख कर किया गया है....
सुजॉय- मैने यह गीत सुना है, और बहुत दिनों के बाद ऐसा लगा कि ए. आर. रहमान कुछ अलग हट के बनाया है, वर्ना पिछले कई फ़िल्मों से पीरियड फ़िल्मों में संगीत देते देते वो थोड़े से टाइप-कास्ट होते जा रहे थे।
सजीव- हाँ, दरअसल रहमान साहब फिल्म के मूड के हिसाब से संगीत देने में माहिर हैं, अब यदि तेज़ बीट्स संगीत की बात की जाए तो "हम से मुकाबलa" से लेकर "गजनी" तक एक लम्बी सूची है, वहीँ आत्मीय और मेलोडी वाले संगीत पर गौर करें तो "रोजा" से लेकर 'जोधा अकबर" और "जाने तू..." जैसी फिल्मों में उनका संगीत कितना मधुर था ये बात हम सब जानते हैं. "ब्लू" की अगर बात की जाए तो ये एक तेज़ तर्रार एक्शन फिल्म है तो जाहिर है इसमें हर रंग का कुछ न कुछ होना चाहिए था, इस बड़े बजट फिल्म संगीत भी बड़े कैनवास का दिया है रहमान ने. कहते हैं कायली पर जो गीत फिल्माया गया है उस पर पूरे ६ करोड़ का खर्चा आया है, सुजोय अगर ६ करोड़ मिल जाए तो आप कितनी फिल्में बना सकते हैं ?
सुजॉय - कम से कम २ अच्छी फिल्में तो बन ही सकती है....
सजीव - तो सोचिये हमारी दो फिल्मों का खर्चा लेकर इन लोगों ने एक गीत फिल्मा दिया .....हा हा हा...खैर बड़े निर्माताओं की बड़ी बातें हैं ये...हम जिस गीत की आज बात कर रहे हैं इस गीत में भी जहाँ एक तरफ़ रोमांस है, वहीं दूसरी ओर इसका म्युज़िक ऐरेंजमेंट भी कमाल का है।
सुजॉय - ऐकोस्टिक गीटार का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल सुनने को मिलता है इस गीत में, और जो ध्वनियाँ, जो संगीत इस गीत में सुनाई देता है वह बहुत ही मॊडर्ण है, कॊंटेम्पोररी है, लेकिन एक मेलडी भी है, मिठास भी है। अनर्थक शोर शराबा नहीं है, बल्कि एक सूथिंग नंबर है। कई बार सुनते सुनते गीत ज़हन में बसने लगता है। एक और बात कि इस गीत का जो अंत है, उसमें गीत का वॊल्युम धीरे धीरे कम हो कर गीत समाप्त हो जाता है। इस तरह का समापन पुराने दौर में काफ़ी सुनने को मिला है, लेकिन पिछले दो दशकों के गीतों को अगर आप सुनें तो पाएँगे कि गानें झट से समाप्त होते हैं ना कि ग्रैजुअली। तो बहुत दिनों के बाद इस तरह का ग्रैजुअल एंडिंग सुनने को मिला है।
सजीव- बिल्कुल! ऑस्कर मिलने के बाद अब रहमान से काफ़ी उम्मीदें हैं सभी को। तो ज़ाहिर बात है कि वो जल्द बाज़ी में आकर अपने संगीत के स्तर को गिरने नहीं देंगे, और आगे भी नए नए उनके प्रयोग हमें सुनने को मिलेंगे। तुम कितने अंक दोगे इस गीत को?
सुजॉय - मैं दूँगा ४ अंक। आपका क्या ख़याल है?
सजीव - बिलकुल सही मैं भी ४ अंक दूंगा.
सुजॉय- तो चलिए सुनते हैं गीत, इस फ़िल्म से तो मुझे बहुत सारी उम्मीदें हैं, देखते हैं कि फ़िल्म कैसी बनी है। एक बात तो ज़ाहिर है कि अगर हमारी जनता ने फ़िल्म को सर आँखों पर बिठा लिया तो आगे भी इस तरह की ग़ैर पारंपरिक फ़िल्में हमारे यहाँ और भी बनेंगी। क्या पता यह एक ट्रेंडसेटर फ़िल्म साबित हो जाए!
सजीव- ज़रूर! हमारी शुभकामनाएँ फ़िल्म के निर्माता धिलिन मेहता के साथ है....
आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
२८ सितंबर १९२९। मध्य प्रदेश के इंदौर में जन्म हुआ था एक बच्ची का। कहा जाता है कि गंगा नदी शिव जी की जटा से इस धरती पर उतरी थी, पर सुर की गंगा तो स्वर्ग से सीधे इस बच्ची के गले में उतर गई और तब से लेकर आज तक हम सब को अपनी उस आवाज़ के बारिश से भीगो रही है जिस आवाज़ की तारीफ़ में कुछ कहना सिवाय वक़्त के बरबादी के और कुछ भी नहीं है। दोस्तों, कितने ख़ुशनसीब हैं वो लोग जिनका जन्म इस बच्ची के जन्म के बाद हुआ। अफ़सोस तो उन लोगों के लिए होता है जो इस सुर गंगा में नहाए बिना ही इस धरती से चले गए। ये बच्ची आगे चलकर बनी ना केवल इस देश की आवाज़, बल्कि युं भी कह सकते हैं कि ये आवाज़ है पिछली सदी की आवाज़, इस सदी की आवाज़, और आगे आनेवाली तमाम सदियों की आवाज़। फ़िल्म संगीत में हम और आप जैसे संगीत प्रेमियों की अपनी अपनी पसंद नापसंद होती है, मगर हर किसी के पसंद की राहें जिस एक लाजवाब मंज़िल पर जा कर मिल जाती हैं, उस मंज़िल का नाम है सुरों की मलिका, कोकिल कंठी, मेलडी क्वीन, सुर साम्राज्ञी, भारत रत्न, लता मंगेशकर। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रहा है लता जी पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है'। लता जी के गाए गीतों में से दस लाजवाब गीतों को चुनना अकल्पनीय बात है। इसीलिए हम इस शृंखला के लिए वह राह इख़्तियार नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम वह राह चुन रहे हैं जिसमें हैं लता जी के गाए कुछ भूले बिसरे और बेहद दुर्लभ नग़में, जो शायद ही आज आप को कहीं मिल सके, या कहीं और आप इन्हे सुन सके। और हमारी इसी योजना को साकार करने के लिए सामने आए नागपुर के अजय देशपाण्डे जी, जिन्होने लता जी के गाए दुर्लभतम गीतों में से १० गानें चुन कर हमें भेजे, जिनमें से ५ गीत हैं ख़ुश रंग और ५ गीत हैं कुछ ग़मज़दा क़िस्म के। हम तह-ए-दिल से उनका शुक्रिया अदा करते हैं क्योंकि उनके इस सहयोग के बिना इस शृंखला की हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
लता मंगेशकर के गाए भूले बिसरे और दुर्लभ गीतों की बात करें तो लता जी के संगीत सफ़र की शुरुआती सालों में, यानी कि ४० के दशक में उन्होने कुछ ऐसे फ़िल्मों में गानें गाए थे जो बहुत ज़्यादा चर्चित नहीं हुए। उस ज़माने में पंजाबी शैली में गाने वाली तमाम वज़नदार आवाज़ों वाली गायिकाओं के गाए गीतों के बीच लता की धागे से भी पतली आवाज़ कहीं दब कर रह गई। अपने पिता की अकाल मृत्यु की वजह से १२ साल की लता ने अपने परिवार का ज़िम्मा अपने कंधों पर लिया और इस फ़िल्मी दुनिया में पहली बार क़दम रखा। साल था १९४२ और फ़िल्म थी मास्टर विनायक की मराठी फ़िल्म 'पहली मंगलागौर', जिसमें उन्होने बाल कलाकार का एक चरित्र निभाया और इसी फ़िल्म में उनका पहला गीत भी रिकार्ड हुआ। इस मराठी गीत के बोल थे "सावन आला तरु तरु ला बांगू हिंदोला"। उसके बाद लता ने कुछ और फ़िल्मों में अभिनय किया और कुछ गानें भी गाए। किसी