Saturday, April 2, 2011

शनिवार विशेष में आज हम दे रहे हैं एक भावभीनी श्रद्धांजली स्वर्णिम दिनों के संगीतकार अजीत मर्चैण्ट को



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार। मैं, सुजॊय चटर्जी एक बार फिर हाज़िर हूँ इस साप्ताहिक विशेषांक के साथ। यह करीब दो साल पहले की बात है। मुझे मेरे दोस्त रामास्वामी से गुज़रे ज़माने के इस विस्मृत संगीतकार का टेलीफ़ोन नंबर प्राप्त हुआ था। उस वक़्त मैं ख़ुद इंटरव्युज़ नहीं करता था और 'हिंद-युग्म' से बस जुड़ा ही था। यह सोच कर कि अगर इस भूले बिसरे संगीतकार का इंटरव्यु 'विविध भारती' पर प्रसारित हो जाये, तो कितना अच्छा हो! इस ख़याल और लालच से मैंने इस संगीतकार का टेलीफ़ोन नंबर 'विविध भारती' के एक उच्च अधिकारी को भेज दिया और उनसे इस इंटरव्यु की गुज़ारिश कर बैठा। लेकिन पता नहीं इनकी कोई मजबूरी ही रही होगी कि यह इंटरव्यु संभव नहीं हो पाया। पिछले कुछ महीनों से जब मैंने ख़ुद इंटरव्युज़ लेना शुरु किया तो इस संगीतकार का नाम भी मेरी लिस्ट में था। दो तीन महीनों से मैं सोच ही रहा था कि किसी रविवार के दिन उन्हें टेलीफ़ोन करूँगा और उनसे कुछ बातचीत करूँगा। आप शायद मेरी बात का यकीन न करें कि मैं पिछले ही रविवार २७ मार्च को उन्हें फ़ोन करने ही वाला था कि उससे पहले किसी कारणवश मैंने रामास्वामी को फ़ोन कर लिया। और रामास्वामी नें मुझे बताया कि संगीतकार अजीत मर्चैण्ट का पिछले १८ मार्च २०११ को लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया है। कुछ पल के लिए मेरे मुंह से शब्द ही नहीं निकल पाये। हताशा और अफ़सोस की सीमा न थी। अजीत जी की काफ़ी उम्र हो गई थी; प्राकृतिक नियम से उनकी मृत्यु अस्वाभाविक नहीं थी, लेकिन मुझे एक अपराधबोध नें घेर लिया कि काश मैं कुछ दिन पहले उन्हें फ़ोन कर लिया होता। वो बीमार थे, इसलिए इंटरव्यु तो शायद मुमकिन नहीं होता, पर कम से कम उनकी बोलती हुई आवाज़ तो सुन लेता। और यह अफ़सोस शायद मेरे साथ एक लम्बे समय तक चलेगा। अफ़सोस इस बात का भी है कि अजीत जी की मृत्यु की ख़बर न किसी राष्ट्रीय अख़्बार में छपी, और न ही किसी टीवी चैनल नें अपना 'ब्रेकिंग् न्युज़' बनाया, जो किसी बिल्ली के पानी की टंकी के उपर चढ़ जाने और फिर नीचे न उतर पाने की ख़बर को भी 'ब्रेकिंग् न्युज़' में जगह दिया करते हैं। गुजरात के अखबारों और इंटरनेट के माध्यम से उनकी मृत्यु-संवाद लोगों तक पहुंचा। दोस्तों, अजीत जी से मैं ख़ुद आपका परिचय तो नहीं करवा सका, लेकिन आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह विशेषांक उन्हीं को समर्पित कर अपने दिल का बोझ थोड़ा कम करना चाहता हूँ, जिस बोझ को मैं पिछले कुछ दिनों से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ।

१९५७ की फ़िल्म 'चंडीपूजा' के कवि प्रदीप के लिखे और गाये गीत "कोई लाख करे चतुराई" को आप नें कई कई बार विविध भारती के 'भूले बिसरे गीत' कार्यक्रम में सुना होगा। यह अभिनेत्री शांता आप्टे की अंतिम हिंदी फ़िल्म थी। 'चंडीपूजा' के कुछ गीत लोकप्रिय हुए तो थे लेकिन उनका श्रेय प्रदीप को ज़्यादा और अजीत मर्चैण्ट को कम दिया गया। अजीत मर्चैण्ट उसी बिल्डिंग् में रहते थे जिसमें गायक मुकेश भी रहते थे। लेकिन मुकेश नें जहाँ सफलता के नभ चूमें, अजीत जी की झोली ख़ाली ही रही। एक से एक सुरीली धुन देने वाले अजीतभाई एक कमचर्चित संगीतकार के रूप में ही जाने गये और आज की पीढ़ी नें तो शायद उनका नाम भी नहीं सुना होगा। पर गुज़रे ज़माने के संगीत रसिक अजीत मर्चैण्ट का नाम सम्मान के साथ लेते हैं।

अजीत मर्चैण्ट एक गुजराती फ़िल्म संगीतकार के रूप में ज़्यादा जाने गये और उन्हें शोहरत भी गुजराती फ़िल्मों से ही प्राप्त हुई। १९५० की गुजराती फ़िल्म 'दीवादांडी' में दिलीप ढोलकिया के गाये लोकप्रिय भजन "तारी आँखनो अफ़ीनी" के संगीतकार के रूप में अजीत मर्चैण्ट हमेशा याद किए जायेंगे। ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को पहला मौका अजीत मर्चैण्ट नें ही दिया था। गुजराती में "लागी राम भजन" को जगजीत सिंह की आवाज़ में सुनना भी एक अनोखा अनुभव है। अभी कुछ साल पहले, जगजीत सिंह पर एक कार्यक्रम आयोजित हुआ था 'माइ लाइफ़ माइ स्टोरी'। उसमें जगजीत जी नें अपने भाषण में कहा था, "जब मैं संघर्ष कर रहा था, एक गुजराती भाई नें अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया था"। जज़्बाती जगजीत सिंह नें फिर ज़ोर से आवाज़ लगाई, "आप कहाँ पर हो अजीत भाई?" अजीत जी बिल्कुल पीछे की तरफ़ बैठे हुए थे। जगजीत साहब नें दोबारा आवाज़ दी, "आप कहाँ पर हो अजीत भाई?" जब अजीत जी नें अपना हाथ उपर किया, तब जगजीत सिंह ख़ुद मंच से उतरकर अजीत भाई के पास गये और उनसे गले मिले। दोनों के ही आँखों में आँसू थे।

