Saturday, June 4, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 44 - 'उषा मंगेशकर से ट्विटर पर छोटी सी मुलाक़ात और उनके गाये चंद असमीया फ़िल्मी गीत'



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, शनिवार विशेषांक के साथ मैं, आपका दोस्त सुजॉय, हाज़िर हूँ। पिछले दिनों 'हिंद-युग्म' नें मुझे 'लोकप्रिय गोपीनाथ बार्दोलोई हिंदी सेवी सम्मान' से जब सम्मानित किया था, तो मेरी ख़ुशी की सीमा न थी। यह ख़ुशी सिर्फ़ इस बात की नहीं थी कि मैं पुरस्कृत हो रहा था, बल्कि इस बात की भी थी कि यह पुरस्कार उस महान शख़्स के नाम पर था जो उसी जगह से ताल्लुख़ रखते थे जहाँ से मैं हूँ। जी हाँ, आसाम की सरज़मीं। आसाम, जहाँ मेरा जन्म हुआ, जहाँ से मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की, और जहाँ से मेरी नौकरी जीवन की शुरुआत हुई। उस रोज़ मैं उस पुरस्कार को ग्रहण करते हुए यह सोच रहा था कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिये मुझे यह पुरस्कार दिया गया है, तो क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक विशेषांक असमीया फ़िल्म संगीत को लेकर की जाये! तभी मुझे याद आया कि पिछले साल, जून के महीने में, जब तीनों मंगेशकर बहनों का ट्विटर पर आगमन हुआ, उस वक़्त मैंने लता जी और उषा जी से कुछ सवाल पूछे थे, जिनमें से कुछ के उन दोनों ने जवाब भी दिये थे। आपको याद होगा लता जी से की हुई बातचीत को हमनें इसी साप्ताहिक स्तंभ में प्रस्तुत किया था। आइए आज उषा जी से की हुई बातचीत की चर्चा करते हैं।

दोस्तों, फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में लता जी और आशा जी सूरज और चांद की तरह चमक रहे थे। ऐसे में दूसरी प्रतिभा-सम्पन्न गायिकाओं की आवाज़ें भी टिमटिमाते तारों की तरह कहीं खो सी जा रही थी। जो गायिकाएँ इसी राह पर संघर्ष करती रहीं, उनकी यात्रा ज़्यादा दूर तक नहीं तय हो सकी। और जिन गायिकाओं नें अपने रुख़ को प्रादेशिक फ़िल्म संगीत की तरफ़ मोड़ लिया, उनमें से कई आवाज़ें प्रादेशिक जगत में चमक उठीं। और इन्हीं आवाज़ों में एक आवाज़ लता और आशा की ही बहन उषा की थी। जी हाँ, उषा मंगेशकर नें मराठी फ़िल्मों में तो बेशुमार सफल गीत गाये ही, साथ ही नेपाली और असमीया गीतों की भी लिस्ट काफ़ी लम्बी है। आइए आज उषा जी के गाये कुछ बेहद लोकप्रिय असमीया गीतों की चर्चा करें और उन्हें सुनें।

गीत - सिनाकी मूर मोनोर मानूह (फ़िल्म: खोज)


फ़िल्म 'खोज' का यह एक हॉंटिंग् नंबर था, जिसमें संगीत था डॉ. भूपेन हज़ारिका का। इस गीत के लिये उषा जी को आसाम सरकार प्रदत्त पुरस्कार भी मिला था। उषा जी के गाये असमीया गीतों की सफलता का राज़ है उनका असमीया उच्चारण जो आसाम के लोगों तक को भी हैरत में डाल देता था। भूपेन दा ही वो संगीतकार थे जिन्होंने उषा जी से ही नहीं, बल्कि लता जी और आशा जी से भी असमीया फ़िल्मों के गीत गवाये। लता जी से फ़िल्म 'एरा बाटोर सुर' में तथा आशा जी से 'चिकमिक बिजुली' में गवाये गीत बेहद लोकप्रिय रहे। उषा जी पर वापस आते हैं, ये रहा मेरा पहला ट्वीट उषा जी के नाम:

soojoi_india@ushamangeshkar उषा जी, नमस्कार! आपको ट्विटर में देख कर बहुत अच्छा लग रहा है। मैं आसाम का रहने वाला हूँ, और आपनें असमीया में बहुत सारे गीत गाये हैं। मुझे आपके तमाम असमीया गीत बहुत पसंद हैं, जैसे कि "सिनाकी मूर मोनोर मानूह", "पौलाखोरे रौंग", और 'चमेली मेमसाब', 'अपरुपा' और 'मोन प्रोजापोती' के गानें भी।

इसके जवाब में उषा जी नें लिखा:

ushamangeshkar@soojoi_india I love Assam, the Assamese people & Assamese music tremendously! Bhupen da is one of my all-time favourite composers! (मैं आसाम से प्यार करती हूँ, मुझे आसाम के लोगों से बहुत प्यार है और असमीया संगीत मेरे दिल के बहुत करीब है! भूपेन दा मेरे पसंदीदा संगीतकारों में से हैं।)

तो दोस्तों, इसी बात पर आइए उषा जी और भूपेन दा के संगम से उत्पन्न एक और असमीया गीत सुनते हैं। यह है सुपरहिट फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' का सुपरहिट गीत जो आधारित है आसाम के चाय-बागानों के लोक-संगीत पर।

गीत - औख़ोम देख़ौर बागीसार सोवाली (फ़िल्म: चमेली मेमसाब)


फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और भूपेन हज़ारिका को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इस फ़िल्म में दो और गीत उषा जी के ख़ूब मशहूर हुए थे - "जौबोनेर अंगनाय उड़े गेन्दाफूल गो", जिसे उन्होंने भूपेन हज़ारिका के साथ मिल कर गाया था और दूसरा गीत उनका एकल था "सुटु हौये ओ नगर..."। ख़ैर, आगे मैंने उषा जी को यह ट्वीट किया:

soojoi_india@ushamangeshkar उषा जी, 'चमेली मेमसाब' और 'खोज' फ़िल्मों के अलावा आपनें भूपेन दा के साथ और भूपेन दा के लिये फ़िल्म 'पौलाखोरे रौंग' में भी गाया था। मैं आपको बताना चाहूँगा कि इस फ़िल्म का शीर्षक गीत आज भी आकाशवाणी के गुवाहाटी केन्द्र से प्रसारित फ़रमाइशी गीतों के कार्यक्रम 'कल्पतरु' में आये दिन बजता रहता है, और लोग आज भी बड़ी तादाद में इस गीत की फ़रमाइश भेजते हैं।

उषा जी का जवाब था:

ushamangeshkar@soojoi_india Yes, it's a beautiful song. I sang it under Bhupenda's personal supervision. (हाँ, यह एक सुंदर गीत है। मैंने इसे भूपेन दा की निजी देखरेख में रह कर गाया था।)

दोस्तों, ज़रा आप भी तो सुनिये इस ख़ूबसूरत गीत को।

गीत - पौलाखोरे रौंग (फ़िल्म: पौलाखोरे रौंग)


उषा जी से असमीया गीतों के संदर्भ में और आगे बातचीत तो नहीं हो सकी, और आजकल वो ट्विटर पर ज़्यादा सक्रीय भी नहीं हैं, इसलिये मुझे इतने से ही संतुष्ट होना पड़ा। लेकिन उनके गाये हुए गीतों का ख़ज़ाना तो हमारे पास है न! उषा जी के गाये तीन गीत हमनें सुनें तीन अलग अलग फ़िल्मों से। एक और गीत मैं आपको सुनवाऊँगा, लेकिन उससे पहले उषा जी और भूपेन दा की कुछ बातें हो जाये! भूपेन हज़ारिका नें उषा मंगेशकर को केवल असमीया फ़िल्मों में ही नहीं, अपनी हिंदी फ़िल्म 'एक पल' में भी गवाया था। भूपेन्द्र और उषा जी के साथ भूपेन दा नें इस फ़िल्म के गीत "ज़रा धीरे ज़रा धीमे लेके ज‍इहो डोली" में अपनी आवाज़ मिलायी थी। हिंदी में उनकी संगीतबद्ध पहली फ़िल्म 'आरोप' (१९७४) में उन्होंने आशा भोसले और उषा मंगेशकर से एक डुएट गवाया था "सब कुछ मिला" जो एक क्लब शैली का गीत था। कहा जाता है कि लता मंगेशकर नें ही उषा को भूपेन दा से मिलवाया था जब वो उनके लिये 'एरा बाटोर सुर' फ़िल्म के लिये "जोनाकोरे राती" गीत गा रही थीं। फिर उषा जी से पहली मुलाक़ात में ही भूपेन दा नें उन्हें कुछ असमीया गीत गाने का न्योता दे दिया और उषा जी नें यह मौका हाथों हाथ ग्रहण किया।