हिंदी फ़िल्म में उनका गाया पहला गीत था सन् १९४६ की फ़िल्म 'सुभद्रा' का, जिसमें उन्होने शांता आप्टे के साथ मिलकर गाया था "मैं खिली खिली फुलवारी", जिसके संगीतकार थे वसंत देसाई साहब और जिस फ़िल्म में लता ने अभिनय भी किया था। प्लेबैक की अगर बात करें तो किसी अभिनेत्री के लिए लता का गाया हुआ पहला गीत था १९४७ की फ़िल्म 'आपकी सेवा में' का "पा लागूँ कर जोरी रे, श्याम मोसे न खेलो होरी"। इसी साल, यानी कि १९४७ की आख़िर में एक गुमनाम फ़िल्म आयी थी 'आशा'। फ़िल्म कब आयी और कब गई पता ही नहीं चला। शायद देश विभाजन की अफ़रा-तफ़री में लोगों ने इस फ़िल्म की तरफ़ ध्यान नहीं दिया होगा! और इस फ़िल्म में लता का गाया गीत भी गुमनामी के अंधेरे में खो गया। आज लता जी पर केन्द्रित इस शृंखला की शुरुआत हम इसी फ़िल्म 'आशा' के एक गीत से कर रहे हैं। मेघानी निर्देशित इस फ़िल्म के नायक थे रामायण तिवारी। फ़िल्म के संगीतकार थे खेमचंद प्रकाश, जिन्होने लता को दिया था सही अर्थ में उनका पहला सुपरहिट गीत "आयेगा आनेवाला", फ़िल्म 'महल' में। तो लीजिए दोस्तों, फ़िल्म 'आशा' का गीत प्रस्तुत है, जिसके बोल हैं "दूर जाए रे राह मेरी आज तेरी राह से"। लेकिन हम यही कहेंगे कि हमारी राहों में लता जी की आवाज़ युगों युगों तक एक विशाल वट वृक्ष की तरह शीतल छाँव प्रदान करती रहेंगी, अपनी आवाज़ की अमृत गंगा से करोड़ों प्यासों की प्यास बुझाती रहेंगी... सदियों तक।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का ये दुर्लभ गीत. २. गीतकार हैं नजीम पानीपती. ३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"आसरा".
पिछली पहेली का परिणाम - शरद जी शानदार वापसी है, बधाई....३ अंकों के सतह खाता खुला है आपका फिर एक बार. दिलीप जी आपने जिन दो गीतों का जिक्र किया है वो भी आपको जल्दी सुनवायेंगें. पूर्वी जी और पराग जी यदि शरद जी और स्वप्न जी इस स्तिथि से भी आप लोगों से आगे निकल जाते हैं तो ये वाकई शर्म की बात होगी, इसलिए कमर कस लीजिये....नाक मत काटने दीजियेगा :) अर्चना जी हर रोज नज़र आया करें....हम हाजरी रजिस्टर रखते हैं यहाँ
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का रंग ज़रा अलग है दोस्तों, क्योंकि आज हम आप के लिए लेकर आए हैं एक अंग्रेज़ी गीत। घबराइए नहीं दोस्तों, यह कोई विदेशी पॉप अल्बम का गीत नहीं है, बल्कि यह गीत है सन् १९७५ की फ़िल्म 'जूली' का "My heart is beating"| प्रीति सागर का गाया यह गीत हिंदी फ़िल्म संगीत का शयद एकमात्र ऐसा गीत है जो पूरा का पूरा अंग्रेज़ी भाषा में लिखा गया है। १८ मार्च को प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म का निर्माण किया था बी. नागी रेड्डी ने और निर्देशक थे के. एस. सेतूमाधवन। लक्ष्मी और विक्रम थे हीरो हीरोइन, लेकिन वरिष्ठ अभिनेत्री नादिरा ने इस फ़िल्म में नायिका की माँ के किरदार में एक बेहद सशक्त भूमिका अदा की थी जिसके लिए उन्हे फ़िल्म-फ़ेयर के सर्वशेष्ठ सह-अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि सन् १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' के लिए जब वैजयंतीमाला ने फ़िल्म-फ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार यह कह कर लेने से इंकार कर दिया था कि वो उस फ़िल्म में सह अभिनेत्री नहीं बल्कि मुख्य अभिनेत्री हैं, तब इस पुरस्कार के लिए नादिरा का नाम निर्धारित किया गया था फ़िल्म 'श्री ४२०' के तहत। लेकिन नादिरा ने भी पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया यह कह कर कि वो मेरिट पर पुरस्कार लेना ज़्यादा पसंद करेंगी ना कि किसी के ठुकराए हुए पुरस्कार को। और देखिए, उसके ठीक २० साल बाद, १९७५ में उन्हे फ़िल्म 'जूली' के लिए यह पुरस्कार मिला। श्रीदेवी का इसी फ़िल्म से पदार्पण हुआ था हिंदी फ़िल्म जगत में बतौर बाल कलाकार। 'जूली' का संगीत बेहद मक़बूल हुआ, संगीतकार राजेश रोशन को उस साल इस फ़िल्म के लिए फ़िल्म-फ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार दिया गया था। फ़िल्म की कहानी एक ऐंग्लो-इंडियन परिवार पर आधारित होने की वजह से इसमें एक अंगेज़ी गीत की गुंजाइश बन गई। युं तो फ़िल्म के बाक़ी गीत आनंद बक्शी साहब ने लिखे, लेकिन इस गीत को लिखा था हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने। आप को पता है न ये कौन साहब हैं? जी हाँ, फ़िल्म 'बावर्ची' में वयो वृद्ध पिता जी की भूमिका अदा करने वाले शख्स ही हरिन्द्रनाथ जी हैं जिन्होने बहुत सारी फ़िल्मों में अविस्मरणीय किरदार निभाए हैं। तो उन्ही का लिखा हुआ यह गीत है और प्रीति सागर ने भी क्या ख़ूब गाया है। 'जूली' फ़िल्म के इसी गीत से रातों रात प्रीति ने हलचल मचा दी थीं फ़िल्म संगीत जगत में। उस साल सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार दिया गया था सुलक्षणा पंडित को फ़िल्म 'संकल्प' में उनके गाए गीत "तू ही सागर है" के लिए। लेकिन प्रीति सागर के इस गीत की चरम लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्हे उसी साल एक विशेष फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आगे चलकर सन् १९७७ की फ़िल्म 'मंथन' के मशहूर गीत "मेरो गाम काठा पारे" के लिए उन्हे सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार दिया गया।
"My heart is beating" भले ही अंग्रेज़ी गीत है, लेकिन राजेश रोशन ने मेलडी का भरपूर ध्यान रखा है जो यहाँ के श्रोताओं को अपील कर सके। गीटार, फ़्ल्युट और सैक्सोफ़ोन का बहुत सुंदर प्रयोग उन्होने इस गीत में किया है। दोस्तो, इस गीत को सुनने का मज़ा आप को तभी आएगा जब आप इस गीत को सुनते हुए ख़ुद भी गुनगुना सके। इसीलिए मैं नीचे इस गीत के बोल लिख रहा हूँ रोमन में। अब आप इस गीत को सुनते हुए ख़ुद भी गाइए और झूम जाइए।
My heart is beating, keeps on repeating, I am waiting for you, My love encloses, a plot of roses, And when shall be then, our next meeting, 'Cos love you know, That time is fleeting, time is fleeting, time is fleeting.