दोस्तों, मेरा वही मित्र रामास्वामी एक बार अजीत मर्चैण्ट से जाकर मिला। मौका था एक नये म्युज़िक क्लब 'गीत-गुंजन' का गठन, जिसमें अजीत जी को बतौर मुख्य अतिथि निमंत्रित किया गया था। स्थान था गुजराती सेवा मंडल, माटुंगा, मुंबई। उस कार्यक्रम में अजीत जी को संबोधित करते हुए प्रकाश पुरंदरे नें यह जानकारी दी कि अजीत मर्चैण्ट नें हिंदी और गुजराती मिलाकर कुल ४५ फ़िल्मों में संगीत दिया है, और बहुत सारे ड्रामा में भी संगीत दिया है, जिसकी संख्या २५० से उपर है। एक दिलचस्प बात जिसका ज़िक्र प्रकाश जी नें किया, वह यह कि कवि प्रदीप नें "ऐ मेरे वतन के लोगों" अजीत जी के ही घर पर लिखा था। उस जल्से में अजीत मर्चैण्ट के स्वरबद्ध २० गीत सुनवाये गये जिसका सुभाष भट्ट नें संकलन किया था। ये रहे वो २० गीत। इस लिस्ट के ज़रिए आइए आज हम भी यादें ताज़ा कर लें अजीत जी के सुरीले गीतों का।

१. तारी आँखेनो अफ़ीनी (दीवादांडी - गुजराती), गायक- दिलीप ढोलकिया, गीत- बाल मुकुंद दवे
२. वगदवच्चे तलावाडी ने (दीवादांडी - गुजराती), गायक- दिलीप ढोलकिया, रोहिणी रॊय, गीत- बाल मुकुंद दवे
३. पंछी गाने लगे: भाग-१ (इंद्रलीला, १९५६), गायक- मोहम्मद रफ़ी, गीत- सरस्वती कुमार दीपक
४. पंछी गाने लगे: भाग-२ (इंद्रलीला, १९५६), गायक- मोहम्मद रफ़ी, गीत- सरस्वती कुमार दीपक
५. पर्वत हट जा धरती फट जा (इंद्रलीला, १९५६), गायक- आशा भोसले, गीत- सरस्वती कुमार दीपक
६. सुन लो जिया की बात (इंद्रलीला, १९५६), गायक- आशा भोसले, गीत- सरस्वती कुमार दीपक
७. पूरब दिसा की चंचल बदरिया (चंडीपूजा, १९५७), गायक- सुधा मल्होत्रा, साथी, गीत- कवि प्रदीप
८. अजी ओ जी कहो (चंडीपूजा, १९५७), गायक- शम्शाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी, गीत- कवि प्रदीप
९. सुनो सुनाओ तुम एक कहानी (चंडीपूजा, १९५७), गायक व गीत- कवि प्रदीप
१०. कोई लाख करे चतुराई (चंडीपूजा, १९५७), गायक व गीत- कवि प्रदीप
११. रूप तुम्हारा आँखों से पी लूँ (सपेरा, १९६१), गायक- मन्ना डे, गीत - इंदीवर
१२. रात नें गेसू बिखराये (सपेरा, १९६१), गायक- मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, गीत - इंदीवर
१३. मैं हूँ सपेरे तेरे जादू के देश में (सपेरा, १९६१), गायक- सुमन कल्याणपुर, गीत - इंदीवर
१४. बैरी छेड़ ना ऐसे राग (सपेरा, १९६१), गायक- सुमन कल्याणपुर, गीत - इंदीवर
१५. बोलो बोलो बोलो पिया (सपेरा, १९६१), गायक- सुमन कल्याणपुर, गीत - इंदीवर
१६. ओ री पिया मोरा तड़पे जिया (सपेरा, १९६१), गायक- सुमन कल्याणपुर, गीत- इंदीवर
१७. कुछ तुमनें कहा कुछ हमनें सुना (चैलेंज, १९६४), गायक- आशा भोसले, गीत- प्रेम धवन
१८. मैं भी हूँ मजबूर सजन (चैलेंज, १९६४), गायक- मुकेश, आशा भोसले, गीत- प्रेम धवन
१९. बदले रे रंग बदले ज़माना कहीं (चैलेंज, १९६४), गायक- लता मंगेशकर, साथी, गीत- प्रेम धवन
२०. मैं हो गई रे तेरे लिए बदनाम (चैलेंज, १९६४), गायक- आशा भोसले, गीत- प्रेम धवन


अजीत मर्चैण्ट के बारे में और विस्तारित जानकारी आप पंकज राग लिखित किताब 'धुनों की यात्रा' तथा योगेश जाधव लिखित किताब 'स्वर्णयुग के संगीतकार' से प्राप्त कर सकते हैं। अजीत मर्चैण्ट की प्रतिभा का मूल्यांकन हम इस बात से भी कर सकते हैं कि इस ज़मानें में कई जानेमाने संगीतकार अजीत जी से उनकी धुनें १०,००० रुपय तक में ख़रीदना चाहते थे। और इस राह में राज कपूर जैसे स्तंभ फ़िल्मकार भी पीछे नहीं थे। लेकिन अजीत जी नें कभी अपनी धुनें नहीं बेची। इससे ज़्यादा अफ़सोस की बात क्या हो सकती है संगीत के लिए। आज अजीत जी हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके स्वरबद्ध तमाम गुजराती गीत और 'इंद्रलीला', 'चंडीपूजा', 'सपेरा', 'लेडी-किलर' और 'चैलेंज' जैसी फ़िल्मों के गानें हमें उनकी याद दिलाते रहेंगे, जिन्हें सुन कर कभी हम ख़ुश होंगे और कभी यह सोच कर मन उदास भी होगा कि अजीत मर्चैण्ट तो वो सबकुछ क्यों नहीं मिल पाया जो उनके समकालीन दूसरे सफल संगीतकारों को मिला? 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से स्वर्गीय अजीत मर्चैण्ट को भावभीनी श्रद्धांजली। अब इस प्रस्तुति को समाप्त करने से पहले आइए सुनें फ़िल्म 'चण्डीपूजा' का वही मशहूर गीत "कोई लाख करे चतुराई", और इसी के साथ इस विशेष प्रस्तुति को समाप्त करने की दीजिए इजाज़त, नमस्कार!