अभी कुछ वर्ष पहले, साल २००८ में उषा मंगेशकर को आसाम के नगाँव में आयोजित 'नाट्यप्रबर शिल्पप्राण' के पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया था। आसाम के प्रति उनके अगाध प्रेम की वजह से उन्होंने यह आतिथ्य ग्रहण की, और अपनी भाषण में उन्होंने आसाम और वहाँ के लोगों के साथ उनके "ईमोशनल क्लोज़नेस' का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि असमीय संस्कृति बहुत ही उच्च श्रेणी की है और वो चाहती हैं कि इसका सही तरीके से संरक्षण हो। उन्होंने इस राह में नई पीढ़ी को सामने आने का आहवान किया। उसी भाषण में उन्होंने अपने बीते दिनों को याद किया कि किस तरह से उन दिनों भूपेन दा नें उन्हें और उनकी दीदी लता जी को असमीया गीत सिखाया करते थे। अंत में उन्होंने अपनी मशहूर असमीया गीत "सिनाकी सिनाकी मूर मोनोर मानूह" गा कर उपस्थित जनता को मंत्रमुग्ध कर दिया।

अपनी उस आसाम यात्रा में कार्यक्रम ख़त्म हो जाने के बाद वह रात उन्होंने नगाँव के सर्किट हाउस में बितायी। रात्री भोज में जब उन्हें उनकी पसंदीदा व्यंजन "कालदिलोर तरकारी" परोसा गया तो वो एक बार फिर से बीते समय में पहुँच गईं। उन्होंने कहा कि बिलकुल वही भोजन उन्होंने भूपेन दा के साथ कई साल पहले किया था, जिसमें था टमाटर और नींबू में बनी खट्टी मछली। इसलिए जब अगले दिन वो काज़ीरंगा गईं तो वहाँ पर उनके इसी मनपसंद मछली से उनका स्वागत किया गया। काज़ीरंगा जाते समय वो केलीडेन चाय बागान में भी गईं और चाय-पत्ती निर्माण की समस्त पद्धतिओं से अपने आप को अवगत किया। चाय बागान में सैर करते हुए वो गुनगुना उठीं "औख़ोम देख़ोर बागीसार सोवाली... लोक्स्मी नौहौय मोरे नाम सामेली" ('चमेली मेमसाब' फ़िल्म का यह गीत चायबागान के पार्श्व पर बना था)। वापस जाते समय उन्होंने पत्रकारों को बताया कि उनकी दिली तमन्ना है कि अपने गाये असमीया गीतों को वो एक ऐल्बम के रूप में फिर से रेकॉर्ड करें। और दोस्तों, हम भी उषा जी को इस मिशन के लिये शुभकामनाएँ देते हुए यहाँ पर उनका गाया एक और असमीया फ़िल्मी गीत सुनते हैं। इस बार सुनिये फ़िल्म 'राधापुरोर राधिका' से यह मशहूर गीत।

गीत - राधाचुड़ार फूल (फ़िल्म: राधापुरोर राधिका)


तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', जिसमें हमनें पार्श्व-गायिका उषा मंगेशकर के गाये असमीया गीतों का आनंद लिया और आसाम से उनके जुड़ाव के बारे में जाना। आशा है आपको हमारी यह प्रस्तुति पसंद आई होगी, ज़रूर लिखिएगा, अब आज के लिये अनुमति दीजिये, नमस्कार!

शेखर जोशी की कहानी "दाज्यू"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने गिरिजेश राव की संस्मरणात्मक कहानी "सुजान साँप" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं शेखर जोशी की कहानी "दाज्यू", जिसको स्वर दिया है प्रीति सागर ने। कहानी "दाज्यू" का कुल प्रसारण समय 10 मिनट 34 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


शेखर जोशी (जन्म: सितम्बर 1932)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन
के लिए थोड़ा झुका और मुस्कराया-भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा
‘मीनू’ समाहित था।"
(शेखर जोशी की कहानी "दाज्यू" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#131th Story, Dajyu: Shekhar Joshi/Hindi Audio Book/2011/13. Voice: Priti Sagar

Friday, June 3, 2011

लाईफ बहुत सिंपल है....वाकई अमोल गुप्ते और हितेश सोनी के रचे इन गीतों सुनकर आपको भी यकीन हो जायेगा



Taaza Sur Taal (TST) - 16/2011 - STANLEY KA DABBA

दोस्तों मुझे यकीन है कि "तारे ज़मीन पर" आपकी पसंदीदा फिल्मों में से एक होगी. अगर हाँ तो आप ये भी जानते होंगें कि इस फिल्म के निर्देशक पहले अमोल गुप्ते नियुक्त हुए थे, बाद में कुछ कारणों के चलते अमोल, अमीर से अलग हो गए और अमीर ने खुद फिल्म का निर्देशन किया. पर ये भी सच है कि उस फिल्म में अमोल का योगदान एक लेखक से बहुत कुछ अधिक था, जाहिर है जब उस अमोल की खुद निर्देशित फिल्म आये और उसमें भी बच्चों की ही प्रमुख भूमिकाएं हो तो उम्मीदें बेहद बढ़ जाती है. "तारे ज़मीन पर" में संगीत था शंकर एहसान लॉय की तिकड़ी का और कुछ गीत तो फिल्म के ऐसे थे कि आने वाले कई दशकों तक श्रोताओं को याद रहेंगें. मगर अमोल ने अपनी फिल्म "स्टेनली का डब्बा" के लिए चुना संगीतकार हितेश सोनिक को, और गीतकार की भूमिका खुद उठाने की सोची. हितेश अब तक पार्श्व संगीत के लिए जाने जाते थे और अनुराग कश्यप विशाल भारद्वाज जैसे बड़े संगीतकारों के साथ काम कर चुके है. बतौर स्वतंत्र संगीतकार ये उनकी पहली फिल्म है.

बहरहाल हम आते हैं इस अल्बम के गीतों पर. दरअसल पहला गीत ही ऐसा है जो आपको गहरे तक छूने की कुव्वत रखता है. शान की मधुर आवाज़ और अमोल गुप्ते के अलग "हट के" बोलों में जैसे जादू है. "लाईफ बहुत सिंपल है..." जीवन को सरल और सहज होकर देखने की सीख देती है, हितेश ने संगीत संयोजन बेहद सरल रखा है. और धुन भी मन को छूने में सक्षम है. यक़ीनन आप इस गीत को ड्राईव करते हुए गुनगुनाना चाहेंगें.

सुखविंदर ने सहज होकर गाया है अगला गीत "डब्बा", जिसे सुनकर आपको याद आ जायेगा माँ के हाथों बनाया हुआ टिफिन का डब्बा जिसे स्कूल ले जाते समय ताकीद मिलती थी कि कुछ भी बाकी नहीं छूटना चाहिए, और वो स्कूल रिसेस जिसमें योजना बनती थी इस डिब्बे को कैसे खाली किया जाए. दाल, चावल, पनीर, मशरूम, गोभी....सब कुछ है इस मसाला मिक्स गीत में. सुखविंदर यहाँ आपको एक नए अंदाज़ में दिखेंगें. वो एक ऐसे गायक हैं कि जो गाते हैं उसमें अपना दिल उंडेल देते है, अमोल के गैर पारंपरिक शब्द इस सरल सहज गीत की जान हैं.

