Saturday, January 8, 2011

ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने....मिलिए महेंद्र कपूर के बेटे रोहन कपूर से सुजॉय से साथ



महेन्द्र कपूर के बेटे रोहन कपूर से सुजॊय की बातचीत

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक में। युं तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' रविवार से लेकर गुरुवार तक प्रस्तुत होता रहता है, लेकिन शनिवार के इस ख़ास पेशकश में कुछ अलग हट के हम करने की कोशिश करते हैं। इस राह में और हमारे इस प्रयास में आप पाठकों का भी हमें भरपूर सहयोग मिलता रहता है और हम भी अपनी तरफ़ से कोशिश में लगे रहते हैं कि कलाकारों से बातचीत कर उसे आप तक पहूँचाएँ। दोस्तों, आज ८ जनवरी है, और कल, यानी ९ जनवरी को जयंती है फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर जी का। उनकी याद में और उन्हें श्रद्धांजली स्वरूप हमने आमंत्रित किया उन्हीं के सुपुत्र रोहन कपूर को अपने पिता के बारे में हमें बताने के लिए। ज़रिया वही था, जी हाँ, ईमेल। तो लीजिए ईमेल के बहाने आज अपने पिता महेन्द्र कपूर की यादों से रोशन हो रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह महफ़िल।

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सुजॊय - रोहन जी, जब हर साल २६ जनवरी और १५ अगस्त के दिन पूरा राष्ट्र "मेरे देश की धरती" और "है प्रीत जहाँ की रीत सदा" जैसे गीतों पर डोलती है, और आप ख़ुद भी इन गीतों को इन राष्ट्रीय पर्वों पर अपने आसपास के हर जगह से सुनते हैं, तो किस तरह के भाव, कैसे विचार आपके मन में उत्पन्न होते हैं?

रोहन - उनकी आवाज़ को सुनना तो हमेशा ही एक थ्रिलिंग् एक्स्पीरिएन्स रहता है, लेकिन ये दो दिन मेरे लिये बचपन से ही बहुत ख़ास दिन रहे हैं। उनकी जोशिली और बुलंद आवाज़ उनकी मात्रभूमि के लिये उनके दिल में अगाध प्रेम और देशभक्ति की भावनाओं को उजागर करते हैं। और उनकी इसी खासियत ने उन्हें 'वॊयस ऒफ़ इण्डिया' का ख़िताब दिलवाया था। वो एक सच्चे देशभक्त थे और मुझे नहीं लगता कि उनमें जितनी देशभक्ति की भावना थी, वो किसी और लीडर में होगी।

सुजॊय - महेन्द्र कपूर जी एक बहुत ही मृदु भाषी और मितभाषी व्यक्ति थे, बिल्कुल अपने गुरु रफ़ी साहब की तरह। आप ने एक पिता के रूप में उन्हें कैसा पाया? किस तरह के सम्बन्ध थे आप दोनों में? मित्र जैसी या थोड़ी औपचारिक्ता भी थी उस रिश्ते में?

रोहन - 'He was a human par excellence'। अगर मैं यह कहूँ कि वो मेरे सब से निकट के दोस्त थे तो ग़लत ना होगा। I was more a friend to him than anybody on planet earth। हम दुनिया भर में साथ साथ शोज़ करने जाया करते थे और मेरे ख़याल से हमने एक साथ हज़ारों की संख्या में शोज़ किये होंगे। वो बहुत ही मिलनसार और इमानदार इंसान थे, जिनकी झलक उनके सभी रिश्तों में साफ़ मिलती थी।

सुजॊय - क्या कभी उन्होंने आपके बचपन में आपको डाँटा हो या मारा हो जैसे बच्चों को उनके माता-पिता कभी कभार मार भी देते हैं? या कोई ऐसी घटना कि जब उन्होंने आपकी बहुत सराहना की हो?

रोहन - सराहना भी बहुत की और उतनी ही संख्या है उनकी नाराज़गी की। वो ख़ुद भी बहुत अनुशासित थे और हम सब से भी हमारी आदतों और पढ़ाई में उसी अनुशासन की उम्मीद रखते थे। लेकिन इसके बाहर वो बहुत ही मज़ाकिया और हँसमुख और मिलनसार इंसान थे। वो कभी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते थे डाँटने के लिए, उनका चेहरा ही काफ़ी होता था मुझे और मेरी बहनों को सतर्क करने के लिए।

सुजॊय - जब आप छोटे थे, या जब बड़े हो रहे थे, क्या वो चाहते थे कि आप भी उनकी तरह एक गायक बनें?

रोहन - Probably in my sub conscience …yes, but never dared to tell him that I wanted to। बल्कि जब मैं नौ साल का था, तब उन्होंने ही मुझे गाने के लिए प्रोत्साहित किया और मैं उनके साथ साउथ अफ़्रीका में स्टेज पर गाने लगा।

सुजॊय - आप अपने पिता पर गर्व करते होंगे, और गर्व होनी ही चाहिए। लेकिन क्या आपको वाकई लगता है कि इस इण्ड्रस्ट्री ने उन्हें वो सब कुछ दिया है जिसके वो सही मायनो में हकदार थे?

रोहन - वो हमेशा यही मानते थे कि किसी को जीवन में जो कुछ भी मिलना है, वो सब उपरवाला निर्धारित करता है, और हम कोई नहीं होते उसकी इच्छा को चैलेंज करने वाले। इसलिए यह सवाल ही अर्थहीन है कि वो क्या चाहते थे या उन्हे क्या मिला या नहीं मिला।

सुजॊय - महेन्द्र कपूर जी से जुड़ी कोई ख़ास घटना याद आती है आपको जो आप हमारे पाठकों के साथ बाँटना चाहें?

रोहन - मैं हमेशा उनके साथ उनकी रेकॊर्डिंग्स पर जाया करता था बचपन से ही। ऐसी ही एक रेकॊर्डिंग् की बात बताता हूँ। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए रेकॊर्डिंग् थी, फ़िल्म 'क्रान्ति' का गीत "दुर्गा है मेरी माँ, अम्बे है मेरी माँ"। महबूब स्टुडिओज़ में रेकॊर्डिंग् हो रही थी। यह एक मुश्किल गाना था जिसे बहुत ऊँचे पट्टे पर गाना था और ऒर्केस्ट्रा भी काफ़ी भारी भरकम था। जब रेकॊर्डिंग् OK हो गई, और वो बाहर निकले तो लक्ष्मी-प्यारे जी और मनोज कुमार जी, सबके मुख से उनके लिए तारीफ़ों के पुल बांधे नहीं बंध रहे थे। वो लगातार उनकी तारीफ़ें करते गये और पिता जी एम्बैरेस होते रहे। जैसे ही हम कार में बैठे वापस घर जाने के लिए, वो कार को सीधे हनुमान जी के मंदिर में लेके गये और ईश्वर को धन्यवाद दिया। वो हमेशा कहा करते थे कि यह ईश्वर की शक्ति या कृपा ही है जो हमें हमारे काम को अच्छा बनाने में मदद करता है। It’s the Devine Grace which gives you excellence in your work।

सुजॊय - रोहन जी, बस आख़िरी सवाल। वह कौन सा एक गीत है महेन्द्र कपूर जी का गाया हुआ जो आपको सब से ज़्यादा पसंद है? या जिसे आप सब से ज़्यादा गुनगुनाया करते हैं?

