Saturday, October 17, 2009

एक ऑडियो-वीडियो पुस्तक अमृता-इमरोज़ के नाम



रश्मि प्रभा
अमृता-इमरोज़ के प्रेम-सम्बन्धों को अमृता की कविताओं और इमरोज़ की पेंटिंगों के माध्यम से देखने वालों ने जितना महसूसा है, वह उन्हें भावातिरेक से उपजी यूटोपिया पर पहुँचा देता है, जहाँ जिस्मानी आकर्षण का ज़ादू भी आध्यात्मिक प्यार की डगर की तरह दिखता है। अमृता की कविताओं के रसज्ञ कविताओं को पढ़कर न तो अपनी बेचैनी ज़ाहिर कर पाते हैं और न किसी तरह का सुकूँन महसूस कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि घर की दीवारें, हवा, पानी मौसम, दिन-रात सब तरफ अमृता-इमरोज़ के किस्सों के साये हैं।

प्यार के रुहानी सफर की प्रसंशक यदि कोई महिला हो और वह भी कवि हृदयी, तो यह लगभग तयशुदा बात है कि अमृता की नज्मों में वह खुद को उतारने लगती है। अमृता-इमरोज के सम्बंधों में उसे हर तरह के आदर्श प्रेम संबंधों की छाया दिखती है। अमृता की हर अभिव्यक्ति उसे अपनी कहानी लगती है और इमरोज़ की पेंटिंगों से भी कोई न कोई आत्मिक सम्बंध जोड़ लेती है।

इसी तरह की एक अति सम्वेदनशील कवयित्री रश्मि प्रभा की आडियो-पुस्तक का विमोचन आज हम अपने श्रोताओं के हाथों करा रहे हैं। रश्मि प्रभा की कविताओं के इस संग्रह (कुछ उनके नाम) की ख़ास बात यही है कि इसकी हर कविता अमृता और इमरोज़ को समर्पित है। इनकी कविताओं में प्रेम का विहान है, सुबह है, दोपहर, शाम और रात है और इसके बाद शुरू होती प्रेम की अनंत यात्रा के संकेत हैं।

रश्मि की दृष्टि में अमृता के जीवन के किसी भी आयाम का हर सफहा इमरोज़ के नाम है। इमरोज़ अमृता का बिस्तर भी है, भोजन भी है, खुदा भी है, आदि भी है और अंत भी।

मेरा मानना है कि अमृता की कविताएँ प्रेम की जो दुनिया बनाती हैं, लगभग उसी दुनिया का विस्तार प्रस्तुत ऑडियो-बुक की नज़्मों में हमें मिलता है।

--शैलेश भारतवासी


कविता-प्रेमियो,

आज आप इसी ऑडियो-किताब का लोकार्पण अपने हाथों कीजिए। माउस को कैची समझकर नीचे दिख रहे एलबम का फीता काटिए॰॰॰



हमने अमृता-इमरोज़ को और अधिक समझने के लिए अमृता की कविताओं और इमरोज़ की पेंटिंगों को नज़दीक से महसूसने वालीं रंजना भाटिया और जेन्नी शबनम से संपर्क किया। रंजना भाटिया एक प्रसिद्ध ब्लॉगर हैं और 'अमृता प्रीतम की याद में' नाम से एक ब्लॉग चलाती हैं। जेन्नी शबनम इमरोज़ से अक्सर मिलती रहती हैं और इमरोज़-अमृता के रुहानी सफर की चश्मदीद भी हैं, शायद जेन्नी इमरोज़ की पेंटिंगों के संदेशों को बहुत अच्छे से समझती हैं। तो पढ़िए इन दोनों के विचार॰॰॰


जेन्नी शबनम
अमृता जी और इमरोज़ जी मेरे साहित्य सफ़र के प्रेरणा-स्रोत हैं। इमरोज़ जी की वजह से आज यहाँ मैं अपनी रचनाएँ सार्वजनिक रूप से प्रेषित करने का साहस कर सकी हूँ। मेरी ये चंद पँक्तियाँ जो कभी मैं उनके बारे में लिखी थी और सबसे पहले इमरोज़ जी को सुनाई थी-

बहुत तलाशी हूँ,
कोई और अमृता नहीं मिलती,
न कोई और इमरोज़ मिलता।
एक युग में,
एक ही अमृता-इमरोज़ होते,
कोई दूसरा नहीं होता।
प्यार, दोस्ती, नाते, रिश्ते,
सारे बंधनों से परे,
दो रूहानी हमसफ़र...
अमृता और इमरोज़।


-----जेन्नी शबनम
रंजना भाटिया
हर बार अमृता जी के लिखे को पढ़ना एक नया अनुभव दे जाता है ..और एक नई सोच ..वह एक ऐसी शख्सियत थी जिन्होंने ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी ..एक किताब में उनके बारे में लिखा है कि हीर के समय से या उस से पहले भी वेदों-उपनिषदों के समय से गार्गी से लेकर अब तक कई औरतों ने अपनी मर्जी से जीने और ढंग से जीने की जरुरत तो की पर कभी उनकी जरुरत को परवान नहीं चढ़ने दिया गया और अंत दुखदायी ही हुआ! आज की औरत का सपना जो अपने ढंग से जीने का है वह उसको अमृता-इमरोज़ के सपने सा देखती है ..ऐसा नहीं है कि अमृता अपनी परम्पराओं से जुड़ी नहीं थीं ..वह भी कभी-कभी विद्रोह से घबरा कर हाथों की लकीरों और जन्म के लेखो जोखों में रिश्ते तलाशने लगती थीं, और जिस समय उनका इमरोज़ से मिलना हुआ उस वक्त समाज ऐसी बातों को बहुत सख्ती से भी लेता था ..पर अमृता ने उसको जी के दिखाया ..

वह ख़ुद में ही एक बहुत बड़ी लीजेंड हैं और बंटवारे के बाद आधी सदी की नुमाइन्दा शायरा और इमरोज़ जो पहले इन्द्रजीत के नाम से जाने जाते थे, उनका और अमृता का रिश्ता नज्म और इमेज का रिश्ता था। अमृता की नज़में पेंटिंग्स की तरह खुशनुमा हैं, फिर चाहे वह दर्द में लिखी हों या खुशी और प्रेम में वह और इमरोज़ की पेंटिंग्स मिल ही जाती है एक दूजे से !!

मुझे उनकी लिखी इस पर एक कविता याद आई ..

तुम्हें ख़ुद से जब लिया लपेट
बदन हो गए ख्यालों की भेंट
लिपट गए थे अंग वह ऐसे
माला के वो फूल हों जैसे
रूह की वेदी पर थे अर्पित
तुम और मैं अग्नि को समर्पित
यूँ होंठो पर फिसले नाम
घटा एक फिर धर्मानुष्ठान
बन गए हम पवित्र स्रोत
था वह तेरा मेरा नाम
धर्म विधि तो आई बाद !!


अमृता जी ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपनी ज़िंदगी जी। उनमें इतनी शक्ति थी की वह अकेली अपनी राह चल सकें। उन्होंने अपनी धारदार लेखनी से अपन समय की सामजिक धाराओं को एक नई दिशा दी थी!!बहुत कुछ है उनके बारे में लिखने को ....पर जितना लिखा जाए उतना काम है ...

अभी उन्हीं की लिखी एक सुंदर कविता से अपनी बात को विराम देती हूँ ..

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुट्ठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा,
ज्यूँ रातें रेशम की परियाँ
पाँत बाँध कर आईं......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें


--रंजना भाटिया


कवयित्री की ही आवाज़ में सुनिए सम्पूर्ण पुस्तक-


आवाज़ की इंजीनियर खुश्बू ने पूरी पुस्तक का चित्रों से भरा एक वीडियो बनाया है। आशा है यह भी आपको पसंद आयेगा।


ज्योति - प्रेमचंद



सुनो कहानी: प्रेमचंद की "ज्योति"
दीपावली शुभ हो! आपका जीवन ज्योतिर्मय हो!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार इस्मत चुगताई की मार्मिक कहानी "चौथी का जोड़ा" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी "ज्योति", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 22 मिनट 34 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली-सो गए क्या मोहन? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं?
(प्रेमचंद की "ज्योति" से एक अंश)



नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3; Ogg Vorbis
#Fourty Second Story, Jyoti: Premchand/Hindi Audio Book/2009/36. Voice: Anurag Sharma

Friday, October 16, 2009

अंधे जहाँ के अंधे रास्ते, जाए तो जाए कहाँ... शैलेन्द्र ने पेश किया अर्थपूर्ण काव्यात्मक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 234

ल शंकर साहब के जन्मदिवस के अवसर पर हमने सुना था फ़िल्म 'असली नक़ली' का युगल गीत। शंकर जयकिशन और देव आनंद के कॊम्बिनेशन का वह एक सदाबहार गीत रहा है। आइए आज भी शंकर जयकिशन और देव आनंद का ही एक और गीत सुनें। कल हमने आपको यह भी बताया था कि शुरु शुरु में जब शंकर जयकिशन देव साहब के लिए गानें बना रहे थे तो पार्श्वगायन के लिए तलत महमूद और हेमन्त कुमार की आवाज़ें ले रहे थे, बाद में रफ़ी साहब बने देव आनंद की आवाज़। तो आज ऐसी एक फ़िल्म जिसमें देव साहब का प्लेबैक किया था तलत साहब और हेमन्त दा ने। यह फ़िल्म है 'पतिता'। इस फ़िल्म में कम से कम तीन एकल गीत हैं तलत महमूद की आवाज़ में और शैलेन्द्र के लिखे हुए जिन्हे बेहद शोहरत हासिल हुई, और एक युगल गीत लता जी और हेमन्त दा का गाया हुआ और हसरत जयपुरी का लिखा हुआ ऐसा था जिसका शुमार आज इस जोड़ी के सदाबहार युगल गीतों में होता है। याद है ना वह युगल गीत "याद किया दिल ने कहाँ हो तुम, झूमती बहार है कहाँ हो तुम"! लेकिन आज हम सुनेंगे तलत महमूद का गाया और शैलेन्द्र का लिखा "अंधे जहाँ के अंधे रास्ते जाऊँ तो जाऊँ कहाँ"। तलत साहब के गाए इस फ़िल्म के दो और गीत हैं "हैं सब से मधुर वो गीत जिन्हे हम दर्द के सुर में गाते हैं" और "तुझे अपने पास बुलाती है तेरी दुनिया, कब से बाहें फैलाती हैं तेरी दुनिया"। 'पतिता' अमीय चक्रबर्ती की फ़िल्म थी। शंकर जयकिशन की ज़बरदस्त कामयाबी के मद्दे नज़र राज कपूर कैम्प के बाहर के फ़िल्मकार भी अपनी फ़िल्मों के लिए इस संगीतकार जोड़ी को साइन करवाना चाहते थे। देवेन्द्र गोयल, डी. डी. कश्यप और रमेश सहगल जैसे नामचीन फ़िल्म निर्माताओं के साथ साथ अमीय चक्रबर्ती ने जब अपने बैनर 'मार्स मूवीज़' की स्थापना की तो अपनी पहली ही फ़िल्म 'दाग़' में शंकर जयकिशन को संगीतकार नियुक्त किया। यह १९५२ की बात थी। इसके अगले ही साल १९५३ में बनी 'पतिता' और एक बार फिर वही सुरीली कामयाबी की दास्तान दोहराई गई।

