Saturday, June 26, 2010

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - अनुराग शर्मा के स्वर में



सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - कृश्न चन्दर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में एक हिन्दी लोक कथा सात ठगों का किस्सा का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ।
( "एक गधे की वापसी" से एक अंश)


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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Eighteeth Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/24. Voice: Anurag Sharma

Friday, June 25, 2010

एक नया अंदाज़ फिज़ा में बिखेरा "उड़न छूं" ने, जिसके माध्यम से वापसी कर रहे हैं बिश्वजीत और सुभोजित



Season 3 of new Music, Song # 11

दोस्तों, आवाज़ संगीत महोत्सव २०१० में आज का ताज़ा गीत है एक बेहद शोख, और चुलबुले अंदाज़ का, इसकी धुन कुछ ऐसी है कि हमारा दावा है कि आप एक बार सुन लेंगें तो पूरे दिन गुनगुनाते रहेंगें. इस गीत के साथ इस सत्र में लौट रहे हैं पुराने दिग्गज यानी हमारे नन्हें सुभोजित और गायक बिस्वजीत एक बार फिर, और साथ हैं हमारे चिर परिचित गीतकार विश्व दीपक तन्हा भी. जहाँ पिछले वर्ष परीक्षाओं के चलते सुभोजित संगीत में बहुत अधिक सक्रिय नहीं रह पाए वहीं बिस्वजीत ने करीब एक वर्ष तक गायन से दूर रह कर रियाज़ पर ध्यान देने का विचार बनाया था. मगर देखिये जैसे ही आवाज़ का ये नया सत्र शुरू हुआ और नए गानों की मधुरता ने उन्हें अपने फैसले पर फिर से मनन करने पर मजबूर कर दिया, अब कोई मछली को पानी से कब तक दूर रख सकता है भला. तो लीजिए, एक बार फिर सुनिए बिस्वजीत को, एक ऐसे अंदाज़ में जो अब तक उनकी तरफ़ से कभी सामने नहीं आया, और सुभो ने भी वी डी के चुलबुले शब्दों में पंजाबी बीट्स और वेस्टर्न अंदाज़ का खूब तडका लगाया है इस गीत में

गीत के बोल -


आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं..

तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..

तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..

छोरी! तू है काँटों जैसी लू.

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं

झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..

झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..

छोरी! मैं ना जलना हो के धूँ..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं



मेकिंग ऑफ़ "उड़न छू" - गीत की टीम द्वारा

बिस्वजीत: "उड़न-छूं" मेरे लिए एक नया अनुभव था। मैंने आज तक जितने भी गाने किए हैं ये गाना सबसे हटकर है। सुभोजित और विश्व दीपक ने जब यह गाना मुझे सुनाया तभी मैंने इसे गाने का निर्णय कर लिया क्योंकि यह मेरे "ज़ौनर" का नहीं था। इसके शब्द और इसका संगीत मुझे इतना पसंद आया कि "फ़ीलिंग" खुद-ब-खुद आ गए। उम्मीद करता हूँ कि श्रोताओं को भी यह गाना सुनते हुए बहुत मज़ा आएगा।

सुभोजित: हिंद युग्म के लिए मैं २००८ से संगीत का काम कर रहा हूँ. बिस्वजीत और विश्व दीपक के साथ पहले भी बहुत से प्रोजेक्ट कर चुका हूं. ये गाना पहले से सोचकर तो नहीं बनाया था. बस अचानक यूहीं दिमाग में आया, और ट्रेक बना डाला, फिर मैंने विश्व दीपक को दिया इसे शब्द लिखने के लिए और फिर हमने बिस्वजीत को भेजा. अंतिम परिणाम हम सबके लिए बेहद संतोष जनक रहा.

विश्व दीपक: सुभोजित के लिए मैंने "मेरे सरकार" लिखा था, उसके बाद से सुभोजित के साथ जितने भी गाने किए (अमूमन ४-५ तो कर हीं लिए हैं) कोई भी रीलिज नहीं हो पाया, किसी न किसी वज़ह से गाने बीच में हीं अटक जा रहे थे। फिर एक दिन सुभोजित ने मुझे यह ट्युन भेजा.. ट्युन मुझे बेहद पसंद आया (इसमें सुभोजित की छाप नज़र आ रही थी) तो मैंने कह दिया कि यह गाना पेंडिंग में नहीं जाना चाहिए। अच्छी बात है कि उसी दौरान बिस्वजीत सक्रिय हो उठे और हमें पूरा यकीन हो गया कि यह गाना तो पूरा होगा हीं। मैंने इस तरह का गाना पहले कभी नहीं लिखा, जिसमें नायक नायिका से दूर हटने को कह रहा है (मैं तो प्यार-मोहब्बत के गाने लिखने में यकीन रखता हूँ :) ), लेकिन यह ट्युन सुनकर मुझे लगा कि छेड़-छाड़ भरा गाना लिखा जा सकता है। गाना पूरा होने और फिर बिस्वजीत की आवाज़ में इसे सुन लेने के बाद मुझे लगा कि मैं सफल हुआ हूँ.. कितना हुआ हूँ, यह तो आप सब हीं बताएँगे।

बिस्वजीत
बिस्वजीत युग्म पर पिछले 1 साल से सक्रिय हैं। हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।

सुभोजित
संगीतकार सुभोजित स्नातक के प्रथम वर्ष के छात्र हैं, युग्म के दूसरे सत्र में इनका धमाकेदार आगमन हुआ था हिट गीत "आवारा दिल" के साथ, जब मात्र १८ वर्षीया सुभोजित ने अपने उत्कृष्ट संगीत संयोजन से संबको हैरान कर दिया था. उसके बाद "ओ साहिबा" भी आया इनका और बिस्वजीत के साथ ही "मेरे सरकार" वर्ष २००९ में दूसरा सबसे लोकप्रिय गीत बना. अपनी बारहवीं की परीक्षाओं के बाद कोलकत्ता का ये हुनरमंद संगीतकार लौटा है पहली बार इस तीसरे सत्र में इस नए गीत के साथ

विश्व दीपक 'तन्हा'
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।

Song - Udan Chhoo
Voice - Biswajith Nanda
Music - Subhojit
Lyrics - Vishwa Deepak
Graphics - Prashen's media


Song # 11, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, June 24, 2010

पल पल दिल के पास तुम रहती हो....कुछ ऐसे ही पास रहते है कल्याणजी आनंदजी के स्वरबद्ध गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 425/2010/125

ल्याणजी-आनंदजी के संगीत सफ़र के विशाल सुर-भण्डार से १० मोतियाँ चुन कर उन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' को इन दिनों हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चला रहे हैं। पिछले चार दिनों से हमने ६० के दशक के गानें सुनें, आइए आज हम आगे बढ़ निकलते हैं ७० के दशक में। ७० का दशक एक ऐसा दशक साबित हुआ कि जिसमें ५० और ६० के दूसरे अग्रणी संगीतकार कुछ पीछे लुढ़कते चले गए, और जिन तीन संगीतकारों के गीतों ने लोगों के दिलों पर व्यापक रूप से कब्ज़ा जमा लिया, वो संगीतकार थे राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी। इन तीनों संगीतकारों ने इस दशक में असंख्य हिट गीत दिए और अपार शोहरत हासिल की। आज हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का अतिपरिचित "पल पल दिल के पास तुम रहती हो"। किशोर कुमार और कल्याणजी-आनंदजी के कम्बिनेशन के गानों का ज़िक्र हो और इस गाने की बात ना छिड़े यह असंभव है। १९७३ की फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का यह गीत फ़िल्माया गया था, जी नहीं, धर्मेन्द्र पर नहीं, बल्कि राखी पर। राखी को अपने प्रेमी धर्मेन्द्र के प्रेम पत्रों को पढ़ते हुए दिखाया जाता है और पार्श्व में यह गीत चल रहा होता है। भले ही गीत में "ख़त" या "चिट्ठी" का ज़िक्र नहीं है, लेकिन यह है तो सही एक 'लव लेटर सॊंग्'। इस गीत को लिखा था राजेन्द्र कृष्ण साहब ने।