शंकर महादेवन की आवाज़ में है अगला गीत "नन्ही सी जान". कहानीनुमा ये गीत अल्बम के अन्य गीतों से अलग कुछ रोक् शैली का है. ये फिल्म की सिचुएशन के अनुरूप होना चाहिए, जो शायद परदे पर अधिक सटीक लगे. विशाल ददलानी आते है अगला गीत लेकर "तेरे अंदर भी कहीं...", ये सोफ्ट रोक् गीत उनकी आवाज़ में खूब जचता है. इस गीत का एक संस्करण आदित्य चक्रवर्ती की किशोर आवाज़ में भी है. अमोल लिखते हैं –"किरणों में नहाके ताज़ा तरीन, खुशियों के निवाले हो ज्यादा महीन, भोला सा दिल करे सबपे यकीन, भेड़ों की भीड़ में भूल आया क्या तू...." वाह

तमाम पुरुष गायकों की भीड़ में एक गीत है जिसमें महिला स्वर सुनाई देता है. इसे गीत को खुद अमोल के स्वरबद्ध किया है. ये गीत एक लोरी है, पता नहीं कितने दिनों बाद फिल्मों में एक अच्छी लोरी सुनने को मिली है, पार्श्व वाध्य के रूप में सिर्फ बांसुरी के स्वर हैं, और हंसिका अय्यर की सुरीली आवाज़ में बहुत प्यारा बन पड़ा है ये गीत – झूला झूल...., अवश्य सुनियेगा. व्यक्तिगत तौर पर मैं इस अल्बम की सिफारिश अवश्य करूँगा, बाकी सुनकर आप भी बताएं कि ये धीमा, सुरीला संगीत अपनी सहजता में आपको किस हद तक भाया है.

आवाज़ रेटिंग - 8/10

एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, June 2, 2011

रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम....हर किसी के जीवन को कभी न कभी छुआ होगा मजरूह के इस गीत ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 670/2011/110

"मेरे पीछे ये तो मोहाल है कि ज़माना गर्म-ए-सफ़र न हो, कि नहीं मेरा कोई नक़्श-ए-पाँव जो चिराग़-ए-राह-गुज़र न हो", मजरूह साहब के लेखनी की विविधता ऐसी है कि आने वाली तमाम पीढ़ियाँ उनके लेखनी से प्रभावित होती रहेंगी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों का जो कारवाँ चला जा रहा था, वह कारवाँ आज की कड़ी में जाकर कुछ समय के लिये पड़ाव डाल रहा है। '...और कारवाँ बनता गया' शृंखला की आज है दसवीं और अंतिम कड़ी। १९४६ में 'शाहजहाँ' से जो कारवाँ चल पड़ा था, वह आकर रुका था १९९९ में फ़िल्म 'जानम समझा करो' पे आकर। राहुल देव बर्मन वाले अंक में हमनें ज़िक्र किया था उन फ़िल्मों का जिनमें नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी का संगम था। पंचम को अलग रखें तो नासिर साहब के साथ मजरूह साहब नें पंचम के आने से पहले 'फिर वही दिल लाया हूँ' तथा पंचम के बाद आनंद-मिलिंद के साथ 'क़यामत से क़यामत तक', जतीन-ललित के साथ 'जो जीता वही सिकंदर' और अनु मलिक के साथ 'अकेले हम अकेले तुम' में काम किया। और सिर्फ़ काम ही नहीं किया, अपने हुनर का लोहा भी मनवाया कि ४० के दशक में पारी की शुरुआत करने वाले गीतकार ९० के दशक के आख़िर में भी उतने ही सक्रीय व सफल हैं और गीतों का स्तर भी उतना ही ऊँचा है। तो इस शृंखला को समाप्त करते हुए आज की कड़ी के लिये हमने चुना है १९९२ की फ़िल्म 'जो जीता वही सिकंदर' से जतिन की आवाज़ में "रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम, यह न सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम"। भले ही ९० के दशक के गीतों से हम परहेज़ करते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, लेकिन कभी कभी इस रवायत को तोड़ने को जी चाहता है। गीत अगर सचमुच अच्छा है तो सिर्फ़ दशक का ठप्पा लगा कर उसे नज़रंदाज़ तो नहीं किया जा सकता न!

"रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम", भाई-भाई के संबंध को लेकर इस गीत से बेहतर गीत मैंने तो आज तक नहीं सुना! इस गीत को सही तरीके से अनुभव वही कर सकता है जिसका कोई भाई है। फ़िल्म में आमिर ख़ान का बड़ा भाई एक दुर्घटना के बाद अस्पताल में ज़िंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है, ऐसे में यह गीत पार्श्व में बज उठता है और आमिर ख़ान अपने बड़े भाई के साथ गुज़ारे बचपन के दिनों को याद करते हैं। आमिर ख़ान के बचपन का रोल पता है किसने निभाया था? जी हाँ, उनके भांजे इमरान ख़ान नें, जो आज के दौर के नायक हैं। मजरूह साहब नें इस गीत में ऐसे बोल लिखे हैं कि गीत को सुनते हुए आँखें भर आती हैं। "मैं तो ना चला था दो क़दम भी तुम बिन, फिर भी मेरा बचपन यही समझा हर दिन, छोड़ के मुझे भला अब कहाँ जाओगे तुम, यह न सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम"। और २४ मई २००० को नीमोनिआ से ग्रस्त होकर मजरूह साहब भी इस संसार से रूठ कर हमेशा हमेशा के लिये चले गये, और पीछे छोड़ गये अपने हज़ारों गीतों का सुरीला कारवाँ। आज उनको समर्पित इस शृंखला को समाप्त करते हुए मुझे उनके लिखे जिस गीत के बोल बार बार याद आ रहे हैं, वो हैं....

"जब हम ना होंगे, जब हमारी ख़ाक पे तुम रुकोगे चलते चलते,
अश्क़ों से भीगी चांदनी में एक सदा सी सुनोगे चलते चलते,
वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे, बनके कली, बन के सबा, बाग़-ए-वफ़ा में,
रहें ना रहें हम...
"।

मजरूह साहब, आप चाहें शारीरिक तौर से हमारे बीच मौजूद न हों, लेकिन आपका फ़न, आपकी कला, आपके गीतों के ज़रिये अमर हो गया है, जो युगों युगों तक दुनिया की फ़िज़ाओं में आप के मौजूद होने का निरंतर आभास कराते रहेंगे। मजरूह सुल्पानपुरी की सुरीली स्मृति को 'हिंद-युग्म - आवाज़' परिवार का विनम्र नमन। अगले सप्ताह एक नई शृंखला लेकर हम पुन: उपस्थित होंगे, और शनिवार को विशेषांक में आपसे फिर मुलाक़ात होगी, तब तक के लिये 'ओल्ड इज़ गोल्ड' से हमें अनुमति दीजिये, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि 'जानम समझा करो' में जब मजरूह साहब के लिखे "लव हुआ", "आइ वास मेड टू लव यू बेबी क्या ख़याल है बोल" और "जानम समझा करो" जैसे गीतों की समालोचना हुई तो उन्होंने कहा था - "These are certainly not objectionable. They only sound like that way because of the English words. I will always maintain that "aati kya khandala" is a 'be-huda' song because the mukhda is like an indecent proposal, and the degenerate element among the youth have got a new weapon in their armour for harassing women"।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 9/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब की आवाज़ में था ये मशहूर गीत.
सवाल १ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और अनजाना जी एच्छिक रूप से प्रतियोगिता से दूर रहे तो हमें मिला एक नया विजेता अविनाश जी के रूप में जिन्हें सबसे जबरदस्त टक्कर मिली क्षिति जी और प्रतीक जी से. अविनाश जी को हमारी ढेरो बधाईयां, अमित और अनजाना जी अब नयी शृंखला के बारे में क्या योजना है ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, June 1, 2011