Oh, when I look at you, The blue of heaven seems to be deeper blue, And I can swear that, God Himself, seems to be looking through, Zu-zu-zu-zu, I'll never part from you, And when shall be then, our next meeting, 'Cos love you know, That time is fleeting, time is fleeting, time is fleeting.
Spring is the season, That rolls the reason of lovers who are truly true, Young birds are mating, while I am waiting, waiting for you, Darling you haunt me, say do you want me? And if it so, when are we meeting, 'Cos love you know, That time is fleeting, time is fleeting, time is fleeting. My heart is beating...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी स्वर सम्राज्ञी लता के कुछ दुर्लभ गीतों पर हमारी विशेष शृंखला, इस पहेली का सही जवाब देने पर आपको मिलेगा 1 बोनस अंक..यानी विजेता को 2 की जगह 3 अंक मिलेंगें, पहचानिये लता का ये गीत. २. इस गीत के संगीतकार वो हैं जिन्होंने लता को उनका पहला हिट गीत "आएगा आने वाला" दिया था. ३. मुखड़े की पहली पंक्ति में इस शब्द का दो बार इस्तेमाल हुआ है -"राह"
पिछली पहेली का परिणाम - क्या बात है लगता है हमारे पुराने योधा लौट रहे हैं फॉर्म में, दिलीप जी, एक सही गीत बधाई, आपके अंक हुए ४....सभी श्रोता तैयार रहें २११ से २२० तक हम ओल्ड इस गोल्ड में तलाशेंगें लता जी के कुछ दुर्लभ गीतों को, अगली दस पहेलियों के सही जवाब आपको दिलवाएंगें २ की जगह ३ अंक....यानी हर सही जवाब आपको देगा एक अतिरिक्त अंक. इसे प्रतिभागी हमारा दिवाली बोनस मानें....:), और हाँ कल की पहेली से हमारे पहले दो विजेता शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी भी प्रतियोगिता में शामिल हो सकते हैं....आपके अंक फिर एक बार शून्य से शुरू होंगें....तो चलिए शुभकामनाएँ सभी को. उम्मीद है मुकाबला रोचक होने वाला है. खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
अमूमन तीन या चार कड़ियों से हमारी प्रश्न-पहेली का हाल एक-सा है। तीन प्रतिभागी (नाम तो सभी जानते हैं) अपने जवाबों के साथ इस पहेली का हिस्सा बनते हैं, उनमें से हर बार "सीमा" जी प्रथम आती हैं और बाकी दो स्थानों के लिए शामिख जी और शरद जी में होड़ लगी होती है। भाईयों बस दूसरे या तीसरे स्थान के लिए हीं होड़ क्यों है, पहले पर भी तो नज़र गड़ाईये। इस तरह तो बड़े हीं आराम से सीमा जी न जाने कितने मतों (यहाँ अंकों) के साथ विजयी हो जाएँगी और आपको बस दूसरे स्थान से हीं संतोष करना होगा। अभी भी ४ कड़ियाँ बाकी हैं (आज को जोड़कर),इसलिए पूरी ताकत लगा दीजिए। इस उम्मीद के साथ कि आज की पहेली में काँटे की टक्कर देखने को मिलेगी, हम पिछली कड़ी के अंकों का खुलासा करते हैं: सीमा जी: ४ अंक, शामिख जी: २ अंक और शरद जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की, तो कमर कस लीजिए। ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) एक शायर जिसने अपने एक मित्र के लिए कहा था "आज तेरी एक नज़्म पढी"। जवाब में उस मित्र ने भी उस शायर से अपना पहचान जन्मों का बताया और कहा "कहीं पहले मिले हैं हम"। शायर के साथ-साथ उसके मित्र का भी नाम बताएँ। २) एक गायिका जिसके साथ ८ जुलाई १९९० को कुछ ऐसा हुआ कि उसने गायकी से तौबा कर ली। उस गायिका का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि हमने उसकी जो गज़ल सुनवाई थी(साथ में एक और गायक थे), उसे किसने लिखा था?
आज हम जिस गज़ल को लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं, उस गज़ल के गायक को पहचानने में कई बार लोग गलती कर जाते हैं। ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि इस गज़ल को मोहम्मद रफ़ी साहब ने अपनी आवाज़ से सजाया है और लोगों का यह मानना इसलिए भी जायज है क्योंकि एक तो आई०एम०डी०बी० पर उन्हीं का नाम दर्ज है और फिर इस गज़ल के गायक की आवाज़ मोहम्म्द रफ़ी साहब से हुबहू नहीं भी तो कमोबेश तो जरूर मिलती है। वैसे बता दें कि यह गज़ल जिस फ़िल्म (हाँ यह गैर-फ़िल्मी रचना नहीं है, लेकिन चूँकि यह गज़ल इतनी खुबसूरत है कि हमें इसे अपनी महफ़िल में शामिल करने का फ़ैसला करना पड़ा) से ली गई है वह रीलिज़ हुई थी १९८४ में और रफ़ी साहब १९८० में सुपूर्द-ए-खाक हो गए थे, इसलिए इस गज़ल के साथ उनका नाम जोड़ना इस तरह भी बेमानी साबित होता है। तो चलिए, हम इतना तो जान गए कि इसे रफ़ी साहब ने नहीं गाया तो फिर कौन है इसका असली गायक? आप लोगों ने फिल्म "नसीब" का "ज़िंदगी इम्तिहान लेती है" या फिर "अर्पण" का "मोहब्बत अब तिज़ारत बन गई है" तो ज़रूर हीं सुना होगा...तो इस गज़ल को भी उन्होंने हीं गाया है जिन्होने उन गीतों में अपनी आवाज़ की जान डाली थी यानि कि अनवर (पूरा नाम: अनवर हुसैन)। "मेरे ख्यालों की रहगुजर से" - इस गज़ल को लिखा है हिन्दी फिल्मी गीतों के बेताज़ बादशाह "आनंद बख्शी" ने तो संगीत से सजाया है उस दौर की जानी मानी संगीतकार जोड़ी "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल" ने। एल०-पी० के बारे में "ओल्ड इज गोल्ड" पर तो बातें होती हीं रहती हैं, इसलिए उनके बारे में हम यहाँ कुछ भी नया नहीं कह पाएँगे। बक्शी साहब के बारे में हम पिछली दो कड़ियों में बहुत कुछ कह चुके हैं। हमें मालूम है कि उतना पर्याप्त नहीं है,लेकिन चूँकि अनवर हमारे लिए नए हैं, इसलिए आज हम इन्हें मौका दे रहे हैं। अनवर का जन्म १९४९ में मुंबई में हुआ था। उनके पिता जी संगीत निर्देशक "गुलाम हैदर" के सहायक हुआ करते थे। अनवर बहुत सारे कंसर्ट्स में गाया करते थे। ऐसे हीं एक कंसर्ट में जनाब "कमल राजस्थानी" ने उन्हें सुना और उन्हें फिल्म "मेरे ग़रीब नवाज़" के लिए "कसमें हम अपनी जान की" गाने का अवसर दिया। कहते हैं कि इस गाने को सुनकर रफ़ी साहब ने कहा था कि "मेरे बाद मेरी जगह लेने वाला आ गया है"। अनवर ने इसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता, हीर-राँझा, विधाता, प्रेम-रोग, चमेली की शादी जैसी फ़िल्मों के लिए गाने गाए। यह सच है कि अनवर के नाम पर बहुत सारे सफ़ल गाने दर्ज हैं लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि रफ़ी साहब की बात सच न हो सकी।
