Saturday, July 3, 2010

सुनो कहानी - "पत्नी का पत्र" - रबीन्द्र नाथ ठाकुर



सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "पत्नी का पत्र"
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पद्म भूषण साहित्यकार कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी "पत्नी का पत्र", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 38 मिनट 39 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं।
~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

चोरी की कला में यमराज निपुण हैं, उनकी नजर कीमती चीज पर ही पड़ती है।
(रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "पत्नी का पत्र" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Ninteenth Story, Patni Ka Patra: Rabindra Nath Tagore/Hindi Audio Book/2010/25. Voice: Archana Chaoji

Friday, July 2, 2010

सडकें छोटी थीं, दिल बड़े थे, उस शहर के जहाँ इत्तेफ़ाकन मिले थे नितिन, उन्नी और कुहू



Season 3 of new Music, Song # 12

आज बेहद गर्व के साथ हम युग्म के इस मंच पर पेश कर रहे हैं, दो नए फनकारों को, संगीतकार नितिन दुबे संगीत रचेता होने के साथ-साथ एक संवेदनशील गीतकार भी हैं, जिन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को शब्दों और सुरों में पिरो कर एक गीत बनाया, जिसे स्वर देने के लिए उतरे आज के दूसरे नए फनकार उन्नीकृष्णन के बी, जिनका साथ दिया है। इस गीत में महिला स्वरों के लिए सब संगीतकारों की पहली पसंद बन चुकी गायिका कुहू गुप्ता। कुहू और उन्नी के स्वरों में ये गीत यक़ीनन आपको संगीत के उस पुराने सुहाने दौर की याद दिला देगा, जब अच्छे शब्द और मधुर संगीत से सजे युगल गीत हर जुबाँ पर चढ़े होते थे. सुनिए और आनंद लीजिए.

गीत के बोल -

एक शहर था जिसके सीने में
सडकें छोटी थीं, दिल बड़े थे
उस शहर से, भरी दोपहर में
मैं अकेला चला था
इस अकेले सफ़र पे

मैं अकेला चला था
इस अकेले सफ़र पे
क्या हसीं इत्तफाक था
बन गए हमसफ़र तुम

मेरे दिल के, एक कोने में
गहरे कोहरे थे, मुद्दतों से
फिर मौसम खुला, तुम दिखे थे
पास आकर रुके थे
साथ मिलकर चले थे

तन्हा ये काफिला था
लम्बे ये फासले थे
क्या हसीं इत्तफाक था
बन गए हमसफ़र तुम

तुमसे पहले मेरी ज़िन्दगी
एक धुंधला सा इतिहास है
मैं जिसके किस्से खुद ही लिख कर
खुद ही भूल चूका हूँ

याद आता नहीं जितना भी सोचूं
क्या वो किस्से थे
क्यों लिखे थे

फिर मौसम खुला, तुम दिखे थे
पास आकर रुके थे
साथ मिलकर चले थे

मैं अकेला चला था
इस अकेले सफ़र पे
क्या हसीं इत्तफाक था
बन गए हमसफ़र तुम

तन्हा ये काफिला था
लम्बे ये फासले थे
क्या हसीं इत्तफाक था
बन गए हमसफ़र तुम



मेकिंग ऑफ़ "क्या हसीन इत्तेफ़ाक" - गीत की टीम द्वारा

नितिन दुबे: जब मैंने इस गाने पर काम करना शुरू किया था तो इसका रूप थोड़ा अलग था। एक पूरा बीच का भाग पहले नहीं था और इसका अन्त भी अलग था। उन्नी और मैं अच्छे दोस्त हैं और कई कवर वर्ज़न्स पर हमने साथ काम किया है। धीरे धीरे हमें लगा कि एक मूल गाना भी हमें एक साथ करना चाहिये। मैं वैसे भी कुछ समय से इस गाने पर धीरे धीरे काम कर ही रहा था। सोचा क्यों न यही गाना साथ करें। मुझे खुशी है जिस तरह उन्नी ने इस गाने को निभाया है। कुहू इस गाने के लिये मेरी पहली और अकेली पसंद थीं। और उन्होंने इसे मेरी आशाओं से बढ़ कर ही गाया है। यह आज के युग में इन्टरनेट का ही कमाल है कि मैं कभी कुहू से मिला भी नहीं हूं मगर इस गाने में एक साथ काम किया है और यह मैं कुहू की प्रतिभा का कमाल कहूंगा कि बिना मेरे साथ सिटिंग किये और बिना मार्गदर्शन के ही उन्होंने गाने का मूड बहुत अच्छी तरह पकड़ा और पेश किया।

उन्नीकृष्णन के बी: “क्या हसीं इत्तेफाक था” एक ऐसा गाना है जो मेरे दिल के बेहद करीब है। जिन दिनों नितिन यह गाना बना रहे थे‚ उन दिनों उन का और मेरा मिलना काफी होता था और इसीलिये मैंने इस गाने को काफी करीब से रूप लेते देखा है। मेरे लिये यह गाना ज़रा कठिन था क्योंकि इस में थोड़ी ग़ज़ल की तरह की गायकी की ज़रूरत है और मेरी मातृभाषा दक्षिण भारतीय है तथा मैंने ग़ज़ल कभी ज़्यादा सुनी भी नहीं। लेकिन मैनें बहुत रियाज़ किया इस गाने के लिये जिसके लिये मुझे नितिन का बहुत मार्गदर्शन भी मिला। और इसके नतीजे से मैं खुश हूं। मुझे लगता है कि मैं इस गाने के मूड को ठीक से पकड़ पाया हूं और इसके लिये मैं नितिन व कुहू का विशेष रूप से शुक्रग़ुज़ार हूं। मैं आशा करता हूं कि भविष्य में भी हम और भी गानों पर साथ काम कर पायेंगे।

कुहू गुप्ता: नितिन की रचनाएं यूं भी मेरी बहुत पसंदीदा थी, मैं खुद उनके साथ कोई गीत करने को उत्सुक थी कि उनका एक मेल आया करीब ४ महीने पहले, वो चाहते थे कि मैं उनके लिए एक रोमांटिक युगल गीत गाऊं. मैंने तो ख़ुशी में गीत बिना सुने ही उन्हें हां कह दिया. क्योंकि मैं जानती थी की ये भी निश्चित ही एक बेमिसाल गीत होगा, और मेरा अंदाजा बिलकुल भी गलत नहीं हुआ यहाँ. गाना बहुत ही सूथिंग था, जिस पर खुद उन्होंने बहुत प्यारे शब्द लिखे थे, ये गीत चूँकि उनके व्यक्तिगत जीवन से प्रेरित था, तो उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण भी था, मैं उम्मीद करती हूँ कि मैंने अपने गायन में उनके जज़्बात ठीक तरह निभाए हैं. मेरे पहले टेक में कुछ कमियां थी जो नितिन ने दूर की. हम दोनों को इंतज़ार था कि पुरुष स्वर पूरे हों और गीत जल्दी से जल्दी मुक्कमल हो, पर तभी दुभाग्यवश बगलोर कार्टलोन दुर्घटना हुई और प्रोजेक्ट में रुकावट आ गयी....हम सब की प्रार्थना थी कि नितिन इन सब से उबर कर गीत को पूरा करें और देखिये किस तरह उन्होंने इस गीत को मिक्स करके वापसी की है. उन्नी ने अपना भाग बहुत खूबी से निभाया है, मैं हमेशा से उनकी आवाज़ की प्रशंसक रही हूँ. और मुझे ख़ुशी है कि इस गीत में हमें एक दूसरे के साथ सुर से सुर मिलाने का मौका मिला।
नितिन दुबे
नितिन संगीतकार भी हैं और एक शायर व गीतकार भी। अपने संगीतबद्ध किये गीतों को वह खुद ही लिखते हैं और उनका यह मानना हैं कि गाने के बोल उतना ही महत्व रखते हैं जितना कि उसकी धुन व संगीत। आर्किटेक्चर और सम्पत्ति विकास के क्षेत्र में विदेश से विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करने के बाद नितिन कई वर्षों से व्यवसाय और संगीत के बीच वक्त बांट रहे हैं। अपने गीतों की अलबम ‘उड़ता धुआँ ’ तैयार करने के बाद नितिन अब इस कोशिश में हैं कि इस अलबम को व्यापक रूप से रिलीज़ करें और इसी लिये एक प्रोड्यूसर की खोज में हैं। “उड़ता धुआँ” रिलीज़ होने में चाहे जितना भी वक्त लगे‚ नितिन का कहना है कि वह गाने बनाते रहेंगे क्योंकि संगीत के बिना उन्हें काफी अधूरेपन का अहसास होता है।

