Saturday, September 3, 2011

शनिवार विशेष - 'अफसाना' के गीतों से उन्होने अपनी लेखनी का लोहा मनवा लिया...



फिल्म-जगत के सुप्रसिद्ध शायर / गीतकार असद भोपाली के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उनके सुपुत्र पटकथा-संवाद लेखक ग़ालिब खाँ से एक साक्षात्कार
शनिवार विशेषांक (प्रथम भाग)

ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी गीत-संगीत प्रेमियों को कृष्णमोहन मिश्र का सादर अभिवादन, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' के मंच पर। दोस्तों, फिल्म-जगत में कुछ ऐसे भी सृजनशील रचनाकार हुए हैं, जिन्होने गुणबत्ता से कभी भी समझौता नहीं किया, चाहे फिल्म उन्हें किसी भी श्रेणी की मिली हो। फिल्म-जगत के एक ऐसे ही प्रतिभावान, स्वाभिमानी और संवेदनशील शायर-गीतकार असद भोपाली के व्यक्तित्व और कृतित्व पर इस बार के शनिवार विशेषांक में हम चर्चा करेंगे। पिछले दिनों फिल्म और टेलीविज़न धारावाहिक के पटकथा, संवाद और गीत लेखक ग़ालिब खाँ से हमारा सम्पर्क हुआ। मालूम हुआ कि अपने समय के चर्चित गीतकार असद भोपाली के आप सुपुत्र हैं। अपने स्वाभिमानी पिता से ही प्रेरणा पाकर ग़ालिब खाँ फिल्म और टेलीविज़न के क्षेत्र में सफलतापूर्वक सक्रिय हैं। हमने ग़ालिब साहब से अनुरोध किया कि वो अपने पिता असद भोपाली के बारे में हमारे साथ बातचीत करें। अपनी व्यस्तता के बावजूद उन्होने हमसे बातचीत की। प्रस्तुत है चार दशकों तक फिल्म-गीतकार के रूप में सक्रिय श्री असद भोपाली के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उनके सुपुत्र ग़ालिब खाँ से किये गये साक्षात्कार के सम्पादित अंश-

कृष्णमोहन- ग़ालिब खाँ साहब, ‘आवाज़’के शनिवार विशेषांक के इस मंच पर हम आपका हार्दिक स्वागत करते हैं।
ग़ालिब खाँ- धन्यवाद। आपने ‘आवाज़’ के मंच पर मुझे अपने पिता के बारे में कुछ कहने का अवसर दिया, इसके लिए मैं आपका और सभी पाठकों / श्रोताओं का आभारी हूँ।

कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब, करोड़ों फिल्म संगीत प्रेमी आपके पिता को असद भोपाली के नाम से जानते हैं। हम उनका वास्तविक नाम जानना चाहते हैं साथ ही यह भी जानना चाहेंगे कि आपके खानदान का सम्बन्ध भोपाल से किस प्रकार से है?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता असद उल्लाह खाँ का जन्म १० जुलाई १९२१ को भोपाल में हुआ था। उनके पिता यानि मेरे दादा मुंशी अहमद खाँ का भोपाल के आदरणीय व्यक्तियों में शुमार था। वे एक शिक्षक थे और बच्चों को अरबी-फारसी पढ़ाया करते थे। पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा भी उनके शिष्यों में से एक थे। वो घर में ही बच्चों को पढ़ाया करते थे, इसीलिए मेरे पिताजी भी अरबी-फारसी के साथ साथ उर्दू में भी वो महारत हासिल कर पाए जो उनकी शायरी और गीतों में हमेशा झलकती रही। उनके पास शब्दों का खज़ाना था। एक ही अर्थ के बेहिसाब शब्द हुआ करते थे उनके पास। इसलिए उनके जानने वाले संगीतकार उन्हें गीत लिखने की मशीन कहा करते थे।

कृष्णमोहन- फिल्म-जगत में आने से पहले एक शायर के रूप वो कितने लोकप्रिय थे?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता को शायरी का शौक़ किशोरावस्था से ही था, यह बात मेरी माँ बताया करती थीं। उस दौर में जब कवियों और शायरों ने आज़ादी की लड़ाई में अपनी कलम से योगदान किया था, उस दौर में उन्हें भी अपनी क्रान्तिकारी लेखनी के कारण जेल की हवा खानी पड़ी थी।

कृष्णमोहन- इसका अर्थ हुआ कि असद भोपाली साहब स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे।
ग़ालिब खाँ- जी हाँ, आज़ादी की लड़ाई में हर वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया था। इनमें साहित्यकारों की भी भूमिका रही है। मेरे पिता ने एक बुद्धिजीवी के रूप में इस लड़ाई में अपना योगदान किया था। क्रान्तिकारी लेखनी के कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें जेल में बन्द कर दिया था। ये और बात है कि अंग्रेज़ जेलर भी उनकी 'गालिबी' का प्रशंसक हो गया था। (जी हाँ; वो अंग्रेज़ जेलर शायरी को 'गालिबी' कहा करता था)। जेल से छूटने के बाद मेरे पिता मुशायरों में हिस्सा लेते रहे।

