Saturday, April 16, 2011

ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - जब गुड्डो दादी नें बताया पंडित बागा राम व पंडित हुस्नलाल के परिवार के साथ उनके पारिवारिक संबंध के बारे में



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गानें रेकॉर्ड/ कैसेट्स/ सीडी'ज़ के ज़रिये अनंतकाल तक सुरक्षित रहेंगे, इसमें कोई शक़ नहीं है, और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सुनहरे दौर के फ़नकार भी अमर रहेंगे। लेकिन जब हम इन अमर फ़नकारों के बारे में आज जानना चाहते हैं तो कुछ किताबों, पत्र-पत्रिकाओं और विविध भारती के संग्रहालय में उपलब्ध कुछ साक्षात्कारों के अलावा कोई और ज़रिया नहीं है। इन कलाकारों के परिवार वालों से भी जानकारी मिल सकती है लेकिन उन तक पहुँचना हमेशा संभव नहीं होता। ऐसे में अगर हमें कोई मिल जाये जिन्होंने उस ज़माने के कलाकार को या उनके परिवार को करीब से देखा है, जाना है, तो उनसे बातचीत करनें में भी एक अलग ही रोमांच हो आता है। यह हमारा सौभाग्य है कि 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार के श्रोता-पाठकों में भी कई मित्र ऐसे हैं जिन्होंने न केवल उस ज़माने से ताल्लुख़ रखते हैं बल्कि स्वर्णिम युग के कुछ कलाकारों के संस्पर्श में भी आने का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ऐसी ही एक शख़्स हैं हमारी गुड्डो दादी।

अभी हाल ही में जब मुझे सजीव जी से पता चला कि गुड्डो दादी बहुत साल पहले पंडित हुस्नलाल के घर गई थीं, मुझे रोमांच हो आया, और मैंने दादी से गुज़ारिश की अपनी यादों के उजालों को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बिखेरने की। बड़े ही उत्साह के साथ दादी नें न केवल उस अनुभव के बारे में हमें लिख भेजा, बल्कि अमरीका से ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन भी किया। ७२ वर्ष की उम्र में भी टेलीफ़ोन पर उनकी आवाज़ में जिस तरह का उत्साह मुझे मेहसूस हुआ, उससे हम नौजवान बहुत कुछ सीख सकते हैं। बहुत साल पहले की बात होने की वजह से दादी को बहुत ज़्यादा तो याद नहीं, लेकिन जितना भी याद है, वो हमारे लिये कुछ कम नहीं है। तो आइए रोशन करते हैं आज की यह महफ़िल गुड्डो दादी की सुनहरी यादों के उजाले से।

सुजॉय - गुड्डो दादी, एक बार फिर स्वागत है आपका 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। यकीन मानिए, आप जैसी वरिष्ठ मित्रों के संस्पर्श में आकर हमें बहुत अच्छा लगता है, और एक रोमांच भी हो आता है यह जानकर कि आप सहगल साहब, पं. हुस्नलाल-भगतराम, और सुरिंदर कौर जैसी कलाकारों से मिली हैं, या उन्हें सामने से देखा है। आज हम आपसे जानना चाहेंगे पं. हुसनाल-भगतराम के बारे में। मैंने सुना है कि आपके परिवार का संबंध है उनके परिवार के साथ?

गुड्डो दादी - जी हाँ! पंडित बागा राम जी के साथ हमारा पारिवारिक सम्बन्ध है। मेरे पैदा होने से भी पहले हमारे परिवार का काफी आना जाना था।

सुजॉय - ये पंडित बागा राम जी कौन हैं?

गुड्डो दादी - पं. बागा राम जी हुस्नलाल जी के ससुर थे। और वो ख़ुद भी संगीतकार थे। मेरे ख़याल में उन्होंने कुछ फ़िल्मों में भी संगीत दिया है। और हुस्नलाल भगतराम को भी बहुत कुछ सिखाया है। पंडित बागा राम जी बहुत सीधे सादे किस्म के इंसान थे, बढ़ी सफ़ेद दाढ़ी, खुली कंधे पर लाल कपडे का अंगोछा डाले रखते थे।

सुजॉय - अच्छा!! क्या आप बता सकती हैं कि बागा राम जी नें किन फ़िल्मों में संगीत दिया था?

गुड्डो दादी - पंडित बागा राम जी ने कौन सी फिल्म में संगीत दिया या लिखा मुझे जानकारी नहीं हैं, क्योंकि उन दिनों हमें दूर ही रखा जाता था गीत आदि से, और दूर संचार के साधन भी कम थे। रेडियो तो १९४७ तक किसी किसी के घर में ही होता था।

सुजॉय - मैंने इंटरनेट पर काफ़ी ढूंढा पर बागा राम जी के बारे मे कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सका, और न ही उनके किसी फ़िल्म या गीत की। ऐसे में आप से उनके बारे में सुन कर बहुत ही अच्छा लग रहा है। दादी, मैंने सुना है कि आप हुस्नलाल जी के घर गई थीं। कहाँ पे था उनका घर?

गुड्डो दादी - मुझे जितना याद है या पता है, वह बागा राम जी का घर था। हुस्नलाल जी का वहाँ ख़ूब आना जाना था। उनका घर था दिल्ली के पहाड़गंज में इम्पीरियल सिनेमा के पीछे। एक पारिवारिक वातावरण था, सबसे मिलते थे आदर के साथ, हंस मुख भी थे। हुस्नलाल-भगतराम जी नया गीत अपने मित्र मंडली के साथ तैयार करते थे, जिसमे पंडित बागा राम जी बहुत सहायता करते थे। बहुत से गीत और धुनें दुसरे संगीतकारों ने चोरी कर अपनी फिल्मो में शामिल कर लिया, नाम तो नहीं लिखूँगी। हम भी दिल्ली में रहते थे। बेटी और पति के साथ बहुत बार गई उनके घर। वहाँ एक कमरा वाद्यों से सुज्जित रहता था जिसमें सितार, हारमोनियम, घड़ा, तबला शामिल थे। मसंद गोल तकिये, उन पर सफ़ेद कवर, ज़मीन पर कालीन और कालीन पर सफ़ेद चादर भी बिछी होती थी। उनके घर हमनें खाना भी खाया, बहिन के हाथों बना चाय भी पी, बड़ी बहिन ने खाने पर आमन्त्रण दिया था। बहिन, यानी हुसनाल जी की पत्नी, जिनको मैं बड़ी बहन बोलती हूँ सम्मान के साथ, उन्होंने भी फ़िल्म में गीत गाया है। मुझे जितना याद है फ़िल्म 'चाकलेट' में उन्होंने गीत गाया था।

सुजॉय - अच्छा! हुस्नलाल जी की पत्नी, यानी कि बागा राम जी की बेटी! यह जो फ़िल्म 'चाकलेट' की बात बतायी आपने, इस फ़िल्म में संगीत था मोहन शर्मा का और गीतकार थे सी. एम. कश्यप। यह १९५० की फ़िल्म थी। अच्छा दादी, गायिकाओं की बात करें तो सुरैया जी के साथ हुस्नलाल-भगतराम के सब से ज़्यादा लोकप्रिय गीत हुए। इस बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

गुड्डो दादी - गायिका सुरैया की बहुत इज्ज़त करते थे दोनों। एक दूसरी मशहूर गायिका नें जब अपनी गीतों की 'श्रद्धांजली' सी.डी. बनायी तो उन्होंने हुस्न लाल जी के गीत एक भी नहीं शामिल किये। और आप यकीन नहीं करेंगे कई गायक गायिकाओं नें भी उनकी धुनें चुराकर दूसरे संगीतकारों को दी। गायक महेंदर कपूर जी ने भी गायन की शिक्षा हुसनलाल जी से ली थी।

सुजॉय - अच्छा दादी, आप तो उनके परिवार के करीब थीं, आप बता सकती हैं कि हुस्नलाल जी के निकट के मित्रों में कौन कौन से कलाकार हुआ करते थे?

