Saturday, June 18, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 46 - "मेरे पास मेरा प्रेम है"



पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत - भाग-2
पहले पढ़ें भाग १

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले शनिवार से हमनें इसमें शुरु की है शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है', जो कि केन्द्रित है सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत पर। आइए आज प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी।

सुजॉय - लावण्या जी, एक बार फिर हम आपका स्वागत करते है 'आवाज़' पर, नमस्कार!

लावण्या जी - नमस्ते!

सुजॉय - लावण्या जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी पंडित जी के आयुर्वेद ज्ञान की चर्चा पर। साथ ही आपनें पंडित जी के शुरुआती दिनों के बारे में बताया था। आज बातचीत हम शुरु करते हैं उस मोड़ से जहाँ पंडित जी मुंबई आ पहुँचते हैं। हमने सुना है कि पंडित जी ३० वर्ष की आयु में बम्बई आये थे भगवती चरण वर्मा के साथ। यह बताइए कि इससे पहले उनकी क्या क्या उपलब्धियाँ थी बतौर कवि और साहित्यिक। बम्बई आकर फ़िल्म जगत से जुड़ना क्यों ज़रूरी हो गया?

लावण्या जी - पापा जी ने इंटरमीडीयेट की पढाई खुरजा से की और आगे पढने वे संस्कृति के गढ़, इलाहाबाद मे आये और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जोइन की। १९ वर्ष की आयु मे, सन १९३४ मे प्रथम काव्य-संग्रह, "शूल - फूल" प्रकाशित हुआ। अपने बलबूते पर, एम्.ए. अंग्रेज़ी विषय लेकर, पास किया। 'अभ्युदय दैनिक समाचार पत्र' के सह सम्पादक पद पर काम किया। सन १९३६ मे "कर्ण - फूल" छपी, पर १९३७ मे "प्रभात - फेरी" काव्य संग्रह ने नरेंद्र शर्मा को कवि के रूप मे शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया। काव्य-सम्मलेन मे उसी पुस्तक की ये कविता जब पहली बार नरेंद्र शर्मा ने पढी तब, सात बार, 'वंस मोर' का शोर हुआ ...गीत है - "आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगें, आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगें".

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और एक सुमधुर गीतकार के रूप मे नरेंद्र शर्मा की पहचान बन गयी। इसी इलाहाबाद मे, आनंद भवन मेँ, 'अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिंदी विभाग से जुडे, हिंदी सचिव भी रहे जिसके लिये पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने पापा जी को अखिल भारतीय कोंग्रेस कमिटी के दस्तावेजों को, जलदी से अंग्रेज़ी से हिंदी मे अनुवाद कर, भारत के कोने कोने तक पहुंचाने के काम मे, उन्हे लगाया था। अब इस देश भक्ति का नतीजा ये हुआ के उस वक्त की अंग्रेज़ सरकार ने, पापा जी को, २ साल देवली जेल और राजस्थान जेल मे कैद किया जहां नरेंद्र शर्मा ने १४ दिन का अनशन या भूख हड़ताल भी की थी और गोरे जेलरों ने जबरदस्ती सूप नलियों मे भर के पिलाया और उन्हे जिंदा रखा। जब रिहा हुए तब गाँव गये, सारा गाँव बंदनवार सजाये, देश भक्त के स्वागत मे झूम उठा! दादी जी स्व. गंगा देवी जी को १ सप्ताह बाद पता चला के उनका बेटा, जेल मे भूखा है तो उन्होंने भी १ हफ्ते भोजन नहीं किया। ऐसे कई नन्हे सिपाही महात्मा गांधी की आज़ादी की लड़ाई मे, बलिदान देते रहे तब कहीं सन १९४७ मे भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली थी।

सुजॉय - वाह! बहुत सुंदर!

लावण्या जी - इस रोमांचक घटना का जिक्र करते हुए जनाब सादिक अली जी का लिखा अंग्रेज़ी आलेख देखें ..वे कहते हैं -- "Poet, late Pandit Narendra Sharma, was arrested without trial under the British Viceroy's Orders, for more than two years. His appointment to AICC was made by Pandit Jawaharlal Nehru. Pandit Narendra Sharma's photo along with then AICC members, is still there in Swaraj Bhavan, Allahabad."

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सुजॉय - बम्बई कैसे आना हुआ उनका?

लावण्या जी - आपका कहना सही है के भगवती चरण वर्मा, 'चित्रलेखा ' के मशहूर उपन्यासकार नरेन्द्र शर्मा को अपने संग बम्बई ले आये थे। कारण था, फिल्म निर्माण संस्था "बॉम्बे टॉकीस" नायिका देविका रानी के पास आ गयी थी जब उनके पति हिमांशु राय का देहांत हो गया और देविका रानी को, अच्छे गीतकार, पट कथा लेख़क, कलाकार सभी की जरूरत हुई। भगवती बाबू को, गीतकार नरेंद्र शर्मा को बोम्बे टाकीज़ के काम के लिये ले आने का आदेश हुआ था और नरेंद्र शर्मा के जीवन की कहानी का अगला चैप्टर यहीं से आगे बढा।

फ़ोटो: Magic of Black & WhitePapaji @ Allahabad with Famous writer Bhagwati Charan Vermaji

सुजॉय - पंडित जी का लिखा पहला गीत पारुल घोष की आवाज़ में १९४३ की फ़िल्म 'हमारी बात' का, "मैं उनकी बन जाऊँ रे" बहुत लोकप्रिय हुआ था। क्योंकि यह उनका पहला पहला गीत था, उन्होंने आपको इसके बारे में ज़रूर बताया होगा। तो हम भी आपसे जानना चाहेंगे उनके फ़िल्म जगत में पदार्पण के बारे में, इस पहली फ़िल्म के बारे में, इस पहले मशहूर गीत के बारे में।

लावण्या जी - पापा ने बतलाया था कि फिल्म 'हमारी बात' के लिए लिखा सबसे पहला गीत 'ऐ बादे सबा, इठलाती न आ...' उन्होंने इस ख्याल से इलाहाबाद से बंबई आ रही ट्रेन मे ही लिखा रखा था कि हिन्दी फिल्मों मे उर्दू अलफ़ाज़ लिए गीत जूरूरी है, जैसा उस वक्त का ट्रेंड था, तो वही गीत पहले चित्रपट के लिए लिखा गया और 'हमारी बात' मे अनिल बिस्वास जी ने स्वरबद्ध किया और गायिका पारुल घोष ने गाया। आप इस सुमधुर गीत 'मैं उनकी बन जाऊं रे' को सुनवा दें; पारुल घोष, मशहूर बांसुरी वादक श्री पन्ना लाल घोष की पत्नी थीं और भारतीय चित्रपट संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल दा अनिल बिस्वास की बहन। जब यह गीत बना तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था पर आज इस गीत को सुनती हूँ तब भी बड़ा मीठा, बेहद सुरीला लगता है।

सुजॉय - ज़रूर इस गीत को हम आज की कड़ी के अंत में सुनवायेंगे, बहरहाल आप इस गीत से जुड़ी कुछ और बात बता सकती हैं?