कृष्णमोहन- स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी लेखनी से योगदान करने वाले शायर असद भोपाली साहब फिल्मी दुनिया में कैसे पहुँचे?
ग़ालिब खाँ- तब देश आज़ाद हो चुका था। उन दिनों हर छोटे-बड़े मुशायरे में उन्हें सम्मान से बुलाया जाता था। इसी शायरी ने उन्हें फिल्मनगरी मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) पहुँचा दिया। हुआ यूँ कि भोपाल टाकीज की तरफ से एक मुशायरे का आयोजन किया गया था और शायरों की जबान में कहा जाए तो उन्होंने ये ‘मुशायरा लूट लिया’ था। नतीजा ये हुआ कि भोपाल टाकिज के मैनेजर मिस्बाह साहब ने उन्हें पाँच सौ रूपये दिये और फाजली ब्रदर्स का पता दिया, जिन्हें अपनी नयी फिल्म के गीतों के लिए एक माहिर शायर कि दरकार थी। वो सन १९४९ में बम्बई (अब मुम्बई) आये और हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए। 'दुनिया' उनकी पहली फिल्म थी। संगीतकार थे सी.रामचन्द्र और मुख्य भूमिकाओं में करण दीवान, सुरैया, और याकूब जैसे महान कलाकार थे। इस फिल्म का गीत “अरमान लूटे दिल टूट गया...” लोकप्रिय भी हुआ था।

कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब, १९४९ में प्रदर्शित फिल्म ‘दुनिया’ में आपके पिता असद भोपाली के लिखे इस पहले गीत को क्यों न हम श्रोताओं को सुनवाते चलें?
ग़ालिब खाँ- ज़रूर, मेरे पिता के इस पहले फिल्मी गीत को श्रोताओं को ज़रूर सुनवाइए।

फिल्म – दुनिया : "अरमान लुटे दिल टूट गया..." : गायिका - सुरैया


कृष्णमोहन- बहुत दर्द भरा गीत है। अब आपसे हम यह जानना चाहेंगे कि फिल्म-जगत में स्थापित हो जाने के बाद असद साहब के शुरुआती दौर का सबसे लोकप्रिय गीत कौन सा है?
ग़ालिब खाँ- शुरुआती दौर में उन्होंने संगीतकार श्यामसुन्दर और हुस्नलाल भगतराम जैसे नामी संगीतकारों के साथ काम किया था। बी.आर. चोपड़ा द्वारा निर्देशित सफलतम फिल्म 'अफसाना' के गीतों से उन्होने अपनी लेखनी का लोहा भी मनवा लिया। फिल्म का एक गीत -"किस्मत बिगड़ी दुनिया बदली, फिर कौन किसी का होता है, ऐ दुनिया वालों सच तो कहो क्या प्यार भी झूठा होता है..." आज भी लोगों को याद है। इस गीत को संगीतकार हुस्नलाल-भगतराम के निर्देशन में मुकेश ने गाया है। मुझे अपने पिता के लिखे गीतों में यह गीत बेहद पसन्द है। कृष्णमोहन जी, क्या यह गीत हम श्रोताओं को सुनवा सकते हैं?

कृष्णमोहन- अवश्य! मैं स्वयं आपसे यही कहना चाह रहा था। तो ‘ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक’ के प्रिय पाठकों-श्रोताओं! आप सुनिए हमारे आज के अतिथि जनाब ग़ालिब खाँ की पसन्द का गीत, जिसे उनके पिता और सुप्रसिद्ध शायर-गीतकार असद भोपाली ने १९५१ में प्रदर्शित फिल्म ‘अफसाना’ के लिए लिखा था। आप यह गीत सुनें और आज हमें यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए। इस साक्षात्कार का दूसरा भाग लेकर हम अगले शनिवार को अपने अतिथि जनाब ग़ालिब खाँ के साथ पुनः उपस्थित होंगे। धन्यवाद!

फिल्म – अफसाना : "किस्मत बिगड़ी दुनिया बदली..." : गायक – मुकेश


कृष्णमोहन मिश्र
शेष अगले अंक में........

चित्र - ग़ालिब खान (उपर)
असद भोपाली (नीचे)

अनुराग शर्मा की कहानी "सौभाग्य"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने पंडित सुदर्शन की मार्मिक कहानी "तीर्थयात्रा" का पॉडकास्ट अर्चना चावजी की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "सौभाग्य", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा और डॉ. मृदुल कीर्ति ने।कहानी "सौभाग्य" का कुल प्रसारण समय 27 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"इसका मतलब यह तो नहीं कि एक नौकरानी की तरह इस आदमी का हर काम करती रहूँ।"
(अनुराग शर्मा की "सौभाग्य" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#143rd Story, Saubhagya: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/24. Voice: Anurag Sharma

Thursday, September 1, 2011

कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...शोखियों में डूबा एक नशीला गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 735/2011/175

