Saturday, October 23, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए



'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ...

आदाब,
'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं।

'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद!


ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे लिए जैसे टॊनिक का काम करते हैं। और रही बात आपके पसंद की क़व्वाली की, तो शायद आपको याद होगा, इस क़व्वाली के आलेख में मैंने इस बात का ज़िक्र भी किया था कि मुझे भी यह क़व्वाली अत्यन्त प्रिय है। चलिए हम दोनों की पसंद भी मिल गई। आप आगे भी इसी तरह का साथ बनाये रखिएगा। और अप अपनी अगली ग़ज़ल हमे कब भेज रहे हैं?

आइए अब आज के दूसरे ई-मेल पर आते हैं, इसे भेजा है अनीता सिंह ने। सच कहूँ, यह कोई ई-मेल नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों पहले हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के किसी अंक में अनीता सिंह की एक टिप्पणी मिली थी, जिसमें उन्होंने एक गीत की फ़रमाइश की थी। उस वक़्त हम उस गीत को सुनवा तो नहीं सके थे, लेकिन हमारे मन में यह बात ज़रूर रह गई थी कि कभी ना कभी हम अनीता जी की पसंद को पूरी कर सके। इसलिए हमने अपने ई-मेल के ड्राफ़्ट्स में उनकी यह टिप्पणी सेव कर के रख लिया था। तो चलिए आज उनकी उस टिप्पणी के साथ उनके पसंद का एक गीत सुना जाए। अनीता सिंह लिखती हैं...

जरा सी देर क्या हुई मैं तों चूक ही गई (पहेली से)। चलिए मेरे प्रश्न का उत्तर अल्पना जी ने दे ही दिया है, तो अपनी एक फरमाइश तो रख ही सकती हूँ न! मुझे एक शरारती गाना बहुत पसंद है, यदि आपके पास हो तो सुनाईयेगा। ''हम गवनवा न जैबे हो बिना झुलनी" और "चाहे तो मोरा जिया लई ले सांवरिया"। दोनो सुचित्रा सेन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र की फिल्म के हैं। फ़िल्म का नाम ???? क्यों बताऊँ???

वाह अनीता जी, बेहद सुंदर दो गीतों की फ़रमाइश आपने भेजी है। अब फ़िल्म का नाम चाहे आप बताएँ या ना बताएँ, यह तो ज़्यादातर लोगों को ही पता होगा। चलिए फिर भी हम बता देते हैं, ये दोनों गीत फ़िल्म 'ममता' के हैं। संगीतकार रोशन की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'ममता' और इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद सराहे गये थे। आज हम अनीता जी की फ़रमाइश पर सुनेंगे "हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी"। लेकिन गीत सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से इस गीत के बारे में कुछ जानकारी आपको दे दें!

अगर आप इस गीत को ध्यान से सुनें, तो आप इस गीत को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला भाग है "हम गवनवा न जैबे हो" (ठुमरी), दूसरा भाग है "सकल बन गगन पवन चलत पुर्वाई रे" (खमाज, बहार), और तीसरे भाग मे है "विकल मोरा मनवा उन बिन हाए" (पीलू, बसंत मुखाड़ी)। कम्पोज़िशन, संगीत संयोजन और रागों के इस्तेमाल पर अगर आप ग़ौर करें तो इन तीनों भागों को आप इंसान के जीवन के तीन भागों के रूप में भी देख सकते हैं। पहला हिस्सा बचपन का, दूसरे हिस्से में है यौवन और तीसरे हिस्से में है बुढ़ापा। इस गीत को प्रस्तुत करते हुए रोशन साहब ने यही बात विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था - "ममता फ़िल्म में ऐसी ही एक सिचुएशन बनी कि जिसमें बचपन, जवानी और बुढ़ापा को दर्शाना था संगीत के माध्यम से। तो ज़ाहिर है कि धुन ही पहले बनाई गई। जहाँ पे शब्दों की ज़्यादा अहमियत होती है, वहाँ गीत पहले लिखा जाता है।" दोस्तों इस गीत के लिए रोशन साहब को जितनी दाद मिलनी चाहिए, उतनी ही दाद मजरूह सुल्तानपुरी को भी मिलनी ही चाहिए। अक्सर यह मान लिया जाता है कि हिंदी के कठिन शब्द शायरी के प्रभाव में बाधा डालते हैं। पर मजरूह साहब ने विकल शब्दों का बड़ी ही कामयाबी और ख़ूबसूरती से प्रयोग कर के हमें दिया एक से सुंदर गीत, और यह गीत भी उन्हीं में से एक है। और रही बात इस गीत की गायिका लता जी की, अब उनकी तारीफ़ में कुछ कहने को बचा है भला! आइए सुनते हैं और अनीता सिंह जी का शुक्रिया अदा करते हैं इस गीत को चुनने के लिए।

गीत - हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी (ममता)


तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। अगर आप भी ख़ानसाब की तरह हमें कुछ कहना चाहते हैं या अनीता जी की तरह कोई गीत सुनवाना चाहते हैं, तो हमें फ़ौरन ई-मेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। अब हमें इजाज़त दीजिए, अगले शनिवार आप ही में से फिर किसी दोस्त के ईमेल के साथ हम हाज़िर होंगे। और हाँ, कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित शृंखला में एक बेहद अनूठी लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। आप में से जिन जिन दोस्तों के स्पीकर काम नहीं करते, या फिर ऒडियो प्ले नहीं होते, उनसे ग़ुज़ारिश है कि जल्द ही उन्हें ठीक करा लें। बिना ऒडियो के आप इस शृंखला का मज़ा नहीं ले पाएँगे। तो कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए, नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय

सुनो कहानी - मुण्डन - हरिशंकर परसाई - अनुराग शर्मा



सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "मुण्डन"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पाकिस्तानी लेखक अहमद सगीर सिद्दीकी की कहानी "विभाजित" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "मुण्डन", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

यह मामला कुतुब मीनार का नहीं जो सदियों जांच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटने रहते हैं।
(हरिशंकर परसाई की "मुण्डन" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

#One hundred eighth story, Mundan : Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2010/40. Voice: Anurag Sharma

Friday, October 22, 2010

गाँव से लायी एक सुरीला सपना रश्मि प्रभा और जिसे मिलकर संवार रहे हैं ऋषि, कुहू, श्रीराम और सुमन सिन्हा



दोस्तों, आपने गौर किया होगा कि एक दो शुक्रवारों से हम कोई नया गीत अपलोड नहीं कर रहे हैं. दरअसल बहुत से गीत हैं जिन पर काम चल रहा है, पर ऑनलाइन गठबंधन की कुछ अपनी मजबूरियां भी होती है, जिनके चलते बहुत से गीत अधर में फंस जाते हैं. पर हम आपको बता दें कि आवाज़ महोत्सव का तीसरा सत्र जारी है और अगला नया गीत आप जल्द ही सुनेंगें. इन सब नए गीतों के निर्माण के अलावा भी कुछ प्रोजेक्ट्स हैं जिन पर आवाज़ की टीम पूरी तन्मयता से काम कर रही है. ऐसे ही एक प्रोजेक्ट् से आईये आपका परिचय कराएँ आज.

युग्म से जुड़े सबसे पहले संगीतकार ऋषि एस एक बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार हैं, इस बात का अंदाजा, हर सत्र में प्रकाशित उनके गीतों को सुनकर अब तक हमारे सभी श्रोताओं को भी हो गया होगा. आमतौर पर आजकल संगीतकार धुन पहले रचते हैं, ऐसे में दिए हुए शब्दों को धुन पर बिठाना और उसमें जरूरी भाव भरना एक दुर्लभ गुण ही है, और उससे भी दुर्लभ है गुण, शुद्ध कविताओं को स्वरबद्ध करने का. अमूमन गीत एक खास खांचे में लिखे जाते हैं ताकि धुन आसानी से बिठाई जा सके, पर जब कवि कविता लिखता है तो वह इन सब बंधनों से दूर रहकर अपने मन को शब्दों में उंडेलता है. ऐसे में उन लिखे शब्दों उनके भाव अनुसार स्वरबद्ध करना एक चुनौती भरा काम ही है. यही कारण है कि जब हमने किसी कवि की कविताओं को इस प्रोजेक्ट के लिए संगीत में ढालने का मन बनाया तो बतौर संगीतकार ऋषि एस को ही चुना.