गीत - कोई लाख करे चतुराई


आलेख - सुजॉय चट्टर्जी

सुनो कहानी: राजा - असग़र वजाहत



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी नवल किशोर की "एक शिक्षाप्रद कहानी" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं असग़र वजाहत की लघुकथा "राजा", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

इस शिक्षाप्रद कहानी का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 4 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का मूल पाठ विकीस्रोत पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं।
~ असगर वज़ाहत

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

‘‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी।’’
(असग़र वजाहत की लघुकथा "राजा" से एक अंश)


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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
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#124th Story, Aag: Asghar Wajahta/Hindi Audio Book/2011/7. Voice: Anurag Sharma

Thursday, March 31, 2011

एक बंगला बने न्यारा...एक और आशावादी गीत के एल सहगल की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 625/2010/325

१९३५ में पार्श्वगायन की नीव रखने वाली फ़िल्म 'धूप छाँव' के संगीतकार थे राय चंद बोराल और उनके सहायक थे पंकज मल्लिक साहब। इस फ़िल्म में के. सी. डे, पारुल घोष, सुप्रभा सरकार, उमा शशि और पहाड़ी सान्याल के साथ साथ कुंदन लाल सहगल नें भी गाया था "अंधे की लाठी तू ही है"। सन् '३५ में प्रदर्शित 'देवदास' का ज़िक्र तो हम कल ही कर चुके हैं। इसी साल संगीतकार मिहिरकिरण भट्टाचार्य के संगीत में 'कारवाँ-ए-हयात' में सहगल साहब नें कई ग़ज़लें गायीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है सहगल साहब पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर'। १९३६ में एक बार फिर बोराल साहब और पंकज बाबू के संगीत से सजी मशहूर फ़िल्म आई 'करोड़पति', जिसका सहगल साहब का गाया "जगत में प्रेम ही प्रेम भरा है" गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। इसी साल तिमिर बरन के संगीत में फ़िल्म 'पुजारिन' का ज़िक्र हम कल की कड़ी में कर चुके हैं। साल १९३७ सहगल साहब के करीयर का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव बना, क्योंकि इसी साल आई फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट'। आज इसी फ़िल्म का एक गीत हम सुनेंगे, लेकिन उससे पहले आइए आज पढ़ें राय चंद बोराल साहब के शब्द सहगल साहब के नाम। "ये अभिनय भी ऊँचा करते थे, और उनकी आवाज़ की तो क्या बात थी, गोल्डन वॊयस जिसे हम कहते हैं, सुननेवालों के दिलों में बहुत असर होता था। न्यु थिएटस के कम्पाउण्ड में एक तालाब था, उसके पास बैठे बैठे एक दिन मैं एक गीत गुनगुना रहा था। इतने में सहगल वहाँ आये, तो मैंने उनसे पूछा कि यह गाना पसंद है? वो बोले, "दादा, आप इस गीत को इसी वक़्त बना दीजिये।" और वह गाना था फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट' का "एक बंगला बने न्यारा"।" जी हाँ दोस्तों, आज हम इसी अनमोल गीत को सुनेंगे। इसी गीत को गायिका गीता दत्त नें भी अपनी 'जयमाला' कार्यक्रम के लिए चुना था। गीता जी की शब्दों में - "मैंने जब संगीत की समझ सम्भाली, तब सुगम संगीत में बहुत अच्छे अच्छे गायक थे - शम्शाद बेगम, ज़ोहराबाई, अमीरबाई कर्नाटकी, राजकुमारी, के.सी. डे, पंकज मल्लिक और के.एल. सहगल। सहगल साहब क्योंकि उत्तर भारतीय होने पर भी बंगला गीत बहुत अच्छी तरह से गा लेते थे, इसलिए मैं उनसे बहुत प्रभावित थी। आरज़ू साहब का यह गीत 'प्रेसिडेण्ट' का, "एक बंगला बने न्यारा", सहगल साहब ने ही गाया है।"

नितिन बोस निर्देशित और रायचंद बोराल स्वरबद्ध 'प्रेसिडेण्ट' में सहगल साहब का गाया "एक बंगला बने न्यारा" न केवल इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत है, बल्कि यह उनके करीयर का भी एक माइलस्टोन गीत रहा है। आज सहगल साहब पर आयोजित कोई भी कार्यक्रम इस गीत के बिना पूरी नहीं होती। यह एक आशावादी गीत है जिसकी धुन में बंगाल के लोक-संगीत की झलक मिलती है। इस गीत का ग्रामोफ़ोन वर्ज़न एक लम्बे प्रील्युड से शुरु होता है, जब कि फ़िल्म में गीत शुरु होता है इन शब्दों से - "रहेगी न बदरिया कारी, होंगे एक दिन सूर्य के दर्शन, वो ही घड़ी अब आयी, तनख्वाह बढ़ गई हमारी, ४०० हर एक महीने, काम किया नहीं गये महीने, फिर भी तनख्वाह पायी"। और इसके बाद गीत शुरु होता है "एक बंगला बने न्यारा"। सहगल साहब की आवाज़ में फ़िल्म का एक और बड़ा ही मशहूर गाना है "एक राज्य का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा"। किशोर कुमार नें एक बार अमीन सायानी के किसी कार्यक्रम में अपने बचपन की नकल उतारी थी, उसमें उन्होंने इसी गीत को एक बच्चे की आवाज़ में गाया था। सहगल साहब इस गीत में जिस तरह से हँसते हैं, जिस मासूमीयत से गाते हैं, उनकी दिव्य और नर्म आवाज़ दिल को कितना सुकून दे जाती है, इस गीत को सुन कर ही पता चलता है। पहाड़ी सान्याल के साथ सहगल ने इस फ़िल्म में गाया था "प्रेम का है इस जग में पथ निराला"। सहगल साहब की एकल आवाज़ में "न कोई प्रेम का रोग लगाये, पापी अंग अंग रच जाये" न केवल उस दौर में प्रेमी-प्रेमिकाओं के दिलों को छू लिया था, बल्कि यह गीत एक ट्रेण्डसेटर बना इस भाव पर बनने वाले गीतों का। तो आइए अब सुनते हैं आज का गीत, जिसके गीतकार हैं किदार शर्मा।



क्या आप जानते हैं...
कि १९३५ की फ़िल्म 'कारवाँ-ए-हयात' में सहगल नें राजकुमारी और पहाड़ी सान्याल के साथ एक गीत गाया था "कोई प्रीत की रीत बता दो हमें"।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 5/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - संगीत कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी के दर्शन हुए, अमित जी और अंजाना जी भी सही जवाब के साथ उपस्तिथ हुए बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 30, 2011