लावण्या जी - एक वाकया याद आ रहा है, हमारे पडौसी फिल्म कलाकार जयराज जी के घर श्री राज कपूर आये थे और बार बार इसी गीत की एक पंक्ति गा रहे थे, 'दूर खड़ी शरमाऊँ, मैं मन ही मन अंग लगाऊँ, दूर खडी शरमाऊँ, मैं, उनकी बन जाऊं रे, मैं उनकी बन जाऊं' और इसी से मिलते जुलते शब्द यश राज की फिल्म 'दिल तो पागल है' मे भी सुने 'दूर खडी शरमाये, आय हाय', तो प्रेम की बातें तब भी और अब भी ऐसे ही दीवानगी भरी होती रहीं हैं और होतीं रहेंगीं ..जब तक 'प्रेम', रहेगा ये गीत भी अमर रहेगा।

सुजॉय - बहुत सुंदर! और पंडित जी ने भी लिखा था कि "मेरे पास मेरा प्रेम है"। अच्छा लावण्या जी, यह बताइए कि 'बॉम्बे टॉकीज़' के साथ वो कैसे जुड़े? क्या उनकी कोई जान-पहचान थी? किस तरह से उन्होंने अपना क़दम जमाया इस कंपनी में?

लावण्या जी - पापा के एक और गहरे मित्र रहे मशहूर कथाकार श्री अमृत लाल नागर : उनका लिखा पढ़ें -

नागर जी चाचा जी लिखते हैं ...

"एक साल बाद श्रद्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमंत्रण पर बम्बई पहुँच गये, तब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे। प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित, स्व. डॉ. मोतीचंद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे। तब तक भगवती बाबू का परिवार बम्बई नहीँ आया था और वह, कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुंगा के एक मकान की तीसरी मंजिल मेँ रहते थे। एक दिन डॉक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ। "अरे गुरु, यह इलाहाबाद का प्रोग्राम एकाएक कैसे बन गया ?" "अरे भाई, मिसेज रोय (देविका रानी रोय) ने मुझसे कहा है कि, मैँ किसी अच्छे गीतकार को यहाँ ले आऊँ! नरेन्द्र जेल से छूट आया है और मैँ समझता हूँ कि वही ऐसा अकेला गीतकार है जो प्रदीप से शायद टक्कर ले सके!' सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बद्ध थे "कंगन, बंधन" और "नया संसार" फिल्मोँ से उन्होँने बंबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे। इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई संस्था स्थापित कर ली थी - कंपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी, किंतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जाने से वे बहुत चिँतित थीँ - कंपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ ख़ान नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार" रखा गया, (यह नाम भी पापा ने ही सुझाया था - एक और नाम 'जहांगीर' भी चुना था पर पापा जी ने कहा था कि युसूफ, दिलीप कुमार नाम तुम्हे बहुत फलेगा - (ज्योतिष के हिसाब से) और आज सारी दुनिया इस नाम को पहचानती है। किंतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ। इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था एक नये शुद्ध हिंदी जानने वाले गीतकार को खोज लाने का। इस बारे में आप और विस्तृत रूप से नीचे दिये गये लिंक्स में पढ़ सकते हैं।

http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_1748.html

http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_24.html

http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_12.html

सुजॉय - किसी भी सफल इंसान के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, ऐसी पुरानी कहावत है। आपके विचार में आपकी माताजी का कितना योगदान है पंडित जी की सफलता के पीछे? अपनी माताजी की शख़्सीयत के बारे में विस्तार से बतायें।

लावण्या जी - मेरी माँ, श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा, कलाकार थीं। ४ साल हलदनकर इंस्टिट्यूट मे चित्रकला सीख कर बेहतरीन आयल कलर और वाटर कलर के चित्र बनाया करतीं थीं। हमारे घर की दीवारों को उनके चित्रोँ ने सजाया। उस सुन्दर, परम सुशील, सर्वगुण संपन्न मा के लिये, पापा का गीत गाती हूँ - "दर भी था, थीं दीवारें भी, माँ, तुमसे, घर घर कहलाया!"

सुजॉय - आइए इस गीत को यूट्युब पर सुनते हैं:



फ़ोटो-२: श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा की तसवीर

लावण्या जी - ये एक चित्र जो मुझे बहुत प्रिय है। और ये कम लोग जानते हैं के सुशीला गोदीवाला संगीत निर्देशक गायक अविनाश व्यास के ग्रुप मे गाया भी करतीं थीं; रेडियो आर्टिस्ट थीं और अनुपम सुन्दरी थीं - हरी हरी, अंगूर सी आँखें, तीखे नैन नक्श, उजला गोरा रंग और इतनी सौम्यता और गरिमा कि स्वयं श्री सुमित्रानंदन पन्त जी ने सुशीला को दुल्हन के जोड़े मे सजा हुआ देख कहा था, "शायद दुष्यंत राजा की शकुन्तला भी ऐसी ही होगी"। पन्त जी तो हैं हिंदी के महाकवि! मैं, अम्मा की बेटी हूँ! जिस माँ की छाया तले अपना जीवन संवारा वो तो ऐसी देवी मा को श्रद्धा से अश्रू पूरित नयनों से प्रणाम ही कर सकती है। कितना प्यार दुलार देकर अपनी फुलवारी सी गृहस्थी को अम्मा ने सींचा था। पापा जी तो भोले शम्भू थे, दिन दुनिया की चिंता से विरक्त सन्यासी - सद गृहस्थ! अम्मा ही थी जो नमक, धान, भोजन, सुख सुविधा का जुगाड़ करतीं, साक्षात अम्बिका भवानी सी हमारी रक्षा करती, हमे सारे काम सीख्लाती, खपती, थकती पर कभी घर की शांति को बिखरने न दिया, न कभी पापा से कुछ माँगा। अगर कोई नयी साड़ी आ जाती तो हम ३ बहनों के लिये सहेज कर रख देतीं। ऐसी निस्पृह स्त्री मैंने और नहीं देखी और हमेशा सादा कपड़ों मे अम्मा महारानी से सुन्दर और दिव्य लगतीं थीं। अम्मा की बगिया के सारे सुगंधी फूल, नारियल के पेड़, फलों के पेड़ उसी के लगाए हुए आज भी छाया दे रहे हैं पर अम्मा नहीं रहीं, यादें रह गयीं, बस!