आइए फिर एक बार आज रुख़ करते हैं विविध भारती पर आनंदजी से की गई बातचीत की ओर, शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' में, जिसमें इस गीत की चर्चा आनंदजी भाई ने कुछ इस क़दर की थी। "ये कम्पोज़िशन के दो तीन स्टाइल होते हैं। जैसे मैं कहूँगा अपनी स्टाइल में, मैं यानी आनंदजी, मुझे घूमने का बहुत शौक है, कल्याणजी भाई कमरे में बैठने का शौक रखते थे। तो बोलते थे कि भीड़ भड़क्के में कहाँ जाना है? तो मुझे गाना बनाने का शौक है तो गाड़ी लेके निकल पड़ता हूँ, ट्रेन में बैठ जाता हूँ, कुछ नहीं तो टेप रिकार्डर लेके बाथरूम में घुस जाता हूँ, बाथ टब में लेट गया, शावर चालू कर दिया, टेप में अपना गाना बजा दिया, ट्रेन में बैठा तो गाना बजा दिया, बाजे पे हाथ रखने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। मैं ऐसे ही काम करूँगा पहले। क्योंकि बाजे पे आपने हाथ रखा तो एक जगह आपने सुर पकड़ लिया, आप उस सुर में बंध गए, फिर धीरे धीरे आपको लगेगा कि अभी राग में बजाऊँ, कौन से राग में बजाऊँ। तो पहले शुरु में एक्स्प्रेशन दो आप, उसको क्या भाव से आप बोल सकते हैं। उसके बाद धीरे धीरे डेवेलप करने के बाद आपके बाजे पे हाथ रखो, कि भई बाजे पे अब, कौन से सिंगर्स गाने वाले हैं, उसके स्केल पे गाना कैसे बनेगा, क्या बनेगा, उसके बाद उसकी रीदम, उसकी ताल क्या है गाने की, वह मूड को समझते हुए आप विज़ुअलाइज़ कर सकते हैं कि पिक्चराइज़ कैसे होगा गाने का। "पल पल दिल के पास", यह गोल्डी जी के वहाँ आके ऐसे ही गप मारते थे हम लोग। तो युं करते करते, वहाँ बैठे बैठे एक दिन मेरे को बोलते हैं कि एक गाना अपने को करना है ऐसा कि जिसमे मैं कुछ अलग अलग अलग अलग कुछ दिखाना चाहता हूँ, and the guy, he is an educated guy, so piano पे बैठके भी गाएगा, कुछ ये करेगा, लेकिन he is again an Indian guy, तो फ़ीलिंग् भी लानी है। तो हमने बोला कि क्या चाहिए क्या। बोले कि छोटे छोटे टुकड़े होंगे, पिक्चराइज़ करना चाहता हूँ, 'cut one two one two' ऐसे।" और दोस्तों, इस ज़रूरत को पूरा करने में राजेन्द्र कृष्ण साहब ने भी बहुत छोटे छोटे शब्दों का इस्तेमाल इस गीत में किया है "पल", "पल", "दिल", "के", "पास".....।" तो आइए अब इस गीत को सुना जाए। और यहीं पर इस शृंखला का पहला हिस्सा ख़त्म होता है। सोमवार की शाम हम फिर से हाज़िर होंगे इसी शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए। तब तक के लिए बने रहिए 'आवाज़' के साथ, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि स्वतंत्र संगीतकार बनने से पहले कल्याणजी भाई ने लगभग ४०० फ़िल्मों में बतौर संगीत सहायक व वादक काम किया।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. राजेश खन्ना की इस फिल्म की नायिका कौन है -३ अंक.
२. इस युगल गीत के गीतकार कौन है- २ अंक.
३. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "रोज", गीत बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
ठीक है अवध जी, आप शरद जी के शिष्य ही सही, पर इस प्रतियोगिता के तीसरे सप्ताह के अंत तक आज भी आप ही आगे हैं, पर इस बार शरद जी ने ये फासला बेहद कम कर दिया है. फिर भी ३ अंकों से आगे होने के कारण इस सप्ताहांत भी आप ही विजेता रहे.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, June 23, 2010

फूल तुम्हें भेजा है खत में....एक बेहद संवेदनशील फिल्म का एक बेहद नर्मो नाज़ुक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 424/2010/124

ल्याणजी-आनंदजी के संगीत की मिठास इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में घुल रही है। १९५९, १९६४ और १९६५ के बाद आज हम आ पहुँचे हैं साल १९६८ में। यह एक बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव वाला साल है इस संगीतकार जोड़ी के करीयर का, क्योंकि इसी साल आई थी फ़िल्म 'सरस्वतीचन्द्र'। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं कि "चंदन सा बदन चंचल चितवन" सातवें दशक की युवा पीढ़ी का प्रेम गीत बनकर स्थापित है ही, लेकिन उससे कहीं भी कम नहीं है "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में" का सौन्दर्य जो उस ज़माने की आहिस्ता आहिस्ता चलने वाली अपेक्षाकृत कम भाग दौड़ की ज़िंदगी के बीच पनपी रूमानी भावनाओं को बड़े ही मधुर आग्रह से प्रतिध्वनित करती है। क्या ख़ूब कहा है पंकज जी ने। लता जी और मुकेश जी की आवाज़ों में इंदीवर साहब का लिखा हुआ यह बेहद लोकप्रिय व मधुर युगल गीत आज हम लेकर आए हैं। इस फ़िल्म से जुड़े तथ्य तो हम पहले ही आपको दे चुके हैं जब हमने कड़ी नम्बर-१४ में "चंदन सा बदन" सुनवाया था। आज तो बस इसी गीत की बातें होंगी। दोस्तो, यह गीत है तो एक नर्मोनाज़ुक रोमांटिक गीत, लेकिन इसके बनने की कहानी बड़ी दिलचस्प है, जिसे आप आगे पढेंगे तो गुदगुदा जाएँगे। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में जब आनंदजी तशरीफ़ लाए थे, उन्होने कमल शर्मा के साथ बातचीत के दौरान इस किस्से का ज़िक्र किया था। तो आइए उसी बातचीत का वह अंश यहाँ पेश करते हैं।

प्र: आनंदजी, आपने एक बार ज़िक्र किया था कि कोई लिफ़ाफ़ा आ पहुँचा था, आपके पास कोई चिट्ठी आई थी, कोई 'फ़ैन मेल' आया था जिसमें दिल और फूल बना हुआ था और उससे एक गाना बना था, कौन सा था वह?

उ: कमल जी, अब सब हांडी क्यों फोड़ रहे हैं आप? मेरे ग्रैण्ड-चिलड्रेन भी सुन रहे होंगे, वो बोलेंगे दादा ऐसा था क्या? (दोनों हँसते हुए) प्यारे भाइयों और बहनों, कमल जी अब ये सब दिल की बातें पूछ रहे हैं, तो क्या हुआ था कि फ़ैन्स के लेटर्स बहुत आते थे। बहुत सारे लेटर्स आते थे और उन दिनों में क्या था कि फ़ैन्स को आपके लेटर्स चाहिए, फ़ोटो चाहिए, राइटर बनने के लिए कोई आया, ऐक्टर बनने के लिए कोई आया। हम लोगों के बारे में सब को पता था कि भई ये सिंगर्स को ही नहीं ऐक्टर्स को भी चांस देते हैं, डिरेक्टर्स को भी चांस देते हैं, राइटर्स को भी चांस देते है। तो यह एक अड्डा हो गया था कि भई कोई फ़ीज़ वीज़ भी नहीं लगती, बैठ जाओ आके, चाय पानी भी मिलेगी, ऐक्टर ऐक्ट्रेस भी देखने को मिल जाएँगे, सब कुछ होगा। तो ये सब होता था। हम नहीं चाहते थे कि हम जब स्ट्रगल करते थे, कोई अगर कुछ कर रहा है तो एक सहारा तो चाहिए। तो एक लेटर इनका आया, एक सफ़ेद फूल था, और एक लिपस्टिक का सिर्फ़ होंठ बना हुआ था। 'and nothing was there'. 'blank letter'. सिर्फ़ 'to dear' लिखा हुआ था। उपर कल्याणजी-आनंदजी का पता लिखा था और अंदर 'to dear' करके लिख दिया था। तो दोनों में कन्फ़्युशन हो गया कि यह 'to dear' किसको है! मैंने कहा कि यह अपने लिए होगा, भाईसाहब के लिए तो नहीं होगा। ऐसे करके रख लिया। अब रखने के बाद इंदीवर जी आए तो उनको दिखाया मैंने। उनको कहा कि देखो, ऐसे ऐसे ख़त आने लगे हैं अब! (कमल शर्मा ज़ोर से हंस पड़े)। इंदीवर जी बोले कि यह कौन है, होगी तो कोई लड़की, ये होंठ भी तो छोटे हैं, तो लड़की ही होगी। उन्होने पूछा कि किसका नाम लिखा है। मैंने बोला कि 'to dear' करके लिखा है, आप अपना नाम लिख लो, मैं अपना नाम लिख लूँ या कल्याणजी भाई के नाम पे लिख दूँ। बोले कि इस पर तो गाना बन सकता है, फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, वाह वाह वाह वाह। 'अरे वाह वाह करो तुम', बोले, "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है", कमाल है! मैंने कहा 'ये लिपस्टिक'? बोले 'भाड़ में जाए लिपस्टिक, इसको आगे बढ़ाते हैं। अब गाना बनने के बाद हुआ क्या कि प, फ, ब, भ, यह तो आप समझ सकते हैं कमल जी कि या तो आप क्रॊस करके गाइए, या लास्ट में आएगा, तो इसके लिए क्या करना पड़ता है, ये मुकेश जी गाने वाले थे, तो जब यह गाना पूरा बन गया तो यह लगा कि ऐसे सिचुयशन पे जो मंझा हुआ चाहिए, वो है कि भाई कोई सहमा हुआ कोई, डायरेक्ट बात भी नहीं की है, "प्रीयतम मेरे मुझको लिखना क्या ये तुम्हारे क़ाबिल है", मतलब वो भी एक इजाज़त ले रही है कि आपके लायक है कि नहीं। यह नहीं कि नहीं नहीं यह तो अपना ही हो गया। वो भी पूछ रही है मेरे से। तो ये मुकेश जी हैं तो पहले "फू...ल", "भू...ल", "भे...जा" भी आएगा, मैंने बोला, 'इंदीवर जी, ऐसा ऐसा है'। बोले कि तुम बनिए के बनिए ही रहोगे, कभी सुधरोगे नहीं तुम। जिसपे गाना हो रहा है, उसको क्या लगेगा? जिसने लिखा है उसको कितना बुरा लगेगा? ऐसे ही रहेगा। तो हमने बोला कि चलो, ऐसे ही रखते हैं। तो उसको फिर गायकी के हिसाब से क्या कर दिया, उसमें ब्रेथ इनटेक डाल दिया, सांस लेके अगर गाया जाए तो "फूल" होगा "फ़ूल" नहीं होगा। बड़ा डेलिकेट, कि वह फ़्लावर था, बहुत नरम नरम, ऐसे ऐसे यह गाना बन गया, लेकिन यह गाना आज भी लोगों को पसंद आता है, क्यों आता है यह समझ में नहीं आता, ये इंदीवर जी का कमाल है, लोगों का कमाल है, उस माहौल का कमाल है!