दरअसल ये सुझाव कवियित्री रश्मि प्रभा का था. आईये सुनें उनकी ही जुबानी कि ये ख़याल उन्हें कैसे आया.

रश्मि प्रभा - शब्दों के साथ चलते चलते एक दिन देखा कि कुछ शब्द सरगम की धुन में थिरक रहे हैं और हवा कह गई- ज़िन्दगी भावनाओं को गुनगुनाना चाहती है ' .... ऐसा महसूस होते मैंने धुन और स्वर को आवाज़ दी और पलक झपकते ऋषि, कुहू, श्रीराम इमानी का साथ मेरी यात्रा को संगीतमय बना गया,.... ज़िन्दगी के इंतज़ार को देखते हुए गाँव से सपना ले आने की बात सुनकर सुमन सिन्हा भी सहयात्री बने और हमने सोचा ज़िन्दगी की तलाश में हम सब जौहरी बनेंगे ...हर गीत में हमारे ख्वाब, हमारी कोशिशें, हमारे हकीकत हैं --- आइये हम साथ हो लें....

तो यूँ हुई शुरूआत इस प्रोजेक्ट की. जैसा कि उन्होंने बताया कि गायन के लिए कुहू और श्रीराम को चुना गया. दरअसल रश्मि जी कुहू की गायिकी की तभी से मुरीद हो चुकी थी जब से उन्होंने उनकी आवाज़ में "प्रभु जी" गीत सुना था. चूँकि ये गीत जिनके डेमो आप अभी सुनने जा रहे हैं, ये स्टूडियो में भी रिकॉर्ड होंगें बेहद अच्छे तरीके से, तो उस मामले में भी कुहू, श्रीराम और रश्मि जी का एक शहर में होना भी फायदेमंद होगा ऐसे हमें उम्मीद है. रश्मिजी की बातों में आपने एक नाम नया भी है, जिनसे आवाज़ के श्रोता वाकिफ नहीं होंगें शायद. ये हैं सुमन सिन्हा, सुमन जी इस प्रोजेक्ट के आधार बनेगें. ये आवाज़ के नए "महारथी" हैं जो हमारे साथ अब लंबे समय तक निभाने आये हैं. आने वाली बहुत सी ऐसी घोषणाओं में आप इनका जिक्र पढेंगें. सुमन जी मूल रूप से पटना बिहार के रहने वाले हैं और साहित्य संगीत और सिनेमा से इनका जुड़ाव पुराना है. इनके बारे में अधिक जानकारी हम आने वाले समय में आप तक पहुंचाएंगें. फिलहाल बढते हैं इस प्रोजेक्ट् की तरफ जिसके लिए अब तक ३ गीत तैयार हो चुके है. इन तीनों गीतों एक झलक आईये अब आपको सुनवाते हैं एक के बाद एक....



ये तीन गीत हैं -
१. इंतज़ार
२. गाँव से रे
३. फितरत

याद रहे अभी ये संस्करण एक डेमो है, और होम स्टूडियो रेकॉर्डेड है...आपकी राय से हम इसे और बेहतर बना पायेंगें-


मेकिंग ऑफ़ "प्रोजेक्ट कविता ०१" - गीत की टीम द्वारा

श्रीराम ईमानी : I love working with this team. For starters Rishi’s compositions are a pleasure to sing. I like the level of detail that he goes to, particularly the additional vocals, and the emphasis he puts on how each word and line should sound. Rashmi ji’s lyrics are straight from the heart, and the imagery they bring to one’s mind are delightful! And finally, Kuhoo – with whom it has always been a pleasure to sing,both on stage and in the studio. We’ve worked together on several songs from our time together in IIT, and it has been an enjoyable and enriching experience as we grew with each song, and I hope this continues for several years to come. I admire every member of this wonderful team and hope. you all like these songs

कुहू गुप्ता : रश्मि जी की कविताओं में कुछ अलग बात है जो दिल को छू जाती है, शायद ज़िन्दगी की सच्चाई है ! और उस पर ऋषि जी संगीत रचना हो तो सोने पे सुहागा. मुझे ये गाने गाने में बहुत आनंद आया. श्रीराम के साथ मैंने ४-५ साल पहले कॉलेज के स्टेज पर गाया था, सोचा न था आज उसी के साथ मूल रचनाएँ भी गाऊँगी. आशा करती हूँ इस टीम का काम आप सब को पसंद आएगा !

ऋषि एस: The poetry for this set of songs have been hand picked by me from the writings of Rashmi ji. This is the first time I have worked with a female lyricist and the difference in the creative thought process is subtle at some places and apparent at the others. The melodies have been inspired from the thought provoking message and rhythmic structure of the poetry. The lyrical value and musical content have been taken to the next level of listening pleasure by vocalists Kuhoo Gupta and Sriram Emani, who have presented the songs with an apt mix of emotions and musicality. Thanks to the whole team for making these songs happen. Special thanks to hindyugm for showcasing independent musicians.


Creative Commons License
Zindagi by Rishi S is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.

हमें उम्मीद है कि आप सब की शुभकामनाओं से हम इस और ऐसे सभी अन्य प्रोजेक्ट्स को बहुत कामियाबी से निभा पायेंगें, हमें आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.

Thursday, October 21, 2010

एक प्यार का नगमा है.....संगीतकार जोड़ी एल पी के विशाल संगीत खजाने को, दशकों दशकों तक फैले संगीत सफर को सलाम करता एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 510/2010/210

"मैं एक गाना बोलता हूँ आपको जो मुझे बहुत पसंद है, और सब से बड़ी ख़ुशी मुझे इसलिए है कि वह ट्युन लक्ष्मी जी ने ख़ुद बनायी हुई है। मतलब कम्प्लीट सोच उनकी है, वह गीत है "एक प्यार का नग़मा है"। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, 'एक प्यार का नग़मा है' शृंखला की अंतिम कड़ी में आपका बहुत बहुत स्वागत है। प्यारेलाल जी के कहे इन शब्दों को हम आगे बढ़ाएँगे, लेकिन उससे पहले हमारे तमाम नये दोस्तों के लिए यह बता दें कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं सगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी यह लघु शृंखला और आज इस शृंखला को हम अंजाम दे रहे हैं इस दिल को छू लेने वाले युगल गीत के ज़रिये। फ़िल्म 'शोर' का यह सदाबहार गीत है लता और मुकेश की आवाज़ों में जिसमें है यमन और बिलावल का स्पर्श। इस गीत को मनोज कुमार और नंदा पर बड़ी ही कलात्मक्ता से फ़िल्मांकन किया गया है। आनंद बक्शी, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, राजा मेहंदी अली ख़ान, और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद आज बारी गीतकार संतोष आनंद की। मनोज कुमार की कई फ़िल्मों में इन्होंने गीत लिखे और 'रोटी कपड़ा और मकान' के गीत "मैं ना भूलूँगा" के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला था। आइए अब प्यारेलाल जी की बातों को आगे बढ़ाया जाए। "इस गीत में क्या है कि यह जो इंटरनैशनल म्युज़िक होता है, इसमें वह ख़ुशबू है, इटरनैशनल अपील है। समझे ना आप! तो ये जो ख़ुशबू है यह पूरी में महक सकती है, ऐसी सुगंध है जो सब पसंद करेंगे। लक्ष्मी जी, नहीं हम साथ साथ में ही हैं, लेकिन कभी कभी मैं सोचता हूँ, तो बैठ के मैं यह सोचता हूँ कि "एक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है, ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है"। तो लक्ष्मी जी और मेरे बीच में एक बात है, जो आज बहुत फ़ील होता है और आइ लव दिस ट्युन, इट्स माइ फ़ेवरीट, और यह और ज़्यादा फ़ेवरीट है क्योंकि यह कम्प्लीट सॊंग् इस मेड बाइ लक्ष्मी जी, यह मुझे बहुत ख़ुशी होती है बोलते हुए।"

दोस्तों, प्यारेलाल जी की ये बातें विविध भारती के उसी 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम से हमने बटोरी है। यहीं पर इस गीत की चर्चा ख़त्म नहीं होती है। दरअसल यह गीत एल.पी के करीयर का एक इतना अहम गीत रहा है कि इसकी चर्चा इतने में समाप्त हो ही नहीं सकती। आइए उसी इंटरव्यु का एक और अंश यहाँ प्रस्तुत किया जाये जिसमें भी इस गीत का ज़िक्र हो आया था।