गुड्डो दादी - गीतकार पंडित सुदर्शन जी, अभिनेता सोहराब मोदी, जयराज सहगल जी, जिल्लो बाई, जुबैदा, बोराल जी, डी एन मधोक, वाई बी चोहान, कारदार साहब, हरबंस, डायरेक्टर मुकंद लाल और बहुत से फिल्म के लोग थे उनकी मित्र मंडली में। एक साल पहले तलत अज़ीज़ से फोन पर बात हुई थी हुस्नलाल जी के विषय में, उनके मुख से यही निकला कि चित्रमय संसार में हम उन्हें बहुत याद करते हैं, और बहुत नाम है उनका | कभी कहते भी थे आपके बनाये हुए गीत फलाना फिल्म में बज रहे है, तो उनके मुख से यही निकलता था बजने दो मेरे मन को बहुत शान्ति मिलती है, यहीं सभी कुछ छोड़ जाना है, सभी कुछ!

सुजॉय - हुस्नलाल जी के अंतिम दिनों के बारे में आप कुछ बता सकती हैं?

गुड्डो दादी - उनके अंतिम दिन बहुत ही खराब व दयनीय दशा में निकले। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन किसी के आगे अपना हाथ नहीं फैलाया। कुछ भी हो सुबह के वक़्त सैर अवश्य करने जाते थे। और एक दिन सुबह दिल्ली के ताल कटोरा बाग में दिल की धडकन रूकने से वहीं उनका देहांत हो गया। धुन बनाने वाले, चुराने वाले, गाने वाले, कोई भी कुछ नहीं ले गया, सब कुछ यहीं रह गया, फिल्म 'मेला' का गीत "ये जिंदगी के मेले" दरअसल फिल्म 'मोती महल' का गीत था "जाएगा जब यहाँ से कुछ भी ना साथ होगा"।

सुजॉय - वाक़ई दिल उदास जाता है ऐसे शब्द सुन कर। अच्छा दादी, चलते चलते आप अपनी पसंद का कोई गीत पंडित हुस्नलाल-भगतराम जी का सुनवाना चाहेंगे हमारे श्रोताओं को?

गुड्डो दादी - "वो पास रहे या दूर रहे नज़रों में समाये रहते हैं"

सुजॉय - वाह! आइए सुना जाये यह गीत सुरैया की आवाज़ में, फ़िल्म 'बड़ी बहन' का यह गीत है, क़मर जलालाबादी के बोल और यह वर्ष १९४९ की तस्वीर है।

गीत - वो पास रहे या दूर रहे (बड़ी बहन)


सुजॉय - दादी, आपका बहुत बहुत शुक्रिया, बागा राम जी और हुस्नलाल जी के जीवन और संगीत सफ़र के बारे में युं तो किताबों और पत्रिकाओं से जानकारी प्राप्त की जा सकती है, लेकिन आपनें जो बातें हमें बताईं, वो सब कहीं और से प्राप्त नहीं हो सकती थी। यह हमारा सौभाग्य है आप से बातचीत करना। आगे भी हम आप से सम्पर्क बनाये रखेंगे, आप भी 'आवाज़' पर हाज़िरी लगाते रहिएगा, बहुत बहुत शुक्रिया, नमस्कार!

गुड्डो दादी - मेरी तरफ़ से आप को बहुत बहुत आशिर्वाद और धन्यवाद!

सुनो कहानी: जयशंकर प्रसाद की ममता



जयशंकर प्रसाद की कहानी ममता

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने संज्ञा टंडन की आवाज़ में स्वामी विवेकानन्द की कथा 'उपाय छोटा काम बड़ा' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं जयशंकर प्रसाद की कहानी "ममता", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 9 मिनट 6 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



झुक जाती है मन की डाली, अपनी फलभरता के डर में।
~ जयशंकर प्रसाद (30-1-1889 - 14-1-1937)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था।
(जयशंकर प्रसाद की "ममता" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#126th Story, Mamta: Jaishankar Prasad/Hindi Audio Book/2011/9. Voice: Anurag Sharma

Thursday, April 14, 2011

चलो हसीन गीत एक बनायें.....सुनिए कैसे 'शौक़ीन' दादामुनि अशोक कुमार ने स्वर दिया इस मजेदार गीत को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 635/2010/335

सितारों की सरगम', 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों द्वारा गाये गये फ़िल्मी गीत। राज कपूर, दिलीप कुमार, मीना कुमारी और नूतन के बाद आज बारी हम सब के चहेते अभिनेता दादामुनि अशोक कुमार की। दोस्तों, आपको शायद याद होगा कि इस शृंखला की पहली कड़ी में हमनें यह कहा था कि इस शंखला में हम 'सिंगिंग् स्टार्स' को शामिल नहीं कर रहे हैं। इसलिए दादामुनि का नाम सुन कर शायद आप यह सवाल करें कि दादामुनि तो फ़िल्मों के पहले दशक में अभिनय के साथ साथ गायन भी किया करते थे, तो फिर उनका नाम कैसे इस शृंखला में शामिल हो रहा है? दरअसल बात ऐसी है दोस्तों कि भले ही अशोक कुमार नें उस दौर में अपने पर फ़िल्माये गानें ख़ुद ही गाया करते थे, लेकिन उनका नाम 'सिंगिंग् स्टार्स' की श्रेणी में दर्ज करवाना शायद सही नहीं होगा। दादामुनि की ही तरह उस दौर में बहुत से ऐसे अभिनेता थे जिन्हें प्लेबैक की तकनीक के न होने की वजह से अपने गानें ख़ुद ही गाने पड़ते थे, जिनमें मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल जैसे नाम उल्लेखनीय है। यानी कि गायन उस ज़माने के अभिनेताओं की मजबूरी थी। और फिर दादामुनि नें स्वयं ही इस बात को स्वीकारा था विविध भारती के एक इंटरव्यु में, जिसमें उन्होंने कहा था, "जब मैं फ़िल्मों में आया था सन् १९३४-३५ के आसपास, उस समय गायक-अभिनेता सहगल ज़िंदा थे। उन्होंने फ़िल्मी गानों को एक शक्ल दी और मेरा ख़याल है उन्हीं की वजह से फ़िल्मों में गानों को एक महत्वपूर्ण जगह मिली। आज उन्हीं की बुनियाद पर यहाँ की फ़िल्में बनाई जाती हैं, यानि बॊक्स ऒफ़िस सक्सेस के लिए गानों को सब से ऊँची जगह दी जाती है। मेरे वक़्त में प्लेबैक के तकनीक की तैयारियां हो रही थी। तलत, रफ़ी, मुकेश फ़िल्मी दुनिया में आये नहीं थे, लता तो पैदा भी नहीं हुई होगी। अभिनेताओं को गाना पड़ता था चाहे उनके गले में सुर हो या नहीं। इसलिए ज़्यादातर गानें सीधे सीधे और सरल बंदिश में बनाये जाते थे ताकि हम जैसे गाने वाले आसानी से गा सके। मेरा अपना गाया हुआ एक गाना था "पीर पीर क्या करता रे तेरी पीर न जाने कोई"। मुझे याद है इस गाने को रेकॊर्ड में भरना मुश्किल पड़ गया था क्योंकि यह गाना था आधे मिनट का और इस आधे मिनट को तीन मिनट का बनाने के मुझे धीरे धीरे गाना पड़ा था। और उस रेकॊर्ड को सुन कर मैं रो दिया था। उसी वक़्त मैंने तय कर लिया था कि अगर मुझे फ़िल्मों में रहना है तो गाना सीखना ही पड़ेगा। मैं आठ महीनों तक राग यमन सीखता रहा।" दोस्तों, पार्श्वगायन की प्रथा लोकप्रिय होने के बाद अशोक कुमार को फ़िल्मों में गाने की ज़रूरत नहीं पड़ी और उनके गीत रफ़ी, मन्ना डे जैसे गायकों नें गाये, और वो एक अभिनेता के रूप में ही मशहूर हुए, न कि 'गायक-अभिनेता' के रूप में। इसलिए 'सितारों की सरगम' शृंखला में दादामुनि अशोक कुमार को शामिल करने में कोई वादा-ख़िलाफ़ी नहीं होगी।

