Saturday, October 3, 2009

पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी...फाल्के सम्मान पाने के बाद पहली बार पधारे मन्ना दा ओल्ड इस गोल्ड पर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 221

ब से पुराने संगीत की अगर हम बात करें तो वो है हमारा शास्त्रीय संगीत, जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। चार वेदों में सामवेद में संगीत का व्यापक वर्णन मिलता है। सामवेद ऋग्वेद से निकला है और उसके जो श्लोक हैं उन्हे सामगान के रूप में गाया जाता था। फिर उससे 'जाती' बनी और फिर आगे चलकर 'राग' बनें। ऐसी मान्यता है कि ये अलग अलग राग हमारे अलग अलग 'चक्र' (उर्जाबिंदू) को प्रभावित करते हैं। ये अलग अलग राग आधार बनें शास्त्रीय संगीत का और युगों युगों से इस देश के सुरसाधक इस परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं, हमारी संस्कृति को सहेजते हुए बढ़े जा रहे हैं। शास्त्रीय संगीत के असर से हमारे फ़िल्म संगीतकार भी बच नहीं पाए हैं और इतिहास गवाह है कि जब भी संगीतकारों ने राग प्रधान गीतों की रचना की है, वे गानें कालजयी बन गए हैं। और ऐसी ही कुछ कालजयी राग प्रधान फ़िल्मी रचनाओं को संजोकर हम आप के लिए आज से अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में ले आए हैं एक ख़ास शृंखला 'दस राग दस रंग'। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि ये दस गीत दस अलग अलग रागों पर आधारित होंगे। गीतों को सुनवाने के साथ साथ संबंधित रागों के बारे में हम थोड़ी बहुत जानकारी भी देंगे। क्योंकि हमें रागों की विशेषज्ञता हासिल नहीं है, इसलिए हम रागों के तक़नीकी पक्ष में नहीं झाँकेंगे। हाँ लेकिन अगर आप में से कोई शास्त्रीय संगीत और रागों की जानकारी रखते हों तो आप टिप्पणी में उसकी चर्चा ज़रूर कर सकते हैं, हमें बेहद ख़ुशी होगी। तो दोस्तों, आइए शुरु किया जाए यह राग-रंग, आज का राग है अहिरभैरव। यह एक मिश्रित राग है, यानी कि भैरव और अहिरि के मिश्रण से यह बना है। अहिरि (जिसे अभिरि भी कहा जाता है) प्राचीनतम रागों में से है। कुछ संगीतज्ञ अहिरभैरव को भैरव और काफ़ी का मिश्रण भी कहते हैं। कर्नाटक शैली में इस राग को चक्रवाकम कहते हैं। अहिरभैरव एक उत्तरांग राग है और जिसे प्रात: काल में गाया जाता है। इसे सुबह के दूसरे प्रहर, यानी कि ६ बजे से ९ बजे के बीच गाया जाता है। अहिरभैरव पर आधारित फ़िल्मों के लिए बेशुमार गीत बनें हैं, और वो भी एक से एक सुपरहिट। हमने जिस गीत को चुना है वह है मन्ना डे की आवाज़ में फ़िल्म 'मेरी सूरत तेरी आँखें' से - "पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई"। शैलेन्द्र के बोल, सचिन देव बर्मन का संगीत।

हाल ही में हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दादा साहब फाल्के से पुरस्कृत न्ना डे एक ऐसे गायक रहे हैं जिन्होने फ़िल्मों में सब से ज़्यादा इस तरह की रचनाएँ गायी हैं। या फिर युं कहिए कि इस तरह की शास्त्रीय रचनाओं के लिए उनसे बेहतर नाम कोई नहीं था उस ज़माने में और ना आज है। यह ज़रूर अफ़सोस की बात रही है कि मन्ना दा को नायकों के लिए बहुत ज़्यादा पार्श्वगायन का मौका नहीं मिला, लेकिन जब भी शास्त्रीय रंग में ढला कोई "मुश्किल" गीत गाने की बारी आती थी तो हर संगीतकार को सब से पहले इन्ही की याद आती थी। शास्त्रीय संगीत पर उनकी मज़बूत पकड़ और उनकी सुर साधना को सभी स्वीकारते हैं और फ़िल्म संगीत जगत में उनका नाम आज भी बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। जहाँ तक प्रस्तुत गीत के संगीत की बात है तो बर्मन दादा अपने इस गीत को अपनी सर्वोत्तम रचना मानते हैं, और उन्होने यह भी कहा है कि "इसमें एक सुर मेरा अपना है और बाक़ी सारे अहिरि भैरव पर आधारित है"। फ़िल्म 'मेरी सूरत तेरी आँखें' का यह गीत फ़िल्माया गया था दादामुनि अशोक कुमार पर। १९६८ में रिकार्ड किए हुए दादामुनि द्वारा प्रस्तुत विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में उन्होने कहा था कि इस फ़िल्म में उन्होने एक बदसूरत गायक की भूमिका अदा की थी और इस गीत पर अभिनय करते समय उनकी आँखों में सचमुच के आँसू आ गए थे। दोस्तों, यही तो बात है इस मिट्टी के संगीत में, यहाँ के कलाकारों में। लीजिए प्रस्तुत है राग अहिरभैरव पर आधारित बर्मन दादा की सर्वश्रेष्ठ गीत रचना।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राग यमन कल्याण पर आधारित है ये युगल गीत.
२. रोशन हैं संगीतकार और हेमंत दा का हैं पुरुष स्वर.
३. एक अंतरे की पहली दो पंक्तियों में ये शब्द है -"पाप".

पिछली पहेली का परिणाम -

पूर्वी जी लगातार अच्छा प्रदर्शन करते हुए आप पहुँच गयी हैं ४२ अंकों के स्कोर पर...बधाई...पराग जी क्षमा चाहते हैं जो आपको असुविधा हुई. रोहित जी वाकई ये सब लता जी के दुर्लभतम गीतों में से थे, और हम में से बहुतों से इन्हें कभी नहीं सुना होगा, अजय देशपांडे जी के चुनाव और सुजॉय की मेहनत ने इस प्रयास को सफल बनाया. अभी कल जब मेरी अजय जी से इस बारे में बात हुई तो उन्होंने खुलासा किया कि कल का गीत "अल्लाह भी है मल्लाह भी...." एक ज़माने में बन रही फिल्म अनारकली का क्लाइमेक्स गीत होना था, वो फिल्म कभी नहीं बनी, पर इस गीत को बाद में इस फिल्म "मान" में शामिल कर लिया गया और एक भिखारिन का किरदार निभा रही कलाकार पर इसे फिल्माया गया...हैं न मजेदार बात, शरद कोकास जी और अरविन्द जी ओल्ड इस गोल्ड पर निरंतर आते रहिये और दिलीप जी, मंजू जी जरा समय से आकर जवाब देकर मुकाबले को दिलचस्प बनाईये.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पंचलाइट - रेणु



सुनो कहानी: फणीश्वर नाथ "रेणु" की "पंचलाइट"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने नितिन व्यास की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी "बोर" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं हिंदी साहित्यकार पद्मश्री फणीश्वर नाथ "रेणु" की प्रसिद्ध आंचलिक कहानी "पंचलाइट", जिसको स्वर दिया है कवि, आयोजक, गायक, व्यंग्यकार एवं रंगकर्मी शरद तैलंग ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 10 मिनट 2 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।





अपने घर की ढिबरी को भी बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरों के पंचलैट को लालटेन।
~ फणीश्वर नाथ "रेणु" (1921-1977)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी


गोधन ने एक बार मुनरी की और देखा। मुनरी की पलकें झुक गयीं।
(फणीश्वर नाथ "रेणु" की "पंचलाइट" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3


#Fourtieth Story, Panch-Light: Faneeshwar Nath Renu/Hindi Audio Book/2009/34. Voice: Sharad Tailang

Friday, October 2, 2009

अल्लाह भी है मल्लाह भी....लता के स्वरों में समायी है सारी खुदाई ..साथ में सलाम है अनिल बिश्वास दा को भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 220

ता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद पुराने, भूले बिसरे, और दुर्लभ नग़मों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' की अंतिम कड़ी में। पिछले नौ दिनों आप ने नौ अलग अलग संगीतकारों की धुनों पर लता जी की सुरीली आवाज़ सुनी, आज जिस संगीतकार की रचना हम पेश करने जा रहे हैं वो एक ऐसे संगीतकार हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के संगीतकारों का भीष्म पितामह कहा जाता है। आप हैं अनिल बिस्वास (विश्वास)। एक बार जब उन्हे किसी ने फ़िल्मी संगीतकारों का भीष्म पितामह कह कर संबोधित किया तो उन्होने उसे सुधारते हुए कहा था कि 'R.C. Boral is the father of film music directors, I am only the uncle'| यह सच ज़रूर है कि न्यु थियटर्स के आर. सी. बोराल, तिमिर बरन, पंकज मल्लिक, के. सी. डे जैसे संगीतकारों ने फ़िल्मों में सुगम संगीत की नींव रखी, लेकिन जब सुनहरे युग की बात चलती है तो उसमें अनिल बिस्वास का ही नाम सब से पहले ज़हन में आता है। ख़ैर, इस पर हम फिर कभी बहस करेंगे, आज ज़िक्र लता जी और अनिल दा का। अनिल दा उन संगीतकारों में से हैं जिन्होने लता जी से उनके शुरुआती दिनों में कई गीत गवाए थे। इससे पहले कि हम आज के गीत का ज़िक्र छेड़ें, प्रस्तुत है अनिल बिस्वास के उद्‍गार लता जी के बारे में और उन बीते हुए सुनहरे दिनों के बारे में। यह अमीन सायानी के एक इंटरव्यू का एक अंश है दोस्तों, जिसे बरसों पहले रिकार्ड किया गया था - "किसी से मैने पूछा था 'देखो मैं सुनता हूँ टीवी पर, बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ें आ रहीं हैं आजकल, दो तीन आवाज़ें मुझे बहुत पसंद आई, लेकिन क्या वजह है कि लोगों को चान्स नहीं देते हो?' तो उस साहब ने कहा कि 'समय किसके पास है साहब? वो तो लता दीदी आती हैं और रिहर्सल विहर्सल कुछ नहीं करती हैं और गाना वहीं सुन लेती हैं और रिकार्ड हो जाता है, सब कुछ ठीक हो जाता है'। तो रिहर्सल लेने के लिए इन लोगों के पास समय नहीं है। और हमारे साथ तो ऐसी बात हुई कि लता दीदी ने ही, उनके पास भी समय हुआ करता था रिहर्सल देने के लिए और एक गाना शायद आपको याद होगा, जो चार ख़याल मैने पेश किए थे फ़िल्म 'हमदर्द' में, "ऋतू आए ऋतू जाए", १५ दिन बैठके लता दी और मन्ना दादा, १५ दिन बैठके उसका प्रैक्टिस किया था।"

आज जिस गीत के ज़रिए हम लता जी और अनिल दा के सुरीले संगम को याद करने जा रहे हैं वह गीत है १९५४ की फ़िल्म 'मान' का। अजीत, चित्रा, जागिरदार और कमलेश कुमारी अभिनीत यह फ़िल्म कामयाब नहीं रही और इसके गीतों को भी लोगों ने समय के साथ साथ भुला दिए। इस फ़िल्म में लता जी का गाया एक बहुत ही सुंदर भक्ति रचना है "अल्लाह भी है मल्लाह भी है, कश्ती है कि डूबी जाती है", जिसे गीतकार कैफ़ भोपाली ने लिखा था। कैफ़ भोपाली का नाम याद आते ही याद आते हैं फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के दो गीत "तीर-ए-नज़र देखेंगे" और "चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो"। कैफ़ साहब बहुत ज़्यादा गीत फ़िल्मों में नहीं लिखे, लेकिन जितने भी लिखे उनमें अपने स्तर को कभी गिरने नहीं दिया। 'दाएरा', 'डाकू', 'शंकर हुसैन', 'मान' और 'पाक़ीज़ा' जैसी फ़िल्मों में उन्होने गीत लिखे हैं। फ़िल्म 'मान' के प्रस्तुत गीत में अल्लाह और मल्लाह का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल करते हुए कैफ़ साहब नायिका की ज़ुबाँ से ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि लाख कोशिशें करने के बावजूद (जिस तरह मल्लाह अपनी नाव को डूबने से बचाने का हर संभव प्रयास करता है) और लाख ईश्वर पर भरोसा होने के बावजूद भी दिल की नैय्या डूबती जा रही है। "इक शमा घिरी है आंधी में, बुझती भी नहीं जलती भी नहीं, शमशीर-ए-मोहब्बत क्या कहिए, रुकती भी नहीं चलती भी नहीं, मजबूर मोहब्बत रह रह कर हर साँस ठोकर खाती है"। तो दोस्तों, यह गीत सुनिए और इसी के साथ लता जी पर केन्द्रित इस विशेष शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' का यहीं पर समापन होता है, हालाँकि लता जी के गाए सदाबहार गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर युंही जारी रहेंगे, लेकिन उनके गाए भूले बिसरे १० गीतों की यह माला आज यहाँ पूरी हो रही है। और इस गीतमाला को रचने में नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे जी का बहुत ही सराहनीय योगदान रहा, जिन्होने लता जी के गाए इन १० गीतों को चुनकर हमें भेजा। उनके सहयोग के बिना इन गीतों को आप तक पहुँचाना हमारे लिए संभव नहीं होता। तो एक बार फिर से अजय जी को धन्यवाद देते हुए आज के लिए हम विदा लेते हैं, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया तो!