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ इन दिनों गूंज रही है उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' में। आज हम जिस संगीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्होंने भी शमशाद बेगम को एक से एक लाजवाब गीत दिए, और उनकी आवाज़ को 'टेम्पल बेल वॉयस' की उपाधि देने वाले ये संगीतकार थे ओ. पी. नय्यर। नय्यर साहब के अनुसार दो गायिकाएँ जिनकी आवाज़ ऑरिजिनल आवाज़ें हैं, वे हैं गीता दत्त और शमशाद बेगम। दोस्तों, विविध भारती पर नय्यर साहब की एक लम्बी साक्षात्कार प्रसारित हुआ था 'दास्तान-ए-नय्यर' शीर्षक से। उस साक्षात्कार में कई कई बार शमशाद जी का ज़िक्र छिड़ा था। आज और अगली कड़ी में हम उसी साक्षात्कार के चुने हुए अंशों को पेश करेंगे जिनमें नय्यर साहब शमशाद जी के बारे में बताते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो अपना पहला पॉपुलर गीत "प्रीतम आन मिलो" को मानते हैं, तो नय्यर साहब का जवाब था, ""कभी आर कभी पार लागा तीर-ए-नज़र", 'आर-पार' का पहला सुपरहिट गाना शमशाद जी का"। शमशाद बेगम के गाये गीतों में नय्यर साहब डबल बेस का ख़ूब इस्तमाल किया करते थे, इस बारे में भी जानिये उन्हीं से - "मैं जब जैसे चाहता था, एक दिन मुझे एक रेकॉर्डिस्ट नें कम्प्लिमेण्ट दिया कि नय्यर साहब, आप रेकॉर्डिंग् करवाना जानते हो, बाकी किसी को पता नहीं! ये आपने सुना "ज़रा हट के ज़रा बच के, ये है बॉम्बे मेरी जान", और उसमें, शमशाद जी के गानों में "लेके पहला पहला प्यार", "कभी आर कभी पार", "बूझ मेरा क्या नाव रे", ये डबल बेस का खेल है सब!"

नय्यर साहब के इंटरव्यूज़ में एक कॉमन सवाल जो होता था, वह था लता से न गवाने का कारण। 'दास्तान-ए-नय्यर' में जब यह बात चली कि मदन मोहन के कम्पोज़िशन्स को कामयाब बनाने के लिये लता जी का बहुत बड़ा हाथ है, उस पर नय्यर साहब नें कहा, "लता मंगेशकर का बहुत बड़ा हाथ था, और हम हैं वो कम्पोज़र जिन्होंने लता मंगेशकर की आवाज़ पसंद ही नहीं की। वो गायिका नंबर एक हैं, पसंद क्यों नहीं की, क्योंकि हमारे संगीत को सूट नहीं करती। 'थिन थ्रेड लाइक वॉयस' हैं वो। मुझे चाहिये थी सेन्सुअस, फ़ुल ऑफ़ ब्रेथ, जैसे गीता दत्त, जैसे शमशाद बेगम। टेम्पल बेल्स की तरह वॉयस है उसकी। शमशाद जी की आवाज़ इतनी ऑरिजिनल है कि बस कमाल है।" तो आइए दोस्तों, नय्यर साहब और शमशाद जी के सुरीले संगम से उत्पन्न तमाम गीतों में से आज हम एक सुनते हैं। फ़िल्म 'सी.आइ.डी' का यह गीत है "कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना"। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल हैं, और आपको बता दें कि इस गीत की धुन पर अनु मलिक नें 'मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी' फ़िल्म का अल्का याज्ञ्निक का गाया "दिल का दरवाज़ा खुल्ला है राजा, आठ रोज़ की तू छुट्टी लेके आजा" गीत तैयार किया था। "कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना", इस जुमले का इस्तमाल आज भी लोग करते हैं अपने दोस्तों यारों को चिढ़ाने के लिए, किसी की खिंचाई करने के लिए, हास्य-व्यंग के लिए। आइए सुना जाये वहीदा रहमान पर फ़िल्माया १९५६ की 'सी.आइ.डी' फ़िल्म का यह सदाबहार नग़मा।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

इन तीन सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. मीना कुमारी पर है ये गीत.
२. आवाज़ है शमशाद बेगम की.
३. मुखड़े में "रात" का जिक्र है

अब बताएं -
इस गीत के गीतकार - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
फिल्म का नाम - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
सही कहा आपने इंदु जी लगता है सबने अमित के आगे हाथ खड़े कर दिए हैं
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, August 31, 2011

शरमाये काहे, घबराये काहे, सुन मेरे राजा...नशीली अंदाज़ और चुलबुलापन शमशाद की आवाज़ का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 734/2011/174