उन्नीकृष्णन के बी
उन्नीकृष्णन पेशे से कम्प्यूटर इन्जीनियर हैं लेकिन संगीत का शौक बचपन से ही रखते हैं। कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में इन्होंने विधिवत शिक्षा प्राप्त की है तथा स्कूल व कालिज में भी स्टेज पर गाते आये हैं। नौकरी शुरू करने के बाद कुछ समय तक उन्नी संगीत को अपनी दिनचर्या में शामिल नहीं कर पाये मगर पिछले काफी वक्त से वो फिर से नियमित रूप से रियाज़ कर रहे हैं‚ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रहे हैं‚ गाने रिकार्ड कर रहे हैं और आशा करते हैं कि अपनी आवाज़ के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचें।

कुहू गुप्ता
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है। इस संगीत के सत्र में भी यह इनका चौथा गीत है।

Song - Kya Haseen Itteffaq Tha
Voices - Unnikrishnan K B , Kuhoo Gupta
Music - Nitin Dubey
Lyrics - Nitin Dubey
Graphics - Prashen's media


Song # 12, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, July 1, 2010

और इस दिल में क्या रखा है....कल्याणजी आनंदजी जैसे संगीतकारों के रचे ऐसे गीतों के सिवा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 430/2010/130

ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' की अंतिम कड़ी पर। आपने पिछली नौ कड़ियों में महसूस किया होगा कि किस तरह से बदलते वक़्त के साथ साथ इस संगीतकार जोड़ी ने अपने आप को बदला, अपनी स्टाइल में बदलाव लाए, जिससे कि हर दौर में उनका संगीत हिट हुआ। आज अंतिम कड़ी में हम सुनेंगे ८० के दशक का एक गीत। युं तो १९८९ में बनी फ़िल्म 'त्रिदेव' को ही कल्याणजी-आनंदजी की अंतिम हिट फ़िल्म मानी जाती है (हालाँकि उसके बाद भी कुछ कमचर्चित फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया), लेकिन आज हम आपको 'त्रिदेव' नहीं बल्कि १९८७ की फ़िल्म 'ईमानदार' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत सुनवाना चाहते हैं। जी हाँ, बिलकुल सही पहचाना, "और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द छुपा रखा है"। इस गीत के कम से कम दो वर्ज़न है, एक आशा और सुरेश वाडकर का डुएट है, और दूसरा सुरेश की एकल आवाज़ में। आज आपको सुनवा रहे हैं सुरेश वाडकर की एकल आवाज़। गाना मॊडर्ण है, लेकिन जो पैथोस गीतकार प्रकाश मेहरा ने इस गीत में डाले हैं, वह इस गीत को यादगार बना देता है। बेहद कामयाब हुआ था यह गीत और मुझे याद है उन दिनों रेडियो पर इस गीत की गूंज आए दिन सुनाई पड़ती थी। दोस्तों, हमें पूरा यकीन है कि इस गीत को आज सुन कर आप में से बहुतों को अपने स्कूल कालेज का वह ज़माना याद आ गया होगा, है ना! इसी फ़िल्म में अलका याज्ञ्निक और साधना सरगम से भी उन्होने गानें गवाए। अलका और साधना के ज़िक्र से याद आया कि कल्यानजी-आनंदजी ने बहुत से नए कलाकारों को मौका दिया है समय समय पर। सिर्फ़ मौका ही नहीं बल्कि उन्हे बाक़ायदा ट्रेन किया है। आइए आज उनके इसी पक्ष पर थोड़ा सा और नज़र डालते हैं।

जब १९९७ की उस इंटरव्यू में कल्याणजी भाई से गणेश शर्मा ने यह पूछा कि आज की पीढ़ी की बहुत सी गायक गायिकाएँ आप से अपनी 'सिंगिंग् करीयर' शुरु की है, बहुत कुछ सीखा है, इन नए सिंगर्स के बारे में कुछ हम जानना चाहेंगे आप से, तो कल्याणजी भाई ने जवाब दिया - "कभी भी कोई सिंगर या कोई ऐक्टर या कामेडियन, उस वक़्त तो दिखाई दे जाता है कि उसमें कोई बात है, लेकिन उपरवाला कब उसको मौका दे वो हम नहीं बता सकते। लेकिन ये सिंगर्स तो सब्जेक्ट है हमारा। कुमार सानू ने इतने स्टगलिंग् में दिन निकाले कि कोई दूसरा आदमी हो तो भाग जाए! मैंने उनका एक यह देखा कि कुछ भी हो, अपना रियाज़ है उसको नहीं छोड़ते थे। अनुराधा जी भी काफ़ी टाइम से इस लाइन में थीं, उनमें लगन इतनी है कि 'जो भी रंग चाहोगे मैं गाऊँगी'। उनकी लगन देखिए, आज भी देखिये, हर रंग में उन्होनें गाना गाया है। उसके बाद की पीढ़ी में अलका को आप ने देखा होगा, वो भी ५-७ साल तो बहुत स्ट्रगल करना पड़ा उनको, कोई सुनता नहीं था, कोई नया सिंगर जब भी होता है न, नए की कुछ वैल्यू नहीं होती। अभी तो नई पीढ़ी आई है, उसमें साधना सरगम, सोनाली बाजपेई, जावेद, ये बहुत ही अच्छे सिंगर्स हैं। उसके बीच में सपना मुखर्जी आईं थीं, उसने भी अपने रंग में अच्छे अच्छे गानें गाए। मनहर उधास ने भी गानें गाए। उसके बाद उदित नारायण हैं यहाँ, बहुत अच्छे आदमी हैं, बहुत रियाज़ करते हैं, बहुत अच्छे अच्छे सिंगर्स निकले हैं यहाँ से। हमें तो बहुत आनंद आता है देख कर। अभी जो ये साधना-सोनाली की पीढ़ी है, ये सिर्फ़ पापुलारिटी पर नहीं जाते हई, बहुत अभ्यास किया है इन लोगों ने।" और आइए अब आज के गीत को सुना जाए और इस गीत को सुनते हुए कल्याणजी-आनंदजी को फिर एक बार सलाम करते हुए इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' का समापन किया जाए। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल फिर सजेगी रविवार की शाम और हम उपस्थित होंगे एक नई लघु शृंखला के साथ। तब तक के लिए इजाज़त, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि 'कलावीर अकेडमी' में कल्याणजी भाई के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण कर जो कलावीर फ़िल्म गायन के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं, उनके नाम हैं कुमार सानू, अलका यज्ञ्निक, अनुराधा पौडवाल, साधना सरगम, सोनाली बाजपेई, सुनिधि चौहान आदि।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. कालिदास की एक महान कृति पर बनी है ये फिल्म, जिस कृति के नाम पर फिल्म का भी नाम है, बताएं वो नाम -२ अंक.
२. गायक जगमोहन के गाये इस गीत के संगीतकार बताएं - ३ अंक.
३. देबकी बोस निर्देशित ये फिल्म किस सन में प्रदर्शित हुई थी - १ अंक.
४. इस वर्षा गीत के गीतकार बताएं - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी को ३ अंक और अवध जी को २ अंक देते हुए हम बताते चलें कि प्रतियिगिता के चौथे हफ्ते के अंत में आते आते शरद जी ने अवध जी को पीछे छोड दिया है, आपका स्कोर है ३६ और ३३ पर है अवध जी....इंदु जी १४ अंकों पर है.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, June 30, 2010

किसी राह में, किसी मोड पर....कहीं छूटे न साथ ओल्ड इस गोल्ड के हमारे हमसफरों का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 429/2010/129

