Saturday, October 18, 2008

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'उद्धार'



प्रेमचंद की मर्मस्पर्शी कहानी 'उद्धार' का प्रसारण

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना 'आख़िरी तोहफ़ा' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की एक और मर्मस्पर्शी कहानी 'उद्धार', जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

नीचे के प्लेयर से सुनें.

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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)


VBR MP364Kbps MP3Ogg Vorbis

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं, तो यहाँ देखें।

#Ninth Story, Uddhaar: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2008/08. Voice: Anuraag Sharma

Friday, October 17, 2008

सुनिए करवाचौथ पर कविता तथा संगीतबद्ध गीत



करवाचौथ पर हिन्द-युग्म की खास पेशकश


आज यानी की कार्तिक कृण्ण पक्ष की चतुर्थी को पूरे भारतवर्ष में सुहागिन स्त्रियाँ अपने पतियों की लम्बी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती हैं। अभी पिछले सप्ताह हमने इसी त्यौहार को समर्पित शिवानी सिंह का गीत 'ऐसा नहीं कि आज मुझे चाँद चाहिए, मुझको तुम्हारे प्यार में विश्वास चाहिए' ज़ारी किया था।

हिन्द-युग्म आज इन्हीं सुहागनों को अपने ख़जाने से एक कविता समर्पित कर रहा है। हमने इस वर्ष के विश्व पुस्तक मेला में अपना पहला संगीतबद्ध एल्बम ज़ारी किया था, जिसमें १० कविताओं और १० गीतों का समावेश था। इसी एल्बम की एक कविता है 'करवाचौथ' जिसे विश्व दीपक 'तन्हा' ने लिखा है। इस कविता को आवाज़ दी है रूपेश ऋषि ने। इस कविता के तुरंत बाद हमने इसी एल्बम में सुनीता यादव द्वारा स्वरबद्ध किया तथा गाया हुआ गीत 'तू है दिल के पास'। हम समझते हैं कि अपने पतियों की लम्बी उम्र की आकांक्षी महिलाओं को हमारा यह उपहार ज़रूर पसंद आयेगा।



विश्वास का त्योहार

ओ चाँद तुझे पता है क्या?
तू कितना अनमोल है
देखने को धरती की सारी पत्नियाँ
बेसब्र फलक को ताकेंगी
कब आयेगा, तू कब छायेगा?
देगा उनको आशीर्वचन
होगा उनका प्रेम अमर

जी हाँ, करवाचौथ इसी उद्देश्य से मनाया जाता है। यह व्रत पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में अत्यंत धूम-धाम से मनाया जाता है। भारतीय पांचांग जो कि खुद चन्द्रमा की चाल पर आधारित है के अनुसार प्रत्येक साल के कार्तिक महीने में चतुर्थी को सुहागिनों के लिये वरदान स्वरूप बनकर आता है। उनकी आस्था, परंपरा, धार्मिकता, अपने पति के लिये प्यार, सम्मान, समर्पण, इस एक व्रत में सबकुछ निहीत है। जैसाकि हम सब जानते हैं कि भारतीय पत्नी की सारी दुनिया, उसके पति से शुरू होती है उन्हीं पर समाप्त होती है। शायद चाँद को इसीलिये इसका प्रतीक माना गया होगा क्योंकि चाँद भी धरती के कक्षा में जिस तन्मयता, प्यार समर्पण से वो धरती के इर्द गिर्द रहता है, हमारी भारतीय औरते उसी प्रतीक को अपना लेती हैं। वैसे भी हमारा भारत, अपने परंपराओं, प्रकृति प्रेम, अध्यात्मिकता, वृहद संस्कृति, उच्च विचार और धार्मिक पुरजोरता के आधार पर विश्व में अपने अलग पहचान बनाने में सक्षम है। इसके उदाहरण स्वरूप करवा चौथ से अच्छा कौन सा व्रत हो सकता है जो कि परंपरा, अध्यात्म, प्यार, समर्पण, प्रकृति प्रेम, और जीवन सबको एक साथ, एक सूत्र में पिरोकर, सदियों से चलता आ रहा है। मैं सोच रही हूँ कि इस व्रत के बारे में मैं क्या बताऊँ? मुझसे बेहतर सब जानते हैं? व्रत की पूजा, विधी, दंत कथाएँ, कथाएँ, इत्यादि के बारे में सभी लोगों को पता है। अन्तरजाल पर तो वृहद स्तर पर सारी सामग्री भी उपलब्ध है। तो उसी रटी-रटायी बात को दुबारा से रटने का मन नहीं बन रहा है। वैसे करवा चौथ पर मेरा निजी दृष्टिकोण कुछ नहीं है, कोई पूर्वाग्रह भी नहीं है। पूर्वी प्रदेश के इलाकों में इस व्रत की पहुँच नहीं है, तो मैंने कभी अपने घर में करवाचौथ का व्रत होने नहीं देखा। मेरा अपना मानना है कि यह पावन व्रत किसी परंपरा के आधार पर न होकर, युगल के अपने ताल-मेल पर हो तो बेहतर है। जहाँ पत्नी इस कामना के साथ दिन भर निर्जला रहकर रात को चाँद देखकर अपने चाँद के शाश्वत जीवन की कामना करती है, वह कामना सच्चे दिल से शाश्वत प्रेम से परिपूर्ण हो, न कि सिर्फ इसलिये हो को ऐसी परंपरा है। यह तभी संभव होगा जब युगल का व्यक्तिगत जीवन परंपरा के आधार पर न जाकर, प्रेम के आधार पर हो, शादी सिर्फ एक बंधन न हो, बल्कि शादी नवजीवन का खुला आकाश हो, जिसमें प्यार का ऐसा वृक्ष लहरायें जिसकी जड़ों में परंपरा का दीमक नहीं प्यार का अमृत बरसता हो, जिसकी तनाओं में, बंधन का नहीं प्रेम का आधार हो। जब ऐसा युगल एक दूसरे के लिये, करवा चौथ का व्रत करके चाँद से अपने प्यार के शाश्वत होने का आशीर्वचन माँगेगा तो चाँद ही क्या, पूरी कायनात से उनको वो आशीर्वचन मिलेगा।

करवाचौथ महज एक व्रत नहीं है, बल्कि सूत्र है, विश्चास का कि हम साथ साथ रहेंगे, आधार है जीने का कि हमारा साथ ना छूटे। आज हम कितना भी आधुनिक हो जायें, पर क्या ये आधुनिकता हमारे बीच के प्यार को मिटाने के लिये होनी चाहिये?

आधुनिक होने का मतलब क्या होता है, मुझे समझ में नहीं आया.. शायद आम भाषा में आधुनिक होने का मतलब होता होगा, अपनी जड़ों से खोखला होना। रिश्तों में अपनत्व का मिट जाना, फालतू का अपने संस्कृति पर अंगूली उठाते रहना। हम यह भूल जाते है कि परंपरा वक्त की मांग के अनुसार बनी होती है, वक़्त के साथ परंपरा में संशोधन किया जाना चाहिये पर उसको तिरस्कृत नहीं करना चाहिये, आखिर यही परम्परा हमारे पूर्वजों की धरोहर है।
मेरे विदेशी क्लाईंट्स से कभी-कभार इस पर अच्छा विचार विमर्श हो जाता है। आज ही की बात है, ऑनलाईन मेडिटेशन क्लास के बाद एक क्लाईंट को करवा चौथ के बारे में जानने कि इच्छा हूई। पूरी बात समझने के बाद आप जानते हैं उन्होंने क्या कहा? अगले साल से वो भी करवा चौथ का व्रत रखेगी। चौकिये मत, मुझे नहीं पता कि वो अगले साल तक इस बात को याद रख पायेंगी या नहीं, पर हाँ अपने रिश्ते को मजबूत बनाने के लिये उनकी यह सोच ही काफी नहीं लगती? आखिर हम आधुनिकता का लबादा ओढ़ कर कब तक अपने धरोहर को, अपने ही प्यार के वुक्ष को काटते रहने पर तुले रहेंगे।
परंपरा, जो विश्चास की नींव पर, सच्चाई के ईंट से, प्यार रूपी हिम्मत से सदियो से चली आ रही है, उसको खोखला बताना गलत नहीं है तो क्या है?
करवा चौथ जबरन नहीं, प्यार से, विश्वास से मनाईये, इस यकिन से मनाइये कि आपका प्यार अमिट और शास्वत रहे।

-डॉ॰ गरिमा तिवारी
(तत्वज्ञ)

पूजन-विधि तथा पौराणिक मान्यताएँ






चित्र वाली जानकारी का स्रोत- http://www.indif.com

मैं इबादत करूँ...या मोहब्बत करूँ.....



दूसरे सत्र के सोलहवें गीत का विश्वव्यापी उदघाटन आज -

सूफी संगीत की मस्ती का आलम कुछ अलग ही होता है. आज आवाज़ पर हम आपको जिस संगीत टीम से मिलवा रहे हैं उनका संगीत भी कुछ युहीं डुबो देने वाला है. भोपाल मध्य प्रदेश की यह संगीत टीम अब तक आवाज़ पर पेश हुई किसी भी संगीत टीम से बड़ी है, सदस्यों की संख्या के हिसाब से. आप कह सकते हैं कि ये एक मुक्कमल संगीत टीम है, जहाँ गायक, संगीत संयोजक गीतकार और सभी सजिंदें एक टीम की तरह मिल कर काम करते हैं. टीम की अगुवाई कर रहे हैं गायक अरेंजर और रिकोरडिस्ट कृष्णा पंडित और निर्देशक हैं चेतन्य भट्ट. साथ में हैं गीटारिस्ट सागर, रिदम संभाला है हेमंत ने गायन में कृष्णा का साथ दिया है अभिषेक और रुद्र प्रताप ने. इस सूफियाना गीत के बोल लिखे हैं गीतकार संजय दिवेदी ने. पूरी टीम ने मिलकर एक ऐसा समां बंधा है की सुनने वाला कहीं खो सा जाता है. तो सुनकर आनंद उठायें इस बेहद मदमस्त गीत का और इस दमदार युवा संगीत टीम को अपना आशीर्वाद और प्रेम देकर हौसला अफजाई दें.

गीत को सुनने के लिए नीचे वाले प्लेयर पर क्लिक करें-



A complete sufi band is here to present the 16th song of the season - "sooraj chand aur sitare". lead playback by Krishna Pandit supported by Abhishek aur Rudra Pratap, Chetanya Bhatt plays the director, lead guitarist is Sagar.Hemant handled the rhythm section while Krishna Pandit did the arranging and recording work. this very soulful sufiyana song has been penned by lyricist Sanjay Diwedi is surely has the power to uplift your spirit. so enjoy this song here and encourage this very young team who has all the elements in them to make it big in the coming days. all they need is your love and support.

Click on the player to listen to this brand new song -



गीत के बोल - Lyrics

सूरज चाँद और सितारे,
तेरे ही दम के सहारे,
तेरे ही करिश्में में जग समाया है,
मेरी साँसों में धडकनों में,
इश्क के जज्बातों में,
और सभी के दिलों में तू समाया है...
सूरज चाँद और सितारे ...

धडकनों की जबां पे नाम तेरा ही है,
हर एक लम्हें में जुस्तुजू तेरी है
इस गुलिस्तान में तुझको पाया,
आरजू में तू ही छाया,
मेरे हर सफर में तू समाया है...

इस जमीं आसमान में तेरा ही जलवा है,
तेरी एक नज़र से महका ये आलम है
हर तरफ़ है तेरा जादू,
हर खुशी हर गम है तू,
इस दुनिया का तू सरमाया है....