क्या आप जानते हैं...
कि 'सरस्वतीचन्द्र' के संगीत के लिए कल्याणजी-आनंदजी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. नायिका पर फिल्माया गया है ये गीत, जो नायक के मनोभावों को महसूस कर रही है, किस गायक की आवाज़ है गीत में -२ अंक.
२. हैंडसम हीरो धमेन्द्र हैं फिल्म के नायक, नायिका कौन है - २ अंक.
३. गीतकार कौन हैं - २ अंक.
४. १९७३ में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
सिर्फ अवध जी और शरद जी आमने सामने हैं, कहाँ गए बाकी धुरंधर सब ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने.. दिल पर पत्थर रखकर खुद को तोड़ रहे हैं साहिर और तलत



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८९

"सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं?" - मुमकिन है कि आपने यह पंक्ति पढी या सुनी ना हो, लेकिन इस पंक्ति के इर्द-गिर्द जो नज़्म बुनी गई थी, उससे नावाकिफ़ होने का तो कोई प्रश्न हीं नहीं उठता। यह वही नज़्म है, जिसने लोगों को गुरूदत्त की अदायगी के दर्शन करवाएँ, जिसने बर्मन दा के संगीत को अमर कर दिया, जिसने एक शायर की मजबूरियों का हवाला देकर लोगों की आँखों में आँसू तक उतरवा दिए और जिसने बड़े हीं सीधे-सपाट शब्दों में "चकला-घरों" की हक़ीकत बयान कर मुल्क की सच्चाई पर पड़े लाखों पर्दों को नेस्तनाबूत कर दिया... अभी तक अगर आपको इस नज़्म की याद न आई हो तो जरा इस पंक्ति पर गौर फरमा लें- "जिसे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?" पूरी की पूरी नज़्म वही है, बस एक पंक्ति बदली गई है और वो भी इसलिए क्योंकि फिल्म और साहित्य में थोड़ा फर्क होता है.. फिल्म में हमें अपनी बात खुलकर रखनी होती है। जहाँ तक मतलब का सवाल है तो "सना-ख़्वाने..." में पूरे पूरब का जिक्र है, वहीं "जिसे नाज़ है..." में अपने "हिन्दुस्तान" का बस। लेकिन इससे लफ़्ज़ों में छुपा दर्द घट नहीं जाता.... और इस दर्द को उकेरने वाला शायर तब भी घावों की उतनी हीं गहरी कालकोठरी में जब्त रहता है। इस शायर के बारे में और क्या कहना जबकि इसने खुद कहा है कि "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?" ... जिसे दुनिया का मोह नहीं ,उससे ज़ीस्त और मौत के सवाल-जवाब करने से क्या लाभ! इस शायर को तो अपने होने का भी कोई दंभ, कोई घमंड, कोई अना नहीं है.. वो तो सरे-आम कहता है "मैं पल-दो पल का शायर हूँ..... मुझसे पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए....

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥


इस शायर से मेरा लगाव क्या है, यह मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। मुझे लिखने का शौक़ है और आज-कल थोड़े गाने भी लिख लेता हूँ... गाना लिखने वालों के बारे में लोग यही ख्याल पालते हैं (लोग क्या... खुद गीतकार भी यही मानते हैं) कि गानों में मतलब का कुछ लिखने के लिए ज्यादा स्कोप, ज्यादा मौके नहीं होते.. लेकिन जब भी मैं इन शायर को पढता हूँ तो मुझे ये सारे ख्याल बस बहाने हीं लगते हैं... लगता है कि कोई अपनी लेखनी से बोझ हटाने के लिए दूसरों के सर पर झूठ का पुलिंदा डाल रहा है। अब अगर कोई शायर अपने गाने में यह तक लिख दे कि

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी


और लोग उसके कहे हरेक लफ़्ज़ को तहे-दिल से स्वीकार कर लें तो इससे यह साबित हो जाता है कि मतलब का लिखने के लिए मौकों की जरूरत नहीं होती बल्कि यह कहिए कि बेमतलब लिखने के लिए मौके निकालने होते हैं। यह शायर मौके नहीं ढूँढता, बल्कि आपको मौके देता है अपनी अलसाई-सी दुनिया में ताकने का.. उसे निखरने का, उसे निखारने का। आप पशेमान होते हो तो आपसे कहता है

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले


ना मुंह छिपा के जियो और ना सर झुका के जियो
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो ।


फिर आप संभल जाते हो... लेकिन अगले हीं पल आप इस बात का रोना रोते हो कि आपको वह प्यार नहीं मिला जिसके आप हक़दार थे। यह आपको समझाता है, आप फिर भी नहीं समझते तो ये आपके हीं सुर में सुर मिला लेता है ताकि आपके ग़मों को मलहम मिल सके

जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला ?
हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काँटों का हार मिला ॥


आपको प्यार हासिल होता है, लेकिन आप "बेवफ़ाईयो" का शिकार हो जाते हैं। आपको उदासियों के गर्त्त में धँसता देख यह आपको ज़िंदगी के पाठ पढा जाता है:

तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।
वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ॥


इतना सब करने के बावजूद यह आपसे अपना हक़ नहीं माँगता.. यह नहीं कहता कि मैंने तुम्हें अपनी शायरी के हज़ार शेर दिए, तुम्हें तुम्हारी ज़िंदगी के लाखों लम्हें नसीब कराए... यह तो उल्टे सारा श्रेय आपको हीं दे डालता है:

दुनिया ने तजुर्बातो हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं


यह शायर, जिसके एक-एक हर्फ़ में तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं.. अपने चाहने वालों के बीच "साहिर" के नाम से जाना जाता है। इनके बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए हम "विकिपीडिया" और "प्रकाश पंडित" के दरवाजे खटखटाते हैं।

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म ८ मार्च १९२१ में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। माता के अतिरिक्त उनके पिता की कई पत्नियाँ और भी थीं। किन्तु एकमात्र सन्तान होने के कारण उसका पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार में हुआ। मगर अभी वे बच्चा हीं थे कि पति की ऐय्याशियों से तंग आकर उनकी माता पति से अलग हो गई और चूँकि ‘साहिर’ ने कचहरी में पिता पर माता को प्रधानता दी थी, इसलिए उनके बाद पिता से और उसकी जागीर से उनका कोई सम्बन्ध न रहा और उन्हें गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् १९३९ में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता उनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया।

सन् १९४३ में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह ’तल्खियाँ’ छपवायी। सन् १९४५ में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। १९४९ में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने। फिल्म आजादी की राह पर (१९४९) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली।