कहा जाता है कि जनता हवलदार और अर्पण के गीतों से मिली अपार लोकप्रियता ने उन्हें न केवल घमंडी बना दिया था, बल्कि वे नशे के आदी भी हो गए थे, इसलिए म्यूजिक डायरेक्टरों ने उनसे किनारा करना शुरू कर दिया। हालांकि अनवर इन आरोपों को सिरे से नकारते हैं। इस बारे में वे कहते हैं(सौजन्य: जागरण): न तो कामयाबी ने मुझे मगरूर बनाया, न ही मैं नशे का आदी हुआ! इसे मेरी बदकिस्मती कह सकते हैं कि तमाम सुरीले गीत गाने के बावजूद प्लेबैक में मेरा करियर बहुत लंबा नहीं खिंच सका! जहां तक मेरे घमंडी और शराबी होने की बात है, तो इसके लिए मैं एक अखबार नवीस को जिम्मेदार ठहराता हूँ। हुआ ये कि एक बार एक मित्र ने हमारा परिचय एक फिल्म पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार से कराया। उसके काफी समय बाद सॅलून में उस पत्रकार से मेरी मुलाकात हुई, तो उन्हें मैं नहीं पहचान सका। बस, इसी बात का उन्हें बुरा लग गया और उन्होंने अपनी पत्रिका में मेरे बारे में अनाप-शनाप लिखना शुरू कर दिया। चूंकि उस दौर में उस पत्रिका का काफी नाम था, इसलिए उस लेख के प्रकाशन के बाद लोगों के बीच मेरी खराब इमेज बन गई। सच बताऊं, तो काफी हद तक उस पत्रकार महोदय ने भी मेरा काफी नुकसान किया। मेरे कैरियर में उतार-चढ़ाव के लिए इन अफवाहों के साथ म्यूजिक इंडस्ट्री में आया बदलाव भी एक हद तक जिम्मेदार है। महेश भट्ट की फिल्म आशिकी ने फिल्म म्यूजिक को एक अलग दिशा दी, लेकिन उसके बाद कॉपी वर्जन गाने वाले गायकों को इंडस्ट्री सिर पर बिठाने लगी और इसीलिए मौलिक गायक हाशिये पर चले गए। ऐसे में मुझे भी काम मिलने में दिक्कत हो रही थी। अच्छे गीत नहीं मिल रहे थे, जबकि विदेशों में शो के मेरे पास कई ऑफर थे। कुछ अलग करने के इरादे से ही मैं कैलीफोर्निया (अमेरिका) चला गया और वहां शो करने लगा। वहां के लोगों ने मुझे इतना प्यार दिया कि मैं वहीं का हो गया। मैं व्यवसाय के कारण भले ही अमेरिका में रहता हूं, लेकिन दिल हमेशा अपने देश में ही रहता है। ऐसे में जब यहां के लोग कुछ अलग और नए की फरमाइश करते हैं, तो मन मारकर रह जाता हूं। म्यूजिक कंसर्ट और शो में ही काफी बिजी रहने के कारण मेरी रुचि अब प्लेबैक में नहीं रही। हालांकि अच्छे ऑफर मिलने पर मैं प्लेबैक से इंकार नहीं करूँगा, लेकिन खुद इसके लिए पहल मैं कतई नहीं करने वाला। पहले भी काम मांगने किसी के पास नहीं गया था और आज भी मैं उस पर कायम हूं। हां, यदि पहले की तरह अच्छे गीत मिलें और म्यूजिक डायरेक्टर मेरे साथ काम करना चाहें, तो उन्हें निराश नहीं करूंगा। तो इस तरह हम वाकिफ़ हुए उन घटनाओं से जिस कारण अनवर को फिल्मों में गायकी से मुँह मोड़ना पड़ा। चलिए अब हम आगे बढते हैं आज की गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं। उससे पहले "आनंद बख्शी" का लिखा एक बड़ा हीं खुबसूरत शेर पेश-ए-खिदमत है: ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है, तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है।
और यह रही आज़ की गज़ल: मेरे ख़यालों की रहगुज़र से वो देखिए वो गुज़र रहे हैं, मेरी निगाहों के आसमाँ से ज़मीन-ए-दिल पर उतर रहे हैं।
ये कैसे मुमकिन है हमनशीनो कि दिल को दिल की ख़बर न पहुंचे, उन्हें भी हम याद आते होंगे कि जिन को हम याद कर रहे हैं।
तुम्हारे ही दम क़दम से थी जिन की मौत और ज़िंदगी अबारत, बिछड़ के तुम से वो नामुराद अब न जी रहे हैं न मर रहे हैं।
इसी मोहब्बत की रोज़-ओ-शब हम सुनाया करते थे दास्तानें, इसी मोहब्बत का नाम लेते हुए भी हम आज डर रहे हैं।
चले हैं थोड़े ही दूर तक बस वो साथ मेरे 'सलीम' फिर भी, ये बात मैं कैसे भूल जाऊँ कि हम कभी हमसफ़र रहे हैं।
इस गज़ल के "मकते" में तखल्लुस के रूप में "सलीम" को पढकर कई लोग इस भ्रम में पड़ सकते हैं कि इस गज़ल को किसी "सलींम" नाम के शायर ने लिखा है। लेकिन सच ये है कि "ये इश्क़ नहीं आसान" फिल्म में "ऋषि कपूर" का नाम "सलींम अहमद सलीम" था। अब चूँकि नायक शायर की भूमिका में था, इसलिए उसकी कही गई गज़ल में उसके नाम को "तखल्लुस" के रूप में रखा गया है। यह बात अच्छी तो लगती है, लेकिन हमारे अनुसार ऐसा और कहीं नहीं हुआ। यह तो "बख्शी" साहब का बड़प्पन है कि उन्होंने ऐसा करना स्वीकार किया। क्या कहते हैं आप?
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
वो मेरा ___ है मैं उसकी परछाई हूँ, मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन....
आपके विकल्प हैं - a) अक्स, b) सरमाया, c) हमसाया, d) आईना
पिछली महफिल का सही शब्द था "इम्तिहाँ" और शेर कुछ यूं था -
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही, इम्तिहाँ और भी बाकी हो तो ये भी न सही..
जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर को सबसे पहले सही पकड़ा सीमा जी ने। सीमा जी ने ग़ालिब के शेरों से महफ़िल को खुशगवार बना दिया, लगता है कि आप कई दिनों से ग़ालिब का हीं इंतज़ार कर रहीं थीं। ये रहे आपके पेश किए शेर:
मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में यारब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना (ग़ालिब )
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो (ग़ालिब )
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं (मोहम्मद इक़बाल) यह तो बड़ा हीं मशहूर शेर है...शुक्रिया कि आपने इसे यहाँ रखा।
सीमा जी के बाद महफ़िल में इंट्री हुई शामिख जी की। आपने भी कुछ लुभावने शेर पेश किए। ये रही बानगी:
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी (श्रद्धा जी..मतलब कि हमारी दीदी)
इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा इक नया इम्तिहान बाक़ी है (राजेश रेड्डी)
यह है इब्तदा-ए-सहर-ए-मोहब्बत इन्तहाने-इम्तिहाँ के लिए मरता हूँ
इनके बाद महफ़िल में एक तरतीब में हाज़िर हुए शरद जी, शन्नो जी और मंजु जी। आप तीनों के नाम हम एक साथ इसलिए लिखते हैं क्योंकि जब भी स्वरचित शेरों की बात आती है तो आपका हीं नाम आता है। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर(क्रम से):
किसी राह चलती को छेडो न यारो अभी इस के आगे जहाँ और भी हैं ये जूतों की बारिश तो है पहली मन्ज़िल अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं । (क्या बात है!! )
कितने ही इम्तहान ले चुकी है जिन्दगी खुदा जाने और भी कितने बाकी हैं.
