Saturday, November 19, 2011

"बुझ गई है राह से छाँव" - डॉ. भूपेन हज़ारिका को 'आवाज़' की श्रद्धांजलि (भाग-२)



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 68

भाग ०१

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले हफ़्ते हमने श्रद्धांजलि अर्पित की स्वर्गीय डॉ. भूपेन हज़ारिका को। उनके जीवन सफ़र की कहानी बयान करते हुए हम आ पहुँचे थे सन् १९७४ में जब भूपेन दा नें अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म 'आरोप' में संगीत दिया था। आइए उनकी दास्तान को आगे बढ़ाया जाये आज के इस अंक में। दो अंकों वाली इस लघु शृंखला 'बुझ गई है राह से छाँव' की यह है दूसरी व अन्तिम कड़ी।

भूपेन हज़ारिका नें असमीया और बंगला में बहुत से ग़ैर फ़िल्मी गीत तो गाये ही, असमीया और हिन्दी फ़िल्मों में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। १९७५ की असमीया फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' के संगीत के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। आपको याद होगा उषा मंगेशकर पर केन्द्रित असमीया गीतों के 'शनिवार विशेषांक' में हमने इस फ़िल्म का एक गीत आपको सुनवाया था। १९७६ में भूपेन दा नें अरुणाचल प्रदेश सरकार द्वारा निर्मित हिन्दी फ़िल्म 'मेरा धरम मेरी माँ' को निर्देशित किया और इसमें संगीत देते हुए अरुणाचल के लोक-संगीत को फ़िल्मी धारा में ले आए। मैं माफ़ी चाहूंगा दोस्तों कि 'पुरवाई' शृंखला में हमने अरुणाचल के संगीत से सजी इस फ़िल्म का कोई भी सुनवा न सके। पर आज मैं आपके लिए इस दुर्लभ फ़िल्म का एक गीत ढूंढ लाया हूँ, आइए सुना जाए....

गीत - अरुणाचल हमारा (मेरा धरम मेरी माँ)


१९८५ में कल्पना लाजमी की फ़िल्म 'एक पल', जो असम की पृष्ठभूमि पर निर्मित फ़िल्म थी, में भूपेन दा का संगीत बहुत पसन्द किया गया। पंकज राग के शब्दों में 'एक पल' में भूपेन हज़ारिका ने आसामी लोकसंगीत और भावसंगीत का बहुत ही लावण्यमय उपयोग "फूले दाना दाना" (भूपेन, भूपेन्द्र, नितिन मुकेश), बिदाई गीत "ज़रा धीरे ज़रा धीमे" (उषा, हेमंती, भूपेन्द्र, भूपेन) जैसे गीतों में किया। "जाने क्या है जी डरता है" तो लता के स्वर में चाय बागानों के ख़ूबसूरत वातावरण में तैरती एक सुन्दर कविता ही लगती है। "मैं तो संग जाऊँ बनवास" (लता, भूपेन), "आने वाली है बहार सूने चमन में" (आशा, भूपेन्द्र) और "चुपके-चुपके हम पलकों में कितनी सदियों से रहते हैं" (लता) जैसे गीतों में बहुत हल्के और मीठे ऑरकेस्ट्रेशन के बीच धुन का उपयोग भावनाओं को उभारने के लिए बड़े सशक्त तरीके से किया गया है।

गीत - चुपके-चुपके हम पलकों में कितनी सदियों से रहते हैं (एक पल)


१९९७ में भूपेन हज़ारिका के संगीत से सजी लेख टंडन की फ़िल्म आई 'मिल गई मंज़िल मुझे' जिसमें उन्होंने एक बार फिर असमीया संगीत का प्रयोग किया और फ़िल्म के तमाम गीत आशा, सूदेश भोसले, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति जैसे गायकों से गवाये। कल्पना लाजमी के अगली फ़िल्मों में भी भूपेन दा का ही संगीत था। १९९४ में 'रुदाली' के बाद १९९७ में 'दरमियान' में उन्होंने संगीत दिया। इस फ़िल्म में आशा और उदित का गाया डुएट "पिघलता हुआ ये समा" तो बहुत लोकप्रिय हुआ था। १९९६ की फ़िल्म 'साज़' में बस एक ही गीत उन्होंने कम्पोज़ किया। २००० में 'दमन' और २००२ में 'गजगामिनी' में भूपेन हज़ारिका का ही संगीत था। पुरस्कारों की बात करें तो पद्मश्री (१९७७), संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, राष्ट्रीय नागरिक सम्मान, असम का सर्वोच्च शंकरदेव पुरस्कार जैसे न जाने कितने और पुरस्कारों से सम्मानित भूपेन दा को १९९३ में दादा साहब फालके पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। लेकिन इन सब पुरस्कारों से भी बड़ा जो पुरस्कार भूपेन दा को मिला, वह है लोगों का प्यार। यह लोगों का उनके प्रति प्यार ही तो है कि उनके जाने के बाद जब पिछले मंगलवार को उनकी अन्तेष्टि होनी थी, तो ऐसा जनसैलाब उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने उस क्षेत्र में उमड़ा कि असम सरकार को अन्तेष्टि क्रिया उस दिन के रद्द करनी पड़ी। अगले दिन बहुत सुबह सुबह २१ तोपों की सलामी के साथ गुवाहाटी में लाखों की तादाद में उपस्थित जनता नें उन्हें अश्रूपूर्ण विदाई दी। भूपेन दा चले गए। भूपेन दा से पहली जगजीत सिंह भी चले गए। इस तरह से फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के कलाकार हम से एक एक कर बिछड़ते चले जा रहे हैं। ऐसे में तो बस यही ख़याल आता है कि काश यह समय धीरे धीरे चलता।