शायर की हैसियत से ‘साहिर’ ने उस समय आँख खोली जब ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के बाद ‘फ़िराक़’, ‘फ़ैज़’, ‘मज़ाज़’ आदि के नग़्मों से न केवल लोग परिचित हो चुके थे बल्कि शायरी के मैदान में उनकी तूती बोलती थी। कोई भी नया शायर अपने इन सिद्धहस्त समकालीनों से प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। अतएव ‘साहिर’ पर भी ‘मजाज़’ और ’फ़ैंज़’ का ख़ासा प्रभाव पड़ा। लेकिन उनका व्यक्तिगत अनुभव जो कि उनके पिता और उनकी प्रेमिका के पिता के प्रति घृणा और विद्रोह की भावनाओं से ओत-प्रोत था, उनके लिए कामगर साबित हुआ। लोगों ने देखा कि फ़ैज़’ या ‘मजाज़’ का अनुकरण करने के बजाय ‘साहिर’ की रचनाओं पर उसके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप है और उसका अपना एक अलग रंग भी है।

‘साहिर’ मौलिक रूप से रोमाण्टिक शायर है। प्रेम की असफलता ने उसके दिलो-दिमाग़ पर इतनी कड़ी चोट लगाई कि जीवन की अन्य चिन्ताएँ पीछे जा पड़ी। बस एक प्रेम की बात हो तो कोई सह भी ले, लेकिन उन्हें तो जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ और दूसरी सुधा मल्होत्रा से। वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में २५ अक्टूबर १९८० को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया ।

’साहिर’ की ग़ज़लें बहुत कुछ ऐसा कह जाती हैं, जिसे आप अपनी आँखों में रोककर रखे होते हैं.. न चाहते हुए भी, मन मसोसकर आप उन जज्बातों को पीते रहते हैं। आपको बस एक ऐसे आधार की जरूरत होती है, जहाँ आप अपने मनोभावों को टिका सकें। यकीन मानिए.. बस इसी कारण से, बस यही उद्देश्य लेकर हम आज की गज़ल के साथ हाज़िर हुए हैं। ’साहिर’ के लफ़्ज़ और क्या करने में सक्षम हैं, यह तो आपको गज़ल सुनने के बाद हीं मालूम पड़ेगा.... सोने पे सुहागा यह है कि आपके अंदर घर कर बैठी कड़वाहटों को मिटाने के लिए "तलत महमूद" साहब की आवाज़ की "मिश्री" भी मौजूद है। तो देर किस बात की... पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल:

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैंने

अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ये दिल में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने

तुझे अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है
कि कुछ घड़ियाँ तेरे ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैंने

बस अब तो मेरा _____ छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सितम" और शेर कुछ यूँ था-

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

पिछली महफ़िल की शान बने "नीरज रोहिल्ला" जी। एक-एक करके महफ़िल में और भी कई सारे मेहमान (मेरे हिसाब से तो आप स्ब घर के हीं है.. मेहमान कहकर मैं महफ़िल की रस्म-अदायगी कर रहा हूँ..बस) शामिल हुए। जहाँ शन्नो जी ने हमारी गलती सुधारी वहीं सुमित जी हर बार की तरह बाद में आऊँगा कहकर निकल लिए। जहाँ सीमा जी ने पहली मर्तबा अपने शेरों के अलावा कुछ शब्द कहे (भले हीं उन शेरों का मतलब बताने के लिए उन्हें अतिरिक्त शब्द महफ़िल पर डालने पड़े, लेकिन उनकी तरफ़ से कुछ अलग पढकर सुखद आश्चर्य हुआ :) ) ,वहीं अवनींद्र जी के शेर अबाध गति से दौड़ते रहें। मंजु जी और नीलम जी ने महफ़िल के अंतिम दो शेर कहे... इन दोनों में एक समानता यह थी कि जहाँ मंजु जी अपनी हीं धुन में मग्न थीं तो वहीं नीलम जी शन्नो जी की धुन में।

इस तरह से एक सप्ताह तक हमारी महफ़िल रंग-बिरंगे लोगों से सजती-संवरती रही। इस दरम्यान ये सारे शेर पेश किए गए:

दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद । (जिगर मुरादाबादी)

तकदीर के सितम सहते जिन्दगी गुजर जाती है
ना हम उसे रास आते हैं ना वो हमें रास आती है. (शन्नो जी)

तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश, जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़, तो सितम क्या है? (ग़ालिब)

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ (फ़िराक़ गोरखपुरी)

कितनी शिद्दत से ढाये थे सितम उसने
अब मैं रोया तो ये इश्क मैं रुसवाई है (अवनींद्र जी)

फूल से दिल पे उसका ये सितम देखो
तोड़ के अपनी किताबों मैं सजाया उसने (अवनींद्र जी)

शफा देता है ज़ख्मो को तुम्हारा मरहमी लहजा ,
मगर दिल को सताते हैं वो सितम भी तुम्हारे हैं (अवनींद्र जी)

जिंदगी को याद आ रहे तेरे सितम ,
धड़कने भुलाने की दे रही हैं कसम . (मंजु जी)

सितम ये है कि उनके ग़म नहीं,
ग़म ये है कि उनके हम नहीं (नीलम जी)

और अब एक महत्वपूर्ण सूचना:

हम टिप्पणियों पे नियंत्रण (टिप्पणियों का "मोडरेशन") नहीं करना चाहते, इसलिए हम आपसे अपील करते हैं कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल पर शायराना माहौल बनाए रखने में हमारी मदद करें। दर-असल कुछ कड़ियों से महफ़िल पे ऐसी भी टिप्पणियाँ आ रही हैं, जिनका इस आलेख से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें पढकर लगता है कि लिखने वाले ने बिना ग़ज़ल सुने, बिना आलेख पढे हीं अपनी बातें कह दी हैं। हमारे कुछ मित्रों ने महफ़िल की इस बिगड़ी स्थिति पर आपत्ति व्यक्त की है। इसलिए हम आप सबसे यह दरख्वास्त करते हैं कि अपनी टिप्पणियों को यथा-संभव इस आलेख/गज़ल/शायर/संगीतकार/गुलूकार/शेर तक हीं सीमित रखें। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप टिप्पणी देना या फिर महफ़िल में आना हीं बंद कर दें.. तब तो दूसरे मित्र आराम से जान जाएँगे कि हम किनकी बात कर रहे थे :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, June 22, 2010

कांकरिया मार के जगाया.....लता का चुलबुला अंदाज़ और निखरा कल्याणजी-आनंदजी के सुरों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 423/2010/123

ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' के अन्तर्गत। आज कल्याणजी-आनंदजी के संगीत का जो रंग आप महसूस करेंगे, वह रंग है लोक संगीत का, और साथ ही साथ छेड़-छाड़ का, मस्ती का, चुलबुलेपन का। यह एक बेहद यूनिक गीत है। यूनिक इसलिए कहा क्योंकि आम तौर पर हमारी फ़िल्मों में कुछ महफ़िलों में, पार्टियों में गाए जाने वाले किस्म के गीत होते हैं, कुछ लोक नृत्य के गीत होते हैं, और कुछ सड़क पर नाचती गाती टोलियों के टपोरी किस्म के नृत्य गीत होते हैं। लेकिन अगर इन तीनों विविध और एक दूसरे से बिलकुल भिन्न शैलियों को एक ही गाने में इस्तेमाल कर दिया जाए तो कैसा रहेगा? जी हाँ, कल्याणजी-आनंदजी ने यही कमाल तो कर दिखाया है आज के प्रस्तुत गीत में। फ़िल्म 'हिमालय की गोद में' का यह चुलबुला सा गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में आज सुनिए इस महफ़िल में। माला सिंहा, जो एक रस्टिक, यानी कि गाँव की गोरी जो शहरी तौर तरीकों से बिल्कुल बेख़बर है, उसे मनोज कुमार एक शहरी पार्टी में ले जाते हैं और वहाँ उन्हे नृत्य प्रदर्शन करने को कहा जाता है। तब वो इस गीत को गाते हुए नृत्य करती हैं। इस गाने की धुन को सुनते हुए आप सचमुच ही हिमालय की गोद में पहुँच जाएँगे। पहाड़ों का लोक संगीत कितना सुकून दायक होती है, इस गीत के ज़रिए भी महसूस किया जा सकता है। और मैं क्या चीज़ हूँ साहब, इस गाने की तारीफ़ तो सचिन देव बर्मन साहब ख़ुद कर चुके हैं विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में, जिसमें उन्होने यह कहा था - "मुझे सभी संगीतकारों का संगीत अच्छा लगता है, पर इतना समय नहीं है कि मैं आपको सभी के गानें सुनाऊँ। अब मैं बात करता हूँ कल्याणजी-आनंदजी भाइयों की। जैसा उनका नाम वैसा काम। कल्याणजी अपनी धुनों से संगीत का कल्याण करते हैं, और आनंदजी अपनी धुनों से सबको आनंद पहुँचते हैं। वो दोनों बहुत ही हँसमुख और बिना घमण्ड वाले इंसान हैं। उनकी एक रचना मुझे बेहद पसंद है जो लोक गीत पर आधारित है, आप भी सुनिए।" ज़रूर सुनेंगे दोस्तों, लेकिन उससे पहले इस गीत के बनने की कहानी तो जान लीजिए ख़ुद आनंदजी से।

कमल शर्मा: आनंदजी, आपका कोई गाना, मार्केट में कोई लड़की जो दातून से किसी को मार रही थी, सुना है उससे भी कोई गाना आपने बनाया था? वह कौन सा गाना था?

