ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 281
"अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरु कहाँ ख़तम, ये मंज़िलें हैं कौन सी, ना तुम समझ सके ना हम"। "दुनिया बनानेवाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई?" "जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ, जी चाहे जब हमको आवाज़ दो, हम हैं वहीं, हम थे जहाँ"। जीवन दर्शन और ज़िंदगी के फ़ल्सफ़ात लिए हुए इन जैसे अनेकों अमर गीतों को लिखने वाले बस एक ही गीतकार - शैलेन्द्र। वही शैलेन्द्र जो अपने ख़यालों और ज़िंदगी के तजुर्बात को अपने अमर गीतों का रूप देकर ज़माने भर के तरफ़ से माने गए। शैलेन्द्र एक ऐसे शायर, एक ऐसे कवि की हैसीयत रखते हैं जिनकी शायरी और गीतों के मज़बूत कंधों पर हिंदी फ़िल्म संगीत की इमारत आज तक खड़ी है। फ़िल्म जगत को १७ सालों में जो कालजयी गानें शैलेन्द्र साहब ने दिए हैं, वो इतने कम अरसे में शायद ही किसी और ने दिए हों। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है नई शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी", जिसके तहत आप शैलेन्द्र के लिखे ऐसे दस गीत सुनेंगे जिन्हे शैलेन्द्र जी ने आर. के. बैनर के बाहर बनी फ़िल्मों के लिए लिखे हैं। तो आइए शुरु करते हैं यह नई शृंखला। तो फिर आज कौन सा गीत आपको सुनवाया जाए। हमें ध्यान में आया कि अभी दो दिन पहले, यानी कि ३ दिसंबर को 'विश्व विकलांगता दिवस' के रूप में पालित किया गया। हमारे देश में लाखों ऐसे बच्चे हैं जो किसी ना किसी तरह से विकलांग हैं। अक्सर ऐसा होता है कि इन बच्चों की तरफ़ देख कर हम सिर्फ़ अपनी सहानुभूति व्यक्त कर देते हैं। लेकिन इन्हे सहानुभूति की नहीं, बल्कि प्रोत्साहन की आवश्यकता है। आज विज्ञान और टेक्नोलोजी की मदद से अलग अलग तरह की विकलांगताओं पर विजय पाई गई है, और उचित प्रशीक्षण से ये बच्चे भी एक आम ज़िंदगी जीने में समर्थ हो सकते हैं। आइए आज इस विशेष दिन पर सुनते हैं शैलेन्द्र का लिखा फ़िल्म 'सीमा' की एक प्रार्थना "तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम, लौटा जो दिया तूने, चले जाएँगे जहाँ से हम"। मन्ना डे और बच्चों की आवाज़ों में इस गीत की तर्ज़ बनाई थी शंकर जयकिशन ने।
आर.के. कैम्प के बाहर शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी की टीम ने फ़िल्मकार अमीय चक्रबर्ती के साथ भी बहुत उत्कृष्ट काम किया है। अमीय साहब ने अपनी फ़िल्मों मे सामाजिक मुद्दों को अक्सर उजागर किया करते थे, लेकिन मनोरंजन के सारे साज़-ओ-सामान को बरकरार रखते हुए। उनकी १९५५ की फ़िल्म 'सीमा' हिंदी सिनेमा की एक यादगार फ़िल्म रही है। यह फ़िल्म नूतन और बलराज साहनी की यादगार अदाकारी के लिए भी याद किया जाता है। इस फ़िल्म के लिए नूतन को उस साल के सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया था। इस फ़िल्म के ज़यादातर गीत शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। आज का प्रस्तुत गीत राग दरबारी कनाड़ा पर आधारित है। शैलेन्द्र ने इस गीत में बस यही कहने की कोशिश की है कि एक बेचैन मन को भगवान की शरण ही शांति दिला सकती है। एक अंतरे में वो लिखते हैं कि "घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेक़रार, पंख हैं कोमल आँखें हैं धुंधली जाना है सागर पार, अब तू ही इसे समझा राह भूले थे कहाँ से हम"। अलंकारों की छटा देखिए इन पंक्तियों में, भाव तो यही है कि कच्चे उम्र में इंसान बिना सही पथ-प्रदर्शक के भटक जाता है, ऐसे में ईश्वर से निवेदन किया जा रहा है सही मार्ग दर्शन देने की। दूसरे अंतरे में शैलेन्द्र ने बड़ी दक्षता से फ़िल्म के शीर्षक का इस्तेमाल कर इस गीत को फ़िल्म का शीर्षक गीत बना दिया है। दोस्तों, क्योंकि हमने आज ज़िक्र की विकलांग बच्चों की, तो इस फ़िल्म में एक और गीत है जो मुझे याद आ रही है। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह गीत है "हमें भी दे दो सहारा कि बेसहारे हैं, फ़लक के गोद से टूटे हुए सितारे हैं"। हालाँकि इस गीत को शैलेन्द्र ने नहीं बल्कि हसरत जयपुरी ने लिखा था। इस गीत को हम आप तक फिर कभी पहुँचाएँगे, आज आइए सुनते हैं शैलेन्द्र के कलम से निकली हुई मशहूर प्रार्थना गीत "तू प्यार का सागर है"।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. जिस गायिका ने इसे गाया था उनके लिए ये गीत पहला फिल्म फेयर पुरस्कार लेकर आया था.
२. शैलेन्द्र ने इस गीत में जन्म जन्म के गहरे प्यार की दुहाई दी है.
३. एक अंतरा खत्म होता है इस शब्द पर -"उदासी".
पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी, उर्फ़ ओल्ड इस गोल्ड की शेरनी जी, २६ अंक हुए आपके, एक बार फिर बधाई. पाबला जी और आपकी टुनिंग कमाल की है, पराग जी एक सफल शृंखला के लिए आप बधाई के पात्र हैं
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.