Saturday, February 12, 2011

ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - एक खास बातचीत में हिंदुस्तान की पहली पार्श्व गायिका पारुल घोष को याद किया उनकी परपोती श्रुति मुर्देश्वर कार्तिक ने



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की एक और विशेषांक के साथ हम उपस्थित हैं। जैसा कि आप जानते हैं भारत में बोलती फ़िल्मों की शुरुआत सन् १९३१ में हुई थी 'आलम आरा' के साथ। उस वक़्त अभिनेता अपनी ही आवाज़ में गीत भी गाते थे; यानी कि उस वक़्त आज की तरह पार्श्वगायन या प्लेबैक की तकनीक विकसित नहीं हुई थी। पार्श्वगायन की नीव रखी गई साल १९३५ में जब संगीतकार रायचंद बोराल ने कलकत्ते के न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'धूप छाँव' में पहली बार "गायकों" से गानें गवाए। इस फ़िल्म में के. सी. डे के गाये गीत "तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा" को पहला प्लेबैक्ड गीत माना जाता है। गायिकाओं की बात करें तो इसी फ़िल्म में पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और साथियों ने भी एक गीत गाया था, और इस तरह से ये दोनों गायिकाओं का नाम पहली बार दर्ज हुआ हिंदी सिनेमा की पार्श्वगायिकाओं की फ़ेहरिस्त में। यह बात आज से ठीक ७५ वर्ष पहले की है। और यह मेरा सौभाग्य ही कहूँगा कि हाल ही में मेरा परिचय हुआ पारुल जी की परपोती श्रुति मुर्देश्वर जी से, और एक अजीब सा रोमांच हो आया यह सोचकर कि श्रुति जी से पारुल जी के बारे में कुछ बातें जाना जा सकता है। मेरे एक बार निवेदन से ही श्रुति जी ने इंटरव्यु के लिए हामी भर दी, और उनसे की हुई बातचीत से आज के इस अंक को हम सजा रहे हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह साप्ताहिक विशेषांक समर्पित है हिंदी सिनेमा की प्रथम पार्श्वगायिका स्वर्गीय पारुल घोष जी को।

चित्र: पारुल घोष (सौजन्य: श्रुति मुर्देश्वर कार्तिक)


सुजॊय - श्रुति जी, हिंद-युग्म में आपका बहुत बहुत स्वागत है। हमें कितनी ख़ुशी हो रही है आपको हमारे पाठकों से मिलवा कर कि क्या बताएँ! यह वाक़ई हमारे लिए गर्व और सौभाग्य की बात है हिंदी सिनेमा की प्रथम पार्श्वगायिका स्व: पारुल जी की परपोती से हम उनके बारे में जानने जा रहे हैं। यह बताइए कि आपको कैसा लगता है पारुल जी की बातें करते हुए?

श्रुति - सुजॊय जी, आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद। सही मायने में मैं आपका आभारी हूँ क्योंकि यह मेरा पहला इंटरव्यु है जिसमें मैं अपनी दीदा (बंगला में नानी को दीदा कहते हैं) के बारे में बातें करूँगी। मुझे बहुत बहुत गर्व महसूस होता है यह सोचकर कि मैं उनकी परपोती हूँ। मैं हमेशा सोचती हूँ कि काश मैं उनसे मिल पाती। मेरे पिता पंडित आनंद मुर्देश्वर और दादा पंडित देवेन्द्र मुर्देश्वर ने दीदा के बारे में बहुत कुछ बताया है। और मेरे पिता जी ने तो मुझे उनकी गाई हुई कई गीतों को सिखाया भी है, जो दीदा ने उन्हें उनकी बचपन में सिखाया था। मैं उन गीतों के बारे में बहुत जज़्बाती हूँ और वो सब गीत मेरे दिल के बहुत बहुत करीब हैं।

सुजॊय - श्रुति जी, आप पारुल जी की परपोती हैं, यानी कि ग्रेट-ग्रैण्ड डॊटर। इस रिश्ते को ज़रा खुलकर बताएँगी?

श्रुति - मैं पारुल दीदा की परपोती हूँ। वो मेरे पिता जी की माँ सुधा मुर्देश्वर जी की माँ हैं।

सुजॊय - अच्छा अच्छा, यानी कि पारुल जी की बेटी हैं सुधा जी, जिनका देवेन्द्र जी से विवाह हुआ। और आप सुधा जी और देवेन्द्र जी के बेटे आनंद जी की पुत्री हैं।

श्रुति - जी हाँ।

सुजॊय - जैसा कि आपने बताया कि आपने पारुल जी के बारे में अपने दादा जी और पिता जी से बहुत कुछ सुना है, जाना है। तो हमें बताइए कि पारुल जी की किस तरह की छवि आपके मन में उभरती है?

श्रुति - मुझे अफ़सोस है कि मैं दीदा को नहीं मिल सकी। काश कि मैं कुछ वर्ष पूर्व जन्म लेती! उनकी लम्बी बीमारी के बाद १३ अगस्त १९७७ को बम्बई में निधन हो गया। जैसा कि मैंने बताया कि दादाजी, पिताजी और तमाम रिश्तेदारों से मैंने पारुल दीदा के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। हमेशा से ही उनकी एक बहुत ही सुंदर तस्वीर मेरे दिल में रही है। एक सुंदर बंगाली चेहरा और एक दिव्य आवाज़ की मालकिन। कुछ किस्से थे जैसे कि दीदा खाना बनाते हुए अपनी बेटी सुधा घोष (मेरी दादी) के साथ मेरे पिताजी को गाना सिखाते थे। जब मैं छोटी थी, तब मेरे पिताजी हमेशा कहते थे कि मेरी आवाज़ कुछ कुछ उन्हीं के जैसी है, और मैं यह बात सुन कर ख़ुश हो जाया करती थी। लेकिन अब मैं मानती हूँ कि दीदा के साथ मेरा कोई मुकाबला ही नहीं। वो स्वयं भगवान थीं।

सुजॊय - वाह! आपने बताया कि आपकी आवाज़ पारुल जी की तरह थी, ऐसा आपके पिताजी कहा करते थे। तो क्या आप ख़ुद भी गाती हैं?

श्रुति - जी हाँ, मैं गाती हूँ। मैंने अपने पिताजी से सीखा है और बाद में तुलिका घोष जी से भी संगीत सीखा, जो सुप्रसिद्ध तबलानवाज़ पंडित निखिल घोष जी की पुत्री हैं। वर्तमान में मैं मीडिया से जुड़ी हुई हूँ लेकिन गायन मेरा पैशन है।

सुजॊय - तो क्या आप अपनी गायन को अपना करीयर बनाने की भी सोच रही हैं?

श्रुति - नहीं, ऐसा तो कोई विचार नहीं है, लेकिन अगर कोई अच्छा मौका मिला कि जिससे मैं अपने परिवार के संगीत परम्परा को आगे बढ़ा सकूँ, अगली पीढ़ी तक लेकर जा सकूँ, तो मैं ज़रूर इसे अपना प्रोफ़ेशन बना लूँगी।

सुजॊय - बहुत ख़ूब, हम भी आपको इसकी शुभकामनाएँ देते हैं।

श्रुति - धन्यवाद!

सुजॊय - अच्छा श्रुति जी, वापस आते हैं पारुल जी पर, उनके गीतों की अगर हम बात करें तो १९४३ की फ़िल्म 'क़िस्मत' में उनका गाया "पपीहा रे, मेरे पिया से कहियो जाये" शायद उनका सब से लोकप्रिय गीत रहा है। क्या आप इस गीत को अक्सर गाती हैं, या फिर अपने दोस्तों से, रिश्तेदारों से इस गीत को गाने की फ़रमाइश भी आती होंगी?

श्रुति - इस गीत के साथ तो न जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, तब सब से पहला पहला गीत जो मैंने सीखा था, वह यही गीत था। और जब भी कोई मुझे गीत गाने को कहते, मैं यही गीत गाती रहती। और आज तक यह मेरा पसंदीदा गीत रहा है :-) आप ने ठीक ही अनुमान लगाया कि आज तक मुझे इस गीत की फ़रमाइशें आती हैं, अपने दोस्तों से, परिवार वालों से, और मैं ख़ुशी ख़ुशी इसे गाती भी हूँ। अनिल दादु का बनाया हुआ एक बेहद ख़ूबसूरत कम्पोज़िशन है।

सुजॊय - श्रुति जी, आगे बढ़ने से पहले, आइए इस गीत का यहाँ पर आनंद लिया जाये।

श्रुति - ज़रूर!

गीत - पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाये (किस्मत, १९४३)


सुजॊय - वाह! क्या मधुर आवाज़ और क्या गाया था उन्होंने! भई वाह! और पारुल जी किस स्तर की गायिका थीं, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लता मंगेशकर जी ने भी अपनी चर्चित 'श्रद्धाजन्ली' ऐल्बम में पारुल जी को याद करते हुए "पपीहा रे" गाया था।

श्रुति - आपने 'श्रद्धांजली' ऐल्बम की बात छेड़ी, तो मैं आपको बताना चाहूँगी कि 'श्रद्धांजली' ऐल्बम मेरे दिल के बहुत करीब रहा है, क्योंकि यह मुझे मेरे पिताजी ने गिफ़्ट किया था जब मैं स्कूल में थी। और मैं आँखें बंद करके भी इस ऐल्बम में शामिल सभी गीतों को गा सकती हूँ।

सुजॊय - तब तो आपको पता ही होगा कि लता जी ने पारुल जी के बारे में क्या बताया था। लेकिन हम अपने पाठकों के लिए यहाँ बताना चाहेंगे कि लता जी ने कुछ इस तरह से पारुल जी को संबोधित किया था - "पारुल घोष, जानेमाने संगीतकार अनिल बिस्वास जी की बहन, और प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित पन्नालाल घोष की पत्नी थीं। फ़िल्म गायिका होने के बावजूद वो घर संसार सम्भालने वाली गृहणी भी थीं। उनके जाने के बाद महसूस हुआ कि वक़्त की गर्दिश ने हमसे कैसे कैसे फ़नकार छीन लिए।" तो आइए लता जी की आवाज़ में भी इसी गीत का आनंद हम उठाते हैं।

गीत - पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाये ('श्रद्धांजली', लता मंगेशकर)


सुजॊय - अच्छा श्रुति जी, अनिल दादु का आपने ज़िक्र किया, हमारे कुछ पाठकों को यह मालूम भी होगा, जिन्हें नहीं है, उनके लिए हम यह बता दें कि अनिल बिस्वास जी पारुल जी के बड़े भाई साहब थे। अनिल दा के बचपन के गहरे दोस्त हुआ करते थे पन्ना दा। जी हाँ, वही पन्ना बाबू, जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित पन्नालाल घोष के नाम से जाने गये। अनिल दा ने पन्ना बाबू के साथ अपनी इस दोस्ती को और भी गहरा बनाते हुए अपनी बहन पारुल का हाथ पन्ना बाबू के हाथों सौंप दिया। अच्छा श्रुति जी, और कौन कौन से गानें हैं पारुल जी के जो आपको बेहद पसंद है?

