Saturday, April 18, 2009

दो दिल टूटे दो दिल हारे...जब लता ने पिया हीर का दर्द



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 55

हीर-रांझा पंजाब के चार प्रसिद्ध दुखद प्रेम कहानियों में से एक है। बाक़ी के तीन हैं मिर्ज़ा साहिबा, सस्सि पुन्नू और सोहनी महिवाल। युँ तो हीर-रांझा को कई काव्य रूपों में प्रस्तुत किया गया है लेकिन १७६६ में वारिस शाह का लिखा हीर-रांझा सब से ज़्यादा चर्चित हुआ। हीर एक बेहद ख़ूबसूरत अमीर परिवार की लड़की है, और रांझा अपने चार भाइयों में सब से छोटा होने की वजह से अपने पिता का चहेता। वह बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। अपने लालची भाइयों और भाभियों से तंग आकर रांझा घर छोड़ देता है और भटकते हुए हीर के गाँव आ पहुँचता है। दोनों की मुलाक़ात होती है और एक दूसरे से प्यार हो जाता है। रांझा को हीर के घर मवेशियों की देख-रेख करने की नौकरी भी मिल जाती है। हीर उसके बांसुरी की मधुर तानों से सम्मोहित सी हो जाती है और उससे बेहद प्यार करने लगती है। जब उनके प्यार की भनक हीर के लालची चाचा को लगती है तो वह जबरदस्ती हीर की शादी किसी और से करवा देते हैं। रांझा का दिल टूट कर रह जाता है और वह एक जोगी बन जाता है। घूमते घामते एक रोज़ रांझा उसी गाँव आ पहुँचता हैं जहाँ पर हीर रहती है। दोनो एक बार फिर से मिल जाते हैं और वापस हीर के गाँव चले आते हैं। हीर के माता-पिता उनकी शादी को रज़ामन्दी दे देते हैं। लेकिन उनके शादी के दिन हीर का वही लालची चाचा हीर को ज़हर भरा लड्डू दे देता है, जिसे खा कर हीर मर जती है। इस सदमे को रांझा बरदाश्त नहीं कर पाता और ख़ुद भी वही लड्डू खा कर हीर के बगल में दम तोड़ देता है। और इस तरह से हीर और रांझा मर तो जाते हैं लेकिन उनकी प्रेम-कहानी अमर हो जाती है। हीर और रांझा पंजाब के झंग नामक शहर में दफ़्न हैं, जो अब पाकिस्तान में पड़ता है।

दोस्तों, हीर और रांझा की कहानी हमने आज आपको इसलिए सुनाई क्युंकि इसी मशहूर प्रेम-कहानी पर बनी १९७० की फ़िल्म हीर रांझा का एक गीत आज हम आप को सुनवा रहे हैं। चेतन आनन्द निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज कुमार और प्रिया राजवंश। शायद हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की यह एकमात्र फ़िल्म है जिसका पूरा संवाद काव्य पर आधारित है। यानी पूरी फ़िल्म को एक कविता की तरह पेश किया गया है और इसके सारे संवाद काव्य और तुकबंदी में लिखा गया है। सेलुलायड पर लिखी हुई इस कविता के लिये श्रेय जाता है इस फ़िल्म के संवाद लेखक और गीतकार कैफ़ी आज़मी को। संगीतकार मदन मोहन के संगीत का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस फ़िल्म की सफलता के पीछे। सुनिये इस फ़िल्म से लताजी का गाया यह गाना और उपर सुनाई गयी हीर रांझा की कहानी को पढ़ कर ख़ुद अन्दाज़ा लगाइये कि इस गीत को फ़िल्म में किस 'सिचुयशन' में रखा गया होगा! पेश है "दो दिल टूटे दो दिल हारे"। महसूस कीजिये लताजी की दर्दभरी आवाज़ में हीर के टूटे दिल की पुकार को!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. महेंद्र कपूर और आशा के स्वर.
२. रवि का संगीत था यश चोपडा निर्देशित इस बेहद कामियाब फिल्म में.
३. मुखड़े में शब्द है -"ख्वाब".

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी वाह क्या सही जवाब दिया है आपने..बधाई...नीलम जी आपकी फरमाईश दर्ज हो गयी है जल्द ही पूरी करने का प्रयास रहेगा...बने रहिये ओल्ड इस गोल्ड पर.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'स्‍वामिनी'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'स्‍वामिनी'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'मंदिर और मस्जिद' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी 'स्‍वामिनी', जिसको स्वर दिया है शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 37 मिनट और 0 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

जरा देर के लिए पति-वियोग का दु:ख उसे भूल गया। उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे। शिवदास बाहर था। घर बिलकुल खाली था।
(प्रेमचंद की 'स्‍वामिनी' से एक अंश)


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अगले शनिवार (२५ अप्रैल २००९) का आकर्षण - मुंशी प्रेमचंद की "आत्म-संगीत"
अगले रविवार (२६ अप्रैल २००९) का आकर्षण - पॉडकास्ट कवि सम्मलेन

#Sevententh Story, Swamini: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/12. Voice: Shanno Aggarwal

Friday, April 17, 2009

बेईमान बालमा मान भी जा...आशा की इस गुहार से बचकर कहाँ जायेंगे...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 54

.पी. नय्यर के गानों में एक अलग ही चमक हुआ करती थी। चाहे गाना ख़ुशरंग हो या फिर ग़मज़दा, नय्यर साहब का हर एक गीत रंगीन है, चमकदार है। उनका संगीत संयोजन कुछ इस तरह होता था कि उनके गीतों में हर एक साज़ बहुत ही साफ़ साफ़ सुनाई पड़ता था। दूसरे संगीतकारों की तरह उन्होने कभी 'वायलिन' से 'हार्मोनी' पैदा करने की कोशिश नहीं की, बल्कि हर साज़ को एकल तरीके से गीतों में पेश किया। फिर चाहे वह सारंगी हो या सितार, 'सैक्सोफ़ोन' हो या फिर बांसुरी। मूड, पात्र और स्थान - काल के आधार पर साज़ों का चुनाव किया जाता था, और इन साज़ों के हर एक पीस को बहुत ही निराले ढंग से पेश किया जाता था। इन साज़ों को बजाने के लिए भी नय्यर साहब ने हमेशा बड़े बड़े साज़िंदों और फ़नकारों को ही नियुक्त किया। इन फ़नकारों के बारे में विस्तार से हम फिर कभी बात करेंगे, चलिये अब आ जाते हैं आज के गीत पर। आज का गीत है फ़िल्म 'हम सब चोर हैं' से, नय्यर साहब का संगीत, मजरूह साहब के बोल, और आशाजी की आवाज़।

शम्मी कपूर, नलिनी जयवन्त और अमीता अभिनीत फ़िल्म 'हम सब चोर हैं' आयी थी सन १९५६ में, जो बनी थी फ़िल्मिस्तान के बैनर तले। फ़िल्मिस्तान सन १९४४ से फ़िल्में बना रही थी और तब से लेकर 'हम सब चोर हैं' के बनने तक, यानी कि १९५६ तक कई संगीतकारों को मौका दिया जैसे कि मास्टर ग़ुलाम हैदर, हरि-प्रसन्न दास, सी. रामचन्द्र, सचिन देव बर्मन, विनोद, श्यामसुंदर, हेमन्त कुमार, मदन मोहन, बसंतप्रकाश, एस. मोहिन्दर, रवि और सरदार मलिक। १९५६ में इस बैनर ने अपने नाम दो और संगीतकार जोड़ लिए- फ़िल्म 'हीर' में अनिल बिश्वास और 'हम सब चोर हैं' में ओ. पी. नय्यर। आइ. एस. जोहर निर्देशित इस फ़िल्म को बहुत ज़्यादा ख्याति तो नहीं मिली, लेकिन नय्यर साहब अपने गीत संगीत के ज़रिये लोगों के दिलों में अपनी जगह बरक़रार रखने में जरूर कामियाब रहे । प्रस्तुत गीत में आशा भोंसले की आवाज़ के उछाल में बह जाइए दोस्तों, और साथ ही महसूस कीजिए नय्यर साहब की वह ख़ास अंदाज़ जो वो उत्पन्न करते थे 'चेलो' (cello) और सारंगी के मिश्रण से। 'हम सब चोर हैं' फ़िल्म से पेश है "बेइमान बालमा मान भी जा, बेजान ज़ालमा मान भी जा"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कैफी आज़मी के बोल और मदन मोहन का संगीत.
२. राजकुमार और प्रिय राजवंश हैं इस फिल्म में.
३. मुखड़े में शब्द है- "सदके"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी के लिए जोरदार तालियाँ, एक मुश्किल गीत का संकेत पकडा है आपने. शन्नो जी जब दिल से दिल जुड़ जाते हैं तो "telepathy" काम करती है. इन गीतों के माध्यम से हम सब के दिल जुड़ जो गए हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं कि आप गीत सोचें और हम प्रस्तुत करें. वैसे मनु जी ने भी कुछ हद तक सही कहा है, कहीं प्याज काटते वक़्त तो ये गीत याद नहीं आया न...हा हा हा..


खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



किन्नी बीती ते किन्नी बाकी ऐ..मैनू ऐ हो हिसाब ले बैठा....



पंजाबी शायर और कवि शिव कुमार बटालवी पर विशेष. दीप जगदीप बाँट रहे है अपने अनुभव बटाला शहर के

यौवन की ऋतु में जो भी मरता है,
वह या तो फूल बन जाता है या तारा।
यौवन की ऋतु में आशिक़ मरता है
या फिर करमों वाला।

- शिव बटालवी

हमारे यहां बहुत उम्‍दा कवि हुए हैं, लेकिन ऐसे कम ही हैं, जिन्‍हें लोगों का इतना प्यार मिला हो। हिंदी में बच्चन को मिला, उर्दू में ग़ालिब और फ़ैज़ को. अंग्रेज़ी में कीट्स को. स्पैनिश में नेरूदा को. पंजाबी में इतना ही प्यार शिव को मिला. शिव कुमार बटालवी. शिव हिंदी में कितना आया, यह अंदाज़ नहीं है. पंजाब आने से पहले मैंने सिर्फ़ शिव का नाम पढ़ा था. इतना जानता था कि कोई मंचलूटू गीतकार था. पर शिव सिर्फ़ मंच नहीं लूटता. उसकी साहित्यिक महत्ता भी है. उसे पढ़ने, सुनने के बाद यह महसूस होता है. वह अकेला कवि है, जिसकी कविता मैंने अतिबौद्धिक अभिजात अफ़सरों के मुंह से भी सुनी है और साइकिल रिक्शा खींचने वाले मज़दूर के मुंह से भी. ऐसी करिश्माई बातें हम नेरूदा के बारे में पढ़ते हैं. पंजाब में वैसा शिव है.

1973 में जब शिव की मौत हुई, तो उसकी उम्र महज़ 36 साल थी। उसने सक्रियता से सिर्फ़ दस साल कविताएं लिखीं. इन्हीं बरसों में उसकी कविता हर ज़बान तक पहुंच गई. 28 की उम्र में तो उसे साहित्य अकादमी मिल गया था. प्रेम और विरह उसकी कविता के मूल स्वर हैं. वह कविता में क्रांति नहीं करता. मनुष्य की आदत, स्वभाव, प्रेम, विरह और उसकी बुनियादी मनुष्यता की बात करता है. वह लोककथाओं से अपनी बात उठाता है और लोक को भी कठघरे में खड़ा करता है. जिस दौर में लगभग सारी भारतीय भाषाओं में कविता नक्‍सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित थी, शिव बिना किसी वाद में प्रवेश किए एक मेहनतकश आदमी की संवेदनाओं और भावनात्मक विश्वासों की बात कर रहा था. इसीलिए पंजाबी कविता के प्रगतिशील तबक़े ने शिव को सिरे से ख़ारिज कर दिया. हालांकि उसकी कविता इतनी ताक़तवर है कि अब तक लोकगीतों की तरह सुनी-गाई जाती है.

शिव की दीवानगी का सिलसिला मेरी जवानी के साथ ही शुरू हुआ और कब ये इश्क पागलपन तक पहुंच गया,खुद मुझे मालूम नहीं। तीन साल पहले की बात है, पता चला कुछ साहित्यकार दोस्त बटाला जा रहे हैं। मैंने एक दम कह दिया मैं भी चलूंगा, वहां पर साहित्य समारोह था, सभी उसमें शिरकत करने जा रहे थे। मुझे कवि गुरभजन गिल ने कहा सुबह 6 बजे जाना होगा, तुम पंजाबी भवन पहुंच जाना। अगली सुबह मैं छह से पहले वहां पहुंच गया। इसे मेरी खुशनसिबी समिझए कि जिस होटल में ये कार्यक्रम था, उसके ठीक सामने शिव की याद में एक ऑडिटोरियम बन रहा था। दो बार नींव पत्थर रखे जाने के बावजूद उसकी हालत पखाने से बद्दतर थी। जंग लगे बड़े से गेट पर ताला लटक रहा था। डा.जगतार धीमान ने मुझे दीवार फांद अंदर जाने की सलाह दी, वो भी मेरे साथ हो लिए। बीस पच्चीस कदम दीवार पर चलने के बाद हम अंदर के दरवाजे के सामने पहुंच कर नीचे कूद गए। ऑडिटोरियम में अंधेरा था और बैठने वाली सीढि़यों के दायरे के रुप में सीमेंट ईंट का ढांचा खड़ा था। उसके बीच मिट्टी के ढेर पड़े थे। बीचों बीच दो ढेर बिल्कुल गोल पहाड़ी की तरह करीब 5 फुट उंचाई तक होंगे, मैं यूं ही मस्ती में उन पर कोहनी रख कर खड़ा हो गया। धीमान साहब फोटो खींचने में बिजी थे, अचानक उनकी नजर मुझ पर पड़ी तो चेताने वाले लहजे में बोले वहां से हट जा उसमें सांप हो सकता हैं। मैं हैरान था, मुझे पता चला ये सांप की बाम्बियां है। वहां से हटने से पहले ही मेरे दिमाग में बात गूंज गई कि शिव जिंदगी भर अपने गीतों में सांप और उनकी वर्मियों की बातें करता रहा और आज वह उसकी अधूरी खंडहर यादगार पर भी कुंडली मारे बैठे हैं, मैंने उन्हीं के साथ फोटो खिचवाई। अफसोस के वो फोटो आज तक नहीं मिल सके।

उसी दोपहर को बटाले वाले सुभाष कलाकार और रंधावा के साथ हम शिव का घर देखने गए। घर बंद पड़ा था,जो कोई वहां पर रहता था, मौजूद नहीं था। पड़ोसियों ने मेरी आंखों की अकांक्षा समझ ली शायद और उनके घर की सीढि़यां चढ़ कर दीवार फांद कर हम शिव के उस छोटे से चौबारे में पहुंचे, जहां पर कहते हैं शिव ने कई खूबसूरत शामें गुजारी हैं। बिल्कुल खाली पड़ा कमरा, गली को खुलती लोहे की सलाखों वाली खिड़की और ठंडा सीमेंट का फर्श। कुछ पल खिड़की के पार झांकते हुए मैंने सोचा शायद शिव भी यूं अपना शहर यहां से देखता होगा। फिर न जाने क्या सूझी के ठंडे फर्श पर मैं लेट गया। एक पल लगा मानों मैं हल्का पंख हो गया फर्श की ठंडक भरी गोद में यूं लगा शिव की गोद में सो रहा हूं। आवाज गूंजी "चलो चलें" तो मेरा ख्वाब टूटा भीगी पलकों के साथ खड़ा हुआ, तो दो बूंदें फर्श पर गिर पड़ी, मुझे याद आ गया शिव ने कहा था, "भट्ठी वालिए चम्बे दिए डालिए पीड़ां दा परागा भुन दे, तैनूं देआं हंझूआं दा भाड़ा...". अंदर से आवाज गूंजी शिव तेरे फर्श पर दो पल सकून के गुजारने का भाड़ा मेरे दो आसूं रख लेना शायद यही मेरे लिए तसल्ली की बात थी कि "पीड़ां दा परागा" भुनाने के बदले आंसूओं का भाड़ा देने वाले शिव को मैंने उसी का सरमाया लौटाया है।

आज हम आवाज़ के श्रोताओं के लिए लाये हैं शिव के गीत, जिन्हें अलग अलग फनकारों ने अपनी आवाजों से सजाया है. जिन्हें पंजाबी आती है उनके लिए तो ये संकलन एक शानदार तोहफा है ही, भाषा पर पकड़ न रखने वालों के लिए भी उन्हें सुनना एक यादगार अनुभव होगा, ऐसा हमारा दावा है. तो शुरू करते है "भट्ठी वालिए चम्बे दिए डालिए पीड़ां दा परागा भुन दे, तैनूं देआं हंझूआं दा भाड़ा..." से, फनकार है सतबीर कौर.


सुरिंदर कौर की आवाज़ में सुनिए - "गमां दी रात लम्बी ऐ..." और चित्र सिंह की आवाज़ में "गीतां वे चुंज भरी..."




जगजीत सिंह से सुनिए "एक शिकरा यार बनाया..." और "रोग बन के रह गया है इश्क तेरे शहर का..."




कुलदीप दीपक ने एक पूरी एल्बम उन्हें समर्पित किया है, जिसके कुछ हिस्से यहाँ पेश हैं -


और अब सुनिए खुद शिव की आवाज़ में ये गीत -
मैनू तेरा शबाब ले बैठा,
रंग गोरा गुलाब ले बैठा,
मैंनू जद वी तुसी हो याद आए,
दिन दिहाडे शराब ले बैठा,
किनी बीती ते किनी बाकी ऐ,
मैनू ऐ हो हिसाब ले बैठा.....