मैं इबादत करूँ या मोहब्बत करूँ
तेरे दीवाने पन में मैं दीवाना बनूँ,
तेरी चाहत में सबको भूलूँ
तू मेरा और मैं तेरा हो लूँ ,
तेरे ही इश्क में तुझको पाया है....


SONG # 16, SEASON # 02, "SOORAJ CHAND AUR SITARE..." OPENED ON AWAAZ, HINDYUGM ON 17/10/2008.
Music @ Hind Yugm, Where music is a passion.


ब्लॉग/वेबसाइट/ऑरकुट स्क्रैपबुक/माईस्पैस/फेसबुक में 'सूरज, चंदा और सितारे' का पोस्टर लगाकर नये कलाकारों को प्रोत्साहित कीजिए


Thursday, October 16, 2008

कोशिश जब तेरी हद से गुज़र जायेगी...मंजिल ख़ुद ब ख़ुद तेरे पास चली आएगी



पिछले लगभग एक हफ्ते से हम आपको सुनवा रहे हैं एक ऐसे गायक को जिसने अपनी खनकती आवाज़ में संगीतमय श्रद्धाजंली प्रस्तुत की अजीम ओ उस्ताद शायरों को,जिसे आप सब ने सुना और बेहद सराहा भी. ,

लीजिये आज हम आपके रूबरू लेकर आये हैं उसी जबरदस्त फनकार को जिसकी आवाज़ में सोज़ भी है और साज़ भी और जिसका है सबसे मुक्तलिफ़ अंदाज़ भी. आवाज़ की खोजी टीम निरंतर नई और पुरकशिश आवाजों की तलाश में जुटी है, और हमें बेहद खुशी और फक्र है की हम कुछ नायाब आवाजों को आपके समक्ष लाने में सफल रहे हैं. आवाज़ की टीम आज गर्व के साथ पेश कर रही है गायन और संगीत की दुनिया का एक बेहद चमकता सितारा - शिशिर पारखी. इससे पहले कि हम शिशिर जी से मुखातिब हों आईये जान लें उनका एक संक्षिप्त परिचय.

एक संगीतमय परिवार में जन्में शिशिर को संगीत जैसे विरासत में मिला था. उनकी माँ श्रीमती प्रतिमा पारखी संगीत विशारद और बेहद मशहूर संगीत अध्यापिका होने के साथ साथ पिछले ३५ वर्षों से आल इंडिया रेडियो की ग्रेडड आर्टिस्ट भी हैं. स्वर्गीय पिता श्री शरद पारखी बोकारों के SAIL प्लांट में चीफ आर्किटेक्ट होने के साथ साथ एक बेहतरीन संगीतकार और संगीत प्रेमी थे, दोनों ने ही बचपन से शिशिर को संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया जिसका परिणाम ये हुआ कि मात्र ६ साल की उम्र में उन्होंने गायन और तबला सीखना शुरू किया, स्कूल प्रतियोगिताओं में रंग ज़माने के बाद उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाल वर्ष के दौरान आल इंडिया रेडियो पर गाने के लिए आमंत्रित किया गया, १५ वर्ष की आयु में उन्होंने अपना पहला स्टेज परफॉर्मेंस (solo ghazal concert) पेश किया. आज वो ख़ुद भी दूरदर्शन और AIR के ग्रेडड आर्टिस्ट हैं और बहुत बार आपने इन्हे दूरदर्शन पर अपनी आवाज़ का जादू बिखेरते हुए देखा भी होगा, अगर नही तो कुछ क्लिपिंग यहाँ से आप देख सकते हैं -

http://in.youtube.com/user/ghazalsingershishir



चाहे वो ग़ज़ल हो, या फ़िर भजन, सुगम संगीत हो या फ़िर हिन्दी फिल्मी गीत, शास्त्रीय गायन हो या फ़िर क्षेत्रीय लोक गीत, शिशिर की महारत गायन की हर विधा में आपको मिलेगी. आज उनके खाते में २००० से भी अधिक लाइव शो दर्ज हैं, विभिन्न विधाओं में उनकी लगभग १०० के आस पास कासेस्ट्स, ऑडियो CDS और VCDs टी सीरीज़ और वीनस बाज़ार में ला चुकी है. "एहतराम" उनकी सबसे ताज़ी और अब तक कि सबसे दमदार प्रस्तुति है जिसकी पीछे बहुत उनकी पूरी टीम ने बहुत मेहनत से काम किया है, यह एक कोशिश है उर्दू अदब के अजीम शायरों को एक tribute देने की, इन ग़ज़लों को आप आवाज़ पर सुन ही चुके हैं. इस खूबसूरत से संकलन से यदि आप अपने सगीत संग्रहालय को और समृद्ध बनाना चाहते हैं तो इस लिंक पर जाकर इस ACD को हमेशा के लिए अपना बना सकते हैं -

http://webstore.tseries.com/product_details.php?type=acd&pid=1985

आवाज़ के लिए विश्व दीपक "तन्हा" ने की शिशिर जी से एक खास मुलाकात, पेश है उसी बातचीत के अंश -

शिशिर जी आपके लगभग १०० से ज्यादा कैसेट्स रीलिज हो चुके हैं। संगीत की दुनिया में आप अपने आप को कहाँ पाते हैं?

संगीत एक महासागर है.इसकी गहराई और विशालता में कौन कहाँ है ये समझ पाना नामुमकिन है.
बस यही कह सकता हूँ .....

अपनी ऊँचाइओं का ज़िक्र मैं क्या करूँ
सामने हूँ मैं, और ऊपर आस्मां है

हालाँकि संगीत के भरोसे अपनी उपजीविका अर्जन करना साधना है, उपासना है, तपस्या है .... मेरी हर एक कैसेट या सीडी मेरेलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस क्षेत्र में जो स्थिरता मुझे मिली है वह मैं नाज़रंदाज़ नहीं कर सकता. प्रत्येक एल्बम में मेरा समर्पण और मुझे सुनने वालों की बढ़ती चाहत, यही मेरी संपत्ति है.

गज़ल, भजन, सुगम संगीत , हिंदी फिल्मी संगीत और क्षेत्रीय (रीजनल) संगीत में आप किसे ज्यादा तवज्जो देते हैं और क्यों?

जैसा कि मैंने कहा संगीत तो महासागर है. चाहे भजन हो, गीत हो, ग़ज़ल हो या फिर लोक संगीत, हर एक का अपना ख़ास अंदाज़ व महत्व है यह सारे अंदाज़ अत्मसाद करके सही तरीके से प्रस्तुत करना यही एक कलाकार की असल कला का मापदंड होता है. इसलिए किसी एक गायन पद्धति या शैली को तवज्जो देना मेरी नज़र में ज्यादती होगी. इनके अलावा भी संगीत के जो प्रकार हैं, उनकी नवीनता स्वीकार करने के लिए सदैव मैं तत्पर रहूँगा. हाँ लेकिन यह कह सकता हूँ कि मैं गा रहा हूँ और सामने श्रोता बैठे हों यानी जब मैं लाइव कंसर्ट करता हूँ तो उसका आनंद और अंदाज़ ही कुछ निराला होता है. मैं ग़ज़ल, भजन व हिन्दी फिल्मी गीतों के लाइव प्रोग्राम्स अक़्सर करता रहता हूँ.

"एहतराम" आपकी जानीमानी गज़लों की एलबम है। इस एलबम के बारे में अपने कुछ अनुभव बताएँ।

एहतराम मेरा ' ड्रीम प्रोजेक्ट ' है. जिन महान शायरों के दम पर उर्दू शायरी का आधार टिका है, उनका एहतराम लाज़मी ही है. मैं पिछले २० वर्षों से लाइव ग़ज़ल कंसर्ट्स करता आ रहा हूँ. मैं चाहता था की मेरे ग़ज़ल अल्बम्स का आगाज़ इन महान शायरों के एहतराम से ही हो. इसके निर्माण की कल्पना के साथ ही मुझे हर जगह से काफी प्रोत्साहन मिला.टी-सीरीज़ के लिए मैंने पिछले कुछ वर्षों में करीब बीस devotional अल्बम्स किए हैं. इस पहले ग़ज़ल अल्बम के लिए भी टी-सीरीज़ के श्री अजीत कोहली जी ने काफी सहयोग दिया व प्रोत्साहित किया और इस ग़ज़ल सीडी को worldwide रिलीज़ किया गया. यह टी-सीरीज़ के webstores पर भी उपलब्ध है.

लोगों की फरमाइश पर एहतिराम की सभी ग़ज़लों को Nairobi, Kenya के १०६.३ ईस्ट फम पर कई बार बजाया गया व विदेशों में भी इसे worldspace Radio पर सुना गया.इसके अलावा दुनियाँ भर की कई जगहों से लगातार e- mails आते रहते हैं.विदेशों में लाइव ग़ज़ल कंसर्ट्स के लिए भी काफी लोग पूछ रहे हैं. इन प्रतिक्रियाओं से यह लगता है की लोगों को ये ग़ज़लें काफी पसंद आ रही है. इन शुरवाती अनुभवों के बाद देखते हैं आगे आगे और क्या क्या अनुभव आते हैं. 'एहतराम' सही मायने में एहतराम के काबिल महसूस हो रहा है ये निश्चित है.

जी सही कहा आपने इन्हे आवाज़ पर भी काफी पसंद किया गया है. "अहतराम" में संजोई गई सारी गज़लें सुप्रसिद्ध शाइरों की है। गज़लों को देखकर महसूस होता है कि गज़लों को चुनने में अच्छी खासी स्टडी की गई है। गज़लों का चुनाव आपने किया है या फिर किसी और की सहायता ली है?

जब तक गानेवाला किसी भी ग़ज़ल के लफ्जों से अच्छी तरह वाकिफ़ न हो वह सही भाव प्रस्तुत नही कर सकता और इसलिए यह सारी मशक्कत मैने ही की है और तहे दिल से की है. अगर आप उर्दू शायरी का इतिहास देखें तो मीर से लेकर दाग़ तक का काल उर्दू शायरी का स्वर्णकाल कहलाता है. उस समय के हर नामचीन शायरों की रचनाओं को पढ़ना, समझना और ख़ास अदा से प्रस्तुत करना यह एक लंबा दौर मैंने गुज़ारा है.काफी सालों से अध्ययन करते करते मेरे पास ग़ज़ल और शायरी से सम्बंधित कई किताबों का अच्छा खासा संग्रह तैयार हो गया है.कुल मिलकर एहतिराम मेरा एक सफल प्रयत्न है यह चाहनेवालों के प्रतिसाद से साबित हो रहा है.

यकीनन शिशिर जी, गज़लों को संगीत से सजाना आप कितना कठिन मानते हैं? चूँकि गज़लें खालिस उर्दू की हैं, तो क्या गज़लों में भाव जगाने के लिए आपके लिहाज से उर्दू की जानकारी नितांत जरूरी है।

निश्चित ही ग़ज़ल की खासिअत यही है की उसके नियमो के आधार पर ही वह खरी उतरती है.किसी शायर ने कहा है-

खामोशी से हज़ार ग़म सहना
कितना दुश्वार है ग़ज़ल कहना

दूसरे शायर कहते हैं -

शायरी क्या है, दिली जज़्बात का इज़हार है
दिल अगर बेकार है तो शायरी बेकार है

ग़ज़ल की बहर के आधार पर और ख़ास लफ्जों के आधार पर तर्ज़ का होना ज़रूरी है. यह निश्चित रूप से थोड़ा कठिन है. अब जिन्हें उर्दू भाषा की जानकारी न हो वह ग़ज़ल के साथ न्याय कैसे कर सकता है? उर्दू भाषा का उच्चारण भी सही होना अनिवार्य है और साथ ही उसके अर्थ को समझना भी. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी ख़ास भाव प्रस्तुत करने के लिए ख़ास रागों का व सुरों का प्रावधान है. उन्ही सुरों में वह प्रभावी भी होता है. इसलिए ग़ज़ल गाने के लिए पुरी तरह उस ग़ज़ल का हो जाना ज़रूरी है ऐसा मैं मानता हूँ. इस सब के बावजूद किसी शायर ने सच कहा है-

ग़ज़ल में बंदिशे-अल्फाज़ ही नहीं सब कुछ
जिगर का खून भी कुछ चाहिए असर के लिए

मराठी पृष्ठभूमि (background) के होने के कारण आपको हिंदी और उर्दू की रचनाओं में संगीत देने और गाने में कोई दिक्कत महसूस होती है?