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! आज 'ईद-उल-फितर' का पाक़ मौका है। इस मौक़े पर मैं, अपनी तरफ़ से, और पूरे 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से आप सभी को दिली मुबारक़बाद देता हूँ। यह त्योहार आप सब के जीवन में ढेरों ख़ुशियाँ लेकर आएँ, यही परवर दिगारे आलम से दरख्वास्त है। एक तरफ़ ईद की ख़ुशियाँ हों, और दूसरी तरफ़ हो शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ का जादू, तो फिर जैसे सोने पे सुहागा वाली बात है, क्यों है न? तो चलिए 'बूझ मेरा क्या नाव रे' शृंखला की चौथी कड़ी शुरु की जाए। दोस्तों, आजकल फ़िल्मों में आइटम नंबर का बड़ा चलन हो गया है। शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म बनती है जिसमें इस तरह का गीत न हो। लेकिन यह परम्परा आज की नहीं है, बल्कि पचास के दशक से ही चली आ रही है। आज जिस तरह से कुछ निर्दिष्ट गायिकाओं से आइटम सॉंग गवाये जाते हैं, उस ज़माने में भी वही हाल था। और उन दिनों इस जौनर में शीर्ष स्थान शमशाद बेग़म का था। बहुत सी फ़िल्में ऐसी बनीं, जिनमें मुख्य नायिका का पार्श्वगायन किसी और गायिका नें किया, जबकि शमशाद बेगम से कोई ख़ास आइटम गीत गवाया गया। आज की कड़ी में आप सुनेंगे दादा सचिन देव बर्मन की धुन पर शमशाद जी की मज़ाहिया आवाज़-ओ-अंदाज़। मुझे तो ऐसा अनुभव होता है कि उस ज़माने में किशोर कुमार जिस तरह की कॉमेडी अपने गीतों में करते थे, गायिकाओं में, और इस शैली में उन्हें टक्कर देने के लिए केवल एक ही नाम था, और वह था शमशाद बेगम का। १९५१ में 'नवकेतन' की फ़िल्म आई थी 'बाज़ी', जिसमें मुख्य गायिका के रूप में गीता रॉय नें अपनी आवाज़ दीं और एक से एक लाजवाब गीत फ़िल्म को मिले, जिनमें शामिल हैं "सुनो गजर क्या गाये", "तदबीर से निगड़ी हुई तक़दीर बना ले", "देख के अकेली मोहे बरखा सताये", "ये कौन आया", "आज की रात पिया दिल ना तोड़ो"। इन कामयाब और चर्चित गीतों के साथ साथ इस फ़िल्म में एक गीत शमशाद बेगम का भी था, जिसनें भी ख़ूब मकबूलीयत हासिल की उस ज़माने में। "शरमाये काहे, घबराये काहे, सुन मेरे राजा, ओ राजा, आजा आजा आजा", इस गीत में उन्होंने न केवल अपनी गायकी का लोहा मनवाया, बल्कि अजीब-ओ-ग़रीब हरकतों से, तरह तरह की आवाज़ें निकालकर कॉमेडी का वह नमूना पेश किया जो उससे पहले किसी गायिका नें शायद ही की होगी। और इसी वजह से आज की कड़ी के लिए हमने इस गीत को चुना है। साहिर लुधियानवी का लिखा हुआ यह गीत है।

दोस्तों, आज के प्रस्तुत गीत में शमशाद जी भले ही हमसे ना घबराने और ना शरमाने की सीख दे रही हैं, लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि वो ख़ुद मीडिया से दूर भागती रहीं, पब्लिक फ़ंक्शन्स में वो नहीं जातीं, और यहाँ तक कि अपना पहला स्टेज शो भी पचास वर्ष की आयु होने के बाद ही उन्होंने दिया था। शमशाद जी तो सामने नहीं आतीं, लेकिन उनके गाये गीतों के रीमिक्स आज भी बाज़ार में छाये हैं। कैसा लगता है उनको? "मुझे रीमिक्स से कोई शिकायत नहीं है। आज शोर शराबे का ज़माना है, रीदम का ज़माना है, बच्चे लोग ऐसे गाने सुन कर ख़ुश होते हैं, झूमते हैं। मुझे भी अच्छा लगता है, पर कोई इन गीतों में हमारा नाम भी तो लें! लोग जब तक मुझे याद करते हैं, जब तक मेरे गाने बजाये जाते हैं, मैं ज़िंदा हूँ।" शमशाद जी के गाये गीत हमेशा ज़िंदा रहेंगे इसमें कोई शक़ नहीं है। तीन दशकों तक उन्होंने फ़िल्म-संगीत जगत में राज किया है और उनकी आवाज़ की खासियत ही यह है कि उनकी आवाज़ की ख़ुद की अलग पहचान है, खनक है, जो किसी अन्य गायिका से नहीं मिलती, और इसलिए उनकी प्रतियोगिता भी अपने आप से ही रही है। शमशाद जी के गाये ज़्यदातर गानें चर्चित हुए। मास्टर ग़ुलाम हैदर, नौशाद, ओ.पी. नैयर, सी. रामचन्द्र जैसे संगीतकारों नें उनकी आवाज़ को नई दिशा दी, और साज़ और आवाज़ के इस सुरीले संगम से उत्पन्न हुआ एक से एक कामयाब, सदाबहार गीत। आइए आज का सदाबहार गीत सुना जाये, लेकिन संगीतकार हैं दादा बर्मन।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

इन तीन सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. इस गीत के संगीतकार वो हैं जिन्होंने शमशाद की आवाज़ को "टेम्पल बेल" का नाम दिया था.
२. आवाज़ है शमशाद बेगम की.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है - "इरादे"

अब बताएं -
इस गीत के गीतकार - ३ अंक
गीत किस अभिनेत्री पर है फिल्माया गया - २ अंक
फिल्म का नाम - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी बहुत दिनों में दिखी कल, सही जवाब के साथ, अमित जी और इंदु जी को भी बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

हरकीरत हीर के मजमुआ-ए-नज़्म 'दर्द की महक' का विमोचन



कविताप्रेमियो,

आप सभी को ईद की बधाइयाँ!

आज कविता की दुनिया की रुहानी-क़लम अमृता प्रीतम की जयंती है। अमृता अपनी रचनाओं में एक ख़ास तरह की रुमानियत और कोर-संवेदनशीलता के लिए पहचानी जाती हैं। कुछ इसी तरह की रचनाधर्मिता युवा कवयित्री हरकीरत हीर की कविताओं में दृष्टिगोचर होती है। और कितना सुखद संयोग है कि आज ही हरकीरत का भी जन्मदिन है। हरकीरत खुद के अमृता से इस संयोग को चित्रित करते हुए कहती हैं- "...वह अमृता जिसकी आत्मा का इक-इक अक्षर हीर के ज़िस्म में मुस्कुराता है ...जिसकी इक-इक सतर हीर की तन्हा रातों में संग रही है..."