आज की कड़ी के लिए अशोक कुमार के गाये गीतों में कौन सा गीत सुनवायें? जी नहीं, हम ३० के दशक का कोई गीत नहीं सुनवायेंगे। इसके चार दशक बाद दादामुनि की एक बेहद चर्चित फ़िल्म आयी थी 'आशीर्वाद', जिसमें उनका मुख्य चरित्र था फ़िल्म में। एक मानसिक रोगी की भूमिका में बच्चों के लिए उनके गाये "रेल गाड़ी" और "नानी की नाव चली" गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे। लेकिन ये दोनों ही गीतों में गीत की विशेषता कम और नर्सरी राइम की महक ज़्यादा थी। कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में दादामुनि नें फ़िल्म 'कंगन' में एक गीत गाया था "प्रभुजी मेरे अवगुण चित ना धरो"। साल १९८२ में बासु चटर्जी की एक हास्य फ़िल्म आयी थी 'शौकीन', जिसके मुख्य चरित्रों में थे तीन वृद्ध, जिन्हें पर्दे पर साकार किया था हिंदी सिनेमा के तीन स्तंभ अभिनेता - ए. के. हंगल, उत्पल दत्त और दादामुनि अशोक कुमार नें। साथ में थे मिथुन चक्रवर्ती और रति अग्निहोत्री। इस फ़िल्म में दादामुनि की आवाज़ में एक बड़ा ही अनूठा गीत था जिसे उन्होंने गायिका चिरश्री भट्टाचार्य के साथ मिल कर गाया था। राहुल देव बर्मन का संगीत था और गीतकार थे योगेश। मारुति राव और मनोहारी सिंह संगीत सहायक के रूप में काम किया था इस फ़िल्म में। हाँ तो दादामुनि और चिरश्री की युगल आवाज़ों में यह गीत था "चलो हसीन गीत एक बनाये, वह गीत फिर बनाके गुनगुनायें, ख़यालों को चलो ज़रा सजायें, नशे में क्यों न झूम झूम जायें"। फ़िल्मांकन में दादामुनि और रति अग्निहोत्री पियानो पे बैठ कर एक गीत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। बड़ा ही गुदगुदाने वाला गीत है और दादामुनि का अंदाज़-ए-बयाँ भी क्या ख़ूब है। ३० के दशक में जो यमन उन्होंने सीखा था, शायद उसी का नतीजा था कि इस उम्र में भी उन्होंने इस गीत को इतने अच्छे तरीके से निभाया। और गीत तो गीत, वो इसके फ़िल्मांकन में रति को नृत्य भी सिखाते हुए नज़र आते हैं। लाल कोट पहनें दादामुनि पर फ़िल्माया यह गीत निस्संदेह एक अनोखा गीत है और यही गीत है आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी की शान। दादामुनि के अभिनय के साथ साथ उनकी गायन प्रतिभा को भी सलाम करते हुए आइए सुनें 'सितारों की सरगम' लघु शृंखला की पाँचवीं कड़ी का यह गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि दादामुनि अशोक कुमार का असली नाम था कुमुद लाल गंगोपाध्याय। फ़िल्मों के पहले दौर में उनके अभिनय व गायन से सजी कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्मों के नाम हैं - जीवन नैया, अछूत कन्या, झूला, बंधन, कंगन, किस्मत।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 6/शृंखला 14
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान है, चलिए आज इसी अभिनेता के बारे में कुछ सवाल हो जाए

सवाल १ - ये अपनी धरम पत्नी की पहली में फिल्म में हीरो चुने जाने वाले थे, पर नहीं चुने गए, किस एक्टर की झोली में गया ये रोल - ३ अंक
सवाल २ - किस अभिनेता के साथ दो बार काम करते हुए इन्हें फिल्म फेयर सह अभिनेता का पुरस्कार मिला - 2 अंक
सवाल ३ - इस कलाकार ने सबसे पहली बार किस फिल्म में पार्श्वगायन किया था और वो गीत कौन सा था - 2 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह कल तो अमित जी बाज़ी मार गए, वैसे आधे पड़ाव तक अभी भी अनजाना जी खासी बढ़त बनाये हुए हैं, पर इस बार प्रतीक जी भी अच्छा मुकाबला पेश कर रहे हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, April 13, 2011

ए मेरे हमसफ़र रोक अपनी नज़र...जितनी उत्कृष्ट अभिनेत्री थी नूतन उनकी गायिकी में भी उतना ही क्लास था



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 634/2010/334

प्रिय दोस्तों, नमस्कार और स्वागत है आपका आप ही के इस मनचाहे महफ़िल में जिसका नाम है 'ओल्ड इज़ गोल्ड'। इस स्तंभ में इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'सितारों की सरगम' जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिन्हें गाया है अभिनेता - अभिनेत्रियों नें। जी नहीं, हम 'सिंगिंग् स्टार्स' की बात नहीं कर रहे, बल्कि हम केवल स्टार्स की बात कर रहे हैं जो मूलतः अभिनेता या अभिनेत्री हैं, लेकिन किसी न किसी फ़िल्म में एक या एकाधिक गीत गाया है। राज कपूर, दिलीप कुमार, और मीना कुमारी के बाद आज बारी है अभिनेत्री नूतन की। अभिनेत्री व फ़िल्म निर्मात्री शोभना समर्थ की बेटी नूतन को शोभना जी नें ही अपनी निर्मित फ़िल्म 'हमारी बेटी' में लौंच किया था, जिसमें नूतन नें एक गीत भी गाया था, जिसके बोल थे "तूने कैसा दुल्हा भाये री बाँकी दुल्हनिया"। 'हमारी बेटी' १९५० की फ़िल्म थी। इसके दस साल बाद, १९६० में शोभना समर्थ नें अपनी छोटी बेटी तनुजा को लौंच करने के लिए बनाई फ़िल्म 'छबिली' जिसमें मुख्य नायिका बनीं नूतन और इस फ़िल्म में संगीतकार स्नेहल भाटकर नें नूतन से ही सारे गीत गवाये जो उन पर फ़िल्माये गये। यह वाक़ई आश्चर्य की बात है कि जिस दौर में संगीतकार लता और आशा को गवाने के लिए तत्पर रहते थे, उस दौर में उन्होंने नूतन को मौका दिया अपने अभिनय के साथ साथ गायन के जोहर दिखाने का भी। और नूतन नें भी क्या कमाल का गायन प्रस्तुत किया था इस फ़िल्म में!

