Saturday, October 1, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 61- पद्मश्री गायिका जुथिका रॉय और "बापू"



जब गायिका जुथिका रॉय मिलीं राष्ट्रपिता बापू से

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का मैं, आपका दोस्त सुजॉय चटर्जी, स्वागत करता हूँ। कल २ अक्टूबर, यानि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयन्ती है। इस अवसर पर आज के इस प्रस्तुति में हम एक गायिका की ज़ुबानी आप तक पहुँचाने जा रहे हैं जिसमें वो बताएंगी बापू से हुई उनकी मुलाक़ात के बारे में। दोस्तों, ५० के दशक में फ़िल्म-संगीत के क्षेत्र में लता मंगेशकर जो मुकाम रखती थीं, ग़ैर-फ़िल्मी भजनों में वह मुकाम उस समय गायिका जुथिका रॉय का था। उनकी आवाज़ आज कहीं सुनाई नहीं देती, पर उस समय उनकी मधुर आवाज़ में एक से एक लाजवाब भजन आए थे जिनके सिर्फ़ आम जनता ही नहीं बल्कि बड़े से बड़े राजनेता जैसे महात्मा गांधी, पण्डित नेहरू, सरोजिनी नायडू आदि भी शैदाई थे। जुथिका जी की आवाज़ किसी ज़माने में घर घर में गूंजती थी। भजन संसार और सुगम संगीत के ख़ज़ाने को समृद्ध करने में जुथिका जी का अमूल्य योगदान है। सन्‍ २००९ में पद्मश्री सम्मानित जुथिका रॉय तशरीफ़ लाई थीं विविध भारती के स्टुडियो में और उनके साथ साथ विविध भारती के समस्त श्रोतागण गुज़रे थे बीते युग की स्मृतियों के गलियारों से। उसी साक्षात्कार में जुथिका जी नें बताया था कि किस तरह से उनकी राष्ट्रपिता बापू से मुलाक़ात हुई थी। आइए बापू को स्मरण करते हुए साक्षात्कार के उसी अंश को आज यहाँ पढ़ते हैं।

जुथिका रॉय - "एक दफ़े हैदराबाद में मेरी सरोजिनी नायडू के साथ मुलाक़ात हुई। वो आई थीं मेरा गाना सुनने के लिए, मुझे देखने के लिए। और उनको मैं कभी यह नहीं सोचा कि वो मेरे पास आएंगी, हमारे पास आकर बोलीं कि 'दीदी, आप ने महात्मा गांधी को देखा?' मैंने कहा कि नहीं, अभी तक हमारा यह सौभाग्य नहीं हुआ, हम तो बस पेपर में पढ़ते हैं कि वो क्या क्या काम करते हैं हमारे देश के लिए। बोलीं, 'आप जानती हैं आपका गाना कितना पसन्द करते हैं?' मैंने बोला कि नहीं, मुझे मालूम नहीं है, मुझे कैसे मालूम पड़ेगा? बोलीं कि 'उनको आपका गाना बहुत पसन्द है, हर रोज़ वो आपके रेकॉर्ड्स बजाते हैं, और जब प्रार्थना में बैठते हैं तो पहले मीराबाई का यह भजन बजाते हैं, फिर प्रार्थना शुरु करते हैं। तो मेरी एक बहुत इच्छा है कि आप महात्मा जी के साथ ज़रूर दर्शन करना, वो गाना सुनना चाहें तो एकदम सामने से उनको गाना सुनाना, यह मैं आपको बोल रही हूँ।'

मैंने यह खबर तो उनसे सुना, मैं पहले तो नहीं जानती थी, लेकिन मैं बहुत कोशिश करने लगी कि बापू के साथ मुलाकात करूँ, उनके दर्शन करूँ, उनको प्रणाम करूँ, लेकिन वह समय बहुत खराब समय था, स्वाधीनता के लिए बहुत काम थे, इधर उधर घूमते थे, और हमारे कलकत्ते में भी दंगे लग गए, सब जलने लगा चारों तरफ़। उस वक्त १९४६ में दंगे शुरु हो गए। हमने सुना कि बापू कलकता में आए हैं, और बेलेघाटा में, बहुत दूर है हमारे घर से, तो वहाँ पे ३ दिन ठहरेंगे, लेकिन बहुत बिज़ी हैं, किसी के साथ मुलाकात नहीं कर सकते। मैंने, माताजी और पिताजी ने सोचा कि जैसे भी हो हमें उनका दर्शन करना ही पड़ेगा। और उनके सामने नहीं जा सकेंगे, उनको गाना नहीं सुना सकेंगे, उसमें कोई बात नहीं है, लेकिन दूर से उनके हम दर्शन करेंगे सामने से। और एक साथ हम लोग सब भाई बहन, माताजी, पिताजी, काका, बहुत बड़ा एक ग्रूप बनाके, हम लोगों ने देखा कि जैसे वो मॉरनिंग्‍ वाक करते थे, तो हम रस्ते के उपर उनको प्रणाम करेंगे। ऐसे सब बातचीत करके हम निकले। वहाँ पहुंचे तो देखा कि जहाँ पर बापू रहते हैं वह बहुत बड़ा मकान है, उसके सामने एक बहुत बडआ गेट है और गेट के सामने ताला लगा हुआ है। वहाँ एक दरवान बैठा था तो हमने पूछा कि 'क्या हुआ, ताला क्यों लगा है, बापू मॉरनिंग् वाक में गए क्या?' तो बोला कि 'नहीं, उनका मॉरनिंग् वाक हो गया, अभी आराम कर रहे हैं, इसलिए ताला लगा हुआ है'। हमको बहुत बुरा लगा कि टाइम तो निकल गया।