श्रुति - मुझे पुराने गानें पसंद है, ज़्यादातर ग़ज़लें सुनती हूँ, और दीदा के गानें भी बहुत पसंद है। "पपीहा रे" तो पसंद है ही, कुछ और भी हैं जो मेरे पिताजी ने मुझे सिखाया था जो उन्हें पारुल दीदा ने सिखाया था, जिनमें एक है "मैं उनकी बन जाऊँ रे"।

सुजॊय - तो क्यों ना इस गीत को भी यहाँ पर सुनें और अपने पाठकों को सुनवाये?

श्रुति - ज़रूर!

सुजॊय - यह गीत है १९४३ की ही फ़िल्म 'हमारी बात' का, जिसमें अनिल दा का ही संगीत था।

गीत - मैं उनकी बन जाऊँ रे (हमारी बात, १९४३)


सुजॊय - श्रुति जी, मैंने एक वेबसाइट पर पाया कि पारुल जी ने कुल ७५ हिंदी फ़िल्मी गीत गाया है। आपका क्या ख़याल है इस बारे में?

श्रुति - सुजॊय जी, जैसा कि मैंने सुना है कि उस ज़माने में दीदा के गाये गीतों के बहुत से रेकॊर्ड्स ऐसे थे जिनमें उनकी नाम के बजाय उन अभिनेत्रियों के किरदारों के नाम मिलते थे जिन पर वो गीत फ़िल्माये गये थे। इसलिए सटीक सटीक उनके गाये गीतों की संख्या बता पाना मुश्किल है।

सुजॊय - क्या आप उनके हिंदी फ़िल्म संगीत करीयर के बारे में थोड़ा विस्तार से बता सकती हैं? 'धूप छाँव' फ़िल्म का वह कौन सा गीत था जिसने पारुल जी को देश की पहली पार्श्वगायिका बना दी?

श्रुति - सुप्रभा सरकार के साथ गाया हुआ वह गीत था "मैं ख़ुश होना चाहूँ, ख़ुश हो न सकूँ"। उनका गाया हुआ अगला गीत भी एक फ़ीमेल डुएट था १९४१ की फ़िल्म 'कंचन' का, जिसके बोल थे "मोरे मन की नगरिया बसाई रे", जिसे पारुल दीदा ने लीला चिटनिस जी के साथ मिलकर गाया था। फिर १९४२ की फ़िल्म 'बसंत' में उन्होंने बेबी मुम्ताज़, जो बाद में मधुबाला के नाम से मशहूर हुईं, उनके लिए गीत गाया था "एक छोटी सी दुनिया रे, मेरे छोटे से मन में"। १९४२-४३ में 'बसंत', 'क़िस्मत', 'हमारी बात', 'सवाल' जैसी फ़िल्मों में अनिल दादु और पन्ना दादु ने उनसे बहुत सारे गानें गवाए।

सुजॊय - फिर उसी दौरान नौशाद साहब ने भी तो उनसे गाना गवाया था फ़िल्म 'नमस्ते' में?

श्रुति - जी हाँ, एक गीत था "आये भी वो गये भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया", और इसी फ़िल्म में जी. एम. दुर्रानी के साथ मिलकर उन्होंने एक हास्य युगल गीत भी गाया था "दिल ना लगे नेक टाइ वाले बाबू"। फिर इसी साल १९४३ में संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी ने भी उनसे गवाये फ़िल्म 'नजमा' में। इस फ़िल्म में फिर एक बार उन्हें फ़ीमेल डुएट्स गाने का मौका मिला। एक डुएट था मुमताज़ के साथ ("भला क्यों ओ हो मगर क्यों") और एक था सितारा जी के साथ ("फ़सल-ए-बहार गाए जा, दीदा-ए-ग़म रुलाये जा")।

सुजॊय - उनकी उपलब्ध फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र डालें तो पाते हैं कि सब से ज़्यादा और सब से लोकप्रिय गीत उन्होंने १९४२ से १९४७ के बीच गाया है। फिर धीरे धीरे उनके गानें कम होते गये और १९५१ की फ़िल्म 'आंदोलन' में उन्होंने अंतिम बार के लिए गाया था। आपको क्या लगता है कि उन्होंने गाना क्यों छोड़ दिया होगा?

श्रुति - मैं समझती हूँ कि हर कलाकार का अपना दौर होता है, अपना समय होता है जब वो बुलंदी पर होता है। मुझे बहुत ज़्यादा गर्व और ख़ुशी है कि मैं उनकी परपोती हूँ।

सुजॊय - श्रुति जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातें करके, पारुल जी के बारे में आप ने जो बातें बताईं, हमें पूरी उम्मीद है कि पुराने फ़िल्म संगीत के रसिक इसका भरपूर आनंद लिए होंगे, मैं अपनी तरफ़ से, हमारे पाठकों की तरफ़ से, और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ, फिर किसी दिन आप से अनिल दा और पन्ना बाबू के बारे में बातचीत करेंगे, नमस्कार!

श्रुति - शुक्रिया तो मुझे अदा करनी चाहिए जो आपने मुझे यह मौका दिया अपनी पारिवारिक संगीत परम्परा के बारे में कहने का। बहुत बहुत शुक्रिया, नमस्कार!

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तो दोस्तों, आज बस इतना ही, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में भी जल्द ही आप पारुल जी का गाया हुआ एक और गीत सुनेंगे, ऐसा हम आपको विश्वास दिलाते हैं। आज की यह प्रस्तुति आपको कैसी लगी, ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में लिखकर। आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के बारे में अपनी राय और सुझाव हमें ईमेल के द्वारा भी व्यक्त कर सकते हैं oig@hindyugm.com के पते पर। अब इजाज़त दीजिए, कल सुबह 'सुर संगम' के साथ हम फिर उपस्थित होंगे, बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

गिरिजेश राव की कहानी "ढेला पत्ता"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की संस्मरणात्मक कहानी "आती क्या खंडाला?" का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी "ढेला पत्ता", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "ढेला पत्ता" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 33 सेकंड है।

सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

"पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता "
~ गिरिजेश राव

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

"दोनों की बातों में कुछ खास नहीं होता था लेकिन दोनों बिना बातें किये रह नहीं पाते थे।"
(गिरिजेश राव की कहानी 'ढेला पत्ता' से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#118th Story, Gate: Girijesh Rao/Hindi Audio Book/2011/01. Voice: Anurag Sharma

Thursday, February 10, 2011

अलविदा अलविदा....यही कहा होगा सुर्रैया ने दुनिया-ए-फानी को छोड़ते हुए अपने चाहने वालों से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 590/2010/290

सुरैया के गाये सुमधुर गीतों को सुनते हुए और उनकी चर्चा करते हुए हम आज आ पहुँचे हैं उन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' की दसवीं और अंतिम कड़ी पर। आइए आज हम सुरैया की उस ज़िंदगी में थोड़ा झाँके जिसे वो फ़िल्मलाइन छोड़ने के बाद अंत तक जी रही थीं। हालाँकि उन्हें आर्थिक तौर पर कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन वो बहुत अकेली हो गई थीं। अंतिम दिनों में वो अपने वकील पर निर्भर थीं, जिन्होंने उनका ख़याल भी रखा, और सुरैया ने भी अपनी कुछ सम्पत्ति उनकी बेटियों के नाम कर दीं। लेकिन इसके अलावा भी सुरैया की बहुत सारी स्थायी सम्पत्ति थी, जिसमें थे वर्ली में एक पूरी इमारत जिसमें ६ फ़्लैट्स, गराज और आउटहाउसेस थे; इसके अलावा लोनावला में भी एक बंगला था। इतनी सारी जायदाद की मालकिन होने के बावजूद सुरैया एक किराये के फ़्लैट में रहती थीं। १९९८ में वो गुमनामी से बाहर निकलीं और स्क्रीन विडिओकॊन अवार्ड्स में शरीक हुईं, जिसमें अभिनेता सुनिल दत्त के हाथों से 'लाइफ़टाइम अचीवमेण्ट अवार्ड' ग्रहण किया। सफ़ेद सलवार कमीज़ में उस दिन भी सुरैया कितनी ग्रेसफ़ुल दिख रहीं थीं। उनमें जो अदबी बात थी, वह बात अंत तक उनमें कायम थी। पुरस्कार लेते वक़्त जब उन्होंने माइक हाथ में लिया तो इतनी जज़्बाती हो गईं कि उनका गला चोक हो गया। जावेद जाफ़री ने जब उनसे कुछ गुनगुनाने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया, जिसका सभी ने सम्मान किया। ३१ जुलाई २००४ को सुरैया हमें छोड़ कर चली गईं अलविदा अलविदा कहते हुए।

