Saturday, March 5, 2011

ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - अभिनेत्री व फ़िल्म-निर्मात्री आशालता के जीवन की कहानी उन्हीं की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा की जुबानी



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की ३१-वीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपको मिलवा रहे हैं एक ऐसी शख्सियत से जिनकी माँ ना केवल हिंदी सिनेमा की पहली पीढ़ी की एक जानीमानी अदाकारा रहीं, बल्कि अपने एक निजी बैनर तले कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया। इस अदाकारा और फ़िल्म निर्मात्री को हम आशालता के नाम से जानते हैं। जी हाँ, वही आशालता बिस्वास जिन्हें आप मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास की पहली पत्नी के रूप में ज़्यादा जानते हैं। इसे हम अफ़सोस की बात ही कहेंगे कि आशालता जी के बारे में बहुत कम और ग़लत जानकारियाँ दुनिया को मिल पायी है, कारण चाहे कोई भी हो। लेकिन हक़ीक़त यह है कि आशालता जी का अपना भी एक अलग व्यक्तित्व था, अपनी अलग पहचान थी, और इस बात का अंदाज़ा आपको इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद हो जाएगा। आशालता जी के बारे में विस्तार से बातचीत करने के लिए 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से हमने आमंत्रित किया उनकी सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी को। तो आइए आपको मिलवाते हैं आशालता जी और अनिल दा की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी से।

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सुजॊय - शिखा जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंदयुग्म' पर, और बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने हमारे इस निमंत्रण को स्वीकारा, और आशालता जी के बारे में विस्तार से हमारे पाठकों को बताने के लिए राज़ी हुईं।

शिखा - आपका बहुत धन्यवाद जो आपने अपने फ़ोरम में मुझे बुलाया। सब से पहले मैं यह कहना चाहूँगी कि बच्चे अपने माता-पिता के काम के बारे में बहुत कम ही बातचीत करते हैं और हम भी दूसरे बच्चों से अलग नहीं थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आ जाएगा कि ये सब बातें इतिहास बन जाएँगी या इन सब बातों को जानने में लोगों की दिलचस्पी होगी। माँ-बाप चाहे बाहर कितने भी लोकप्रिय या पब्लिक फ़िगर हों, बच्चों के लिए तो वो केवल माँ-बाप ही होते हैं। सिनेमा के रसिक उनके बारे में ज़्यादा जानकारी रखते हैं, इसलिए आपके इस मुहिम में शायद मैं बहुत ज़्यादा कारगर न साबित हो सकूँ।

सुजॊय - शिखा जी, आशालता जी उस पीढ़ी की अभिनेत्री थीं जब बोलती फ़िल्मों की बस शुरुआत ही हुई थी। जब मैंने इंटरनेट पर उपलब्ध आशालता जी की फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र दौड़ाई, तो पाया कि उनकी पहली फ़िल्में थीं 'सजीव मूर्ती', 'आज़ादी' और 'सती तोरल', और ये फ़िल्में आईं थीं सन् १९३५ में। क्या आप बता सकती हैं कि क्या वाक़ई आशालता जी १९३५ में लौंच हुईं थीं?

शिखा - 'आज़ादी' का निर्माण १९३४ में शुरु होकर फ़िल्म १९३५ में रिलीज़ हुई थी, इसलिए यही फ़िल्म शायद उनकी डेब्यु फ़िल्म थी, और इसमें उनके नायक थे विजय कुमार। उस वक़्त आशालता जी की उम थी १८ वर्ष।

सुजॊय- क्या आशालता जी ने कभी आपको बताया कि उनका सिनेमा में पदार्पण किस तरह से हुआ था?

शिखा - न उन्होंने कभी इसके बारे में हमें बताया और न ही हमने कभी उनसे यह पूछा। लेकिन जितना मुझे मालूम है, वो और शोभना समर्थ क्लासमेट्स थीं और बहुत अच्छे दोस्त भी। इसलिए हो सकता है कि वे दोनों एक ही समय पर फ़िल्मी मैदान में उतरी होंगी। शोभना समर्थ जी के अंकल एक फ़ोटो-स्टुडिओ चलाते थे 'देवारे' नाम से।

सुजॊय - मैंने सुना है कि आशालता जी का असली नाम था मेहरुन्निसा। जहाँ तक एक फ़िल्मी नायिका के नाम का सवाल है, इस नाम में कोई ख़ामी नहीं थी। फिर उन्होंने अपना नाम क्यों बदला होगा, क्या इसके बारे में आप कुछ बता सकती हैं?

शिखा - उनका असली नाम था मेहरुन्निसा भगत। शायद उन्होंने या फ़िल्म के निर्माता ने उनका नाम बदल दिया होगा क्योंकि उन दिनों यह एक रवायत थी।

सुजॊय - ये जो तीन फ़िल्मों का ज़िक्र हमने अभी किया, वे सभी 'शक्ति मूवीज़' के बैनर तले निर्मित फ़िल्में थीं। उस ज़माने में फ़िल्मी कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हें मासिक तौर पर तनख्वा मिलती थी। तो क्या आशालता जी भी 'शक्ति मूवीज़' में कार्यरत थीं?

शिखा - मुझे नहीं लगता कि उनका किसी स्टुडिओ विशेष से कोई अनुबंधन था, बल्कि फ़िल्म निर्माण के दौरान उन्हें उस कंपनी से मासिक तनख्वा मिला करती होगी।

सुजॊय - शायद आप ठीक कह रही हैं, क्योंकि अगले ही साल, यानी १९३६ से वो कई बैनरों की फ़िल्मों में नज़र आयीं, जैसे कि 'गोल्डन ईगल', 'ईस्टर्ण आर्ट्स', 'सागर मूवीटोन', 'दर्यानी प्रोडक्शन्स' आदि। अच्छा, १९३६ की बात करें तो इस साल 'शेर का पंजा' और 'पिया की जोगन' जैसी फ़िल्में उनकी आयीं, जिनमें संगीत आपके पिता श्री अनिल बिस्वास जी का था। तो यह बताइए कि आशालता जी अनिल दा से कब मिलीं? क्या इन्ही दो फ़िल्मों के निर्माण के दौरान या उससे पहले?

शिखा - अनिल बिस्वास 'मनमोहन' फ़िल्म के संगीतकार के सहायक थे, जिसका निर्माण १९३५ से ही शुरु हो चुका था। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे दोनों तभी मिले होंगे और दोनों ने शादी की १९३६ में।

सुजॊय - अच्छा शिखा जी, वह ३० का दशक कुंदन लाल सहगल साहब का दशक था, और १९४० में एक बहुत ही मशहूर फ़िल्म आयी थी 'ज़िंदगी' जिसमें सहगल साहब मुख्य भूमिका में थे। इस फ़िल्म में आशालता जी ने भी अभिनय किया था। क्या उन्होंने आपको इस फ़िल्म के बारे में या सहगल साहब के बारे में कुछ बताया?

शिखा - जी नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कुछ ज़िक्र नहीं किया कि इस फ़िल्म में उनका सहगल साहब के साथ कोई सीन था।

सुजॊय - १९३७ में आशालता जी की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'प्रेमवीर', जिसका निर्माण हिंदी और मराठी, दोनों में हुआ था। यह बताइए कि क्या आशालता जी ने इस फ़िल्म के लिए मराठी सीखा था? उनकी मातृभाषा क्या थी?

शिखा - 'प्रेमवीर', मास्टर विनायक के साथ। नंदा जी के पिता मास्टर विनायक जी के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था। वो ख़ुद बहुत अच्छा मराठी, गुजराती और सिंधी बोल लेती थीं और शादी के बाद बंगला भी सीख गई थीं। वो मूलत: भुज की थीं और उनकी मातृभाषा थी कच्छी।

सुजॊय - फ़िल्मों से संन्यास लेने के एक अरसे बाद वो फिर से नज़र आयीं गुजराती फ़िल्म 'मारे जावुण पेले पार' फ़िल्म में जो १९६८ में बनी थी। इस फ़िल्म के लिए उन्हें न्योता कैसे मिला?