रोहन - किसी एक गीत का नाम लेना तो असम्भव है, लेकिन हाँ, कुछ गीत जो मुझे बेहद पसंद है, उनके नाम गिनाता हूँ। "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों", "अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ रोशनी वालों", लता जी के साथ उनका गाया "आकाश पे दो तारे", आशा जी के साथ "रफ़्ता रफ़्ता आप मेरे दिल के महमाँ हो गये", और "यकीनन "मेरे देश की धरती"।

सुजॊय - वाह, एक से एक लाजवाब गीत हैं ये सब! चलिए हम यहाँ पर "अंधेरे में जो बैठे हैं" गीत सुनवाते हैं अपने श्रोताओं व पाठकों को। यह फ़िल्म 'संबंध' का गीत है। १९६९ की यह फ़िल्म थी जिसमें संगीत था ओ. पी. नय्यर का, और इस गीत को लिखा है कवि प्?दीप ने।

गीत - "अंधेरे में जो बैठे हैं" (संबंध)


सुजॊय - रोहन जी, बहुत अच्छा लगा, आपने अपने पिता और महान गायक महेन्द्र कपूर जी की शख़्सीयत के बारे में हमें बताया, बहुत बहुत धन्यवाद आपका। फिर किसी दिन आपसे और भी बातें हम करना चाहेंगे। मैं अपनी तरफ़ से, 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से, और हमारे तमाम पाठकों व श्रोताओं की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करता हूँ, नमस्कार!

रोहन - बहुत बहुत शुक्रिया आपका।
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तो दोस्तों, ये था इस सप्ताह का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', कल महेन्द्र कपूर जी के जन्मदिवस पर हम 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। और अब आज के इस प्रस्तुति को समाप्त करने की इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

सुजॉय चट्टर्जी

Thursday, January 6, 2011

ऐ आँख अब ना रोना, रोना तो उम्रभर है...कितना दर्दीला है ये युगल गीत लता चितलकर का गाया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 565/2010/265

सी. रामचन्द्र के स्वरबद्ध किए और उन्हीं के गाये हुए गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' की पाँचवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, अब तक इस शृंखला में हमने चितलकर की आवाज़ में दो एकल गीत सुनें और बाक़ी के दो गीत उन्होंने लता जी के साथ गाया था। आइए आज एक बार फिर एक मशहूर लता-चितलकर डुएट सुना जाये। यह गीत है १९४९ की फ़िल्म 'सिपहिया' का, जिसके बोल हैं "ऐ आँख अब ना रोना, रोना तो उम्रभर है, पी जाएँ आँसूओं को, बस वो जिगर जिगर है"। गीतकार हैं राम चतुरवेदी। आइए आज अपको एक फ़ेहरिस्त दी जाये लता-चितलकर डुएट्स की।

अलबेला (१९५१) - भोली सूरत दिल के खोटे, महफ़िल में मेरी कौन ये दीवाना आया, मेरे दिल की घड़ी करे टिक टिक टिक, शाम ढले खिड़की तले, शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के।
आज़ाद (१८५४) - कितना हसीं है मौसम।
बारिश (१९५७) - कहते हैं प्यार किस को पंछी, फिर वही चाँद वही हम वही तन्हाई।
भेदी बंगला (१९४९) - आँसू ना बहाना कांटों भरी राह से।
हंगामा (१९५२) - झूम झूम झूम राही प्यार की दुनिया, उल्फ़त की ज़िंदगी के साल हो हज़ार।
झमेला (१९५३) - देखो जी हमारा दिल लेके दग़ा नहीं, सुनोजी सुनो तुम से हुई है मुलाक़ात, बलखाती इठलाती आई है जो।
ख़ज़ाना (१९५१) - बाबडी-बूबडी जल गई दुनिया मिल गये, दो दिलवालों का अफ़साना ऐ चाँद किसी।
नदिया के पार (१९४९) - ओ गोरी ओ छोरी कहाँ चली कहाँ।
नास्तिक (१९५४) - ज़ोर लगाले ज़माने कितना ज़ोर लगाले, झुकती है दुनिया झुकानेवाला चाहिए।
संगीता (१९५०) - गिरगिट की तरह हैं रंग बदलते।
सरगम (१९५०) - बुड्ढ़ा है घोड़ा लाल है लगाम, वो हमसे चुप हैं, मौसम-ए-बहार आये दिल में, मैं हूँ अलादीन मेरे पास चराग़ तीन, मोमबासा रात मिलन की, भैया सब से भला रुपैया।
शगुफ़ा (१९५३) - तुम मेरी ज़िंदगी में तूफ़ान बनके।
शिनशिना की बबला बू (१९५२) - कौन है ऐसा महफ़िल में जो ना तेरा, शिन शिना की बबला बू, ये हँसी बाबा ये ख़ुशी बाबा, ये सिमटी कली कोई ले रस की कली ले।
सिपहिया (१९४९) - ऐ आँख अब ना रोना, लगा है कुछ ऐसा निशाना।
उस्ताद पेड्रो - तेरे दिल पे जादू कर गया।

दोस्तों, इस फ़हरिस्त को पढ़कर आपने ग़ौर किया होगा कि रोमांटिक गीतों के साथ साथ बहुत से गानें हास्य और मस्ती भरे छेड़ छाड़ वाले अंदाज़ के भी हैं और उस ज़माने में सी. रामचन्द्र इस तरह के गीतों के लिए जाने जाते थे। फ़िल्म 'सिपहिया' की बात करें तो मधुबाला और याकूब अभिनीत इस फ़िल्म में लता जी की गाई रचनाओं में शामिल हैं दर्द भरी धुन में कम्पोज़ की हुई "दर्द लगा के ठेस लगा के चले गये" और "आराम के ये साथी क्या-क्या", लेकिन इन गीतों की तज़ें कुछ ख़ास मुकाम हासिल ना कर सकी, पर फ़िल्म का सबसे मशहूर गीत "ऐ आँख अब ना रोना" और गज़ल शैली में गाई हुई "हँसी हँसी न रही और ख़ुशी ख़ुशी ना रही" में सी. रामचन्द्र फिर अपने उसी कामयाबी भरे मधुर अंदाज़ में लौटते हैं। लता, चितलकर के स्वर में "लगा है कुछ ऐसा निशाना" में सी. रामचन्द्र ने दादरा ताल पर कव्वाली के ठेके देकर अभिनव प्रयोग दर्शाया है। तो आइए लता मंगेशकर और चितलकर की इस जोड़ी के नाम आज का यह अंक करें और सुनें यह मीठा दर्द भरा गीत। फिर से वही बात दोहराता हूँ कि न जाने क्यों दर्दीले गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि 'अनारकली' के संगीत-निर्माण के दौरान सी. रामचन्द्र अपनी फ़िल्म 'झांझर' का भी निर्माण कर रहे थे। 'अनारकली' के निर्माता ने उन पर आरोप लगाया कि 'झांझर' की वजह से सी. रामचन्द्र 'अनारकली' के साथ अन्याय कर रहे हैं। लेकिन जब दोनों फ़िल्में रिलीज़ हुईं, तो 'अनारकली' के गीतों ने इतिहास रचा जबकि 'झांझर' पिट गई।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 07
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -इतना सुनने के बाद गीत पहचानना मुश्किल नहीं.

सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - इस गीत में शहनाई किस अन्य संगीतकार ने बजायी है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर बहुत बढ़िया शरद जी...अमित जी और दीपा जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, January 5, 2011

ज़रा ओ जाने वाले.....और जाने वाला कब लौटता है, आवाज़ परिवार याद कर रहा है आज सी रामचंद्र को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 564/2010/264

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस स्तंभ में। आज है ५ जनवरी, और आज ही के दिन सन् १९८२ में हमसे हमेशा के लिए जुदा हुए थे वो संगीतकार और गायक जिन्हें हम चितलकर रामचन्द्र के नाम से जानते हैं। उन्हीं के स्वरबद्ध और गाये गीतों से सजी लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' इन दिनों जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर और आज इस शृंखला की है चौथी कड़ी। दोस्तों, सी. रामचन्द्र का ५ जनवरी १९८२ को बम्बई के 'के. ई. एम. अस्पताल' में निधन हो गया। पिछले कुछ समय से वे अल्सर से पीड़ित थे। २२ दिसम्बर १९८१ को उन्हें जब अस्पताल में भर्ती किया गया था, तभी से उनकी हालत नाज़ुक थी। अपने पीछे वे पत्नी, एक पुत्र तथा एक पुत्री छोड़ गये हैं। दोस्तों, अभी कुछ वर्ष पहले जब मैं पूना में कार्यरत था, तो मैं एक दिन सी. रामचन्द्र जी के बंगले के सामने से गुज़रा था। यकीन मानिए कि जैसे एक रोमांच हो आया था उस मकान को देख कर कि न जाने कौन कौन से गीत सी. रामचन्द्र जी ने कम्पोज़ किए होंगे इस मकान के अंदर। मेरा मन तो हुआ था एक बार अदर जाऊँ और उनके परिवार वालों से मिलूँ, पर उस वक़्त हिम्मत ना जुटा पाया और अब अफ़सोस होता है। ख़ैर, जो भी है, इतना ही शायद बहुत है कि उनके गीत सदा हमारे साथ हैं। आज की कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है, उसे सुन कर आपको अंदाज़ा होगा कि चितलकर किस स्तर के गायक थे। एक शराबी के अंदाज़ में उन्होंने यह गीत गाया था फ़िल्म 'सुबह का तारा' में, जिसके बोल हैं "ज़रा ओ जाने वाले रुख़ से आँचल को हटा देना, तूझे अपनी जवानी की क़सम सूरत दिखा देना"। नूर लखनवी का लिखा यह गीत है और संगीत तो आपको पता ही है, सी. रामचन्द्र का। वैसे इस फ़िल्म का शीर्षक गीत ही सब से लोकप्रिय गीत है इस फ़िल्म का जिसे लता और तलत ने गाया था। आज के प्रस्तुत गीत को ज़्यादा नहीं सुना गया और आज यह एक रेयर जेम बनकर रह गया है जिसमें चितलकर के मस्ती भरी गायकी की झलक मिलती है।

दोस्तों, इस शृंखला की दूसरी कड़ी में हमने सी. रामचन्द्र के शुरुआती करीयर पर एक नज़र डाला था, आइए आज उसी दौर को ज़रा विस्तार से आपको बतायें और यह जानकारी हमें प्राप्त हुई है पंकज राग लिखित किताब 'धुनों की यात्रा' से। "फ़िल्मों का शौक सी. रामचन्द्र को कोल्हापुर खींच ले गया जहाँ ललित पिक्चर्स में पचास रुपय की नौकरी के साथ एक्स्ट्रा के छोटे-मोटे रोल मिले। १९३५ में फ़िल्म 'नागानंद' में नायक का रोल मिला, पर फ़िल्म बुरी तरह पिटी। उसके बाद मिनर्वा मूवीटोन में 'सईद-ए-हवस' और 'आत्म-तरंग' जैसी फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल मिले। फिर अचानक बर्खास्तगी का नोटिस मिला। सी. रामचन्द्र नोटिस पाकर चुप रहनेवालों में से नहीं थे। वे मिनर्वा के मालिक सोहराब मोदी के पास पहुँच गये और सोहराब मोदी को बताकर कि उन्हें हारमोनियम बजाना आता है, मिनर्वा के संगीत-विभाग में नौकरी की गुज़ारिश की। मोदी मान गये और बुंदू ख़ान के साथ हारमोनियम वादक के रूप में उन्हें लगा दिया। पर यह काम सिर्फ़ काग़ज़ी रहा। फिर हबीब ख़ाँ ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाद में मीर साहब के भी सहायक रहे और हूगन से पश्चिमी संगीत के कुछ सिद्धांत भी सीखे जो बाद में सी. रामचन्द्र को अपनी अलग शैली विकसीत करने में बड़े सहयक रहे। मिनर्वा में रहते रहते सी. रामचन्द्र ने 'मीठा ज़हर', 'जेलर', और 'पुकार' फ़िल्मों में वादक के रूप में काम किया। 'पुकार' में उन्होंने शीला की गाई रचना "तुम बिन मोरी कौन खबर ले" की धुन भी स्वयं बनाई थी और 'लाल हवेली' में पहली और आख़िरी बार नूरजहाँ से अपनी धुन पर "आओ मेरे प्यारे सांवरिया" गवाया था। इसी वक़्त भगवान के निर्देशन में 'बहादुर किसान' बन रही थी। संगीतकार थे मीर साहब, और उनके सहायक के रूप में सी. रामचन्द्र भी भगवान के सम्पर्क में आये। यह सम्पर्क दोस्ती में बदल गई और आगे चलकर तो यह दोस्ती इतनी प्रगाढ़ हुई कि भगवान ने अपने संगीतकार के लिए सी. रामचन्द्र को छोड़कर वर्षों तक इधर उधर नहीं देखा।" तो दोस्तों, आज बस इतना ही, लीजिए आज का गीत सुनिए। आज सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि पर हम उन्हें अपनी श्रद्धांजली अर्पित करते हैं। ५ जनवरी १९८२ को ७२ वर्ष की आयु में भले ही उनके साँस की डोर टूट गयी हों, पर संगीत के साथ उनका जो डोर था वह आज भी बरक़रार है और हमेशा रहेगा।



क्या आप जानते हैं...
कि १९४९ से लेकर १९७१ के दरमीयाँ सी. रामचन्द्र ने १२० से अधिक फ़िल्मों में संगीत दिए।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 05/शृंखला 07
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -१९४९ में आई थी ये फिल्म.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - सह गायिका कौन है इस गीत में चितलकर की - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह शरद जी मान गए आपको. दीपा जी स्वागत है, श्याम जी आप कहाँ है ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ, आओ फिर से दिया जलाएँ... अटल जी के शब्दों को मिला लता जी की आवाज़ का पुर-असर जादू