आज के अंक के लिए हमने चुना है फ़िल्म 'शमा परवाना' का गीत "अलविदा अलविदा, ओ जाने तमन्ना अलविदा, हो सके तो बख्श देना"। 'प्यार की जीत' और 'बड़ी बहन' जैसी सुपर-डुपर हिट फ़िल्मों के बाद डी. डी. कश्यप ने सुरैया को १९५४ की इस फ़िल्म 'शमा परवाना' में डिरेक्ट दिया और इसमें पहली बार उनके नायक बनें शम्मी कपूर। अब तक शम्मी कपूर 'जीवन ज्योति', 'गुल सानोबार', 'खोज', 'लैला मजनु', 'रेल का डिब्बा', 'ठोकर' और 'महबूबा' जैसी फ़िल्मों में काम कर चुके थे। इस फ़िल्म में शम्मी कपूर के साथ काम करने की यादों को सुरैया ने कुछ इस तरह से व्यक्त किया था उस 'जयमाला' कार्यक्रम में - "आजकल तो ऐक्टिंग् सीखाने के बाक़ायदा स्कूल खुले हुए हैं, लेकिन फिर भी ज़रा कमज़ोरी दिखायी देती है। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के कलाकार कला की तरफ़ ध्यान कम देते हैं। पुराने कलाकारों में सहगल साहब और मोतीलाल जी ऐसे कलाकार थे जिनकी ऐक्टिंग् और ज़िंदगी में फ़र्क नहीं महसूस होता था। इसकी वजह यह थी कि इन लोगों ने कला को अपने जीवन में ढाल लिया था। फ़िल्म 'शमा परवाना' में मेरा और शम्मी कपूर का साथ था। उन दिनों शम्मी कपूर फ़िल्मों में नये नये आये थे, बहुत दुबले पतले, नाज़ुक से थे। आज की तरह उस समय वो उछल-कूद करते तो मैं कह देती "ज़रा सम्भल के, कहीं कमर में लोच ना आ जाए (हँसते हुए)"। तो लीजिए फ़िल्म 'शमा परवाना' का यह गीत सुनिये जिसे लिखा है मजरूह साहब ने और संगीतकार हैं हुस्नलाल भगतराम। यह फ़िल्म हुस्नलाल-भगतराम की आख़िरी चर्चित फ़िल्मों में से थी। भले ही सुरैया पर केन्द्रित इस शृंखला का समापन हम "अलविदा अलविदा" गीत से कर रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त तो यही है कि सुरैया जी, तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा। आपको यह शृंखला कैसी लगी, ज़रूर लिखिएगा oig@hindyugm.com के ईमेल पते पर। अब आज के लिए दीजिए इजाज़त, शनिवार की शाम साप्ताहिक विशेषांक के साथ दोबारा उपस्थित होंगे। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'जीत' के सेट पर देव आनंद ने सुरैया को ३००० रुपय की एक हीरे की अंगूठी से प्रेम निवेदन किया था। उस ज़माने के लिहाज़ से ३००० की रकम एक बड़ी रकम थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 10
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -1938 की फिल्म है ये.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अंजनाना जी की जबरदस्त टक्कर के बावजूद अमित जी विजयी रहे...नयी शृंखला के लिए सभी को शुभकामनाएँ, शरद जी वेलकॉम बेक

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, February 9, 2011

नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने...ग़ालिब का कलाम और सुर्रैया की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 589/2010/289

"आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक"। मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर के बाद हम सुरैया के लिये भी यही कह सकते हैं कि उनकी गायकी, उनके अभिनय में वो जादू था कि जिसका असर एक उम्र नहीं, बल्कि कई कई उम्र तक होता रहेगा। 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा', सिंगिंग् स्टार सुरैया को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस लघु शृंखला की आज नवी कड़ी में सुनिए १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की एक अन्य ग़ज़ल "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाये ना बने"। ग़ालिब के इन ग़ज़लों को सुरों में ढाला था संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने। इस फ़िल्म का निर्देशन सोहराब मोदी ने किया था। ग़ालिब की ज़िंदगी पर आधारित इस फ़िल्म को बहुत तारीफ़ें नसीब हुए। ग़ालिब की भूमिका में नज़र आये थे भारत भूषण और सुरैया बनीं थीं चौधवीं, उनकी प्रेमिका, जो एक वेश्या थीं। फ़िल्म के अन्य कलाकारों में शामिल थे निगार सुल्ताना, दुर्गा खोटे, मुराद, मुकरी, उल्हास, कुमकुम और इफ़्तेखार। इस फ़िल्म को १९५५ में राष्ट्रीय पुरस्कार के तहत स्वर्ण-कमल से पुरस्कृत किया गया था। सोहराब मोदी और संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। फ़िल्मफ़ेयर में रुसी के. बंकर को सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए पुरस्कृत किया गया था। १९५४ में सुरैया की बाकी फ़िल्में आयीं 'वारिस', 'शमा परवाना' और 'बिलवामंगल'। इसके बाद सुरैया ने जिन फ़िल्मों में काम किया उनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है:
१९५५ - ईनाम
१९५६ - मिस्टर लम्बू
१९५८ - तक़दीर, ट्रॊली ड्राइवर, मालिक
१९६१ - शमा
१९६३ - रुस्तोम सोहराब
१९६४ में सुरैया ने फ़िल्म 'शगुन' का निर्माण किया, १९६५ में फ़िल्म 'दो दिल' में केवल गीत गाये, और यही उनकी अंतिम फ़िल्म थी। उसके बाद सुरैया ने अपने आप को इस फ़िल्म जगत से किनारा कर लिया और गुमनामी में रहने लगीं। वो ना किसी सार्वजनिक जल्से में जातीं, ना ही ज़्यादा लोगों से मिलती जुलतीं। उनके इस पड़ाव का हाल आपको हम कल की कड़ी में बताएँगे।

सुरैया को फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में अभिनय करने का गर्व था। जब वो विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में तशरीफ़ लायी थीं, उन्होंने आज की इस प्रस्तुत ग़ज़ल को पेश करते हुए कुछ इस तरह से कहा था - "ज़िंदगी में कुछ मौके ऐसे आते हैं जिनपे इंसान सदा नाज़ करता है। मेरी ज़िंदगी में भी एक मौका ऐसा आया था जब फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को प्रेसिडेण्ट अवार्ड मिला और उस फ़िल्म का एक ख़ास शो राष्ट्रपति भवन में हुआ, जहाँ हमने पंडित नेहरु के साथ बैठकर यह फ़िल्म देखी थी। पंडित नेहरु हर सीन में मेरी तारीफ़ करते और मैं फूली ना समाती। इस वक़्त पंडितजी की याद के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल पेश करती हूँ, नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाये ना बने।"



क्या आप जानते हैं...
कि सुरैया ने कोई बसियत नहीं बनवाई थी, इसलिए उनकी मृत्यु के तुरंत बाद महाराष्ट्र सरकार ने उनकी जायदाद सील कर दी और दावेदार के लिए अर्ज़ी आमंत्रित की।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 09
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -बेहद मशहूर गीत.

सवाल १ - फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
भाई ये तो हम कहीं पहुँचते हुए नज़र नहीं आ रहे...मुकाबला एकदम बराबरी का है....आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी है...देखते हैं :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११०

बाद मुद्दत के फिर मिली हो तुम,
ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम,
ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है..

अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर लिखने या सबसे सुंदर कहने के लिए "इन्स्ट्रुमेंट बॉक्स" से नवाज़ा गया हो। उजले कपड़ों में देवदूत-से सजते और जँचते गुलज़ार साहब ने अपनी उम्र का तकाज़ा देते हुए नए-नवेलों को खुद पर गुमान करने का मौका यह कह कर दे दिया कि "अच्छा लगता है, आपके साथ-साथ यहाँ तक चला आया हूँ।" अब उम्र बढ गई है तो नज़्म भी पुरानी होंगी साथ-साथ, लेकिन "दिल तो बच्चा है जी", इसलिए हर दौर में वही "छुटभैया" दिल हर बार कुछ नया लेकर हाज़िर हो जाता है। यूँ तो यह दिल गुलज़ार साहब का है, लेकिन इसकी कारगुजारियों का दोष अपने मत्थे नहीं लेते हुए, गुलज़ार साहब "विशाल" पर सारा दोष मथ देते हैं और कहते हैं कि "इस नवजवान के कारण हीं मैं अपनी नज़्मों को जवान रख पाता हूँ।" अब इसे गुलज़ार साहब का बड़प्पन कहें या छुटपन.. लेकिन जो भी हो, इतना तो मानना पड़ेगा कि लगभग पचास सालों से चल रही इनकी लेखनी अब भी दवात से लबालब है.. अब भी दिल पर वही सुंदर-से "हस्ताक्षर" रचती रहती है.. वही गोल-गोल अक्षर.. गोल-गोल अंडा, मास्टर-जी का डंडा, बकड़ी की पूँछ, मास्टर-जी की मूँछ... और लो बन गया "क".. ऐसे हीं प्यारे-प्यारे तरीकों से और कल्पना की उड़ानों के सहारे गुलज़ार साहब हमारे बीच की हीं कोई चीज हमें सौंप जाते हैं, जिसका तब तक हमें पता हीं नहीं होता। ८ सितम्बर १९८७ को भी यही बात हुई थी। उस दिन जब गुलज़ार साहब ने हमें "दिल" का अड्डा बताया, तभी हमें मालूम हुआ कि यह नामुराद कोई और नहीं "हमारा पड़ोसी है", यह ऐसा पड़ोसी है जो "हमारे ग़म उठा लेता है, लेकिन हमारे ग़मों को दूर नहीं करता" तभी तो गुलज़ार साहब कहते हैं:

हाँ मेरे ग़म तो उठा लेता है, ग़मख्वार नहीं,
दिल पड़ोसी है, मगर मेरा तरफ़दार नहीं..


("ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम..." यह सुनकर आपको नहीं लगता कि शायर ने किसी खास के लिए ये अल्फ़ाज़ कहे हैं। अलग बात है कि फिल्मफेयर की बलैक-लेडी पर भी ये पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं, लेकिन पवन झा जी की मानें तो गुलज़ार साहब ने कुछ सालों पहले "एक खास" के लिए यह नज़्म लिखी थी.. वह खास कौन है? यह पूछने की ज़रूरत भी है क्या? :) )

हाँ तो हम गुलज़ार साहब और "दिल पड़ोसी है" की बातें कर रहे थे। इस एलबम के एक-एक गीत को गुलज़ार साहब ने इतनी शिद्दत से लिखा है (वैसे ये हर गीत को उतनी हीं मेहनत, शिद्दत और हसरत से रचते हैं) कि मुझसे अपनी पसंद के एक या दो गाने चुनते नहीं बन रहे। "कोयले से हीरे को ढूँढ निकाला जा सकता है, लेकिन जहाँ हीरे हीं हीरे हो वहाँ पारखी का सर घूम न जाए तो कहना।" वैसे मैं अपने आप को पारखी नहीं मानता लेकिन हीरों के बीच बैठा तो ज़रूर हूँ।.... शायद एक-एक हीरा परखता चलूँ तो कुछ काम बने। अब ज़रा इसे देखिए:

चाँद पेड़ों पे था,
और मैं गिरजे में थी,
तूने लब छू लिए,
जब मैं सजदे में थी,
कैसे भूलूँगी मैं, वो घड़ी गश की थी,
ना तेरे बस की थी, ना मेरे बस की थी..
(रात क्रिसमस की थी)

या फिर इसे:

माँझी रे माँझी, रमैया माँझी,
मोइनी नदी के उस पार जाना है,
उस पार आया है जोगी,
जोगी सुना है बड़ा सयाना है..

शाम ढले तो पानी पे चलके पार जाता है,
रात की ओट में छुपके रसिया मोहे बुलाता है,
सोना सोना, जोगी ने मेरा
जाने कहाँ से नाम जाना है..
(माँझी रे माँझी)

यहाँ पर माँझी और मोइनी नदी के बहाने "माया-मोह" की दुनिया के उस पार बसे "अलौकिक" संसार की बात बड़े हीं खूबसूरत और सूफ़ियाना तरीके से गुलज़ार साहब ने कह दी है। ऐसी हीं और भी कई सारी नज़्में हैं इस एलबम में जिसमें गुलज़ार, पंचम और आशा की तिकड़ी की तूती गूँज-गूँज कर बोलती है। जिस तरह हमने पिछली कड़ी में खुद इन दिग्गजों से हीं इनकी पसंद-नापसंद और गानों के बनने की कहानी सुनी थी, उसी तरह आज भी क्यों न वह बागडोर इन्हीं को सौंप दी जाए। (साभार: सजीव जी एवं सुजॉय जी)

आशा: "सातों बार बोले बंसी"

पंचम: इसके बारे में गुलज़ार, तुम बताओ।

गुलज़ार: "सातों बार बोले बंसी, एक हीं बार बोले ना.. तन की लागी सारी बोले, मन की लागी खोले ना".. ये गाने में खास बात ये है कि बांसुरी को "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए आप।

पंचम: कैसे?

गुलज़ार: जितनी फूंक तन पे लगती है, उतनी हीं बार बोलती है लेकिन अंदर की बात नहीं बताती। उसके सुर सात हैं, सातों बोलते हैं, जो चुप रहती है जिस बात पे, वो नहीं बोलती।

आशा: वाह!

गुलज़ार: उसमें खूबसूरत बात ये है कि उसको "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए। किस तरह से वो उठके कृष्णा के मुँह लगती है, मुँह लगी हुई है, मुँह चढी हुई है, और वो सारी बातें कहती है, एक जो उसका अपनापन है, वो चुप है, वो नहीं बोलती, उन सात सुरों के अलावा। उसके सारी "इलस्ट्रेशन" जितनी है, वो बाँसुरी के साथ "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए आप।

पंचम: ये गाने में थोड़ा लयकारी भी किया था, सरगम भी किए थे, बड़ा अच्छा था।

आशा: और उसमें बाँसुरी साथ में बोल रही है, और आवाज़ भी आ रही है, तो समझ में नहीं आ रहा कि बाँसुरी बोल रही है कि राधा बोल रही है।

गुलज़ार: हाँ, वही, उसमें "परसोनिफ़िकेशन" है सारी की सारी। फूंक पे बोलती है और वो फूंक पे हीं बोलती है बाँसुरी।

अब चूँकि गुलज़ार साहब ने इस गाने को बड़ी हीं बारीकी से समझा दिया है, इसलिए मुझे नहीं लगता है मुझे कुछ और कहने की ज़रुरत पड़ेगी। तो चलिए पढते और सुनते हैं यह गाना:

सातों बार बोले बंसी,
एक ही बार बोले ना,
तन की लागी सारी बोले,
मन की लागी खोले ना..

चुपके सुर में भेद छुपाये,
फूँक-फूँक बतलाये,
तन की सीधी मन की घुन्नी,
पच्चीस पेंचे खाए,
हो.. हाँ बोले ना बोले ना,
हाँ बोले ना बोले ना..

प्रीत की पीड़ा जाने मुई,
छाती छेद पड़े,
उठ-उठ के फिर मुँह लगती है,
कान्हा संग लड़े,
हो.. हाँ बोले ना बोले ना,
हाँ बोले ना बोले ना..




नियम से तो हमें बस एक हीं गाने तक अपनी महफ़िल को सीमित रखना चाहिए था, लेकिन बात जब इस "स्वर्णिम" तिकड़ी की हो रही हो तो एक से किसका मन भरता है! यूँ भी हम जितना इनके गाने सुनेंगे, उतना हीं हमें संगीत की बारीकियाँ जानने को मिलेंगी। पंचम दा की यही तो खासियत रही थी कि वे संगीत को बस "ट्रेडिशनल" एवं "कन्वेशनल" वाद्य-यंत्रों तक घेरकर नहीं रखते थे, बल्कि "बोल" के हिसाब से उसमे "रेलगाड़ी की सीटी", "मुर्गे की बाँग", "जहाज का हॉर्न" तक डाल देते थे। तभी तो सुनने वाला इनके संगीत की ओर खुद-ब-खुद खींचा चला आता था। जहाँ तक आशा ताई की बात है, तो इनके जैसा "रेंज" शायद हीं किसी गायिका के पास होगा। ये जितने आराम से "दिल चीज़ क्या है" गाती हैं, उतनी हीं सहूलियत से "दम मारो दम" को भी निभा जाती हैं। अब जहाँ ये तीनों अलग-अलग इतने करामाती हैं तो फिर साथ आ जाने पर "क़यामत" तो आनी हीं है। आशा जी "दिल पड़ोसी है" को अपना सर्वश्रेष्ठ एलबम मानती है.. तभी तो गुलज़ार साहब को उनके जन्मदिवस पर बधाई-संदेश भी इसी के रंग में रंगकर भेज डालती हैं: "भाई जन्म-दिन मुबारक। पंचम, आप और मैं खंडाला में, दिल पड़ोसी है के दिन, मैं जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगी।" हम भी इस तिकड़ी को कभी नहीं भूलेंगे। इसी वादे और दावे के साथ चलिए अगली बातचीत और अगले गाने का लुत्फ़ उठाते हैं:

आशा(गाती हैं): "जेते दाओ आमाए डेको ना... "

गुलज़ार: वाह!

पंचम: ये तो आप बंगाली में गा रही हैं.. "प्रोग्राम" का हिन्दी गानों का है।

आशा: हिन्दी हो, पंजाबी हो, चाहे टिम्बकटु की ज़बान हो, गाना सुर जहाँ अच्छे, मतलब जहाँ अच्छा, वो गाना अच्छा होता है।

गुलज़ार: सच में आशा जी, मैंने इसके कई बंगाली गाने चुराए हैं।

आशा: अच्छा?

गुलज़ार: हाँ, बहुत बार। ये पूजा के लिए जो गाने करते हैं, तो मैं पास बैठे हुए, कई बार धुन बहुत अच्छी लगी, जैसे एक, उसके पूरे बंगाली के बोल मुझे याद नहीं, और गौरी दा "फ़ेमस पोयट फ़्रॉम बंगाल"

आशा: गौरी शंकर मजुमदार

गुलज़ार: जी हाँ, और इनके बोल चल रहे थे पूजा के गाने के "आस्थे आमार देरी होबे"

पंचम: आ हा हा

गुलज़ार: उसपे वो गाना लिखा था उस ट्युन पर.. "तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं"

पंचम: ये उसी का गाना?

गुलज़ार: हाँ, आँधी में। और ये भी उसी तरह का गाना इनका, जिसपे आप अभी गा रहीं थीं, "जेते दाव आमाय"

आशा: "दिल पड़ोसी है" में.. (गाती हैं) "जाने दो मुझे जाने दो"।

और ये रहे उस गाने के बोल:

जाने दो मुझे जाने दो
रंजिशें या गिले, वफ़ा के सिले
जो गये जाने दो
जाने दो मुझे जाने दो

थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,
तन्हाई तो होगी, _______ कम होगा
गहरी ख़राशों की गहरी निशानियाँ हैं
चेहरे के नीचे कितनी सारी कहानियाँ हैं
माज़ी के सिलसिले, जा चुके जाने दो
ना आ आ..