'छबिली' के गीतकार थे एस. रतन। इस फ़िल्म का हेमंत कुमार और नूतन का गाया "लहरों पे लहर उल्फ़त है जवाँ" हम 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला में सुनवा चुके हैं। इस फ़िल्म का दूसरा सब से लोकप्रिय गीत है नूतन की एकल आवाज़ में "ऐ मेरे हमसफ़र, रोक अपनी नज़र" और जब भी नूतन के गायन प्रतिभा की बात चलती है तो सब से पहले इसी गीत का ज़िक्र किया जाता है। इसलिए आज की कड़ी में हम इसी गीत को बजा रहे हैं। इन दो गीतों के अलावा 'छबिली' में नूतन नें "मिला ले हाथ, ले बन गई बात" और "हे बाबू हे बाबा" एकल आवाज़ में गाया; तथा गीता दत्त के साथ मिलकर "यारों किसी से न कहना" और महेन्द्र कपूर के साथ "ओ माइ डार्लिंग् ओ माइ स्वीटी' जैसे गीत भी गाए। आज भले 'छबिली' फ़िल्म की कहानी किसी को याद न होगी, लेकिन इस बात के लिए यह फ़िल्म सब के ध्यान में रहती है कि इसमें नूतन ने अपनी आवाज़ में कुछ लाजवाब गीत गाये थे। आज के इस प्रस्तुत गीत को सुनने के बाद यकायक यह सवाल ज़हन में उभरता है कि नूतन नें और फ़िल्मों में क्यों नहीं गाया होगा! क्या ख़ूबसूरत आवाज़ थी और कितनी सुंदर अदायगी! और शत शत आभार स्नेहल भाटकर का भी, क्योंकि उनके प्रयास के बग़ैर शायद यह संभव नहीं हो पाता। आइए इस लाजवाब गीत का आनंद लिया जाये!



क्या आप जानते हैं...
कि नूतन को ५ बार फ़िल्मफ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, और ये फ़िल्में हैं 'सीमा', 'सुजाता', 'बंदिनी', 'मिलन', और 'मैं तुल्सी तेरे आंगन की'।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 5/शृंखला 14
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक ज़माने में इस बेमिसाल अभिनेता को सिंगिंग स्टार बनकर भी गाना पड़ता था, पर ये गीत उस दौर के बहुत बाद का है.

सवाल १ - कौन है ये गायक/अभिनेता - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - सहगायिका कौन हैं इस गीत में - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना जी बढ़त पर हैं लगता है इस बार अमित जी को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, April 12, 2011

बोल रे बोल रे मेरे प्यारे पपीहे बोल रे....गायन में भी खुद को आजमाया महान अभिनेत्री मीना कुमारी ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 633/2010/333

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार! 'सितारों की सरगम' शृंखला में ट्रैजेडी किंग् दिलीप कुमार के बाद आज बारी है ट्रैजेडी क्वीन के आवाज़ की। जी हाँ, मीना कुमारी, जिन्हें हिंदी सिनेमा का ट्रैजेडी क्वीन कहा जाता है। मीना कुमारी जितनी सशक्त अदाकारा थीं उतनी ही अच्छी शायरा भी थीं। उनकी शायरी का संकलन 'I write, I recite' के शीर्षक से जारी हुआ था, जिसको संगीतबद्ध किया था ख़य्याम साहब नें। विनोद मेहता नें मीना कुमारी की जीवनी लिखी जो प्रकाशित हुई थी सन् १९७२ में। इस किताब में मीना जी की शायराना अंदाज़ उन्होंने कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया था - "Her poetry is sad, joyless, pessimistic, morbid, but then what do you expect from a women of the temperament of Meena Kumari? Her verses were entirely in character with her life, or at least her comprehension of her life. My heroine was not an outstanding poet, nor a detached poet, nor a penetrating poet, nor a classical poet. She was a learning poet who translated her life into verse. The dominant strain in Meena Kumari's poetry is love, or rather the impossibility of finding love. And it would be true to say that my heroine looked, searched, wept and cried in its pursuit. In fact, she said, "love is my biggest weakness and greatest strength too. I am in love with love. I am craving for love. I have been craving for it since my childhood." We all know she was unsuccessful."

उपलब्ध जानकारी के अनुसार मीना कुमारी नें जिन गिनी-चुनी फ़िल्मों में अपना स्वर दिया, यानी गीत गाये, उनमें शामिल हैं 'पिया घर आजा', 'दुनिया एक सराय', 'बहन', 'अलादिन और जादूई चिराग़' और 'बिछड़े बलम'। १९४७ की फ़िल्म 'पिया घर आजा' में बुलो सी. रानी नें मीना जी पर फ़िल्माये सभी गीत उनसे गवा लिए, जैसे कि "अखियाँ तरस रही उन बिन", "देश पराये जानेवाले भूल न जाना प्रीत निभाना", "एक बार फिर कहो ज़रा आँखों का नूर हो", "मेरे सपनों की दुनिया बसाने वाले", "मिली आज पिया से अखियाँ", "न कोई दिलासा है न बाक़ी है बहाना", "नैन बसे हो राजा दिल में बसे हो" (करण दीवान के साथ), "नैन डोर बांध लियो चितचोर" (करण दीवान के साथ)। इन सभी गीतों को इंद्रचन्द्र कपूर नें लिखा। 'बहन' में अनिल बिस्वास नें मीना कुमारी से सरदार आह सीतापुरी का लिखा "तोरे कजरा लगाऊँ मोरी रानी" गवाया था, तो 'दुनिया के सराय' में हंसराज बहल नें उनसे कई गीत गवाये। एस. एन. त्रिपाठी का संगीत था 'अलादिन और जादूई चिराग़' में। लेकिन मीना कुमारी से सब से ज़्यादा गीत बुलो सी. रानी नें ही गवाये थे। 'पिया घर आजा' के सभी गीतों के अलावा 'बिछड़े बलम' में भी बुलो साहब नें उनसे गीत गवाये और इसी फ़िल्म का एक बहुत ही दुर्लभ गीत आज हम आपके लिए लेकर आये हैं। मीना कुमारी और ए. आर. ओझा की युगल आवाज़ों में यह है "बोल रे बोल रे मेरे प्यारे पपीहे बोल रे"। गीतकार इंद्र चंद्र, जो कुछ फ़िल्मों में आइ. सी. कपूर के नाम से भी जाने गये। इस गीत को सुनवाने से पहले एक और दुर्लभ जानकारी आपको देना चाहेंगे कि बुलो सी. रानी नें ही १९४८ की फ़िल्म 'अंजुमन' में अभिनेत्री नर्गिस से भी गीत गवाया था। नर्गिस और उमा देवी की युगल आवाज़ों में यह मुशायरा गीत था "हज़रात क्योंकि काफ़ी देर हो चुकी है"। हमनें काफ़ी कोशिशें की कि इस गीत को हम कहीं से ढूंढ कर नर्गिस जी पर भी एक अंक इस शृंखला में प्रस्तुत करें, लेकिन अफ़सोस कि फ़िल्म के ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड पर इसे नहीं उतारा गया था और इस फ़िल्म की प्रिण्ट भी कहीं से प्राप्त नहीं कर पाये। इसलिए इसी अंक में इस बात का ज़िक्र हमनें कर दिया। और अब सुनिए मीना कुमारी और ए. आर. ओझा की आवाज़ों में 'बिछड़े बलम' फ़िल्म का गीत। इस गीत को उपलब्ध करवाने में विशेष सहयोग दिया सेशाद्री बुक्कारायासमुद्रम नें। आइए सुनते हैं इस बेहद दुर्लभ गीत को।



क्या आप जानते हैं...
कि मीना कुमारी का असली नाम था महजबीन बानो और उनका जन्म १ अगस्त १९३२ को हुआ था अली बक्श और इक़बाल बेगम के घर।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 4/शृंखला 14
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद मशहूर गीत एक मशहूर अभिनेत्री का गाया.