जीवन इम्तहाँ का है नाम, कोई होता फ़ेल तो कोई पास।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'ओआज है २१ सितंबर। इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी और व्यस्ततता के बीच हम अक्सर भूल जाते हैं गुज़रे ज़माने के उन सितारों को जिनकी चमक आज भी रोशन कर रही है फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को। आज है मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ का जनम दिवस। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में आज नूरजहाँ की याद में हम आप को सुनवा रहे हैं "बैठी हूँ तेरी याद का लेकर के सहारा, आ जाओ के चमके मेरी क़िस्मत का सितारा"। फ़िल्म 'गाँव की गोरी' का यह गीत है जिसे 'विलेज गर्ल' की भी शीर्षक दिया गया था। हो सकता है अंग्रेज़ सरकार को ख़ुश करने के लिए!!! यह १९४५ की फ़िल्म थी, और दोस्तों मुझे ख़याल आया कि शायद यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अब तक बजने वाला सब से पुराना गीत होना चाहिए। १९४५ में नूरजहाँ की लोकप्रियता अपने पूरे शबाब पर थी। 'भाईजान', 'गाँव की गोरी', 'ज़ीनत', और 'बड़ी माँ' जैसी फ़िल्मों के गानें गली गली गूँज रहे थे। 'गाँव की गोरी' के संगीतकार थे श्यामसुंदर और गीतकार थे वली साहब। नूरजहाँ का गाया इस फ़िल्म का प्रस्तुत गीत ना केवल इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत साबित हुआ, यह गीत नूरजहाँ के यहाँ पर गाए हुए सब से कामयाब गीतों में से भी एक है। और्केस्ट्रेशन की दृष्टि से यह गीत श्यामसुंदर के इससे पहले की रचनाओं से बेहतर है। उन दिनों हिंदी के बजाय उर्दू के बोल गीतों पर हावी हुआ करते थे। इस गीत में भी वली साहब ने अदबी अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल किया है, जिसे आप ख़ुद सुन कर महसूस कर सकते हैं।
दोस्तों, १९४७ में देश के विभाजन के बाद नूरजहाँ को मजबूरन पाक़िस्तान चले जाना पड़ा। संगीत कोई सरहद, कोई सीमा नहीं मानती, और यही वजह थी कि नूरजहाँ को जितना प्यार पाक़िस्तान में मिला, उतना ही प्यार हिंदुस्तान के लोग भी उनसे बराबर करते रहे। और यही प्यार ३५ साल बाद उन्हे खींच लायी हिंदुस्तान की सर ज़मीन पर एक बार फिर। उनका भव्य स्वागत हुआ हमारे यहाँ और विविध भारती की तरफ़ से अमीन सायानी ने उनसे मुलाक़ात की और उनका 'इंटरव्यू' रिकार्ड किया। १७ और २४ मार्च १९८२ को 'इनसे मिलिए' कार्यक्रम में यह इंटरव्यू प्रसारित हुआ था। दोस्तों, इस पुराने 'इंटरव्यू' की 'ट्रांस्क्रीप्ट' मेरे पास मौजूद है, तो आइए आज इस ख़ास मौके पर उसी 'इंटरव्यू' का एक अंश यहाँ प्रस्तुत करते हैं।
"आप को ये सब तो मालूम है, ये सबों को मालूम है कि कैसी नफ़्सा नफ़्सी थी जब मैं यहाँ से गई। मेरे मियाँ मुझे ले गए और मुझे उनके साथ जाना पड़ा, जिनका नाम सय्यद शौकत हुसैन रिज़्वी है। उस वक़्त अगर मेरा बस चलता तो मैं उन्हे समझा सकती, कोई भी अपना घर उजाड़कर जाना तो पसंद नहीं करता, हालात ऐसे थे कि मुझे जाना पड़ा। और यह तो आप नहीं कह सकते कि आप लोगों ने मुझे याद रखा और मैने नहीं रखा, अपने अपने हालात ही के बिना पे होता है किसी किसी का वक़्त निकालना, और बिल्कुल यक़ीन करें, अगर मैं सब को भूल जाती तो मैं यहाँ कैसे आती! मगर मेरे बच्चे बहुत छोटे थे, उनके परवरिश, उनका पढ़ाना, और वहाँ जा कर भी अल्लाह की मेहरबानी से मुझे बहुत प्यार मिला, मैं देखती हूँ कि वहाँ पर भी लोग इतना प्यार बहुत कम लोगों को करते हैं। इस मामले में मैं बड़ी ख़ुशनसीब हूँ, जिसको जितना प्यार दिया जाता है, मुझे हज़ारों दर्जे ज़्यादा वहाँ प्यार मिलता है। मगर यहाँ का मैं उदास थी, सोचती थी सब लोगों से मिलने को, मेरी ये तमन्नाएँ थीं, और दुआएँ थीं, कि या अल्लाह, सब को मरना तो है, मगर मुझे मरने से पहले एक बार मेरे भाई बहन, मेरे दोस्त, जिनमें एक तो बेचारी अल्लाह को प्यारी हो गई, नरगिस जी, और उसका बड़ा ग़म मुझे रहा। कुछ साल पहले वो मुझे एयरपोर्ट पे मिली थीं, जब कि मैं वापस आ रही थी सीलोन से। इसका बड़ा ग़म हुआ कि जिस वक़्त मैं आयी यहाँ तो वो न मिली। और यह तमन्ना थी कि मैं दिलीप जी से मिलूँ, प्राण जी से मिलूँ, और यहाँ पर आपा, मिसेस महबूब (ख़ान) हैं, ये सब लोग हैं, सितारा जी हैं, सज्जाद साहब हैं, और नौशाद साहब, कोरेगाँवकर साहब तो गुज़र गए, मतलब, ये तमन्नाएँ मेरी हमेशा रही। उस वक़्त भी इन लोगों ने मुझे इतना ही प्यार दिया, मगर अब आयी हूँ तो महसूस किया कि उससे कहीं ज़्यादा इन्होने प्यार, जितनी मेरी सोच थी, उससे कहीं, इसका मैं आपको 'लिमिट' ही नहीं बता सकती, जितना इन लोगों ने यहाँ और आप लोगों ने प्यार दिया है। मैं कैसे भूल सकती हूँ दिलीप जी के प्यार को, प्राण जी के प्यार को।
लता जी मेरी बहन, इतना मुझे प्यार करती हैं, कि उन्होने किसी देश में भी जा कर मुझे नहीं भुलाया। बरसों पहले वो मुझे वाघा बॊर्डर पर मिलने आयीं, उन दिनों टेलीफ़ोन वगेरह भी कर लेती थीं, फिर ऐसा हुआ कि कई साल हमारी बात न हुई, और मैं ६/७ साल पहले यहाँ से गुज़र रही थी, तो वो एयरपोर्ट पर भी मिलने आयीं नरगिस जी के साथ। फिर पिछले दिनों मैं न्यु यार्क मे थी, वो डेट्रायट मे थीं। सिर्फ़ मेरी ख़ातिर वो डेट्रायट से न्यु यार्क आयीं और तीन दिनों तक वो मेरी न्यु यार्क हिल्टन मे थीं ठहरीं। और मुझे तीसरे दिन इल्म हुआ कि जब वो कहने लगीं कि 'दीदी, आज मैं जा रही हूँ, मैं डेट्रायट से यहाँ सिर्फ़ आप ही के लिए आयी हूँ', तो मुझे इतनी ख़ुशी हुई, वो मुझे इतना प्यार करती हैं, मैं कैसे भूल सकती हूँ, ये उनका बड़प्पन है के... आप यकीन कीजिए जिस दिन मैं यहाँ आयी, मेरा सारा कमरा गुल्दस्तों से भरा हुआ था, और मैं सोच रही थी, ३०० गुल्दस्ते होंगे मेरे कमरे में, कार्ड्स थे सब के जो लोग वहाँ नहीं आ पाए। और लता जी और आशा जी १० मिनट के लिए मेरे कमरे मे आये, और उन्होने मुझे इतना प्यार दिया, यहाँ आर. डी. बर्मन साहब भी मिले, सारे 'म्युज़िक डिरेक्टर्स' से मुलाक़ात हुई, मैं जितना सोच रही थी, उससे हज़ार दर्जे ज़्यादा प्यार मिला है। युसूफ़ जी, प्राण जी, इन लोगों ने अपना काम बंद कर रखा है और हर रोज़ रात को, आप लोग देख रहे हैं कि मैं यहाँ २०-२२ दिनों से हूँ, कोई दिन कोई रात मेरा ऐसा नहीं कि मैं बाज़ार जा सकूँ, सिवाय इसके कि मैं सिर्फ़ 'डिनर' और 'लंच' ले रही हूँ, और सब लोग मेरे लिए अपना 'टाइम' वक़्त कर चुके हैं। यश चोपड़ा साहब, उनके बड़े भाई बी. आर. साहब, उनकी बेग़म, मुझे बहुत इन लोगों ने प्यार दिया, और ३५ बरस मैने कैसे गुज़ारे इस दिन का इंतेज़ार करते हुए कि मैं इन सब से मिलूँगी, तो फिर आप कैसे कह सकते हैं कि मैने आप लोगों को याद नहीं किया?"