गीत - समय ओ धीरे चलो (रुदाली)


'आवाज़' परिवार की तरफ़ से यह थी स्वर्गीय डॉ. भूपेन हज़ारिका की सुरीली स्मृति को श्रद्धा-सुमन और नमन। भूपेन जैसे कलाकार जा कर भी नहीं जाते। वो तो अपनी कला के ज़रिए यहीं रहते हैं, हमारे आसपास। आज अनुमति दीजिए, फिर मुलाकात होगी अगर ख़ुदा लाया तो, नमस्कार!

चित्र परिचय - भुपेन हजारिका को अंतिम विदाई देने को उमड़ा जनसमूह

Friday, November 18, 2011

सुनो कहानी - ढपोलशंख मास्टर हो गए - हरिशंकर परसाई



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उभरते लेखक अभिषेक ओझा की कहानी "घूस दे दूँ क्या?" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "ढपोलशंख मास्टर हो गए", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 58 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

तुलसीदास की पत्नी रत्नावली कौन-कौन से आभूषण पहनती थी?
(हरिशंकर परसाई की "ढपोलशंख मास्टर हो गए" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

#153rd Story, Gate: Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2011/34. Voice: Anurag Sharma

Thursday, November 17, 2011

काहे मेरे राजा तुझे निन्दिया न आए...शृंखला की अंतिम लोरी कुमार सानु की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 790/2011/230

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज इस स्तंभ में प्रस्तुत है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' का अन्तिम अंक। अब तक इस शृंखला में आपने जिन गायकों की गाई लोरियाँ सुनी, वो थे चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, येसुदास और तलत अज़ीज़। आज इस शृंखला का समापन हम करने जा रहे हैं गायक कुमार सानू की आवाज़ से, और साथ मे हैं अनुराधा पौडवाल। १९९१ की फ़िल्म 'जान की कसम' की यह लोरी है "सो जा चुप हो जा...काहे मेरे राजा तुझे निन्दिया न आए, डैडी तेरा जागे तुझे लोरियाँ सुनाये"। जावेद रियाज़ निर्मित व सुशील मलिक निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे कृष्णा, साथी गांगुली, सुरेश ओबेरोय प्रमुख। फ़िल्म में संगीत था नदीम श्रवण का और गीत लिखे समीर नें। दोस्तों, यह वह दौर था कि जब टी-सीरीज़, नदीम श्रवण, समीर, अनुराधा पौडवाल की टीम पूरी तरह से फ़िल्म-संगीत के मैदान में छायी हुई थी, और एक के बाद एक म्युज़िकल फ़िल्में बनती चली जा रही थीं। गुलशन कुमार की हत्या के बाद ही जाकर यह दौर ख़त्म हुई और अलका याज्ञ्निक अनुराधा पौडवाल से आगे निकल गईं। उस दौर की कई फ़िल्में तो ऐसी थीं कि फ़िल्म ज़्यादा नहीं चली, पर उनके गानें चारों तरफ़ गूंजे और ख़ूब गूंजे। 'जान की कसम' भी एक ऐसी ही फ़िल्म थी जिसके गीत ख़ूब चर्चित हुए जैसे कि "जो हम न मिलेंगे तो गुल न खिलेंगे", "I just called you to say I love you", "चम चम चमके चाँदनी चौबारे पे" और "बरसात हो रही है, बरसात होने दे", तथा आज का प्रस्तुत गीत भी।