आनंदजी: (हंसते हुए) अब बातों ही बातों में आप बहुत सारी बातें निकलवा रहे हैं! देखिए, हर सिचुयशन जो है गाने की, उसके पीछे 'इन्स्पिरेशन' कोई ना कोई तो ज़रूर होगा। तो गिरगाम में हम रहते थे, तो दतवाँ (दातून), हम बनिए लोग जो हैं, दतवाँ कहते हैं, तो दतवाँ लेने के लिए पिताजी ने मुझे भेजा। वो बोलते थे कि दतवाँ जो अच्छी ले आए वो समझदार लड़का है। तो ये है कि एक्ज़ाम्पल होता था। तो दतवाँ लेने के लिए भेजा मुझे तो वहाँ दतवाँ काटने वाली लड़की जो है, वो लड़की दतवाँ काट रही थी और उसके बीच में जो होती है ना, गठान, उसको काट के फेंक देती है, बैठे बैठे वो सामने वाले लड़के को मार रही थी। तो वो भी चिल्ला के बोला 'ए क्या कर रही है तू, ये क्या कर रही है तू?' लड़की बोली कि 'तू भी मार ना!' तो ये एक मुखड़ा आ गया कि यह एक ऐंगल रोमांस का भी है। तो उसको उस भाषा में तो लिख नहीं सकते थे, कंकरिया मार के इशारे, तो जहाँ पे ऐसी सिचुएशन आएगी, उसको हम डाल देंगे, मटके के साथ, वगेरह!

तो आइए दोस्तों, इस थिरकते गीत का आनंद लेते हैं और साथ ही साथ सलाम करते हैं मनोज कुमार और कल्याणजी-आनंदजी की तिकड़ी को! आपको बता दें इस गीत के गीतकार हैं आनंद बक्शी साहब।



क्या आप जानते हैं...
कि 'सहेली' का "जिस दिल में बसा था प्यार तेरा" १९६५ की बिनाका गीतमाला की सालाना पायदान का गीत नम्बर एक बना था, तो इसी साल मुकेश की ही आवाज़ में 'हिमालय की गोद' में का "मैं तो एक ख़्वाब हूँ" ने म्युज़िक डायरेक्टर्स ऐसोसिएशन द्वारा प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ गीत का पहला पुरस्कार जीता था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस खूबसूरत से युगल गीत के गीतकार बताएं -२ अंक.
२. मुखड़े में शब्द है "मोती", फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. एक मशहूर उपन्यास पर आधारित है ये फिल्म, जिसे ४ खण्डों में लिखा गया है, किस मूल भाषा में है ये कृति - २ अंक.
४. ये गीत किस नायक नायिका पर फिल्माया गया है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार अवध जी पहले आये और ३ अंक चुरा ले गए, शरद जी को दो अंक मिलेंगें पर इंदु जी, इस बार आपका तुक्का नहीं चलेगा. पूर्वी जी आपको बहुत दिनों बाद यहाँ देख बहुत अच्छा लगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

बहुत कुछ खत्म होके भी हिमेश भाई और संगीत के दरम्यां कुछ तो बाकी है.. और इसका सबूत है "मिलेंगे मिलेंगे"



ताज़ा सुर ताल २३/२०१०

सुजॊय - सभी श्रोताओं व पाठकों का स्वागत है 'ताज़ा सुर ताल' के एक और ताज़े अंक में। इस शुक्रवार वह फ़िल्म आख़िर रिलीज़ हो ही गई जिसकी लोग बड़ी बेसबरी से इंतज़ार कर रहे थे। 'रावण'। अभी दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल पर इस फ़िल्म से संबंधित 'ब्रेकिंग्‍ न्यूज़' का शीर्षक था "मिया पर बीवी हावी"। ग़लत नहीं कहा था उस न्यूज़ चैनल ने। हालाँकि अभिषेक ने अच्छा काम किया है, लेकिन ऐश की अदाकारी की तारीफ़ करनी ही पड़ेगी। देखते हैं फ़िल्म कैसा व्यापार करता है इस पूरे हफ़्ते में।

विश्व दीपक - मैने रावण देखी और मुझे तो बेहद पसंद आई। मैने ना सिर्फ़ इस फिल्म का हिन्दी संस्करण देखा बल्कि इसका तमिल संस्करण (रावणन) भी देखा.. और दुगना आनंद हासिल किया । चलिए 'रावण' से आगे बढ़ते हैं। आज हम इस स्तंभ में जिस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं, वह कई दृष्टि से अनोखा है। पहली बात तो यह कि इस फ़िल्म की मेकिंग बहुत पहले से ही शुरु हो गई थी जब शाहीद और करीना का ब्रेक-अप नहीं हुआ था। तभी तो यह जोड़ी नज़र आएगी इस फ़िल्म में। शायद यही बात फ़िल्म की सफलता का कारण बन जाए, किसे पता! दूसरी बात यह कि इसमें हिमेश रेशम्मिया का संगीत है, लेकिन वैसा संगीत नहीं जैसा कि वो आजकल की फ़िल्मों में दे रहे हैं। मेरा ख़याल है कि इस फ़िल्म के गानें भी बहुत पहले से ही बन चुके होंगे, जिस समय हिमेश अपनी आवाज़ के मुकाबले सोनू निगम, शान, अलका याज्ञ्निक, श्रेया घोषाल जैसे गायकों को ज़्यादा मौका दिया करते थे। इसलिए जिन श्रोताओं को हिमेश की आवाज़ से ऐलर्जी है, वो शायद इस बार इस फ़िल्म के गानें सुनने में दिलचस्पी लें।

सुजॊय - सही कहा आपने। दरसल मुझे जितना पता है, 'मिलेंगे मिलेंगे' आज से पाँच साल पहले प्लान की गई थी, और उस समय हिमेश का स्टाइल कुछ और ही हुआ करता था। इस फ़िल्म के गीतों में सुनने वालों को उस पुराने हिमेश और आज के हिमेश का संगम सुनाई देगा। 'मिलेंगे मिलेंगे' के निर्देशक हैं सतीश कौशिक, जिनके साथ हिमेश ने अपनी सब से बेहतरीन फ़िल्म 'तेरे नाम' में संगीत दिया था। इसके अलावा 'वादा' और 'रन' फ़िल्म में भी ये दोनों साथ में आए थे। और कहने की ज़रूरत नहीं कि इन दो फ़िल्मों के गानें भी चले थे भले ही फ़िल्में फ़्लॊप हुईं थीं। आज इस फ़िल्म के गीतों को सुनते हुए हमें अहसास हो जाएगा कि क्या हिमेश फिर से एक बार पिछले दशक के अपने मेलोडियस गीतों की तरह इस फ़िल्म में भी वैसा ही कुछ संगीत दे पाएँ हैं! 'तेरे नाम', 'दिल मांगे मोर', 'चुरा लिया है तुमने' आदि फ़िल्मों का ज़माना क्या वापस आ पाएगा इस फ़िल्म के ज़रिए?

विश्व दीपक - अब बातों को देते हैं विराम और सुनते हैं फ़िल्म का पहला गीत हिमेश की आवाज़ में। फ़िल्म के गानें लिखे हैं गीतकार समीर ने। और आपको बता दें कि इस गीत के ज़रिए ही फ़िल्म का प्रोमो इन दिनों दिखाया जा रहा है टेलीविज़न पर।

गीत: कुछ तो बाक़ी है


सुजॊय - "कुछ तो बाक़ी है"। विश्व दीपक जी, इस गीत को सुन कर हिमेश की आवाज़ और गायन शैली के बारे में कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि कुछ नयी बात कहने की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं है। लेकिन संगीत और संगीत संयोजन अच्छा है और इतना तो ज़रूर कह सकते हैं कि हिमेश के संगीत में अभी बहुत कुछ बाक़ी है। आपका क्या ख़याल है?