आओ मनाये जश्ने मोहब्बत, जाम उठाये गीतकार मजरूह साहब के नाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 669/2011/109

जरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिनका करीयर ४० के दशक में शुरु हो कर ९० के दशक के अंत तक निरंतर चलता रहा और हर दशक में उन्होंने अपना लोहा मनवाया। कल हमनें १९७३ की फ़िल्म 'अभिमान' का गीत सुना था। आज भी इसी दशक में विचरण करते हुए हमनें जिस संगीतकार की रचना चुनी है, वो हैं राजेश रोशन। वैसे तो राजेश रोशन के पिता रोशन के साथ भी मजरूह साहब नें अच्छा काम किया, फ़िल्म 'ममता' का संगीत उसका मिसाल है; लेकिन क्योंकि हमें १०-कड़ियों की इस छोटी सी शृंखला में अलग अलग दौर के संगीतकारों को शामिल करना था, इसलिए रोशन साहब को हम शामिल नहीं कर सके, लेकिन इस कमी को हमन उनके बेटे राजेश रोशन को शामिल कर पूरा कर रहे हैं। एक बड़ा ही लाजवाब गीत हमनें सुना है मजरूह-राजेश कम्बिनेशन का, १९७७ की फ़िल्म 'दूसरा आदमी' से। "आओ मनायें जश्न-ए-मोहब्बत जाम उठायें जाम के बाद, शाम से पहले कौन ये सोचे क्या होना है शाम के बाद"। हज़ारों गीतों के रचैता मजरूह सुल्तानपुरी के फ़न की जितनी तारीफ़ की जाये कम है। ज़िक्र चाहे दोस्त के दोस्ती की हो या फिर महबूब द्वारा अपने महबूबा से छुवन का पहला अहसास, मुश्किल से मुश्किल भाव को भी बड़े ही सहजता से व्यक्त करना उनका कमाल था और बड़ी ख़ूबसूरती के साथ इन अहसासों को वे लफ़्ज़ों में पकड़ लेते थे। लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ों में आज का प्रस्तुत गीत भी इन्हीं में से एक है।

फ़िल्म संगीत का स्वर्णयुग बीत जाने के बाद भी मजरूह सुल्तानपुरी अपने स्तर को कायम रखने में सक्षम थे। जहाँ दूसरे गीतकार फ़िल्म निर्माता के डिमाण्ड के मुताबिक सस्ते और चल्ताउ किस्म के गीत लिख रहे थे और उन्हें पब्लिक डिमाण्ड कह कर चला रहे थे, वहीं दूसरी तरफ़ कुछ गिने-चुने गीतकारों नें यह साबित भी किया कि अगर सृजनात्मक्ता है तो तमाम पाबंदियों में रह कर भी अच्छा गीत लिखा जा सकता है। मजरूह साहब भी इन गिने चुने गीतकारों में से थे। शारीरिक संबंध और पैशन को अश्लील और खुले शब्दों में व्यक्त करने का काम तो बहुत से गीतकारों नें हाल में किया है, लेकिन मजरूह साहब नें कई बार ऐसे सिचुएशनों के लिये भी कुछ ऐसे सुंदर गीत लिखे हैं जो यौनोत्तेजक होते हुए भी उनमें कितनी सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। मजरूह साहब के ही शब्दों में - "I have said it all in so many songs, without resorting to cheapness or blatant verse"। उनका कहना बिल्कुल सही है। फ़िल्म 'अनामिका' में लता जी से ही गवाया गया था "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा"। अगर इस गीत को दूसरे अंदाज़ में लिखा गया होता तो शायद लता जी इस गीत को कभी नहीं गातीं, लेकिन सेन्सुअस होते हुए भी शालीनता को बरकरार रखते हुए मजरूह साहब नें इस गीत को जो अंजाम दिया है कि लता जी भी गीत को गाने के लिये राज़ी हो गईं, जब कि फ़िल्म के सभी दूसरे गीत आशा जी की आवाज़ में है। और आज के अंक के 'दूसरा आदमी' के गीत को ही ले लीजिये, इसके अंतरे के बोलों पर ज़रा ध्यान दीजिये, "ये आलम है ऐसा, उड़ा जा रहा हूँ, तुम्हें लेके बाहों में, हमारे लबों से तुम्हारे लबों तक, नहीं कोई राहों में, कैसे कोई अब दिल को सम्भाले, इतने हसीं पैग़ाम के बाद, शाम से पहले कौन ये सोचे क्या होना है शाम के बाद"। गीत के पिक्चराइज़ेशन की बात करें तो यह पार्श्व में चलने वाला गीत है, यानी किसी अभिनेता ने लिप-सींक नहीं किया है। पार्टी में ॠषी कपूर और राखी डांस करते हुए दिखाये जाते हैं और राखी को मन ही मन चाहने वाले परीक्षित साहनी दूर खड़े उन्हें देखते रहते हैं। और घर में तन्हाई में बैठी नीतू सिंह अपने पति ॠषी कपूर के दफ़्तर से वापस लौटने का इंतज़ार कर रही है। वैवाहिक संबंधों के तानेबाने पर केन्द्रित यश चोपड़ा की इस फ़िल्म के सभी गानें लोकप्रिय हुए थे, लेकिन यह गीत फ़िल्म का सब से उत्कृष्ट गीत है हमारी नज़र में, आइए सुना जाये!



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी के बेटे अंदलिब सुल्तानपुरी फ़िल्म जगत में एक निर्देशक की हैसियत रखते हैं। 'जानम समझा करो' उन्हीं के निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 9/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म में नायक के भाई की भूमिका किस कलाकार ने निभायी है - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - निर्देशक कौन है इस खूबसूरत फिल्म के - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश जी ने दूसरी कोशिश में कैच पूरा किया और लपक लिए ३ अंक. प्रतीक जी और क्षिति जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, May 31, 2011

तेरी बिंदिया रे....शब्द और सुरों का सुन्दर मिलन है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 668/2011/108

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। इसके तहत हम दस अलग अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध मजरूह साहब के लिखे गीत सुनवा रहे हैं जो बने हैं अलग अलग दौर में। ४०, ५० और ६० के बाद आज हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ५० के दशक में नौशाद, अनिल बिस्वास, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, के अलावा एक और नाम है जिनका उल्लेख किये बग़ैर यह शृंखला अधूरी ही रह जायेगी। और वह नाम है सचिन देव बर्मन का। अब आप सोच रहे होंगे कि ५० के दशक के संगीतकारों के साथ हमनें उन्हें क्यों नहीं शामिल किया। दरअसल बात ऐसी है कि हम बर्मन दादा द्वारा स्वरबद्ध जिस गीत को सुनवाना चाहते हैं, वह गीत है ७० के दशक का। इससे पहले कि हम इस गीत का ज़िक्र करें, हम वापस ४०-५० के दशक में जाना चाहेंगे। मेरा मतलब है मजरूह साहब के कहे कुछ शब्द जिनका ताल्लुख़ उस ज़माने से है। विविध भारती के किसी कार्यक्रम में उन्होंने ये शब्द कहे थे - "१९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की-पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र के जानकार लोगों को यह मालूम होगा कि आज ऐसे अशार जो किसी और के नाम से लोग जानते हैं, वो तरक्की-पसंद शायरी मैंने ही शुरु की थी। मैं एक बार अमरीका और कैनाडा गया था। वहाँ के कई यूनिवर्सिटीज़ में मैं गया, मुझे इस बात की हैरानी हुई कि वहाँ के शायरी-पसंद लोगों को मेरे अशार तो याद हैं, पर कोई फ़ैज़ के नाम से, तो कोई फ़रहाद के नाम से, मजरूह के नाम से नहीं"।