जैसा कि मैने कहा की ग़ज़ल गाने के लिए उसके प्रति पुरी तरह समर्पित होना ज़रूरी है दरअसल शुरू से हिन्दी व उर्दू मेरी पसंद रही है और मेरा कार्यक्षेत्र रहा है.आज भी हमारे देश में ऐसे कई सफल ग़ज़ल गायक है जिनकी मातृभाषा हिन्दी या उर्दू नहीं है.भाषा किसी की बपौती नहीं है बशर्ते आप उसके प्रति पुरी तरह समर्पित हों. मेरी ग़ज़लों को सुनने वाले कुछ जानकार लोग ही यह तय करें की मै उन ग़ज़लों के साथ न्याय कर पाया हूँ या नहीं.

आपको एक और उदाहरण देना चाहूँगा की कुछ वर्ष पहले मैं गल्फ टूर पर गया था. टीम में अकेला गायक था और वहां तो सभी भाषाओँ के गीत गाने पड़ते थे. मराठी ही क्या, मलयाली, तमिल, तेलगु व पंजाबी सभी श्रोताओं को मैने संतुस्ट किया.

बिल्कुल सही कहा आपने शिशिर जी, भाषा किसी कि बपौती बिल्कुल नही है, ये बतायें आपने सुरेश वाडेकर, अनुराधा पौंडवाल और साधना सरगम जैसे नामी फ़नकारों के साथ भी काम किया है। उनके साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

अनुभव अच्छा ही रहा. वे सभी बहुत अच्छे कलाकार हैं उनसे प्रोत्साहन भी मिला. आगे भी मेरे स्वरबद्ध किए हुआ गाने वो ज़रूर गायेंगे ऐसी उम्मीद है.

बतौर संगीतकार हिंदी फिल्मों में संगीत देने के बारे में आप क्या सोचते हैं?

दरअसल इस क्षेत्र में अपनी सोच ही काफी नहीं होती पर फ़िल्म में संगीत देना कौन नहीं चाहेगा? मुझे अलग अलग प्रकार के गीत, भजन, ग़ज़ल, क्षेत्रीय संगीत को स्वरबद्ध करने का या संगीत देने का अनुभव रहा है. ग़ज़ल, भजन के अलावा फिल्मी गीतों पर आधारित नए पुराने गानों के लाइव प्रोग्राम्स भी कई सालों से करता आ रहा हूँ. लोगों की पसंद मैं काफी हद तक समझता हूँ. इसके अलावा कई टेलिविज़न सेरिअल्स में भी संगीत दिया व प्लेबैक किया है. इसलिए मौका मिला तो फ़िल्म संगीत में भी पुरा न्याय करूँगा ये मेरा विश्वास है.


संगीत की दुनिया में संघर्ष का क्या स्थान है? चूँकि आप एक मुकाम हासिल कर चुके हैं, इस क्षेत्र में नए लोगों को आप क्या सलाह देना चाहेंगे?

संघर्ष जीवन का अविभाज्य अंग है. जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष ज़रूरी है जितने भी बड़े कलाकार है वो संघर्ष के बिना ऊपर नहीं आए हैं.पर हाँ किस्मत भी अपनी जगह महत्व रखती है पर सबसे ज़रूरी है लगन और लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्ष की तैयारी. प्रातियोगिता आज सर चढ़ कर बोल रही है. हर नए कलाकार को इस प्रवाह में ख़ुद को प्रवाहित करना ज़रूरी है और जब प्रवाहित होना ही है तो तैरना सीख लेना फायदेमंद होगा . मतलब यह कि पहले संपूर्ण संगीत का ज्ञान और बाद में बदलते समय के साथ संगीत के प्रति समर्पण और न्याय. अर्जुन की तरह बस आँख देखते रहे और निशाना लगते रहे क्योंकि-

कोशिश जब तेरी हद से गुज़र जायेगी
मंजिल ख़ुद ब ख़ुद तेरे पास चली आएगी

भविष्य के लिए आपकी क्या योजनाएँ हैं?

फिलहाल तो लाइव प्रोग्राम्स ख़ास कर ग़ज़लों की महफिलों में व्यस्त हूँ. अगले ग़ज़ल एल्बम की तैयारी चल रही है एक बिल्कुल नए शायर के साथ. और बहुत से प्लान्स हैं आगे आपको बताते रहूँगा. हिंद युग्म के साथ एक लम्बी पारी की उम्मीद कर रहा हूँ, कुछ योजनाओं पर बात चल रही है देखते हैं कहाँ तक बात पहुँचती है.

बहुत से नए कलाकारों को आवाज़ एक मंच दे चुका है. ये सब अभी अपने शुरुवाती दौर में हैं. और आप बेहद अनुभवी. इन नए कलाकारों के लिए आप क्या सदेश देना चाहेंगे ?

चाहे शायर हो,गायक या संगीतकार उनके अवश्यकता के अनुसार उचित मार्गदर्शन व सहयोग देने के लिए मै सदा तैयार हूँ. किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए आप हिंद युग्म या मुझे shishir.parkhie@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

आप संगीत के क्षेत्र में यूँ हीं दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करते रहें हिंद युग्म परिवार यही दुआ करता हैं.

शिशिर पारखी जी का संपर्क सूत्र -

Shishir parkhie
Singer & Music Composer
13, Kasturba Layout, Ambazari, Nagpur
Mahashtra, India. Zip- 440033
Cell:00919823113823
Land: 91-712-2241663

Wednesday, October 15, 2008

एहतराम की अंतिम कड़ी- मीर तकी 'मीर' की ग़ज़ल



एहतराम - अजीम शायरों को सलाम

इस श्रृंखला में अब तक हम ६ उस्ताद शायरों का एहतराम कर चुके हैं. आज पेश है शिशिर पारखी साहब के आवाज़ में ये आखिरी सलाम अजीम शायर मीर के नाम, सुनिए ये लाजवाब ग़ज़ल-

हस्ती अपनी हुबाब की सी है ।
ये नुमाइश सराब की सी है ।।

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए,
हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है ।

चश्मे-दिल खोल इस भी आलम पर,
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है ।

बार-बार उस के दर पे जाता हूँ,
हालत अब इज्तेराब की सी है ।

मैं जो बोला कहा के ये आवाज़,
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ।

‘मीर’ उन नीमबाज़ आँखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है ।

हुबाब=bubble; सराब=illusion, mirage
इज्तेराब=anxiety, नीमबाज=half open



मीर तकी 'मीर'

आगरा में रहने वाले सूफी फ़कीर मीर अली मुत्तकी की दूसरी पत्नी के पहले पुत्र मुहम्मद तकी, जिन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में मीर तकी 'मीर' के नाम से जाना जाता है का जन्म वर्ष अंदाज़न 1724 ई. माना गया है. वैसे एकदम सही जन्म वर्ष का भी कहीं लेखा जोखा नहीं मिलता. ख़ुद मीर तकी 'मीर' ने अपनी फारसी पुस्तक 'जिक्रे मीर' अपना संक्षिप्त सा परिचय दिया है उसी से उनका जन्म वर्ष आँका गया है. मीर के पूर्वज साउदी अरेबिया (हेजाज़) से हिंदुस्तान में आए थे. दस वर्ष के होने पर मीर के पिता का इंतकाल हो गया. सौतेले भाई मुहम्मद हसन ने पिता की संपत्ति पर हक़ जमा लिया और क़र्ज़ देने का बोझ इन पर डाल दिया. पिता के किसी मित्र के एक शिष्य की मदद से मीर ने कर्जा उतार दिया और नौकरी खोजने दिल्ली चले आए. यहाँ नवाब सम्सामुद्दौला ने मीर साहब को एक रूपए रोजाना गुजारे का दे कर उन्हें कुछ सहारा दिया.



यहीं इन्हें ज़ुबान-ओ-अदब सीखने का भी मौक़ा मिला। कुछ अच्छे शायरों की सोहबत भी मिली जिससे इनकी शायरी का ज़ौक़ परवान चढ़ा। मीर की घरेलू हालत बद से बदतर होती जा रही थी लेकिन शे'र-ओ-अदब का ख़ज़ाना रोज़-ब-रोज़ बढ़ता जा रहा था। रफ़्ता-रफ़्ता मीर ने वो मक़ाम शायरी में हासिल कर लिया कि ग़ालिब जैसे शायर को भी कहना पड़ा कि

रेख़ती के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था

पर जब नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया तो नवाब सम्सामुद्दौला उसमें मारे गए. कुछ समय बाद मीर साहब को सहारा तो मिला पर वहां उन पर एक आफत सी आ गई. उनके सौतेले भाई के मामा खान आरजू एक मशहूर शायर थे. मीर साहब को उन्होंने ने अपने यहाँ रखा. पर मीर साहब कुछ समय बाद पगला से गए क्यों की उन्हें खान आरजू की बेटी से इश्क हो गया और उन्हें चाँद में भी अपनी महबूबा नज़र आने लगी. किसी फखरुद्दीन नाम के भले मानुष ने हकीमों की मदद से उनका इलाज किया. कुछ और भले लोगों के सहारा मिलने पर वे मुशायरों में जाने लगे और शायरी में शुरूआती तौर पर अच्छी तरक्की कर ली. खान आरजू से उनके रिश्ते बिगड़ चुके थे और उनके घर से अलग हो कर एक दिन वे किसी रियायत खान के यहाँ नौकरी करने लगे. फ़िर वहां भी बिगड़ गई. इस तरह कुछ लोगों से बनाते बिगाड़ते वे किसी राजा नागर मल के दरबार में लग गए. फ़िर वे पहुँच गए सूरज मल जाट के दरबार में. पर हालात कुछ ऐसे बने कि वे फ़िर रजा नागर मल के यहाँ पहुँच गए. अब तक कई सहारे तो बदले पर इस बीच वे खासे मशहूर हो गए. दिल्ली के बादशाह आलमगीर II के पास भी रहे. पर लडाइयों और मारकाट ने उनके शायराना दिल को पस्त कर दिया.आख़िर मीर साहब को परिस्थितियों ने पहुँचा दिया लखनऊ, जहाँ अवध के नवाब आसफ उद्दौला ने जब उन्हें अपने यहाँ शरण दी तो उन्होंने एक प्रकार से जीवन भर की दिल्ली और दिल्ली से बाहर की भटकन के बाद निजात पाई.नवाब साहब के साथ घोडे पर सवार मीर तकी 'मीर' शिकार पर बहराइच गए तो 'शिकार-नामा लिखा. फ़िर वे नवाब के साथ हिमालय के तलहटियों में गए तो एक और 'शिकार-नामा' लिखा. यहीं से वे शायरी के शिखर तक पहुँच कर चौतरफ मशहूर भी हो गए. वैसे परिस्थितियों ने उन्हें इतने कड़वे अनुभव दिखाए के शख्सियत के तौर पर मीर साहब बेहद बदमिजाज व्यक्ति माने जाते थे जो कई बार उनका अपमान करते भी देर न करते थे जो उन्हें सहारा देते थे. उनका गुरूर अक्सर बर्दाश्त से बाहर हो जाता था. मीर ख़ुद अपनी कलम से लिखते हैं:

सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग
है मजलिसों में नाम मेरा 'मीरे' बेदिमाग.