नज़्मों से निर्मित उसी हरकीरत की नज़्मों का एक संग्रह 'दर्द की महक' का प्रकाशन हिन्द-युग्म ने किया है। और अमृता की जयंती, हरकीरत के जन्मदिन और ईद के इस महान संयोग पर 'दर्द की महक' का ऑनलाइन विमोचन कर रहा है।


(यहाँ से फीटा काटकर विधिवत लोकार्पण करें)

'दर्द की महक' से अमृता के जन्मदिन को समर्पित एक नज़्म

उसने कहा है अगले जन्म में तू फ़िर आएगी मोहब्बत का फूल लिए

रात ....
बहुत गहरी बीत चुकी है
मैं हाथों में कलम लिए
मग्मूम सी बैठी हूँ ....
जाने क्यूँ ....
हर साल ...
यह तारीख़
यूँ ही ...
सालती है मुझे.....


पर तू तो ...
खुदा की इक इबारत थी
जिसे पढ़ना ...
अपने आपको
एक सुकून देना है ...


अँधेरे मन में ...
बहुत कुछ तिड़कता है
मन की दीवारें
नाखून कुरेदती हैं तो...
बहुत सा गर्म लावा
रिसने लगता है ...

सामने देखती हूँ
तेरे दर्द की ...
बहुत सी कब्रें...
खुली पड़ी हैं...
मैं हाथ में शमा लिए
हर कब्र की ...
परिक्रमा करने लगती हूँ ....

अचानक
सारा के खतों पर
निगाह पड़ती है....
वही सारा ....
जो कैद की कड़ियाँ खोलते-खोलते
कई बार मरी थी .....
जिसकी झाँझरें कई बार
तेरी गोद में टूटी थीं ......
और हर बार तू
उन्हें जोड़ने की...
नाकाम कोशिश करती.....
पर एक दिन
टूट कर...
बिखर गयी वो ....

मैं एक ख़त उठा लेती हूँ
और पढने लगती हूँ .......
"मेरे बदन पे कभी परिंदे नहीं चहचहाये
मेरी सांसों का सूरज डूब रहा है
मैं आँखों में चिन दी गई हूँ ...."

आह.....!!
कैसे जंजीरों ने चिरागों तले
मुजरा किया होगा भला ....??
एक ठहरी हुई
गर्द आलूदा साँस से तो
अच्छा था .....
वो टूट गयी .......

पर उसके टूटने से
किस्से यहीं
खत्म नहीं हो जाते अमृता ...
जाने और कितनी सारायें हैं
जिनके खिलौने टूट कर
उनके ही पैरों में चुभते रहे हैं ...

मन भारी सा हो गया है
मैं उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई हूँ
कुछ फांसले पर कोई खड़ा है ....
शायद साहिर है .. .....
नहीं ... नहीं ...... .
यह तो इमरोज़ है .....
हाँ इमरोज़ ही तो है .....
कितने रंग लिए बैठा है . ...
स्याह रात को ...
मोहब्बत के रंग में रंगता
आज तेरे जन्मदिन पर
एक कतरन सुख की
तेरी झोली डाल रहा है .....

कुछ कतरने और भी हैं
जिन्हें सी कर तू
अपनी नज्मों में पिरो लेती है
अपने तमाम दर्द .... ...

जब मरघट की राख़
प्रेम की गवाही मांगती है
तो तू...
रख देती है
अपने तमाम दर्द
उसके कंधे पर ...
हमेशा-हमेशा के लिए ....
कई जन्मों के लिए .....

तभी तो इमरोज़ कहते हैं ....
तू मरी ही कहाँ है ....
तू तो जिंदा है .....
उसके सीने में....
उसकी यादों में .....
उसकी साँसों में .....
और अब तो ....
उसकी नज्मों में भी...
तू आने लगी है ....

उसने कहा है ....
अगले जन्म में
तू फ़िर आएगी ....
मोहब्बत का फूल लिए ....
जरुर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना
कोई हुआ है भला ......!!

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Tuesday, August 30, 2011

ना बोल पी पी मोरे अंगना, ओ पंछी जा रे जा...एक अंदाज़ ये भी शमशाद का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 733/2011/173

मशाद बेगम के गाये गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की आज है तीसरी कड़ी। कुछ वर्ष पहले वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा के नेतृत्व में विविध भारती की टीम पहुँची थी शमशाद जी के पवई के घर में, और उनसे लम्बी बातचीत की थी। उसी बातचीत का पहला अंश कल हमनें पेश किया था, आइए आज उसी जगह से बातचीत के कुछ और अंश पढ़ें।

शमशाद जी: मैंने मास्टरजी (ग़ुलाम हैदर) से फिर कहा कि दूसरा गाना गाऊँ? उन्होंने कहा कि नहीं, इतना ठीक है। फिर १२ गानों का ऐग्रीमेण्ट हो गया, हर गाने के लिए १२ रुपये। मास्टरजी नें उन लोगों से कहा कि इस लड़की को वो सब फ़ैसिलिटीज़ दो जो सब बड़े आर्टिस्टों को देते हो। उस ज़माने में ६ महीनों का कॉनट्रैक्ट हुआ करता था, ६ महीने बाद फिर रेकॉर्डिंग् वाले आ जाते थे। सुबह १० से शाम ५ बजे तक हम रिहर्सल किया करते म्युज़िशियन्स के साथ, मास्टरजी भी रहते थे। आप हैरान होंगे कि उन्हीं के गाने गा गा कर मैं आर्टिस्ट बनी हूँ।

कमल जी: आप में भी लगन रही होगी?