सुजॉय - बहुत खी सुंदर तरीके से आपनें अपनी माताजी का वर्णन किया, हम भी भावुक हो गए हैं। क्योंकि माँ ही शुरुआत है और माँ पर ही सारी दुनिया समाप्त हो जाती है, इसलिए यहीं पर हम आज की बातचीत समाप्त करते हैं, और वादे के मुताबिक फ़िल्म 'हमारी बात' से पारुल घोष का गाया "मैं उनकी बन जाऊँ रे" सुनवाते हैं।

गीत - "मैं उनकी बन जाऊँ रे" (हमारी बात)


तो ये था पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की दूसरी कड़ी। बातचीत जारी रहेगी अगले सप्ताह भी। ज़रूर पधारियेगा, और आज के लिए मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!

रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला"



सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबुलीवाला"
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने क़ैस जौनपुरी की कहानी "सफ़ीना" का पॉडकास्ट सुना था उन्हीं के स्वर में। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी "काबुलीवाला", जिसको स्वर दिया है संज्ञा टंडन ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 37 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं।
~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है।
(रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबुलीवाला" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#133th Story, Kabuliwala: Rabindra Nath Thakur Tagore/Hindi Audio Book/2011/15. Voice: Neelam Mishra

Thursday, June 16, 2011

एक दफा एक जंगल था उस जंगल में एक गीदड था....याद है कुछ इस कहानी में आगे क्या हुआ था



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 680/2011/120

किस्से-कहानियों का आनंद लेते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' की अंतिम कड़ी पर। इस शृंखला में हमनें कोशिश की कि अलग अलग गीतकारों के लिखे कहानीनुमा गीत आपको सुनवायें। आनन्द बक्शी साहब के दो गीतों के अलावा किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, प्रेम धवन और रवीन्द्र रावल के लिखे एक एक गीत आपनें सुनें। आज इस शृंखला की आख़िरी कड़ी में बारी एक और बेहतरीन गीतकार गुलज़ार साहब की। १९८३ में कमल हासन - श्रीदेवी अभिनीत पुरस्कृत फ़िल्म आयी थी 'सदमा'। फ़िल्म की कहानी जितनी मर्मस्पर्शी थी, कमल हासन और श्रीदेवी का अभिनय भी सर चढ़ कर बोला। फ़िल्म की कहानी तो आपको मालूम ही है। मानसिक रूप से बीमार श्रीदेवी, जो एक छोटी बच्ची की तरह पेश आती है, कमल हासन उसे कैसे संभालते हैं, किस तरह से उसका देखभाल करते हैं, लेकिन जब श्रीदेवी ठीक हो जाती है और कमल हासन के साथ गुज़ारे दिन भूल जाती हैं, तब कमल हासन को किस तरह का सदमा पहूँचता है, यही था इस फ़िल्म का सार। रेल्वे स्टेशन का वह आख़िरी सीन जैसे भुलाये नहीं भूलता। ख़ैर, फ़िल्म में एक सिचुएशन है जब कमल हासन श्रीदेवी को एक कहानी सुनाते हैं, गीत की शक्ल में। यह कहानी है तो बहुत जानी-पहचानी सी, आप सभी नें बचपन में सुनी होगी, लेकिन कमल हासन और श्रीदेवी नें अपनी आवाज़ों में इसको जो अंजाम दिया है, इस जौनर के श्रेष्ठ गीतों में एक हम इसे कह सकते हैं। दोस्तों, जब हमने 'सितारों की सरगम' शृंखला प्रस्तुत की थी, तब हमसे इस गीत का ज़िक्र छूट गया था, जिसका हमें अफ़सोस है। ख़ैर, कुछ देर से ही सही, लेकिन यह गीत आख़िर में बन ही गया 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शान। इलैयाराजा की धुन पर गुलज़ार साहब नें कहानी को कैसे फ़िट किया है, ज़रा सुन कर तो देखिये।

एक दफ़ा एक जंगल था,
उस जंगल में एक गीदड़ था,
बड़ा लोफ़र, बड़ा लीचड़, आवारा।
उस जंगल पार एक बस्ती थी,
उस बस्ती में वो जाता था रोज़ाना।

एक दफ़ा उस बस्ती के कुत्तों नें उसको देख लिया,
इस मोड़ से उसको दौड़ाया, उस मोड़ जाके घेर लिया।
जब कुछ ना सूझा गीदड़ को,
दीवार के उपर से कूदा।

उस पार किसी का आंगन था,
आंगन में नील की हाण्डी थी,
उस नील में युं गिरा गीदड़,
सब कुछ हो गया कीचड़ ही कीचड़।
कुत्ते जब भौंक के भाग गये,
गीदड़ जी हाण्डी से निकले,
और धूप चढ़े जंगल पहुँचे,
उपर से नीचे तक नीले।

सब जानवर देख के डरने लगे,
ये कौन आया है, कैसा जानवर है।
सब जानवर देख के डरने लगे,
ये कौन है कैसा जानवर है,
दिखने में तो नीला दिखता है!
अंदर से लाल बोजकड़ है,
गीदड़ ने भी चालाकी की।
मोटी आवाज़ में ग़ुर्राया,
मैं राजा हूँ, मैं राजा हूँ अब जंगल का,
मुझको भगवान नें भिजवाया।
शेर की दुम हिलने लगी और
मुंह से बस निकला 'हैल्लो'।
बंदर का मुंह लाल होता है न?
डर के मारे हो गया 'येल्लो'।

जितने भी जंगल में थे,
सब गीदड़ का पानी भरने लगे।
समझे कोई अवतार है वो,
और उसकी सेवा करने लगे।
जहाँपनाह आलमपनाह उमरावजानो,
दीदार-ए-यार तशरीफ़ ला रहे हैं।

बहुत दिनों के बाद एक दिन कुछ ऐसा हुआ उस जंगल में,
धड़म धुड़ूम धड़ाम, मैं बिजली हूँ बिजली।
और सावन के महीने में एक दिन,
कुछ गीदड़ मिलके गाने लगे 'वा व्हू वा वा वा वा वा,
नीले गीदड़ को भी जोश आया,
और बिरादरी पर इतराने लगे।
और झूम के जब आलाप लिया आहा नि रे गा,
अरे पहचाने गये और पकड़े गये।
हर एक ने ख़ूब पिटायी की,
सब रंग उतर गये राजा के,
और सब नें ख़ूब धुलाई की,
दे दना दन ले दना दन,
बोल दना दन बोल दना दन बोल दना दन।