शिखा - दरअसल १९६६ में उन्होंने एक फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' का निर्माण किया था अपने भाई के बैनर तले और जिसमें उन्होंने किशोर कुमार के माँ का किरदार भी निभाया था। उसी दौरान मुझे भी एक फ़िल्म 'फिर वही आवाज़' में नायिका बनने का ऒफ़र आया था जिसमें सुजीत कुमार नायक थे, और उस फ़िल्म के निर्देशक थे शांतिलाल सोनी, जो कि एक गुजराती थे। उन्होंने मेरी मम्मी को रेकमेण्ड किया उस रोल के लिए। वह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई और उसका हिंदी में री-मेक हुआ 'खिलौना' शीर्षक से, जिसमें अरुणा इरानी वाला किरदार मुमताज़ ने निभाया।

सुजॊय - एक फ़िल्म निर्मात्री के रूप में आशालता जी के करीयर को देखें तो उन्होंने कुछ यादगार म्युज़िकल फ़िल्मों का निर्माण किया है जैसे कि 'लाडली', 'बड़ी बहू', 'लाजवाब', 'हमदर्द', 'बाज़ूबंद', जो अपने ज़माने के हिट फ़िल्में हैं। इन सब फ़िल्मों के बारे में आप क्या जानती हैं?

शिखा - देखिए वो हमेशा से ही एक ऐक्टिव पर्सन रही हैं अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में। वो काम करना चाहती थीं, लेकिन दो बच्चों के जन्म के बाद वो अभिनय से संयास लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने अभिनय को छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का काम ले लिया और अपने बैनर 'वरायटी पिक्चर्स' की स्थापना की। मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण के हर पहलु को वो ख़ुद परखती थीं, रोज़ ऒफ़िस जाना, और पूरे शिड्युल को बकायदा मेण्टेन करना। निम्मी, शेखर, सुलोचना चटर्जी जैसे कलाकारों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही अच्छा था। मैं अक्सर उनके साथ आउटडोर जाया करती थी जैसे कि पंचगनी और महाबलेश्वर। एक बार किसी डान्स सिक्वेन्स के शूटिंग् के दौरान मैं ग़लती से कैमरे के फ़्रेम में आ गई और जुनियर आर्टिस्ट्स के साथ डान्स करने लग पड़ी। फ़िल्म के निर्देशक 'कट' बोलने ही वाले थे कि उन्होंने कैमरा चलते रहने का इशारा किया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में 'रणजीत' और दादर के 'श्री साउण्ड स्टुडिओ' में शूट हुआ करती थी। मुझे याद है कि फ़िल्म 'बड़ी बहू' के गीत "मेरे दिल की धड़कन में" और "सपने तुझे बुलाये" का डान्स रिहर्सल हमारे घर के बैठकखाने में हुई थी। और रिहर्सल कर रहे थे गोपी कृषन और स्मृति बिस्वास; और बाद में इनका फ़िल्मांकन 'फ़ेमस स्टुडिओ महालक्ष्मी' में हुआ, जहाँ पर मम्मा ने अपना ऒफ़िस बाद में शिफ़्ट कर लिया था।

सुजॊय - बहुत ही हसीन यादें जुड़ी हुई होगी इनके साथ, है न? तो क्यों न यहाँ पर हम फ़िल्म 'बड़ी बहू' का एक गाना सुन लें!

गीत - मीठी मीठी निंदिया आई रे (बड़ी बहू)


सुजॊय - अच्छा शिखा जी, जैसा कि आपने बताया कि आपके घर पर फ़िल्मों के रिहर्सल हुआ करते थे, तो यह बताइए कि किस तरह का माहौल हुआ करता था?

शिखा - बहुत ही मज़ेदार होते थे वो दिन कि जब बाबा खाना बनाते थे सभी के लिए और जैसे घर पर एक पिकनिक का माहौल बन जाता था। उस ज़माने में फ़िल्म से जुड़े सभी लोग आपस में एक दूसरे के बहुत नज़दीक हुआ करते थे और एक परिवार की तरह काम किया करते थे। मुझे याद है बाबा ने 'हमदर्द' में एक गेस्ट अपीयरेन्स दिया था, उन्होंने एक नाई की भूमिका निभाई थी। और जितना मुझे याद है 'मेहमान' में उन्होंने एक पुजारी का रोल निभाया था और उन पर एक गीत भी फ़िल्माया गया था "खोल दे पुजारी द्वार खोल दे"।

सुजॊय - अरे वाह! यह तो वाक़ई दुर्लभ जानकारी है! शिखा जी, हमनें कोशिशें तो बहुत की थी कि इस गीत का विडिओ कहीं से ढूंढ सकें, लेकिन अफ़सोस कि कहीं पर हम इसे खोज नहीं पाये। भविष्य में कभी अगर हमारे हाथ लगा तो आप के साथ भी और अपने श्रोता-पाठकों के साथ भी ज़रूर बाँटेंगे। लेकिन फ़िल्हाल यहाँ पर हम अपने पाठकों को फ़िल्म 'मेहमान' का पोस्टर ज़रूर दिखा सकते हैं जिसे आपके सौजन्य से ही हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं।

शिखा - पता है 'वरायटी पिक्चर्स' का जो लोगो था, उसे भी बाबा ने ही डिज़ाइन किया था, एक ढोलक के उपर विराजमान माँ सरस्वती, जिसके दोनों तरफ़ तानपुरे से सहारा दिया गया है। इस लोगो का एक रेप्लिका हमारे बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता था।

सुजॊय - 'लाजवाब' फ़िल्म के बारे में कुछ बताइए।

शिखा - फ़िल्म 'लाजवाब' का निर्माण रेस-कोर्स में हुई जीत के पैसे से हुआ था। 'लाजवाब' नाम से एक घोड़ा था जिस पर ममा ने बाज़ी रखी थी। यह घोड़ा अभिनेता मोतीलाल जी का था। और इस तरह से फ़िल्म का नाम भी 'लाजवाब' रख लिया गया।

सुजॊय - यह तो वाक़ई दिलचस्प बात है। 'हमदर्द' फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म थी अनिल दा के करीयर की। इस फ़िल्म से जुड़ी क्या यादें हैं आपकी?

शिखा - 'हमदर्द' की रचनात्मक रागमाला "ऋतु आये ऋतु जाये", जो बाबा की जीवनी का भी शीर्षक बना, हमारे घर में लगभग तीन हफ़्तों तक इसकी रिहर्सल चलती रही और तब जाकर बाबा आश्वस्त हुए रेकॊर्डिंग के लिए। वो बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे जब रेकॊर्डिंग के बाद गीत को बजाया जा रहा था। मन्ना दा के शब्दों में बाबा नृत्य करने लगे थे। मन्ना दा हम बच्चों को अंग्रेज़ी के शरारत भरे गीत सिखाया करते थे।

सुजॊय - जब 'हमदर्द' और मन्ना दा की बात चल ही पड़ी है तो क्यों ना यहाँ पर "ऋतु आये ऋतु जाये" का भी आनंद हम उठा ही लें!

शिखा - ज़रूर!

गीत - ऋतु आये ऋतु जाये (हमदर्द)


सुजॊय - फ़िल्म 'बड़ी बहू' के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

शिखा - 'बड़ी बहू' को बहुत सारे पुरस्कार मिले किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जो शायद शिमला या देहरादून में हुआ था। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बलराज साहनी जी को। मुझे याद है मैंने एक फ़ोटो देखा था जिसमें पूरी कास्ट अपने अपने पुरस्कारों के साथ खड़े हैं और ये पुरस्कार अशोक स्तंभ के सिंह की आकृति के थे।

सुजॊय - शिखा जी, क्या आप हमारे पाठकों को आशालता जी की कुछ तस्वीरें दिखा सकती हैं?

शिखा - अफ़सोस की बात है कि ममा की ज़्यादातर तस्वीरें उन्होंने किसी को दिया था जो पूना से आया हुआ था और जिसने वादा किया था उन्हें वापस करने का लेकिन नहीं किया। और बाद में वही तस्वीरें FTII में पायी गई जहाँ से मेरी बेटी ने एक "ख़रीदा" है।

सुजॊय - ओ हो हो! बहुत ही अफ़सोस की बात है! अच्छा शिखा जी, अभी हमने आशालता जी निर्मित जिन फ़िल्मों की चर्चा की, वो सभी अनिल दा के संगीत से सजे हुए थे। लेकिन 'बाज़ूबंद' फ़िल्म में संगीत मोहम्मद शफ़ी का था। ऐसा क्यों?

शिखा - १९५४ में बदक़िस्मती से मेरे ममा और बाबा एक दूसरे से अलग हो गये और अपनी अपनी राह पर चल निकले। और उनके व्यक्तिगत जीवन की यह जुदाई ज़ाहिर है प्रोफ़ेशनल लाइफ़ पर भी अपना असर चला गई। मोहम्मद शफ़ी को, जो पहले नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे, 'बाज़ूबंद' के लिए अनुबंधित कर लिया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने कुछ पारम्परिक ठुमरियों को फ़िल्मी रूप में पेश किया, और इनमें इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "बाज़ूबंद खुल खुल जाये" भी शामिल था।

सुजॊय - आगे बढ़ने से पहले हम 'बाज़ूबंद' के इस शीर्षक गीत को यहाँ पर सुनना चाहेंगे जिसे लोगों ने शायद एक अरसे से नहीं सुना होगा।

गीत - बाज़ूबंद खुल खुल जाये (बाज़ूबंद)


सुजॊय - और कोई फ़िल्म है जिसे आशालता जी ने प्रोड्युस किया था?