फ़िल्मी लोरियों की बात करते हुए इस शृंखला में हम ४० के दशक से ९० के दशक में पहुँच गए। पर अफ़सोस की बात यह है कि आज के दौर में फ़िल्मी लोरियों का चलन बन्द ही हो गया है। फ़िल्म 'अनाड़ी' में एक लोरी थी "छोटी सी प्यारी नन्ही सी आई कोई परी" जिसे अलका और उदित नें अलग अलग गाया था। फिर २००४ की शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म 'स्वदेस' में एक उदित-साधना की गाई एक लोरी थी "आहिस्ता आहिस्ता निन्दिया तू आ", २००६ की फ़िल्म 'फ़ैमिली' में भी सोना महापात्र की आवाज़ में एक लोरी थी "लोरी लोरी लोरी"। इस तरह से यदा-कदा कोई लोरी सुनाई दे जाती है, पर संख्या में बिल्कुल नगण्य है। यह सच है कि आजकल फ़िल्मों की कहानी असल ज़िन्दगी के करीब आ गई है, और नाटकीयता कम हो गई है। पर यह लोरियों के न होने का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि लोरियाँ तो असल ज़िन्दगी में आज भी जारी है। आज भी माँ-बाप रात को जाग जाग कर अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियाँ गाते हैं, और सिर्फ़ हमारे यहाँ ही नहीं, पूरे विश्व भर में। तो फिर फ़िल्मों की कहानियों में लोरी की गुंजाइश क्यों ख़त्म हो गई? काश कि फ़िल्मों में पहली जैसी मासूमियत वापस लौट आये और एक बार फिर से कोमल, मखमली, मेलोडियस लोरियाँ श्रोताओं को सुनने को मिले। इसी आशा के साथ अब मुझे, यानी सुजॉय चटर्जी को 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' शृंखला को समाप्त करने की अनुमति दीजिए, और आप सुनिए आज की यह लोरी। यह शॄंखला आपको कैसी लगी, ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में या oig@hindyugm.com पर ईमेल भेज कर। नमस्कार!



आज की चर्चा -बचपन के दिनों की वो कौन सी लोरी है जो आपको आज भी गुदगुदा जाती है हमें बताएं

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, November 16, 2011

घर के उजियारे सो जा रे....याद है "डैडी" की ये लोरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 789/2011/229

'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' - पुरुष गायकों की गाई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की नवी कड़ी में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। आज की कड़ी के लिए हमनें जिस गीत को चुना है वह है १९८९ की फ़िल्म 'डैडी' का। फ़िल्म की कहानी पिता-पुत्री के रिश्ते की कहानी है। यह कहानी है पूजा की जिसे जवान होने पर पता चलता है कि उसका पिता ज़िन्दा है, जो एक शराबी है। पूजा किस तरह से उनकी ज़िन्दगी को बदलती है, कैसे शराब से उसे मुक्त करवाती है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है इस फ़िल्म की। पूजा को उसके नाना-नानी पाल-पोस कर बड़ा करते हैं और उसे अपनी मम्मी-डैडी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। उसके नाना, कान्ताप्रसाद के अनुसार उसके डैडी की मृत्यु हो चुकी है। पर जब पूजा बड़ी होती है तब उसे टेलीफ़ोन कॉल्स आने लगते हैं जो केवल 'आइ लव यू' कह कर कॉल काट देता है। कान्ताप्रसाद को जब आनन्द नामक कॉलर का पता चलता है तो उसे पिटवा देते हैं और पूजा से न मिलने की धमकी देते हैं। पर एक दिन जब पूजा का एक बदमाश इज़्ज़त लूटने की कोशिश करता है तो आनन्द उसकी जान बचाता है और पूजा को पता चल जाता है यह बदसूरत और शराबी आनन्द ही उसका पिता है। पूजा और आनन्द की ज़िन्दगी किस तरह से मोड़ लेती है, यही है इस फ़िल्म की कहानी।

महेश भट्ट की इस फ़िल्म के माध्यम से पूजा भट्ट नें फ़िल्म के मैदान में कदम रखा था। डैडी की भूमिका में थे अनुपम खेर। बड़ी ख़ूबसूरत फ़िल्म है 'डैडी' और इस फ़िल्म के लिए अनुपम खेर को उस साल सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के 'फ़िल्मफ़ेयर क्रिटिक्स अवार्ड' से सम्मानित किया गया था। सूरज सनीम को सर्वश्रेष्ठ संवाद का 'फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड' से नवाज़ा गया था। और दोस्तों, सूरज सनीम नें ही इस फ़िल्म के तमाम गानें लिखे थे जिन्हें ख़ूब सराहना मिली। ख़ास तौर से तलत अज़ीज़ के गाये दो गीत - "आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे, मेरे अपने मेरे होने की निशानी माँगे" और "घर के उजियारे सो जा रे, डैडी तेरा जागे तू सो जा रे"। और यही दूसरा गीत, जो कि एक लोरी है, आज के अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं। 'डैडी' के संगीतकार थे राजेश रोशन। राजेश रोशन की अन्य फ़िल्मों के संगीत से बिल्कुल भिन्न है 'डैडी' का संगीत। एक कलात्मक फ़िल्म में जिस तरह का संगीत होना चाहिए, राजेश जी नें बिल्कुल वैसा संगीत इस फ़िल्म के लिए तैयार किया था। और तलत अज़ीज़ की आवाज़ भी अनुपम खेर पर सटीक बैठी है। शायद जगजीत सिंह की आवाज़ भी सही रहती। अच्छा दोस्तों, जगजीत सिंह से याद आया कि तलत अज़ीज़ का पहला ऐल्बम, जो १९७९ में जारी हुआ था, उसका शीर्षक था 'Jagjit Singh presents Talat Aziz'। इस ऐल्बम तलत के लिए एक स्टेपिंग् स्टोन था, जिसे ख़ूब मकबूलियत हासिल हुई। मूलत: एक ग़ज़ल गायक, तलत अज़ीज़ नें कुछ गिनी-चुनी फ़िल्मों में भी पार्श्वगायन किया है जिनमें शामिल हैं 'उमरावजान', 'बाज़ार', 'औरत औरत औरत', 'धुन' और 'डैडी'। तो आइए सुना जाए तलत अज़ीज़ की मुलायम आवाज़ में इस लोरी को।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
आज की पहली बिल्कुल सीधे सीधे पूछ रहे हैं। कुमार सानू और अनुराधा पौडवाल की गाई हुई एकमात्र फ़िल्मी लोरी है यह, बताइए कौन सी है?

