Saturday, February 6, 2010

मैं तेरी हूँ तू मेरा है....मधुबाला जावेरी का नटखट अंदाज़ निखारा हंसराज बहल ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 337/2010/37

'हमारी याद आएगी' के आज के अंक में गूंजने वाली है एक और बेहद मधुर गायिका की आवाज़। वक़्त के साथ साथ इस गायिका की यादें ज़रा धुंधली सी हो गई है और आज शायद ही आम ज़िंदगी में हम रोज़ इन्हे याद करते हैं, लेकिन किसी ज़माने में इनके गाए गीतों से संगीत रसिक काफ़ी मुतासिर हुआ करते थे। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की एक और कमचर्चित गायिका मधुबाला ज़वेरी हैं आज के इस कड़ी की आवाज़। चर्चित कलाकारों के बारे में तो बहुत सारे तथ्य हमें कहीं ना कहीं से मिल ही जाते हैं, लेकिन इन कमचर्चित फ़नकारों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना कभी कभी बेहद मुश्किल सा हो जाता है। मधुबाला ज़वेरी के बारे में भी बहुत ज़्यादा जानकारी तो हम एकत्रित नहीं कर सके, लेकिन यहाँ वहाँ से कुछ कुछ बातें हमने मालूम ज़रूर किए हैं ख़ास इस कड़ी को संवारने के लिए। मधुबाला जी का जन्म सन् १९३२ के करीब हुआ था। 'करीब' हम इसलिए कह रहे हैं दोस्तों क्योंकि उनकी जन्म तिथि हम मालूम नहीं कर पाए, लेकिन ३० जुलाई २००६ को मुंबई के चार्नी रोड हॊल में मधुबाला जी के सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें उनकी ७४ वर्ष की आयु होने की बात कही गई थी। इसी से हम यह अदाज़ा लगा रहे हैं कि उनका जन्म १९३२-३३ के आसपास हुआ होगा! दोस्तों, ज़िंदगी की नाव को आगे बढ़ाने के लिए सांसों के पतवार की ज़रूरत पड़ती है, कली को फूल बनकर खिलने के लिए सूरज के रोशनी की ज़रूरत पड़ती है। दीये में चाहे कितना भी तेल क्यों ना हो, अगर उसकी लौ को समय समय पर उपर की तरफ़ बढ़ाया ना जाए तो दीया बुझ जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि किसी नई प्रतिभा को पहचान कर उसे मौका देनेवाला संगीतकार का उसकी सफलता के पीछे बहुत बड़ा हाथ होता है। और मधुबाला ज़वेरी के लिए यह हाथ था संगीतकार हंसराज बहल का। जी हाँ, इन्होने ही सब से ज़्यादा गानें मधुबाला जी से गवाये। इसलिए आज के इस कड़ी के लिए हमने इसी जोड़ी का गीत चुना है। फ़िल्म 'जग्गु' का गीत है "मैं तेरी हूँ तू मेरा है, दिल तेरा है ये लेता जा "। गीतकार असद भोपाली। बड़ा ही नटखट गीत है और नायिका ही इसमें अपना प्रेम निवेदन कर रही है। फ़िल्म 'जग्गु' का निर्माण जगदीश सेठी ने सन् १९५२ में किया था, जिसके मुख्य कलाकार थे श्यामला और कमल कपूर। जगदीश सेठी ने भी एक भूमिका अदा की थी और अभिनेत्री नंदा बाल कलाकार के रूप में इस फ़िल्म में नज़र आईं थीं। इसी फ़िल्म से गीतकार नक्श ल्यालपुरी ने अपना फ़िल्मी गीत लेखन का सफ़र शुरु किया था, लेकिन आज का गीत असद भोपाली साहब का लिखा हुआ है।

दोस्तों, सन् १९८१ में विविध भारती के किसी कार्यक्रम में संगीतकार हंसराज बहल ने शिरकत की थी, जिसका अभी हाल ही में विविध भारती के स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य पर आयोजीत शृंखला 'स्वर्ण-स्मृति' के अंतरगत दोहराव किया गया था। उस इंटरव्यू में बहल साहब ने बताया था कि उन्होने ही पहली बार मधुबाला ज़वेरी को अपनी फ़िल्म में गवाया था। तो आज हम यहाँ पर उसी इंटरव्यू का वही हिस्सा पेश कर रहे हैं। हंसराज बहल से विविध भारती की तरफ़ से बात कर रहीं हैं अनुराधा जोशी:

प्र: और आप ने अपने संगीतकार होने के नाते कई कलाकारों को मौका दिया होगा, उनके बारे में आप कुछ बताएँगे? उन कलाकारों के बारे में?

उ: देखिए, ये तो, जब हम काम करते हैं तो बहुत आर्टिस्ट्स आए हमारे पास, हम ने भी कोशिश यही की है कि जो अच्छे कलाकार हैं, उनको आगे आने ही चाहिए, जैसे जैसे चांस मिलता रहा, हम कोशिश करते रहे। उनको गवाए भी हैं।

प्र: मधुबाला ज़वेरी को आप ने सब से पहले गवाया था?

उ: जी हाँ, 'अपनी इज़्ज़त', 'जग्गु', 'मोती महल' जैसी फ़िल्मों में मैंने उनको गवाया था।

और दोस्तों, इन फ़िल्मों के अलावा भी 'शाह बहराम', 'दोस्त', 'हनुमान जन्म', 'राजपूत', 'नक़ाबपोश', आदि कई फ़िल्मों में बहल साहब ने मधुबाला जी को गवाया था। और बहल साहब के अलावा जिन संगीतकारों ने उनसे गानें गवाए उनमें शामिल हैं जमाल सेन, इक़बाल क़ुरेशी, विनोद, अविनाश व्यास, राम गांगुली, शिवराम कृष्ण, बिपिन-बाबुल, हुस्नलाल-भगतराम, बुलो. सी. रानी, ए. आर. क़ुरेशी, शंकर दासगुप्ता, नारायण दत्ता, और शंकर जयकिशन ने भी। जी हाँ, फ़िल्म 'बूट पॊलिश' का वह गीत आपको याद है ना "ठहर ज़रा ओ जानेवाले", उस गीत में रफ़ी और आशा के साथ आवाज़ मिलाई थी मधुबाला ज़वेरी ने ही। ख़ैर, ये तो थी चंद बातें मधुबाला ज़वेरी से संबंधित, आइए अब आज का गीत सुना जाए और गीत को सुनते हुए सलाम कीजिए मधुबाला ज़वेरी और हंसराज बहल की जोड़ी को!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

सूनी सेज फिर महकेगी,
सूना आंगन गूंजेगा,
झांझर की झनकारों से,
मेरा सोहणा यार जब आएगा...

अतिरिक्त सूत्र- पंजाब की मिटटी की महक है साहिर के लिखे इस गीत में

पिछली पहेली का परिणाम-
सुबह ८ बजे तक तो कोई जवाब नहीं आया, वैसे गीत मुश्किल भी था बूझना....खैर

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: संस्कृति के रखवाले



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस्मत चुगताई की आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से एक बहुत ही सुन्दर, मार्मिक प्रसंग का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "संस्कृति के रखवाले", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

तो अपने बच्चों को हिन्दी नहीं सिखायेंगे क्या?
(अनुराग शर्मा की "संस्कृति के रखवाले" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fifty Ninth Story, Sanskriti Ke Rakhvale: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/6. Voice: Anurag Sharma

Friday, February 5, 2010

हँसता हुआ नूरानी चेहरा ....क्यों न हो ओल्ड इस गोल्ड के सुनहरे गीतों को सुनते हुए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 336/2010/36

न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चल रहा है फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग के कुछ कमचर्चित लेकिन बेहद प्रतिभावान पार्श्वगायिकाओं पर समर्पित शृंखला 'हमारी याद आएगी'। आज की कड़ी में ज़िक्र एक अनोखी आवाज़ की। मिट्टी की सौंधी सौंधी ख़ुशबू जैसी आवाज़ वाली ये हैं कमल बारोट। कमल बारोट ने उस दौर में फ़िल्म जगत में क़दम रखा जब दुनिया बस दो आवाज़ों की दीवानी बन चुकी थी, लता और आशा की। ऐसे में किसी नई गायिका के लिए यहाँ पर जगह बनाना बेहद मुश्किल था और ना ही यह हर किसी के बस की बात थी। सुधा मल्होत्रा, सुमन कल्याणपुर, मिनू पुरुशोत्तम, उषा मंगेशकर, मुबारक़ बेग़म के साथ साथ कमल बारोट ने भी गाना शुरु तो किया, लेकिन इन गायिकाओं को बड़े बैनर्स की फ़िल्मों में गाने के अवसर ज़्यादा नहीं मिलते थे। और अगर मिले तो किसी दूसरी बड़ी गायिका के साथ युगल गीत में या फिर कई अवाज़ों वाले किसी समूह गीत में। इन सारी कठिनाइयों और चुनौतियों को स्वीकार किया कमल बारोट ने और जब जैसे गानें उनकी झोली में आए, वो बस गाती चलीं गईं। लता जी और आशा जी के साथ उनके गाए कई गीत बेहद मशहूर हुए। आशा जी के साथ उनका गाया बेहद लोकप्रिय गीत "दादी अम्मा मान जाओ" हम आप को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की बच्चों वाली विशेष शृंखला में सुनवाया था। तो आज क्यों ना लता जी के साथ उनका गाया हुआ शायद उनकी करीयर का सब से हिट गीत आपको सुनवा दिया जाए। जी हाँ, फ़िल्म 'पारसमणि' की वही सदाबहार क़व्वाली "हँसता हुआ नूरानी चेहरा"। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी की पहली ब्लॊकबस्टर फ़िल्म और इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें हमने आपको पहले ही बता दिया था "चोरी चोरी जो तुमसे मिली" गीत के दौरान।