तो दोस्तों, इस बात का तो नूरजहाँ जी ने ख़ुलासा कर दिया कि यहाँ से पाक़िस्तान जा कर यहाँ के लोगों को उन्होने बहुत याद किया, और हमने भी उन्हे तह-ए-दिल से बेहद बेहद याद किया। तो आइए उनकी यादों को ताज़ा किया जाए उनके गाए इस गीत को सुनकर "बैठी हूँ तेरी याद का लेकर के सहारा"। आप सभी को ईद-उल-फ़ितर की दिली मुबारक़बाद!!!
बैठी हूँ तेरी याद का लेकर के सहारा आ जाओ के चमके मेरी क़िस्मत का सितारा
दिन रात जला करती हूँ फ़ुर्क़त में तुम्हारी हर साँस धुआँ बनके निकलता है हमारा आ जाओ के चमके ...
चुप चाप सहे जाती हूँ मैं दर्द की चोटें ले ले के जिये जाती हूँ मैं नाम तुम्हारा आ जाओ के चमके ...
अक्सर मेरी आँखों ने तुझे नीन्द में ढूँडा उठ उठ के तुझे दिल ने कई बार पुकारा आ जाओ के चमके ...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. देसी अंदाज़ में रंगा एक अंग्रेजी गीत बजेगा कल ओल्ड इस गोल्ड पर. २. गीत को लिखा हरिन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय ने. ३. इस गीत की गायिका ने आगे चल कर फिल्म "मंथन" में एक शानदार गीत गाया था और फिल्म फेयर पुरस्कार भी जीता था.
पिछली पहेली का परिणाम - वाह वाह बधाई हो पाबला जी, सही जवाब और आपको पहले दो अंकों के लिए बधाई....दिशा जी, शमिख जी, संगीता जी शरद जी, पराग जी और राज जी...आप सब का भी आभार
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
ताजा सुर ताल में आज में आज सुनिए प्रीतम का जोरदार संगीत और कुमार के बोल के के की जोशीली आवाज़ में
सुजॉय - सजीव, ऑल दि बेस्ट!
सजीव- क्या मतलब? किस बात के लिए?
सुजॉय- नहीं, मैन तो आज के फ़िल्म की बात कर रहा था।
सजीव- हाँ ज़रूर हम आज की नई फ़िल्म को ऑल दि बेस्ट कहेंगे, लेकिन सुजॉय, उससे पहले फ़िल्म का नाम तो बताओ कि किस फ़िल्म के लिए तुम ऑल दि बेस्ट कह रहे हो?
सुजॉय- वही तो, हमारी आज की फ़िल्म का नाम ही है 'ऑल दि बेस्ट'। रोहित शेट्टी की नई फ़िल्म 'ऑल दि बेस्ट'।
सजीव- मैने भी सुन रख है इस फ़िल्म के बारे में। 'गोलमाल', 'गोलमाल रिटर्ण्स' और 'संडे' जैसी यूथफ़ुल फ़िल्मों के बाद अब बारी है 'ऑल दि बेस्ट' की। जिस तरह से बाक़ी के तीन फ़िल्मों में मस्ती, मसाला और धमाल मुख्य भूमिका में रहे हैं, मुझे लगता है कि यह फ़िल्म भी उसी जॉनर की ही होगी, तुम्हारा क्या ख़्याल है?
सुजॉय- बिल्कुल, प्रोडक्शन हाउस की हिस्ट्री और यह बात कि प्रीतम है इसके संगीतकार, तो ज़ाहिर बात है कि इस फ़िल्म के संगीत से भी लोगों को उसी मस्ती, मसाले और धमाल की उम्मीदें रखनी चाहिए।
सजीव- फ़िल्म के कलाकार हैं संजय दत्त, अजय देवगन, फ़रदीन ख़ान, बिपाशा बासू, मुग्धा गोडसे प्रमुख। गानें लिखे हैं कुमार ने।
सुजॉय- सजीव, इस फ़िल्म का कौन सा गीत चुना जाए ताजा सुर ताल के लिए?
सजीव- अजय देवगन और बिप्स पर फ़िल्माया "मर्तबा" गीत इन दिनों काफ़ी चल रहा है, तो क्यों ना इसे ही आज सुनें!
सुजॉय- ठीक है, के.के और याशिता की आवाज़ों में यह गीत रॉक जॉनर का गीत है, गीत को सुनते हुए 'रॉक ओं' के शीर्षक गीत की थोड़ी सी याद भी आ जाती है। प्रील्युड म्युज़िक में एक ज़बरदस्त रॉक म्युज़िक की झलक है,
सजीव- बिल्कुल, 'हेवी बेस' के इस्तेमाल से यह रॊक एटिट्युड आया है गीत में। के. के. हमेशा से ही इस तरह के गीतों को सही अंजाम देते आए हैं। के. के. की सब से बड़ी बात यह है कि इस तरह के 'पावरफ़ुल' गानें भी बख़ूबी निभाते हैं, और दूसरी तरफ़ नर्मोनाज़ुक रोमांटिक गीतों में भी उनका एक अलग ही अंदाज़ नज़र आता है। बहुत ही उर्जा से भरी गायिकी है उनकी इस गीत में भी.