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, November 15, 2011

ज़िन्दगी महक जाती है....जब सुरीली आवाज़ को येसुदास की और हो लोरी का वात्सल्य



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 788/2011/228

मस्कार दोस्तों! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आजकल आप आनन्द ले रहे हैं पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों की, और शृंखला है 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। किसी भी बच्चे के सर से माँ और बाप में से किसी का भी अगर साया उठ जाये, तो वह बच्चा बड़ा ही अभागा होता है। माँ का प्यार एक तरह का होता है, और पिता का प्यार दूसरी तरह का। दोनों की समान अहमियत होती है बच्चे के विकास में। लेकिन हर बच्चा तो किस्मतवाला नहीं होता न! किसी को माँ नसीब नहीं होता तो किसी को पिता। माँ के अभाव में पिता को पिता और माँ, दोनों की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। ऐसी सिचुएशन कई बार हमारी फ़िल्मों में भी देखी गई है। आज हम जिस गीत को सुनने जा रहे हैं उसकी कहानी भी इसी तरह की है। गोविंदा पर फ़िल्माई यह लोरी है 'हत्या' फ़िल्म की - "ज़िन्दगी महक जाती है, हर नज़र बहक जाती है, न जाने किस बगिया का फूल है तू मेरे प्यारे, आ रा रो आ रा रो"। गायक हैं येसुदास और साथ में आवाज़ लता जी की है जो उस मातृहीन बच्चे के सपने में उसकी माँ की भूमिका में गाती हैं। दोस्तों, येसुदास और लोरी की जब साथ-साथ बात चलती है तो सबसे पहले जिस लोरी की याद आती है वह है फ़िल्म 'सदमा' की "सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे"। लेकिन क्योंकि हम इस लोरी को पहले ही सुनवा चुके हैं, इसलिए हमनें 'हत्या' फ़िल्म की लोरी चुनी। येसुदास की आवाज़ भी इतनी कोमल है कि उनकी आवाज़ में कोई लोरी सुनना एक अदभुत अनुभव होता है। यह हैरत की ही बात है कि उनसे और भी लोरियाँ क्यों नहीं गवाई गई!

'हत्या' १९८८ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन कीर्ति कुमार नें किया था, जो गोविंदा के भाई हैं। गोविंदा, नीलम, राज किरण, अनुपम खेर प्रमुख अभिनीत इस फ़िल्म में संगीत था बप्पी लाहिड़ी का और गीत लिखे इंदीवर नें। फ़िल्म सुपरहिट हुई और इसके गीत भी ख़ूब चले थे। आज की लोरी के अलावा इस फ़िल्म के अन्य चर्चित गीत थे "मैं प्यार का पुजारी मुझे प्यार चाहिए" (मोहम्मद अज़ीज़, सपना मुखर्जी), "आप को अगर ज़रूरत है" (आशा, किशोर), "मैं तो सबका मेरा न कोई" (कीर्ति कुमार), और "प्यार मिलेगा यार मिलेगा" (कीर्ति कुमार)। 'हत्या' एक म्युज़िकल थ्रिलर फ़िल्म थी, इसकी कहानी भी एक बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है जिसनें अपनी माँ-बाप की हत्या अपनी आँखों से देखी है। राजा एक गूंगा और बधीर बच्चा है जिसनें हत्या होते देख लिया, और उसके बाद उसकी आँखों के सामने उसकी माँ की भी हत्या कर दी गई। राजा वहाँ से किसी तरह भाग निकला पर बेघर, बेसहारा होकर रह गया। किस्मत इतनी ज़रूर अच्छी थी कि उसे सागर (गोविंदा) नामक एक पेण्टर मिल गया। सागर की पत्नी और बच्चे की मौत हो गई थी और वो एक अकेलेपन से भरी ज़िन्दगी जी रहा था। ऐसे में सागर के जीवन का एक ही लक्ष्य रह गया इस गूंगे-बहरे बच्चे को पाल-पोस कर बड़ा करना। लेकिन वो हत्यारे राजा की तलाश में थे क्योंकि वही एक चश्मदीद गवाह था उनके कूकर्मों का। सागर को भी धीरे धीरे पता चला उस हत्या के बारे में। पर कातिलों नें सागर को ही फँसा दिया और सागर की जेल हो गई। सागर जेल से बाहर आकर मर्डर मिस्ट्री को सॉल्व किया। आइए सुनते हैं यह लोरी जिसमें सागर राजा को सुला रहे हैं और राजा को अपनी माँ की याद आ रही है। माँ की भूमिका में है अंजना मुमताज़, जो बच्चे के सपने में आकर गाती है "ज़मीं पे रहूँ या फ़लक पर तेरे आसपास हूँ मैं, दुआओं का साया बन कर तेरे साथ-साथ हूँ मैं"। सुनते हैं यह सुन्दर लोरी।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
पिता-पुत्री के रिश्ते की कहानी पर बनी इस फ़िल्म को क्रिटिकल अक्लेम मिली थी। पर्दे पर जिन अभिनेता-अभिनेत्री नें बाप-बेटी के रिश्ते को साकार किया, उसी जोड़ी नें एक अन्य फ़िल्म में भी बाप-बेटी का रिश्ता निभाया था जिसमें आमिर ख़ान नायक थे। राजेश रोशन स्वरबद्ध किस लोरी की हम बात कर रहे हैं?