उम्मीद-ओ-शौक़ सारे लौटा रही हूँ मैं,
रुसवाई थोड़ी-सी ले जा रही हूँ मैं
बासी दिलासों की शब तो गुज़ार आये
आँखों से गर्द सारी रोके उतार आये
आँखों के बुलबुले बह गये, जाने दो
ना आ आ..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-

ओस धुले मुख पोछे सारे
आँगन लेप गई उजियारे

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

आँगन में चहकें गौरैयाँ छत पर बैठा काग
जाड़ों की धूप सलोनी उस पर तेरा ये राग. - शन्नो जी

जिस आँगन में सजन संग हुए फेरे ,
अपनों का सुहाना मंजर याद आए रे - मंजु जी

कोई हँसता है तो तुमसा लगता है
दिल धड़कता है तो तुमसा लगता है
किसी सुबह मेरे आंगन मैं ओस से भीगा
कोई जब फूल खिलता है तो तुमसा लगता है - अवनींद्र जी

बहुत याद आती है
आँगन में लेटी हुई ,
कहानी सुनाती हुई वो मेरी
अम्मा (दादी ) - नीलम जी

डॉक्टर साहब महफ़िल की शुरूआत आपकी टिप्पणी से हुई, मेरे लिए इससे बड़ी बात क्या होगी। आपने सही कहा कि पंचम के गुजरने के बाद अकेले पड़े गुलज़ार के लिए विशाल भारद्वाज राहत की साँस की तरह आए हैं। वैसे बीच-बीच में "भूपिंदर" भी ऑक्सीजन की झलक दिखाते रहते हैं। लेकिन गुलज़ार तो गुलज़ार हैं। इन्हें कहीं एक छोटी-सी चिनगी भी दिख गई तो ये उसे आग में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए हमें फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम तो बस उन पढते और लिखते जाएँगे, बस आप ऐसे हीं हमारा हौसला-आफ़ज़ाई करते रहें। शन्नो जी, घर छोड़कर कहाँ जाएँगीं आप.. आखिरकार लौटकर तो यहीं आना है :) सुजॉय जी, लीजिए हमने आज आपकी फ़रमाईश पूरी कर दी.. आप भी क्या याद करेंगे! मंजु जी, अवनींद्र जी एवं नीलम जी, आपकी स्वरचित पंक्तियों ने महफ़िल के सूनेपन को समाप्त करने में हमारी सहायता की। इसके लिए हम आपके तह-ए-दिल से आभारी हैं। पूजा जी, दिलीप जी से हमारा परिचय कराने के लिए आपका धन्यवाद! लेकिन यह क्या.. शेर किधर हैं? अगली बार ध्यान रखिएगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, February 8, 2011

धडकते दिल की तम्मना हो मेरा प्यार हो तुम....कितने कम हुए है इतने मासूम और मुकम्मल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 588/2010/288

सुरैया के गाये सुमधुर गीतों से सजी लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' की आठवीं कड़ी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी हम हार्दिक स्वागत करते हैं। आज की कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है वह ना केवल सुरैया जी के संगीत सफ़र का एक अहम अध्याय रहा है, बल्कि इस गीत के संगीतकार के लिए भी एक मीलस्तंभ गीत सिद्ध हुआ था। ये कमचर्चित और अण्डर-रेटेड म्युज़िक डिरेक्टर थे ग़ुलाम मोहम्मद। १९६१ की फ़िल्म 'शमा' का बेहद मशहूर और ख़ूबसूरत गीत "धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, मुझे क़रार नहीं जब से बेक़रार हो तुम"। गीत नहीं, बल्कि ग़ज़ल कहें तो बेहतर होगा। कैफ़ी आज़्मी साहब ने क्या ख़ूब लफ़्ज़ पिरोये हैं इस ग़ज़ल में। ग़ुलाम मोहम्मद की तरह क़ैफ़ी साहब भी अण्डर-रेटेड रहे हैं, और उनकी लेखन प्रतिभा का फ़िल्म जगत उस हद तक लाभ नहीं उठा सका जितना उठा सकता था। आगे बढ़ने से पहले आइए इस ग़ज़ल के बाक़ी के शेर यहाँ लिखें...

धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम,
मुझे क़रार नहीं जब से बेक़रार हो तुम।

खिलाओ फूल किसी के किसी चमन में रहो,
जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार हो तुम।

ज़ह-ए-नसीब अता कि जो दर्द की सौग़ात,
वो ग़म हसीन है जिस ग़म के ज़िम्मेदार हो तुम।

चढ़ाऊँ फूल या आँसू तुम्हारे क़दमों में,
मेरी वफ़ाओं की उल्फ़त की यादगार हो तुम।

जितने सुंदर बोल, उतनी ही प्यारी धुन, और उतनी ही सुरीली आवाज़, कुल मिलाकर फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक अनमोल नगीना है यह ग़ज़ल। ग़ुलाम मोहम्मद की बात करें तो १९२४ में वे बम्बई आये थे और ८ सालों तक संघर्ष करने के बाद उन्हें सरोज मूवीटोन में बतौर तबला वादक नियुक्ति मिली थी। उसके बाद अनिल बिस्वास और नौशाद के सहायक और वादक के रूप में काम किया। नौशाद साहब के साथ उनकी युनिंग् ख़ूब जमी और नौशाद साहब की रचनाओं में ढोलक और तबले के ठेकों का जो रंग निखर कर आता था, वो ग़ुलाम मोहम्मद साहब की ही देन थी। फ़िल्म 'आन' के बाद ग़ुलाम मोहम्मद एक स्वतंत्र संगीतकार बन गये। 'हूर-ए-अरब', 'पगड़ी', 'पारस', और 'परदेस' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया। जहाँ तक ग़ुलाम मोहम्मद और सुरैया के साथ की बात है, १९४९ की फ़िल्म 'शायर' में एक उल्लेखनीय गीत था सुरैया का गाया हुआ "हमें तुम भूल बैठे हो, तुम्हें हम याद करते हैं"। उस ज़माने में ग़ुलाम साहब ज़्यादातर लता और शम्शाद बेगम को गवा रहे थे। १९५३ में 'दिल-ए-नादान' फ़िल्म से ग़ुलाम मोहम्मद ग़ज़लनुमा गीतों में भी महारथ हासिल कर ली, जिसकी परछाई अगले ही साल 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में दिखाई दी। आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर को भी गवा लेने के बाद 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में सुरैया के साथ उनका उत्कृष्ट काम हुआ। फिर आगे चलकर १९५८ की फ़िल्म 'मालिक' में "मन धीरे धीरे गाये रे मालूम नहीं कौन" एक सदाबहार सुरैया-तलत डुएट रहा है। और इसके बाद १९६१ की फ़िल्म 'शमा' के गानें तो हैं ही। यानी कि कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भले ग़ुलाम मोहम्मद ने सुरैया को ज़्यादा नहीं गवाया, या युं कहें कि ज़्यादा गवाने का अवसर उन्हें नहीं मिला, लेकिन इस जोड़ी का स्कोर १००% रहा है। जितना भी काम हुआ उत्कृष्ट ही हुआ। तो आइए इस जोड़ी के नाम आज की यह शाम करते हुए फ़िल्म 'शमा' की यह सदाबहार ग़ज़ल सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि मुशायरे के रूप में ढाल कर उर्दू शायरी को ग़ुलाम मोहम्मद ने एक और फ़िल्म 'पाक दमन' (१९५७) में संगीत से सजाया था और रफ़ी, चाँदबाला, मुबारक़ बेगम और शक़ील बदायूनी की आवाज़ों का इस्तेमाल किया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 09
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -बेहद मशहूर गीत.

सवाल १ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह क्या बात है....फिर एक बार वही कहानी, अमित जी २ अंकों से आगे जरूर हैं, पर अंजाना जी जिस तरह की टक्कर उन्हें दे रहे हैं कमाल है...विजय जी और इंदु जी धन्येवाद

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

पिया न रहे मन-बसिया..रंगरेज से दर्द-ए-दिल बयां कर रहे हैं "तनु वेड्स मनु" के संगीतकार कृष्णा ,गीतकार राजशेखर



Taaza Sur Taal (TST) - 05/2011 - TANU WEDS MANU

"तनु वेड्स मनु".. यह नाम सुनकर आपके मन में कोई भी उत्सुकता उतरती नहीं होगी, इसका मुझे पक्का यकीन है। मेरा भी यही हाल था। एक बेनाम-सी फिल्म, अजीबो-गरीब नाम और अजीबो-गरीब जोड़ी मुख्य-पात्रों की। "माधवन" और "कंगना".. मैं अपने सपने में भी इस जोड़ी की कल्पना नहीं कर सकता था..। लेकिन एक दिन अचानक इस फिल्म की कुछ झलकियाँ यू-ट्युब पर देखने को मिलीं. हल्की-सी उत्सुकता जागी और जैसे-जैसे दृश्य बढते गए, मैं इस "बेढब"-सी अजबनी दुनिया से जुड़ता चला गया। झलकियाँ का ओझल होना था और मैं यह जान चुका था कि यह फिल्म बिन देखे हीं नकार देने लायक नहीं है। कुछ तो अलग है इसमें और इन्हीं दृश्यों के बीच जब "कदी साडी गली पुल (भुल) के भी आया करो" के बीट्स ढोलक पर कूदने लगे तो जैसे मेरे कानों ने पायल बाँध लिये और ये दो नटखट उचकने लगे अपनी-अपनी जगहों पर। फिर तो मुझे समझ आ चुका था कि ऐंड़ी पर खड़े होकर मुझे इस फिल्म के गानों की बाट जोहनी होगी। फिर भी मन में एक संशय तो ज़रूर था कि "कदी साडी गली".. ये गाना तो पुराना है और जब एक पुराने गाने के सहारे फिल्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है तो मुमकिन है कि "ओरिजनल गानों" में कोई दम न हो। लेकिन मैं दुआ कर रहा था कि मेरा शक़ गलत निकले और मेरी दुआ बहुत हद तक कामयाब हुई, इसकी मुझे बेहद खुशी है।

लेम्बर हुसैनपुरी के गाए "कदी साडी गली" में अजब का नशा है। ढोल के बजते हीं पाँव खुद-ब-खुद थिरकने लगते हैं। फिल्म में आने से पहले यह गाना जिस मुकाम पर था, आर०डी०बी० ने रीमिक्स करके उस मुकाम को कुछ और ऊपर कर दिया है। पंजाबी भांगड़ों की तो वैसे हीं धूम और धुन गजब की होती है, लेकिन कई मर्तबा एक तरह के हीं बीट्स इस्तेमाल होने के कारण मज़ा जाता रहता है। अच्छी बात यह है कि इस गाने में नयापन है। बस यही उम्मीद करता हूँ कि यह गाना फिल्म के कथानक को आगे बढाने में मदद करेगा और ठूंसा हुआ-सा नहीं दिखेगा।