सवाल १ - कौन है ये गायिका/नायिका - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - कितनी बार इस नायिका को फिल्म फेयर पुरस्कार मिला है - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
जो हमने कहना था वो अनजाना जी ने कह दिया अमित जी से....इतने मुश्किल गीत को १ मं में पहचान गए आप लोग ताज्जुब है वाकई बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

पोर-पोर गुलमोहर खिल गए..जब गुलज़ार, विशाल और सुरेश वाडकर की तिकड़ी के साथ "मेघा बरसे, साजन बरसे"



Taaza Sur Taal (TST) - 08/2011 - BARSE BARSE

कुछ चीजें जितनी पुरानी हो जाएँ, उतनी ज्यादा असर करती हैं, जैसे कि पुरानी शराब। ज्यों-ज्यों दिन बीतता जाए, त्यों-त्यों इसका नशा बढता जाता है। यह बात अगर बस शराब के लिए सही होती, तो मैं यह ज़िक्र यहाँ छेड़ता हीं नहीं। यहाँ मैं बात उन शख्स की कर रहा हूँ, जिनकी लेखनी का नशा शराब से भी ज्यादा है और जिनके शब्द अल्कोहल से भी ज्यादा मारक होते हैं। पिछले आधे दशक से इस शख्स के शब्दों का जादू बरकरार है... दर-असल बरकरार कहना गलत होगा, बल्कि कहना चाहिए कि बढता जा रहा है। हमने इनके गानों की बात ज्यादातर तब की है, जब ये किसी फिल्म का हिस्सा रहे हैं, लेकिन "ताज़ा सुर ताल" के अंतर्गत पहली बार हम एक एलबम के गानों को इनसे जोड़कर लाए हैं। हमने "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" में इनके कई सारे गैर-फिल्मी गाने सुनें हैं और सुनते रहेंगे। हम अगर चाहते तो इस एलबम को भी महफ़िल-ए-ग़ज़ल का हिस्सा बनाया जा सकता था, लेकिन चुकी यह "ताज़ा एलबम" है, तो "ताज़ा सुर ताल" हीं सही उम्मीदवार साबित होता है। अभी तक की हमारी बातों से आपने उन शख्स को पहचान तो लिया हीं होगा। जी हाँ, हम गुलज़ार की हीं बातें कर रहे हैं और एलबम का नाम है "बरसे बरसे"।

जब भी कहीं गुलज़ार का ज़िक्र आता है, तो दो संगीतकार खुद-ब-खुद हमें याद आ जाते हैं। एक तो पंचम दा और दूसरे विशाल। विशाल यानि विशाल भारद्वाज। गुलज़ार साहब ने पंचम दा के साथ कई सारे गैर-फिल्मी गानों पर काम किया है..उनमें से एक एलबम का ज़िक्र हमने महफ़िल-ए-ग़ज़ल में भी किया था। पंचम दा की तुलना में विशाल के गानों की गिनती काफ़ी पीछे रह जाती है, लेकिन आज के समय में विशाल हीं एकलौते ऐसे संगीतकार हैं, जिन्होंने गुलज़ार के लफ़्ज़ों के मर्म को पकड़ा है। विशाल-गुलज़ार के गानों को सुनकर इस बात का अनुमान हीं नहीं लग पाता कि संगीत पहले आया था या गीत। दोनों एक-दूसरे से जुड़े महसूस होते हैं। अब अगर इस जोड़ी में "तेरे लिए" (७ खून माफ़) और "जाग जा" (ओंकारा) जैसे सुमधुर गानों में अपनी मखमली आवाज़ का तड़का लगाने वाले सुरेश वाडेकर को शामिल कर लिया जाए तो इस तरह बनी तिकड़ी का कोई सानी न होगा। आज के एलबम "बरसे बरसे" की यही खासियत है। इस एलबम के गीत लिखे हैं गुलज़ार ने, संगीत दिया है विशाल भारद्वाज ने और आवाज़ है सुरेश वाडेकर की। अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि एलबम के गीत कितने अनमोल होंगे! चलिए तो पहले गाने से शुरूआत करते हैं। यह गीत एलबम का शीर्षक गीत (टाईटल ट्रैक) है।

बरसे-बरसे मेघा कारा,
तन भींजे, मन भींजे म्हारा...
मैं भींजूँ अपने साजन में,
मुझमें भींजे साजन म्हारा..
बैयों में भर ले,
सौंधी माटी-सी मैं महकूँ रे,
आज न रैन ढले...

प्रीत का खेल नियारा,
हारूँ तो हो जाऊँ पिया की,
जीतूँ तो पी म्हारा..


इस गाने में राजस्थानी फोक़ (लोक-संगीत) का पुट इतनी खूबसूरती से डाला हुआ है कि एक बार डूबो तो निकलकर आने का मन हीं नहीं करता। सुरेश वाडेकर को सुनकर ऐसा एक पल को भी नहीं लगता कि वे दर-असल मराठी हैं। राजस्थानी शब्दों का उच्चारण न सिर्फ़ साफ़ है, बल्कि राजस्थान के किसी गाँव का माहौल भी उभरकर आ जाता है। विशाल अपने वाद्य-यंत्रों से श्रोताओं को बाँधकर रखने में कामयाब हुए हैं। "प्रीत का खेल नियारा" वाले अंतरे में गुलज़ार ने "अमीर खुसरो" को ज़िंदा कर दिया है। खुसरो ने भी यही कहा था कि "हारूँ तो मैं पी की और जीतूँ तो पी मेरा"। गुलज़ार ऐसा कमाल करते रहते हैं।

अगला गाना है "ऐसा तो होता नहीं है"। इस गाने में गुलज़ार की जादूगरी खुलकर नज़र आती है।

सब्जे में लिपटा हुआ कोई आ जाए अपना!

चंपा-सी तुम, तुम-सी चंपा,
फूलों से धोखा हुआ है..
ये तुम हो कि शम्मा जलाकर,
कोई लॉन में रख गया है।
एक लौ-सा जलता हुआ कोई आ जाए अपना!


जिस तरह से और जिन साज़ों के सहारे गाने की शुरूआत होती है, उसे सुनकर विशाल के संगीत की समझ का सही पता चलता है। चूँकि मुझे साज़ों की उतनी जानकारी नहीं, इसलिए ठीक-ठीक मैं यह कह नहीं सकता कि कौन-से साज़ इस्तेमाल हुए हैं। अगर आप जानते हों तो कृप्या हमें अवगत कराएँ। इस गाने में वाडेकर साहब "तेरे लिए" गाने के हैंग-ओवर में नज़र आते हैं। जब भी वे "कोई आ जाए अपना" कहते हैं तो सच में किसी अपने के आने की चाह खड़ी हो जाती है। "ऐसा तो होता नहीं है...सपनों से चलकर कोई आ जाए अपना"...इस पंक्ति के सहारे गुलज़ार साहब ने हर किसी की दिली-ख्वाहिश को एक झटके में हीं सच का आईना दिखा दिया है।

एलबम का तीसरा गाना है "तेरे नैन"। जहाँ पहला गाना राजस्थानी लोकगीत की याद दिलाता था, वहीं यह गाना खुद में पंजाबियत समेटे हुए है।

पीछ्छे पै गए तेरे नैन...

चले न मेरी मर्जी कोई,
जो कैंदे मैं करदा सोई,
दो दिन वीच मेरी सारी आकर,
कढ के लै गए तेरे नैन..

कोई पीर सयाना आवे,
आके मेरी जान छड़ावे,
मेरे सिरते इश्क़ दा टोना
कर के बै गए तेरे नैन..