सुजॉय- सही कहा, 'ओम् शांती ओम्' में "आँखों में तेरी अजब सी अजब सी अदाएँ है" इसी तरह का नर्मोनाज़ुक गीत है। और आज के इस प्रस्तुत गीत में उनकी आवाज़ का दूसरा सिरा सुनाई देता है।
सजीव- नई गायिका याशिता ने भी उनका अच्छा साथ दिया है और रॉक गायकी के लिए पूरा पूरा न्याय किया है उनकी आवाज़ ने भी।
सुजॉय- और गीतकार कुमार के लिए यही कहूँगा कि पिछले कुछ सालों में कई हिट गीत दिए है, लेकिन उन्होने अपना थोड़ा सा 'लो प्रोफ़ाइल' ही मेंटेन किया है। सिचुयशन और गीत की रॉक शैली को ध्यान में रखते हुए बहुत ही अच्छे बोल इस गीत के लिए लिखे हैं, और प्रीतम ने भी अच्छा ट्रीटमेंट दिया है गाने को।
सजीव- कुल मिलाकर, गीत, संगीत और गायकी अच्छी है, और शायद इसी वजह से इसका एक रीमिक्स वर्ज़न भी है ऐल्बम में। यकीनन, यह गीत इस साल के टॉप २० गीतों की फ़ेहरिस्त में शामिल होना चाहिए, कुमार के लिए श्याद ये उनकी सबसे बड़ी फिल्म है अब तक, और मौके को समझ कर भी शायद उन्होंने अब तक अपना सर्वश्रेष्ठ काम दिखाया है इस गीत में देखते हैं इस गीत के बाद इंडस्ट्री में उनके लिए क्या नए प्रोसोएक्ट बनते हैं! तो तुम कितने अंक दे रहे हो इस गीत को?
सुजॉय- गीत के सभी पक्षों को देखते हुए मैं इसे ४.५ अंक दे रहा हूँ। एक जो 'ओवर-ऒल' वाली बात है ना, वह इस गीत में है। सारी चीज़ों को एक साथ लेकर अगर हम देखें तो यह गीत पर्फ़ेक्ट है। आगे जनता की राय सर आँखों पर!!
सजीव - ठीक है दोस्तों तो अपने स्पीकर्स की आवाज़ ज़रा तेज़ कर दीजिये और झूमने को तैयार हो जाईये
आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4.5 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.
क्या आप जानते हैं ? आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं.एक मशहूर आस्ट्रेलियन पॉप गायिका ने किस हिंदी फिल्म के लिए गीत गाया है, और कौन है इस ताजा गीत के गीतकार-संगीतकार...बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.
पिछले सवाल का सही जवाब नहीं मिला सीमा जी और मंजू जी ने जाने क्या जवाब दिया कुछ समझ नहीं आया :), मनीष जी गीत पसंद आये या न आये....आप आये तो सही इस बहाने अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को आज हम रंग रहे हैं लोक संगीत के रंग से। यह एक ऐसा गीत है जिसे शायद बहुत दिनों से आप ने नहीं सुना होगा, और आप में से बहुत लोग इसे भूल भी गए होंगे। लेकिन कहीं न कहीं हमारी दिल की वादियों में ये भूले बिसरे गानें गूंजते ही रहते हैं और कभी कभार झट से ज़हन में आ जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे इस गीत की याद हमें आज अचानक आयी है। दोस्तों, हेमन्त कुमार की एकल आवाज़ में फ़िल्म 'अंजान' का यह गीत है "चंदनिया नदिया बीच नहाए, वो शीतल जल में आग लगाए, के चंदा देख देख मुस्काए, हो रामा हो"। दोस्तों, यह फ़िल्म १९५६ में आयी थी। इससे पहले कि हम इस फ़िल्म की और बातें करें, मुझे थोड़ा सा संशय है इस 'अंजान' शीर्षक पर बनी फ़िल्मों को लेकर। इस गीत के बारे में खोज बीन करते हुए मुझे एक और फ़िल्म 'अंजान' का पता चला जो उपलब्ध जानकारी के अनुसार १९५२ में प्रदर्शित हुई थी 'सनराइज़ पिक्चर्स' के बैनर तले, जिसके मुख्य कलाकार थे प्रेमनाथ और वैजयनंतीमाला, संगीतकार थे मदन मोहन तथा गीतकार थे क़मर जलालाबादी। अब संशय की बात यह है कि जहाँ तक मुझे मालूम है सेन्सर बोर्ड के नियमानुसार एक शीर्षक पर दो फ़िल्में १० साल के अंतर पर ही बन सकती है। यानी कि अगर १९५२ में 'अंजान' नाम की फ़िल्म बनी है तो १९६२ से पहले इस शीर्षक पर फ़िल्म नहीं बन सकती। तो फिर ४ साल के ही अंतर में, १९५६ में, दूसरी 'अंजान' जैसे बन गई! हो सकता है कि मैं कहीं ग़लत हूँ। तो यह मैं आप पाठकों पर छोड़ता हूँ कि आप भी तफ़तीश कीजिए और 'अंजान' की इस गुत्थी को सुलझाने में हमारी मदद कीजिए। और अब बात करते हैं १९५६ में बनी फ़िल्म 'अंजान' की। इस साल हेमन्त कुमार के संगीत निर्देशन में कुल ८ फ़िल्में आयीं - अंजान, ताज, दुर्गेश नंदिनी, बंधन, अरब का सौदागर, एक ही रास्ता, हमारा वतन, और इंस्पेक्टर। इन ८ फ़िल्मों में से ५ फ़िल्मों में प्रदीप कुमार नायक थे। प्रदीप कुमार और हेमन्त दा के साथ की बात हम पहले भी आप को बता चुके हैं। तो साहब, फ़िल्म 'अंजान' एम. सादिक़ की फ़िल्म थी जिसमें प्रदीप कुमार और वैजयंतीमाला मुख्य भूमिकायों में थे। राजेन्द्र कृष्ण के लिखे और ख़ुद हेमन्त दा के स्वरबद्ध किए और गाए हुए इस गीत में कुछ तो ख़ास बात होगी जिसकी वजह से आज ५३ साल बाद हम इस गीत को याद कर रहे हैं।
गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने ५० के दशक में जिन तीन संगीतकारों के लिए सब से ज़्यादा गानें लिखे थे, उनमें से एक हैं सी. रामचन्द्र, दूसरे हैं मदन मोहन, और तीसरे हैं, जी हाँ, हेमन्त कुमार। आइए दोस्तों आज राजेन्द्र कृष्ण जी की कुछ बातें की जाए। अपने कलम से दिलकश नग़मों को जनम देनेवाले राजेन्द्र कृष्ण का जन्म ६ जून १९१९ को शिमला में हुआ था। बहुत कम उम्र में ही वे मोहित हुए कविताओं से। सन् १९४० तक गुज़ारे के लिए वे शिमला के म्युनिसिपल औफ़िस में नौकरी करते रहे। लेकिन कुछ ही सालों में उन्होने यह नौकरी छोड़ दी और मुंबई का रुख़ किया। एक फ़िल्म लेखक और गीतकार बनने की चाह लेकर उन्होने शुरु किया अपना संघर्ष का दौर। और यह दौर ख़तम हुआ सन् १९४७ में जब उन्होने फ़िल्म 'ज़ंजीर' में अपना पहला फ़िल्मी गीत लिखा। उसी साल उन्होने लिखी फ़िल्म 'जनता' की स्क्रीप्ट। उन्हे पहली कामयाबी मिली १९४८ की फ़िल्म 'आज की रात' से। और सन् १९४९ में संगीतकार श्यामसुंदर के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'लाहोर' में उनके लिखे गीतों ने उनके सामने जैसे सफलता का द्वार खोल दिया। तो दोस्तों, पेश है आज का गीत, जिस टीम में शामिल हैं राजेन्द्र कृष्ण, हेमन्त कुमार और प्रदीप कुमार, सुनिए...