फिल्म का पहला गाना हीं आर०डी०बी० का? लेकिन आर०डी०बी० तो बस एक हिप-हॉप या डांस-मस्ती गाने के लिए फिल्म में लाए जाते हैं यानि कि हर फिल्म में इनका बस एक हीं गाना होता है। "तब तो कोई न कोई दूसरा संगीतकार हीं इस फिल्म की नैया को अपने गानों के पतवार और चप्पु के सहारे पार लगाएगा और अगर गाने अच्छे करने हैं तो निर्देशक(आनंद एल राय) कोई जाने-माने संगीतकार को हीं यह बागडोर सौपेंगे ताकि बुरे गानों के कारण फिल्म की लुटिया न डूब जाए..." यही सोच रहे हैं ना आप? अमूमन हर किसी की यही सोच होती है। कोई भी नए संगीतकारों पर एकबारगी भरोसा नहीं कर पाता.. और अगर कोई फिल्म किसी निर्देशक की पहली फिल्म हो तब तो हर एक सुलझे इंसान की यही सलाह होती है कि भाई फिल्म में लगा पैसा निकालना हो तो रिस्क मत लो, सेफ़ खेलो और किसी नामी संगीतकार से गाने तैयार करवा लो ताकि फिल्म भले पिट जाए लेकिन गाने हिट हो जाएँ।

यहीं पर आपसे चूक हो गई। हाँ, लेकिन आनंद साहब ने कोई चूक नहीं की। इन्होंने न सिर्फ़ खुद कुछ नया करने का बीड़ा उठाया, बल्कि अपने साथ-साथ गीत और संगीत में भी नए मोहरे सजाकर पूरी की पूरी बाजी हीं रोमांचक कर दी। नया गीतकार, नया संगीतकार.. चलेंगे तो सब साथ, ढलेंगे तो सब साथ, लेकिन इस बात की तो खुशी होगी कि "फिल्म इंडस्ट्री" के दबाव के आगे झुकना नहीं पड़ा, जो दिल में आया वही किया। तो आईये हम सब स्वागत करते हैं संगीतकार "कृष्णा" (Krsna) एवं गीतकार "राजशेखर" का।

ये कृष्णा कौन हैं, ये राजशेखर पहले किधर थे, इन प्रश्नों का जवाब तो हम ढूँढ नहीं पाये, लेकिन इतना यकीन है कि इन दोनों की यह पहली हिन्दी-फिल्म है। और पहली हीं फिल्म में दोनों ने अपनी छाप छोड़ने की पूरी कोशिश की है।

चलिए तो इस जोड़ी के पहले गीत की बात करते हैं। "ओ रंगरेज मेरे"... इस गीत के बोल बड़े हीं खूबसूरत है। उर्दू और देसी शब्दों के इस्तेमाल से राजशेखर ने एक सूफ़ियाना माहौल तैयार किया है।

रंगरेज तूने अफ़ीम क्या है खा ली,
जो मुझसे तू है पूछे कि कौन-सा रंग?
रंगों का कारोबार है तेरा,
ये तू हीं तो जाने कि कौन-सा रंग?
मेरा बालम रंग, मेरा साजन रंग,
मेरा कातिक रंग, मेरा अगहन रंग,
मेरा फ़ागुन रंग, मेरा सावन रंग..

हद रंग दे, अनहद भी रंग दे,
मंदिर, मस्जिद, मयकद रंग..

आजा हर वसलत रंग दे,
जो आ न सके तो फ़ुरक़त रंग दे..

ऐ रंगरेज मेरे...
ये कौन-से पानी में तूने कौन-सा रंग घोला है?


"मेरे आठों पहर मनभावन रंग दे"- रंगरेज से ब़ड़ी हीं मीठी गुहार लगाई है हमारे आशिक़ ने। अब यहाँ पर रंगरेज खुदा है या फिर इश्क़ के पैरहन रंगने वाली प्रेमिका.. इसका खुलासा तो दिल की दराज़ें खोलकर हीं किया जा सकता है, लेकिन जो भी हो सबसे बड़ा रंगरेज तो खुदा हीं है और खुदा से इस तरह जुड़ने को हीं "निर्गुण" कहते हैं (हिन्दी फिल्मों में निर्गुण का सबसे बड़ा उदाहरण "लागा चुनरी में दाग" है)। जब आशिक़ यह कहता है कि "मेरा क़ातिल तू, मेरा मुंसिफ़ तू" तो चचा ग़ालिब का यह शेर याद आ जाता है:

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क, जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफ़िर पर दम निकले!


इस रंगरेज के पास "कृष्णा" दो बार गए हैं एक बार अपनी हीं आवाज़ के साथ तो दूसरी बार "वडाली बंधुओं" की मंडली के साथ। यूँ तो वडाली बंधुओं (पुरनचंद वडाली एवं प्यारेलाल वडाली) पर खुदा की मेहर है (इसलिए इनकी आवाज़ों से सजी हुई हरेक नज़्म दिल को सुकून पहुँचाती है और यहाँ भी इन दोनों ने वही समां बाँधा है), लेकिन इस बार कृष्णा पर भी उस ऊपर वाले ने अपनी रहमत तारी कर दी है। दोनों हीं गाने अपनी जगह पर कमाल के बने हैं। धुन एक हीं है, इसलिए ज्यादा कुछ फ़र्क की उम्मीद भी नहीं थी। लेकिन जहाँ पर वडाली बंधु हों, वहाँ नयापन खुद-ब-खुद आ जाता है, इसलिए कृष्णा को यही कोशिश करनी थी कि वे पूरी तरह से कमजोर न पड़ जाएँ... ऐसा नहीं हुआ, यह सबके लिए अच्छी खबर है!

मोहित चौहान! यह नाम लिख देने/सुन लेने के बाद मन में किसी पहाड़ी वादी की परछाईयाँ उभर आती है और दिखने लगता है एक शख्स जो हाथ में गिटार और आँख में प्रेयसी के ख्वाब लिए पत्तों और गुंचों के बीच से चला जा जा रहा है। पहाड़ों का ठेठ अंदाज़ उसकी आवाज़ में खुलकर नज़र आता है और यही कारण है कि हर संगीतकार मोहित चौहान से "प्यार के दो मीठे बोल" गुनगुनाने की दरख्वास्त कर बैठता है। "कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े" (यूँ हीं).. बोल बड़े हीं सीधे और साधारण हैं, लेकिन मोहित की आवाज़ ने इस गाने में जान डाल दी है।

"पिया न रहे मन बसिया" - रूप कुमार राठौड़ साहब को मैने पहले हज़ारों बार सुना है, लेकिन आज तक इनकी आवाज़ इस तरह की पहले कभी नहीं लगी थी, जैसी कि इस गाने में है। इनकी आवाज़ यहाँ पहचान में हीं नहीं आती। मैंने तो कई जगहों पर "शफ़कत अमानत अली" का नाम लिखा पाया था (और मैं मान भी बैठा था) , लेकिन आठ-दस विश्वस्त सूत्रों और ब्लॉगों के चक्कर लगाने के बाद मुझे यकीन करना पड़ा कि ये अपने रूप साहब हीं हैं। अपनी नई आवाज़ में वही पुराना जादू बिखेरने में ये यहाँ भी कामयाब हुए हैं। ज़रा इस गाने के बोलो पर गौर करें:

पल न कटे अब सखी रे पिया बिन,
नीम-सा कड़वा लागे दिन,
हाय! नीम-सा कड़वा लागे अब दिन,
उस पे ये चंदा हाय.. चंदा भी बना सखी सौतन कि
चंदा भी बना हाय.. सखी सौतन कि
कीसो रात मोरी अमावसिया...
मन बसंत को पतझड़ कर वो
ले गयो, ले गयो, ले गयो... रंग-रसिया


पहले फिल्म के लिहाज से राजशेखर ने बेहतरीन पंक्तियाँ गढी हैं। जहाँ इस गाने में "मन-बसिया" और "रंग-रसिया" की बात हो रही है, वहीं अगले गाने "मन्नु भैया" में "करोलबाग की गलियों", "केसर", "यमुना" और "शर्मा जी" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके इन्होंने गाने में चार-चाँद लगा दिए हैं। नाम से हीं ज़ाहिर है कि "मन्नु भैया" की टाँग खींची जा रही है और इस खेल में सबसे आगे हैं "सुनिधि चौहान" और उनका तबले और ढोलक (मज़ाक वाले) पर संगत दे रहे हैं नीलाद्री देबनाथ, उज्जैनी मुखर्जी, राखी चाँद और विवेक नायक

अंबिया, इलायची, दालचीनी और केसर,
सुखाएगी तन्नु करोलबाग की छत पर,
तब मन्नु भैया का करिहैं..

जब दिल्ली के मिक्सर में घुट जावे कानपुर की भंग,
जब दिल्ली के ऊपर चढ जावे कानपुर का रंग,
जब क़ुतुब से भी ऊपर जावे, कानपुर की पतंग,
तब मन्नु भैया का करिहैं..