ल्याणजी-आनंदजी के सुर लहरियों से सजी इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' में आज छा रहा है शास्त्रीय रंग। इसे एक रोचक तथ्य ही माना जाना चाहिए कि तुलनात्मक रूप से कम लोकप्रिय राग चारूकेशी पर कल्याणजी-आनंदजी ने कई गीत कम्पोज़ किए हैं जो बेहद कामयाब सिद्ध हुए हैं। चारूकेशी के सुरों को आधार बनाकर "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए" (सरस्वतीचन्द्र), "मोहब्बत के सुहाने दिन, जवानी की हसीन रातें" (मर्यादा), "किसी राह में किसी मोड़ पर (मेरे हमसफ़र), "अकेले हैं चले आओ" (राज़), "एक तू ना मिला" (हिमालय की गोद में), "कभी रात दिन हम दूर थे" (आमने सामने), "बेख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम" (हसीना मान जाएगी), "जानेजाना, जब जब तेरी सूरत देखूँ" (जाँबाज़) जैसे गीतों की याद कल्याणजी-आनंदजी के द्वारा इस राग के विविध प्रयोगों के उदाहरण के रूप में फ़िल्म संगीत में जीवित रहेगी। चारूकेशी का इतना व्यापक व विविध इस्तेमाल शायद ही किसी और संगीतकार ने किया होगा! दूसरे संगीतकारों के जो दो चार गानें याद आते हैं वो हैं लक्ष्मी-प्यारे के "आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं" (मिलन), "मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे" (प्यासा सावन), मदन मोहन का "बै‍याँ ना धरो हो बलमा" (दस्तक), और रवीन्द्र जैन का "श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम" (गीत गाता चल)। ऒरकेस्ट्रेशन भले ही पाश्चात्य हो, लेकिन उस पर भी शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल से मेलोडी में इज़ाफ़ा करने से कल्याणजी-आनंदजी कभी नहीं पीछे रहे। उनका हमेशा ध्यान रहा कि गीत मेलोडियस हो, सुमधुर हो, और शायद यही कारण है कि उनके बनाए गीतों की लोकप्रियता आज भी वैसे ही बरकरार है जैसा कि उस ज़माने में हुआ करता था। उनका संगीत मास और क्लास, दोनों को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता रहा है। दोस्तों, आज हम राग चारूकेशी पर आधारित १९७० की फ़िल्म 'मेरे हमसफ़र' का गीत सुनने जा रहे हैं "किसी राह में किसी मोड़ पर, कहीं चल ना देना तू छोड़ कर, मेरे हमसफ़र मेरे हमसफ़र"। लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ें, गीतकार आनंद बक्शी के बोल! जीतेन्द्र और शर्मीला टैगोर पर एक ट्रक के उपर फ़िल्माया गया था यह गाना। फ़िल्म तो ख़ास नहीं चली, लेकिन यह गीत अमर हो कर रह गया।

आज ३० जून है। कल्याणजी भाई का जन्मदिवस। 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से हम कल्याणजी भाई को श्रद्धांजली अर्पित करते हैं उन्ही के रचे इस ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाले गीत के ज़रिए। कल्याणजी भाई का २४ अगस्त २००० में निधन हो गया, आनंदजी भाई के बड़े भाई और उनके सुरीले हमसफ़र उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गए। लेकिन यह भी सच है कि कल्याणजी भाई अपनी धुनों के ज़रिए हमेशा जीवित रहेंगे। आनंदजी भाई ने कल्याणजी भाई के अंतिम समय का हाल कुछ इस तरह से बयान किया था विविध भारती के उसी इंटरव्यू में - "फ़ादर फ़िगर थे। सब से दुख की बात मुझे लगती है कि ये जब बीमार थे, अस्पताल में मैं उनसे मिलने गया। तो अक्सर ऐसा होता है कि मिलने नहीं देते हैं; डॊक्टर्स कहते हैं कि इनको रेस्ट करने दो, समझते नहीं हैं इस बात को कि आख़िरी टाइम जो होता है। तो जाने से पहले आख़िरी दिन, जब मैं उनसे मिलने अंदर गया, तो उनकी आँख में आँसू थे और वो कुछ बोलना चाहते थे। अब क्या कहना चाहते थे यह समझ में नहीं आया। डॊक्टर कहने लगे कि 'dont disturb him, dont disturb him'. मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहना चाहते थे। वह बात दिल में ही रह गई। उनके जाने के बाद मैं रो रहा था तो किसी ने कहा कि मत रो। मैंने कहा कि अब नहीं रो‍ऊँ तो कब रो‍ऊँ!" दोस्तों, कल्याणजी भाई इस फ़ानी दुनिया से जाकर भी हमारे बीच ही हैं अपनी कला के ज़रिए। आज का यह प्रस्तुत गीत हमें इसी बात का अहसास दिलाता है। यह गीत हम अपनी तरफ़ से ही नहीं बल्कि आनंदजी भाई की तरफ़ से भी डेडिकेट करना चाहेंगे उनके बड़े भाई, गुरु और हमसफ़र कल्याणजी भाई के नाम।

"तेरा साथ है तो है ज़िंदगी,
तेरा प्यार है तो है रोशनी,
कहाँ दिन ये ढल जाए क्या पता,
कहाँ रात हो जाए क्या ख़बर,

मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र।
किसी राह में किसी मोड़ पर,
कहीं चल ना देना तू छोड़ कर,
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र।"



क्या आप जानते हैं...
कि कल्याणजी-आनंदजी को १९९६ में फ़िल्म जगत में विशिष्ट सेवाओं के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त 'लता मंगेशकर पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत के दो वर्जन हैं फिल्म में, एक आशा की आवाज़ में है, दूसरे वर्जन जो कल बजेगा उसके गायक बताएं -३ अंक.
२. गीतकार बताएं इस शानदार गीत के - २ अंक.
३. संजय दत्त अभिनीत फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. फिल्म की नायिका का नाम क्या है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपके ३ अंकों का त्याग भी काम नहीं आया, खैर आपको और अवध जी को २-२ अंकों की बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९०

"जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ."

पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे में ऐसा कुछ पढने को मिलेगा.. मुझे ऐसी उम्मीद न थी। लेकिन क्या कीजिएगा.. कई दफ़ा कई चीजें उम्मीद के उलट चली जाती हैं, जिनपर आपका तनिक भी बस नहीं होता। और वैसे भी शायरों की(या किसी भी फ़नकार की) ज़िन्दगी कितनी जमीन के ऊपर होती हैं और कितनी जमीन के अंदर.. इसका पता आराम से नहीं लग पाता। जैसे कि साहिर सच में क्या थे.. कौन जाने? हम तो उतना हीं जान पाते हैं, जितना हमें मुहय्या कराया जाता है। और यह सही भी है.. हमें शायरों के इल्म से मतलब होना चाहिए, न कि उनकी जाती अच्छाईयों और खराबियों से। खैर........ हम भी कहाँ उलझ गए। महफ़िल जाँ निसार साहब को समर्पित है तो बात भी उन्हीं की होनी चाहिए।

निदा फ़ाज़ली जब उन शायरों का ज़िक्र करते हैं जो लिखते तो "माशा-अल्लाह" कमाल के हैं, लेकिन अपनी रचना सुनाने की कला से नावाकिफ़ होते हैं... तो वैसे शायरों में "जाँ निसार" साहब का नाम काफ़ी ऊपर आता है। निदा कहते हैं:

जाँ निसार नर्म लहज़े के अच्छे रूमानी शायर थे... उनके अक्सर शेर उन दिनों नौजवानों को काफ़ी पसंद आते थे। कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ अपने प्रेम-पत्रों में उनका इस्तेमाल भी करते थे– जैसे,

दूर कोई रात भर गाता रहा
तेरा मिलना मुझको याद आता रहा

छुप गया बादलों में आधा चाँद,
रौशनी छन रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले,
झाँकता है कोई सलाखों से

लेकिन अपनी मिमियाती आवाज़ में, शब्दों को इलास्टिक की तरह खेंच-खेंचकर जब वह सुनाते थे, तो सुनने वाले ऊब कर तालियाँ बजाने लगाते थे। जाँ निसार आखें बंद किए अपनी धुन में पढ़े जाते थे, और श्रोता उठ उठकर चले जाते थे.

अभी भी ऐसे कई शायर हैं जिनकी रचनाएँ कागज़ पर तो खुब रीझाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं को मंच पर परोसना नहीं आता। वहीं कुछ शायर ऐसे होते हैं जो दोनों विधाओं में माहिर होते हैं.. जैसे कि "कैफ़ी आज़मी"। कैफ़ी आज़मी का उदाहरण देते हुए "निदा" कहते हैं:

कैफ़ी आज़मी, बड़े-बड़े तरन्नुमबाज़ शायरों के होते हुए अपने पढ़ने के अंदाज़ से मुशायरों पर छा जाते थे. एक बार ग्वालियर के मेलामंच से कैफी साहब अपनी नज़्म सुना रहे थे.

तुझको पहचान लिया
दूर से आने वाले,
जाल बिछाने वाले

दूसरी पंक्तियों में ‘जाल बिछाने वाले’ को पढ़ते हुए उनके एक हाथ का इशारा गेट पर खड़े पुलिस वाले की तरफ था. वह बेचारा सहम गया. उसी समय गेट क्रैश हुआ और बाहर की जनता झटके से अंदर घुस आई और पुलिसवाला डरा हुआ खामोश खड़ा रहा

मंच से कहने की कला आए ना आए, लेकिन लिखने की कला में माहिर होना एक शायर की बुनियादी जरूरत है। वैसे आजकल कई ऐसे कवि और शायर हो आए हैं, जो बस "मज़ाक" के दम पर मंच की शोभा बने रहते हैं। ऐसे शायरों की जमात बढती जा रही है। जहाँ पहले कैफ़ी आज़मी जैसे शायर मिनटों में अपनी गज़लें सुना दिया करते थे, वहीं आजकल ज्यादातर मंचीय कवि घंटों माईक के सामने रहते हुए भी चार पंक्तियाँ भी नहीं कह पाते, क्योंकि उन्हें बीच में कई सारी "फूहड़" कहानियाँ जो सुनानी होती हैं। पहले के शायर मंच पर अगर उलझते भी थे तो उसका एक अलग मज़ा होता था.. आजकल की तरह नहीं कि व्यक्तिगत आक्षेप किए जा रहे हैं। निदा ऐसे हीं दो महान शायरों की उलझनों का जिक्र करते हैं -

नारायण प्रसाद मेहर और मुज़्तर ख़ैराबादी, ग्वालियर के दो उस्ताद शायर थे.