तो दोस्तों, अब आप इस गीत का आनन्द लीजिये, और इस शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिये। इस शृंखला के बारे में अपनी राय oig@hindyugm.com के पते पर अवश्य लिख भेजें। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार इलैयाराजा को संगीत की पहली शिक्षा अपने बड़े भाई पवलाट वर्दराजन से मिली जो एक लोक-गायक थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - उपरोक्त संवाद इस गीत के बीच में आता है.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के संगीतकार का नाम बताएं- २ अंक
सवाल ३ - गीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
दोस्तों एक और शृंखला के समापन पर आज फिर एक बार अमित जी विजेता बने हैं और बढ़त भी ले ली है, कुल संख्या में. वैसे इस शृंखला में अनजाना जी आगे थे, पर उनकी हड़ताल का अमित भाई को फायदा मिला. वैसे इस शृंखला के मैं ऑफ थे मैच रहे अविनाश जी, जिन्होंने इन दो धुरंधरों का जम कर मुकाबला किया, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, June 15, 2011

हर एक जीवन है एक कहानी....और सुनिए एक और भी कहानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 679/2011/119

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर किस्से-कहानियों का सिलसिला जारी है लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' के तहत। आज हम जिस गीतकार का लिखा कहानीनुमा गीत सुनने जा रहे हैं वो हैं रवीन्द्र रावल। पिछले दो अंकों में क्रम से हमनें १९७९ और १९८० के दो गीत सुनें। आज एक साल और आगे बढ़ते हैं। १९८१ में एक्स्ट्रा-मैरिटल अफ़ेअर पर बनी एक फ़िल्म आयी थी 'बेज़ुबान', जिसमें मुख्य कलाकार थे रीना रॉय, नसीरुद्दिन शाह और शत्रुघ्न सिंहा। इस फ़िल्म का जो शीर्षक गीत है, या युं कहिये कि जो फ़िल्म का थीम सॉंग् है, उसमें नायिका अपनी ही ज़िंदगी की दास्तान सुनाती है, लेकिन एक कहानी के माध्यम से। यह कहानी बताती है कि किस तरह से उसके पाँव फ़िसल जाते हैं, किस तरह से पती और बच्चे के होते हुए वो एक और संबंध रखती है, और उसे किस तरह का अनुताप होता है। बहुत ही सुंदर लिखा है रावल साहब नें और फ़िल्म में संगीत है राम-लक्ष्मण का। राम-लक्ष्मण नये दौर के उन संगीतकारों में से हैं जिनके साथ लता जी गाती आईं हैं। 'मैंने प्यार किया' और 'हम आपके हैं कौन' लता जी के साथ राम-लक्ष्मण की सब से सफल दो फ़िल्में हैं। वैसे ८० के दशक के शुरु से ही राम-लक्ष्मण के कई फ़िल्मों में लता जी नें गीत गाये हैं, और उनमें से हिट गीतों में आज के प्रस्तुत गीत का शुमार होता है।

राम-लक्ष्मण नें ८० के दशक की शुरुआत सुरीले ढंग से ही किया था। 'बेज़ुबान' के अलावा ८० के दशक के पहले कुछ सालों में उनके संगीत से सजी जो फ़िल्में आईं और जिनका संगीत चला, उनमें शामिल हैं 'हमसे बढ़कर कौन', 'उस्तादी उस्ताद से', 'जीयो तो ऐसे जीयो', 'तुम्हारे बिना', 'सुन सजना', 'सुन मेरी लैला' आदि फ़िल्मों का संगीत। तो आइए अब 'बेज़ुबान' फ़िल्म का गीत सुना जाये, पर उससे पहले ये रहे गीत में कही गई कहानी:

हर एक जीवन है एक कहानी,
पर ये सच्चाई सब ने न जानी।
जो पाना है, वो खोना है,
इस पल हँसना, कल रोना है।

एक निर्धन की एक बिटिया थी,
उनकी छोटी सी दुनिया थी,
दिल बीत चले बीता बचपन,
उस गुड़िया पे आया यौवन,
यौवन की मस्ती ने
उसको राह भुला दी,
पग फ़िसल गया, वो चीख पड़ी,
ऊँचाई से खाई में गिरी,
मुर्झा गयी वो फूलों की रानी,
पर ये सच्चाई सब ने न जानी।

एक शहज़ादा आ पहुँचा वहाँ,
तब जाके बची लड़की की जाँ,
उसे बाहों में ले प्यार दिया,
सिंगार दिया, घर-बार दिया,
सपनों की बगिया में,
प्यारा फूल खिला था,
फिर पल भर में बदली छायी,
बरखा बिजुरी आंधी लाई,
पल पल दुआयें माँगे बेगानी,
पर ये सच्चाई सब ने न जानी।

जग के मालिक मेरी है ख़ता,
मेरे अपने क्यों पाये सज़ा,
मेरे राम से मैं कहूँ कैसे बता,
झूठा हूँ बेर मैं शबरी का,
मुझको तो अब कोई,
ऐसी राह दिखा दे,
मेरी ममता पे इलज़ाम न हो,
सिंदूर मेरा बदनाम न हो,
समझे कोई मेरी बेज़ुबानी......



क्या आप जानते हैं...
कि उत्तम सिंह स्वतंत्र संगीतकार बनने से पहले राम-लक्ष्मण के अरेंजर हुआ करते थे, और कहा जाता है कि 'हम आपके हैं कौन' के संगीत की सफलता के पीछे उनका भी बहुत बड़ा योगदान था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल २ - जिस गायिका की आवाज़ में ये गीत है उनका गाया कोई और गीत बताएं- ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, June 14, 2011

एक हसीना थी, एक दीवाना था....एक कहानी नुमा गीत जिसमें फिल्म की पूरी तस्वीर छुपी है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 678/2011/118