शमशाद जी - मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब कहा करते थे कि इस लड़की में गट्स है, आवाज़ भी प्यारी है। शुरु में हर गीत के लिए १२ रूपए देते थे। पूरा सेशन ख़त्म होने पर मुझे ५००० रूपए मिले। जब रब मेहरबान तो सब मेहरबान! (यहाँ शमशाद जी भावुक हो जाती हैं और रो पड़ती हैं) जब रेज़ल्ट निकलता है तो फिर क्या कहने!

कमल जी: आप फिर रेडियो से भी जुड़ गईं, इस बारे में कुछ बतायें।

शमशाद जी: जब मैंने गाना शुरु किया था तब रेडियो नहीं था, सिर्फ़ ग्रामोफ़ोन कंपनीज़ थीं, और बहुत महंगा भी था, १०० रूपए कीमत थी ग्रामोफ़ोन की और हर रेकॉर्ड की कीमत होती थी २.५० रुपये। दो साल बाद जब हम तैयार हो गए, तब रब ने रेडियो खोल दिया और मैं पेशावर रेडियो में शामिल हो गई।

कमल जी: रेडियो में किसी प्रोड्युसर को आप जानती थीं, आपको मौका कैसे मिला?

शमशाद जी: उस वक़्त प्रोड्युसर नहीं, स्टेशन डिरेक्टर होते थे, उनके लिए गाने वाले कहाँ से आयेंगे? वो ग्रामोफ़ोन कंपनी वालों से पूछते थे गायकों के बारे में। जिएनोफ़ोन कंपनी से भी उन्होंने पूछा और इस तरह से मेरा नाम उन्हें मिल गया। मैंने पेशावर रेडियो से शुरुआत की, पश्तो, परशियन, हिंदी, उर्दू और पंजाबी प्रोग्राम करने लगी। फिर लाहौर और दिल्ली रेडियो से भी जुड़ी।

और दोस्तों, जुड़े हुए तो हम हैं पिछले ६ दशकों से शमशाद बेगम के गाये हुए गीतों के साथ। उनकी आवाज़ में जो आकर्षण है, रौनक है, जो चंचलता है, जो शोख़ी है, उसके जादू से कोई भी नहीं बच सकता। तीन दशकों में उनकी खनकती आवाज़ नें सुनने वालों पर जो असर किया था, वह असर आज भी बरकरार है। आइए आज की कड़ी में भी एक और असरदार गीत सुनते हैं १९४९ की फ़िल्म 'दुलारी' से। ग़ुलाम हैदर और राम गांगुली के बाद, आज बारी संगीतकार नौशाद साहब की। जैसा कि पहली कड़ी में हमनें ज़िक्र किया था कि नौशाद साहब के मुताबिक़ शमशाद जी की आवाज़ में पंजाब के पाँच दरियाओं की रवानी है। आइए शक़ील बदायूनी के लिखे इस गीत को सुनते हुए नौशाद साहब के इसी बात को महसूस करने की कोशिश करते हैं। नौशाद साहब को याद करते हुए शमशाद जी नें अपनी 'जयमाला' में कहा था, "संगीतकार नौशाद साहब के साथ मैंने कुछ १६-१७ फ़िल्मों में गाये हैं जैसे 'शाहजहाँ', 'दर्द', 'दुलारी', 'मदर इण्डिया', 'मुग़ल-ए-आज़म', 'दीदार', 'अनमोल घड़ी', 'आन', 'बैजु बावरा', वगेरह। मेरे पास उनके ख़ूबसूरत गीतों का ख़ज़ाना है। लोग आज भी उनके संगीत के शैदाई हैं। मेरे स्टेज शोज़ में भी लोग ज़्यादातर उनके गीतों की ही फ़रमाइश करते हैं।" लीजिए, नौशाद साहब और शमशाद जी, इन दोनों को समर्पित आज का यह गीत सुनते हैं।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

इन तीन सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. मुख्या रूप से इस फिल्म में गीता रॉय के गाये गीत थे.
२. आवाज़ है शमशाद बेगम की.
३. एक अंतरे में "दिलवाले"- "मतवाले" का काफिया है

अब बताएं -
इस गीत के गीतकार - ३ अंक
इस गीत के संगीतकार - २ अंक
फिल्म का नाम - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अमित जी को टक्कर मिल मात्र इंदु जी से, अरे भाई बाकी धुरंधर कहाँ है ? या सवाल ज्यादा मुश्किल लग रहे हैं ? खैर इंदु जी आपके जवाब गलत हों संभावना कम ही होती है :)
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, August 29, 2011

काहे कोयल शोर मचाये रे....एक और खनकता गीत शमशाद की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 732/2011/172

'बूझ मेरा क्या नाव रे' - पार्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। जैसा कि कल हमने वादा किया था कि शमशाद जी के बचपन और शुरुआती दौर के बारे में हम विस्तार से चर्चा करेंगे, तो आइए आज प्रस्तुत है विविध भारती द्वारा ली गई एक साक्षात्कार के अंश। शमशाद जी से बातचीत कर रहे हैं वरिष्ठ उद्‍घोषक श्री कमल शर्मा:

शमशाद जी: मेरे को गाना नहीं सिखाया किसी ने, ग्रामोफ़ोन पर सुन सुन कर मैंने सीखा। मेरे घरवाले ने एक पैसा नहीं खर्च किया। लड़कों का ही फ़िल्मों में गाना बजाना अच्छा नहीं माना जाता था, लड़कियों की क्या बात थी! मैं गाने लगती घर में तो सब चुप करा देते थे कि क्या हर वक़्त चैं चैं करती रहती है!