शिखा - उन्होंने 'मेहमान' फ़िल्म प्रोड्युस की थी जिसमें उन्होंने रामानंद सागर को बतौर निर्देशक अपना पहला ब्रेक दिया था। 'बाज़ूबंद' के बाद १९५५ में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' फ़िल्म का भी निर्माण किया जिसमें गोप ने मुख्य भूमिका निभाई और चित्रा नायिका थीं। नायक का नाम याद नहीं आ रहा।

सुजॊय - आशालता जी एक अभिनेत्री/निर्मात्री थीं और अनिल दा एक सुप्रसिद्ध संगीतकार। ऐसे वातावरण में क्या आप भाई बहनों में किसी को भी फ़िल्म लाइन में जाने की आकांक्षा नहीं हुई? आपने कभी किसी फ़िल्म में अभिनय या गायन नहीं किया?

शिखा- मोतीलाल जी के अनुसार ६० के दशक की तीन नई नायिकाएँ होनी थी - अंजु महेन्द्रु, ज़हीदा, और शिखा बिस्वास। मुझे बहुत सारे बड़े प्रोडक्शन हाउसेस से ऒफ़र मिले जिनमें 'पड़ोसन' शामिल थी, और 'कश्मीर की कली' भी।'मेरे मेहबूब' के लिए मुझे याद है, एच.एस. रवैल मेरे दाँत कैप करवाना चाहते थे, कुछ दिनों के लिये 'ड्रमर' नामक फ़िल्म की शूटिंग भी की, जो 'वेस्ट-साइड स्टोरी' पर आधारित थी और जिसका निर्माण 'फ़िल्मालय' कर रहे थे देब मुखर्जी को लौंच करने के लिए। 'फिर वही आवाज़' की बात मैं कर चुकी हूँ, और मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल कि मैंने 'धूप के साये में' नामक एक फ़िल्म के लिए "ना" कह दी जिसमें मेरे नायक होते संजीव कुमार। बाद में इस फ़िल्म के लिए हेमा मालिनी को ले लिया गया, लेकिन यह फ़िल्म नहीं बनीं या रिलीज़ नहीं हुई। फिर शम्मी कपूर जी एक फ़िल्म बनाना चाहते थे मुझे लेकर, जिसमें जय मुख्रजी नायक बनने वाले थे। इस तरह से और भी कई फ़िल्में थीं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन आख़िर में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से फ़िल्म लाइन से बाहर निकल आई। वैसे मेरे दो भाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े, एक बतौर संगीतकार और दूसरा भाई जिसने पहली बार मुंबई में डिजिटल रेकॊर्डिंग् स्टुडिओ की स्थापना की।

सुजॊय - आशालता जी को एक माँ के रूप में आपने कैसा पाया? उनसे जुड़ी कुछ बातें बताइए जिनकी यादें आज भी आपके दिल में ताज़ी हैं।

शिखा - मेरी माँ एक सशक्त महिला थीं, एक फ़ेमिनिस्ट जो अपने समय से काफ़ी आगे बढ़ के थीं। और इनके साथ साथ एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत, न केवल बाहरी रूप से दिखने में, बल्कि मन की भी बहुत सुंदर थीं। उनके जैसा इमानदार इंसान मैंने आज तक नहीं पाया। उनका ऐटिट्युड, सीधी बात कहने की उनकी अदा, बहुत ही डाउन-टू-अर्थ और हिपोक्रिसी से कोसों दूर, ये सब उनकी कुछ विशेषताएँ थीं। मुझे उनकी कपड़ों और गहनों में हमेशा दिलचस्पी रही; वो एक राजकुमारी की तरह दिखतीं थीं और जब किसी कमरे में प्रवेश करतीं तो वहाँ की मध्यमणि बन जातीं। हम सब उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उनके गुस्से और भड़क उठने की बातें मशहूर थीं इंडस्ट्री में, लेकिन किसी भी ग़लती या अन्याय का वो हमेशा पूरा पूरा न्याय करतीं। व्यस्तता की वजह से वो हमें ज़्यादा समय नहीं दे पातीं, लेकिन हमारी ज़रूरतों का पूरा ख़याल रखतीं। उनकी बड़प्पन का एक उदाहरण देना चाहूँगी। एक बार उनका कोई पूर्व ड्राइवर उनके पास गाड़ी ख़रीदने के लिए लोन माँगने आया। लेकिन क्योंकि वह एक शनिवार की शाम थी और अगले दिन भी बैंक बंद होते, इसलिए उन्होंने अपने सोने के कंगन हाथों से निकाल लिए और उस ड्राइवर को दे दिया। लोग शायद उन्हें कुछ भी कहें, लेकिन जिस तरह से बाहर और घर, दोनों को अकेले उन्होंने सम्भाला है, चार चार बच्चों को अकेले बड़ा किया है, उनके लिए हमारा सर इज़्ज़त से झुक जाता है। यही नहीं, ५० वर्ष की उम्र में तैराकी सीखी और लगभग उसी समय खाना बनाने के बहुत से तरीकें खोज निकाली, नये नये रेसिपीज़ इजाद किये, और फिर मेरी बेटियों के लिए भी एक केयरिंग नानी के रूप में अपने आप को साबित किया। बस उनकी जो एक कमज़ोरी थी, वह था जुआ। लेकिन कोई भी इंसान पर्फ़ेक्ट तो नहीं होता न! हर इंसान में बहुत सारी कमज़ोरियाँ और ख़ामियाँ होती हैं, और उनमें बस कुछ ही थे। उनकी एक और कमज़ोरी यह थी कि वो बहुत जल्द किसी की बातों पर यकीन कर लेती थीं, और क्योंकि वो एक दुखभरी कहानी की नरम पात्र थीं, बहुत से लोग इस बात पर उनका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते। उनकी जिस याद को मैं सब से ज़्यादा चेरिश करती हूँ, वह यह कि उन्होंने हम सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, यहाँ तक कि मेरे पिता के नाम और शोहरत से भी बहुत बहुत ज़्यादा। मुझे बहुत दुख होता था उन्हें अल्ज़ाइमर्स से तड़पते देख कर; उनकी ख़ूबसूरती और वैभव का वक़्त के साथ साथ गिरते जाना भी कम दुखदायी नहीं था। एक बार, जब उनकी आर्थिक अवस्था बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थीं, वो अपना सर्वस्व हार चुकी थीं, मैं दिल्ली से उनके यहाँ आई; उन्होने अपने रुमाल की गांठ खोल कर एक जीर्ण २० रुपय का नोट निकालकर अपनी कामवाली बाई को दिया और उससे मछली ख़रीद लाने को कहा क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे 'सी-फ़ूड' बहुत पसंद था। यकीन मानिए, उस वक़्त उनकी जो हालत थी, उसमें पैसा ही एक ऐसा चीज़ था जो वो सब से कम खर्च कर सकती थी। ये थी "आशालता"।

सुजॊय - शिखा जी, जिस तरह से आपने आशालता जी का परिचय आज करवाया है, इन सब बातों को सुन कर मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं और मुझे पूरा यकीन है कि जो छवि आज तक लोगों के दिल में आशालता जी की रही हैं, आज ये सब पढ़कर वो दुबारा अपने मन में मंथन करने पर मजबूर हो जाएँगे। और भी कुछ कहना चाहेंगी अपनी माँ के बारे में जो शायद आज तक आप कहना चाह रही होँगी लेकिन कभी मौका नहीं मिला?