मेहर साहब दाग़ के शिष्य और उनके जाँनशीन थे, मुज़्तर साहब दाग़ के समकालीन अमीर मीनाई के शागिर्द थे. दोनों उस्तादों में अपने उस्तादों को लेकर मनमुटाव रहता था, दोनों शागिर्दों के साथ मुशायरों में आते थे और एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते.


अब आप सोच रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है.. जाँ निसार अख्तर की बात करते-करते मैं ये कहाँ आ गया। घबराईये मत... "मेहर" साहब और "खैराबादी" साहब का जिक्र बेसबब नहीं।

दर-असल "खैराबदी" साहब कोई और नहीं जाँ निसार अख्तर के अब्बा थे और "मेहर" साहब "जाँ निसार" के उस्ताद..

जाँ निसार अख्तर किस परिवार से ताल्लुकात रखते थे- इस बारे में "विजय अकेला" ने "निगाहों के साये" किताब में लिखा है:

जाँ निसार अख्तर उस मशहूर-ओ-मारुफ़ शायर मुज़्तर खै़राबादी के बेटे थे जिसका नाम सुनकर शायरी किसी शोख़ नाज़नीं की तरह इठलाती है। जाँ निसार उस शायरी के सर्वगुण सम्पन्न और मशहूर शायर सय्यद अहमद हुसैन के पोते थे जिनके कलाम पढ़ने भर ही से आप बुद्धिजीवी कहलाते हैं। हिरमाँ जो उर्दू अदब की तवारीख़ में अपना स्थान बना चुकी हैं वे जाँ निसार अख़्तर की दादी ही तो थीं जिनका असल नाम सईदुन-निसा था। अब यह जान लीजिए कि हिरमाँ के वालिद कौन थे। वे थे अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ खै़राबादी जिन्होंनें दीवान-ए-ग़ालिब का सम्पादन किया था और जिन्हें १८५७ के सिपाही-विद्रोह में शामिल होने और नेतृत्व करने के जुर्म में अंडमान भेजा गया था। कालापानी की सजा सुनाई गयी थी।

शायर की बेगम का नाम साफ़िया सिराज-उल-हक़ था, जिसका नाम भी उर्दू अदब में उनकी किताब ‘ज़ेर-ए-नज़र’ की वजह से बड़ी इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। और साफ़िया के भाई थे मजाज़। उर्दू शायरी के सबसे अनोखे शायर। आज के मशहूर विचारक डॉ. गोपीचन्द्र नारंग ने तो इस ख़ानदान के बारें में यहाँ तक लिख दिया है कि इस खा़नदान के योगदान के बग़ैर उर्दू अदब की तवारीख़ अधूरी है।

जाँ निसार अख्तर न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में ,रूबाईयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। फिल्मी गीतों के बारे में तो आपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर पढा हीं होगा, इसलिए मैं यहाँ उनकी बातें न करूँगा। एक रूबाई तो हम पहले हीं पेश कर चुके हैं, इसलिए अब नज़्म की बारी है। मुझे पूरा यकीन है कि आपने यह नज़्म जरूर सुनी होगी, लेकिन यह न जानते होंगे कि इसे "जां निसार" साहब ने हीं लिखा था:

एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.


इस शायर के बारे में क्या कहूँ और क्या अगली कड़ी के लिए रख लूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा। फिर भी चलते-चलते ये दो शेर तो सुना हीं जाऊँगा:

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं


"जाँ निसार" साहब के बारे में और भी कुछ जानना हो तो यहाँ जाएँ। वैसे इतना तो आपको पता हीं होगा कि "जाँ निसार अख्तर" आज के सुविख्यात शायर और गीतकार "जावेद अख्तर" के पिता थे।

आज के लिए इतना हीं काफ़ी है। तो अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज जो गज़ल लेकर हम आप सब के बीच हाज़िर हुए हैं उसे तरन्नुम में सजाया है "रूप कुमार राठौड़" ने। लीजिए पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल, जिसमें यादें गढने और चेहरे पढने की बातें हो रही हैं:

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको ______ देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-

बस अब तो मेरा दामन छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने

पिछली बार की महफ़िल-ए-गज़ल की शोभा बनीं शन्नो जी। महफ़िल में शन्नो जी और सुमित जी के बीच "गज़लों में दर्द की प्रधानता" पर की गई बातचीत अच्छी लगी। इसी वाद-विवाद में अवनींद्र जी भी शामिल हुए और अंतत: निष्कर्ष यह निकला कि बिना दर्द के शायरों का कोई अस्तित्व नहीं होता। शायर तभी लिखने को बाध्य होता है, जब उसके अंदर पड़ा दर्द उबलने की चरम सीमा तक पहुँच जाता है या फिर वह दर्द उबलकर "ज्वालामुखी" का रूप ले चुका होता है। "खुशियों" में तो नज़्में लिखी जाती हैं, गज़लें नहीं। महफ़िल में आप तीनों के बाद अवध जी के कदम पकड़े। अवध जी, आपने सही पकड़ा है... वह इंसान जो ज़िंदगी भर प्यार का मुहताज रहा, वह जीने के लिए दर्द के नगमें न लिखेगा तो और क्या करेगा। फिर भी ये हालत थी कि "दिल के दर्द को दूना कर गया जो गमखार मिला "। आप सबों के बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में मंजु जी और शरद जी आएँ जिन्होंने श्रोताओं का दामन दर्द और खलिश से भर दिया। आशीष जी का इस महफ़िल में पहली बार आना हमारे लिए सुखदायी रहा और उनकी झोली से शेरों की बारिश देखकर मन बाग-बाग हो गया। और अंत में महफ़िल का शमा बुझाने के लिए "नीलम" जी का आना हुआ, जो अभी-अभी आए नियमों से अनभिज्ञ मालूम हुईं। कोई बात-बात नहीं धीरे-धीरे इन नियमों की आदत पड़ जाएगी :)

ये रहे महफ़िल में पेश किए गए शेर:

जुल्म सहने की भी कोई इन्तहां होती है
शिकायतों से अपनी कोई दामन भर गया. (शन्नो जी)

आसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा,
हाथ तो मैने उठाये थे दुआ किसकी थी (अनाम)

मेरे दामन तेरे प्यार की सौगात नहीं
तो कोई बात नही,तो कोई बात नही । (शरद जी)

काँटों में खिले हैं फूल हमारे रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से दामन को बचाए जाते हैं. (शैलेन्द्र)

अपने ही दामन मैं लिपटा सोचता हूँ
आसमाँ पे कुछ नए गम खोजता हूँ (अवनींद्र जी)

तेरे आने से खुशियों का दामन चहक रहा ,
जाने की बात से दिल का आंगन छलक रहा . (मंजु जी)

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला || (हरिवंश राय बच्चन)

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफ़ाई)

शफ़क़,धनुक ,महताब ,घटाएं ,तारें ,नगमे बिजली फूल
उस दामन में क्या -क्या कुछ है,वो दामन हाथ में आये तो (अनाम)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, June 29, 2010

ये मेरा दिल यार का दीवाना...जबरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128

'दिल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन‍ १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्टार नम्बर-१ पर पहुँचे अमिताभ बच्चन अभिनीत कई फ़िल्मों में संगीत देकर कल्याणजी-आनंदजी अपनी व्यावसायिक हैसीयत को आगे बढ़ाते रहे। बिग बी के साथ इस जोड़ी की कुछ माह्त्वपूर्ण फ़िल्मों के नाम गिनाएँ आपको? 'ज़ंजीर', 'डॊन', 'मुक़द्दर का सिकंदर', 'गंगा की सौगंध', 'ख़ून पसीना', 'लावारिस', आदि। वापस आते हैं 'डॊन' पर। किरदार और कहानी के हिसाब से इस फ़िल्म के गानें बनें और ख़ूब हिट भी हुए। अनजान के लिखे और किशोर दा के गाए "ख‍इ के पान बनारसवाला", "अरे दीवानों मुझे पहचानो", और "ई है बम्बई नगरीय तू देख बबुआ" जैसे गीतों ने तहलका मचा दिया चारों तरफ़। लता-किशोर का डुएट "जिसका मुझे था इंतेज़ार" भी काफ़ी सुना गया। लेकिन एक और गीत जिसका एक ख़ास और अलग ही मुक़ाम है, वह है आशा भोसले का गाया और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ "ये मेरा दिल यार का दीवाना"। यह एक कल्ट सॊंग् है जिसकी चमक कुछ इस तरह की है कि आज ३० साल बाद भी वैसी की वैसी बरकरार है। ज़बरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन से सजी यह गीत उस समय का सब से ज़्यादा पाश्चात्य रंग वाला गीत था। कल्याणजी-आनंदजी ने जिस तरह का संयोजन इस गाने में किया है कि इस गीत को बजाए बग़ैर आगे बढ़ने को दिल नहीं चाहता। आज की कड़ी में इसी गीत की धूम!