विश्व दीपक - यह गीत यक़ीनन एक ऐसा गीत है जो एक मूड बना देता है और दोबारा सुनने के लिए उकसा देता है। समीर की लेखन शैली और स्टाइल साफ़ झलकता है इस गीत में। और जहाँ तक ऒर्केस्ट्रेशन का सवाल है, इसमें तबला, हारमोनियम और सारंगी जैसे साज़ों की ध्वनियों का सुंदर प्रयोग किया गया है। और सब से बड़ी बात यह कि इस गीत के जो बोल हैं वो फ़िल्म के किरदारों पर ही नहीं बल्कि शाहीद-करीना की निजी ज़िंदगी को भी छू जाते हैं। "सब ख़त्म होके भी तेरे मेरे दरमीयाँ कुछ तो बाक़ी है" - अब इस तरह के बोल जान बूझ कर डाले गऎ है या फिर एक महज़ इत्तेफ़ाक़ है, यह तो हम नहीं जानते हैं, लेकिन जो भी है मज़ेदार बन पड़ा है। मीडिया को भी भरपूर ख़ुराक मिलने वाला है इस फ़िल्म के रिलीज़ पर।

सुजॊय - आगे बढ़ते हैं और दूसरा जो गीत है उसे गाया है अलका याज्ञ्निक और जयेश गांधी ने। यह फ़िल्म का शीर्षक गीत है "मिलेंगे मिलेंगे", और इसी का एक और वर्ज़न भी है जिसे हम आगे चलकर सुनेंगे।

गीत: मिलेंगे मिलेंगे (अलका/जयेश)


सुजॊय - बहुत दिनों के बाद अलका की आवाज़ सुन कर अच्छा लगा। एक बात जो मैंने नोटिस की इस गीत को सुनते हुए कि इस गीत का जो ऒरकेस्ट्रेशन है, वह हिमेश के पहले के गीतों में कई कई बार हो चुका है। मुझे पता नहीं वह कौन-सा साज़ है, लेकिन इस गीत में आपको उस साज़ की धुन सुनाई देगी जिसका हिमेश ने "चुरा लिया है तुमने" गीत में भी प्रोमिनेण्ट तरीके से किया था। पार्श्व में कोरस का इस्तेमाल भी हिमेश ने अपने उसी पुराने शैली में किया है। गीत ठीक ठाक है, लेकिन कोई नई बात नज़र नहीं आई।

विश्व दीपक - और अब सोनू निगम और अलका याज्ञ्निक की युगल आवाज़ें। सुजॊय, क्या आप बता सकते हैं कि इससे पहले आपने सोनू और अलका की युगल आवाज़ें किस फ़िल्म में आख़िरी बार सुना था?

सुजॊय - मेरा ख़याल है पिछले ही साल फ़िल्म 'लाइफ़ पार्टनर' में "कल नौ बजे तुम चांद देखना" जो गीत है, उसी में ये दोनों साथ में आए थे।

विश्व दीपक - और उस गीत की तरह यह गीत भी नर्मोनाज़ुक है और इस जोड़ी ने पूरा न्याय किया है। वैसे इसे पूरी तरह से युगल कहना ग़लत होगा। भले ही फ़िल्म के सी.डी पर सोनू और अलका के नाम दिए गए हैं, लेकिन इसमें सुज़ेन डी'मेलो ने अंग्रेज़ी के बोल गाए हैं जिनकी इस गीत में कोई ज़रूरत नहीं थी।

गीत: तुम चैन हो


सुजॊय - बिलकुल सही कहा था आपने कि उन अंग्रेज़ी के शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी। ज़रा याद कीजिए फ़िल्म 'लगान' के उस गीत को, "ओ री छोरी", जिसमें वसुंधरा दास ने अंग्रेज़ी की पंक्तियाँ गाईं थीं। इसका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि उस गीत में वह न्यायसंगत था, लेकिन इस गीत में उसकी ज़रूरत शायद ही थी। ख़ैर, सोनू निगम ने फिर एक बार अपने बेहतरीन अंदाज़ में गायन प्रस्तुत किया है, और हिमेश के अनुसार वो हैं ही आज के नंबर वन गायक। एक बार करण जोहर के 'कॊफ़ी विथ करण' में जब करण ने कई गायकों को १ से १० के स्केल में रेट करने को कहा था, तब हिमेश ने उदित नारयण को ७ और सोनू निगम को १० की रेटिंग्‍ दी थी। अलका के खाते में आए थे ८ की रेटिंग। ख़ैर, ये तो हिमेश की व्यक्तिगत राय थी।

विश्व दीपक - अगला गीत है "इश्क़ की गली है मखमली"। राहत फ़तेह अली ख़ान और जयेश गांधी की आवाज़ें। राहत साहब गाने की शुरुआत करते हैं और फिर उसके बाद जयेश गीत को आगे बढ़ाते हैं। राहत साहब अपने अंदाज़ के ऊँचे सुर में "इश्क़ की गली है मखमली रब्बा" गाते हैं, जब कि जयेश भी अपने ही अंदाज़ में "मेरे दिल को तुमसे कितनी मोहब्बत" गाते हैं। उनकी आवाज़ भी मौलिक आवाज़ है और किसी और से नहीं मिलती।

सुजॊय - इससे पहले राहत फ़तेह अली ने हिमेश रेशम्मिया की धुन पर फ़िल्म 'नमस्ते लंदन' का मशहूर गीत "मैं जहाँ रहूँ" गाया था। लेकिन उस गीत में जो बात थी, वह असर 'मिलेंगे मिलेंगे' के इस गीत में नहीं आ पाया है। चलिए सुनते हैं।

गीत: इश्क़ की गली है मखमली


विश्व दीपक - अगला जो गीत है वह थोड़ा सा अलग हट के है इसलिए क्योंकि आजकल इस तरह के गानें बनने लगभग बंद ही हो गए हैं। ९० के दशक और २००० के दशक के शुरुआती सालों तक इस तरह के "चूड़ी-कंगन" वाले गानें बहुत बनें हैं, लेकिन आज के फ़िल्मों के विषयवस्तु इस तरह के होते हैं कि इस तरह के गीतों के लिए कोई जगह या सिचुएशन ही नहीं पैदा हो पाती। यह है अलका यज्ञ्निक और साथियों की आवाज़ों में "ये हरे कांच की चूड़ियाँ, पहनी तेरे नाम की, राधा हो गई श्याम की"। वैसे बोल तो साधारण हैं लेकिन धुन ऐसी कैची है कि सुनते हुए अच्छा लगता है।

सुजॊय - और गाने के अंत में "मिलेंगे मिलेंगे" वाले गीत की धुन पर कोरस "मिलेंगे मिलेंगे" गा उठते हैं। और विश्व दीपक जी, इस गाने से याद आया कि ६० के दशक में एक फ़िल्म आई थी 'हरे काँच की चूड़ियाँ', जिसमें आशा भोसले का गाया शीर्षक गीत था "बज उठेंगे हरे काँच की चूड़ियाँ"। शैलेन्द्र जी ने उस गीत में मुखड़े और अंतरे में अंतर ना रखते हुए बड़े ही ख़ूबसूरत तरीक़े से लिखा था "धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाउँगी उनके घर, जिन से लागी लगन, आयेंगे जब सजन, जीतने मेरा मन, कुछ न बोलूँगी मैं, मुख न खोलूँगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ, ये कहेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ"।

विश्व दीपक - बिलकुल मुझे भी याद है यह गीत और इसे हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी तो सुनवाया था। ख़ैर, अलका और सखियों की आवाज़ों में आइए यह गीत सुना जाए और हमारे श्रोताओं को सुनवाया जाए।

गीत: ये हरे काँच की चूड़ियाँ


सुजॊय - और अब हम आ पहुँचे हैं इस फ़िल्म के अंतिम गीत पर। जैसा कि उपर हमने बताया था कि अलका याज्ञ्निक और जयेश गांधी के गाए फ़िल्म के शीर्षक गीत "मिलेंगे मिलेंगे" का एक और वर्ज़न है, तो अब बारी है उसी दूसरे वर्ज़न को सुनने की जिसे ख़ुद हिमेश भाई और श्रेया घोषाल ने गाया है। यक़ीन मानिए, अलका-जयेश वाले वर्ज़न से यह वला वर्ज़न मुझे ज़्यादा अपील किया। और "मिलेंगे मिलेंगे" वाले जगह की ट्युन ऐसी है कि एक हौंटिंग वातावरण जैसा बन जाता है, और इसमें शक़ नहीं कि पूरे फ़िल्म में इसी ट्युन का बार बार इस्तेमाल होता रहेगा।

विश्व दीपक - और इस गीत में शाहीद कपूर भी कुछ लाइनें कहते हैं। सिंथेसाइज़र्स का ख़ूबसूरत इस्तेमाल हुआ है। और फिर से उसी "चुरा लिया है तुमने" वाले साज़ का इस्तेमाल ऒरकेस्ट्रेशन में सुनाई देता है। हिमेश और श्रेया की आवाज़ें एक साथ अच्छी लगती है। फ़िल्म 'रेडियो' का "जानेमन" गीत भी इन दोनों ने ख़ूब गाया था।

गीत: मिलेंगे मिलेंगे (हिमेश/श्रेया)


"मिलेंगे मिलेंगे" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***१/२

सुजॊय - इन सभी गीतों को सुन कर मैं यह कह सकता हूँ कि भले ही इन गीतों में बहुत ख़ास कोई बात नहीं है, लेकिन गानें मेलोडियस हैं, सुन कर अच्छा लगा। हालाँकि इन गीतों में वो बात नहीं है कि जो फ़िल्म को हिट करा दे, लेकिन अगर फ़िल्म दूसरे पक्षों की वजह से हिट हो जाती है तो ये गानें भी ख़ूब चलेंगे, जैसा कि हमेशा से होता आया है। बस हिमेश भाई को शुभकामनाएँ देते हुए यही कहूँगा कि हिमेश भाई, अभी भी आप में बहुत कुछ बाक़ी है, बेस्ट ऒफ़ लक!