'पतिता' में देव आनंद की नायिका बनीं उषा किरण। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि अमीय साहब ने अपनी पहली फ़िल्म 'दाग़' में उषा किरण से एक छोटा सा रोल करवाया था, और अगले ही साल 'पतिता' में उन्हे बतौर नायिका कास्ट कर किया। और आइए अब ज़रा सी बातें करें आज के प्रस्तुत गीत के बारे में। भले ही यह गीत समाज में फैली अंधकार की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहा है, लेकिन शंकर जयकिशन ने इस गाने का ऐसा ऒर्केस्ट्रेशन किया है कि गीत बड़ा ही शानदार बन पड़ा है। शंकर जयकिशन का भव्य ऒर्केस्ट्रेशन इंडस्ट्री में चर्चा का विषय बन गया था उन दिनों। वो शंकर जयकिशन ही थे जिन्होने फ़िल्मी गीतों में ऐकोर्डियन साज़ का इस्तेमाल लोकप्रिय किया। इस साज़ के इस्तेमाल का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है आज का यह गीत। और इस गीत में ख़ुद जयकिशन ने स्वतंत्र रूप से ऐकोर्डियन बजाया था और साहब क्या ख़ूब बजाया था! और संगीत के साथ साथ बोल भी ऐसे कि जो हमारा ध्यान समाज के उस वर्ग की ओर आकृष्ट करती है जो इसी समाज के सताए हुए हैं, जिन्हे अंग्रेज़ी में कहते हैं 'less privileged'| "हमको ना कोई बुलाए, ना कोई पलकें बिछाए, ऐ ग़म के मारों मंज़िल वहीं है दम ये टूटे जहाँ"। इसी उम्मीद के साथ कि समाज के सारे अंधकार दूर होंगे, लोगों की आँखों पर छाए सामाजिक अंधेपन का इलाज होगा, आइए सुनते हैं तलत साहब की मख़मली आवाज़ में आज का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस युगल गीत में पुरुष स्वर मुकेश का है.
२. यहाँ भी शैलेन्द्र हैं पर एकदम अलग अंदाज़ में.
३. मुखड़े की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"ख्वाब".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी १६ अंकों पर पहुंचे हैं आप, पूर्वी जी आप मात्र १ मिनट की देरी से चूक गयी, पर जाहिर है हमारी अगली विजेता आप ही होंगी, चूँकि आपका कोई मेल आइडी हमारे पास उपलब्ध नहीं है, इस कारण आपसे इसी माध्यम से ये गुजारिश करते हैं कि आप अपनी पसंद के ५ गीतों की सूची हमें जल्द से जल्द भेज दें hindyugm@gmail.com पर. दीपावली की पूर्व संध्या पर ओल्ड इस गोल्ड के सभी प्यारे प्यारे श्रोताओं को सुजॉय और सजीव दे रहे हैं समस्त हिंद युग्म परिवार की तरफ से ढेरों शुभकामनाएँ.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है...."सुरेश" की आवाज़ में पूछ रहे हैं "शहरयार"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५४

की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। आज की गज़ल जिस फ़िल्म से(हाँ, यह फ़िल्मी-गज़ल है) ली गई है, उस फ़िल्म की चर्चा महफ़िल-ए-गज़ल में न जाने कितनी बार हो चुकी है। चाहे छाया गांगुली की "आपकी याद आती रही रात भर" हो, हरिहरण का "अजीब सानेहा मुझपे गुजर गया" हो या फिर आज की ही गज़ल हो, हर बार किसी न किसी बहाने से यह फ़िल्म महफ़िल-ए-गज़ल का हिस्सा बनती आई है। १९७९ में "मुज़फ़्फ़र अली" साहब ने इस चलचित्र का निर्माण करके न सिर्फ़ हमें नए-नए फ़नकार (गायक और गायिका) दिये, बल्कि "नाना पाटेकर" जैसे संजीदा अभिनेता को भी दर्शकों के सामने पेश किया। यह फ़िल्म व्यावसायिक तौर पर कितनी सफ़ल हुई या फिर कितनी असफ़ल इसकी जानकारी हमें नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों में अपना स्थान ज़रूर पक्का कर लिया। तो चलिए हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल को संगीत से सजाया है "जयदेव" साहब ने जिनके बारे में ओल्ड इज़ गोल्ड और महफ़िल-ए-गज़ल में बहुत सारी बातें हो चुकी हैं। यही बात इस गज़ल के गायक यानि की सुरेश वाडेकर साहब पर भी लागू होती है। इसलिए आज की महफ़िल को हम इस गज़ल के गज़लगो "शहरयार" साहब के सुपूर्द करते हैं। "शहरयार" साहब के बारे में "आज के प्रसिद्ध शायर : शहरयार" पुस्तक में जानेमाने लेखक "कमलेश्वर" लिखते हैं: हिन्दुस्तानी अदब में शहरयार वो नाम है जिसने छठे दशक की शुरूआत में शायरी के साथ उर्दू अदब की दुनिया में अपना सफ़र शुरू किया। यह दौर वह था जब उर्दू शायरी में दो धाराएँ बह रही थीं और दोनों के अपने अलग-अलग रास्ते और अलग-अलग मंज़िलें थीं। एक शायरी वह थी जो परम्परा को नकार कर बगा़वत को सबकुछ मानते हुए नएपन पर ज़ोर दे रही थी और दूसरी अनुभूति, शैली और जदीदियत की अभिव्यक्ति के बिना पर नया होने का दावा कर रही थी और साथ ही अपनी परम्परा को भी सहेजे थी ! शहरयार ने अपनी शायरी के लिए इस दूसरी धारा के साथ एक नए निखरे और बिल्कुल अलग अन्दाज़ को चुना—और यह अन्दाज़ नतीजा था और उनके गहरे समाजी तजुर्बे का, जिसकी तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई कारगर-रचनात्मक सपना नहीं देखा जा सकता। उसके बाद वे अपनी तनहाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में लगे रहे!

कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार का जन्म ६ जून १९३६ को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे क़दीमी रहने वाले वह चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के हैं। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें १९४८ में अलीगढ़ भेज दिया गया। वह कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे और वालिद की यह इच्छा थी कि ये उन्हीं के क़दमों पर चलते हुए पुलिस अफसर बन जाएँ। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा हो न सका। आगे चलकर सन् १९६१ में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. किया। विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू-मुअल्ला के सैक्रेटरी और ‘अलीगढ़ मैगज़ीन’ के सम्पादक बना दिए गए और तभी से इनके इरादों ने पकना शुरू कर दिया। अपने इलाके की सांझी तहजीब ने इनके लिए मज़हब का रूप अख्तियार कर लिया! उर्दू और हिन्दी भाषा के बीच दीवार बनावटी नज़र आने लगी। सन् १९६६ में ही शहरयार विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए जबकि सन् १९६५ में ही इनका पहला काव्य संग्रह ‘इस्मे-आज़म’ प्रकाशित हो चुका था! इसके बाद १९८३ में रीडर और १९८७ में वहीं प्रोफ़ेसर हो गए! सन् १९६९ में इसका दूसरी काव्य-संग्रह ‘सातवाँ दर’ छपा। फिर ‘हिज़्र के मौसम’ १९७८ में, फिर १९८५ में ‘ख्याल का दर बन्द है’ प्रकाशित हुआ और इसे साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! इसके बाद १९९५ में ‘नींद की किरचें’ प्रकाशित हुआ। सिलसिला अब भी ज़ारी है और शहरयार बदस्तूर शे’र कह रहे हैं। और अब तो इनका समूचा काव्य लेखन नागरी लिपि में भी आ गया है और हिन्दीभाषी लोगों ने भी भरपूर स्वागत किया।
तो ये थे उस पुस्तक के कुछ अंश। इन पंक्तियों के माध्यम से शहरयार साहब के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। फिर भी हम चाहते हैं कि उनकी आपबीती उन्हीं के शब्दों में सुनें। तो ये रहे हमारे "शहरयार" साहब:

मेरे घर में दूर-दूर तक शायरी का कोई सिलसिला नहीं था। सब लोग पुलिस फोर्स में थे। बस इत्तेफ़ाक है कि मेरी मुलाकात सन्‌ १९५५ में खलीलुर्रहमान आजमी साहब से हुई जो उर्दू के बड़े शायर और नक्काद (आलोचक) थे। उन्हीं की सोहबत में मैंने शेर कहना शुरू किया। सन्‌ १९५७-५८ में बाकायदा संजीदगी से शायरी करने लगा। मेरे एक मित्र थे, हैदराबाद के, जो अच्छे शायर भी थे उन्होंने मुझे लिखा कि मेरा नाम (कुँवर अखलाक मुहम्मद खान) बहुत अजीब-सा नाम है, कहीं से शायराना नाम नहीं लगता है। मैं ग़जल में कुँवर का तखल्लुस करता था। कुँवर के मानी प्रिन्स के होते हैं। खलीलुर्रहमान आजमी ने कहा कि तुम शहरयार रख लो, तो इस तरह मैंने अपना नाम शहरयार रख लिया।

मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। इसका कारण यह है कि हर हिन्दुस्तानी का दिल आज भी वही है, जो पहले था। मुद्दा हिंदुस्तानी संस्कृति/तहजीब या सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावनाओं को सहेजने वाले दिल का हो या आम हिंदुस्तानी के जजबातों का; दिल अब भी वही है; जहां पहले था। इसकी धड़कनें हिंदुस्तान की पुरानी वैल्यूज के साथ आज भी जिंदा हैं। यह जरूर है कि बहुत से लोग उसकी धड़कनों को अनसुना करने की असफल कोशिशें करते रहते हैं। फिलहाल, हम आज हिंदुस्तान में जो भी बुरा बदलाव देख रहे हैं-चाहे वो सामाजिक हो राजनीतिक या सांप्रदायिक; वह ताउम्र यथावत नहीं रहने वाला। राजनीति की बात करें, तो चुनावों के दौरान हिंदुस्तानी जिस गुस्से/भावना का इजहार करते हैं, वह यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोग हिंदुस्तान को उसी शक्ल में देखना चाहते हैं, जैसा पहले था, पवित्र और सौहार्द्रपूर्ण।


यह पूछने पर कि उन्होंने फिल्मों तक का रास्ता कैसे तय किया, उनका जवाब कुछ यूँ था(साभार: अमर उजाला): मुजफ्फर अली पेंटर थे और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मेरे जूनियर भी। वे शायरी पसंद करते थे। उन दिनों (वर्ष १९६५ में) मेरा पहला गजल संग्रह `इस्मे आजम´ छपा, जो उनके पास था। उससे वे प्रभावित थे। पांच-छह साल बाद उनका एक खत मिला कि वे `गमन´ फिल्म में मेरी दो गजलें रखना चाहते हैं। इस तरह मेरी दो गज़लें इस फिल्म में शामिल हो गईं। इन गजलों के कैसेट रिलीज के मौके पर मुजफ्फर ने मुझे मुंबई बुलाया और लखनवी अदब पर फिल्म बनाने की बात कही। मैं फिक्शन पढ़ाता था और उमराव जान उपन्यास उस समय बन रहा था। मैंने इस किताब की बुनियाद पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस फिल्म में मेरी पांच गजलें हैं। इस तरह शहरयार साहब के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। तो चलिए इस आलेख को खत्म करने से पहले उनका एक शेर देख लेते हैं:

हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी।


अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये:

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

यहाँ ___ की कीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम दे...


आपके विकल्प हैं -
a) गिलास, b) लिबास, c) शराब, d) गिलाफ

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "खामोश" और शेर कुछ यूं था -

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नगमागर से हम,
खामोश क्या रहेंगे जमाने के डर से हम..

यूँ तो महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुए सुमित जी, लेकिन सही मायने में साहिर लुधियानवी के लिखे इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "शरद" जी ने। सुमित जी "चुप" और "खामोश" में कन्फ़्युज्ड से दिखे और इस कारण उन्होंने दोनों शब्दों पर शेर कह दिया। हम यहाँ पर "खामोश" शब्द पर कहा गया शेर पेश कर रहे हैं:

हर तरफ एक पुरसरार सी खामोशी है,
अपने साये से कोई बात करे, कुछ बोले.
तल्खिये मय में जरा तल्खिये दिल भी घोले.. (पुरसरार= full of secrets, तल्खी= कड़वाहट)

और यह रहा शरद जी का स्वरचित शेर:

खामोश रह के तुमने बहुत कह दिया सनम
हम बोल के भी तुमसे कभी कुछ न कह सके। (वाह...माशा-अल्लाह, दिल जीत लिया आपने..)