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Monday, November 14, 2011

आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं....बाल दिवस पर किशोर दा लाये एक मीठी लोरी बच्चों के लिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 787/2011/227

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी नियमित व अनियमित श्रोता-पाठकों को हमारा सप्रेम नमस्कार! आज १४ नवंबर है, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिन, जिसे हम सब 'बाल-दिवस' के रूप में मनाते हैं। संयोग देखिए कि इन दिनों हम जिस शृंखला को प्रस्तुत कर रहे हैं, उसका भी बच्चों के साथ ही ज़्यादा ताल्लुख़ है। पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की सातवीं कड़ी में आज हम लेकर आये हैं किशोर कुमार की आवाज़ में फ़िल्म 'कुवारा बाप' की लोरी "आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं, उड़नखटोले में, दूर, दूर, दूर, यहाँ से दूर"। साथ में लता जी की आवाज़ भी शामिल है। जहाँ किशोर दा की आवाज़ सजी है महमूद पर, लता जी नें एक बालकलाकार का पार्श्वगायन किया है। फ़िल्म के संगीतकार थे राजेश रोशन और इस लोरी को लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी। १९७४ में बनी 'कुंवारा बाप' के नायक थे महमूद। फ़िल्म के शीर्षक से ज़ाहिर है कि महमूद नें इसमें कुंवारे बाप की भूमिका निभाई होगी और इस तरह से इस लोरी की फ़िल्म में अहमियत बढ़ जाती है। यूं तो महमूद हास्य चरित्रों के लिए जाने जाते हैं, पर इस फ़िल्म में उन्होंने वह मर्मस्पर्शी अभिनय किया कि दर्शकों को रुलाकर छोड़ा। दोस्तों, मुझे महमूद के अभिनय वाली एक और फ़िल्म याद आ रही है जिसमें भी किशोर दा और लता जी की गाई हुई एक लोरी थी। फ़िल्म 'लाखों में एक' और गीत के बोल "चंदा ओ चंदा, किसने चुराई तेरी मेरी निन्दिया, जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना"। इस लोरी का एक लता सोलो वर्ज़न भी है।