गानों में नई सोच किस तरह डालते हैं, यह कोई गुलज़ार साहब से सीखे। "पीछ्छे पै गए तेरे नैन""... अब अगर किसी को अपनी माशूका की आँखों की तारीफ़ करनी होगी तो वह यह तो कतई नहीं कहेगा, क्योंकि उसे डर होगा कि उसकी माशूका कहीं बुरा न मान जाए। लेकिन गुलज़ार साहब जब यह कहते हैं तो उनके पास अपनी बात रखने और साबित करने के कई तरीके होते हैं.. तभी तो वह आराम से कह जाते हैं कि तुम्हारी आँखों ने मेरे सिर पर इश्क़ का टोना कर रखा है। इश्क़ की नई-नई अदाएँ कोई गुलज़ार साहब से सीखे। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे गुलज़ार साहब के पास इश्क़ के कई सारे शब्दकोष हैं, जो इन्होंने खुद गढे हैं। इस गाने में विशाल और सुरेश वाडेकर की भागेदारी भी बराबर की है। गाने के बीच में तबले का बड़ा हीं सुंदर प्रयोग हुआ है। वाडेकर साहेब ने जिस तरह राजस्थानी ज़बान को अपना बना लिया था, अमूमन वैसी हीं महारत उनकी पंजाबी ज़बान में नज़र आती है।

तन्हाई में... देहों के टाँके टूटे..

पोर-पोर गुलमोहर खिल गए,
रग-रग में सूरज दहका रे,
साँसों की अंगनाई में..

ताप सहे कोई कितना,
रोम-रोम देह का पुकारे,
वो मंतर जाने सैयां,
तन-मन छांव उतारे,
रूह तलक गहराई में..


एक लंबे आलाप के साथ इस गाने की शुरूआत होती है। सुरेश वाडकर साहब शास्त्रीय संगीत में पारंगत है, इस बात का पता आलाप को सुनते हीं लग जाता है। "तन्हाई" कहते वक़्त ये अपनी आवाज़ में अजीब-सा भारीपन ले आते हैं, ताकि तन्हाई को महसूस किया जा सके। एकबारगी सुनने पर यह मालूम हीं नहीं किया जा सकता कि गुलज़ार साहब कहना क्या चाहते हैं, गाना है किस विषय पर? बात शुरू तो तन्हाई से होती है, लेकिन अगली हीं पंक्ति में "देहों के टाँके टूटे" कहकर गुलज़ार साहब प्यार के "अनमोल पल" की ओर इशारा करते हैं। आगे का हर-एक लफ़्ज़ यही बात दुहराता-सा लगता है। "रग-रग में सूरज दहका" या फिर "ताप सहे कोई कितना".. यहाँ किस ताप की बात हो रही है? क्या मैं वही समझ रहा हूँ, जो गुलज़ार साहब समझाना चाहते हैं या फिर मैं रास्ते से भटक गया हूँ? इस बात का फैसला कौन करेगा? अब जो भी हो, मुझे तो इस गाने में "प्यार..प्यार..प्यार.. और बस प्यार" हीं नज़र आ रहा है, तन्हाई के दर्द का कोई नामो-निशां नहीं है। और वैसे भी, तन्हाई से दर्द को जोड़ना सही नहीं, क्योंकि जब दो जिस्म एक हो जाते हैं, तो वह एक जिस्म-औ-जान अकेला हीं होता है, तन्हा हीं होता है। है या नहीं?

इस एलबम का अंतिम गाना है "ज़िंदगी सह ले"..

ज़िंदगी सह ले,
दर्द है.. कह ले।

पैरों के तले से जिस तरह ये
बर्फ़ पिघलती है, आ जा..
जंगलों में जैसे पगडंडी
पेड़ों से निकलती है, आ जा..


मेरे हिसाब से इस गाने का नाम "आ जा" रखा जाना चाहिए था, क्योंकि भले हीं मुखरे में ज़िंदगी को सह लेने की हिदायत दी जा रही है, लेकिन अंतरों में पुकार हीं पुकार है.. "आ जा" कहकर किसी को पुकारा जा रहा है। मुख्ररे के अंत में और अंतरों के बीच में एक शब्द है जिसे मैं सही से समझ नहीं पाया हूँ। "आ जा अभी/हबी आ सके.. तू आ".. यहाँ पर "अभी" है या "हबी"? अभी रखा जाए तो अर्थ सटीक बैठता है... अर्थ तब भी सही निकलता है, जब हबी हो, बस दिक्कत यह है कि "हबी" हिन्दी या उर्दू का शब्द नहीं, बल्कि अंग्रेजी का है.. हबी यानि कि हसबैंड। अब यह अगर यह फीमेल सॉंग होता तो मैं मान भी लेता कि हबी होगा, क्योंकि गुलज़ार साहब अंग्रेजी के शब्द गानों में इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन यह तो मेल सॉंग है। एक तीसरा विकल्प भी है.. "हबीब", लेकिन "बीट्स" पर हबीब फिट नहीं बैठता। तो क्या हम मान लें कि वह शब्द "अभी" है? इस एलबम के किसी भी गाने का लिरिक्स इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं, इसलिए सही शब्द पता करना नामुमकिन हीं समझिए। खैर! जहाँ तक संगीत की बात है तो पहले बीट से लेकर अंतिम बीट तक विशाल श्रवणेन्द्रियों को थामे रखने में सफ़ल साबित हुए हैं। बस सुरेश वाडकर साहब से थोड़ी-सी चूक हो गई है। कुछेक शब्दों का उच्चारण साफ़ नहीं है.. इसलिए मज़ा हल्का-सा कम हो गया है।

कुल मिलाकर यह एलबम विविधताओं से भरा है और जैसा हम कहते हैं ना.. "विविधता में एकता"। तो ऐसा हीं कुछ यहाँ भी है। हर गाना अलग तरीके का है, लेकिन सबमें एक खासियत है और वह है "फ़ीलिंग".. "इमोशन्स".. "भाव"। इसलिए सभी गाने सुने जाने चाहिए। सुनकर अच्छा महसूस होगा, यकीन मानिए।

आज की समीक्षा आपको कैसी लगी, ज़रूर बताईयेगा। चलिए तो इस बातचीत को यहीं विराम देते हैं। अगले हफ़्ते फिर मुलाकात होगी। नमस्कार!

आवाज़ रेटिंग - 8/10

एक और बात: इस एलबम के सारे गाने आप यहाँ पर सुन सकते हैं।




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, April 11, 2011

लागी नाहीं छूटे....देखिये अज़ीम कलाकार दिलीप साहब ने भी क्या तान मिलायी थी लता के साथ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 632/2010/332

मस्कार! 'ओल्ड इज़ ओल्ड' पर कल से हमनें शुरु की है लघु शृंखला 'सितारों की सरगम'। पहली कड़ी में कल आपने सुना राज कपूर का गाया गीत। 'शोमैन ऒफ़ दि मिलेनियम' के बाद आज बारी 'अभिनय सम्राट' की, जिन्हें 'ट्रेजेडी किंग्' भी कहा जाता है। जी हाँ, यूसुफ़ ख़ान यानी दिलीप कुमार। युं तो हम दिलीप साहब को एक अभिनेता के रूप में ही जानते हैं, पुराने फ़िल्म संगीत में रुचि रखने वाले रसिकों को मालूम होगा दिलीप साहब के गाये कम से कम एक गीत के बारे में, जो है फ़िल्म 'मुसाफ़िर' का, "लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये"। लता मंगेशकर के साथ गाया यह एक युगल गीत है, जिसका संगीत तैयार किया था सलिल चौधरी नें। 'फ़िल्म-ग्रूप' बैनर तले निर्मित इसी फ़िल्म से ऋषिकेश मुखर्जी नें अपनी निर्देशन की पारी शुरु की थी। १९५७ में प्रदर्शित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार, उषा किरण और सुचित्रा सेन। पूर्णत: शास्त्रीय संगीत पर आधारित बिना ताल के इस गीत को सुन कर दिलीप साहब को सलाम करने का दिल करता है। एक तो कोई साज़ नहीं, कोई ताल वाद्य नहीं, उस पर शास्त्रीय संगीत, और उससे भी बड़ी बात कि लता जी के साथ गाना, यह हर किसी अभिनेता के बस की बात नहीं थी। वाक़ई इस गीत को सुनने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब बेहतर अभिनेता हैं या बेहतर गायक। इस ६:३० मिनट गीत से आज रोशन हो रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल। वैसे दोस्तों, यह गीत एक पारम्परिक ठुमरी है राग पीलू पर आधारित, जिसका सलिल दा ने एक अनूठा प्रयोग किया इसे लता और दिलीप कुमार से गवा कर। लता जी पर राजू भारतन की चर्चित किताब 'लता मंगेशकर - ए बायोग्राफ़ी' में इस गीत के साथ जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का ज़िक्र हुआ है। आपको पता है इस गीत की रेकॊर्डिंग् से पहले दिलीप साहब को एक के बाद एक तीन ब्रांडी के ग्लास पिलाये गये थे?