शरद जी के बाद महफ़िल में नज़र आईं सीमा जी। यह रही आपकी पेशकश:

रास्ते ख़ामोश हैं और मंज़िलें चुपचाप हैं
ज़िन्दगी मेरी का मकसद, सच कहूं तो आप हैं। (तेजेन्द्र शर्मा)

ठीक है - जो बिक गया, खामोश है
क्यों मगर सारी सभा खामोश है

यह बड़े तूफान की चेतावनी
जो उमस में हर दिशा खामोश है (ऋषभ देव शर्मा)

महफ़िल की शमा बुझते-बुझते मंजु जी भी दिख हीं गईं। यह रहा आपका स्वरचित शेर:

गुनहगार हो तुम मेरी जिन्दगी के ,
खामोश जुबान का दिया उपहार तुमने .

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Thursday, October 15, 2009

तुझे जीवन की डोर से बाँध लिया है....संगीतकार शंकर को याद किया जा रहा है आज ओल्ड इस गोल्ड पर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 233

ज है १५ अक्तुबर, सदाबहार संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन के शंकर साहब का जन्म दिवस। आज वो इस दुनिया में मौजूद तो नहीं हैं कि हम उन्हे जनमदिन की शुभकामनाएँ दे सके, लेकिन उनके रचे सदाबहार नग़मों के ज़रिए हम उनकी सुरीली यादों को ताज़ा ज़रूर कर सकते हैं। तो क्यों ना आज से अगले तीन दिनों तक सुना जाए शंकर जयकिशन की जोड़ी के तीन हिट गीत! शुरुआत करते हैं लता जी और रफ़ी साहब के गाए फ़िल्म 'असली नक़ली' के एक युगल गीत से। गीत फ़िल्माया गया था देव आनंद और साधना पर। आइए आज एक साथ बात करें शंकर जयकिशन और देव आनंद की। जब देव आनंद फ़िल्म जगत में आए थे, तब अपने पारिवारिक बैनर नवकेतन के तले बनी फ़िल्मों में सचिन देव बर्मन का संगीत हुआ करता था। देव आनंद, बर्मन दादा, मजरूह साहब, रफ़ी साहब, किशोर दा, हेमन्त दा और तलत साहब की टीम दिलीप कुमार, नौशाद, शक़ील, और तलत की टीम से बहुत अलग थी, और राज कपूर, शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र-हसरत, मुकेश की टीम से भी जुदा थी। जब देव आनंद और शंकर जयकिशन एक साथ आए 'पतिता' जैसी फ़िल्म में, उसमें हेमन्त कुमार और तलत महमूद ने देव साहब के लिए पार्श्वगायन किए। 'पतिता' के गाने बेशक़ ज़बरदस्त हिट हुए थे, लेकिन सही मायने में देव आनंद और शंकर जयकिशन की तिकड़ी ने धमाका किया १९५९ की फ़िल्म 'लव मैरेज' से। देव साहब के गीतों का जो प्रचलित अंदाज़ चला आ रहा था, उससे अलग हटकर 'एस. जे' ने नया संगीत रचा और सुनने वालों ने ना केवल गीतों को पसंद किया, देव आनंद को भी ज़बरदस्त कामयाबी मिली। देव-रफ़ी-शंकर-जयकिशन की एक साथ बात करें तो 'लव मैरेज' के बाद ६० के दशक के शुरुआत में 'जब प्यार किसी से होता है' ने भी वही धमाका किया, फ़िल्म सुपर डुपर हिट और संगीत भी। और फिर १९६२ में ऋषिकेश मुखर्जी ने बनाई 'असली नक़ली', जिसमें देव आनंद की नायिका बनीं साधना। इस फ़िल्म में इन दोनों पर फ़िल्माया हुआ आज का प्रस्तुत गीत है "तुझे जीवन की डोर से बाँध लिया है, तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम सर आँखों पर"।

यह गीत एक बस में फ़िल्माया गया था। बस ड्राइवर बने देव आनंद और बस की एकमात्र सवारी साधना। देव साहब बस को एक सुनसान जगह पर ले जाते हैं और दोनो बस से उतरकर हरियाली में हँसते खेलते गीत गाते चलते हैं। ब्लैक ऐंड व्हाइट फ़िल्म होने के बावजूद इस गीत का फ़िल्मांकन बहुत ही सुंदर है। और देव साहब के मैनरिज़्म्स और साधना की ख़ूबसूरती के तो क्या कहने! इस गीत को लिखा है रोमांटिक गीतों के बादशाह हसरत जयपुरी साहब ने, जिनमें से ज़्यादातर गीत उन्होने शंकर जयकिशन के लिए ही लिखे। आज हसरत साहब का गीत बज रहा है और मौका भी है शंकर के जन्मदिन का, तो क्यों ना हसरत साहब के उद्‍गार जान लिए जाएँ जो उन्होने अमीन सायानी को किसी ज़माने में बताया था! "मैं आप से क्या बताऊँ, १००-१०० पिक्चरें रहती थीं, मगर ये जनाब (शंकर) पिक्चर कभी करते ही नहीं थे, कितने भी चाहें आप पैसे दे दीजिए। और उन्होने सब से ज़्यादा प्राइज़ भी जीते। आज तक किसी और संगीतकार ने इतनी प्राइज़ नहीं ली जितनी हमारे शंकर जयकिशन ने ली, और हमारे लिए वो लड़े भी। भ‍इ ऐसा है कि हमारे अलावा उन्होने किसी भी और शायर को मंज़ूर नहीं किया। उन्होने कहा कि हमारे साथ ये दो रहेंगे, शैलेन्द्र रहेंगे और हसरत रहेंगे। हमारे लिए उन्होने लाखों रुपय का नुकसान किया। ऐसे ही कह रहा हूँ, इतना प्यार था, इतने प्यार करते थे। वो क्या है कि मेरा एक टुकड़ा है, "उनसे मेरा मिज़ाज मिलता है, दर्द-ए-दिल का इलाज मिलता है"। तो भ‍इ, हम एक दूसरे में इस क़दर समा गए थे कि ना हमें कोई अच्छा लगता था, ना उन्हे कोई अच्छा लगता था।" दोस्तों, पढ़ा आपने कि किस तरह का दोस्ताना रहा इनका! तो इनके दोस्ताने को सलाम करने का इससे बेहतर कौन सा गीत होगा कि "तुझे जीवन की डोर से बाँध लिया है, तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम सर आँखों पर"। शंकर जी के जनम दिवस पर उन्हे हम याद कर रहे हैं आज उनके इसी गीत के ज़रिए, आइए सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अमीय चक्रबर्ती की इस फिल्म में नायिका थी उषा किरण.
२. शैलेन्द्र की कलम का अनोखा जादू है इस दर्द से भरे गीत में.
३. मुखड़े में शब्द है -"पराया".

पिछली पहेली का परिणाम -

पूर्वी जी अब बस आप मात्र एक जवाब दूर हैं लक्ष्य से...बधाई....दिलीप जी, शरद जी ने आपको पुष्टि कर ही दी है, रोहित जी तो कल सर खपाते रह गए :) हमें मज़ा आया, अनुराग जी ओल्ड इस गोल्ड में स्वागत है...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दाता सुन ले- "बावरे फकीरा" के नेट लॉन्च के साथ नमन करते हैं शिरडीह साईं बाबा को, साथ ही जानिए कि कैसा है लता की दिव्य आवाज़ में नए दौर का "जेल" भजन



ताजा सुर ताल TST (30)

दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर के एपिसोडों से लगभग अगले 20 एपिसोडों तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक-

पिछले एपिसोड में आये एक नए प्रतिभागी महिलाओं को चुनौती देने. चलिए हमारे कहने का असर हुआ, और विश्व दीपक तन्हा जी भी मैदान में कूद पड़े, पर 3 में से 2 जवाब सही दिए, एक जगह चूक कर गए. और उनकी भूल का फायदा उठा कर सीमा जी फिर 2 अंक चुरा लिए. सीमा जी का स्कोर हुआ है अब 12, तन्हा जी ने शानदार शुरुआत की 4 अंकों के साथ. दिशा जी अभी भी 2 अंकों पर जमी है, सभी को आज के लिए शुभकामनायें.

सजीव - सुजॉय, आज का TST ख़ास है कुछ, लेकिन इससे पहले कि मैं ये बताऊं क्यों, मेरी तरफ से और पूरे युग्म परिवार की तरफ से आवाज़ के सबसे लोकप्रिय होस्ट को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ दे देता हूँ, जी हाँ दोस्तों आज सुजॉय का जन्मदिन है, मुबारक हो सुजॉय :)

सुजॉय - धन्यवाद सजीव, और मेरे सभी साथियों का....शुक्रिया.

सजीव - जानते हैं आज के दिन का एक और बहुत बड़ा महत्त्व है. शिरडी के साईं बाबा ने आज ही दिन देह त्याग कर स्वर्ग के लिए पलायन किया था. उनकी स्तुति का ये दिन बेहद ख़ास है देश विदेश में फैले बाबा के असंख्य भक्तों के लिए, आज हम भी TST पर बाबा सो नमन करते हुए एक ऐसा गीत सुनवाने जा रहे हैं, जो नेट पर आज पहली बार बजेगा.

सुजॉय - दोस्तो, आभास जोशी एक उभरते हुए गायक हैं जिन्होंने वॉइस ऑफ़ इंडिया प्रतियोगिता में विशेष जूरी सम्मान हासिल किया, बेहद कम उम्र में उनके गायन के चर्चे मशहूर हो चुके है और अब जल्दी ही बॉलीवुड में भी उनकी दस्तक गूँजेगी...

सजीव - आभास जिन दिनों प्रतियोगिता का हिस्सा थे ये एल्बम "बावरे फकीरा" बाज़ार में आ चुकी थी, इस एल्बम के गीतकार गिरीश बिल्लोरे जी ने हमें बताया कि इस एल्बम की बिक्री से अर्जित आय को विकलांग बच्चों के लिए कार्य कर रही एक संस्था को दान कर दिया गया, यानी कि संगीत माध्यम से समाज के उद्धार का एक अच्छा उदहारण है ये....

सुजॉय - यकीनन, पर इससे पहले कि आज इस एल्बम के शीर्षक गीत को पहली बार नेट पर सुनें, स्वागत करें इस भजन के रचेता गिरीश बिल्लोरे और युवा गायक आभास जोशी का, जो आज हमारे बीच हैं....स्वागत है आप दोनों का TST में...

सजीव - गिरीश जी आपने आभास के उत्थान में अहम भूमिका निभाई है, जहाँ तक मेरी जानकारी है ये आभास का पहला एल्बम है, तो क्या ये एल्बम आपने प्लान की आभास के लिए?

गिरीश -सजीव जी,सबसे पहले हिन्द-युग्म परिवार का हार्दिक आभारी हूँ कि आपने "साईं-बाबा के बताए अध्यात्मिक चिंतन पर केंद्रित एलबम "बावरे-फ़कीरा" के इन्टर-नेट संस्करण की लांचिंग का कार्य किया है" जहां तक आभास के उत्थान में मेरे अवदान को आपने रेखांकित किया है यह आप का बडप्पन है। वास्तव में आभास को सेलिब्रिटि खुद आभास की मेहनत बाबा के आशीर्वाद ने बनाया। मैनें तो बस जो किया स्वर्गीया सव्यसाची मां प्रमिला देवी की प्रेरणा से किया. उसका लाभ आभास को मिला यह मेरा सौभाग्य है.

बावरे-फ़कीरा एलबम की प्लानिग की ज़िम्मेदार दो घटनाएं हैं। शहर के एक सिंगर ने मेरे गीत फेंक दिए थे यह कह कर ये भी कोई गीत हैं। फिर गीत मैनें कम्पोज़ीशन मेरे करीबी परिचित संगीतकार ने गीतों को घर की पुताई में खो दिए कुल मिला कर उपेक्षा का शिकार मेरे भजन पांच साल तक गोया आभास का इंतज़ार कर रहे थे .... 2006 में श्रेयास जोशी ने संगीतबद्ध कर आभास के सुरों को सौंप दिये ये गीत। सजीव जी, मां के निर्देश पर साहित्य से मुझे रोटी नहीं कमाना था सो मैंने अपने एलबम पीड़ित मानवता की सेवा को समर्पित किया जाना उचित समझा।

सुजॉय - आभास आप और तोशी उस मुकाबले में "वाईल्ड कार्ड एंट्री" से आये, निर्णायकों की ख़ास पसंद बने थे आप, इन सब का अब तक आप को क्या फायदा मिलता है जब आप किसी संगीतकार से संपर्क में आते हैं, 2007 में हुए उस मुकाबले से लेकर अपने अब तक के सफ़र के बारे में संक्षेप में हमारे श्रोताओं को बताएं?