अल्लाह भी है मल्लाह भी है
अल्लाह भी है मल्लाह भी है
कश्ती है कि डूबी जाती है
अल्लाह भी है मल्लाह भी है

हम डूब तो जाएंगे लेकिन
दोनों ही पे तोहमत आती है
अल्लाह भी है मल्लाह भी है

इक शमा घिरी है आंधी में
बुझती भी नही जलती भी नही
शमशीर -ए -मोहब्बत क्या कहिये
रुकती भी नही चलती भी नही
मजबूर मोहब्बत रह रह कर
हर सांस ठोकर खाती है
अल्लाह भी है मल्लाह भी है

एक ख्वाब नज़र सा आया था
कुछ देख लिया कुछ टूट गया
एक तीर जिगर पर खाया था
कुछ डूब गया कुछ टूट गया
कुछ डूब गया कुछ टूट गया
क्या मौत की आमद आमद है
क्या मौत की आमद आमद है
क्यूँ नींद सी आयी जाती है
अल्लाह भी है मल्लाह भी है

और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस महागायक ने जीता है इस वर्ष का दादा साहब फाल्के सम्मान जिसकी आवाज़ में है कल का गीत.
२. दस राग पर आधारित दस शानदार गीत होंगें अगले १० एपिसोड्स में, कल का राग है -अहिरभैरव.
३. एक अंतरे की अंतिम पंक्ति में शब्द है -"उमर".

पिछली पहेली का परिणाम -

पूर्वी जी ४० अंकों तक पहुँचने की जबरदस्त बधाई, बस अब आप १० अंक पीछे हैं, लता वाली सीरीस और बोनस अंकों का सही फायदा आपने ही उठाया.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ये खेल होगा नहीं दुबारा...बड़ी हीं मासूमियत से समझा रहे हैं "निदा" और "जगजीत सिंह"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५०

हफ़िल-ए-गज़ल की जब हमने शुरूआत की थी, तब हमने सोचा भी नहीं था कि गज़लों का यह सफ़र ५०वीं कड़ी तक पहुँचेगा। लेकिन देखिए, देखते हीं देखते वह मुकाम भी हमने हासिल कर लिया। यह आप सबके प्यार और हौसला-आफ़ज़ाई के कारण हीं मुमकिन हो पाया है, नहीं तो हर बार कुछ नया लाना इतना आसान नहीं होता। उम्मीद है कि हम आपकी उम्मीदों पर खड़े उतर रहे हैं। हर बार आपके लिए कुछ नया लाने में हमारा भी बड़ा फ़ायदा है। न जाने ऐसे कितने नगीने हैं जो मिट्टी-तले दबे रहते हैं और उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए हम हर बार आपके सामने आते रहते हैं। आपने जिस तरह हमारा आज तक साथ दिया है, बस यही इल्तज़ा है कि आगे भी साथ बने रहिएगा। इसी दुआ के साथ पिछली कड़ी के अंकों का खुलासा करते हैं। तो हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शामिख जी: २ अंक और शरद जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: हम आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब आज के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। इन सवालों का सबसे पहले सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। पिछली नौ कड़ियों और आज की कड़ी को मिलाकर जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) गानों में सरगम तकनीक का इस्तेमाल करने वाले एक फ़नकार जिसे टाईम मैगजीन ने २००६ में "एशियन हीरोज़" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था। उस फ़नकार के नाम के साथ यह भी बताएँ कि हमने उनकी जो गज़ल सुनाई थी उसे वास्तव में किस रिकार्ड लेबल के लिए रिकार्ड किया गया था?
२) उस फ़नकारा का नाम बताएँ जो हिंदी के प्रख्यात समीक्षक की पौत्री और एक क्रिकेट कमेंटेटर की पुत्री हैं और जिनका संगीत की सभी विधिओं पर एकसमान अधिकार है। साथ हीं यह भी बताएँ कि हमने उस कड़ी में जिस समारोह की बातें की थी उस समारोह की शुरूआत का श्रेय किसे दिया जाता है?

महफ़िल-ए-गज़ल की स्वर्ण जयंती पर पेश है यह बोनस प्रश्न जिसका उत्तर देकर आप एक बार में ५ अंकों की बढोतरी ले सकते हैं। ध्यान रखिएगा कि जो भी इस प्रश्न का सबसे पहले सही उत्तर देगा बस उसी को ये अंक मिलेंगे यानि कि अंक बंटेंगे नहीं।

३) ४०-५० के दशक की जानीमानी संगीतकार-जोड़ी जिनके बड़े भाई की संगीतबद्ध एक गज़ल हमने आपको सुनवाई थी। उस कड़ी में हमने उस फ़नकार की भी बातें की थी जो महज़ १४ साल की उम्र में ५ जून १९४२ को सुपूर्द-ए-खाक हो गया। उन सबका नाम बताएँ जिनका ज़िक्र इस प्रश्न में आया है।


तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।

मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी।

कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं|

बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम|

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना|

आज हम जिस शायर की नज़्म सुनने और सुनाने जा रहे हैं, ये पंक्तियाँ उन्होंने हीं लिखी थी और वो भी अपने अब्बा की मौत पर। किसी कारणवश वे अपने अब्बा की मैय्यत में शरीक़ नहीं हो पाए थे। अब्बा उनके दिल के कितने करीब थे, यह तो नहीं पता, लेकिन इतना पता है कि जो किसी अपने की मौत में अपनी मौत को देख लेता है, उससे फिर कोई भी भावना अछूती नहीं रह जाती। वह शायर वह सबकुछ लिख सकता है, जिसे लिखने में बाकी लोग कतराते हैं। वही शायर जब बच्चों की मार्फ़त यह कहता है तो बवाल खड़े हो जाते हैं:

बच्चा बोला देख के मस्जिद आलीशान
मालिक तेरे एक को इतना बड़ा मकान।

वह शायर,जिसे लोग "निदा फ़ाज़ली" कहते हैं और जिसका असल नाम "मुक़तदा हसन" है, हिन्दुस्तानियों के लिए "बर्तोल्त ब्रेख्त" हो जाता है। जानकारी के लिए बता दें कि ब्रेख्त हिटलर के समकालीन थे। हिटलर ने जब बहुत से तत्कालीन लेखकों की किताबों को अपने खिलाफ पाकर बैन किया तो पता नहीं कैसे ब्रेख्त की किताब छूट गई। ब्रेख्त ने हिटलर को खत लिखा और कहा कि मैं भी आपके बहुत खिलाफ हूँ, मेरी भी किताबें आप बैन कीजिए, वरना इतिहास यही समझेगा कि मैं या तो आपके पक्ष में था या इतना महत्वपूर्ण नहीं था कि आप मेरी किताबें बैन करें। अपने विचारों, अपनी नज्मों के कारण निदा ने भी बहुत दिन तक बाल ठाकरे का अघोषित प्रतिबंध झेला है। ब्रेख्त की तरह निदा भी अपने मन के शायर हैं, गजलें उन्होंने कही जरूर हैं, पर जिन विषयों पर वो शायरी करते हैं, वो विषय गजल का नहीं है। (सौजन्य: वेबदुनिया) निदा साहब से जब यह पूछा गया कि उनकी शायरी की शुरूआत कैसे हुई तो उनका जवाब कुछ यूँ था: मेरे वालिद अपने ज़माने के अच्छे शायर थे। नाम था 'दुआ डबाइवी'। उनके अशआर मुझे ज़ुबानी याद थे। यही अशआर सुना-सुनाकर मैं क़ॉलेज में अपने दोस्तों से चाय पिया करता था। कभी-कभी तो नाश्ते का इंतिज़ाम भी हो जाया करता था। उनके अशआर सुनाते-सुनाते ख़ुद भी शे'र कहने लगा।

निदा साहब यूँ तो क्रांतिकारी विचारों के शायर थे और हैं भी लेकिन आज हम उनसे वह किस्सा सुनना चाहेंगे जिसके कारण उनका फिल्मों में आना हुआ। आप सब सुजाय जी को तो ज़रूर हीं जानते होंगे(आवाज़ पर प्रसारित होने वाले "ओल्ड इज गोल्ड" के मेजबान)। उन्हीं की बदौलत हमें रेडियो पर आने वाले "आज के मेहमान" कार्यक्रम की वह रिकार्डिंग हासिल हुई है, जिसमें निदा साहब मौजूद थे। उस मज़ेदार घटना को याद करते हुए वे कहते हैं: जब मैं मुंबई आया तो मैने धर्मवीर भारती के "धर्मयुग" में लिखना शुरू कर दिया, उसके बाद मै "ब्लिट्ज़" में लिखने लगा। उसी दौरान कभी "धर्मयुग" में तो कभी "ब्लिट्ज़" में तो कभी किसी रेडियो स्टेशन में मुझे मैसेज़ मिलने लगे कि "मैं आप से मिलना चाहता हूँ- कमाल अमरोही"। मैंने सोचा कि मेरा कमाल अमरोही से क्या काम हो सकता है। मैं कमाल अमरोही से मिलने चला गया। कमाल साहब मिले करीब २ बजे, वो स्टाईलिश आदमी थे, वो एक लफ़्ज़ भी अंग्रेजी का बोलते नहीं थे और वो भाषा बोलते थे जो आज से ५० साल पहले अमरोहा में बोली जाती थी। मैं वो भाषा बंबई आकर भूल गया था। मैंने कहा "कमाल साहब, आदाब अर्ज़ है, मेरा नाम निदा फ़ाज़ली है"। तो वो बोले- "तशरीफ़ रखिए, मैंने आपको इसलिए याद फ़रमाया है"- ये उनका स्टाईल था, "मैंने आपको इसलिए याद फ़रमाया है कि मुझे एक मुक़म्मल शायर की ज़रूरत है", मैंने कहा कि मैं हाज़िर हूँ और इस इज़्ज़त आफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया कि आप मुझे मुक़म्मल शायर समझ रहे हैं। बोले- "जी, मुझे आपसे कुछ नगमात तहरीर करवाने हैं"। मैने कहा कि मैं हाज़िर हूँ साहब, आप बताईये कि कैसा गाना है, क्या लिखना है, तो वो बोले कि "इससे पहले कि आप गाना लिखें, एक बात मैं ज़ाहिर कर देना चाहता हूँ कि इल्मी शायरी और फिल्मी शायर अलग होती है। इल्मी शायरी लिखने के लिए आपको मेरे मिज़ाज़ की शिनाख्त बहुत ज़रूरी है, जाँ निसार अख्तर मेरे मिज़ाज को पहचान गए थे, लेकिन वो अल्लाह को प्यार हो गए। इतना कहने के बाद उन्होंने सिचुएशन सुनाई- "हमारी दास्तान उस मुकाम पर आ गई जहाँ मल्लिका-ए-आलिया रज़िया सुल्तान, यानि हमारी हेमा मालिनी, सियाहा लिबास में खरामा-खरामा चली आ रही है, जिसे देखकर हमारा आलया कासी खैरमक़दम के लिए आगे बढता है।" मेरे कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा, मैं कुछ देर बैठा रहा, फिर उनके असिस्टेंट ने कहा कि इसका मतलब है कि हेमा मालिनी सफ़ेद घोड़े पर काले लिबास पहने आ रही हैं और आलया कासी मतलब कैमरा उनकी तरफ़ बढ रहा है। इसके बाद मैंने उस फिल्म के आखिरी दो गाने लिखे। लेकिन उस फिल्म के बनने में इतना वक्त लगा कि कमाल साहब के गुडविल ने फिल्म-इंडस्ट्री में मुझे मशहूर कर दिया कि कोई ऐसा है जिससे कमाल अमरोही गाने लिखवा रहे हैं।

निदा साहब के बारे में और भी बहुत कुछ है कहने को, लेकिन आज बस इतना हीं। वैसे हीं स्वर्ण जयंती के कारण आज हमारी मुलाकात का दौर कुछ ज्यादा हीं चला। इसलिए वक्त है अब आज की नज़्म सुनवाने का। यह नज़्म मेरी पसंदीदा नज़्मों में से एक है। जहाँ एक तरह निदा साहब के मासूम अल्फ़ाज़ हैं तो वही दूसरी तरह जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़। आप खुद देखिए:

ये ज़िन्दगी,
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है।

ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है।

बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा।

सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ,
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा,
ये खेल होगा नहीं दुबारा।

ये खेल होगा नहीं दुबारा॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

इतना ___ न हो ख़िलवतेग़म से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा


आपके विकल्प हैं -
a) मायूस, b) मानूस, c) हैरान, d) बेज़ार

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "ख़ुदकुशी" और शेर कुछ यूं था -

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये

एक बार फिर से महफ़िल में पहली हाज़िरी लगी सीमा जी की। कमाल देखिए कि पिछली महफ़िल का शेर निदा फ़ाज़ली साहब का था और आज की महफ़िल हमने पूरी की पूरी उन्हीं के सुपूर्द कर दी। निदा साहब का यह शेर जिस गज़ल से है, उसमें एक ऐसा शेर भी है जो बच्चे-बच्चे की जुबान पर मौजूद रहता है और हो भी क्यों न, जबकि उसमें बच्चे का हीं ज़िक्र किया गया है। इस शेर को सुनकर और पढकर "तमन्ना" फिल्म का वह गाना याद आ जाता है जिसकी शुरूआत इसी शेर के साथ होती है। आप भी देखिए:

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।

पूरी गज़ल मुहैय्या कराने के लिए सीमा जी का शुक्रिया। "ख़ुदकुशी" शब्द पर आपने कुछ शेर भी कहे:

मेरी गुड़िया-सी बहन को ख़ुदकुशी करनी पड़ी
क्या ख़बर थी दोस्त मेरा इस क़दर गिर जाएगा। (मुनव्वर राना)

ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ
मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा। (अहसान बिन 'दानिश')

मेरा मकान शायद है ज़लज़लों का दफ़्तर
दीवारें मुतमइन हैं हर वक़्त ख़ुदकुशी को। (ज्ञान प्रकाश विवेक)

मंजु जी, आपकी बात सही है,लेकिन मुझे "चिन्नी" का अर्थ समझ नहीं आ रहा था,इसलिए मुझे अपना दिमाग लगाना पड़ा। आईंदा ऐसा नहीं होगा....ये खेल होगा नहीं दुबारा :) । ये रहा आपका आज का शेर:

ए मेरे रुस्तम! कैसे बयाँ करूं हाल दिल
खुदकुशी करने को जी चाहता है।

शामिख जी ने कई शेरों के बीच गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी भी पेश की। बानगी देखिए:

कैसे लोग हैं क्या खूब मुन्सुफी की है,
हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदखुशी की है. (प्रकाश अर्श)

कितने तारो ने यहाँ टूटकर ख़ुदकाशी की है
कब से बोझ से हाँफ़ रहा था बेचारा।

चलो आसमान को कुछ मुक्ति तो मिली (गुलज़ार)

निर्मला जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। आप अगर कोई शेर भी साथ ले आएँ तो महफ़िल में चार चाँद लग जाए।
शरद जी, कोई बात नहीं, देर आए दुरूस्त आए...पर आए तो सही :)। आपका स्वरचित शेर कमाल का है:

दर्द के साथ दोस्ती कर ली
इसलिए मैने खुदकुशी कर ली
ज़िन्दगी को सवांरने के लिए
हमने बरबाद ज़िन्दगी कर ली।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Thursday, October 1, 2009

दर्द-ए-उल्फ़त छुपाऊँ कहाँ....लता ने किया एक मासूम सवाल शंकर जयकिशन के संगीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 219

गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन और गायिका लता मंगेशकर की जब एक साथ बात चलती है तो इतने सारे मशहूर, हिट और शानदार गीत एक के बाद एक ज़हन में आते जाते हैं कि जिनका कोई अंत नहीं। चाहे राज कपूर की फ़िल्मों के गानें हों या किसी और फ़िल्मकार के, इस टीम ने 'बरसात' से जो सुरीली बरसात शुरु की थी उसकी मोतियों जैसी बूँदें हमें आज तक भीगो रही है। लेकिन ऐसे बेशुमार हिट गीतों के बीच बहुत से ऐसे गीत भी समय समय पर बने हैं जो उतनी ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुए और इन हिट गीतों की चमक धमक में इनकी मंद ज्योति कहीं गुम हो गई, खो गई, लोगों ने भुला दिया, समय ने उन पर पर्दा डाल दिया। ऐसा ही एक गीत आज के अंक में सुनिए। फ़िल्म 'औरत' का यह गीत है "दर्द-ए-उल्फ़त छुपाऊँ कहाँ, दिल की दुनिया बसाऊँ कहाँ"। बड़ा ही ख़ुशरंग और ख़ुशमिज़ाज गीत है यह जिसमें है पहले पहले प्यार की बचैनी और मीठे मीठे दर्द का ज़िक्र है। मज़ेदार बात यह है कि बिल्कुल इसी तरह का गीत शंकर जयकिशन ने अपनी पहली ही फ़िल्म 'बरसात' में लता जी से गवाया था। याद है न आपको हसरत साहब का लिखा "मुझे किसी से प्यार हो गया"? बस, बिल्कुल उसी अंदाज़ का गीत है, फ़र्क बस इतना कि इस बार शैलेन्द्र साहब है यहाँ गीतकार. एक और मज़ेदार बात यह कि इसी फ़िल्म 'औरत' में हसरत जयपुरी साहब ने भी लता जी से पहले प्यार पर आधारित एक गीत गवाया था "नैनों से नैन हुए चार आज मेरा दिल आ गया, अरमान पे छायी है बहार आज मेरा दिल आ गया"। इसी साल १९५३ में फ़िल्म 'आस' में एक बार फिर शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन ने लता जी से गवाया "मैं हूँ तेरे सपनों की रानी तूने मुझे पहचाना ना, हरदम तेरे दिल में रही मैं फिर भी रहा तू अंजाना"। फ़िल्म 'औरत' बनी थी सन् १९५३ में 'वर्मा फ़िल्म्स' के बैनर तले। बी. वर्मा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बीना राय और प्रेमनाथ। लता जी के गाए कुछ गीतों का ज़िक्र हमने अभी किया, लेकिन एक और ज़रूरी बात यह भी कि फ़िल्म 'औरत' का शीर्षक गीत लता जी से नहीं बल्कि आशा जी से गवाया गया था, जिसके बोल थे "लोग औरत को फोकट जिस्म समझते हैं"। महबूब ख़ान ने 'औरत' शीर्षक से सन् १९४० में एक फ़िल्म बनाई और उसी का रीमेक बनाया 'मदर इंडिया' के नाम से जिसे हिंदी सिनेमा का एक मील का पत्थर माना जाता है।

दोस्तों, लता जी और ख़ास कर जयकिशन जी की आपस में अच्छी दोस्ती थी, और दोनों एक दूसरे से ख़ूब झगड़ते भी थे, नोक झोक चलती ही रहती थी। उन्ही दिनों को और जयकिशन जी को याद करते हुए लता जी ने अमीन सायानी साहब के उस इंटरव्यू में क्या कहा था, आइए आज के इस अंक में उसी पर नज़र डालते हैं। "जयकिशन और मैं, हम दोनो हम-उम्र थे। बस ६ महीनों का फ़र्क था हम दोनों में। 'बरसात' और 'नगिना' जैसी फ़िल्मों के बाद हम लोगों का एक बड़ा मज़ेदार ग्रूप बन गया था। हम लोग यानी शंकर साहब, शैलेन्द्र जी, हसरत साहब, मुकेश भ‍इया। हम सब एक साथ काम भी करते, घूमने भी जाते, तर्ज़ें भी डिस्कस करते, और कभी कभी बहुत झगड़े भी होते थे। बस छोटी छोटी बातों पर, ख़ास तौर पर जयकिशन के साथ। कभी मैं उनकी धुन की बुराई करती तो कभी वो मेरी आवाज़ पर कोई जुमला कर देते। और इस तरह जब ठनती तो दिनों तक ठनी रहती। मुझे याद है, मैने एक बार झुंझलाकर उससे कह दिया कि जाओ, अब मैं तुम्हारे लिए नहीं गाती, किसी और से गवा लेना, यह कह कर मैं चल दी अपने घर। घर पहुँचकर मैं भी पछताई और वो भी पछताए। लेकिन दोनों ही अड़े रहे। फिर शैलेन्द्र और शंकर भाई उन्हे पकड़कर मेरे घर ले आए। और बस फिर दोस्ती वैसी की वैसी।" तो दोस्तों, आइए सुनते हैं आज का यह गीत और एक बार फिर से शुक्रिया अदा करते हैं अजय देशपाण्डे जी का जिनके सहयोग से लता जी के गाए ये तमाम दुर्लभ नग़में हमें प्राप्त हुए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अनिल बिस्वास के लिए गाया लता ने ये दुर्लभ गीत.
२. कैफ भोपाली के लिखे इस गीत को बूझ कर ३ अंक पाने के है आज आखिरी मौका.
३. मुखड़े में शब्द है -"कश्ती".

पिछली पहेली का परिणाम -

पूर्वी जी बधाई हो..३ अंक और आपके खाते में हैं.....आपका स्कोर है ३७, अब आप सबसे आगे हैं अंकों के मामले में ...बधाई...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मेक ए विश...कह रहे हैं अमिताभ...इस दिवाली मांग ही डालिए कुछ अपने जिन्नी से



ताजा सुर ताल (26)

दोस्तों आज ताजा सुर ताल में मैं सजीव सारथी अकेला ही हूँ आपके स्वागत के लिए क्योंकि आपके प्रिय होस्ट सुजॉय दुर्गा पूजा की खुशियाँ अपने परिवार के साथ बांटने घर गए हुए है....खैर आज मैं जो गीत आपको सुनवाने जा रहा हूँ, वो एक "रैप" सोंग है, रैप यानी एक सधे हुए पेटर्न पर गीत की पंक्तियों को तेजी से बोलना, बरसों पहले अशोक कुमार ने फिल्म आशीर्वाद के लिए "रेलगाडी" गीत गाया था कुछ इसी अंदाज़ में, याद है न ?, पता नहीं उस ज़माने में इसे रैप ही कहते थे या कुछ और....पाश्चात्य संगीत की इस मशहूर संगीत परंपरा को हिन्दुस्तान में बाबा सहगल ने अपने "ठंडा ठंडा पानी" से लोकप्रिय बनाया..बाद में रहमान ने भी कुछ गीतों में रैप का इस्तेमाल किया....आजकल तो ये लगभग हर गीत का हिस्सा बन चूका है. आज कल लगभग हर दूसरे गीत हिप होप बनाने के लिए उसमें कुछ अंग्रेजी शब्दों का मायाजाल बुनकर उसे रैप शैली में गवा दिया जाता है. खैर हमने जो आज का गीत चुना है वो कोई मामूली रैप नहीं है..पूछिए क्यों ...

जी हाँ, ये रैप कोई इंसान नहीं बल्कि एक जिन्नी का है, "जिन्नी" ? अरे आप जिन्नी को भूल गए ? याद कीजिये बचपन में जब सुनते थे की अलादीन को जादूई चिराग मिला और उसमें से निकल एक जिन्न जो कहता है "क्या हुकम है मेरे आका"...सच बताइयेगा, क्या उस कहानी को सुनकर कभी आपने मन में नहीं आया कि काश हमें भी कोई जिन्नी मिलता... सच तो ये है कि हम सब पूरी जिंदगी असंभव से ख्वाब देखते है और सोचते हैं कि काश....और इस कोशिश कोशिश में एक दिन हम खुद ही एक जिन्नी बन जाते हैं, जो कभी अपने बच्चों की मुराद पूरी करता है कभी घर परिवार की.... हम सब में छुपा जिन्न हमारे अपनों को खुश देखने के लिए पूछता ही रहता है -."मेक ऐ विश...."

अलादीन और उसके जिन्नी की ये कहानी इस हद तक मशहूर है कि जब वाल्ट डिस्नी फिल्म्स ने जब इसका हिंदी संस्करण भारत में निकला तो बच्चों बड़ों ने इसे खूब सराहा, आपको याद होगा इस फिल्म में अलादीन की आवाज़ बने थे सोनू निगम, जिन्होंने अपनी भोली आवाज़ में संवाद बोलने के आलावा कुछ बढ़िया से गीत भी गाये थे, मगर वो एक एनीमेशन फिल्म थी, अब यही फिल्म वास्तविक कलाकारों को लेकर बनी है और जल्द ही प्रदर्शन में आने वाली है, इस दिवाली आप भी अपने बच्चों को खुश कर सकते हैं ये फिल्म दिखाकर...इस फिल्म में अलादीन बने हैं रितेश देशमुख. रितेश अलादीन के रूप में कितने जचते हैं ये तो मैं नहीं कह सकता, पर हाँ जो यहाँ जिन्न बने हैं उन पर मुझे पूरा भरोसा है कि उनका अभिनय और मात्र उनकी उपस्थिति ही काफी होगी फिल्म को दिलचस्प बनाने में. जी हाँ यहाँ आपके जिन्न हैं महा नायक अमिताभ बच्चन.