उर्दू के इस अज़ीम शायर का इंतिक़ाल सन 1810 में लखनऊ में हुआ। आज हम यहाँ उनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।

मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
हैरती है ये आईना किस का

शाम से कुछ बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चराग़ मुफ़लिस का

फ़ैज़ अय अब्र चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसीअ है इसका

ताब किसको जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस का

कठिन शब्दों के अर्थ
हैरती---चकित, ताज्जुब में, मुफ़लिस---ग़रीब आदमी
फ़ैज़----लाभ, फ़ायदा, चश्म-ए-तर ---आंसू बहाती हुई आँख
अब्र---बादल, वसीअ-----फैला हुआ, विशाल
ताब--- ताक़त, फ़ुरसत, मजलिस---- महफ़िल, सभा

राहे-दूरे-इश्क़ से रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

ग़ैरते-युसुफ़ है ये वक़्ते-अज़ीज़
मीर इसको रायगाँ खोता है क्या

कठिन श्ब्दों के अर्थ
राहे-दूरे-इश्क़----- इश्क़ के लम्बे रास्ते
सब्ज़-----हरी, सरज़मीं-----धरती
तुख़्मे-ख़्वाहिश -----इच्छाओं के बीज
वक़्ते-अज़ीज़------बहूमूल्य समय
रायगाँ------फ़िज़ूल--बेकार---व्यर्थ

Ghazal - Hasti Apni Hubab ki si...
Artist - Shishir Parkhie
Album - Ahetaram

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले...मिर्जा ग़ालिब / शिशिर पारखी



एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक -06 )

आज शिशिर परखी साहब एहतराम कर रहे है उस्तादों के उस्ताद शायर मिर्जा ग़ालिब का, पेश है ग़ालिब का कलाम शिशिर जी की जादूभरी आवाज़ में -

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूराँ-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

साक़ी गरी की शर्म करो आज वर्ना हम
हर शब पिया ही करते हैं मेय जिस क़दर मिले

तुम को भी हम दिखाये के मजनूँ ने क्या किया
फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं के ख़िज्र की हम पैरवी करें
माना के एक बुज़ुर्ग हमें हम सफ़र मिले

आए साकनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना
तुम को कहीं जो ग़लिब-ए-आशुफ़्ता सर मिले

तस्कीं : Consolation, ज़ौक़ _ Taste, हूराँ - Fairy, ख़ुल्द - Paradise
ख़ल्क़ - People, पिन्हाँ - Secret, साकनान - Inhabitants, Steady
कुचा - Narrow lane, आशुफ़्ता सर - Uneasy, Restless.



सदी के सबसे महान शायर का एक संक्षिप्त परिचय -

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

मिर्जा असद्दुल्लाह खान जिन्हें सारी दुनिया मिर्जा 'ग़ालिब' के नाम से जानती है का जन्म आगरा में 27 दिसम्बर 1797 को आगरा में हुआ. उनके दादा मिर्जा कोकब खान समरकंद से हिन्दुस्तान आए और लाहौर में मुइनउल मुल्क के यहाँ नौकर लग गए. उनके बड़े बेटे अब्दुल्लाह बेग से मिर्जा गालिब हुए. अब्दुल्लाह बेग नवाब आसिफ उद्दौला की फौज में शामिल हुए और फ़िर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहाँ लग गए. पर जब मिर्जा गालिब महज़ 5 वर्ष के थे तब एक लड़ाई में शहीद हो गए. मिर्जा गालिब को तब उनके चचा जान नस्रउल्लाह बेग खान ने संभाला पर गालिब के बचपन में अभी और दुःख शामिल होने थे. जब वे 9 साल के थे तब चचा जान भी चल बसे. जब मिर्जा 13 वर्ष के थे तब उनका निकाह हुआ, सात बच्चे भी हुए पर अफ़सोस की एक के बाद एक उन पर बिजली गिरती चली गई. सातों बच्चे जाते रहे. मिर्जा की निजी जिंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी. तभी तो लिखा उन्होंने -

दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.


मिर्जा ने दिल्ली में 'असद' नाम से शायरी शुरू की. ‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो थीं, भाषा तथा शैली के ‘चमत्कार ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) के वर्णन तक सीमित थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता एवं नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए और निराशावाद के बिल में दुबक गया। इसे समय में ‘ग़ालिब’ ने

दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग।
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?

और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद।
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।।

की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :

बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल।
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए।।

की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस संसार की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन समस्त विरोधों और निन्दाओं को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और।।

उनकी पुश्तैनी जागीरें ज़ब्त कर ली गई थी. वे पेंशन पाने के लिए सरकारी दरवाजों पर भटकने लगे. उनकी खोई हुई जागीर के बदले उनके और रिश्तेदारों के लिए दस हज़ार रुपये सालाना जागीर तय हुई पर असल में मिली सिर्फ़ तीन हज़ार, जिस में से उनका हिस्सा सात सौ रूपए सालाना था. उन्होंने शिकायत की तो रेसिडेंट बहादुर बर्खास्त हुए पर रकम में कुछ इजाफा न हुआ. दिल्ली के बादशाह ने पचास रूपए महीना वजीफा बाँधा पर इस फैसले के दो साल बाद उस के उत्तराधिकारी चल बसे. अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने पाँच सौ रूपए सालाना मुक़र्रर किए पर दो साल बाद वह भी नहीं रहा.

क़र्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हाँ।
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।।

पर अमल करते हुए चालीस-पचास हज़ार के ऋणी हो गए; और एक दीवानी मुक़दमे के सिलसिले में जब उनके विरुद्ध 5000 रुपये की डिगरी हो गई, तो उनका घर से बाहर कदम रखना असम्भव हो गया। (उन दिनों यह नियम था कि यदि ऋणी कोई सम्मानित व्यक्ति हो तो डिगरी की रक़म अदा न करने की हालत में उसे केवल उस समय गिरफ़्तार किया जा सकता था जब वह अपने घर की चारदीवारी से बाहर हो।) यह इन्हीं और भावी विपत्तियों की ही देन थी कि उनके क़लम से :

रंज से ख़ूगर * हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज।
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।।

* ख़ूगर- अभ्यस्त

गालिब ने 1857 का ग़दर भी आंखों से देखा और हर किस्म की राजनैतिक हलचल भी. शायरों में पूरी दुनिया में शायद उनका कोई सानी नहीं. गालिब फारसी बोली के विद्वान् थे इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा फारसी में लिखा. बहुत नगण्य सा उर्दू में लिखा जो आज उर्दू शायरी की एक अनमोल विरासत है. गालिब की कुछ लोकप्रिय ग़ज़लों का आनंद लें -

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।

होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।

ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = Children’s Playground
शब-ओ-रोज़ = Night and Day
निहाँ = निहान = Hidden, Buried, Latent
जबीं = जबीन = Brow, Forehead
कुफ़्र = Infidelity, Profanity, Impiety
कलीसा = Church
जुम्बिश = Movement, Vibration
सागर = Wine Goblet, Ocean, Wine-Glass, Wine-Cup
मीना = Wine Decanter, कंटेनर

( २ )

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है।

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है।

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैंने नहीं जानता दुआ क्या है।

मुश्ताक़ = Eager, Ardent
बेज़ार = Angry, Disgusted

( ३ )

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?

ग़ुफ़्तगू = Conversation
अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू = Style of Conversation
पैराहन = Shirt, Robe, Clothe
हाजत-ए-रफ़ू = Need of mending (हाजत = Need)
गुफ़्तार = Conversation
ताक़त-ए-गुफ़्तार = Strength for Conversation


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सन 1879 में गालिब का इंतकाल हुआ और उनकी मजार दिल्ली में हज़रात निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास है.

हाज़िर जवाब ग़ालिब साहब कुछ रोचक किस्से -

पुल्लिंग या स्त्रीलिंग
शब्दों को लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब के कई लतीफ़ा प्रसिद्ध हैं । उनमें से एक प्रस्तुत है । दिल्ली में ‘रथ’ को कुछ लोग स्त्रीलिंग और कुछ लोग पुल्लिंग मानते थे । किसी ने मिर्ज़ा से एक बार पूछा कि “हज़रत रथ मोअन्नस (स्त्रीलिंग) है या मुज़क्कर (पुल्लिंग) है?” मिर्ज़ा तपाक से बोले- “भैया, जब रथ में औरतें बैठी हो तो उसे मोअन्नस कहो और जब मर्द बैठे हों तो मुज़क्कर समझो ।”

आधा मुसलमान हूँ
अपनी हाज़िरजवाबी और विनोदवृत्ति के कारण मिर्ज़ा जहाँ कई बार कठिनाईयों में फँस जाते थे वहीं कई बार बड़ी-बड़ी मुसीबतों से बच निकलते थे ।ग़दर के दिनों की बात है । उन दिनों का माहौल ऐसा था कि अँगरेज़ सभी मुसलमानों को शक की नज़र से देखते थे । दिल्ली लगभग मुसलमानों से खाली हो गयी थी । पर ग़ालिब थे कि वहीँ चुपचाप अपने घर में पड़े रहे । आखिर एक दिन कुछ गोरे सिपाही उन्हें भी पकड़कर कर्नल ब्राउन के पास ले गये । जब ग़ालिब को कर्नल के सम्मुख उपस्थित किया गया मिर्ज़ा के सिर पर ऊँची टोपी थी । वेशभूषा भी अजब थी । कर्नल ने मिर्ज़ा की यह सजधज देखी तो पूछा- “वेल टुम मुसलमान ?”
मिर्ज़ा ने कहा- “आधा ।”
कर्नल से पूछा- “इसका क्या मटलब है ?”
मिर्ज़ा बोले- “मतलब साफ है, शराब पीता हूँ, सुअर नहीं खाता ।“
कर्नल सुनकर हँसने लगा और हँसते-हँसते मिर्ज़ा को घर लौटने की इजाजत दे दी ।

तुम सौदाई हो
बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ज़ौक की मिर्ज़ा से कुछ ठस रहती थी । ग़ालिब जो भी कहते वे उसे काटने की फ़िराक में रहते थे । अक्सर दोनों में छेड़छाड़ चलती रहती थी । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । उन्होंने सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “ मैं तो तुमको मीरी* समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई* हैं ।”

* मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल ।

ख़ुदा या आप
बात उन दिनों की है जब रामपुर के नवाब यूसुफ़ अली खाँ का इंतकाल हो चुका था और नये नवाब क़लब अली खाँ गद्दी पर बैठ चुके थे । मियां मिर्ज़ा मातमपुर्सी और नये नवाब के प्रति आदर प्रकट करने के लिए रामपुर जा पहुँचे । उस दिन कलब अली लेफ्टिनेंट गवर्नर से मिलने बरेली जा रहे थे । रवानगी के वक़्त, परंपरा का ख़याल करते हुए मिर्ज़ा से उन्होंने कहा- “ख़ुदा के सुपुर्द ।”
मिर्ज़ा झट बोल उठे- “हजरत ! ख़ुदा ने तो मुझे आपके सुपुर्द किया है । आप फिर उलटा मुझको ख़ुदा के सुपुर्द करते हैं ” सारे लोग हँस पड़े ।