आभास -एक अदभुत दौर था। मैं क्या हममें से कोई भी भुला नहीं पा रहा है दर्शकों का प्यार करतें। निर्णायकों की महत्वपूर्ण टिप्पणियां, जो हमारे कैरियर के लिए सहयोगी ही साबित हुईं हैं। सुजॉय जी, 2007 में संग-ए-मरमर के शहर जबलपुर से मायानगरी गया आभास मुम्बई का ही हो गया है। बमुश्किल चार दिन का वक्त मिला है "जबलपुर" आकर दादी का दुलार पाने के लिये। सच मुझे वाइल्ड कार्ड एंट्री और निर्णायकों की पसंद बनने से लाभ ही हुआ है। काम मिला है दो फ़िल्में, बावरे-फ़कीरा के बाद दो और एलबम देश-विदेश में स्टेज़ शोज, कुल मिला कर कम समय में बाबा ने बहुत कुछ दिया सच साई दो दो हाथों से देने वाला दाता है।

सजीव - क्या आपके बाकी प्रतिभागी साथी अभी भी संपर्क में हैं?, इश्मित की मौत का यकीनन आप सब को सदमा होगा ...

आभास -सजीव जी, सभी नेट, फ़ोन के ज़रिये संपर्क में तो हैं..... किन्तु सभी भाग्यशाली हैं यानी सभी व्यस्त हैं अत: मुलाकातें कम ही हो पातीं हैं। इश्मीत की याद आते ही वो दिन इतने याद आतें हैं कि अपने आप को रोकना मुश्किल हो जाता है। कोई न कोई बात आंखों को भिगो ही देती है। 29 जुलाई को इश्मीत जी की पहली पुण्यतिथि पर हम सभी लुधियाना गए थे। मोम से बनाए इश्मीत जी के स्टैच्यू देख कर लगा बस अब इश्मीत उठेंगें और छेड देंगे तान। ईश्वर इश्मीत को एक बार और हमारे बीच भेजे।

सुजॉय - गिरीश जी जैसा की आपने बताया कि आपके एल्बम का एक सामाजिक पक्ष भी था, क्या आगे भी आभास के साथ मिलकर आपकी ऐसी कोई योजना है जिससे संगीत माध्यम से समाज के कल्याण में योगदान हो सके।

गिरीश - जी हां, सच है बाबा के आशीर्वाद से मध्य-प्रदेश राज्य सरकार में बाल विकास परियोजना अधिकारी हूँ। रोज़गार मेरी समस्या नहीं है। सव्यसाची ने कहा था "तुम्हारी कविता समाज का कल्याण करे" सो इस एलबम से प्राप्त आय जबलपुर में आयी लाइफ़ लाइन एकस्प्रेस की व्यवस्था हेतु जिला प्रशासन को दी गई है। आगे भी जो लाभ होगा उससे पोलियो-ग्रस्त बच्चों की मदद जारी रहेगी जिसका ज़िम्मा सव्यसाची कला ग्रुप को सौंपा है। आगे भी मेरा प्लान नेत्रहीन-भिक्षुक के तम्बूरे से बिखरी संगीत रचनाओं को आपके समक्ष लाना यह प्रोजेक्ट भी अब मेरे पास है शीघ्र ही सबके हाथों होगा जिसकी आय नेत्रहीन व्यक्तियों की मदद हेतु होगी।

सजीव - आभास आपकी आवाज़ में एक अलग सी ही कशिश है, हम तो यही दुआ करेंगें कि जल्दी आप हिंदी सिनेमा के जाने माने पार्श्व गायकों की कतार में शामिल हो जाएँ, आपको और गिरीश जी को हमारी शुभकामनाएं।

आभास - उन दिनों जब मैं वी ओ आई का प्रतिभागी था मेरे जितेन्द्र चाचा और गिरीश चाचा ने हिन्द-युग्म की साईट खोल कर बताया था कि आपने मुझे कितना संबल दिया। सच, हिंद-युग्म ने एक ये और काम किया कि नेट पर मेरे गाए एलबम को ज़गह दी, आभार के शब्द कम पड़ रहे हैं। बस कृतज्ञ हूँ कह पा रहा हूँ।

गिरीश - हिन्द-युग्म ने "बावरे-फ़कीरा" के नेट संस्करण की लांचिंग का जो कार्य किया है उसका हार्दिक आभारी हूँ।

बावरे फकीरा (आभास जोशी)
आवाज़ रेटिंग - लागू नहीं.



TST ट्रिविया # 10-जिस प्रतियोगिता में आभास को जूरी सम्मान मिला उस प्रतियोगिता में एक फीमेल प्रतिभागी को भी विशेष जूरी सम्मान ने नवाजा गया था, क्या है इस गायिका का नाम?

सुजॉय - सजीव, आज का 'ताज़ा सुर ताल' बेहद बेहद ख़ास है! एक तो ये की हमारे कार्यक्रम में दूसरी बार कोई गायक मेहमान बन कर आये, और अब दूसरा और तीसरा गीत भी कुछ बेहद ख़ास होने वाला है।

सजीव - वह कैसे भला?

सुजॉय - आज हम दो ऐसी आवाज़ें लेकर आए हैं जिनके बारे में हम इतना कह सकते हैं कि आज यही दो ऐसी आवाज़ें हैं जिनका जादू 'ओल्ड इज़ गोल्ड' और 'ताज़ा सुर ताल', दोनों पर चल सकती है।

सजीव - यानी कि विविध भारती के कार्यक्रमों के संदर्भ में अगर कहे तो 'भूले बिसरे गीत' और 'चित्रलोक' दोनों में ये आवाज़ें बज सकती हैं?

सुजॉय - जी बिल्कुल!

सजीव - तब तो ये लता जी और आशा जी के अलावा कोई और हो ही नहीं सकता।

सुजॉय - ठीक कहा आपने, लेकिन इस जवाब के लिए कोई अंक नहीं मिलेंगे आपको! :-)

सजीव - इसका मतलब सुजॉय कि आज हम मधुर भंडारकर की नई फ़िल्म 'जेल' का गीत सुनने जा रहे हैं लता जी की आवाज़ में?

सुजॉय - जी बिल्कुल! जैसा कि भंडारकर साहब ने कुछ दिन पहले कहा था कि लता जी का गाया यह 'जेल सॉन्ग' एक 'नए दौर का जेल सॉन्ग‍' होगा, जो हमें याद दिलाएगा वी. शांताराम की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' का भजन "ऐ मालिक तेरे बंदे हम"।

सजीव - मैने 'जेल' का यह गीत "दाता सुन ले, मौला सुन ले" सुना है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि मधुर साहब की बात में शायद उतना वज़न नहीं है। इसमें कोई शक़ नहीं कि 80 साल की उम्र में भी लता जी ने जिस आवाज़ का परिचय दिया है, सुनने वाला हैरत में पड़े बिना नहीं रह सकता। लेकिन मुझे इस गीत के संगीतकार शमीर टंडन से यही शिकायत रहेगी कि इस गीत को उन्होने करीब करीब फ़िल्म 'पुकार' के गीत "एक तू ही भरोसा एक तू ही सहारा" की तरह ही कम्पोज़ किया है। उन्हें कुछ अलग करना चाहिए था। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?

सुजॉय - मैं आपसे सोलह आने सहमत हूँ। इससे बेहतर मुझे 'पेज ३' का गीत अच्छा लगा था "कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे"। ख़ैर, हमें लता जी की आवाज़ सुनने को मिली है किसी फ़िल्म में एक अरसे के बाद, हम तो भई उसी से ख़ुश हैं। और मेरा ख़याल है कि इस गीत को अंक देने की गुस्ताख़ी मैं नहीं कर सकता। क्योंकि हम उस लायक नहीं कि लता जी के गाए गीत का आकलन कर सके। इसलिए बेहतर यही होगा कि कम से कम इस गीत के लिए हम अंकों की तरफ़ न जाएँ, लता जी इन सब से परे हैं।

सजीव- ठीक है बाकी फैसला श्रोताओं पे छोड़ते हैं...

दाता सुन ले (जेल)
आवाज़ रेटिंग - लागू नहीं



TST ट्रिविया # 11- शमीर टंडन के निर्देशन में किस मशहूर क्रिकटर ने अपनी आवाज़ का जलवा दिखाया है?

सजीव - लता जी की आवाज़ तो हम सब ने सुन ली, अब आशा जी का गाया कौन सा तरो ताज़ा गीत सुनवा रहे हो 'आवाज़' के शैदाईयों को?

सुजॉय - यह एक ग़ैर फ़िल्मी गीत है जिसे आशा जी ने अपने पोते चिंटु (Chin2) के साथ गाया है, चिंटु के ही संगीत निर्देशन में। इस ऐल्बम का नाम है 'सपने सुहाने', और पूरे ऐल्बम में आशा जी बस यही एकमात्र गीत गाया है, बाक़ी सभी गानें चिंटु की ही आवाज़ में है।

सजीव - यानी कि एक 'X-factor' लाने के लिए ही आशा जी से यह गीत गवाया गया है। पिछले साल आशा जी का अपना एक सोलो ऐल्बम आया था 'प्रीशियस प्लैटिनम', जिसे Amazon World Music Chart में टॊप ४० में चुना गया था। और इस साल उन्होने अपने पोते के इस ऐल्बम में अपनी आवाज़ मिलाई, एक ही गीत में सही। सुजॉय, क्या ये चिंटु, आशा जी के बड़े बेटे हेमन्त का बेटा है?

सुजॉय - हाँ, हेमन्त भोसले, जिन्होने दो एक फ़िल्मों में संगीत भी दिया था, जैसे कि फ़िल्म 'जादू टोना', जिसमें उन्होने ना केवल आशा जी को गवाया बल्कि अपनी बहन वर्षा भोसले को भी गवाया था। और अब उनके बेटे चिंटु की बारी है अपनी दादी को गवाने का।

सजीव - यह वही चिंटु है जो यहाँ की पहले पहली बॉय बैंड 'A Band of Boys' का एक सदस्य हुआ करता था। इसके बाद वो गुमनामी में चला गया और कई रेडियो स्टेशन्स पर जॉकी का काम किया, एम. बी. ए होने की वजह से कई कंपनियों में नौकरी भी की। लेकिन संगीत की जो परंपरा उसके परिवार में थी, वही उसे एक बार फिर से खींच लाई, करीब करीब ११ साल बाद इस 'सपने सुहाने' एल्बम के ज़रिए।

सुजॉय- और यह गीत सुनने से पहले आप सभी को बता दें कि इस ऐल्बम का विमोचन किया गया था आशा जी के जन्मदिन की पूर्वसंध्या, यानी कि ७ सितंबर को। तो आइए सुनते हैं रॉक एन् रोल स्टाइल में "प्यार ख़ुशनसीब"। और देते हैं चिंटु को एक उज्ज्वल भविष्य की ढेरों शुभकामनाएँ।

प्यार खुशनसीब (सपने सुहाने)
आवाज़ रेटिंग -लागू नहीं



TST ट्रिविया # 09 -चिंटू भोसले का वास्तविक नाम क्या है ?