कमल शर्मा: प्यारे जी, ऐसा मौका आया कभी कि साज़िंदे को लेकर किसी डिरेक्टर ने, प्रोड्युसर ने कहा हो कि इनको पैसा बहुत ज़्यादा दे रहे हो, क्या इनका काम है? लेकिन उसकी अहमीयत आपको पता है कि वो आरटिस्ट क्या कमाल कर सकता है।

प्यारेलाल: यहाँ पर देखिए, संगीत ऐसी चीज़ है जिसकी कोई कीमत नहीं है, जो आप जानते भी हैं, फिर भी मैं बोल दूँ आपको कि संगीत जो है इसको बेचा नहीं जा सकता, इस पे पैसे नहीं कमाते, लेकिन आज टाइम आ गया है, आज क्या फिर शुरु हो गया है लेकिन हमेशा मैं तो यह सोचता हूँ कि एक आरटिस्ट, अगर वो एक पीस भी बजा दे, एक लाइन भी गा दे, उसकी जो कीमत है, वह हम नहीं दे सकते। हर एक गाने का अपना एक रूप होता है, तो साज़िंदे जितने होते हैं, जो रीयल आरटिस्ट होते हैं, जैसे हमारे साथ, हमने साथ में काम किया, हरि जी हैं, सुमंत जी हैं फ़्ल्युट के अंदर, और शिव जी हैं, जो आज बड़े बड़े नाम हैं, और हमारे जो अच्छे म्युज़िशियन्स हैं फ़िल्म के, जो फ़िल्म मे ही रह गये, बाहर नहीं गये वो लोग, इनसे क्या होता था कि बहुत समझ के बजाते थे वो लोग, जैसे आपको याद होगा "एक प्यार का नग़मा है", उसमें देखिये जो वायलिन बजाया है, उनका नाम है जयी फ़रनन्डेज़, उन्होंने बजाया है। देखिये, वॊयस और वायलिन का लगता है एक संगम हो रहा है, दोनों, 'इन्स्ट्रुमेण्ट और वॊयस, तो ये चीज़ बहुत काम करती है।

दोस्तों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के रचे गीतों का आकाश इतना विराट है कि इस छोटी सी शृंखला में उनके संगीत के वयविद्ध को समेट पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। फिर भी हमने कोशिश की कि इस सुरीले महासागर से १० बेमिसाल मोतियाँ चुन कर आपके लिए एक गीत-माला में पिरोया जाये। यह सुरीला हार आपको कैसा लगा हमें ज़रूर लिखिएगा oig@hindyugm.com के पते पर। चलते चलते बस यही कहेंगे कि एल.पी की यात्रा बेशक कुछ दशकों की है, लेकिन उनका संगीत युग युगांतर तक गूजता रहेगा इस धरती पर, बरसता रहेगा सुरीली बारिश के रूप में। लक्ष्मीकांत जी को 'आवाज़' परिवार की ओर से श्रद्धा सुमन, और प्यारेलाल जी के लिए ईश्वर से यही कामना कि उन्हें दीर्घायु करें, उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें। अब इसी के साथ 'एक प्यार का नग़मा है' शृंखला को समाप्त करने की दीजिए हमें इजाज़त, और आप सुनिए फ़िल्म 'शोर' का यह सदाबहार नग़मा, और सलाम कीजिए लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की सुर साधना को। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि 'शोर' के लिए मनोज कुमार ने अपने पसंदीदा संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी से कुछ मनमुटाव के कारण लक्ष्मी-प्यारे को चुना। और एल.पी ने ऐसा समा बांधा कि अपने आप को मनोज कुमार कैम्प में स्थापित कर लिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०१ /शृंखला ०२
ये पंक्तियाँ सुनिए गीत की -


अतिरिक्त सूत्र - गायक का साथ दिया है अमीरबाई कर्नाटकी ने इस युगल गीत में

सवाल १ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल २ - मुखड़े की पहली पंक्ति बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पहली बाज़ी श्याम कान्त जी के नाम रही...बधाई. अमित जी, बिट्टू जी, शरद जी सभी ने बढ़िया खेला...अगली श्रृंखला के लिए शुभकामनाएं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 20, 2010

खुशी की वो रात आ गयी..... और माहौल में गम की सदा भी घुल गयी, एल पी और मुकेश का गठबंधन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 509/2010/209

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप सुन रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक प्यार का नग़मा है'। आज इस शृंखला की नौवी कड़ी में हम चुन लाये हैं मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म 'धरती कहे पुकार के' का एक ऐसा गीत जिसमें है विरोधाभास। विरोधाभास इसलिए कि गीत के बोलों में तो ख़ुशी की बात की जा रही है, लेकिन गायकी के अदाज़ में करुण रस का संचार हो रहा है। "ख़ुशी की वह रात आ गयी, कोई गीत जगने दो, गाओ रे झूम झूम"। इस तरह के गीतों का हिंदी फ़िल्मों में कई कई बार प्रयोग हुआ है। सिचुएशन कुछ इस तरह की होती है कि नायिका की शादी नायक के बजाय किसी और से हो रही होती है, और शादी के उस जलसे में नायक नायिका को शुभकामनाएँ देते हुए गीत गाता तो है, लेकिन उस गीत में छुपा होता है उसके दिल का दर्द। कुछ ऐसे ही गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म 'पारसमणि' का गीत "सलामत रहो, सलामत रहो", फ़िल्म 'मिलन' में मुकेश का ही गाया हुआ कुछ इसी तरह का एक गीत "मुबारक़ हो सब को समा ये सुहाना, मैं ख़ुश हूँ मेरे आँसुओं पे ना जाना, मैं तो दीवाना दीवाना दीवाना", और फिर किशोर दा ने भी तो फ़िल्म 'एक बार मुस्कुरा दो' में नय्यर साहब के कम्पोज़िशन में गाया था "रूप तेरा ऐसा दर्पण में ना समाये... पलक बंद कर लूँ कहीं छलक ही ना जाये"। फ़िल्म 'धरती कहे पुकार के' के प्रस्तुत गीत को लिखा है मजरूह सुल्तानपुरी ने, और एल. पी ने क्या ग़ज़ब का संगीत संयोजन किया है। दिल को छू लेने वाले विदाई के सुर में सजे शहनाई के करुण पीसेस और उस पर ढोलक के ठेके, गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे किसी की शादी की महफ़िल में ही हम शरीक हो गये हों। गाने का जो रीदम है, उसमें एल.पी की ख़ास शैली और स्टाइल सुनने को मिलता है। दोस्तों, हमने पहले भी शायद कभी कहा होगा कि एल.पी, कल्याणजी-आनंदजी और आर.डी. बर्मन, इन तीनों के स्वरबद्ध गीतों में हम फ़रक कर सकते हैं उनके रीदम पैटर्ण को समझ कर। इस गीत का जो रीदम पैटर्ण है, वो ख़ास ख़ास एल.पी का स्टाइल है, यह कहने की नहीं बल्कि महसूस करने की बात है। राग यमन की छाया लिए इस गीत में मुकेश जी ने भी क्या दर्द डाला है कि जैसे गीत उनकी आवाज़ पा कर जी उठा हो।

'धरती कहे पुकार के' सन् १९६९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था दीनानाथ शास्त्री ने। दुलाल गुहा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे जीतेन्द्र, नंदा, संजीव कुमार, निबेदिता, कन्हैयालाल, दुर्गा खोटे आदि। ध्वनि विभाग में थे रॊबिन चटर्जी जो एक मशहूर रेकॊर्डिस्ट रहे हैं। अनगिनत फ़िल्मों के गीत और बैकग्राउण्ड म्युज़िक उन्होंने रेकॊर्ड किये हैं एक लम्बे अरसे तक। उनकी पहली फ़िल्म बतौर सॊंग् रेकॊर्डिस्ट थी १९५१ की 'बाज़ी', और आख़िरी फ़िल्म थी १९९१ की 'पत्थर'। भले ही उनका नाम बतौर रेकॊर्डिस्ट ज़्यादा हुआ, उन्होंने ४० के दशक के कई बांगला फ़िल्मों में संगीत भी दिया है। ख़ैर, वापस आते हैं लक्ष्मी-प्यारे पर। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला के उस इंटरव्यु में जब कमल शर्मा ने प्यारेलाल जी से यह पूछा कि "मेल सिंगर्स की बात करें तो मुकेश जी ने भी आप के लिये...", उन्होंने बस इतना ही कहा था कि प्यारेलाल जी कह उठे - "देखिये, 'एम' लेटर जो है ना, ये सब सिंगर्स के लिए दिया गया है। आप किसी भी सिंगर का नाम लीजिए, लता मंगेशकर लीजिए, आशा मंगेशकर लीजिए, मोहम्मद रफ़ी हैं, महेन्द्र कपूर हैं, मुकेश हैं, तलत महमूद हैं। तो 'एम' लेटर जो है, इनका मध्यम जो है वह 'प्योर' है। और म्युज़िक भी जुड़ा हुआ है, 'म्युज़िक' में भी 'एम' है। वही बता रहा हूँ, मध्यम, मैं बहुत मानता हूँ इन सब चीज़ों को। ल ता मं गे श क र, कितने हो गये, सात, यानी सात सुर" दोस्तों, प्यारेलाल जी तो मुकेश से लता जी पर आ गये। ख़ैर कोई बात नहीं, जब यह बात आ ही गयी है तो यहाँ आपको यह बता दें कि कल के गीत में आप मुकेश और लता, दोनों की आवाज़ें सुन पायेंगे। लेकिन फिलहाल आइए मुकेश जी की एकल आवाज़ में सुनते हैं "ख़ुशी की वह रात गयी"। बेहद ख़ूबसूरत गीत है और शायद आपका मनपसंद भी, है न?