प्रस्तुति - गीत चतुर्वेदी के साथ जगदीप सिंह

Thursday, April 16, 2009

आंसू भरी है ये जीवन की राहें... कोई उनसे कह दे हमें भूल जाए...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 53

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल आपने जुदाई के दर्द में डूबा हुआ एक ख़ूबसूरत नग्मा सुना था, आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल कुछ ग़मज़दा सी ही है क्युंकि आज जो गीत हम लेकर आए हैं, वह बयां करती है दास्ताँ जीवन के रास्तों के साथ साथ बहनेवाली आंसूओं के नदियों की। और ये गीत है मुकेश की आवाज़ में राज कपूर और माला सिन्हा अभिनीत फ़िल्म परवरिश में हसरत जयपुरी का ही लिखा और दत्ताराम का स्वरबद्ध किया हुआ -"आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें, कोई उनसे कहदे हमें भूल जाएं"। संगीतकार दत्ताराम शंकर जयकिशन के सहायक हुआ करते थे। कहा जाता है कि शंकर से जयकिशन को पहली बार मिलवाने में दत्तारामजी का ही हाथ था। १९४९ से लेकर १९५७ तक इस अज़ीम संगीतकार जोड़ी के साथ काम करने के बाद सन १९५७ में दत्ताराम बने स्वतंत्र संगीतकार, फ़िल्म थी 'अब दिल्ली दूर नहीं'। पहली फ़िल्म के संगीत में ही इन्होने चौका मार दिया और इसके अगले साल १९५८ में अपनी दूसरी फ़िल्म 'परवरिश' में सीधा छक्का। ख़ासकर राग कल्याण पर आधारित मुकेश का गाया हुआ यह गाना तो सीधे लोगों के ज़ुबां पर चढ़ गया।

जैसा कि पहले भी हमने कई बार इस बात का ज़िक्र किया है कि मुकेश नाम दर्द भरी आवाज़ का पर्याय है। अनिल बिश्वास के संगीत निर्देशन में अपने पहले गाने से ही मुकेश दर्दीले गीतों के राजा बन गये थे। यह गीत था फ़िल्म 'पहली नज़र' से "दिल जलता है तो जलने दे, आँसू ना बहा फरियाद ना कर"। इस गीत को उन्होने अपने गुरु सहगल साहब के अंदाज़ में कुछ इस तरह से गाया था कि ख़ुद सहगल साहब ने टिप्पणी की थी कि "मैने यह गीत कब गाया था?" उस समय फ़िल्मी दुनिया में नये नये क़दम रखनेवाले मुकेश के लिए सहगल साहब के ये चंद शब्द किसी अनमोल पुरस्कार से कम नहीं थे। फ़िल्म परवरिश के प्रस्तुत गीत में भी मुकेश के उसी अन्दाज़-ए-बयां को महसूस किया जा सकता है। एक अंतरे में हसरत साहब कहते हैं - "बरबादियों की अजब दास्ताँ हूँ, शबनम भी रोये मैं वह आसमां हूँ, तुम्हे घर मुबारक़ हमें अपनी आहें, कोई उनसे कहदे हमें भूल जायें", कितने सीधे सरल लेकिन असरदार शब्दों में किसी के दिल के दर्द का बयान किया गया है इस गीत में! उस पर दताराम के संगीत संयोजन ने बोलों को और भी ज़्यादा पुर-असर बना दिया है। केवल शहनाई,सारंगी, सितार और तबले के ख़ूबसूरत प्रयोग से गाना बेहद सुरीला बन पड़ा है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. ओपी नय्यर और आशा की सदाबहार टीम.
२. मजरूह साहब के बोल.
३. गीत शुरू होता है इस शब्द से -"बेईमान"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सावन की रिमझिम में उमड़-घुमड़ बरसे पिया......महफ़िल-ए-गज़ल और मन्ना डे



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०५

गर आपसे कहूँ कि हमारे आज के फ़नकार "श्री प्रबोध चंद्र जी" हैं तो लगभग १ या २ फीसदी लोग हीं होंगे जो इन्हें जानने का दावा करेंगे या फिर उतने लोग भी न होंगे। लेकिन यह सच है । अरे-अरे डरिये मत..मैं किसी अजनबी की बात नहीं कर रहा ...जिनकी भी बात कर रहा हूँ उन्हें आप सब जानते हैं। जैसे श्री हरिहर जरिवाला को लोग संजीव कुमार कहते हैं, वैसे हीं हमारे प्रबोध चंद्र जी यानि कि प्रबोध चंद्र डे को लोग उनके उपनाम मन्ना डे के नाम से बेहतर जानते हैं। मन्ना दा ने फिल्म-संगीत को कई कालजयी गीत दिए हैं। चाहे "चोरी-चोरी" का लता के साथ "आजा सनम मधुर चाँदनी में हम" हो तो चाहे "उपकार" का कल्याण जी-आनंद जी की धुनों पर "कसमें-वादे प्यार वफ़ा" हो या फिर सलिल चौधरी के संगीत से सजी "आनंद" फिल्म की "ज़िंदगी कैसी है पहेली" हो, मन्ना दा ने हर एक गाने में हीं अपनी गलाकारी का अनूठा नमूना पेश किया है।

चलिये अब आज के गाने की ओर रूख करते हैं। २००५ में रीलिज हुई "सावन की रिमझिम मे" नाम के एक एलबम में मन्ना दा के लाजवाब पंद्रह गीतों को संजोया गया था। यह गाना भी उसी एलबम से है। वैसे मैने यह पता करने की बहुत कोशिश की कि यह गाना मूलत: किस फिल्म या किस गैर-फिल्मी एलबम से है ,लेकिन मैं इसमें सफल नहीं हो पाया। तो आज हम जिस गाने की बात कर रहे हैं उसे लिखा है योगेश ने और अपने सुरों से सजाया है श्याम शर्मा ने और वह गाना है: "ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया"। वैसे इस एलबम में इस तिकड़ी के एक और गाने को स्थान दिया गया था- "कुछ ऎसे भी पल होते हैं" । संयोग देखिए कि जिस तरह हिन्दी फिल्मों में मन्ना दा की प्रतिभा की सही कद्र नहीं हुई उसी तरह कुछ एक संगीतकारों को छोड़ दें तो बाकी संगीतकारों ने योगेश क्या हैं, यह नहीं समझा। भला कौन "जिंदगी कैसी है पहेली" या फिर "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" में छिपी भावनाओं के सम्मोहन से बाहर आ सकता है।

लोग माने या ना मानें लेकिन इस गाने और मन्ना दा के एक और गाने "लागा चुनरी में दाग" में गहरा साम्य है। साहिर का वह गाना या फिर योगेश का यह गाना निर्गुण की श्रेणी में आता है, जैसा कबीर लिखा करते थे, जैसे सूफियों के कलाम होते हैं। प्रेमिका जब खुदा या ईश्वर में तब्दील हो जाए या फिर जब खुदा या ईश्वर में आपको अपना पिया/अपनी प्रिया दिखने लगे, तब हीं ऎसे नज़्म सीने से निकलते हैं। मेरे मुताबिक इस गाने में भी वैसी हीं कुछ बातें कहीं गई है। और सच कहूँ तो कई बार सुनकर भी मैं इस गाने में छुपे गहरे भावों को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ। राधा का नाम लेकर योगेश अगर सांसारिक प्रेम की बातें कर रहे हैं तो फिर मीरा या कबीर का नाम लेकर वो दिव्य/स्वर्गीय प्रेम की ओर इशारा कर रहे हैं। वैसे प्रेम सांसारिक हो या फिर दिव्य, प्रेम तो प्रेम है और प्रेम से बड़ा अनुभव कुछ भी नहीं।

हुलस हुलस हरसे हिया, हुलक हुलक हद खोए,
उमड़ घुमड़ बरसे पिया, सुघड़ सुघड़ मन होए।


दर-असल प्रेम वह कोहिनूर है ,जिसके सामने सारे नूर फीके हैं। प्रेम के बारे में कुछ कहने से अच्छा है कि हम खुद हीं प्रेम के रंग में रंग जाएँ। तो चलिए आप भी हमारे साथ रंगरेज के पास और गुहार लगाईये कि:

ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा....

पग-पग पर लाखों हीं ठग थे तन रंगने की धुन में,
सबसे सब दिन बच निकला मन पर बच ना सका फागुन में।
तो... जग में ये तन ये मेरा मन रह ना सका बैरागी,
कोरी-कोरी चुनरी मोरी हो गई हाय रे दागी।
अब जिया धड़के , अब जिया भड़के
इस चुनरी पे सबकी नज़रिया गड़े,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....

रंग वो जिस में रंगी थी राधा, रंगी थी जिसमें मीरा,
उसी रंग में सब रंग डूबे कह गए दास कबीरा।
तो... नीले पीले लाल सब्ज रंग तू ना मुझे दीखला रे,
मैं समझा दूँ भेद तुझे ये , तू ना मुझे समझा रे।
प्रेम है रंग वो , प्रेम है रंग वो,
चढ जाए तो रंग ना दूजा चढे,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

सब हवायें ले गया मेरे समुन्दर की कोई,
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया...

इरशाद ....


पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल में आपके लिए शब्द था -"खुदा" और सुजोई ने पेश की ये ग़ज़ल -

खुदा ने सोचा था कि रहेंगे सब इंसान प्यार से,
ज़मीन पे देखा तो अरमान लुटे नज़र आते हैं.
कुछ तो रहम किया होता खुदा पर इंसानों,
हाथ में तलवार लिए सरे-आम नज़र आते हैं.

नीलम जी भी उतर आई मैदान में इस शेर के साथ-

खुदा खुदी और तू,
सबमें शामिल है तेरी जुस्तजू,
वाह क्या बात है

और कमलप्रीत जी ने तो रंग ही जमा दिया ये कहकर कि -
उनकी आँखों में वो सुरूरे-इबादत है,
कि काफिर भी उठा ले अल्लाह का हलफ.

शन्नो जी, सजीव जी और आचार्य जी का भी महफिल में आने का आभार.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Wednesday, April 15, 2009

आजा रे अब मेरा दिल पुकारा...- लता-मुकेश का एक बेमिसाल युगल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 52

ले ही आज की फ़िल्मों में दर्द भरे गानें ज़्यादा सुनने को नहीं मिलते, लेकिन एक दौर ऐसा भी रहा है कि जब हर फ़िल्म में कम से कम एक ग़मज़दा नग्मा ज़रूरी हुआ करता था। दर्द भरे गीतों का एक अलग ही मुक़ाम हुआ करता था। ऐसे गीतों के साथ लोग अपना ग़म बांट लिया करते थे, जी हल्का कर लिया करते थे। युं तो ३० और ४० के दशकों में बहुत सारे दर्दीले नग्में बने और ख़ूब चले, ५० के दशक के आते आते जब नये नये संगीतकार फ़िल्म जगत में धूम मचा रहे थे, तब दूसरे गीतों के साथ साथ दुख भरे गीतों का भी मिज़ाज कुछ बदला। शंकर जयकिशन फ़िल्म संगीत में जो नई ताज़गी लेकर आए थे, वही ताज़गी उनके ग़मज़दा गीतों में भी बराबर दिखाई दी। १९५१ में राज कपूर और नरगिस की फ़िल्म 'आवारा' में हसरत जयपुरी का लिखा, शंकर जयकिशन क संगीतबद्ध किया, और लता मंगेशकर का गाया "आ जाओ तड़पते हैं अरमान अब रात गुज़रनेवाली है" बहुत बहुत लोकप्रिय हुआ था। "चांद की रंगत उड़ने लगी, वो तारों के दिल अब डूब गए, घबराके नज़र भी हार गई, तक़दीर को भी नींद आने लगी", अपने साथी के इंतज़ार की यह पीड़ा बिल्कुल जीवन्त हो उठी है हसरत साहब के इन शब्दों में। इस गीत का असर कुछ इस क़दर हुआ कि राज कपूर की अगली ही फ़िल्म 'आह' में भी उन्होने हसरत साहब से ऐसा ही एक गीत लिखवाया। इस बार गीत एकल नहीं बल्कि लताजी और मुकेश साहब की युगल आवाज़ों में था। और यही गीत आज पेश-ए-खिदमत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में।

१९५३ की फ़िल्म 'आह' में राज कपूर के साथ नरगिस की जोड़ी एक बार फिर नज़र आयीं। यह फ़िल्म 'आवारा' की तरह 'बॉक्स औफ़िस' पर कामयाबी के झंडे तो नहीं गाढ़े लेकिन जहाँ तक इसके संगीत का सवाल है, तो इसके गाने गली गली गूंजे, और आज भी कहीं ना कहीं से अक्सर सुनाई दे जाते हैं। प्रस्तुत गीत "आजा रे अब मेरा दिल पुकारा" फ़िल्मी गीतों के इतिहास का वह मोती है जिसको अच्छे संगीत के क़द्र्दानों ने आज भी अपने दिलों में बसा रखा है, और आज ५५ साल बाद भी इस मोती की वही चमक बरक़रार है। इस गीत की ख़ासीयत यह है कि बहुत कम साज़ों का इस्तेमाल किया है शंकर जयकिशन ने, मुख्य रूप से मटके का सुंदर प्रयोग हुआ है। लताजी के गाया अलाप इस गीत को और भी ज़्यादा असरदार बना देते हैं। और जुदाई के दर्द को बयां करते हसरत साहब के बोलों के तो क्या कहने, बस गीत सुनिये और ख़ुद ही महसूस कीजिये।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. दत्ता राम, हसरत जयपुरी और मुकेश की टीम.
२. १९५८ में आई इस फिल्म के नाम पर एक और फिल्म बनी जिसमें अमिताभ बच्चन थे.
३. पहला अंतरा इस शब्द से शुरू होता है -"वादे..."

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पहेली कुछ आसान थी. इसी बहाने हमें मिला एक नया विजेता - सुमित भारद्वाज के रूप में. मनु जी, अविनाश जी, हेमंत दा के ये गीत आपका भी पसंदीदा है जानकार ख़ुशी हुई. नीरज जी व्यस्ततायें लाख हों पर संगीत से दूर न रहें. यही तो हमारी लाइफ लाइन है भाई :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सफल 'हुई' तेरी आराधना...शक्ति सामंत पर विशेष (भाग २)




स्वर्गीय फ़िल्मकार शक्ति सामंत की पुण्य स्मृति को समर्पित इस सिलसिले का पहला भाग आपने पढ़ा और कुछ गाने भी सुने पिछले रविवार को। आइये अब शक्तिदा के फ़िल्मी सफ़र की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। पिछले भाग में हमने ज़िक्र किया था उनकी पहले पहले कुछ निर्देशित फ़िल्मों की, जैसे कि 'बहू'(१९५५), 'इंस्पेक्टर'(१९५६), और 'हिल स्टेशन'(१९५७)। १९५७ में ही उन्होने एक और फ़िल्म का निर्देशन किया था, यह फ़िल्म थी एस. पी. पिक्चर्स के बैनर तले बनी 'शेरू'। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार और नलिनी जयवन्त। पहले की तीन फ़िल्मों में हेमन्त कुमार का संगीत था, लेकिन अब की बार शेरू में संगीत दिया मदन मोहन ने। सुनते चलिए कैफ़ इर्फ़ानी का लिखा और लता मंगेशकर का गाया "नैनों में प्यार डोले, दिल का क़रार डोले, तुम जब देखो पिया मेरा संसार डोले".

गीत: नैनों में प्यार डोले (शेरू)


'इंस्पेक्टर' की कामयाबी के बाद शक्ति सामंत ने एक गाड़ी खरीदी और ऐक्सीडेन्ट भी कर बैठे। तीन हड्डियाँ तुड़वा कर वो अस्पताल में भर्ती थे। तो वहाँ बिस्तर पर लेटे लेटे वो सोचने लगे कि अब क्या किया जाये! उन्हे ख़याल आया कि क्युँ ना फ़िल्म निर्माता बना जाए! उन दिनो वो ओम प्रकाश के भाई की फ़िल्म 'शेरू' का निर्देशन कर रहे थे। ओम प्रकाश के भाई उन्हे मिलने अस्पताल गये तो एक दिन शक्तिदा ने उनसे कहा कि उन्होने एक कहानी सोची है और वो फ़िल्म बनाना चाहते हैं अशोक कुमार और मधुबाला को लेकर। उनके एक और दोस्त रंजन घोष भी उनसे मिलने आये तो उन्हे उस कहानी को लिखने का ज़िम्मा दे दिया। और इस तरह से शुरु हुई १९५८ की फ़िल्म 'हावड़ा ब्रिज' के बनने की कहानी। क्युंकि यह उनकी निर्मित पहली फ़िल्म थी, शक्तिदा के पास बहुत ज़्यादा पैसे नहीं थे। इसलिए उन्होने दादामुनि अशोक कुमार से निवेदन किया कि वो मधुबाला से कहें कि वो इस फ़िल्म के लिए 'साइनिंग अमाउंट' कम लें। दादामुनि ने मधुबाला को फोन किया और शक्तिदा से बात करवाया। उनकी बात सुनकर मधुबाला ज़ोर ज़ोर से हँसने लगीं जिससे शक्तिदा बेहद 'नर्वस' हो गये। मधुबाला ने फिर कहा कि वो फ़िल्म के लिए १.५० रूपए बतौर 'साइनिंग अमाउंट' लेंगीं और बाद में ५००० हज़ार रूपए जब तारीख़ें निर्धारित हो जायेंगी। फ़िल्म के संगीत के लिए शक्तिदा ने चुना ओ.पी. नय्यर का नाम। नय्यर साहब ने कहा, "मैं फ़्री में तो करूँगा नहीं, आप मुझे १००० रूपए दे दीजिए और मेरा नाम घोषित कर दीजिए"। इस तरह से १००१.५० रूपए में 'हावड़ा ब्रीज' की नींव रखी गयी और एक ही हफ़्ते के अंदर फ़िल्म बिक गयी ५०,००० रूपए में। फ़िल्म के बनने में लगभग ४ लाख रूपए खर्च हुए, अशोक कुमार और मधुबाला ने ७५,००० रूपए लिए। फ़िल्म में लगाए हुए पैसे फ़िल्म के रिलीज़ होने के एक हफ़्ते के अंदर ही वसूल हो गए, और शक्ति सामंत बन गए एक कामयाब निर्माता-निर्देशक। यूँ तो इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद मशहूर हुए, जिनमें एक ये भी था - "मेरा नाम चिन चिन चू..." सुनते चले..