दोस्तों ये साल है २००९ और आपको बता दें की साल १९६९ में अमिताभ ने रुपहले परदे पर पहली बार अपने जलवे दिखाए थे फिल्म सात हिन्दुस्तानी में, यानी ये उनके करियर का ४० वां साल है, और आज ४० सालों के बाद भी हिंदी फिल्म जगत पर राज कर रहा है ये शहंशाह....वाह बच्चन साहब क्या कहने आपके. अक्सर उनके विशाल नायकीय व्यक्तित्व के आगे एक बात अक्सर हम भूल जाते हैं वो हैं उनकी दमदार आवाज़. "नीला आसमान सो गया..." जैसे दर्द से भरे गीत हों या, "मेरे अंगने में..." की अतिनाटकीयता या फिर "रंग बरसे" की मस्ती. अमिताभ की आवाज़ में वो जादू है कि उनके गाये मामूली से मामूली गीत को भी आप अनसुना नहीं कर सकते. ये भी एक अजीब इत्तेफाक है कि जब वो अपने चरम पर थे तब कुछ चुने हुए गीत कुछ चुने हुए संगीतकारों के लिए ही गाते थे. पर साठ पार करने के बाद तो उनके भीतर का गायक कुछ और जवान हो गया है, अब तो लगभग उनकी हर फिल्म में एक गीत अवश्य होता है उनकी अपनी आवाज़ में. इस नयी फिल्म अलादीन में गीत संगीत का जिम्मा संभाला है - विशाल शेखर और अन्विता दत्त गुप्तन ने और जाहिर है ये जिन्नी रैप है खुद अमिताभ बच्चन की दमदार आवाज़ में और उनका साथ दिया है अनुष्का मनचंदा ने.

इसी माह अमिताभ बच्चन अपना जन्मदिन भी मनाएंगे, तो हम उन्हें अभी से शुभकामनाएं दिए देते है, जन्मदिन की भी और इस फिल्म अलादीन के लिए भी, कुछ सालों पहले बच्चों के दिल में अमिताभ ने ख़ास जगह बनायीं थी फिल्म "भूतनाथ" में एक भले भूत की भूमिका निभाकर. ये फिल्म मुझे और मेरे बच्चों को बेहद पसंद है, तो जाहिर है अलादीन से भी मुझे तो अच्छी ही उम्मीदें है, स्पेशल एफ्फेक्ट्स आदि भी अनूठे ही लग रहे हैं प्रोमोस देखकर. जहाँ तक संगीत की बात है इसी तरह की फिल्मों में अधिकतर गीत परिस्थितिजन्य होते है जो सुनने में कम देखने में अधिक भाते हैं. ये रैप गीत भी कुछ उसी तरह का है. इसलिए आज हम इस गीत को २.५ की रेटिंग दे रहे हैं...बाकी आप सुनकर बतायें कि आपको कैसी लगी "एंग्री यंग (?) मैन" की कूल आवाज़ इस गीत में...



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 2.5 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

चलते चलते
चलिए अब आप ने गीत सुन ही लिया है तो एक सवाल का जवाब भी दें, शर्त ये है कि आपने ईमानदारी से मात्र दो मिनट का समय लेकर निचे दिए गए वाक्य को पूरा करना है, जो भी जेहन में आये झट से लिख डालिए...क्योंकि जिन्नी के पास बहुत अधिक समत नहीं है....कौन जाने आपकी कोई मुराद इस बार पूरी ही हो जाए....वाक्य है -

जिन्नी - क्या हुक्म है मेरे आका? कौन सी आपकी तीन ख्वाहिशें ?
आप - जिन्नी मेरी तीन ख्वाहिशें ये है ______________

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, September 30, 2009

रात के राही थम न जाना....लता की पुकार, साहिर के शब्दों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 218

'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की आज की कड़ी में लता जी के जिस दुर्लभ नग़मे की बारी है, उसके गीतकार और संगीतकार हैं साहिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन, जिन्होने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों के गानें बनाए हैं। और लगे हाथ आप को यह भी बता दें कि बहुत जल्द हम इस गीतकार- संगीतकार जोड़ी के गीतों से सजी एक पूरी की पूरी शृंखला आप की सेवा में प्रस्तुत करने जा रहे हैं। तो आज जिस गीत को हमने चुना है, या युं कहें कि आज के लिए जिस गीत को लता जी के अनन्य भक्त नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने हमें चुन कर भेजा है, वह गीत है फ़िल्म 'बाबला' का, "रात के राही थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं"। एक बहुत ही आशावादी गीत है जिसके हर एक शब्द में यही सीख दी गई है कि दुखों से इंसान को कभी घबराना नहीं चाहिए, हर रात के बाद सुबह को आना ही पड़ता है। इस तरह आशावादी रचनाएँ बहुत सारी यहाँ बनी हैं और जिनमें से बहुत सारे बेहद लोकप्रिय भी हुए हैं। लेकिन फ़िल्म 'बाबला' के इस गीत को बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया है और समय के साथ साथ मानो इस गीत पर धूल सी जम गयी है। आज हमारी छोटी सी कोशिश है इस धूल की परत को साफ़ करने की और इस भूले बिसरे गीत की मधुरता में खो जाने की तथा इसमें दी गई उपदेश पर अमल करने की। फ़िल्म 'बाबला' बनी थी सन् १९५३ में एम. पी. प्रोडक्शन्स के बैनर तले, जिसका निर्देशन किया था अग्रदूत ने। दोस्तों, आप को एम. पी प्रोडक्शन्स की बारे में पता है ना? यह वही बैनर है जिसने सन् १९४२ में कानन बाला को लेकर बनाई थी फ़िल्म 'जवाब' जिसमें कानन बाला का गाया "दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल" उस ज़माने का सब से हिट गीत बन गया था। इससे पहले कानन बाला न्यु थियटर्स से अनुबंधित थीं, लेकिन फ़िल्म 'जवाब' से वो 'फ़्रीलांसिंग' पर उतर आईं। ख़ैर, एम. पी. प्रोडक्शन्स की फ़िल्म 'बाबला' के मुख्य कलाकार थे मास्टर नीरेन, शोभा सेन, मंजु डे, हीरालाल और परेश बैनर्जी। ये सभी कलकत्ता फ़िल्म इंडस्ट्री के कलाकार थे। इस फ़िल्म में लता जी के साथ साथ तलत साहब ने भी कुछ गीत गाए थे।

आज जब बर्मन दादा और लता जी की एक साथ बात चली है तो आज हम जानेंगे लता जी क्या कहती हैं इस सदाबहार संगीतकार के बारे में, जिन्हे वो पिता समाम मानती हैं। लता जी और दादा के बीच में हुई अन-बन की बात तो हम एक दफ़ा कर चुके हैं, आज कुछ और हो जाए। अमीन सायानी के उस इंटरव्यू का ही हिस्सा है यह अंश - "बर्मन दादा हमेशा डरे रहते थे। उनको लगता था कि लता अगर नहीं आई तो गाना मेरा क्या होगा! वो जब ख़ुद गा कर बताते थे तो हम लोगों को थोड़ी मुश्किल होती थी कि हम दादा की तरह कैसे गाएंगे। तो उनकी आवाज़ ज़रा सी टूटती थी। तो वो हम नहीं, मतलब मैं नहीं कर सकती थी। पर मैं उनसे हमेशा पूछती थी कि दादा, ये कैसे गाऊँ? तो वो बताते थे कि तुम इसे इस तरह गाओ तो अच्छा लगेगा। जब वो बहुत ज़्यादा 'ऐप्रीशिएट' करते थे तो उनकी एक ख़ास बात थी कि वो पान खिलाते थे, (हँसते हुए), क्योंकि वो ख़ुद पान खाते थे। पर वो पान किसी को नहीं देते थे, पर जिसको दिया वो समझ लीजिए कि उससे वो बहुत ख़ुश हैं। और वो पान मुझे हमेशा देते थे।" दोस्तों, आज बर्मन दादा तो नहीं रहे लेकिन लता जी की यादों में वो ज़रूर ज़िंदा हैं और ज़िंदा हैं अपने अनगिनत लोकप्रिय गीतों के ज़रिए। लता जी की तरफ़ से बर्मन दादा के नाम हम यही कह सकते हैं कि "तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, हम भरी दुनिया में तन्हा रह गए"। तो आइए, आप और हम मिल कर सुनते हैं फ़िल्म 'बाबला' से लता, साहिर और दादा बर्मन की यह बेमिसाल रचना "रात के राही थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक मस्ती भरा गीत शैलेन्द्र का लिखा, लता का गाया.
२. धुन है शंकर जयकिशन की.
३. गीत चुलबुला है पर इस शब्द से शुरू होता है -"दर्दे.."

पिछली पहेली का परिणाम -

वाह वाह लता जी के दुर्लभ गीतों की मुश्किल पहेली का जवाब देने आये नए प्रतिभागी, मुरारी पारीख....बधाई आपका खाता खुला है ३ शानदार अंकों से. आशा है आगे भी आप इसी तरह सक्रिय रहेंगें...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 29, 2009

दुखियारे नैना ढूँढ़े पिया को... इन्दीवर के बोल और लता के स्वर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 217

'मेरी आवाज़ ही पहचान है' के तहत इन दिनों आप सुन रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीत जिन्हे चुनकर हमें भेजा है नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने। अब तक आप ने जिन संगीतकारों की रचनाएँ इस शृंखला में सुने, वे थे खेमचंद प्रकाश, मास्टर ग़ुलाम हैदर, हुस्नलाल भगतराम, पंडित गोबिन्दराम और सी. रामचन्द्र। आज जिस संगीतकार की बारी है, वो एक ऐसे संगीतकार रहे जिनके साथ लता जी का भाई बहन का गहरा रिश्ता बना और इन दोनों ने मिलकर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को कुछ इस तरह समृद्ध किया कि आज दशकों बाद भी उन तमाम सुरीली मोतियों से रोशन है यह ख़ज़ाना। इन दोनों ने ख़ास कर फ़िल्मी ग़ज़लों की धारा ही बदल दी और उन्हे आम गीतों की तरह लोकप्रिय बनाया। जी हाँ, हम आज संगीतकार मदन मोहन की ही बात कर रहे हैं। अपने मदन भ‍इया के बारे में लता जी ने समय समय पर कई इंटरव्यू में कहे हैं, आज भी हम ऐसी ही एक इंटरव्यू के अंश लेकर उपस्थित हुए हैं। लता जी का यह इंटरव्यू अमीन सायानी ने कुछ साल पहले लिया था। "मदन भ‍इया के बारे में मैं यही कहूँगी कि जब भी रिकार्डिंग होती थी तो उनका एक यही होता था कि रिहर्सल वगेरह करते रहते थे, तो वो गाते ही रहते थे, और मुझसे कहते थे कि इसमें से तुमको जो ठीक लगे वो उठा लो। घर की बात थी, मैं उनके घर जाती थी, कभी कभी मैं सारा सारा दिन उनके साथ रहती थी, खाना बहुत अच्छा बनाते थे, 'म्युज़िक डिरेक्टर' मेरे हिसाब से बहुत बड़े थे, जैसे ग़ज़लें उन्होने बनाई, फ़िल्मों के लिए, किसी ने नहीं बनाई। बहुत लोगों ने कोशिश की और आज भी लोग कोशिश कर रहे हैं कि मदन मोहन की स्टाइल की ग़ज़ल बनाएँ पर कोई बना नहीं सकता है। अब ये सुनिए कि उनको संगीत की कितनी बड़ी देन थी। आमद का यह हाल था कि हारमोनियम लेके बैठे और धुन युँही चुटकियों में बन जाती। कभी मोटर चलाते हुए, कभी लिफ़्ट में उपर या नीचे जाते हुए भी तो धुन तैयार हो जाती। मदन भ‍इया एक दो साल मिलिटरी में रहे थे। और शायद इसी वजह से उनकी उपरी बरताव में एक सख़ती हुआ करती थी। कई बार बड़े रफ़ से लगते थे। बातें खरी खरी मुँह पर सुना देते थे। प्यार भी उनका युं होता था कि बस हाथ उठाया और धम से मार दिया। मगर यह सख़ती सिर्फ़ उपर की थी, अंदर से तो वो बड़े भावुक थे और बड़े नरम। और यही नरमी, यह भावुकता, कभी कभी झलक दिखला जाती थी दिल को छू लेने वाली धुनों में ढलकर।"