क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत की मई, १९९८ में जब मृत्यु हो गई उस समय एल.पी की जोड़ी गिरीश कर्नाड की 'स्वराजनामा' और 'आम्रपाली' जैसी फ़िल्मों के लिए काम कर रहे थे, लेकिन यह काम अधुरा ही रह गया। लक्ष्मीकांत की मृत्यु के बाद प्यारेलाल ने भी संगीत देने का काम छोड़ दिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09 /शृंखला ०१
ये धुन उस गीत के प्रिल्यूड की है, सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - किसी अतिरिक्त सूत्र की जरुरत नहीं है इस गीत को पहचानने के लिए, फिर भी बता दें कि लता मुकेश के स्वरों में है ये

सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - इस मशहूर फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीत के ऒरकेस्ट्रेशन में उस साज़ का प्रॊमिनेण्ट इस्तेमाल हुआ है जिस साज़ में प्यारेलाल को महारथ हासिल है। साज बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी ने इस शृंखला के लिए अजय बढ़त बना ली है अब, बहुत बधाई....अमित जी और गुड्डू जी को भी...शरद जी कहाँ हैं इन दिनों

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारा



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१

पूरे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से:

आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो,
इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों।

तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर हैं जो हरदिन लिखते हैं और अभी तक ५०० कड़ियाँ लिख चुके हैं, फिर भी अगर इन्हें छुट्टी पर घर जाना होता है तो पहले से हीं उतने आलेख लिखकर सजीव जी को थमा जाते हैं, ताकि "ओल्ड इज गोल्ड" सटीक समय पर हर दिन आए, ताकि नियम की अवहेलना न हो पाए। ये तो कभी आराम नहीं करते, फिर मैं क्यों आराम के पीछे भाग रहा हूँ। चाचा नेहरू भी कह गए हैं कि आराम हराम है। इस अपराधबोध का आना था कि मैने विश्राम करने के प्रबलतम विचार को एक एंड़ी मारी और बढ निकला आज की कड़ी की ओर। तो चलिए आज से आपकी महफ़िल-ए-ग़ज़ल फिर से सजने वाली है.. हर बुधवार, बिना रूके...वैसे हीं मज़ेदार अंदाज़ में।

आज की महफ़िल में हम जो ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं, उस ग़ज़ल का ज़िक्र हमने आज से पूरे ९ महीने पहले "गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी" शीर्षक से प्रकाशित आलेख में किया था। "गजरा बना के.." को जिस गुलुकार ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया था, वही गुलुकार, वही फ़नकार आज की ग़ज़ल में अपनी आवाज़ के जरिये मौजूद है। बस फ़र्क इतना है कि उस ग़ज़ल/नज़्म के ग़ज़लगो और आज के ग़ज़लगो दो मुक्तलिफ़ इंसान हैं। उस कड़ी में हमने कहा तो यह था कि हबीब साहब जल्द हीं ग़ालिब की एक ग़ज़ल के साथ हाज़िर हो रहे हैं.. लेकिन सच ये है कि हम जिस ग़ज़ल की बात कर रहे थे, वह ग़ालिब की नहीं है, बल्कि मुगलिया सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की है। हमने जल्दबाजी में ज़फ़र की ग़ज़ल ग़ालिब के हवाले कर दी थी.. हम उस गलती के लिए आपसे अभी माफ़ी माँगते हैं।

ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर के वक़्त ज़फ़र ने अपने किले बागियों के लिए खोल दिए थे। इस गुस्ताखी की उन्हें यह सज़ा मिली की उनके दो बेटों और एक पोते को मौत के घाट उतार दिया गया.. बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली, लेकिन मेजर हडस ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। ८२ साल के उस बूढे पर उस वक़्त क्या गुजरी होगी, इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। क्या ये कम था कि अंग्रेजों ने ज़फ़र को कैद करके दिल्ली से बाहर .. दिल्ली हीं नहीं उनकी सरज़मीं हिन्दुस्तान के बाहर बर्मा(आज का मयन्मार) भेज दिया.. कालापानी के तौर पर। ज़फ़र अपनी मौत के अंतिम दिन तक अपनी सरज़मों को वापस आने के लिए तड़पते रहे। उन्हें अपनी मौत का कोई गिला न था, उन्हें गिला..उन्हें अफसोस तो इस बात का था कि मरने के बाद जो मिट्टी उनके सीने पर डाली जायगी, वह मिट्टी पराई होगी। वे अपने कू-ए-यार में, अपने मादर-ए-वतन की गोद में दफ़न होना चाहते थे, लेकिन ऐसा न हुआ। बर्मा की गुमनाम गलियों में घुट-घुटकर मरने के बाद उन्हीं अजनबी पौधों और परिंदों के बीच सुपूर्द-ए-खाक होना उनके नसीब में था। ७ नवंबर १८६२ को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं रंगून (आज का यंगुन) में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफ़ना दिया गया। वह जगह बहादुर शाह ज़फ़र दरगाह के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शायद ज़फ़र को अपनी मौत का पूर्वाभास हो चुका था, तभी तो इस ग़ज़ल के एक-एक हर्फ़ में उनका दर्द मुखर होकर हमारे सामने आता है:

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो _____ में कट गये दो इन्तज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में


यह ग़ज़ल पढने वक़्त जितना असर करती है, उससे हज़ार गुणा असर तब होता है, जब इसे हबीब वली मोहम्मद की आवाज़ में सुना जाए। तो लीजिए पेश है हबीब साहब की यह पेशकश:


हाँ तो बात ज़फ़र की हो रही थी, तो आज भी हमारे हिन्दुस्तान में ऐसे कई सारे मुहिम चल रहे हैं, जिनके माध्यम से ज़फ़र की आखिरी मिट्टी, ज़फ़र के कब्र को हिन्दुस्तान लाए जाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जा रहा है। हम भी यही दुआ करते हैं कि सरकार जगे और उसे इस बात का बोध हो कि स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। आज़ादी की लड़ाई में आगे रहने वाले धुरंधरों और रणबांकुरों को इस तरह से नज़र-अंदाज़ किया जाना सही नहीं।

ज़फ़र उस वक़्त के शायर हैं जब ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे शायर अपनी काबिलियत से सबके बीच लोहा मनवा रहे थे। ऐसे में भी ज़फ़र ने अपनी खासी पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की। (और क्यों न करते, जब ये तीनों शायर इन्हीं के राज-दरबार में बैठकर अपनी शायरी सुनाया करते थे.. जब ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और ज़ौक़ की असमय मौत के बाद ग़ालिब ज़फ़र के साहबजादे के उस्ताद बने) ज़फ़र किस हद तक शेर कह जाते थे, यह जानने के लिए उनकी इस ग़ज़ल पर नज़र दौड़ाना जरूरी हो जाता है:

या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता

ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता

नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता

अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरद्मन्द बनाया न बनाया होता

शोला-ए-हुस्न चमन् में न दिखाया उस ने
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता

रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता


चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "अनमोल" और शेर कुछ यूँ था-

याद थे मुझको जो पैगाम-ए-जुबानी की तरह,
मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

रिश्तों के पुल
मिलाते रहे
स्वार्थ के तटों को
और
अनमोल भावना की
नदी
बहती रही
नीचे से होकर
अछूती सी !! (अवनींद्र जी)