आज क्योंकि लता जी और दिलीप साहब की चर्चा एक साथ चल पड़ी है, तो इन दोनों से जुड़ी कुछ बातें भी हो जाए! एक मुलाक़ात में लता जी ने दिलीप साहब से कहा था, "दिलीप साहब, याद है आपको, १९४७ में, मैं, आप और मास्टर कम्पोज़र अनिल बिस्वास, हम तीनों लोकल ट्रेन में जा रहे थे। अनिल दा नें मुझे आप से मिलवाया एक महाराष्ट्रियन लड़की की हैसियत से और कहा कि ये आने वाले कल की गायिका बनेगी। आपको याद है दिलीप साहब कि आप ने उस वक़्त क्या कहा था? आप नें कहा था, "एक महाराष्ट्रियन, इसकी उर्दू ज़बान कभी साफ़ नहीं हो सकती!" इतना ही नहीं, आप नें यह भी कहा था कि "इन महाराष्ट्रियनों के साथ एक प्रॊबलेम होता है, इनके गानें में दाल-भात की बू आती है।" आपके ये शब्द मुझे चुभे थे। इतने चुभे कि अगले ही सुबह से मैंने सीरीयस्ली उर्दू सीखना शुरु कर दिया सिर्फ़ इसलिए कि मैं दिलीप कुमार को ग़लत साबित कर सकूँ।" और दिलीप साहब नें १९६७ में लता जी के गायन करीयर के सिल्वर जुबिली कॊनसर्ट में इस बात का ज़िक्र किया और अपनी हार स्वीकारी। राजू भारतन नें सलिल दा से एक बार पूछा कि फ़िल्म 'मुसाफ़िर' के इस गीत के लिए दिलीप साहब को किसनें सिलेक्ट किया था। उस पर सलिल दा का जवाब था, "दिलीप नें ख़ुद ही इस धुन को उठा ली; वो इस ठुमरी का घंटों तक सितार पर रियाज़ करते और इस गीत में मैंने कम से कम ऒर्केस्ट्रेशन रखा था। मैंने देखा कि जैसे जैसे रेकॊर्डिंग् पास आ रही थी, दिलीप कुछ नर्वस से हो रहे थे। और हालात ऐसी हुई कि दिलीप आख़िरी वक़्त पर रेकॊर्डिंग् से भाग खड़े होना भी चाहा। ऐसे में हमें उन्हें ब्रांडी के पेग पिलाने पड़े उन्हें लता के साथ खड़ा करवाने के लिए।" तो दोस्तों, इन दिलचस्प बातों को पढ़कर इस गीत को सुनने का मज़ा दुगुना हो जाएगा, आइए अब गीत सुना जाए।



क्या आप जानते हैं...
कि आज के प्रस्तुत गीत की रेकॊर्डिंग् के बाद दिलीप कुमार और लता मंगेशकर में बातचीत १३ साल तक बंद रही। दरअसल दिलीप साहब को पता नहीं क्यों ऐसा लगा था कि इस गीत में लता जी जान बूझ कर उन्हें गायकी में नीचा दिखाने की कोशिश कर रही हैं, हालाँकि ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह नहीं थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 14
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक शायरा भी थी ये सशक्त अभिनेत्री जिनकी आवाज़ है इस गीत में.

सवाल १ - कौन है ये गायिका - १ अंक
सवाल २ - सह गायक कौन हैं इस युगल गीत में उनके - ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना जी, प्रतीक जी और रोमेंद्र जी को बधाई. अमित जी कहाँ गायब रहे कल दिन भर :), हिन्दुस्तानी जी आपके सुझाव पर अवश्य काम करेंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, April 10, 2011

कहाँ गया चितचोर....जब संगीत के खासे जानकार राज कपूर ने किया खुद अपने लिए पार्श्वगायन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 631/2010/331

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। पिछली शृंखला केन्द्रित थी हिंदी सिनेमा के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार के.एल. सहगल साहब पर। सिंगिंग् स्टार्स की बात करें तो सहगल साहब के अलावा पंकज मल्लिक, के. सी. डे, कानन देवी, शांता आप्टे, नूरजहाँ, सुरैया जैसे नाम झट से ज़ुबान पर आ जाते हैं। प्लेबैक सिंगर्स के आगमन से धीरे धीरे सिंगिंग् स्टार्स का दौर समाप्त हो चला और एक से एक लाजवाब पार्श्वगायकों नें क़दम जमाया जिन्होंने फ़िल्म संगीत को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। और स्टार्स केवल अभिनय तक ही सीमित रह गये। इस तरह से अभिनय और गायन, दोनों जगत को श्रेष्ठ फ़नकार मिले जिन्हें अपनी अपनी विधा में महारथ हासिल थी। वैसे समय समय पर हमारे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों नें अभिनेताओं से गानें भी गवाये हैं, जो उनकी आवाज़ में बड़े ही निराले और अनोखे बन पड़े हैं। आइए आज से शुरु करें कुछ ऐसे ही अभिनेताओं द्वारा गाये फ़िल्मी गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सितारों की सरगम'। शुरुआत करते हैं 'शोमैन ऒफ़ दि मिलेनियम' राज कपूर साहब से। वैसे तो हमनें राज साहब पर ७ अंकों की लघु शृंखला बहुत पहले ही प्रस्तुत की है, लेकिन उसमें राज साहब का गाया कोई गीत शामिल नहीं हुआ। आइए आज राज साहब की आवाज़ का भी आनंद लिया जाए। यह है १९४७ की फ़िल्म 'दिल की रानी' का गीत "ओ दुनिया के रहने वालों, बोलो कहाँ गया चितचोर"। गीतकार यशोदानंदन जोशी का लिखा यह गीत है, और इस फ़िल्म के संगीतकार थे सचिन देव बर्मन।