लता मंगेशकर और मदन मोहन की जोड़ी का जो दुर्लभ नग़मा आज के लिए हमने चुना है वह है फ़िल्म 'निर्मोही' से। १९५२ में मदन मोहन के संगीत में इंटर्नेट से उपलब्ध जानकारी के अनुसार कुल ४ फ़िल्में परदर्शित हुईं थीं - अंजान, आशियाना, ख़ूबसूरत, और निर्मोही। 'निर्मोही' का निर्माण 'शीतल मूवीज़' के बैनर तले हुआ था, जिसके निर्देशक थे बृज शर्मा। सज्जन, नूतन, अमरनाथ, लीला मिश्रा अभिनीत यह फ़िल्म बड़ी बजट की फ़िल्म नहीं थी। शायद यही वजह थी कि मदन मोहन के रचे और लता जी के गाए इस फ़िल्म के गीतों को आज लोग कुछ भूल से गए हैं। लता जी ने इस फ़िल्म में कई गीत गाए, जिन्हे अलग अलग गीतकारों ने लिखे। लता जी की आवाज़ में पी. एन. रंगीन के लिखे दो गीत थे इस फ़िल्म में - "अब ग़म को बना लेंगे जीने का सहारा, दिल टूट गया छूट गया साथ हमारा" और "ये कहे चांदनी रात सुना दो अपने दिल की बात, आई रुत मस्तानी आई रुत मस्तानी"। उद्धव कुमार का लिखा गीत था "कल जलेगा चाँद सारी रात, रात भर होती रहेगी आग़ की बरसात"। लेकिन आज हम जिस गीत को सुनवा रहे हैं उसे लिखा है इंदीवर साहब ने - "दुखियारे नैना ढ़ूंढे पिया को, निसदिन करें पुकार"। इस गीत में "दुखियारे नैना" की धुन कुछ कुछ मदन मोहन साहब की ही फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' की "मेरी वीणा तुम बिन रोये" की तरह सुनाई देती है। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह गीत फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का एक अनमोल नगीना है। ऐसे न जाने लता - मदन मोहन के कितने गीत होंगे जिन्हे आज हम ज़्यादा याद नहीं करते, लेकिन जब भी कभी इन्हे सुनते हैं बस इनमें डूब से जाते हैं। भविष्य में लता-मदन मोहन के कमचर्चित गीतों पर एक शृंखला प्रस्तुत करने की हम ज़रूर कोशिश करेंगे, फिलहाल सुनिए आज का यह अनमोल गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. साहिर है गीतकार लता के गाये इस दुर्लभ गीत के.
२. एस डी बर्मन की धुन से सजे इस गीत बूझकर पाईये 3 अंक.
३. इस प्रेरणात्मक गीत की पहली पंक्ति में शब्द है -"राही".

पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही गीत है पूर्वी जी आपके ३१ शानदार अंक हो गए है और आप दूसरे स्थान पर हैं अब.....बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

घायल जो करने आए वही चोट खा गए........"गुमनाम" के शब्द और "रेशमा" आपा का दर्द



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४९

ड़े दिनों के बाद ऐसा हुआ कि महफ़िल में हाज़िरी लगाने के मामले में सीमा जी पिछड़ गईं और महफ़िल का मज़ा कोई और लूट गया। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं पिछली महफ़िल की प्रश्न-पहेली की। वैसे अगर शरद जी के लिए कुछ कहना हो तो हम यही कहेंगे कि "बड़े दिनों के बाद उन बेवतनों को याद वतन की मिट्टी आई है।" यूँ तो आप महफ़िल से कभी भी गायब नहीं हुए लेकिन ऐसा आना भी क्या आना कि आने की खबर न हो। वैसे तो हम सीधे-सादे गणित में अंकों का हिसाब लगाया करते हैं, लेकिन इस बार हमने सोचा कि क्यों न अंकों के मायाजाल में थोड़ा उलझा जाए। तो अगर हम ४७वीं कड़ी की प्रश्न-पहेली के अंकों को देखें तो हिसाब कुछ यूँ था: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक और शामिख जी: १ अंक। अब हम इन अंकों को एक चक्रीय क्रम में आगे की ओर सरका देते हैं। फिर जो हिसाब बनता है, वही पिछली कड़ी की अंक-तालिका है यानि कि सीमा जी: १ अंक, शरद जी: ४ अंक और शामिख जी: २ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) एक शायर जिसे जीते-जी अपना एक हीं गज़ल-संग्रह "बर्ग-ए-नै" देखना नसीब हुआ और जिसने पूरी की पूरी छंद में एक नाटिका की रचना की थी। उस शायर और उसकी उस नाटिका के नाम बताएँ।
२) "तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है"- इस पंक्ति में किस फ़ार्म, किस विधा की बात की जा रही है। और उस फ़ार्म की तख़्लीक़ का श्रेय किसे दिया जाता है?


इन सवालों के बाद चलिए अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल की खासियत यह है कि इसके शायर गुमनाम हैं तो इसकी गायिका के बारे में लोगों को ज़्यादा कुछ मालूंम नहीं है। यूँ तो इनकी आवाज़ हिन्दुस्तान के कोने-कोने में रवाँ-दवाँ है, लेकिन कितनों को इनकी शख्सियत की जानकारी है, यह पक्के यकीन से नहीं कहा जा सकता। बरसों पहले सुभाष घई साहब की एक फिल्म आई थी "हीरो" जिसका एक गाना बड़ा हीं मक़बूल हुआ। उस गाने की मक़बूलियत का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले साल हीं रीलिज हुई "ज़न्नत" में एक नगमा उसी गाने पर आधार करके तैयार किया गया था। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं "चार दिनों का प्यार ओ रब्बा, बड़ी लंबी जुदाई" गाने की। इस गाने का असर ऐसा हुआ कि चाहे किसी को फिल्म की कहानी या फिल्म के कलाकार याद हों न हों, लेकिन इस गाने और इस गाने में छिपी कशिश की छाप मिटाए नहीं मिटती। कहते है कि जब "रेशमा" जी (यह नाम याद है ना?) को इस गाने के लिए संपर्क किया गया तो वो इस हालत में नहीं थीं कि इसे गा सकें। मतलब कि इन्हें अपनी "पश्तो" ज़बान छोड़कर और कोई भी ज़बान सही से नहीं आती थी और हिंदी/उर्दू के लफ़्ज़ों का सही तलफ़्फ़ुज़ तो इनके लिए दूर की कौड़ी के समान था। लेकिन सुभाष घई साहब और एल०पी० साहबान जिद्द पर अड़े थे कि गाना इन्हीं को गाना है। कई दिनों की मेहनत और न जाने कितने रिहर्सल्स के बाद यह गाना तैयार हो पाया। और जैसा कि कहते हैं कि "रेस्ट इज हिस्ट्री"। वैसे हम भारतीयों और हिंदी-भाषियों के लिए इनकी पहचान यहीं तक सीमित है लेकिन जिन्होंने इनके पंजाबी गाने सुने हैं उन्हें "रेशमा" आपा का सही मोल मालूम है। "शाबाज़ कलंदर" ,"गोरिये मैं जाना परदेस" और "कित्थे नैन न जोरीं" जैसे नज़्मों को सुनने के बाद और कुछ सुनने का दिल हीं नहीं होता। पाकिस्तान के एक अखबार "न्युज लाईन" के संवाददाता "आयेशा जावेद अकरम" के साथ "आपा" ने अपनी ज़िंदगी कुछ यूँ शेयर की: मेरा जन्म राजस्थान के बीकानेर में सौदागरों के एक परिवार में हुआ था। जन्म की सही तारीख मालूम नहीं क्योंकि घरवालों ने इसे याद रखना जरूरी नहीं समझा। वैसे मुझे इतना मालूम है कि देश के बंटवारे के समय मैं एक या दो महीने की थी और उसी दौरान मेरे परिवार का हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाना हुआ था। जब मेरा परिवार हिन्दुस्तान में था तो हम बीकानेर से देश के दूसरे कोनों में ऊँट ले जाया करते थे(क्योंकि हमारे यहाँ के ऊँट बड़े मशहूर थे) और उन जगहों से गाय-बकरियाँ लाकर अपने यहाँ व्यापार करते थे। हमारा समुदाय बहुत बड़ा था और हम खानाबदोशों की ज़िंदगी जिया करते थे। आपस में हममे बड़ा प्यार था। पाकिस्तान जाने के बाद भी यही सब चलता रहा। वैसे हममें से बहुत सारे अब लाहौर और करांची में बस गए हैं।

बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि "आपा" को नाक की हड्डी का कैंसर हुआ था। लेकिन उनके आत्म-विश्वास और उनके प्रशंसकों की दुआओं ने उन्हें वापस ठीक कर दिया। इस बारे में वो कहती हैं: क्या मैं आपको बीमार लगती हूँ? नहीं ना? फिर क्यों मेरे बारे में लोग लिखते रहते हैं कि मैं मर रही हूँ। हाँ, मुझे कैंसर था, लेकिन भला हो इमरान खान का, जिनके अस्पताल के डाक्टरों के इलाज से मेरा रोग जाता रहा। लेकिन मुझे मालूम नहीं कि इन अखबार वालों के साथ क्या दिक्कत है कि वे हमेशा मेरे खराब स्वास्थ्य के बारे में छापते रहते हैं और इसी कारण अब मेरे पास गाने के न्योते नहीं आते। अब आप बताएँ, बस ऐसे गुजारा होता है? मैं आपको यकीन दिलाती हूँ कि मैं दुनिया की किसी भी भाषा में गा सकती हूँ। इस खूबी में मेरा कोई योगदान नहीं है। सब ऊपर वाले का करम है, उसी ने मुझे ऐसी आवाज़ दी है। संगीत के सफ़र की शुरूआत कैसे हुई, यह पूछने पर उनका जवाब था: मैं हमेशा दरगाहों, मज़ारों और मेलों में गाया करती थी। एक बार इसी तरह मैं अपने किसी संबंधी की शादी में गा रही थी तो सलीम गिलानी साहब ने मुझे सुना और मुझे रेडियो पर गाने की सलाह दी। उस समय मेरी उम्र कोई ११-१२ साल की होगी। फिर तो मेरी नई कहानी हीं शुरू हो गई। "ओ रब्बा, दो दिनां दा मेल, ओथे फिर लंबी जुदाई"(यह गाना आपको सुना-सुना नहीं लग रहा, हीरो की "लंबी जुदाई" कहीं इसी की नकल तो नहीं है?) जैसे गाने घर-घर में सुने जाने लगे और इस तरह मैं धीरे-धीरे आगे बढती गई। भले हीं मेरा बहुत नाम था और अब भी है लेकिन इस दौरान मैने अपनी हया कायम रखी है और किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया है। दैनिक भास्कर में "आपा" से जुड़ा एक बड़ा हीं अनोखा किस्सा छपा था। आप भी देखें: यूं तो मलिका पुखराज को काफ़ी आत्म-केंद्रित व्यक्ति माना जाता था, मगर उनकी ज़िंदगी की कुछ ऐसी मार्मिक घटनाएं हैं, जिनसे उनके अंदर का इंसान उभरकर बाहर आ जाता है। अपने पति शब्बीर शाह की मृत्यु के बाद मलिका अंदर से ही टूट गईं। एक दिन उन्होंने गायिका रेशमा का गाया एक गीत "हैयो रब्बा! दिल लगदा नैयों मेरा" सुन लिया। रेशमा ख़ुद मलिका जी की बहुत भक्त थीं। मलिका जी ने उन्हें बुलवा भेजा। कहा कि वे एक ह़फ्ते उनके साथ उनके घर रुक जाएं और उन्हें यही गीत गा-गाकर सुनाएं। रेशमा ने इसे अपना सम्मान माना और ठहर गईं। अब दिन में कई बार रेशमा से गाने की फरमाइश होती। रेशमा गातीं और मलिका फूट-फूटकर रोना शुरू कर देतीं। इस क्रम से रेशमा डर गईं। हाथ जोड़े कि अब बस भी करें। मगर मलिका रोना चाहती थीं। सो रेशमा ने ख़ूब गाया और वे भी ख़ूब रोईं। यह आपा की आवाज़ में बसे दर्द का हीं असर था कि आँसू बरबस निकल पड़े। "आपा" के बाद अब बात करते हैं आज की गज़ल के गज़लगो की। सुरेन्द्र मलिक "गुमनाम" साहब के बारे में अंतर्जाल पर ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसलिए अभी हम इन दो शेरों के अलावा कुछ और कह नहीं सकेंगे। वैसे यह तो ज़ाहिर है कि इन शेरों को लिखने वाला शायर "गुमनाम" हीं रहा और इसे गाकर जगजीत सिंह जी कहाँ से कहाँ पहुँच गए। है ना?:

काँटों की चुभन पाई, फूलों का मज़ा भी,
दिल दर्द के मौसम में रोया भी हँसा भी।

आने का सबब याद ना जाने की खबर है,
वो दिल में रहा और उसे तोड़ गया भी।


और यह रही आज़ की गज़ल, जिसे हमने "दर्द" एलबम से लिया है। तो आनंद लीजिए हमारी आज की पेशकश का:

लो दिल की बात आप भी हमसे छुपा गए,
लगता है आप गैरों की बातों में आ गए।

मेरी तो इल्तजा थी रक़ीबों से मत मिलो,
उनके बिछाए जाल में लो तुम भी आ गए।

ये इश्क़ का सफ़र है मंज़िल है इसकी मौत,
घायल जो करने आए वही चोट खा गए।

रोना था मुझको उनके दामन में ज़ार-ज़ार,
पलकों के मेरे अश्क उन्हीं को रूला गए।

"गुमनाम" भूलता नहीं वो तेरी रहगु़ज़र,
जिस रहगुज़र से प्यार की शम्मा बुझा गए।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

____ करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये


आपके विकल्प हैं -
a) ख़ुदकुशी, b) बेदिली, c) दिल्लगी, d) बेरुखी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तेशे" और शेर कुछ यूं था -

मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जायेगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता...