आँसू आँखों में छिपे होते हैं गम दिखाये नहीं जाते
बड़े अनमोल होते हैं वो लोग जो भुलाये नहीं जाते. (शन्नो जी)

ग़ज़ल की महफ़िल का अनमोल तोहफा तुमने दिया
बधाई हो सौवां अंक जो तुमने पूरा किया (नीलम जी)

अनमोल शतक की दे रही बधाई ,
'विश्व 'ने खुशियों की शहनाई बजाई . (मंजु जी)

बेशक हो मुश्किल भरी वो डगर,
मगर था 'अनमोल' ग़ज़ल का सफर (अवध जी)

जब तक बिके ना थे कोई पूछता ना था,
तूने मुझे खरीद कर अनमोल कर दिया। (अनाम)

चूँकि पिछली महफ़िल में हमने शतक पूरा किया था, इसलिए हमारे सभी शुभचिंतकों और मित्रों से हमें शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं। हम आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। पिछली महफ़िल में सबसे पहले शन्नो जी का आना हुआ और आपने हमें हमारी भूल (शब्द गायब न करना) से अवगत कराया। शिकायत करने में काहे की मुश्किल.. आगे से ऐसे कभी भी किंकर्तव्यविमूढ न होईयेगा। समझीं ना? :) आपके बाद सजीव जी ने हमें बधाईयाँ दीं। सजीव जी, सब कुछ तो आपके कारण हीं संभव हो सका है। आपसे प्रोत्साहन पाकर हीं तो मैं महफ़िल-ए-ग़ज़ल की दूसरी पारी लेकर हाज़िर हो पाया हूँ। अवनींद्र जी, आपने महफ़िल की पहली नज़्म कही, लेकिन चूँकि शब्द गायब करने में मुझसे देर हो गई थी, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी मैं आपको दे नहीं पाऊँगा.. मुझे मुआफ़ कीजिएगा। नीलम जी, आपके बधाई-पत्र की अंतिम पंक्ति (अब क्यों कोई करे कोई शिकवा न गिला) मैं समझ नहीं पाया, ज़रा प्रकाश डालियेगा। :) सुजॉय जी, आप मुझे यूँ लज्जित न कीजिए। आप ५०० एपिसोड तक पहुँच चुके हैं और जिस तरह की आप जानकारियाँ देते हैं, वह अंतर्जाल पर कहीं नहीं है, इसलिए आपका यह कहना कि फिल्मी गानों के बारे में जानकारी लाना आसान होता है.. आपकी बड़प्पन का परिचय देता है। पूजा जी, आपने कुछ दिन विश्राम करने को कहा था और मैंने महिने भर विश्राम कर लिया। आप नाराज़ तो नहीं हैं ना? :) चलिए अब आप फिर से नियमित हो जाईये, क्योंकि मैं भी नियमित होने जा रहा हूँ। मंजु जी और अवध जी, आपके "अनमोल" शब्द मेरी सर-आँखों पर.. प्रतीक जी, क्षमा कीजिएगा मैंने आपकी आग्रह के बावजूद महफ़िल को महिने भर का विराम दे दिया, आगे से ऐसा न होगा। :) सुमित भाई, महफ़िल आ गई फिर से, अब आप भी आ जाईये..

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, October 19, 2010

रोज शाम आती थी, मगर ऐसी न थी.....जब शाम के रंग में हो एल पी के मधुर धुनों की मिठास, तो क्यों न बने हर शाम खास



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 508/2010/208

क्ष्मीकांत-प्यारेलाल के धुनों से सजी लघु शंखला 'एक प्यार का नग़मा है' में आज एक और आकर्षक गीत की बारी। लेकिन इस गीत का ज़िक्र करने से पहले आइए आज आपको एल.पी के बतौर स्वतंत्र संगीतकार शुरु शुरु के फ़िल्मों के बारे में बताया जाए। स्वतंत्र रूप से पहली बार 'तुमसे प्यार हो गया', 'पिया लोग क्या कहेंगे', और 'छैला बाबू' में संगीत देने का उन्हें मौका मिला था। 'तुमसे प्यार हो गया' और 'छैला बाबू' दोनों के लिए चार-चार गाने भी रेकॊर्ड हो गये पर 'तुमसे प्यार हो गया' के निर्माता ही भाग निकले और 'छैला बाबू' रुक गई, जो कुछ वर्षों बाद जाकर पूरी हुई। 'सिंदबाद' के लिए भी रेकॊर्डिंग् हुई पर फ़िल्म पूरी न हो सकी। 'तुमसे प्यार हो गया' के लिए उनकी पहली रेकॊर्डिंग् "कल रात एक सपना देखा" (लता, सुबीर सेन) तो आज तक विलुप्त ही है, पर 'पिया लोग क्या कहेंगे' के इसी मुखड़े के लता के गाये शीर्षक गीत की धुन उन्होंने आगे जाकर 'दोस्ती' के "चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे" में इस्तेमाल कर लिया। इसी बीच बाबूभाई मिस्त्री की 'पारसमणि' जैसी सी-ग्रेड फ़ैंटसी फ़िल्म मिली। युं तो 'पारसमणि' एक फ़ैण्टसी फ़िल्म थी और बैनर भी बड़ा बड़ा नहीं था, पर इस सी-ग्रेड फ़िल्म का भी हर गाना सुपरहिट करा कर लक्ष्मी-प्यारे ने उन तमाम संगीतकारों को सीधी चुनौती दे दी जो अपनी असफलता का कारण बड़े बैनर और बड़े स्टार्स की फ़िल्म में अवसर न मिलना बताते थे। 'पारसमणि' के बाद एल.पी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक ऐसा सुरीला तूफ़ान उठाया फ़िल्म संगीत जगत में, जो आज तक नहीं रुक पाया है। आइए अब वापस आते हैं आज के गाने पर। आज आपको सुनवा रहे हैं मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा और लता मंगेशकर का गाया फ़िल्म 'इम्तिहान' का गीत "रोज़ शाम आती थी मगर ऐसी ना थी, रोज़ रोज़ घटा छाती थी मगर ऐसी ना थी, ये आज मेरी ज़िंदगी में कौन आ गया"।

'इम्तिहान' साल १९७४ की फ़िल्म थी जिसे आज याद किया जाता है "रुक जाना नहीं तू कहीं हार के" गीत की वजह से। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे विनोद खन्ना और तनुजा, और इसकी कहानी भी और दूसरी फ़िल्मों से अलग हट कर थी। आज तो विविध विषयों पर फ़िल्मे बन रही हैं और लोग उन्हें सफल भी बना रहे हैं, लेकिन उस ज़माने मे इन "अलग हट के" फ़िल्मों का अंजाम बहुत ज़्यादा सुखद नहीं होता था व्यावसायिक रूप से। विनोद खन्ना शायद पहली बार इसमें नायक की भूमिका में नज़र आये थे। इससे पहले वो ज़्यादा खलनायक के चरित्रों मे ही नज़र आये थे। ख़ैर, इस फ़िल्म में लता जी का गाया "रोज़ शाम आती थी" गीत एक नया प्रयोग था। दोस्तों, ये सच है कि लक्ष्मी-प्यारे ने सब से ज़्यादा गीत लता जी से गवाये, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इतने सारे गानें होने के बावजूद भी हर गाना दूसरे से अलग कम्पोज़ किया। आप लता - एल.पी कम्बिनेशन के कोई भी दो गीत ले लीजिए, आपको कभी कोई समानता नज़र नहीं आयेगी। आज के प्रस्तुत गीत को एल.पी ने लता से बेहद ऊँची पट्टी पर गवाया और एक नई बेहद आकर्षक आधुनिक शैली में कम्पोज़ किया। ऒर्केस्ट्रा की बात करें तो फ़्रेंच हॊर्ण और ईरानियन संतूर का किस ख़ूबसूरती से ब्लेण्डिंग् की गयी है लता जी के उस ऊँची पट्टी वाले जगहों पर। फ़िल्मांकन की बात करें तो क्योंकि शाम का गीत है, इसलिए एक गुलाबी और नारंगी रंग के फ़िल्टर के इस्तेमाल से सूर्यास्त का रंग लाया गया है। उन दिनों इसी तरह से अलग रंगों के फ़िल्टर के माध्यम से शाम, रात और सुबह के रंग लाये जाते थे। और आख़िर में मजरूह साहब के लेखन की बात करें तो मुझे तो गीत का दूसरा अंतरा बहुत ही अच्छा लगता है कि "अरमानों का रंग है जहाँ पलकें उठाती हूँ मैं, हँस हँस के हैं देखती जो भी मूरत बनाती हूँ मैं"। हमें पूरी उम्मीद है कि यह गीत आपका भी फ़ेवरीट होगा, तो आप अपनी पसंद के साथ साथ मेरी पसंद भी शामिल कर लीजिए, क्योंकि यह गीत मेरा भी पसंदीदा गीत रहा है। आइए सुनते हैं...