मेरे काकाजी ने गेट-कीपर को कहा कि 'देखो, हम लोग बहुत दूर से आ रहे हैं, गेट को खोल दो, हम थोड़ा हॉल में बैठेंगे'। बोला, 'नहीं नहीं, मुझे हुकुम नहीं है, आप तो नहीं जा सकते, आप इधर ही खड़े रहना'। बहुत कड़ी धूप थी उधर, हम सब धूप में खड़े थे, हमारे पीछे-पीछे और भी बहुत से लोग आ गए। हम सब साथ में खड़े रहे। अचानक ऐसा हुआ कि वह शरत काल था, इसमें ऐसा होता है कि अभी कड़ी धूप है और अभी अचानक बरसात हो जाती है। तो एकदम से काले बादल आके बरसात शुरु हो गई, और हम भीगने लगे। हमारे काकाजी को तो बहुत गुस्सा आ गया। मुझे बहुत प्यार करते हैं, 'रेणु भीग रही है', उन्होंने एकदम से दरवान को जाकर कहा कि 'देखो, बापू को जाकर कहो कि जुथिका रॉय आई है उनके दर्शन के लिए, अन्दर जाओ और उनको यह बता दो'। दरवान तो चला गया, बाद में क्या देखते हैं कि अन्दर से मानव गांधी और दूसरे सब वोलन्टियर्स आ रहे हैं निकल के। छाता लेकर सब दौड़-दौड़ के आ रहे हैं। हम अन्दर गए, हॉल में सब बैठे। टावल लेकर आए क्योंकि हम सब भीग गए थे। थोड़ी देर बाद आभा गांधी, आभा गांधी बंगाली थे, कानू गांधी के साथ उन्होंने शादी की थी, वो आश्रम में रहती थीं। तो आभा आकर मुझको बोली कि 'दीदी, आप और माताजी अन्दर आइए, बापू जी आपको बुलाए हैं, और किसी को नहीं'। बापूजी एक दफ़े उठ कर हॉल में एक चक्कर देके, सबको दर्शन देके अन्दर चले गए और हमको और माताजी को अन्दर ले गए।

बापूजी एक छोटे से आसन पर बैठे हैं, कुछ नहीं पहनते थे एक छोटी धोती के अलावा। और आँखों में बहुत मोटे काँच का चश्मा है। उसमें से उसी तरह हमको देखने लगे और हँसने लगे। आभा जी ने कहा कि 'आज बापू जी का मौन व्रत है और वो आज नहीं बोलेंगे'। तो भी ठीक है, सामने तो आ गए बापू जी के, यही क्या कम थी हमारे लिए! बापू जी को हमने प्रणाम किया, उन्होंने दोनों हाथ मेरे सर पे रख कर बहुत आशीर्वाद दिया। फिर वो लिखने लगे, लिख लिख कर वो आभा को देते थे और वो पढ़ कर हमको बताती थीं। उन्होंने लिखा कि 'हम तो अभी बहुत बिज़ी हैं, हमारे पास तो टाइम नहीं है, हमें टाइम से सब काम करना पड़ता है, हम अभी दूसरे कमरे में जाकर थोड़ा काम करेंगे, आप यहीं से खाली गले से भजन गाइए'। मैं तो चौंक गई, पेटी-वेटी कुछ नहीं लायी, हम तो खाली दर्शन के लिए आ गए थे। तो एक के बाद एक उनके जो फ़ेवरीट भजन थे, वो उन्होंने बोल दिया था, मैं गाती चली गई, जैसे "मैं तो राम नाम की चूड़ियाँ पहनूँ", "घुंघट के पट खोल रे तुझे पिया मिलेंगे", "मैं वारी जाऊँ राम" आदि।

तो उस दिन वहाँ पर आधे घण्टे तक मैं गाई एक एक करके। उसके बाद बापू जी फिर हमारे कमरे में आ गए, फिर गाना बन्द करके उनको प्रणाम किया, तो फिर से हमारे सर पे हाथ रख के बहुत आशीर्वाद दिया, और फिर आभा को लिख कर बताया कि 'आज मेरा मैदान में अनुष्ठान है'। कलकत्ते का मैदान कितना बड़ा है आपको शायद मालूम होगा। तो वो बोले कि 'आज मेरा मैदान में अनुष्ठान है, शान्तिवाणी जो हम प्रचार करेंगे, उधर सब लोग आएंगे, उधर जुथिका भी हमारे साथ जाएंगी। जुथिका गाएगी भजन और मैं शान्तिवाणी दूंगा, और राम धुन होगा और यह होगा, वह होगा'। मेरा जीवन धन्य हो गया। बस वही एक बार १९४६ में वो मुझे मिले, फिर कभी नहीं मिले। उस वक्त मैं यही कुछ २५-२६ वर्ष की थी।"

तो दोस्तों, कैसा लगा जुथिका जी का यह संस्मरण? इन यादों को दोहराते हुए जुथिका जी की आँखों में चमक आ गई थी उस साक्षात्कार के दौरान, ऐसा साक्षात्कार लेने वाले कमल शर्मा नें बताया था कुछ इन शब्दों में - "सत्य के उस पुजारी से, शान्ति के उस दूत से जो आपकी भेंट हुई थी, उसकी चमक मैं आज भी आपके चेहरे पर ताज़ा देखता हूँ। आप बता रही हैं और वैसी ही पुलक, बच्चों जैसी वैसी ही ख़ुशी आपके चेहरे पर नज़र आ रही है, ऐसा लग रहा है कि आप को वह स्पर्श महसूस हो रहा है ताज़ा"।

तो आइए दोस्तों, अब जुथिका रॉय की आवाज़ में सुनें एक भजन जिसे उन्होंने बापू को भी सुनाया था उस मुलाकात में।

भजन: घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे (जुथिका रॉय, ग़ैर-फ़िल्मी)


तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष'। इस प्रस्तुति के बारे में अपने प्रतिक्रिया आप टिप्पणी में ज़रूर लिखिएगा। जुथिका रॉय को ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए आज आपसे अनुमति लेते हैं, कल फिर मुलाकात होगी, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "छोटे मियाँ"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "बदचलन" का पॉडकास्ट अर्चना चावजी की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "छोटे मियाँ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "छोटे मियाँ" का कुल प्रसारण समय2 मिनट 53 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"उम्र पूछी तो राजा ने मेरी ओर देखा। मैंने जवाब दिया तो रिसेप्शनिस्ट मुस्कराई, "द यंगेस्ट मैन इन द कम्युनिटी।"
(अनुराग शर्मा की "छोटे मियाँ" से एक अंश)


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#147th Story, Chhote Miyan: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/28. Voice: Anurag Sharma

Thursday, September 29, 2011

आप यूँ फासलों से गुजरते रहे...रहस्य की वादियों में हुस्न की पुकार और लता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 755/2011/195

ता जी के बारे में जितना लिखा जाये कम ही है. तो आज फिर से "मेरी आवाज ही पहचान है...." श्रृंखला में उनके बारे में कुछ और रोचक बातों को यहाँ पर प्रस्तुत करा जाए.

