Saturday, January 2, 2010

ओ हसीना जुल्फों वाली....जब पंचम ने रचा इतिहास तो थिरके कदम खुद-ब-खुद



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 302/2010/02

'पंचम के दस रंग' शृंखला की दूसरी कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। कल आपने पहली कड़ी में सुनें थे पंचम के गीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की मधुरता। आज इसके बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हुए आप के लिए हम लेकर आए हैं एक धमाकेदार पाश्चात्य धुनों पर आधारित गीत। फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' राहुल देव बर्मन की पहली सुपरहिट फ़िल्म मानी जाती है, जिसमें कोई संशय नहीं है। इसी फ़िल्म में वो अपने नए अंदाज़ में नज़र आए और जिसकी वजह से उन्हे पाँच क्रांतिकारी संगीतकारों में जगह मिली। (बाक़ी के चार संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचंद्र, ओ. पी. नय्यर, और ए. आर. रहमान)। इन नामों को पढ़कर आप ने यह ज़रूर अंदाज़ा लगा लिया होगा कि इन्हे क्रांतिकारी क्यों कहा गया है। तो फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' पंचम की कामयाबी की पहली मंज़िल थी। इस फ़िल्म से फ़िल्म संगीत जगत में उन्होने जो हंगामा शुरु किया था, वह हंगामा जारी रखा अपने अंतिम समय तक। रफ़ी साहब पर केन्द्रित शृंखला के अन्तर्गत इस फ़िल्म से "दीवाना मुझसा नहीं" गीत हमने सुनवाया था और फ़िल्म की जानकारी भी दी थी। आज बस यही कहेंगे कि मजरूह साहब के लिखे इस गीत को गाया रफ़ी साहब और आशा जी ने और गाना फ़िल्माया गया शम्मी कपूर और हेलेन पर। जी हाँ, भले ही आशा पारेख फ़िल्म की हीरोइन थीं पर यह कल्ब सोंग हेलेन पर फ़िल्माया गया था। अब तक आप के ज़हन में इस गानें के दॄश्य ज़रूर उभर चुके होंगे।

आइए आज कुछ बातें करें राहुल देव बर्मन की, और क्योंकि गाना शम्मी कपूर साहब पर फ़िल्माया हुआ है तो क्यों ना जानें शम्मी साहब क्या कहते हैं इस अनोखे संगीतकार के बारे में! इस अंश में वो केवल पंचम के बारे में ही नहीं बल्कि 'तीसरी मंज़िल' से जुड़ी कुछ और यादों को भी पुनर्जीवित कर रहे हैं (सौजन्य: विविध भारती - उजाले उनकी यादों के)। "नासिर मेरा बड़ा क़रीब और जिगरी दोस्त है। पहली पिक्चर डिरेक्ट की थी 'तुमसा नहीं देखा', जिसका मैं हीरो था। फिर 'दिल देके देखो' में भी मैं हीरो था। फिर उसने देव आनंद को ले लिया 'जब प्यार किसी से होता है' में। बहुत ही बढ़िया म्युज़िक था उस पिक्चर का। ख़ैर, एक अरसे के बाद हम फिर साथ में आए, नासिर और मैं, 'तीसरी मंज़िल' के लिए। तो नासिर ने कहा कि इस फ़िल्म के लिए एक नया म्युज़िक डिरेक्टर लेते हैं। मैंने कहा अच्छी बात है। उन्होने कहा कि मुझे भी शौक है, तुझे भी शौक है, 'why should we take Shankar Jaikishan only?' बोले कि आर. डी. बर्मन को लेते हैं। तो एक दिन हम सब सिटिंग् पे बैठे। पंचम ने गाना शुरु किया "दीवाना मुझसा नहीं इस अंबर के नीचे", और मैं भी गा उठा "ए कांचा मलाइ सुनको तारा खसाई देओ ना"। वो पागल हो गया, उठके भाग गया वहाँ से। कहने लगा कि मैं म्युज़िक नहीं दूँगा। मैने यह गाना दार्जिलिंग में सुना था, इसलिए मुझे याद रह गया था। बहुत सारी यादें हैं उस पिक्चर के साथ, इस पिक्चर का पहला गाना पिक्चराइज़ कर रहे थे "ओ हसीना ज़ुल्फ़ोंवाली", और वह गाना ख़त्म किया ही था कि 'my wife fell sick'. Geeta fell sick', और फिर मैं घर चला आया था यहाँ पे, 'and she died'. वह पिक्चर रुक गई, शूटिंग् रुक गई, नासिर ने सेट लगाए रखा महबूब स्टुडियो में तीन महीने तक। और तीन महीनों तक मैने शूटिंग् नहीं की। 'I was not in that mental state', और फिर जब मैं ठीक हो गया, मुझे लगा कि अब मैं शूटिंग् कर सकता हूँ, मैं गया सेट पे और तब वह गाना पिक्चराइज़ होना था "तुमने मुझे देखा हो कर महरबाँ"।" दोस्तों, ये तो थीं कुछ खट्टी मीठी यादें शम्मी कपूर जी के फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' से जुड़ी हुई। अब गीत का आनंद उठाने से पहले ज़रा पंचम दा की भी तो सुन लीजिए कि उनका क्या कहना है इस गीत के बारे में (सौजन्य: जयमाला, विविध भारती): "उसके बाद ('छोटे नवाब' के बाद) मेरी जो बड़ी फ़िल्म, बड़ी यानी कि जिसका स्टार कास्ट बड़ा हो, वह फ़िल्म थी 'तीसरी मंज़िल'। इस फ़िल्म से मुझे नाम और रिकाग्निशन मिला, सब लोग बोलने लगे कि ये अलग टाइप का म्युज़िक देता है,मोडर्न टाइप का। इस फ़िल्म का पहला गाना बना कर मैं आशा जी और रफ़ी साहब के घर गया, उनसे कहा कि यह गाना प्रोड्युसर, डिरेक्टर, शम्मी कपूर, सभी को बहुत पसंद है। रफ़ी साहब को कहा कि आप को इसमें शम्मी कपूर के स्टाइल में गाना पड़ेगा। दोनों ने गाना सुन कर कहा कि इस गाने के लिए तो ४/५ रिहर्सल देने पड़ेंगे। यह सुन कर मैं बहुत प्राउड फ़ील करने लगा कि इतने बड़े सिंगर्स लोग कह रहे हैं कि मेरे गीत के लिए ४/५ रिहर्सल्स देने पडेंगे।" तो सुनिए यह गाना।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

हाथ साफ़ रख हर सौदे में,
न ईमान डिगा दुनिया के डर से,
चलना पड़े अकेला बेशक,
गिर तू कभी अपनी नज़र से...

पिछली पहेली का परिणाम-


खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

हरिशंकर परसाई की कहानी "नया साल"



आवाज़ के सभी श्रोताओं को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने पंडित सुदर्शन की कालजयी रचना "हार की जीत" का पॉडकास्ट शरद तैलंग की आवाज़ में सुना था। नववर्ष के शुभागमन पर आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य "नया साल", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
"नया साल" का कुल प्रसारण समय मात्र 4 मिनट 40 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

साधो, मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है।
(हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "नया साल" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fifty Third Story, Naya Saal: Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2009/47. Voice: Anurag Sharma

Friday, January 1, 2010

ए सखी राधिके बावरी हो गई...बर्मन दा के शास्त्रीय अंदाज़ को सलाम के साथ करें नव वर्ष का आगाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 301/2010/01

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहनेवालों को हमारी तरफ़ से नववर्ष की एक बार फिर से हार्दिक शुभकामनाएँ! नया साल २०१० आप सब के लिए मंगलमय हो यही ईश्वर से कामना करते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला ३०० कड़ियाँ पूरी कर चुका हैं, ७ दिनों के अंतराल के बाद, आज से हम फिर एक बार हाज़िर हैं इस शूंखला के साथ और फिर उसी तरह से हर रोज़ लेकर आएँगे गुज़रे ज़माने का एक अनमोल नग़मा ख़ास आपके लिए। पहेली प्रतियोगिता का स्वरूप भी बदल रहा है आज से, तो जल्द जवाब देने से पहले शर्तों को ठीक तरह से समझ लीजिएगा! तो दोस्तों, नए साल में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शुरुआत एक धमाकेदार तरीके से होनी चाहिए, क्यों है न? तो फिर हो जाइए तैयार क्योंकि आज से हम शुरु कर रहे हैं क्रांतिकारी संगीतकार राहुल देव बर्मन के स्वरबद्ध किए दस अलग अलग रंगों के गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला - पंचम के दस रंग। युं तो पंचम के दस नहीं बल्कि बेशुमार रंग हैं, लेकिन हम ने उनमें से चुन लिए लिए हैं दस रंगों को और इन दस रंगों से आपको अगले दस दिनों तक हम सराबोर करने जा रहे हैं। तो आइए आज इस नए साल की शुरुआत करते हैं एक बेहद सुरीले और मीठे गीत के साथ। जी हाँ, इसमें है पंचम के भारतीय शास्त्रीय संगीत का रंग। लता मंगेशकर और मन्ना डे की आवाज़ों में फ़िल्म 'जुर्माना' का एक बेहद कर्णप्रिय गीत "ए सखी राधिके बावरी हो गई, श्याम को ढ़ूंढते आप ही खो गई"। आनंद बक्शी साहब का लिखा हुआ गाना है, और जो फ़िल्माया गया है राखी और ए. के. हंगल पर, यानी कि मन्ना दा की आवाज़ सजी है हंगल साहब के होठों पर।

'जुर्माना' १९७८ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था ऋषीकेश मुखर्जी ने, और इसमें मुख्य कलाकार थे राखी, अमिताभ बच्चन और विनोद मेहरा। इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत रहा लता जी का गाया "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ"। उन्ही की आवाज़ में "छोटी सी एक कली खिली थी बाग़ में" भी पसंद किया गया, और आज का प्रस्तुत गीत तो शास्त्रीय रचनाओं में एक अच्छा ख़ासा मुकाम रखता है। आइए इस गाने के सिचुयशन से आपको रु-ब-रु करवाया जाए। इस गीत के माध्यम से एक लड़की के गायिका बनने का सफ़र मुकाम दर मुकाम दर्शाया गया है। गाने की शुरुआत होती है कि जब राखी घर पर अपने संगीत शिक्षक ए. के. हंगल से गाना सीख रही होती हैं। पहले अंतरे के ख़त्म होते होते राखी बन जाती हैं स्टेज पर अपना गायन पेश करने वाली गायिका। एक नृत्य नाटिका के लिए पार्श्वगायन करते हुए भी दिखाया जाता है। और अंतिम अंतरे में वो बन जाती हैं एक नामचीन गायिका जिनके ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स जारी होते हैं और रेडियो पर भी उनके गानें बजते हैं। इस तरह से घर पर बैठे रियाज़ करने से लेकर रेडियो और ग्रामोफ़ोन तक के सफ़र को इस अकेले गीत में दर्शाया गया है। पंचम ने इस तरह के शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत पर आधारित कई गानें लता जी से गवाए हैं जैसे कि फ़िल्म 'छोटे नवाब' में "घर आजा घिर आए", फ़िल्म 'अमर प्रेम' में "रैना बीती जाए" और "बड़ा नटखट है रे", फ़िल्म 'बेमिसाल' में "ए री पवन ढ़ूंढे किसे तेरा मन", फ़िल्म 'बावर्ची' में "मस्त पवन डोले रे", और भी न जाने कितने ऐसे गीत हैं। ये गानें इतने सुरीले हैं कि आज भी जब हम इन्हे सुनते हैं तो जैसे कानों में मिश्री से घुल जाती है। आइए दोस्तों, नए साल के इस पहले दिन में कुछ मीठा हो जाए, लता जी और मन्ना दा के सुरीली आवाज़ों के साथ, पेश है फ़िल्म 'जुर्माना' की यह सुमधुर रचना!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें,कुछ शब्द बोल्ड किये हुए होंगें, और कुछ शब्द आपने खुद खोजने हैं, बाकी पंक्तियों में से, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

कथ्थई है रंग, उन आँखों का जैसे,
रात में घुली, शफक की अंगडाई हो,
छुपी है हया, सादगी के पर्दों में,
झील में जैसे, चाँद की परछाई हो...

पिछली पहेली का परिणाम-
महा पहेली में ४ प्रशन अनुत्तरित रह गए. ६ सही जवाब आये जिसमें से ५ शरद जी के थे और एक पाबला जी का....आप दोनों को बहुत बधाई...पहेली का नया अंदाज़ आपको कैसा लगा अवश्य बताईयेगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, December 31, 2009

TST की सिकंदर बनी सीमा जी की पसंद के गीतों के संग उतरिये आज नव वर्ष के स्वागत जश्न में



सजीव: सुजॉय, आज साल का अंतिम दिन है और इस दशक का भी. पिछले कुछ दिनों से हम इस साल के संगीत की समीक्षा करते आ रहे हैं और आज इस 'सीरीस' की अंतिम कड़ी है.

सुजॉय: बिल्कुल, और हमें पूरी उम्मीद है कि इन समीक्षाओं के ज़रिए हमारे वो पाठक जिन्होने बहुत ज़्यादा ध्यान से सन 2009 के फिल्मी गीतों को 'फॉलो' नहीं किया होगा, उन्हे भी एक अंदाज़ा हो गया होगा इस साल जारी हुए गीतों का

सजीव: और आज इस अंतिम कड़ी में हम वो दस गाने सुनने जा रहे हैं जिनके लिए हमें फरमाइश लिख भेजी हैं 'ताज़ा सुर ताल' शृंखला के विजेता सीमा गुप्ता जी ने. सीमा जी को 'आवाज़' की तरफ से हार्दिक बधाई!

सुजॉय: बधाई मेरी तरफ से भी. वाक़ई, सीमा जी ने शुरू से ही इस शृंखला में गहरी दिलचस्पी दिखाई है. हम उन्हे बधाई के साथ साथ धन्येवाद भी देते हैं.

सजीव: सुजॉय, हम सीमा जी के पसंदीदा गीतों को सुनने के साथ साथ उनसे इन गीतों के बारे में उनकी राय भी जाँएंगे. तो सीमा जी, स्वागत है आप का इस साल की आखिरी महफ़िल में.

सीमा: धन्येवाद आप सभी का

सजीव: तो सीमा जी, बताइए किस गीत से शुरुआत की जाए इस सुहाने शाम की?

सीमा: पहला गीत आप सुनवा दीजिए फिल्म 'अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी' से "तेरा होने लगा हूँ".

सुजॉय: सीमा जी, आप के साथ साथ बहुत से लोगों को यह गीत बेहद पसंद आया है, तभी तो इन दीनो यह गीत सिर्फ़ 'रेडियो' और 'टेलीविजन' पर ही नहीं, बल्कि 'मोबाइल फोन' के 'कॉलर ट्यून्स' में भी शोभा पा रहा है. सुनते हैं यह गीत...

सॉंग 1: तेरा होने लगा हूँ(APKGK)


सुजॉय: सीमा जी, आप बताना चाहेंगी कि यह गीत आपको पसंद क्यों आया?

सीमा: ज़रूर! इस फिल्म के कुल तीन गाने मेरी पसंद के हैं, और मुझे ये गाने इसलिए पसंद हैं क्योंकि इन गीतों के बोलों में प्यार और चाहत कूट कूट कर भरी हुई है, जिन्हे बार बार सुनने को दिल चाहता है. ख़ास कर "तेरा होने लगा हूँ" गीत के 'लिरिक्स' तो मुझे बेहद अच्छे लगे.

सजीव: और कोई ख़ास बात इस फिल्म के गानो की जिसने आपको आकर्षित किया है?

सीमा: इस फिल्म में मेरी 'फॅवुरेट आक्ट्रेस' कटरीना कैफ़ जो हैं! और जिस तरह से इस फिल्म के गीतों का फ़िल्मांकन हुआ है रणबीर कपूर पर, दर्शक उनसे 'इंप्रेस्ड' हुए बिना नहीं रह सकते.

सुजॉय: चलिए हम भी मान लेते हैं आपकी बात और अब बताइए कि दूसरा गाना कौन सा बजाना चाहेंगी?

सीमा: ज़ाहिर है वो भी इसी फिल्म का होगा! सुनवा दीजिए "तू जाने ना".

सॉंग 2: तू जाने ना (APKGK)


सजीव: अच्छा सीमा जी, एक बात बताइए, आप TST के सवालों के जवाब में जिस तरह की फुर्ती दिखाती रही हैं, तो क्या आप को इन सवालों के जवाब पहले से ही मालूम होते हैं या फिर सवाल देख कर खोज बीन करके तब अपना जवाब देती हैं?

सीमा: हा हा हा हा हा हा बड़ा अच्छा सवाल है.....लकिन सच बोलने में ही भलाई है.....ये सही है कि संगीत सुनने का शौक एक जनून की हद तक है और ये भी सच है की हर एक सवाल का जवाब हमे नहीं आता. कुछ सवाल जो नई फिल्मो के संगीत से जुड़े होते हैं वो तो पता होते हैं, मगर किसी गीतकार या संगीतकार के जीवन या कैरिएर से जुड़े होते हैं वो हमे अंतर्जाल पर सर्च ही करने पड़ते हैं, तभी हम सही जवाब दे पाते हैं.

सुजॉय: जो भी हो सीमा जी, 'हॅट्स ऑफ तो यूं', सबसे बड़ी बात दिलचस्पी की होती है, और कहते हैं ना कि "जहाँ चाह वहाँ राह"! खैर, अब बताइए कि आपके पसंद का 2009 का तीसरा गाना कौन सा होगा? कहीं ‘अजब प्रेम की...” से एक और गीत सुनवाने का इरादा तो नहीं?

सीमा: बिल्कुल इरादा है जनाब! इस फिल्म का एक और गीत जो मैं खुद भी सुनना चाहूँगी और श्रोताओं को भी सुनवाना चाहूँगी, वो गीत है "आ जाओ मेरी तमन्ना".

सॉंग 3: आ जाओ मेरी तमन्ना (APKGK)


सुजॉय: चलिए तीन गाने हो गये आपकी पसंद के. अब बारी है चौथे गीत की. अब किस फिल्म का गीत आप चुनेंगी?

सीमा: अब मैं सुनवाना चाहूँगी फिल्म जश्न का एक गीत "नज़रें करम".

सजीव: और वो क्यों?

सीमा: मुझे यह गाना अच्च्छा लगा, 'इट जस्ट मेड द लिसनर ROCK, THE MUSIC IS FANTASIC.'

सुजॉय: वाक़ई 'रॉकिंग नंबर' है. आइए सुनते हैं.

सॉंग 4: नज़रें करम (जश्न)


सजीव: आपने यह गौर किया होगा की TST में बहुत ज़्यादा 'कॉमेंट्स' नहीं आते हैं. इसका कारण आपको क्या लगता है? क्या नये गीतों की तरफ रूचि लोगों की बिल्कुल ख़त्म हो गयी है? आपका इस दौर के फिल्म संगीत के बारे में क्या ख़याल है?

सीमा: जी हमने भी ये देखा है की TST पर ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं आती.....अब ये कहना मुश्किल है कि कौन सी वजह है जो पाठक यहाँ कुछ कहते क्यों नहीं.....ऐसा तो नहीं लगता कि नये गानों में लोगो की रूचि कम है......आज के हर गाने माना कि उतने अच्छे नहीं होते या वो भाव लिए नहीं होते जो सुनने में अच्छे लगे मगर फिर भी, काफी ऐसे गाने सुनने में जरुर आते हैं जो दिलो दिमाग पर छा जाते हैं, उन्हें गुनगुनाने का भी मन करता है....आजकल एक गाना सुनने में आ रहा है: "दबी दबी सांसो में सुना है मैंने बिना बोले मेरा नाम आया" कितनी खूबसूरती समेटे है ये गीत, अगर आराम से सुना और समझा जाये तो बहुत ही प्यारा लगता है....बाकि सबकी अपनी अपनी पसंद है ...

सुजॉय: क्या आपको पुराने गानो का भी शौक है? आपको ज़्यादा ओल्ड इस गोल्ड की महफ़िल में कॉमेंट्स पोस्ट करते नहीं देखा इसलिए पूछ रहे हैं.

सीमा: पुराने गानों से जो हमे लगाव है या जो रूचि है उसका कोई मुकबला नहीं है.....या हम कहें कि पुराने गीत हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है तो गलत नहीं होगा.....कौन सा ऐसा पुराना गीत होगा जो हमे जुबानी याद नहीं.... चाहे वो "जिन्दा हूँ इस तरह की गमे जिन्दगी नहीं," अकेले हैं चले आओ जहां हो, "खुश रहे तो सदा ये दुआ है मेरे." “ओ मेरे दिल के चैन", किसी राह पर किसी मोड़ पर कही चल न तू छोड़ कर" कभी तनहइयो में जो हमारी याद आयेगी" अफसाना लिख रही हूँ दिले बेकरार का," आजा सनम मधुर चांदनी में हम", दिल जो न कह सका वही राजे दिल" चलते चलते यूँही कोई मिल गया था..." ऐसे बहुत से हैं जो हर्फ हर्फ याद हैं...... " अब सवाल ये है की ओल्ड इस गोल्ड पर हमारी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती जिसका एक कारण ये है कि ऑफिस में कंप्यूटर पर गाने सुनने की सुविधा नहीं है, और घर जाकर अक्सर इतना समय नहीं मिल पाता की नेट पर इन गीतों को सूना जाये बस इसी वजह से ये इग्नोर हो जाता है. मगर फिर भी कोशिश रहेगी कि जब भी हो सके इन्हें सुन कर अपनी प्रतिक्रिया दी जाए.

सजीव: अब एक और गीत की बारी! सीमा जी, पाँचवाँ गीत कौन सा आपने चुना है?

सीमा: अब मैं बजाना चाहूँगी फिल्म 'दे धना धन' से "गले लग जेया".

सुजॉय: यानी कि एक बार फिर कटरीना फेक्टर...

सीमा: जी हाँ, फिर एक बार मेरी पसंदीदा कटरीना है इस गीत में. और बहुत ही खूबसूरत दिखती हैं इस गाने में भी. गायिका ने भी बहुत कशिश भरी है इस गीत में.

सजीव: वैसे गायिका का नाम हम बता दें, ये हैं बनज्योत्सना, जिनकी आवाज़ में कुछ कुछ अलीशा चिनॉय का अंदाज़ सुनाई देता है.

सॉंग 5: गले लग (दे धना धन)


सुजॉय: इसके बाद अब किस गीत को गले लगाने का इरादा है सीमा जी?

सीमा: अब मैं दो गाने सुनवाना चाहूँगी फिल्म 'तुम मिले' का .

सुजॉय: हाँ, इस फिल्म के गाने भी अच्छे बने हैं. तो पहला गीत कौन सा है?

सीमा: "दिल इबादत कर रहा है"

सुजॉय: अरे वाह! यह तो मेरा भी पसंदीदा गीतों में से एक है. बल्कि 25 डिसेंबर को मैने जो 2009 की संगीत समीक्षा 'पोस्ट' की थी उसमें अपने पसंद के 5 गीतों में मैने इस गीत को चुना था.

सीमा: सही में बहुत प्यारा गीत है. बोल बहुत अच्छे हैं, और ख़ास कर इस गीत में जो ज़बरदस्त चाहत उभर कर आया है, उसे सुनते हुए हम जैसे बह से जाते हैं.

सजीव: हाँ, और इस तरह के गीतों को के के बहुत ही अच्छा अंजाम देते हैं. उनकी आवाज़ में एक तरफ नाज़ुकी भी है तो जोशिलापन भी, जो सुन्नेवाले को अपनी तरफ खींचता है. एक स्ट्रोंग डिज़ाइर' जिसे कहते हैं, वो जागने लगती है.

सीमा: बिल्कुल! "तुझको मैं कर लूं हासिल है बस यही धुन" वाले हिस्से का तो कहना ही क्या!

सॉंग 6: दिल इबादत कर रहा है (तुम मिले)


सुजॉय: सीमा जी, अभी आपने ज़िक्र किया किया इस गीत के बोल बहुत अच्छे हैं. आप खुद भी एक शायरा हैं. इसलिए आप से पूछता हूँ कि आज के दौर के गीतकारों के बारे में आपके क्या विचार हैं? कौन हैं इस दौर के अच्छे गीतकार आपकी नज़र में? गुलज़ार और जावेद अख़्तर को अगर अलग रखें तो फिर आपकी नज़र में कौन हैं सबसे अग्रणी गीतकार इस ज़माने का?

सीमा: गुलजार जी और जावेद जी के सामने किसी और को रखना हमारे तो बस में नहीं, फिर भी जैसा हम पहले भी कह चुके हैं आज के गीत भी कर्णप्रिय होते हैं. अब प्रसून जोशी की बात की जाये तो तारे जमी पर, फ़ना, कितने हिट हुए और तारे जमीन का वो गीत "माँ" आज भी सुन कर मन भर आता है. इरशाद कामिल अजब प्रेम की गज़ब कहानी के गीतकार में भी अच्छी सम्भावनाये दिखती है...एक से बढ़ कर एक दिए हैं उन्होंने इस फिल्म में. और भी बहुत से अच्छे गीतकार मिल जायेंगे इस जमाने के.

सजीव: अच्छा फिल्म का दूसरा गाना कौन सा है जो आप सुनवाना पसंद करेंगी?

सीमा: "तू ही हक़ीक़त ख्वाब तू"

सजीव: यह भी एक अच्च्छा गीत है, आइए सुनते हैं.

सॉंग 7: तू ही हक़ीक़त ख्वाब तू (तुम मिले)


सुजॉय: 'तुम मिले' के दो गाने हमने सुने. वैसे मुझे तो इस फिल्म का शीर्षक गीत भी बहुत पसंद है. तीन अलग अलग गायकों ने तीन अलग अलग अंदाज़ में इसे गाया है. खैर, मेरी पसंद को एक तरफ रखते हुए सीमा जी से हम जानना चाहेंगे उनकी अगली फरमाइश.

सीमा: 'ऑफ कोर्स' "शुकरान अल्लाह"!

सजीव: वाह! अच्छे पसंद! 'कुर्बान' फिल्म तो कब आई कब गयी पता नहीं चल पाया, लेकिन इस गीत ने ज़रूर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.

सीमा: बिल्कुल, एक 'सॉफ्ट आंड स्लो म्यूज़िक' आधार है इस गीत का जो दिल को एक सुकून प्रदान करती है. प्यार को बहुत ही नाज़ुकी से बयान किया गया है इस गाने में, जिसकी वजह से मैं इसे बार बार सुनना पसंद करती हूँ.

सुजॉय: और आपके साथ साथ हम भी ज़रूर सुनना पसंद करेंगे और अपने श्रोताओं को भी सुनवाना चाहेंगे, सुनिए फिल्म 'कुर्बान' का यह गीत.

सॉंग 8: शुकरान अल्लाह (कुर्बान)


सजीव: 10 में से 8 गाने हमने सुन लिए हैं. सीमा जी, दो गाने और बचे हैं, तो बताइए अब किस गीत की बारी है?

सीमा: अभी हाल ही में आई थी मधुर भंडारकर की फिल्म 'जेल'. यह फिल्म भी 'बॉक्स ऑफीस' पर उतनी कामयाब नहीं हो पाई, पर इसका एक गीत जो मुझे रास आया वो है "सैंया वे, मेरा दिल चुरा ले".

सुजॉय: क्या ख़ास बात लगी इस गीत में आपको?

सीमा: बोल और संगीत, दोनो ही मुझे थिरकने पर मजबूर कर देता है, हा हा हा हा हा. 'I LOVE THIS SONG FOR ITS DANCE STEPS AS WELL.'

सजीव: तो एक आपके साथ साथ हम भी झूम जाते हैं और सुनते हैं यह गीत.

सॉंग 9: सैंया वे मेरा दिल चुरा ले (जेल)


सुजॉय: और अब बस एक आखिरी गीत की गुंजाइश बाकी है. सीमा जी, बताइए वो कौन सा खुशनसीब गीत है जो इस साल 'आवाज़' पर बजने वाला आखिरी गीत होगा?

सीमा: "जाओ ना"

सुजॉय: पर मैं तो कहीं नहीं जा रहा सीमा जी...

सीमा: अरे नहीं, यह गीत है "जाओ न” “व्हाट्स युवर राशी' का .

सजीव: इस फिल्म का "सू च्छे" हमने TST के अंतर्गत सुनवाया था. तो सीमा जी, इस गीत को चुनने की वजह भी बता दीजिए.

सीमा: फिर एक बार नर्मोनाज़ुक और दिल को छू लेने वाला गीत संगीत, और जिस तरह से "जाओ )))) न ))))" गाया गया है, एक छाप ज़रूर छोड जाता है यह गीत और साथ साथ मैं भी गुनगुनाने लग जाती हूँ. प्रियंका चोपड़ा की मुस्कान भी एक कारण है इस गीत को बार बार सुनते रहने का, हा हा हा.

सॉंग 10: जाओ ना (व्हाट्स युवर राशी)


सुजॉय: वाक़ई, जिस तरह से हर गीत की पसंद के पीछे आपने कारण बताया, उससे साफ़ ज़ाहिर है की आप पुराने गीतों के साथ साथ नये गीतों को भी ना केवल 'फॉलो' करती हैं, बल्कि उनका विश्लेशण भी करती हैं.

सजीव: बहुत अच्च्ची बात है, हम भी यही कहते हैं कि नये संगीत को भी गले लगाना चाहिए और जो वक़्त के साथ नहीं चलता, वक़्त उसे पीछे छोड़ आगे निकल जाता है.

सुजॉय: तो सजीव, हम सीमा जी का शुक्रिया अदा करते हैं TST में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए और आज हमारे साथ बैठ्कर अपने पसंद के गाने सुनवाने के लिए भी.

सजीव: ज़रूर! पूरे आवाज़ और हिंद युग्म टीम की तरफ से सीमा जी को बधाई और सीमा जी के साथ साथ आवाज़ के हर पाठक और श्रोता को नये साल की हार्दिक शुभकामनाएँ!

सीमा: आप सभी का बहुत धन्येवाद और आप को भी नववर्ष की ढेरों शुभकामनाएँ!

Wednesday, December 30, 2009

संगीत अवलोकन २००९, वार्षिक संगीत समीक्षा में फिल्म समीक्षक प्रशेन क्वायल लाये हैं अपना मत



२००९ हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में प्रायोगिकता के लिए मशहूर होगा. साल के शुरुआत में ही देव डी जैसे धमाकेदार प्रायोगिक फिल्म के म्यूजिक ने तहलका मचा दिया. बधाई हो फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप को जिन्होंने एक नए म्यूजिक डिरेक्टर को मौका देकर उन्हें पुरी स्वतंत्रता दी कि वो कुछ नया कर पाए. अंकित त्रिवेदी, जिन्होंने ये संगीत दिया है उन्होंने भी इस मौके का फायदा उठाते हुए ऐसे चौके छक्के मारे है के शायद ही कोई और प्रस्थापित संगीतकार ये कर पाता.

फिर आई दिल्ली ६ जिसमे संगीत के महारथी ए. आर. रहमान ने अपना लोहा फिर से मनवाया. प्रसून और रहमान का ये संगीत प्रयोग बेतहाशा सफल रहा और सारा भारत झूम के गाने लगा "मसकली मसकली". पर सबसे बड़ा प्रयोग था स्त्रियों के लोकसंगीत को जो आज तक उनके बीच सीमित था उसे हीप हॉप के साथ मिक्स कर के पेश करना. रहमान ने "गेंदा फूल" में वही किया और सभी गेंदा फूल बनकर पूछने लगे "अरे ये पहले क्यों नहीं हुआ. और ये नयी गायिका कौन है भाई ?"

वह गायिका है "रेखा भारद्वाज"! विशाल भारद्वाज की धर्मपत्नी. ऐसे नहीं के रेखाजी के कोई गाने पहले नहीं आये थे. इसके पहले भी ओंकारा में "नमक इश्क का" देकर उन्होंने सफलता प्राप्त की थी. पर गेंदा फूल एक मेनस्ट्रीम हिट था और इसीलिए ये सवाल आ रहा था. वर्ष की शुरूआत में गेंदा फुल देनेवाली रेखाजी ने वर्ष के अंत में रेडियो फिल्म में "पिया जैसे लड्डू" दे कर पुरे वर्ष पर अपनी मुहर लगा दी.

इनके आलावा शारिब और तोशी के संगीत ने भी व्यवसायिक सफलता प्राप्त कर के उन्हें कम उम्र में एक सफल संगीतकार बना दिया है. जनवरी में राज २ के "माही माही" गीत के साथ वे हिट रहे.

वही लन्दन ड्रीम्स के गानों ने नाराज कर दीया. संगीत के इर्द गिर्द घुमती ये फिल्म संगीत के मामले में ही कमजोर निकली. पर यहाँ भी एक प्रयोग था जो सबको पसंद आया और वह था rock हनुमान चालीसा जो सबको पसंद आई पर वोह जिस गाने का पार्ट था वही बोरियत भरा था.

लव आजकल, अजब प्रेम की गजब कहानी, तुम मिले, All the Best: Fun Begins, दिल बोले हडिप्पा, आ देखें ज़रा, बिल्लू जैसे फिल्मों के सफल संगीत से प्रीतम चक्रबोर्ती इस साल के सब से सफल संगीतकार रहे. फिल्मों की तादाद के साथ साथ उन्होंने गुणवत्ता का भी अच्छे से ख्याल रखा. ए. आर. रहमान ने भी इस साल कुछ अच्छे गाने दिए. वही सलीम-सुलेमान को बहुत सारी फिल्मे बतौर संगीतकार मिली पर वोह कुछ खांस असर नहीं दिखा पाए.

क़र्ज़ में ठीक ठाक संगीत देने वाले हिमेश रेशमिया इस बार रेडियो के साथ सबको अपनी कला से अचंभित कर गए. बार बार सुन सके ऐसे गाने दे कर उन्होंने एक पूरा हिट एल्बम प्रस्तुत किया. फिल्म हालाँकि नहीं चली पर गाने लगातार बजते रहते है.

कमीने और स्लम डोग के साथ गुलज़ार इस साल के सबसे सफल गीतकार रहे. पर प्रसून जोशी और स्वानंद किरकिरे भी अपने हुनर का जौहर दिखाने में कम नहीं रहे.

गायक और गायिकाओं में मोहित चौहान, आतिफ अस्लम हिट गाने देते रहे पर सुनिधि और शान इस साल थोड़े कम नजर आये.

मिलजुल कर संगीत के लिए ये २००९ बहुत अच्छी तरह से गुजरा और प्रायोगिक संगीत के साथ साथ बॉलीवुड का मेलोडी और मस्ती वाला समीकरण भी जमकर चला. ऐसे ही आगे होते रहे तो हम जैसे प्रशंसकों का प्यार और दुवायें हरदम बॉलीवुड के साथ बनी रहेंगीं.

अपनी पसदं के 5 गीतों को क्रमानुसार सूची.

1. पायलिया (देव डी)
2. गेंदा फूल (दिल्ली ६)
3. कमीने (शीर्षक)
4. रफा दफा (रेडियो)
5. तेरा होने लगा हूँ (APKGK)


निम्न श्रेणियों में अपनी एक प्रविष्ठी (नामांकन)

BEST SONG- Tera hone laga hun
BEST ALBUM- Radio
BEST LYRICIST- Gulzar
BEST COMPOSER- Pritam Chaktraborty
BEST SINGER (MALE) - Mohit Chauhan
BEST SINGER (FEMALE) - Rekha Bhardwaj
BEST NON FILMI SONG - Chandan mein
BEST UPCOMING ARTIST- Amit Trivedi, Music Director, Dev D
BEST FILMED (CHOREOGRAPHED) SONG OF THE YEAR: Blue Theme
ARTIST OF THE YEAR (OVERALL PERFORMANCE WISE) : Mohit Chauhan


-प्रशेन क्वायल

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब... शोभा गुर्टू ने फिर से ज़िंदा किया खुसरो को



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६४

पिछली ग्यारह कड़ियों से हम आपको आपकी हीं फ़रमाईश सुनवा रहे थे। सीमा जी की पसंद की पाँच गज़लें/नज़्में, शरद जी और शामिख जी की तीन-तीन पसंदीदा गज़लों/नज़्मों को सुनवाने के बाद हम वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं। तो हम आज जिस गज़ल को लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं, उसका अंदाज़ कुछ अलहदा है। अलहदा इसलिए है क्योंकि इसे लिखा हीं अलग तरीके से गया है और जिसने लिखा है उसकी तारीफ़ में कुछ कहना बड़े-बड़े ज्ञानियों को दुहराने जैसा हीं होगा। फिर भी हम कोशिश करेंगे कि उनके बारे में कुछ जानकारियाँ आपको दे दें..वैसे हम उम्मीद करते हैं कि आप सब उनसे ज़रूर वाकिफ़ होंगे। इस गज़ल के गज़लगो हीं नहीं बल्कि इस गज़ल की गायिका भी बड़ी हीं खास हैं। यह अलग बात है कि गज़लगो मध्य-युग से ताल्लुक रखते हैं तो गायिका बीसवीं शताब्दी से..फिर भी दोनों अपने-अपने क्षेत्र में बड़ा हीं ऊँचा मुकाम रखते हैं। हम गज़लगो के बारे में कुछ कहें उससे पहले क्यों न गायिका से अपना और आप सबका परिचय करा दिया जाए। इन्हें "ठुमरी क़्वीन" के नाम से जाना जाता रहा है। ८ फरवरी १९२५ को कर्नाटक के बेलगाम में जन्मीं इन फ़नकारा का वास्तविक नाम "भानुमति शिरोडकर" था। इन्हें इनकी प्रारंभिक शिक्षा/दीक्षा अपनी माँ मेनकाबाई शिरोडकर से मिली, जो कि खुद जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खान की शिष्या थीं। भानुमति ने उस्ताद अल्लादिया खान के सबसे छोटे बेटे उस्ताद भुर्जी खान से संगीत की विधिवत शिक्षा ली। फिर उस्ताद अल्लादिया खान के भतीजे उस्ताद नत्थन खान से खयाल सीखा, लेकिन इनकी गायकी पर सबसे ज्यादा असर उस्ताद घम्मन खान का था, जिनकी छत्रछाया में इन्हें ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती और संगीत की ऐसे हीं कई रूपों को सुनने और गुनने का मौका मिला। पंडित नारायण नाथ गुर्टू के सुपुत्र विश्वनाथ गुर्टू से शादी के बाद भानुमति शोभा गुर्टू हो गईं। शोभा गुर्टू यूँ तो शास्त्रीय संगीत में पारंगत थीं, लेकिन इन्हें जाना गया सेमि-क्लासिकल फार्म्स के कारण..जैसे कि ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी। ठुमरी में इनका कोई सानी न था। ये न सिर्फ शास्त्रीय गानों तक हीं सीमित रहीं, बल्कि इन्होंने मराठी और हिन्दी फिल्मों में भी कई सारे गाने गाए। कमाल अमरोही की फिल्म "पाकीज़ा" इनकी प्रारंभिक फिल्मों में शुमार की जाती है। हाल के सालों में इन्हें २००० में रीलिज हुए "जन गण मन" वीडियो में भी देखा गया। १९८७ में इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। पंडित बिरजु महाराज के साथ एक हीं मंच पर कला का प्रदर्शन कर चुकीं शोभा गुर्टू को २००२ में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। सब कुछ सही चल रहा था... तभी लगभग पाँच दशकों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के आसमान पर चाँद की तरह चमकने वालीं इन महान फनकारा का २७ दिसम्बर २००४ को दु:खद अंत हो गया। हमारी यह बदकिस्मती की थी कि हमने एक अमूल्य धरोहर को बड़े हीं सस्ते में खो दिया। शोभा जी इस नाम और मुकाम से कहीं ज्यादा की काबिलियत रखती थीं।

शोभा जी के बारे में विस्तार से जानने के बाद अब वक्त है आज की गज़ल के गज़लगो, आज की रचना के रचनाकार से रूबरू होने का। आज हम जिनका ज़िक्र करने जा रहे हैं, वो खास-तौर पर अपनी कह-मुकरियों, बूझ-पहेलियों, बिन-बूझ पहेलियों और दोहों के लिए जाने जाते हैं। यूँ नाम तो इनका था "अबुल हसन यमीनुद्दी मुहम्मद", लेकिन दुनिया इन्हें अमीर खुसरो दहलवी या फिर खुसरो के नाम से जानती है। सुखन के दीवाने इन्हें तूती-ए-हिंद भी कहते हैं और सच मानिए इनकी तूती अब भी बोलती है। यकीन न आए तो किसी भी सूफियाना गायक से पूछ लीजिए..इनका नाम उन सबकी जुबानों पर दर्ज मिलेगा। खुसरो..खुसरो कैसे बने,इसके पीछे की कहानी जाननी हो तो आईये हमारे साथ। कहते हैं कि बचपन से ही अमीर खुसरो का मन पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा शेरो-शायरी व काव्य रचना में अधिक लगता था। वे हृदय से बड़े ही विनोदप्रिय, हसोड़, रसिक, और अत्यंत महत्वकांक्षी थे। वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी। खुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे। उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी। उस समय खुसरो केवल सात वर्ष के थे। अमीर सैफुद्दीन महमूद (खुसरो के पिता) अपने दोनों पुत्रों को लेकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में उपस्थित हुए। उनका आशय दीक्षा दिलाने का था। संत निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह के द्वार पर वे पहुँचे। वहाँ अल्पायु अमीर खुसरो को पिता के इस महान उद्देश्य का ज्ञान हुआ। खुसरो ने कुछ सोचकर न चाहते हुए भी अपने पिता से अनुरोध किया कि मुरीद 'इरादा करने' वाले को कहते हैं और मेरा इरादा अभी मुरीद होने का नहीं है। अत: अभी केवल आप ही अकेले भीतर जाइए। मैं यही बाहर द्वार पर बैठूँगा। अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई सच्चे सूफ़ी हैं तो खुद बखुद मैं उनकी मुरीद बन जाऊँगा। आप जाइए। जब खुसरो के पिता भीतर गए तो खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाए और अपने मन में विचार किया कि यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो वे मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों के द्वारा मेरे पास उत्तर भेजेंगे। तभी में भीतर जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त कर्रूँगा अन्यथा नहीं। खुसरो के ये पद निम्न लिखित हैं -

'तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज गरदद।
गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद।।'

अर्थात: तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा से बाज़ बन ज़ाए।

खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा -

'बयायद अंद र्रूँ मरदे हकीकत, कि बामा यकनफस हमराज गरदद।
अगर अबलह बुअद आँ मरदे - नादाँ। अजाँ राहे कि आमद बाज गरदद।।'

अर्थात - "हे सत्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको। यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते से लौट जाए।' खुसरो ने ज्यों ही यह पद सुना, वे आत्मविभोर और आनंदित हो उठे और फौरन भीतर जा कर संत के चरणों में नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात गुरु ने शिष्य को दीक्षा दी। यह घटना जाने माने लेखक व इतिहासकार हसन सानी निज़ामी ने अपनी पुस्तक तजकि-दह-ए-खुसरवी में पृष्ठ ९ पर सविस्तार दी है। इस घटना के पश्चात अमीर खुसरो जब अपने घर पहुँचे तो वे मस्त गज़ की भाँती झूम रहे थे। वे गहरे भावावेग में डूबे थे। अपनी प्रिय माताजी के समक्ष कुछ गुनगुना रहे थे। आज क़व्वाली और शास्रीय व उप-शास्रीय संगीत में अमीर खुसरो द्वारा रचित जो 'रंग' गाया जाता है वह इसी अवसर का स्मरण स्वरुप है। हिन्दवी में लिखी यह प्रसिद्ध रचना इस प्रकार है -

"आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री।
अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर रंग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया, मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया। वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।"


अब चलिए जानते हैं इनके जन्म की कहानी। वो कौन-सी जमीं थी, जिन्हें इन्होंने मिट्टी से सोना कर दिया था। आप हैं ना हमारे साथ इस सफर में? अमीर खुसरो दहलवी का जन्म उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। गाँव पटियाली उन दिनों मोमिनपुर या मोमिनाबाद के नाम से जाना जाता था। इस गाँव में अमीर खुसरो के जन्म की बात हुमायूँ काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ 'तज़किरा सैरुल आरफीन' में सबसे पहले कही। तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में दिल्ली का राजसिंहासन गुलाम वंश के सुल्तानों के अधीन हो रहा था। उसी समय अमीर खुसरो के पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद (मुहम्मद) तुर्किस्तान में लाचीन कबीले के सरदार थे। कुछ लोग इसे बलख हजारा अफ़गानिस्तान भी मानते हैं। कुछ लोग ऐसी भी मानते हैं कि ये कुश नामक शहर से आए थे जो अब शर-ए-सब्ज के नाम से जाना जाता है। अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं। ये दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। ये बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था। जब खुसरो पैदा हुए थे तब इनके पिता इन्हें एक कपड़े में लपेट कर एक सूफ़ी दरवेश के पास ले गए थे। दरवेश ने नन्हे खुसरो के मासूम और तेजयुक्त चेहरे के देखते ही तत्काल भविष्यवाणी की थी - "आवरदी कसे राके दो कदम। अज़ खाकानी पेश ख्वाहिद बूद।" अर्थात तुम मेरे पास एक ऐसे होनहार बच्चे को लाए हो खाकानी नामक विश्व प्रसिद्ध विद्वान से भी दो कदम आगे निकलेगा। अब यह कहने की जरूरत भी है कि दरवेश की यह बात कितनी सच साबित हुई? नहीं ना। खुसरो के बारे में बाकी बातें कभी अगले आलेख में करेंगे। अभी आगे बढने से पहले खुसरो की लिखी ये चार पंक्तियाँ को समझने की कोशिश करते हैं, जिनमें इन्होंने निजाम को अपना पिया कहा है..और खुद को उनकी सुहागन। यह आत्मा-परमात्मा के मिलन की कामना की पराकाष्ठा है। आप खुद देखिए:

सब सखियन में चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर नारी, निजाम...
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी, निजाम....


इन दो शेरों के बाद हम जिस गज़ल तक पहुँचे हैं..वह भी एक सूफ़ी गज़ल हीं है यानि कि जिसे यार कहा गया है वह कोई प्रेमी या प्रेमिका नहीं है, बल्कि निर्गुण ब्रह्म है। पहली मर्तबा देखने पर आपको यह भ्रम हो सकता है कि यह गज़ल भी कोई साधारण गज़ल हीं है। लेकिन "छाप-तिलक तज दीनी मोसे नैना मिलाइके" लिखने वाले खुसरो परमात्मा से नीचे सोचते हीं नहीं। आप सुनेंगे तो आपको खुद इस बात का अंदाजा हो जाएगा। तो लुत्फ़ उठाईये आज की गज़ल का:

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझे दोस्ती बिसियार है एक शब मिलो तुम आय कर।

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
____ खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "दस्तक" और शेर कुछ यूं था -

न दस्तक ज़रूरी, न आवाज़ देना
मैं सांसों की रफ़्तार से जान लूंगी

इस शब्द की सबसे पहले शिनाख्त की शरद जी ने। आपने इस मौके पर एक स्वरचित शेर पेश किया तो एक दुष्यंत कुमार का। दोनों का उल्लेख करना लाजिमी जान पड़ता है:

दस्तकों का अब किवाडों पर असर होगा ज़रूर,
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़्ररार। (दुष्यन्त कुमार)

दस्तक देने से पहले मैं यही खुदा से कहता हूँ
दरवाज़ा जब खुल जाए तो वही सामने हो मेरे। (स्वरचित)

शरद जी के बाद महफ़िल में हाज़िर हुई सीमा जी। आपकी पोटली से एक के बाद एक कई सारे लाजवाब शेर बाहर आए। मसलन:

प्यार की इक नई दस्तक दिल पे फिर सुनाई दी
चाँद सी कोई मूरत ख़्वाब में दिखाई दी (बशीर बद्र)

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का (शहरयार)

रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं (क़तील शिफ़ाई)

शामिख जी, हमारा सौभाग्य है कि हमें आपकी सेवा करने का मौका मिला। आगे भी इसी तरह हमारी महफ़िल की शोभा बनते रहिएगा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥ (फ़ैज़)

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई (कैफ़ी आज़मी)

हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी,
सैकड़ों दर थे मेरी जां तेरे दर से पहले| (इब्ने-इंशा)

निर्मला जी,हमें पूरा यकीन है कि आज की और आज के आगे की सारी महफ़िलें आपको पसंद आएँगीं। बस आप आती रहें।

अवध जी, बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए। सप्ताह में एक बार हीं तो यह महफ़िल सजती है। इतना वक्त तो आप निकाल हीं सकते हैं। यह रही आपकी पेशकश:

किसने दी ये दरे-दिल दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है| (क़तील शिफाई)

और अंत में महफ़िल की शमा बुझाई मंजु जी ने। यह रहा आपका स्वरचित शेर:

दरे दिल पर दस्तक की पहले जैसी कशिश न रही ,
क्या वे दिन थे साकी ! आज वे दिन न रहे।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, December 29, 2009

समीक्षा - २००९.... एक सफर सुकून का, वार्षिक संगीत समीक्षा में आज विश्व दीपक “तन्हा” की राय



कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो कभी बदलती नहीं। जिस तरह हमारी जीने की चाह कभी खत्म नहीं होती उसी तरह अच्छे गानों को परखने और सुनने की हमारी आरजू भी हमेशा बरकरार रहती है। कहते हैं कि संगीत हर बीमारी का इलाज है। आप अगर निराश बैठे हों तो बस अपने पसंद के किसी गाने को सुनना शुरू कर दें, क्षण भर में हीं आप अपने आप को किसी दूसरी दुनिया में पाएँगे जहाँ ग़म का कोई नाम-ओ-निशान नहीं होगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि किसी भी गाने की धुन में जो "बिट्स" होते हैं वो हमारे "हर्ट बीट" पर असर करते हैं और यही कारण है कि गानों को सुनकर हम सुकून का अनुभव करते हैं। अब जब हमें इतना मालूम है तो क्यों न अपने पसंद के गानों की एक फेहरिश्त बना ली जाए ताकि हर बार सारे गानों को खंगालना न पड़े। यूँ तो हर इंसान की पसंद अलग-अलग होती है,लेकिन कुछ गाने ऐसे होते हैं जो अमूमन सभी को पसंद आते हैं। "आवाज़" की तरफ़ से हमारी कोशिश यही है कि उन्हीं खासमखास गानों को चुनकर आपके सामने पेश किया जाए। २००९ में रीलिज हुए गानों की समीक्षा एक बहाना मात्र है, असल लक्ष्य तो सही गानों को गुनकर, चुनकर और सुनकर सुकून की प्राप्ति करना है। तो आप हैं ना हमारे साथ इस सुकून के सफ़र में?

२००९ के संगीत (हिन्दी फिल्म-संगीत) की बात करें तो यह साल गैर-पारंपरिक शब्दों, धुनों और आवाज़ों के नाम रहा। जहाँ लेखन में पियुष मिश्रा, अमिताभ भट्टाचार्य, स्वानंद किरकिरे और सुब्रत सिन्हा ने लीक से हटकर अल्फ़ाज़ दिए, वहीं अमित त्रिवेदी, पियुष मिश्रा(जी हाँ यहाँ भी) और सोहेल सेन ने संगीत की दुनिया में अच्छे खासे प्रयोग किए। अगर गायकी की बात करें तो इस साल मोहित चौहान, नीरज श्रीधर, रेखा भारद्वाज, आतिफ़ असलम, विशाल दादलानी, सलीम मर्चेंट और हिमेश रेशमिया की आवाज़ों ने धूम मचाई। ऐसा नहीं है कि इस दौरान बाकी फ़नकार हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे। सभी ने अपने हिस्से का काम बखूबी निभाया और इसलिए सब हीं प्रशंसा के पात्र हैं। हम एक-एक करके इन फ़नकारों की फ़नकारी पर नज़र डालेंगे।

इस साल की शुरूआत हीं एक ऐसी खबर से हुई थी कि जिसने न सिर्फ़ बालीवुड बल्कि हालीवुड को हिलाकर रख दिया। "बाफ़्टा" अवार्ड जीतने के बाद ए०आर०रहमान ने अपने एलबम "स्लमडाग मिलिनेअर(करोड़पति)" के जरिये दो आस्कर अवार्ड हिन्दी फिल्म-संगीत की झोली में डाल दिए। लोग कितना भी कहे कि फिल्म हिन्दुस्तानी नहीं थी लेकिन संगीत तो हमारा हीं था, इसलिए इसे अपना कहने में कोई हर्ज नहीं है। यूँ तो हम इस फिल्म के गानों की समीक्षा कर सकते हैं लेकिन चूँकि यह फिल्म २००८ में रीलिज हुई थी, इसलिए इसे छोड़ देना हीं वाजिब होगा। अब जब रहमान की बात हो हीं रही है तो क्यों न लगे हाथ "दिल्ली-६" की भी बात कर ली जाए। इस फिल्म के गानों की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। "मसकली", "दिल गिरा दफ़-अतन", "अर्जियाँ" , "रहना तू", "गेंदाफूल" जैसे गाने रोज-रोज नहीं बनते। जहाँ "नूर" में अमिताभ बच्चन को सुनकर दिल खिल उठता है, वहीं "रहना तू" में रहमान और "गेंदाफूल" में रेखा भारद्वाज की गलाकारी गायिकी के सारे बने-बनाए नियम तोड़ती हैं। प्रयोग के मामले में रहमान का कोई सानी नहीं है। "रहना तू" गाने के अंतिम दो मिनट एक ऐसे वाद्य-यंत्र को समर्पित हैं, जिसका ईजाद इसी साल हुआ है और जो हिन्दुस्तान में बस रहमान के पास हीं है। प्रसून जोशी का लेखन भी कमाल का है। "थोड़ा-सा रेशम तू हमदम, थोड़ा-सा खुरदुरा..बिना सजावट, मिलावट न ज्यादा, ना हीं कम" जैसे शब्द गीतकार की उड़ान को दर्शाते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि दिल्ली-६ का संगीत पैसा वसूल था। इस फिल्म के लाजवाब संगीत के लिए मैं ए०आर०रहमान को बेस्ट कम्पोजर के लिए नामांकित करता हूँ। इसी साल "रहमान" की "ब्लू" भी रीलिज हुई थी। इस फिल्म में रहमान ने कुछ ज्यादा हीं प्रयोग कर दिए और शायद यही कारण है कि बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म के गाने ज्यादा नहीं सुने गए। तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल कभी-कभी गाने की आत्मा को ले डूबता है इस बात का प्रमाण "फिक्राना" को सुनकर मिलता है। इलेक्ट्रोनिक वाद्य-यंत्रों के बीच में गाने के शब्द नदारद मालूम होते हैं और यही कारण है कि श्रोता गाने से खुद को नहीं जोड़ पाता। मुझे इस एलबम के "यार मिला था" और "रहनुमा" ज्यादा पसंद आए। और हाँ फिल्म में इन गानों को नहीं देखकर बुरा भी लगा। "काईली मेनोग" के कारण "चिगी विगी" देखा और सराहा गया। कुल मिलाकर इस एलबम को औसत हीं कहेंगे।

बालीवुड में अमित त्रिवेदी बहुत हीं नया नाम है। "देव डी" से पहले अमित के पास कहने को बस "आमिर" ही था, लेकिन उसी एक फिल्म ने अमित के लिए रास्ते का काम किया और फिर "देव डी" आई। फिल्म में पूरे अठारह गाने थे, जो किसी रिस्क से कम नहीं। आज के दौर में जब संगीतकार कम से कम गानों(उदाहरण: राकेट सिंह, ३ गाने) के साथ सफ़लता का स्वाद चखना चहता है और फिल्मकार भी ज्यादा गाने रखने से डरते हैं, अनुराग कश्यप जैसे लोग पुराने ढर्रों को तोड़ने में यकीन रखते हैं। यकीन मानिए इस फिल्म का कोई भी गाना दूसरे गाने से कमजोर नहीं था। जहाँ "इमोशनल अत्याचार" "यूथ एंथम" बन गया, वहीं "नयन तरसे" ने क्लासिकल मूड के शब्दों के साथ पाश्चात्य संगीत की बढिया जुगलबंदी पेश की। फिल्म में एक तरह "परदेशी" जैसे फास्ट नंबर्स थे तो वहीं "पायलिया" जैसे साफ़्ट रोमांटिक नंबर्स भी थे। अठारह गानों में अमित ने अमूमन १८ मूड्स को समेटा और इस लिहाज से इसे कम्प्लिट एलबम कहा जा सकता है। इस साल के बेस्ट एलबम का मेरा वोट इसी को जाता है। इस एलबम की खासियत यह है कि न सिर्फ़ संगीत की दृष्टि से यह खास थी, बल्कि "अमिताभ भट्टाचार्य" के शब्द भी काबिल-ए-तारीफ़ थे। इस एलबम के अलावा अमित की एक और पेशकश थी और वह थी "वेक अप सिड" का "एकतारा"। जहाँ अमित का संगीत और जावेद साहब के शब्द इसे लाजवाब बनाते हैं, वहीं कविता सेठ की आवाज़ इसे दूसरे ही लेवल पर ले जाती है। "अमिताभ भट्टाचार्य" की आवाज़ में "गूँजा-सा है कोई एकतारा" दिल को छू जाता है। जहाँ तक कविता सेठ का सवाल है तो इसी साल उनकी संगीतबद्ध की हुई "ये मेरा इंडिया" रीलिज हुई थी, जिसमें क्लासिकल बेस्ड कई सारे गाने थे। भले हीं उनकी "एकतारा" हीं नाम कमा सकी, पर मेरे लिए इतना हीं काफ़ी है और "बेस्ट फ़ीमेल सिंगर" का मेरा वोट इन्हीं को जाता है।

इस साल प्रयोगधर्मी फिल्मों की कमी नहीं रही और मेरे अनुसार "गुलाल" भी ऐसी हीं एक फिल्म थी। अनुराग कश्यप जहाँ एक तरफ़ अपने फिल्मों के विषय को लेकर चर्चा में रहें, वहीं संगीतकार और गीतकार का उनका चुनाव भी समझ से परे था। आप खुद हीं सोचिए कि एक ऐसा इंसान जिसने पहले कभी संगीत न दिया हो, उसके हाथों में संगीत के साथ-साथ, गीत और गायिकी का बांगडोर सौंपना कितनी हिम्मत का काम होगा। और अंतत: इस प्रयोग में अनुराग सफल हुए। "पियुष मिश्रा"(थियेटर वालों के लिए पियुष भाई) के शब्दों ने वह कमाल किया कि लोग मुँह खोलकर देखते हीं रह गए। कोई "जैसे दूर देश के टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन" कैसे लिखता है..लोग यही समझ नहीं पा रहे थे और यहाँ अपने पियुष भाई "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" को एक अलग और अनोखा रूप देकर निकल पड़े। "सरफरोशी की तमन्ना" का रूपांतरण भले हीं कोई गाना न हो, लेकिन उसका असर किसी संगीत से कम नहीं था। जहाँ एक ओर "आरंभ है प्रचंड" का उद्घोष लगाया गया, वहीं "शहर" के सहारे सोए लोगों की आत्मा झकझोड़ी गई। शब्दों के इस अद्वितीय चुनाव के लिए बेस्ट लीरिस्ट का मेरा वोट संयुक्त रूप से पियुष भाई और प्रसून जोशी(इनका जिक्र आगे किया जाएगा) को जाता है। पियुष मिश्रा की इसी साल एक और फिल्म आई थी और वह थी "इल्लैया राजा" के संगीत निर्देशन में "चल चलें"। "शहर अमरूद का है ये..शहर है इलाहाबाद" में भी शब्दों का वही बेमिसाल चुनाव दिखता है। हम आगे भी पियुष मिश्रा से ऐसे हीं गानों की उम्मीद रखते हैं।

शंकर-एहसान-लौय(SEL) एक ऐसी तिकड़ी है, जिसके गाने हमेशा हीं सराहे जाते रहे हैं और इस साल भी इन्होंने निराश नहीं किया। यूँ तो इस साल इन्होंने ७ फिल्मों में संगीत दिया लेकिन "लक़ बाई चांस", "वेक अप सिड" और "लंदन ड्रीम्स" हीं इनकी सफल फिल्मों में गिनी जाती हैं। इन फिल्मों के अलावा "सिकंदर" के "धूप के सिक्के" और "गुलों में रंग", "13B" का "क्रेज़ी मामा" ,"चाँदनी चौक को चाईना" का "तेरे नैना" और "शार्टकर्ट" का "कल नौ बजे" भी अच्छे गाने में शुमार किए जाते हैं, लेकिन पूरी एलबम की बात की जाए तो बस तीन हीं ध्यान में आते हैं। इन तीनों में मैं "लक़ बाई चांस" को सबसे ऊपर और "वेक अप सिड" को सबसे नीचे रखता हूँ। "लक़ बाई चांस" का "बावरे" हर लिहाज़ से एक बढिया गीत है। पिक्चराईजेश भी कमाल का है और मेरे हिसाब से बेस्ट पिक्चराज्ड सांग यही है। "राग भैरवी" पर आधारित "सपनों से भरे नैना" की जितनी भी तारीफ़ की जाए उतनी कम है। न सिर्फ़ संगीत काबिल-ए-तारीफ़ है, बल्कि जावेद अख्शतर के ब्द भी सच्चाई के बेहद करीब नज़र आते हैं और गायिकी के लिए क्या कहना...जब खुद शंकर हीं माईक के पीछे हों। इस कारण "बेस्ट सांग आफ़ द ईयर" का मेरा वोट "सपनों से भरे नैना" और "कमीने"(इसके बारे में बातें अगले पैराग्राफ़ में) को संयुक्त रूप से जाता है। इस फिल्म के बाकी गाने भी खूबसूरत बन पड़े हैं। अब अगर "लंदन ड्रीम्स" की बात की जाए तो "बरसो यारों", "टपके मस्ती" और "शोला-शोला" एक अलग तरह का हीं माहौल तैयार करते हैं जहाँ जोश हीं जोश रवाँ हो। "खानाबदोश" हर तरह से नया है। पहले तो यह शब्द हीं कईयों के लिए अजनबी है, फिर "आ जमाने आ, आजमाने आ" जैसे प्रयोग हिन्दी गानों में सुनने को नहीं मिलते..शायद यही कारण है कि मुझे यह गाना बेहद पसंद है। बस इसी प्रयोग के लिए मैं प्रसून जोशी को बेस्ट लीरिस्ट के रूप में नामांकित करता हूँ। आप अभी तक समझ हीं गए होंगे कि मैं प्रसून जोशी के प्रयोगों का कितना बड़ प्रशंसक हूँ। अंत में "वेक अप सिड"... इस फिल्म का बस टाईटल ट्रैक हीं SEL के लिए(और हमारे लिए भी) सुकूनदायक साबित हुआ।

विशाल भारद्वाज की संगीतकार के तौर पर इस साल एक हीं फिल्म आई "कमीने"। "कमीने" के "धन-तनन" ने युवाओं को झूमने पर मजबूर कर दिया। पुरानी फिल्मों में हजार बार इस्तेमाल हो चुके ट्युन का आधुनकीकरण किस तरह करते हैं वह सही मायने में विशाल ने हीं सिखाया। इस फिल्म के टाईटल ट्रैक में विशाल ने अपनी आवाज़ दी। अगर यह कहूँ कि इस गाने ने इंसानी इरादों के चिथड़े करके रख दिये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी खूबी के कारण इस गाने को मैं बेस्ट सांग के लिए नामांकित करता हूँ। गुलज़ार साहब इस तरह के गानों में माहिर माने जाते हैं। और उन्होंने इस गाने और "पहली बार मोहब्बत की है" के माध्यम से यह बात फिर से साबित की। "एड्स-जारूगकता" के लिए बनाया गया "फटाक" भी अपने उद्देश्य में सफल रहा। तो कुल मिलाकर यह एलबम हीं सफल कही जाएगी। "पहली बार मोहब्बत की है" में मोहित चौहान की रेशमी आवाज़ खुलकर सामने आती है। यूँ तो मोहित सुर्खियों में तब आए जब "मसकली" इनकी आवाज़ में खिल उठी लेकिन इस साल इन्होंने इन दो गानों के अलावा और भी कई खूबसूरत गाने गाए। कहते हैं कि मोहित की आवाज़ किसी भी गाने के लिए सफलता की गारंटी है। अगर यही है तो क्यों न बेस्ट मेल सिंगर के लिए मोहित को चुन लिया जाए।

विशाल-शेखर इस बार बस एक हीं एलबम के साथ मैदान में नज़र आए। और यह एलबम भी कुछ खासा कमाल नहीं दिखा पाई। बस एक गाना "यु आर द वन" हीं लोगों की जुबान पर चढ सका। वैसे मैं यह मानता हूँ कि यह गाना बेहद खूबसूरत बन पड़ा है और यह इसलिए भी प्रशंसा के काबिल है क्योंकि इसे लिखा खुद विशाल ने है और आवाज़ें भी इन्हीं दोनों की हैं। इस साल विशाल का नाम संगीत के लिए भले न हुआ हो लेकिन गायिकी में विशाल ने अपने झंडे जरूर गाड़े। "धन-तनन", "कुर्बां हुआ" और "नज़ारा है" कुछ उदाहरण-मात्र हैं। अब बात करते हैं अगली संगीतकार जोड़ी की और वह है "सलीम-सुलेमान".. इस साल इनकी चार फिल्में आईं- "8X10 तस्वीर", "लक़" ,"कुर्बान" और "राकेट सिंह".. इन फिल्मों में बस कुर्बान हीं है जिसके सारे गाने पसंद किए गए। यहाँ "सोनू निगम" और "श्रेया घोषाल" की आवाज़ों से सजा "शुक्रान अल्लाह" का ज़िक्र जरूरी हो जाता है, क्योंकि इस गाने से सोनू निगम पुराने फार्म में लौटते हुए नज़र आते हैं। श्रेया घोषाल इस गाने में अपने दूसरे गानों की तरह हीं सधी हुई दिखती हैं। इन सारी फिल्मों के अच्छे गानों में एक बात समान है और वह है सलीम मर्चेंट की आवाज़। "लक़" का "खुदाया वे", "कुर्बान" का "अली मौला" और "राकेट सिंह" का "पंखों को हवा" सलीम की प्रतिभा से हमें रूबरू कराते हैं। एक और संगीतकार जोड़ी है जो सलमान खान की फेवरेट मानी जाती है और वह है.. "साजिद-वाजिद"... इस साल इनकी झोली में बस एक हीं सफल फिल्म है "वांटेड"। इस फिल्म के "लव मी..लव मी" , "तोसे प्यार करते हैं" और "दिल ले के" गाने सराहे गए। और यहाँ भी वही फैक्टर हावी था..संगीतकार का खुद माईक के पीछे जाना। वाज़िद ने इस फिल्म के जिन दो गानों में अपनी आवाज़ दी वही गाने सुपरहिट हुए। तो कहा जा सकता है कि बालीवुड में यह ट्रेंड बन चुका है कि खुद के गाने को खुद हीं गाओ...और यह सफल भी हो रहा है तो कुछ और क्यों सोचा जाए।

इस साल हमें कई सारे नए संगीतकार मिले..जैसे कि "शरीब- तोषी"(राज़ 2- द मिस्ट्री कन्टीन्युज, जश्न , जेल), "सचिन-जिगर"(तेरे संग) और "सोहेल सेन"(वाट्स योर राशि)। यूँ तो इन सारे संगीतकारों में "शरीब-तोषी" सबसे ज्यादा सफल साबित हुए लेकिन मेरे हिसाब से "बेस्ट अपकमिंग आर्टिस्ट" का माद्दा सोहेल सेन में नज़र आता है। सोहेल ने "वाट्स योर राशि" में तेरह गाने दिए और तेरहों गाने लोगों को पसंद आए। ऐसा कम लोगों के हीं साथ होता है। इस फिल्म से "सू छे" ,"जाओ ना", "सौ जनम" और "आ ले चल" आज भी मेरे प्लेलिस्ट में शामिल हैं।

हिमेश रेशमिया "रेडियो" के साथ सेल्युलायड पर वापस नज़र आए। वादे के अनुसार इन्होंने तीन आवाज़ें तैयार कर ली हैं। "मन का रेडियो", "ज़िंदगी जैसे एक रेडियो", "जानेमन", "पिया जैसे लड्डु" जैसे गानों में उनकी इस बात का प्रमाण मिलता है। इस एलबम को लोगों ने बेहद पसंद किया...और फिल्म की असफलता का भी इस एलबम पर कोई असर न हुआ। भविष्य में हम हिमेश से ऐसे हीं एलबमों और गानों की आशा करते हैं| इस फिल्म के बहाने हमें "सुब्रत सिन्हा" जैसा मंझा हुआ गीतकार भी नसीब हुआ।

लीविंग लीजेंड "इल्लैया राजा" की इस साल दो फिल्में रीलिज हुईं.."चल चलें" और "पा"। "चल चलें" कोई खासा नाम न कर सकी, लेकिन "पा" में हमने उसी पुराने "इल्लैया राजा" के दर्शन किए जिनकी गीतों के हम फैन हैं। "हिचकी", "मुड़ी-मुड़ी" और "गुमसुम गुम" अपने हीं तरह के गीत हैं तो "मेरे पा" में "अमिताभ" का बच्चे की आवाज़ में गायन दिल को छू जाता है। इन गानों की सफलता में जिस इंसान का बराबर का सहयोग है, वे हैं इस फिल्म के गीतकार "स्वानंद किरकिरे"। गानों में "हिचकी", "सिसकी", "मुड़ी-मुड़ी" जैसे शब्दों का प्रयोग विरले हीं देखने को मिलता है। और अगर ऐसे अलग-से शब्द सुनने को मिल जाएँ तो श्रोता एकबारगी हीं उस गाने से जुड़ जाता है। यही कारण है कि स्वानंद किरकिरे के लिखे गाने काफी पसंद किए जाते हैं। "पा" के बाद स्वानंद किरकिरे अपने पसंदीदा संगीतकार "शांतनु मोइत्रा" के साथ "३ इडियट्स" में भी नज़र आए। "मुर्गी क्या जाने अंडे का क्या होगा", "जाने नहीं देंगे तुझे", "जैसा फिल्मों में होता है" जैसे अल्फ़ाज़ इस फिल्म के गानों को एक अलग हीं स्तर पर ले जाते हैं। "शांतनु" का संगीत सुलझा हुआ है। इस फिल्म के गाने भी धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ रहे हैं। बहुत दिनों के बाद सोनू निगम ने किसी एलबम के ४ गाने गाए हैं और चारों हीं अलग-अलग अंदाज में। "जाने नहीं देंगे तुझे" में सोनू ने अवार्ड-विनिंग सिंगिंग की है और हम भी यह उम्मीद रखते हैं कि सोनू को इस गाने के लिए पुरस्कार से नवाज़ा जाएगा।

अब हम बात करते हैं इस साल के सबसे सफल संगीतकार "प्रीतम चक्रवर्ती" की। इस साल प्रीतम ने १२ फिल्मों में संगीत दिए जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। इन फिल्मों में से "लव आज कल", "न्यूयार्क", "अजब प्रेम की गज़ब कहानी", "दिल बोले हडिप्पा", "दे दनादन", "बिल्लू" और "तुम मिले" के गानों ने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। "लव आज कल" के "आहुं आहुं" और "ये दूरियाँ" , "अजब प्रेम.." के "तेरा होने लगा हूँ", "तू जाने ना" और "प्रेम की नैय्या" और "तुम मिले" के "दिल इबादत" और "तुम मिले" चार्ट में हमेशा हीं ऊपर रहे। प्रीतम के साथ कुछ गीतकार परमानेन्टली फिक्स्ड जैसे हैं..उन गीतकारों में दो का नाम लेना लाजिमी हो जाता है..इरशाद क़ामिल और सैयद क़ादरी। इन दोनों में से इरशाद क़ामिल मुझे ज्यादा प्रिय हैं क्योंकि प्रयोग करने से वे भी नहीं घबराते। जहाँ तक गायकों की बात है तो नीरज श्रीधर प्रीतम के हर दूसरे गाने में नज़र आते हैं, लेकिन यह प्रीतम और नीरज की काबिलियत हीं है कि दुहराव का पता नहीं चलता। नीरज के बाद "राहत फतेह अली खान" भी प्रीतम के पसंदीदा हो चले हैं। "आज दिन चढ्या", "जाऊँ कहाँ" और "यु एंड आई" जैसे गाने वैसे तो राहत के स्तर से काफी नीचे के हैं, लेकिन इन गानों में उनको सुनना अच्छा हीं लगता है। "के के" भी प्रीतम को काफी प्रिय हैं। आने वाले समय में देखने वाली यह बात होगी कि प्रीतम इनके अलावा और किसी को दुहराते हैं या नहीं। प्रीतम की सफलता का प्रतिशत देखकर इस साल का आर्टिस्ट आफ़ द ईयर इनके अलावा कोई और नहीं सुझता।

इस साल दो ऐसे गाने हुए(मेरी याद में) जो यूँ तो हैं बड़े हीं प्यारे लेकिन लोगों द्वारा नज़र-अंदाज कर दिये गए। उनमें से एक गाना है फिल्म "देख भाई देख" का जिसे संगीत से सजाया है "नायब-शादाब" ने और लिखा है "राशिद फिरोज़ाबादी" ने। "राहत फतेह अली खान" के लिखे इस गाने के बोल हैं "आँखों में क्यों नमी है"। मेरे हिसाब से इस पूरे साल राहत साहब के स्तर का बस यही एक गाना था, जिसे बदकिस्मती से लोगों ने सुना हीं नहीं। दूसरा गाना है फिल्म "तेरे संग" का "मोरे सैंया"। इस गीत में संगीत और आवाज़ें हैं "सचिन-जिगर" की और गाने के बोल लिखे हैं पिछले जमाने के सदाबहार गीतकार "समीर" ने। वैसे और भी कई गाने होंगे जिन्हें उनका हक़ नसीब नहीं हुआ। लेकिन मुझे अभी बस यही दो गाने ध्यान में आ रहे हैं।

फिल्मी-गानों की समीक्षा करने के बाद अब मैं अपनी पसंद के शीर्ष पाँच गानों की फेहरिश्त पेश करने जा रहा हूँ:

१) सपनों से भरे नैना
२) कमीने
३) रहना तू
४) तू जाने ना
५) नयन तरसे


अब हम समीक्षा के अंतिम पड़ाव पर आ चुके हैं। तो बात करते हैं गैर-फिल्मी गानों की। इस साल प्रधान तौर पर दो हीं गैर-फिल्मी एलबम रीलिज हुए। एक- कैलाश, परेश, नरेश का "चांदन में" तो दूसरा मोहित चौहान का "फितूर"। "चांदन मे" में कैलाश के पहले के एलबमों जैसा दम नहीं था। फिर भी कुछ गाने लोगों को काफी रास आए। जैसे कि "चांदन में", "चेरापूँजी" और "ना बताती तू"। कैलाश, परेश, नरेश को सुनना हमेशा से हीं फायदे का सौदा रहा है, इसलिए बेस्ट नान-फिल्मी सांग का मेरा वोट "चांदन में" को हीं जाता है। साल का अंत आते-आते मोहित की आवाज़ का जादू सर चढकर बोलने लगा था और उसी समय मोहित ने "फितूर" लाकर उस जादू को कई गुना कर दिया। मोहित की आवाज़ में पहाड़ीपन है और वह उनके गानों में भी झलकता है। "फितूर" एलबम से "माई नी मेरिए" मेरा इस एलबम का सबसे प्रिय गाना है। दुआ करते हैं कि "मोहित" हर साल ऐसा हीं कमाल करते रहें और हमारे दिलों पर उनके गानों का असर कभी कम न हो।

उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारी यह समीक्षा पसंद आई होगी।

आप सबको नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
विश्व दीपक

Monday, December 28, 2009

संगीत २००९- एक मिला जुला अनुभव- वार्षिक संगीत चर्चा सजीव सारथी द्वारा



वर्ष २००९ संगीत के लिहाज से बहुत अधिक समृद्ध तो नहीं रहा फिर भी काफी सारे नए प्रयोग हुए, और श्रोताओं को रिझाने के लिए इंडस्ट्री के संगीतकारों, गीतकारों और गायक -गायिकाओं ने अपने तरफ से पूरी कोशिश की, कि संगीत में विविधता बनी रहे. बहरहाल मैं जिक्र करना चाहूँगा सबसे पहले उन अल्बम्स की जिन्होंने मुझे प्रभावित किया. वर्ष के शुरुआत में आई एक बहुत सुरीली अल्बम "दिल्ली ६".इस अल्बम के अधिकतर गीत ऐसे थे जो आपकी सुर-प्यास को संतुष्ट करते हैं. मसकली में मोहित चौहान एक अलग अंदाज़ में दिखे, इस गीत का फिल्मांकन भी बहुत बढ़िया रहा, ये एक ऐसा गीत है जिसे यदि साल दो साल बाद भी सुनेंगें तो ताज़ा लगेगा, गीत में एक कबूतर को संबोधित कर नायक नायिका को अपने सपनों की खातिर पंख खोलने के लिए प्रेरित कर रहा है और प्रसून ने कमाल के शब्दों से इस भाव को गढ़ा है, "तड़ी से मुड, अदा से मुड..." जैसी पंक्तियाँ गुदगुदा जाती हैं, संगीतकार रहमान ने इस फिल्म में और भी बहुत से खूबसूरत गीत जड़े हैं, "जय हो" की जबरदस्त कमियाबी की बाद ये रहमान की पहली प्रदर्शित फिल्म थी और उन्होंने निराश नहीं किया, अर्जियां सारी, रहना तू, और तुमरे भवन में जैसे गीत मधुर रहे पर जिस गीत ने दिल के तार झनझना दिए वो था "गेंदा फूल". यूं तो ये गीत उत्तर भारत के लोक संगीत पर आधारित था पर इसे दुनिया भर में श्रोताओं तक पहुँचाने के लिए निश्चित ही रहमान बधाई के पात्र हैं.

संगीतकार प्रीतम अपने लोकप्रिय गीतों से अधिक धुनें चुराने को लेकर अधिक चर्चित रहे हैं अब तक, पर इस साल उन्होंने अपने को शायद साबित करने की ठानी, और "अजब प्रेम की गजब कहानी" और "लव आजकल" के माध्यम से अपने स्वाभाविक हुनर को प्रदर्शित किया. जहाँ "अजब प्रेम में..." तेरा होने लगा हूँ, प्रेम की नैय्या, आ जाओ मेरी तमन्ना और तू जाने न जैसे लाजवाब गीत थे वहीँ "लव आजकल" में ट्विस्ट, चोर बाजारी, ये दूरियां, और आहूँ आहूँ का पंजाबी तड़का भी लोगों को खूब भाया, दोनों ही फिल्मों में उनके गीत लिखे इरशद कामिल ने, जिनके लिए ये उनका अब तक का सर्वश्रेष्ठ साल रहा कमियाबी के लिहाज से, वैसे प्रीतम ने इस साल एक के बाद एक करीब १० फिल्मों में संगीत दिया, जिनमें से अधिकतर व्यवसायिक लिहाज से सफल भी रहीं. एक और एल्बम जिसने कम से कम मुझे बहुत प्रभावित किया वो रही पियूष मिश्रा की "गुलाल", पियूष के बारे में और इस एल्बम के बारे में मैं पहले ही बहुत कुछ लिख चुका हूँ, तो बस इतना ही कहूँगा कि इस ऑल राउंड प्रदर्शन के लिए मैं पियूष भाई को सलाम देना चाहता हूँ, आरम्भ है प्रचंड, बीड़ा, शहर, दुनिया, राणा जी, किस किस की तारीफ करूँ, एक के गीत दिल चीर कर निकला हो जैसे...

हिमेश यूं तो बतौर संगीतकार मुझे हमेशा ही पसंद रहे हैं, और इस बात की तारीफ़ भी करनी पड़ेगी कि उन्होंने समय रहते अपने आप को सीमित काम करने के लिए वचन बद्ध भी कर लिया, शायद प्रीतम भी इससे कुछ सबक सीखे, बहरहाल हिमेश की एक ही फिल्म आई तो जाहिर है सबको उम्मीदें भी बहुत थी, हिमेश ने भी निराश नहीं किया, "रेडियो" में उनका संगीत ताजगी से भरा हुआ था, अपनी नयी आवाज़ में उन्होंने गाया मन का रेडियो, जो बेहद दिल को छूता है, जाने मन, पिया जैसे लाडू, रफा दफा और जिंदगी जैसे एक रेडियो जैसे गीत भीड़ से अलग हैं और मिठास से भरे हुए भी. बहुत बढ़िया हिमेश साहब....एक संगीतकार तिकड़ी जिन्होंने इस साल बहुत सफलता तो नहीं पायी मगर नए गायकों को मौका देकर एक अच्छा उदाहरण जरूर पेश किया, वो रहे शंकर एहसान लॉय. हालाँकि "लन्दन ड्रीम्स" एक संगीतमयी फिल्म थी, पर कहीं न कहीं वो इस संगीत में श्रोताओं से जुड़ने में असफल रहे. "वेक अप सिद" में कुछ भी नया नहीं था, हाँ पर "लक बाई चांस" में उनका संगीत उनकी पुरानी फिल्म "अरमान" के सदाबहार गीतों की याद ताज़ा कर गया. विशाल भारद्वाज अपने फिल्म "कमीने" से अपनी जमीन बरकरार रखने में सफल रहे. शीर्षक गीत के अलावा रात के ढाई बजे, फटाक, पहली बार मोहब्बत जैसे गीत सफल रहे. गुलज़ार साहब ने अपने शब्दों के जाल से इन्हें ख़ास बना डाला. आज के दौर के गीतकारों में मेरे सबसे पसंदीदा गीतकार स्वानंद किरकिरे ने "३ इडियट्स" और "पा" दोनों ही फिल्मों में बहुत बढ़िया काम किया. "पा" में हिचकी(इस गीत को बेहतर समझने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी)और मेरे पा जैसे गीत लिखने आसान नहीं रहे होंगें, "३ इडियट्स" में उनकी जोड़ी बनी उनके सबसे सफल जोड़ीदार शांतनु मोइत्रा के साथ, और दोनों ने मिलकर खूब रंग जमाया. ऑल इज्ज़ वेल, जुबी डूबी इसके शानदार नमूने हैं. पूरे वर्ष गायिकी में कम सुनाई दिए सोनू निगम ने ऑल इज वेल और जाने नहीं देंगें गाकर फिर से साबित किया कि इस समय तो कम से कम इंडस्ट्री में उनके टक्कर का कोई नहीं. एक और संगीतकार जिन्होंने इस वर्ष सबसे अधिक प्रभावित किया वो रहे अमित त्रिवेदी. "देव डी" का संगीत अनूठा था, अगर कहूँ तो आउट ऑफ दिस वर्ल्ड, एक दम तारो ताज़ा एक दम नया....वहीँ उनका एकतारा "वेक अप सिद" के अन्य तमाम गीतों पर भारी पड़ा.

अब कुछ ऐसे गीतों की बात करें जिनकी अल्बम तो कुछ ख़ास चर्चा में नहीं रही पर ये अपने आप में बेहद सराहे गए. जय हो का जयकारा देश विदेश में गूंजा, पर हिंदी गीतों के शौकीनों के लिए इस अल्बम में इस गीत के अलावा कुछ अधिक नहीं था, जावेद अख्तर का रचा 'सपनों से भरे नैना' दिल को बेहद करीब से छूता है. धूप के सिक्के में प्रसून ने भी बहुत बढ़िया शब्द बिछाये हैं और इन दोनों गीतों को शंकर ने अपनी आवाज़ से बुलंदियां तक पहुँचाया है. "ब्लू" में हालाँकि रहमान कुछ अलग नहीं दे पाए पर आज दिल गुस्ताख में श्रेया घोषाल ने एक अलग अंदाज़ की गायिकी दिखा कर श्रोताओं को चौंका दिया. मधुर भंडारकर की "जेल" में लता जी की दिव्य आवाज़ गूंजी. क्या इतना काफी नहीं कि गीत दाता सुन ले को हम ख़ास दर्जा दें. विशाल ददलानी ने इस साल संगीतकारी कम की गायिकी ज्यादा. सलीम सुलेमान ने "कुर्बान" में शुक्रान अल्लाह और रोकेट सिंह में पंखों को उड़ने दो जैसे गीत दिए. इस जोड़ी से भी संगीत की दुनिया उम्मीदें रख सकती है. इनके अलावा बिखरी बिखरी, सू छे (व्हाट्स यूर राशि), नदी में ये चंदा (मोहनदास), आ आजा साए मेरे (न्यू योर्क), और उम्मीद कोई (फ़िराक) के माध्यम से गीत/संगीत की दुनिया में कुछ नए नाम जुड़े, जिनकी चर्चा हम ताज सुर ताल में पहले ही कर चुके हैं. चलिए अब बढ़ते हैं उन नामों की तरफ जो मेरे हिसाब से इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ रहे अपने अपने विभागों में.

गीतकारों की बाते करें तो प्रसून जोशी ने दिल्ली ६, लन्दन ड्रीम्स और सिकंदर में बेहतरीन गीत लिखे, उनका लिखा मसकली, खानाबदोश. धूप के सिक्के, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. जावेद अख्तर साहब का लिखा सपनों से भरे नैना अपनी पहचान खुद है, गुलज़ार साहब ने एड्स जैसी खतरनाक बिमारी पर सचेत किया "भंवरा" गीत से, तो जय हो पर ओस्कर की मोहर लगाने वाले वो पहले हिंदी गीतकार रहे. स्वानंद किरकिरे ने ३ इडियट्स और पा के लिए फिल्म की स्क्रिप्ट के मुताबिक लाजवाब गीत लिखे तो इर्षद कामिल (लव आजकल और अजब प्रेम कि गजब कहानी), सैयद कादरी (तुम मिले, राज़), जयदीप सहनी (रोकेट सिंह) और सुब्रत सिन्हा ने रेडियो के गीत लिखकर अपनी जबरदस्त उपस्तिथि दर्ज की. पर मेरी तरफ से इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार रहे पियूष मिश्रा. "चल चलें" में इलायाराजा के साथ काम करने वाले पियूष ने गुलाल में ऑल राउंड पेशकश दी, गीत लिखे भी और संगीत भी दिया. मेरा नामांकन है ९ मिनट लम्बे गीत "शहर" और "दुनिया" के रचेता पियूष मिश्रा के नाम वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार का. संगीतकारों के योगदान का जिक्र उपर हम कर ही चुके हैं. प्रीतम ने जहाँ हिट संगीत की लड़ी लगायी, वहीँ हिमेश, अमित त्रिवेदी, इल्ल्याराजा, शंकर एहसान लोय, विशाल भारद्वाज और शांतनु मोइत्रा ने अपने अपने काम से खूब मनोरंजन दिया, पर नामांकन मेरा इस वर्ष भी नाम हुआ ए आर रहमान के नाम अल्बम "दिल्ली ६" के लिए. इस अल्बम में जबरदस्त विविधता है, और हर रंग के गीत के साथ रहमान ने भरपूर न्याय किया है. सुपर हिट गीत "मसकली" और "रहना तू" के लिए रहमान को जाता है मेरा नामांकन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के लिए.

गायक/ गायिकाओं की बात करते हैं. ग़ज़ल और सूफी गायिकी में महारथ गायिका कविता सेठ ने कुछ अलग तेवर दिखाए "एकतारा" में तो लता जी ने "दाता सुन ले" गाकर इस सामान्य से गीत को ख़ास कर दिया. सुनिधि चौहान ने लो टोन में "हिचकी" (पा), और श्रेया घोषाल ने आज दिल गुस्ताख है (ब्लू) गाकर अपने अब तक से अलग एक रूप को सफलता पूर्वक सामने रखा. बेला शिंदे ने "सू छे" से प्रभावित किया पर मेरा नामाकन पाने में सफल रही रेखा भारद्वाज अपने गीत "गैंदा फूल" के लिए, वैसे रेखा ने इस वर्ष "उम्मीद कोई" (फ़िराक) और "रात के ढाई बजे" (कमीने) में भी अपनी आवाज़ दी, पर गैंदा फूल में वो बस कमाल साबित हुई है. अपने अब तक के करियर में शायद सबसे अच्छे साल से गुजरी रेखा भारद्वाज जी को जाता है मेरा नामांकन सर्वश्रेष्ठ गायिका के लिए. गायकों में भी जबरदस्त होड़ रही. गायक जोजो (आ जाओ मेरी तमन्ना), आतिफ असलम (तू जाने न), और जावेद अली (तू ही हकीक़त ख्वाब तू) के बीच मेरे लिए चुनाव बहुत मुश्किल रहा, सोनू निगम (जाने नहीं देंगें तुझे), सुखविंदर (जय हो), मोहित चौहान (मसकली), और शंकर महादेवन (सपनों से भरे नैना और मन को अति भाए)ने दुविधा को और बढा दिया, ये सच है कि नीरज श्रीधर कभी भी मेरे बहुत पसंदीदा गायक नहीं रहे हैं, पर मुझे लगता है जिस मस्ती के साथ उन्होंने "प्रेम की नैय्या (अजब प्रेम की गजब कहानी) को गाया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है, तो मुझे इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गायक का नामांकन नीरज श्रीधर के नाम आखिर करना ही पड़ा.

सर्वश्रेष्ठ गीत वो होता है जिसका नशा पूरे साल न टूटे, मेरी नज़र में इस वर्ष ऐसा एक ही गीत रहा जिसने बच्चों बूढों और जवानों, शहरों, गाँवो और विदेशों में भी एक सी धूम मचाई, वो है दिल्ली ६ का "गैंदा फूल", मैं इस गीत को सर्वश्रेष्ठ गीत में नामांकित करना चाहूँगा. वर्ष २००९ में यदि कोई अल्बम ऐसी आई है जिसने मुझे बार बार सुने जाने पर मजबूर किया है वो है "अजब प्रेम की गजब कहानी", सर्वश्रेष्ठ अल्बम की श्रेणी में मैं इस अल्बम को नामंकिंत करना चाहूँगा. इसी फिल्म का "तू जाने न" गीत है मेरी नज़र में साल का सर्वश्रेष्ठ फिल्मांकित गीत. सुंदर पृष्ठभूमि और टेक्सचर पर रणबीर और कटरीना को देखना एक अनुभव ही है. उभरते हुए कलाकार में मैं सुब्रत सिन्हा को नामांकित करूँगा. शायद "रेडियो" उनकी पहली फिल्म है पर उनका लिखा हर गीत ऐसा लगता है जैसे किसी तजुर्बेकार गीतकार ने लिखा हो, मुझे इनसे बहुत उम्मीदें हैं. वर्ष के कलाकार के रूप में एक बार फिर मैं प्रीतम को नामांकित करना चाहूँगा. प्रीतम ने (यदि चुरा कर न पेश किया हो) तो पूरे साल संगीत की दुनिया में हलचल बनाये रखी. "अजब प्रेम.." और "लव आजकल" में उनका काम बहुत बढ़िया रहा.

चलते चलते कुछ बातें गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया की भी. गैर फिल्म संगीत जिस तेज़ी से बढ़ना चाहिए उस तेज़ी से नहीं बढ़ रहा है ये दुखद है. गैर फ़िल्मी संगीत में कलाकार के पास मौका होता है सामान्यता प्रेम गीतों के आस पास रहते फिल्म संगीत से कुछ अलग कर दिखाने का, बस जरुरत है कि उन्हें भी भरपूर प्रचार मिले ताकि वो भी अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुच सके. मेरे लिए चुनाव वाकई बहुत मुश्किल रहा इसलिए मैं इस श्रेणी में दो गीतों को नामांकित कर रहा हूँ एक "भीग गया मेरा मन" (कैलाश खेर, चांदन में) और दूसरा "माये नि मेरिये"(फितूर, मोहित चौहान). दोनों ही गीतों में मिटटी की खुशबू है, एक में चेरापूंजी की महक है तो दूसरे में पहाड़ों का जादू.और ये रहे मेरी पसंद के ५ गीत क्रमानुसार-

१. गैंदाफूल(दिल्ली ६)
२. एकतारा (वेक अप सिद)
३. सपनों से भरे नैना (लक बाई चांस)
४. तू जाने न (अजब प्रेम की गजब कहानी)
५. तू ही हकीकत (तुम मिले)


चलिए ये तो हुई मेरी राय, मैं जानना चाहूँगा कि मेरे इन नामांकनों पर आपकी क्या राय है, अपने विचारों में मुझे अवश्य अवगत करें...धन्येवाद

Sunday, December 27, 2009

मिर्ज़ा ग़ालिब की 212वीं जयंती पर ख़ास



आज से 212 वर्ष पहले एक महाकवि का जन्म हुआ जिसकी शायरी को समझने में लोग कई दशक गुजार देते हैं, लेकिन मर्म समझ नहीं पाते। आज रश्मि प्रभा उर्दू कविता के उसी महाउस्ताद को याद कर रही हैं अपने खूबसूरत अंदाज़ में। आवाज़ ने मिर्ज़ा ग़ालिब के ऊपर कई प्रस्तुतियाँ देकर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया है। शिशिर पारखी जो खुद पुणे से हैं, ने उर्दू कविता के 7 उस्ताद शायरों के क़लामों का एक एल्बम एहतराम निकाला था,जिसे आवाज़ ने रीलिज किया था। इसकी छठवीं कड़ी मिर्ज़ा ग़ालिब के ग़ज़ल 'तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले' को समर्पित थी। आवाज़ के स्थई स्तम्भकार संजय पटेल ने लता मंगेशकर की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़लों की चर्चा दो खण्डों (पहला और दूसरा) में की थी। संगीत की दुनिया पर अपना कलम चलाने वाली अनिता कुमार ने भी बेग़म अख़्तर की आवाज़ में मिर्जा ग़ालिब की एक रचना 'जिक्र उस परीवश का और फ़िर बयां अपना...' हमें सुनवाया था।

लेकिन आज रश्मि प्रभा बिलकुल नये अंदाज़ में अपना श्रद्धासुमन अर्पित कर रही हैं। सुनिए और बताइए-


संग्रहालय

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