क्या आप जानते हैं...
कि 'झूम बराबर झूम' फ़िल्म के गीत "बोल ना हल्के हल्के" के लिए पहले लता मंगेशकर को चुना गया था। लेकिन ऊँची पट्टी पर ना गा पाने की वजह से लता जी ने ही यह गीत गाने से मना कर दिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०७ /शृंखला ०१
ये धुन उस गीत के लंबे प्रिल्यूड की है, सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - एक अंतरे में शब्द है -"बसंती"

सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - इस फिल्म का शीर्षक बिमल रॉय की एक मशहूर फिल्म के गीत की पहली पंक्ति से लिया गया है नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी अब १० अंकों पर आ चुके हैं, बहुत बधाई. अमित जी और बिट्टू जी भी सही जवाब लेकर हाज़िर हुए. पहली बार शंकर लाल जी ने सही जवाब दिया मगर जरा देर से, अंक तो नहीं मिलेंगें, पर हमारी शाबाशी जरूर मिलेगी आपको. अवध जी सही जानकारी दी आपने. रोमेंद्र जी आप शाम ६.३० भारतीय समयानुसार अगर आवाज़ पर आते है तो आप भी पहले जवाब दे पायेंगें, मेल का इन्तेज़ार मत करते रहा कीजिये. अरे वाह इंदु जी, चलिए अब एक और प्रतिभागी हमारा तैयार हो गया...अब शरद जी और श्याम जी के लिए मुकाबला तगड़ा होगा. हमारी कनाडा टीम इन दिनों नदारद है, कोई खबर तो दीजिए

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

संगीत समीक्षा : गुजारिश - संगीत निर्देशन में भी अव्वल साबित हुए संजय लीला भंसाली...तुराज़ के शब्दों ने रचा एक अनूठा संसार



दोस्तों आज टी एस टी मैं आप मुझे देखकर हैरान हो रहे होंगें, दरअसल सुजॉय छुट्टी पर हैं, और मैंने वी डी को पटा कर ये मौका ढूंढ लिया कि मैं आपको उस अल्बम के संगीत के बारे में बता सकूँ जिसने मेरे दिलो जेहन पर इन दिनों जादू सा कर दिया है.

जब बात संगीत की चलती है, और जब कोई मुझसे पूछता है कि मुझे किस तरह का संगीत पसंद है तो मैं बड़ी उलझन में फंस जाता हूँ, क्योंकि मुझे लगभग हर तरह का संगीत पसंद आता है, पुराने, नए, शास्त्रीय, हिप होप, ग़ज़ल सभी कुछ तो सुनता हूँ मैं, फिर किसे कहूँ कि ये मुझे नापसंद नहीं....खैर पसंद भी कई तरह की होती है, कुछ गीतों के शब्द हमें भा जाते हैं (मसलन गुलाल) तो कुछ उसके खालिस संगीत संयोजन की वजह से मन को लुभा जाते (जैसे रोबोट और अजब प्रेम की गजब कहानी) हैं....हाँ पर ऐसी अल्बम्स तो मैं उँगलियों पे गिन सकता हूँ जिसने मुझे संगीत की सम्पूर्ण संतुष्ठी दी है. ऐसा संगीत जिसे सुन तन मन और आत्मा भी संतुष्ट हो जाए.....संजय लीला बंसाली एक ऐसे निर्देशक हैं, जिनकी फ़िल्में रुपहले पर्दे पर कविता लिखती है, वो शुद्ध भारतीय सोच के निर्देशक हैं जो बिना गीत संगीत के फिल्मों की कल्पना नहीं करते (ब्लैक एक अपवाद है). मुझे उनकी फिल्मों का बेसब्री से इंतज़ार रहता है क्योंकि उनकी दो फिल्मों का संगीत (हम दिल दे चुके सनम और देवदास) मेरे “सम्पूर्ण संतुष्ठी अल्बम” की श्रेणी में निश्चित ही आता है. दोनों ही फिल्मों में इस्माईल दरबार का संगीत था, देवदास के बाद कुछ मतभेदों के चलते निर्देशक-संगीतकार की ये जोड़ी अलग हो गयी, जो अगर साथ रहती तो शायद हमें और भी बहुत से मास्टर पीस अल्बम्स सुनने को मिल सकते थे. ब्लैक बिना गीत संगीत के बनी भारतीय फिल्म थी, जो कामियाब भी रही, पर संजय लौट आये अपने नैसर्गिक फॉर्म में “संवरिया” के साथ. मोंटी का था संगीत इसमें जिन्होंने देवदास का शीर्षक संगीत भी रचा था. संगीत के हिसाब से अल्बम बुरी तो नहीं थी, पर संजय के अन्य फिल्मों के टक्कर की भी नहीं थी. इसी फिल्म में हमें संजय का एक नया रूप दिखा जब एक गीत को उन्होंने खुद संगीतबद्ध किया “थोड़े बदमाश हो तुम”. एक लंबे अंतराल के बाद संजय लौटे हैं उसी जेनर की फिल्म लेकर जिसमें उन्हें महारथ हासिल है. ख़ामोशी, देवदास, ब्लैक आदि सभी फ़िल्में व्यक्तिगत अक्षमताओं (शारीरिक और मानसिक) से झूझते और उनपर विजय पाते किरदारों पर है. “गुज़ारिश” भी उसी श्रेणी में आती है, और बतौर संगीतकार संजय लीला बंसाली ने इस बार पूरी तरह से कमान संभाली है....ऐसे में कुछ शंकाएं संभव है, मगर उनकी फिल्मों से अपेक्षाएं हमेशा ही बढ़ चढ कर रहती है, वो कुछ भी कम स्तरीय करेंगें ऐसी इस जीनियस से उम्मीद नहीं की जा सकती.....चलिए इस लंबी भूमिका के बाद अब जरा “गुज़ारिश" के संगीत की चर्चा की जाए.

बरसते पानी की आवाज़ और पार्श्व से आ रहे कुछ संवादों से अल्बम की शुरूआत होती है. ये है फिल्म का शीर्षक गीत, के के की डूबी और डुबो देने वाली आवाज़ में “इसमें तेरी बाहों में मर जाऊं...” सुनकर वाकई मर जाने का जी करता है....सचमुच किसी गीत में इतनी मासूम गुज़ारिश, शब्द जैसे भेद जाते हैं गहरे तक...और के के .....मेरे ख्याल से वो इस कालजयी गीत के लिए एक अदद राष्ट्रीय सम्मान का हक तो रखते ही हैं. वोइलिन के स्वरों में इतना दर्द बहुत अरसे बाद सुनाई दिया है.....ऐ एम् तुराज़ की बतौर गीतकार ये शायद पहली फिल्म होगी, मगर उनका आगाज़ बहुत ही शानदार है. इस पहले गीत से ही संजय अपने साथ सुनने वालों को जोड़ लेते हैं.

गीत - गुज़ारिश


“सौ ग्राम जिंदगी” जब शुरू होता है तो “यादें” (सुभाष घई कृत) का शीर्षक गीत याद आता है जो हरिहरन ने गाया था...नगमें हैं किस्से हैं....पर अंतरे तक आते आते कुणाल गांजावाला इस गीत को अपने नायाब गायन से एक अलग ही मुकाम पर ले जाते हैं....शब्द सुनिए – देर तक उबाली है, प्याली में डाली है, कड़वी है नसीब सी, ये कॉफी गाढ़ी काली है...चमच्च भर चीनी हो बस इतनी सी मर्जी है.....वाह....यहाँ गीतकार हैं विभु पूरी, एक और नयी खोज जो निश्चित ही बधाई के हकदार हैं. संगीत संयोजन यहाँ भी जबरदस्त है. कम से कम वाध्य हैं पर जो हैं उनको संजय ने बहुत ही “संभाल के खर्चा” है. LIFE IS GOOD....सुनिए...