आशा भोसले और कल्याणजी-आनंदजी के शुरु शुरु में बहुत कम ही गानें आए। जैसा कि पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में (पृष्ठ संख्या ५५७) में लिखते हैं कि आशा के तो कल्याणजी-आनंदजी के साथ सातवें और आठवें दशक के म्ध्य तक कम ही उल्लेखनीय गीत हैं। आशा भोसले आश्चर्यजनक रूप से कल्यानजी-आनंदजी खेमे से गायब सी रही हैं। यदि लता नहीं उपलब्ध हुईं तो इन्होनें सुमन कल्याणपुर, गीता दत्त या फिर नई गायिकाओं जैसे कमल बारोट, उषा तिमोथी, हेमलता, कृष्णा कल्ले को मौका दिया, पर आशा को सातवें दशक के मध्य तक तो बिलकुल नहीं। इस तथ्य की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, हालाँकि कारण सम्भवत: किसी निर्माता द्वारा आरम्भ में ही दोनों के बीच न चाहते हुए एक ग़लतफ़हमी ही रही। पर उसके बाद 'दिल ने पुकारा' (१९६७) के "किस ज़ालिम हो क़ातिल" से आशा भी शामिल हो गईं कल्याणजी-आनंदजी कैम्प में। ख़ैर, हम बात रहे थे "ये मेरा दिल यार का दीवाना की"। इस गीत की खासियत मुझे यही लगती है कि इसका जो ऒरकेस्ट्रेशन हुआ है, इसके जो म्युज़िक पीसेस हैं, वो बहुत ज़्यादा प्रोमिनेण्ट हैं। इतने प्रोमिनेण्ट कि अगर इन्हे गीत से अलग कर दिया जाए तो गीत की आत्मा ही चली जाएगी। अक्सर इस गीत को गुनगुनाते हुए इन पीसेस को भी साथ में गुनगुनाना पड़ता है। इस गीत के इंटरल्युड में से एक पीस को एक नामी टीवी चैनल ने अपने किसी कार्यक्रम के शीर्षक संगीत में इस्तेमाल किया है। तो दोस्तों, इस ज़बरदस्त नग़में को सुनिए और सलाम कीजिए आशा जी की गायकी और कल्याणजी-आनंदजी भाई की वक़्त के साथ साथ अपने आप को ढालने की प्रतिभा को!



क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल करीब ९ सालों तक कल्याणजी-आनंदजी के सहायक रहे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. कल्याणजी आनंदजी ने इस राग पर कई सारे कामियाब गीत बनाये, "छोड दे सारी दुनिया" भी इसी राग पर है जिस पर कल का ये गीत होगा, राग बताएं -३ अंक.
२. मुकेश और लता के गाये इस युगल गीत को किसने लिखा है - २ अंक.
३. ये इस फिल्म का शीर्षक गीत है, किन पर फिल्माया गया है ये गीत - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अब शरद जी आगे हो गए हैं, पर अवध जी अभी भी मौका है आपके पास, कल का गीत हमारे महिला श्रोताओं के लिए खास रहा, इसे पसंद करने के लिए धन्येवाद

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता" के घर सुमधुर गीतों और ग़ज़लों के साथ आए हैं उस्ताद शुजात खान और शारंग देव



ताज़ा सुर ताल २४/२०१०

विश्व दीपक - ७० के दशक के मध्य भाग से लेकर ८० के दशक का समय कलात्मक सिनेमा का स्वर्णयुग माना जाता है। उस ज़माने में व्यावसायिक सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के बीच की दूरी बहुत ही साफ़-साफ़ नज़र आती है। और सब से बड़ा फ़र्क था कलात्मक फ़िल्मों में उन दिनों गीतों की गुजाइश नहीं हुआ करती थी। लेकिन धीरे धीरे सिनेमा ने करवट बदली, और आज आलम कुछ ऐसा है कि युं तो समानांतर विषयों पर बहुत सारी फ़िल्में बन रही हैं, लेकिन उन्हे कलात्मक कह कर टाइप कास्ट नहीं किया जाता। इन फ़िल्मों की कहानी भले ही समानांतर हो, लेकिन फ़िल्म में व्यावसायिक्ता के सभी गुण मौजूद होते हैं। और इसलिए ज़ाहिर है कि गीत-संगीत भी शामिल होता है।

सुजॊय - आपकी इन बातों से ऐसा लग रहा है कि 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम ऐसे ही किसी फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं।

विश्व दीपक - बिलकुल! आज हमने चुना है आने वाली फ़िल्म 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता' के गीतों को।

सुजॊय - मैंने इस फ़िल्म के बारे में कुछ ऐसा सुन रखा है कि इसकी कहानी विवाह से बाहर के संबंध पर आधारित है और इस एक्स्ट्रा-मैरिटल संबंध का एक कारण है बांझपन। वैसे इस तरह की कहानी का अंदाज़ा आप फ़िल्म के शीर्षक से ही लगा सकते हैं। विश्व दीपक जी, अभी आप समानांतर सिनेमा की बात कर रहे थे, तो मैं यह जोड़ना चाहूँगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक हैं प्रवेश भरद्वाज, जिन्होने फ़िल्म निर्माण की बारिक़ियाँ सीखी है श्याम बेनेगल, गुलज़ार, अरुणा राजे और गोविंद निहलानी जैसे दिग्गज फ़िल्मकारों से जो समानांतर और कलात्मक सिनेमा के स्तंभ माने जाते रहे हैं। तो अब देखना यह है कि प्रवेश ने इस फ़िल्म को कैसी ट्रीटमेण्ट दी है।

विश्व दीपक - तो फ़िल्म की थोड़ी सी भूमिका हमने अपने पाठकों को दी, अब सीधे आ जाते हैं फ़िल्म के गीतों पर। इससे पहले कि गीतों की चर्चा शुरु करें, आइए इस फ़िल्म का पहला गीत यहाँ सुन लिया जाए, फिर बात को आगे बढ़ाएँगे।

गीत: ऐ ख़ुदा तू कुछ तो बता ज़रा


सुजॊय - यह गीत था उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान की आवाज़ में। जी हाँ, ये वही शुजात हुसैन ख़ान हैं जो एक जाने माने सितार वादक हैं इमदादख़ानी घराना के। शुजात खान साहब मशहूर सितार वादक उस्ताद विलायत खान के सुपुत्र हैं। इस फ़िल्म का संगीत शुजात खान साहब ने हीं तैयार किया है, सह-संगीतकार शारंग देव पंडित के साथ मिल कर।

विश्व दीपक - गीत सुन कर अच्छा लगा, कुछ-कुछ उस्ताद राशिद ख़ान साहब का गाया 'जब वी मेट' के गीत "आओगे जब तुम ओ साजना" की तरफ़ लगा कुछ जगहों पर। गीत का संगीत साफ़ सुथरा और कर्णप्रिय है, साज़ों के महाकुंभ के ना होने से एक सूदिंग अहसास होता है। एक सुकून का अहसास होता है गीत को सुनते हुए। शास्त्रीय कलाकार होने की वजह से इस मिट्टी के संगीत की मधुरता को शुजात साहब ने इस गीत में भली भांति समा दिया है।

सुजॊय - शुजात हुसैन ख़ान का जन्म १४ अगस्त १९६० में हुआ था। उनके सितार के ६० से उपर ऐल्बम्स बने हैं और उन्हे ग्रैमी नॊमिनेशन भी मिल चुका है। उनकी गायकी के भी चर्चे हैं। वे बैण्ड 'ग़ज़ल' में केहान कल्होर के साथ परफ़ार्म भी कर चुके हैं।

विश्व दीपक - चलिए अब दूसरे गीत की तरह नज़र दौड़ाते हैं। यह गीत है श्रेया घोषाल की आवाज़ में - "बारहाँ दिल में एक सवाल आया, आज सोचा तो ये ख़याल आया, दो क़दम साथ बस चले तुम हम, हमसफ़र तो ना थे ना कभी तुम हम"। न जाने कितने अरसे के बाद इस तरह के ग़ज़लनुमा अल्फ़ाज़ किसी हिंदी फ़िल्मी गीत में सुनने को मिल रहे है। इसके लिए हम धन्यवाद देते हैं फ़िल्म के गीतकार अमिताभ वर्मा को। श्रेया के आवाज़ की मिठास ने गीत की मधुरता को कई गुणा बढ़ा दिया है।

गीत: बारहाँ दिल में एक सवाल आया (श्रेया)


विश्व दीपक - इसी गीत का एक मेल वर्ज़न भी है के.के की आवाज़ में। अगर आप इजाज़त दें तो इसे भी सुनते चले?