दोस्तों, हम बार बार यह कहते हैं कि लता जी और आशा जी की चमकदार आवाज़ों की वजह से दूसरी गायिकाओं को मौके नहीं मिले। लेकिन यह बात भी सच है कि लता जी ने कई बार नई गायिकाओं के नाम रेकमेण्ड भी किए हैं। यहाँ तक कि कमल बारोट को पहली बार फ़िल्म में गाने का मौका भी लता जी की सिफ़ारिश से ही मिला था। दोस्तों, यह बात मैं कहीं पे पढ़कर या किसी से सुन कर आपको नहीं बता रहा हूँ, बल्कि कमल बारोट ने यह बात ख़ुद अपने ज़ुबान से कही थीं विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में। यक़ीन ना आए तो ख़ुद ही पढ़ लीजिए! "ज़िंदगी की तेज़ धूप में संगीत की छैय्या मिल जाए तो कहना ही क्या। मैंने संगीत की दुनिया में पहली बार क़दम रखा जब लता जी ने कल्याणजी भाई से मेरी सुरीली सिफ़ारिश की। उन्होने कहा कि आप कमल से गाना क्यों नहीं गवा लेते हैं? असल में वह गाना लता दीदी गाने वाली थीं, पर वो जा रही थीं कोल्हापुर और गाना मिल गया मुझे। वो गाना था "दिल लेके जाते हो कहाँ"।" दोस्तों, बड़ा ही हिट हुआ था यह गाना, आगे चलकर शायद हम आपको यह गाना भी कभी सुनवा दें। पर आज तो कमल जी की पारस प्रतिभा को सलाम हम 'पारसमणि' के उस मचलते थिरकते नग़मे के साथ ही करेंगे। जैसा कि कमल जी ने ख़ुद बताया कि उन्हे सब से पहले फ़िल्म के लिए गाने का मौका लता जी ने करवा दिया था १९५९ की फ़िल्म 'ओ तेरा क्या कहना' में। इसी साल कल्यणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में एक और फ़िल्म आई 'मदारी', जिसमें कमल बारोट ने लता जी के साथ एक डुएट गाया "अकेली मोहे छोड़ ना जाना" जो काफ़ी हिट हुआ था। लेकिन "हँसता हुआ नूरानी चेहरा" को जो मक़बूलीयत हासिल हुई, वह कई कई गुणा ज़्यादा थी। यह गीत आज भी सब से ज़्यादा लोकप्रिय फ़ीमेल डुएट्स में शामिल किया जाता है। और एक और ख़ास बात इस गीत की कि यह गीत अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के उस साल के वार्षिक कार्यक्रम में आठवाँ स्थान प्राप्त किया था। यानी कि उस साल का आठवाँ सब से लोकप्रिय गीत। आज कमल जी जहाँ कहीं भी जीवन यापन कर रहीं हैं, हम उन्हे दीर्घायु होने की शुभकामना देते हैं और सुनते हैं लता जी के साथ उनका गाया गीतकार असद भोपाली का लिखा यह हिट गीत।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

जोगन साँसे तेरा नाम पुकारे,
अब तो आजा साजन प्यारे,
लहराती हवा उन्हें छू के आ,
जो हैं मेरी धडकन के सहारे...

अतिरिक्त सूत्र- हंसराज बहल का संगीतबद्ध गीत है ये

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी जैसा कि अवध जी कहा, वाकई मुश्किल था, पर आपके लिए :) हरगिज़ नहीं..बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, February 4, 2010

तुम अपना रंजो गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो....कितनी आत्मीयता के कहा था जगजीत कौर ने इन अल्फाजों को, याद कीजिये ज़रा...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 335/2010/35

"मेरी याद आएगी आती रहेगी, मुझे तू भुलाने की कोशिश ना करना"। दोस्तों, कुछ आवाज़ें भुलाई नहीं भूलती। ये आवाज़ें भले ही बहुत थोड़े समय के लिए या फिर बहुत चुनिंदा गीतों में ही गूंजी, लेकिन इनकी गूंज इतनी प्रभावी थे कि ये आज भी हमारी दिल की वादियों में प्रतिध्वनित होते रहते हैं। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं पर केन्द्रित लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आज की कड़ी में एक और अनूठी आवाज़ वाली गायिका का ज़िक्र। ये वो गायिका हैं जिन्होने हमारा रंज-ओ-ग़म और परेशानियाँ हम से अपने सर ले लिया था। आप यक़ीनन समझ गए होंगे कि हम आज बात कर रहे हैं गायिका जगजीत कौर की। जगजीत जी ने फ़िल्मों के लिए बहुत कम गीत गाए हैं लेकिन उनका गाया हर एक गीत ख़ास मुकाम रखता है अच्छे संगीत के रसिकों के दिलों में। जगजीत कौर १९४८-४९ में बम्बई आ गईं थीं। उन्होने संगीतकार श्याम सुंदर के साथ फ़िल्म 'लाहौर' ('४९) के गीतों, "नज़र से...", "बहारें फिर भी आएँगी..." आदि की रिहर्सल की थीं, लेकिन बाद में वे गीत लता जी से गवा लिए गए। इसी तरह 'जाल' ('५२) फ़िल्म का मशहूर गीत "ये रात ये चांदनी फिर कहाँ" भी पहले जगजीत कौर गाने वाली थीं, लेकिन एक बार फिर यह गीत लता जी की झोली में डाल दिया गया। दोस्तों, ऐसा केवल जगजीत जी के ही साथ नहीं हुआ, बल्कि कई कई गायिकाओं के साथ हुआ है और ८० के दशक तक ऐसा होता रहा है। इसमें लता जी का कोई क़सूर नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया ही लता जी के आवाज़ की ऐसी दीवानी थी कि हर फ़िल्मकार यही सोचता था कि किस तरह से लता जी को अपनी फ़िल्म में गवाया जाए। ख़ैर, वापस आते हैं जगजीत कौर पर। संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने उन्हे सब से पहले १९५३ की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' में गवाया था - "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी"। यहीं से उनकी फ़िल्मी गायन की शुरुआत हुई थी।

जगजीत कौर के गाए उल्लेखनीय और यादगार गीतों में फ़िल्म 'बाज़ार' का गीत "देख लो आज हमको जी भर के" और फ़िल्म 'शगुन' का गीत "तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी हमें दे दो" सब से उपर आता है। इनके अलावा उनके गाए गीतों में जो गानें मुझे इस वक़्त याद आ रहे हैं वो हैं फ़िल्म 'चंबल की क़सम' का "बाजे शहनाई रे बन्नो तोरे अंगना", फ़िल्म 'शगुन' का ही "गोरी ससुराल चली डोली सज गई", फ़िल्म 'हीर रांझा' का गीत "नाचे अंग वे", जिसमें उन्होने अपनी आवाज़ मिलाई थी नूरजहाँ और शमशाद बेग़म जैसे लेजेन्डरी सिंगर्स के साथ, फ़िल्म 'उमरावजान' का गीत "काहे को ब्याही बिदेस", फ़िल्म 'शोला और शबनम' का गीत "लड़ी रे लड़ी तुझसे आँख जो लड़ी" और "फिर वही सावन आया", फ़िल्म 'प्यासे दिल' का "सखी री शरमाए दुल्हन सा बनके" आदि। दोस्तों, एक बात आप ने नोटिस किया कि जगजीत कौर के गाए ज़्यादातर गीत शादी ब्याह वाले गीत हैं। शायद उनकी आवाज़ में ऐसी मिट्टी की ख़ुशबू है कि इस तरह के गीतों में जान डाल देती थी। सचमुच उनकी आवाज़ में इस मिट्टी की ख़ुशबू है जो हौले हौले दिल पर असर करती है, जिसका नशा आहिस्ता आहिस्ता चढ़ता है। आज हमने उनका गाया कोई शादी वाला गाना नहीं बल्कि फ़िल्म 'शगुन' का वही रंज-ओ-ग़म वाला गाना ही चुना है, जिसे आप ने एक लम्बे अरसे से नहीं सुना होगा! इस फ़िल्म का ज़िक्र तो अभी हाल ही में हमने किया था, आइए आज बस इस गीत की कशिश में खो जाते हैं। दोस्तों, जिस तरह से इस गीत के बोल हैं कि अपने ग़म और अपनी परेशानियाँ मुझे दे दो, वाक़ई इस गीत को सुनते हुए जैसे हम अपनी सारी तक़लीफ़ें कुछ देर के लिए भूल जाते हैं और इस गीत के बहाव में बह जाते हैं। साहिर साहब के बोल और ख़य्याम साहब का ठहराव वाला सुरीला संगीत, और उस पर जगजीत जी की इस मिट्टी से जुड़ी आवाज़। भला और क्या चाहिए एक सुधी श्रोता को! आइए सुनते हैं। जिन्हे मालूम नहीं है उनके लिए हम हम बताते चलें कि जगजीत कौर संगीतकार ख़य्याम साहब की धर्मपत्नी भी हैं।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

अपनी बेकरारियां बयां क्या करें,
पहले से ही अब बात क्या करें,
सितम ये कम तो नहीं कि दूर है तू,
उस पर ये बरसात क्या करें...