गीत - सौ ग्राम ज़िंदगी


तीसरा गीत “तेरा जिक्र” तो जैसे पूरी तरह से एक कविता (गीतकार तरुज़) है, जिसमें हल्का सा सूफी अंदाज़ भी पिरोया गया है, शैल के साथ राकेश पंडित ने दिया है सूफी स्टाईल में. “तेरा जिक्र है या इत्र है, जब जब करता हूँ महकता हूँ....”. अलग अंदाज़ का गीत है और एक दो बार सुनते ही नशे की तरह सर चढ जाता है. चौथा गीत “सायबा” गोवा के किसी क्लब में ले चलेगा आपको, वैभवी जोशी ने गहरे भाव से इसे गाया है, संगीत संयोजन और शब्द यहाँ भी उत्कृष्ट है (तारुज़). फ्रांसिस कास्तिलेनो और शैल ने कोरस की भूमिका निभायी है यहाँ, जो गीत को और रंग भरा बनाता है. अल्बम के अधिकतर गीतों की तरह ये गीत भी एक अंतरे का है, संजय ने इस तरह के छोटे छोटे गीतों का प्रयोग ख़ामोशी, HDDCS, और देवदास में भी किये हैं.

गीत - तेरा ज़िक्र


गीत - सायबा


“जागती आँखों में भी अब कोई सोता है....जब कोई नहीं होता, तब कोई होता है...” के के की आवाज़ में इतनी गहराई है कि ऑंखें बंद करके सुनो तो मन उड़ने लगता है, ये भी एक छोटा सा मगर सुंदर सा गीत है. छटा गीत “उडी” एक अलग ही कलेवर का है, और अल्बम के बहतरीन गीतों में से एक है, सुनिधि चौहान की मदमस्त आवाज़ और गोवा के लोक रंग का तडका, यक़ीनन “उडी” आपको लंबे समय तक याद रहेगा...

गीत - जाने किसके ख्वाब


गीत - उड़ी


“कह न सकूँ मैं इतना प्यार” में शैल एक बार फिर सुनाई देते हैं. पियानो की स्वरलहरियों में प्रेम की बेबसी कहीं कहीं देवदास के “वो चाँद जैसी लड़की” की याद दिला जाती है. अच्छा गाया है. दिल से गाया है मन को छूता है. अगला गीत हर्षदीप कौर की आवाज़ में हैं, रियल्टी शोस से निकली इस लड़की की आवाज़ में गहराई है, यहाँ भी शब्द बहुत खूबसूरत है, कहीं कहीं गुलज़ार साहब याद आ जाते हैं – चाँद की कटोरी है, रात ये चटोरी है....वाह...”रिश्ते झीने मलमल के”, “मोहब्बत का स्वटर”, “हाथ का छाता” जैसे शब्द युग्म वाकई सिहरन सी उठा जाते है. गीतकार विभु पूरी को बधाई. सेक्सोफोन का एक पीस है इंटरल्यूड में, सुनिए क्या खूब है. एक और शानदार गीत.

गीत - कह न सकूँ


गीत - चाँद की कटोरी


“दायें बाएं” में एक बार फिर के के को सुनकर सकून मिलता है, यहाँ गीटार है पार्श्व में, मधुर रोमांस की तरंगें, जहाँ दर्द भी सोया सोया है, उभरता है मगर जैसे चाहत उसे फिर सुला देती हो....प्यार के सुरीले अहसास को मधुरता से सहलाता है ये गीत. “धुंधुली धुंधली शाम” अंतिम गीत है....पंछियों के स्वर, झील का किनारा....डूबती शाम, एक पूरा चित्र आँखों के सामने उभर आता है.....”तुम्हारे बाद हमारा हाल कुछ ऐसा है..कि जैसे साज़ के सारे तार टूट जाते हैं....” मुझे न जाने क्यों रबिन्द्र नाथ टैगोर याद आ गए. शंकर महादेवन ने संभाला है यहाँ माईक.....बहरहाल...

गीत - दाएँ बाएँ


गीत - धुंधली धुंधली


"गुज़ारिश" मेरी राय में इस वर्ष की सबसे बढ़िया अल्बम है....शायद “ओमकारा” के बाद ये पहली अल्बम है जिसने मुझे वो “सम्पूर्ण संतुष्टी” दी है. (“मैं” शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि मैं नहीं जानता कि आप मेरी इस राय से सहमत होंगे या नहीं) वैसे तो टी एस टी के वाहक तन्हा जी और सुजॉय जी ने रेटिंग बंद करवा दी है है पर फिर भी मैं इस अल्बम को ५/५ की रेटिंग देना चाहूँगा.....आप सब भी सुनिए और बताईये कि आपको कैसे लगे “गुज़ारिश” के गीत.

Monday, October 18, 2010

खिजां के फूल पे आती कभी बहार नहीं...जब दर्द में डूबी किशोर की आवाज़ को साथ मिला एल पी के सुरों का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 507/2010/207

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत से सजी फ़िल्मों के गानें उन्ही पर केन्द्रित लघु शृंखला 'एक प्यार का नग़मा है' के अंतर्गत। आज के अंक में आवाज़ किशोर कुमार की। सन् १९६९ में एक हिट फ़िल्म आयी थी 'दो रास्ते', जिसके गीतों ने भी ख़ूब धूम मचाये, और आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से सुनाई दे जाते हैं। फ़िल्म के सभी गानें अलग अलग मूड के थे और हर गीत लोकप्रिय हुआ था। लता का गाया "बिंदिया चमकेगी" और "अपनी अपनी बीवी पे सबको ग़ुरूर है", लता-रफ़ी का "दिल ने दिल को पुकारा मुलाक़ात हो गई", रफ़ी का "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें", मुकेश का "दो रंग दुनिया के और दो रास्ते" जैसे गानों के साथ साथ एक ग़मज़दा नग़मा भी था किशोर दा का गाया हुआ। उन दिनों रफ़ी और मुकेश ही पार्श्वगायकों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लेकिन किशोर कुमार तेज़ी से लोकप्रियता के पायदान चढ़ते जा रहे थे और ७० के दशक में जाकर पूरी तरह से छा गए और लगभग सभी समकालीन नायकों की आवाज़ बन गए। 'दो रास्ते' में किशोर दा का गाया गीत था "ख़िज़ाँ के फूल पे आती कभी बहार नहीं, मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं"। फ़िल्म संगीत के इतिहास का यह एक यादगार ग़मगीन गीत है और ख़ास कर जब भी किशोर दा के गाए सैड सॊंग्स की बात चलती है तो इस गीत का ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। आनंद बक्शी साहब का ख़ास स्टाइल इस गीत के बोलों में महसूस किया जा सकता है। और रही बात एल.पी के संगीत की, तो जिस तरह से थिरकन और ज़बरदस्त ऒर्केस्ट्र्शन वाले गीतों से वो लोगों को झूमने और थिरकने पर मजबूर कर देते हैं, इस गीत के ज़रिए उन्होंने यह साबित किया कि इस तरह के ग़मज़दा गीतों से भी वो सुनने वालों को सम्मोहित कर सकते हैं। हास्य रस और ख़ुशी के गीत गाने वाले किशोर कुमार, ज़्यादातर प्यार और मिलन के अंदाज़ के गीत लिखने वाले आनंद बक्शी, और ज़्यादातर थिरकदार गानें कम्पोज़ करने वाले एल.पी, ये तीनों साथ में मिल कर प्रस्तुत गीत की रचना की जिसे हम अंग्रेज़ी में "a sad song par excellence" भी कह सकते हैं। यह गीत इन तीनों महान कलाकारों की वर्सेटाइल प्रतिभा का परिचय देता है।

दोस्तों, आइए आज फिर से एक बार रुख़ करें प्यारेलाल जी के उसी इंटरव्यु की तरफ़ और आज उस अंश को पढ़ें जिसमें आज के प्रस्तुत गीत का ज़िक्र छिड़ा है।

कमल शर्मा: किशोर दा से जुड़ी कोई ख़ास बात, किसी गाने की रेकॊर्डिंग से जुड़ी कोई बात याद है आपको?