'कुंवारा बाप' की कहानी अज़ीज़ क़ैसी की लिखी हुई है और फ़िल्म का निर्देशन महमूद नें ही किया था। इस फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि महेश (महमूद) एक साइकिल रिक्शा चालक है जिसे अपने माँ-बाप की कोई जानकारी नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण का वह उपासक है और एक जुग्गी झोपड़ी में रहता है। शीला (मनोरमा) नामक लड़की से उसकी दोस्ती है जो घर घर बाई का काम करती है, और जिसे वो एक दिन शादी करना चाहता है। पर कालू दादा (भूषण तिवारी) की गन्दी नज़र शीला पर है। एक रात महेश घर लौट रहा था कि उसे एक मन्दिर के बाहर एक छोटा बच्चा दिखाई दिया। वो इधर-उधर उसके परिवारवालों को ढूंढ़ा, मन्दिर के पुजारी से भी पूछा, पुलिस को भी सूचित किया, पर कहीं से भी उस बच्चे के माँ-बाप का पता न चल सका। न चाहते हुए भी हालात कुछ ऐसे बन गए कि उस बच्चे को उसे गले से लगाना ही पड़ा, पर उसके आस-पड़ोस वाले महेश के बच्चे के गोद लेने के ख़िलाफ़ थे। महेश भी बच्चे से नफ़रत करने लगा। वो उस बच्चे की तरफ़ ध्यान नहीं दिया करता, और इस तरह से बच्चा पोलियो का शिकार हो गया। इस घटना नें महेश के दिल पर असर किया और उसके दिल में बच्चे के लिए प्यार उमड़ पड़ा। उस बच्चे का नाम उसने हिन्दुस्तान रखा, उसका इलाज शुरु करवाया, उसे क्रच दिलवाये, और तमाम मुसीबतों से लड़ते हुए उसे बिशॉप कॉटन जुनियर कॉलेज में भर्ती करवाया। १२ साल बाद हिन्दुस्तान जब बड़ा हुआ, तब उसे हड्डी के एक ऑपरेशन की ज़रूरत आन पड़ी जिसके लिए महेश को १००० रुपय का बन्दोपस्त करना था। उसने पैसा इकट्ठा करने के लिए दारा से कुश्ती लड़ने और एक रिकशा रेस में भाग लेने का फ़ैसला किया, पर दारा और कालू नें उसे बुरी तरह पीटा। महेश रात-दिन काम करने लगा, पर इससे पहले कि वो पैसे जमा कर पाता, पुलिस इन्स्पेक्टर रमेश (विनोद खन्ना) ने उसे गिरफ़्तार कर लिया हिन्दुस्तान को अगवा करने के जुर्म में। रमेश और राधा (भारती) के अनुसार हिन्दुस्तान के जन्मदाता वो दोनों हैं। अदालत में मुकद्दमा चलता है और फ़िल्म का क्या अंजाम होता है, वह आप कभी फ़िल्म को ख़ुद ही देख कर जान लीजिएगा। इस कहानी को पढ़ कर आप समझ चुके होंगे कि इस लोरी की फ़िल्म में क्या अहमियत होगी। तो आइए सुना जाये किशोर दा की आवाज़ महेश पर और लता जी की आवाज़ हिन्दुस्तान पर।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
कल की लोरी एक डुएट है। जिस गायक-गायिका जोड़ी नें इसे गाया, उस जोड़ी नें साथ में बहुत ज़्यादा गीत नहीं गाये हैं, पर राकेश रोशन और जया प्रदा अभिनीत एक अन्य फ़िल्म में इस जोड़ी के गाये गीत लोकप्रिय हुए थे। बताइए गोविंदा पर फ़िल्माई हुई किस लोरी की हम बात कर रहे हैं और राकेश रोशन-जया प्रदा के उस अन्य फ़िल्म का नाम क्या है?

पिछले अंक में
कल की हमारी शृंखला का सीरियल नंबर था ७८६, क्या किसी ने गौर किया

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, November 13, 2011

लल्ला लल्ला लोरी....जब सुनाने की नौबत आये तो यही लोरी बरबस होंठों पे आये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 786/2011/226

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ, आप सभी का इस सुरीले सफ़र में फिर एक बार स्वागत करते हैं। आमतौर पर बच्चों के साथ माँ के रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, फ़िल्मों में भी माँ और बच्चे के रिश्ते को ज़्यादा साकार किया गया है। पर कई फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता-पुत्र या पिता-पुत्री के सम्बंध को पर्दे पर साकार किया गया। ऐसी कई फ़िल्मों में पिता द्वारा गाई लोरियाँ भी रखी गईं, हालाँकि संख्या में ये बहुत कम हैं। पर इन लोरियों के माध्यम से गीतकारों नें वो सब जज़्बात, वो सब मनोभाव भरें जो एक पिता के मन में होता है अपने बच्चे के लिए। ऐसी ही कुछ लाजवाब पुरुष लोरियों को लेकर इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी', जिसमें आप दस लोरियाँ सुन रहे हैं दस अलग अलग गायकों के गाये हुए। अब तक आपनें चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें सुनी। और ये लोरियाँ केवल पाँच अलग गायक ही नहीं, बल्कि पाँच अलग गीतकारों के लिखे और पाँच अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध किए हुए थे। ये गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ हैं राजेन्द्र कृष्ण - सी. रामचन्द्र, ख़ुमार बाराबंकवी - नाशाद, शक़ील - नौशाद, प्रेम धवन - रवि, और शैलेन्द्र - शंकर-जयकिशन। ५० और ६० के दशकों के बाद आज हम ७० के दशक में क़दम रखते हुए आपको सुनवाने जा रहे हैं गायक की मुकेश की गाई हुई लोरी और इसमें गीतकार-संगीतकार जोड़ी है आनन्द बक्शी - राहुल देव बर्मन। १९७७ की फ़िल्म 'मुक्ति' की यह कालजयी लोरी है "लल्ला लल्ला लोरी, दूध की कटोरी, दूध में बताशा, मुन्नी करे तमाशा"।