आवाज़ की टीम ने इन गीतों को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीतों को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, October 14, 2009

किस्मत के खेल निराले मेरे भैया...गायक संगीतकार और गीतकार रवि साहब की जिंदगी को छूती रचना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 232

हते हैं कि क़िस्मत में जो रहता है, वही होता है। शुरु से ही इस बात पर बहस चलती आ रही है कि क़िस्मत बड़ी है या मेहनत। यक़ीनन इस दुनिया में मेहनत का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन इस बात को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि क़िस्मत का भी एक बड़ा हाथ होता है हर किसी की ज़िंदगी में। ख़ैर, यह मंच सही जगह नहीं है इस बहस में जाने का, लेकिन आज का जो गीत हम आपके लिए लेकर आए हैं वह क़िस्मत के खेल की ही बात कहता है। संगीतकार रवि फ़िल्मी दुनिया में आए थे एक गायक बनने के लिए, लेकिन बन गए संगीतकार। शायद यह भी उनके क़िस्मत में ही लिखा था। इसमें कोई दोराय नहीं कि बतौर संगीतकार उन्होने हमें एक से एक बेहतरीन गीत दिए हैं ५० से लेकर ८० के दशक तक। लेकिन शुरुआत में उनकी दिली तमन्ना थी कि वो एक गायक बनें। ख़ुद संगीतकार बन जाने के बाद ना तो उनके फ़िल्मों के निर्माताओं ने उन्हे कभी गाने का मौका दिया और ना ही किसी दूसरे संगीतकार ने उनसे गवाया। हालाँकि उनकी आवाज़ हिंदी फ़िल्मों के टिपिकल हीरो जैसी नहीं थी, लेकिन एक अजीब सी कशिश उनकी आवाज़ में महसूस की जा सकती है जो सुननेवाले को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। आज हम आपको रवि का गाया फ़िल्म 'एक फूल दो माली' का दार्शनिक गीत सुनवाने के लिए लाए हैं "क़िस्मत के खेल निराले मेरे भ‍इया"। इस फ़िल्म के संगीतकार भी वो ही हैं, और सब से बड़ी बात कि इस गीत को उन्होने ही लिखा है। जी हाँ, फ़िल्म के पर्दे पर ज़रूर प्रेम धवन का नाम दिया गया था, लेकिन रवि जी ने ही अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि यह गीत उन्होने ही लिखा था। तो भई, आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर तो एक तरह से रवि जी का ही राज है।

हाल ही में हमने आपको रवि के संगीत निर्देशन में एक भजन सुनवाया था "दर्शन दो घनश्याम" और उनके बचपन का क़िस्सा भी बताया था कि किस तरह से वो सत्संग में जाकर भजन गाया करते थे। क्योंकि आज बात चली है रवि जी की गायकी की, तो आइए उसी इंटरव्यू (उजाले उनकी यादों के, विविध भारती) से कुछ और बातें जानें रवि जी की गायकी के बारे में। इंटरव्यू के इस अंश को पढ़कर आप भी यही बोल पड़ेंगे कि "क़िस्मत के खेल निराले मेरे भ‍इया"। और अब, ओवर टू रवि जी। "आपको पता है रेडियो में गाने के लिए जिन्होने मेरा ऒडिशन लिया था वो और कोई नहीं बल्कि महान सितारिस्ट पंडित रविशंकर जी थे। उन्होने कहा कि मेरी आवाज़ अच्छी है और मुझे और रियाज़ करनी चाहिए। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं अपनी रिकार्ड की हुई आवाज़ सुनूँ। १९४९ के आख़िर में एक बहुत बड़ा 'वर्ल्ड ट्रेड फ़ेयर' दिल्ली के राम लीला मैदान में आयोजित किया गया था। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ वहाँ गया। वहाँ बहुत सारे स्टॊल्स थे, मैनें देखा कि एक स्टॊल में 'वायर रिकार्डर' के नाम से कुछ रखा हुआ है। मैने दुकानदार से पूछा कि यह क्या है। उसने बताया कि इसमें आवाज़ रिकार्ड करके दोबारा बजाया जा सकता है। मैं अपनी रिकार्डेड आवाज़ सुनना चाह रहा था बहुत दिनों से, तो मैने सोचा कि यही अच्छा मौका है, लेकिन मैं दोस्तों के सामने नहीं करना चाहता था। इसलिए मैं अगले दिन फिर अकेला गया और जो गीत रिकार्ड करवाया वह था "तेरे कूचे में अरमानों की दुनिया लेकर आया हूँ"। जब उसने रिकार्डिंग् को बजाया, तो मैं सोच रहा था कि आवाज़ तो रफ़ी साहब से मिल रही है। (यह सुनकर विविध भारती के सारे उद्‍घोषक ज़ोर से हँस पड़े थे)। तो यह पहली बार मैने अपनी आवाज़ सुनी। मेरे दोस्त भी कहते थे कि मेरी आवाज़ अच्छी है और मुझे बम्बई में क़िस्मत आज़माने जाना ही चाहिए। मैं भी मानता था कि मैं बम्बई जाकर ज़िंदगी में कुछ कर सकता हूँ। जब P&T वालों ने मुझे पठानकोट स्थानांतरित करने का नोटिस दिया तो मैने तीन सुझाव दिए - पहला दिल्ली, दूसरा बम्बई, और तीसरा भारत का कोई और शहर। लेकिन मेरे अनुरोध को स्वीकारा नहीं गया और मुझे पठानकोट जाने का आदेश मिला। मैं निराश होकर घर आया और २० दिनों की छुट्टी लेकर बम्बई की ट्रेन में बैठ गया। मैं बम्बई में किसी को नहीं जानता था। यह १९४५ की बात है, तब तक मेरी शादी भी हो गई थी और एक बेटी भी थी। मैंने बम्बई की ट्रेन में गीतों की किताब पढ़कर समय बिताया।" दोस्तों, बम्बई में उतरने के बाद रवि साहब के संघर्ष का दौर शुरु हुआ, और आख़िर में वो हेमन्त कुमार के दरवाज़े तक पहुँच ही गए, जहाँ पर हेमन्त दा ने उन्हे कोरस में शामिल कर लिया। एकल गीत गाने का तो सुयोग नहीं हुया लेकिन हेमन्त दा उनकी संगीत प्रतिभा को पहचान गए और उन्हे अपना सहायक बना लिया। तो दोस्तों, आज बस यहीं तक, रवि साहब की दास्तान आगे भी जारी रहेगी जब भी कभी हम उनके गीत लेकर आएँगे इस महफ़िल में। सुनिए आज का यह गीत और टिप्पणी में ज़रूर लिखिएगा कि क़िस्मत के खेल के बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या आप क़िस्मत पर विश्वास करते हैं? क्या आपको लगता है कि चाहे आदमी लाख मेहनत करे, उसकी मेहनत तभी रंग लाएगी जब उसकी क़िस्मत उस पर मुहर लगाएगी? कल फिर मिलेंगे इसी महफ़िल में।



किस्मत के खेल निराले मेरे भैया
किस्मत का लिखा कौन टाले मेरे भैया ।

किस्मत के हाथ में दुनिया की डोर है
किस्मत के आगे तेरा कोई न ज़ोर है
सब कुछ है उसी के हवाले मेरे भैया ।

किस्मत में लिक्खा है जो सुख का सबेरा
कब तक रहेगा ये ग़म का आंधेरा
इक दिन तो मिलेंगे उजाले मेरे भैया ।

ये सच्चा तीरथ ऊँचा हिमालय
ये मन का मन्दिर सुख का शिवालय
धूनी यहीं पे तू रमा ले मेरे भैया ।

दुनिया में प्राणी क्या क्या सपने सजाए
किस्मत की आँधी उन्हे पल में मिटाए
बिगड़ी को कौन संभाले मेरे भैया


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस संगीतकार जोड़ी के एक पार्टनर की जयंती है कल.
२. ऋषिकेश मुखर्जी है इस फिल्म के निर्देशक.
३. इस रोमांटिक दोगाने के मुखड़े में शब्द है - "सर".

पिछली पहेली का परिणाम -

रोहित जी बधाई एक बार फिर आपके ३३ अंक हो चुके हैं, इसी तरह से आते रहेंगें तो पूर्वी जी के लिए मुश्किलें खड़ी पर पायेंगें कुछ हद तक.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, October 13, 2009

आये तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन...जब याद आये किशोर और अशोक एक साथ तो क्यों न ऐसा हो



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 231

ज है १३ अक्तुबर का दिन। फ़िल्म जगत के लिए आज का दिन बड़ा मायने रखता है, क्योंकि आज का दिन एक नहीं बल्कि दो ऐसे कलाकारों को याद करने का दिन है जिन्होने इस फ़िल्म जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। ये दो लेजेंडरी फ़नकार अपने अपने क्षेत्र के महारथी तो थे ही, वे एक दूसरे के सगे भाई भी थे। इनमें से एक का आज जन्मदिन है और दूसरे की पुण्यतिथि। कितनी अजीब बात है कि दादामुनि अशोक कुमार का जन्मदिन और किशोर कुमार की पुण्यतिथि एक ही है, १३ अक्तुबर। १३ अक्तुबर १९११ को अशोक कुमार का जन्म हुआ था और १३ अक्तुबर १९८७ को किशोर दा हमें छोड़ गए थे हमेशा के लिए। जी हाँ, १३ अक्तुबर १९८७। अपने बड़े भाई के जन्मदिन पर अनूप कुमार के साथ मिलकर किशोर दा उन्हे एक सरप्राइज़ देना चाहते थे, जिसके लिए वे शाम को ५:३० बजे मिलने वाले थे। पर यह हो ना सका और समय ने ही सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। नियति अपने दस्तावेज़ पर किशोर का नाम लिख कर चला गया, और वो मदहोश करने वाली आवाज़ हमेशा के लिए ख़ामोश हो गयी, और तब से लेकर आज तक वो आवाज़ बसी हुई है हमारी यादों में, हमारे दिलों में, हमारी ज़िंदगियों में। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम दादामुनि और किशोर दा को एक साथ याद कर रहे हैं एक ऐसे फ़िल्म के ज़रिए जिसमें इन दोनों ने अपने अपने क्षेत्र का लोहा मनवाया है। फ़िल्म 'मिली' का यह गीत है "आए तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन, ख़ुशबू लाई पवन, महका चंदन"। सचिन देव बर्मन का संगीत है और गीत रचना है योगेश की।

फ़िल्म 'मिली' की कहानी कुछ इस तरह की थी कि मिली (जया बच्चन) एक बहुत ही हँसमुख और ज़िंदादिल लड़की है, जो अपने पिता (अशोक कुमार) के साथ एक हाउसिंग् कॊम्प्लेक्स में रहती है। उसे उस कॊम्प्लेक्स के बच्चों से बहुत लगाव है और वो उन्ही के दल में भिड़ कर दिन भर सारी शैतानियाँ करती रहती हैं। याद है ना लता जी का गाया "मैने कहा फूलों से" गीत? तो साहब, ऐसे में उस बिल्डिंग में आ बसते हैं हमारे अमिताभ बच्चन साहब (किरदार का नाम मुझे याद नहीं), जो एक निहायती गम्भीर, बद-मिज़ाज नौजवान है जिसके चेहरे पर शायद ही कभी मुस्कुराहट आयी हो! किस तरह से मिली उसका दिल जीत लेती है, और उसके दिल पर क्या असर होता है जब उसे पता चलता है कि मिली को कैन्सर है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। कहानी के अंत में मिली को अपने पिता के साथ चिकित्सा के लिए अमेरिका जाते हुए दिखाया जाता है, और वहीं पर फ़िल्म समाप्त हो जाती है। एक पिता को जब पता चलता है कि उसकी एकलौती बेटी को कैन्सर है, तो उन पर क्या बीतता है, दादामुनि के सशक्त अभिनय प्रतिभा ने उस किरदार में जान डाल दी है। नैचरल ऐक्टिंग् की जब बात आती है, तो दादामुनि का नाम शुरुआती नामों में ही लिया जाता है। और इस फ़िल्म में गुरुगम्भीर अमिताभ बच्चन के चरित्र के अनुसार किशोर दा ने दो गीत ऐसे गाए हैं कि बस पूछिए मत। अपने हास्य गीतों और मैनरिज़्म्स से गुदगुदानेवाले किशोर दा जब भी ऐसे संजीदे गीत गाते थे तब उनका रूप ही बिल्कुल बदल जाता था। यकीन ही नहीं होता कि ये दोनों रूप एक ही इंसान के हैं। आज के इस प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा का गाया "बड़ी सूनी सूनी है ज़िंदगी" ना केवल इस फ़िल्म के चरित्र को जीवंत करता है, बल्कि किशोर दा के निजी ज़िंदगी में भी जो सूनापन उन्होने हमेशा महसूस किया है (उनकी माँ की मृत्यु के बाद से), उसका दर्द भी उनकी आवाज़ में उभर आई है। आज १३ अक्तुबर २००९, किशोर दा के गए २२ साल हो गए हैं, लेकिन उनके गाए गानों में आज भी वही ताज़गी बरककार है, और हमेशा ही किशोर दा सदाबहार रहेंगे। दादामुनि और किशोर दा के लिए चलते चलते हम बस यही कहेंगे कि "आए तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन, ख़ुशबू लाई पवन, महका चंदन"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. खुद संगीतकार की आवाज़ है इस गीत में.
२. हालाँकि गीतकार के रूप में प्रेम धवन का नाम दर्ज है पर असल में गीत को लिखा है खुद संगीतकार ने.
३. मुखड़े में शब्द है- "खेल".