मुझे तो यह गाना बेहद पसंद आया। इस गाने में जहाँ एक तरफ़ मस्ती है, मज़ाक है, वहीं दूसरी तरफ़ शब्दों और ध्वनियों की अच्छी धमाचौकड़ी भी है। ऐसे गाने अमूमन "पुरूष-स्वर" (मेल-व्याएस) में तैयार किए जाते है, लेकिन यहाँ कृष्णा की दाद देनी होगी जो इन्होंने सुनिधि को ये गाना सौंपा और वाह! सुनिधि ने दिल खुश कर दित्ता यार ;)

फिल्म का अंतिम गाना है मिका की आवाज़ में "जुगनी"। यह गाना दूसरे "जुगनी" गानों की तरह हीं है, इसलिए कुछ अलग-सा नहीं लगा मुझे। हाँ, मिका पा जी की मेहनत झलकती है और इसमें दो राय नहीं है कि इस गाने के लिए इनसे अच्छा कोई दूसरा गायक नहीं हो सकता था, लेकिन संगीत (संगीतकार) ने इनका साथ नहीं दिया। "बीट्स" प्रेडिक्टेबल हैं.. इसलिए मज़ा रह-रहकर किरकिरा हो जाता है। मुझे किसी भी दिन (any day) "ओए लकी लकी ओए" का "जुगनी" इस "जुगनी" से ज्यादा पसंद आएगा। क्या करें! स्वाद-स्वाद की बात है :)

तो इस तरह से "तनु वेड्स मनु" के संगीत ने गुमनाम से नामचीन का सफ़र आखिरकार तय कर हीं लिया (है)।

आज की समीक्षा आपको कैसी लगी, ज़रूर बताईयेगा। चलिए तो इस बातचीत को यहीं विराम देते हैं। अगले हफ़्ते फिर मुलाकात होगी। नमस्कार!

आवाज़ रेटिंग - 7/10

सुनने लायक गीत - रंगरेज, पिया न रहे, मन्नु भैया, साडी गली

एक और बात: इस फिल्म के सारे गाने(प्रिव्यु मात्र) आप कृष्णा के ओफ़िसियल वेबसाईट पर सुन सकते हैं यहाँ:
http://krsnamusic.com/news/tanu-weds-manu-piya-sung-by-roop-kumar-rathod-or-shafqat-amanat-ali/




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, February 7, 2011

हम इश्क़ के मारों को दो दिल जो दिए होते....एक और खूबसूरत ख्याल सुर्रैय्या की खनकती आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 587/2010/287

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध सिंगिंग् स्टार सुरैया पर केन्द्रित लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा'। दोस्तों, हमने इस शृंखला में आपको बताया था कि सुरैया ने फ़िल्मों में बाल कलाकार के रूप में क़दम रख था। बतौर बालकलाकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'उसने क्या सोचा', जो बनी थी १९३७ में। जब वो १२ साल की थीं, उन्होंने फ़िल्म 'ताज महल' में अभिनय किया था जिसका श्रेय उनके मामाजी को जाता है। आइए आज इसी वाक्या के बारे में जान लेते हैं सुरैया के जुबाँ से जो उन्होंने शमिम अब्बास के उसी इंटरव्यु में कहा था। "इसमें भी एक इत्तफ़ाक़ है, मेरा कोई इरादा नहीं था फ़िल्म जॊयन करने का। लेकिन मेरे एक अंकल हैं जो फ़िल्मों में काम किया करते थे, 'ऐज़ ए विलन'। He was a very popular actor of his time। तो मैं स्कूल में पढ़ा करती थी, उस वक़्त छुट्टियाँ थी, वकेशन था, तो मैं उनके साथ शूटिंग् देखने चली गई। तो मोहन स्टुडियो में उनकी शूटिंग् थी। वहाँ एक डिरेक्टर थे नानुभाई वकील। तो वो उस वक़्त एक ऐतिहासिक फ़िल्म बना रहे थे जिसका नाम था 'ताज महल'। उन्हें एक छोटी बच्ची की ज़रूरत थी जो मुमताज़ महल के बचपन का रोल कर सके। तो उन्होंने मुझे देखा तो अंकल से मेरे बारे में पूछने लगे। मेरी आँखें क्योंकि मुग़लीयात जैसे हैं, उनको पसंद आईं, वो कहने लगे कि छोटा रोल है, कुछ ही दिनों की बात है, कर लो। मैं तो नर्वस हो गई। हालाँकि मुझे फ़िल्में देखने का बड़ा शौक था, बचपन से ही हर एक फ़िल्म देखा करती थी, लेकिन जब मुझसे यह पूछा गया कि तुम काम करो, तो मैं नर्वस हो गई। फिर एक टेम्प्टेशन भी हुआ, छुट्टियाँ भी है स्कूल में, तो कर लिया जाए, it will be fun। तो मैंने फ़िल्म की, सब ने फ़िल्म देखी, प्रकाश पिक्चर्स के विजय भट्ट और शंकर भट्ट ने भी फ़िल्म देखी, पूछा कि कौन है यह लड़की, ज़बान बहुत अच्छी है इसकी, उनको भी चाइल्ड रोल के लिए एक बच्ची की ज़रूरत थी, इस तरह से सिलसिला शुरु हो गया।"

सुरैया की जिस फ़िल्म का गीत आज हम आपको सुनवाने के लिए लाये हैं, वह है 'बिल्वामंगल' का। १९५४ की यह फ़िल्म थी जिसमें सुरैया के नायक बने थे सी. एच. आत्मा। डी. एन. मधोक के गीत और बुलो. सी. रानी का संगीत था। इस फ़िल्म में सुरैया के दो गीत बहुत मशहूर हुए थे, जिनमें एक था "परवानों से प्रीत दीख ली शमा से सीखा जल जाना, फिर दुनिया को याद रहेगा तेरा मेरा अफ़साना", और दूसरा गाना था "हम इश्क़ के मारों को दो दिल जो दिए होते, हमने ना कभी उनके अहसान लिए होते", और यही गीत आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शान है। क्या ग़ज़ब का मुखड़ा है साहब कि सुन कर दिल कह उठता है 'वाह!' इस ग़ज़ल के दो और शेर ये रहे...

"एक दिल जो कभी रोता दूजे से बहल जाते,
आहें ना भरी होती, शिकवे ना किए होते।"

"आते कि ना आते परवाह किसे होती,
उल्फ़त में किसी की ना मर मर के जिए जाते।"

फ़िल्म 'बिल्वामंगल' के साथ सुरैया की एक ख़ास याद जुड़ी हुई है, आइए उसी के बारे में जान लेते हैं 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम के माध्यम से। "सन् १९५२ के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में हॊलीवूड के डिरेक्टर फ़्रैंक काप्रा आये थे। बातचीत के दौरान मैंने उनसे कहा ग्रेगरी पेक की फ़िल्में मुझे बहुत पसंद है और आप उनसे यह ज़रूर कह दीजिएगा। और फिर जब मिस्टर काप्रा ने मेरा फ़ोटो और पता ले जाकर ग्रेगरी पेक को दिया तो उन्होंने मुझे एक ख़त लिखा कि अगर मौका हुआ हिंदुस्तान आकर आपसे ज़रूर मुलाक़ात करूँगा। मैं तो यह समझी थी कि वो क्या आयेंगे और क्या मुलाक़ात करेंगे! फिर दो साल बाद एक दिन मैं फ़िल्म 'बिल्वामंगल' की शूटिंग् से थकी-हारी घर आई और सो गई। रात के करीब १२ बजे मम्मी मुझे जगाने लगी कि 'उठो उठो, देखो बाहर कौन आया है, ग्रेगरी पेक तुमसे मिलने आये हैं'। पहले मैं ख़्वाब समझी, मगर जब नींद टूटी तो यह हक़ीक़त थी। ख़ैर दूसरे दिन जब यह बात अख़बारों में छपी तो मैं 'बिल्वामंगल' का ही गीत पिक्चराइज़ कर रही थी।" तो लीजिए दोस्तों, सुनिए सुरैया की आवाज़ में 'बिल्वामंगल' की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल को।



क्या आप जानते हैं...
कि सुरैया ने अपने छोटे से फ़िल्मी सफ़र में क़रीब ७१ फ़िल्मों में काम किया, और इस दौरान उस दौड़ के लगभग सभी जानेमाने संगीतकारों के लिए गानें गाये और अलग अलग मूड्स के गीत गाकर अपने फ़न के जोहर दिखाये।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 09
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -बेहद मशहूर गीत.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
ये मुकाबला तो लगता है आखिरी सिरे तक जाएगा....अमित जी और अंजना जी जबरदस्त मुकाबला कर रहे हैं....विजय जी और अवध जी आपने भी सही पहचाना

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, February 6, 2011

मनमोर हुआ मतवाला किसने जादू डाला....सुर्रैया के लिए प्रेम वो जादू था जो मन से कभी नहीं उतरा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 586/2010/286