एक बार एक रेडियो इंटरव्यू के दौरान हरीश जी ने लता जी से एक सवाल पूछा थे, "क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है, कि आपको अपनी योग्यता से ज्यादा मिला है, धन, ऐश्वर्य, ख्याति? इस विषय में कोई अपराध बोध?" लता जी बड़ी सरलता से बोलीं, "मैं इश्वर की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे जो कुछ दिया है बहुत ज्यादा दिया है. मेरे से अच्छे गाने वाले और समझने वाले बहुत सारे लोग हैं पर जो कुछ शोहरत मुझे मिली है वह बहुत कम लोगों को मिलती है. मेरे से अच्छा गाने वाले, जैसे बड़े गुलाम अली खान साहब, या फिर अमीर खान साहब. सहगल साहब जैसा तो मैं कभी नहीं गा सकती."

मधुबाला से लेकर माधुरी दीक्षित और काजोल तक हिंदी सिनेमा के स्क्रीन पर शायद ही ऐसी कोई बड़ी तारिका रही हो जिसे लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ उधार न दी हो.

बीस से अधिक भारतीय भाषाओं में लता ने 30 हज़ार से अधिक गाने गए, 1991 में ही गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने माना था कि वे दुनिया भर में सबसे अधिक रिकॉर्ड की गई गायिका हैं.

भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली शास्त्रीय संगीत हो या फिर आम फ़िल्मी गाने लता ने सबको एक जैसी महारत के साथ गाया.

अब अगर लता जी अपने बारे में इस तरह बोलती हैं तो क्या यह उनकी महानता नहीं है?

लताजी को घर में केवल के.एल. सहगल के गीत गाने की इजाजत थी. क्योंकि लताजी के पिता को शास्त्रीय संगीत से बेहद प्यार था. एक बार उन्होंने रेडियो खरीदा और जैसे ही उसे शुरू किया उस पर खबर आई कि सहगल साहब नहीं रहे. इतना सुनते ही वो वापस गयीं और रेडियो वापस कर आईं.

हेमंत कुमार के साथ गीत गाते समय लताजी को खासी परेशानी होती थी। क्योंकि उस जमाने में गायकों को एक ही माइक्रोफोन से काम चलाना पड़ता था। हेमंत कुमार काफी लंबे थे. इसलिए लताजी को एक स्टूल रख उस पर खड़े होकर गाना गाना पड़ता था.

लताजी को तीखा-मसालेदार खाना बेहद पसंद है। कहा जाता है कि एक बार में वे 10-12 हरी मिर्च खा जाती थीं. उस पर उनका अपना तर्क कि तीखा खाने से जला और आवाज खुलती है.

आज के गाने की फरमाइश करी है सुजॉय चटर्जी ने. उनका पसंदीदा गाना है ‘आप यूँ फसलों से गुजरते रहे’. फिल्म का नाम है ‘शंकर हुसैन’. इसे निर्देशित करा था युसूफ नकवी ने. यह फिल्म १९७७ में आयी थी और इस फिल्म में संगीत दिया था खय्याम ने, और इस गाने के बोल लिखे थे जाँ निसार अख्तर ने।

आप यूँ फासलों से गुजरते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

आहटों से अंधेरे चमकते रहे
रात आती रही रात जाती रही
हो, गुनगुनाती रही मेरी तन्हाईयाँ
दूर बजती रही कितनी शहनाईयाँ
जिन्दगी, जिन्दगी को बुलाती रही
आप यूँ फासलों से गुजरते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आप यूँ…

कतरा कतरा पिघलता रहा आसमाँ -२
रूह की वादियों में ना जाने कहाँ
इक नदी, इक नदी दिलरूबा गीत गाती रही
आप यूँ फासलों से गुजरते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आप यूँ…

आप की गरम बाहों में खो जायेंगे
आप की नरम जानो पे सो जायेंगे, सो जायेंगे
मुद्दतों रात नींदें चुराती रही
आप यूँ फासलों से गुजरते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आप यूँ…


लीजिए पेश है ये गाना:


इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की मधुर मधुर आवाज़ है इस गीत में.
२. एक बहुत ही मीठी बोली भोजपुरी में गाया गया गीत है ये.
३. चित्रगुप्त के संगीत से सजे इस गीत के मुखड़े में "दूध भात" का जिक्र है.

अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
इस लोरी में माँ किस से क्या गुजारिश कर रही है - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
क्या कहें लता जी के बारे में, कृष्णमोहन जी बात से सभी संगीतप्रेमी शत प्रतिशत सहमत होंगें यक़ीनन

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, September 28, 2011

ए दिले नादान, आरज़ू क्या है....इसके सिवा कि लता जी को मिले लंबी उम्र और उनकी आवाज़ का साया साथ चले हमेशा हमारे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 754/2011/194

‘ओल्ड इज गोल्ड’ के सभी पाठकों की तरफ से लता जी को जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ. आज लता जी ने अपने जीवन के ८२ साल पूरे कर लिए हैं. हम सभी की कामना है कि वो दीर्घायु हों और हमेशा स्वस्थ रहें.

लता जी के लिए अभिनेता-निर्माता ओम प्रकाश जी ने एक बार कहा था, "हे ईश्वर, दुनिया में जितने लोग हैं, उनकी जिंदगी से तू सिर्फ़ एक सेकंड कम कर दे और वह लताजी की जिन्दगी में जोड़ दे." ऐसी प्रतिभा के लिए एक सेकंड तो क्या १ घंटा भी कम है.

लता जी के ८० वें जन्मदिन पर आईबीएन7 के लिए जावेद अख्तर ने उनका इंटरव्यू लिया था. जावेद जी ने कहा था – "सदियों में एकाध बार ऐसा होता है कि कोई इंसान इतना बड़ा होता है कि उसकी तारीफ नहीं की जाती। उसकी तारीफ इसलिए नहीं की जाती क्योंकि उसकी तारीफ की नहीं जा सकती। ऐसे शब्द ही नहीं होते। उसकी तारीफ की जरूरत भी नहीं होती। कोई नहीं कहता कि शेक्सपियर बहुत अच्छा राइटर था। कोई नहीं कहता कि माइकल एंजेलो बहुत अच्छे स्टेच्यू बनाता था। कोई नहीं कहता कि बीथोवन बहुत अच्छा म्यूजिक बनाता था। शेक्सपियर नाम अपने आप ही तारीफ है। उसी तरह से मैं समझता हूं कि जिसकी आज हम बात कर रहे हैं उनका नाम ही तारीफ है। आप किसी इंसान की इससे ज्यादा क्या तारीफ कर सकते हैं कि आप कहें कि वह लता मंगेशकर है। लता जी सबसे पहले न सिर्फ मेरी तरफ से बल्कि हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों की तरफ से जो आपसे और आपकी आवाज से मुहब्बत करते हैं आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई। आप यूं ही गाती रहें और हम लोगों के दिल जीतती रहें।"