प्यारेलाल: यह जो गाना है "ख़िज़ाँ के फूल पे आती कभी बहार नहीं, मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं", इससे पहले हमने गाना रेकॊर्ड किया था उनका "फूल आहिस्ता फेंको", मुकेश जी गाये, और ये आये थे शाम को, इनको रात की फ़्लाइट पकड़नी थी। तो मुखड़ा बनाया हुआ था "ख़िज़ाँ के फूल", अंतरा नहीं बनाया था। तो वहीं बैठ के लक्ष्मी जी ने, मैं इधर बैठ कर म्युज़िक ये कर रहा था, वहाँ बैठे बैठे बक्शी जी ने अंतरा लिखा, वहीं अंदर बैठ कर लक्ष्मी जी कम्पोज़ कर रहे थे। और यह गाना रात को १२:३० बजे हमने, मतलब, ८:३० बजे शुरु किया और १२:३० बजे यह गाना खतम किया। तो आप देखिए यह गाना वण्डरफ़ुल बना है।

सचमुच, इतने कम समय में यह गाना बना, फिर भी कालजयी बन कर रह गया है। इसी से यह प्रमाणित होता है कि अच्छे काम के लिए वक़्त नहीं बल्कि प्रतिभा और सृजनशीलता का होना ज़्यादा ज़रूरी है। और फ़िल्म जगत को ऐसे गुणी और महान कलाकार मिले हैं समय समय पर, जिन्होंने इस सुरीले ख़ज़ाने को समृद्ध किया है आने वाली पीढ़ियों के लिए, सुनने वालों के लिए। लीजिए इस गीत का आनंद उठाइए किशोर दा की दर्द भरी आवाज़ में। फ़िल्म 'दो रास्ते' का यह गीत फ़िल्माया गया है अभिनेता राजेश खन्ना पर।



क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत ने ५० के दशक के कई मशहूर गीतों में मैंडोलिन बजाया था, उदाहरण स्वरूप फ़िल्म 'लाजवन्ती' के "कोई आया धड़कन कहती है" में उनका बजाया मैंडोलिन आज तक हमें चमत्कृत कर देता है।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०६ /शृंखला ०१
ये धुन उस गीत के पहले इंटर ल्यूड की है, सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - गायिका हैं लता मंगेशकर

सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम ऐसा है जिसके आने से बच्चों को बड़ा डर सताता है, नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म में थे विनोद खन्ना, अभिनेत्री बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह श्याम कान्त जी आगे निकल आये हैं....८ अंकों पर शरद जी हैं अभी भी ६ अंकों पर. अमित जी ३ अंकों पर आ गए हैं. पी सिंह जी ने भी एक अंक जोड़ लिया अपने खाते में....बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 17, 2010

राम जी की निकली सवारी....आईये आज दशहरे के दिन श्रीराम महिमा गायें बख्शी साहब और एल पी के सुरों में डूबकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 506/2010/206

'आवाज़' के सभी दोस्तों को विजयदशमी और दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए हम शुरु कर रह रहे हैं इस सप्ताह के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र। यह त्योहार अच्छाई का बुराई पर जीत का प्रतीक है। आज ही के दिन भगवान राम ने रावण का वध कर सीता को मुक्त करवाया था। नवरात्री का समापन और दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन से आज दुर्गा पूजा का भी समापन होता है। नवरात्रों में गली गली राम लीला का आयोजन किया जाता है और ख़ास आज के दिन तो रावण-मेघनाद-कुंभकर्ण के बड़े बड़े पुतले बनाकर उन्हें जलाया जाता है। वही बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक! दोस्तों, आज जब इस वक़्त चारों तरफ़ इस बेहद महत्वपूर्ण त्योहार की धूम मची हुई है, तो ऐसे में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का भी कर्तव्य हो जाता है कि इसी त्योहार और हर्षोल्लास के वातावरण को ध्यान में रखते हुए कोई सटीक गीत चुनें। जैसा कि इन दिनों आप सुन रहे हैं कि हम सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों की लघु शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं, तो ऐसे में आज के दिन फ़िल्म 'सरगम' के उस गीत के अलावा और कौन सा उपयुक्त गीत होगा! मोहम्मद रफ़ी साहब और साथियों की आवाज़ों में "राम जी की निकली सवारी, राम जी की लीला है न्यारी न्यारी, एक तरफ़ लछमन एक तरफ़ सीता, बीच में जगत के पालनहारी"। एक बार फिर आनंद बक्शी के साथ जमी थी एल.पी की जोड़ी इस फ़िल्म में और क्या जमी थी साहब, फ़िल्म का एक एक गीत सुपर-डुपर हिट। अगर यह कहा जाए कि इस फ़िल्म के गीत संगीत की वजह से ही यह फ़िल्म इतनी कामयाब रही तो शायद ग़लत ना होगा। जैसा फ़िल्म का शीर्षक है, इस शीर्षक का पूरा पूरा मान रखा है लक्ष्मी-प्यारे की सुरीली जोड़ी ने।

'सरगम' सन् १९७९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण एन.एन. सिप्पी ने किया था। फ़िल्म के लेखक और निर्देशक थे दक्षिण के जाने माने के. विश्वनाथ। यह फ़िल्म दरअसल तेलुगु फ़िल्म 'सिरि सिरि मुव्वा' (१९७६) का रीमेक था, जिसने अभिनेत्री जया प्रदा को दक्षिण में स्टार बना दिया था। और 'सरगम' से ही जया प्रदा का हिंदी फ़िल्मों में भी पदार्पण हुआ और फिर हिंदी फ़िल्म जगत पर भी वो छा गईं। इस फ़िल्म में उनका किरदार एक गूंगी नृत्यांगना का था और उनके नायक थे ऋषी कपूर। अन्य चरित्रों में थे शशिकला (सौतेली माँ), श्रीराम लागू (पिता), असरानी (नृत्य शिक्षक), केष्टो मुखर्जी, शक्ति कपूर, अरुणा ईरानी और विजय अरोड़ा। इस फ़िल्म के संगीत के लिए लक्ष्मी-प्यारे को उस साल के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। फ़िल्म के सभी गानें रफ़ी साहब के गाये हुए थे, जिनमें से तीन गीतों में लता जी की आवाज़ थी ("डफ़ली वाले", "कोयल बोली", "पर्बत के इस पार")। फ़िल्म ने कुछ ऐसी लोकप्रियता हासिल की कि बॊक्स ऒफ़िस पर १९७९ की तीसरी कामयाब फ़िल्म सिद्ध हुई थी 'सरगम'। ऋषी कपूर तो एक स्थापित नायक थे ही, इस फ़िल्म ने जया प्रदा को भी बम्बई में स्टार का स्टेटस दिलवा दिया। इस फ़िल्म को भले ही फ़िल्मफ़ेयर में एक ही पुरस्कार मिला हो, लेकिन नामांकन कई सारे मिले थे जैसे कि सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता (असरानी) और सर्वश्रेष्ठ गीतकार (आनंद बक्शी - "डफ़ली वाले" गीत के लिए)। तो आइए दोस्तों, निकल पड़ते हैं राम जी की सवारी के साथ हम भी, आप सभी को एक बार फिर से दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ। हम यही कामना करते हैं कि हम सब के अंदर की बुराई का नाश हो, सब में अच्छाई पले, और यह संसार एक स्वर्गलोक में बदल जाए।



क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को बतौर स्वतंत्र संगीतकार सन् १९६१ में फ़िल्म 'तुमसे प्यार हो गया' के लिये अनुबंधित किया गया था, लेकिन यह फ़िल्म आज तक डिब्बे में बंद पड़ी है।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०५ /शृंखला ०१
ये धुन उस गीत के पहले इंटरल्यूड की है, सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - गायक हैं किशोर कुमार

सवाल १ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - फिल्म के नाम में एक अंक का नाम आता है, फिल्म बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस सुपर स्टार अभिनेता पर फिल्माया गया है ये गमजदा गीत - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पहले तो एक भूल सुधार. गीत "गोरे गोरे चंद से मुख पर" राजा महदी अली खान साहब ने नहीं लिखा, जैसा कि आलेख में लिखा गया है और जैसा अमूमन समझा गया है. इसे आरज़ू लखनवी साहब ने लिखा है, हालाँकि बिट्टू जी ने सही जवाब दिया था, पर हमने प्रतिभा जी को अंक दे दिए थे. अवध जी ने भूल सुधार करवाई, जिसके लिए उनका आभार, पहली श्रृखला में कौन बाज़ी मारेगा, ये देखना दिलचस्प होगा. ५ एपिसोड्स के बाद स्कोर कुछ इस तरह है - शरद जी - ६, श्याम कान्त जी ६, बिट्टू और अमित जी २-२ पर, और पी सिंह, अवध, जी, प्रतिभा जी, और पवन कुमार जी १-१ अंक लिए हैं. सभी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


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