सचिन देव बर्मन की धुन पर मजरूह साहब के लिखे बेशुमार गीतों में से आज सुनिये १९७३ की फ़िल्म 'अभिमान' से लता-रफ़ी की आवाज़ों में "तेरी बिंदिया रे, आये हाये"। 'अभिमान' हिंदी सिनेमा की सफलतम फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म न केवल अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के करीयर के लिये मील का पत्थर साबित हुई थी, इस फ़िल्म के गीतों नें भी काफ़ी धूम मचाया। फ़िल्म का हर गीत सुपरहिट, हर गीत लाजवाब। आज ४० वर्ष बाद भी इस फ़िल्म के गीत आये दिन सुनाई देते हैं। फ़िल्म के तीनों युगल गीतों, "तेरे मेरे मिलन की यह रैना" (लता-किशोर), "लूटे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी" (लता-मनहर) और आज का प्रस्तुत गीत, का सर्वाधिक, सदाबहार व लोकप्रिय युगल गीतों की श्रेणी में शुमार होता है। फ़िल्म के सभी एकल गीत, "नदिया किनारे हेराये आयी कंगना" (लता), "पिया बिना बासिया बाजे ना" (लता), "अब तो है तुमसे हर ख़ुशी अपनी" (लता) तथा "मीत ना मिला रे मन का" (किशोर), भी सफलता की दृष्टि से पीछे नहीं थे। आज के प्रस्तुत गीत की बात करें तो जितना श्रेय दादा बर्मन को इसके संगीत के लिये जाता है, उतना ही श्रेय मजरूह साहब को भी जाता है ऐसे ख़ूबसूरत बोल पिरोने के लिये। जहाँ एक तरफ़ मजरूह नें शृंगार रस की ऐसी सुंदर अभिव्यक्त्ति दी, वहीं दूसरी तरफ़ दादा बर्मन नें रूपक ताल में इसे कम्पोज़ कर जैसे कोमलता और मधुरता की एक नई धारा ही बहा दी। और दोस्तों, यह वह दौर था जब फ़िल्म-संगीत में शोर-शराबे की शुरुआत हो रही थी। इस फ़िल्म के लिये फ़िल्मफ़ेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार जीत कर दादा नें नये दौर के सफल संगीतकारों को जैसे सीधी चुनौति दे दी। केवल तबला, सितार और बांसुरी की मधुर तानों से इस गीत को जिस तरह से दादा नें बांधा है, उन्होंने यह साबित किया कि एक ही समय पर कर्णप्रिय, स्तरीय और लोकप्रिय गीत बनाने के लिये आधुनिक तकनीकों की नहीं, बल्कि सृजनात्मक्ता की आवश्यक्ता होती है। 'ताज़ा सुर ताल' प्रस्तुत करते हुए मुझे यह अनुभव भी होता है और अफ़सोस भी कि फ़िल्म-संगीत के वाहक इसे किस मुक़ाम पर आज ले आये हैं! ख़ैर, फ़िल्हाल सुनते हैं 'अभिमान' का यह एवरग्रीन डुएट।



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी नें करीब करीब ३५० फ़िल्मों में करीब ४००० गीत लिखे हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के मुख्य कलकार कौन कौन हैं (दो अभिनेत्रियों और एक अभिनेता का नाम बताएं) - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश जी बढ़त बनाये हुए हैं, शरद जी जरा लेट हुए मगर क्षिति जी चूक गयीं, कोई बात नहीं नेक्स्ट टाइम

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

गुरूदेव की "नौका डूबी" को "कशमकश" में तब्दील करके लाए हैं संजॉय-राजा..शब्दों का साथ दिया है गुलज़ार ने



Taaza Sur Taal (TST) - 15/2011 - KASHMAKASH (NAUKA DOOBI)

कभी-कभार कुछ ऐसी फिल्में बन जाती हैं, कुछ ऐसे गीत तैयार हो जाते हैं, जिनके बारे में आप लिखना तो बहुत चाहते हैं, लेकिन अपने आप को इस लायक नहीं समझते कि थोड़ा भी विश्लेषण कर सकें। आपके मन में हमेशा यह डर समाया रहता है कि अपनी नासमझी की वज़ह से कहीं आप उन्हें कमतर न आंक जाएँ। फिर आप उन फिल्मों या गीतों पर शोध शुरू करते हैं और कोशिश करते हैं कि जितनी ज्यादा जानकारी जमा हो सके इकट्ठा कर लें, ताकि आपके पास कही गई बातों का समर्थन करने के लिए कुछ तो हो। इन मौकों पर अमूमन ऐसा भी होता है कि आपकी पसंद अगर सही मुकाम पर पहुँच न पा रही हो तो भी आप पसंद को एक जोड़ का धक्का देते हैं और नकारात्मक सोच-विचार को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। अंतत: या तो आप संतुष्ट होकर लौटते हैं या फिर एक खलिश-सी दिल में रह जाती है कि इस चीज़ को सही से समझ नहीं पाया।

आज की फिल्म भी कुछ वैसी है.. गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी "नौका डूबी" पर उसी नाम से बनाई गई बांग्ला फिल्म का हिंदी रूपांतरण है "कशमकश"। इस फिल्म के सभी गाने रवींद्र-संगीत पर आधारित हैं। फिल्म में ४ हिन्दी गाने हैं जिन्हें लिखा है गुलज़ार साहब ने और पाँचवां गाना एक सुप्रसिद्ध बांग्ला गाना है, जिसे अब तक कई सारे फ़नकार अपनी आवाज़ दे चुके हैं। फिल्म में संगीत दिया है संजॉय दास और राजा नारायण देब की जोड़ी ने। इन दोनों ने चिर-परिचित रवींद्र संगीत में अपनी कला का मिश्रण कर गानों को नए रूप में ढालने की यथा=संभव सफ़ल कोशिश की है। चलिए तो सीधे-सीधे गानों की ओर रुख करते हैं।

फिल्म का पहला गना है "मनवा भागे रे"। "सौ-सौ तागे रे".. ऐसी पंक्तियों को सुनकर हीं गुलज़ार साहब के होने का बोध हो जाता है। ऊपर से श्रेया घोषाल की सुमधुर आवाज़, जिसका कोई तोड़ नहीं है। पवन झा जी से मालूम हुआ है कि यह गाना रवींद्र संगीत के मूल गीत "खेलाघर बांधते लेगेची" पर आधारित है। वाद्य-संयोजन बेहतरीन है। बोल कैसे हैं.. आप खुद देख लें:

मनवा आगे भागे रे,
बाँधूं सौ-सौ तागे रे,
ख्वाबों से खेल रहा है,
सोए जागे रे..

दिन गया जैसे रूठा-रूठा,
शाम है अंजानी,
पुराने पल जी रहा है,
आँखें पानी-पानी..


दूसरा गाना है हरिहरण की आवाज़ में "खोया क्या जो पाया हीं नहीं।" आजतक लोग यही कहते आए हैं कि हाथों की लकीरों में किस्मत की कहानी गढी जाती है, लेकिन यहाँ पर गुलज़ार साहन निराशा का ऐसा माहौल गढते हैं कि अब तक की सारी दलीलों को नकार देते हैं। वे सीधे-सीधे इस बात का ऐलान करते हैं कि हथेलियों पर फ़क़त लकीरें हैं और कुछ नहीं, इन पर कुदरत की कोई कारीगरी नहीं। अपनी बात के समर्थन में वे भगवदगीता की उस पंक्ति का सहारा लेते हैं, जिसमें कहा गया है कि "तुमने क्या पाया था, जो तुमने खो दिया।" हरिहरण अपनी आवाज़ से इस दर्द को और भी ज्यादा अंदर तक ठेल जाते हैं और सीधे-सीधे दिल पर वार होता है। बखूबी तरीके से चुने गए वाद्यों की कारस्तानी इस दर्द को दूना कर देती है।

खोया क्या जो पाया हीं नहीं,
खाली हाथ की लकीरें हैं,
कल जो आयेगा, कल जो जा चुका..

बीता-बीता बीत चुका है,
फिर से पल-पल बीत रहा है..

तारे सारे रात-रात हैं,
दिन आए तो खाली अंबर,
आँख में सपना रह जाता है..