शिखा - मैं जिस बात पर सब से ज़्यादा ज़ोर डालना चाहती हूँ, वह यह है कि मेरी जन्मदात्री माँ आशालता के बारे में लोगों को बहुत कम मालूमात है। और बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि वो अनिल बिस्वास की पत्नी थीं। लोग सोचते हैं कि मीना कपूर उनकी पत्नी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्हीं की वजह से मेरे ममा और बाबा अलग हो गये। ये सब बातें अब पुरानी हो चुकी हैं और इन सब का मुझ पर और कोई प्रभाव नहीं होता। जिस बात को मैं सब से ज़्यादा ज़रूरी मानती हूँ, वह यह कि लोग आशालता के बारे में नहीं जानते, उनके उल्लेखनीय जीवन की कहानी नहीं जानते, उनके बलिदान और शक्ति के बारे में नहीं जानते। मैं एक काल्पनिक उपन्यास लिख रही हूँ उनके जीवन के संघर्ष को आधार बनाकर और आशा करती हूँ कि यह उपन्यास किसी दिन पब्लिश होगा और लोगों को असली कहानी का पता चलेगा।

सुजॊय - ज़रूर शिखा जी, हम दिल से यह दुआ करते हैं कि आपको ईश्वर इस राह में आपका हमसफ़र बनें और आपको अपनी मंज़िल जल्द ही दिखाई दे।

शिखा - शुक्रिया! एक और बात जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह कि मेरे बाबा ने अपना सब से मीठा काम तभी किया है जब वो मेरी ममा के साथ थे। १९५४ में मेरी ममा से अलग होने के बाद उनका करीयर ग्राफ़ भी ढलान पर उतरने लगा था।

सुजॊय - वाक़ई सोचने वाली बात है। अच्छा शिखा जी, हमने आशालता जी के बारे में बहुत सारी बातें की। आपके दिल में उनकी क्या जगह है आपने हमें बताया, लेकिन अपने पिता और मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास जी के लिए आपके दिल में किस तरह की फ़ीलिंग्स है, उसके बारे में कुछ बताना चाहेंगी?

शिखा - एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में मेरे दिल में अपने पिता के लिए बहुत ज़्यादा सम्मान है। मुझे बहुत गर्व होता है उनकी सांगीतिक खोजों के बारे में जानकर और जिस तरह से उन्होंने एक पायनियरिंग् म्युज़िक डिरेक्टर की भूमिका निभाई और अगली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए रास्ता बनाया, यह वाक़ई गर्व करने लायक बात है। उनके कम्पोज़िशन्स बहुत ही मीठे और दिव्य हुआ करते और उनके गीतों को बार बार सुनने पर भी जैसे दिल नहीं भरता। हम दोनों में पिता-पुत्री का रिश्ता भी बहुत प्यारा था। उन्होंने मुझे जीवन के मूल्यों के बारे में सिखाया; ग़ज़ल, काव्य और साहित्य के प्रति जो मेरी रुचि है, वो सब उन्हीं की देन है। उनका अनुशासन, सब से जुनियर म्युज़िशियन या कोरस सिंगर के लिए उनका सम्मान, अड्डेबाज़ी में उनका लगाव, ये सब उनकी बातें मुझे प्रभावित करतीं। उनकी एक मित्र-मण्डली हुआ करती थी जो अगर रविवार को जमा होती और तरह तरह के विषयों पर चर्चा करते। एक बार ऐसी ही एक "राजकीय" गोष्ठी में जमा हुए थे पंडित नरेन्द्र शर्मा, फणी मजुमदार, के.ए. अब्बास, रामानंद सागर, प्रेम धवन, कोल कैविश, महेश कौल, सफ़्दार आह सितापुरी, पंडित चन्द्रशेखर और अभिनेता जयराज जैसे गण्य मान्य व्यक्ति। उन सब ने रामायण पर चर्चा की और शायद यहीं से रामानंद सागर जी के मन में उस महत्वाकांक्षी टीवी धारावाहिक को बनाने की प्रेरणा मिली होगी। और मेरा जो शब्दकोश है, यह भी उन्हीं के साथ स्क्रैबल खेलने की वजह से है। मेरे लिए उनकी जो फ़रमाइश होती, वह थी एक अच्छे हेड-मसाज की!!!

सुजॊय - बहुत ख़ूब!

शिखा - मैं इन दिनों दिल्ली में एक म्युज़िक सोसायटी चलाती हूँ उनकी और सभी बड़े संगेतकारों की स्मृति में, जिसका नाम है 'संगीत स्मृति'। हम गुज़रे ज़माने के फ़िल्म संगीत पर स्टेज शोज़ करते हैं।

सुजॊय - वाह! बहुत अच्छा लगा शिखा जी, अब बारी है एक गीत सुनवाने की। हम एक ऐसा गीत आप से सुनवाना चाहेंगे अपने पाठकों व श्रोताओं को, जो आप अपनी माँ आशालता जी और अपने पिता अनिल दादा को एक साथ डेडिकेट कर सकें। बताइए कौन से गीत से आप इन दोनों को याद करना चाहेंगी?

शिखा - ममा और बाबा को जोड़ने के लिए जो गीत मेरे दिमाग में आता है, वह है तलत महमूद साहब का गाया फ़िल्म 'दोराहा' का "मोहब्बत तर्क की मैंने"। यह ममा का फ़ेवरीट गीत था बाबा की कम्पोज़िशन में। और मेरी ममा ने ही मुझे पहली बार यही गीत सिखाया था।

सुजॊय - आइए सुनते हैं...

गीत - मोहब्बत तर्क की मैंने (दोराहा)


शिखा - साथ ही 'गजरे' का "घर यहाँ बसाने आये थे" भी उन्हीं से मैंने सीखा था। इस गीत की धुन "सीने में सुलगते हैं अरमान" गीत की धुन से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसका पता है। क्या इस गीत को भी आप सुनवा सकते हैं?

सुजॊय - ज़रूर! बल्कि हम दोनों गीतों को सुनना व सुनवाना चाहेंगे एक के बाद एक...

गीत - सीने में सुलगते अरमान (तराना)


गीत - घर यहाँ बसाने आये (गजरे)


सुजॊय - शिखा जी, किन शब्दों में मैं आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। जिन लोगों को आशालता जी के बारे में मालूमात नहीं थी या ग़लत धारणा थी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस साक्षात्कार के माध्यम से उनकी असली छवि को हमने यहाँ आज प्रस्तुत किया है आपके सहयोग से। मैं अपनी तरफ़ से, अपने तमाम पाठकों की तरफ़ से और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, और भविष्य में फिर से आप से बातचीत करने की उम्मीद रखता हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद!

शिखा- बहुत बहुत धन्यवाद! मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई अपनी माँ के बारे में बताते हुए।

अनुराग शर्मा की कहानी "जाके कभी न परी बिवाई"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने नीरज बसलियाल की कहानी "फेरी वाला" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी "जाके कभी न परी बिवाई", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी ने। कहानी "जाके कभी न परी बिवाई" का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 43 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

कहानी कहानी होती है, उसमें लेखक की आत्मकथा ढूँढना ज्यादती है।
~ अनुराग शर्मा

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#121st Story, jake kabhi na pari bivai: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/4. Voice: Anurag Sharma

Thursday, March 3, 2011

मुकाबला हमसे करोगे तो तुम हार जाओगे...देखिये चुनौती का एक रंग ये भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 605/2010/305

स्ट्रेलिया, इंगलैण्ड, वेस्ट इंडीज़, पाकिस्तान, भारत, न्युज़ीलैण्ड, श्रीलंका और ईस्ट-अफ़्रीका; इन आठ देशों को लेकर १९७५ में पहला विश्वकप क्रिकेट आयोजित हुआ था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और फिर एक बार विश्वकप क्रिकेट की कुछ बातें लेकर हम हाज़िर हैं इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'खेल खेल में' में। पहले के तीन विश्वकप इंगलैण्ड में आयोजित की गई थी। १९८३ में भारत के विश्वकप जीतने के बाद १९८७ का विश्वकप आयोजित करने का अधिकार भारत ने प्राप्त कर लिया। इस बारे में विस्तार से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के उस वक़्त के प्रेसिडेण्ट एन.के.पी. साल्वे ने अपनी किताब 'The Story of the Reliance Cup' में लिखा है। साल्वे साहब ने उस किताब में लिखा है कि १९८३ में लॊर्ड्स के उस ऐतिहासिक विश्वकप फ़ाइनल के लिए उन्हें दो टिकट दिए गये थे। और जब भारत ने फ़ाइनल के लिए क्वालिफ़ाइ कर लिया तो उन्होंने MCC से दो और टिकटों के लिए आग्रह किया भारत से आये उनके दो दोस्तों के लिए। MCC ने उनकी माँग ठुकरा दी। यह बात साल्वे साहब को चुभ गई और वो जी जान से जुट गये अगला विश्वकप भारत में आयोजित करवाने के लिए। उनकी मेहनत रंग लायी और १९८७ मे भारत और पाकिस्तान ने युग्म रूप से इस प्रतियोगिता को आयोजित किया और इस तरह से विश्वकप क्रिकेट आयोजित करने वाले इंगलैण्ड के आधिपत्य को ख़त्म किया। और इसके बाद दूसरे देशों को भी मौका मिला मेज़बानी का। क्रिकेट विश्वकप अपने आप में एक बहुत बड़ा एवेण्ट है, ख़ुद ICC के वेबसाइट पर प्रकाशित शब्दों में "the Cricket World Cup is the showpiece event of the cricket calendar."