दुख के दिन अब बीतत नाहीं.....सहगल की आवाज़ और दर्द की रिश्ता भी काफी गहरा था



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 624/2010/324

गर हम "पैथोस" शब्द का पर्यायवाची शब्द "सहगल" कहें तो शायद यह जवाब बहुत ग़लत नहीं होगा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है कुंदन लाल सहगल को समर्पित इस लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की चौथी कड़ी में। न्यु थिएटर्स के संगीतकारों में एक नाम तिमिर बरन का भी है। १९३३ में 'पूरन भगत' और १९३४ में 'चंडीदास' के कालजयी गीतों के बाद १९३५ में तो सहगल साहब ने जैसे तहलका ही मचा दिया। सहगल साहब की फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शायद सब से हिट फ़िल्म रही है १९३५ की पी. सी. बरुआ निर्देशित फ़िल्म 'देवदास'। तिमिर बरन को इस फ़िल्म में संगीत देने का ज़िम्मा सौंपा गया और किदार शर्मा नें गीत लिखे। इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी के कलम और साज़ों पे सवार होकर सहगल साहब के गाये इस फ़िल्म के नग़में पहूँचे घर घर में। फ़िल्म 'देवदास' के बंगला वर्ज़न में सहगल साहब ने कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना को स्वर दिया था, जिसके बोल थे "गोलाप होये उठुक फूले"। 'देवदास' की अपार कामयाबी ने के.एल. सहगल को सुपरस्टार बना दिया। इसी साल, यानी १९३५ में आशा रानी से सहगल साहब का विवाह सम्पन्न हुआ और वो अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी दिन बिताने लगे। लेकिन 'देवदास' में उनका निभाया किरदार बिलकुल इसके विपरीत था। दर्द और शराब में डूबा देवदास का किरदार सहगल साहब नें जैसे पर्दे पर जीवंत कर दिया। इस फ़िल्म का "बालम आये बसो मोरे मन में" हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं; इसलिए आज इस फ़िल्म का एक दर्दीला गाना सुनिए, "दुख के दिन अब बीतत नाहीं"। इस गीत को सुनते हुए महसूस कीजिएगा कि किस तरह से वायलिन की धुन सहगल साहब की आवाज़ से आवाज़ मिलाकर साथ साथ चलती है। तिमिर बरन के संगीत में १९३६ में सहगल साहब की एक और फ़िल्म आयी थी 'पुजारिन', जिसमें उनका गाया "जो बीत चुकी सो बीत चुकी" फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत था।

और कल की तरह आज भी कुछ उद्गार सहगल साहब की शान में फ़िल्म जगत की एक प्रसिद्ध अभिनेता के मुख से। ये हैं के. एन. सिंह जिन्होंने सहगल साहब के बारे में बताया था विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में बरसों पहले- "अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने की वजह से मुझे वेस्टर्ण म्युज़िक में ज़्यादा दिलचस्पी थी। मगर भारतीय संगीत के जादू ने मुझ पर असर पहली बार तब किया जब सन् १९३० में लखनऊ में मैं कुंदन लाल सहगल से मिला। उस वक़्त न वो फ़िल्मों में आये थे और न ही मैं। कुछ सालों के बाद कलकत्ता में फिर हमारी मुलाक़ात हुई, तब वो फ़िल्मों में थे, और उनके गानें का असर धीरे-धीरे फैल रहा था। कुछ सालों बाद मैं भी फ़िल्मों में आ गया, और फिर सहगल साहब से मेल-जोल बढ़ा, और एक लम्बी, गहरी दोस्ती में बदल गई, जो उनके देहांत तक रही। सहगल न केवल एक बेमिसाल गायक थे, बल्कि एक बेमिसाल दोस्त भी थे। वो अपनी आवाज़ पीछे छोड़ गये हैं। दौर बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे। मगर सहगल का संगीत आज भी पुराना नहीं हुआ है। फ़िल्म संगीत को उन्होंने ही सब से पहले पापुलर बनाया था। तो उन्हीं का एक गाना सुन लें?" दोस्तों, के. एन. सिंह साहब की तरह बहुत से कलाकार अपनी अपनी 'जयमाला' में सहगल साहब के लिए कुछ न कुछ बोला करते और उनका गाया अपनी पसंद का एक गीत सुनवाया करते। तो आइए अब आज का गीत सुना जाये।



क्या आप जानते हैं...
कि 'देवदास' फ़िल्म का "बालम आये बसो मोरे मन में" गीत वह पहला ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड था जो लता मंगेशकर नें ख़रीदा था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 4/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं इस गीत के - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद टाई हुआ है कल...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२

शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।

सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।
जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥


कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !

गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे और जिस्म जम जाए वहीं का वहीं!!

कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।


कबीर... कबीर ऐसा नाम है, जिसे सुनते हीं दिल सूफ़ियाना हो जाता है। जैसे सूफ़ियों के हर कलाम में उस ऊपर वाले का ज़िक्र होता है, उसी तरह कबीर अपने गुरू, अपने साईं, अपने साहिब का ज़िक्र किसी न किसी बहाने अपने दोहों में ले हीं आते हैं। गुरू के प्रति कबीर का यह प्रेम अनुपम है। कबीर अपने गुरू की बहुत कदर करते थे। एक शिष्य के लिए गुरू का क्या महत्व होता है, यह बताने के लिए कबीर ने इतना तक कह दिया कि:

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥


गुरू का माहात्म्य जानना हो तो कोई कबीर से पूछे:

सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥


कबीर का अपने गुरू के प्रति प्रेम और लगाव का बखान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में कुछ यूँ किया है:

कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पना हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आयी। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत १४५६ माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से हीं कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उसे पालने वाल माता-पिता न दबा सके। वे "राम-राम" जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ रहा था। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते हुए उप्त (पंचगंगा) घाट की सीढियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, ’राम-राम कह’। कबीर ने इसी को गुरूमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरू रामानंद जी का शिष्य कहने लगे।

आरंभ से हीं कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अत: उन दिनों जब कि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमे जाति-पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ’राम-राम’ नाम रामानंद जी से हीं प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के ’राम’ रामानंद के ’राम’ से भिन्न हो गए। अत: कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफ़ी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अत: उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ हुई। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गये, वे ब्रह्म के पर्याय हुए -

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना॥


सारांश यह है कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफ़ियों के ढर्रे पर उपासना का हीं विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफ़ियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मत रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव लक्षित होते हैं।

गुरू गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय,
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।


गुरू को गोविंद के आगे खड़े करने वाले संत कबीर ने गुरू के बारे में और क्या-क्या कहा है, यह जानने के लिए चलिए आबिदा परवीन की मनमोहक आवाज़ की ओर रूख करते हैं। और हाँ, आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "साहिब मेरा एक है"..:

साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खडा रसाय ॥

माली आवत देख के, कलियां करें पुकार ।
फूल फूल चुन लिये, काल हमारी बार ॥

____ गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥

एक प्रीत सूं जो मिले, ताको मिलिये धाय ।
अन्तर राखे जो मिले, तासे मिले बलाय ॥

सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥

अब गुरु दिल मे देखया, गावण को कछु नाहि ।
कबीरा जब हम गांवते, तब जाना गुरु नाहि ॥

मैं लागा उस एक से, एक भया सब माहि ।
सब मेरा मैं सबन का, तेहां दूसरा नाहि ॥

जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
तब मरहू कब पाहूं, पूरण परमानन्द ॥

सब बन तो चन्दन नहीं, सूर्य है का दल(?) नाहि ।
सब समुंद्र मोती नहीं, यूं सौ भूं जग माहि ॥

जब हम जग में पग धरयो, सब हसें हम रोये ।
कबीरा अब ऐसी कर चलो, पाछे हंसीं न होये ॥

अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार ।
भांवें बन्दा बख्शे, भांवें गर्दन मार ॥

साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि ॥

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय ।
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय ॥

साहिब सूं सब होत है, बन्दे ते कछु नाहि ।
राइ से परबत करे, परबत राइ मांहि ॥

ज्यूं तिल मांही तेल है, ज्यूं चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें बसे, जाग सके तो जाग ॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "पिया" और मिसरे कुछ यूँ थे-

सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती पिया आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।

मंजु जी, आपने शब्द पहचानने में गलती कर दी, इसलिए हम आपके शेर (दोहे) को यहाँ पेश नहीं कर सकते। अगली बार से ध्यान दीजिएगा।

पिछली महफ़िल की शुरूआत सजीव जी की प्रेरणादायक टिप्पणी से हुई। बंधुवर धन्यवाद आपका! आपके बाद महफ़िल को रंगीन करने आए शरद जी। शरद जी ने न सिर्फ़ सही शब्द की पहचान की बल्कि उस पर एक शेर भी कहा। यह क्या, आपसे हमें स्वरचित शेर की उम्मीद रहती है, आपने तो नुसरत साहब के एक गाने की दो पंक्तियों से हीं काम चला लिया। आगे से ऐसा नहीं चलेगा। समझे ना? :) आपने एक गलती की तरफ़ हमारा ध्यान दिलाया, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हमने आज की महफ़िल में उस गलती को ठीक कर लिया है। अवध जी, शायद "दोहावली" हीं कहा जाना चाहिए। मैं और भी एक-दो जगह से पता करता हूँ, उसके बाद आगे से इसी शब्द का प्रयोग करूँगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। मंजु जी, हाँ पिछली बार मैंने "अहसास" पर सारे शेर जमा तो कर दिये थे, लेकिन जल्दीबाजी में "आँगन" को हटाना भूल गया। दर-असल "आँगन" पिछली से पिछली महफ़िल का गुमशुदा शब्द था। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आगे से ऐसा नहीं होगा। कुलदीप जी, महफ़िल को और महफ़िल में पेश की गई रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बस लगे हाथों आप "पिया" पर कोई शेर भी कह देते तो खुशी चौगुनी हो जाती। खैर, इस बार से कोशिश कीजिएगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, March 29, 2011

नुक्ताचीं है गमे दिल...सुनिए ग़ालिब का कलाम सहगल साहब की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 623/2010/323

'मधुकर श्याम हमारे चोर', हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में आज भी हम कल ही की तरह बने रहेंगे साल १९३३ में। सहगल साहब को एक से एक लाजवाब गीत गवाने में अगर पहला नाम राय चंद बोराल का है, तो निस्संदेह दूसरा नाम है पंकज मल्लिक का। पंकज बाबू के संगीत निर्देशन में सहगल साहब के बहुत से गीत हैं जो बहुत बहुत मशहूर हुए हैं। दोस्तों, अभी कुछ दिनों पहले जब मेरी संगीतकार तुषार भाटिया जी से बातचीत हो रही थी, तो बातों ही बातों में न्यु थिएटर्स की चर्चा छिड़ गई थी, और तुषार जी ने बताया कि राय चंद बोराल निस्संदेह फ़िल्म संगीतकारों के भीष्म पितामह हैं, लेकिन फ़िल्मी गीत का जो अपना स्वरूप है, और जो स्वरूप आज तक चलता आया है, वह पंकज मल्लिक साहब की ही देन है। पंकज बाबू का बतौर फ़िल्म संगीतकार सफ़र शुरु हुआ था बोलती फ़िल्मों के पहले ही साल, यानी १९३१ में, जिस साल उन्होंने बंगला फ़िल्म 'देना पाओना' में बोराल साहब के साथ संगीत दिया था। हिंदी फ़िल्मों में उनका आगमन हुआ १९३३ की फ़िल्म 'यहूदी की लड़की' में। वैसे यह बात सच है कि इस फ़िल्म में मल्लिक साहब का वह ऒर्केस्ट्रेशन वाला हल्का फुल्का पर शास्त्रीयता से भरपूर अंदाज़ सुनने को नहीं मिला, लेकिन सहगल साहब के गाये गीतों व ग़ज़लों ने ऐसा असर किया कि इस फ़िल्म का नाम सिनेमा के इतिहास में अमर हो गया। दोस्तो, यह सत्य है कि पंकज साहब के संगीत में सहगल साहब नें इसके बाद के वर्षों में इससे भी बहुत ज़्यादा लोकप्रिय गीत गाये (जिनकी चर्चा हम आगे चलकर इसी शृंखला में करेंगे), लेकिन इस फ़िल्म के किसी गीत को सुनवाये बग़ैर आगे बढ़ने का दिल नहीं कर रहा। इसलिए आइए आज सुनें 'यहूदी की लड़की' फ़िल्म में शामिल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल जिसको सुनाये न बनें"। सुरैया की आवाज़ में इसी ग़ज़ल का आनंद आप ने कुछ दिनों पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लिया था, आज इसी का एक अन्य रूप, जिसे पंकज बाबू नें नौटंकी की लोकप्रिय शैली काफ़ी में स्वरबद्ध किया था।

और आइए अब कुछ उद्गार पढ़ें जिन्हें फ़िल्म जगत की कुछ जानीमानी हस्तियों ने व्यक्त किए हैं सहगल साहब की शान में। सबसे पहले ये हैं गायक मुकेश: "आज हमारे फ़िल्म इंडस्ट्री में कई गायक-कलाकार फ़िल्म संगीत की शोभा बढ़ा रहे हैं। मगर एक वक़्त ऐसा था जब इतने गायक नहीं थे। लेकिन उस वक़्त भी सिर्फ़ यही दीपक जल रहा था, जिसका नाम था कुंदन लाल सहगल। स्वरों के इस राजा नें, जिसनें फ़िल्म संगीत की शुरुआत की, कई फ़िल्मों में अभिनेता के रूप में भी काम किया, और फिर युं नज़रों से ओझल हो गया, मानो कहीं छुप गया हो, और देख रहा हो हमें, सुन रहा हो हमें, और मानो कह रहा हो कि कला की कोई सीमा नहीं है, तुम्हें अभी बहुत दूर जाना है, बहुत आगे बढ़ना है।" मुकेश के बाद ये हैं दादामुनि अशोक कुमार। दादामुनि नें भी उसी दौर में अभिनय शुरु किया था जब सहगल आसमान पर सूरज की तरह चमक रहे थे। "मैं तो मानता हूँ कि फ़िल्म संगीत की धारा बदल रही है, रूप भी बदल रहा है। कभी लगता है कि अपने अच्छे गायक और संगीतकार भी इसी जैज़ और लातिन अमरीकन संगीत की बाढ़ में बह जायेंगे। मेरा ख़याल है कि आज अगर सहगल ज़िंदा होते तो शायद इस बाढ़ को रोक सकते थे।" तो दोस्तों, आइए अब एक बार फिर भावविभोर होकर सुनें सहगल साहब की आवाज़ में ग़ालिब की यह ग़ज़ल फ़िल्म 'यहूदी की लड़की' से।