तीसरे गाने ("तेरी सीमाएँ") के साथ पधारती हैं श्रेया घोषाल। इनकी मीठी आवाज़ के बारे में जितना कहा जाए उतना कम होगा। ये जितने आराम से हँसी-खुशी वाले गीत गा लेती हैं, उतने हीं आराम से ग़म और दर्द के गीतों को निबाहती हैं। भले हीं संगीत कितना भी धीमा क्यों न हो, पता हीं नहीं चलता कि इन्हें किसी शब्द को खींचना पड़ रहा है। ऐसा हीं मज़ा लता दीदी के गीतों को सुनकर आया करता था (है)। अब जैसे इसी गीत को ले लीजिए - "मुक्ति को पाना है".. "मुक्ति" शब्द में अटकने की बड़ी संभावनाएँ थीं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.. इसके लिए श्रेया घोषाल के साथ-साथ संगीतकारों की भी तारीफ़ करनी होगी। पहली मर्तबा मैंने जब इस गीत को सुना तो "मुक्ति" का इस्तेमाल मुझे कुछ अटपटा-सा लगा.. गुलज़ार साहब के नज़्मों में इस शब्द की कल्पना की जा सकती है, लेकिन गीत में? नहीं!! फिर मुझे ध्यान आया कि गुलज़ार साहब ने गुरूदेव के बांग्ला गीतों की तर्ज़ पर इस फिल्म के गीत लिखे हैं और बांग्ला गानों में ऐसे शब्द बहुतायत में नज़र आते हैं। यहाँ यह बात जाननी ज़रूरी है कि गुलज़ार साहब ने गीतों का अनुवाद नहीं किया, बल्कि वही माहौल बरकरार रखने की कोशिश की है।

तेरी सीमाएँ कोई नहीं हैं,
बहते जाना है, बहते जाना है..

तेरे होते दर्द नहीं था,
दिन का चेहरा ज़र्द नहीं था,
तुझसे रूठके मरते रहना है..

तुझको पाना, तुझको छूना,
मुक्ति का पाना है..


अब हम आ पहुँचे हैं चौथे गाने के पास, जो है "नाव मेरी"। एक बंगाली गायिका के बाद बारी है दूसरी बंगालन की यानि कि "मधुश्री" की। इनका साथ दिया है हरिहरण ने। इस गाने में गुलज़ार साहब अपनी दार्शनिक सोच के शीर्ष पर नज़र आते हैं। पहले तो वे कहते हैं कि सागरों में घाट नहीं होते, इसलिए तुम्हें बहते जाना है.. तुम्हारा ठहराव कहीं नहीं। और अंत होते-होते इस बात का खुलासा कर देते हैं कि तुम्हारे लिए किनारा किसी छोर पर नहीं, बल्कि तलछट में है.. तुम डूब जाओ तो शायद तुम्हें किनारा नसीब हो जाओ। इन पंक्तियों का बड़ा हीं गहरा अर्थ है। आप जब तक अपने आप को किसी रिश्ते की सतह पर रखते हैं और कोशिश करते हैं कि वह रिश्ता आपको अपना मान ले, तब तक आप भुलावे में जी रहे होते हैं। फिर या तो आपको एक रिश्ते से दूसरे रिश्ते की ओर बढना होता है या फिर ऐसे हीं किसी रिश्ते की सच्चाईयों में डूब जाना होता है। अगर आप डूब गए तो वह रिश्ता और आप एक हो चुके होते हैं, जिसे कोई जुदा नहीं कर सकता। इसलिए डूब जाने से हीं किनारा नसीब होगा ना कि किसी जगह सतह पर ठहरने से। संभव है कि गुलज़ार साहब ने कुछ और अर्थ सोचकर यह गाना लिखा हो (मैंने अभी तक फिल्म नहीं देखी, इसलिए यकीनन कह नहीं सकता), लेकिन मेरे हिसाब से यह अर्थ भी सटीक बैठता है।

नाव मेरी ठहरे जाने कहाँ!
घाट होते नहीं.. सागरों में कहीं..

दूर नहीं है कोई किनारा,
सागर जाती है हर धारा..

डूब के शायद इस नौका को,
मिल जाए किनारा..


इस फिल्म का अंतिम गाना है "आनंद-लोके मंगल-लोके", जिसे गाया है सुदेशना चटर्जी और साथियों ने। हिंदी रूपांतरण में बांग्ला गाने को यथारूप रखने से ज़ाहिर होता है कि निर्माता-निर्देशक ने गुरूदेव को श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयास किया है। रवींद्र संगीत में आधुनिक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग एक सफ़ल प्रयोग बन पड़ा है। भले हीं इसमें बांग्ला भाषा के शब्द हैं, लेकिन संगीत-संयोजन और गायिका की स्पष्ट आवाज़ के कारण गैर-बांग्लाभाषी भी इसे कम-से-कम एक बार सुन सकते हैं। मुझे जितनी बांग्ला आती है, उस हिसाब से यह कह सकता हूँ कि "सत्य-सुंदर" से गुहार लगाई जा रही है कि इस आनंद-लोक, इस मंगल-लोक में पधारें और स्नेह, प्रेम, दया और भक्ति का वरदान दें ताकि हम सबके प्राण कोमल हो सकें। आगे के बोल मुझे कुछ कठिन लगे, इसलिए न तो उन्हें यहाँ उपलब्ध करा पाया और ना हीं उनका अर्थ समझ/समझा पा रहा हूँ।

आनंद लोके मंगल लोके,
बिराजो सत्य-सुंदर..
स्नेह-प्रेम-दया-भक्ति,
कोमल करे प्राण..


तो ये थे "कशमकश" के पाँच गाने। आज के ढिंचाक जमाने में शांत और सरल गानों की कमी जिन किन्हीं को खल रही होगी, उनके लिए यह एलबम "टेलर-मेड" है। हिन्दी फिल्मों के ये दोनों संगीतकार नए हैं, लेकिन इनकी शुरूआत कमज़ोर नहीं कही जा सकती। इन दोनों के लिए तो यह सौभाग्य की बात है कि इन्हें रवींद्र संगीत पर काम करने का अवसर मिला और इनकी धुनों पर गुलज़ार साहब ने बोल लिखे। हाँ मुझे यहाँ गुलज़ार साहब से थोड़ी-सी शिकायत है। यूँ तो आप हर गाने में उपमाओं और "नई सोचों" की लड़ी लगा देते हैं और विरले हीं अपनी पंक्तियों को दुहराते हैं.. फिर ऐसा क्यों है कि "कशमकश" के गानों में "दुहराव-तिहराव" की भरमार है और हर गाने में एक या दो हीं नए ख़्याल हैं। यह मेरी नाराज़गी है अपने "आदर्श" से... आप लोग इस "बहकावे" में मत बहकिएगा। आप तो इन गानों का आनंद लें।

चलिए तो इस बातचीत को यहीं विराम देते हैं। आज की समीक्षा आपको कैसी लगी, ज़रूर बताईयेगा। अगले हफ़्ते फिर मुलाकात होगी। नमस्कार!