बीबी पास
एक बार गालिब के घर कोई उनका प्रशंसक मिलने आया. गालिब साहब अपने शयन कक्ष में सपत्नीक बैठे थे. आगंतुक ने बैठक में बैठे नौकर को अपना 'विजिटिंग-कार्ड' दिया कि गालिब साहब से गुजारिश कीजिये की यह शख्स आपसे मिलने चाहता है. पर फ़िर उस व्यक्ति ने अपना 'विजिटिंग कार्ड' ले कर उस में फाउंटेन पेन से अपने नाम के आगे बी.ए. जोड़ दिया, क्यों कि उस ने कार्ड छपवाने के बाद बी.ए. पास किया था. नौकर आगंतुक का आग्रह देख कर किसी प्रकार गालिब से इजाज़त ले कर अन्दर गया और 'विजिटिंग-कार्ड' दिखाया. थोडी देर बाद नौकर बाहर आया और आगंतुक को उनका कार्ड वापस दे दिया. कार्ड के पीछे गालिब ने एक शेर लिख दिया था:

शेख जी घर से न निकले और यह कहला दिया
आप बी ए पास हैं तो मैं भी बीबी पास हूँ

आलेख प्रस्तुतीकरण सहयोग - प्रेमचंद सहजवाला

सुनो कहानी: अकेली - मन्नू भंडारी की कहानी



मन्नू भंडारी की एक सुंदर कहानी-अकेली का प्रसारण

'सुनो कहानी' के अंतर्गत आज हम आपके लिए लेकर आए  हैं मन्नू भंडारी जी की एक सुंदर कहानी-अकेली. इस कहानी में सोमा नाम की एक प्रौढ़ महिला की व्यथा का वर्णन है. सोमा अकेली थी इसी कारण अपने आस पास के लोगों के सुख दुःख में बिना बुलाये जाती और उन सबकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढ रही थी किंतु स्वार्थी लोगों और सम्बन्धियों के व्यवहार से टूट जाती है. आईये सुनें  "अकेली", जिसको स्वर दिया है शोभा महेन्द्रू ने। शोभा जी का नाम आवाज़ के श्रोताओं के लिए नया नहीं है. उनकी रचनाएं हमें हिंद-युग्म पर पढने को और पॉडकास्ट कवि सम्मलेन में सुनने को मिलती रही हैं. शिक्षक दिवस के अवसर पर हमने प्रेमचंद की कहानी प्रेरणा को शोभा जी के स्वर में प्रस्तुत किया था. इसके अलावा शोभा जी की आवाज़ को विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी 'स्वेटर' के नाट्य रूपांतर में भी बहुत पसंद किया गया था. सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

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#Suno Kahani, Story, Akeli Si: Mannu Bhandari/Hindi Audio Book. Voice: Shobha Mahendru

Tuesday, October 14, 2008

वो मिजाज़ से बादशाह कम शायर ज्यादा था...उस्ताद शायर बहादुर शाह ज़फ़र को सलाम - शिशिर पारखी



एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक - ०५ )
इश्क में क्या क्या मेरे जुनूँ की.... सुनिए ज़फ़र का कलाम शिशिर की आवाज़ में
ग़ज़ल के स्वर्णिम युग की दास्तान इस बादशाह शायर के ज़िक्र बिना अधूरी है. पहले सुनते हैं अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र का ये कलाम. फनकार है एक बार फ़िर शिशिर पारखी.



बादशाह शायर का संक्षिप्त परिचय -

बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था। वह अपने पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद 28 सितंबर 1838 को दिल्ली के बादशाह बने। उनकी मां ललबाई हिंदू परिवार से थीं.

बहादुर शाह ज़फ़र भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्युहुई.

हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।


इस समय हिंदी और उर्दू के आलिम-ओ-फाजिल जिस नुक्त-ए-नजर से शायद उस दौर को देखने की जहमत नहीं उठा रहे हैं. जफर न सिर्फ एक अच्छे शायर थे बलि्क मिजाज से भी बादशाह कम, एक शायर ज्यादा थे. मुगल सल्तनत के आखिरी ताजदार बहादुरशाह जफर अपनी एक गजल में फरमाते हैं-

या मुझे अफ़सरे-शाहाना बनाया होता
या मेरा ताज गदायाना बनाया होता
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरदमंद बनाया न बनाया होता

यानी मुझे बहुत बड़ा हाकिम बनाया होता या फिर मुझे सूफ़ी बनाया होता, अपना दीवाना बनाया होता लेकिन बुद्धिजीवी न बनाया होता. भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के 150 साल पूरे होने पर जहाँ बग़ावत के नारे और शहीदों के लहू की बात होती है वहीं दिल्ली के उजड़ने और एक तहज़ीब के ख़त्म होने की आहट भी सुनाई देती है. ऐसे में एक शायराना मिज़ाज रखने वाले शायर के दिल पर क्या गुज़री होगी जिस का सब कुछ ख़त्म हो गया हो. बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने मरने को जीते जी देखा और किसी ने उन्हीं की शैली में उनके लिए यह शेर लिखा:

न दबाया ज़ेरे-ज़मीं उन्हें,
न दिया किसी ने कफ़न उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें,
न कहीं निशाने-मज़ार है

दिल्ली से अपने विदा होने को बहादुर शाह ज़फ़र ने इन शब्दों में बांधा है:

जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले
बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले

न बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने की
खुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले

बहादुर शाह ज़फ़र ने दिल्ली के उजड़ने को भी बयान किया है. पहले उनकी एक ग़ज़ल देखें जिसमें उन्होंने उर्दू शायरी के मिज़ाज में ढली हुई अपनी बर्बादी की दास्तान लिखी है:

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो अरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

ज़फ़र की कुछ और बेहतरीन ग़ज़लें मुलाहज़ा फरमायें -

(1)

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ाँ में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पये फ़ातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढाये क्यूँ
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँफ़िशाँ मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुख की पुकार हूँ

(2)

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

अक्स-ए-रुख़-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
ताब तुझ में माह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है "ज़फ़र" से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

(३)

खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बग़ैर
पर दिल की जान लेते हैं दिलबर कहे बग़ैर

मैं क्यूँकर कहूँ तुम आओ कि दिल की कशिश से वो
आयेँगे दौड़े आप मेरे घर कहे बग़ैर

क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बग़ैर

बेदर्द तू सुने ना सुने लेक दर्द-ए-दिल
रहता नहीं है आशिक़-ए-मुज़तर कहे बग़ैर

तकदीर के सिवा नहीं मिलता कहीं से भी
दिलवाता ऐ "ज़फ़र" है मुक़द्दर कहे बग़ैर

Ghazal - Ishq men kya kya...
Artist - Shishir Parkhie
Album - Ahetaram


एहतराम के अगले अंक में मिलिए और सुनिए शायरों के शायर, उस्तादों के उस्ताद मिर्जा ग़ालिब साहब को...

अदा की आड़ में खंजर.... सुनिये उस्ताद शायर अमीर मिनाई की ग़ज़ल - शिशिर पारखी



एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक ०४ )

शिशिर परखी के स्वरों में जारी है सफर एहतराम का, आज के उस्ताद शायर हैं अमीर मीनाई.
निदा फाजिल साहब के शब्दों में अगर ग़ज़ल को समझें तो -
"गजल केवल एक काव्य विधा नहीं है, यह उस संस्कृति या कल्चर को परिभाषित करती है जो गतिशील है और जो पल-पल बदलता रहता है।विश्व-साहित्य में यह एकमात्र अकेली विधा है जो महात्मा बुद्घ की मूर्ति की तरह जहाँ भी आती है अपने रूप-रंग, नैन-नक्श से वहीं की बन जाती है। "

ग़ज़ल की इससे बेहतर परिभाषा क्या होगी.



हजरत अमीर मीनाई (1828 –1901) लखनऊ में जन्में और रामपुर के सूफी संत अमीर शाह के शिष्य बने. अगर मीर और ग़ालिब ज़िंदगी पर एतबार के शायर थे तो दाग़ और अमीर बाज़ार के कारोबारी थे...उनके शेर हम आमो-खास की जुबां पर चढ़ जाते थे. देखिये ये बानगी -

सुनी एक भी बात तुमने न मेरी
सुनी हमने सारे ज़माने की बातें

अंगूर में थी ये शै पानी की चार बूँदें
जिस दिन से खिंच गई है तलवार हो गई है

और

खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है

या फ़िर ये -

किसी अमीर की महफ़िल का ज़िक्र क्या है अमीर
खुदा के घर भी न जाऊँगा बिन बुलाए हुए

पेश है ऐसे ही तेवर लिए हुए हजरत अमीर कि ये दिलकश ग़ज़ल, शिशिर जी ने एक बार यहाँ फ़िर वैसा ही रंग जमाया है,



इस गुरूवार को हम लेकर हाज़िर होंगे शिशिर पारखी जी एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आवाज़ पर. तब तक एहतराम का सफर हम जारी रखेंगे.

Ghazal - Ada kii aad men...
Artist - Shishir Parkhie
Album - Ahetram

राकेश खंडेलवाल की पुस्तक के विमोचन-समारोह के वीडियो-अंश



साथ में समीरलाल, राकेश खंडेलवाल, रजनी भार्गव, अनूप भार्गव, घनश्याम गुप्ता और डॉ॰ सत्यपाल आनंद का काव्य-पाठ


शनिवार ११ अक्टूबर २००८ को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि राकेश खंडेलवाल के कविता संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' का एक साथ तीन जगहों से विमोचन हुआ। पहला तो पुस्तक के प्रकाशक पंकज सुबीर के शहर सीहोर में, दूसरा इसी मंच पर आम श्रोताओं द्वारा और तीसरा वाशिंगटन डीसी में। इस ब्लॉग पर आप विमोचन और काव्य पाठ का आनंद तो ले ही चुके हैं। आज हम लाये हैं, अनूप भार्गव की मदद से तैयार वाशिंगटन समारोह के कुछ वीडियो-अंश।

डॉ॰ सत्यपाल आनन्द जी राकेश जी के बारे में अपने विचार रखते हुए



पुस्तक का विमोचन करते हुए डॉ॰ सत्यपाल आनंद



घनश्याम गुप्ता जी काव्य पाठ



घनश्याम गुप्ता जी काव्य पाठ - २



समीर लाल काव्य पाठ



डॉ. सत्यपाल आनन्द काव्य पाठ



रजनी भार्गव का काव्य-पाठ



अनूप भार्गव का काव्य-पाठ



'अंधेरी रात का सूरज' (कविता-संग्रह) के विमोचन समारोह में काव्य पाठ करते राकेश खंडेलवाल



यदि आपने अभी तक खुद के हाथों इस कविता-संग्रह का विमोचन नहीं किया तो यहाँ क्लिक करके अवश्य करें।

Monday, October 13, 2008

शिशिर पारखी की आवाज़ में मिर्जा दाग़ दहलवी की ग़ज़ल



एहतराम - अज़ीम शायरों का सलाम

"एहतराम - अजीम शायरों को सलाम" की अगली कड़ी के रूप में आईये सुनें शिशिर पारखी की बेमिसाल आवाज़ में उस्ताद शायर मिर्जा दाग़ दहलवी की ये ग़ज़ल -