तो चलिए आज फिर अपनी यात्रा हम लता जी की जिन्दगी से जुड़ी हुई बातों से करते हैं. हरीश भिमानी जी और वाणी प्रकाशन का मैं बार बार आभारी हूँ जिन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से यह सब जानकारी उपलब्ध करवायी. लता जी से एक बार पूछा गया कि एक बार उन्होंने राहुल देव बर्मन की रिकॉर्डिंग मैं पाँच मिनट में गाना सीखा, दस मिनट में गाया और पन्द्रह मिनट में बाहर निकल आयीं. इसके तो दो ही कारण हो सकते हैं. पहला, या तो लता जी में कुछ जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास है कि मैंने जो गाया है एकदम सही गाया है, इसमें कोई क्या मीन-मेख निकाल सकता है? या फिर, वो अपने काम के प्रति लापरवाह हो गयीं हैं जो मानना बड़ा ही मुश्किल है.

उन्होंने बड़ी ही शांति से आरोप सुने और फिर बोलीं, "नहीं, इन दोनों में से एक भी वजह सही नहीं है; दरअसल अपना रिकॉर्ड किया हुआ गीत सुनते हुए मैं डरती हूँ." डरती हूँ कि जब अपना गाया गीत दुबारा सुनूँगी तो न जाने उसमे मुझे कितने ही नुक्स दिखेंगे. हो सकता है, कहीं सुर से हट गयी होऊँगी, या किसी जगह ‘इम्प्रेशन’ में कसर रह गयी होगी, यूँ हर टेक में कुछ न कुछ त्रुटि मिलेगी ही. सुनूँगी तो कहाँ तक बार-बार रिकॉर्डिंग करती रहूँगी और सुधारती रहूँगी? बस यही डर से मैं भाग जाती हूँ. गाना अच्छा हुआ है या नहीं, इस बात का निर्णय मैं संगीतकार, निर्देशक और रिकॉर्डिस्ट पर छोड़ती हूँ."
"अलबत्ता नौशाद साहब के साथ यह नहीं चलता था. वो रिकॉर्डिंग के बाद जबरदस्ती रोका करते और कहते कि ‘पहले बस यह ‘ओ.के.’ टेक सुन कर जाओ’ और मिक्सिंग रूम में आने की विनती करते और वहाँ जाते ही अंदर से दरवाजा बंद करवा देते. यानि की मेरे साथ, रिकॉर्डिस्ट, निर्माता, फिल्म निर्देशक, सब-के सब कैद.... और फिर नौशाद साहब एक टेक सुनकर कब संतोष करने वाले थे. सारे के सारे टेक सुनवाते और मुझे उनमें से किस ‘टेक’ में से गाने का कौन सा अंतरा और संगीत का कौन सा टुकड़ा अच्छा लगा, यह बताना पड़ता था. और सब मिलकर गाने का अंतिम रूप तैयार करा करते."
"मुझे पता रहता है कि मेरे गाये किस गाने में कहाँ कमी रह गयी है और जब कभी में वो गाना सुनती हूँ तो मैं बेहद व्याकुल हो उठती हूँ.अगर अकेली होती हूँ तो फट से रेडियो बंद कर देती हूँ, लेकिन आस-पास कोई हो तो ऐसा नहीं कर पाती हूँ और लोगों का ध्यान बंटाने के लिए जैसे ही वो खामी वाली जगह आने को हो, तो मैं जोर-जोर से बातें करने लगती हूँ ताकि किसी का ध्यान उधर न जाए."

उनकी नजर में ‘चाचा जिंदाबाद’ फिल्म का, मदन मोहन संगीतबद्ध करा 'बैरन नींद न आये, बिना किसी कमी का है.

जिन लता जी की पूरी दुनिया प्रशंषक है वो खुद प्रशंषक हैं, मिस्र (इजिप्ट) की मशहूर गायिका ‘उम्मे कुल्सुम’ की. लता जी के अनुसार उन्हें चाहे अरबी भाषा समझ में न आये, तो भी उनके गाने सुनती रहती हैं. लता जी की सरलता देखिये, वो बोलीं, "सुना है कुछ लोग उन्हें ‘इजिप्ट की लता मंगेशकर’ कहते हैं. यह तो बिलकुल गलत है. वह तो मुझसे कहीं बड़ी हैं. मुझे क्यों कोई ‘भारत की उम्मे कुल्सुम’ क्यों नहीं कहता? मुझे तो बड़ा अच्छा लगता."

आज मैं अपनी पसंद का गाना सुनवाना चाहता हूँ. फिल्म का नाम है ‘रज़िया सुलतान’ और गाना है ‘ए दिले नादान’. जब भी मैं यह गाना सुनता हूँ शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती है. इस गाने की रचना करी थी जाँ निसार अख्तर ने और संगीतकार थे ‘खय्याम’. यह गाना सीधे से आत्मा में प्रवेश करता है.

ख़य्याम के शब्दों में, "'रज़िया सुल्तान' कमाल अमरोही साहब की फ़िल्म थी. वैसे तो यह गाना सीधा सा गाना था और धुन भी सरल थी, लेकिन इसको गाने के लिए आवाज़ के जादू की ज़रुरत थी. मुझे ख़ुशी है कि लता जी ने मेहनत के साथ गाना गाया."

लीजिए गाना प्रस्तुत है फिल्म से.....



लता जी ने यही गाना ९ मार्च ११९७ को मुम्बई में एक लाइव परफोर्मेंस (Lata An Era In An Evening Concert) में गाया था. उसमें गाये गए गाने को सुनिए.



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की हौन्टिंग आवाज़ है इस गीत में.
२. प्रस्तुत गीत की टीम का ही बनाया हुआ गीत है ये भी.
३. एक अंतरे में शब्द है - "शहनाईयाँ".

अब बताएं -
फिल्म का नाम बताएं - ३ अंक
निर्देशक बताएं - २ अंक
फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री कौन है - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी इतनी बुरी फिल्म लगी क्या आपको ? बाकी लोगों का क्या ख़याल है ?

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, September 27, 2011

ए री मैं तो प्रेम दीवानी....भक्ति, प्रेम और समर्पण के भावों से ओत प्रेत ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 753/2011/193

मस्कार! आप सभी संगीत रसिकों का स्वागत है ‘आवाज’ की महफ़िल में. आज मैं हाजिर हूँ ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में लता जी के ऊपर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की तीसरी कड़ी लेकर.