क्या आप जानते हैं...
कि 'पूरन भगत' और 'चण्डीदास' फ़िल्मों में सहगल के गाये अमर गीतों के पीछे पंकज मल्लिक का बहुत बड़ा योगदान था, लेकिन संगीतकार के रूप में आर.सी. बोराल का ही नाम पर्दे पर आया। पंकज बाबू बोराल साहब के सहायक थे इन फ़िल्मों में।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं इस गीत के - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी बढ़त पर हैं पर अंजाना जी भी मौके की ताड़ में हैं, अवध जी सही जवाब आपका भी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, March 28, 2011

राधे रानी दे डारो ना....गीत उन दिनों का जब सहगल साहब केवल अपने गीतों के गायक के रूप में पर्दे पर आते थे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 622/2010/322

फ़िल्म जगत के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। कल पहली कड़ी में हमने आपको बताया सहगल साहब के शुरुआती दिनों का हाल और सुनवाया उनका गाया पहला ग़ैर फ़िल्मी गीत। आइए आज आपको बताएँ कि उनके करीयर के पहले दो सालों में, यानी १९३२-३३ में उन्होंने किन फ़िल्मों में कौन कौन से यादगार गीत गाये। १९३२ में न्यु थिएटर्स ने सहगल को तीन फ़िल्मों में कास्ट किया; ये फ़िल्में थीं - 'मोहब्बत के आँसू', 'सुबह का तारा' और 'ज़िंदा लाश'। इन तीनों फ़िल्मों में संगीत बोराल साहब का था। 'मोहब्बत के आँसू' में सहगल साहब और अख़्तरी मुरादाबादी के स्वर में कई गीत थे जैसे कि "नवाज़िश चाहिए इतनी ज़मीने कूवे जाना की" और "हम इज़तराबे कल्ब का ख़ुद इंतहा करते"। इन बोलों को पढ़ कर आप अनुमान लगा सकते हैं कि किस तरह की भाषा का इस्तमाल होता होगा उस ज़माने की ग़ज़लों में। ख़ैर, 'सुबह का तारा' फ़िल्म के "न सुरूर हूँ न ख़ुमार हूँ", "खुली है बोतल भरे हैं सागर", "आरज़ू इतनी है अब मेरे दिल-ए-नाशाद की" जैसे गानें ख़ूब चले थे। 'ज़िंदा लाश' फ़िल्म के "सारा आलम धोखा है, यह जीना है", "गुज़रे हाँ यूँ ही कटे दिन रैन", "आँखों में सर रहता है क्यों", "लगी करेजवा में चोट", "जानते हो तुम मुहब्बत किस क़दर इस दिल में है", "सज़ा मिली है मुझे तुमसे दिल लगाने की", "पहले तो शौक में ख़ाक दरे-मैख़ाना बनूँ" गानें भी एक से बढ़ कर एक थे। आज भले इन गीतों को दुनिया भुला चुकी है, लेकिन इनका भी अपना एक ज़माना था।

१९३२ की इन तीनों फ़िल्मों के गीतों ने कुछ ऐसा सर चढ़ के बोला कि अगले साल सहगल और बोराल की जोड़ी ने एक और कीर्तिमान स्थापित किया 'पूरन भगत' फ़िल्म के ज़रिए। न्यु थिएटर्स के मशहूर निर्देशक देबकी बोस निर्देशित यह प्रथम हिंदी फ़िल्म थी। सहगल का जादू कुछ ऐसा चला था कि कोई भूमिका न होते हुए भी सहगल को इस फ़िल्म में सिर्फ़ गीतों के लिए पर्दे पर उतारा गया था। इस फ़िल्म का सब से मशहूर गीत था "राधे रानी दे डारो ना", जो राग यमन कल्याण पर आधारित था, हालाँकि कहीं कहीं पर इसे राग बिहाग पर आधारित भी बताया गया है। आज के अंक को हम इसी गीत से सजा रहे हैं। इसी फ़िल्म का सहगल का गाया अन्य गीत "दिन नीके बीत जात है" भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। 'पूरन भगत' के मुख्य कलाकारों में थे सी एम् रफ़ीक, अंसारी और के.सी. डे. के सी डे ने भी इस फ़िल्म में कुछ लोकप्रिय गीत गाये। दोस्तों, क्योंकि आज ज़िक्र एक साथ हुआ है सहगल साहब और के.सी. डे साहब का, तो क्यों न के.सी. डे साहब के भतीजे, यानी कि सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मन्ना डे के सहगल साहब से संबंधित कहे हुए शब्द पढें - "सहगल साहब बहुत लोकप्रिय थे। मेरे सारे दोस्त जानते थे कि मेरे चाचा जी, के.सी. डे साहब के साथ उनका रोज़ उठना बैठना है। इसलिए उनकी फ़रमाइश पे मैंने सहगल साहब के कई गानें एक दफ़ा नहीं, बल्कि कई बार गाये होंगे। 'कॊलेज-फ़ंक्शन्स' में उनके गाये गानें गा कर मैंने कई बार इनाम भी जीते।" और अगर आज के भजन की बात करें तो इसके कद्रदानों में संगीतकार रोशन साहब भी शामिल हैं। उनके शब्दों में - "वैसे तो मैं पहले से सुरों के पीछे पागल तो था ही, मगर एक सहगल साहब का भजन था जो मुझे बहुत पसंद था, यह उनका पहला ही गाना था फ़िल्मों के लिए, फ़िल्म थी 'पूरन भगत', मैंने कई बार यह फ़िल्म सिर्फ़ इस भजन के लिए देखी।" तो लीजिए, सुनिए फ़िल्म 'पूरन भगत' से "राधे रानी दे डारो ना"।



क्या आप जानते हैं...
कि अपने १५ वर्षीय करीयर में सहगल साहब ने कुल १८५ गीत गाये, जिनमें १४२ फ़िल्मी और ४३ ग़ैर फ़िल्मी हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायक कुंदन लाल सहगल की एक बेहद लोकप्रिय गज़ल.