'एक था गुल और एक थी बुलबुल' शृंखला में कल आपने १९७९ की फ़िल्म 'मिस्टर नटवरलाल' का गीत सुना था। जैसा कि हमने कल बताया था कि आनन्द बक्शी साहब के लिखे दो गीत आपको सुनवायेंगे, तो आज की कड़ी में सुनिये उनका लिखा एक और ज़बरदस्त कहानीनुमा गीत। यह केवल कहानीनुमा गीत ही नहीं, बल्कि उसकी फ़िल्म का सार भी है। पुनर्जनम की कहानी पर बनने वाली फ़िल्मों में एक महत्वपूर्ण नाम है 'कर्ज़' (१९८०)। राज किरण और सिमी गरेवाल प्रेम-विवाह कर लेते हैं। राज को भनक तक नहीं पड़ी कि सिमी ने दरअसल उसके बेहिसाब जायदाद को पाने के लिये उससे शादी की है। और फिर एक दिन धोखे से सिमी राज को गाड़ी से कुचल कर पहाड़ से फेंक देती है। राज किरण की मौत हो जाती है और सिमी अपने स्वर्गवासी पति के एस्टेट की मालकिन बन जाती है। लेकिन कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई। प्रकृति भी क्या क्या खेल रचती है! राज दोबारा जनम लेता है ॠषी कपूर के रूप में, और जवानी की दहलीज़ तक आते आते उसे अपने पिछले जनम की याद आ जाती है और किस तरह से वो सिमी से बदला लेता है अपने इस जनम की प्रेमिका टिना मुनीम के साथ मिल कर, किस तरह से पिछले जनम का कर्ज़ चुकाता है, यही है इस ब्लॉकबस्टर फ़िल्म की कहानी। एक कमर्शियल फ़िल्म की सफलता के लिये जिन जिन बातों की ज़रूरत होती है, वो सभी बातें मौजूद थीं सुभाष घई की इस फ़िल्म में। यहाँ तक कि इसके गीत-संगीत का पक्ष भी बहुत मज़बूत था। दोस्तों, पूनर्जनम और सस्पेन्स फ़िल्मों में पार्श्वसंगीत का बड़ा हाथ होता है माहौल को सेट करने के लिये। और ख़ास कर पूनर्जनम की कहानी मे ऐसी विशेष धुन की ज़रूरत होती है जिससे आती है एक हौण्टिंग् सी फ़ीलिंग्। यह धुन बार बार बजती है, और कभी कभी तो इसकी कहानी में इतनी अहमियत हो जाती है कि यह धुन ही पिछले जनम की याद दिलवा जाये! ऐसा ही कुछ 'कर्ज़' में भी था। याद है आपको वह इन्स्ट्रुमेण्टल पीस जो राज किरण और सिमी की गाड़ी में बजी थी ठीक राज के कत्ल से पहले। अगले जनम में ऋषी इसी धुन पर आधारित गीत गा कर और उस धुन पर उसी भयानक कहानी को सुना कर सिमी को भयभीत कर देता है। और दोस्तों, यही कहानी है आज के गीत में, जिसे आवाज़ें दी हैं किशोर कुमार और आशा भोसले नें। "एक हसीना थी, एक दीवाना था..."। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत था इस फ़िल्म में।

अभी जो उपर 'कर्ज़' फ़िल्म की कहानी हमने बतायी, उसी का एक अन्य रूप था गीत की शक्ल में! और फिर एक बार आनन्द बक्शी ऐट हिज़ बेस्ट!!! क्या कमाल का लिखा है। सिचुएशन है कि ऋषी कपूर को पिछले जनम की कातिल-पत्नी सिमी गरेवाल को उस भायानक कहानी की याद दिला कर उसे डराना है, उसे एक्स्पोज़ करना है। इस जनम में ऋषी एक सिंगर-डान्सर हैं, और यह काम वो एक स्टेज-शो में टिना मुनीम के साथ मिल कर करते हैं। गीत के शुरुआती बोल ऋषी कपूर की आवाज़ में ही है। आइए इस गीत-रूपी कहानी को पहले पढ़ें और फिर सुनें।

रोमिओ-जुलिएट, लैला-मजनु, शिरी और फ़रहाद,
इनका सच्चा इश्क़ ज़माने को अब तक है याद।

याद मुझे आया है एक ऐसे दिलबर का नाम,
जिसने धोखा देकर नाम-ए-इश्क़ किया बदनाम।

यही है सायबान कहानी प्यार की,
किसी ने जान ली, किसी ने जान दी।

एक हसीना थी, एक दीवाना था,
क्या उमर, क्या समा, क्या ज़माना था।

एक दिन वो मिले, रोज़ मिलने लगे,
फिर मोहब्बत हुई, बस क़यामत हुई,
खो गये तुम कहाँ, सुन के ये दास्ताँ,
लोग हैरान हैं, क्योंकि अंजान हैं,
इश्क की वो गली, बात जिसकी चली,
उस गली में मेरा आना-जाना था,
एक हसीना थी एक दीवाना था।

उस हसीं ने कहा, सुनो जाने-वफ़ा,
ये फ़लक ये ज़मीं, तेरे बिन कुछ नहीं,
तुझपे मरती हूँ मैं, प्यार करती हूँ मैं,
बात कुछ और थी, वो नज़र चोर थी,
उसके दिल में छुपी चाह दौलत की थी,
प्यार का वो फ़कत एक बहाना था,
एक हसीना थी एक दीवाना था।

बेवफ़ा यार ने अपने महबूब से,
ऐसा धोखा किया,
ज़हर उसको दिया,
धोखा धोखा धोखा धोखा।

मर गया वो जवाँ,
अब सुनो दास्ताँ,
जन्म लेके कहीं फिर वो पहुँचा वहीं,
शक्ल अंजान थी, अक्ल हैरान थी,
सामना जब हुआ, फिर वही सब हुआ,
उसपे ये कर्ज़ था, उसका ये फ़र्ज़ था,
फ़र्ज़ तो कर्ज़ अपना चुकाना था।




क्या आप जानते हैं...
कि 'कर्ज़' फ़िल्म के इस गीत के पहले इंटरल्युड म्युज़िक का इस्तमाल अनु मलिक नें फ़िल्म 'हर दिल जो प्यार करेगा' के गीत "ऐसा पहली बार हुआ सतरह अठरह सालों में" में किया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 9/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - लता की आवाज़ है गीत में.
सवाल १ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल २ - गीतकार का नाम बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है अनजाना जी वाकई सत्यग्रह पर बैठ गए हैं, अरे भाई हम सरकार नहीं हैं वापस आईये मुकाबल एकतरफा हो रहा है, अमित जी क्षिति जी और अविनाश जी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, June 13, 2011

मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक किस्सा सुनो....लीजिए एक बार फिर बच्चे बनकर आनंद लें इस कहानी का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 677/2011/117