सुजॊय - नेकी और पूछ पूछ?

गीत: बारहाँ दिल में एक सवाल आया (के.के)


सुजॊय - जैसा कि मैंने सोचा था, ठीक वैसे ही के.के ने फिर एक बार हमे निराश नहीं किया। मुझे इस दौर के गायकों में के.के. की आवाज़ सब से ज़्यादा अच्छी लगती है। वो अपना एक लो प्रोफ़ाइल मेन्टेन करते हैं, और एक के बाद एक लाजवाब गीत गाते चले जा रहे हैं।

विश्व दीपक - अच्छा सुजॊय जी, ये बताईये कि यह गीत था या ग़ज़ल?

सुजॊय - बढिया मज़ाक करते हैं आप। एक तरफ़ तो ’महफ़िल-ए-ग़ज़ल' आप होस्ट करते हैं, और दूसरी तरफ़ सवाल मुझसे पूछ रहे हैं :-) चलिए यूँ करते हैं, इस गीत के बोल यहाँ लिख डालते हैं, और फिर मैं गेस करता हूँ कि क्या यह ग़ज़ल की परिभाषा को पूरा करती है या नहीं!

"बारहाँ दिल में एक सवाल आया, आज सोचा तो ये ख़याल आया,

दो क़दम साथ बस चले तुम हम, हमसफ़र तो ना थे ना कभी तुम हम।

तेरी बातों पे मुस्कुराए आँखें, तेरी ख़ुशबू से गुनगुनाए साँसें,

मेरे इस दिल को बस एक ही ग़म, हमसफ़र तो न थे कभी तुम हम।

आज फिर तेरी याद आई है, पास मेरे मेरी तन्हाई है,

चलो अच्छा है टूटे सारे भरम, हमसफ़र तो न थे कभी तुम हम।"

सुजॊय - मुझे तो ग़ज़ल ही लग रही है, थोड़ा सा कन्फ़्युज़न है। चलिए आप ही बता दीजिए।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, भले हीं महफ़िल-ए-ग़ज़ल मैं होस्ट करता हूँ, लेकिन मैं ग़ज़लों की परिभाषा से दूर हीं रहता हूँ, लेकिन चूँकि प्रश्न मैंने पूछा था तो जवाब भी देना हीं पड़ेगा। रदीफ़ और काफ़िये के हिसाब से तो ये गज़ल है.. बस इसमें मतला नहीं है। लेकिन कई सारी ऐसी ग़ज़लें लिखी गई हैं, जो बिना मतला और बिना मक़ता के होती हैं। अगर मैं "बहर" की बात न करूँ, जो कि मैं जानकारियों के अभाव में कर भी नहीं सकता, तो मेरे हिसाब से ये सोलह आने ग़ज़ल हीं है। अब मैं पाठकों और श्रोताओं से कहूँगा कि जिन किन्हीं को "बहर" की जानकारी हो, वो अंतिम निर्णय दें। खैर "ग़ज़ल" की बाकी बातें फिर कहीं किसी और महफ़िल में की जाएगी। अभी तो आगे बढते हैं और सुनते हैं अगला गीत "फ़रियाद है शिकायत है" जिसे रीचा शर्मा ने गाया है अपने उसी अंदाज़ में। लेकिन आवाज़ को उन्होने उतना ऊँचा नहीं उठाया है जितना वो अक्सर करती हैं, बल्कि कुछ नर्म अंदाज़ में गाने को निभाया है।

सुजॊय - और गीत में एक क़व्वालीनुमा अंदाज़ है... रीदम में और संगीत की शैली में। तो चलिए सुनते हैं यह गाना।

गीत: फ़रियाद है शिकायत है


विश्व दीपक - ’मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता' के निर्देशक और संगीतकारों के नाम तो हम बता चुके है, साथ ही गीतकार का नाम भी। अब यह बता दें कि इस फ़िल्म के निर्माता हैं टुटु शर्मा और मनु एस. कुमारन, तथा फ़िल्म में मुख्य कलाकार हैं प्रशांत नारायण, अरुणा शील्ड्स, नावेद असलम और लुसी हसन।

सुजॊय - विश्व दीपक जी, टुटु शर्मा का नाम सुनकर मुझे एक ऐसी बात याद आ गई, जो भले हीं इस फिल्म के गानों से न जुड़ी है, लेकिन इस फिल्म से उसका गहरा नाता है। आपने अभी तक इस बात का जिक्र नहीं किया कि यह फिल्म रीलिज होने के पहले हीं लीक हो चुकी थी। मार्केट में इसकी "सीडी" खुलेआम बिकने लगी थी। इस फिल्म से पहले ऐसी हीं घटना दो और फिल्मों के साथ हो चुकी है। वे फिल्में हैं - "पाँच" और "तेरा क्या होगा जॉनी"... और आश्चर्य की बात तो ये है कि इन तीनों फिल्मों का निर्माता एक हीं इंसान है... टुटु शर्मा।

विश्व दीपक - यानि कि फिल्म लीक करने में टुटु शर्मा का भी हाथ हो सकता है। लेकिन इससे इनका क्या फायदा होगा। खैर हमें क्या लेना.. इन घटनाओं से। हमें तो बस संगीत से दरकार है। इसलिए इन बातों में न उलझते हुए हम अगले गाने की ओर रूख करते हैं, जिसे अपनी आवाज़ें दी हैं उदित नारायण और श्रेया घोषाल ने। यह भी एक नर्मोनाज़ुक रोमांटिक डुएट है "बेहोशी नशा ख़ुशबू, क्या क्या ना हमारी सांसों में"।

सुजॊय - ये बोल सुन कर लग रहा है कि एक और ग़ज़लनुमा अंदाज़ का गाना। बहुत दिनों के बाद उदित जी की आवाज़ सुनाई दे रही है इस फ़िल्म में। शुजात साहब का सुकूनदायक संगीत और अमिताभ वर्मा के पुर-असर बोल। बस इतना ही कहने को जी चाहता है कि अच्छी गायकी, उम्दा संगीत, पुर-असर बोल, क्या क्या न मौजूद है इस गाने में"! सुनिए, कुल ८ मिनट १९ सेकण्ड्स का यह गीत है।

गीत: बेहोशी नशा ख़ुशबू


विश्व दीपक - और अब हम आ पहुँचे हैं फ़िल्म के अंतिम गीत पर। और इस बार आवाज़ है रूप कुमार राठौड़ की। इसमें भी वही ठहराव, वही मासूमियत, वही सुकून, वही ग़ज़लनुमा अंदाज़। शुजात साहब ने तो जैसे मेलडी और अच्छे संगीत की धारा उतार कर रख दी है फ़िल्म संगीत संसार में, और साथ ही यह सिद्ध भी शायद करने वाले हैं कि अच्छा संगीत किसी युग किसी दौर का मोहताज नहीं होता। अगर कलाकार चाहे तो अच्छा काम किसी भी दौर में, किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है।

सुजॊय - बिलकुल ठीक कहा आपने। इस गीत की बात करें तो इसमें जगजीत सिंह के गायन शैली का प्रभाव सुनाई देता है। गीत के बोल हैं "इन्ही में डूब के एक रोज़ ख़ुद को खोया था, इन्ही की याद में कई रात मैं ना सोया था, इन्ही की हर ख़ुशी हर ग़म में साथ रोया था"। आगे अमिताभ वर्मा लिखते हैं कि "तब ऐसी अजनबी लगती नहीं थीं ये आँखें", इसलिए गीत को शीर्षक दिया गया है "अजनबी आंखें"। वैसे गीत में इस मिट्टी की महक है, लेकिन इसका जो रीदम और ऒरकेस्ट्रेशन है, वह पश्चिमी है। ख़ास कर इंटरल्युड म्युज़िक में तो हेवी इन्स्ट्रुमेण्ट्स का प्रयोग हुआ है, रॊक शैली का।

गीत: अजनबी आँखें


"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****१/२

सुजॊय - वाह! मज़ा आ गया। सच पूछिए तो एक लम्बे अरसे के बाद इतना उम्दा संगीत किसी हिंदी फ़िल्म में सुनने को मिला। हर गीत अच्छा है, बोल और संगीत, दोनों की दृष्टि से ही। दूसरे गीतकार कुछ सबक ज़रूर लेंगे ऐसी उम्मीद हम करते हैं। सस्ते गीत लिख कर उसे व्यावसायिकता की ज़रूरत करार देते हुए जो गीतकार फ़िल्म संगीत के समुंदर में गंदगी डाल रहे हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि कृपया इस फ़िल्म के गीतों को सुनें।

विश्व दीपक - अच्छा सुजॊय जी, आपने ज़िक्र किया था कि इस फ़िल्म में शारंग देव पंडित भी संगीतकार हैं, तो उन्होने किस गीत की धुन बनाई?