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०७

राजनीति और साहित्य साथ-साथ नहीं चलते। इसका कारण यह नहीं कि राजनीतिज्ञ अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता या फिर एक साहित्यकार अच्छी राजनीति नहीं कर सकता.. बल्कि यह है कि उस साहित्यकार को लोग "राजनीति" के चश्मे से देखने लगते हैं। उसकी रचनाओं को पसंद या नापसंद करने की कसौटी बस उसकी प्रतिभा नहीं रह जाती, बल्कि यह भी होती है कि वह जिस राजनीतिक दल से संबंध रखता है, उस दल की क्या सोच है और पढने वाले उस सोच से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। अगर पढने वाले उसी सोच के हुए या फिर उस दल के हिमायती हुए तब तो वो साहित्यकार को भी खूब मन से सराहेंगे, लेकिन अगर विरोधी दल के हुए तो साहित्यकार या तो "उदासीनता" का शिकार होगा या फिर नकारा जाएगा... कम हीं मौके ऐसे होते हैं, जहाँ उस राजनीतिज्ञ साहित्यकार की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो पाता है। वैसे यह बहस बहुत ज्यादा मायना नहीं रखती, क्योंकि "राजनीति" में "साहित्य" और "साहित्यकार" के बहुत कम हीं उदाहरण देखने को मिलते है, जितने "साहित्य" में "राजनीति" के। "साहित्य" में "राजनीति" की घुसपैठ... हाँ भाई यह भी होती है और बड़े जोर-शोर से होती है, लेकिन यह मंच उस मुद्दे को उठाने का नहीं है, इसलिए "साहित्य में राजनीति" वाले बात को यहीं विराम देते हैं और "राजनीति" में "साहित्य" की ओर ओर मुखातिब होते हैं। अगर आपसे पूछा जाए कि जब भी इस विषय पर बात होती है तो आपको सबसे पहले किसका नाम याद आता है.. (मैं यहाँ पर हिन्दी साहित्य की बात कर रहा हूँ, इसलिए उम्मीद है कि अपने जवाब एक हीं होंगे), तो निस्संदेह आपका उत्तर एक हीं इंसान के पक्ष में जाएगा और वे इंसान हैं हमारे पूर्व प्रधानमंत्री "श्री अटल बिहारी वाजपेयी"। यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि इस आलेख का लेखक यानि कि मैं किसी भी दलगत पक्षपात/आरक्षण के कारण अटल जी का ज़िक्र नहीं कर रहा, बल्कि साहित्य में उनके योगदान को महत्वपूर्ण मानते हुए उनकी रचना को इस महफ़िल का हिस्सा बना रहा हूँ। अटल जी की इस रचना का चुनाव करने के पीछे एक और बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का नाम है "स्वर-कोकिला", जिन्होंने इसे गाने से पहले वही बात कही थी, जो मैंने अभी-अभी कही है: "मैं उन्हें एक कवि की तरह देखती हूँ और वो मुझे एक गायिका की तौर पे.. हमारे बीच राजनीति कभी भी नहीं आती।"

अटल जी.. इनका कब जन्म हुआ और इनकी उपलब्धियाँ क्या-क्या हैं, मैं अगर इन बातों का वर्णन करने लगा तो इनकी राजनीतिक गतिविधियों से बचना मुश्किल होगा, इसलिए सही होगा कि हम सीधे-सीधे इनकी रचनाओं की ओर रुख कर लें। लेकिन उसके पहले हम इन्हें जन्मदिवस की शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ देते हैं। इन्होंने पिछले २५ दिसम्बर को हीं अपने जीवन के ८७वें वसंत में कदम रखा है। "कवि के रूप में अटल" इस विषय पर "हिन्दी का विकिपीडिया" कुछ ऐसे विचार रखता है:

मेरी इक्यावन कविताएं वाजपेयी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। अटल बिहारी वाजपेयी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस घूम रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता प्रकट होती रही। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियां, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेलवास सभी हालातों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ हैं:

मृत्यु या हत्या
अमर बलिदान (लोक सभा मे अटल जी वक्तव्यों का संग्रह)
कैदी कविराय की कुन्डलियाँ
संसद में तीन दशक
अमर आग है
कुछ लेख कुछ भाषण
सेक्युलर वाद
राजनीति की रपटीली राहें
बिन्दु बिन्दु विचार
न दैन्यं न पलायनम
मेरी इक्यावन कविताएँ...इत्यादि

बात जब अटल जी की कविताओं की हीं हो रही है तो क्यों न इनकी कुछ पंक्तियों का आनंद लिया जाए:

क) हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।

आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
"न दैन्यं न पलायनम्।" ("न दैन्यं न पलायनम्" से)

ख) पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ

बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ

दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पाता हूँ ("दो अनुभूतियाँ" से)

ग) ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ..

....
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना। ("ऊँचाई" से)

रचनाएँ तो और भी कई सारी हैं, लेकिन "वक़्त" और "जगह" की पाबंदी को ध्यान में रखते हुए आईये आज की नज़्म से रूबरू होते हैं। "आओ फिर से दिया जलाएँ" एक ऐसी नज़्म है, जो मन से हार चुके और पथ से भटक चुके पथिकों को फिर से उठ खड़ा होने और सही राह पर चलने की सीख देती है। शुद्ध हिन्दी के शब्दों का चुनाव अटल जी ने बड़ी हीं सावधानी से किया है, इसलिए कोई भी शब्द अकारण आया प्रतीत नहीं होता। अटल जी ने इसे जिस खूबसूरती से लिखा है,उसी खूबसूरती से लता जी ने अपनी आवाज़ का इसे अमलीजामा पहनाया है.. इन दोनों बड़ी हस्तियों के बीच अपने आप को संयत रखते हुए "मयूरेश पाई" ने भी इसे बड़े हीं "सौम्य" और "सरल" संगीत से संवारा है। लेकिन इस गीत की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है "गीत की शुरूआत में बच्चों का एक स्वर में हूक भरना"। यह गीत "अंतर्नाद" एलबम का हिस्सा है, जो २००४ में रीलिज हुई थी और जिसमें अटल जी के लिखे और लता जी के गाए सात गाने थे। "अटल" जी और "लता" जी की यह जोड़ी कितनी कारगर है यह तो इसी बात से जाहिर है कि "अंग्रेजी में अटल को उल्टा पढने से लता हो जाता है" (यह बात खुद लता जी ने कही थी इस एलबम के रीलिज के मौके पर) इसी "ट्रीविया" के साथ चलिए हम और आप सुनते हैं यह नज़्म:

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के _______ में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "नगर" और मिसरे कुछ यूँ थे-

आ बस हमरे नगर अब
हम माँगे तू खा..

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

मेरे नगर के लोग बडे होशियार हैं
रातें गुजारते है सभी जाग जाग कर - शरद जी

मेरे नगर में खुशबू रचते हाथ ,
महकाते समाज-देश-संसार - मंजु जी

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया - मोहम्मद सनाउल्लाह सानी ’मीराजी’

जिस नगर में अब कोई याद करता नहीं
उसकी गलियों से भी अब वास्ता है नहीं. - शन्नो जी

तेरे नगर में वो कैसी कशिश थी ,कैसी मस्ती थी
जो अब तक तो देखी न थी,पर अब सबमे दिखती है - नीलम जी

पत्थर के नगर मैं इंसान भी
पत्थर सा हो गया है !
घात लपेटे हर रिश्ता
बदतर सा हो गया है ! - अवनींद्र जी

ख्वाबों के मीठे फूल,
ख्यालों के रंगीन झरने,
बहारों का नगर है यह,
यहाँ खुशियों के फल हैं मिलते. - पूजा जी