सवाल १ - किस बेमिसाल शायर की है ये गज़ल - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - इस शायर के नाम पर बनी एक फिल्म में एक और बड़ी गायिका ने यही गज़ल गाई थी, जिसे हम ओल्ड इस गोल्ड में अभी कुछ दिनों पहले सुनाया था, कौन थी वो गायिका - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
सबसे पहले एक स्पष्टीकरण - विकीपीडिया या अन्य वेब साईटों की जानकारियाँ भी हमारे आपके जैसे कद्रदान अपडेट करते हैं, जिनमें गलतियों की संभावना रहती है. हमारे रेफेरेंस अधिकतर लिखी हुई किताबों और विविध भारती के कार्यक्रमों से होते हैं जिन पर हम शायद अधिक विश्वसनीयता रख सकते हैं. जाहिर है पंकज राग और हरमंदिर हमराज़ जैसे दिग्गजों की बातों को हम विकिपीडिया से अधिक तवज्जो देंगें. अब कुछ आप लोगों के संशय भी दूर करें -
१. अंजाना जी, गौर करें कि हरिश्चंद्र बाली का जिक्र हमने भी किया है, पर पहेली जिस गाने के सन्दर्भ में थी उस गीत के संगीतकार पूछे गए थे, जिनका सहगल के करियर में महत्वपूर्ण योगदान था.
२. १९३३ की ये फिल्म शायद ही हम में से किसी ने देखी होगी, जाहिर है उसके कास्ट के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उसी के आधार पर सवाल पूछा गया था, सिद्धार्थ जी की दिए हुए लिंक के अलावा कहीं भी ये नहीं लिखा कि के सी डे ने फिल्म में अतिथि भूमिका की थी, और किसी भी फिल्म में एक दो या इससे भी अधिक प्रमुख किरदार हो सकते हैं, और जब हिंट दिया जा रहा है उनके गायक होने के बारे में भी तो कोई भी व्यक्ति के सी डे तक पहुँच सकता है, और अंजाना जी पहुंचे भी हैं...तो उनके ३ अंक पक्के हैं...हमें इस सवाल में कोई उलझाव नज़र नहीं आता.
देखिये हमारे पास संगीत ज्ञान रखने वाले श्रोताओं की भरमार है जाहिर है पहेलियाँ थोड़ी सी घुमा फिरा कर ही पूछनी पड़ेगी तभी तो हमें कल प्रतीक जी और सिद्धार्थ जी जैसे छुपे हुए धुरंधर दिखे.
अमित जी और हिन्दुस्तानी जी को भी कल के लिए बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, March 27, 2011

झुलना झुलाए आओ री...महान सहगल को समर्पित इस नयी शृंखला की शुरूआत आर सी बोराल के इस गैर फ़िल्मी गीत से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 621/2010/321

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार और स्वागत है इस नए सप्ताह में। हिंदी फ़िल्म-संगीत की नीव रखने वाले कलाकारों में एक नाम ऐसा है जिनकी आवाज़ की चमक ३० के दशक से लेकर आज तक वैसा ही कायम है, जो आज भी सुननेवाले को मंत्रमुग्ध कर देता है। इस बेमिसाल फ़नकार का जन्म आज से १०७ साल पहले हुआ और जिनके गुज़रे आज छह दशक बीत चुके हैं। केवल पंद्रह साल लम्बी अपने सांगीतिक जीवन में इस अज़ीम फ़नकार ने अपनी कला की ऐसी सुगंधी बिखेरी है कि आज भी वह महक बरक़रार है दुनिया की फ़िज़ाओं में। और ये अज़ीम फ़नकार और कोई नहीं, ये हैं फ़िल्म जगत के प्रथम 'सिंगिंग् सुपरस्टार' कुंदन लाल सहगल। आगामी ४ अप्रैल को सहगल साहब की १०८-वीं जयंती है; इसी अवसर को केन्द्र में रखते हुए प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर'। सहगल साहब की आवाज़ और गायन शैली का लोगों पर ऐसा असर हुआ कि पूरा देश उनके दीवाने हो गए, और वो एक प्रेरणा स्तंभ बन गए अन्य उभरते गायकों के लिए। सज्जाद, रोशन और ओ.पी. नय्यर जैसे संगीतकार और तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार और यहाँ तक कि लता मंगेशकर के एकमात्र प्रेरणास्रोत बन गए सहगल साहब। १९३१ में पहली बोलती फ़िल्म बनी 'आलम आरा', और सहगल साहब का आगमन हुआ उसके दूसरे ही साल १९३२ में, जब उन्होंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'मोहब्बत के आँसू' में एक छोटा सा रोल अदा किया।

के.एल. सहगल का जन्म पिता अमीरचंद और माँ केसर कौर के घर ४ अप्रैल १९०४ को जम्मु में हुआ था। बचपन से ही अपनी भोली सूरत की वजह से राम लीला में वे सीता की भूमिका निभाया करते थे। उनकी प्रतिभा को देख कर उनकी माँ उन्हें प्रोत्साहित करती थीं। उन्होंने सूफ़ी संत सलमान यूसुफ़ से सूफ़ियाना रियाज़ सीखा। १२ वर्ष की आयु में उन्होंने महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में एक मीरा भजन गा कर बहुत सारी तारीफ़ें बटोरी और महाराजा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा था कि वो एक बहुत नामी गायक बनेंगे। पिता की मृत्यु के बाद उन पर घर की ज़िम्मेदारी आ गई और वे जलंधर, मुरादाबाद और लखनऊ होते हुए कलकत्ता आ पहुँचे। इसी दौरान उन्होंने कभी सेल्समैन का काम किया, कभी टाइप-राइटर का, तो कभी रेल्वे में टाइम कीपर का। कलकत्ते में ही उनकी मुलाक़ात हो गई अपने जलंधर परिचित संगीतकार हरीशचंद्र बाली से, जो उन्हें न्यु थिएटर्स ले गए और शुरु हो गई उनके जीवन की अगली पारी। १९३२ में 'मोहब्बत के आँसू' में काम करने के बाद १९३३ में उनका पहला ग़ैर-फ़िल्मी रेकॊर्ड जारी हुआ। तो दोस्तों, क्यों न इस शृंखला की शुरुआत हम उसी ग़ैर फ़िल्मी रचना से करें! संगीतकार हैं आर.सी. बोराल। सहगल साहब को लोकप्रियता की चोटी तक पहुँचाने में यदि किसी संगीतकार का नाम लिया जाएगा, तो बोराल साहब का नाम सब से उपर आयेगा।



क्या आप जानते हैं...
कि हरीशचंद्र बाली के सुझाव पर आर.सी. बोराल ने जब सहगल को न्यु थिएटर्स में रख लिया, तब उनकी पारिश्रमिक २०० रुपय प्रति माह तय हुई थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 2/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायक कुंदन लाल सहगल का एक और लोकप्रिय भजन.