और अब आज के गीत की बारी। कल के गीत में ज़रा सा ओवर-कॊन्फ़िडेन्स था, और आज के गीत में तो ओवर-कॊन्फ़िडेन्स की सारी हदें ही पार कर दी हैं नायिका ने। "हम से मुक़ाबला करोगे हाये, हम से मुक़ाबला करोगे तो, तुम हार जाओगे, हम जीत जाएँगे..."। लता मंगेशकर और सुरेश वाडकर की युगल आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'बद और बदनाम' का गीत। यह सन् १९८४ में निर्मित फ़िल्म है जिसमें संजीव कुमार, शत्रुघ्न सिंहा, अनीता राज, परवीन बाबी ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई। फ़ीरोज़ शिनोय निर्देशित इस फ़िल्म का निर्माण किया था के. शोरे ने; फ़िल्म में संगीत दिया लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने और गीत लिखे आनंद बक्शी नें। आज का यह गीत फ़िल्माया गया है परवीन बाबी और संजीव कुमार पर एक पार्टी में। ८० के दशक के मध्य भाग तक आते आते फ़िल्म संगीत एक बुरे वक़्त में प्रवेश कर चुका था। फ़िल्मों की कहानियाँ कुछ ऐसी करवट ले चुकी थी कि गीतकार और संगीतकारों के लिए अच्छा स्तरीय काम दिखा पाना ज़रा मुश्किल सा हो रहा था। इसके बावजूद समय समय पर कुछ यादगार गानें भी आते गये। और जब फ़िल्मकार ने चाहा कि लता जी से गीत गवाया जाये, तो फिर कहानी या सिचुएशन जैसा भी हो, गाना उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाया जाता था क्योंकि इंडस्ट्री में सब को यह बात मालूम थी कि लता जी ऐसा वैसा गीत कभी नहीं गातीं। इसलिए उस दौर की फ़िल्मों के बाक़ी गीत चाहे जैसा भी बनें, लता जी वाले गानें सुनने लायक ज़रूर होते थे, और आज का प्रस्तुत गीत भी कोई व्यतिक्रम नहीं है। और उस पर सुर साधक सुरेश वाडकर की आवाज़। पता नहीं क्यों, मुझे व्यक्तिगत रूप से हमेशा ऐसा लगता है कि सुरेश वाडकर ग़लत समय पर इंडस्ट्री में आये। फ़िल्मी गीतों का स्तर इतना गिर चुका था कि उनके स्तर के गानें ही बनने बंद हो गये, और वो एक बहुत ही अंडर-रेटेड गायक बन कर रह गये। तो आइए लता जी और सुरेश जी की आवाज़ों में सुनते हैं फ़िल्म 'बद और बदनाम' का यह गीत, और २०११ क्रिकेट विश्वकप के खिलाड़ियों से ओवर-कॊन्फ़िडेण्ट ना होने की सलाह देते हैं :-)



क्या आप जानते हैं...
कि ८० के दशक में लता मंगेशकर और सुरेश वाडकर की जोड़ी से सब से ज़्यादा युगल गीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने गवाये, जिनमें 'क्रोधी', 'प्रेम रोग', 'प्यासा सावन', 'बद और बदनाम', 'सिंदूर', 'नाचे मयूरी', 'सुर संगम', 'कभी अजनबी थे' जैसी फ़िल्में शामिल हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आसान है.

सवाल १ - किस अभिनेता निर्माता निर्देशक की आवाज़ है इस क्लिप्पिंग में - १ अंक
सवाल २ - गीत में उदित नारायण ने किस नवोदित अभिनेता (उन दिनों के) का प्लेबैक किया था - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
ये मुकाबला तो अवध जी सही कहते हैं एक दम आखिरी दौर तक जाएगा....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 2, 2011

मुकाबला हमसे न करो....कभी कभी खिलाड़ी अपने जोश में इस तरह का दावा भी कर बैठते हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 604/2010/304

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। तो कहिए दोस्तों, कैसा चल रहा है आपका क्रिकेट विश्वकप दर्शन? आपको क्या लगता है कौन है फ़ेवरीट इस बार? क्या भारत जीत पायेगा २०११ क्रिकेट विश्वकप? किन खिलाड़ियों से है ज़्यादा उम्मीदें? ये सब सवाल हम सब इन दिनों एक दूसरे से पूछ भी रहे हैं और ख़ुद भी अंदाज़ा लगाने की कोशिशें रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त सामने आयेगी २ अप्रैल की रात जब विश्वकप पर किसी एक देश का आधिपत्य हो जायेगा। पर जैसा कि पहली कड़ी में ही हमने कहा था, जीत ज़रूरी है, लेकिन उससे भी जो बड़ी बात है, वह है पार्टिसिपेशन और स्पोर्ट्समैन-स्पिरिट। इसी बात पर आइए आज एक बार फिर कुछ रोचक तथ्य विश्वकप क्रिकेट से संबंधित हो जाए!

• पहला विश्वकप मैच जो जनता के असभ्य व्यवहार की वजह से बीच में ही रोक देना पड़ा था, वह था १९९६ में कलकत्ते का भारत-श्रीलंका सेमी-फ़ाइनल मैच।
• १९९६ में श्रीलंका पहली टीम थी जिसने बाद में बैटिंग कर विश्वकप फ़ाइनल मैच जीता।
• २००३ विश्वकप में पाकिस्तान के शोएब अख़्तर ने क्रिकेट इतिहास में पहली बार १०० माइल प्रति घण्टे की रफ़्तार से गेंद डाली इंगलैण्ड के निक नाइट के ख़िलाफ़।
• २००३ विश्वकप में कनाडा के जॊन डेविसन ने ६७ गेंदों में शतक लगाई वेस्ट इंडीज़ के ख़िलाफ़, जो विश्वकप इतिहास का 'फ़ास्टेस्ट' शतक था।
• सचिन तेन्दुलकर विश्वकप में कुल आठ बार 'मैन ऒफ़ दि मैच' बनें; उनके बाद विवियन रिचार्ड्स पाँच बार, ब्रायन लारा चार बार और गॊर्डन ग्रीनिज तीन बार इस ख़िताब को जीता।
• २००२/२००३ विश्वकप में केवल १७ वर्ष और ७ दिन की उम्र में खेलने वाले बंगलादेश के तल्हा ज़ुबैर विश्वकप क्रिकेट इतिहास के सब से कम उम्र के खिलाड़ी हुए।
• १९९५/१९९६ में नेदरलैण्ड्स के एन.ई. क्लार्क विश्वकप के इतिहास के सब से प्रवीण खिलाड़ी थे, उस वक़्त उनकी आयु थी ४७ वर्ष और २५७ दिन।

इस 'खेल खेल में' शृंखला की कल की कड़ी में आपने सुना था "आ देखें ज़रा, किसमें कितना है हम", यानी कि चैलेंज से लवरेज़ एक जोशिला गीत। किसी को चैलेंज करने में कोई बुराई नहीं जब तक इंसान में आत्मविश्वास है, साहस है, कॊन्फ़िडेन्स है। लेकिन जब कॊन्फ़िडेन्स ओवर-कॊन्फ़िडेन्स में बदल जाता है, और साहस दुस्साहस में, तो ज़रा मुश्किल वाली बात हो सकती है, मंज़िल करीब आते आते दूर ही रह जाती है। आज हम जिस गीत को सुनवाने के लिए ले आये हैं, उससे भी ओवर-कॊन्फ़िडेन्स की थोड़ी सी बू जैसी आ रही है। १९६९ की फ़िल्म 'प्रिंस' का यह गीत है "मुक़ाबला हमसे ना करो, मुक़ाबला हमसे ना करो, हम तुम्हे अपने रंग में रंग डालेंगे एक ही पल में"। पर्दे पर तीन ज़बरदस्त डान्सर्स - शम्मी कपूर, वैजयंतीमाला और हेलेन, और उनके प्लेबैक के लिए तीन लेजेंडरी आवाज़ें - मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और आशा भोसले। शंकर जयकिशन का धमाकेदार संगीत और सिचुएशन के मुताबिक पुर-असर अल्फ़ाज़ हसरत जयपुरी साहब के। कुल मिलाकर प्रतियोगितामूलक गीतों के जौनर का एक मीलस्तंभ गीत। तो आइए २०११ विश्वकप क्रिकेट के उत्साह और जोश को थोड़ा सा और बढ़ावा देते हैं इस जोशीले नग़मे के ज़रिए।



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर और आशा भोसले के किसी तीसरे गायक के साथ गाये गीतों की फ़ेहरिस्त में आख़िरी गाना था फ़िल्म 'आइना' का शीर्षक गीत "आइना है मेरा चेहरा" जिसे मंगेशकर बहनों ने सुरेश वाडकर के साथ मिलकर गाया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 05/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक आवाज़ है लता जी की.

