Saturday, March 12, 2011

ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - आनंद लीजिए एक अनूठे क्रिकेट का जो हैं "ही" और "शी" के बीच सदियों से जारी...



नमस्कार! दोस्तों, पिछले दिनों आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में २०११ विश्वकप क्रिकेट को समर्पित हमारी लघु शृंखला 'खेल खेल में' सुन व पढ़ रहे थे। यह शृंखला थी दस अंकों की। लेकिन दोस्तों, आपको नहीं लगता कि क्रिकेट के लिए दस का आँकड़ा कुछ बेमानी सा है? क्योंकि इसमें ग्यारह खिलाड़ी भाग लेते हैं और देखिये यह साल भी २०११ का है, ऐसे में इस शृंखला के अगर ग्यारह अंक होते तो ज़्यादा न अच्छा रहता? तो इसीलिए हमनें सोचा कि आज का यह विशेषांक समर्पित किया जाये क्रिकेट को और इस तरह से इसे आप 'खेल खेल में' शृंखला की ग्यारहवीं कड़ी भी मान सकते हैं।

क्रिकेट और विश्वकप के इतिहास से जुड़ी तमाम बातों और रेकॊर्ड्स का हमनें पिछले दिनों ज़िक्र किया। आइए आज बात करें कनाडा के क्रिकेट टीम की। शायद आप हैरान हो रहे होंगे कि बाकी सब छोड़ कर अचानक कनाडियन क्रिकेट टीम में दिलचस्पी क्यों? दरअसल बात कुछ ऐसी है कि कनाडियन क्रिकेट टीम में एक नहीं, दो नहीं, बल्कि बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो दक्षिण-एशियाई मूल के हैं, यानी कि भारत, पाक़िस्तान और श्रीलंका के। और वर्तमान २०११ के विश्वकप के टीम में भी कम से कम सात भारतीय मूल के खिलाड़ी हैं। आइए आज इन सब से आपका संक्षिप्त में परिचय करवाएँ। कनाडियन क्रिकेट टीम के वर्तमान कप्तान हैं आशिष बगई। २९ वर्षीय इस खिलाड़ी का जन्म दिल्ली में २६ जनवरी १९८२ को हुआ था। दाहिनी हाथ के बल्लेबाज़ होने के साथ साथ वे विकेट-कीपर भी हैं। इन्होंने अपना पहला ODI बांगलादेश के ख़िलाफ़ ११ फ़रवरी २००३ को खेला था, यानी कि उस वक़्त उनकी उम्र थी २१ वर्ष। इससे पहले १९९६ के Under-15 क्रिकेट विश्वकप में उन्होंने अपनी शुरुआत की, जिसमें वो सर्वश्रेष्ठ विकेट-कीपर के रूप में चुने गये थे। साल २००० के Under-19 विश्वकप में उनका बैटिंग् ऐवरेज सब से उपर था। तब से लेकर आज तक आशिष कनाडा टीम के स्थायी सदस्य बनें हुए हैं।

आशिष बगई के बाद आइए बात करें बालाजी राव की। ३३ वर्षीय इस कनाडियन क्रिकेटर का पूरा नाम है वनदवासी दोराकांति बालाजी राव। ४ मार्च १९७८ को मद्रास (चेन्नई) में जन्में बालाजी मूलत: एक बोलर हैं और उनका बोलिंग् स्टाइल है 'राइट आर्म लेग ब्रेक'। बल्लेबाज़ी वे बायें हाथ से करते हैं। बालाजी को उनके सह-खिलाड़ी 'बाजी' कहकर बुलाते हैं। बाजी नें अपना पहला ODI वेस्ट इण्डीज़ के ख़िलाफ़ २४ अगस्त २००८ को खेला था। और अब कुछ गल हो जाये तीन पंजाबी मु्ण्डे दी? जी हाँ, २०११ विश्वकप के कनाडा टीम में पंजाबी मूल के तीन खिलाड़ी शामिल हैं। हरवीर बैदवान एक ऒल-राउण्डर हैं, जिनका जन्म चण्डीगढ़ में ३१ जुलाई १९८७ को हुआ था। दायें हाथ से बल्लेबाज़ी करने वाले इस खिलाड़ी का बोलिंग् स्टाइल है 'राइट-आर्म मीडियम'। इन्होंने अपना पहला ODI बरमुडा के ख़िलाफ़ २८ जून २००८ को खेला था। फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट में हरवीर ने अपना डेब्यु कोल्ट्स क्रिकेट क्लब में रहकर किया था और वह मैच थी रागमा क्रिकेट क्लब के ख़िलाफ़, जो कोलम्बो में खेली गई थी २००९ अक्तुबर २ से ४ के बीच। दूसरा पंजाब दा मुण्डा है जिम्मी हंसरा, जिनका जन्म लुधियाना में २९ दिसंबर १९८४ को हुआ था। जिम्मी भी हरवीर की तरह ऒल-राउण्डर हैं, लेकिन इनका बोलिंग् स्टाइल है 'राइट आर्म स्लो'। जिम्मी नवोदित खिलाड़ी हैं जिन्होंने अपना पहला ODI अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ १ जुलाई २०१० को खेला था। लुधियाना से ही ताल्लुख़ रखने वाले एक और कनाडियन प्लेयर हैं नितिश कुमार। १६ वर्षीय इस युवा खिलाड़ी का जन्म २१ मई १९९४ को कनाडा के ही ऒण्टारिओ में हुआ था। नितिश के पिता लुधियाना निवासी थे। नितिश कनाडा टीम के सब से कम उम्र के खिलाड़ी हैं जो कनाडा के लिए Under-15 और Under-19 में खेल चुके हैं। नितिश का निक-नेम 'रॊनी' है और उसे कनाडा का 'तेदुलकर' भी कहा जाता है। नितिश ने भी अपना ODI डेब्यु अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ एक मैच में किया था १८ फ़रवरी २०१० के दिन।

२०११ विश्वकप क्रिकेट के कनाडा टीम में दो खिलाड़ी गुजराती मूल के भी हैं। इनमें पहला नाम है हीरालाल पटेल का। १० अगस्त १९९१ को अहमदाबाद, गुजरात में जन्में २० वर्षीय हीरालाल मूलत: दायें हाथ के बल्लेबाज़ हैं। वो एक स्ट्रोक-प्लेयिंग् ओपेनर हैं। उनका बोलिंग् स्टाइल 'स्लो लेफ़्ट आर्म ऒर्थोडोक्स' है। केनिया के ख़िलाफ़ १९ अगस्त २००९ के मैच से हीरालाल पटेल ने अपना ODI सफ़र शुरु किया। हीरालाल सुर्ख़ियों में आ गये थे ६१ गेंदों में नॊट-आउट रहकर ८८ रन बनाने के लिए जिसने कनाडा को आयरलैण्ड पर ४ रन से जीत दिलाई थी, और वह भी तब जब आयरलैण्ड फ़ेवरीट थे। उनके इस प्रदर्शन नें कनाडा टीम में उनके क़दम और मज़बूती से जमा दिए। नवसारी, गुजरात में ११ दिसंबर १९९० को जन्म हुआ था पार्थ देसाई का, जो कनाडा टीम के बोलर हैं और हीरालाल की तरह उनका भी बोलिंग्‍ शैली 'स्लो लेफ़्ट आर्म ऒर्थोडोक्स' है। पार्थ के अनुसार उनका बोलिंग् अंदाज़ मॊण्टी पानेसर जैसा है। उनके हीरो हैं सचिन तेन्दुल्कर, और भारत का २००७ में पहला T-20 विश्वकप जीतना उनके लिए सब से यादगार घटना है। पार्थ देसाई ने १३ अप्रैल २०१० को अपना पहला ODI मैच खेला था वेस्ट इण्डीज़ के ख़िलाफ़। दोस्तों, अब तक हमनें उन भारतीय मूल के खिलाड़ियों का ज़िक्र किया जो २०११ विश्वकप क्रिकेट के अन्तर्गत कनाडा क्रिकेट टीम में खेल रहे हैं। इनके अलावा पाक़िस्तान के रिज़वान चीमा, ज़ुबीन सुरकारी, और ख़ुर्रम चौहान भी इस १४ खिलाड़ी टीम में शामिल हैं। साथ ही श्रीलंका मूल के रुविंदु गुणशेखरा भी इसी दल के सदस्य हैं।