सबसे पहले आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ।

पिछली महफ़िल में फिर से वही हुआ जो पहले की न जाने कई सारी महफ़िलों में हो चुका था। बस फ़र्क यह था कि पहले यह गलती शन्नो जी किया करती थीं, लेकिन इस बार बारी अवध जी की थी। आपने गलत शब्द "नज़र" सुन लिया और उस पर अपनी पंक्तियाँ भी लिख डालीं, ये तो शरद जी थे जिन्होंने "नगर" को पकड़ा और अपना स्वरचित शेर महफ़िल के हवाले किया। शरद जी ने हमारी भी ख़बर ली, अच्छी ख़बर ली :) लेकिन बस इसी वज़ह से हम इन्हें "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से अलग नहीं कर सकते, बल्कि इन्होंने हमारी सहायता करके अपनी पदवी और मजबूत कर ली है। शरद जी के बाद महफ़िल में मंजु जी, शन्नो जी और नीलम जी का आना हुआ... अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ। आप तीनों की तिकड़ी कमाल की है और सच कहूँ तो यही तिकड़ी महफ़िल की जान है। यह मेल-मिलाप इसी तरह कायम रखिएगा... । तीन महिलाओं के बाद बारी आई मीराजी की। मीराजी खुद तो नहीं आए महफ़िल में, बल्कि उनका शेर लेकर हाज़िर हुए सुमित जी, जो खुद नहीं जानते थे कि उनकी पोटली में पड़ा शेर किसका है.. यह तो "गूगल" बाबा का कमाल है कि हमें "मीराजी" के शेर और उनकी जीवनी के बारे में जानकारी हासिल हुई। आप सबों के बाद महफ़िल में चार चाँद लगाए अवनींद्र जी और पूजा जी ने। अवनींद्र जी तो इस महफ़िल को अपना घर समझते हीं हैं, अच्छी बात यह है कि पूजा जी भी अब महफ़िल के रंग में रंगने लगी हैं और टिप्पणी करने से नहीं मुकरती/कतराती। आशा करता हूँ कि इस नए साल में भी आप सब अपना प्यार यूँ हीं बनाए रखेंगे।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, January 4, 2011

कितना हसीं है मौसम, कितना हसीं सफर है....जब चितलकर की आवाज़ को सुनकर तलत साहब का भ्रम हुआ शैलेन्द्र को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 563/2010/263

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार। आज ४ जनवरी है, यानी कि संगीतकार राहुल देव बर्मन की पुण्यतिथि। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम पंचम को दे रहे हैं श्रद्धांजली। आपको याद होगा पिछले साल इस समय हमने पंचम के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रंग पंचम के' प्रस्तुत किया था। और इस साल हम याद कर रहे हैं सी. रामचन्द्र को जिनकी कल, यानी ५ जनवरी को पुण्यतिथि है। 'कितना हसीं है मौसम' - सी. रामचन्द्र के गाये और स्वरबद्ध किए गीतों के इस लघु शृंखला की आज तीसरी कड़ी है। शुरुआती दिनों में सी. रामचन्द्र ने कई फ़िल्मों में संगीत दिया जिनमें से कुछ के नाम हैं 'सगाई', 'नमूना', 'उस्ताद पेड्रो', 'हंगामा', 'शगुफ़ा', '२६ जनवरी' वगेरह। पर जिन दो फ़िल्मों के संगीत से वे कामयाबी के शिखर पर पहुँचे, वो दो फ़िल्में थीं 'शहनाई' और 'अलबेला'। जैसा कि कल हमने आपको बताया था कि 'अलबेला' के गीतों ने उस फ़िल्म को चार चांद लगाये। सारे गानें हिट हुए और गली गली गूंजे। सिनेमाघरों में लोग खड़े होकर इन गीतों के साथ झूमने की भी बात मानी जाती है। सी. रामचन्द्र ने अपने संगीत में नये नये प्रयोग किए हैं। गुजराती गरबा को हिंदी फ़िल्म संगीत में पहली बार वही लेकर आये थे, फ़िल्म थी 'नास्तिक' और गीत था "कान्हा बजाये बांसुरी"। फ़िल्म 'शहनाई' में "आना मेरी जान मेरी जान सण्डे के सण्डे" में गोवन संगीत का प्रभाव था, तो 'यासमीन' के "बेचैन नज़र बेताब जिगर" में अरबियन संगीत की मिठास और मैण्डोलिन यंत्र का दिलकश इस्तमाल किया। दोस्तों, आपको याद होगा "सण्डे के सण्डे" हमने ५९-वीं कड़ी मे सुनवाया था। उसके बाद सी. रामचन्द्र के सुमधुर संगीत से सजी एक और फ़िल्म आयी थी 'आज़ाद'। साल था १९५५। आज ५० बरसों के बाद भी इसके गीतों में वही ताज़गी है, वही कशिश बरकरार है। इस फ़िल्म का भी एक गीत "अपलम चपलम" हमने ३९३-वीं कड़ी में सुनवाया है। लेकिन आज इस फ़िल्म से लता और चितलकर का गाया एक और मशहूर गीत हम सुनने जा रहे हैं।

फ़िल्म 'आज़ाद' सी. रामचन्द्र को कैसे मिली, इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है। प्रोड्युसर एस. एम. एस. नायडू ने पहले संगीतकार नौशाद को इस फ़िल्म के संगीत का उत्तरदायित्व देना चाहा, पर उन्होंने नौशाद साहब के सामने शर्त रख दी कि एक महीने के अंदर सभी ९ गीत उन्हें तैयार चाहिए। नौशाद को यह शर्त मंज़ूर नहीं हुई। तब नायडू साहब ने कई और संगीतकारों से सम्पर्क किया, नय्यर साहब से भी मिले, पर कोई भी तैयार नही हुआ। आख़िरकार चुनौति स्वीकारी सी. रामचन्द्र ने। सच में उन्होंने एक महीने के अंदर सारे गानें रेकॊर्ड कर लिए और सभी गीत एक से बढ़कर एक साबित हुए। यही नहीं, फ़िल्म 'आज़ाद' में सी. रामचन्द्र ने लता मंगेशकर के साथ एक युगल गीत भी गाया और यही गीत है आज के इस अंक की शान। "कितना हसीं है मौसम, कितना हसीं सफ़र है, साथी है ख़ूबसूरत, यह मौसम को भी ख़बर है"। अब दोस्तो, इस गीत से जुड़ा भी एक क़िस्सा है। हुआ युं कि उस समय दिलीप कुमार के ज़्यादातर गानें तलत महमूद साहब गाया करते थे, और उन्हीं की गायकी और स्टाइल को ध्यान में रखकर सी. रामचन्द्र ने यह गीत बनाया था। पर सम्भवत: 'डेट प्रॊबलेम' की वजह से तलत साहब रेकॊर्डिंग् तक नहीं पहुँच सके। और क्योंकि गीत जल्द से जल्द रेकॊर्ड होना था, सी. रामचन्द्र ने यह निर्णय लिया कि उस गीत को वे ख़ुद ही गायेंगे। उन्होंने अपनी आवाज़ को युं तलत साहब की शैली मे ढालकर इस गीत को गाया कि आज भी कभी कभी यह शक़ सा होता है कि कहीं इस गीत को तलत साहब ने तो नहीं गाया था। इस गीत के गीतकार शैलेन्द्र ने जब इस गीत की रेकॊर्डिंग् सुनी तो उन्होंने सी. रामचन्द्र से सामने १०० रुपय की शर्त रख दी कि यह आवाज़ तलत महमूद की ही है। पर जब बाद में दूसरे लोगों से उन्हें यह पता चला कि असल मे यह आवाज़ सी. रामचन्द्र की है, तो वे शर्त हार गये। तो लीजिए आज इस गीत का आनंद उठाइए, वैसे इन दिनों मौसम वाक़ई हसीं हो रखा है, मीठी मीठी सर्दियों का आप सभी आनंद ले रहे होंगे, ऐसी हम उम्मीद रखते हैं.