हानीनुमा फ़िल्मी गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आज की कड़ी में हम जिस गीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्हीं के लिखे हुए गीत के मुखड़े को इस शृंखला का नाम दिया गया है। जी हाँ, "एक था गुल और एक थी बुलबुल" के लेखक आनन्द बक्शी, जिन्होंने इस गीत के अलावा भी कई कहानीनुमा गीत लिखे हैं। इनमें से दो गीत तो इस क़दर मशहूर हुए हैं कि उन्हें अगर इस शृंखला में शामिल न करें तो मज़ा ही नहीं आयेगा। तो चलिये आज और कल की कड़ियों में बक्शी साहब के लिखे दो हिट गीतों का आनन्द लें। अब तक इस शृंखला में आपनें जितने भी गीत सुनें, वो ज़्यादातर राजा-रानी की कहानियों पर आधारित थे। लेकिन आज का जो हमारा गीत है, उसमें क़िस्सा है एक शेर का। बच्चों को शेर से बड़ा डर लगता है, और जहाँ डर होता है, वहीं दिलचस्पी भी ज़्यादा होती है। इसलिये शेर और जंगल की कहानियाँ बच्चों को बहुत पसंद आते हैं। अभी हाल ही में बक्शी साहब के बेटे राकेश जी से हमारी मुलाक़ात में उन्होंने बताया था कि बक्शी साहब हर रोज़ एक नई कहानी, एक नई किताब पढ़ते थे, और गीत लेखन के अलावा भी उनका फ़िल्मों के सीन्स का आइडिया अच्छा था। शायद यही वजह है कि इस कहानीनुमा गीत को उन्होंने इतना ख़ूबसूरत अंजाम दिया है। अमिताभ बच्चन, मास्टर रवि और बच्चों की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'मिस्टर नटवरलाल' का गीत "मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक क़िस्सा सुनों"। कमाल की कल्पना की है उन्होंने इस गीत को लेकर। और आख़िर में "ये जीना भी कोई जीना है लल्लु" को तो जैसे फ़िल्मी गीतों के पंचलाइनों का सरताज ही कहलाया जा सकता है। संगीतकार राजेश रोशन के संगीत नें भी बड़ा ही यथार्थ माहौल बनाया, बिल्कुल जिस माहौल की इस गीत को ज़रूरत थी।

अमिताभ बच्चन का गाया यह पहला पहला फ़िल्मी गीत था, और इस गीत को गा कर उन्हें बतौर गायक भी प्रसिद्धी मिली। अभिनय के साथ साथ उनकी गायकी को भी लोगों नें हाथों हाथ ग्रहण किया। यह सच है कि आनन्द बक्शी और राजेश रोशन का इस गीत में बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन अगर किसी नें इस गीत में जान फूंकी है, तो वो हैं हमारे बिग-बी। इस गीत में उनकी अदायगी ही उनकी प्रतिभा का लोहा है, यह गीत साबित करती है कि वोही नंबर वन हैं। दोस्तों, इस गीत के बारे में चाहे आप कितनी भी चर्चा क्यों न कर लें, असली मज़ा तो केवल इस गीत को सुनने में ही आता है। इसलिए अब मैं आपके और इस गीत के बीच में से हट जाता हूँ, लेकिन उससे पहले ये रही जंगल और शेर की कहानी:

कई साल पहले की ये बात है,
भयानक अंधेरी सिया रात में,
लिये अपनी बंदूक मैं हाथ में,
घने जंगलों से गुज़रता हुआ कहीं जा रहा था।

नहीं भूलती उफ़ वो जंगल की रात,
मुझे याद है वो थी मंगल की रात,
चला जा रहा था मैं डरता हुआ,
हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ,
बोलो हनुमान की जय,
जय जय बजरंग बली की जय।

घड़ी थी अंधेरा मगर सख़्त था,
कोई बस दस सवा दस का वक़्त था,
लरज़ता था कोयल की भी कूक से,
बुरा हाल हुआ उसपे भूख से,
लगा तोड़ने एक बेरी से बेर,
मेरे सामने आ गया एक शेर।

कोई घिघी बंदी नज़र फिर गई,
तो बंदूक भी हाथ से गिर गई,
मैं लपका वो झपका,
मैं उपर वो नीचे,
वो आगे मैं पीछे,
मैं पेड़ पे वो नीचे,
अरे बचाओ अरे बचाओ,
मैं डाल-डाल वो पात-पात,
मैं पसीना वो बाग-बाग,
मैं सुर में वो ताल में,
मैं जंगल वो पाताल में,
बचाओ बचाओ,
अरे भागो रे भागो,
ख़ुदा की क़सम मज़ा आ गया,
मुझे मार कर "बेसरम" खा गया।

खा गया? लेकिन आप तो ज़िंदा हो?

अरे ये जीना भी कोई जीना है लल्लू? हाँ?




क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्मकार मोहन कुमार नें एक दिन आनन्द बक्शी को गाते हुए सुन लिया और इतने प्रभावित हुए कि उनसे ज़बरदस्ती अपनी फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' में दो गीत गाने के लिये राज़ी करवा लिये।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान .
सवाल १ - नायक के पिछले जनम वाले किरदार की भूमिका किस ने की थी - ३ अंक
सवाल २ - किस अभिनेत्री ने फिल्म में खलनायिका का काम किया है - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी अनजाना जी कि अनुपस्तिथि में अब आगे आ गए हैं. अविनाश जी को भी २ अंकों की बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, June 12, 2011

चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक...प्रेम धवन ने लिखा इस फ़साने को, स्वर दिया लता ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 676/2011/116

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज रविवार की शाम इस स्तंभ में एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। आजकल इसमें जो शृंखला चल रही है, उसमें हम आपको केवल गीत ही नहीं, बल्कि कहानियाँ भी सुनवा रहे हैं। 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' शृंखला आधारित है उन गीतों पर जिनमें कही गई है किस्से-कहानियाँ। पाँच कहानियाँ हम पिछले हफ़्ते सुन चुके हैं, और आज से अगले पाँच अंकों में हम सुनने जा रहे हैं पाँच और दिलचस्प कहानियाँ। किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, कमर जलालाबादी, हसरत जयपुरी और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद आज बारी है प्रेम धवन साहब की। धवन साहब नें आज के गीत के रूप में जो कहानी लिखी है, उसमें एक राजा है, एक रानी है, एक घोड़ा है, और एक डायन जादूगरनी भी है। किसी फ़िल्म की ही तरह यह कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। इस कहानी को आगे हम बताने वाले हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि इस कहानी के सभी किरदारों को फ़िल्म की नायिका मीना कुमारी ही अभिनय के द्वारा दर्शाती है। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, मीना जी भी अपनी बॉडी-लैंगुएज से, अपने एक्स्प्रेशन से, अपने बालों से, और तमाम चीज़ों से हर किरदार को जीवन्त कर देती हैं। और कहानी जैसे जी उठती है। बाल-कलाकार के रूप में बेहद मशहूर हनी ईरानी इस फ़िल्म में मीना कुमारी के बेटे का रोल निभाती है, और इस गीत में कहानी भी उसी को सुनाया जा रहा है। गीत के उस हिस्से में जब मीना कुमारी अपने पति की रक्षा हेतु ईश्वर से प्रार्थना करती है, हनी भी भक्ति-भावना से आगे-पीछे डोल डोल कर ईश्वर से प्रार्थना करती है। बहुत ही क्युट लगती है, और मीना कुमारी भी उसे देख हँस देती हैं।