विश्व दीपक - फिर भी इतना तो कहना होगा कि हिमेश भाई का पुराना प्रयास उनके नए प्रयासों से कई कदम आगे है। अपने हीं आप में टाईप-कास्ट हो चुके हिमेश भाई से हम यही अपील करते हैं कि कभी-कभार वो अपने खोल से बाहर निकला करें और "तेरे नाम" जैसे गाने तैयार किया करें। इसी उम्मीद के साथ हम चलते हैं। हाँ, चलते चलते 'ताज़ा सुर ताल' के श्रोताओं व पाठकों से हम यही कहेंगे कि अगले हफ़्ते फिर एक बार आप से इस स्तंभ में यकीनन मिलेंगे मिलेंगे।

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ६७- "मिलेंगे मिलेंगे" शीर्षक गीत में शाहीद कपूर ने कुछ लाइनें कही हैं। क्या आप कोई और गीत बता सकते हैं जिसमें शाहीद कपूर की आवाज़ शामिल है?

TST ट्रिविया # ६८- 'मिलेंगे मिलेंगे' बोनी कपूर की फ़िल्म है। बोनी कपूर की वह और कौन सी फ़िल्म है जिसमें हिमेश रेशम्मिया ने संगीत दिया है?

TST ट्रिविया # ६९- यह एक सोनू निगम - अलका याज्ञ्निक डुएट है। हिमेश रेशम्मिया का म्युज़िक है। शाहीद कपूर ही नायक हैं। गीत का मुखड़ा उन चार शब्दों से ख़त्म होता है जिन चार शब्दों से अलका याज्ञ्निक का गाया हुआ वह गीत शुरु होता है जो एक मशहूर हॊरर फ़िल्म का है और जिसमे नायिका बनी थीं बिपाशा बासु। बताइए हम किन दो गीतों की बात कर रहे हैं।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. नरेश शर्मा
२. 'चश्म-ए-बद्दूर'
३. पलाश सेन

सीमा जी, आपने तीनों सवालों के सही जवाब दिए। बधाई स्वीकारें। "इंडलि" जी, हमें आपके प्रस्ताव पर विचार करने के लिए कुछ वक्त चाहिए। विधु जी, गाने पसंद करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

Monday, June 21, 2010

जो प्यार तुने मुझको दिया था....मुकेश की आवाज़ और कल्याणजी आनंदजी का स्वर संसार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 422/2010/122

'दिल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के सुरों से सजे दिलकश गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में उस गायक की आवाज़ आज गूंज रही है दोस्तों, जिस गायक ने इस जोड़ी के संगीत निर्देशन में अपने करीयर के सब से ज़्यादा गीत गाए हैं। बिल्कुल ठीक समझे आप। मुकेश। आम तौर पर जनता यह समझ बैठती है कि शंकर जयकिशन के लिए मुकेश ने सब से अधिक गीत गाए, लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही है। कल्याणजी आनंदजी के दर्द भरे नग़मों में मुकेश की आवाज़ का कुछ इस क़दर इस्तेमाल हुआ है कि ये गानें आज भी जैसे कलेजा चीर के रख देता है। मुकेश के गायन में सिर्फ़ सहेजता ही नहीं बल्कि आत्मीयता भी है। उनका गाया हर दर्द भरा गीत जैसे अपने ही दिल की आवाज़ लगती है। और इन्हे गुनगुनाकर आदमी ज़िंदगी के सारे ग़मों को बांट लेता है। कल्याणजी-आनंदजी के पुरअसर धुनों में पिरो कर, गीतकार आनंद बक्शी के बोलों से सज कर, और मुकेश की जादूई आवाज़ में ढल कर जब फ़िल्म 'दुल्हा दुल्हन' का गीत "जो प्यार तुमने मुझको दिया था, वो प्यार तेरा मैं लौटा रहा हूँ" बाहर आया, तो लोगों ने उसे अपने पलकों पे बिठा लिया। 'दुल्हा दुल्हन' फ़िल्म आई थी सन् १९६४ में। रवीन्द्र दवे के निर्माण व निर्देशन में इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज कपूर और साधना। बताना ज़रूरी है कि १९६० में राज कपूर की फ़िल्म 'छलिया' में कल्याणजी-आनंदजी ने ही संगीत दिया था। क्योंकि उन दिनों शंकर-जयकिशन ही राज साहब की बड़ी फ़िल्मों में संगीत दिया करते थे, तो 'छलिया' फ़िल्म के गीतों में भी एस.जे की शैली को ही कल्याणजी आनंदजी ने बरकरार रखा था। लेकिन 'दुल्हा दुल्हन' में यह जोड़ी नज़र आई अपनी ख़ुद की स्टाइल में।

हम बेहद ख़ुशक़िस्मत हैं कि हमारे यहाँ विविध भारती जैसा रेडियो चैनल है जिसने फ़िल्म संगीत के इतिहास को कुछ इस क़दर सहेज कर रखा हुआ है अपने विशाल ख़ज़ाने में कि पीढ़ी दर पीढ़ी इससे लाभान्वित होती रहेगी। उसी ख़ज़ाने से खोज कर आज हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं कल्याणजी भाई और आनंदजी भाई, दोनों के ही विचार अपने पसंदीदा गायक मुकेश के बारे में।

कल्याणजी: मुकेश जी के बारे में कुछ कहना हो तो हम इतना ही कह सकते हैं कि जब भी वो गाते थे तो सीधे दिल तक पहँच जाता था, सीधे हार्ट में, दिमाग़ के उपर कोई गाना नहीं जाता था। "मेरे टूटे हुए दिल से" अगर गाते हैं तो लगता है कि सही में इनका दिल टूटा है। उनकी यह एक ख़ूबी थी, और 'full of expressions'। जितना अच्छा वो गाते थे, उतने ही अच्छे इंसान भी थी। सभी गानें उन्होने अच्छे गाए, लेकिन शमिम जयपुरी, उनका पहला ही गाना हमारा, मतलब उन्होने पहली बार लिखा था, "मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज़ ना दो", 'दिल भी तेरा हम भी तेरे'।

आनंदजी: उन्होने हर क़िस्म के गानें गाए, लेकिन उनकी आवाज़ में एक मीठापन ऐसा होता था कि आपको लगता है कि वो सीरियस गानें ही गा सकते हैं। वह होता है ना कि अगर कोई आदमी मज़ाकिया है तो उसपे मज़ाकिया गानें अच्छे लगेंगे, और अगर वो सीरियस आदमी है तो सीरियस गाने अच्छे लगेंगे, लेकिन वो हर क़िस्म के गानें बहुत अच्छी तरह से गा लेते थे। मुकेश जी की छाप कभी कम होगी ही नहीं क्योंकि वो हमारे आदर्श हो गए थे। कुछ लोग होते हैं जो जीवन में आदर्श बन जाते हैं, आप उनको सपोर्ट करते थे, वो आपको सपोर्ट करते थे, समझे न आप! मुकेश जी ऐसे थे।

तो आइए दोस्तों, मुकेश जी और कल्याणजी भाई की याद में सुनते हैं फ़िल्म 'दुल्हा दुल्हन' का यह दर्दीला नग़मा।