क्या आप जानते हैं...
कि हिंदी में सी. रामचंद्र के संगीत से सजी अंतिम फ़िल्म थी 'तूफ़ानी टक्कर' (१९७८)

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 07
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - चितलकर ने इसे एक शराबी के अंदाज़ में गाया था.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीत के मुखड़े में नायिका को गीतकार किस बात की कसम दे रहा है - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एकदम सही जवाब है शरद जी....अरे इंदु जी आप कैसे मैदान छोड़ गए, देखिये सब कह रहे हैं कि सवाल आसान थे. बहरहाल अमित जी और अवध जी सही जवाब लेकर आये. भारतीय नागरिक जी धन्येवाद. रोमेंद्र जी कैसे हैं आप

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

दिल तो बच्चा है जी.....मधुर भण्डारकर की रोमांटिक कोमेडी में प्रीतम ने भरे चाहत के रंग



Taaza Sur Taal 01/2011 - Dil Toh Bachha Hai ji

'दिल तो बच्चा है जी'...जी हाँ साल २०१० के इस सुपर हिट गीत की पहली पंक्ति है मधुर भंडारकर की नयी फिल्म का शीर्षक भी. मधुर हार्ड कोर संजीदा और वास्तविक विषयों के सशक्त चित्रिकरण के लिए जाने जाते हैं. चांदनी बार, पेज ३, ट्राफिक सिग्नल, फैशन, कोपरेट, और जेल जैसी फ़िल्में बनाने के बाद पहली बार उन्होंने कुछ हल्की फुल्की रोमांटिक कोमेडी पर काम किया है, चूँकि इस फिल्म में संगीत की गुंजाईश उनकी अब तक की फिल्मों से अधिक थी तो उन्होंने संगीतकार चुना प्रीतम को. आईये सुनें कि कैसा है उनके और प्रीतम के मेल से बने इस अल्बम का ज़ायका.

नीलेश मिश्रा के लिखे पहले गीत “अभी कुछ दिनों से” में आपको प्रीतम का चिर परिचित अंदाज़ सुनाई देगा. मोहित चौहान की आवाज़ में ये गीत कुछ नया तो नहीं देता पर अपनी मधुरता और अच्छे शब्दों के चलते आपको पसंद न आये इसके भी आसार कम है. “है दिल पे शक मेरा...” और प्रॉब्लम के लिए “प्रोब” शब्द का प्रयोग ध्यान आकर्षित करता है. दरअसल ये एक सामान्य सी सिचुएशन है हमारी फिल्मों की जहाँ नायक अपने पहली बार प्यार में पड़ने की अनुभूति व्यक्त करता है. संगीत संयोजन काफी अच्छा है और कोरस का सुन्दर इस्तेमाल पंचम के यादगार "प्यार हमें किस मोड पे ले आया" की याद दिला जाता है.

abhi kuch dinon se (dil toh bachha hai ji)



सोनू निगम की आवाज़ में “तेरे बिन” एक और मधुर रोमांटिक गीत है, जो यक़ीनन आपको सोनू के शुरआती दौर में ले जायेगा. कुमार के हैं शब्द जो काफी रोमांटिक है. अगला गीत “ये दिल है नखरे वाला” वाकई एक चौंकाने वाला गीत है. अल्बम के अब तक के फ्लेवर से एकदम अलग ये गीत गुदगुदा जाता है, जैज अंदाज़ का ये गीत है जिसमें कुछ रेट्रो भी है. निलेश ने बहुत ही बढ़िया लिखा है इसे. शेफाली अल्वरिस की आवाज़ जैसे एकदम सटीक बैठती है इस गीत में. ये गीत ‘पिक ऑफ द अल्बम’ है.

tere bin (dil toh bachha hai ji)



ye dil hai nakhre waala (dil toh bachha hai ji)



कुणाल गांजावाला की आवाज़ में अगले २ गीत हैं. “जादूगरी” में उनकी सोलो आवाज़ है तो “बेशुबा” में उनके साथ है अंतरा मित्रा. जहाँ पहला गीत साधारण ही है, दूसरे गीत में जो कि अल्बम का एकलौता युगल गीत है, प्रीतम अपने बहतरीन फॉर्म में है. सईद कादरी से आप उम्मीद रख ही सकते हैं, और वाकई उनके शब्द गीत की जान हैं.

jaadugari (dil toh bachha hai ji)



beshubah (dil toh bachha hai ji)



हमारी राय – साल की शुरूआत के लिए ये नर्मो नाज़ुक रोमांटिक एल्बम एक बढ़िया पिक है. लगभग सभी गीत प्यार मोहब्बत में डूबे हुए हैं. प्रीतम कुछ बहुत नया न देकर भी अपने चिर परिचित अंदाज़ के गीतों से लुभाने में सफल रहे हैं.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, January 3, 2011

दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम...क्या खूब प्रयोग किया राजेन्द्र कृष्ण साहब ने इस मुहावरे का गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 562/2010/262

'कितना हसीं है मौसम' - चितलकर रामचन्द्र के स्वरबद्ध और गाये गीतों की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। सी. रामचन्द्र का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के पुणेताम्बे में १२ जून १९१५ को हुआ था। उनके पिता रेल्वे में सहायक स्टेशन मास्टर की नौकरी किया करते थे। अपने बेटे की संगीत के प्रति लगाव और रुझान को देख कर उन्हें नागपुर के एक संगीत विद्यालय में भर्ती करवा दिया। फिर उन्होंने पुणे में विनायकबुआ पटवर्धन से गंधर्व महाविद्यालय म्युज़िक स्कूल में संगीत की शिक्षा प्राप्त की। उन दिनों मूक फ़िल्मों का दौड़ था, वे कोल्हापुर आ गये और कई फ़िल्मों में अभिनय किया। पर उनकी क़िस्मत में तो लिखा था संगीतकार बनकर चमकना। कोल्हापुर से बम्बई में आने के बाद सी. रामचन्द्र सोहराब मोदी की मशहूर मिनर्वा मूवीटोन में शामिल हो गए जहाँ पर उन्हें उस दौर के नामचीन संगीतकारों, जैसे कि हबीब ख़ान, हूगन और मीरसाहब के सहायक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हूगन से उन्होंने पाश्चात्य संगीत सीखा जो बाद में उनके संगीत में नज़र आने लगा, और शायद उनका यही वेस्टर्ण स्टाइल उन्हें क्रांतिकारी संगीतकार होने का गौरव दिलाया। सी. रामचन्द्र इस नाम से स्थापित होने से पहले तीन और नामों से संगीत दिए। श्यामू के नाम से 'ये है इण्डिया दुनिया' में, राम चितलकर के नाम से 'सुखी जीवन', 'बदला', 'मिस्टर झटपट', 'बहादुर' और 'दोस्ती' में, तथा अन्नासाहब के नाम से 'बहादुर प्रताप', 'मतवाले' और 'मददगार' में। संगीतकार के रूप में उन्हें पहली फ़िल्म मिली थी तमिल फ़िल्म 'जयक्कोडी' और 'वनमोहिनी'। अनिल बिस्वास, बसंत प्रकाश, धनीराम, वसंत देसाई और ओ. पी. नय्यर जैसे संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया और संगीत सृजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