लता जी का बचपन ही शुरू हुआ संगीत के आँचल से. सबसे पहले उन्होंने अपने पिताजी को गाते हुए सुना. के. एल. सहगल की तो भक्त हैं लता जी. छह साल की उम्र में के.एल. सहगल की जो पहली फिल्म देखी थी वो थी ‘चण्डीदास’. फिल्म देख कर घर आयीं तो एलान कर दिया कि मैं तो बड़े होकर सहगल से ही शादी करूंगी. लता जी के गुरु उनके पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर थे. एक बार लता जी से पूछा गया कि पिता से संगीत की शिक्षा के अलावा कोई ऐसी सीख मिली, जो मन में हमेशा के लिए अंकित हो गयी हो?

उन्हें जवाब सोचना नहीं पड़ा और तुरंत उत्तर आया “हाँ, उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘अगर एक बार तुम्हे विश्वास हो जाये कि जो तुम कर रही हो वह सत्य है, सही है, बस...तो फिर कभी किसी से डरना नहीं.’”. पिता अपनी पुत्री से बहुत प्यार करते थे. लता की माई (माँ) ने बताया था, मास्टर दीनानाथ जी, ने जिन्हें माई ‘मालक’ कहा करती थीं, अपनी लाड़ली को केवल एक ही बार सजा दी थी. लता एक गीत ताल में नहीं गा पा रही थीं. घर में एक अलमारी पर गद्दे रखे जाते थे. उसी के ऊपर ‘मालक’ ने उसे बैठा दिया और जब तक उसका गाना ताल में नहीं आया, उसे नहीं उतारा. शायद यही अनुशासन बाद में लता जी के काम आया.

बाप बेटी में बहुत जमती थे. लता दिन भर ‘बाबा बाबा’ करती रहती. इसलिए ‘मालक’ उसे ‘लताबाबा’ कहते. एक बार लता हाथ में सोने की चूडियाँ पहने बाहर घूमने चली गयीं. माई ने डांटा, तो धमकी देने लगी, कि मैं जा कर नदी में कूद कर जाँ दे दूंगी. ‘मालक’ ने यह सुन कर कहा, ‘देख लता, पहले ये चूडियाँ निकाल, बाद में नदी में कूदने के लिए जा!’ इसके बाद दो दिनों तक लता की अपने बाबा से कट्टी रही.

एक बार ‘मालक’ का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और वो घर पर थे. पत्नी से बार बार उत्तेजित स्वर में पूछ रहे थे –‘अभी तक लता-मीना नहीं आयी?
इतनी जल्दी कैसे आयेंगी? आपने ही तो उन्हें संस्कृत सीखने भेजा है. आप ही तो कहते हैं कि संस्कृत सीखने से अन्य भाषाओं का ज्ञान अपने आप हो जाता है!" माई ने उत्तर दिया.
बच्चे घर पर आये. पिता ने स्नेह से पूछा,”आओ, मेरे पास आओ. आज मास्टरजी ने क्या सिखाया?
गायत्री मन्त्र”.
अच्छा बोल कर दिखाओ.
सब सामने बैठीं और गायत्री मन्त्र गा कर सुनाया.
ससुरी...सब की सब सुर में हैं,” पिता, शब्दों के उच्चारण से भे ज्यादा, सुरीले स्वरों से प्रभावित हुए. आंके मूँद लीं और “मंगेश, मंगेश” का रटण किया, जैसे पुत्रियों को कोई दैवी आशीर्वाद दे रहे हों.

फिल्म ‘खजांची’ के लिए आयोजित एक संगीत प्रतियोगिता में ग्यारह साल की लता प्रथम आयी थे. दो चंद्रक और एक दिलरुबा पुरस्कार में मिले थे. वही दिलरुबा एक बार पिता बजा रहे थे. कहीं से एक चूहा निकल आया. गुस्से में उन्होंने दिलरुबा का छड फेंका और वह टूट गया. लता गुस्से से रो पड़ी. उन्ही के शब्दों में, “तब बाबा ने जो बात कही, वह मुझे हमेशा के लिए याद रह गयी. उन्होंने कहा था कि ‘तुम्हें रोना और गुस्सा इसलिए आ रहा है न कि यह तुम्हारा जीता हुआ पुरस्कार है?...यानि यह सिद्धि तुम पर असर कर गयी है. यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि तुम्हे भविष्य में बहुत बड़े बड़े पुरस्कार मिलनेवाले हैं. अपनी ख्याति, अपने यश पर अभिमान नहीं होना चाहिए’..... जब भी मुझे कोई पुरस्कार, कोई सम्मान मिला है तभी मैंने खुद को बाबा की यह बात याद दिलायी है." शायद यही सब कारण हैं लता जी की महानता के.

अचल वर्मा जी ने १९५२ की फिल्म ‘नौ बहार’ के गाने ‘ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ को सुनना चाहा है. इस गाने को ‘नलिनी जयवंत’ पर फिल्माया गया था. साथ में अशोक कुमार भी थे. इस गाने का संगीत दिया था संगीतकार रोशन ने. गाने के बोल लिखे थे ‘सत्येन्द्र अत्थैया’ ने. यह गाना राग ‘तोड़ी’ पर आधारित है. लीजिए आप सब भी आनंद लीजिए इस गाने का.



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की ठहरी हुई मदहोश आवाज़ है इस गीत में.
२. इस एतिहासिक गीत को उन्होंने अपना सबसे पसंदीदा गीत माना था गीत के रचियेता के सुपुत्र को दिए गए एक साक्षात्कार में.
३. इतिहास के पन्नों में दर्ज एक प्रेम कहानी पर बनी एक फिल्म है ये.

अब बताएं -
गीतकार बताएं - ३ अंक
संगीतकार कौन हैं - २ अंक
फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
क्या बात है इतनी आसान पहेलियों में भी सब क्नफ्यूस हो रहे हैं ?

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, September 26, 2011

उड़ के पवन के रंग चलूंगी....उन्मुक्त भावनाओं की उड़ान और लता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 752/2011/192

"मेरी आवाज ही पहचान है...." की दूसरी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सब लोगों का तहेदिल से स्वागत करता हूँ. लता जी एक ऐसा नाम है जिसे किसी पहचान की जरूरत नहीं है. लता नाम लेते ही आँखों में जो सूरत आती है वो लता दीदी की होती है. आज कुछ और बातें उनके बारे में.