कमल जी: शमशाद जी, आपनें किस उम्र से गाना शुरु किया था?

शमशाद जी - आठ साल से गाना शुरु किया, जब से होश आया तभी से गाती थी।

कमल जी - आप जिस स्कूल में पढ़ती थीं, वहाँ आपके म्युज़िक टीचर ने आपका हौसला बढ़ाया होगा?

शमशाद जी - उन्होंने कहा कि आवाज़ अच्छी है, पर घरवालों ने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। मैं जिस स्कूल में पढ़ती थी, वह ब्रिटिश ने बनाया था, उर्दू ज़बान में, मैंने पाँचवी स्टैण्डर्ड तक पढ़ाई की। हम चार बहनें और तीन भाई थे। एक मेरा चाचा था, एक उनको गाने का शौक था। वो कहते थे कि हमारे घर में यह लड़की आगे चलकर अच्छा गायेगी। वो मेरे बाबा के सगे भाई थे। वो उर्दू इतना अच्छा बोलते थे कि तबीयत ख़ुश हो जाती, लगता ही नहीं कि वो पंजाब के रहनेवाले थे। मेरे वालिद ग़ज़लों के शौकीन थे और वे मुशायरों में जाया करते थे। कभी कभी वे मुझसे ग़ज़लें गाने को भी कहते थे। लेकिन वो मेरे गाने से डरते थे। वो कहते कि चार चार लड़कियाँ हैं घर में, तू गायेगी तो इन सबकी शादी करवानी मुश्किल हो जायेगी।

कमल जी: शमशाद जी, आपकी गायकी की फिर शुरुआत कैसे और कब हुई?

शमशाद जी: मेरे उस चाचा ने मुझे जिएनोफ़ोन (Jien-o-Phone) कंपनी में ले गए, वो एक नई ग्रामोफ़ोन कंपनी आयी हुई थी। उस समय मैं बारह साल की थी। वहाँ पहुँचकर पता चला कि ऑडिशन होगा, उन लोगों ने तख़्तपोश बिछाया, हम चढ़ गए, उस पर बैठ गए (हँसते हुए)। वहीं पर मौजूद थे संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब। इतने कमाल के आदमी मैंने देखा ही नहीं था। वो मेरे वालिद साहब को पहचानते थे। वो कमाल के पखावज बजाते थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि आपके साथ कौन बजायेगा? मैंने कहा मैं ख़ुद ही गाती हूँ, मेरे साथ कोई बजानेवाला नहीं है। फिर उन्होंने कहा कि थोड़ा गा के सुनाओ। मैंने ज़फ़र की ग़ज़ल शुरु की, "मेरे यार मुझसे मिले तो...", एक अस्थाई, एक अंतरा, बस! उन्होंने मुझे रोक दिया, मैंने सोचा कि गये काम से, ये तो गाने ही नहीं देते! ये मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि मैं प्लेबैक आर्टिस्ट बन जाऊँगी, मेरा इतना नाम होगा। मैं सिर्फ़ चाहती थी कि मैं खुलकर गाऊँ।

दोस्तों, शमशाद जी का कितना नाम हुआ, और कितना खुल कर वो गाईं, ये सब तो अब इतिहास बन चुका है, आइए अब बात करते हैं आज के गाने की। शृंखला की शुरुआत हमने कल की थी मास्टर ग़ुलाम हैदर के कम्पोज़िशन से। आज आइए सुनें संगीतकार राम गांगुली के संगीत निर्देशन में १९४८ की राज कपूर की पहली निर्मित फ़िल्म 'आग' से शमशाद जी का गाया फ़िल्म का एक बेहद लोकप्रिय गीत "काहे कोयल शोर मचाये रे, मोहे अपना कोई याद आये रे..."। गीतकार हैं बहज़ाद लखनवी और गीत फ़िल्माया गया है नरगिस पर। इस गीत में कुछ ऐसा जादू है कि गीत को सुनने वाला हर कोई अपनी यादों में खो जाता है, उसे भी कोई अपना सा याद आने लगता है। इस गीत के बारे में शमशाद जी नें कहा था, "राज कपूर अपनी पहली फ़िल्म 'आग' बना रहे थे। वे मेरे पास आये और कहा कि मैं पृथ्वीराज कपूर का बेटा हूँ। मैं कहा बहुत ख़ुशी की बात है। फिर उन्होंने कहा कि आपको मेरी फ़िल्म में गाना पड़ेगा। मैंने कहा गा दूँगी। इस फ़िल्म के सारे गानें बहुत ही मक़बूल हुए, संगीतकार थे राम गांगुली। इस फ़िल्म का एक गीत सुनिये।"



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

इन तीन सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. १९४९ की फिल्म है ये.
२. आवाज़ है शमशाद बेगम की.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द युग्म से - "रुत अलबेली"

अब बताएं -
इस गीत के गीतकार - ३ अंक
इस गीत के संगीतकार - २ अंक
फिल्म का नाम - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह इंदु जी आपके क्या कहने, दादी आपकी उपस्तिथि लगनी चाहिए इस शृंखला की हर कड़ी में, और अमित जी को बधाई है :)

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, August 28, 2011

सावन के नज़ारे हैं....शमशाद बेगम की पहली फिल्म के एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 731/2011/171