सुजॊय - नहीं, ये सभी गानें शुजात साहब के ही थे। दर-असल इस फ़िल्म के साउण्ड ट्रैक में चार इन्स्ट्रुमेण्टल पीसेस भी शामिल किए गए हैं जो शारंग जी की काम्पोज़िशन्स हैं। तो चलिए... मुझे जितना कहना था मैंने कह दिया, अब आपकी बारी है।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, मैं भी आपसे इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि इस फिल्म के संगीत में सब कुछ खास है। मेरे हिसाब से इतना "मनभावन" संगीत इस साल अभी तक किसी और फिल्म में सुनने को नहीं मिला। फिल्म चलेगी या पिटेगी... यह अलग मुद्दा है, लेकिन यह संगीत हिट है। दुआ करता हूँ कि आने वाले दिनों में किसी और संगीतकार की झोली से भी ऐसा हीं संगीत बरसे। खत्म हो रही मेलोडी और गुम हो रही फिल्मी-ग़ज़लों को बचाने का इससे अच्छा कोई और रास्ता मुझे नज़र नहीं आ रहा। दिल में एक सुकून लेकर चलिए अब हम दोनों श्रोताओं से विदा लेते हैं... खुदा हाफ़िज़!

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ७०- आप ने फ़िल्म 'वैसा भी होता है -२' मे अपने अभिनय के लिए सराहे गए थे और आपने केतन मेहता की फ़िल्म 'रंग रसिया' में भी एक किरदार निभाया था। बताइए हम किस अभिनेता या अभिनेत्री की बात कर रहे हैं?

TST ट्रिविया # ७१- इंगलैण्ड के किस संगीत विद्यालय ने उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान का विज़िटिंग्‍ फ़ैकल्टी के रूप में स्वागत किया था?

TST ट्रिविया # ७२- उदित नारायण और श्रेया घोषाल ने 'मिस्टर सिंह....' फ़िल्म में एक युगल गीत गाया है। बताइए कि इन दोनों की आवाज़ में वह कौन सा युगल गीत है जिसमें "बेकल", "सहयोग", "वातावरण", "झरना" जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. फ़िल्म 'फ़िदा' के गीत "आजा वे माही"।
२. 'रन' (२००४)।
३. फ़िल्म 'दिल माँगे मोर' का "ऐसा दीवाना हुआ ये दिल आप के प्यार में" और फ़िल्म 'राज़' का "आप के प्यार में हम संवरने लगे"।

पिछली बार की बैठक खाली हीं गई... किसी ने हमारी महफ़िल की तरह रूख नहीं किया। सीमा जी, किधर हैं आप? उम्मीद करते हैं कि दुबारा ऐसी स्थिति नहीं आएगी।

Monday, June 28, 2010

ओ बाबुल प्यारे....लता की दर्द भरी आवाज़ में एक बेटी की गुहार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 427/2010/127

दिल लूटने वाले जादूगर कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की सातवीं कड़ी में हम फिर एक बार सन् १९७० की ही एक फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं। देव आनंद-हेमा मालिनी अभिनीत सुपर डुपर हिट फ़िल्म 'जॊनी मेरा नाम'। एक फ़िल्म को सफल बनाने के लिए जिन जिन साज़ो सामान की ज़रूरत पड़ती है, वो सब मौजूद थी इस फ़िल्म में। बताने की ज़रूरत नहीं कि फ़िल्म के गीत संगीत ने भी एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष निभाया। फ़िल्म का हर एक गीत सुपरहिट हुआ, चाहे वह आशा-किशोर का गाया "ओ मेरे राजा" हो या किशोर की एकल आवाज़ में "नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूँ", उषा खन्ना के साथ किशोर दा का गाया "पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले" हो, आशा जी की मादक आवाज़-ओ-अंदाज़ में "हुस्न के लाखों रंग" हो, या लता जी के गाए दो गीत "मोसे मोरा श्याम रूठा" और "ओ बाबुल प्यारे"। इंदीवर और अनजान के लिखे इस फ़िल्म के ये सारे गीत गली गली गूंजे। अब इस फ़िल्म से किसी एक गीत को आज यहाँ पर सुनवाने की बात आई तो हम कुछ दुविधा में पड़ गए कि किस गीत को बजाया जाए। फिर शब्दों के स्तर पे अगर ग़ौर करें, तो "ओ बाबुल प्यारे" गीत को ही फ़िल्म का सर्वश्रेष्ठ गीत माना जाना चाहिए, ऐसा हमारा विचार है। और इसीलिए हमने इसी गीत को चुना है। सिचुएशन कुछ ऐसा है कि नायिका के बूढ़े पिता को क़ैद कर रखा गया है, और क़ैदख़ाने के ठीक बाहर नायिका यह गीत गा रही है, इस बात से बिल्कुल बेख़बर कि उनके और उनके पिता के बीच का फ़ासला बहुत ही कम है। गीत के बोलों में अनजान साहब ने जान डाल दी है कि गीत को सुनते हुए जैसे कलेजा कांप उठता है। मुखड़े में "ओ" का इस्तेमाल इस तरह का शायद ही किसी और गाने में किसी ने किया होगा! "ओ बाबुल प्यारे, ओ रोये पायल की छमछम, ओ सिसके सांसों की सरगम, ओ निसदिन तुझे पुकारे मन हो"। पिता-पुत्री के रिश्ते पर बने गीतों में यह एक बेहद महत्वपूर्ण गीत रहा है। गीत के तीसरे अंतरे में राजा जनक और सीता का उल्लेख करते हुए नायिका गाती हैं - "जनक ने कैसे त्याग दिया है अपनी ही जानकी को, बेटी भटके राहों में, माता डूबी आहों में, तरसे तेरे दरस को नयन"। और कल्याणजी-आनंदजी ने इस गीत की धुन भी कुछ ऐसी बनाई है कि बताना मुश्किल है कि गीतकार, गायिका और संगीतकार में किसे नम्बर एक माना जाए इस गीत के लिए!

फ़ारूख़ क़ैसर, आनंद बक्शी, इंदीवर और राजेन्द्र कृष्ण के बाद आज हम अनजान साहब की रचना सुन रहे हैं, और बताना ज़रूरी है कि अनजान साहब ने कल्याणजी-आनंदजी के साथ एक लम्बा सफ़र तय किया है। तो क्यों ना आज आनंदजी के 'उजाले उनकी यादों के' वाली मुलाक़ात से उस अंश को यहाँ प्रस्तुत किया जाए जिसमें उनसे पूछा गया था कि उनके हिसाब से उनका सब से अच्छा काम किस गीतकार के साथ हुआ है। सवाल पूछ रहे हैं विविध भारती के वरिष्ठ उद्‍घोषक श्री कमल शर्मा।

प्र: आनंदजी, आपको लगता है कि आपका जो 'best work' है, वो इंदीवर जी के साथ में हुआ है या आनंद बक्शी साहब के साथ में हुआ है?

उ: नहीं, हमने, क्या हुआ, जब अनजान जी आए न, अनजान जी से एक बात कही मैंने। तो स्ट्रगल के दिनों में जब आनजान जी आए, तो अनजान जी से कहा कि काम, बडे सीधे आदमी थे, बड़े सीधे सच्चे आदमी थे, उनसे कहा कि काम तो ईश्वर दिलाएगा, लेकिन ये जो स्ट्रगल पीरियड चला है आपका, इसमें एक ही काम कर लीजिए आप, कि तीन 'म्युज़िक डिरेक्टर्स' चल रहे हैं - कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन - इन तीनों के पास जाओ कि पुरिया क्या बेचनी है, माल क्या देना है। बोले हर जगह तो गाना ही लिखूँगा। मैंने कहा कि ऐसा नही होता है, हर किसी का एक अलग लिखवाने का अंदाज़ होता है। तो बोले कि वह क्या होता है? मैंने कहा कि वो सोचो आप और फिर दो दिन के बाद आइए आप, ज़रा सोच के आइए कि क्या करना है। तो दूसरे तीसरे दिन आए तो बोले कि थोड़ी बात समझ में आई, कि आपके गानों में मैंने देखा कि फ़िलोसोफ़ी चाहिए। मैंने कहा कि सही कहा आपने, हमारे गीतों में फ़िलोसोफ़ी चाहिए कहीं ना कहीं, डायरेक्टली या इनडायरेक्टली। कि अपने हाथों से हवाओं को गिरफ़्तार ना कर, कि पहले पेट पूजा, फिर काम करो कोई दूजा, कुछ ना कुछ तो आएगा ही। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के वहाँ थोड़ा गिरा गाना लाना पड़ेगा, क़व्वाली का रंग, थोड़ा ठेका लाना पड़ेगा, और आर.डी के पास जाएँगे तो लास्ट नोट जो होगी वह लम्बी होगी, तो ऊ, ई नहीं चलेगा वहाँ पे। तो बाद मे अनजान जी जब मिले, बहुत काम करने लगे थे, बोले 'गुरु, वह पुरिया बहुत काम आ रही है, जहाँ भी जाओ फ़टाफ़ट काम हो जाता है, कि उसके वहाँ जाना है तो क्या देना है'।