(चन्दनिया नदिया बीच नहाये, ओ शीतल जल में आग लगाये के चन्दा देख देख मुस्काये, हो रामा, हो रामा हो)-२
(पूछ रही है लहर लहर से, कौन है ये मतवाली)-२ तन की गोरी चंचल छोरी, गेंदे की एक डाली ओ...ओ...ओ...ओ... रूप की चढ़ती, धूप सुनहेरा रंग आज बरसाये हो रामा, हो रामा हो
चन्दनिया नदिया बीच नहाये, ओ शीतल जल में आग लगाये के चन्दा देख देख मुस्काये, हो रामा हो रामा हो
(परबत परबत घूम के आयी, ये अलबेली धारा)-२ क्या जाने किस आसमान से टूटा है ये तारा ओ.... ओ.... ओ.... शोला बनके, फूल कंवल का, जल में बहता जाये हो रामा, हो रामा हो
चन्दनिया नदिया बीच नहाये, ओ शीतल जल में आग लगाये के चन्दा देख देख मुस्काये, हो रामा, हो रामा हो
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. इस गीत की अमर गायिका की जयंती है कल. २. संगीतकार हैं श्याम सुंदर. ३. मुखड़े में शब्द है -"सहारा"
पिछली पहेली का परिणाम - पराग जी आप एक बार फिर शीर्ष पर हैं अब...३० अंकों के लिए बधाई...
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
"क्या लिखूं क्या छोडूं, सवाल कई उठते हैं, उस व्यक्तित्व के आगे मैं स्वयं को बौना पाती हूँ" लताजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनके बारे में लिखने-कहने से पहले यही लगता है कि क्या लिखें और क्या छोडें. वो शब्द ही नहीं मिलते जो उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उनके होने के महत्त्व को जता सकें. 'सुर सम्राज्ञी' कहें, 'भारत कोकिला' कहें या फिर संगीत की आत्मा, सब कम ही लगता है. लेकिन मुझे इस बात पर गर्व है कि लता जी जैसा रत्न भारत में उत्पन्न हुआ है. लता जी को 'भारत रत्न' पुरूस्कार का मिलना इस पुरूस्कार के नाम को सत्य सिद्ध करता है. उनकी प्रतिभा के आगे उम्र ने भी अपने हथियार डाल दिए हैं. लता जी की उम्र का बढ़ना ऐसा लगता है जैसे कि उनके गायन क्षमता की बेल दिन-प्रतिदिन बढती ही जा रही है. और हम सब भी यही चाहते हैं कि यह अमरबेल कभी समाप्त न हो, इसी तरह पीढी दर पीढी बढती ही रहे-चलती ही रहे.
वर्षों से लताजी फिल्म संगीत को अपनी मधुर व जादुई आवाज से सजाती आ रही हैं. कोई फिल्म चली हो या न चली हो परन्तु ऐसा कोई गीत न होगा जिसमें लताजी कि आवाज हो और लोगों ने उसे न सराहा हो. लता, एक ऐसा नाम और प्रतिभा है जो बीते ज़माने में भी मशहूर था, आज भी है और आने वाले समय में भी वर्षों तक इस नाम कि धूम मची रहेगी. उनके गाये गीतों को गाकर तथा उन्हीं को अपना आदर्श मानकर न जाने कितने ही लोगों ने गायन क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया है और आज भी सैकडों बच्चे बचपन से ही उनके गाये गीतों का रियाज करते हैं तथा अपने कैरियर को एक दिशा प्रदान करने की कोशिश में लगे हैं. लताजी ने अपनी जिंदगी में इतना मान सम्मान पाया है कि उसको तोला नहीं जा सकता. कितनी ही उपाधियाँ और कितने ही पुरुस्कारों से उनकी झोली भरी हुई है. लेकिन अब तो लगता है कोई पुरुस्कार, कोई सम्मान उनकी प्रतिभा का मापन नहीं कर सकता. लता जी इन सब से बहुत आगे हैं. पुरूस्कार देना या उनकी प्रतिभा को आंकना 'सूरज को दिया दिखाने' जैसा है. शोहरत की बुलंदियों पर विराजित होने के बावजूद भी घमंड और अकड़ ने उन्हें छुआ तक नहीं है. कहते हैं की 'फलदार वृक्ष झुक जाता है' यह कहावत लताजी पर एकदम सटीक बैठती है. उन्होंने जितनी सफलता पायी है उतनी ही विनम्रता और शालीनता उनके व्यक्तित्व में झलकती है. वह सादगी की मूरत हैं तथा उनकी आवाज के सादेपन को हमेशा से लोगों ने पसंद किया है.
फ़िल्मी गीतों के अलावा लता जी ने बीच बीच में कुछ ग़ज़लों की एल्बम पर भी काम किया है, "सादगी" इस श्रेणी में सबसे ताजा प्रस्तुति है. लताजी का मानना है कि जिंदगी में सरल व सादी चीजें ही सभी के दिल को छूती हैं, और इस एल्बम में उन्हीं लम्हों के बारे में बात कही गयी है, इसीलिए इस एल्बम का नाम 'सादगी' रखा गया है. यह एल्बम 'वर्ल्ड म्यूजिक डे' पर प्रख्यात गायक जगजीत सिंह द्वारा जारी किया गया. पूरे १७ वर्षों बाद लता जी का कोई एल्बम आया है. इस एल्बम के संगीत निर्देशक मयूरेश हैं तथा ज्यादातर ग़ज़लें लिखी हैं जावेद अख्तर, मेराज फैजाबादी, फरहत शहजाद, के साथ चंद्रशेखर सानेकर ने. एल्बम में शास्त्रीय संगीत तथा लाईट म्यूजिक के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश की गयी है. इसमें कुल आठ गजलें हैं. 'मुझे खबर थी' और 'वो इतने करीब हैं दिल के' गजल पहली बार सुनने पर ही असर करती हैं. दिल को छूती हुई रचनायें है. बाकी की गजलों का भी अपना एक मजा है लेकिन उन्हें दिल तक पहुंचने में दो तीन बार सुनने तक का समय लगेगा. एल्बम में ज्यादातर परंपरागत संगीत वाद्य यंत्रों का प्रयोग हुआ है तथा सेक्सोफोन, गिटार और पश्चिमी धुन का भी प्रयोग सुनाई पड़ता है.
चलते-चलते यही कहेंगे कि लता जी की आवाज में नदी की तरह ठहराव और शांति का भाव समाहित है. एक मधुर और भावपूर्ण संगीतमय तोहफे के लिए हम उनके आभारी है. ईश्वर करे वो आने वाले दशकों तक हमें संगीत की सौगातें देती रहे और हम इस सरिता में यूं ही डुबकी लगाते रहे.
मुझे खबर थी - फरहत शहजाद
इश्क की बातें - जावेद अख्तर
रात है - जावेद अख्तर
चाँद के प्याले से - जावेद अख्तर
अंधे ख्वाबों को - मेराज फैजाबादी
जो इतने करीब हैं - जावेद अख्तर
मैं कहाँ अब जिस्म हूँ - चंद्रशेखर सानेकर
फिर कहीं दूर से - मेराज फैजाबादी
ये ऑंखें ये नम् ऑंखें - गुलज़ार
प्रस्तुति - दीपाली तिवारी "दिशा" "रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
हमसे जुड़ें
आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
यदि आप अपनी कविताओं/गीतों/कहानियों को एक प्रोफेशनल आवाज़ में डब्ब ऑडियो बुक के रूप में देखने का ख्वाब रखते हैं तो हमसे संपर्क करें-hindyugm@gmail.com व्यवसायिक संगीत/गीत/गायन से जुडी आपकी हर जरुरत के लिए हमारी टीम समर्पित है