अतिरिक्त सूत्र- एक मशहूर संगीतकार जोड़ी की पहली फिल्म का था ये गीत

पिछली पहेली का परिणाम-
रोहित जी ऐसे हिम्मत हारते आप अच्छे नहीं लगते, गायिका तो आपने सही पहचान ही ली थी, कोशिश करते तो जवाब भी मिल जाता, खैर अवध जी को बधाई...१ अंक का और इजाफा हुआ है आपके स्कोर में...शरद जी आप और लेट ? कभी नहीं :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, February 3, 2010

सलामे हसरत कबूल कर लो...इस गीत में सुधा मल्होत्रा की आवाज़ का कोई सानी नहीं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 334/2010/34

फ़िल्म संगीत के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को याद करने का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' के तहत। ये कमचर्चित गायिकाएँ फ़िल्म संगीत के मैदान के वो खिलाड़ी हैं जिन्होने बहुत ज़्यादा लम्बी पारी तो नहीं खेली, पर अपनी छोटी सी पारी में ही कुछ ऐसे सदाबहार गानें हमें दे गए हैं कि जिन्हे हम आज भी याद करते हैं, गुनगुनाते हैं, हमारे सुख दुख के साथी बने हुए हैं। यह हमारी बदकिस्मती ही है कि अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी ये कलाकार चर्चा में कम ही रहे, प्रसिद्धी इन्हे कम ही मिली, और आज की पीढ़ी के लिए तो इनकी यादें दिन ब दिन धुंधली होती जा रही हैं। पर अपने कुछ चुनिंदा गीतों से अपनी अमिट छाप छोड़ जाने वाली ये गायिकाएँ सुधी श्रोताओं के दिलों पर हमेशा राज करती रहेंगी। आज एक ऐसी ही प्रतिभा संपन्न गायिका का ज़िक्र इस मंच पर। आप हैं सुधा मल्होत्रा। जी हाँ, वही सुधा मल्होत्रा जिन्होने 'नरसी भगत' में "दर्शन दो घनश्याम", 'दीदी' में "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको", 'काला पानी' में "ना मैं धन चाहूँ", 'बरसात की रात' में "ना तो कारवाँ की तलाश है" और 'प्रेम रोग' में "ये प्यार था कि कुछ और था" जैसे हिट गीत गाए हैं। लेकिन ज़्यादातर उन्हे कम बजट वाली फ़िल्मों में ही गाने के अवसर मिलते रहे। 'अब दिल्ली दूर नहीं' फ़िल्म में बच्चे के किरदार का प्लेबैक करने के बाद तो जैसे वो टाइप कास्ट से हो गईं और बच्चों वाले कई गीत उनसे गवाए गए। आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह है १९६० की फ़िल्म 'बाबर' का। साहिर लुधियानवी का लिखा और रोशन का स्वरबद्ध किया यह गीत सुधा जी की करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण गीत रहा है, "सलाम-ए-हसरत क़ुबूल कर लो"। हेमेन गुप्ता निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे गजानन जागिरदार, आज़रा, सुलोचना चौधरी और शुभा खोटे। प्रस्तुत गीत शुभा खोटे पर फ़िल्माया गया है।

आइए आज सुधा जी के बारे में आपको कुछ जानकारी दी जाए। सुधा मल्होत्रा का जन्म नई दिल्ली में ३० नवंबर १९३६ में हुआ था। उनका बचपन कुल तीन शहरों में बीता - लाहौर, भोपाल और फ़िरोज़पुर। आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारतीय शास्त्रीय संगीत में पारदर्शी बनीं उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान और पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले जैसे गुरुओं से तालीम हासिल कर। उनकी यह लगन और संगीत के प्रति उनका प्यार उनके गीतों और उनकी गायकी में साफ़ झलकता है। जहाँ तक करीयर का सवाल है, सुधा जी ने ५ साल की उम्र से गाना शुरु किया। उनकी प्रतिभा को पूरी दुनिया के सामने लाने का पहला श्रेय जाता है उस ज़माने के मशहूर संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर को, जिन्होने सुधा जी को फ़िरोज़पुर में रेड क्रॊस के एक जलसे में गाते हुए सुना था। सुधा जी की शारीरिक सुंदरता और मधुर आवाज़ की वजह से वो ऒल इंडिया रेडियो लाहौर में एक सफ़ल बाल कलाकार बन गईं। और सही मायने में यहीं से शुरु हुआ उनका संगीत सफ़र। उसके बाद उनका आगमन हुआ फ़िल्म संगीत में। इस क्षेत्र में उन्हे पहला ब्रेक दिया अनिल बिस्वास ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, इसी फ़िल्म में अनिल दा ने तलत महमूद को भी पहला ब्रेक दिया था। इस फ़िल्म में सुधा जी से एक गीत गवाया गया जिसे ख़ूब पसंद किया गया। गाना था "मिला गए नैन"। और दोस्तों, यहीं से शुरुआत हुई सुधा जी के फ़िल्मी गायन की। आगे की दास्तान हम फिर कभी सुनाएँगे, फिलहाल सुनवा रहे हैं सुधा जी का गाया 'बाबर' फ़िल्म का यह नायाब गीत, आप भी हमारा सलाम-ए-हसरत क़बूल फ़रमाएँ।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

नींद की बाहों में टूटती निगाहों को क्या मालूम,
है इन्तेज़ार में उसके कोई ख्वाब हैरानी से भरा,
या फिर छुपा खंजर हाथ लिए कोई बुरा सपना,
सिर्फ भुला दिए जाने के काबिल बेचैनी से सना...

अतिरिक्त सूत्र- खय्याम ने संगीत से संवारा है इस गीत को

पिछली पहेली का परिणाम-
बहुत बढ़िया चल रहे हैं अवध जी, लगता है शरद जी को तगड़ी टक्कर मिलेगी...१३ अंक हुए आपके बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था.. इक़बाल अज़ीम के बोल और नय्यारा नूर की आवाज़.. फिर क्यूँकर रंज कि बुरा हुआ



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६९

इंसानी मन प्रशंसा का भूखा होता है। भले हीं उसे लाख ओहदे हासिल हो जाएँ, करोड़ों का खजाना हाथ लग जाए, फिर भी सुकून तब तक हासिल नहीं होता, जब तक कोई अपना उसके काम, उसकी नियत को सराह न दे। ऐसा हीं कुछ आज हमारे साथ हो रहा है। जहाँ तक आप सबको मालूम है कि आज महफ़िल-ए-गज़ल की ६९वीं कड़ी है और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने दस महिने का सफ़र तय कर लिया है.. इस दौरान बहुत सारे मित्रों ने टिप्पणियों के माध्यम से हमारी हौसला-आफ़ज़ाई की और यही एकमात्र कारण था जिसकी बदौलत हमलोग निरंतर बिना रूके आगे बढते रहे.. फिर भी दिल में यह तमन्ना तो जरूर थी कि कोई सामने से आकर यह कहे कि वाह! क्या कमाल की महफ़िल सजाते हैं आप.. गज़लों को सुनकर और बातों को गुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। यही एक कमी खलती आ रही थी जो दो दिन पहले पूरी हो गई। दिल्ली के प्रगति मैदान नें चल रहे वार्षिक विश्व पुस्तक मेला में लगे "हिन्द-युग्म" के स्टाल पर जब आवाज़ का कार्यक्रम रखा गया तो देश भर से आवाज़ के सहयोगी और प्रशंसक जमा हुए और उस दौरान कई सारे लोगों ने हमसे महफ़िल-ए-गज़ल की बातें कीं और आवाज़ के इस प्रयास को तह-ए-दिल से सराहा। कईयों को इस बात का आश्चर्य था कि हम ऐसी सदाबहार लेकिन बहुतों के द्वारा भूला दी गई गज़लें कहाँ से चुनकर लाते हैं। और न सिर्फ़ गज़लें हीं बल्कि उन गज़लों और गज़लों से जुड़े फ़नकारों के बारे में ऐसी अमूल्य जानकारियाँ हम ढूँढते हैं तो कहाँ से! कहते हैं ना कि आपकी मेहनत तब सफ़ल हो जाती हैं जब आपकी मेहनत का एक छोटा-सा हिस्सा भी किसी को खुशियाँ दे जाता है... आज हम उसी सफ़लता की अनुभूति कर रहे हैं। हम बता नहीं सकते कि इस आलेख को लिखते समय हमारे दिल और दिमाग की स्थिति क्या है... दिल को छोड़िये हमारा तो अपनी अंगुलियों की जुंबिश पर कोई नियंत्रण नहीं रहा... इसलिए इस कड़ी में अगर काम से ज्यादा बेकाम की बातें हो जाएँ (या हो रही हैं) तो इसमें हमारे चेतन मन का कोई दोष नहीं.. कुछ तो अचेतन है जो हमें लीक से हटने पर मजबूर कर रहा है। वैसे हमें यह पता है कि हमें इतने से हीं खुश नहीं होना है.. अभी और आगे जाना है, अभी और हदें ढकेलनी हैं, गज़लों की वो सारी किताबें खोज निकालनी हैं, जिनके जिल्द तक फट चुके हैं, दीमक जिन्हें कुतर चुका है, लेकिन सपहों पे पड़े हर्फ़ दूर से हीं चमक रहे हैं और हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। आपका साथ अगर इसी तरह मिलता रहा तो हमें पूरा यकीन है कि हम उन सारी किताबों को एक नया रूप देने में जरूर सफ़ल होंगे। आमीन!