आवाज़ रेटिंग - 7.5/10

एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, May 30, 2011

क्या जानूँ सजन होती है क्या गम की शाम....जब जल उठे हों मजरूह के गीतों के दिए तो गम कैसा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 667/2011/107

फ़िल्म-संगीत इतिहास के सुप्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की सातवीं कड़ी में एक ऐसे संगीतकार की रचना लेकर आज हम उपस्थित हुए हैं जिस संगीतकार के साथ भी मजरूह साहब नें एक सफल और बहुत लम्बी पारी खेली है। आप हैं राहुल देव बर्मन। इन दोनों के साथ की बात बताने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि इस जोड़ी को मिलवाने में फ़िल्मकार नासिर हुसैन की मुख्य भूमिका रही है। वैसे कहीं कहीं यह भी सुनने/पढ़ने में आता है कि मजरूह साहब नें पंचम की मुलाक़ात नासिर साहब से करवाई। उधर ऐसा भी कहा जाता है कि साहिर लुधियानवी नें नासिर साहब की आलोचना की थी उनकी व्यावसायिक फ़िल्में बनाने के अंदाज़ की। नासिर साहब नाराज़ होकर साहिर साहब से यह कह कर मुंह मोड़ लिया कि साहिर साहब चाहते हैं कि हर निर्देशक गुरु दत्त बनें। नासिर हुसैन को अपना स्टाइल पसंद था, जिसमें वो कामयाब भी थे, तो फिर किसी और फ़िल्मकार के नक्श-ए-क़दम पर क्यों चलना! और इस तरह से मजरूह बन गये नासिर हुसैन की पहली पसंद और उन्होंने मजरूह साहब से दस फ़िल्मों में गीत लिखवाये। इन दस फ़िल्मों में जिनमें राहुल देव बर्मन का संगीत था, उनमें शामिल हैं 'तीसरी मंज़िल', 'बहारों के सपने', 'यादों की बारात', 'प्यार का मौसम', 'हम किसी से कम नहीं', 'कारवाँ', 'ज़माने को दिखाना है', 'मंज़िल मंज़िल', और 'ज़बरदस्त'।

आइए आज राहुल देव बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी को समर्पित एक गीत सुना जाये फ़िल्म 'बहारों के सपने' से। लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है "क्या जानू सजन होती है क्या ग़म की शाम, जल उठे सौ दीये जब लिया तेरा नाम"। इस गीत में पंचम नें उस ज़माने के हिसाब से एक अनूठा और नवीन प्रयोग किया। उस ज़माने में सुपरिम्पोज़िंग् या मिक्सिंग् की तकनीक विकसित नहीं हुई थी। लेकिन पंचम नें समय से पहले ही इस बारे में सोचा और इसे अपने तरीके से सच कर दिखाया। इस गीत को सुनते हुए आप महसूस करेंगे कि मुख्य गीत के पार्श्व में भी अंतरे में एक गायिका की आवाज़ निरंतर चलती रहती है। पंचम नें गीत को लता की आवाज़ में ईरेज़िंग् हेड को हटाकर रेकॉर्ड किया। उसके बाद दोबारा लता जी से ही आलाप के साथ उसी रेकॉडिंग् पर रेकॉर्ड किया। मिक्सिंग् की तकनीक के न होते हुए भी पंचम नें मिक्सिंग् कर दिखाया था। लेकिन शायद यह बात कुछ लोगों के पल्ले नहीं पड़ी और उन्होंने इस गीत की विनाइल रेकॉर्ड पर लता मंगेशकर के साथ साथ उषा मंगेशकर को भी क्रेडिट दे दी। और लोग यह समझते रहे कि पार्श्व में गाया जा रहा आलाप उषा जी का है। लता जी के ट्विटर पर आने के बाद किसी नें उनसे जब इस बारे में पूछा था कि क्या उषा जी की आवाज़ उस गीत में शामिल है, तो उन्होंने सच्चाई बता दी कि गीत को सिर्फ़ और सिर्फ़ उन्होंने ही गाया था और दो बार इसकी रेकॉर्डिंग् हुई थी। इसी बात से पंचम के सृजनशीलता का पता चलता है। तो आइए इस ख़ूबसूरत गीत को सुनें और सलाम करें मजरूह-पंचम की इस जोड़ी को। सचमुच ऐसे लाजवाब गीतों को सुनते हुए जैसे सौ दीये जल उठते हैं हमारे मन में।



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी नें करीब करीब ३५० फ़िल्मों में करीब ४००० गीत लिखे हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - ३ अंक
सवाल २ - किन युगल आवाजों में है ये गीत - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी के आने से मुकाबला रोचक हो गया है, बाज़ी शरद जी, अविनाश जी और क्षिति जी किसी की भी हो सकती है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, May 29, 2011

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 666/2011/106

"मजरूह साहब का ताल्लुख़ अदब से है। वो ऐसे शायर हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर मशहूर नहीं हुए, बल्कि वो उससे पहले ही अपनी तारीफ़ करवा चुके थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा गानें लिखे हैं, जिनमें कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे भी हैं। आदमी के देहान्त के बाद उसकी अच्छाइयों के बारे में ही कहना चाहिए। वो एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो थे। वो आज हम सब से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी अच्छाइयों के साथ साथ उनकी बुराइयाँ भी हमें अज़ीज़ है। आर. डी. बर्मन साहब की लफ़्ज़ों में मजरूह साहब का ट्युन पे लिखने का अभ्यास बहुत ज़्यादा था। मजरूह साहब नें बेशुमार गानें लिखे हैं जिस वजह से साहित्य और अदब में कुछ ज़्यादा नहीं कर पाये। उन्हें जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया, तब उन्होंने यह कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें साहित्य के लिये मिलता तो उसकी अहमियत बहुत ज़्यादा होती। "उन्होंने कुछ ऐसे गानें लिखे हैं जिन्हें कोई पढ़ा लिखा आदमी, भाषा के अच्छे ज्ञान के साथ ही, हमारे कम्पोज़िट कल्चर के लिये लिख सकता है।" - निदा फ़ाज़ली।

६० के दशक का पहला गीत इस शृंखला का हमनें कल सुना था फ़िल्म 'दोस्ती' का। आज सुनिये इसी दशक का फ़िल्म 'आकाशदीप' का गीत जिसके संगीतकार हैं चित्रगुप्त। इस संगीतकार के साथ भी मजरूह साहब नें बहुत काम किया है। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह ग़ज़ल है "मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था, मुझे आप किसलिये मिल गये, मैं अकेले युं ही मज़े में था, मुझे आप किसलिये मिल गये"। यह १९६५ की फ़िल्म थी जिसका लता जी का गाया "दिल का दीया जलाके गया" आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहले सुन चुके हैं। दोस्तों, १९६४-६५ का समय संगीतकार चित्रगुप्त के करीयर का शिखर समय था। पंकज राग लिखित किताब 'धुनों की यात्रा' में चित्रगुप्त के अध्याय में एक जगह यह लिखा गया है कि चित्रगुप्त के पुत्र आनंद ने एक साक्षात्कार में बताया था कि चित्रगुप्त की व्यस्तता का १९६४ का एक ज़माना वह भी था कि एक दिन आनंद बक्शी उनके घर बगीचे में गीत लिख रहे थे, तो मजरूह कहीं और डटे हुए थे, राजेन्द्र कृष्ण उनके संगीत-कक्ष में लगे थे और प्रेम धवन पिछवाड़े के नारियल के पेड़ के नीचे बैठे लिख रहे थे, और चित्रगुप्त बारी-बारी से एक हेडमास्टर की तरह सबके पास जाकर उनकी प्रगति आँक रहे थे। दोस्तों, है न मज़ेदार! और ऐसे ही न जाने कितने प्रसंग होंगे जो इन स्वर्णिम गीतों और इन लाजवाब फ़नकारों से संबंधित होंगे। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ में हमारी कोशिश और हमारी तलाश यही रहती है कि ऐसी दिलचस्प जानकारियों से हर शृंखला को समृद्ध करें। इसमें आप भी अपना सहयोग दे सकते हैं। अगर आपके पास भी फ़िल्म-संगीत इतिहास की अनोखी जानकारियाँ हैं तो आप उसे एक ईमेल में टाइप कर सूत्रब या संदर्भ के साथ हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भेज सकते हैं। और आइए अब आनंद लें रफ़ी साहब की आवाज़ में मजरूह-चित्रगुप्त के इस गीत का। गीत फ़िल्माया गया है अभिनेता धर्मेन्द्र पर। चलते चलते मजरूह की इस ग़ज़ल के तमाम शेर पेशे खिदमत है.