कनाडियन क्रिकेट टीम के भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका मूल के उन खिलाड़ियों के बारे में अभी हमनें चर्चा की जो २०११ विश्वकप के टीम में हैं। इन खिलाड़ियों के अलावा भी और भी बहुत सारे दक्षिण एशियाई (भारत/ पाक़िस्तान/ श्रीलंका) मूल के क्रिकेटर कनाडा टीम से जुड़े रहे हैं, जो २०११ विश्वकप के टीम में शामिल नहीं है। इनमें महत्वपूर्ण कुछ नाम हैं - अब्दुल सामद, अब्दुल जब्बर, अब्ज़ल दीन, आफ़्ताब शम्सुद्दीन, अरसलन क़ादिर, अरविंदर कदप्पा, आशिफ़ मुल्ला, आशिष पटेल, फ़ाज़िल सत्तौर, हमज़ा तारीक़, हनिंदर ढिल्लों, ईश्वर मराज, जैसन पटराज, जावेद दावूद, जीतेन्द्र पटेल, करुण जेठी, मणि औलख, मनरीक सिंह, मोहम्मद इक़बाल, मोहम्मद क़ाज़ी, मोहसिन मुल्ला, क़ैसर अली, रमेश डेविड, सामी फ़रेदी, संदीप ज्योति, संजयन थुरइसिंगम, शाहीद केशवानी, शहज़ाद ख़ान, सुनिल धनीराम, सुरेन्द्र सीराज, तारीक़ जावेद, उमर भट्टी, उस्मान लिम्बडा, ज़मीर ज़ाहीर, और ज़ीशान सिद्दिक़ी। देखा, आपने दक्षिण एशिया मूल के कितने खिलाड़ी सदस्य हैं या रह चुके हैं कनाडियन क्रिकेट टीम के!

और अब गीत-संगीत की बारी। 'खेल खेल में' शृंखला में हमनें क्रिकेट खेल पर आधारित केवल एक ही गीत सुना था, फ़िल्म 'अव्वल नंबर' का। आज आइए १९५९ की फ़िल्म 'लव मैरेज' से क्रिकेट पर बना एक गीत सुनते हैं। मोहम्मद रफ़ी और साथियों की आवाज़ों में यह गीत है "शी ने खेला ही से आज क्रिकेट मैच..."। गीतकार हसरत जयपुरी और संगीतकार शंकर-जयकिशन। इसे आप एक क्रिकेट सॊंग् भी कह सकते हैं और एक कॊमेडी सॊंग् भी, या फिर एक रोमांटिक सॊंग् भी। लेकिन इसमें जो रोमांस है न, यह काव्यात्मक शब्दों से नहीं, बल्कि क्रिकेट की शब्दावली से व्यक्त हो रहा है। इस गीत के फ़िल्मांकन में देव आनंद साहब बल्लेबाज़ी करते हुए दिखाये जा रहे हैं और गैलरी में दूसरे लोगों के साथ नायिका माला सिंहा और उनकी सहेलियाँ शामिल हैं। देव साहब को इस क्रिकेटर वाले रूप में देख कर कुछ कुछ डॊन ब्रैडमैन की यादें ताज़ी हो जाती हैं। तो आइए इस मज़ेदार गीत को सुनने से पहले पढ़ें इसके मज़ेदार बोल...
She ने खेला He से आज cricket match,

एक नज़र में दिल बेचारा हो गया LBW।
आज जो हम field में तड़ तड़ बाजी ताली,
अरे मुख पर हसीनों के आ गई फिर से लाली,
सन सन करती ball से ख़ुद को तो बचाये,
पर दिल बटुये में ले गई इक चम्पे की ताली।
दिल के versus दिल का हार गए हम match,
एक नज़र में दिल बेचारा हो गया LBW।

हमनें जब घुमाया प्यार का ये बल्ला,
अरे लैलाओं के tent में मच गया फिर से हल्ला,
जो भी गेंद आई तो चौका ही फटकारा,
पर होश हमारा ले गई इक साड़ी का पल्ला।
उन ज़ुल्फ़ों के तार ने डाले सौ सौ पेंच,
एक नज़र में दिल बेचारा हो गया LBW।

उसनें फेंका leg-break तो हमनें मारा चौका,
Out करता कौन हमें हम खिलाड़ी पक्का,
अरमानों की tent से बढ़ गए हम आगे,
और उनकी चाल देख कर रह गए हक्का बक्का।
Cricket में तो जीत गए पर हारे प्यार का मैच,
एक नज़र में दिल बेचारा हो गया LBW।


गीत: She ने खेला He से आज क्रिकेट मैच (लव मैरेज, १९५९)


तो ये था इस हफ़्ते का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष'। आशा है आपको अच्छा लगा होगा। इसी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर विश्वकप क्रिकेट की चर्चा भी होती है पूरी। टीवी पर विश्वकप मैचों का लुत्फ़ उठाते रहिए, और 'आवाज़' पर गीत संगीत से अपने दिल को बहलाते रहिए। कल सुबह ९ बजे सुमित के साथ 'सुर-संगम' का आनंद लीजिएगा, और मेरे साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई शृंखला के पहले अंक में शामिल होइएगा ठीक शाम ६:३० बजे। अब इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

सुनो कहानी: हँसी - असग़र वजाहत



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में अनुराग शर्मा की कहानी "जाके कभी न परी बिवाई" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं असग़र वजाहत की एक कहानी "हँसी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "हँसी" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 26 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट लघुकथा.com पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं।
~ असगर वज़ाहत

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

डॉक्टर बोला, ‘‘नहीं, यह बीमारी नहीं है, क्योंकि बीमारियों की किताब में इसका जि़क्र नहीं है।’’
(असग़र वजाहत की "हँसी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#122nd Story, Hansi: Asghar Wajahat/Hindi Audio Book/2011/5. Voice: Anurag Sharma

Thursday, March 10, 2011

तेरा करम ही तेरी विजय है....यही तो सार है गीता का और यही है मन्त्र जीवन के हर खेल का भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 610/2010/310

खेलकूद और ख़ास कर क्रिकेट की चर्चा करते हुए आज हम आ पहुँचे हैं लघु शृंखला 'खेल खेल में' की दसवीं और अंतिम कड़ी पर। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और हार्दिक स्वागत है इस सप्ताह की आख़िरी नियमित कड़ी में। विश्वकप क्रिकेट में आपने 'प्रुडेन्शियल कप ट्रॊफ़ी' की बात ज़रूर सुनी होगी। आख़िर क्या है प्रुडेन्शियल कप, आइए आज इसी बारे में कुछ बातें करते हैं। जैसा कि आप जानते हैं पहला विश्वकप १९७५ में खेला गया था। इसकी शुरुआत ७ जून १९७५ को हुई थी। इसके बाद दूसरा और तीसरा विश्वकप भी इंगलैण्ड में ही आयोजित हुआ था और इन तीनों प्रतियोगिताओं को प्रुडेन्शियल कप का नाम दिया गया, इनके प्रायोजक प्रुडेन्शियल कंपनी के नाम पर। इन मैचों में हर टीम को ६० ओवर मिलते बल्लेबाज़ी के लिए, खेल दिन के वक़्त होता था, और खिलाड़ी सफ़ेद कपड़े पहनते और गेंद लाल रंग के हुआ करते थे। जिन आठ देशों ने पहला विश्वकप खेला था, उनके बारे में हम बता ही चुके हैं, आज इतना ज़रूर कहना चाहेंगे कि दक्षिण अफ़्रीका को खेल से बाहर रखा गया था 'अपारथेड' (वर्ण-विद्वेष) की वजह से। पहला विश्वकप वेस्ट इंडीज़ ने जीता था ऒस्ट्रेलिया को १७ रनों से हराकर। १९७९ के विश्वकप से ICC ट्रॊफ़ी लागू हुई और टेस्ट नहीं खेलने वाले देशों को भी विश्वकप में भाग लेने की अनुमति हो गई। श्रीलंका और कनाडा दो ऐसे देश थे। वेस्ट इंडीज़ दूसरी बार के लिए विश्वकप जीता, इस बार इंगलैण्ड को फ़ाइनल में ९२ रनों से हराकर। और इस विश्वकप के तुरंत बाद इस प्रतियोगिता को चार सालों में एक बार आयोजित करने का भी निर्णय ले लिया गया। १९८३ का विश्वकप भी इंगलैण्ड में ही खेला गया, और ज़िमबाबवे इस बार से विश्वकप में दाख़िल हो गया। इस विश्वकप से 'फ़ील्डिंग् सर्कल' का नियम लागू हुआ, जो स्टम्प्स से ३० यार्ड, यानी २७ मीटर की दूरी पर होता है। इस सर्कल के भीतर चार फ़ील्डर रह सकते हैं। कपिल देव की टीम ने वेस्ट इंडीज़ को फ़ाइनल में हराकर इतिहास कायम कर दिया था। तो दोस्तों, ये थी कुछ बातें प्रुडेन्शियल कप की, यानी पहले तीन विश्वकप क्रिकेट शृंखलाओं की।