लता जी अपने छोटे भाई और बहनों को छोड़ कर किसी को कभी भी 'तुम' नहीं कहतीं - चाहे वो उम्र में कितना ही छोटा क्यों न हो. सबको सम्मान देना आता है. बात है भी सही, अगर आप दूसरों को सम्मान दोगे तो आपको भी मिलेगा.

लता जी की एक और खासियत थी कि वो अपनी रिकॉर्डिंग केवल तभी कैंसिल करती थीं जब उन्हें लगता था कि उनका गला गाने के साथ न्याय नहीं कर पायेगा. सुबह उठ कर, रियाज़ करते वक्त,जहाँ उनको अपनी आवाज उन्नीस-बीस लगी, वहीं उनका फोन आ जाता था कि 'आज तो माफ ही करें'.

देवानन्द ने एक बार कहा था कि 'ऐसा आज तक नहीं सुना गया कि लता जी किसी बड़े म्यूजिक डायरेक्टर या बैनर के लिए, किसी नए प्रोड्यूसर या कम्पोजर की रिकॉर्डिंग केंसिल करी हो."

यानी अपनी गुणवत्ता पर रत्ती-भर भी संदेह हो तो रिकॉर्डिंग न करने से जरा भी नहीं झिझकती थीं.

सीखने की ललक उनमें हमेशा से रही. सिखाने वाला कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.वाशिंगटन, अमेरिका में उनके एक शो से पहले उनकी आवाज में एक छोटा सा प्राक्थन रिकॉर्ड करा जाना था. हरीश भिमानी ने उसे लिखा था.लता जी ने कहा "हरीश जी, आपने यह लिख तो दिया पर में कुछ ठीक बोल नहीं पा रही हूँ". उन्होंने अपनी आवाज में रिकॉर्ड करा हुआ टेप बजा दिया.बोलीं, "मुझे बोलने में बड़ी तकलीफ होती है और यह सुनने में भी कुछ अच्छा नहीं काग रहा. आप बताइए, कैसे बोलना." लताजी फिल्म जगत में अपने स्थान से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बावजूद आडम्बरहीन हैं. सीखने को हमेशा तत्पर रहती हैं.

"मेरी सबसे पहली यादें होंगी थालनेर नाम के एक छोटे से गाँव की. वहाँ मेरी नानी माँ का छोटा सा घर था, जो मुझे बहुत अच्छा लगता. वहाँ मुझे ज्यादा रहने को तो नहीं मिला, लेकिन जब कभी जाती, तब मुझे नानी माँ से गाने सुनने में बड़ा मज़ा आता." लता जी हरीश भिमानी से बात करते करते जैसे खो गयीं थी.

नानी माँ रात को कहानियाँ भी सुनाती थीं, जिनमे बीच-बीच में गीत आते थे. और फिर लताजी ने खानदेश की विशिष्ट हिन्दी मिश्रित मराठी भाषा में एक लोकगीत का टुकड़ा सुनाया:

“शक्कर का गारा खुन्दाई दे शिपाई जान,
बरफी का होटा बंधाई दे शिपाई जान;
शेवन्ती देहली बंधाई दे शिपाई जान,
जिलेबी की खिड़की लगाई बंधाई दे शिपाई जान;”

(शकर का गारा (सीमेंट), बरफी का चौबारा, शेवन्ती फूल की दहलीज़ और जलेबी की खिड़की बना दो ).

आज भी मीठा उन्हें उतना ही अच्छा लगता है, जितना चटपटा और तीखा. पसंदीदा है पूरन पोळी. यह पश्चिम भारत की बहुत ही प्रसिद्ध मिठाई है, जिसे बनाने के लिए चने की दाल का प्रयोग किया जाता है. आप किसी महाराष्ट्रीय घर में खाने के लिए जाओ और आपको न मिले संभव ही नहीं है. लता जी के घर में जब भी कोई तीज-त्यौहार होता है , पूरन पोळी जरूर बनती है.

नानी ने गीत ही नहीं, रसोई भी सिखाई. नानी से उन्होंने गरबा भी सीखा. जब हरीश जी ने आश्चर्य से पूछा, “गरबा? लेकिन वो तो गुजरात का है!”

“हूँ अड़घी गुजरातण छू!” उन्होंने तपाक से विशुद्ध गुजराती में कहा (कि “मैं आधी गुजराती हूँ!”)
“क्या मतलब”, हरीश जी ने पूछा.
“मतलब मेरी माई (लताजी की माताजी) गुजराती हैं. उनका तो गोत्र नाम भी ‘गुजराती’ पड़ गया था. यानी अगर ‘मातृभाषा’ शब्द का अर्थ ‘माता की भाषा’ किया जाये , तो मेरी मातृभाषा गुजराती है”
“यह...यह तो मैं जानता ही नहीं था!” हरीश जी ने बोला.
“तो जानिए!” लताजी ने कुछ शरारत के स्वर में कहा.

आज की पसंद है सुमित चक्रवर्ती जी की. उन्होंने फरमाइश करी है १९६७ की फिल्म शागिर्द के गाने ‘उड़ के पवन के रंग चलूँगी’. जब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने मजरूह सुल्तानपुरी को खुशी का एक गाना लिखने को कहा तब इस गाने का जन्म हुआ. इस गाने को शायरा बानो जी के ऊपर फिल्माया गया था. इस फिल्म को समीर गांगुली ने निर्देशित करा था. आप सब भी उड़ने के लिए तैयार हो जाइये इस गाने के साथ...



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की चुलबुली आवाज़ है गीत में.
२. एक बार फिर पारंपरिक भजन से प्रेरित गीत है.
३. नलिनी जयवंत है नायिका, मुखड़े में शब्द है -"दर्द"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - ३ अंक
संगीतकार कौन हैं - २ अंक
किस राग पर आधारित है - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
हिन्दुस्तानी और इंदु जी को बधाई...गीत सुन पाए या नहीं ?