क्या आप जानते हैं...
कि मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी के लिए सब से ज़्यादा गीत गाए हैं। आनंदजी के अनुसार मुकेश ने उनके लिए कुल १०५ गीत गाए हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ये एक चुलबुला गीत है लता का गाया, किस अभिनेत्री पर फिल्माया गया है ये बताएं-३ अंक.
२. फिल्म का नाम बताएं जिसका एक एक गीत सुपर हिट था - २ अंक.
३. विजय भट्ट थे निर्देशक इस फिल्म के, गीतकार कौन हैं - २ अंक.
४. एक पार्टी में फिल्माया गया है लोक धुन पर आधारित ये गीत, नायक बताएं फिल्म के - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी ने ३ अंक कमाये, बहुत बढ़िया, दो अंक अवध जी को जरूर मिलेगें, इंदु जी गीत आपने बेशक गलत पहचाना हो पर जवाब आपका सही है, इस तुक्के के लिए आपको २ अंक जरूर देंगें हम. संवेदना के स्वर नाम से टिपण्णी करने वाले हमरे श्रोता को सबसे पहले तो धन्येवाद कि उन्होंने इतनी सारी जानकारी हमारे साथ बांटी, बहुत अच्छा लगा, पर हम आपको बता दें कि ये इस श्रृखला की पहली कड़ी है, अभी इस संगीत जोड़ी के ९ गीत आने शेष हैं, जाहिर हैं और भी बातें होंगीं आने वाले एपिसोडों में, आशा है आपका साथ युहीं बना रहेगा.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, June 20, 2010

दिल लूटने वाले जादूगर....संगीतकार जोड़ी जिसने बीन की धुन पर दुनिया को दीवाना बनाया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 421/2010/121

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक नए सप्ताह के साथ हम फिर एक बार हाज़िर हैं। दोस्तों, फ़िल्म जगत में संगीतकार जोड़ियों की ख़ास परम्परा रही है। इस परम्परा की सही रूप से शुरुआत हुई थी पण्डित हुस्नलाल भगतराम की जोड़ी से, और उनके बाद आए शंकर जयकिशन। तीसरे नंबर पर वो संगीतकार जोड़ी इस फ़िल्म संगीत संसार में पधारे जिन्होने ना केवल अपने उल्लेखनीय योगदान से फ़िल्म संगीत का कल्याण किया बल्कि संगीत प्रेमियों को भरपूर आनंद भी दिया। जी हाँ, संगीत का कल्याण करने वाली और श्रोताओं को आनंद देने वाली इस बेहद लोकप्रिय व कामयाब जोड़ी को हम कल्याणजी-आनंदजी के नाम से जानते हैं। ३० जून को कल्याणजी भाई का जनमदिवस है। इसी उपलक्ष्य पर आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम शुरु कर रहे हैं इस बेमिसाल संगीतकार जोड़ी की दिलकश संगीत रचनाओं से सजी लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर'। सच ही तो है, सुरीले जादूगर की तरह कल्याणजी-आनंदजी ने लोगों के दिलों पर राज ही तो करते आए हैं। आज इस शृंखला की पहली कड़ी में सब से पहले आपको कल्याणजी-आनंदजी के सफ़र के शुरुआती दिनों का हाल संक्षिप्त में बताते हैं, और उसके बाद आज के गीत की चर्चा करेंगे। कल्याणजी वीरजी शाह का जन्म ३० जून १९२९ में और आनंदजी का जन्म १९३३ में हुआ था गुजरात के कच्छ में। मज़े की बात यह है कि आनंदजी कच्छ में पलने लगे और कल्याणजी बम्बई चले आए बोरडिंग् स्कूल में पढ़ने। आगे चलकर परिवार बम्बई स्थानांतरित हो गई। अपनी चाली में पड़ोसी के घरों में दोनों भाई रेडियो सुना करते थे। उस ज़माने में रेडियो लक्ज़री हुआ करता था। घर में ग्रामोफ़ोन के आने के बाद वे घंटों तक सुरेन्द्रनाथ, शांता आप्टे, कुंदन लाल सहगल और पंकज मल्लिक के गीत सुना करते थे। सन् १९५४ में अचानक कल्याणजी भाई शोहरत के शिखर पर पहुँच गए जब उन्होने क्लेवायलिन पर बीन की आवाज़ निकाली संगीतकार हेमन्त कुमार के लिए फ़िल्म 'नागिन' में। इससे पहले बीन की आवाज़ असली बीन से ही निकाली जाती थी। लेकिन इस बार वाद्य बदल गया और सुर बिल्कुल तरोताज़ा हो गया। इस गाने के वादक कल्याणजी को बड़ी प्रसिद्धि मिली। फिर इसके बाद कल्याणजी वीरजी शाह ने फ़िल्म 'सम्राट चंद्रगुप्त', 'चन्द्रसेना', 'पोस्ट बॊक्स ९९९', 'बेदर्द ज़माना क्या जाने', 'घर घर की बात', 'ओ तेरा क्या कहना', और 'दिल्ली जंकशन' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया। अभी तक आनंदजी उनके साथ नहीं आए थे। हमारा मतलब है वो उनके सहायक तो थे, लेकिन उनकी संगीतकार जोड़ी नहीं बनी थी। यह जोड़ी बनी १९५९ की फ़िल्म 'मदारी' और 'सट्टा बाज़ार' से। और यहाँ से जो शुरुआत हुई इस सुरीली जोड़ी की कि फिर इन्हे कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

दोस्तों, कल्याणजी हेमन्त कुमार को अपना गुरु मानते थे। जैसा कि अभी उपर हमने फ़िल्म 'नागिन' का ज़िक्र किया था, उसी बात के सिलसिले में आपको बता दें कि अपनी आर्थिक संकट के दिनों में भी कल्याणजी भाई ने विदेश से क्लेवायलिन इम्पोर्ट किया और उस पर सपेरे के बीन की ध्वनि निकाल कर हेमन्त कुमार को चकित कर दिया था। और दोस्तों, इसी बीन की धुन का फिर एक बार सफल इस्तेमाल उन्होने किया स्वतंत्र संगीतकार बनने के बाद, १९५९ की फ़िल्म 'मदारी' में। आपको याद है कौन सा वह गीत था? जी हाँ, "दिल लूटने वाले जादूगर हमने तो तुझे पहचाना है"। लता मंगेशकर और मुकेश की युगल आवाज़ों में गीतकार फ़ारुख़ क़ैसर की गीत रचना। आज इस शृंखला की पहली कड़ी में पेश है यही गीत। आश्चर्य की बात है कि आगे चलकर यह गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ, लेकिन उस साल इस गीत को 'बिनाका गीतमाला' के वार्षिक कार्यक्रम में कोई भी स्थान नहीं मिल पाया था। दोस्तों, विविध भारती पर 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में आनंदजी से जब यह पूछा गया कि आप कल्याणजी भाई से किस फ़िल्म से जुड़े थे, तो उन्होने कुछ इस तरह से बताया था - "नाम से मैं 'मदारी' से जुड़ा लेकिन काम से तो पहले से ही जुड़ा हुआ हूँ। जॊयण्ट फ़ैमिली में यह होता है ना कि बड़े जैसे बोलें वैसा करना है आपको, तो उन्होने दोनों का नाम जोड़ दिया। कभी मैं मैनेजर का काम करता था, कभी बैकग्राउण्ड बनाता था, कभी स्टोरी सुनने जाता था, कभी निर्माता से मिलने जाता था। तो वहाँ से कल्याणजी-आनंदजी करके नाम जोड़ दिया। गुजरातियों में ऐसा होता है कि बड़ों का नाम पीछे लगाया जाता है। कल्याणजी वीरजी शाह, वीरजी मेरे पिताजी का नाम था। कल्याणजी- आनंदजी होते ही लोग यह कहने लगे कि फ़िल्म लाइन में जाते ही अपने बाप का नाम बदल दिया। तो 'मदारी' से यह नाम चली आई, और काम लगातार चलता रहा।" तो दोस्तों, आइए जिस फ़िल्म से इस बेमिसाल जोड़ी की औपचारिक शुरुआत हुई थी, उसी फ़िल्म का यह सदाबहार युगल गीत सुनते हैं। लेकिन ज़रा बच के, कही दिल लूटने वाले ये जादूगर आपका दिल भी ना चुरा लें!



क्या आप जानते हैं...
कि एक बार कल्याणजी माटुंगा स्थित अरोड़ा सिनेमा के पास की सड़क पर पत्थर की आवाज़ से प्रेरणा ली कि पत्थरों से भी सुरीले नोट्स निकाले जा सकते हैं। और उन्होने बना डाली एक नई साज़ 'पत्थर-तरंग'।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. राज कपूर और साधना इस फिल्म के मुख्या कलाकार थे, निर्देशक बताएं -३ अंक.
२. दर्द भरे इस गीत के गायक कौन हैं - २ अंक.
३. गीतकार कौन हैं - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी और पराग जी के बीच मुकाबला दिलचस्प है, सप्ताहांत तक तो अवध जी ने बढ़त बना रखी है. देखते है इस सप्ताह क्या होगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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