'खेल खेल में' शृंखला की पहली कड़ी में हमने जो गीत सुनवाया था, उससे हमें यही संदेश मिला था कि दूसरों पर विजय प्राप्त करने से पहले हमें अपने आप पर जीत हासिल करना आवश्यक है। फिर उसके बाद अगले आठ अंकों में हमने अलग अलग तरह के गानें सुनवाए, जिनमें प्रतियोगिता की बातें थीं, किसी को चुनौती देने की बात थी, कहीं किसी को सीधा टक्कर दिया जा रहा था तो कभी ज़िंदगी में पास-फ़ेल की बातें भी हो रही थीं। और एक आध गीतों से तो ओवर-कॊन्फ़िडेन्स की बू भी आ रही थी। लेकिन आज हम फिर एक बार कुछ कुछ अपने पहले अंक के गीत के भाव की तरफ़ वापस जा रहे हैं, और एक ऐसा गाना आपको सुनवाने जा रहे हैं, जिसमें वही उपदेश दिया गया है जो सैंकड़ों साल पहले महाभारत की युद्ध भूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था - "कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन"। जी हाँ, बस कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो। इसी का एक आधुनिक संस्करण अभी हाल ही में आमिर ख़ान ने दिया था '३ इडियट्स' फ़िल्म में - "कामयाब नहीं काबिल होने के लिए पढ़ो, कामयाबी झक मार के पीछे आयेगी"। आज हम आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'विजय' से "दुनिया बनी है जब से, गीता बोले तब से, तेरा करम ही तेरी विजय है"। आनंद बक्शी के बोल और शिव हरि का संगीत। इस गीत के दो संस्करण है, एक आशा भोसले की आवाज़ में और एक महेन्द्र कपूर का गाया हुआ। जहाँ आशा जी वाला वर्ज़न थोड़ा धीमा है, महेन्द्र कपूर वाले वर्ज़न में ज़्यादा जोश है और एक देशभक्ति गीत वाला रंग है, ठीक वैसा ही जैसा कि महेन्द्र कपूर साहब देश भक्ति रचनाएँ गाते आये हैं। और इसी के साथ 'खेल खेल में' शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिए। २०११ विश्वकप क्रिकेट के सभी खिलाड़ियों को, और आप सभी क्रिकेट प्रेमियों को हम शुभकामनाएँ देते हैं, और आख़िर में यही कहते हैं कि "May the best team win!!!" नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि गायक महेन्द्र कपूर ने १९५६ की फ़िल्म 'दीवाली की रात' में अपना पहला गीत गाया था "तेरे दर की भीख माँगी है दाता", जिसे मधुकर राजस्थानी ने लिखा तथा स्नेहल भाटकर ने स्वरबद्ध किया था। वैसे १९५५ की फ़िल्म 'मधुर मिलन' के गीत "जोरु ने निकाला है दीवाला" मेम रफ़ी साहब व अन्य गायकों के साथ महेन्द्र कपूर की भी आवाज़ शामिल थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - ये एक गैर फ़िल्मी ठुमरी है.

सवाल १ - किसकी आवाज़ है, पहचानिये - १ अंक
सवाल २ - ये गायिका किस मशहूर अभिनेत्री की माँ थी - ३ अंक
सवाल ३ - इस पहली महिला संगीतकारा ने एक फिल्म निर्माण कंपनी की स्थापना की, क्या था उनकी इस कंपनी का नाम - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी अब ५ श्रृंखलाओं में विजयी होकर श्याम कान्त जी से आगे निकल आये हैं जो ४ सीरिस में विजेता रहे थे, वैसे श्याम कान्त जी इन दिनों कहाँ गायब हैं, पता नहीं, अगर वो होते तो मुकाबल और रोचक होता, श्याम जी नयी शृंखला शुरू हो रही है, आईये फिर से सक्रिय हो जाईये....वैसे अंजाना जी और विजय जी भी अमित जी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं इसमें कोई शक नहीं....नयी शृंखला के लिए सभी को शुभकामनाये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 9, 2011

हु तू तू....भई घर गृहस्थी की नोंक झोंक भी तो किसी कबड्डी के खेल से कम नहीं है न...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 609/2010/309

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों विश्वकप क्रिकेट के उत्साह को और भी ज़्यादा बढ़ाने के लिए हम भी खेल-कूद भरे गानें लेकर उपस्थित हो रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'खेल खेल में' के अंतर्गत। अभी परसों ही हम बातें कर रहे थे विश्वकप प्रारंभ होने से पहले के क्रिकेट के बारे में। आइए आज आपको बतायें कि एक दिवसीय मैच, यानी कि वन डे इंटरनैशनल की शुरुआत किस तरह से और कब हुई थी। १९६० के दशक के शुरुआत में ब्रिटिश काउण्टी क्रिकेट टीम्स क्रिकेट के एक छोटे स्वरूप को खेलना शुरु किया जो केवल एक ही दिन का होता था। १९६२ में चार प्रतिभागी दलों के बीच प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसका शीर्षक था 'मिडलैण्ड्स नॊक आउट कप'। उसके बाद १९६३ में 'जिलेट कप' लोकप्रिय हो जाने से एक दिवसीय क्रिकेट की तरफ़ लोगों का रुझान बढ़ने लगा। १९६९ में एक नैशनल सण्डे लीग का गठन हुआ और पहला एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला गया बारिश से प्रभावित एक क्रिकेट टेस्ट मैच के पाँचवे दिन। यह मैच था इंगलैण्ड और ऒस्ट्रेलिया के बीच जो १९७१ में मेलबोर्ण में खेला गया था। यह मैच खेला गया था जनता को शांत करने के लिए जो पिछले चार दिनों से बारिश की वजह से टेस्ट मैच का आनंद नहीं उठा पा रहे थे। यह एक ४० ओवर का मैच था और प्रति ओवर ८ गेंदें फेंके गये। इंगलैण्ड के घरेलू एक दिवसीय मैचों की अपार सफलता और लोकप्रियता के मद्देनज़र यह पद्धति विश्व के दूसरे देशों ने भी आज़माना चाहा और इस तरह से इंटरनैशनल क्रिकेट काउनसिल (ICC) ने क्रिकेट विश्वकप प्रतियोगिता की योजना बना डाली। बाकी इतिहास है।