पिछली पहेली का परिणाम -

हमारी पिछली पहेली के विजेता आज के गीत का शीर्षक देख कर कुछ हैरान परेशान हो गए होंगें, दरअसल कल जिस गीत के बाबत हमने पहेली पूछी थी वो गीत हम जल्द ही आपको सुन्वायेंगें, चूँकि आज के दिन की महत्ता को ध्यान में रख कर हमें आखिर लम्हों में निर्धारित गीत को इस गीत से बदलना पड़ा, रोहित जी आप बेफिक्र रहें आपके २ अंक सुरक्षित हैं. आपका जवाब "ये दिल है मुश्किल जीना यहाँ" एकदम सही है, ये गीत २२ अक्तूबर को प्रसारित होगा, और २१ अक्तूबर की पहेली में आपके लिए कुछ विशेष होगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जिंदगी हमें आज़माती रही और हम भी उसे आज़माते रहे....राही मासूम रज़ा साहब की एक बेमिसाल गज़ल



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५३

ह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही

दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो !
आप,
चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।

ये पंक्तियाँ हमने "असंतोष के दिन" नामक पुस्तक की भूमिका से ली हैं। इन पंक्तियों के लेखक के बारे में इतना हीं कहना काफ़ी होगा कि मैग्नम ओपस(अज़ीम-उस-शान शाहकार) महाभारत की पटकथा और संवाद इन्होंने हीं लिखे थे। वैसे अलग बात है कि इन्हें ज्यादातर "महाभारत" से हीं जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन अगर इनके अंदर छिपे आक्रोश और संवेदनाओं को परखना हो तो कृप्या "आधा गाँव" और "टोपी शुक्ला" की ओर रूख करें। अपने उपन्यास "टोपी शुक्ला" की भूमिका में ये ताल ठोककर कहते हैं कि "यह उपन्यास अश्लील है।" आप खुद देखें- मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई| क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है| परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था| यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं| हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर "कम्प्रोमाइज़" कर लेते हैं| और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं| टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था| किंतु उसने "कम्प्रोमाइज़" नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली | परन्तु आधा गाँव की ही तरह यह किसी एक आदमी या कई आदमियों की कहानी नहीं है| यह कहानी भी समय की है| इस कहानी का हीरो भी समय है| समय के सिवा कोई इस लायक नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाय| आधा गाँव में बेशुमार गालियाँ थीं| मौलाना 'टोपी शुक्ला' में एक भी गाली नहीं है| परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है| और मैं यह गाली डंके की चोट बक रहा हूँ| " यह उपन्यास अश्लील है...... जीवन की तरह |"

जी हाँ, हम जिस फ़नकार से मुखातिब हैं, उस फ़नकार का नाम है "राही मासूम रज़ा"। आगे बढने से पहले यह बता दें कि आज से फ़रमाईशी गज़लों का सिलसिला शुरू हो चुका है और आज हम जिस गज़ल को लेकर हाज़िर हुए हैं उसकी माँग सीमा जी ने की थी। इस गज़ल के गज़लगो हैं "राही" साहब और इसे अपनी आवाज़ से सजाया है "अशोक खोसला" साहब ने। "अशोक" साहब के बारे में हमें ज्यादा जानकारी हासिल नहीं हो सकी, इसलिए हम आज की कड़ी को "राही" साहब के नाम करते हैं। अगली मर्तबा अगर खोसला साहब की कोई गज़ल/नज़्म हमारी महफ़िल की शोभा बनी तो हम यकीन दिलाते हैं कि उनके बारे में पर्याप्त जानकारी आपके सामने होगी। हाँ तो हम बात कर रहे थे "राही" साहब की। "राही" साहब की जब बात चली है तो क्यों न महाभारत की भी बातें कर ली जाएँ। तो उससे जुड़े दो किस्से हम आपसे बाँटना चाहते हैं। यह रहा पहला किस्सा (सौजन्य:कुरबान अली, प्रभात खबर): धारावाहिक `महाभारत' की स्क्रिप्ट लिखते समय राही ने व्यास के `महाभारत' को सौ से अधिक बार पढ़ा था. हिंदी-अंगरेज़ी, संस्कृत, फारसी, उर्दू लगभग उन तमाम भाषाओं में, जिनमें महाभारत उपलब्ध है. `गीता' लिखते समय वह अलीगढ़ आकर रह रहे थे. उनका कहना था कि गीता `महाभारत' का सार है और इसे वह सुकून से लिखना चाहते हैं. उसी समय बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बयान देकर राही पर आरोप लगाया था कि वह `महाभारत' को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं और कृष्ण के चरित्र को टि्वस्ट कर के दिखा रहे हैं. इस पर राही ने अटल जी को फोन किया और पूछा कि क्या आपने ऐसा बयान दिया है? और यह कि क्या आपने `महाभारत' पढ़ी है? अटल जी के `हां'कहने पर वह उन पर बिगड़ गये और कहा कि आप झूठ बोलते हैं. यदि आपने `महाभारत' पढ़ी होती , तो मुझे यकीन है कि आप जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति यह बेहूदा बयान नहीं देता और अटल जी लाजवाब हो गये।

और दूसरा किस्सा (सौजन्य:वेद राही, नया ज्ञानोदय): उनसे जो आख़िरी मुलाक़ातें हुईं, उनमें से एक की याद है। उन दिनों टीवी धारावाहिक ‘महाभारत’ की ख़ूब चर्चा थी, जिसके संवाद डॉ. राही मासूम रज़ा लिख रहे थे। एक रोज़ किसी मीटिंग में उनसे बात करने का अवसर मिल गया। मैंने उन्हें देखते ही कहा,‘बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप। कल का एपीसोड मैंने देखा था। एक जगह पर मुझे महसूस हुआ कि राइटर और डायरैक्टर से कहीं कुछ भूल हुई है।’ ‘किस जगह पर?’ वह सतर्क हो गए। मैंने बताया कि जहां दुर्योधन अपनी मां का कहा मानकर उसके सामने निर्वस्त्र होकर जा रहा है, पर कृष्ण उसे रास्ते में रोक लेते हैं, उसका मज़ाक उड़ाते हैं और उससे मनवा लेते हैं कि वह अपनी कमर ढंककर मां के सामने जाएगा। जब दुर्योधन उनकी बातों में आकर चला गया, तो कृष्ण मुस्कुराते हुए उसे देखते हैं, वह बहुत ख़ुश हैं। ‘हां तो इसमें कहां भूल हुई?’ उन्होंने पूछा। मैंने जवाब दिया, ‘कृष्ण एक ऐसे किरदार हैं, जो आगे-पीछे का सब कुछ जानते हैं। वे अंतर्यामी है। जब वे दुर्योधन को कमर ढंकने पर राज़ी कर लेते हैं, तो यह भी जानते हैं कि इसके परिणामस्वरूप दुर्योधन की मां गंधारी उन्हें दुरगामी अभिशाप देगी। उस अवसर पर कृष्ण को ख़ुश नहीं होना चाहिए, उन्हें गहरी सोच में डूबे होना चाहिए।’ मेरी बात सुनकर डॉ. राही चुप हो गए। थोड़ी देर के बाद बोले, ‘मेरे हमनाम(जिस नाम से वो मुझे पुकारते थे) एक बात सुनो, बहुत पर्सनल फीलिंग की बात है। महाभारत के डॉयलाग लिखते हुए मैं अपनी तरफ़ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ता हूं। लोग बहुत पसंद भी कर रहे हैं। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है, लेकिन कभी-कभी लिखते हुए मुझे महसूस होता है महाभारत की अंदरूनी गूंज बहुत हल्के से सुनाई दे रही है। बहुत मुश्किल से पकड़ में आती है।’ एक लेखक के तौर पर उनकी ऐसी इमानदारी देखकर मैं दंग रह गया। आमतौर पर ऐसा कंफैशन कोई नहीं करता, लेकिन राही मासूम रज़ा सच्चे लेखक थे।

ये तो हुई राही साहब और महाभारत की बातें। अब कुछ राही साहब की निजी ज़िंदगी के बारे में भी जान लेते हैं। (साभार: कुरबान अली) पहली सितंबर, १९२७ को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में जन्मे राही की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी. बचपन में टांग में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएचडी की. `तिलिस्म-ए-होशरुबा' उन कहानियों का संग्रह है, जो पुराने दौर में मुसलमान औरतें(दादी-नानी) छोटे बच्चें को रात में बतौर कहानी सुनाया करती थीं. पीएचडी करने के बाद राही अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे. यहीं रहते हुए राही ने `आधा गांव', `दिल एक सादा कागज', `ओस की बूंद',`हिम्मत जौनपुरी' उपन्यास व १९६५ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी `छोटे आदमी की बड़ी कहानी'लिखी. उनकी ये सभी कृतियां हिंदी में थीं. इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य `१८५७' तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे, लेकिन उर्दूवालों से इस बात पर झगड़ा हो जाने पर कि हिंदोस्तानी जबान सिर्फ फारसी रस्मुलखत (फारसी लिपि) में ही लिखी जा सकती है, राही ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और अंतिम समय तक वे इसी लिपि में लिखते रहे. राही की जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा देश का विभाजन था, जिसके लिए वह मुसलिम लीग, कांग्रेस और धर्म की राजनीति को दोषी मानते थे. उनके लिए सबसे बड़ा धर्म `हिंदोस्तानियत' थी और उसकी संस्कृति को यह अपनी सबसे बड़ी धरोहर व विरासत मानते थे. इस `हिंदोस्तानियत' को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिंदू सांप्रदायिकता की शक्ल में. इसीलिए वह अपने जीवन भर इन शक्तियों की आंख की किरकिरी बने रहे. हम सब के लिए दुर्भाग्य की बात है कि सच्चाई और ईमान की वकालत करने वाले ऐसे पुरोधा महज़ ६६ साल की उम्र में १५ मार्च १९९२ को दुनिया से कूच कर गए। "हिंदोस्तानियत" के बारे में अगर आपको इनके विचार जानने हों तो कृपया सृजनगाथा पर "उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा" और "तुलसी का रामचरितमानस" नामक आलेख ज़रूर पढें। हम वो आलेख यहीं मुहैया करा देते लेकिन जगह की कमी है। चलिए राही साहब के बारे में बहुत सारी बातें हो गईं, अब हम आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले उनका लिखा यह बहुचर्चित शेर:

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद,
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद


शेर के बाद आनंद लीजिए "अशोक खोसला" की आवाज़ में "राही" साहब की इस गज़ल का:

अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे,
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे।

ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही और हम भी उसे आज़माते रहे।

ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला,
हम भी गोया किसी साज़ के तार है, चोट खाते रहे, गुनगुनाते रहे।

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे।

सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा,
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नगमागर से हम,
_____ क्या रहेंगे जमाने के डर से हम..