उधर लता जी नें भी इस गीत में जान फूंकी हैं। कहानी के हर किरदार के लिये अलग एक्स्प्रेशन लाकर विविधता से भर दिया है गीत को। संगीतकार रवि के संगीत का भी जवाब नहीं। १९५५ में बच्चों वाली ही एक फ़िल्म 'वचन' में उन्होंने "चंदा मामा दूर के" गीत रच कर प्रसिद्धी हासिल की थी। अरे अरे अरे, देखिये, इन सब बातों के बीच मैं यह कहना तो भूल ही गया कि आज हम गीत कौन सा सुनने जा रहे हैं। आज हम लाये हैं १९५९ की फ़िल्म 'चिराग कहाँ रोशनी कहाँ' से "चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक"। इस गीत में शामिल कहानी यह रही -

बहुत दिनों की बात है,
एक था राजा एक थी रानी,
राजा-रानी के घर में था राजकुमार एक प्यारा,
एक के दिल का टुकड़ा था वो,
एक की आँख का तारा।

एक दिन राजा का मन चाहा,
चल कर करें शिकार,
निकल पड़ा वो होकर
एक नन्हे घोड़े पे सवार।

और मालूम है वो क्या कहता जा रहा था?
चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक,
रुकने का तू नाम न लेना,
चलना तेरा काम।

चलते चलते उसके आगे आया एक पहाड़,
राजा मन ही मन घबराया,
कैसे होगा पार।
इतने में एक पंछी बोला
अपने पंख उतार,
पंख बने हैं ये हिम्मत के,
ले और होजा पार।
पंख लगा कर घोड़े को राजा ने एड़ लगायी,
देने लगी हवाओं में फिर ये आवाज़ सुनाई,
चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक।

ले कर राजा को एक बन में,
आया नीला घोड़ा,
देख के एक चंचल हिरणी को,
उसके पीछे दौड़ा।
लेकिन पास जो पहुँचा तो
देखो क़िस्मत की करनी,
रूप में उस चंचल हिरणी के
निकली जादूगरनी।
पलट के जादूगरनी ने
जादू का तीर जो छोड़ा,
तोता बन कर रह गया राजा
पत्थर बन कर घोड़ा।
फिर राजा कैसे कहता,
चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक।

इधर महल में राह देखते
व्याकुल हो गई रानी,
राजकुमार के कोमल मुख पर
भी छायी वीरानी।
तब ईश्वर से दोनों ने
रो रो कर करी पुकार,
दे दे हमें हमारा राजा
जग के पालनहार रे,
ओ जग के पालनहार रे।

सुन कर उनकी बिनती
दूर गगन में ज्वाला भड़की,
जादूगरनी के सर पर एक ज़ोर की बिजली कड़की।
तोते से फिर निकला राजा,
और पत्थर से घोड़ा,
राजमहल की ओर वो पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ा।
और बोला
चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक।

देख के राजा को आते
रानी फूली न समायी,
राजमहल के द्वार पे झटपट
दौड़ी दौड़ी आयी।
राजा आया राजा आया
बोला राजकुमार,
अपने हाथों से रानी ने जाकर खोला द्वार।




क्या आप जानते हैं...
कि देवेन्द्र गोयल नें रवि को 'वचन' में पहला मौका दिया था, और इस पचास के दशक में गोयल साहब की कई फ़िल्मों में रवि का संगीत था, जैसे कि 'अलबेली', 'एक साल', 'चिराग कहाँ रोशनी कहाँ', और 'नई राहें'।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 7/शृंखला 18
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान .
सवाल १ - किस बच्चे ने प्रमुख गायक का साथ दिया है - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी टिपण्णी बहुत कुछ कह गयी है, बहरहाल हमने आवाज़ पर अब तक न किसी खास फनकार का फेवर किया है न किसी खास श्रोता का. ये एक परंपरा है जिसे मैंने खुद और मेरे सभी साथियों ने हमेशा संभाला है. शायद यही वजह है कि आवाज़ आज इस हद तक लोकप्रिय है. दरअसल जब ओल्ड इस गोल्ड शुरू किया था तो इसका समय ६ से ७ के बीच रखा गया था, ताकि सुविधा अनुसार पोस्ट हो सके. बाद में जब पहेली के लिए प्रतियोगिता बढ़ गयी तो समय ठीक ६.३० का कर दिया गया, शरद जी जो सबसे पुराने श्रोता हैं इस तथ्य से वाकिफ हैं. अमित जी ने जब हमसे गुजारिश कि तो हमने उनको भी यही सलाह दी कि वो इसे सबके सामने रखे यदि किसी को आपत्ति न हो तो हम इसे ६-७ के बीच कभी प्रसारित कर सकते हैं. खैर...हमें लगता है कि आपत्ति है जिसे शायद खुल कर अभिव्यक्त नहीं किया गया. इसलिए आज से हम समय वापस ६.३० का ही कर रहे हैं. अनजाना जी पिछली कड़ी में समय के बदलाव के लिए हम माफ़ी चाहते हैं, पर कुछ निर्णय हमने लिए हैं -
कड़ी २ की पहेली विवादस्पद थी, मगर हमने पहली को जिन विश्वसनीय सूत्रों पर रख कर परखा है हमें लगता है कि हमें उसी पर अपने परिणाम भी मापने होंगें, लिहाजा इस पहेली के परिणाम को हम यथावत रखते हुए अनजाना जी के ३ अंक बरकरार रखेंगें.
पहली ६ में समय का बदलाव हुआ था पर हमने यही विश्वास किया था कि अनजाना जी इससे वाकिफ हो गए होंगें, लिहाजा अमित जी जिनका जवाब सबसे पहले आया ३ अंकों के हकदार हैं.
इस शृंखला में मुकाबला इन्हीं दो धुरंधरों का है हम बता दें कि अनजाना जी १२ और अमित जी १० अंकों पर हैं.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - सारंगी की सुरमई तान



सुर संगम - २४ - सारंगी

सारंगी शब्द हिंदी के 'सौ' और 'रंग' शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सौ रंगों वाला। ऐस नाम इसे इस्लिए मिला है कि इससे निकलने वाले स्वर सैंकड़ों रंगों की भांति अर्थवत और संस्मरणशील हैं।

श्चिमी राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है - ''ताल मिले तो पगाँ रा घुंघरु बाजे'' अर्थात गायकी के साथ यदि सधा हुआ संगतकार (साथ वाद्य बजाने वाला) हो तो सुननेवाला उस गीत-संगीत में डूब जाता है। राजस्थानी लोक संस्कृति में लोक वाद्यों का काफ़ी प्रभाव रहा है। प्रदेश के भिन्न-भिन्न अंचलों में वहाँ की संस्कृति के अनुकूल स्थानीय लोक वाद्य खूब रच-बसे हैं। जिस क्षेत्र में स्थानीय लोक कला एवं वाद्यों को फलने-फूलने का अवसर मिला है वहाँ के लोक वाद्यों की धूम देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों तक मची है। इन्हीं वाद्य यंत्रों में एक प्रमुख वाद्य यंत्र है - ''सारंगी''। सुर-संगम के २४वें साप्ताहिक अंक में मैं, सुमित चक्रवर्ती सभी श्रोता-पाठकों का अभिनंदन करता हूँ।