इस शृंखला में कल हमने आपको कबड्डी पर आधारित एक गीत सुनवाया था, जिसमें दो लड़कियों के दल आपस में भिड़ रहे थे। आज का गीत भी कबड्डी पर ही आधारित है लेकिन इस बार मुक़ाबला नारी और पुरुष के बीच है। लता मंगेशकर और महेन्द्र कपूर की आवाज़ में यह "हु तु तु" गीत है १९६१ की फ़िल्म 'मेमदीदी' का। शैलेन्द्र का गीत और सलिल चौधरी का संगीत। झूठ नहीं बोलूँगा, यह गीत मैंने पहले कभी नहीं सुना हुआ था। खेलों पर आधारित गीत ढूंढते हुए यह गीत अचानक मेरे हाथ लगा और आपको भी सुनवाने का मन हुआ। इसका कारण है कि यह गीत दूसरे गीतों से कई बातों में ज़रा हटके है। यह गीत पति पत्नी के बीच के छेड़-छाड़ को दर्शाता है कबड्डी के खेल के माध्यम से। दोनों ही अपने अपने लिए कहते हैं कि उन्हें मेहनत करनी पड़ती है और दूसरा मज़े ले रहा/रही है। शैलेन्द्र जी ने काफ़ी मज़ेदार बोल लिखे हैं। फ़िलर के तौर पर इस्तमाल किया गया "हु तु तु" गीत का कैच लाइन है। मेमदीदी शब्द की बात करें तो बताना चाहूँगा कि बंगाल में इस शब्द का बहुत इस्तमाल होता है जिसका अर्थ मेमसाब ही है। बंगाल में दादा और दीदी का ख़ूब इस्तमाल होता है, शायद इसी वजह से मेमदीदी का चलन है वहाँ पर। इस गीत में सलिल दा ने महेन्द्र कपूर की आवाज़ ली है और शायद यह इस तरह का एकमात्र गीत है महेन्द्र-सलिल कम्बिनेशन का। तो आइए इस दुर्लभ और कमसुने गीत का आज आनंद लें, और खेल के इन दिनों बने हुए मूड को बरक़रार रखें।



क्या आप जानते हैं...
कि सलिल चौधरी पहली बार १९४९ में एक बंगला फ़िल्म 'परिवर्तन' में संगीत देकर फ़िल्म संगीत जगत में प्रवेश किया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - कोई नहीं.

सवाल १ - फिल्म में गीत के दो संस्करण हैं, एक आशा की आवाज़ में दूसरा बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार जोड़ी का नाम - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

दोस्तों वैसे तो ये इस शृंखला की आखिरी पहेली है....पर इस बार कुछ नया है....आज हम दे रहे हैं एक बोनस सवाल, जिसके अंक हैं ५....यानी इस एक सवाल के साथ किसी भी तरह का उलटफेर संभव है. तो शुभकामनाएँ सभी को, सवाल ये है -

आपने खेलों से जुड़े १० गीत सुने, मगर एक गीत जो आधारित है क्रिकेट पे और जो समर्पित है एक बड़े क्रिकेट खिलाडी के नाम (वीडियो के हिसाब से) इस शृंखला में छूट गया है, जो हम सुन्वायेंगें ओल्ड इस गोल्ड के शनिवार विशेष में, आपने पहचानना है वो गीत....जो ठीक वही गीत पहचान लेगा जो हम बजायेंगें उसी के नाम होंगें ये बोनस ५ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी आगे हैं पर आज कुछ भी हो सकता है....तो हमें भी इंतज़ार रहेगा...शुभकामनाएँ...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

मन लागो यार फ़क़ीरी में: कबीर की साखियों की सखी बनकर आई हैं आबिदा परवीन, अगुवाई है गुलज़ार की



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११

सूफ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़।

माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे,
मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।


आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं।

मन लागो यार फ़क़ीरी में...

एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अपनी आवाज़ का सम्मोहन डालना शुरू करतीं, उस सम्मोहन को और पुख्ता बनाने के लिए गुलज़ार साहब अपनी पुरकशिश शख्सियत के साथ आबिदा की अगुवाई करने आ पहुँचते हैं। "रांझा-रांझा करदी नी" कहते हुए जब गुलज़ार की आवाज़ हमारे कानों तक पहुँचती है तो पहले हीं मालूम हो जाता है कि अगले १०-१५ मिनट तक हमें कुछ और नहीं सूझने वाला। यकीन मानिए, मेरी तो यही हालत थी और मैं पक्के दावे के साथ कह सकता हूँ कि "गुलज़ार प्रजेन्ट्स कबीर बाई आबिदा" के गानों/साखियों/दोहों को सुनते वक़्त आप एक ट्रान्स में चले जाएँगे.. डूब जाएँगे भक्ति के इस दरिया में।

कबीर दास... एक ऐसा इंसान जो जितना जाना-पहचाना है, उतना हीं अनजाना भी है। उसे आप जितना समझते हैं, उससे ज्यादा वह अनबुझा है। उसे बूझने की कईयों ने कोशिश की, कई पहुँचे भी उसके आस-पास, लेकिन कभी वह रेगिस्तान की मरीचिका की तरह दूर निकल गया तो कभी खुर्शीद की तरह इतना चमका कि झुलसने के डर से लोग पीछे की ओर खिसक गए। वह क्या था? हिन्दू.. मुसलमान.. ब्राह्मण.. शूद्र... सूफ़ी.. साधु... कोई सही से नहीं कह सकता। असल में वह सब कुछ था और कुछ भी नहीं। वह किसी भी पंथ के खिलाफ़ था और इस बात के भी खिलाफ़ था कि उसकी कही बातें कहीं कोई पंथ न बन जाए। वह फ़क्कड़ था.. मस्तमौला.. इसलिए बनी बनाई हर चीज़ को बिगड़ने का एक साधन मानता था। वह अस्वीकार करना जानता था.. बस अस्वीकार..

"हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" पुस्तक में "बच्चन सिंह" कहते हैं:

कबीर दास को कोई भी मत स्वीकार्य नहीं है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करता है। उन्हें कोई भी अनुष्ठान या साधना मंजूर नहीं है जो बुद्धि-विरूद्ध है। उन्हें कोई भी शास्त्र मान्य नहीं है जो आत्मज्ञान को कुंठित करता है। वेद-कितेब भ्रमोत्पादक हैं अत: अस्वीकार्य हैं। तीर्थ, व्रत, पूजा, नमाज, रोजा गुमराह करते हैं इसलिए अग्राह्य हैं। पंडित-पांडे, काजी-मुल्ला उन धर्मों के ठेकेदार हैं जो धर्म नहं हैं। अत: घृणास्पद हैं।

वे वैष्णवों को अपना संगी मानते हैं, किंतु विष्णु को चौदह भुवनों का चौधरी कहकर मजाक उड़ाते हैं। शाक्तों से उन्हें घृणा है - "साकत काली कामरी"। हिन्दू-तुर्क दोनों झूठे हैं। वे अकरदी, सकरदी सूफी पर हँसते हुए उसे अपना वचन मानने का उपदेश देते हैं। गोरखनाथ उनके श्रद्धेय हैं पर गोरखपंथी उपहास्य। "चुंडित-मुंडित" श्रावकों और श्रमणों के लिए उनके यहाँ जगह नहीं है। तात्पर्य यह कि वे अपने समय के समस्त मतों को खारिज कर देते हैं। उनसे बड़ा मूर्ति-भंजक (आइकनोक्लास्ट) इतिहास में दूसरा नहीं है।

यह कहना कि वे समाज-सुधारक थे, गलत है। यह कहना कि वे धर्म-सुधारक थे, और भी गलत है। यदि सुधारक थे तो रैडिकल-सुधारक। वे धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। वे कोई भी पंथ खड़ा करने के पक्षपाती नहीं थे। वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिन्दू हो न मुसलमान, न पूजा हो न नमाज, न पंडित हो न मुल्ला, सिर्फ़ इंसान हो।

वे निर्गुण धारा के प्रवर्तक थे। पर उनका निर्गुणपंथ सूफ़ियों के निर्गुणवाद से किंचित भिन्न था। कबीर का ब्रह्म न वेद-वर्णित ईश्वर है, न कुरान-वर्णित ख़ुदा। वह इन दोनों से न्यारा है। वह निर्गुण की लीकबद्धता से अलग है। निर्गुण सम्बन्धी सारी शास्त्रोक्त शब्दावली ग्रहण करते हुए भी वह शास्त्रेतर हो जाता है। यदि उनका निर्गुण शास्त्रोक्त निर्गुण हीं होता तो उससे निम्न वर्ग का कैसे काम चलता?

सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जितना काम अकेले कबीर ने किया उतना अन्य संतों और सगुणमार्गियों ने मिलकर भी नहीं किया। उनकी चोटों की मार से, जातिवाद के संरक्षक पंडित और मौलवी समान रूप से दु:खी हैं। वे सबसे अधिक आधुनिक और सबसे अधिक प्रासंगिक हैं।

कबीरदास आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसे समझना हो तो गुलज़ार की "मेरे यार जुलाहे" से बड़ा कोई उदाहरण नहीं होगा। टूटते रिश्ते की कसक और उसे जोड़ने में अपनी मजबूरी को दर्शाने के लिए गुलज़ार सीधे-सीधे कबीर को याद करते हैं और कहते हैं कि "मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे".. भला कौन होगा जो कबीर से यह तरकीब न जानना चाहेगा.. आखिर अलादीन का कौन-सा वह चिराग था जो कबीरदास के हाथ लग गया था, जिससे वह सीधे-सीधे ऊपरवाले से जुड़ जाते थे.. जिससे वह सीधे-सीधे धरती के इंसानों से जुड़ जाते थे, जुड़ जाते हैं।

हम आगे की कड़ियों में कबीरदास से इसी तरकीब को जानने की कोशिश जारी रखेंगे। तबतक संगीत की शरण में चलते हैं और डूब जाते हैं बेग़म आबिदा परवीन की स्वरलहरियों में। चलिए.. चलिए.. बढिए भी.. देखिए तो गुलज़ार साहब किस शिद्दत से हम सबको बुला रहे हैं। झूमकर कहिए "मन लागो यार फ़क़ीरी में"

मन लागो यार फ़क़ीरी में!

कबीरा रेख सिन्दूर, उर काजर दिया न जाय ।
नैनन प्रीतम रम रहा, दूजा कहां समाय ॥

प्रीत जो लागी भुल गयि, पीठ गयि मन मांहि ।
रोम रोम पियु पियु कहे, मुख की सिरधा नांहि ॥

मन लागो यार फ़क़ीरी में,
बुरा भला सबको सुन लीजो, कर गुजरान गरीबी में ।

सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती _____ आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरू आपणे, गोविन्द दियो बताय ॥

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझ को सौंप दे, क्या लागे है मेरा ॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहि ।
जब अन्धियारा मिट गया, दीपक देर कमांहि ॥

रूखा सूखा खाय के, ठन्डा पानी पियो ।
देख परायी चोपड़ी मत ललचावे जियो ॥

साधू कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खुजूर ।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकना-चूर ॥

मन लागो यार फ़क़ीरी में,
आखिर ये तन खाक़ मिलेगा, क्यूं फ़िरता मगरूरी में ॥

लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात ।
दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फ़ीकी पड़ी बारात ॥

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावे सोय ॥

हद हद जाये हर कोइ, अन-हद जाये न कोय ।
हद अन-हद के बीच में, रहा कबीरा सोय ॥

माला कहे है काठ की तू क्यूं फेरे मोहे ।
मन का मणका फेर दे, सो तुरत मिला दूं तोहे ॥

जागन में सोतिन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डार लागी रहे, तार टूट नहीं जाये ॥

पाहन पूजे हरि/अल्लाह मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ताते या चक्की भली, पीस खाये संसार ॥

कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होइ ।
सीस चढाये गांठड़ी, जात न देखा कोइ ॥

हरि से ते हरि-जन बड़े, समझ देख मन मांहि ।
कहे कबीर जब हरि दिखे, सो हरि हरि-जन मांहि ॥

मन लागो यार फ़क़ीरी में,
कहे कबीर सुनो भई साधू, साहिब मिले सुबूरी में ।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-

थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,
तन्हाई तो होगी, अहसास कम होगा

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

या मेरे जहन से यादो के दिये गुल कर दो,
मेरे एहसास की दुनिया को मिटा दो हमदम.
रात तारे नही अँगारे लिये आती है,
इन बरसते हुए शोलो को बुझा दो हमदम...

जिस कलम से जिंदगी को लिखा,
उस अहसास की रोशनाई भी तेरी - मंजु जी

मर मर के जी रहा हूँ और क्या करूँ
ज़ख्मों को सी रहा हूँ और क्या करू
तेरा एहसास जो पड़ा है खाली जाम की तरह
अश्क भर भर के पी रहा हूँ और क्या करूँ - अवनींद्र जी

तेरे होने का एहसास शेष रहा,
"मैं" का न तनिक अवशेष रहा. - पूजा जी

पिछली महफ़िल की शुरूआत सुजॉय जी की टिप्पणी से हुई। सातों बार बोले बंसी सुनकर मज़ा तो आना हीं था क्योंकि हमें यह गाना और इसके पीछे की कहानी आपकी वज़ह से हीं मयस्सर हो पाई थी। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। सुमित जी, आपने सही शब्द की पहचान की और उसपर शेर कहे, इसलिए आपको "शान-ए-महफ़िल" घोषित किया जाता है। शायर का नाम तो मुझे भी नहीं मालूम। पता करने की कोशिश कर रहा हूँ। सजीव जी, ज़रूर कभी हम भी ऐसा कुछ करेंगे। अभी तो अपनी बस शुरुआत है। कुहू जी, मुझसे ज्यादा शुक्रिया के हक़दार सुजॉय जी और सजीव जी हैं, लेकिन मैं अपनी मेहनत को भी कम नहीं आंकता। इसलिए आपका धन्यवाद स्वीकार करता हूँ। ऐसे हीं आते रहिएगा महफ़िल में। मंजु जी एवं पूजा जी, आप दोनों के स्वरचित शेर काफ़ी उम्दा हैं। बधाई स्वीकारें! इंदु जी, मैं आपके भावनाओं और पसंद की कद्र करता हूँ। मुझे संगीत की कोई खासी समझ नहीं, मैं तो बस गीत के बोलों से प्रभावित होकर गीत की तरफ़ आकर्षित होता हूँ। इसलिए अगर किसी गाने से गुलज़ार साब का नाम जुड़ा है तो वह गाना ऐसे हीं मेरे लिए मास्टरपीस बन जाता है। अवनींद जी, महफ़िलें कद्रदानों से सजती हैं और जब तक हमारी महफ़िल के पास आप जैसा कद्रदान है, मुझे नहीं लगता हमें चिंता करने की ज़रूरत है। बाकी हाँ, टिप्पणियाँ कम तो हुई हैं और इसका कारण यह हो सकता है कि महफ़िल भी इन दिनों नियमित नहीं हो पाई। मैं आगे से कोशिश करूँगा कि गायब कम हीं होऊँ :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, March 8, 2011

हु तू तू....सुनिए अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर इस कब्बडी गीत को और सलाम कीजिए खेलों में जबरदस्त प्रदर्शन दिखाने वाली भारतीय महिलाओं को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 608/2010/308

ज है ८ मार्च, यानी कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। इस अवसर पर हम 'हिंद-युग्म' के सभी महिला मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए रोशन करते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के महफ़िल की शमा। क्योंकि इन दिनों हम क्रिकेट की बातें कर रहे हैं, इसलिए आज हम चर्चा करेंगे भारतीय महिला क्रिकेट की और उसके बाद सुनवाएँगे एक ऐसा खेल प्रधान गीत जिसमें आपको नारीशक्ति की महक मिलेगी। भारतीय महिला क्रिकेट टीम का गठन सन् १९७३ में हुआ और इस टीम ने अपना पहला टेस्ट मैच १९७६/७७ में खेला, जिसमें वेस्ट इंडीज़ के साथ प्रतियोगिता ड्रॊ हुई थी। पिछले विश्वकप में अच्छा प्रदर्शन करते हुए भारत फ़ाइनल तक पहुँचा, लेकिन ऒस्ट्रेलिया पर जीत न हासिल कर पायी। साल २००६ में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने इंगलैण्ड का दौरा किया जहाँ पर टेस्ट सीरीज़ १-० से अपने नाम किया, टी-२० जीता, लेकिन एक दिवसीय शृंखला ४-० से हार गयी। टीम की कप्तानी की झूलन गोस्वामी ने। ICC ने महिला क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए 'वीमेन्स क्रिकेट एसोसिएशन ऒफ़ इण्डिया' को 'भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड' (BCCI) के साथ मर्ज करवा दिया। महिला क्रिकेट विश्वकप में भारत की भागीदारी की बात करें तो ये रहा स्टैटिस्टिक्स:

१९७३: भाग नहीं लिया; १९७८: चतुर्थ स्थान; १९८२: चतुर्थ स्थान; १९८८: भाग नहीं लिया; १९९३: चतुर्थ स्थान; १९९७: तृतीय स्थान; २०००: तृतीय स्थान; २००५: द्वितीय स्थान; २००९: तृतीय स्थान

रेकॊर्ड्स की बात करें तो भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने सब से ज़्यादा ४६७ रन इंगलैण्ड के ख़िलाफ़ साल २००२ में बनाया था। सर्वाधिक रन बनाने का रेकॊर्ड मिताली राज के नाम दर्ज है, जिन्होंने उसी मैच में २१४ रन बनाये। बोलिंग में नीतू डेविड ने ५३ रन देकर ८ विकेट लिया था इंगलैण्ड के ख़िलाफ़ १९९५ को जमशेदपुर में। और झूलन गोस्वामी ने इंगलैण्ड के ही ख़िलाफ़ २००६ में ७८ रन देकर पूरे दस के दस विकेट्स लिए थे। दोस्तों, आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम सलाम करते हैं भारतीय महिला क्रिकेट टीम के सभी खिलाड़ियों को। और अब वादे के मुताबिक़ एक ऐसा गीत सुनिए जिससे नारी शक्ति की महक आ रही है। यह है फ़िल्म 'हमजोली' का कबड्डी वाला गीत "हु तु तु तु.... होशियार ख़बरदार, ख़बरदार होशियार"। आशा भोसले, कमल बारोट, और साथियों की आवाज़ों में यह मस्ती और प्रतियोगिता मूलक गीत है आनंद बक्शी साहब का लिखा हुआ और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का स्वरबद्ध किया हुआ। १९७० की इस फ़िल्म के इस गीत में लड़कियों की दो टीमों के बीच में कबड्डी की प्रतियोगिता हो रही है। जिस तरह से कबड्डी सांस पर नियंत्रण रखने का खेल है, ठीक वैसे ही आशा जी और कमल जी ने भी क्या सांसों को रोकने की क्षमता दिखाई है। गीत सुनिए, आपको अंदाज़ा हो जाएगा। ब्रेथलेस के साथ भले शंकर महादेवन का नाम जोड़ा जाता है, लेकिन इस गीत को सुनने के बाद तो यही लगता है कि ब्रेथलेस जौनर तो कब का ही शुरु हो चुका था फ़िल्म संगीत में। आइए मज़ा लेते हैं इस मिट्टी और खेलकूद से लवरेज़ गीत का।



क्या आप जानते हैं...
कि आशा भोसले और कमल बारोट ने साथ में बहुत से युगल गीत गाये, कुछ उल्लेखनीय फ़िल्में हैं - घराना, हमजोली, आवारा बादल, दिल्ली का दादा, यारी ज़िंदाबाद, बलराम श्रीकृष्ण, शंकर सीता अनुसुया, शमशीर, दो दुश्मन, जहाँ सती वहाँ भगवान, जंतर मंतर, श्री राम भरत मिलाप, श्रीमानजी, शेर ख़ान, वतन से दूर, सब का उस्ताद, माया जाल, गोल्डन आइज़ सीक्रेट एजेण्ट ०७७, महारानी पद्मिनी, किलर्स।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - कोई सूत्र नहीं देंगे इसे थोडा मुश्किल ही रहने देते हैं.

सवाल १ - महेंद्र कपूर है पुरुष गायक, गायिका बताये - १ अंक
सवाल २ - एक भारतीय खेल की पंच लाईन के माध्यम से पति पत्नी की छेड़ छाड को दर्शाते इस मजेदार गीत के गीतकार बताये - ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
आज पहेली जरा सख्त है....हमें यकीं है दिज्जगों को थोड़ी परेशानी जरूर होगी, एक मौका है लेट कामर्स के लिए....और अंजाना जी अभी हिम्मत मत हारिये इस शृंखला में एक और कैच है....मैदान में जमे रहिये :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, March 7, 2011

लुका छुपी खेले आओ....खेलों से याद आते हैं न वो मासूम से खेल बचपन के जिनमें हार भी अपनी होती थी और जीत भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 607/2010/307

दोस्तों, इन दिनों आप ६ बजे ऒफ़िस की छुट्टी हो जाने के साथ ही भाग निकलते होंगे अपने अपने घर की तरफ़। अरे भई घर पहुँचकर टीवी जो ऒन करना है और क्रिकेट मैच जो देखना है! तो फिर शायद ६:३० बजे आपका 'आवाज़' पर पधारना भी नहीं होता होगा। लेकिन 'आवाज़ वेब रेडिओ सर्विस' की खासियत है कि इसमें पोस्ट होने वाले गीत व आलेख आप जब कभी भी मन करे सुन और पढ़ सकते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और आज 'खेल खेल में' शृंखला की सातवीं कड़ी में हम चर्चा करेंगे कि प्रथम क्रिकेट विश्वकप से पहले क्रिकेट का कैसा सीन हुआ करता था। क्या आपको पता है कि विश्व का पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच कनाडा और संयुक्त राष्ट्र अमरीका के बीच २४ और २५ सितंबर १८४४ में खेला गया था। पहला टेस्ट मैच १८७७ में ऒस्ट्रेलिया और इंगलैण्ड के बीच खेला गया था और अगले कई सालों तक बस यही दो देश क्रिकेट मैच खेलते आये। १८८९ में दक्षिण अफ़्रीका को टेस्ट क्रिकेट का दर्जा नसीब हुआ। १९०० के पैरिस ऒलीम्पिक खेल में क्रिकेट को शामिल कर लिया गया, जिसमें ग्रेट ब्रिटेन ने फ़्रांस को हराकर स्वर्णपदक अपने नाम किया। यह पहली और आख़िरी बार के लिए क्रिकेट ऒलीम्पिक खेल का हिस्सा बना था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार बहुदेशीय क्रिकेट प्रतियोगिता सन् १९१२ में आयोजित हुई इंगलैण्ड, ऒस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ़्रीका के बीच। इस सीरीज़ को ज़्यादा सफलता नहीं मिली क्योंकि गरमी के दिनों में खेली गयी यह सीरीज़ बारिश की वजह से काफ़ी हद तक प्रभावित हुआ। इसके बाद एक एक करके और भी कई देश जुड़ते चले गये अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट के साथ - वेस्ट इंडीज़ (१९२८), न्युज़ीलैण्ड (१९३०), भारत (१९३२), पाकिस्तान (१९५२) आदि।

जीवन में खेल-कूद का बहुत बड़ा महत्व है। और बच्चों व युवाओं के लिए तो खेल-कूद अपनी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग होना ही चाहिए। खेलने से न केवल शारीरिक विकास अच्छी तरह से होता है, बल्कि मन-मस्तिष्क में भी स्फूर्ति आती है, और दिमाग़ बहुत अच्छी तरह से विकसित होता है। अंग्रेज़ी में भी तो कहावत है कि "all work and no play, makes John a dull boy"| आजकल की बढ़ती प्रतियोगिता और पढ़ाई-लिखाई में दबाव की वजह से बच्चे खेल के मैदान से दूर होते चले जा रहे हैं। और जो बचा खुचा वक़्त मिलता है, उसे वो कम्प्युटर गेम्स खेलने में या कार्टून देखने में लगा देते हैं। और कुछ अभिभावक तो ऐसे भी हैं कि बच्चे को इसलिए खेल-कूद नहीं करने देते ताकि पढ़ाई लिखाई के लिए और ज़्यादा समय मिल सके। उन सभी अभिभावकों से हाथ-जोड़ निवेदन है कि ऐसा कतई न करें। अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा शारिरिक और मानसिक रूप से मज़बूत बने, स्वस्थ रहे, तो उसे पढ़ाई के साथ साथ खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम की तरफ़ की प्रोत्साहित करें। आज जब हम बच्चों की बात छेड़ ही चुके हैं, तो क्यों ना एक ऐसे खेल पर आधारित गीत सुनें जिसका रिश्ता छोटे बच्चों से ही है। जी हाँ, आँख मिचौली, या लुका-छुपी। इस खेल पर कई गीत बने हैं जैसे कि "लुक छिप लुक छिप जाओ ना" (दो अंजाने), "आ मेरे हमजोली आ, खेलें आँख मिचौली आ" (जीने की राह) वगेरह। लेकिन आज के लिए हमने जो गीत चुना है वह है फ़िल्म 'ड्रीम गर्ल' का, "लुका छुपी खेलें आओ"। लता मंगेशकर, पद्मिनी और शिवांगी की आवाज़ों में यह गीत हेमा मालिनी पर फ़िल्माया गया था। आनंद बक्शी साहब के बोल और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत। चलिए इन बच्चों के साथ बच्चे बन कर आज एक अरसे के बाद आप और हम, सभी मिलकर खेलें लुका छुपी।