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत 'वतन के तराने' लघु शृंखला के बाद आज से एक नई शृंखला के साथ, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हो गया हूँ। आज से शुरु होने वाली लघु शृंखला समर्पित है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की एक लाजवाब पार्श्वगायिका को। ये वो गायिका हैं दोस्तों जिनकी आवाज़ की तारीफ़ में संगीतकार नौशाद साहब नें कहा था कि इसमें पंजाब की पाँचों दरियाओं की रवानी है। उधर ओ. पी. नय्यर साहब नें इनकी शान में कहा था कि इस आवाज़ को सुन कर ऐसा लगता है जैसे किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही हों। इस अज़ीम गुलुकारा नें कभी हमसे अपना नाम बूझने को कहा था, लेकिन हक़ीक़त तो यह है कि आज भी जब हम इनका गाया कोई गीत सुनते हैं तो इनका नाम बूझने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि इनकी खनकती आवाज़ ही इनकी पहचान है। प्रस्तुत है फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे'। शमशाद बेगम के गाये गीतों की लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आज ६ दशक बाद भी उनके गाये हुए गीतों के रीमिक्स जारी हो रहे हैं। आइए इस शृंखला में उनके गाये गीतों को सुनने के साथ साथ उनके जीवन और करीयर से जुड़ी कुछ बातें भी जानें, और शमशाद जी के व्यक्तित्व को ज़रा करीब से जानने की कोशिश करें।

विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में फ़ौजी जवानों को सम्बोधित करते हुए शमशाद बेगम नें बरसों बरस पहले अपनी दास्तान कुछ यूं शुरु की थीं - "देश के रखवालों, आप सब को मेरी दुआएँ! मेरे लिए गाना तो आसान है, पर बोलना बहुत मुश्किल। समझ में नहीं आ रहा है कि कहाँ से शुरु करूँ! आप मेरे गानें अपने बचपन से ही सुनते चले आ रहे होंगे, पर आज पहली बार आप से बातें कर रही हूँ। जगबीती बयान करना मेरे लिये बहुत मुश्किल है। दास्तान यूं है कि मेरा जन्म लाहौर में १९१९ में हुआ। उस समय लड़कियों को जो ज़रूरी तालीम दी जाती थी, मुझे भी दी गई। गाने का शौक घर में किसी का भी नहीं था मेरे अलावा। मेरे वालिद ग़ज़लों के शौक़ीन थे और वे मुशायरों में जाया करते थे। कभी कभी वे मुझसे ग़ज़लें गाने को भी कहते थे। मास्टर ग़ुलाम हैदर मेरे वालिद के अच्छे दोस्त थे। एक बार उन्होंने मेरी आवाज़ सुनी और उनको मेरी आवाज़ पसंद आ गई। मास्टरजी नें एक रेकॉर्डिंग् कंपनी (jien-o-phone) के ज़रिये मेरा पहला रेकॉर्ड निकलवा दिया। १४ साल की उम्र में मेरा पहला गाना रेकॉर्ड हुआ जो था "हाथ जोड़ा लई पखियंदा ओये क़सम ख़ुदा दी चंदा"। उस रेकॉर्ड कंपनी नें फिर मेरे १०० रेकॉर्ड्स निकाले। १९३७ में मैं पेशावर रेडियो की आर्टिस्ट बन गई, जहाँ मैंने पश्तो, परशियन, हिंदी, उर्दू और पंजाबी में प्रोग्राम पेश किए। पर मैंने कभी संगीत की कोई तालीम नहीं ली। १९३९ में मैं लाहौर और फिर दिल्ली में रेडियो प्रोग्राम करने लगी। पंचोली जी नें पहली बार मुझे प्लेबैक का मौका दिया १९४० की पंजाबी फ़िल्म 'यमला जट' में, जिसमें मेरा गीत "आ सजना" काफ़ी हिट हुआ था। मेरी पहली हिंदी फ़िल्म थी पंचोली साहब की 'ख़ज़ांची'। उन्होंने मुझसे फ़िल्म के सभी आठ गीत गवाये। यह फ़िल्म ५२ हफ़्तों से ज़्यादा चली।" दोस्तों, शमशाद जी नें बहुत ही कम शब्दों में अपने शुरुआती दिनों का हाल बयान कर दिया। लेकिन इतनी आसानी से हम भला संतुष्ट क्यों हों? इसलिये कल हम उनसे इन्ही दिनों के बारे में विस्तार से जानेंगे। लेकिन फ़िल्हाल सुना जाये शमशाद जी की पहली हिंदी फ़िल्म 'ख़ज़ांची' से उनका गाया यह गीत "सावन के नज़ारे हैं"। मास्टर ग़ुलाम हैदर का संगीत है, और गीत लिखा है वली साहब नें। १९४१ में बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया था मोती गिदवानी नें और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे एम. इस्माइल, रमोला और नारंग।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

इन तीन सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. एक बड़े निर्माता निर्देशक की पहली निर्मित फिल्म थी ये.
२. आवाज़ है शमशाद बेगम की.
३. मुखड़े में शब्द है - "याद"

अब बताएं -
इस गीत के गीतकार - ३ अंक
इस गीत के संगीतकार - २ अंक
फिल्म का नाम - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
जी इंदु जी अमित जी अब १० से भी अधिक श्रृंखलाएं जीत चुके हैं. बधाई के हकदार तो हैं ही

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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