सवाल १ - फिल्म के निर्देशक कौन है - ३ अंक
सवाल २ - सह गायक कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्या बात है तीन नाम लगभग एक मिनट से भी पहले बता दिए गए, दोनों योद्धाओं के द्वारा....कमाल है...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, March 1, 2011

आ देखे जरा, किस में कितना है दम....अब जब मैदान में आ ही गए हैं तो हो जाए मुकाबला



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 603/2010/303

'खेल खेल में' - इन दिनों विश्वकप क्रिकेट के नाम हम कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल इसी लघु शृंखला के ज़रिए। आज है इस शृंखला की तीसरी कड़ी। कल की कड़ी में हमने विश्वकप क्रिकेट से जुड़े कुछ रोचक तथ्य आपको दिए, आइए आज उसी को आगे बढ़ाया जाये!
• विश्वकप के इतिहास में दो देशों के लिए खेलने वाले एकमात्र खिलाड़ी हैं केप्लर वेसेल्स। वेसेल्स ने १९८३ का विश्वकप ऒस्ट्रेलिया के लिए खेला, और १९९२ में साउथ अफ़्रीका के कैप्टन बनें।
• इंगलैण्ड तीन बार विश्वकप फ़ाइनल तक पहूँचे (१९७९, १९८७, १९९२), लेकिन कभी जीत नहीं सके।
• वेस्ट इंडीज़ और ऒस्ट्रेलिया दो ऐसे देश हैं जिन्होंने विश्वकप पर एकाधिक बार अधिकार जमाया है।
• लंदन वह शहर है जिसने सब से ज़्यादा विश्वकप फ़ाइनल होस्ट किये है (४ बार)।
• तीसरे अम्पायर का कॊन्सेप्ट १९९६ के विश्वकप से लागू हुआ था।
• पहले एक-दिवसीय मैच ६० ओवर्स के होते थे। १९८७ के विश्वकप में इसे ६० से ५० ओवर का कर दिया गया और उस साल विश्वकप भारत और पाकिस्तान ने होस्ट किया था।
• "पिंच-हिटर" उस बल्लेबाज़ को कहा जाता है जिसे मैदान पर उतारा जाता है पहली ही गेंद से शॊट्स लगाने के लिए। विश्व का पहला पिंच-हिटर न्युज़ीलैण्ड के मार्क ग्रेटबैच हैं जिन्होंने १९९२ में कुल ७ मैचों में ३५६ गेंदों में ३१३ रन बनाये, जिसमें ३२ चौके और १३ छक्के शामिल थे।

दोस्तों, २०११ का विश्वकप ज़ोर पकड़ने लगा है और लोगों में उत्साह बढ़ता जा रहा है। सिर्फ़ घरों तक ही अब ये मैचेस सीमित नहीं है, बल्कि दफ़्तरों, स्कूल-कालेजों, सार्वजनिक जगहों में भी आजकल इसी के चर्चे हैं। टीवी के दुकानों के सामने भीड़ जमने लगी हैं, और ग़रीब से लेकर अमीर तक, सभी इस क्रिकेट-बुखार की चपेट में हैं। आज के और अगले दो अंकों में हम जिन गीतों को बजाने जा रहे हैं, उनमें है प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के भाव। पिछले दो गीतों में हमने प्रतिस्पर्धा से उपर उठकर अपने आप पर जीत हासिल करने और हार-जीत को सहजता से लेने की बात कही थी, लेकिन अब अगले तीन गीतों में थोड़ा सा जोश है, कम्पीटिशन है, थोड़ी सी मस्ती भी है, थोड़ा शरारत भी। लेकिन जो भी है, है तो एक हेल्दी-कम्पीटिशन ही। फ़िल्म 'रॊकी' में आशा भोसले, किशोर कुमार, और राहुल देव बर्मन का गाया एक बड़ा ही ज़बरदस्त गीत था "आ देखें ज़रा, किसमें कितना है दम, जम के रखना क़दम, मेरे साथिया"। फ़िल्म में यह गीत एक प्रतियोगितामूलक गीत था और दो टीमें थीं संजय दत्त-रीना रॊय तथा शक्ति कपूर-टीना मुनिम की। एक बार फिर बक्शी साहब के बोल और पंचम दा का संगीत। फ़िल्म में इस प्रतियोगिता के जज के रूप में शम्मी कपूर नज़र आये जिन्होंने अपना ही, यानी शम्मी कपूर का ही किरदार निभाया। तो आइए, इस गीत के बोलों का ही सहारा लेकर हम २०११ विश्वकप क्रिकेट के सभी खिलाड़ियों से यही दोहराएँ कि "जम के रखना क़दम, all the best!"



क्या आप जानते हैं...
कि १९८१ की फ़िल्म 'रॊकी' सुनिल दत्त निर्मित व निर्देशित फ़िल्म थी, जिसका निर्माण उन्होंने अपने बेटे संजय दत्त को लौंच करने के लिए किया था। फ़िल्म के रिलीज़ के चंद हफ़्ते पहले सुनिल दत्त की पत्नी और संजय की माँ नरगिस जी का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया और वो अपने पुत्र की इस फ़िल्म में कामयाबी देख नहीं पायीं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -तीन आवाजों में है ये गीत.

सवाल १ - किन तीन कलाकारों पर फिल्माया गया है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी ने एक अंक की बढ़त ली है, कल अंजाना जी और विजय जी का टाई हुआ, लगता है एक अंक वाला सवाल किसी को नहीं चाहिए :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, February 28, 2011

जिंदगी है खेल कोई पास कोई फेल....भई कोई जीतेगा तो किसी की हार भी निश्चित है, जीवन दर्शन ही तो है ये खेल भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 602/2010/302

क्रिकेट-फ़ीवर से आक्रांत सभी दोस्तों को हमारा नमस्कार, और बहुत स्वागत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। २०११ विश्वकप क्रिकेट जारी है इन दिनों और हम भी इस महफ़िल में बातें कर रहे हैं क्रिकेट विश्वकप की लघु शृंखला 'खेल खेल में' के माध्यम से। आइए आज विश्वकप से जुड़े कुछ रोचक तथ्य आपको बताएँ।

• १९९९ विश्वकप में बंगलादेश ने एक मैच में पाकिस्तान को हराकर पूरे विश्व को चकित कर दिया था। ५ मार्च को नॊर्थम्प्टन में यह मैच खेला गया था। इसके अगले संस्करण में बांग्लादेश के भारत को पछाड कर हमारे कप के अभियान को मिट्टी में मिला दिया था, विश्व कप में अक्सर छोटी टीमें इस तरह के चमत्कार कर रोमाच बनाये रखती है, और यहीं से ये छोटी टीमें ताकतवर टीमों में तब्दील होती रहीं है, गौरतलब है कि १९८३ में भारत की गिनती भी एक कमजोर
टीम में होती थी, मगर भारत का करिश्मा एक मैच तक नहीं वरन विश्व कप जीतने तक जारी रहा.
• विश्वकप में अब तक सर्वश्रेष्ठ बोलिंग रेकॊर्ड रहा है वेस्ट-ईंडीज़ के विन्स्टन डेविस का, जिन्होंने १९८३ के विश्वकप में ऒस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ ५१ रन देकर ७ विकेट लिए थे।
• ऒस्ट्रेलिया के डॆविड बून एक ऐसे विकेट-कीपर हैं जिन्होंने पहली और आख़िरी बार १९९२ के विश्वकप में भारत के ख़िलाफ़ एक मैच में विकेट-कीपिंग की थी।
• लीजेण्डरी प्लेयर सर गारफ़ील्ड सोबर्स १९७५ के विश्वकप में चोट की वजह से नहीं खेल पाये और उनकी जगह ली रोहन कन्हाई ने। ज़रूरी बात यह कि सोबर्स ने अपनी पूरी क्रिकेट करीयर में केवल एक एक-दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच खेला है सन् १९७३ में।
• जिम्बावे ने अपनी विश्वकप का सफ़र १९८३ में शुरु किया था और पहले ही मैच में ऒस्ट्रेलिया को हराकर दुनिया को चकित कर दिया था। लेकिन उसके बाद १९९२ तक ज़िमबाबवे को कोई जीत नसीब नहीं हुई। १९९२ में उसने इंगलैण्ड पर विजय प्राप्त की।