आपके विकल्प हैं -
a) चुप, b) नाराज़, c) खामोश, d) खौफ़ज़दा

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मसीहा" और शेर कुछ यूं था -

शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह

सुदर्शन फ़ाकिर साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। आपने "मसीहा" शब्द पर कुछ शेर भी पेश किए:

सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने (कैफ़ी आज़मी)

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे (गा़लिब)

गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से
मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो (क़तील शिफ़ाई)

सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। शामिख जी, यह गज़ल है हीं इतनी प्यारी कि बार-बार इसी से शेर उठाने का जी करता है। आप तो बस मज़े लें। ये रहे आपके तरकश के तीर:

इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा (सुदर्शन फ़ाकिर)

जहां में हैं लाख दुश्मन-ए-जाँ
कोई मसीहा नफ़स नहीं है (शकील बदायुनी)

इनके बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ शरद जी और मंजु जी ने महफ़िल में हाज़िरी लगाई। ये रहे आप दोनों के शेर (क्रम से):

मिरे मसीहा कभी इतना करम भी कर दे
हरेक शख्स में इन्सानियत का फ़न भर दे।

जब -जब मानवता है रोती ,
तब -तब आंसुओं को पोछने के लिए मसीहा आता है कोई

निर्मला जी,महफ़िल में आपका स्वागत है। गुलज़ार साहब वैसे भी हमें बहुत प्रिय हैं,इसलिए जब भी उनकी बात चलती है कुछ अलग और अनोखा हीं होता है।
सुमित जी, इतने दिन कहाँ थे। महफ़िल आपके बिना सूनी थी। खैर कोई बात नहीं, अब तो गायब होने का कोई इरादा नहीं है ना? यह रही आपकी पेशकश:

दम मेरी आँखो मे अटका है देखूँ तो सही,
क्या मसीहा से मेरे दर्द का दरमां होगा (जहाँ तक हमें पता है "दरमां" का अर्थ इलाज़ होता है और यह अर्थ यहाँ फिट भी बैठता है)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Monday, October 12, 2009

हाय रे वो दिन क्यों न आये....ओल्ड इस गोल्ड पर पहली बार पंडित रविशंकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 230

'दस राग दस रंग' शृंखला मे पिछले नौ दिनों में आप ने सुने नौ अलग अलग शास्त्रीय रागों पर आधारित कुछ बेहतरीन फ़िल्मी रचनाएँ। आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी में हम आप को सम्मोहित करने के लिए लेकर आए हैं राग जनसम्मोहिनी, जिसे शुभ कल्याण भी कहा जाता है। सुविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर आधुनिक काल के ऐसे संगीत साधक हैं जिन्होने ख़ुद कई रागों का विकास किया, नए नए प्रयोग कर नए रागों का इजाद किया। राग जनसम्मोहिनी उन्ही का पुनराविष्कार है। दोस्तों, एक बार ज़ी टीवी के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सा रे गा मा पा' में एक प्रतिभागी ने फ़िल्म 'अनुराधा' का एक गीत गाते वक़्त उसके राग को कलावती बताया था, जिसे सुधारते हुए जज बने ख़ुद पंडित रविशंकर ने बताया कि दरअसल यह राग कलावती नहीं बल्कि जनसम्मोहिनी है। जब पंडित जी ने यह राग बजाया था तब उन्हे मालूम नहीं था कि इसे क्या कहा जाता है। जब इसका उल्लेख कहीं नहीं मिला तो वो इसे अपने नाम पर रवि कल्याण या कुछ और रख सकते थे, जैसे कि तानसेन के नाम पर है मिया की तोड़ी और मिया की मल्हार। पंडित रविशंकर ने और ज़्यादा शोध किया और ढ़ूंढ निकाला एक दक्षिण भारतीय स्केल जिसे जनसम्मोहिनी कहा जाता है। उन्होने उसी कार्यक्रम में बताया कि हो सकता है कि इस राग का ज़िक्र किताबों में हो, लेकिन कोई भी इसे बजा नहीं रहा था। राग कलावती में अगर एक शुद्ध रिशभ लगा दिया जाए तो वह बन जाता है राग जनसम्मोहिनी। इस राग के बारे में बहुत कुछ कह गया मैं लेकिन फ़िल्म 'अनुराधा' के उस गीत का तो ज़िक्र किया ही नहीं। यह गीत है लता जी का गाया हुआ "हाए रे वो दिन क्यों ना आए"। शैलेन्द्र की गीत रचना है।

ऋषिकेश मुखर्जी के इस १९६० की फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बलराज साहनी और लीला नायडु। कहानी है एक डॊक्टर निर्मल की जो गरीबों की सेवा के लिए एक गाँव में प्रैक्टिस करने जाता है। वहाँ उसकी मुलाक़ात होती है अनुराधा नाम की एक लड़की से जो रेडियो पर गाती हैं। दोनों में प्यार हो जाता है, अनुराधा के पैसे वाले पिता के मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर दोनो शादी कर लेते हैं। अनुराधा गाना छोड़ देती है और घर गृहस्थी में लग जाती है। लेकिन जल्द ही उनकी शादी-शुदा ज़िंदगी में दरार पड़ जाती है जब अनुराधा का एक पुराना दोस्त उसकी ज़िंदगी में वापस आ जाता है, और उसे एक बार फिर से गाना शुरु करने की राय देता है। पति पत्नी में दूरियाँ बढ़ती चली जाती है, अनुराधा को भी लगने लगता है कि उसका पति उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दे रहा है, और इसलिए एक दिन अनुराधा फ़ैसला करती है अपने पति से अलग होने का। आगे क्या होता है फ़िल्म का अंजाम, वह आप ख़ुद ही कभी देख लीजिएगा। तो साहब, एक रेडियो गायिका का किरदार होने की वजह से अनुराधा (लीला नायडु) पर कई गानें फ़िल्माए गए, जिन्हे लता जी ने गाए। एक तो है आज का प्रस्तुत गीत, इसके अलावा इस फ़िल्म के प्रचलित गानें हैं राग मंज खमाज पर आधारित "जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ, मैं तो हूँ जागी मोरी सो गईं अखियाँ" और "हाए कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया, पिया जाने ना", तथा भैरवी पर आधारित "साँवरे साँवरे, काहे मोसे करो जोराजोरी, बैयाँ ना मरोड़ो मोरी, दूँगी दूँगी गारी, हटो जी"। तो लीजिए सुनिए आज का गीत जो है राग जनसम्मोहिनी पर आधारित, और यह भी आपको बता दें कि इस राग पर नौशाद साहब ने भी एक गीत बनाया था फ़िल्म 'दिल दिया दर्द लिया' के लिए "कोई साग़र दिल को बहलाता नहीं"। 'दस राग दस रंग' शृंखला का पहला हिस्सा आज यहीं ख़त्म होता है, कुछ और रागों और उन पर आधारित गीतों को लेकर हम फिर से वापस आएँगे इसी महफ़िल में। ये दस गीत आपको कैसे लगे, ज़रूर बताइएगा, कल फिर मुलाक़ात होगी इस महफ़िल में, नमस्ते!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. हिंदुस्तान के सबसे चर्चित शहरों में से एक के रहन सहन पर है ये गीत.
२. इस युगल गीत को निभाते परदे पर नज़र आये कुमकुम और.....
३. गीतकार हैं मजरूह सुल्तानपुरी.

पिछली पहेली का परिणाम -

पराग जी आप भी ४० के आंकडे पर आ पहुंचे हैं, बढे चलिए...दिलीप जी यानी कि आप जल्दी ही आवाज़ पर लौटेंगें अपने आलेख के साथ...इंतज़ार रहेगा....भूल मत जाईयेगा :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

नए संगीतकारों में अमित त्रिवेदी का संगीत है जैसे एक ताजा हवा का झोंका



ताजा सुर ताल TST (29)

दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 ओक्टुबर के एपिसोडस से लगभग अगले 20 एपिसोडस तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के ६० गीतों में से पहली १० पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक -

पिछले एपिसोड में तो सीमा जी पूरा मैदान ही मार लिया, पूरे ६ अंक बटोरे. सीमा जी के कुल अंक हुए १०. दिशा जी और अन्य प्रतिभागियों को लगता है सीमा जी का खौफ हो गया है. खैर एक अच्छे मुकाबले की हम उम्मीद करेंगें इस एपिसोड में.

सजीव - सुजॉय, 'ताज़ा सुर ताल' में आज जिन तीन गीतों को हम लेकर आए हैं, उनमें से सब से पहले कौन सा गाना सुनवाओगे हमारे श्रोताओं को?

सुजॉय - पहला गीत है 'वेक अप सिद' का। याद है इसका शीर्षक गीत हमने सुनवाया था कुछ हफ़्ते पहले?

सजीव - हाँ, और उस दिन इस फ़िल्म के संगीतकार तिकड़ी शंकर अहसान लॉय के बारे में हमने तमाम जानकारियाँ भी दी थी। आज हम सुनवा रहे हैं इस फ़िल्म से "ओ रे मनवा तू तो बावरा है, तू ही जाने तू क्या सोचता है... गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा"।

सुजॉय - यह गीत बहुत ही सुंदर है, लेकिन क्या आपको पता है कि इस गीत को शंकर अहसान लॉय ने नहीं बल्कि अमित त्रिवेदी ने स्वरबद्ध किया है?

सजीव- वाक़ई? अगर इस गीत के गायकों की बात करें तो कविता सेठ और अमिताभ भट्टाचार्य की आवाज़ें बहुत ही सुंदर सुनाई दी है। जहाँ एक तरफ़ कविता सेठ मुख्य गायिका के रूप में गाती हैं, अमिताभ का गायन "गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा" बिल्कुल अलग दिशा में है। शायद इसी को मेलडी और काउंटर मेलडी कहते हैं।

सुजॉय- हो सकता है, मैं श्योर नहीं, लेकिन हमारे श्रोता व पाठकों में से कोई ज़रूर हमें बता सकेगा कि काउंटर मेलडी किसे कहते हैं। वैसे इस गीत में कविता सेठ की गायकी लोक शैली में रंगा हुआ सुनाई देता है। फ़्युज़न का बहुत अच्छा उदाहरण है यह गीत। थोड़ा शास्त्रीय और थोड़ा सा पॊप, इस गीत को एक बार सुनने के बाद बार बार सुनने का मन होता है। अमिताभ ने अच्छा निभाया है अपना हिस्सा। वरिष्ठ गीतकार जावेद अख़तर से हम आगे भी ऐसे अच्छे गीतों की उम्मीद रखेंगे। आइए सुनते हैं यह गीत।

इकतारा (वेक अप सिद)
आवाज़ रेटिंग - ****.



TST ट्रिविया # 07 - गायिका कविता सेठ की डेब्यू एल्बम का नाम क्या है?

सजीव - इस सुकून देनेवाले गीत को सुनकर सुजॉय, अब तो मुझे इसी तरह का एक और सॊफ़्ट मेलडियस गीत सुनने का मन कर रहा है। तो बोलो कौन सा गीत सुनाओगे?

सुजॉय - आप ने बिल्कुल ठीक कहा है। और इसीलिए हमने आज का दूसरा गीत भी कुछ ऐसा ही सॊफ़्ट रोमांटिक अंदाज़ का रखा है। यह है फ़िल्म 'रेडियो - लव ऑन एयर' का जिसे हिमेश रेशम्मिया और श्रेया घोषाल ने गाया है। हिमेश की आवाज़ बिल्कुल अलग सुनाई देती है उनके अब तक के गीतों से। यह गीत है "जानेमन"।

सजीव - हिमेश का गाया "मन का रेडियो बजने दे ज़रा" सुनवाते वक़्त तुमने उस गीत को ४ अंक दिए थे और तब तुमने कहा था कि अगर हम "जानेमन" सुनवाते तो तुम पूरे ५ अंक देते। क्या अब भी तुम्हारा यही ख़याल है?