गायक मुकेश की आवाज़ भी बहुत ही कोमल है और लोरियों के लिए तो बिल्कुल पर्फ़ेक्ट। उनकी गाई फ़िल्म 'मिलन' की लोरी "राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निन्दिया तोहे मिल जाए" हम जितनी भी बार सुनें एक अद्भुत अनुभव होता है। इसी तरह से 'मुक्ति' की यह लोरी भी अपने ज़माने का हिट गीत रहा है। शशि कपूर पर ज़्यादातर किशोर कुमार और रफ़ी साहब की आवाज़ ही सजी है, पर कई फ़िल्मों में मुकेश नें उनका पार्श्वगायन किया है जैसे कि 'मुक्ति', 'दिल ने पुकारा', 'माइ लव' आदि। 'मुक्ति' फ़िल्म की तमाम जानकारियाँ हमनें उस अंक में दिया था जिसमें हमनें मुकेश का ही गाया "सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देती" गीत सुनवाया था। आज बस इस लोरी की बात करते हैं। इस लोरी के भी दो संस्करण है; मुकेश वाले संसकरण का मिज़ाज हँसमुख है जिसमें पिता अपनी पुत्री को प्यार करते हुए यह लोरी गाते हैं, जबकि लता जी वाला संस्करण सैड वर्ज़न है। पिता के बिछड़ जाने के बाद जब बच्चा अपनी माँ से पापा कब आयेंगे पूछता है, तो उसे सम्भालते हुए, सुलाते हुए माँ उसी लोरी को गाती हैं, पर "मुन्नी करे तमाशा" के जगह पर बोल हो जाते हैं "जीवन खेल तमाशा"। दोनों ही संस्करण अपने आप में उत्कृष्ट है। क्योंकि इस शृंखला में हम गायकों की गाई लोरियाँ बजा रहे हैं, इसलिए लता जी वाला संस्करण हम फिर कभी सुनवाने की कोशिश करेंगे अगर सम्भव हो सका तो। आइए मुकेश की कोमल आवाज़ में सुनें यह लोरी।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
मूलत: एक हास्य अभिनेता पर फ़िल्माई यह लोरी है, जो इस फ़िल्म के नायक भी हैं, पर यह फ़िल्म हास्य फ़िल्म नहीं बल्कि एक मर्मस्पर्शी फ़िल्म है। जिस बच्चे के लिए यह लोरी गाई जा रही है, उसका फ़िल्म में नाम है 'हिन्दुस्तान'। बताइए किस फ़िल्म के लोरी की बात हो रही है?

पिछले अंक में
अमित जी सवाल तो पढ़िए ध्यान से

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - एन. राजम् के वायलिन-तंत्र बजते नहीं, गाते हैं...



सुर संगम- 43 – संगीत विदुषी डॉ. एन. राजम् की संगीत-साधना


सुर संगम के इस सुरीले सफर में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आज एक बेहद सुरीले गज-तंत्र वाद्य वायलिन और इस वाद्य की स्वर-साधिका डॉ. एन. राजम् के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपसे चर्चा करने जा रहा हूँ। डॉ. राजम् वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्य पर उत्तर भारतीय संगीत पद्यति को गायकी अंग में वादन करने वाली प्रथम महिला स्वर-साधिका हैं। उनकी वायलिन पर अब तक जो कुछ भी बजाया गया है, उसका प्रारम्भ स्वयं उन्हीं से हुआ है। गायकी अंग में वायलिन-वादन उनकी विशेषता भी है और उनका अविष्कार भी।

डॉ. राजम् के पिता नारायण अय्यर कर्नाटक संगीत पद्यति के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक और गुरु थे। वायलिन की प्रारम्भिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही प्राप्त हुई। बाद में सुविख्यात संगीतज्ञ पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर से उन्हें उत्तर भारतीय संगीत पद्यति में शिक्षा मिली। इस प्रकार शीघ्र ही उन्हें संगीत की दोनों पद्यतियों में कुशलता प्राप्त हुई। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर अपने प्रदर्शन-कार्यक्रमों में एन. राजम् को वायलिन संगति के लिए बैठाया करते थे। संगति के दौरान उनका यही प्रयास होता था कि उनके गुरु जो क्रियाएँ कण्ठ से करते हों, उन्हें यथावत वायलिन के तंत्रों पर उतारा जाए। इस साधना के बल पर मात्र १७ वर्ष की आयु में एन. राजम् गायकी अंग में वायलिन-वादन में दक्ष हो गईं। उस दौर के संगीतविदों ने गायकी शैली में वायलिन-वादन को एक नया आविष्कार माना और इसका श्रेय एन. राजम् को दिया गया। उनके गायकी अंग के वादन में जैसी मिठास और करुणा है, उसे सुन कर ही अनुभव किया जा सकता है। उनके वादन में कोई चमत्कारिक लटके-झटके नहीं, बल्कि सादगी और तन्मयता है। सुनने वालों को ऐसा प्रतीत होता है, मानो वायलिन के तंत्र बजते नहीं बल्कि गा रहे हों। लीजिए, डॉ. एन. राजम् के वायलिन को राग जयजयवन्ती का गायन करते हुए, आप भी सुनें। प्रस्तुति में पण्डित अभिजीत बनर्जी ने तबला संगति की है।