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, September 25, 2011

ये रातें ये मौसम, ये हँसना हँसाना...जब लता ने दी श्रद्धाजन्ली पंकज मालिक को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 751/2011/191

'ओल्ड इज़ गोल्ड’ के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हार्दिक स्वागत करता हूँ। श्री कृष्णमोहन मिश्र द्वारा प्रस्तुत पिछली शृंखला के बाद आज से हम अपनी १०००-वें अंक की यात्रा का अंतिम चौथाई भाग शुरु कर रहे हैं, यानी अंक-७५१। आज से शुरु होनेवाली नई शृंखला को प्रस्तुत करने के लिए हमने आमन्त्रित किया है ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के नियमित श्रोता-पाठक व पहेली प्रतियोगिता के सबसे तेज़ खिलाड़ी श्री अमित तिवारी को। आगे का हाल अमित जी से सुनिए…
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नमस्कार! "ओल्ड इज गोल्ड" पर आज से आरम्भ हो रही श्रृंखला कुछ विशेष है.बिलकुल सही पढ़ा आपने. यह श्रृंखला दुनिया की सबसे मधुर आवाज को समर्पित है. एक ऐसी आवाज जो न केवल भारत बल्कि दुनिया के कोने कोने में छाई हुई है. जिस आवाज को सुनकर आदमी एक अलग ही दुनिया में चला जाता है. ये श्रृंखला लता दीदी पर आधारित है.२८ सितम्बर लता जी का जन्मदिवस है ओर इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है उनका जन्मदिन मनाने का कि पूरी श्रृंखला उनको समर्पित करी जाये.

मैं अमित तिवारी आप सब लोगों का स्वागत करता हूँ इस नयी श्रृंखला में जिसका नाम है "मेरी आवाज़ ही पहचान है ...". मुझे तो सचमुच एक आनंद की अनुभूति हो रही है, सवालों के उतर देने से शुरुआत कर एक पूरी कड़ी प्रस्तुत करने पर.मुझे आप सब लोगों की आलोचनाओं का इंतज़ार रहेगा जिससे मैं कुछ और बेहतर कर सकूं.

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा। मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे। यह गीत लोग कभी नहीं भूल सकते और लता जी का व्यक्तित्व भी इस गीत से झलकता है कि भले ही नाम गुम जाय या चेहरा बदल जाये पर उनकी आवाज़ कोई नहीं भूल सकता।

"आवाज़" के सम्पादक सजीव सारथी तथा "ओल्ड इज गोल्ड" श्रृंखलाओं के संवाहक सुजॉय चटर्जी ने मुझे एक दायित्व दिया है, इसके लिए मैं इनके साथ-साथ अपने पाठकों-श्रोताओं के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ.

लता जी के बारे में जितना लिखा और कहा जाये कम है.

पंडित जसराज ने तो साफ़ साफ़ कहा "लताजी ने हम पर अहसान करा है कि वो क्लासिकल नहीं गाती".

उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के शब्द थे "कमबख्त़ कभी बेसुरी नहीं होती...क्या अल्लाह की देन है ?"

नौशाद साहब ने लता जी की तारीफ़ में ये पंक्तियाँ कहीं हैं.

"राहों में तेरे नगमे, महफ़िल में सदा तेरी ,
करती है सभी दुनिया, तारीफ़ लता तेरी;
दीवाने तेरे फन के इन्सां तो फिर इन्सां हैं,
हद यह है कि सुनता है आवाज़ खुदा तेरी;
तुझे नग्मों की जाँ अहले-नजर यूँ ही नहीं कहते,
तेरे गीतों को दिल का हमसफ़र यूँ ही नहीं कहते;
सुनी सबने मुहब्बत की जबां आवाज में तेरी ,
धड़कता है दिल-ए-हिन्दोस्तां आवाज में तेरी.
"

जब यह पंक्तियाँ लता जी के एक विदेश में शो के दौरान कही गयीं तो इतनी तालियां बजीं कि लता जी अगले गाने की तैयारी करते हुई रुक गयीं और अपनी ऐनक उतर कर प्रश्नार्थ दृष्टी से देख कर मानो पूछ रहीं थी कि 'यह सब कहाँ से जुटा लाये?"

दोस्तों कुछ समय पहले मैं लता जी के ऊपर 'हरीश भिमानी जी " के द्वारा लिखी गयी किताब पढ़ रहा था तो सोचा क्यों न उसी किताब से कुछ आप सबके साथ साझा किया जाये.यूं तो लता जी के बारे में बहुत सी जानकारी मौजूद है पर फिर भी शायद कुछ नयी बातें आप सबके साथ बाँट सकूं.

लता जी को फिल्में देखने का बड़ा शौक है.थिएटर न सही तो घर पर ही सही.कौन सी फिल्म? चुनाव अगर लता जी पर ही छोड़ा जाए तो 'पड़ोसन' ही देखी जायेगी.चालीसवीं बार! क्यों नहीं? सबसे प्रिय फिल्म जो ठहरी. महीने में एक दो बार जरूर देखती हैं.कोई और? हाँ...लेकिन मारधाड़ की न हो, भूत प्रेत की तो बिलकुल नहीं चलेगी...प्रेतात्मा के गीत गाना और बात है.आज अगर गुरूवार है, तो 'शिर्डी के साईबाबा' फिल्म ही देखेंगे.विडियो पर फिल्में देखना जितना एकांत मैं अच्छा लगता है, उतना ही सबके साथ बैठ कर भी.

लता जी ने १९९९ में फ़िल्मी संगीत के अपने ५० साल पूरे होने के अवसर पर 'श्रद्धांजलि' एल्बम में अलग अलग गायकों के गाने गाये थे. लता जी ने उस एल्बम में एक बहुत अच्छी बात कही थी कि "मैं ये साबित नहीं करना चाहती कि मैं इन महान कलाकारों से अच्छा गा सकती हूँ, बल्कि ये कहूंगी कि इन ५० सालों में मैंने उनसे जो सीखा है उसे ही पेश करने की एक छोटी सी कोशिश कर रही हूँ."

पंकज मालिक के बारे में उन्होंने कहा था कि "आज के फ़िल्मी गीतों में जो पश्चिमी संगीत का जो रूप नज़र आता है उसे ५० साल पहले शुरू किया था पंकज मलिक ने".लता जी पहली बार पंकज मलिक से नागपुर में मिली थीं.पंकज जी ने लता से कहा कि मैं तुम्हारे लिए कुछ गीत बनाना चाहता हूँ पर जिंदगी ने उन्हें ये मौका ही नहीं दिया.

इस शृंखला में श्रोताओं के पसंदीदा गानों को बजाया जाना है.सबसे पहली पसंद प्रस्तुत है हमारी प्यारी 'गुड्डो दादी' की. उन्होंने फरमाइश करी है पंकज मालिक द्वारा मूल रूप से गाये गाने 'ये रातें ये मौसम ये हँसना हँसाना' लता जी की आवाज में, जिसे उन्होंने 'श्रद्धांजलि' एल्बम में गाया था. आनन्द लीजिए इस गाने का. कुछ और बातोँ के साथ कल फिर से हाज़िर होऊंगा.