सी. रामचन्द्र के संगीत से सजी पहली हिंदी फ़िल्म थी 'सुखी जीवन'। सचिन देव बर्मन, ओ. पी. नय्यर और दूसरे कई संगीतकारों ही की तरह उनकी शुरुआत भी सुखद नही रही। लोगों के दिलों में जगह बनाने के लिए उन्हें भी कड़ी मेहनत और जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन एक बार कामयाबी की राह पर चल निकले तो फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वो कहते हैं न कि दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम। तो जो शोहरत, जो बुलंदी, चितलकर साहब के नसीब में लिखी थी, वो उन्हें मिली, और आज उनका नाम फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के अग्रणी संगीतकारों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। दोस्तों, आज हमने जिस गीत को चुना है, उसके बोल अभी अभी हम बता चुके हैं। जी हाँ, "दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम, लेने वाले करोड़ देने वाला एक राम"। यह गीत १८५७ की फ़िल्म 'बारिश' का है जिसे चितलकर ने अपनी एकल आवाज़ में गाया है। बोल सुन कर ऐसा लगता है जैसे कोई भक्तिमूलक रचना है, लेकिन सुनने पर पता चलता है कि पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन पर आधारित है यह गीत, लेकिन गीत में जो दर्शन छुपा हुआ है, उससे मुंह मोड़ा नहीं जा सकता। राजेन्द्र कृष्ण साहब के लिखे इस गीत में वो कहते हैं कि "कभी गरमी की मौज कभी बारिश का रंग, ऐसे चक्कर को देख सारी दुनिया है दंग, चांद सूरज ज़मीन सारे उसके ग़ुलाम, लेने वाले करोड़ देने वाला एक राम"। भाव बस यही है कि सब कुछ उस एक आद्यशक्ति, उस एक सुप्रीम पावर द्वारा संचालित है, यह पूरी दुनिया, यह अंतरिक्ष, सब कुछ उस एक शक्ति का ग़ुलाम है। आइए इस गीत को सुनें, हमें यकीन है कि आपने बहुत दिनों से इस गीत को नहीं सुना होगा।



क्या आप जानते हैं...
कि सी. रामचन्द्र ने हिंदी के अलावा ७ मराठी, ३ तेलुगु, ६ तमिल और कई भोजपुरी फ़िल्मों का भी संगीत तैयार किया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 07
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - फिल्म के नायक बताएं - १ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - इस गीत में अन्ना जिस गायक की आवाज़ इस्तेमाल करना चाह रहे थे खुद उसी गायक की शैली में उन्होंने इस गीत को गाया है, कौन थे वो गायक जो इस गीत को नहीं गा पाए- २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे अरे, लगता है कि आप लोग गलत गीत पर दाव खेल बैठे. शुरूआती धुन को सुनकर थोडा सा भरम होता है, पर हमने मुहावरे का भी हिंट दिया था, खैर अवध जी सही निकले, शरद जी और प्रतिभा जी बिना अंकों के ही संतुष्ट होना पड़ेगा. श्याम जी और अमित जी कहाँ गायब हैं ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, January 2, 2011

शाम ढले, खिडकी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो....हिंदी फिल्म संगीत जगत के एक क्रान्तिकारी संगीतकार को समर्पित एक नयी शृंखला



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 561/2010/261

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और आप सभी को एक बार फिर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ! साल २०११ आपके जीवन में अपार सफलता, यश, सुख और शांति लेकर आये, यही हमारी ईश्वर से कामना है। और एक कामना यह भी है कि हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के अनमोल मोतियों को इसी तरह आप सब की ख़िदमत में पेश करते रहें। तो आइए नये साल में नये जोश के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के कारवाँ को आगे बढ़ाया जाये। दोस्तों, फ़िल्म संगीत के इतिहास में कुछ संगीतकार ऐसे हुए हैं जिनके संगीत ने उस समय की प्रचलित धारा को मोड़ कर रख दिया था, यानी दूसरे शब्दों में जिन्होंने फ़िल्म संगीत में क्रांति ला दी थी। जिन पाँच संगीतकारों को क्रांतिकारी संगीतकारों के रूप में चिन्हित किया गया है, उनके नाम हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचन्द्र, ओ. पी. नय्यर, राहुल देव बर्मन और ए. आर. रहमान। इनमें से एक क्रांतिकारी संगीतकार को समर्पित है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की आज से शुरु होने वाली लघु शृंखला। ये वो संगीतकार हैं, जो फ़िल्म जगत में आये तो थे नायक बनने, कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया, पर उनकी क़िस्मत में लिखा था संगीतकार बनना, सो बन गये एक क्रांतिकारी संगीतकार। इसके साथ साथ उन्होंने अपनी गायकी के जलवे भी दिखाये समय समय पर। जी हाँ, जिस फ़नकार पर केन्द्रित है यह लघु शृंखला, उन्हें हम संगीतकार के रूप में सी. रामचन्द्र के नाम से और गायक के रूप में चितलकर के नाम से जानते हैं। प्रस्तुत है अन्ना साहब, अर्थात् चितलकर नरहर रामचन्द्र, यानी सी. रामचन्द्र के स्वरबद्ध किए और गाये गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम'। इस शृंखला में हम ना केवल उनके गाये व संगीतबद्ध किए गीत सुनवाएँगे, बल्कि उनके जीवन और करीयर से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं से भी आपका परिचय करवाएँगे।

आइए इस शृंखला की पहली कड़ी में हम आपको सुनवाते हैं फ़िल्म 'अलबेला' से चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ों में "शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो"। 'अलबेला' १९५१ की फ़िल्म थी और यह साल सी. रामचन्द्र के करीयर का एक महत्वपूर्ण साल साबित हुआ था। १९४२ में सी. रामचन्द्र ने हिंदी फ़िल्मों में बतौर संगीतकार पदार्पण किया था मास्टर भगवान की फ़िल्म 'सुखी जीवन' में। और इसके करीब १० साल बाद १९५१ में भगवान दादा की ही फ़िल्म 'अलबेला' में संगीत देकर सफलता के नये झंडे गाढ़े। मास्टर भगवान शकल सूरत से बहुत ही साधारण थे जहाँ तक फ़िल्म में नायक बनने की बात थी। लेकिन उन्होंने इतिहास कायम किया ना केवल इस फ़िल्म को प्रोड्युस व डिरेक्ट कर के, बल्कि फ़िल्म में गीता बाली के विपरीत नायक बन कर उन्होंने सब को चौंका दिया। इसमें कोई शक़ नहीं कि इस फ़िल्म की सफलता का एक मुख्य कारण इसका संगीत रहा। गीतकार राजेन्द्र कृष्ण और संगीतकार सी. रामचन्द्र ने सर्वसाधारण के नब्ज़ को सटीक पकड़ा और हल्के फुल्के बोलों से तथा पाश्चात्य व शास्त्रीय संगीत के मिश्रण से लोकप्रिय गीत संगीत की रचना की। ये गानें थोड़े से पारम्परिक भी थे, थोड़े आधुनिक भी, थोड़े शास्त्रीयता लिये हुए भी और थोड़े पाश्चात्य भी। फ़िल्म का हर गीत हिट हुआ और ऐसा सुना गया कि जब यह फ़िल्म थिएटर में चलती थी तो जब जब कोई गाना शुरु होता, लोग खड़े हो जाते और डान्स करने लग पड़ते। अन्य गीतों के अलावा लता और चितलकर की आवाज़ों में इस फ़िल्म में कुछ युगल गीत थे जैसे कि "शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के", "भोली सूरत दिल के खोटे", "मेरे दिल की घड़ी करे टिक टिक टिक" तथा राग पहाड़ी पर आधारित आज का प्रस्तुत गीत "शाम ढले खिड़की तले"। रोमांटिक कॊमेडी पर आधारित यह गीत ५० वर्ष बाद आज भी हमें गुदगुदा जाता है और यकायक हमारे होठों पर मुस्कान खिल उठता है। तो आइए आप भी मुस्कुराइए और सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर साल २०११ का पहला गोल्डन गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि १९ नवंबर १९४२ को सी. रामचन्द्र ने अपनी मकान-मालकिन की बेटी रतन ठाकुर से प्रेम-विवाह कर लिया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 07
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - खुद अन्ना ने गाया है इस गीत को.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम क्या है - १ अंक
सवाल ३ - गाने के शुरूआती बोल किस मुहावरे पर हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी को २ अंक और श्याम जी को १ अंक की बधाई. इंदु जी जरा ध्यान से खेलिए