सन् १९४७ में राज कपूर ने बतौर नायक फ़िल्म जगत में क़दम रखा था किदार शर्मा की फ़िल्म 'नील कमल' में, जिसमें उनकी नायिका थीं मधुबाला। वैसे राज साहब नें फ़िल्मों में अपना करीयर एक चौथे ऐसिस्टैण्ट के रूप में शुरु किया था और पहली बार पर्दे पर नज़र आये थे १९३५ की फ़िल्म 'इनकिलाब' में। और राज कपूर - मधुबाला की जोड़ी इसी वर्ष, यानी १९४७ में दो और फ़िल्मों में नज़र आई, ये फ़िल्में थीं 'चित्तौड़ विजय' और 'दिल की रानी'। दोनों ही फ़िल्में मोहन सिन्हा निर्देशित फ़िल्में थीं और दोनों में ही संगीत बर्मन दादा का था। 'दिल की रानी' के प्रस्तुत गीत को सुनकर कोई भी अनुमान लगा सकता है राज कपूर के संगीत समझ की। शुरुआती दिनों में वो मुकेश के साथ संगीत सीखा करते थे, यानी कि दोनों गुरुभाई हुआ करते थे। इस संगीत शिक्षा से न केवल वो एक अच्छा गायक बनें, बल्कि संगीत निर्देशन की भी उनकी अच्छी समझ हो गई थी। और यही कारण था कि उनके सभी फ़िल्मों का संगीत सफल होता था। फ़िल्म चाहे चले न चले, उनका संगीत ज़रूर चलता था। गीतों की सिटिंग्स में वो संगीतकार और गायक के साथ मौजूद रहते थे और अपने सुझाव भी दिया करते थे। कहा जाता है कि फ़िल्म 'बॊबी' के गीत "अखियों को रहने दे अखियों के आसपास" की धुन उन्होंने ही सुझाई थी। अच्छा अब वापस आते हैं 'दिल की रानी' पर और आपको एक दिलचस्प तथ्य देना चाहेंगे कि जहाँ एक तरफ़ सचिन दा ने राज कपूर से यह गीत गवाया, इसी फ़िल्म में उन्होंने श्याम सुंदर से भी एक एकल गीत गवाया था जिसके बोल थे "आएँगे मेरे मन के बसैया"। तो आइए राज कपूर की संगीत प्रतिभा को सलाम करते हुए सुनें उनका गाया फ़िल्म 'दिल की रानी' का यह गीत। गीत को सुनते हुए आपको पहले दौर के गायकों की ज़रूर याद आ जायेगी। फ़र्क बस इतना है कि ऒर्केस्ट्रेशन कुछ उन्नत सुनाई देती है। लीजिए सुनिए...



क्या आप जानते हैं...
कि राज कपूर कई साज़ बजा लेते थे जिनमें शामिल थे हारमोनियम, ऐकॊर्डियोन, पियानो, तबला, बुलबुल-तरंग आदि।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 2/शृंखला 14
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक और बड़े फनकार का है पार्श्वगायन.

सवाल १ - किस अभिनेता ने पार्श्वगायन किया है इस युगल गीत में - १ अंक
सवाल २ - किस निर्देशक ने अपनी फ़िल्मी पारी की शुरुआत की इस फिल्म से - ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना जी ने शानदार शुरुआत की है ३ अंकों से, अमित जी भी बस पीछे ही हैं, इस बार तो लगता है शरद जी मैदान में उतर पड़े हैं, इंदु जी पसंद अपनी अपनी है क्या कहें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - नवरात्रों की जगमग और चैती



सुर संगम - 15 - चैत्र मास की चैती
इस चर-अचर और दृश्य-अदृश्य जगत की जो विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व हैं|


मस्कार! सुर-संगम के इस साप्ताहिक स्तंभ में मैं, सुमित चक्रवर्ती आपका अभिनंदन करता हूँ और साथ ही आप सब को नवरात्रों की हार्दिक शुभ-कामनाएँ भी देता हूँ। पिछ्ली कड़ी में हमनें पारंपरिक लोक व शास्त्रीय कला 'चैती' के बारे में चर्चा की। 'चैती' चैत्र मास के नवरात्रों के दिनों में प्रस्तुत की जाने वाली लोक एवं शास्त्रीय कला है। आइये इस कला के लोक पक्ष की चर्चा आगे बढ़ाते हुए हम बात करें इसके शास्त्रीय पक्ष के बारे में भी।

यह मान्यता है की प्रकृतिजनित, नैसर्गिक रूप से लोक कलाएँ पहले उपजीं, परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणवत्ता के कारण ये शास्त्रीय रूप में ढल गईं| प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि का ग्रन्थ- 'नाट्यशास्त्र' पंचम वेद माना जाता है| नाट्यशास्त्र के प्रथम भाग, पंचम अध्याय के श्लोक ५७ में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित होता है | श्लोक का अर्थ है- "इस चर-अचर और दृश्य-अदृश्य जगत की जो विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व हैं|" चैती गीतों के लोक स्वरुप में ताल पक्ष के चुम्बकीय गुण के कारण ही उप-शास्त्रीय संगीत में यह स्थान पा सका| लोक परम्परा में चैती १४ मात्राओं के चाँचर ताल में गायी जाती है, जिसके बीच-बीच में ताल कहरवा का प्रयोग होता है| पूरब अंग के बोल बनाव की ठुमरी भी १४ मात्राओं के दीपचन्दी ताल में निबद्ध होती है और गीत के अन्तिम हिस्से में कहरवा की लग्गी का प्रयोग होता है| सम्भवतः चैती के इस गुण ने ही उप-शास्त्रीय गायकों को इसके प्रति आकर्षित किया होगा| आइए चैती के लोक स्वरुप का अनुभव 1908 के एक दुर्लभ रिकार्ड के माध्यम से करते हैं| इस रिकार्ड में अच्छन बाई की आवाज़ है|

अरे फुलेला फुल्वा - अच्छनबा


लोक कला जब शास्त्रीय स्वरुप ग्रहण करता है तो उसमें गुणात्मक वृद्धि होती है| चैती गीत इसका एक ग्राह्य उदाहरण है| चैती के लोक और उप-शास्त्रीय स्वरुप का समग्र अनुभव करने के लिए आप उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई वादन की यह प्रस्तुति सुनें।

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ - चैती धुन


और अब अन्त में चर्चा- 'फिल्म संगीत में चैती' की| हिन्दी फ़िल्मों की जहाँ बात आती है, इनमें चैती गीतों का बहुत ज़्यादा प्रयोग नहीं हुआ है। केवल कुछ ही फ़िल्में ऐसी हैं जिनमें चैती का उल्लेखनीय प्रयोग किया गया हो।| वर्ष १९६३ में बनी फिल्म 'गोदान' में पंडित रविशंकर के संगीत निर्देशन में मुकेश ने चैती- 'हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा' गाया था| यह लोक शैली में गाया चैती गीत है| ठुमरी अंग में आशा भोसले ने फिल्म 'नमकीन' में चैती गाया है जिसके बोल हैं- 'बड़ी देर से मेघा बरसा हो रामा, जली कितनी रतियाँ' | जैसा कि हमने पिछ्ली कड़ी में आपको बताया था कि चैती गीत मुख्यतः राग बिलावल अथवा राग यमनी बिलावल पर आधारित होते हैं परन्तु इस गीत में आपको राग तिलक कामोद का आनंद भी मिलेगा| लीजिए प्रस्तुत हैं ये दोनों फ़िल्मी चैती गीत।

हिया जरत रहत दिन रैन, हो रामा - मुकेश(फ़िल्म - गोदान)


बड़ी देर से मेघा बरसा, हो रामा - आशा भोसले(फ़िल्म - नमकीन)


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए और पहचानिए कि यह किस सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक की आवाज़ है?



पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी ने पुन: सही उत्तर देकर ५ अंक प्राप्त कर लिये हैं, बधाई! क्या कोई और इन्हें चुनौति देना चाहेगा?

तो यह थी प्रसिद्ध लोक व शास्त्रीय शैली - चैती पर आधारित हमारी अंतिम कड़ी। आशा है आपको पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। हम एक बार पुनः आभार व्यक्त करेंगे लखनऊ के श्री कृष्‍णमोहन मिश्र का जिन्होंने इस कला के बारे में अपने असीम ज्ञान को हमसे बाँटा तथा इस प्रस्तुति में हमारा सहयोग दिया। आगामी रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने साथी सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए| शाम ६:३० बजे अपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथी सुजॉय चटर्जी के साथ पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख - कृष्‍णमोहन मिश्र
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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