क्या आप जानते हैं...
कि कई क्रिकेट खिलाड़ियों ने हिंदी फ़िल्मों में अभिनय किया है, जिनमें शामिल है संदीप पाटिल (कभी अजनबी थे), सुनिल गावस्कर (मालामाल), खेल (अजय जडेजा) आदि।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आसान है.

सवाल १ - कौन सी गायिका ने साथ निभाया है आशा जी का इस गीत में - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म में किस अभिनेता की एक से अधिक भूमिका थी - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे बाप रे एक बार फिर अमित जी आगे निकल गए, अंजना जी ऐसे में अपना कमेन्ट हटा कर २ अंक वाले सवाल का जवाब क्यों नहीं देते ये बात हम नहीं समझ पाते....खैर अभी मौका है वापसी का

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, March 6, 2011

मैदान है हरा, भीड़ से भरा खेलने चल दिए ग्यारह....और रोमांच से भरे कई मुकाबले हम अब तक इस वर्ल्ड कप में देख ही चुके हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 606/2010/306

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। सप्ताह नया ज़रूर है, लेकिन चर्चा वही है जो पिछले सप्ताह रही, यानी क्रिकेट विश्वकप की। 'खेल खेल में' लघु शृंखला में आइए आज सब से पहले बात करते हैं विश्वकप ट्रॊफ़ी की। ICC क्रिकेट विश्वकप की ट्रॊफ़ी एक रनिंग् ट्रॊफ़ी है जो विजयी टीम को दी जाती है। इसका डिज़ाइन गरार्ड ऐण्ड कंपनी ने दो महीने के अंदर किया था। असली ट्रॊफ़ी को ICC के दुबई हेडक्वार्टर्स में सुरक्षित रखा गया है जब कि विजयी दल को इसकी एक प्रति दी जाती है। असली और प्रति में फ़र्क बस इतना है कि असली ट्रॊफ़ी में पूर्व विजयी देशों के नाम खुदाई किए हुए है। और अब २०११ विश्वकप के प्राइज़ मनी की बात हो जाए! २०११ क्रिकेट विश्वकप का विजयी दल अपने साथ घर ले जाएगा ३ मिलियन अमरीकी डॊलर्स; रनर-अप को मिलेंगे १.५ मिलियन अमरीकी डॊलर्स। लेकिन सुनने में आया है कि ICC इस राशी को दुगुना करने वाली हैं इसी विश्वकप में। यह निर्णय दुबई में २० अप्रैल २०१० के ICC बोर्ड मीटिंग् में लिया गया था। २०११ विश्वकप में १८ अम्पायर खेलों का संचालन कर रहे हैं, और इनके अतिरिक्त एक रिज़र्व अम्पायर एनामुल हक़ को भी रखा गया है। २०११ विश्वकप में अम्पायरिंग् करने वाले अम्पायरों के नाम इस प्रकार है:

ऒस्ट्रेलिया - सायमन टॊफ़ेल, स्टीव डेविस, रॊड टकर, डैरील हार्पर, ब्रुस ऒग्ज़ेनफ़ोर्ड
न्यु ज़ीलैण्ड - बिली बाउडेन, टॊनी हिल
दक्षिण अफ़्रीका - मराइस एरस्मस
पाकिस्तान - अलीम दर, असद रौफ़
भारत - शवीर तारापुर, अमिष साहेबा
इंगलैण्ड - इयान गूल्ड, रिचार्ड केटलबोरो, नाइजेल लॊंग्
श्रीलंका - अशोक डी'सिल्वा, कुमार धर्मसेना
वेस्ट इंडीज़ - बिली डॊट्रोव

दोस्तों, क्रिकेट पर बनने वाली फ़िल्मों की जब बात आती है, तो जिन चंद फ़िल्मों के नाम सब से पहले ज़ुबान पर आते हैं, वो हैं 'मालामाल', 'ऒल राउण्डर', 'अव्वल नंबर', 'लगान', 'इक़बाल' और 'हैट्रिक'। हाल में रिलीज़ हुई 'पटियाला हाउस' भी इसी श्रेणी में अपना नाम दर्ज करवाने वाली है। ये सभी फ़िल्में उस दौर की हैं कि जब फ़िल्म संगीत का सुनहरा युग बीत चुका था। लेकिन दोस्तों, क्योंकि यह शृंखला २०११ क्रिकेट विश्वकप को केन्द्रबिंदु में रख कर प्रस्तुत किया जा रहा है, ऐसे में अगर एक गीत हम क्रिकेट के नाम ना करें तो कुछ मज़ा नहीं आ रहा। इसलिए आज के अंक के लिए हमने चुना है १९९० की फ़िल्म 'अव्वल नंबर' का एक गीत, जिसके बोल हैं "ये है क्रिकेट"। वैसे दोस्तों, ५० के दशक में कम से कम एक फ़िल्म ऐसी ज़रूर आयी थी जिसमें क्रिकेट खेल पर एक गीत था। आगे चलकर इस गीत को हम शामिल करेंगे एक ख़ास प्रस्तुति के रूप में। वापस आते हैं 'अव्वल नंबर' पर। 'अव्वल नंबर' देव आनंद की फ़िल्म थी, निर्देशन भी उनका ही था, और जिसमें उनके अलावा अभिनय किया था आमिर ख़ान, आदित्य पंचोली, एक्ता सोहिनी और नीता पुरी प्रमुख। फ़िल्म की कहानी क्रिकेट और क्रिकेटर्स पर ही केन्द्रित थी जिसे लिखा भी देव साहब ने ही था। फ़िल्म में संगीत था बप्पी लाहिड़ी का और फ़िल्म के तमाम गानें ख़ूब चले थे उस ज़माने में। अगर आपको याद नहीं आ रहा तो इस फ़िल्म का सब से हिट गीत था "पूछो ना कैसा मज़ा आ रहा है", अमित कुमार और एस. जानकी की आवाज़ों में। आज का प्रस्तुत गीत गाया है बप्पी लाहिड़ी, अमित कुमार और उदित नारायण ने। इस फ़िल्म में आमिर ख़ान का प्लेबैक अमित कुमार ने किया था, लेकिन इस गीत में अमित कुमार बने आदित्य पंचोली की आवाज़ और देव साहब के लिए गाया बप्पी दा ने। 'क़यामत से क़यामत तक' से आमिर ख़ान की आवाज़ बने उदित नारायण ने इस गीत में भी उनके लिए ही गाया था। "मैदान है हरा, भीड़ से भरा, खेलने चल दिए हैं ग्यारह, विकेट है गड़े, तैयार हम खड़े, खेल शुरु होगा पौने ग्यारह, ये है क्रिकेट, ये है क्रिकेट"। तो लीजिए क्रिकेट फ़ीवर को बरकरार रखते हुए सुनते हैं आज का यह गीत जिसे लिखा है गीतकार अमित खन्ना ने।



क्या आप जानते हैं...
कि १९९० और २००० के दशकों में देव आनंद ने जिन फ़िल्मों का निर्माण किया था, उनके नाम हैं - अव्वल नंबर (१९९०), प्यार का तराना (१९९३), गैंगस्टर (१९९४); मैं सोलह बरस की (१९९८), सेन्सर (२००१), लव ऐट टाइम्स स्कुएर (२००३), मिस्टर प्राइम मिनिस्टर (२००५), और चार्जशीट (२००९)।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 07/शृंखला 11
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आसान है.