प्र: गुरु मंत्र तो आप ही से मिला था! (हँसते हुए)

उ: अब क्या हुआ था कि एक गाना था हमारा, फ़िल्म लाइन में चलता है ना, जुमले चलते हैं, कभी कुछ चलता है, कभी कुछ, बीच में जानू, जानेमन, जानेजिगर, ये सब चलने लगा था। मैंने अनजान जी को बोला कि अनजान जी, एक काम कीजिए ना, सारे के सारे एक में डाल देते हैं हम लोग, जानू, जानम, जानेमन, जानेवफ़ा, जानेजहाँ। अनजान जी बोले 'जान छूटे इनसे'।

तो दोस्तों, कुछ हँसी मज़ाक की बातें हो गईं, लेकिन अब वापस आते हैं आज के गीत के मूड पर, जो कि दर्द भरा है। लता जी के दर्दीले अंदाज़ में एक बेटी का अपने पिता को आहवान! सुनते हैं....



क्या आप जानते हैं...
कि कमल बारोट से कल्याणजी-आनंदजी ने कुछ बड़े सुंदर ग़ैर-फ़िल्मी गीत गवाए हैं और आज भी "पिया रे प्यार", "पास आओ कि मेरी" जैसे गीतों का अपना अलग आकर्षण है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ये एक एक्शन पैक फिल्म का हिट गीत है, जिसके नए संस्करण को इस फिल्म की लेखक जोड़ी में से एक के सुपुत्र ने निर्देशित किया था, फिल्म बताएं -२ अंक.
२. इस गीत को उसके संगीत संयोजन के लिए खास याद किया जाता है, किस गायिका की आवाज़ है इसमें - २ अंक.
३. मूल फिल्म के निर्देशक कौन थे - ३ अंक.
४. किस मशहूर अभिनेत्री पर फिल्माया गया था ये डांस नंबर- २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे अवध जी किसी सवाल को जवाब तो दिए होते, कम से कम दो अंक ही मिल जाते, खैर इस सही जवाब के साथ ३ अंक लिए शरद जी ने और आपसे आगे निकल आये, इंदु जी अपने व्यस्तता के बीच भी oig में आना नहीं भूलती यही उनका प्यार है...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, June 27, 2010

यूहीं तुम मुझसे बात करती हो...इतने जीवंत और मधुर युगल गीत कहाँ बनते हैं रोज रोज



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 426/2010/126

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर'। इस शृंखला के पहले हिस्से में पिछले हफ़्ते आपने पाँच गीत सुनें, और आज से अगले पाँच दिनों में आप सुनेंगे पाँच और गीत। तो साहब हम आ पहुँचे थे ७० के दशक में, और जैसा कि हमने आपको बताया था कि ७० का दशक कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन का दशक था। यह कहा जाता है कि इन तीनों ने रिकार्डिंग् स्टुडियो पर जोड़-तोड़ से ऐडवांस बुकिंग्' करनी शुरु कर दी थी कि और किसी संगीतकार को अपने गीतों की रिकार्डिंग् के लिए स्टुडियो ही नहीं मिल पाता था। 'आराधना' की सफलता के बाद यह ज़माना राजेश खन्ना और किशोर कुमार के सुपर स्टारडम का भी था। कल्याणजी-आनंदजी भी इस लहर में बहे और सन् १९७० में राजेश खन्ना के दो सुपर हिट फ़िल्मों में मुख्यत: किशोर कुमार को ही लिया। ये दो फ़िल्में थीं 'सफ़र' और 'सच्चा झूठा'। 'सफ़र' में "ज़िंदगी का सफ़र", "जीवन से भरी तेरी आँखें", तथा 'सच्चा झूठा' में "दिल को देखो चेहरा ना देखो", "मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया" और "कहदो कहदो तुम जो कहदो" (लता के साथ)जैसे गानें किशोर दा ने ही गाए थे। लेकिन रफ़ी साहब ने 'सच्चा झूठा' में लता जी के साथ मिलकर एक युगल गीत गाया था जिसे लोगों ने ख़ूब ख़ूब पसंद किया, और इसी गीत को आज हम लेकर आए हैं आपको सुनवाने के लिए। "युंही तुम मुझसे बात करती हो या कोई प्यार का इरादा है, अदाएँ दिल की जानता ही नहीं मेरा हमदम भी कितना सादा है"। राजेश खन्ना और मुमताज़ पर फ़िल्माए लता-रफ़ी डुएट्स में जिन दो गीतों की याद हमें सब से पहले आती है, उनमें से एक है लक्ष्मी-प्यारे के संगीत में 'दो रास्ते' का गीत "दिल ने दिल को पुकारा मुलाक़ात हो गई" और दूसरा गीत है आज का यह प्रस्तुत गीत।

सन् १९९७ में कल्याणजी भाई विविध भारती के स्टुडियो में तशरीफ़ लाए थे और गणेश शर्मा को एक इंटरवियू दिया था। चलिए आज उसी का एक अंश यहाँ पर पेश किए देते हैं। गणेश शर्मा कल्याणजी भाई से पूछते हैं कि कल्याणजी भाई, आपको बहुत बड़े बड़े अवार्ड, पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिसमें राष्ट्रपति पुरस्कार, पद्मश्री। कोई ऐसा यादगार लम्हा किसी अवार्ड फ़ंकशन का, अवार्ड लेते हुए, आप श्रोताओं को बताना चहेंगे?

कल्याणजी: कोई भी अवार्ड मिलता है ख़ुशी तो मिलती है, उसमें कोई सवाल नहीं उठता है, लेकिन मुझे लगता है कि जनता का जो अवार्ड है, वह सब से बड़ा है क्योंकि जब भी हम काम करते हैं, उनकी क्या ख़ुशी हुई है, उनकी क्या क्लैपिंग् हुई है, लेकिन जब भी कोई अवार्ड लिया तो ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है हमारी कि हम चाहते हैं कि जितने प्यार से लोगों ने यह अवार्ड दिया है, तो हम इस संगीत के ज़रिये क्या समाज की सेवा कर सकते हैं, क्या देश की सेवा कर सकते हैं, क्या हमारे आने वाले भाइयों के लिए कर सकते हैं, ये हमेशा हमेशा मन में रहता है। फिर अगर आप मज़ाक की बात करें तो फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड, बहुत बड़ा अवार्ड है, और हमें यह 'कोरा काग़ज़' के लिए मिला। बहुत लेट मिला था, २५ साल, २७ साल इंडस्ट्री में रहने के बाद। वहाँ पूछा गया कि यह अवार्ड मिलने से आप को क्या महसूस हो रहा है? मैंने कहा कि बहुत ख़ुशी हो रही है, क्यों नहीं ख़ुशी होगी, बड़ी उमर में लड़का हुआ है!

और आइए अब सुनते हैं राजेश खन्ना और मुमताज़ पर फ़िल्माया गया लता-रफ़ी की युगल आवाज़ों में आनंद बक्शी साहब की रचना फ़िल्म 'सच्चा झूठा' से।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्मों से हट कर कल्याणजी व्यक्तिगत जीवन में आचार्य रजनीश (ओशो) के भक्त थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फिल्म के एक अन्य गीत में उषा खन्ना ने किशोर दा की आवाज़ से आवाज़ मिलायी थी, फिल्म का नाम बताएं -२ अंक.
२. गीत के एक अंतरे में रामायण के एक अंश का जिक्र है, गीत के बोल बताएं - २ अंक.
३. गीतकार बताएं - ३ अंक.
४. लता ने किस अभिनेत्री के लिए पार्श्व गायन किया है इस गीत में - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी पहले जरूर आये, पर ३ अंकों का सवाल अपने गुरु के लिए छोड़ गए, वी डी ने भी हाथ आजमाया और २ अंक से खाता खोल ही दिया, इंदु जी जल्दी आईये, आपकी अनुपस्तिथि में मैदान जरा खाली दिख रहा है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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