सारंगी शब्द हिंदी के 'सौ' और 'रंग' शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सौ रंगों वाला। ऐस नाम इसे इस्लिए मिला है कि इससे निकलने वाले स्वर सैंकड़ों रंगों की भांति अर्थवत और संस्मरणशील हैं। सारंगी प्राचीन काल में घुमक्कड़ जातियों का वाद्य था। मुस्लिम शासन काल में यह नृत्य तथा गायन दरबार का प्रमुख वाद्य यंत्र था। इसका प्राचीन नाम ''सारिंदा'' था जो कालांतर के साथ ''सारंगी'' हुआ। राजस्थान में सारंगी के विविध रूप दिखाई देते हैं। मीरासी, लाँगा, जोगी, मांगणियार आदि जाति के कलाकारों द्वारा बजाये जाने वाला यह वाद्य गायन तथा नृत्य की संगीत की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। संगत वाद्य के साथ सह स्वतंत्र वाद्य भी हैं। इसमें कंठ संगीत के समान ही स्वरों के उतार-चढ़ाव लाए जा सकते हैं। वस्तुत: सारंगी ही ऐसा वाद्य है जो मानव के कंठ के निकट है। सांरगी शास्त्रीय संगीत का भी एक प्रमुख संगति वाद्य है। परंतु एकल वाद्य के रूप में भी सारंगी बहुत मनोहारी सुनाई पड़ती है। पं.राम नारायण,साबरी ख़ाँ,लतीफ़ख़ाँ और सुल्तान ख़ाँ जैसे कई उस्ताद सारंगी का प्रयोग शास्त्रीय संगीत में करते रहे हैं। लीजिए प्रस्तुत है पं० राम नारायण द्वारा 'राग मारवा' में सारंगी वादन।

पं० राम नारायण - सारंगी - राग मारवा


सारंगी कई अलग-अलग आकार-प्रकार की होती है। थार प्रदेश में दो प्रकार की सारंगी प्रयोग में लाई जाती हैं - सिंधी सारंगी और गुजरातन सारंगी। सिंधी सारंगी आकार में बड़ी होती है तथा गुजरातन सारंगी को गुजरात में बनाया जाता है। इसे बाड़मेर व जैसलमेर ज़िले में लंगा-मगणियार द्वारा बजाया जाता है। यह सिंधी सारंगी से छोटी होती है एवं रोहिडे की लकड़ी से बनी होती है। सभी सारंगियों में लोक सारंगी सबसे अधिक विकसित हुई हैं। सारंगी का निर्माण लकड़ी से होता है तथा इसका नीचे का भाग बकरे की खाल से मंढ़ा जाता है। इसके पेंदे के ऊपरी भाग में सींग की बनी घोड़ी होती है। घोड़ी के छेदों में से तार निकालकर किनारे पर लगे चौथे में उन्हें बाँध दिया जाता है। इस वाद्य में २९ तार होते हैं तथा मुख्य बाज में चार तार होते हैं जिनमें से दो तार स्टील के व दो तार तांत के होते हैं। आंत के तांत को 'रांदा' कहते हैं। बाज के तारों के अलावा झोरे के आठ तथा झीले के १७ तार होते हैं। बाज के तारों पर गज, जिसकी सहायता से एवं रगड़ से सुर निकलते हैं, चलता है। सारंगी के ऊपर लगी खूँटियों को झीले कहा जाता है। पैंदे में बाज के तारों के नीचे घोड़ी में आठ छेद होते हैं। इनमें से झारों के तार निकलते हैं। एक प्रतीकात्मक समस्वरित सारंगी की आवाज़ किसी मधु मक्खी के छत्ते से आती भनभनाहट जैसी होती है। सारंगी वाद्य बजाने में राजस्थान की सबसे पारंगत जाति है - सारंगीया लंगा। ये मुख्यत: सारंगी के साथ माँड गाते बजाते हैं। आइये सुनते हैं राग माँड पर आधारित एक जुगलबंदी जिसे प्रस्तुत किया है उस्ताद सुल्तान ख़ाँ तथा उस्ताद ज़ाक़िर हुस्सैन ने।

सारंगी और तबला जुगलबंदी - उस्ताद सुल्तान ख़ाँ व उस्ताद ज़ाक़िर हुस्सैन


सारंगी की सुरमई तान और लोक गायकी जब एक साथ निकलती है तब सुनने वाला हर दर्शक और श्रोता सब कुछ छोड़ कर इसमें खो जाता है, क्योंकि इस वाद्य यंत्र में सांप्रदायिक एकता वाली अनूठी विशेषताएँ हैं। यह नेपाल का भी पारंपरिक वाद्य है परन्तु नेपाली सारंगी में केवल ४ तारें होती हैं। सारंगी वादकों का जब वर्णन किया जाता है तो सब से प्रथम जो नाम लिया जाता है वह है पं० राम नारायण का जिन्होंने सारंगी को विश्व भर में प्रसिद्ध किया। इनके अतिरिक्त और भी जाने-माने सारंगी वादक हैं - उस्ताद बुन्दु ख़ाँ, उस्ताद नथु ख़ाँ, गोपाल मिश्र, उस्ताद साबरी और उस्ताद शक़ूर ख़ाँ तथा वर्तमान काल के सुप्रसिद्ध सारंगी वादकों में उस्ताद सुल्तान ख़ाँ, कमाल साबरी, ध्रुब घोष और अरुणा नारायण काले जैसी शख़्सियतों का नाम शामिल है। आइये आज की चर्चा को यहीं समाप्त करते हुए आनंद लें सारंगी सम्राट कहलाने वाले उस्ताद साबरी ख़ाँ साहब की इस प्रस्तुति का, जिसमें वे बजा रहे हैं राग दरबारी।

साबरी ख़ाँ - सारंगी - राग दरबारी


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: सुनें इस सरगम को और बताएँ यह किस राग पर आधारित है?


पिछ्ली पहेली का परिणाम: क्षिति जी ने सटीक उत्तर सबसे पहले दिया, बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:०० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा लेकर आ रहें हैं कहानियों की पोटली 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शृंखला 'एक था ग़ुल और एक थी बुल्बुल में, पधारना न भूलिएगा। नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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