यगाना चंगेजी साहब के लिखे इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना शामिख जी ने। आप बहुत दिनों के बाद समय पर हाज़िर हुए हैं। वैसे महफ़िल में पहली हाज़िरी तो निर्मला जी ने लगाई थी। निर्मला जी, आपको हमारी महफ़िल पसंद आ रही है, इसके लिए हम आपका तहे-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन यह क्या, आपने तो शब्द/शेर-पहेली में हिस्सा हैं नहीं लिया। हमारी महफ़िल में कोई ऐसे खाली हाथ नहीं आता, आगे से इस बात का जरूर ध्यान रखिएगा :) । शरद जी, आपसे भी यही शिकायत है।

तो हाँ, हम बात कर रहे थे शामिख जी के शेरों की, तो यह रही आपकी पेशकश:

हमसुख़न तेशे ने फ़रहाद को शीरीं से किया
जिस तरह का भी किसी में हो कमाल अच्छा है। (चचा ग़ालिब)

हाँ इश्क़ मेरा दीवाना ये दीवाना मस्ताना
तेशे को बना कर अपना क़लम लिखेगा नया फ़साना (अनाम)

जहाँ शरद जी इस बार स्वरचित शेरों के मामले में पिछड़ गए, वहीं मंजु जी ने अपना पलड़ा हल्का नहीं होने दिया। बानगी देखिए:

सैकड़ों तेशे चलाए थे नींव के लिए ,
चिन्नी थी दीवार इमारत के लिए . (हमारे हिसाब से यहाँ चुननी थी, होना चाहिए था)

इस बार हमारी महफ़िल बड़ी जल्दी हीं सिमट गई। शायद इसे किसी की नज़र लग गई है। तो हम चले नज़र उतारने का इंतजाम करने। तब तक आप महफ़िल में सबसे आखिर में हाज़िर होने वालीं सीमा जी के शेरों का मज़ा लें। खुदा हाफ़िज़!

एक हुआ दीवाना एक ने सर तेशे से फोड़ लिया
कैसे कैसे लोग थे जिनसे रस्म-ए-वफ़ा की बात चली (मुनिर नियाज़ी)

तेशे बग़ैर मर न सका कोह्‌कन असद
सर्‌गश्‌तह-ए ख़ुमार-ए रुसूम-ओ-क़ुयूद था! (अनाम)

कोह-ए-गम और गराँ, और गराँ और गराँ
गम-जूड तेशे को चमकाओ कि कुछ रात कटे (मखदूम मुहीउद्दीन)

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Monday, September 28, 2009

मुस्कुराहट तेरे होंठों की मेरा सिंगार है....लता जी का हँसता हुआ चेहरा संगीत प्रेमियों के लिए ईश्वर का प्यार है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 216

ज २८ सितंबर का दिन फ़िल्म संगीत के लिए एक बेहद ख़ास दिन है। क्यों शायद बताने की ज़रूरत नहीं। लता जी को ईश्वर दीर्घायु करें, उन्हे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, लता जी के जन्मदिन पर हम तह-ए-दिल से उन्हे मुबारक़बाद देते हैं। आज है साल २००९। आज से ८० साल पहले १९२९ को लता जी का जन्म हुआ था मध्य प्रदेश के इंदौर में। दोस्तों आज मौका है लता जी के जन्मदिन का, तो क्यों ना आज हम उन्ही से जानें उनकी जनम के बारे में। एक बार अमीन सायानी ने लता जी का एक इंटरव्यू लिया जिसमें उन्होने लता जी को कई 'कॊन्ट्रोवर्शियल' सवालों के जाल से घेर लिया था, लेकिन लता जी हर बार जाल को चीरते हुए बाहर निकल आईं थीं। उन सवालों में से एक सवाल यह भी था - "कुछ लोगों का ख़याल है कि कुछ सस्पेन्स सा आप ने क्रीएट किया हुआ है कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं। कुछ कहते हैं गोवा में पैदा हुईं थीं, कुछ कहते हैं धुले में, कुछ इंदौर में, तो कुछ कहीं और का बताते हैं। तो आप बताइए कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं?" लता जी का बेझिझक जवाब था - "नहीं, इसमें कोई सस्पेन्स नहीं है अमीन भाई, मेरा जनम इंदौर में हुआ है, क्योंकि मेरी मौसी वहाँ रहती थीं, और मेरी माँ जब, मतलब मैं पेट में थीं तो वहाँ गई, मौसी के वहाँ, पहला जो बच्चा होता है वो अपने मायके में होता है, तो वहाँ नहीं जा सकी जहाँ मेरी नानी रहती थीं, क्योंकि छोटा सा गाँव था, तो वो फिर इंदौर गईं और इंदौर में सिख मोहल्ले में मेरा जनम हुआ। और वहाँ वकील का बाड़ा था वह। मेरे पिताजी गोवा के थे, माँ धुले की तरफ़ छोटा सा गाँव है, और मेरी माँ की जो माँ थीं वो गुजराती नहीं थीं पर पिताजी गुजराती थे, मेरे नाना गुजराती थे, और उनको महाराष्ट्र से बड़ा प्यार था, महाराष्ट्र की भाषा से, और वो मराठी बोलते थे, गुजराती बहुत कम बोलते थे। और मैं सिख मोहल्ले में पैदा हुई, इसलिए मेरे बाल लम्बे हैं (यह कहकर लता जी ज़ोर से हँस पड़ीं)।"

लता जी के जन्मदिन पर हम उनकी शुभकामना करते हुए उनके जिस दुर्लभ गीत को प्रस्तुत करने जा रहे हैं वह है १९५२ की फ़िल्म 'शीशम' का। इस शृंखला में आप दस संगीतकारों के संगीतबद्ध किए दस बेहद दुर्लभ गीत सुन रहे हैं, तो आज के कड़ी के संगीतकार हैं रोशन। गीत इंदीवर का लिखा हुआ है। फ़िल्म 'शीशम' बनी थी 'अनिल पिक्चर्स' के बैनर तले। किशोर शर्मा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नासिर ख़ान और नूतन। इसके पिछले साल, १९५१ में फ़िल्म 'मल्हार' में लता-मुकेश के गाए सुपरहिट गीत "प्यार की दुनिया में यह पहला क़दम" के बाद 'शीशम' में रोशन ने एक बार फिर से लता-मुकेश से गवाया "सपनों में आना छेड़ छेड़ जाना सीखा कहाँ से मेरे बलम ने"। इस फ़िल्म में भी कई गीतकारों ने गीत लिखे जैसे कि इंदीवर, ज़िया सरहदी, उद्धव कुमार, नज़ीम पानीपती और कैफ़ इर्फ़ानी। आज का गीत है "मुस्कुराहट तेरे होंठों की मेरा सिंगार है, तू है जब तक ज़िंदगी में ज़िंदगी से प्यार है"। बेहद मीठा और सुरीला गाना है यह। सोचने वाली बात है कि क्या कमी रह गई होगी इस गीत में जो यह गीत बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हुआ, और ना ही आज कहीं से सुनाई देता है। आज लता जी के जन्मदिन पर उनकी तारीफ़ में भी हम इसी गीत के मुखड़े के आधार पर यही कहेंगे कि 'लता जी, आपकी आवाज़ ही फ़िल्म संगीत का सिंगार है, और जब तक आप के गाए गीत हमें कहीं ना कहीं से सुनाई देते रहेंगे, हम सब युंही जीते रहेंगे।" इससे ज़्यादा आपकी तारीफ़ में और क्या कहें!



मुस्कराहट तेरे होठों की मेरा सिंगार है
तू है जब तक ज़िन्दगी में ज़िन्दगी से प्यार है ।

मैनें कब मांगी मुहब्बत कब कहा तुम प्यार दो
प्यार तुमको कर सकूं इतना मुझे अधिकार दो
मेरे नैया की तुम्हारे हाथ में पतवार है ।

मेरे काजल में भरा है रंग तेरी तस्वीर का
सामने है तू मेरे एहसान है तक्दीर का
तेरी आँखों में बसाया मैनें इक संसार है ।


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. मदन मोहन की तर्ज पर लता के गाये इस गीत को बूझिये और जीतिए ३ अंक.
२. एक बार फिर गीतकार हैं इन्दीवर.
३. मुखड़े में शब्द है -"निसदिन"

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी ६ अंकों पर पहुँच गए हैं आप....बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जश्न है जीत का...सा रे गा मा चुनौती से नाबाद लौटे प्रोमिसिंग गायक अभिजीत घोषाल अपने "ड्रीम्स" लेकर अब पहुँच गए हैं "लन्दन"



ताजा सुर ताल (25)

ताजा सुर ताल में आज सुनिए उभरते हुए गायक अभिजीत घोषाल का "लन्दन ड्रीम्स"

सुजॉय- सजीव, क्या आपने एक बात पर ग़ौर किया है?

सजीव- कौन सी बात?

सुजॉय - यही कि आजकल जो भी फ़िल्में बन रही हैं, उनमें से ज़्यादातर के शीर्षक अंग्रेज़ी हैं। जैसे कि 'ब्लू', 'ऑल दि बेस्ट', 'वेक अप सिद', 'व्हट्स योर राशी?', 'वांटेड', 'थ्री', वगैरह वगैरह ।

सजीव- बात तो सही है तुम्हारी। तो क्या आज हम किसी ऐसी ही फ़िल्म का गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसका शीर्षक अंग्रेज़ी में है?

सुजॉय - बिल्कुल ठीक समझे आप। आज हम चर्चा करेंगे 'लंदन ड्रीम्स‍' की और इस फ़िल्म का एक गीत भी बजाएँगे। इस फ़िल्म के निर्माता हैं आशिन शाह, निर्देशक हैं विपुल शाह, संगीत शंकर अहसान लोय का, गीतकार प्रसून जोशी, और इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं सलमान ख़ान, अजय देवगन, आसिन थोट्टुम्कल, रणविजय सिंह, बृंदा पारेस्ख, ओम पुरी, ख़ालिद आज़्मी और आदित्य रोय कपूर।

सजीव- यानी कि मल्टि-स्टारर फ़िल्म है यह। और ये जो रणविजय है, ये वही है ना MTV Roadies वाले?

सुजॉय- हाँ बिल्कुल वही है।

सजीव- पिछले साल 'रॉक ऑन' ने मास और क्लास दोनों से तारीफ़ें लूटी थी, और फ़रहान अख़्तर की भी काफ़ी सराहना हुई। तो इसी के मद्देनज़र विपुल शाह ने तय किया कि वो भी इसी फोर्मुले को अपनाएँगे।

सुजॉय - कौन सा फार्मूला सजीव?

सजीव- यही बैंड्स+ म्युज़िक + ड्रामा, और क्या!

सुजॉय - अच्छा! और इसीलिए 'रॉक ऑन' वाले संगीतकार तिकड़ी को ही लिया गया है।

सजीव- हो सकता है, लेकिन मैने तो सुना है कि क्योंकि इस फ़िल्म का एक अहम पक्ष संगीत का रहेगा, इसीलिए निर्माता चाहते थे कि ए. आर. रहमान इसका म्युज़िक करें, लेकिन बात बन नहीं पायी।

सुजॉय - अच्छा, खैर शंकर एहसान लॉय भी निराश करने वालों में से नहीं हैं, मैंने भी इस अल्बम के सभी गीत सुनें हैं और मेरे ख्याल से ये इस साल की बेहतरीन अल्बम्स में से एक है, जिसमें में लगभग सभी गीत एक से बढ़कर एक हैं, पर ताज्जुब इस बात का है कि फिल्म के कुल ८ गीतों में से किसी में भी फीमेल स्वर नहीं है....सोचता हूँ कि आखिर आसीन कर क्या रही है फिल्म में :), हाँ एक बात और, बहुत से नए गायकों ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी है, धुरंधर शंकर, रूप कुमार राठोड और राहत फतह अली खान आदि के साथ साथ...