सवाल १ - किस फिल्म का है ये गीत - १ अंक
सवाल २ - कौन थे इस फिल्म के नायक जो खुद भी एक जाने माने गायक थे - ३ अंक
सवाल ३ - ये किस निर्देशक की पहली हिंदी फिल्म थी - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी ने शानदार शुरूआत की है, साथ में प्रतीक जी और शरद जी ने भी अपना खाता खोला है, अमित जी हमने अपने सूत्रों से दुबारा कन्फर्म किया है और पंकज राग के तथ्यों पर विश्वास करना ही सही लग रहा है.इन चारों बहनों ने एक ही गीत में अपना स्वर मिलाया था उस गीत में....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - जल तरंग की मधुरता से तरंगित है आज रविवार की सुबह



सुर संगम - 13 - जल तरंग की उमंग

जल तरंग असाधारण इसलिए है कि यह एक तालवाद्‍य भी है और घनवाद्‍य भी। मूलतः इसमें चीनी मिट्टी की बनी कटोरियों में पानी भर उन्हें अवरोही क्रम(descending order) अथवा पंक्ति अथवा किसी भी और सुविधाजनक समाकृति में सजाया जाता है। फिर इन कटोरियों में अलग-अलग परिमाण में जल भर कर इन्हें रागानुसार समस्वरित(tune) किया जाता है। जब इन कटोरियों पर बेंत अथवा लकड़ी के बने छड़ों से मार की जाती है तब इनकी कंपन से एक मधुर झनकार सी ध्वनि उत्पन्न होती है।


मस्कार! सुर-संगम की एक और संगीतमयी कड़ी में सभी श्रोता-पाठकों का हार्दिक अभिनंदन। कैसी रही आप सब की होली? आशा है सब ने खूब धूम मचाई होगी। मैनें भी हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड" के साथी सुजॉय दा के साथ मिलकर जम के होली मनाई। ख़ैर अब होली के बादल छट गए हैं और अपने साथ बहा ले गए हैं शीत एवं बसंत के दिनों को, साथ ही दस्तक दे चुकी हैं गरमियाँ। ऐसे में हम सब का जल का सहारा लेना अपेक्षित ही है। तो हमनें भी सोचा कि क्यों न आप सबकी संगीत-पिपासा को शाँत करने के लिए आज की कड़ी भी ऐसे ही किसी वाद्‍य पर आधारित हो जिसका संबंध जल से है। आप समझ ही गए होंगे कि मेरा संकेत है हमारे देश के एक असाधारण वाद्‍य - 'जल तरंग' की ओर।

जल तरंग असाधारण इसलिए है कि यह एक तालवाद्‍य भी है और घनवाद्‍य भी। मूलतः इसमें चीनी मिट्टी की बनी कटोरियों में पानी भर उन्हें अवरोही क्रम(descending order) अथवा पंक्ति अथवा किसी भी और सुविधाजनक समाकृति में सजाया जाता है। फिर इन कटोरियों में अलग-अलग परिमाण में जल भर कर इन्हें रागानुसार समस्वरित(tune) किया जाता है। जब इन कटोरियों पर बेंत अथवा लकड़ी के बने छड़ों से मार की जाती है तब इनकी कंपन से एक मधुर झनकार सी ध्वनि उत्पन्न होती है। इसी मधुर तरंग नुमा ध्वनि के कारण इस वाद्‍य का नाम 'जल तरंग' पड़ा। यूँ तो यह कहना कठिन है कि इस वाद्‍य की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई थी परंतु इसका सबसे पहला उल्लेख पाया जाता है मध्यकालीन ग्रंथ - 'संगीत पारिजात' में। तानसेन द्वारा रचित ग्रंथ 'संगीत सार' में जल तरंग का उल्लेख है। इस ग्रंथ के अनुसार जल तरंग को तभी पूरा माना गया है जब इसमें २२ कटोरियों क प्रयोग किया जाए। मध्य कालीन जलतरंग में काँसे की बनी कटोरियों का भी प्रयोग किया जाता था। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि मश्हूर सम्राट सिकंदर भारत आते समय मैसिडोनिया से कुछ जल तरंग वादको को अपने साथ ले आये थे। आज साधरणतः जल तरंग में १६ प्यालों का प्रयोग किया जाता है, इनमें बडे़ आकार के प्यालों से निचले सप्तक यानि मंद्र स्वर तथा छोटे आकार के प्यालों से ऊँचे सप्तक यानि तार स्वर उत्पन्न किये जाते हैं। आइये आनंद लेते हैं प्रख्यात जल तरंग वादिका डॉ० रागिनी त्रिवेदी की इस मनमोहक प्रस्तुति का। डॉ० त्रिवेदी भारत की प्रमुख महिला जल तरंग शिल्पियों में से एक हैं तथा इस लुप्त होती वाद्‍य कला को बचाए रखने में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा है।



भारत में कई प्रख्यात जल तरंग वादक हुए हैं जिनमें रामराव परसत्वर, डॉ० रागिनी त्रिवेदी, श्रीमति रंजना प्रधान, शंकर राव कनहेरे, अनयमपट्टि एस. धन्द्पानि, मिलिन्द तुलंकर, नेमानी सौमयाजुलु, सेजल चोकसी और बलराम दूबे प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पाकिस्तान के लियाक़त अलि भी खासे प्रसिद्ध जल तरंग शिल्पी हैं। आज के दौर में मिलिन्द तुलंकर एक ऐसा नाम है जिसे भारत के सर्वश्रेष्ठ जल तरंग वादकों में लिया जाता है। मिलिन्द का जन्म तथा लालन-पालन एक "संगीतमय" परिवार में हुआ तथा उन्होंने बहुत ही कम आयु से ही जल-तरंग की विद्या अपने नाना स्वर्गीय पं० शंकरराव कनहेरे से प्राप्त करनी शुरू कर दी थी। पं० शंकरराव कनहेरे स्वयं एक विख्यात जल तरंग वादक थे तथा ऑल इण्डिया रेडियो के 'ए-ग्रेड' यानि प्रथम श्रेणि के कलाकारों में एक थे। उन्होंने देश-विदेश में कई समारोह प्रस्तुत कर जल तरंग को लोकप्रिय बनाया और इस वाद्‍य पर एक पुस्तक भी लिखी जिसे संगीत कार्यालय(हाथरस) ने प्रकाशित किया था। तो लीजिए पेश है उनकी छत्रछाया में पले-बढ़े मिलिन्द तुलंकर की इस प्रस्तुति का एक विडियो, आनंद लीजिए!



और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए इस टुकड़े को और पहचानिए कि यह कौन सी लोक-शैली है जो चैत्र के महीनें में गायी जाती है। गायिका आज के दौर के एक सुप्रसिद्ध अभिनेता कि माँ थीं, उन्हें पहचानने पर ५ बोनस अंक!




पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी ने राग को बिलकुल सही पहचाना और ५ अंक अर्जित कर लिए हैं। बधाई!

लीजिए, हम आ पहुँचे हैं 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर। आशा है आपको यह कड़ी पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, और शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पधारना न भूलिएगा, आपके प्रिय सुजॉय चटर्जी प्रस्तुत करेंगे एक नई लघु शृंखला, नमस्कार!

प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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