सुजॉय - जी हाँ, आज भी मैं इस गीत को पूरे ५ अंक ही देना चाहूँगा। आज फ़िल्म संगीत जिस दौर से गुज़र रही है, हम श्रोताओं को ही निर्णय लेना है कि हम किस तरह के गानें सुनना पसंद करेंगे। फ़िल्म संगीत के स्तर को एक बार फिर से उपर लाने के लिए हम भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने की फ़िल्मकार और संगीतकार। इसलिए अगर कोई अच्छा गीत बनता है तो उसकी हमें खुले दिल से तारीफ़ करनी ही चाहिए।

सजीव - बहुत सही कहा सुजॉय तुमने। सही मायने में जो गानें अच्छे हैं, उनको बढ़ावा मिलना ही चाहिए। हिमेश और श्रेया ने बहुत सुंदर गाया है, हिमेश का संगीत भी लाजवाब है, और दिलकश बोल लिखे हैं सुब्रत सिन्हा ने। -

जानेमन (रेडियो)
आवाज़ रेटिंग - ****1/2



TST ट्रिविया # 08 - हिमेश के पिता भी एक संगीतकार थे, क्या था उनका नाम और किस भाषा की फिल्म में वो संगीत दिया करते थे ?

सुजॉय - और अब आज का तीसरा और अंतिम गीत सुनने की बारी। हिमेश रेशम्मिया का नाम सुनते ही जिस अभिनेता का नाम ज़हन में आता है वो हैं सलमान ख़ान। सल्लु भाई ने ही हिमेश को पहले पहले अपनी फ़िल्मों में संगीत देने के मौके दिए थे और हिमेश उनकी उम्मीदो पर खरे उतरे, और उसके बाद तो हिमेश - सलमान हिट्स की जैसे लाइन ही लग गई थी। इसी तरह से एक और संगीतकार जिनके साथ सलमान भाई का ज़बरदस्त साथ रहा है, वो हैं साजिद-वाजिद की जोड़ी। 'मुझसे शादी करोगी', 'गॊड तुस्सी ग्रेट हो', 'तुमको ना भूल पाएँगे' और भी न जाने कितने ऐसे हिट फ़िल्में हैं।

सजीव - मैं कुछ और नाम गिनाता हूँ। 'पार्टनर', 'तेरे नाम' का "लगन लगन लग गई है", और 'प्यार किया तो डरना क्या' का "तेरी जवानी बड़ी मस्त मस्त है"। लेकिन सुजॉय ये सलमान, हिमेश, साजिद वाजिद, बात क्या है? तीसरा गीत कौन सा बजाने वाले हो?

सुजॉय - तीसरा गीत है 'मैं और मिसेस खन्ना' फ़िल्म का। 'क्योंकि' फ़िल्म के बाद इस फ़िल्म में सलमान ख़ान और करीना कपूर एक बार फिर साथ साथ नज़र आ रहे हैं। इसी फ़िल्म से सोनू निगम और श्रेया घोषाल का गाया "डोन्ट से अल्विदा" हम सुनवा रहे हैं।

सजीव - क्या इत्तेफ़ाक़ है कि सलमान-करीना इस फ़िल्म में साथ साथ एक बार फिर से आए हैं, और देखो उनकी पिछली फ़िल्म 'क्योंकि' में भी कुछ ऐसा ही एक गीत था "क्योंकि इतना प्यार तुमको करते हैं हम"। इन दोनों गीतों का फ़ॊर्मैट कुछ कुछ एक जैसा ही है।

सुजॉय - और सलमान ख़ान के फ़िल्मों का संगीत हमेशा ही हिट रहा है, चाहे फ़िल्म चले या ना चले। इस प्रस्तुत गीत बड़ा ही नर्मोनाज़ुक गीत है, उर्दू शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है। सोनू निगम और श्रेया की गायकी का वही अंदाज़ बरकरार है इस गीत में भी, जिसके लिए ये दोनों जाने जाते हैं।

सजीव - तो आज हमने जो तीन गानें सुनवाए, उन सभी में कॉमन बात यही रही कि ये तीनों गीत बेहद नाज़ुक, रोमांटिक, और सुरीले हैं। इस गीत को सुनवाने से पहले हम यह भी बता दे कि 'मैं और मिसेस खन्ना' में सोहैल ख़ान, बप्पी लाहिरी और गोविंदा भी नज़र आएँगे। चलिए अब गाना सुन लिया जाए। गीतकार हैं जुनैद वासी.

डोंट से अलविदा (मैं और मिसेस खन्ना)
आवाज़ रेटिंग -**1/2



TST ट्रिविया # 09 -जुनैद वासी ने किस संगीतकार के साथ काम किया यश राज बैनर की हिट फिल्म में और वो गीत कौन सा है ?

आवाज़ की टीम ने इन गीतों को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीतों को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, October 11, 2009

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी है....राग केदार पर आधारित था ये भजन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 229

भारतीय शास्त्रीय संगीत इतना पौराणिक है कि इसके विकास के साथ साथ कई देवी देवताओं के नाम भी इसके साथ जुड़ते चले गए हैं। शिवरंजनी और शंकरा की तरह राग केदार भी भगवान शिव को समर्पित है। जी हाँ, आज हम इसी राग केदार की बात करेंगे। केदार एक महत्वपूर्ण राग है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागदारी में जितने भी मौलिक स्तंभ हैं, राग केदार के अलावा शायद ही कोई राग होगा जिसमें ये सारी मौलिकताएँ समा सके। राग केदार की खासियत है कि यह हर तरह के जौनर में आसानी से घुलमिल जाता है जैसे कि ध्रुपद, धमार, ख़याल, ठुमरी वगेरह। पारंपरिक तौर पर राग केदार के प्रकार हैं शुद्ध केदार, मलुहा केदार और जलधर केदार। इनके अलावा केदार के कई वेरियशन्स् हैं जैसे कि बसंती केदार, केदार बहार, दीपक केदार, तिलक केदार, श्याम केदार, आनंदी केदार, आदम्बरी केदार, और नट केदार। केदार राग केवल उत्तर भारत तक ही सीमीत नहीं रहा, बल्कि इसका प्रसार दक्षिण में भी हुआ, कर्नाटक शैली में यह जाना गया हमीर कल्याणी के नाम से। फ़िल्म संगीत में इस राग का प्रयोग बहुत सारे संगीतकारों ने किया है। १९७१ की फ़िल्म 'गुड्डी' में वाणी जयराम की आवाज़ में वसंत देसाई ने कॊम्पोज़ किया था "हमको मन की शक्ति देना"। अनोखे संगीतकार ओ. पी. नय्यर ने १९६१ की फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' में "आप युंही अगर हम से मिलते रहे देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा" को इसी राग पर स्वरबद्ध कर एक कालजयी रचना का निर्माण किया था। नय्यर साहब की आदत थी कि कहीं से अमूमन किसी शास्त्रीय गायक को कोई राग गाते हुए सुन लिया तो झट से उसका इस्तेमाल अपने गीत में कर देते थे। उनके इस अदा का मिसाल उस्ताद अमीर ख़ान साहब भी दे चुके हैं। ख़ैर, आगे बढ़ते हैं, बर्मन दादा ने फ़िल्म 'मुनीमजी' में लता से गवाया था "साजन बिना नींद ना आए", और छोटे नवाब पंचम ने फ़िल्म 'घर' के लिए कॊम्पोज़ किया "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं"। नौशाद साहब ने १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' में लता से गवाया था "उठाए जा उनके सितम", यह गीत भी राग केदार पर ही अधारित है।

राग केदार पर आधारित आज जिस गीत को हम आप तक पहुँचा रहे हैं वह है फ़िल्म 'नरसी भगत' का। हेमंत कुमार, सुधा मल्होत्रा और मन्ना डे के गाए इस भजन को संगीतकार रवि ने स्वरबद्ध किया था गीतकार गोपाल सिंह नेपाली के बोलों पर - "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अखियाँ प्यासी रे"। दोस्तो, रवि द्वारा स्वरबद्ध घनश्याम की इस भजन से मुझे याद आया कि रवि ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए एक घटना का उल्लेख लिया था जिसका ताल्लुख़ 'घनश्याम' के एक भजन से ही था। "मैं केवल अपने घर पर ही गाता था। एक दिन मेरे पिताजी ने मुझे डाँटा कि घर में ही आँय आँय करता रहता है, बाहर क्यों नहीं गाता? उन दिनों मैं एक ही भजन गाता था "तुम बिन हमरी कौन ख़बर ले गोवरधन गिरिधारी"। मैं स्कूल में भी गाता था इसे। मेरे क्लासमेट्स् मेरा मज़ाक उड़ाते थे, मेरा नाम 'गोवरधन गिरिधारी' रख दिया था लड़कों ने। फिर एक दिन मेरे पिताजी मुझे सत्संग ले गए और मैनें यह भजन सुनाया। जो लोग वहाँ बैठे थे, सब ने मेरे पिताजी से पूछा कि इस हीरे को अब तक कहाँ छुपा रखा था? उस दिन के बाद से मैं पिताजी के साथ हर बुधवार को सत्संग जाने लगा। तो जब मैं वहाँ गाने लगा तो वहाँ के हारमोनियम बजाने वाले को अच्छा नहीं लगा क्योंकि उसका इम्पोर्टैन्स कम हो गया। मुझे सबक सीखाने के लिए उसने क्या किया कि कुछ ऊँचे सुर लगाने लगा हारमोनियम पर, जिसके ताल से ताल मिलाने के लिए मैं भी ऊँचे स्केल पर गाने लगा और बुरी तरह नाकामयाब रहा। उस समय तो मैं नहीं समझ पाया कि यह क्या हुआ। घर वापस आने के बाद पिताजी ने मुझे डाँटते हुए कहा कि अचार खाता रहता है दिन भर। मुझे अहसास हुआ कि यह सब उस हारमोनियम वादक की वजह से हो रहा है। मैने यह निर्णय लिया कि अब मैं वहाँ तभी जाउँगा जब मेरा अपना हारमोनियम होगा और मैं ख़ुद उसे बजाउँगा। जब पिताजी से हारमोनियम की बात की तो उन्होने ख़ुश हो कर मुझे हारमोनियम ख़रीद कर दिया और एक टीचर के पास भेजा उसे सीखाने के लिए। टीचर तो सा रे गा मा से शुरू करना चाहते थे लेकिन मैने उनसे कहा कि आप मुझे बस "तुम बिन हमरी कौन ख़बर ले गोवरधन गिरिधारी" सीखा दीजिए। उसके बाद मैं एक महीने तक प्रैक्टिस करता रहा और फिर सत्संग गया। सब ने मेरी तारीफ़ की कि मैं ख़ुद हारमोनियम भी बजा रहा था और गा भी रहा था।" दोस्तों, रवि जी के इस भजन से जो लगाव रहा, शायद वही वजह रही होगी कि घन्श्याम का आशिर्वाद उन पर रहा और उन्होने आगे चलकर फ़िल्म 'नरसी भगत' के लिए इस कालजयी भजन की रचना की - "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अखियाँ प्यासी रे, मनमंदिर की ज्योति जगा दो घट घट बाती रे"। हाल ही में यह भजन चर्चा में आ गई थी फ़िल्म 'स्लम्डॊग करोड़पति' के ज़रिए। इस फ़िल्म में इस गीत को एक सूरदास भजन बताया गया, लेकिन हक़ीक़त यही है कि यह नेपाली जी की रचना है। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शाहू मोडक और निरुपा राय। तो सुनवाते हैं आपको हेमंत दा, मन्ना दा और सुधा मल्होत्रा का एकसाथ गाया हुआ यह एकमात्र भजन यह बताते हुए कि इस शीर्षक से १९४० में भी एक फ़िल्म बनी थी जिसका निर्माण विजय भट्ट और शंकर भट्ट ने किया था अपने 'प्रकाश पिक्चर्स' के बैनर तले और जिसमें संगीतकार थे शंकर राव व्यास।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. भारत रत्न से सम्मानित इस महान संगीतकार ने जीते हैं एक से अधिक बार ग्रैमी सम्मान भी.
२. राग है जग सम्मोहिनी (शुभ कल्याण) जिस पर आधारित है ये गीत.
३. शैलेन्द्र है गीतकार यहाँ.

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी बधाई १४ अंकों के साथ आप तेजी से आगे बढ़ रहे हैं....दूसरी बार विजेता बनने की डगर पर. दिलीप जी मेल अवश्य मिली होगी कृपया दुबारा देखें

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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