'खेल खेल में' शृंखला की दूसरी कड़ी के लिए आज हमने जो गीत चुना है, उसमें भी जीवन का एक दर्शन छुपा हुआ है। दोस्तों, अक्सर हम यह देखते हैं कि कोई बहुत अच्छा खिलाड़ी भी कभी कभी मात खा जाता है। सचिन भी शून्य पर आउट होता है कभी कभी। हर खिलाड़ी के लिए हर दिन एक समान नहीं होता। और यही बात लागू होती है हमारी ज़िंदगी के खेल के लिए भी। सुख-दुख, हार-जीत, उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, ये सब जोड़ी में ही ज़िंदगी में आते हैं, और एक के बिना दूसरे का भी मज़ा नहीं आता। ज़िंदगी का यह खेल बड़ा निराला है, इसमें कभी कोई खिलाड़ी है तो कभी वही अनाड़ी भी सिद्ध होता है। लेकिन हार से कभी हार न मानें, बल्कि उससे सबक लेकर दोबारा प्रयास कर उस हार को जीत में बदलें, शायद यही संदेश इन सब बातों से हम निकाल सकते हैं। फ़िल्म 'सीता और गीता' का हास्य रंग में ढला आशा भोसले और मन्ना डे का गाया गीत "ज़िंदगी है खेल, कोई पास कोई फ़ेल" एक लोकप्रिय गीत रहा है, और अक्सर 'विविध भारती' के जीवन दर्शन पर आधारित कार्यक्रम 'त्रिवेणी' का भी हिस्सा बनता है। और आज से यह गीत हिस्सा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का भी। राहुल देव बर्मन का संगीत, आनंद बक्शी का गीत, १९७२ की यह फ़िल्म, और यह गीत फ़िल्माया गया है धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी पर। आइए इस चुलबुले लेकिन दार्शनिक गीत का हम सब मिल कर आनंद लें और साथ ही विश्वकप खेलने वाले सभी खिलाड़ियों को एक बार फिर 'best of luck' कहें।



क्या आप जानते हैं...
कि रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'सीता और गीता' में हेमा मालिनी के डबल रोल वाले किरदारों से ही प्रभावित होकर दक्षिण के निर्माता पूर्नचन्द्रराव अतलुरी ने १९८९ में 'चालबाज़' फ़िल्म बनाई जिसमें ये किरदार निभाये श्रीदेवी ने।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -खुद संगीतकार की भी आवाज़ है गीत में.

सवाल १ - गीत में एक कलाकार खुद अपना ही किरदार निभाते हुए नज़र आते हैं जिनकी अतिथि भूमिका है इस फिल्म के इस खास गीत में, कौन हैं ये - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर मुकाबला बराबरी पर है देखते हैं कौन पहले बढ़त बनाता है....शरद जी अब जब आपको तगड़े खिलाड़ी मिले हैं तो आप पीछे हट रहे हैं...ये तो गलत है सर

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, February 27, 2011

हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें....विश्व कप के लिए लड़ रहे सभी प्रतिभागियों के नाम आवाज़ का पैगाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 601/2010/301

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले बृहस्पतिवार १७ फ़रवरी को २०११ विश्वकप क्रिकेट का ढाका में भव्य शुभारंभ हुआ और इन दिनों 'क्रिकेट फ़ीवर' से केवल हमारा देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ग्रस्त है। दक्षिण एशिया और तमाम कॊमन-वेल्थ देशों में क्रिकेट सब से लोकप्रिय खेल है और हमारे देश में तो साहब आलम कुछ ऐसा है कि फ़िल्मी नायक नायिकाओं से भी ज़्यादा लोकप्रिय हैं क्रिकेट के खिलाड़ी। ऐसे मे ज़ाहिर सी बात है कि क्रिकेट विश्वकप को लेकर किस तरह का रोमांच हावी रहता होगा हम सब पर। और जब यह विश्वकप हमारे देश में ही आयोजित हो रही हो, ऐसे में तो बात कुछ और ही ख़ास हो जाती है। इण्डियन पब्लिक की इसी दीवानगी के मद्दे नज़र हाल ही में 'पटियाला हाउस' फ़िल्म रिलीज़ हुई है जिसकी कहानी भी एक क्रिकेटर के इर्द गिर्द है। ऐसे में इस क्रिकेट-बुख़ार की गरमाहट 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को ना लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! विश्वकप क्रिकेट २०११ में भाग लेने वाले सभी खिलाड़ियों को शुभकामना हेतु आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम शुरु कर रहे हैं हमारी ख़ास लघु शृंखला 'खेल खेल में'। इस शृंखला के केन्द्र में रहेगा क्रिकेट, और विश्वकप से जुड़ी तमाम जानकारियाँ हम आपको देंगे अगले दस अंकों में, साथ ही साथ खिलाड़ियों और खेल-प्रेमियों के हौसले को बढ़ाने के लिए हम पेश करेंगे दस लाजावाब गानें। २०११ आइ.सी.सी क्रिकेट वर्ल्ड कप दसवाँ विश्वकप है और इस विश्वकप की मेज़बानी कर रहे है भारत, श्रीलंका और बांगलादेश। बांगलादेश में आयोजित होने वाला यह पहला विश्वकप है। मेज़बानी के लिए पाकिस्तान का नाम भी पहले पहले शामिल था, लेकिन २००९ में श्रीलंका क्रिकेट टीम पर लाहौर में हुए हमले के मद्देनज़र आइ.सी.सी ने पाकिस्तान को मेज़बानी से दूर ही रखा। यहाँ तक कि शुरु शुरु में ऒर्गनाइज़िंग कमिटी का मुख्यालय लाहौर में हुआ करता था, लेकिन बाद में उसे भी मुंबई स्थानांतरित कर लिया गया। पाकिस्तान में १४ मैच खेले जाने थे जिनमें एक सेमी-फ़ाइनल भी शामिल था। इन १४ में से ८ भारत, ४ श्रीलंका और २ बांगलादेश के पास चले गये।

दोस्तों, जब भी दो देशों के बीच में किसी खेल या प्रतियोगिता की बात आती है, तो राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न होती है। ज़रा सोचिए कि भारत के साथ किसी अन्य देश का मुकाबला चल रहा है, तो कैसा महसूस होता है आपको? देश-प्रेम की भावना जगती है न? बिल्कुल जगती है। और हम अपने देश को सपोर्ट भी करते हैं दिलो जान से और क्यों न करें, बल्कि करना ही चाहिए। लेकिन हमारी जो यह शृंखला है न, इसमें हम हार-जीत और केवल अपने देश को सपोर्ट करने की भावनाओं से उपर उठकर एक सच्चे खिलाड़ी की भावना, यानी कि 'ट्रू स्पोर्ट्स्मैनस्पिरिट' दर्शाते हुए सभी प्रतिभागी देशों के सभी खिलाड़ियों को शुभकामनाएँ देंगे और साथ ही स्पोर्ट्स्मैनशिप की विशेषताओं के बारे में चर्चा भी करेंगे, जीवन में खेलकूद के महत्व पर भी रोशनी डाली जाएगी। आज जिस गीत से इस शृंखला का आग़ाज़ हो रहा है, उसमें कुछ इसी तरह का दर्शन छुपा हुआ है। इस भजन में ईश्वर से यही प्रार्थना की जा रही है कि हम पहले अपने पर जीत हासिल करें, फिर औरों पर जीत के बारे में सोचें। सच्ची जीत होती है मानव मन को जीतना। किसी को चोट पहुँचाकर अर्जित जीत में वह आनंद नहीं जो आनंद किसी के दिल को जीत कर मिलती है। "हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें, दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें", वाणी जयराम और साथियों की आवाज़ों में यह है गुलज़ार साहब की लिखी प्रार्थना जिसका संगीत तैयार किया है वसंत देसाई ने १९७१ की फ़िल्म 'गुड्डी' के लिए। इस फ़िल्म का "बोले रे पपीहरा" आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २२७-वीं कड़ी में सुना था। दोस्तों, "हमको मन की शक्ति देना" एक ऐसी प्रार्थना है जिसे आज भी स्कूलों में बच्चों से गवाया जाता है, और शायद यह सब से महत्वपूर्ण बच्चों द्वारा प्रस्तुत फ़िल्मी प्रार्थना है। वसंत देसाई साहब ने ही इससे पहले 'दो आँखें बारह हाथ' के लिए "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" की रचना की थी और 'गुड्डी' में उन्होने अपने ही रेकॊर्ड को तोड़ा। देखिए दोस्तों, देसाई साहब ने अपने पर ही विजय प्राप्त की न? असली जीत तो अपने रेकॊर्ड को आप तोड़ने में ही है। हर मनुष्य को चाहिए कि वो अपने ही स्तर को उपर, और उपर बढ़ाता चले। ख़ुद से ही प्रतियोगिता करें, ना कि औरों से। और आज के इस अंक का भाव भी कुछ कुछ इसी तरह का है। और शायद 'पटियाला हाउस' फ़िल्म से भी कुछ कुछ इसी तरह का संदेश हमें ग्रहण करना चाहिए। २०११ क्रिकेट विश्वकप के सभी प्रतिभागी खिलाड़ियों के लिए यही है हमारी प्रार्थना...