चलिए.. बातें बहुत हो गईं, अब आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं। आज की गज़ल को जिन फ़नकारा ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है, उनके सीधेपन और चेहरे से टपकती मासूमियत की मिसालें दी जाती हैं। कहते हैं कि संगीत की दुनिया में उनका आना एक करामात के जैसा था... जो भी हुआ बड़े हीं आनन-फ़ानन में हो गया। बात १९६८ की है। ये फ़नकारा लाहौर के नेशनल कालेज आफ़ आर्ट में टेक्स्टाईल डिजाईन में डिप्लोमा कर रही थीं। उस दौरान कालेज में कई सारे कार्यक्रम होते रहते थे। वैसे हीं किसी एक कार्यक्रम में इस्लामिया कालेज के प्रोफ़ेसर इसरार ने इन्हें गाते हुए सुन/देख लिया। प्रोफ़ेसर साहब ने इनसे युनिवर्सिटी के रेडियो पाकिस्तान के कार्यक्रमों के लिए गाने का अनुरोध किया... और फिर देखिए एक वह दिन था और एक आज का दिन है। आपने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह फ़नकारा, जिनकी हम बातें कर रहे हैं , उनका नाम है नय्यारा नूर। "नय्यारा" का जन्म १९५० में असम में हुआ था। ये लोग रहने वाले तो थे अमृतसर के लेकिन चूँकि व्यवसायी इनका मुख्य पेशा था, इसलिए ये लोग असम में जा बसे थे। "नय्यारा" के अब्बाजान की गिनती मुस्लिम लीग के अगली पंक्ति के सदस्यों में की जाती थी। ठीक-ठाक वज़ह तो नहीं मालूम लेकिन शायद इसी कारण से इनका परिवार १९५८ में पाकिस्तान चला गया। १९७१ आते-आते , नय्यारा ने टीवी और फिल्मों के लिए गाना शुरू कर दिया था। "घराना" और "तानसेन" जैसी फिल्मों ने इन्हें आगे बढने का मौका दिया। पीटीवी के एक कार्यक्रम "सुखनवर" में इनके द्वारा रिकार्ड की गई गज़ल "ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज मुक़ाबिल आ जाए, मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए" ने इनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। वैसे देखा जाए तो यह गज़ल इन्हीं के लिए लिखी मालूम होती है। जानकारी के लिए बता दें कि इस गज़ल को लिखा था बहज़ाद लखनवी ने और संगीत से सजाया था मास्टर मंज़ूर हुसैन ने। नय्यारा नूर बेग़म अखर से काफ़ी प्रभावित थीं। कालेज के दिनों में भी वो बेग़म अख्तर की गज़लें और नज़्में गाया करती थीं। उन गज़लों ने हीं नय्यारा को लोगों की नज़रों में चढाया था। बेगम अख्तर की गायिकी का नय्यारा पर इस कदर असर था कि वो बेग़म की गज़लें पुराने तरीके से आर एम पी ग्रामोफ़ोन रिकार्ड प्ल्यर्स पर हीं सुना करती थीं, जबकि आडियो कैसेट्स बाज़ार में आने लगे थे। नय्यारा गायिकी की दूसरी विधाओं की तुलना में गज़लों को बेहतर मानती थीं(हैं)। इनका मानना है कि "गज़लें श्रोताओं पर गहरा असर करती हैं और यह असर दीर्घजीवी होता है।" नय्यारा ने अनगिनत गज़लें गाई है। उनमें से कुछ हैं- "आज बाज़ार में पा-बजौला चलो", "अंदाज़ हु-ब-हु तेरी आवाज़-ए-पा का था", "रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई", "ऐ इश्क़ हमें बरबाद न कर", "कहाँ हो तुम", "वो जो हममें तुममें करार था", "रूठे हो तुम, तुमको कैसे मनाऊँ पिया".... नय्यारा पाकिस्तान के जाने-माने गायक और संगीत-निर्देशक "मियाँ शहरयार ज़ैदी" की बीवी हैं। नय्यारा के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है..लेकिन वो सब कभी दूसरी कड़ी में..

फ़नकारा के बाद अब वक्त है इस गज़ल के गज़लगो से रूबरू होने का, गुफ़्तगू करने का। चूँकि हम भी लेखन से हीं ताल्लुक रखते हैं, इसलिए जायज है कि गज़लगो का नाम आते हीं हममें रोमांच की लहर दौड़ पड़े। लेकिन क्या कीजियेगा... इन शायर की किस्मत भी ज्यादातर शायरों के जैसी हीं है... या फिर ये कहिए कि हमारी किस्मत हीं खराब है कि हमें अपनी धरोहर संभालकर रखना नहीं आता.. तभी तो इनके बारे में जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। खोज-बीन करने पर बस एक फ़ेहरिश्त हासिल हुई है, जिसमें इनकी लिखी कुछ गज़लें दर्ज़ हैं। अब चूँकि हमें इन गज़लों से ज्यादा कुछ भी नहीं मालूम इसलिए हम यही फ़ेहरिश्त आपके सामने पेश किए देते हैं:

१) मगर जुबां से कभी हमने कुछ कहा तो नहीं
२) हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है
३) तुमने दिल की बात कह दी आज यह अच्छा हुआ
४) हँसना नहीं आता मुझे, यह बात नहीं है
५) ये मेरी अना की शिकस्त है, न दवा करो, न दुआ करो
६) उनको मेरी वफ़ाओं का इकरार भी नहीं
७) सोज़-ए-ग़म से जिस कदर शिकवा सदा होते हैं लोग
८) न मिन्नत किसी की, न शिकवा किसी से
९) लाख मैं सबसे खफ़ा होके घर को चला
१०) पैमाने छलक हीं जाते हैं जब कैफ़ का आलम होता है

आपको इनकी ये सब गज़लें या फिर बाकी की और भी गज़लें पढनी हों तो यहाँ जाएँ। अहा! देखिए तो इस हरबराहट में हम इन शायर का नाम बताना हीं भूल गए। तो इन्हीं अज़ीम-उस-शान शायर "इक़बाल अज़ीम" का एक शेर सुनाकर हम इस गलती को सुधारना चाहेंगे:

हमें जिन दोस्तों ने बेगुनाही की सज़ा दी है,
हमारा ज़र्फ़ देखो हमने उनको भी दुआ दी है।


इस शेर के बाद अब पेश है कि आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने यह महफ़िल सजाई है। तो डूब जाईये दर्द की इस मदहोशी में... हाँ चलते-चलते यह भी बता दें कि यहाँ पर दो-तीन शेर ज्यादा हीं हैं... वैसे भी शेर हैं जो नय्यारा नूर ने इस गज़ल में नहीं गाए। पर जैसा कि ग़ालिब ने कहा है कि "मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है", इसलिए न हमें शिकायत है और यकीन मानिए आपको भी कोई शिकायत नहीं होगी:

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था, सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक गयी, मुझे रंज है ये बुरा हुआ

जो नज़र बचा के गुज़र गये, मेरे सामने से अभी अभी
ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ

मेरी ज़िन्दगी के चिराग का, ये ____ कुछ नया नहीं
अभी रोशनी अभी तीरगी, ना जला हुआ ना बुझा हुआ

मुझे हमसफ़र भी मिला कोई, तो शिकस्ता हाल मेरी तरह
कई मंजिलों का थका हुआ, कई रास्तों का लुटा हुआ

मुझे जो भी दुश्मन-ए-जाँ मिला, वो ही पुख़्ताकार जफ़ा मिला
न किसी के जख़्म गलत पड़े, न किसी का तीर ख़ता हुआ

मुझे रास्ते मे पड़ा हुआ, एक अजनबी का खत मिला
कहीं खून-ए-दिल से लिखा हुआ, कहीं आँसुओं से मिटा हुआ




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "फरियाद" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -

किसी के दिल की तू फरियाद है क़रार नहीं,
खिलाए फूल जो ज़ख्मों के वो बहार नहीं

नज़्म को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले पहचान की सीमा जी ने। सीमा जी, आप जिस तरह से एक हीं टिप्पणी में सारे शेर एक के बाद एक पेश करती हैं, उससे हमें बड़ी हीं सहूलियत होती है। मैं बाकी मित्रों से भी यह दरख्वास्त करना चाहता हूँ कि आप अपनी पेशकश को एक टिप्पणी या फिर दो टिप्पणियों तक हीं सीमित रखें। इसके लिए आप सबों को अग्रिम धन्यवाद। हम वापस आते हैं सीमा जी की टिप्पणी पर। तो ये रहे आपके शेर:

उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं। (ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश')

ख़ुदा से हश्र में काफ़िर! तेरी फ़रियाद क्या करते?
अक़ीदत उम्र भर की दफ़अतन बरबाद क्या करते? (सीमाब अकबराबादी)

नाला, फ़रियाद, आह और ज़ारी,
आप से हो सका सो कर देखा| (ख़्वाजा मीर दर्द)

सीमा जी के बाद इस महफ़िल में शरद जी और मंजु जी खुद के लिखे शेरों के साथ हाज़िर हुए। मंजु जी, पिछली बार भले हीं हमने आपको उलाहना दी थी, लेकिन इस बार उसी गलती (आपकी नहीं... हमारी) के लिए हम आपकी प्रशंसा करने को बाध्य हैं... आप भले हीं देर आईं लेकिन दुरूस्त तो आईं। ये रहे आप दोनों के शेर क्रम से:

उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
तुम लडकपन के भी वो दिन याद करना
लौट आएं फिर से वो गुज़रे ज़माने
बस खुदा से इक यही फ़रियाद करना । (शरद जी)

मेरे मालिक !तेरे दरबार में ,
करूँ बार - बार फरियाद मैं .
मानव में उदय हो मानवतावाद ,
न होगा फिर आतंक का नामोनिशान (मंजु जी)

सुमित जी और राज सिंह जी, आप दोनों बड़ी हीं मुद्दतों के बाद इस महफ़िल में नज़र आए। राज सिंह जी, यह क्या.. जब आप हमारी महफ़िल तक का सफ़र तय कर हीं लेते हैं तो बस मंज़िल (टिप्पणी) से पहले लौट क्यों जाते हैं... उम्मीद करता हूँ कि आप आगे से ऐसा नहीं करेंगे। सुमित जी, यह रही आपकी पेशकश:

कोई फ़रियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे,
तूने आँखों से कोई बात कही हो जैसे। (फ़ैज़ अनवर)

शामिख साहब, गणतंत्र दिवस की आपको भी ढेरों बधाईयाँ। आपने ग़ालिब के कई सारे शेर हमारी महफ़िल के सामने रखे... इसी खुशी में हम आपसे यह खुशखबरी बाँटना चाहेंगे कि आने वाले कुछ हीं दिनों में हम ग़ालिब पर एक शृंखला (बस एक महफ़िल नहीं..बल्कि महफ़िलों की लड़ी) लेकर हाज़िर होने वाले हैं। तो संभालिए अपनी धड़कन को और उठने दीजिए चिलमन को :) उससे पहले पेश हैं आपके ये शेर:

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया (ग़ालिब)

चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब (जावेद अख्तर)

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते (अकबर इलाहाबादी)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, February 2, 2010

रसिया रे मन बसिया रे तेरे बिना जिया मोरा लागे ना...एक गीत मीना कपूर को समर्पित



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 333/2010/33

फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की तीसरी कड़ी में आज बातें गायिका मीना कपूर की। जी हाँ, वही मीना कपूर जो एक सुरीली गायिका होने के साथ साथ सुप्रसिद्ध संगीतकार अनिल बिस्वास जी की धर्मपत्नी भी हैं। अनिल दा तो नहीं रहे, मीना जी आजकल दिल्ली में रहती हैं। दोस्तों, आप में से कई पाठक हर मंदिर सिंह 'हमराज़' के नाम से वाकिफ होंगे जिन्होने फ़िल्मी गीत कोश का प्रकाशन किया एक लम्बे समय से शोध कार्य करने के बाद। इस शोध कार्य के दौरान वे फ़िल्म जगत के तमाम कलाकारों से ख़ुद जा कर मिले और तमाम जानकारियाँ बटोरे। उनकी निष्ठा और लगन का ही नतीजा है कि १९३१ से लेकर ८० के दशक तक के सभी फ़िल्मों के सभी गीतों के डिटेल्स उनके बनाए गीत कोश में दर्ज है। तो एक बार वे दिल्ली में अनिल दा के घर भी गए थे। आइए उन्ही की ज़बानी में सुनें उस मुलाक़ात के बारे में जिसमें अनिल दा के साथ साथ मीना जी से भी उनकी भेंट हुई और मीना जी के गाए शुरु शुर के गीतों के बारे में कुछ दुर्लभ बातें पता चली। 'हमराज़' जी 'लिस्नर्स बुलेटिन' पत्रिका के सम्पादक भी हैं और उस मुलाक़ात को उन्होने इस पत्रिका के ६८-वें अंक में सन् १९८७ में प्रकाशित किया था, प्रस्तुत है। "२५ नवंबर १९८६ को दिल्ली में अनिल दा के घर पर उनकी १९३५ से १९४० तक हिंदी फ़िल्मों के गीतों के गयकों की जानकारी प्राप्त करने के लिए जब मेरी बातचीत चल रही थी तो एकाएक गायिका मीना कपूर जी आ गईं। तब उनके गाए गीतों की बात चल पड़ी। मीना जी ने बताया कि सब से पहला गीत उन्होने संगीतकार नीनू मजुमदार के निर्देशन में फ़िल्म 'पुल' में सन् १९४७ में गाया था - "नाथ तुम जानत हो सब गट की"। इसके बाद की २-३ फ़िल्मों के लिए भी नीनू मजुमदार जी ने ही उनसे गीत गवाए थे - जेलयात्रा ('४७), गड़िया ('४७ - "सुंदर सुंदर प्यारे प्यारे", "रात की गोदी में" , "निंदिया देश चलो री"), कुछ नया ('४८) इत्यादि।"

मीना कपूर ने अनिल दा के संगीत निर्देशन में भी बहुत से फ़िल्मों में गानें गाए हैं, लेकिन बहुत बार ऐसा हुआ कि फ़िल्म के पर्दे पर तो उनकी आवाज़ रही, लेकिन ग्रामोफ़ोन रिकार्ड के लिए उन्ही गीतों को लता जी से गवाया गया। और क्योंकि रिकार्ड वाले वर्ज़न ही श्रोताओं को सुनने को मिलता है, इस तरह से मीना जी के गाए तमाम गानों से उनके चाहने वाले वंचित रह गए। १९४८ की एक ऐसी ही फ़िल्म थी 'अनोखा प्यार', जिसमें अनिल दा ने नरगिस के लिए मीना जी की आवाज़ को चुना था। लेकिन बाद में जब रिकर्ड पर लता जी की आवाज़ सुनाई दी तो ऐसा कहा गया कि उस वक़्त मीना जी बीमार थीं जिसकी वजह से लता जी ने रिकार्ड के लिए वो गीत गाएँ। वैसे लता जी ने इस फ़िल्म में नलिनी जयवंत के लिए पार्श्वगायन किया था। मीना जी के गाए हिट गीतों में चितलकर के साथ उनका गाया "आना मेरी जान संडे के संडे" ख़ासा लोकप्रिय हुआ था। ५० के दशक में भी अनिल दा के कुछ फ़िल्मों में उनके गाए गीत ख़ूब पसंद किए गए जैसे कि फ़िल्म 'परदेसी', 'छोटी छोटी बातें', और 'चार दिल चार राहें'। आज के लिए हमने चुना है १९५७ की फ़िल्म 'परदेसी' का एक बड़ा ही दिल को छू लेने वाला गीत, "रसिया रे, मन बसिया रे, तेरे बिना जिया मोरा लागे ना"। यह फ़िल्म पहली इंडो रशियन को-प्रोडक्शन फ़िल्म थी, जिसका निर्माण रूस में हुआ था। कहानी ख्वाजा अहमद अब्बास व मारिया स्मिर्नोवा की थी, तथा निर्देशन अब्बास साहब और वसिलि प्रोनिन का था। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे डेविड अब्राहम, इया अरेपिना, विताली बेलियाकोव, पी. जयराज, पृथ्वीराज कपूर, श्तीफ़न कायुकोव, मनमोहन कृष्णा, नरगिस, वरवरा ओबुखोवा, पद्मिनी, अचला सचदेव, बलराज साहनी, ओलेग स्ट्रिज़ेनोव प्रमुख। उस साल के फ़िमफ़ेयर पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए एम. आर. आचरेकर को पुरस्कार मिला था इस फ़िल्म के लिए। जहाँ तक संगीत पक्ष का सवाल है, अनिल दा का संगीत था और प्रेम धवन के बोल। दोस्तों, आज अनिल दा हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी जीवन संगिनी मीना जी का गाया हुआ यह गीत जैसे आज पुकार पुकार कर उन्हे आवाज़ दे रहा है कि "तेरे बिना जिया मोरा लागे ना"। जानेवाले तो कभी वापस नहीं आते, लेकिन ऐसे कलाकार जाकर भी नहीं जाते। गुज़रे ज़माने के ये अनमोल तराने हमेशा हमेशा उन्हे हमारे बीच मौजूद रखेंगे। मीना कपूर जी को उत्तम स्वास्थ्य और लम्बी आयु के लिए शुभकामनाएँ देते हुए आइए सुनते हैं उनका गाया यह सुरीला नग़मा।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

इबादत में उठे हैं आज फिर हाथ मेरे,
खुदा मिटा दे उसके दिल से हर गिला,
वो मेरा सनम जो दूर हो गया नज़रों से,
है जुस्तजू जिसकी उससे दे मुझे मिला...