आज एक उस्ताद शायर हैं मिर्जा दाग़ दहलवी - एक संक्षिप्त परिचय

मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद शैख़, ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़स में पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर 100 रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’ ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई
यूँ अपने ज़माने में एक-से-एक बढ़कर उस्ताद एवं ख्याति-प्राप्त शाइर हुए, मगर जो ख्याति और शुहरत अपनी ज़िन्दगीमें ‘दाग़’ को मिली, वह औरों को मयस्सर नहीं हुई। भले ही आज उनकी शाइरी का ज़माना लद गया है और मीर, दर्द, आतिश, ग़लिब, मोमिन, ज़ौक़, आज भी पूरे आबो-ताबके साथ चमक रहे हैं। लेकिन अपने ही जीवनकाल में उन्हें ‘दाग़’-जैसी ख्याति प्राप्त नहीं हो सकी।

जनसाधराण के वे महबूब शायर थे। उनके सामने मुशाअरो में किसी का भी रंग नहीं जमने पाता था। हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -‘‘मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्बअली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहब का शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरों को जाते थे।

‘‘एक बार मुंशी ‘मुनीर’ शिकोहाबादीने सरे-दरबार हजरत ‘दाग़’ का दामन थामकर कहा कि-‘क्या तुम्हारे शेर लोगों की ज़वानों पर रह जाते हैं और मेरे शेरों पर लोंगों की न ख़ास तवज्जह होती है, न कोई याद रखता है।’ इसपर जनाब ‘अमीर मीनाई’ ने फ़र्माया- ‘‘यह खुदादाद मक़बूलियत है, इसपर किसी का बस नहीं।’’

यह मशूहूर है कि दाग़ की ग़ज़ल के बाद मुशआर के किसी शाइर का शेर विर्दे-जबा़न न होता था। ‘असीर’ (अमीर मीनाई के उस्ताद) का मक़ूला है कि वह कलाम पसन्दीदा है, जो मुशाअरे से बाहर जाये। फ़र्माते थे कि मैंने बाहर जाने वालों में अक्सर मिर्जा ‘दाग़’ का शेर बाहर निकलते देखा है।

हज़रत मुहम्मदअली खाँ ‘असर’ रामपुरी लिखते हैं-‘‘जब ‘दाग़’ मुशाअरे में अपनी ग़ज़ल सुनाते थे, तो रामपुर के पठान उन्हें सैकड़ों गालियाँ देते थे। दारियाफ़्त किया गया कि गालियों का क्या मौका था। पता चला कि कलाम की तासीर (असर) और हुस्ने-कुबून (पसन्दीदगी) का यह आलम था कि पठान बेसाख्ता चीख़ें मार-मार कर कहते थे कि-‘उफ़ ज़ालिम मार डाला।’ ओफ़्फोह ! गला हलाल कर दिया। उफ़-उफ़ सितम कर दिया, ग़ज़ब ढा दिया।

एक दिन नवाब खुल्द-आशियाँने नवाब अब्दुलखाँ से पूछा कि ‘दाग़’ के मुतअल्लिक़ तुम्हारी क्या राय है। जवाब दिया कि -‘‘तीतड़े में गुलाब भरा हुआ है।’’ मक्सद यह है कि सूरत तो काली है, लेकिन बातिन (अंतरंग) गुलहार-मआनीकी खुशबुओ (कविता-कुसुम की सुगन्धों) से महक रहा है।



जब उनकी ग़ज़ले थिरकती थीं। यहाँ तक कि उनकी ख्यातिसे प्रभवित होकर उनके कितने समकालीन शाइर अपना रंग छोड़कर रंगे-दाग़ में ग़ज़ल कहने लगे थे। दाग़ की ख्याति और लोक-प्रियता का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्त में ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था और उन दिनों क्यों, आज भी ऐसे शाइर मौजूद हैं, जिन्हें ब-मुश्किल एक-दो ग़ज़लों पर इस्लाह लेना नशीब होगा, फिर भी बड़े फ़ख़्र के साथ अपनेको मिर्जा ‘दाग़’ का शिष्य कहते हैं।

मिर्जा दाग़ के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरु का उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। हालाँकि शाइरीमें उत्तराधिकारी स्वरूप कुछ भी प्राप्त नहीं होता। शाइरी तो उस स्रोत के समान है, जो पृथ्वी से स्वयं फूट निकलता है। यह अन्य पेशे की तरह वंश परम्परागत नहीं चलता। यह ज़रूरी नहीं कि शाइर की संतान भी शाइर हो।

मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, आतिश, मुस्हफ़ी के पिता शाइर नहीं थे। उनकी सन्तान भी शाइरों में कोई उल्लेख योग्य नहीं। शाइर अपने कलाम से ही ख्याति पाता है। यह समझते हुए भी कई शाइर ‘जानशीने-दाग़’ कहलाने का मोह नहीं त्याग सके।

नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है। बीसवीं शताब्दी-का वह प्रारम्भिक युग ही ऐसा था कि दाग़के नाम पर हर शाइर अपने-को उस्ताद घोषित कर सकता था। जैसे कि आज गान्धीके नाम पर हर कांग्रेसी अपने को पुजवा सकता है और उल्टी-सीधी हर बात गान्धी के नाम पर जनता के गले के नीचे उतार सकता है।

यद्यपि ‘दाग़’ के जीवनकाल में ही उनकी शाइरी पर आक्षेप होने लगे थे। उनकी शाइरी को निम्नस्तर की, शोख़, बाज़ारू,-शाइरी समझा जाने लगा था। फिर भी ‘दाग़’ के परिस्तार एवं प्रशंसक बहुत अधिक संख्या में थे। समस्त भारतमें उनके कलामकी धूम एवं चाहत थी।

दाग़ जन्न्त-नशीं हुए तो ऊर्दू-संसारमें सफें-मातम बिछ गई। औरों–का तो ज़िक्र ही क्या, सर ‘इकबाल’ –जैसा गम्भीर शाइर अपने उस्ताद की मौत पर टस-टस रो पड़ा।

सुनिए इब्राहीम ज़ौक का कलाम और शिशिर पारखी की आवाज़



एहतराम - अज़ीम शायरों को सलाम ( अंक - ०२ )

आवाज़ मशहूर ग़ज़ल गायक शिशिर पारखी के साथ मिल कर संगीतमय स्मरण कर रहा है उस्ताद शायरों का, जिन्होंने ग़ज़ल लेखन को बुलंदियां से नवाजा. हम थे ग़ज़ल के सुनहरे दौर में जहाँ एक शाहंशाह जो ख़ुद भी शायर था और जिसके दरबार में हर शाम ग़ज़लों की महफिलें आबाद होती थी. मोमिन खान मोमिन के बाद आईये ज़िक्र करें इब्राहीम ज़ौक का. पहले सुन लेते हैं इस दरबारी शायर का ये कलाम, शिशिर परखी की मखमली आवाज़ में -



मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक - एक परिचय

‘ज़ौक़’ 1204 हि. तदनुसार 1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे और काबुली दरवाज़े के पास रहते थे। शैख़ इब्राहीम इनके इकलौते बेटे थे। बचपन में मुहल्ले के एक अध्यापक हाफ़िज़ गुलाम रसूल के पास पढ़ने के लिए जाते। हाफ़िज़ जी शायर भी थे और मदरसे में भी ‘शे’रो-शायरी का चर्चा होता रहता था, इसी से मियां इब्राहीम की तबीयत भी इधर झुकी। इनके एक सहपाठी मीर काज़िम हुसैन ‘बेक़रार’ भी शायरी करते थे और हाफ़िज जी से इस्लाह लेते थे। मियां इब्राहीम की उनसे दोस्ती थी। एक रोज़ उन्होंने एक ग़ज़ल सुनायी जो मियां इब्राहीम को पसंद आयी। पूछने पर काज़िम हुसैन ने बताया कि हम तो शाह नसीर (उस ज़माने के एक मशहूर शायर) के शागिर्द हो गये हैं और ग़ज़ल उन्हीं की संशोधित की हुई है। चुनांचे इब्राहीम साहब को भी शौक़ पैदा हुआ कि उनके साथ जाकर शाह नसीर के शिष्य हो गए।

लेकिन शाह नसीर ने इनके साथ वैसा सुलूक न किया जैसा बुजुर्ग उस्ताद को करना चाहिए था। मियां इब्राहीम में काव्य-रचना की प्रतिभा प्रकृति-प्रदत्त थी और शीघ्र ही मुशायरों में इनकी ग़जलों की तारीफ़ होने लगी। शाह नसीर को ख़याल हुआ कि शायद शागिर्द उस्ताद से भी आगे बढ़ जाय और उन्होंने न केवल इनकी ओर से बेरुख़ी बरती बल्कि इन्हें निरुत्साहित भी किया। इनकी ग़ज़लों में कभी बेपरवाही से इस्लाह दी और अक्सर बग़ैर इस्लाह के ही बेकार कहकर वापस फेरने लगे। इनके अस्वीकृत शे’रों के मज़मून भी शाह नसीर के पुत्र शाह वजीहुद्दीन ‘मुनीर’ की ग़ज़लों में आने लगे जिससे इन्हें ख़याल हुआ कि उस्ताद इनके विषयों पर शे’र कहकर अपने पुत्र को दे देते हैं। इससे कुछ यह खुद ही असंतुष्ट हुए, कुछ मित्रों ने उस्ताद के ख़िलाफ़ इन्हें उभारा। इसी दशा में एक दिन यह ‘सौदा’ की एक ग़ज़ल पर ग़ज़ल कहकर उस्ताद के पास लेकर गए। उन्होंने नाराज़ होकर ग़ज़ल फेंक दी और कहा ‘‘अब तू मिर्ज़ा रफ़ी सौदा से भी ऊंचा उड़ने लगा ?’’ यह हतोत्साह होकर जामा मस्जिद में आ बैठे। वहां एक बुजुर्ग मीर कल्लू ‘हक़ीर’ के प्रोत्साहन से ग़ज़ल मुशायरे में पढ़ी और खूब वाहवाही लूटी। उस दिन से ‘ज़ौक़’ ने शाह नसीर की शागिर्दी छोड़ दी।

उस्ताद से आज़ाद हो गये तो ख़याल हुआ कि शहर में होने वाली नामवरी को आगे बढ़ाकर शाही किले पहुँचाया जाय। उन दिनों अकबर शाह द्वितीय बादशाह थे। उन्हें कविता से कुछ लगाव न था लेकिन युवराज मिर्ज़ा अबू ज़फ़र (जो बाद में बहादुरशाह द्वितीय के नाम से बादशाह हुए) स्वयं कवि थे और क़िले में अक्सर काव्य-गोष्ठियां कराया करते थे जिनमें उस समय के पुराने-पुराने शायर आते थे। लेकिन मियां इब्राहीम एक ग़रीब सिपाही के बेटे, किसी रईस की ज़मानत के बग़ैर क़िले में कैसे जाने पायें। काफ़ी कोशिश के बाद मीर काज़िम हुसैन की मध्यस्थता से क़िले के मुशायरों में शरीक होने लगे। काज़िम साहब खुद भी उस ज़माने के अच्छे शायरों में समझे जाने लगे थे। उन दिनों शाह नसीर युवराज के कविता-गुरु थे। कुछ दिनों बाद वे दीवान चन्दूलाल के बुलावे पर हैदराबाद चले गए क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वह दरबार दिल्ली से कहीं लाभदायक था। उनके बाद मीर काज़िम हुसैन युवराज को इस्लाह देने लगे लेकिन कुछ दिनों बाद वे भी मि. जॉन ऐलफ़िन्सटन के मीर-मुंशी होकर पश्चिम की ओर चले गये। ऐसे ही में एक दिन संयोगवश युवराज ने ‘ज़ौक़’ को (जो अभी बिल्कुल लड़के ही थे) अपनी ग़ज़ल दिखायी। इस्लाह उन्हें इतनी पसंद आयी कि उन्होंने इन्हें अपना कविता गुरु बना लिया और तनख़्वाह भी चार रुपया महीना मुक़र्रर कर दी। इस अल्प वेतन का भी दिलचस्प इतिहास है। बादशाह अकबर शाह अपनी एक बेग़म मुमताज़ से खुश थे और उनके कहने से मिर्ज़ा ज़फ़र को युवराज-पद से अलग करना चाहते थे। अंगरेज़ी अदालत में इसका मुकद्दमा भी चल रहा था। युवराज को उनके नियत 5000 रुपये की बजाय 500 रुपया महीना ही मिलता था। इसी में सारे शाही ठाठ-बाट करने पड़ते थे। उनके मुख़्तारे-आ़म मिर्ज़ा मुग़ल बेग थे इन महानुभाव का काम यह था कि युवराज पर जिसकी कृपा होती थी उसका पत्ता काटने की फ़िक्र में लग जाते थे। चुनांचे इन की मेहरबानी से तनख़्वाह चार रुपये से शुरू हुई और फिर दो बार तरक़्क़ी हुई तो चार से पांच और पांच से सात हो गयी। ‘ज़ौक़’ अगर चाहते तो युवराज से कहकर इस ज़लील तनख़्वाह को क़ायदे की करा सकते थे, लेकिन उन्होंने इस बारे में कभी अपने मालिक से एक शब्द भी नहीं कहा।