सजीव - हाँ और उन्हीं नए गायकों में से एक आज तुम्हारे और मेरे साथ इस कांफ्रेंस में जुड़ने भी वाले हैं ...जानते हो कौन हैं वो ?

सुजॉय - कहीं ये अभिजीत घोषाल तो नहीं... मैं जानता हूँ कि आपको उनका गाया "जश्न है जीत का..." इन दिनों बहुत भा रहा है... । वाकई ...यह एक 'पावर पैक्ड नंबर' है। इस गीत में आप इलेक्ट्रॊनिक और रॊक के साथ साथ अरबी संगीत की भी झलक पाएँगे। सजीव ये अभिजीत घोषाल वही हैं जो ज़ी टीवी के सा रे गा मा चैलेंज में लगातार १२ बार विजेयता बने थे। मेरे ख्याल से ये रिकॉर्ड अभी तक कोई तोड़ नहीं पाया है

सजीव - बिलकुल सुजॉय.....लीजिये आ गए हैं अभिजित....स्वागत है आपका...

अभिजित -शुक्रिया सुजॉय और सजीव आपका....मैं हिंद युग्म का हिस्सा तो पहले ही बन चुका हूँ....आप के इस कार्यक्रम की बदौलत आज मेरे इस ताजा गीत पर भी कुछ चर्चा हो जायेगी...

सजीव- अभिजीत सबसे पहले तो इस बड़ी फिल्म में इतने महत्वपूर्ण गीत के लिए बधाई....सा रे गा मा से लन्दन ड्रीम तक पहुँचने में काफी लम्बा समय लगा आपको...इस दौरान हुए संघर्ष के बारे में कुछ बताएं...

अभिजित- सजीव मैं आज आपको कुछ ऐसा बताता हूँ जो कभी मैंने किसी को नहीं बताया...जिन दिनों मैं सा रे गा मा के चैलेन्ज राउंड में लगातार ११ बार जीतने के बाद स्वेच्छा से अपना नाम वापस ले चुका था, कई लोगों ने सोचा कि शायद चैनल वालों ने इन पर दबाब डाला होगा, पर ऐसा नहीं था. जब मैं अपनी ८ वीं चुनौती पार कर चुका था तब मेरी माँ की तबियत अचानक खराब हो गयी.....पर मुझे घरवालों ने यह बात मालूम नहीं होने दी, बाद में जब मुझे अपने दोस्त के माध्यम से उनकी नाज़ुक हालत की खबर मिली, तब मुझे तुंरत इलाहाबाद के लिए कूच करना पड़ा...आप शायद जानते होंगें कि मैं मूल रूप से इलाहाबाद का रहने वाला हूँ, बाद में हम लोग माँ के इलाज के लिए मुंबई आ गए.....आप यकीन नहीं करेंगें, मैं सुबह बिना किसी को बताये माँ को अस्पताल पहुंचा कर वहां उनके लिए पर्याप्त इंतजाम कर स्टूडियो पहुँचता था गाने के लिए, पर कभी किसी से मैंने इन सब का जिक्र नहीं किया....आप शायद यकीन नहीं करेंगें, सा रे गा मा के वो ११ एपिसोड जिसमें मैं जीता था उनमें से मैंने मात्र २ एपिसोडस का प्रसारण ही टी वी पर देख पाया, वो भी घर पर नहीं....एक एपिसोड तो मैंने लखनऊ के एक छोटे से ढाबे में रात का खाना खाते वक़्त देखा....वहां बैठे हुए लोग मेरी शक्ल देख कर कहने लगे - "अरे भाई साहब ये तो आपकी तरह लगता है", मैंने भी जवाब में बस इतना ही कहा -"हाँ मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है...", उस छोटे से ढाबे में बैठकर आप इससे ज्यादा क्या कह सकते थे...

सुजॉय - और अब माँ...?

अभिजीत - अभी इसी साल मार्च में मैंने उन्हें सदा के लिए खो दिया. उस हादसे के बाद लगभग ५ साल वो जीवित रही...मैं कभी भी ५ दिन से अधिक घर से दूर नहीं रहा...यही वजह है कि मैंने कभी USA का टूर नहीं किया, क्योंकि वहां जाने के लिए मुझे कम से कम १० दिन तक दूर रहना पड़ता...आप समझ सकते हैं ..ये सब मेरे लिए कितना मुश्किल था ...घर का एक कमरा अस्पताल सरीखा था ...माँ को निरंतर देखबाल की आवश्यकता थी...

सजीव - बिलकुल अभिजीत हम लोग समझ सकते हैं, आप अपने दुःख में हमें भी शरीक मानें...ये शायद आपकी माँ का आशीर्वाद ही है जो आज आप इस बड़ी फिल्म का हिस्सा हैं..

अभिजीत - हाँ बिलकुल, माँ को हमेशा ये लगता था कि मैं उनकी वजह से पीछे रह गया हूँ, हालाँकि ऐसा नहीं था, क्योंकि लगतार मैं काम कर रहा था. लुईस बैंक के साथ ढेरों प्रोजेक्ट का मैं हिस्सा रहा हूँ, उस्ताद विलायत राम जी, शिव जी, जैसे गुरुओं का हमेशा ही आशीर्वाद मिला मुझे, और अब तो मुझे लगता है जैसे माँ ने स्वर्ग में जाकर मेरी तकदीर के बचे कुचे दोष भी दूर हटा दिए हैं, तभी तो पहले किसान में "झूमो रे" मिला और अब ये लन्दन ड्रीम्स, ख़ुशी हुई जानकार कि आप सब को ये गीत पसंद आया है, मैं आपको बता दूं भारत में ही नहीं विदेशों से भी अल्बम को काफी अच्छे रीव्यूस मिल रहे हैं...

सुजॉय- आपने बंगला सा रे गा मा प् होस्ट भी किया....सोनू निगम, शान जैसे बड़े गायकों ने भी होस्टिंग के काम को बेहद मुश्किल करार दिया....आपका अनुभव कैसा रहा....

अभिजीत- मेरा तो बहुत बढ़िया रहा सुजॉय... ये एक ऐसा काम था जिसे मैंने बहुत एन्जॉय किया, उसकी वजह एक ये भी है कि मैं बच्चों से बहुत जल्दी खुद को जोड़ लेता हूँ, और बच्चे भी मुझसे बहुत जल्दी घुल मिल जाते हैं, यहाँ तक कि जब मेरी पहली एल्बम जो की बांगला में थी, उसमें मैंने उस कार्यक्रम के दो सबसे प्रोमिसिंग बच्चों से ओरिजनल गाने गवाए थे...आज भी वो सब मुझसे जुड़े हुए हैं और अपनी हर बात मुझसे शेयर करते हैं...

सजीव - अभिजीत, आप इलाहाबाद से हैं और अभी हाल ही में इस शहर पर एक गाना भी बना है....इलाहाबाद में बीते अपने शुरूआती दिनों पर कुछ हमारे श्रोताओं को बताईये...

अभिजीत - सजीव स रे गा मा में आने से पहले मैं एक बैंकर था, acedamically भी मेरा background बहुत स्टोंग रहा, मेरा दायरा हमेशा से ही ज़रा बुद्दी संपन्न लोगों का रहा, आप देखिये मेरे यदि १०० दोस्त होंगे तो उनमें से कम से कम ९० जन आई ऐ अस अधिकारी होंगे....मैं भी उन्हीं में से एक होता....अब ये मेरी खुशकिस्मती है कि मैं आज वो काम कर पा रहा हूँ जिसमें मेरी खुद की रूचि है, अभी ३ साल पहले ही मैंने नौकरी छोड़ी है, मैं हालाँकि बहुत जिम्मेदारी से काम को अंजाम देने वाला अधिकारी रहा, जब तक भी नौकरी की पर आप जानते हैं रचनात्मक लोग बहुत दिनों तक ९ से ५ के ढाँचे में बंध कर नहीं रह सकते...

सुजॉय - शंकर एहसान लॉय तक कैसे पहुंचना हुआ ?

अभिजीत - शंकर से लुईस के माध्यम से ही मिलना हुआ था, लुईस शंकर और शिव मणि का एक ग्रुप हुआ करता था आपको याद होगा "सिल्क" नाम का...शंकर जब पहली बार मिले तो खुद ही बोले..."अरे अभिजित आप तो वही....अरे क्या गाते हो भाई....". वो बहुत बड़े कलाकार हैं. आप जानते हैं कि इंडस्ट्री में निर्माताओं को विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल होता है. पर विपुल जी को जब शंकर ने मेरा गीत सुनाया तो भाग्यवश उन्हें भी पसंद आ गया...

सजीव - इस फिल्म में दो बड़े स्टार हैं आपका गीत इस पर फिल्माया गया है....

अभिजीत - सच कहूँ तो मुझे भी अभी तक पक्का नहीं पता, पर शायद ये गीत अजय देवगन पर होना चाहिए....फिल्म की कहानी के हिसाब से....

सुजॉय - जब गीत रिकॉर्ड हो रहा था, तब कैसा मौहौल था स्टूडियो में उस बारे में कुछ बताईये....शंकर ने क्या टिपण्णी की जब गीत ख़तम हुआ.....क्या गीतकार प्रसून भी वहां मौजूद थे..

अभिजीत- नहीं प्रसून तो मौजूद नहीं थे....पर उनका लिखा हुआ मैंने पढ़ा...और बस करीब २० मिनट में गाना रिकॉर्ड हो गया...शंकर भाई ने रिकॉर्डिंग के बाद कहा कि अभिजीत तुमने बहुत ही अच्छा गाया.....मैंने भी उनसे कहा....कि गीत ये पंक्तियाँ देखिये.....

छाले कई, तलवों में चुभे
भाले कई, जलती हुई कहीं थी जमींन,
ताले कई, दर्द संभाले कई,
हौंसलों में नहीं थी कमी,
हम अभी अड़ गए, आँधियों से लड़ गए,
मैंने धकेल के अँधेरे, छीन के ले ली रोशिनी,
मेरे हिस्से के थे सवेरे, मेरे हिस्से की जिन्दगी....

बिलकुल मुझे अपने जीवन की कहानी लगी...गाते हुए भी, और मेरे ही क्या आपकी भी...मेरा मतलब जो जो हम जैसे संघर्षशील कलाकार हैं उन सब का है ये गीत....

सजीव - बिलकुल सही है अभिजीत...अच्छा...इस फिल्म में आपके अलावा भी कुछ नए गायकों ने अपनी आवाज़ मिलायी है, जैसे "खानाबदोश" मोहन की आवाज़ में बहुत खूब जमा है, पंजाबी गायक फिरोज़ खान का भी एक गीत. खुद शंकर ने गाया है गीत "ख्वाब" जिसकी कुछ पंक्तियाँ भी आपको बहुत पसंद है ....

अभिजीत - हाँ ये पंक्तियाँ इस फिल्म का भी सार है और कुछ कुछ मेरी अपनी सोच भी इनसे मिलती है. आप भी देखिये -

मंजिलों पे त्यौहार है,
लेकिन वो हार है, क्या ख़ुशी अपनों के बिन,
है अधूरी हर जीत भी सरगम संगीत भी
अधूरा है अपनों के बिन,
ख्वाबों के बादल छाने दो लेकिन,
रिश्तों की धूप बचा के बरसना,
कहती है हवाएं, चूम ले गगन को,
पंखों को खोल दो छोड़ दो गरजना.....


सुजॉय -वाह क्या बात है अभिजीत...और कौन कौन सी फिल्में हैं आने वाली जिसमें हमें आपकी आवाज़ सुनने को मिलेगी

अभिजित - प्रोजेक्ट तो बहुत से हैं पर जब तक मुक्कमल न हो जाएँ उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता....हाँ पर मैं आपको बता दूं की बहुत जल्दी यानी कि दिसम्बर जनवरी के आस पास मैं और आप एक बड़े प्रोजेक्ट पर यहाँ बैठे बात कर रहे होंगें.

सजीव - अभिजीत उन दिनों जब आप सा रे गा मा में परफोर्म करते थे तब हम भी उन श्रोताओं में से थे जो आपकी जीत के लिए SMS किया करते थे....आप आपको इस बड़ी फिल्म के लिए गाते हुए देखकर बहुत अधिक ख़ुशी हो रही है....आने वाला वक़्त हिंदी सिनेमा के शीर्ष गायकों की श्रेणी में आपका भी नाम जोड़े....स्वीकार करें मेरी सुजॉय और तमाम हिंद युग्म टीम की तरफ से ढेरों शुभकामनाएँ...