अतिरिक्त सूत्र- साहिर लुधियानवीं का लिखा है ये गीत

पिछली पहेली का परिणाम-
जी शरद जी आपने हमारी गलती पर सही ध्यान दिलाया. पर आपको बधाई...क्या वाकई आपको ये सभी गाने जुबानी याद हैं :), ग्रेट
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

अमन का सन्देश भी है "खान" के सूफियाना संगीत में...



ताज़ा सुर ताल 05/ 2010

सजीव - सुजॊय, वेल्कम बैक! उम्मीद है छुट्टियों का तुमने भरपूर आनंद उठाया होगा!

सुजॊय - बिल्कुल! और सब से पहले तो मैं विश्व दीपक तन्हा जी का शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होने मेरी अनुपस्थिति में 'ताज़ा सुर ताल' की परंपरा को बरक़रार रखने में हमारा सहयोग किया।

सजीव - निस्सन्देह! अच्छा सुजॊय, आज फरवरी का दूसरा दिन है, यानी कि साल २०१० का एक महीना पूरा हो चुका है, लेकिन अब तक एक भी फ़िल्म इस साल की बॊक्स ऒफ़िस पर अपना सिक्का नहीं जमा पाया है। पिछले हफ़्ते 'वीर' रिलीज़ हुई थी, और इस शुक्रवार को 'रण' और 'इश्क़िया' एक साथ प्रदर्शित हुई हैं। 'वीर' ने अभी तक रफ़्तार नहीं पकड़ी है, देखते हैं 'रण' और 'इश्क़िया' का क्या हश्र होता है। 'चांस पे डांस', 'प्यार इम्पॊसिबल', और 'दुल्हा मिल गया' भी पिट चुकी है।

सुजॊय - मैंने सुना है कि 'इश्क़िया' के संवदों में बहुत ज़्यादा अश्लीलता है। विशाल भारद्वाज ने 'ओम्कारा' की तरह इस फ़िल्म के संवादों में भी काफ़ी गाली गलोच और अश्लील शब्द डाले हैं। ऐसे में मुझे नहीं लगता कि फ़ैमिली ऒडियन्स को यह फ़िल्म थियटरों में खींच पाएगी। देखते हैं! और आपने ठीक ही कहा है कि इस साल अभी तक कोई फ़िल्म हिट नहीं हुई है। और '३ इडियट्स' अब भी सिनेमाघरों में हाउसफ़ुल चल रही है।

सजीव - लेकिन लगता है बहुत जल्द ही आमिर ख़ान को टक्कर देनेवाले हैं शाहरुख़ ख़ान, क्योंकि अगले हफ़्ते रिलीज़ हो रही है 'माइ नेम इज़ ख़ान', जिसका लोग बहुत दिनों से बड़े ही बेसबरी से इंतज़ार कर रहे हैं। अब देखना यह है कि क्या 'माइ नेम...' '३ इडियट्स' को बॊक्स ऒफ़िस पर मात दे सकेगी या नहीं।

सुजॊय - जहाँ तक गीत संगीत का सवाल है, जहाँ एक तरफ़ अब भी "ऒल इज़ वेल" काउण्ट डाउन शोज़ में नंबर-१ पर चल रही है, वहीं यह भी देखना है कि 'माइ नेम...' का "सजदा" कामयाबी के कितने पायदान चढ़ता है। चलिए आज हम समीक्षा करें 'माइ नेम इस ख़ान' के गीत संगीत का।

सजीव - जब तुमने "सजदा" का ज़िक्र छेड़ ही दिया है तो चलो जल्दी से यह गीत सुन लेते हैं, उसके बाद इस फ़िल्म की बातों को आगे बढ़ाएँगे।

गीत - सजदा....sajda (MNIK)


सुजॊय - राहत फ़तेह अली ख़ान, शंकर महादेवन और रीचा शर्मा के गाए इस गीत को फ़िल्म का सर्वश्रेष्ठ गीत माना जा रहा है। इस फ़िल्म के लगभग सभी गानें सुफ़ीयाना अंदाज़ के हैं।

सजीव - आजकल एक ट्रेंड सी जैसे चल पड़ी है सुफ़ी संगीत को फ़िल्मों में इस्तेमाल करने की। और क्योंकि यह फ़िल्म का पार्श्व अमेरीका में बसे एक मुस्लिम परिवार से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस तरह का संगीत इस फ़िल्म में सार्थक बन पड़ा है। कुछ कुछ क़व्वाली के अंदाज़ में यह गीत सुनने के बाद देर तक ज़हन में बसा रहता है। तबला और ढोलक के ठेकों का बहुत ही ख़ूबसूरत इस्तेमाल इस गीत में सुनने को मिलता है।

सुजॊय - और राहत फ़तेह अली ख़ान और रीचा शर्मा के सुफ़ीयाना अंदाज़ से तो श्रोता बहुत दिनों से ही परिचित हैं, इस गीत में भी इन दोनों ने अपना बेस्ट दिया है। और संगीतकार तिकड़ी शंकर अहसान लॊय ने फिर एक बार साबित किया कि उन्हे सिर्फ़ रॊक में नहीं बल्कि हर प्रकार के संगीत में महारथ हासिल है।

सजीव - तो कुल मिलाकर हम यह कहें कि हमें इस गीत का सजदा करना चाहिए?

सुजॊय - बेशक़!

सजीव - अच्छा, अब जो दूसरा गाना हम सुनेंगे उसे भी तीन गायकों ने गाया है। ये हैं अदनान सामी, शंकर महादेवन और श्रेया घोषाल, और गीत है "नूर-ए-ख़ुदा"। यह एक नर्मोनाजुक गीत है, जिसमें अदनान और शंकर की आवाज़ें ही ज़्यादा सुनाई देती है। श्रेया की एन्ट्री अंत के तरफ़ होती है, लेकिन उतनी ही मिठास के साथ।

सुजॊय - गीत के ऒर्केस्ट्रेशन में गीटार का सुंदर प्रयोग सुनने को मिलता है। चलिए शोर्ताओं को भी इस गीत को सुनने का मौका देते हैं।

गीत - नूर-ए-ख़ुदा...NOOR-E-KHUDA (MNIK)


सजीव - आप सभी को मालूम ही होगा कि 'माइ नेम इज़ ख़ान' करण जोहर की फ़िल्म है, जिसमें शाहरुख़ ख़ान के अलावा काजोल, शीतल मेनन, जिम्मी शेरगिल, ज़रीना वहाब हैं, और ढेर सारे अमरीकी कलाकार भी आपको इस फ़िल्म में नज़र आएँगे। करण ने ही फ़िल्म का निर्देशन भी किया है। कहानी लिखी है शिवानी बथिजा ने। संवाद शिवानी के साथ साथ नीरंजन अय्यंगर ने लिखे हैं।

सुजॊय - अच्छा, नीरंजन अय्यंगर ने इस फ़िल्म के गानें भी लिखे हैं ना?

सजीव - हाँ, वैसे तो नीरंजन एक संवाद लेखक ही हैं, जिन्होने 'जिस्म', 'कल हो ना हो', 'पाप', 'रोग', 'कभी अल्विदा ना कहना', 'आइ सी यू', 'क्या लव स्टोरी है', 'फ़ैशन', 'वेक अप सिड' और 'कुरबान' जैसी फ़िल्मों में संवाद लिख चुके हैं।

सुजॊय - और कुछ फ़िल्मों में गानें भी लिखे हैं। अभी हाल ही में फ़िल्म 'क़ुर्बान' का हिट गीत "शुक्रान अल्लाह" भी तो उन्ही का लिखा हुया है।

सजीव - हाँ, और 'माइ नेम...' में तो सभी गानें उन्ही के लिखे हुए हैं। लगता है इस फ़िल्म से वो फ़िल्मी गीतकारों की मुख्य धारा में शामिल हो जाएँगे। जिस तरह से जावेद अख़्तर एक संवाद लेखक से गीतकार बन गए थे, हो सकता है कि नीरंजन भी वही रास्ता इख़्तियार करे।

सुजॊय - और उस राह पर नीरंजन ने मज़बूत क़दम रख ही दिया है 'माइ नेम...' के गीतों के ज़रिए।

सजीव - बिल्कुल! तो अब कौन सा गीत सुनवाओगे?

सुजॊय - तीसरा गाना है शफ़ाक़त अमानत अली का गाया हुआ, "तेरे नैना"। शंकर अहसान लॊय ने जिनसे 'कभी अल्विदा ना कहना' में सुपरहिट गीत "मितवा" गवाया था। इस गीत में भी वही सुफ़ीयाना अंदाज़ इस तिक़ई ने बरक़रार रखा है, लेकिन "मितवा" जैसा असर शायद नहीं कर सका है यह गीत। लेकिन अपने आप में गीत बहुत अच्छा है।

सजीव - गीत का मुख्य आकर्षण यह है कि गीत के बीचों बीच इस गीत में क़व्वाली का रंग आ जाता है। नीरंजन अय्यंगर के बोल स्तरीय हैं।

गीत - तेरे नैना...TERE NAINA (MNIK)


सुजॊय - 'माइ नेम इज़ ख़ान' में कुल ६ ऒरिजिनल गीत हैं, जिनमें से ५ गानें हम यहाँ पर आपको सुनवा रहे हैं। तीन गानें आप सुन चुके हैं, इससे पहले कि हम चौथा गाना बजाएँ, सजीव, क्या आप इस फ़िल्म की थोड़ी सी भूमिका अपने पाठकों को बताना चाहेंगे?