हम को मन की शक्ति देना मन विजय करें,
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें।

भेदभाव अपने दिल से साफ़ कर सके,
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके,
झूठ से बचे रहें सच का दम भरें,
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें।

मुश्किलें पड़े तो हम पे इतना कर्म कर,
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म कर,
ख़ुद पे हौसला रहे बदी से ना डरें,
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें।



क्या आप जानते हैं...
कि वसंत देसाई ने १९३२ की फ़िल्म 'अयोध्या का राजा' में पहली बार गीत गाया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत में एक आवाज़ है आशा जी की.

सवाल १ - पुरुष गायक बताएं - २ अंक
सवाल २ - किस अभिनेता- अभिनेत्री पर है ये गीत - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अंजाना जी और अमित जी ने शानदार शुरूआत की है, अक्सर अंजाना जी कहीं कोई छोटी सी चूक कर जाते हैं और बाज़ी हार जाते हैं, इस बार संभलके खेलिएगा, शुभकामनाओं के लिए धन्येवाद, हाँ अमित जी आप के नाम ४ श्रृंखलाएं हैं...विजय जी और अनीता जी भी हैं मैदान में इस बार...मज़ा आएगा...वैसे आप सभी धुरंधरों के लिए अब संगीतमय कुश्ती का एक और खेल मौजूद है, अब से हमारी सुर संगम शृंखला में भी आप पूछे गए सवाल का सही जवाब देकर विजयी बन सकते हैं, क्लिक कीजिए यहाँ

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
विशेष सहयोग: सुमित चक्रवर्ती


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - परवीन सुल्ताना की आवाज़ का महकता जादू



सुर संगम - 09 - बेगम परवीन सुल्ताना

अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं।


सुर-संगम की इस लुभावनी सुबह में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। हिंद-युग्म् के इस मंच से जुड़ कर मैं अत्यंत भाग्यशाली बोध कर रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होंगे कि आज 'सुर-संगम' सुजॉय जी प्रस्तुत क्यों नही कर रहे। दर-असल अपने व्यस्त जीवन में समय के अभाव के कारण वे अब से सुर-संगम प्रस्तुत नहीं कर पाएँगे। परन्तु निराश न हों, वे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये इस मंच से जुड़े रहेंगे। ऐसे में उन्होंने और सजीव जी ने 'सुर-संगम' का उत्तरदायित्व मेरे कन्धों पर सौंपा है। आशा है कि मैं उनकी तथा आपकी आशाओं पर खरा उतर पाऊँगा। 'सुर संगम' के आज के इस अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसी शिल्पी को जिनका नाम आज के सर्वश्रेष्ठ भारतीय शास्त्रीय गायिकाओं में लिया जाता है। इन्हें पद्मश्री पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ सुर-साम्राज्ञी बेगम परवीन सुल्ताना की। आइए उनके बारे में और जानने से पहले सुनते हैं राग भैरवी पर आधारित, उन्हीं की आवाज़ व अन्दाज़ में यह भजन जिसके बोल हैं - "भवानी दयानी"।

भजन: भवानी दयानी - राग भैरवी


परवीन सुल्ताना का जन्म असम के नौगाँव शहर में हुआ और उनके माता-पिता का नाम मारूफ़ा तथा इक्रमुल मज़ीद था| उन्होंने सबसे पहले संगीत अपने दादाजी मोहम्मद नजीफ़ ख़ाँ साहब तथा पिता इक्रमुल से सीखना शुरू किया| पिता और दादाजी की छत्रछाया ने उनकी प्रतिभा को विकसित कर उन्हें १२ वर्ष कि अल्पायु में ही अपनी प्रथम प्रस्तुति देने के लिये परिपक्व बना दिया। उसके बाद वे कोलकाता में स्वर्गीय पंडित्‍ चिनमोय लाहिरी के पास संगीत सीखने गयीं तथा १९७३ से वे पटियाला घराने के उस्ताद दिलशाद ख़ाँ साहब की शागिर्द बन गयीं| उसके २ वर्ष पश्चात् वे उन्हीं के साथ परिणय सूत्र में बँध गयीं और उनकी एक पुत्री भी है| उस्ताद दिल्शाद ख़ाँ साहब की तालीम ने उनकी प्रतिभा की नीव को और भी सुदृढ़ किया, उनकी गायकी को नयी दिशा दी, जिससे उन्हें रागों और शास्त्रीय संगीत के अन्य तथ्यों में विशारद प्राप्त हुआ। जीवन में एक गुरू का स्थान क्या है यह वे भलि-भाँति जानती थीं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं। आइये अब सुनते हैं उनकी आवाज़ में एक प्रसिद्ध ठुमरी जो उन्होंने हिन्दी फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' में गाया था। ठुमरी के बोल हैं - "कौन गली गयो श्याम, बता दे सखी रि"|

ठुमरी: कौन गली गयो श्याम (पाकीज़ा)



सन् १९७२ में पद्मश्री पुरस्कार के अलावा कई अन्य गौरवपूर्ण पुरस्कार बेगम सुल्ताना को प्राप्त हुए - जिनमें 'क्लियोपैट्रा औफ़ म्युज़िक' (१९७०), 'गन्धर्व कालनिधी पुरस्कार' (१९८०), 'मिया तानसेन पुरस्कार' (१९८६) तथा 'संगीत सम्राज्ञी' (१९९४) शामिल हैं। केवल इतना ही नही, उन्होंने फ़िल्मों में भी कई प्रसिद्ध गीत गाए। १९८१ में आई फ़िल्म 'क़ुदरत' में उन्होंने '"हमें तुमसे प्यार कितना'" गाया जिसके लिये उन्हें 'फ़िल्म्फ़ेयर' पुरस्कार से नवाज़ा गया। पंचम दा अर्थात् श्री राहुल देव बर्मन ने जब यह गीत कम्पोज़ किया तभी से उनके मन में विचार था कि इसका एक वर्ज़न बेगम सुल्ताना से गवाया जाये क्योंकि वे स्वयं बेगम सुल्ताना के प्रशंसक थे। उन्होंने इसकी फ़र्माइश उस्ताद दिल्शाद खाँ साहब से की जिस पर बेगम सुल्ताना भी 'ना' नहीं कह सकीं। इस गीत को प्रथम आलाप से ले कर अंत तक बेगम सुल्ताना ने ऐसे अपने अन्दाज़ मे ढाला है, कि सुनने वाला मंत्र-मुग्ध हो जाता है। तो आइये पंचम दा के दिए स्वरों तथा परवीन सुल्ताना जी की तेजस्वी आवाज़ से सुसज्जित इस मधुर गीत का आनंद लेकर हम भी कुछ क्षणों के लिये मंत्र-मुग्ध हो जाएँ।

गीत: हमें तुमसे प्यार कितना (क़ुदरत)


और अब बारी सवाल-जवाब की। जी हाँ, आज से 'सुर-संगम' की हर कड़ी में हम आप से पूछने जा रहे हैं एक सवाल, जिसका आपको देना होगा जवाब तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति के टिप्पणी में। 'सुर-संगम' के ५०-वे अंक तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी तरफ़ से। तो ये रहा इस अंक का सवाल:

"यह एक साज़ है जिसका वेदों में शततंत्री वीणा के नाम से उल्लेख है। इसकी उत्पत्ति ईरान में मानी जाती है। इस साज़ को अर्धपद्मासन में बैठ कर बजाया जाता है। तो बताइए हम किस साज़ की बात कर रहे हैं?"

लीजिए, हम आ पहुँचे 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर, आशा है आपको हमारी यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ईमेल आइ.डी पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी के साथ, तब तक के लिए अपने नए मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, नमस्कार!

प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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