डॉ. एन. राजम् : राग – जयजयवन्ती : आलाप और बन्दिश


एन. राजम् की प्रारम्भिक संगीत शिक्षा दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत पद्यति में हुई थी। उन दिनों दक्षिण भारत में वायलिन प्रचलित हो चुका था, किन्तु उत्तर भारतीय संगीत में इस वाद्य का पदार्पण नया-नया ही हुआ था। एन. राजम् की आयु उस समय मात्र १२ वर्ष थी। अपने गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के मार्गदर्शन में उन्होने वायलिन को गायकी अंग में बजाने का निश्चय किया। स्वर और लय का ज्ञान तो उन्हें पहले से ही था, गुरु जी की स्वरावली का अनुसरण करते-करते वादन में भाव, रस और माधुर्य उत्पन्न करने की कठोर साधना उन्होने की। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा आदि गायन की सभी विधाओं की बारीकियों का गहन अध्ययन कर वायलिन पर साध लिया। उन दिनों अधिकतर वादको ने तंत्रकारी अंग में ही वायलिन को अपनाया था। परन्तु एन. राजम् का मानना था कि सारंगी की भाँति वायलिन भी गायकी अंग के निकट है। आइए अब सुनते हैं- डॉ. एन. राजम् से राग दरबारी की दो खयाल रचनाएँ जो विलम्बित एकताल में और द्रुत तीनताल में निबद्ध है।

डॉ. एन. राजम् : राग – दरबारी : विलम्बित एकताल और द्रुत तीनताल


विदुषी एन. राजम् के गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ग्वालियर घराने के थे, इसलिए स्वयं को इसी घराने की शिष्या मानतीं हैं। घरानॉ के सम्बन्ध में उनका मत है कि कलाकार को किसी एक ही घराने में बंध कर नहीं रहना चाहिए, बल्कि हर घराने की अच्छाइयों का अनुकरण करना चाहिए। घरानों की प्राचीन परम्परा के अनुसार तीन पीढ़ियों तक यदि विधा की विशेषता कायम रहे तो प्रथम पीढ़ी के नाम से घराना स्वतः स्थापित हो जाता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आने वाले समय में राजम् जी के नाम से भी यदि एक नए घराने का नामकरण हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। डॉ. राजम् को प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता पण्डित नारायण अय्यर से मिली। उनके बड़े भाई पण्डित टी.एन. कृष्णन् कर्नाटक संगीत पद्यति के प्रतिष्ठित और शीर्षस्थ वायलिन-वादक रहे हैं। डॉ. राजम् की एक भतीजी कला रामनाथ वर्तमान में विख्यात वायलिन-वादिका हैं। राजम् जी की सुपुत्री और शिष्या संगीता शंकर अपनी माँ की शैली में ही गायकी अंग में वादन कर रहीं हैं। यही नहीं संगीता की दो बेटियाँ अर्थात डॉ. राजम् की नातिनें- नंदिनी और रागिनी भी अपनी माँ और नानी के साथ मंच पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रही हैं।

और अब इस अंक को विराम देते हुए हम आपको विदुषी डॉ. एन. राजम् द्वारा प्रस्तुत राग भैरवी का एक दादरा सुनवाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि उनके गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ने मंच पर कभी भी ठुमरी-दादरा प्रस्तुत नहीं किया। उपशास्त्रीय संगीत का ज्ञान उन्होने वाराणसी में प्राप्त किया था। वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में पहले प्रोफेसर और बाद में विभागाध्यक्ष होकर सेवानिवृत्त हुई। लीजिए, सुनिए- विदुषी डॉ. एन. राजम् की वायलिन पर राग भैरवी में दादरा-

डॉ. एन. राजम् : राग – भैरवी : दादरा


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुर संगम 44 की पहेली : इस ऑडियो क्लिप को सुन कर संस्कार गीतों के अन्तर्गत आने वाली लोक संगीत की विधा को पहचानिए। सही पहचान करने पर आपको मिलेंगे 5 अंक


चित्र परिचय
ऊपर बाएं - विदुषी डा. एन. राजम्
नीचे दायें - डा. एन. राजम्अपनी सुपुत्री संगीता शंकर के साथ


पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 43वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर है- वायलिन और राग दरबारी। इस अंक की पहेली के पहले भाग का सही उत्तर हमारे एक नए पाठक/श्रोता उज्ज्वल कुमार ने और दूसरे भाग का सही उत्तर क्षिति तिवारी ने दिया है। दोनों विजेताओं को मिलते हैं 5-5 अंक। इन्हें हार्दिक बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और संगीत-कलासाधक अथवा विधा के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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