मुझे दर्द-ए-दिल का पता न था, मुझे आप किसलिये मिल गये,
मैं अकेले युं ही मज़े में था, मुझे आप किसलिये मिल गये।

युं ही अपने अपने सफ़र में गुम, कहीं दूर मैं कहीं दूर तुम,
चले जा रहे थे जुदा जुदा, मुझे आप किसलिये मिल गये।

मैं ग़रीब हाथ बढ़ा तो दूँ, तुम्हे पा सकूँ कि न पा सकूँ,
मेरी जाँ बहुत है ये फ़ासला, मुझे आप किसलिये मिल गये।

न मैं चांद हूँ किसी शाम का, न चिराग़ हूँ किसी बाम का,
मैं तो रास्ते का हूँ एक दीया, मुझे आप किसलिये मिल गये।



क्या आप जानते हैं...
कि हिंदी शब्दों में मजरूह साहब को कुछ शब्दों में ख़ासा दिलचस्पी थी, जैसे कि "प्यारे" और "दीया"। "दीया" शब्द के प्रयोग वाले गीतों में उल्लेखनीय हैं "दिल का दीया जलाके गया" (आकाशदीप), "क्या जानू सजन होती है क्या ग़म की शाम, जल उठे सौ दीये" (बहारों के सपने), "दीये जलायें प्यार के चलो इसी ख़ुशी में" (धरती कहे पुकार के)।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 7/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - ३ अंक
सवाल २ - किस नायिका पर है ये गीत फिल्माया हुआ - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार टक्कर कांटे की है, अविनाश जी ८ अंक लेकर आगे चल रहे हैं, ६ अंकों पर हैं क्षिति जी, प्रतीक जी हैं ५ अंकों पर शरद जी ३ और हमारी प्रिय इंदु जी हैं २ अंकों पर.....इंदु जी आपको भूलें हमारी इतनी हिम्मत, अवध जी आप यूहीं आकार दिल खुश कर दिया कीजिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

रंगमहल के दस दरवाज़े न जाने कौन सी खिडकी खुली थी...शोभा गुर्टू



सुर संगम - 22 - शोभा गुर्टू

वे न केवल अपने गले की आवाज़ से बल्कि अपनी आँखों से भी गाती थीं। एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति वे भाव बदलती थीं, चाहे वह रयात्मक या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्क्बाज़ हो।

सुर-संगम के २२वें साप्ताहिक अंक में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का अभिनन्दन करता हूँ। आज रविवार की आपकी सुबह को मनमोहक बनाने के लिए हम एक ऐसी गायिका के बारे में चर्चा करेंगे जिनकी आवाज़ को सुनते ही आपका मन प्रसन्न हो उठेगा। एक ऐसी शास्त्रीय शिल्पी जिन्होंनें ठुमरी शैली को विश्व भर में प्रसिद्ध किया, जिन्हें "ठुमरी क्वीन" (ठुमरियों की रानी) कहा जाता है। जी, आपने ठीक पहचाना, मेरा इशारा श्रीमति शोभा गुर्टू की ओर ही है!

शोभा गुर्टू(असली नाम भानुमति शिरोडकर) का जन्म कर्णाटक के बेलगाम ज़िले में १९२५ को हुआ था| उनकी माताजी श्रीमती मेनेकाबाई शिरोडकर स्वयं एक नृत्यांगना थीं तथा जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ से गायकी सीखती थीं| शास्त्रीय संगीत सीखने की प्रेरणा उन्हें अपनी माँ से ही मिली| शोभा जी ने संगीत की प्राथमिक शिक्षा उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ के सुपुत्र उस्ताद भुर्जी ख़ाँ साहब से प्राप्त की| यूँ तो उसके बाद उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ के भतीजे उस्ताद नत्थन ख़ाँ से मिली तालीम ने उनके सुरों में जयपुर-अतरौली घराने के जड़ो को सुदृढ़ किया परंतु उनकी गायकी को एक नयी दिशा और पहचान मिली उस्ताद घाममन ख़ाँ की छत्रछाया में, जो उनकी माँ को ठुमरी-दादरा व अन्य शास्त्रीय शैलियाँ सिखाने मुंबई में उनके परिवार के साथ रहने पधारे| आइए शोभा गुर्टू जी के बारे में आगे जानने से पूर्व सुनते हैं उनका गाया हुआ यह दादरा जो है उप-शास्त्रीय संगीत का ही एक रूप| गीत के बोल हैं - "रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे, मोहे मारे नजरिया साँवरिया रे"।

दादरा - रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे


शुद्ध शास्त्रीय संगीत में शोभा जी की अच्छी पकड़ तो थी ही किन्तु उन्हें देश-विदेश में ख्याति प्राप्त हुई ठुमरी, कजरी, होरी, दादरा आदि उप-शास्त्रीय शैलियों से जिनके अस्तित्व को बचाने में उन्होंने विशेष भूमिका निभाई| आगे चलकर अपने मनमोहक ठुमरी गायन के लिए वे "ठुमरी क्वीन" कहलाईं| वे न केवल अपने गले की आवाज़ से बल्कि अपनी आँखों से भी गाती थीं। एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति वे भाव बदलती थीं, चाहे वह रयात्मक या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्क्बाज़ हो। उनकी गायकी बेगम अख़्तर तथा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब से ख़ासा प्रभावित थी| अपने कई कार्यक्रम वे कत्थक नृत्याचार्य पंडित बिर्जु महाराज के साथ प्रस्तुत किया करती थीं जिनमें विशेष रूप से उनके गायन के 'अभिनय' अंग का प्रयोग किया जाता था| लीजिए प्रस्तुत है एक वीडियो जिसमें वे राग भैरवी में ठुमरी - "सैय्याँ निकस गये मैं ना लड़ी थी" गाते हुए इसी अभिनय अंग को दर्शा रहीं हैं|

वीडियो - भैरवी ठुमरी - सैय्याँ निकस गये मैं न लड़ी थी


उनका विवाह बेलगाम के श्री विश्वनाथ गुर्टू से हुआ था जिनके पिता पंडित नारायण नाथ गुर्टू बेलगाम पुलीस के एक वरिष्ठ अधिकारी होने के साथ-साथ स्‍वयं एक संगीत विद्वान तथा सितार वादक थे| गुर्टू दंपत्ति के तीन सुपुत्रों में सबसे छोटे त्रिलोक गुर्टू एक प्रसिद्ध तालवाद्य शिल्पी हैं| शोभा जी ने कई हिन्दी और मराठी फ़िल्मों में गीत गाए| १९७२ मे आई कमल अमरोही की फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' में उन्हें पहली बार पार्श्वगायन का मौका मिला जिसमे उन्होंने एक भोपाली "बंधन बांधो" गाया था| इसके बाद १९७३ में फ़िल्म 'फागुन' में "मोरे सैय्याँ बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ" गाया तथा १९७८ में असित सेन द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' में ठुमरी 'सैय्याँ रूठ गए मैं मनाऊँ कैसे' के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स में नामांकित किया गया| पुरस्कारों की अगर बात की जाए तो १९८७ में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा वर्ष २००२ में पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया|

लगभग ५ दशकों तक 'क्वीन ऑफ ठुमरी' के रूप में अपना वर्चस्व बनाए रखने के पश्चात २७ सितंबर २००४ को शोभा गुर्टू नामक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का यह नक्षत्र अस्त हो गया परंतु अपने पीछे संगीत प्रेमियों के लिए छोड़ गया अपनी बुलंद आवाज़ में गाई हुई कई मनमोहक ठुमरियाँ जिन्हें आज भी उनके प्रशंसक बहुत चाव से सुनते हैं| आइये इन्हें याद करते हुए सुनें फ़िल्म 'फ़ागुन' में उनकी गाई हुई ठुमरी - " मोरे सैय्याँ बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ "।

ठुमरी - मोरे सैय्याँ बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ (फ़िल्म - फ़ागुन)


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए और पहचानिए इस आवाज़ को।


पिछ्ली पहेली का परिणाम: अर्रे! क्षिति जी ने इस बार पहचानने में भूल कर दी। खैर टक्कर अब भी लगभग काँटे की बनी हुई है आपके और अमित जी के बीच :)

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में मजरूह साहब के गीतों का ग़ुलदस्ता हाज़िर होगा, पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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