‘ज़ौक़’ के पिता ने उन्हें बादशाह से बिगाड़ करने वाले युवराज की इतनी कम तनख़्वाह पर नौकरी करने से मना भी किया लेकिन इन्हें कुछ युवराज की तबियत इतनी भा गई थी कि किसी बात का ख़याल न किया और नौकरी करते रहे। इधर दिल्ली के एक पुराने रईस और मिर्ज़ा ग़ालिब के ससुर नवाब इलाही बख़्श खां ने इन्हें बुलवाया और यद्यपि वे स्वयं बहुत बूढ़े हो चुके थे तथापि इस अल्पायु कवि से अपनी कविताओं में संशोधन कराने लगे। ‘ज़ौक़’ अपने इन दोनों ‘शागिर्दों’ से उम्र और रुतबे में बहुत ही कम थे। साथ ही ख़ानदानी ग़रीबी ने पढ़ने भी ज़्यादा न दिया था। इसलिए यह अपनी उस्तादी क़ायम रखने के लिए खुद ही कविता का जी तोड़कर अभ्यास करने लगे और अपनी जन्मजात प्रतिभा के बल पर इस कला में शीघ्र ही निपुण हो गये। ख़ास तौर पर नवाब साहब की उस्तादी ने, जो हर रंग के शे’र कहते थे, इन्हें हर रंग का उस्ताद बना दिया।

इसी ज़माने में शाह नसीर हैदराबाद से लौटे। (शाह नसीर धनार्जन के लिए तीन बार हैदराबाद गये और फिर दिल्ली के आकर्षण ने उन्हें यहां ला खैंचा। लखनऊ भी दो बार जाकर लौट आये। अंत में चौथी बार की हैदराबाद यात्रा में उनका वहीं देहान्त हुआ।) दिल्ली आकर उन्होंने फिर अपने मुशायरे जारी कराये। अब ‘ज़ौक़’ इनमें शामिल हुए तो शागिर्द की नहीं, प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से शामिल हुए। शाह नसीर ने एक ग़ज़ल लिखी थी जिसकी रदीफ़ थी ‘‘आबो-ख़ाको-बाद’’। उन दिनों मुश्किल रदीफ़ क़ाफ़ियों में पूरे मतलब के साथ और काव्य-परम्परा क़ायम रखते हुए ग़ज़लें कहना ही काव्य-कला का चरमोत्कर्ष समझा जाता था। शाह नसीर ने चुनौती दी कि इस रदीफ़ क़ाफ़िए में कोई ग़ज़ल कह दे तो उसे उस्ताद मान लूं। ‘ज़ौक़’ को तो शाह साहब को नीचा दिखाना था। उन्होंने इस ज़मीन में एक ग़ज़ल और तीन कसीदे कह दिये। शाह साहब ने मुशायरे ही में उस पर अपने शागिर्दों से एतराज करवाये और खुद भी किये लेकिन ‘ज़ौक़’ ने अपने तर्कों से सब को चुप कर दिया। अब ‘ज़ौक़’ की धाक उस्ताद की हैसियत से अच्छी तरह जम गयी। लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि ‘ज़ौक़’ की व्यक्तिगत रूप से भी शाह साहब से अनबन हो गयी थी। दोनों के मैत्री-संबंध अंत तक बने रहे। शाह नसीर की उर्स आदि की दावत में ‘ज़ौक़’ बराबर जाते थे। शाह नसीर अंतिम बार जब हैदराबाद गये तो ‘ज़ौक़’ ने बुढ़ापे के ख़याल से उन्हें वहां जाने से रोकना भी चाहा था।

लेकिन ‘ज़ौक़’ को अपनी कविता की धाक बिठाने से अधिक अपनी कमजोरियों को दूर करने की चिन्ता थी। (बड़प्पन इसी तरह मिलता है।) उन्हें अपने अध्ययन के अभाव की बराबर खटक रहा करती थी। संयोग से अवध के नवाब के मुख्तार राजा साहब राम ने अपने पुत्र को तत्कालीन विद्याओं-इतिहास, तर्कशास्त्र, गणित आदि-में पारंगत करना चाहा और इसके लिए ‘ज़ौक़’ के एक पुराने गुरु मौलवी अब्दुर्रज़ाक को नियुक्त किया। एक दिन ‘ज़ौक़’ भी मौलवी साहब के यहां चले गये। राजा साहब उनकी योग्यता से इतने प्रभावित हुए कि इनसे कहा कि तुम बराबर पढ़ने आया करो। यहां तक कि अगर किसी कारण ‘ज़ौक़’ किसी दिन न आते तो राजा साहब का आदमी उन्हें ढूँढ़ने के लिए भेजा जाता और अगर फिर भी वे न आते तो उस दिन की पढ़ाई स्थगित हो जाती। ‘ज़ौक़’ की क़िस्मत ही ज़ोरदार थी, वर्ना इतने निस्वार्थ सहायक कितनों को मिल पाते हैं।

लेकिन उनकी असली सहायक उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता थी। कविता-अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे। इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) में वे पारंगत थे, विशेषतः सूफी-दर्शन में उनका अध्ययन बहुत गहरा था। रमल और ज्योतिष में भी उन्हें अच्छा-खासा दख़ल था और उनकी भविष्यवाणियां अक्सर सही निकलती थीं। स्वप्न-फल बिल्कुल सही बताते थे। कुछ दिनों संगीत का भी अभ्यास किया था और कुछ तिब्ब (यूनानी चिकित्सा-शास्त्र) भी सीखी थी। धार्मिक तर्कशास्त्र (मंतक़) और गणित में भी वे पटु थे। उनके इस बहुमुखी अध्ययन का पता अक्सर उनके क़सीदों से चलता है जिनमें वे विभिन्न विद्याओं के पारिभाषिक शब्दों के इतने हवाले देते हैं कि कोई विद्वान ही उनका आनंद लेने में समर्थ हो सकता है। उर्दू कवियों में इस कोटि के विद्वान कम ही हुए हैं।

किन्तु उनकी पूरी प्रतिभा काव्य-क्षेत्र ही में दिखाई देती थी 19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने बादशाह अकबर शाह के दरबार में एक क़सीदा सुनाया। इसमें फ़ारसी काव्य में वर्णित समस्त अलंकार तो थे ही, साथ ही विभिन्न विद्याओं की भी अच्छी जानकारी दर्शाई गई थी। इसके, अतिरिक्त इसमें एक ही ज़मीन में 18 विभिन्न भाषाओं में शे’र कहकर शामिल किये गए थे। इस क़सीदे का पहला शे’र यह है :

जब कि सरतानो-असद मेहर का ठहरा मसकन
आबो-ऐलोला हुए नश्वो-नुमाए-गुलशन

इस पर उन्हें ‘ख़ाक़ानी-ए-हिन्द’ का ख़िताब मिला। ख़ाकानी फ़ारसी भाषा का बहुत मशहूर क़सीदा कहने वाला शायर था। 19 वर्ष की अवस्था में यह ख़िताब पाना कमाल है।
36 वर्ष की अवस्था में समस्त पापों से तौबा की और इसकी तारीख़ कही:
ऐ ज़ौक़ बिगो सह बार तौबा।’’ यानी ‘‘ऐ ज़ौक़ तीन बार तौबा कह।

भगवान ने ‘ज़ौक़’ को बुद्धि और मृदु स्वभाव देने में जो दानशीलता दिखायी थी, शारीरिक व्यक्तित्व देने में उतनी ही बेपरवाही बरती। उनका क़द साधारण से कुछ कम ही था और रंगत सांवली। चेहरे पर चेचक के दाग़ बहुतायत से थे। खुद कहते थे कि मुझे नौ बार चेचक निकली थी किन्तु आंखें चमकती हुई थीं। चेहरे का नक़्शा खड़ा-खड़ा था। बदन में बहुत फुरती थी, बहुत तेज़ चलते थे। कपड़े अक्सर सफ़ेद पहनते थे, वह उन पर भले ही लगते थे। आवाज़ ऊंची और सुरीली थी। मुशायरे में ग़जल पढ़ते तो आवाज़ गूंजकर रह जाती थी। उनके पढ़ने का तर्ज़ भी बड़ा अच्छा था। हमेशा अपनी ग़ज़ल खुद ही पढ़ते थे, किसी और से कभी नहीं पढ़वाते थे।

उनकी स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र थी। जितनी विद्याएं और उर्दू फ़ारसी की जितनी कविता-पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं, उन्हें वे अपने मस्तिष्क में इस प्रकार सुरक्षित रखे हुए थे कि हवाला देने के लिए पुस्तकों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, अपनी स्मरण-शक्ति के बल पर हवाले देते चले जाते थे। सही बात तो यह है कि इतनी विद्याओं का सीखना भी अति तीक्ष्ण ग्रहण-शक्ति और स्मरण-शक्ति के बग़ैर संभव नहीं था।

बहादुरशाह बादशाह हुए तो उनके मुख़्तार मिर्ज़ा मुग़ल बेग मंत्री हुए। उन्होंने अपना पूरा कुनबा क़िले में भर लिया किन्तु उस्ताद की तनख़्वाह सात रुपये से बढ़ी तो तीस रुपया महीना हो गई। ‘ज़ौक़’ को यह बेक़दरी बहुत बुरी मालूम होती थी। लेकिन स्वभाव में संतोष बहुत था। कभी बादशाह से इसकी शिकायत नहीं की। उन्हें खुद क्या ख़बर होती कि किसे कितना मिल रहा है। ‘ज़ौक़’ ग़रीबी के दिन काटते रहे।