सजीव - ज़रूर! वैसे यह फ़िल्म इतनी चर्चा में है कि लगभग सभी को फ़िल्म के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी तो ज़रूर होगी, फिर भी हम बता रहे हैं। रिज़्वान ख़ान (शाहरुख़ ख़ान) मुंबई के बोरीवली का रहनेवाला एक मुस्लिम लड़का जो पीड़ित है Asperger syndrome नामक बिमारी से, जिसके चलते लोगों के साथ बातचीत करने में, यानी कि सोशियलाइज़ करने में उसे दिक्कत आती है। युवा रिज़्वान अमेरीका के सैन फ़्रान्सिस्को में एक हिंदु तलाक़शुदा महीला मंदिरा (काजोल) शादी करता है। ९/११ के आतंकी हमलों के बाद रिज़्वान को अमरीकी पुलिस अपने गिरफ़्त में ले लेती है और उसके विकलांगता को वो संदेह की नज़र से देखते हैं। रिज़्वान के गिरफ़्तारी के बाद उसकी मुलाक़ात राधा (शीतल मेनन) से होती है जो एक थेरपिस्ट हैं, जो उसकी मदद करती है। उसके बाद रिज़्वान अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा से मिलने की यात्रा शुरु करता है उसके नाम पर लगे धब्बे को मिटाने के लिए। फ़िल्म में ओबामा का किरदार निभाया है क्रिस्टोफ़र बी. डंकन ने।

सुजॊय - सजीव, अभी कुछ महीने पहले शाहरुख़ ख़ान को अमरीका के एयरपोर्ट में कई घंटों तक सिर्फ़ इसलिए रोका गया था क्योंकि उनकी पदवी ख़ान है, और एक ऐसी हवा पश्चिम में चल रही है कि जिसके चलते हर मुसलमान को शक़ की निगाह से देखा जा रहा है। तो हो ना हो इस फ़िल्म की प्रेरणा शाहरुख़ और करण को उसी हादसे से मिली होगी!

सजीव - हो सकता है! अच्छा बातें तो बहुत हो गई, अब एक और गीत की बारी। अगला गीत भी सूफ़ी अंदाज़ का, लेकिन अब की बार एक धार्मिक रचना, एक प्रार्थना, "अल्लाह ही रहम"। राशिद अली और साथियों की आवाज़ों में इस गीत को सुनते हुए आप आध्यात्मिक जगत में पहुँच जाएँगे। इस गीत के बारे में ज़्यादा कहने की आवश्यक्ता नहीं है, बस सुनिए और महसूस कीजिए एक पाक़ शक्ति को!

गीत - अल्लाह ही रहम...ALLAH HI RAHAM (MNIK)


सुजॊय - सजीव, शंकर अहसान लॊय ने इस फ़िल्म में कम से कम एक गीत तो रॊक शैली में ज़रूर बनाया है। इन सूफ़ी गीतों के बाद अब एक रॊक अंदाज़ का गाना जिसे शंकर महादेवन और सूरज जगन ने गाया है। "रंग दे" एक ऐसा गीत है जिसमें संदेश है अमन का, ख़ुशी का, जोश का।

सजीव - हाँ, एक रिफ़्रेशिंग् गीत जिसे हम कह सकते हैं। सुनते हैं यह गीत, लेकिन सुजॊय एक बात बताओ, तुमने अभी थोड़ी देर पहले कहा था कि इस फ़िल्म में ६ गानें हैं, छ्ठा गीत कौन सा है?

सुजॊय - नहीं, दरअसल छठा गीत एक इन्स्ट्रुमेन्टल पीस है जिसे 'स्ट्रिंग्स' बैण्ड ने बजाया है, और जिसका शीर्षक रखा गया है 'ख़ान थीम'।

सजीव - अच्छा, तो चलो अब अमन और शांति का संदेश हम भी फैलाएँ और सुनें आज के 'ताज़ा सुर ताल' का अंतिम गीत। श्रोताओ और पाठकों से हमारा सविनय निवेदन है कि इस फ़िल्म के गीत संगीत की समीक्षा यहाँ टिप्पणी पर ज़रूर करें। कौन सा गीत आपको सब से ज़्यादा अच्छा लगा, किस चीज़ की कमी लगी, आप के नज़र में इस फ़िल्म के संगीत की क्या जगह है आप के दिल में। ज़रूर बताएँ।

गीत - रंग दे...RANG DE (MNIK)


"माई नेम इस खान" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
शंकर एहसान लॉय तिकड़ी से हमेशा ही अच्छे संगीत की उम्मीद की जाती है, और अमूमन ये निराश भी नहीं करते, और ये भी मानना पड़ेगा कि करण जौहर के पास संगीत की ऐसी श्रोतामई समझ है जो एक सफल फिल्मकार में होनी चाहिए. सजदा और तेरे नैना फिल्म के बहतरीन गीत हैं...नूरे खुदा फिल्म रीलिस होने के बाद बेहद मशहूर होने वाला है, और रंग दे जो फिल्म के थीम को सही तरह से सामने लाता है वो भी खूब गुनगुनाया जायेगा ऐसी उम्मीद है...कुल मिलाकर एल्बम एक अच्छी खरीदारी साबित होगी संगीत प्रेमियों के लिए...हाँ संगीत में "क्लासी" टच ज्यादा है, जिस कारण आम लोगों में ये गीत उतने कामियाब शायद नहीं होंगें पर ये कहना गलत नहीं होगा कि इस संगीतकार तिकड़ी इस साल एक बेहतर शुरूआत की है इस अल्बम से

अब पेश है आज के तीन सवाल-

TST ट्रिविया # १३ एक बेहद मशहूर गीत के अंतरे के बोल हैं "पल्कों पे झिलमिल तारे हैं, आना भरी बरसातों में"। इस गीत की 'माइ नेम इज़ ख़ान' के किसी गीत के साथ समानता बताइए।

TST ट्रिविया # १४ बतौर संगीतकार शंकर अहसान लॊय की पहली फ़िल्म जो थी वो फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई थी, लेकिन उसका संगीत ज़रूर रिलीज़ हुआ था। बताइए उस फ़िल्म का नाम।

TST ट्रिविया # १५ करण जोहर की किस फ़िल्म में अभिषेक बच्चन एक नर्स की भूमिका में नज़र आए थे?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछली पहेली में पहला सवाल अनुत्तरित रह गया था, रामू ने नाना पाटेकर से इंस्पेक्टर कुरैशी का किरदार करवाया था फिल्म भूत में, बहरहाल अन्य दो जवाब तो सीमा जी सही दिए हैं बधाई

Monday, February 1, 2010

अफसाना लिख रही हूँ....उमा देवी की आवाज़ में एक खनकता नगमा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 332/2010/32

मारी याद आएगी' शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। दोस्तों, यह शृंखला समर्पित है उन कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं के नाम जिन्होने फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में कुछ बेहद सुरीले और मशहूर गीत गाए हैं, लेकिन उनका बहुत ज़्यादा नाम न हो सका। आज एक ऐसी गायिका का ज़िक्र जिन्होने दो दो पारियाँ खेली हैं इस फ़िल्म जगत में। जी हाँ, पार्श्व गायिका के रूप में अपना करीयर शुरु करने के बाद जब उन्हे लगा कि इस क्षेत्र में वो बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हो पाएँगी, तो उन्होने अपनी प्रतिभा को अभिनय के क्षेत्र में आज़माया। और एक ऐसी हास्य अभिनेत्री बनीं कि वो जिस किसी फ़िल्म में भी आतीं लोगों को हँसा हँसा कर लोट पोट कर देतीं। गायन के क्षेत्र में तो उनका बहुत ज़्यादा नाम नहीं हुआ लेकिन उनके हास्य अभिनय से सजे अनगिनत फ़िल्में और फ़िल्म जगत की बेहतरीन कॊमेडियन के रूप में उनका नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है। आप समझ ही चुके होंगे कि आज हम बात कर रहे हैं गायिका उमा देवी, यानी कि हम सब की चहेती टुनटुन की। उत्तर प्रदेश के एक खत्री परिवार में जन्मे उमा देवी को अभिनय से ज़्यादा गायकी का शौक था। लेकिन एक रूढ़ीवादी पंजाबी परिवार में होने की वजह से उनको अपने परिवार से कोई बढ़ावा ना मिल सका। उन्होने अपनी मेहनत से हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी में शिक्षा प्रात की और महज़ १३ वर्ष की उम्र में ही बम्बई आ पहुँचीं। सन्‍ १९४७ में उमा देवी को अपना पहला एकल गीत गाने का मौका मिला जिसके लिए उन्हे २०० रुपय की मेहनताना मिली। उन्हे नौशाद आहब का संगीत इतना पसंद था कि उनके बार बार अनुरोध करने पर आख़िरकार नौशाद साहब ऒडिशन के लिए तैयार हो गए। और उनकी गायन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। और फ़िल्म 'दर्द' में पहली बार उमा देवी ने गानें गाए और पहला गीत ही सुपर डुपर हिट। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी गीत की बारी।