गीत: मेरा नाम चिन चिन चू (हावड़ा ब्रिज)


शक्ति सामंत संगीत के बड़े शौकीन थे। और शायद अच्छे जानकार भी, क्युंकि उनके हर फ़िल्म का संगीत कामयाब रहा, जो रिलीज़ होते ही ज़ुबाँ ज़ुबाँ पर चढ़ गये। उन्हे कुंदन लाल सहगल और अशोक कुमार के गाये हुए गीत बहुत पसंद थे। वो दादामुनि के गाये गीतों को याद करके उन्ही के सामने गाया करते थे। एक बार अशोक कुमार ने उनसे कहा था कि "जब मैं मर जाऊँगा तब यह वाला गीत गाना - "रुक ना सको तो जाओ तुम जाओ""। अशोक कुमार और शक्ति सामंत की बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी और दोनो ने एक साथ बहुत सारे फ़िल्मों में काम भी किया। ऐसा बहुत बार हुआ कि शक्तिदा शाम के वक़्त दादामुनि के घर गये और रात का खाना वहीं से खा कर लौटे। यह सारी बातें दोस्तों हमने संकलित की है विविध भारती के कार्यक्रम 'उजाले उनकी यादों के' से जिसमें शक्तिदा ने शिर्कत की थी। तो हम बात कर रहे थे 'हावड़ा ब्रिज' की। उसी साल, यानी कि १९५८ में शक्तिदा ने अपने बैनर के बाहर भी एक फ़िल्म का निर्देशन किया था और वह फ़िल्म थी 'डिटेकटिव' जो बनी थी अमीय चित्र के बैनर तले और जिसमें मुख्य कलाकार थे प्रदीप कुमार और माला सिन्हा। इस फ़िल्म की ख़ास बात यह थी कि इसमें संगीत था गायिका गीता दत्त के भाई मुकुल राय का। इस फ़िल्म का गीता दत्त और हेमन्त कुमार का गाया यह युगल गीत बेहद लोकप्रिय हुया था, सुनिए।

गीत: मुझको तुम जो मिले ये जहान मिल गया (डिटेकटिव)


शक्ति सामंत का यह मानना था कि फ़िल्म-निर्माण एक 'टीम-वर्क' है और किसी फ़िल्म की कामयाबी या नाकामयाबी के लिए किसी एक व्यक्ति विशेष को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेखक, कैमरामैन, निर्देशक, सह-निर्देशक, संगीतकार, हर कोई समान रूप से ज़िम्मेदार होता है किसी फ़िल्म के लिए। शक्तिदा ने अपने लम्बे फ़िल्मी सफ़र में मनोरंजन के साथ साथ बहुत सी फ़िल्में ऐसी भी दी हैं जो किसी ना किसी रूप से समाज को कुछ संदेश देता हो। जैसे कि 'इंसान जाग उठा' फ़िल्म में एक जुट होकर लोग कैसे एक बांध बना डालते हैं, यह दिखाया गया है। इसी फ़िल्म में शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था "देखो रे देखो लोग अजूबा बीसवीं सदी का", जो मानव जाति के चाँद पर पदार्पण करने का जश्‍न था। इसी तरह से ७० के दशक की फ़िल्म 'अनुराग' में चक्षुदान का मुद्दा उठाया गया था। इस तरह से शक्तिदा की फ़िल्में किसी ना किसी तरीके से मनोरंजन के साथ साथ शिक्षा भी देती थीं। शक्तिदा अपनी फ़िल्मों की मूल कहानी ख़ुद ही सोचते थे, लेकिन उन्हे विस्तार से लिखवाते थे दूसरे बड़े लेखकों से। उनके लेखक मित्रों में शामिल थे गुलशन नंदा, मधुसुदन करुलकर, ब्रजेश गौड़ और रंजन घोष। आइए अब एक थिरकता हुआ गीत आशा भोंसले और गीता दत्त की आवाज़ों में सुन लिया जाये। १९५९ की फ़िल्म 'इंसान जाग उठा' और संगीतकार सचिन देव बर्मन।

गीत: जानूं जानूं री काहे खनके रे तोरा कंगना (इंसान जाग उठा)


५० के दशक को पार कर अब हम दाख़िल हो रहे हैं ६० के दशक में। १९६० में सामंतदा के निर्देशन में फ़िल्में आयीं 'सिंगापुर' और 'जाली नोट', और १९६२ मे 'नॊटी बॊय', 'इसी का नाम दुनिया है' और 'चायना टाउन'। इनमें से 'नॊटी बॊय' और 'चायना टाउन' का निर्माण भी उन्होने ही किया था। बाक़ी की फ़िल्में बहुत ज़्यादा ना चले हों, लेकिन 'चायना टाउन' ने तो जैसे हंगामा मचा दिया। शम्मी कपूर, शकीला और हेलेन की अदाकारी से सजी यह फ़िल्म अपनी कहानी, बेहतरीन निर्देशन और गीत संगीत की वजह से बेहद सफल रही। इसमें शक्ति सामंत ने एक बार फिर से संगीतकार बदले और इस बार इस फ़िल्म में गूंजा रवि का संगीत। रफ़ी साहब का गाया "बार बार देखो हज़ार बार देखो" इस फ़िल्म का सबसे मशहूर गीत रहा। लेकिन आज हम आपको यहाँ पर एक दूसरा गीत सुनवा रहे हैं इस फ़िल्म का जिसे आपने शायद बहुत दिनों से सुना नहीं होगा, ज़रा सुनिए तो...

गीत: यह रंग ना छूटेगा उल्फ़त की निशानी है (चायना टाउन)


१९६३ में शक्ति सामंत ने बाहर निर्देशित किया फ़िल्म 'एक राज़'। १९६४ उनके फ़िल्मी सफ़र का एक महत्वपूर्ण साल रहा क्युंकि इसी साल आयी थी फ़िल्म 'कश्मीर की कली'। शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर अभिनीत यह फ़िल्म उनके पहले के सभी फ़िल्मों को पीछे छोड़ दिया था कामयाबी की दृष्टि से। इस फ़िल्म में शक्तिदा ने पहली बार शर्मिला टैगोर को हिंदी फ़िल्मों में ले आये थे। हुआ यह था कि शक्तिदा एक बार किसी बंगला पत्रिका में शर्मिला की तस्वीर देख ली थी और वो उन्हे पसंद आ गयी। शक्तिदा ने उनके पिताजी को फोन किया और उनके पिताजी ने यह भी कहा कि अगर कहानी अच्छी है तो उनकी बेटी ज़रूर काम करेगी। बस फिर क्या था, तीन फ़िल्म वितरकों को साथ में लेकर शक्तिदा शर्मिला से मिलने उनके घर जा पहुँचे। उन फ़िल्म वितरकों को शर्मिला कुछ ख़ास नहीं लगी, लेकिन शक्तिदा को अपनी पसंद पर पूरा विश्वास था और उन्हे अपने फ़िल्म के लिए चुन लिया। फ़िल्म की शूटिंग शुरु हुई और पहले ही दिन शर्मिला का शम्मी कपूर और शक्तिदा से अच्छी दोस्ती हो गई। फ़िल्म की पूरी युनिट कश्मीर गयी और उनका डल झील के ७ या ८ 'हाउस बोट्स' में ठहरने का इंतज़ाम हुआ। युनिट के बाक़ी लोगों के लिए शहर के होटलों में व्यवस्था की गई। लेकिन लगातार बारिश होने की वजह से पहले १५ दिनों तक कोई शूटिंग नहीं हो पायी। शक्तिदा के अनुसार उन १५ दिनों में वे लोग डल झील में मछलियाँ पकड़ा करते थे। है ना मज़ेदार बात इस फ़िल्म से जुड़ी हुई! इस फ़िल्म के गीतों के बारे में कुछ कहने की शायद ज़रूरत ही नहीं है, बस इतना कहूँगा कि 'हावड़ा ब्रिज' के बाद ओ.पी. नय्यर एक बार फिर लौटे शक्तिदा के फ़िल्म में और ज़बरदस्त तरीके से लौटे। इस फ़िल्म का एक गीत पंजाबी रंग का था जिसके लिए ख़ास जलंधर से भांगडा कलाकारों को बुलवाया गया था। याद आया वह गीत कौन सा था?

गीत: हाये रे हाये ये मेरे हाथ में तेरा हाथ (कश्मीर की कली)


शक्ति सामंत के फ़िल्मी सफ़र का लेखा-जोखा जारी रहेगा अगले दो और अंकों में। बने रहिए आवाज़ के साथ।

प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी

Tuesday, April 14, 2009

"ये नयन डरे डरे..."-हेमंत दा की कांपती आवाज़ में इस गीत के क्या कहने.



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 51

'ओल्ड इज़ गोल्ड की ५१ वीं कड़ी मे आपका स्वागत है। इन सुरीली लहरों के साथ बहते बहते हम पूरे ५० दिन गुज़ार चुके हैं। हम यही उम्मीद करते हैं कि जिस तरह से हमने इस शृंखला को प्रस्तुत करते हुए ख़ूशी मह्सूस की है, आप ने भी उतना ही आनंद उठाया होगा। अगर आपका इसी तरह साथ बना रहा तो हम भी इसी तरह एक से एक ख़ूबसूरत सुरीली मोती आप पर लुटाते रहेंगे, यह हमारा आप से वादा है। चलिए अब हम आते हैं आज के गीत पर। आज का ओल्ड इज़ गोल्ड, गायक एवं संगीतकार हेमन्त कुमार के नाम। बंगाल में हेमन्त मुखर्जी का वही दर्जा है जो हिन्दी में किशोर कुमार या महम्मद रफ़ी का है। भले ही बहुत ज़्यादा हिन्दी फ़िल्मों में उन्होने गाने नहीं गाये लेकिन जितने भी गाये उत्कृष्ट गाये। उनके संगीत से सजी फ़िल्मों के गीतों के भी क्या कहने। आज सुनिए उन्ही का गाया और स्वरबद्ध किया हुआ फ़िल्म "कोहरा" का एक बहुत ही चर्चित गाना। नायिका के नयनों की ख़ूबसूरती की तुलना मदिरा के छलकते प्यालों के साथ की है गीतकार कैफ़ी आज़मी ने। इस गीत में मादकता भी है, शरारत भी, मासूमीयत भी है और साथ ही है शायराना अंदाज़। "ये नयन डरे डरे ये जाम भरे भरे ज़रा पीने दो" सुनहरे दौर का एक ऐस नग्मा है जिसे सुनते हुए हम एक अलग ही दुनिया में जा पहुँचते हैं। हेमन्तदा की गम्भीर आवाज़ का नाद मधुरता का एक अलग ही संसार रचता है। वह जिस अदा से किसी गीत को गाते हैं, वह गीत और कोई नहीं गा सकता। वो हर एक गीत को अपनी ख़ास अदायिगी से इस तरह से पेश करते हैं कि उसके प्रभाव से बच पाना नामुमकिन है, और प्रस्तुत गीत भी इन्हीं गीतों में से एक है।

कोहरा १९६४ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण खुद हेमन्त कुमार ने ही किया था अपने बैनर गीतांजली पिक्चर्स के तले। एक गायक और संगीतकार होने के अतिरिक्त वह एक फ़िल्म निर्माता भी रहे और अपने इस बैनर पर कई फ़िल्मों का निर्माण किया। शुरु में फ़िल्मिस्तान में उन्होने एस. मुखर्जी के लिए फ़िल्में बनानी शुरु की और उसके बाद उन्होने अपना बैनर लौन्च किया। १९६२ में निर्देशक बिरेन नाग और अभिनेता बिश्वजीत को लेकर उन्होने बनाई 'बीस साल बाद'। जब 'सस्पेन्स थ्रिलर' वाली फ़िल्मों की बात चलती है तो 'बीस साल बाद' का नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। शक़ील बदायूनीं के लिखे और हेमन्त कुमार के संगीत से सजे 'बीस साल बाद' के गाने ख़ूब सुने गये और यह फ़िल्म 'बॉक्स औफ़िस' पर बेहद मक़बूल रही। शायद इसी से प्रेरीत होकर हेमन्त-दा ने 'बीस साल बाद' के दो साल बाद इसी तरह की रहस्य रोमान्च से भरी एक और फ़िल्म 'कोहरा' बनाने की सोची। एक बार फिर बिरेन नाग, बिश्वजीत, और वहीदा रहमान को लेकर उन्होने एक बार फिर से वही प्रयोग किया और एक बार फिर से सफलता उनके हाथ लगी। कोहरा का संगीत ख़ासा लोकप्रिय हुआ। हेमन्त-दा के गाए इस फ़िल्म के कम से कम दो गीत ख़ूब सुने सुनाए गए - "राह बनी ख़ूद मंज़िल" और "ये नयन डरे डरे"। आज का यह गीत सुनने से पहले आपको यह भी बता दें कि हेमन्त कुमार ने खार स्थित अपने बंगले का नाम भी गीतांजली रखा था।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. हसरत के बोलों पर शंकर जयकिशन का मधुर संगीत.
२. लता मुकेश का क्लासिक राजकपूर नर्गिस के लिए.
३. गीत में एक पंक्ति है -"तुने देखा न होगा ये समां".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह नीलम जी एकदम सही जवाब. बहुत बधाई....कल गोल्डन जुबली एपिसोड था और हमारे दूसरे धुरंधर नहीं दिखे...कहाँ गए भाई.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



बहता हूँ बहता रहा हूँ...एक निश्छल सी यायावरी है भूपेन दा के स्वर में



बात एक एल्बम की # 02

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - भूपेन हजारिका.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - मैं और मेरा साया, - भूपेन हजारिका (गीत अनुवादन - गुलज़ार)


भूपेन दा का जन्म १ मार्च १९२६ को नेफा के पास सदिया में हुआ.अपनी स्कूली शिक्षा गुवाहाटी से पूरी कर वे बनरस चले आए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीती शास्त्र से स्नातक और स्नातकोत्तर किया. साथ में अपना संगीत के सफर को भी जारी रखा और चार वर्षों तक 'संगीत भवन' से शास्त्रीय संगीत की तालीम भी लेते रहे। वहां से अध्यापन कार्य से जुड़े रहे इन्ही दिनों ही गुवाहाटी और शिलांग रेडियो से भी जुड़ गए. जब इनका तबादला दिल्ली आकाशवाणी में हो गया तब अध्यापन कार्य छोड़ दिल्ली आ गए ।

भूपेन दा के दिल में एक ख्वाहिश थी की वे एक जर्नलिस्ट बने. इन्ही दिनों इनकी मुलाकात संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष नारायण मेनन से हुई. भूपेन दा की कला और आशावादिता से वे खासा प्रभावित हुए और उन्हें सलाह दी के वे विदेश जा कर पी.एच.डी. करें भूपेन दा ने उनकी सलाह मान ली और कोलंबिया विश्वविद्यालय में मॉस कम्युनिकेशंस से पी.एच डी करने चले गए. मेनन साहब ने स्कालरशिप दिलाने में काफी मदद की. कोलंबिया में पढ़ाई के साथ -साथ होटल में काम किया और कुछ मैगजीन और लघु फिल्मों में संवाद भी बोले. इन सब कामो से वे लगभग २५० डालर कमा लेते थे जिससे उनके शौक भी पूरे हो जाया करते. इन्ही दिनों इनकी मुलाकात राबर्ट स्टेन्स और राबर्ट फेल्हरती से हुई जिनके संपर्क में इन्हे फिल्मो के बारे में काफी कुछ सीखने का मौका भी मिला. जगह -जगह के लोक संगीत को संग्रह करना और सीखना भूपेन साहब के शौको में सबसे उपर. एक दिन दादा एक सड़क से हो कर गुजर रहे थे तभी अमेरिका के मशहुर नीग्रो लोकगायक पॉल रॉबसन गाते हुए देखा वे गाये जा रहे थे 'ol 'man river,you dont say nothing ,you just keep rolling along' पॉल के साथ मात्र एक गिटार वादक था और एक ड्रम और कोई इंस्ट्रूमेंट नही.पॉल की आवाज और उनका गाया यह गाना भूपेन दा को इतना अच्छा लगा कि उससे प्रेरित हो कर 'ओ गंगा तुम बहती हो क्यूँ' रचना का सृजन किया. पॉल से से इनकी जान पहचान भी हो गई और पॉल से ये नीग्रो लोकगायकी के गुर भी सीखने लगे मगर पॉल की दोस्ती थोडी महंगी पड़ी और 7 दिनों के लिए पॉल के साथ जेल की हवा खानी पड़ी .बहरहाल हजारिका अपनी शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए।

चलिए आगे का किस्सा अगले सप्ताह अब सुनते हैं हमारे फीचर्ड एल्बम "मैं और मेरा साया" से भूपेन के गाये ये दो गीत.
हाँ आवारा हूँ ..यायावर दादा के चरित्र को चित्रित करता है ये मधुर गीत-




कुछ इसी भाव का है ये दूसरा गीत भी. कितने ही सागर, कितने ही धारे...बहते हैं बहता रहा हूँ....वाह... सुनिए और इस आनंद में सागर में डूब जाईये -



साप्ताहिक आलेख - उज्जवल कुमार



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की. इस स्तम्भ को आप तक ला रहे हैं युवा स्तंभकार उज्जवल कुमार. यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.


Monday, April 13, 2009

ओल्ड इस गोल्ड का गोल्डन जुबली एपिसोड गायिकी के सरताज कुंदन लाल सहगल के नाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 50

'ओल्ड इस गोल्ड' की सुरीली धाराओं के साथ बहते बहते हम पूरे 50 दिन गुज़ार चुके हैं. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की गोल्डन जुबली अंक है. आज का यह अंक क्योंकि बहुत ख़ास है, 'गोलडेन' है, तो हमने सोचा क्यूँ ना आज के इस अंक को और भी यादगार बनाया जाए आप को एक ऐसी गोल्डन वोईस सुनाकर जो फिल्म संगीत में भीष्म पितामाह का स्थान रखते हैं. यह वो शख्स थे दोस्तों जिन्होने फिल्म संगीत को पहली बार एक निर्दिष्ट दिशा दिखाई जब फिल्म संगीत जन्म तो ले चुका था लेकिन अपनी एक पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था. जी हाँ, 1931 में जब फिल्म संगीत की शुरुआत हुई तो यह मुख्या रूप से नाट्य संगीत और शास्त्रिया संगीत पर पूरी तरह से निर्भर था. लेकिन इस अज़ीम फनकार के आते ही जैसे फिल्म संगीत ने करवट बदली और एक नयी अलग पहचान के साथ तेज़ी से लोकप्रियता की सीढियां चढ्ने लगा. यह कालजयी फनकार और कोई नहीं, यह थे पहले 'सिंगिंग सुपरस्टार' कुंदन लाल सहगल. फिल्म संगीत में सुगम संगीत की शैली पर आधारित गाने उन्ही से शुरू हुई थी कलकत्ता के न्यू थियेटर्स में जहाँ आर सी बोराल, तिमिर बरन और पंकज मालिक जैसे संगीतकारों ने उनकी आवाज़ के ज़रिए फिल्म संगीत में एक नयी क्रांति ले आए. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में पेश है सहगल साहब का गाया सन 1946 की फिल्म "शाहजहाँ" से एक नग्मा.


फिल्म "शाहजहाँ" के एल सहगल की आखिरी मशहूर फिल्म थी. इस फिल्म के संगीतकार थे नौशाद और इस फिल्म के जिस गीत को आज आप सुन रहे हैं उसके गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी. नौशाद और सहगल साहब की यही पहली और आखिरी फिल्म थी. नौशाद साहब सहगल साहब की आवाज़ के इतने दीवाने थे कि उन पर पूरी की पूरी कविता लिख डाली. यह है वो कविता...

"कोई चीज़ शायर की हमसाज़ मिलती,
कोई शै मुस्सब्बिर की दमसाज़ मिलती,
यह कहता है कागज़ पे हर शेर आकर,
मुझे काश सहगल की आवाज़ मिलती.

ऐसा कोई फनकार-ए-मुकम्मिल नहीं आया,
नग्मों का बरसता हुआ बादल नहीं आया,
मौसीक़ी के माहिर तो बहुत आए हैं लेकिन,
दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया.

सदाएँ मिट गयीं सारी सदा-ए-साज़ बाक़ी है,
अभी दुनिया-ए-मौसीक़ी का कुछ एजाज़ बाक़ी है,
जो नेमत दे गया है तू वो नेमत कम नहीं सहगल,
जहाँ में तू नहीं लेकिन तेरी आवाज़ बाक़ी है.

नौशाद मेरे दिल को यकीन है यह मुकम्मिल,
नग्मों की क़सम आज भी ज़िंदा है वो सहगल,
हर दिल में धड़कता हुआ वो साज़ है बाक़ी,
गो जिस्म नहीं है मगर आवाज़ है बाक़ी,
सहगल को खामोश कोई कर नहीं सकता,
वो ऐसा अमर है जो कभी मर नहीं सकता."

तो इसी अमर फनकार की सुनहरी आवाज़ में 'ओल्ड इस गोल्ड' का सुनहरा अंक पेश-ए-खिदमत है...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. हेमंत कुमार द्वारा निर्मित फिल्म के इस गीत में संगीत और गायन भी खुद हेमंत दा है.
२. कैफी आज़मी ने क्या खूब लिखा है इस गीत को.
३. मुखड़े में शब्द है - "निडर", दोस्तों वाकई बहुत ही प्यारा गाना है ये.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही जवाब है नीरज जी और मनु जी. ओल्ड इस गोल्ड के इस आयोजन के ५० वें संस्करण के लिए आप सभी नियमित श्रोता भी बधाई के पात्र हैं.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



महफ़िल-ए-गज़ल एक नए अंदाज़ में ....संग है गुलाम अली की आवाज़



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०४

न् ८३ में पैशन्स(passions) नाम की गज़लों की एक एलबम आई थी। उस एलबम में एक से बढकर एक नौ गज़लें थी। मज़े की बात है कि इन नौ गज़लों के लिए आठ अलग-अलग गज़लगो थे:  प्रेम वरबरतनी, एस एम सादिक, अहमौम फ़राज़, हसन रिज़वी, मोहसिन नक़्वी, चौधरी बशीर, जावेद कुरैशी और मुस्तफा ज़ैदी। और इन सारे गज़लगो की गज़लों को जिस फ़नकार या कहिए गुलूकार ने अपनी आवाज़ और साज़ से सजाया था  आज यह महफिल उन्हीं को नज़र है।  उम्मीद है कि आप समझ गए होंगे। जी हाँ, हम आज पटियाला घराना के मशहूर पाकिस्तानी फ़नकार "गुलाम अली" की बात कर रहे हैं।

गुलाम अली साहब, जो कि बड़े गुलाम अली साहब के शागिर्द हैं और जिनके नाम पर इनका नामकरण हुआ है, गज़लों में रागों का बड़ा हीं बढिया प्रयोग करते हैं। बेशक हीं ये घराना-गायकी से संबंध रखते हैं,लेकिन घरानाओं (विशेषकर पटियाला घराना) की गायकी को किस तरह गज़लों में पिरोया जाए, इन्हें बखूबी आता है। गुलाम अली साहब की आवाज़ में वो मीठापन और वो पुरकशिश ताजगी है, जो किसी को भी अपना दीवाना बना दे। अपनी इसी बात की मिसाल रखने के लिए हम आपको पैसन्स एलबम से एक गज़ल सुनाते हैं, जिसे लिखा है "जावेद कुरैशी" ने। हाँ, सुनते-सुनते आप मचल न पड़े तो कहिएगा।

अच्छा रूकिये, सुनने से पहले थोड़ा माहौल बनाना भी तो जरूरी है। अरे भाई, गज़ल ऎसी चीज है जो इश्क के बिना अधूरी है और इश्क एक ऎसा शय है जो अगर आँखों से न झलके तो कितने भी लफ़्ज क्यों न कुर्बान किए जाए, सामने वाले पर कोई असर नहीं होता। इसलिए आशिकी में लफ़्ज परोसने से पहले जरूरी है कि बाकी सारी कवायदें पूरी कर ली जाएँ। और अगर आशिक आँखों की भाषा न समझे तो सारी आशिकी फिजूल है। मज़ा तो तब आता है जब आपका हबीब लबों से तबस्सुम छिरके और आँखों से सारा वाक्या कह दे। इसी बात पर मुझे अपना एक पुरा्ना शेर याद आ रहा है:

दबे लब से मोहब्बत की गुजारिश हो जो महफिल में,
न होंगे कमगुमां हम ही, न होंगे वो हीं मुश्किल में।


यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम उस गज़ल की ओर बढते हैं जिसके लिए यह महफ़िल सजी है। वह गज़ल और उसके बोल आप सबके सामने पेशे-खिदमत है:

निगाहों से हमें समझा रहे हैं
नवाज़िश है करम फ़रमा रहे हैं

मैं जितना पास आना चाहता हूँ
वो उतना दूर होते जा रहे हैं

मैं क्या कहता किसी से बीती बातें
वो ख़ुद ही दास्ताँ दोहरा रहे हैं

फ़साना शौक़ का ऐसे सुना है
तबस्सुम ज़ेर-ए-लब फ़रमा रहे हैं




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

नाखुदा को खुदा कहा है अगर,
डूब जाओ खुदा खुदा न करो...

इरशाद ....


पिछली महफ़िल के साथी-

इन्तजार का मज़ा बेताब होकर ही तो आता है
जुनून हद से निकल जाए तो कहर आ जाता है.
वाह शन्नो जी...बहुत बढ़िया...

जो रहा बेताब वो आगे बढ़ा है।
जो नहीं बेताब वो पीछे खड़ा है।
आचार्य जी किसकी तरफ है इशारा :)

बहुत बेताब देखा 'बे-तखल्लुस' आज फिर हमने,
के जैसे खुद से हो बेजार ढूंढें फासला कोई.
मनु जी बहुत खूब... बेताबियाँ बनाये रखिये...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Sunday, April 12, 2009

तुम बिन जीवन कैसे बीता पूछो मेरे दिल से....मुकेश और एल पी का संगम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 49

यूँ तो गीतकार राजा मेंहदी अली ख़ान का नाम लेते ही याद आ जाते हैं संगीतकार मदन मोहन. और क्यूँ ना आए, आखिर इन दोनो की जोडी ने फिल्म संगीत के ख़ज़ाने को एक से एक नायाब मोतियों से समृद्ध जो किया है. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम राजा मेंहदी अली ख़ान के साथ मदन मोहन साहब की नहीं, बल्कि अगली पीढी की मशहूर संगीतकार जोडी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का बनाया हुया एक गीत सुनवा रहे हैं. राजा-जी और लक्ष्मी-प्यारे की जोडी ने बहुत कम एक साथ काम किया है. इस जोडी की सबसे चर्चित फिल्म का नाम है "अनिता". फिल्म के निर्माता शायद 1964 की फिल्म "वो कौन थी" से कुछ ज़्यादा ही प्रभावित हुए थे कि उसी 'स्टार कास्ट' यानी कि साधना और मनोज कुमार और वही गीतकार यानी राजा मेंहदी अली ख़ान को लेकर 1967 में "अनिता" फिल्म बनाने की सोची. बस मदन मोहन साहब की जगह पर आ गयी लक्ष्मी-प्यारे की जोडी. अनिता की कहानी भी कुछ रहस्यमय ही थी, पूरी फिल्म में नायिका के चरित्र पर एक रहस्य का पर्दा पड़ा रहता है. इस फिल्म में लता मंगेशकर ने कई खूबसूरत गीत गाए जो अलग अलग रंग के थे. एक गीत "करीब आइए नज़र फिर मिले ना मिले" राजाजी और मदन साहब की जोडी की याद दिला जाती है. लेकिन आज इस फिल्म से पेश है मुकेश का गाया एक दर्द भरा नग्मा.

जिंदगी आज एक भीड में खो कर रह गयी है. इंसान और अकेला, और ज़्यादा तन्हा हो गया है, रिश्ते नाते भी जैसे बदल से गये हैं. जिनकी आँखों में टूटे रिश्ते का दर्द हो, जो तन्हाई की किसी रात में अकेले आँसू बहा रहा हो, मुकेश के गीत उनके हमसफ़र बनकर उनके दिल के बोझ को बाँट लेते हैं. कुछ इसी तरह का फलसफा बयाँ हुआ है इस गीत में भी - "तुम बिन जीवन कैसे बीता पूछो मेरे दिल से". यह गीत आधारित है राग यमन कल्याण पर. इससे पहले कि आप यह गीत सुने आपको इसी गीत से मिलते जुलते चाँद और नग्मों की याद दिला देते हैं, यानी कि मुकेश के गाए कुछ और दर्द भरे नग्में जो आधारित है राग कल्याण पर. यह गाने हैं "आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें" (परवरिश), "कोई जब तुम्हारा हृदय तोड दे" (पूरब और पश्चिम), और "तुम मुझे भूल भी जाओ तो यह हक़ है तुमको" (दीदी). तो आज पेश है फिल्म अनिता से "तुम बिन जीवन कैसे बीता"...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कल ओल्ड इस गोल्ड का ५० वां एपिसोड है जो समर्पित है हिंदी फिल्मों के पहले "महागायक" के एल सहगल को.
२. साथ में हैं नौशाद साहब और मजरूह सुल्तानपुरी.
३. मुखड़े में शब्द है -"नाज़ुक".

कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम-
सागर नाहर जी पहली बार आये पर ज़रा सा चूक गए...पर वन डाउन आये नीरज जी ने सही जवाब देकर टीम का हौसला रखा. दिलीप जी और मनु जी ने भी सही जवाब दिया बधाई. आचार्य जी आप युहीं सुनते रहें. मधुर गीत लेकर आयेंगे हम ये वादा रहा.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (2)



रविवार सुबह की कॉफी के साथ कुछ और दुर्लभ गीत लेकर हम हाज़िर हैं. आज हम जिस फिल्म के गीत आपके लिए लेकर आये हैं वो कोई ज्यादा पुरानी नहीं है. अमृता प्रीतम के उपन्यास पर आधारित चन्द्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित २००३ में आयी एक बेहतरीन फिल्म है -"पिंजर". उर्मिला मातोंडकर और मनोज वाजपई ने अपने अभिनय से सजाया था फिल्म में पुरो और राशिद के किरदारों को. फिल्म का एक और बड़ा आकर्षण था उत्तम सिंह का संगीत. वैसे तो इस फिल्म के गीत बेहद मशहूर हुए विशेषकर "शाबा नि शाबा" और "मार उड़ारी". अमृता प्रीतम द्वारा उपन्यास में दर्ज गीत "चरखा चलाती माँ" और जगजीत सिंह का गाया "हाथ छूटे भी तो" भी काफी सराहा गया. यूँ तो आज हम आपको प्रीती उत्तम का गाया "चरखा चलाती माँ" और वाड्ली बंधुओं का "दर्द मारियाँ" भी सुन्वायेगें. पर विशेष रूप से दो गीत जो हम आपको सुनवा रहे हैं वो बहुत कम सुने गए हैं पर इतने बेहतरीन हैं कि उन्हें इस कड़ी में आपको सुनवाना लाजमी ही है. एक "वतन वें" और दूसरा है अमृता प्रीतम का लिखा "वारिस शाह नु..." अभी कुछ दिन पहले आवाज़ के नियमित श्रोता प्रदीप बाली जी ने हमें इस गीत की याद दिलवाई और कहा कि इसे कहीं से भी ढूंढ कर आवाज़ पर सुनवाया जाए. इस गीत को ऑंखें मूँद कर सुनियेगा हमारा दावा है कि गीत खत्म होते होते आपकी आँखों से भी एक मोती टूट कर ज़रूर गिरेगा. कुछ ऐसा दर्द है इस गीत में.

खैर इससे पहले कि हम इन गीतों को सुनें. कुछ बातें इन गीतों के संगीतकार उत्तम सिंह के बारे में हो जाए. दरअसल अधिकतर लोग उत्तम सिंह को जानने लगे थे यश चोपडा की "दिल तो पागल है" के सुपर हिट संगीत के बाद से. पर जिन लोगों ने दीवानों की तरह १९८० के दौर में जगजीत सिंह को सुना हो वो अच्छी तरह जानते हैं कि जगजीत की लगभग सभी अल्बम्स में संगीत संयोजन उत्तम सिंह का ही रहा है. पर हम आपको बता दें कि उत्तम सिंह का संगीत सफ़र १९६० में शुरू हुआ था. संगीत से जुड़े परिवार से आये उत्तम सिंह को १९६३ में मोहम्मद साफी (इनकी चर्चा फिर कभी करेंगे) द्वारा निर्मित एक लघु फिल्म में वोइलिन बजाने का मौका मिला. उसके बाद उत्तम ने सभी प्रमुख संगीतकारों के लिए वोइलिन बजाया. उन्होंने एक अन्य संगीतकार जगदीश के साथ मिलकर उत्तम जगदीश के नाम से जोड़ी बनायीं. इस जोड़ी को पहला ब्रेक दिया मनोज कुमार ने फिल्म "पेंटर बाबू" में उत्तम जगदीश का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ फिल्म "वारिस" में. लता का गाया "मेरे प्यार की उम्र हो इतनी सनम" आज भी याद किया जाता है. १९९२ में जगदीश की आकस्मिक मृत्यु के बाद उत्तम ने स्वतंत्र रूप से "दिल तो पागल है" से कमियाबी पायी. "ग़दर-एक प्रेम कथा" में तमाम हिंसा के बावजूद उनके मधुर संगीत को अवाम ने सर आँखों पे बिठाया. उदित नारायण की आवाज़ में "उड़ जा काले कावां" ने मेलोडी गीतों को वापस स्थापित कर दिया. संगीत संयोजक के रूप में भी फिल्म "मैंने प्यार किया" और "हम आपके हैं कौन" में भी उनका काम सराहा गया. पर "पिंजर" में तो उनका संगीत अपने चरम पर था. एक से बढ़कर एक गीत हैं इस फिल्म में. उनकी बेटी हैं प्रीती उत्तम जिन्होंने इस फिल्म के "चरखा चलाती माँ" और अन्य गीतों को अपनी आवाज़ दी. इन गीतों को गाकर प्रीती ने हमेशा हमेशा के लिए खुद को संगीत प्रेमियों के दिलो-जेहन में कैद कर लिया है. तो चलिए और अब और इंतज़ार नहीं कराते आपको. वैसे तो आपको रुलाने का इरादा नहीं है पर किसी शायर ने कहा है न -

घर की तामीर चाहे जैसी हो.
इसमें रोने की कुछ जगह रखना...

सुनिए, प्रीती की मर्मस्पर्शी आवाज़ में - "चरखा चलाती माँ"


दरदां मारियाँ माहिया


वतना वे..


और सुनिए ये गीत "वारिस शाह नु..."


पिछले अंक में कुछ श्रोताओं ने हमसे गुजारिश की थी कि वो लता का गाया पहला गीत सुनना चाहते हैं. तो लीजिये आपकी फरमाईश पर फिल्म "आपकी सेवा में" से लता मंगेशकर का गाया पहला फ़िल्मी गीत प्रस्तुत है (सौजन्य- अजय देशपांडे, नागपुर)

पा लागूं कर गोरी से...




"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.




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