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की चुलबुली आवाज़ है गीत में.
२. संगीत है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का.
३. जॉय मुखर्जी है नायक, मुखड़े में शब्द है -"बहार"

अब बताएं -
फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक
गीतकार बताएं - २ अंक
नायिका कौन है - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह इंदु जी, दूसरी बार में कैच लपक ही लिए, इस बार जाहिर है अमित जी नहीं होंगें मैदान में देखते हैं कि ये बाज़ी उनके किस उत्तराधिकारी के हाथ लगती है

खोज व आलेख- अमित तिवारी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

मयूरी वीणा के उद्धारक और वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र



सुर संगम- 36 – दो तंत्रवाद्यों का समागम है, मयूरी वीणा, दिलरुबा अथवा इसराज में (पहला भाग)


सुर संगम के एक नये अंक में आप सब संगीतनुरागियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपसे एक ऐसे पारम्परिक तंत्रवाद्य पर चर्चा करेंगे, जिसमें दो वाद्यों के गुण उपस्थित होते हैं। वैदिक काल से ही तंत्रवाद्य के अनेक प्रकार प्रचलन में रहे हैं। प्राचीन काल में गज (Bow) से बजने वाले तंत्रवाद्यों में ‘पिनाकी वीणा’, ‘निःशंक वीणा’, ‘रावणहस्त वीणा’ आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे। आधुनिक समय में इन्हीं वाद्यों का विकसित और परिमार्जित रूप ‘सारंगी’ और ‘वायलिन’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। तंत्रवाद्य का एक दूसरा प्रकार है, जिसे गज (Bow) के बजाय तारों पर आघात (Stroke) कर स्वरों की उत्पत्ति की जाती है। प्राचीन काल में इस श्रेणी में ‘रुद्र वीणा’, ‘सरस्वती वीणा’, ‘शततंत्री वीणा’ आदि प्रचलित थे, तो आधुनिक काल में ‘सितार’, ‘सरोद’, ‘संतूर’ आदि आज लोकप्रिय हैं।


इन दोनों प्रकार के प्राचीन वाद्यों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। प्राचीन गजवाद्यों में नाद पक्ष का गाम्भीर्य उपस्थित रहता है, जबकि आघात से बजने वाले तंत्रवाद्यों में संगीत के चंचल प्रवृत्ति की अधिकता होती है। मध्यकाल में खयाल शैली के विकास के साथ ही कुछ ऐसे वाद्यों का आविष्कार भी हुआ, जिसमें यह दोनों गुण उपस्थित हों। ताऊस (मयूरी वीणा), इसराज अथवा दिलरुबा आदि ऐसे ही वाद्य हैं। इस श्रेणी के वाद्यों की बनावट में सितार और सारंगी का मिश्रित रूप होता है। डाँड (दण्ड) का भाग सितार की तरह होता है जिसमें पर्दे लगे होते हैं, जिस पर उँगलियाँ फिरा कर स्वर-परिवर्तन किया जाता है। इस वाद्य का निचला सिरा अर्थात कुंडी, सारंगी की भाँति होती है, जिस पर खाल मढ़ी होती है। सारंगी अथवा वायलिन की तरह इसे गज से बजाया जाता है। ताऊस अथवा मयूरी वीणा का प्रचलन मुगल काल में मिलता है, किन्तु इसकी उत्पत्ति के विषय कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पंजाब के कपूरथला घराने के उस्ताद मीर रहमत अली खाँ सुप्रसिद्ध ताऊस वादक थे, जिनके शिष्य महन्त गज़्ज़ा सिंह थे। महन्त जी पंजाब के भटिण्डा ज़िले के पास स्थित गुरुसर ग्राम के निवासी थे और कपूरथला रियासत के दरबारी कलाकार थे। महन्त गज़्ज़ा सिंह प्रख्यात ताऊस वादक थे। उन दिनों ताऊस अथवा मयूरी वीणा का आकार काफी बड़ा हुआ करता था। महन्त जी ने इसका आकार थोड़ा छोटा इस प्रकार से किया कि वाद्य की ध्वनि में विशेष अन्तर न हो। इस प्रयास में उन्होने ताऊस की कुंडी से मयूर की आकृति को अलग कर दिया और वाद्य के इस नये रूप का नाम ‘दिलरुबा’ रख दिया। इसके अलावा पटियाला दरबार के भाई काहन सिंह भी कुशल ताऊस वादक थे। महन्त गज़्ज़ा सिंह द्वारा ताऊस के परिवर्तित रूप ‘दिलरुबा’ का प्रचलन आज भी है। पंजाब के कई संगीतकार इस वाद्य का सफलतापूर्वक प्रयोग कर रहे हैं। पंजाब के कलासाधक रणवीर सिंह, राज एकेडमी में नई पीढ़ी को दिलरुबा वादन की शिक्षा देते हैं। आगे बढ़ने से पहले आइए रणवीर जी का दिलरुबा पर बजाया राग तिलंग की एक रचना सुनवाते हैं।

दिलरुबा वादन : राग तिलंग : कलाकार – रणवीर सिंह


आज हम आपका परिचय तंत्रवाद्य के एक ऐसे कलासाधक से कराते हैं जिन्होने संगीत के प्राचीन और आधुनिक ग्रन्थों में वर्णित मयूरी वीणा का अध्ययन कर वर्तमान मयूरी वीणा का निर्माण कराया। मूलतः इसराज वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र ने इस कार्य को अपनी देख-रेख में लगभग डेढ़ दशक पूर्व कराया था। आज के ताऊस अथवा मयूरी वीणा की संरचना में लखनऊ के संगीत-वाद्यों के निर्माता बारिक अली उर्फ बादशाह भाई का योगदान रहा। वाद्य को नया जन्म देने के बाद श्रीकुमार जी अपने इस मयूरी वीणा का अनेक बार विभिन्न संगीत समारोहों और गोष्ठियों में वादन कर चुके हैं। श्रीकुमार जी के इसराज वादन पर चर्चा हम अगले अंक में जारी रखेंगे। आज के अंक को विराम देने से पहले उनके द्वारा पुनर्जीवित ताऊस अर्थात मयूरी वीणा का वादन सुनवाते हैं। इस रिकॉर्डिंग में श्रीकुमार मिश्र राग रागेश्वरी का वादन कर रहे हैं। तबला संगति पार्थ मुखर्जी ने की है।

मयूरी वीणा वादन : राग रागेश्वरी : कलाकार – पं. श्रीकुमार मिश्र


अब समय आ गया है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को इस आलेख के दूसरे भाग के साथ हम पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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25 नई सुरांगिनियाँ

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महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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