नौशाद साहब उन दिनों जिन जिन फ़िल्मों में संगीत दे रहे थे, उन सब में उन्होने उमा देवी को कम से कम एक गीत गाने का मौका ज़रूर दिया। पर यह सिलसिला बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। धीरे धीरे उन्हे गानें मिलने बंद हो गए। इसका एक कारण था दूसरी गायिकाओं का और ज़्यादा प्रतिभाशाली होना जो ऊँची आवाज़ में गा सकते थे। उमा देवी को अपनी सीमाओं का पूरा अहसास था। दूसरे, उनका मोटापा भी उन्हे चुभ रही थी जो उनकी गायकी पर असर डाल रहा था। ऐसे उनके राखी भाई नौशाद साहब ने उन्हे फ़िल्मों में हास्य चरित्रों के रूप में काम करने का सुझाव दिया, और इस प्रकार आरंभ हुई उमा देवी की दूसरी पारी, जिन्हे हम टुनटुन के नाम से जानते हैं। उनकी यह दूसरी पारी सब को इतनी पसंद आई कि उमा देवी सब के दिल में आज तक टुनटुन के नाम से ही बसी हुईं हैं और हमेशा रहेंगी। दोस्तों, आज उमा जी को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए हमने उनका गाया सब से हिट गीत चुना है, १९४७ की फ़िल्म 'दर्द' का - "अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का, आँखो में रंग भर के तेरे इंतज़ार का"। दोस्तों, फ़िल्म 'दर्द' का यह गीत एक और दृष्टि से भी बेहद ख़ास है कि इस गेत से ही शुरु हुआ था गीतकार शक़ील बदायूनी और संगीतकार नौशाद का साथ, जिस जोड़ी ने इतिहास कायम किया सदाबहार नगमों की दुनिया में। शक़ील बदायूनी पर केन्द्रित विविध भारती के एक कार्यक्रम में यूनुस ख़ास कहते हैं कि "दिलचस्प बात यह है कि शायरी की दुनिया से आने के बावजूद शक़ील ने फ़िल्मी गीतों के व्याकरण को फ़ौरन समझ लिया था। उनकी पहली ही फ़िल्म के गाने एक तरफ़ सरल और सीधे सादे हैं तो दूसरी तरफ़ उनमें शायरी की ऊँचाई भी है। इसी गाने में शक़ील साहब ने लिखा है कि "आजा के अब तो आँख में आँसू भी आ गए, सागर छलक उठा है मेरे सब्र-ओ-क़रार का, अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का"। किसी के इंतज़ार को जितने शिद्दत भरे अलफ़ाज़ शक़ील ने दिए, शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिए।" तो आइए दोस्तों, उमा देवी की शिद्दत भरी आवाज़ में सुनते हैं फ़िल्म 'दर्द' का यह नग़मा।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

लोक लाज तज दिया मैंने,
मन को तुझ संग बाँध के,
जागते हैं बस याद में तेरी,
रात रात हम संग चाँद के

अतिरिक्त सूत्र- एक मशहूर संगीतकार की पत्नी भी हैं ये कम्चार्चित सुरीली गायिका

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी बधाई एकदम सही है जवाब
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, January 31, 2010

चोरी चोरी आग सी दिलमें लगाकर चल दिए...सुलोचना कदम की मीठी शिकायत याद है क्या ?



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 331/2010/31

संगीत रसिकों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और महफ़िल में आप सभी का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, यह सच है कि आकाश की सुंदरता सूरज और चांद से है, लेकिन सिर्फ़ ये ही दो काफ़ी नहीं। इनके अलावा भी जो असंख्य झिलमिलाते और टिमटिमाते सितारे हैं, जिनमें से कुछ उज्जवल हैं तो कुछ धुंधले, इन सभी को एक साथ लेकर ही आकाश की सुंदरता पूरी होती है। कुदरत का यही नमूना फ़िल्म संगीत के आकाश पर भी लागू होता है। जहाँ एक तरफ़ लता मंगेशकर और आशा भोसले एक लम्बे समय से सूरज और चांद की तरह फ़िल्म जगत में अपनी रोशनी बिखेर रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ़ बहुत सारी ऐसी गायिकाएँ भी समय समय पर उभरीं हैं जिनका नाम ज़रा कम हुआ, या फिर युं कहिए कि प्रतिभाशाली होते हुए भी जिन्हे गायन के बहुत ज़्यादा मौके नहीं मिले। लेकिन इन सभी कमचर्चित गायिकाएँ कुछ ऐसे ऐसे गानें गाकर गईं हैं कि ना केवल ये गानें उनकी पहचान बन गई बल्कि उनका नाम भी फ़िल्म संगीत के इतिहास में सम्माननीय स्तर पर दर्ज करवा दिया। आज फ़िल्म संगीत का आकाश इन सभी सितारों के गाए गीतों से झिलमिला रही हैं। इन कमचर्चित गायिकाओं के योगदान को अगर अलग कर दिया जाए, फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने से निकाल दिया जाए, तो शायद इस ख़ज़ाने की विविधता ही ख़तम हो जाएगी। ऐसीं ही कुछ कमचर्चित पार्श्वगायिकाएँ, जिन्होने श्रोताओं के दिलों में अमिट छाप छोड़ीं हैं, आज से अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को रोशन करेंगी अपने गाए सुमधुर गीतों से। प्रस्तुत है सुनहरे दौर की १० कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित हमारी विशेष लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी'। और आज इस ख़ास शृंखला की पहली कड़ी में ज़िक्र सुलोचना कदम की। जी हाँ, वही सुलोचना कदम जिन्होने किसी ज़माने में सुनने वालों के दिलों में चोरी चोरी आग लगा दी थी। आप समझ गए होंगे हमारा इशारा। जी हाँ, पेश है आज सुलोचना जी का गाया बेहद मशहूर गीत "चोरी चोरी आग सी दिल में लगाकर चल दिए, हम तड़पते रह गए वो मुस्कुराकर चल दिए"। १९५० की फ़िल्म 'ढोलक', गीतकार श्याम लाल शम्स, संगीतकार श्याम सुंदर।

संगीतकार श्याम सुंदर द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्म 'ढोलक' के इसी गीत ने रातों रात गायिका सुलोचना कदम को लोकप्रिय पार्श्वगायिकाओं की कतार में ला खड़ा किया था। 'ढोलक' रूप शोरे की फ़िल्म थी। उन दिनों वो अपने फ़िल्मों के लिए संगीतकार विनोद को मौका दिया करते थे। लेकिन इस फ़िल्म के लिए उन्होने चुना श्याम सुंदर का नाम। अजीत, मीना शोरे, मंजु और मनमोहन कृष्णा अभिनीत इस फ़िल्म के गीतों ने काफ़ी धूम मचाया। उस ज़माने में गायिका सुलोचना कदम का नाम मराठी फ़िल्मों और ख़ास कर लावणी के साथ जुड़ा हुआ था। फ़िल्म 'ढोलक' में उनके गाए हुए तमाम गीतों ने उन्हे हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में भी मशहूर बना दिया। आज जब भी कभी सुलोचना जी का नाम चर्चा में आता है, तो सब से पहले लोग इसी गीत को याद करते हैं। इसी फ़िल्म में सतीश बत्रा के साथ उनका गाया "मौसम आया है रंगीन" गीत भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। दोस्तों, युं तो हिंदी फ़िल्म संगीत में श्याम सुंदर के इस फ़िल्म से सुलोचना कदम मशहूर हुईं थीं, लेकिन सर्वप्रथम संगीतकार श्याम बाबू पाठक ने इस गायिका को मात्र १४-१५ वर्ष की आयु में ढ़ूंढ निकाला था। १७-१८ साल की अवस्था में सन् १९४८ में संगीतकार ज्ञान दत्त के लिए उन्होने तीन फ़िल्मों में गाने गाए, ये फ़िल्में थीं 'दुखियारी', 'लाल दुपट्टा' और 'नाव'। ज्ञान दत्त साहब के अलावा सुलोचना जी अब भी अपनी सफलता का श्रेय मराठी लावणी तथा संगीतकार श्याम सुंदर और मराठी फ़िल्मो के संगीतकार वसन्त पवार को देती हैं। तो दोस्तों, आइए अब गीत सुना जाए, ज़रा सुनिए तो इस गीत को, जिसे आप ने एक लम्बे अरसे से नहीं सुना होगा, और हमें पूरी उम्मीद है कि सुलोचना जी का गाया यह गीत आप के भी दिल में चोरी चोरी आग लगा ही देगी।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

आँख भर न आये तो क्या,
सागर छलक न जाए तो क्या,
आजा कि डूब चला है दिल,
गम को करार न आये तो क्या...

अतिरिक्त सूत्र- इस गायिका को एक अन्य नाम से इंडस्ट्री में अधिक जाना जाता है

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी बहुत बढ़िया आप का स्कोर है १८ जो अवध जी और इंदु जी के स्कोरों का जोड़ भी है :), बधाई...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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