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - गायन -उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान, राग - गुनकली



सुर संगम - 01

अगर हर घर में एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो इस देश का कभी भी बंटवारा नहीं होता

सुप्रभात! दोस्तों, नये साल के इस पहले रविवार की इस सुहानी सुबह में मैं, सुजॊय चटर्जी, आप सभी का 'आवाज़' पर स्वागत करता हूँ। युं तो हमारी मुलाक़ात नियमित रूप से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर होती रहती है, लेकिन अब से मैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अलावा भी हर रविवार की सुबह आपसे मुख़ातिब हो‍ऊँगा इस नये स्तंभ में जिसकी हम आज से शुरुआत कर रहे हैं। दोस्तों, प्राचीनतम संगीत की अगर हम बात करें तो वो है हमारा शास्त्रीय संगीत, जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। चार वेदों में सामवेद में संगीत का व्यापक वर्णन मिलता है। सामवेद ऋगवेद से निकला है और उसके जो श्लोक हैं उन्हे सामगान के रूप में गाया जाता था। फिर उससे 'जाती' बनी और फिर आगे चलकर 'राग' बनें। ऐसी मान्यता है कि ये अलग अलग राग हमारे अलग अलग 'चक्र' (उर्जाबिंदू) को प्रभावित करते हैं। ये अलग अलग राग आधार बनें शास्त्रीय संगीत का और युगों युगों से इस देश के सुरसाधक इस परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं, हमारी संस्कृति को सहेजते हुए बढ़े जा रहे हैं। संगीत की तमाम धाराओं में सब से महत्वपूर्ण धारा है शास्त्रीय संगीत। बाकी जितनी भी तरह का संगीत है, उन सब से उपर है शास्त्रीय संगीत, और तभी तो संगीत की शिक्षा का अर्थ ही है शास्त्रीय संगीत की शिक्षा। अक्सर साक्षात्कारों में कलाकार इस बात का ज़िक्र करते हैं कि एक अच्छा गायक या संगीतकार बनने के लिए शास्त्रीय संगीत का सीखना बेहद ज़रूरी है। तो दोस्तों, आज से 'आवाज़' पर पहली बार एक ऐसा साप्ताहिक स्तंभ शुरु हो रहा है जो समर्पित है शुद्ध शास्त्रीय संगीत को। गायन और वादन, यानी साज़ और आवाज़, दोनों को ही बारी बारी से इसमें शामिल किया जाएगा। भारतीय शास्त्रीय संगीत से इस स्तंभ की हम शुरुआत कर रहे हैं, लेकिन आगे चलकर दूसरे देशों के शास्त्रीय संगीत और साज़ों को भी शामिल करने की उम्मीद रखते हैं। तो लीजिए प्रस्तुत है 'आवाज़' का नया साप्ताहिक स्तंभ - 'सुर संगम'।

'सुर संगम' के इस पहले अंक को हम समर्पित कर रहे हैं शास्त्रीय गायन के सशक्त स्तंभ उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब को। उनसे हम आज की कड़ी में सुनेंगे राग गुनकली। इस राग पर हम अभी आते हैं, उससे पहले आइए ख़ाँ साहब के बारे में आपको कुछ दिलचस्प जानकारियाँ दी जाए! बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का जन्म सन् १९०२ को पराधीन भारत के पंजाब के कसूर में हुआ था जो अब पाक़िस्तान में है। उनके पिता अली बक्श ख़ान पश्चिम पंजाब प्रोविन्स के एक संगीत परिवार से ताल्लुख़ रखते थे और ख़ुद भी एक जाने माने गायक थे। बड़े ग़ुलाम अली जब ७ वर्ष के थे, तभी उन्होंने सारंगी वादन और गायन सीखना शुरु किया अपने चाचा काले ख़ान साहब से, जो एक गायक थे। काले ख़ाँ साहब के निधन के बाद बड़े ग़ुलाम अली अपने पिता से संगीत सीखते रहे। बड़े ग़ुलाम अली ने अपना करीयर बतौर सारंगी वादक शुरु किया और कलकत्ता में आयोजित अपने पहले ही कॊन्सर्ट में उन्होंने लोकप्रियता हासिल कर ली। ख़ाँ साहब ने चार धाराओं - पटियाला-कसूर, ध्रुपद के बहराम ख़ानी तत्व, जयपुर घराने की हरकतें और ग्वालियर घराने के बहलावे का मिश्रण कर एक नई परम्परा की शुरुआत की। उनके गले की मिठास, गायकी का अंदाज़, हरकतें, सबकुछ मिलकर उन्हें शीर्ष स्थान पर बिठा दिया। सन् ४७ में बटवारे के बाद वो पाक़िस्तान चले गए, लेकिन बाद में भारत वापस आ गए और आजीवन यहीं पर रहे। ख़ाँ साहब ने बटवारे को कभी स्वीकार नहीं किया, उनके अनुसार, "अगर हर घर में एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो इस देश का कभी भी बंटवारा नहीं होता"। कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी!

आज उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब की आवाज़ में हम आपको सुनवा रहे हैं राग गुनकली। यह एक प्रात:कालीन राग है जो ६ से ९ बजे के बीच गाया जाता है, ठाट है भैरव। स्वरों की जहाँ तक बात है, इस राग में गंधार और निशाद का प्रयोग नहीं होता, रिशभ और धैवत कोमल होते हैं। बाकी के सभी स्वर शुद्ध है। हर राग से किसी ना किसी मूड का रिश्ता होता है, गुनकली का रिश्ता है दर्द, ख़ालीपन और सूनेपन से। लीजिए उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब से सुनिए यह राग, उसके बाद इसी राग पर आधारित एक फ़िल्मी गीत भी हम सुनेंगे।

राग गुनकली (उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ)


फ़िल्मी गीतों का जहाँ तक सवाल है, बहुत ही कम गीतों में राग गुनकली का इस्तेमाल हमारे संगीतकारों ने किया है। कुछ गीतों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करते हैं। पंकज मल्लिक का गाया "ये कौन आज आया सवेरे सवेरे" (नर्तकी), परवीन सुल्ताना का गाया "बिछुरत मोसे कान्हा" (विजेयता) और लता-किशोर के युगल स्वरों में फ़िल्म 'महबूबा' का लोकप्रिय गीत "पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव" जैसे गानें इसी राग पर आधारित है। तो इनमें से लीजिए फ़िल्म 'महबूबा' का गीत आज यहाँ सुनिए। आनंद बक्शी के बोल, राहुल देव बर्मन का संगीत।

गीत - पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव (महबूबा)


तो दोस्तों, यह था 'सुर संगम' स्तंभ का पहला अंक। अगले रविवार फिर किसी कलाकार और फिर किसी राग के साथ हम हाज़िर होंगे, यह अंक आपको कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में। चाहें तो oig@hindyugm.com पर भी आप मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। तो अब इजाज़त दीजिए, मस्ती के मूड में सण्डे बिताइए, और शाम को ज़रूर वापस पधारिएगा 'आवाज़' पर क्योंकि आज शाम से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है एक नई लघु शृंखला। तो मिलते हैं शाम ६:३० बजे। तब तक के लिए नमस्कार!

आप बताएं
फिल्म "गूँज उठी शहनाई" में भी रफ़ी साहब का गाया एक गीत है इस राग पर आधारित, क्या याद है आपको ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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