सवाल १ - किस खूबसूरत अभिनेत्री पर है ये गीत - २ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वही जबरदस्त मुकाबला जारी है....शानदार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

शततंत्री वीणा से आधुनिक संतूर तक, वादियों की खामोशियों को सुरीला करता ये साज़ और निखरा पंडित शिव कुमार शर्मा के संस्पर्श से



सुर संगम - 10 - संतूर की गूँज - पंडित शिव कुमार शर्मा

इसके ऊपरी भाग पर लकड़ी के पुल से बने होते हैं जिनके दोनों ओर बने कीलों से तारों को बाँधा जाता है। संतूर को बजाने के लिए इन तारों पर लकड़ी के बने दो मुंगरों (hammers) - जिन्हें 'मेज़राब' कहा जाता है, से हल्के से मार की जाती है।


विवार की मधुर सुबह हो, सूरज की सुनहरी किरणे हल्के बादलों के बीच से धरती पर पड़ रही हों, हाथ में चाय का प्याला, बाल्कनी पर खड़े बाहर का नज़ारा ताकते हुए आप, और रेडियो पर संगीत के तार छिड़े हों जिनमें से मनमोहक स्वरलहरियाँ गूँज रही हों! सुर-संगम की ऐसी ही एक संगीतमयी सुबह में मैं सुमित आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| हम सभी ने कई अलग-अलग प्रकार के वाद्‍य यंत्रों की ध्वनियाँ सुनी होंगी| पर क्या आपने कभी इस बात पर ग़ौर किया है कि कुछ वाद्‍यों से निकली ध्वनि-कंपन सपाट(flat) होती है जैसे कि पियानो या वाय्लिन से निकली ध्वनि; जबकि कुछ वाद्‍यों की ध्वनि-कंपन वृत्त(round) होती है तथा अधिक गूँजती है। आज हम ऐसे ही एक शास्त्रीय वाद्‍य के बारे में चर्चा करेंगे जिसका उल्लेख वेदों में "शततंत्री वीणा" के नाम से किया गया है। जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ भारत के एक बेहद लोकप्रिय व प्राचीन वाद्‍य यंत्र - संतूर की। आइये, संतूर के बारे में और जानने से पहले आनंद लें पंडित शिव कुमार शर्मा द्वारा प्रस्तुत इस पहाड़ी धुन का।

संतूर पर डोगरी धुन - पं. शिव कुमार शर्मा


'संतूर' एक फ़ारसी शब्द है तथा शततंत्री वीणा को अपना यह नाम इसके फ़ारसी प्रतिरूप से ही मिला है| फ़ारसी संतूर एक विषम-चतुर्भुज (trapezoid) से आकार का वाद्‍य है जिसमें प्रायः ७२ तारें होती हैं। इसकी उत्पत्ती लगभग १८०० वर्षों से भी पूर्व ईरान में मानी जाती है परन्तु आगे जाकर यह एशिया के कई अन्य देशों में प्रचलित हुआ जिन्होंने अपनी-अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुसार इसके रूप में परिवर्तन किए। भारतीय संतूर फ़ारसी संतूर से कुछ ज़्यादा आयताकार (rectangular) होता है और यह आमतौर पर अखरोट की लकड़ी का बना होता है। इसके ऊपरी भाग पर लकड़ी के पुल से बने होते हैं जिनके दोनों ओर बने कीलों से तारों को बाँधा जाता है। संतूर को बजाने के लिए इन तारों पर लकड़ी के बने दो मुंगरों (hammers) - जिन्हें 'मेज़राब' कहा जाता है, से हल्के से मार की जाती है। इसे अर्धपद्मासन में बैठकर तथा गोद में रखकर बजाया जाता है। यह मूल रूप से कश्मीर का लोक वाद्‍य है जिसे सूफ़ी संगीत में इस्तेमाल किया जाता था। तो आइये देखें और सुनें कि फ़ारसी संतूर भारतीय संतूर से किस प्रकार भिन्न है - इस वीडियो के ज़रिये।

फ़ारसी संतूर


हमारे देश में जहाँ भी संतूर के बारे में चर्चा की जाती है - वहाँ एक नाम का उल्लेख करना अनिवार्य बन जाता है। आप समझ ही गये होंगे कि मेरा इशारा किन की ओर है? जी हाँ! आपने ठीक पहचाना, मैं बात कर रहा हूँ भारत के सुप्रसिद्ध संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा की। इनका जन्म १३ जनवरी १९३८ को जम्मू में हुआ तथा इनकी माता जी श्रीमती ऊमा दत्त शर्मा स्वयं एक शास्त्रीय गायिका थीं जो बनारस घराने से ताल्लुक़ रखती थीं। मात्र ५ वर्ष कि अल्पायु से ही पंडित जी ने अपने पिता से गायन व तबला वादन सीखना प्रारंभ कर दिया था। अपने एक साक्षात्कार में वे बताते हैं कि उनकी माँ का यह सपना था कि वे भारतीय शास्त्रीय संगीत को संतूर पर बजाने वाले प्रथम संगीतज्ञ बनें। इस प्रकार उन्होंने १३ वर्ष की आयु में संतूर सीखना शुरू कर दिया तथा अपनी माँ का सपना पूरा किया। बम्बई में वर्ष १९५५ में उन्होंने अपनी प्रथम सार्वजनिक प्रस्तुति दी। आज संतूर की लोकप्रियता का सर्वाधिक श्रेय पंडित जी को ही जाता है। उन्होंने संतूर को शास्त्रीय संगीत के अनुकूल बनाने के लिये इसमें कुछ परिवर्तन भी किये। जहाँ तक पुरस्कारों की बात है - पंडित शिव कुमार शर्मा को कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष १९८५ में उन्हें अमरीका के बॊल्टिमोर शहर की सम्माननीय नागरिकता प्रदान की गई। इसके पश्चात्‍ वर्ष १९८६ में 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार', वर्ष १९९१ में 'पद्मश्री पुरस्कार' तथा वर्ष २००१ में 'पद्म विभूषण पुरस्कार' से उन्हें सम्मानित किया गया। अपने अनोखे संतूर वादन की कला-विरासत उन्होंने अपने सुपुत्र राहुल को भी अपना शिष्य बनाकर प्रदान की तथा पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने वर्ष १९९६ से लेकर आज तक कई सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ दी हैं। क्यों न हम भी इन दोनों की ऐसी ही एक मनमोहक प्रस्तुति का आनन्द लें इस वीडियो के माध्यम से।

पं. शिव कुमार शर्मा व राहुल शर्मा - जुगलबंदी



और अब बारी इस बार की पहेली की। 'सुर-संगम' की आगामी कड़ी से हम इसमें एक और स्तंभ जोड़ने जा रहे हैं - वह है 'लोक संगीत' जिसके अन्तर्गत हम भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोक संगीत से आपको रू-ब-रू करवाएँगे। तो ये रहा इस अंक का सवाल जिसका आपको देना होगा जवाब तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। 'सुर-संगम' के ५०-वे अंक तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी तरफ़ से।

"इस समुदाय के गवैये-बजैये मुस्लिम होते हुए भी अपने अधिकतम गीतों में हिंदु देवी-देवताओं की तथा हिंदु त्योहारों की बढ़ाई करते हैं और 'खमाचा' नामक एक खास वाद्‍य क प्रगोग करते हैं। तो बताइए हम किस प्रांत के लोक संगीत की बात कर रहे हैं?"

पिछ्ली पहेली का परिणाम: कृष्‍णमोहन जी ने बिल्कुल सटीक उत्तर देकर ५ अंक अर्जित कर लिये हैं, बधाई!

हमारे और भी श्रोता व पाठक आने वाली कड़ियों को सुनें, पढ़ें तथा पहेलियों में भाग लें, इसी आशा के साथ, हम आ पहुँचे हैं 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर। आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, इसपर अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, नमस्कार!

प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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