अभिजीत - शुक्रिया सजीव और सुजॉय....मेरी तरफ से भी हिंद युग्म परिवार के सभी सदस्यों को ढेर सारा प्यार

सुजॉय - तो दोस्तों सुनिए लन्दन ड्रीम्स से अभिजीत घोषाल का गाया ये शानदार गीत, "जश्न है जीत का", याद रखिये ये सिर्फ एक डेमो उद्देश्य से मात्र ३२ kbps की क्वालिटी पर आपके लिए बजाय जा रहा है, उच्च क्वालिटी में सुनने के लिए ओरिजनल एल्बम ही खरीदें.



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, September 27, 2009

मैं हूँ कली तेरी तू है भँवर मेरा, मैं हूँ नज़र तेरी तू है जिगर मेरा...लता का एक दुर्लभ गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 215

ता मंगेशकर के गाए कुछ भूले बिसरे और दुर्लभ गीतों पर आधारित हमारी विशेष शृंखला आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मेरी आवाज़ ही पहचान है'। अब तक आप ने कुल ४ गानें सुने हैं जो ४० के दशक की फ़िल्मों से थे। आइए आगे बढ़ते हुए प्रवेश करते हैं ५० के दशक में। सन् १९५१ में एक फ़िल्म आयी थी 'सौदागर'। 'वेस्ट हिंद पिक्चर्स' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नासिर ख़ान और रेहाना। पी. एल. संतोषी के गीत थे और सी. रामचन्द्र का संगीत। दोस्तों, इससे पहले हम ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पी. एल. संतोषी और सी. रामचन्द्र के जोड़ी की बातें भी कर चुके हैं और 'शिन शिना की बबला बू' फ़िल्म के गीत "तुम क्या जानो तुम्हारी याद में हम कितना रोये" सुनवाते वक़्त संतोषी साहब और रेहाना से संबंधित एक क़िस्सा भी बताया था। अगर आप ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में हाल ही में क़दम रखा है तो उस आलेख को यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। इस गीत के अलावा पी. एल. संतोषी, सी. रामचन्द्र और लता जी की तिकड़ी का जो एक और गीत हमने आप को यहाँ सुनवाया है वह है फ़िल्म 'सरगम' का "वो हम से चुप हैं हम उनसे चुप हैं"। ये दोनों ही गीत अपने ज़माने के बेहद मशहूर गीतों मे से रहे हैं। लेकिन आज इस तिकड़ी के जिस गीत को हम पेश कर रहे हैं वह इन गीतों से अलग हट के है। 'सौदागर' फ़िल्म के इस गीत के बोल हैं "मैं हूँ कली तेरी तू है भँवर मेरा, मैं हूँ नज़र तेरी तू है जिगर मेरा"। लता और सखियों की आवाज़ों में इस गीत को सुनते हुए, इसके रीदम को सुनते हुए आप को सी. रामचन्द्र का वह मशहूर गीत "भोली सूरत दिल के खोटे" ज़रूर याद आ जायेगा, इन दोनों गीतों के बीट्स एक जैसे ही हैं। गोवन लोक संगीत की छटा इस गीत में बिखेरी है चितलकर साहब ने।

लता जी ने सी. रामचन्द्र के संगीत में ५० के दशक में बेशुमार गानें गाए हैं। लेकिन पता नहीं किसकी नज़र लग गई कि इन दोनों में कुछ ग़लतफ़हमी सी हो गई और दोनों ने एक दूसरे के साथ काम करना बंद कर दिया कई सालों के लिए। चलिए आज वही दास्तान आप को बताते हैं ख़ुद लता जी के शब्दों में जिन्हे उन्होने अमीन सायानी के एक इंटरव्यू में कहा था।

"मेरा दुश्मन कोई नहीं है, ना ही मैं किसी की दुश्मन हूँ। पर इतने सारे म्युज़िक डिरेक्टर्स के साथ जब हम काम करते हैं, इतने लोग मिलते हैं रोज़, तो कहीं ना कहीं छोटी मोटी बात हो जाती है। उनके (सी. रामचन्द्र) साथ क्या हुआ था कि एक रिकार्डिस्ट थे जो मेरी पीठ पीछे कुछ बात करते थे। मुझे मालूम हुआ था और वो जिसने मुझे बताया था वो आदमी मुझे बहुत ज़्यादा प्यार करता था, कहता था 'मैं सुन नहीं सकता हूँ लता जी, वो आप के बारे में बात ऐसी करते हैं'। और मेरी रिकार्डिंग थी सी. रामचन्द्र की जो उसी स्टुडियो में। अन्ना को कहा कि 'अन्ना, मैं इस रिकार्डिस्ट के पास रिकार्डिंग नहीं करूँगी क्योंकि ये मेरे लिए बहुत ख़राब बात करता है। जब मैं गाउँगी मेरा मन नहीं लगेगा यहाँ और मैं जब गाती हूँ मेरे दिमाग़ को अच्छा लगना चाहिए, सुकून मिलना चाहिए कि भई जो गाना मैं गा रही हूँ, अच्छा लग रहा है, तभी गाना अच्छा बन सकता है।' उनको पता नहीं क्या हुआ, उन्होने कहा कि 'लता, तुम अगर नहीं गाओगी तो मैं भी अपने दोस्त को नहीं छोड़ सकता हूँ, मैं तुम्हारी जगह किसी और को लाउँगा'। मैने कहा कि 'बिल्कुल आप ला सकते हैं, किसी को भी ले आइए'। और मैने वह काम छोड़ दिया, पर मेरा उनका झगड़ा ऐसा नहीं हुआ। मैने वह गाना, मतलब रिहर्सल किया हुआ, मैं छोड़ के चली आई और उन्होने फिर किसी और से वह गाना लिया, और वह एक मराठी गाना था। तो वह गाना होने के बाद, उस समय उनके पास काम भी बहुत कम था, और फिर बाद में मेरी उनकी बात नहीं हुई, मुलाक़ात नहीं हुई, कुछ नहीं। और फिर अगर उनका मेरा इतना झगड़ा हुआ होता तो फिर वो मेरे पास दोबारा "ऐ मेरे वतन के लोगों" लेकर आते? तो झगड़ा तो था ही नहीं। "ऐ मेरे वतन के लोगों" के लिए वो मेरे घर आए बुलाने के लिए, वो और प्रदीप जी, दोनों ने आ कर कहा कि 'यह गाना तुमको गाना ही पड़ेगा'। मैने कहा 'मैं गाउँगी नहीं, मेरी तबीयत ठीक नहीं, रिहर्सल करना पड़ेगा, दिल्ली जाना पड़ेगा'। पर उस गाने के लिए प्रदीप जी ने बहुत ज़ोर लगाया। प्रदीप जी ने यहाँ तक कहा कि 'लता, अगर तुम यह गाना नहीं गाओगी तो फिर मैं यह गाना दूँगा ही नहीं।' तो उनका दिल नहीं तोड़ सकी मैं।"

तो दोस्तों, ये बातें थीं लता जी की कि किस तरह से उनके और अन्ना के बीच में दूरियाँ बढ़ी और किस तरह से "ऐ मेरे वतन के लोगों" ने सुलह भी करवा दिया। तो आइए अब लता और अन्ना की सुरीली जोड़ी के नाम सुनते हैं आज का यह गीत, जिसके लिए हम विशेष रूप से आभारी हैं अजय देशपाण्डे जी के जिन्होने इस गीत को हमें उपलब्ध करवाया, सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. संगीतकार रोशन के लिए गाया लता ने ये गीत..बूझने वाले को मिलेंगें २ के स्थान पर ३ अंक.
२. इस फिल्म में कलाकार थे नासिर खान और नूतन.
३. मुखड़े में शब्द है -"सिंगार".

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह पराग लगातार २ सही जवाब और आपका स्कोर पहुंचा है ३६ पर...बधाई...हमारे और धुरंधर सब कहाँ चले गए भाई....सभी को नवमी, दुर्गा पूजा और दशहरे की ढेरों बधाईयाँ

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का शक्ति विशेषांक



इंटरनेटीय कवि सम्मेलन का 15वाँ अंक

Rashmi Prabha
रश्मि प्रभा
Khushboo
खुश्बू
इन दिनों पूरे भारतवर्ष में दुर्गा पूजा की धूम है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवी दुर्गा शक्तिरूप हैं। शक्ति का एक नाम ऊर्जा भी है। भारतीय दर्शन में ऊर्जा को ही अंतिम सत्य माना गया है। यदि हम पदार्थों के विभाजन की क्वार्क संकल्पना से भी सूक्ष्मत्तम किसी अविभाजित ईकाई की कल्पना करें तो वह भी ऊर्जा का ही समग्र रूप होगा। यानी ऊर्जा मूल में है, शक्ति मूल में है। शायद तभी कहते हैं कि तमाम तरह के गुणधर्मों से युक्त शिव भी बिना शक्ति के शव (मृत) है।

हम इस शक्ति के विभिन्न रूपों से हमेशा ही अपने जीवन में एकाकार होते रहते हैं। इस बार का पॉडकास्ट कवि सम्मेलन शक्ति के व्यापक रूपों की पड़ताल करने की एक कोशिश है। पिछली बार की तरह अपनी समर्थ आवाज़ और संचालन से शक्ति के विभिन्न स्वरों को पिरोने का काम किया है कवयित्री रश्मि प्रभा ने और तकनीकी ताना-बाना खुश्बू का है। श्रोताओं को याद होगा कि सितम्बर माह के इस कवि-सम्मेलन के लिए हमने 'शक्ति' को विषय के रूप में चुना था।

अब तो यह आप ही बतायेंगे कि इसे सफल बनाने में हमारी टीम ने कितनी शक्ति लगाई है।



वीडियो देखें-










प्रतिभागी कवि- नीलम प्रभा, सरस्वती प्रसाद, प्रीती मेहता, किरण सिन्धु, संगीता स्वरुप, रेणु सिन्हा, शन्नो अग्रवाल, मुकेश पाण्डेय, विवेकरंजन श्रीवास्तव, प्रो.सी.बी श्रीवास्तव।

नोट - अगले माह यानी अक्तूबर माह के पॉडकास्ट कवि सम्मलेन के लिए सभी प्रतिभागी कवियों के लिए हमने एक थीम निर्धारित किया है। "हिन्दी'। अपनी मातृभाषा की स्थिति को लेकर आपके दिमाग में तरह-तरह के विचार आते होंगे। बहुत से उद्‍गार, बहुत सी चिताएँ और बहुत सी सम्भावनाएँ आपकी कल्पना-शक्ति ने आपको दिये हैं। तो 'हिन्दी' पर अपनी कलम चलाइए और कविता रिकॉर्ड करके भेज दीजिइ। हमारी कोशिश रहेगी कि आपकी कविताओं पर एक वीडियो का भी निर्माण करें।


संचालन- रश्मि प्रभा

तकनीक- खुश्बू


यदि आप इसे सुविधानुसार सुनना चाहते हैं तो कृपया नीचे के लिंकों से डाउनलोड करें-

ऑडियोWMAMP3
वीडियोOgg (.ogv)WMVMPEG




आप भी इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनें

1॰ अपनी साफ आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके भेजें।
2॰ जिस कविता की रिकॉर्डिंग आप भेज रहे हैं, उसे लिखित रूप में भी भेजें।
3॰ अधिकतम 10 वाक्यों का अपना परिचय भेजें, जिसमें पेशा, स्थान, अभिरूचियाँ ज़रूर अंकित करें।
4॰ अपना फोन नं॰ भी भेजें ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम तुरंत संपर्क कर सकें।
5॰ कवितायें भेजते समय कृपया ध्यान रखें कि वे 128 kbps स्टीरेओ mp3 फॉर्मेट में हों और पृष्ठभूमि में कोई संगीत न हो।
6॰ उपर्युक्त सामग्री भेजने के लिए ईमेल पता- podcast.hindyugm@gmail.com
7. अक्तूबर 2009 अंक के लिए कविता की रिकॉर्डिंग भेजने की आखिरी तिथि- 17 अक्टूबर 2009
8. अक्टूबर 2009 अंक का पॉडकास्ट सम्मेलन रविवार, 25 अक्टूबर 2009 को प्रसारित होगा।


रिकॉर्डिंग करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। हमारे ऑनलाइन ट्यूटोरियल की मदद से आप सहज ही रिकॉर्डिंग कर सकेंगे। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

# Podcast Kavi Sammelan. Part 15. Month: September 2009.
कॉपीराइट सूचना: हिंद-युग्म और उसके सभी सह-संस्थानों पर प्रकाशित और प्रसारित रचनाओं, सामग्रियों पर रचनाकार और हिन्द-युग्म का सर्वाधिकार सुरक्षित है।

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन