Saturday, June 11, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 45 "मेरे पास मेरा प्रेम है"



पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत भाग-१

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। शनिवार की इस साप्ताहिक प्रस्तुति होती है ख़ास, आम प्रस्तुतियों से ज़रा हट के, जिसमे हम कभी साक्षात्कार, कभी विशेषालेख, और कभी आप ही के भेजे ई-मेल शामिल करते हैं। आज इस इस स्तंभ में हम शुरु कर रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार, उत्तम साहित्यकार, कवि, दार्शनिक, आयुर्वेद के ज्ञाता और विविध भाषाओं के महारथी, स्व: पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से की हुई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है'। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की पहली कड़ी। लावण्या जी से ईमेल के माध्यम से लम्बी बातचीत की है आपके इस दोस्त सुजॉय नें।

सुजॉय - लावण्या जी, आपका बहुत बहुत स्वागत है 'आवाज़' पर, नमस्कार!

लावण्या जी - नमस्ते, सुजॉय भाई, आपका व 'हिंद-युग्म' का आभार जो आपने आज मुझे याद किया।

सुजॉय - यह हमारा सौभाग्य है आपको पाना, और आप से आपके पापाजी, यानी पंडित जी के बारे में जानना। युं तो आप नें उनके बारे में अपने ब्लॉगों में या साक्षात्कारों में कई बार बताया भी है, इसलिए हम उन सब का दोहराव नहीं करना चाहते। हम सब से पहले चाहेंगे कि आप उन ब्लॉगों और वेबसाइटों के लिंक्स हमें बतायें जिनमें जाकर हम उन्हें पढ़ सकें।

लावण्या जी - हाँ, अक्सर मैं अपने ब्लॉग "लावण्यम - अंतर्मन" (http://www.lavanyashah.com) पे लिखती रही हूँ। और भी कुछ लिंक्स दे रही हूँ, समय निकालकर मेरे प्रयासों को पढ़ियेगा।

१ ) सुकवि श्री हरिवंश राय बच्चन जी का कहना सुनिए,http://www.lavanyashah.com/2007/11/blog-post_28.html
२ )http://www.lavanyashah.com/2008/06/blog-post_24.html
३ ) He is no more .....http://www.lavanyashah.com/2008/02/blog-post_08.html
४ )http://www.lavanyashah.com/2010/02/blog-post_10.html
५ )http://www.lavanyashah.com/2008/04/blog-post_29.html
६ )http://www.lavanyashah.com/2008/04/blog-post_24.html
७ )http://www.lavanyashah.com/2009/07/blog-post_12.html
८ )http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_12.html
9 )http://www.lavanyashah.com/2008/08/blog-post_30.html


सुजॉय - लावण्या जी, हम भी इन ब्लॉग्स को पढ़ेंगे और हम अपने पाठकों से भी अनुरोध करते हैं कि इनमें अपनी नज़र दौड़ायें, और पंडित जी के बारे में और निकटता से जानें। आज के इस साक्षात्कार में हम आपसे पंडित जी की शख्शियत के कुछ अनछुये पहलुओं के बारे में भी जानना चाहेंगे। सबसे पहले यह बताइए पंडित जी के पारिवारिक पार्श्व के बारे में। ऐसे महान शख़्स के माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी कौन थे, उनके क्या व्यवसाय थे?

लावण्या जी - पूज्य पापा जी का जन्म उत्तर प्रदेश प्रांत के ज़िला बुलंद शहर, खुर्जा, ग्राम जहांगीरपुर मे हुआ, जो अब ग्रेटर नॉयडा कहलाता है। तारीख थी फरवरी की २८, जी हाँ, लीप-यीअर मे २९ दिन होते हैं, उस के ठीक १ दिन पहले सन १९१३ मे। उनका संयुक्त परिवार था, भारद्वाज वंश का था, व्यवसाय से पटवारी कहलाते थे। घर को स्वामी पाडा कहा जाता था जो ३ मंजिल की हवेलीनुमा थी। जहां मेरे दादाजी स्व. पूर्णलाल शर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी मेरी दादी जी स्व. गंगा देवी जी अपने चचेरे भाई व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आबाद थे। उनके खेत थे, अब भी हैं और फलों की बाडी भी थी। खुशहाल, समृद्ध परिवार था जहां एक प्रतिभावान बालक का जन्म हुआ और दूर के एक चाचाजी जिन्हें रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियां पढ़ने का शौक था, उन्होंने बालक का नामकरण किया और शिशु को "नरेंद्र" नाम दिया!

सुजॉय - वाह!

लावण्या जी - किसे खबर थी कि "नरेंद्र शर्मा" का नाम एक दिन भारतवर्ष मे एक सुप्रसिद्ध गीतकार और कवि के रूप मे पहचाना जाएगा? पर ऐसे ही एक परिवार मे, बालक नरेंद्र पलकर बड़े हुए थे।

सुजॉय - पंडित जी के परिवार का माहौल किस तरह का था जब वो छोटे थे? क्या घर पर काव्य, साहित्य, गीत-संगीत आदि का माहौल था? किस तरह से यह बीज पंडित जी के अंदर अंकुरित हुई?

लावण्या जी - पापा से ही सुना है और उन्होंने अपनी पुस्तक "मुठ्ठी बंद रहस्य" में अपने पिताजी श्री पूर्ण लाल शर्मा जी को समर्पित करते हुए लिखा है कि 'पिता की तबीयत अस्वस्थ थी और बालक पिता की असहाय स्थिति को देख रहा था ..' ४ साल की उमर मे बालक नरेंद्र के सर से पिता का साया हट गया था और बड़े ताऊजी श्री गणपत भाई साहब ने, नरेंद्र को अपने साथ कर लिया और बहुत लाड प्यार से शिक्षा दी और घर की स्त्रियों के पास अधिक न रहने देते हुए उसे आरंभिक शिक्षा दी थी। एक कविता है पापा जी की ..'हर लिया क्यूं शैशव नादान'।

हर लिया क्यों शैशव नादान?
शुद्ध सलिल सा मेरा जीवन,
दुग्ध फेन-सा था अमूल्य मन,
तृष्णा का संसार नहीं था,
उर रहस्य का भार नहीं था,
स्नेह-सखा था, नन्दन कानन
था क्रीडास्थल मेरा पावन;
भोलापन भूषण आनन का
इन्दु वही जीवन-प्रांगण का
हाय! कहाँ वह लीन हो गया
विधु मेरा छविमान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?

निर्झर-सा स्वछन्द विहग-सा,
शुभ्र शरद के स्वच्छ दिवस-सा,
अधरों पर स्वप्निल-सस्मिति-सा,
हिम पर क्रीड़ित स्वर्ण-रश्मि-सा,
मेरा शैशव! मधुर बालपन!
बादल-सा मृदु-मन कोमल-तन।
हा अप्राप्य-धन! स्वर्ग-स्वर्ण-कन
कौन ले गया नल-पट खग बन?
कहाँ अलक्षित लोक बसाया?
किस नभ में अनजान!
हर लिया क्यों शैशव नादान?

जग में जब अस्तित्व नहीं था,
जीवन जब था मलयानिल-सा
अति लघु पुष्प, वायु पर पर-सा,
स्वार्थ-रहित के अरमानों-सा,
चिन्ता-द्वेष-रहित-वन-पशु-सा
ज्ञान-शून्य क्रीड़ामय मन था,
स्वर्गिक, स्वप्निल जीवन-क्रीड़ा
छीन ले गया दे उर-पीड़ा
कपटी कनक-काम-मृग बन कर
किस मग हा! अनजान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?


...नरेन्द्र शर्मा
...१९३२
http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_08.html


सुजॉय - बहुत सुंदर, बहुत सुंदर!

लावण्या जी - भारत के संयुक्त परिवारों मे अकसर हमारे पौराणिक ग्रंथों का पाठ जैसे रामायण होता ही है और सुसंस्कार और परिवार की सुद्रढ़ परम्पराएं भारतीयता के साथ सच्ची मानवता के आदर्श भी बालक मन मे उत्पन्न करते हुए, स्थायी बन जाते हैं, वैसा ही बालक नरेंद्र के पितृहीन पर परिवार के लाड दुलार भरे वातावरण मे हुआ था। और हां हमारे घर पली बड़ी हुईं हमारे बड़े ताऊजी की पुत्री गायत्री दीदी के संस्मरण पढियेगा इस लिंक में:

http://www.lavanyashah.com/2007/09/blog-post_16.html


सुजॉय - वाह! इस संस्मरण में गायत्री दीदी नें कितनी सुंदरता से लिखा है कि...

"मनुष्य की माया और वृक्ष की छाया उसके साथी ही चली जाती है ", पूज्य चाचाजी ने यही कहा था एक बार मेरे पति स्व. श्री राकेश जी से ! आज उनकी यह बात रह -रह कर मन को कुरेदती है. पूज्य चाचाजी के चले जाने से हमारी तो रक्शारुपी "माया ' और छाया ' दोनोँ एक साथ चली गयीँ और हम असहाय और छटपटाते रह गये| जीवन की कुछ घटनायेँ , कुछ बातेँ बीत तो जातीँ हैँ किँतु, उन्हेँ भुलाया नहीँ जा सकता, जन्म - जन्म तक याद रखने को जी चाहता है. कुछ तो ऐसी है, जो बँबई के समुद्री ज्वारोँ मेँ धुल - धुल कर निखर गयी हैँ और शेष
ग्राम्य जीवन के गर्द मेँ दबी -दबी गँधमयी बनी हुईँ हैँ ! सच मानिए, मेरी अमर स्मृतियोँ का केन्द्रबिन्दु केवल मेरे दिवँगत पूज्य चाचाजी कविवर पं.नरेन्द्र शर्मा जी हैँ! अपने माता पिता से अल्पायु मेँ ही वियुक्त होने के लगभग ६ दशकोँ के उपरान्त यह परम कटु सत्य स्वीकार करना पडता है कि, मैँ अब अनाथ - पितृहिना हो गयी हूँ !

लावण्या जी - अधिक विस्तार से, पुस्तक 'शेष - अशेष' मे आप मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेद्र शर्मा के लिखे संस्मरण मे पढ़ सकते हैं। ये पुस्तक पापा के देहांत के बाद उनकी बड़ी पुत्री स्व. वासवी ने छपवाई थ। आज तो अम्मा, पापा और वासवी, ये तीनों ही अब नहीं रहे!

सुजॉय - ज़रूर पढ़ना चाहेंगे हम इस पुस्तक को, और हमारे पाठकों नें भी इसे नोट कर लिया होगा! अच्छा, पंडित जी की शिक्षा-दीक्षा कैसे शुरु हुई?

लावण्या जी - शिक्षा घर पर ही आरम्भ हुई, फिर नरेंद्र को सीधे बड़ी कक्षा मे दाखिला मिल गया और स्कूल के शिक्षक नरेंद्र की प्रतिभा व कुशाग्र बुद्धि से चकित तो थे पर बड़े प्रसन्न भी थे। उनकी एक कविता "मुट्ठी बंद रहस्य" से कुछ यूं है...

" सच्चा वीर "

वही सच्चा वीर है, जो हार कर हारा नहीं,
आत्म विक्रेता नहीं जो, बिरुद बंजारा नहीं!
जीत का ही आसरा है, जिन्ह के लिये,
जीत जाये वह भले ही, वीर बेचारा नहीं!

निहत्था रण मेँ अकेला, निराग्रह सत्याग्रही,
हृदय मेँ उसके अभय, भयभीत, हत्यारा नहीं,
कौन है वह वीर? मेरा देश भारत -वर्ष है!
प्यार जिसने किया सबको, किसी का प्यारा नहीं!


सुजॉय - वाह! बहुत ख़ूब! अच्छा आगे की शिक्षा उन्होंने कहाँ से प्राप्त की?

लावण्या जी - प्रारम्भिक शिक्षा खुर्जा में हुई। इलाहाबाद विश्वविध्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में MA करने के बाद, कुछ वर्ष आनन्द भवन में 'अखिल भारतीय कॉंग्रेज़ कमिटी के हिंदी विभाग से जुड़े और नज़रबंद किये गए। देवली जेल में भूख हड़ताल से (१४ दिनो तक) जब बीमार हालत में रिहा किए गए तब गाँव, मेरी दादीजी गंगादेवी से मिलने गये। वहीं से भगवती बाबू ("चित्रलेखा" के प्रसिद्ध लेखक) के आग्रह से बम्बई आ बसे। वहीं गुजराती कन्या सुशीला से वरिष्ठ सुकवि श्री पंत जी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण संस्कार सम्पन्न हुए। बारात में हिंदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ हाजिर थीं - दक्षिण भारत से स्वर-कोकिला सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दिलीप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाबू, सपत्नीक अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्त जी, चेतनानन्दजी, देवाननदजी इत्यादी .. और जैसी बारात थी उसी प्रकार १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास डॉ. जयरामनजी के शब्दों में कहूँ तो "हिंदी साहित्य का तीर्थ-स्थान" बम्बई जैसे महानगर में एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया।

सुजॉय - लावण्या जी, हम बात कर रहे हैं पंडित जी की शिक्षा के बारे में। कवि, साहित्यिक, गीतकार, दार्शनिक - ये सब तो फिर भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन आयुर्वेद तो बिल्कुल ही अलग शास्त्र है, जो चिकित्सा-विज्ञान में आता है। यह बताइए कि पंडित जी नें आयुर्वेद की शिक्षा कब और किस तरह से अर्जित की? क्या यह उनकी रुचि थी, क्या उन्होंने इसे व्यवसाय के तौर पर भी अपनाया, इस बारे में ज़रा विस्तार से बतायें।

लावण्या जी - पूज्य पापा जी ने आयुर्वेद का ज्ञान किन गुरुओं की कृपा से पाया उनके बारे मे बतलाती हूँ पर ये स्पष्ट कर दूं कि व्यवसाय की तरह कभी इस ज्ञान का उपयोग पापा जी ने नहीं किया था। हां, कई जान-पहचान के लोग आते तो उन्हें उपाय सुझाते और पापा ज्योतिष शास्त्र के भी प्रखर ज्ञाता थे, तो जन्म पत्रिका देखते हुए, कोई सुझाव उनके मन मे आता तो बतला देते थे। हमारे बच्चों के जन्म के बाद भी उनके सुझाव से 'कुमार मंगल रस' शहद के साथ मिलाकर हमने पापा के सुझाव पर दी थी। आयुर्वेद के मर्मग्य और प्रखर ज्ञाता स्व. श्री मोटा भाई, जो दत्तात्रेय भगवान के परम उपासक थे, स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे और मोटाभाई ने, पावन नदी नर्मदा के तट पर योग साधना की थी, वे पापा जी के गुरु-तुल्य थे, पापा जी उनसे मिलने अकसर सप्ताह मे एक या दो शाम को जाया करते थे और उन्हीं से आयुर्वेद की कई गूढ़ चिकित्सा पद्धति के बारे मे पापा जी ने सीखा था। मोटा भाई से कुछ वर्ष पूर्व, स्व. ढूंडीराज न्याय रत्न महर्षि विनोद जी से भी पापा का गहन संपर्क रहा था। इस बारे में और विस्तार से जानने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं:

http://www.aroundalibag.com/idols/vinod.html

सुजॉय - लावण्या जी, आज हम यहाँ आकर रुकते हैं, पंडित जी के सफ़र को हम अगले सप्ताह आगे बढ़ायेंगे, आज की यह प्रस्तुति समाप्त करने से पहले आइए पंडित जी का लिखा फ़िल्म 'रत्नघर' का वही गीत सुनते हैं, जो मुझे बेहद पसंद है, और जिस गीत के मुखड़े से मैंने इस शृंखला का नामकरण भी किया है, "तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या मेरा प्रेम है, मेरा प्रेम है, मेरा प्रेम है"। इस गीत को हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हिंदी साहित्यकारों द्वारा लिखे फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'दिल की कलम से' की पहली ही कड़ी में बजाया था, आइए इस कर्णप्रिय गीत को यहाँ दोबारा सुनें। आवाज़ है लता मंगेशकर की और धुन है सुधीर पड़के का।

लावण्या जी - ज़रूर सुनाइए।

गीत - तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या है (रत्नघर)


तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की पहली कड़ी। कैसा लगा ज़रूर लिख भेजिएगा, टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com के ईमेल पते पर भी आप अपने सुझाव और राय लिख सकते हैं। और हाँ, आप अपने जीवन के यादगार अनुभवों को भी हमारे साथ बांट सकते हैं इसी स्तंभ में। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' ओल्ड इज़ गोल्ड का एक ऐसा सह-स्तंभ है, जिसे हम सजाते हैं आप ही के भेजे हुए ईमेलों से। तो इसी आशा के साथ कि आपके ईमेल हमें जल्द ही प्राप्त होंगे, आज हम आप से विदा लेते हैं। 'आवाज़' पर अगली प्रस्तुति होगी कल सुबह, सुमित के साथ 'सुर-संगम' पर ज़रूर पधारिएगा, नमस्कार!

क़ैस जौनपुरी की कहानी - सफ़ीना



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं हिन्दी की नई पुरानी रोचक कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शेखर जोशी की कहानी "दाज्यू" का पॉडकास्ट प्रीति सागर की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं क़ैस जौनपुरी की कहानी "सफ़ीना", उन्हीं के स्वर में। कहानी "सफ़ीना" का कुल प्रसारण समय 14 मिनट 28 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट रचनाकार पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

क़ैस जौनपुरी (qaisjaunpuri@gmail.com)
जन्म: 5 मई 1985 को जौनपुर में
फिल्म रायटर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया मुम्बई में ऐसोसिएट मेंबर
संपर्क: अँधेरी (वेस्ट), मुम्बई. 9004781786, 7738250270

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

सफ़ीना ने मेरी टांग खींची, "सर...चेक क्लियर हो जाएगा ना?"
(क़ैस जौनपुरी की कहानी "सफ़ीना" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#132th Story, Safina: Qais Jaunpuri/Hindi Audio Book/2011/14. Voice: Qais Jaunpuri

Friday, June 10, 2011

डेल्ही बेल्ली - एकदम फ्रेश, अनुसुना, और नए मिजाज़ का संगीत



Taaza Sur Taal (TST) - 17/2011 - DELHI BELLY

फिल्म "खाकी" का वो खूबसूरत गीत आपको याद ही होगा – 'वादा रहा प्यार से प्यार का....". एक बेहद युवा संगीतकार राम संपत ने रचा था इस गीत को. "खाकी" की सफलता के बावजूद राम अभी उस कमियाबी को नहीं छू पाए थे जिसके कि वो निश्चित ही हकदार हैं. आमिर खान की "पीपली लाईव" के महंगाई डायन गीत को जमीनी गीत बनाने में भी उनका योगदान रहा था. शायद वहीँ से प्रभावित होकर आमिर ने अपनी महत्वकांक्षी फिल्म "डेल्ही बेल्ली" में उन्हें बतौर संगीतकार चुना. आईये आज बात करें "डेल्ही बेल्ली" में राम के संगीत की.

कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होते हैं. इस नयी सदी का युवा जिन परेशानियों, कुंठाओं और भावनाओं से उलझ रहा है जाहिर है यही सब आज की फिल्मों में, गीतों में दिखाई सुनाई देगा. अब जो कहते हैं कि आज संगीत बदल गया है कोई उनसे पूछे कि आज दुनिया कितनी बदल गयी है. संगीत भी तो उसके पेरेलल ही चलेगा न. बहरहाल हम आपको बता दें कि डेल्ही बेल्ली एक पूरी तरह से "एक्सपेरिमेंटल" अल्बम है, यानी एक दम कुछ नया ताज़ा, अगर आपके कान इसके लिए तैयार हों तभी इस अल्बम को सुनें. उदाहरण के लिए पहला ही गीत "भाग भाग डी के बोंस" कुछ ऐसा है जो पहली सुनवाई में ही आपको चौका देगा. खुद राम ने इसे अपनी आवाज़ दी है. प्रस्तुत गीत में वो सभी उलझनें, मुश्किलातें, कुंठाएं समाहित है जिसका कि हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं. रोक्क् शैली के इस गीत की रिदम बेहद तेज है ऐसा लगेगा जैसे आप किसी रोलर कोस्र्टर में बैठे हैं और भागे जा रहे हैं, गीत के बोल भी तो आखिर भागने की सलाह दे रहे हैं. कुल मिलाकर ये गीत एक चार्ट बस्टर है इसमें कोई शक नहीं.

डैडी मुझे बोला तू गलती है मेरी,
तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी,
साबुन की शकल में निकला तू तो झाग....


खुद पर पड़े माँ बाप की भारी भरकम उम्मीदों के बोझ को आज का युवा और किन शब्दों में व्यक्त करेगा....अल्बम की खासियत है इसकी विविधता, अगला गीत "नक्कड़ वाले डिस्को" एकदम अलग पेस का है. सड़क छाप शब्दों से बुना गया है इस गीत को, जिसे गाया है कीर्ति सगाथिया ने. संगीत संयोजन गीत की जान है. इस गीत को हास्य जोनर का कह सकते हैं. पर है कानों के लिए एक नया अनुभव. मुझे तो मज़ा आया.

चेतन शशितल आपको हैरान करते हैं जब सहगल अंदाज़ में गीत की शुरुआत करते है, गीत का नाम ही "सहगल ब्ल्यूस" है. लाउंज म्यूजिक और सहगल का रेट्रो अंदाज़. २०११ में में १९४१ का मज़ा. "इस दर्द की न है दवाई, मजनूं है या है तू कसाई..." हा हा हा...गजब का संगीत संयोजन, एकदम नया इस्टाईल है राम का.

अगर अल्बम के अब तक के गीत आपको फ्रेश लगे हों तो लीजिए पेश है नए अंदाज़ में बॉलीवुड का तडका मार के, पुरविया संगीत का जादू अगले गीत बेदर्दी राजा में जिसे आवाज़ से संवारा है सोना महापात्रा ने. हारमोनियम के स्वरों को हमने कितना मिस किया है इस नए दशक में, भरपूर आनंद देगा आपको ये गीत अगर आपको ठेठ भारतीय संगीत पसंद है तो.

अगला गीत आपको भारत से सीधे अमेरिका ले जायेगा "गन्स एंड रोसेस" और "मेटालिका" स्टाईल का हार्ड रोक्क् गीत है "जा चुड़ैल". नए दौर की लड़कियां भी नयी है. और लड़के अगर इन्हें समझने में भूल करे तो आश्चर्य क्या. ऐसे में "चुड़ैल" जैसे शब्द स्वाभाविक ही जुबान पे आते है और मुझे लगता है कि लड़कियों को भी अब इन नए संबोधनों से कोई परेशानी नहीं है(बेहद व्यक्तिगत राय है). वैसे सूरज जगन अब इस शैली में मास्टर हो गए हैं. गीत हार्ड रोक्क् से चहेतों को ही अधिक भाएगा.

अगला गीत एक सोफ्ट रोमांटिक गीत है खुद राम और तरन्नुम मालिक की युगल आवाजों में. तरन्नुम आपको याद होगा कभी आवाज़ के इसी मंच पर आई थी गीत "एक धक्का दो" लेकर जिसे आप सब श्रोताओं का भरपूर प्यार भी मिला था. हमें लगा इस गीत के बारे में क्यों न कुछ तरन्नुम से ही पूछा जाए. लीजिए पेश है ये संक्षिप्त सा इंटरव्यू-
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सजीव – राम का संगीत इस अल्बम में बेहद "एक्सपेरिमेंटल" है, कैसा रहा उनके साथ काम करना ?

तरन्नुम – मैंने उनके साथ कुछ जिंगल्स भी किये हैं और उनके साथ काम करना हमेशा ही एक रेफ्रेशिंग तजुर्बा रहा है, अब उनके साथ इस फिल्म में काम करना मेरी खुशकिस्मती रही. वो बहुत जबरदस्त संगीतकार है और एक अच्छे इंसान भी.

सजीव – अगर मै पूछूं "तेरे सिवा" के आलावा आपका पसंदीदा गीत कौन सा है फिल्म का ?

तरन्नुम – ये बेहद मुश्किल सवाल है, क्योंकि हर गीत यहाँ बेहद अलग है, "डी के बॉस" एक रोक्क् गीत है जबकि "बेदर्दी राजा" एक आइटम गीत है. जिसे सोना ने बहुत ही बढ़िया गाया है. और देखा जाए तो "तेरे सिवा" इकलौता रोमांटिक गीत है, तो मैं इस अल्बम के गीतों को एक दूसरे से कम्पेयर नहीं कर सकती, मुझे इसके सभी गीत पसंद है क्योंकि सभी बेहद यूनिक हैं.

सजीव – अच्छा इस गीत से जुडी हुई कोई बात जो याद आती हो ?

तरन्नुम – राम ने मुझे फोन किया और अपने स्टूडियो आने को कहा. सबसे बढ़िया बात ये रही कि राम ने मुझे मात्र १० मिनट में ये गीत समझा दिया सिखा दिया, और सिर्फ २५ मिनट बाद मैं डब्बिंग रूम से बाहर थी और गाना पूरा हो चुका था.
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अल्बम में २ गीत और हैं – स्वीटी तेरा प्यार और आई हेट यू लईक आई लव यू....दोनों ही गीत एक दूसरे से एकदम अलग है हैं और अल्बम की विविधता को बढाते हैं. सभी गीत अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे हैं, शाब्दिक लिहाज से गीत और बढ़िया हो सकते थे, पर शायद फिल्म की जरुरत के हिसाब से उन्हें ऐसा रखा गया हो, बहरहाल लंबे समय बाद राम संपत कुछ ऐसे देने में कामियाब रहे हैं जिसकी उनके जैसे बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार से हमेशा ही उम्मीद रहती है. मुझे व्यक्तिगत तौर पर "डी के बॉस" "सहगल ब्ल्यूस" और "बेदर्दी राजा" बेहद पसंद आये. फिर वही बात कहूँगा ये अल्बम आपके लिए है अगर वाकई कुछ अनसुना, अनूठा सुनने की चाहत रखते हों तो.

आवाज़ रेटिंग - 8.5/10

एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, June 9, 2011

कुछ दिन पहले एक ताल में....क्लास्सिक कहानी कहने के अंदाज़ में लिखा मजरूह ने इस गीत को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 675/2011/115

हानी भरे गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनो चल रही लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' में अब तक जिन "कहानीकारों" को हम शामिल कर चुके हैं, वो हैं किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी और हसरत जयपुरी। और इन कहानियों को हमें सुनाया सहगल, शांता आप्टे, सुरैया और लता मंगेशकर नें। आज इस लड़ी में एक और कड़ी को जोड़ते हुए सुनवा रहे हैं मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी कहानी आशा भोसले के स्वर में। नर्गिस पर फ़िल्माया यह गीत है १९५८ की फ़िल्म 'लाजवंती' का। मजरूह साहब नें शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते हुए इस कहानी रूपी गीत को लिखा है और दादा बर्मन का लाजवाब संगीत है इस गीत में। फ़िल्म का एक और कहानीनुमा गीत "चंदा मामा, मेरे द्वार आना" आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहले सुन चुके हैं। जैसा कि पिछले अंकों में हमनें बताया था कि फ़िल्मों में अक्सर नायिका अपने जीवन की दुखभरी कहानी को ही किसी बच्चे को लोरी-गीत के रूप में सुनाती है, इस गीत का भाव भी कुछ हद तक वैसा ही है। कहानी है एक बतख के जोड़े की और उनके एक बच्चे की। गीत शुरु ख़ुशमिज़ाज तरीके से होता है, लेकिन कहानी दुखद मोड़ लेती है जब उस जोड़े से उनका बच्चा अलग हो जाता है। कहानी वहीं थम जाती है, नायिका (नर्गिस) आगे नहीं गा पातीं। भले ही फ़िल्म की कहानी में इस गीत का महत्वपूर्ण स्थान रहा होगा, लेकिन यह गीत इतना सुंदर बना है कि फ़िल्म को अलग रखते हुए भी हम अगर इसको सुनें तो उतना ही अच्छा लगता है। यह गीत हमें जैसे एक शांत तालाब में लिये जाता है जहाँ पर दो सफ़ेद हंस तैर रहे हैं अपने नन्हे से बच्चे के साथ। अभी कुछ दिन पहले मैंने यह कहा था कि लता के अभाव नें जहाँ सी.रामचन्द्र की सफलता पर रोक लगा दी थी, वहीं सचिन देव बर्मन पर जैसे कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा। इसका कारण तो यही लगता है कि जब दादा नें आशा को गवाना शुरु किया, तब वो गानें भी आशा वाले अंदाज़ के ही बनाये, न कि लता शैली के। और इसलिए आशा द्वारे गाये उनके गीत भी उतने ही लोकप्रिय हुए जितने लता के। इसका उदाहरण है 'लाजवंती' के गीतों की अपार सफलता।

और आइए अब हंस के जोड़े की कहानी भी पढ़ लीजिये...

कुछ दिन पहले एक ताल में कमलकुंज के अंदर
रहता था, एक हंस का जोड़ा।

रोज़ रोज़ भोर होते ही जब खिल जाते कमल,
दूर दूर दूर मोती चुगने को हंस घर से जाता निकल,
संध्या होते घर को आता झूम झूम के।

जब जब जब ढल जाता था दिन तारे जाते थे खिल,
सो जाते हिल-मिल के वो दोनों जैसे लहरों के दिल,
चंदा हँसता दोनों का मुख चूम चूम के।

थी उनकी एक नन्ही सी बेटी छोटी सी हंसिनी,
दोनों के नैनों की वो ज्योति घर की रोशनी,
ममता गाती और मुस्काती झूम झूम के।

फिर एक दिन ऐसा तूफ़ान आया चली ऐसी हवा,
बेचारे हंसा उड़ गये रे होके सबसे जुदा,
सागर सागर रोते हैं अब घूम घूम के।



क्या आप जानते हैं...
कि १९६२ के हेलसिंकी, फ़िनलैण्ड में आयोजित 'अंतर्राष्ट्रीय लोकसंगीत प्रतियोगिता' की जूरी में शामिल थे सचिन देव बर्मन।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 6/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - संगीत रवि का है.
सवाल १ - किस अभिनेत्री पर है ये मशहूर गीत - २ अंक
सवाल २ - किस बाल कलाकार ने फिल्म में प्रमुख अभिनेत्री के बेटे की भूमिका की थी, आगे चलकर ये एक मशहूर फिल्म लेखिका बनी - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन है - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना जी, अमित जी, अविनाश जी और शरद जी को बधाई. पहेली संख्या २ के जवाब को लेकर असमंजस बना हुआ है. हमारे सभी सूत्र मुंशी अज़ीज़ का ही नाम दर्शा रहे हैं, मगर अमित जी हमें फिल्म अर्काईव का सन्दर्भ भेज चुके हैं, ऐसी स्तिथि में जब ये साफ़ नहीं हो पा रहा हमें लगता है कि पहली २ को निरस्त कर देना चाहिए. पहेली २ के स्थान पर हम इस शृंखला के अंतिम प्रश्न के साथ एक बोनस सवाल पूछ लेंगें, ओल्ड इस गोल्ड का समय आज से आधा घंटा पहले कर दिया गया है. आशा है आप सब श्रोता नियमित हिस्सा लेते रहेंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, June 8, 2011

सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी.....हसरत जयपुरी के कलम की बयानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 674/2011/114

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है कहानी भरे गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल'। कल की कड़ी में आपनें सुनें सुरैया की आवाज़ में एक ऐसा गीत जिसमें माँ अपने बच्चे को सुलाने के लिये लोरी गाती है जो मूलत: अपने ही जीवन की दर्दीली दास्तान है। इस तरह के गीत इसके बाद भी कई बार फ़िल्मों में आये हैं। आज हम जिस गीत को लेकर आये हैं वह भी उसी जौनर का है, और शायद इस जौनर का सब से चर्चित गीत रहा है। १९५५ की फ़िल्म 'सीमा' का लता मंगेशकर का गाया "सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी"। हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। राग भैरवी पर आधारित इस गीत में सरोद नवाज़ उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब के सरोद के टुकड़े गीत की ख़ास बात है। ऐसा सुना जाता है कि इस गीत को शंकर नें ख़ान साहब के सरोद को ध्यान में रख कर ही स्वरबद्ध किया था। लेकिन ख़ान साहब नें इस गीत से पहले शंकर से यह कहा था कि फ़िल्मी संगीतकार जिस तरह से सितार का प्रयोग अपने गीतों में कर सकते है, वैसा सरोद के साथ कर पाना उनके लिये बहुत मुश्किल काम हो जाता है, क्योंकि सरोद के टुकड़ों को समझनें के लिये सरोद बजाना आवश्यक होता है। शंकर नें इस चुनौती को स्वीकारा और नतीजा हम सब के सामने है। विश्वास नेरुरकर सम्पादित शंकर जयकिशन पर आलेख में बताया गया है कि अपने अभिन्न मित्र व सहयोगी प्रो. सुहासचन्द्र कुलकर्णी को शंकर नें बताया था कि शुरु में इसमें सरोद के टुकड़ों की कल्पना उनके मन में नहीं थी, पर रेकॉर्डिंग् के वक्त उन्हें यह ख़याल आया और बड़े रचनात्मक तरीके से इन टुकड़ों को गीत में ढाल दिया गया।

फ़िल्म 'सीमा' के इस अद्भुत गीत को सुनने से पहले ये रही छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी:

सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी,
जैसे तारों की बात सुने रात सुहानी।

हो जिसकी क़िस्मत में ग़म के बिछौने थे,
आँसू ही खिलौने थे,
दर्द ही सखियाँ थीं,
दुख भरी अखियाँ थीं,
घर भी न था कोई,
और दर भी न था कोई,
भरे आँचल में ग़म छुपाये,
आँखों में पानी,
सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी।

दिल में ये अरमान थे,
एक छोटा सा बंगला हो,
चांद सी धरती पर
सोने का जंगला हो,
खेल हों जीवन के यहाँ
और मेल हों जीवन के,
गया बचपन तो
आँख भर आयी जवानी,
सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी।

चांद का डोला हो,
और बिजली का बाजा हो,
डोले में रानी हो,
और घोड़े पे राजा हो,
प्यार के रास्ते हों,
और फूल बरसते हों,
बनना चाहती थी
एक दिन वो तारों की रानी,
सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी।

हो टूटे बंधन
सपनों के मोती भी,
लुट गयी ज्योति भी,
रह गये अंधेरे
उजड़े हुए सवेरे,
बात ये पूरी थी,
और फिर भी अधूरी थी
होगा अंजाम क्या,
ये ख़बर ख़ुद भी न जानी,
सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी।



क्या आप जानते हैं...
कि शंकर जयकिशन के संगीत में १९५४ की फ़िल्म 'पूजा' का संगीत तो नहीं चला, लेकिन यही वह फ़िल्म थी जिसमें एस.जे नें पहली बार रफ़ी साहब को मुख्य गायक के रूप में गवाया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 5/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायिका हैं आशा जी.
सवाल १ - किस अभिनेत्री की आवाज सुनी आपने - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन है - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद को बहुत दिनों बाद ३ अंक लेते हुए देखना बेहद अच्छा लगा, पर इस सीरिस में तो अनजाना जी काफी बड़ी बढ़त बना चुके हैं. बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, June 7, 2011

तारों की नगरी से चंदा ने एक दिन....आज सुर्रैया सुना ही है एक दर्द भरी कहानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 673/2011/113

'एक था गुल और एक थी बुलबुल' - कहानी भरे गीतों की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। कुंदनलाल सहगल और शांता आप्टे के बाद आज कहानी सुनाने की बारी है सुरैया की। ३० के दशक से एक छलांग मार कर आज हम पहुँच गये हैं ५० के दशक में। साल १९५४ में एक फ़िल्म आयी थी 'वारिस', जिसका "राही मतवाले" गीत आप सब को याद ही होगा। इसी फ़िल्म में सुरैया की एकल आवाज़ में एक गीत है "तारों की नगरी से चंदा ने एक दिन धरती पे आने की ठानी"। कहिये प्लॉट कैसा है कहानी का? उतावले हो रहे होंगे न आप आगे की कहानी जानने के लिये। बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिये, अभी हम आते हैं कहानी पर, लेकिन उससे पहले इस गीत से जुड़ी कुछ बातें कहना चाहेंगे। "राही मतवाले" गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ था कि इस फ़िल्म के दूसरे गीतों की तरफ़ लोगों का ध्यान ज़रा कम ही गया है। आज का प्रस्तुत गीत तो बहुत लोगों नें सुना भी नहीं होगा। सुरैया पर ही फ़िल्माये गये इस गीत में पर्दे पर उसे और उसके बेटे को दिखाया जाता है। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की है कि एक रेल दुर्घटना में सुरैया अपने पति से बिछड़ जाती हैं। उस वक़्त वो गर्भवती थीं। बच्चे के जन्म के बाद वो अपने बच्चे को पालती-पोसती है, और इस तरह से कहानी में एक सिचुएशन रखा जाता है कि वो अपने बच्चे को सुलाने के लिये लोरी गा रही है, जिसके ज़रिये वो अपनी ही दुखभरी दास्तान कहती है।

क़मर जलालाबादी के लिखे इस गीत को चाहे आप लोरी कह लीजिये या कोई कहानी, बेहद ख़ूबसूरत गीत है। सुरैया इस गीत में अपने बच्चे को सुलाने के लिये लोरी गाती है, लेकिन गीत ख़त्म होते होते वह अपनी ही जीवन की दर्दीली कहानी सुना चुकी होती है। मानवीकरण अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है, अपने पति के लिये "चांद" का इस्तमाल करती हैं। और अनिल बिस्वास नें भी अपने दूसरे सभी गीतों की तरह ही क्या मधुर संगीत दिया है इस गीत में भी। हमें पूरी उम्मीद है कि आप में से जिन श्रोताओं नें इस गीत को पहले नहीं सुना है, उनको आज पहली बार यह गीत सुनकर उतना ही आनंद आयेगा। गीत सुनने से पहले यह रही कहानी इस गीत की।

तारों की नगरी से चंदा ने एक दिन,
धरती पे आने की ठानी,
सुन मेरे मुन्ना कहानी।

चंदा नें पहने शबनम के गहने,
लहरों पे आयी रवानी।
कब से खड़ी थी व्याकुल चकोरी,
नैना बिछाये हुए!
धरती पे उतरा राजा गगन का,
चुपके से किरणों के रथ में।
आये पिया प्यारे, प्यासे के द्वारे,
फिर भी चकोरी ना जाने।
कहती थी दुनिया हो न सकेगा चंदा चकोरी का मेल,
पल भर में देखो रूठेगी निंदिया टूटेगा सपनों का खेल।
इतने में चंदा बढ़ कर यूं बोला,
मैं राजा तू मेरी रानी।
लेकिन ये दुनिया प्रेमी की बैरन हाये लगा दी नज़रिया,
आये थे जैसे वैसे ही एक दिन सजनी से बिछड़े सांवरिया।
अब तक खड़ी है पथ पर चकोरी, लेकर पिया की निशानी,
जब तक न वापस आयेगा चंदा, पूरी न होगी कहानी।




क्या आप जानते हैं...
कि अनिल बिस्वास स्वरबद्ध फ़िल्म 'राही' की मीना कपूर की गायी लोरी "चांद सो गया तारे सो गये" मेघालय राज्य के खासी जनजाती की एक लोकधुन पर आधारित है।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 4/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - किस सरोद वादक ने इस गीत में अपना योगदान दिया है - ३ अंक
सवाल २ - किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी बढ़िया खेल रहे हैं, अविनाश जी बीच बीच में चूक जाते हैं. अमित जी हमें थोडा समय दीजिए पिछली पहेली के संशय को दूर करने का

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, June 6, 2011

एक था राजा एक थी रानी.....सुनिए शांता बाई से आगे की कहानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 672/2011/112

'एक था गुल और एक थी बुलबुल' - कल से हमनें इस लघु शृंखला की शुरुआत की है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर, जिसके तहत हम १० ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें कही गयी है कोई कहानी, या सुनाया गया है कोई क़िस्सा। जैसा कि कल हमनें वादा किया था १९३७ वर्ष के दो कहानी-पूर्ण गीत एक के बाद एक सुनवाएँगे, पहला गीत सहगल साहब की आवाज़ में फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट' का कल आपनें सुना होगा, आज प्रस्तुत है शांता आप्टे की आवाज़ में फ़िल्म 'दुनिया न माने' से "एक था राजा, एक थी रानी, दोनों पे छायी थी जवानी"। कल हमनें बचपन में बच्चों के कहानी सुनने में दिलचस्पी का ज़िक्र किया था। बच्चे हमेशा, हर युग में, बड़ों से कहानी सुनने की ज़िद करते हैं, जैसे कि यह उनका हक़ है। फ़िल्मों में भी कई बार ऐसे सिचुएशन आये हैं कि जिसमें बच्चे अपने अभिभावक या टीचर से कहानी की माँग करते हैं। और आज का प्रस्तुत गीत भी इन्हीं में से एक है। 'दुनिया न माने' व्ही. शान्ताराम की फ़िल्म थी। उनके विचारों की ही तरह फ़िल्म के गीत भी अपने समय से बहुत आगे थे। इसी फ़िल्म में पहली बार अंग्रेज़ी के शब्दों वाले गीत को रखा गया था, और आज के प्रस्तुत गीत में भी कहानी कहने की जो शैली अपनायी गयी है, वह उस ज़माने में एक नवीन प्रयोग था। गीत के फ़िल्मांकन में स्कूली छात्र अपने सुंदर टीचर (शांता आप्टे) से कहानी की माँग कर रहे हैं।

शांता आप्टे नें जिस अदा से कहानी को पेश किया है, वह लाजवाब है। गीत के आख़िर में बच्चे उनकी बाहों में झूलने लग पड़ते हैं और वो उनमें से कईओं को उठा भी लेती हैं। बच्चों के साथ उनकी जो केमिस्ट्री दिखायी गई है इस गीत में, वह ग़ज़ब की है। सभी के सभी इस तरह से घुलमिल गये हैं कहानी रूपी इस गीत में कि दृश्य बड़ा ही सजीव हो उठा है। और क्यों न हो, जब व्ही. शान्ताराम जैसे फ़िल्मकार की फ़िल्म है, तो ऐसा होना अधिक आश्चर्य की बात नहीं! मुंशी अज़ीज़ के लिखे इस गीत को संगीतबद्ध किया था 'प्रभात स्टुडिओज़' के संगीतकार मास्टर केशवराव भोले नें। आइए इस गीत को सुनने से पहले आपको बतायें इसमें शामिल कहानी।

एक था राजा, एक थी रानी,
दोनों पर छायी थी जवानी।
प्रीत में दोनों दीवाने थे,
सुख-सागर में बहते थे।
प्रेम नगर के एक मंदिर में,
दोनों हिल-मिल रहते थे।
रानी कहती थी मन मेरा मोती,
राजा कहे मैं मन का चोर।
रानी कहती चन्द्रिका हूँ मैं,
राजा कहता मैं हूँ चकोर।
प्रेम-चांदनी चारों ओर,
वो हँस हँस के करते थे शोर।
जैसे कूकें मोरनी-मोर,
वो हँस हँस के करते थे शोर।
हाँ हाँ हाँ, हँस हँस के करते थे शोर।
हाँ हाँ हाँ, हँस हँस के करते थे शोर।




क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार मास्टर केशवराव भोले नें अपनी मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर संगीत और फ़िल्म जगत में आ गये थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सुरैया है गायिका.
सवाल १ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - इस नाम की एक फिल्म आगे चल कर भी आई जिसमें स्मिता पाटिल ने अभिनय किया, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
जो जवाब अनजाना जी ने दिया है हमारे हिसाब से तो वही गीतकार है प्रस्तुत गीत के, पर अमित जी और अविनाश जी इससे सहमत नहीं हैं, तो फिलहाल के लिए हम अंक अनजाना जी के खाते में डाल देते हैं, और वादा करते हैं कि एक बार और कन्फर्म करेंगें अपने सूत्रों से. प्रतीक जी को २ अंक और हिन्दुस्तानी जी को एक अंक जरूर मिलेंगें.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, June 5, 2011

एक राजे का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा....सुनिए एक कहानी सहगल साहब की जुबानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 671/2011/111

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ आप सब की ख़िदमत में हाज़िर हूँ। दोस्तों, बचपन में हम सभी नें अपने दादा-दादी, नाना-नानी और माँ-बाप से बहुत सारी किस्से कहानियाँ सुनी हैं, है न? उस उम्र में ये कहानियाँ हमें कभी परियों के साम्राज्य में ले जाते थे तो कभी राजा-रानी की रूप-कथाओं में। कभी भूत-प्रेत की कहानियाँ सुन कर रात को बाथरूम जाने में डर भी लगा होगा आपको। और हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, हमारी कहानियाँ भी उम्र और रुचि के साथ साथ बदलती चली जाती है। कहानी-वाचन भी एक तरह की कला है। एक अच्छा कहानी-वाचक सुनने वालों को बाकी सब कुछ भूला कर कहानी में मग्न कर देता है, और कहानी के साथ जैसे वो बहता चला जाता है। हमारी फ़िल्में भी कहानी कहने का एक ज़रिया है। और फ़िल्मों के गीत भी ज़्यादातर समय फ़िल्म की कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई फ़िल्मी गीत भी अपने आप में कोई कहानी कहता है। कुछ ऐसे ही गीतों को लेकर, जिनमें छुपी है कोई कहानी, हम आज से एक नई शृंखला की शुरुआत कर रहे हैं। कहानी भरे गीतों का जैसे ही ख़याल आया तो सब से पहले मुझे जो गीत याद आया, वह है फ़िल्म 'जब जब फूल खिले' का "एक था गुल और एक थी बुलबुल"। लेकिन क्योंकि यह गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आनन्द बक्शी साहब पर केन्द्रित शृंखला में बज चुका है, इसलिए इस शृंखला के लिये इतना सटीक होते हुए भी हम इसे शामिल नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन बक्शी साहब की लिखी इस कहानी को सलाम करते हुए हम इस शृंखला का शीर्षक रखते हैं - 'एक था गुल और एक थी बुलबुल'।

इस शृंखला के लिये गीतों की खोज करते हुये मेरे हाथ जो सबसे पुराना गीत लगा, वह है साल १९३७ का। वैसे एक नहीं, वर्ष १९३७ के मुझे दो ऐसे गीत मिले हैं जिनमें कहानी है। और इस शृंखला की पहली दो कड़ियों में ये ही दो गीत आप सुनने जा रहे हैं। शुरु करते हैं पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदनलाल सहगल से। १९३७ की फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट' का गीत "इक बंगला बने न्यारा" आप हाल ही में इस स्तंभ में सुन चुके हैं। इस गीत में सहगल साहब सपना देखते हैं उस मिल का मालिक बनने का जिसमें वो एक मज़दूर की हैसियत से काम करते हैं। लेकिन लगता है उनका यह सपना टूट जाता है, उनकी नौकरी चली जाती है, और वो इस बात को अपने परिवार से छुपाने की कोशिश करते हैं। इसी सिचुएशन पर फ़िल्म का अगला गीत है "एक राजे का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा"। यह गीत उनकी कोशिश है अपनी नौकरी चले जाने को छुपाने की। किदार शर्मा के लिखे इस गीत को स्वरबद्ध किया है रायचन्द बोराल नें। गीत बच्चों वाला है, जिसमें रूपकथा है, लेकिन फ़िल्म के सिचुएशन के हिसाब से यह ग़मज़दा गीत है क्योंकि नायक की नौकरी चली गई है। इस गीत में जो कहानी है, उसे पूरा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जो भी है, गीत उस ज़माने का सुपरहिट गीत रहा है। गीत सुनने से पहले ये रही इस गीत में कही गई कहानी:

एक राजे का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा,
देश देश के सैर की ख़ातिर अपने घर से निकला।

उड़ते-उड़ते चलते-चलते थके जो उसके पाँव,
तो इक जगह पर बैठ गया वो देख के ठण्डी छाँव।

इतने में होनी ने अपनी बंसी वहाँ बजायी,
जिसको सुन कर परियों की शहज़ादी दौड़ी आयी।


उसके बाद क्या हुआ, उसकी आप ख़ुद ही कल्पना कर लीजिये, और हो सके तो इस गीत को पूरा लिख कर हमें oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजिये।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार रायचन्द बोराल के पिता लालचन्द बोराल अपने ज़माने के मशहूर गायक और पखावजवादक थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 2/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - शांता आप्टे की आवाज़ है इसमें.
सवाल १ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अमित और अनजाना जी ने शानदार शुरुआत की है, अविनाश जी लगता है इस बार उन्हें अच्छी टक्कर दे पायेंगें. पिछली शृंखला का आत्मविश्वास उनके जरूर काम आएगा, प्रतीक जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - सुर-संगम दे रहा है श्रद्धांजलि 'गंगुबाई हंगल' को



सुर संगम - 23 - गंगुबाई हंगल

गुरूभाई भीम अन्ना कुंडगोल (हुबली से ३० कि. मी. दूर) गुरूजी के घर पर ही रहते थे। मैं घंटों उनके साथ बैठकर रियाज़ करती थी। शाम को वे हाथ में लालटेन उठाए मुझे स्टेशन छोड़ने आया करते थे।

सुर-संगम के २३वें साप्ताहिक अंक में आप सभी संगीत प्रेमियों का मैं, सुमित चक्रवर्ती हार्दिक स्वागत करता हूँ। हमारे आज के अंक में हम याद कर रहे हैं एक ऐसी महान शास्त्रीय गायिका को जिन्होंने भारतीय शास्त्रिय संगीत की 'ख़याल' शैली में ५० से भी अधिक वर्षों तक अपना वर्चस्व बनाए रखा। पद्म-भूषण व पद्म-विभूषण सम्मनित श्रीमति 'गंगुबाई हंगल' को सुर-संगम दे रहा है श्रद्धांजलि।

गंगुबाई का जन्म ५ मार्च १९१३ को कर्नाटक के धारवाड़ शहर में एक देवदासी परिवार में हुआ। उनके पिताजी चिक्कुराव नादिगर एक कृषक थे तथा माँ अम्बाबाई कार्णाटिक शैली की शास्त्रीय गायिका थीं। उनके बचपन में वे धारवाड़ के शुक्रवरपीट नामक जगह में रहते थे जो मूलतः एक बाह्मण प्रधान क्षेत्र था। उन दिनों जातिवाद बहुत प्रबल था। उनका ब्राह्मणों के घर प्रवेश निषेध था। अपनी स्वजीवनी में गंगुबाई बतातीं हैं - "मुझे याद है कि बचपन में किस प्रकार मुझे धिक्कारित होना पड़ा था जब मैं एक ब्राह्मण पड़ोसी के बागीचे से आम तोड़ती हुई पकड़ी गई थी। उन्हें आपत्ति इस से नहीं थी कि मैंने उनके बाग़ से आम तोड़े, बल्कि आपत्ति उन्हें आपत्ति थी कि क्षुद्र जाति की एक लड़की ने उनके बागीचे में घुसने का दुस्साहस कैसे किया? आश्चर्य की बात यह है कि अब वही लोग मुझे अपने घर दावत पर बुलाते हैं।" १९२८ में उनकी प्राथमिक स्कूली शिक्षा समाप्त होने पर उनका परिवार हुबली शहर में रहने लगे जहाँ के कृष्णाचार्य संगीत अकादमी में उनकी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्रारम्भ हुई। आइए गंगुबाई के बारे में और जानने से पहले हम सुनें उनकी आवाज़ में राग चन्द्रकौंस पर आधारित यह ख़याल।

गंगुबाई हंगल - राग चंद्रकौंस


"मेरी माँ अम्बाबाई तथा नानी कमलाबाई दोनों ही कार्णाटिक शैली की गयिकाएँ थीं। माँ तो इतना अच्छा गाती थीं कि बडे़-बड़े संगीतज्ञ उन्हें सुनने आते थे। किराना घराने के अग्रदूत अब्दुल करीम ख़ाँ अक्सर अम्बाबाई को सुनने आया करते थे, मुझे याद है माँ को सुनते हुए वे कह उठते थे," ऐसा लग रहा है मानो मैं कहीं तंजोर में हूँ।" माँ ने मुझे भी कार्णाटिक शैली में प्रशिक्षित करने का प्रयास किया परंतु मेरी रुची हिन्दुस्तानी शैली में थी।" कृष्णाचार्य संगीत अकादमी में शिक्षा प्रारम्भ करने के पश्चात् गंगुबाई ने श्री दत्तोपंत देसाई से भी हिन्दुस्तानी शैली में कुछ समय तक प्रशिक्षण लिया परंतु उनकी गायकी को असली दिशा दी पं० रामभाऊ कुंडगोलकर नें, जो सवई गन्धर्व के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्हीं के पास उस समय पं० भीमसेन जोशी भी संगीत शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। अपनी स्वजीवनी में वे आगे बतातीं हैं कि - "गुरूभाई भीम अन्ना कुंडगोल (हुबली से ३० कि. मी. दूर) गुरूजी के घर पर ही रहते थे। मैं घंटों उनके साथ बैठकर रियाज़ करती थी। शाम को वे हाथ में लालटेन उठाए मुझे स्टेशन छोड़ने आया करते थे।"

गंगुबाई हंगल - राग मलकौंस


गंगुबाई १९२९ में १६ वर्ष की आयु में देवदासी परम्परा के अंतर्गत अपने यजमान गुरुराव कौलगी के साथ बंधन में बंध गईं। परंतु गुरुराव का साथ उनके भाग्य में अधिक समय के लिए न रहा। ४ वर्ष बाद ही गुरुराव की मृत्यु हो गई तथा वे अपने पीछे गंगुबाई के साथ २ सुपुत्र और १ सुपुत्री छोड़ गए। उन्हें कभी अपने गहने तो कभी घर के बर्तन तक बेच कर अपने बच्चों का लालन-पालन करना पड़ा।

"अगर एक मुसल्मान संगीतज्ञ हो तो उसे उस्ताद कहा जाता है, अगर वह हिन्दु हो तो उसे पंडित कहा जाता है। परन्तु केसरबाई तथा मोगुबाई जैसी संगीत विदूषियाँ केवल बाई ही रह जाती हैं।" यह कटाक्ष करतीं हैं गंगुबाई, उस पुरुष प्रधान समाज को याद कर जिसने गंगुबाई के रासते में कई रुकावटें पैदा की। परन्तु गंगुबाई ने कभी हार नहीं मानी तथा अपने संगीत के पथ पर अटल रहकर अपने लिए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों में जगह बनाई। वर्ष १९४५ तक उन्होंने ख़याल, भजन तथा ठुमरियों पर आधारित देशभर के अल्ग-अलग शहरों में कई सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ दीं। वे ऑल इण्डिया रेडियो में भी एक नियमित आवाज़ थीं। इसके अतिरिक्त गंगुबाई भारत के कई उत्सवों-महोत्सवों में गायन के लिये बुलाई जातीं थीं। खासकर मुम्बई के गणेशोत्सव में तो वे विशेष रुचि लेतीं थीं। १९४५ के पश्चात् उन्होंने उप-शास्त्रीय शैली में गाना बंद कर केवल शुद्ध शास्त्रीय शैली में रागों को ही गाना जारी रखा।

गंगुबाई हंगल - राग सुहा


गंगुबाई हंगल को कर्णाटक राज्य से तथा भारत सरकार से कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हुए। वर्ष १९६२ में कर्णाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार, १९७१ में पद्म-भूषण, १९७३ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, १९९६ में संगीत नाटक अकादमी की सदस्यता, १९९७ में दीनानाथ प्रतिश्ठान, १९९८ में मणिक रत्न पुरस्कार तथा वर्ष २००२ में उन्हें पद्म-विभषण से सम्मनित किया गया। वे कई वर्षों तक कर्णाटक विश्वविद्यालय में संगीत की प्राचार्या रहीं। वर्ष २००६ में उन्होंने अपने संगीत के सफ़र की ७५वीं वर्षगाँठ मनाते हुए अपनी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति दी तथा २१ जुलाई २००९ को ९६ वर्ष की आयु में वे हृदय का दौरा पड़ने से अनंत में विलीन हो गईं।

और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: यह नेपाल का पारंपरिक तंत्र-वाद्य है जिसे वहाँ के गंधर्व जनजाति के लोग बजाते हैं।

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी, पिछली बार आपने कड़ी प्रकाशित होने के ५ दिन बाद उत्तर दिया था इसलिये हम आपके उत्तर को सही होते हुए भी कोई अंक नहीं दे पाए। नियम के अनुसार आपको ३ दिनों के अंदर सही उत्तर देना होगा :) परन्तु इस बार तो बाज़ी आप ही ले गए हैं। ५ अंक और आपके खाते में।

क्षिति जी - २१ वीं कड़ी का प्रश्न गायिका की आवाज़ पर केंद्रित था न कि राग पर, और यह रहा पहेली में दिये गये अंश का पूरा गीत यहाँ

ख़ैर आप भी अमित जी को अच्छा टक्कर दे रही हैं।

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के अंक को यहीं पर समपन्न करते हैं| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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