अंत में पाप का घड़ा फूटा। मिर्ज़ा मुग़ल बेग और उनका सारा कुनबा क़िले से निकाला गया। ‘ज़ौक़’ की तनख़्वाह बढ़कर सौ रुपया महीना हो गई। यद्यपि यह तनख़्वाह भी उनकी योग्यता को देखते हुए कुछ न थी और हैदराबाद से दीवान चन्दूलाल ने ख़िलअ़त और 500 रुपये भेजकर इन्हें बुलाया लेकिन यह ‘ज़फ़र’ का दामन छोड़कर कहीं न गये।
तनख़्वाह के अलावा ईद-बक़रीद पर इनाम भी मिला करते थे। अंतिम काल में उन्होंने बादशाह के बीमारी से अच्छे होने पर एक कंसीदा, ‘‘वाहवा, क्या मोतदिल है बाग़े-आ़लम की हवा’’ पढ़ा। इस पर उन्हें ख़िलअ़त, ख़ान बहादुरी का ख़िताब और चांदी के हौदे के साथ एक हाथी मिला। फिर उन्होंने एक क़सीदा कहा, ‘‘शब को मैं अपने सरे-बिस्तरे-ख़्वाबे-राहत।’’ इस पर उन्हें एक गांव जागीर में मिला।

अंत में इस कमाल के उस्ताद ने 1271 हिजरी (1854 ई.) में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया। मरने के तीन घंटे पहले यह शे’र कहा था:

कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे



ज़ौक़ और शाही फरमाईशों के दिलचस्प किस्से

मुग़लिया सल्तनत के आख़िरी चिराग़ बहादुरशाह द्वितीय के शहज़ादे जवांबख़्त की शादी है। ‘ग़ालिब’ एक सेहरा पेश करते हैं जिसका मक़तअ़ है :

हम सुखन-फ़हम हैं ‘ग़ालिब’ के तरफ़दार नहीं
देखें इस सेहरे से कह दे कोई बेहतर सेहरा

बादशाह को ख़याल होता है कि ‘ग़ालिब’ उनकी सुख़नफ़हमी पर चोट कर रहे हैं कि मुझे जैसे बाकमाल शायर के रहते हुए ‘ज़ौक़’ को उस्ताद किया है। फ़ौरन ही उस्ताद बुलाये जाते हैं और हुक्म होता है कि जवाब में सेहरा लिखो और इसी वक़्त लिखो। ‘ज़ौक़’ बेचारे वहीं बैठ जाते हैं और जवाब में सेहरा लिख देते हैं। बादशाह की उस्तादी भी पकड़बुलावे की नौकरी है।

लेकिन शायद आप यह कहें कि इसमें ज़बर्दस्ती की क्या बात है, ‘ज़ौक़’ ने तो खुशी से अपने ऊपर की गयी ‘चोट’ का जवाब दिया होगा। बहुत अच्छा, मान लिया। लेकिन इस पर क्या कहिएगा-बरसात का मौसम है, बादशाह के साथ युवराज मिर्ज़ा फ़ख़रू भी कुतुब साहब के पास चांदनी रात में तालाब के किनारे सैर कर रहे हैं। ‘ज़ौक़’ भी खड़े हैं। ‘मिर्ज़ा’ फ़ख़रू भी ‘ज़ौक’ के शागिर्द हैं। उनकी ज़बान से मिसरा निकलता है-‘‘चांदनी देखे अगर वह महजबीं तालाब पर’’, और साथ ही हुक्म होता है कि उस्ताद, इस पर मिसरा लगाना। उस्ताद फ़ौरन मिसरा लगाते हैं, ‘‘ताबे-अक़्से-रूख़ से पानी फेर दे महताब पर।’’

बादशाह की उस्तादी ‘ज़ौक़’ को किस क़दर महंगी पड़ी थी, यह उनके शागिर्द मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद की ज़बानी सुनिए:

‘‘वह अपनी ग़ज़ल खुद बादशाह को न सुनाते थे। अगर किसी तरह उस तक पहुंच जाती तो वह इसी ग़ज़ल पर खुद ग़ज़ल कहता था। अब अगर नयी ग़ज़ल कह कर दें और वह अपनी ग़ज़ल से पस्त हो तो बादशाह भी बच्चा न था, 70 बरस का सुख़न-फ़हन था। अगर उससे चुस्त कहें तो अपने कहे को आप मिटाना भी कुछ आसान काम नहीं। नाचार अपनी ग़ज़ल में उनका तख़ल्लुस डालकर दे देते थे। बादशाह को बड़ा ख़याल रहता था कि वह अपनी किसी चीज़ पर ज़ोर-तबअ़ न ख़र्च करें। जब उनके शौक़े-तबअ़ को किसी तरफ़ मुतवज्जह देखता जो बराबर ग़ज़लों का तार बांध देता कि तो कुछ जोशे-तबअ़ हो इधर ही आ जाय।’’

शाही फ़रमायशों की कोई हद न थी। किसी चूरन वाले की कोई कड़ी पसंद आयी और उस्ताद को पूरा लटका लिखने का हुक्म हुआ। किसी फ़क़ीर की आवाज़ हुजूर को भा गयी है और उस्ताद पूरा दादरा बना रहे हैं। टप्पे, ठुमरियां, होलियां, गीत भी हज़ारों कहे और बादशाह को भेंट किये। खुद भी झुंझला कर एक बार कह दिया :

ज़ौक मुरत्तिब क्योंकि हो दीवां शिकवाए-फुरसत किससे करें
बांधे हमने अपने गले में आप ‘ज़फ़र’ के झगड़े हैं

और एक वर्तमान आलोचक हैं कि ‘ज़ौक़’ का नाम महाकवियों की सूची में रखने में हिचकते हैं। ‘ग़ालिब’, ‘मोमिन’, ‘आतिश’, ‘नज़ीर’ सभी इस ज़माने के आलोचकों के प्रिय कवि हैं, ‘ज़ौक़’ की लोकप्रियता, मालूम होता है पिछली पीढ़ी के साथ तिरोहित हो गई। ‘ग़ालिब’, ‘मोमिन’ आदि के कमाल पर जिसे शक हो उस पर सौ लानतें, लेकिन उन उस्तादों की प्रशस्ति के लिए ‘ज़ौक़’ या ‘दाग़’ के अपने कमाल की ओर से उपेक्षा बरतना भी निष्पक्ष आलोचना नहीं कही जा सकती। अगर और बातों को छोड़ दिया जाय तो भी सिर्फ़ इतनी सी ही बात ‘ज़ौक़’ को अमर कर देने के लिए काफ़ी है कि वे उम्र भर अपने कांधे पर सल्तनते-मुग़लिया के भारी-भरकम ताज़िए बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ को ढोये रहे और साथ ही साहित्य को स्पष्टतः कुछ ऐसी चीज़ें भी दे गये जिनका आज की अस्थिर मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में चाहे कुछ महत्व न मालूम हो किन्तु जिनमें निस्सन्देह कुछ स्थायी मूल्य निहित हैं जिससे किसी ज़माने में इन्कार नहीं किया जा सकता।

लेकिन ‘ज़ौक़’ के काव्य के इन स्थायी तत्वों की व्याख्या के पहले उनके बारे में फैली हुई कुछ भ्रांतियों का निवारण आवश्यक मालूम होता है। पहली बात तो यह है कि समकालीन होने के लिहाज़ से उन्हें ‘ग़ालिब’ का प्रतिद्वंद्वी समझ लिया जाता है और चूंकि यह शताब्दी ‘ग़ालिब’ के उपासकों की है इसलिए ‘ज़ौक़’ से लोग खामखाह ख़ार खाये बैठे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीन महाकवियों में कुछ न कुछ प्रतिद्वंद्विता होती ही है और ‘ज़ौक़’ ने भी कभी-कभी मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की छेड़-छाड़ की बादशाह से शिकायत कर दी थी, लेकिन इन दोनों की प्रतिद्वंद्विता में न तो वह भद्दापन था जो ‘इंशा’ और ‘मसहफ़ी’ की प्रतिद्वंद्विता में था, न इतनी कटुता जो ‘मीर’ और ‘सौदा’ में-बावजूद इसके कि ‘मीर’ और ‘सौदा’ एक-दूसरे के कमाल के क़ायल थे-कभी-कभी दिखाई देती है। ‘ज़ौक़’ और ‘ग़ालिब’ में ‘दाग़’ और ‘अमीर’ की भांति समकालीन होते हुए भी प्रतिद्वंद्विता का अभाव और परस्पर प्रेम भी नहीं दिखाई देता, वास्तविकता यह है कि ‘ज़ौक़’ और ‘ग़ालिब’ दोनों ने इस बात को महसूस कर लिया था कि उनकी प्रतिद्वंद्विता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ‘ग़ालिब’ नयी भाव-भूमियों को अपनाने में दक्ष थे और वर्णन-सौंदर्य की ओर से उदासीन; ‘ज़ौक़’ का कमाल वर्णन-सौंदर्य में था और भावना के क्षेत्र में बुजुर्गों की देन ही को काफ़ी समझते थे। प्रतिद्वंद्विता का प्रश्न ही नहीं पैदा होता था।

साथ ही जैसा कि हर ज़माने के समकालीन महाकवि एक दूसरे के कमाल के क़ायल होते हैं, यह दोनों बुजुर्ग भी एक-दूसरे के प्रशंसक थे। ‘ग़ालिब’ तो बहते दरिया थे, उनकी ईमानदारी का क्या कहना !जैसा की हमने पिछली पोस्ट में ज़िक्र किया था कि ‘मोमिन’ के इस शेर के बदले में :

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।

-‘ग़ालिब’ अपना पूरा दीवान देने को तैयार थे। ‘ज़ौक़’ के भी वे प्रशंसक थे और अपने एक पत्र में उन्होंने ‘ज़ौक़’ के इस शे’र की प्रशंसा की है :

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे।

और उधर ‘ज़ौक़’ भी मुंह-देखी में नहीं बल्कि अपने दोस्तों और शागिर्दों मैं बैठकर कहा करते थे कि मिर्ज़ा (ग़ालिब) को खुद अपने अच्छे शे’रों का पता नहीं है और उनका यह शे’र सुनाया करते थे:

दरियाए-मआ़सी1 तुनुक-आबी से हुआ खुश्क
मेरा सरे-दामन भी अभी तक न हुआ था।

मैं नहीं कह सकता कि वर्तमान आलोचकों की निगाहें कहां तक इस शे’र की गहराई को देख सकी हैं लेकिन मुझे खुद मिर्ज़ा का यह शे’र उनके सारे दीवान से भारी मालूम होता है और मैं ‘ज़ौक़’ की परिष्कृत रुचि का क़ायल हो गया हूं जिन्होंने उस आकारवादी (Formalistic) युग में और स्वयं आकारवाद के एक प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी इस शे’र को ‘ग़ालिब’ के दीवान के घने जंगल में से छांट लिया।

‘ज़ौक़’ के मुकाबले में ‘ग़ालिब’ को ऊंचा उठाने में कुछ लोग दो बातों पर ख़ास तौर पर ज़ोर देते हैं। एक तो ‘ग़ालिब’ की निर्धनता में भी कायम रहने वाली मस्ती और दूसरे उनका आत्म-सम्मान। ‘ग़ालिब’ में यह दोनों बातें थीं इससे किसी को इनकार न होना चाहिए, लेकिन मालूम नहीं लोग यह क्यों नहीं देख पाये कि ‘ज़ौक़’ में ये दोनों गुण ‘ग़ालिब’ से कम नहीं, कुछ
अधिक ही थे। हां, यह बात ज़रूर है कि ‘ग़ालिब’ ने अपने पत्रों में इन गुणों का स्वयं ही प्रदर्शन कर दिया है, ‘ज़ौक़’ बिल्कुल खामोश हैं और हमें खुद मेहनत करके उनके व्यक्तित्व की गहराई को जांचना पड़ेगा।


---प्रकाश पंडित की पुस्तक “ज़ौक़ और उनकी शायरी” से साभार

ghazal - laaye hayaat...
singer/composer - shishir parkhie
album - ahtaraam
tribute to the legend poets/shayar series part # 02

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