मस्कार! रविवार की शाम और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर एक नई सप्ताह का आग़ाज़। दोस्तों नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस महफ़िल में। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल रोशन है उस गायिका-अभिनेत्री के गाये हुए गीतों से जिन्हें हम जानते हैं सुरैया के नाम से। इस शृंखला के पहले हिस्से में पाँच गानें ४० के दशक के सुनने के बाद, आइए आज क़दम रखते हैं ५० के दशक में। सुरैया की ज़िंदगी का एक अध्याय रहे हैं अभिनेता देव आनंद। सुरैया और देव साहब का प्रेम-संबंध इण्डस्ट्री में चर्चा का विषय बन गया था। सुरैया पर केन्द्रित कोई भी चर्चा देव साहब के ज़िक्र के बिना समाप्त नहीं हो सकती। क्या हुआ था कि वे दोनों मिल ना सके, एक दूजे का हमसफ़र बन ना सके। आइए आज देव साहब की किताब 'रोमांसिंग् विद् लाइफ़' से कुछ अंश यहाँ पेश करें। देव साहब कहते हैं, "मैं सातवें आसमान पर उड़ रहा था क्योंकि हम दोनों अब एन्गेज हो चुके थे। मैं उसे पाना चाहता था, ज़्यादा, और भी ज़्यादा, लेकिन फिर मुझे उसकी तरफ़ से कोई आवाज़ नहीं आई। हमारी फ़िल्मों की शूटिंग् भी ख़त्म हो गई, और अब तो एक दूसरे से मिलने का कोई बहाना ही नहीं बचा था। दिन सप्ताह में बदल गये, लेकिन उसकी कोई ख़बर मुझ तक नहीं पहुँची। न कोई चिट्ठी, न कोई फ़ोन, न तार। मैंने दिवेचा से सम्पर्क किया और उसने वादा किया कि उसका हालचाल लेकर मुझे बताएगा। लेकिन इस बार तो उसे भी उसके (सुरैया के) घर घुसने की इजाज़त नहीं मिली। सुरैया की दादी ने उसके मुंह पर ही दरवाज़ा बंद कर दिया यह कहते हुए कि इन दिनों हम अपने करीबी दोस्तों का भी स्वागत नहीं कर रहे जिसके पीछे कुछ ऐसे कारण हैं जिसे हम बताना नहीं चाहते। फिर भी दिवेचा ने यह पता लगा ही लिया कि सुरैया के घर में बहुत अशांति का माहौल बना हुआ है- उसके और मेरे रिश्ते को लेकर। कोई इस रिश्ते को स्वीकार नहीं रहा सिवाय उसकी माँ के। सुरैया की माँ को बाकी घरवालों ने यह कहकर डराया कि अगर वो इस रिश्ते का समर्थन करेगी तो या तो उसे ही घर से निकल जाना पड़ेगा या फिर उसकी दादी आत्महत्या कर लेंगी। इस तरह से सुरैया पर दबाव बढ़ता गया और उसके लिए आँसू बहाने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। और सुरैया ने एक दिन निर्णय ले लिया कि वो मुझे अपने दिमाग से निकाल देगी। एक दिन सुरैया ने अपनी उस अंगूठी को, जो मैंने उसे दी थी, समुंदर के किनारे जाकर, उसे अंतिम बार देख कर, दूर समुंदर में फेंक दिया। मेरा दिल टूट गया, लगा जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई है। उसके बिना मुझे अपनी ज़िंदगी बेमानी लगने लगी। लेकिन अपने आप को मार कर भी तो कुछ साबित नहीं होता, सिवाय अपने आप को कायर ठहराने के। आख़िरकार मैं अपने भाई चेतन के कंधे पर सर रख कर ख़ूब रोया, क्योंकि चेतन को ही पता था कि मैं सुरैया से कितना प्यार करता था। उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए कहा था कि तुम्हारे जीवन का यह अध्याय तुम्हें आगे जीवन में और ज़्यादा मज़बूत बना देगा इससे भी बड़ी मुसीबतों और लड़ाइयों को लड़ने के लिए।" उधर दोस्तों, सुरैया ने भी आजीवन शादी नहीं की और देव आनंद के लिए अपने प्यार को बिकने नहीं दिया, मिटने नहीं दिया, मरने नहीं दिया। सुरैया के इस निष्पाप प्रेम में इतनी शक्ति और सच्चाई थी कि किसी भी फ़िल्मकार की आज तक हिम्मत नहीं हुई उनके जीवन की इस कहानी पर फ़िल्म बनाने की। सुरैया ने जैसे अपने ही गाये हुए उस गीत को सच साबित कर दिया कि "परवानों से प्रीत सीख ली शमा से सीखा जल जाना, फिर दुनिया को याद रहेगा तेरा मेरा अफ़साना"।

दोस्तों, आज के इस अंक के लिए देव आनंद और सुरैया की जिस फ़िल्म का गीत हमने चुना है, वह है 'अफ़सर'। इस फ़िल्म का एक बहुत ही ख़ूबसूरत गीत "मनमोर हुआ मतवाला, किसने जादू डाला"। इस गीत के ज़रिये सुरैया के दिल में यादें जुड़ी थीं सचिन देव बर्मन की। तभी तो उन्होंने उस 'जयमाला' कार्यक्रम में इस गीत को और बर्मन दादा को याद किया था इन शब्दों में - "फ़ौजी भाइयों, आज तक मैंने करीब सौ फ़िल्मों में काम किया है और इसी हिसाब से कई सौ गानें भी गाये होंगे! मगर गाना मैंने बाक़ायदा किसी से सीखा नहीं, इसे ख़ुदा की ही देन कह लीजिए कि म्युज़िक डिरेक्टर्स मुझे जैसा रिहर्स करा देते थे, मैं वैसा ही गा देती थी। देव आनंद की फ़िल्म 'अफ़सर' जब बन रही थी तो बर्मन दादा ने मेरे लिए एक गीत तैयार किया। बर्मन दादा इस गीत को इतना गाते थे कि मैंने देव आनंद से कहा कि क्यों ना सिचुएशन बदल दी जाये और इस गीत को बर्मन दादा ही गाये! लेकिन बर्मन दादा नहीं राज़ी हुए, कहने लगे कि यह गीत ख़ास तौर से तुम्हारे लिए बनाया है, इसलिए तुम्हे ही गाना होगा। ख़ैर, मैंने ही वह गीत गाया"। और दोस्तों, आप भी अब उस गीत का आनंद लीजिए जिसे पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लिखा है।



क्या आप जानते हैं...
कि देव आनंद के साथ सुरैया ने कुल ६ फ़िल्मों में काम किया। ये फ़िल्में हैं 'विद्या', 'जीत', 'शायर', 'नीलू', 'दो सितारे' और 'अफ़सर'।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 07/शृंखला 09
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र -इस फिल्म में सुर्रैया के नायक थे सी एच आत्मा.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे एक बार फिर वही कहानी...सच है इससे रोचक मुकाबला आज तक नहीं हुआ है...अनजाना जी और अमित जी बधाई के पात्र हैं और बधाई प्रतिभा जी और किशोर संपत जी को भी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - उस्ताद हबीब ख़ान का बजाया विचित्र वीणा वादन



सुर संगम - 06

विचित्र वीणा का रेंज पाँच ऒक्टेव का होता है। सितार की तरह विचित्र वीणा भी उंगलियों में मिज़राब (plectrums) पहनकर बजाया जाता है, तथा मेलडी के लिए शीशे का एक बट्टा मुख्य तारों पर फेरा जाता है। दो नोट्स के बीच दो इंच का फ़ासला हो सकता है।


सुप्रभात! 'सुर-संगम' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, हमारे देश में प्राचीण काल से जितने भी साज़ हुए हैं, उनमें से कुछ साज़ आज विलुप्त प्राय हो गये हैं, यानी कि जिनका आज इस्तमाल ना के बराबर हो गये हैं। रुद्र-वीणा और सुरशृंगार की तरह विचित्र-वीणा एक ऐसा ही साज़ है। प्राचीन काल में एकतंत्री वीणा नाम का एक साज़ हुआ करता था; विचित्र वीणा उसी साज़ का आधुनिक रूप है। इस वीणा में तीन फ़ीट लम्बा और ६ इंच चौड़ा एक डंड होता है, और दोनों तरफ़ दो तुम्बे होते हैं कद्दु के आकार के जिन्हें हम रेज़ोनेटर भी कह सकते हैं। डंड के दोनों छोर पर मोर के सर की आकृति बनी होती है। विचित्र वीणा वादक वीणा को अपने सामने ज़मीन पर रख कर अपनी उंगलियाँ तारों पर फेरता है।

विचित्र वीणा में मौजूद तारों (स्ट्रिंग्स) की बात करें तो इसमें चार मुख्य 'प्लेयिंग् स्ट्रिंग्स' होते हैं और पाँच 'सेकण्डरी स्ट्रिंग्स' होते हैं जिन्हें चिलकारी कहा जाता है, और जिन्हें छोटी उंगली से बजाया जाता है एक ड्रोन-ईफ़ेक्ट के लिए। इन तारों के नीचे १३ 'सीम्पैथेटिक स्ट्रिंग्स' होते हैं जिनका इस्तमाल किसी राग के सुरों को ट्युन करने के लिए किया जाता है। विचित्र वीणा का रेंज पाँच ऒक्टेव का होता है। सितार की तरह विचित्र वीणा भी उंगलियों में मिज़राब (plectrums) पहनकर बजाया जाता है, तथा मेलडी के लिए शीशे का एक बट्टा मुख्य तारों पर फेरा जाता है। दो नोट्स के बीच दो इंच का फ़ासला हो सकता है। बट्टे के फ़्रिक्शन को दूर करने के लिए स्ट्रिंग्स पर नारियल का तेल लगाया जाता है।

विचित्र वीणा का प्रयोग मुख्यत: ध्रुपद शैली के गायन के संगीत में किया जाता है। विचित्र वीणा बहुत ज़्यादा स्पष्ट सुर नहीं जगा पाता, इसलिए इसे एक संगत साज़ के तौर पर ही ज़्यादा इस्तमाल किया जाता है; वैसे एकल रूप में भी विचित्र वीणा बहुत से कलाकारों ने बजाया है। इस साज़ को गुमनामी से बाहर निकाला था डॊ. लालमणि मिश्र ने, जिन्होंने विचित्र वीणा पर मिश्रवाणी कम्पोज़िशन्स का निर्माण किया। उन्हीं के सुपुत्र डॊ. गोपाल शंकर मिश्र ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और दूर दूर तक फैलाया। विचित्र वीणा के प्रचार प्रसार में जो नाम उल्लेखनीय हैं, वो इस प्रकार हैं:

१. जेसिंहभाई, जिन्हे विचित्र वीणा के आधुनिक रूप के जन्मदाता होने का श्रेय दिया जाता है। उस समय इस साज़ को बट्टा-बीन कहा जाता था।

२. पंडित गोस्वामी गोकुलनाथ, जो बट्टा-बीन के प्राचीनतम उपासकों में से एक थे और जो पुश्टि सम्प्रदाय के बम्बई शाखा से ताल्लुख रखते थे।

३. उस्ताद जमालुद्दिन ख़ान, जो उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान के गुरु थे और वे ताल्लुख रखते थे जयपुर घराने से।

४. उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान, जो पहले बम्बई के एक सारंगी वादक थे, और विचित्र वीणा पर ख़याल और ठुमरी बजाने वाले पहले वादक थे। लाहौर के गंधर्व महाविद्यालय के वार्षिक संगीत सम्मेलन में पहली बार वादन प्रस्तुत करने के बाद उन्हें फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। संगत के तौर पर वो पखावज से ज़्यादा तबला पसंद करते थे। पटियाला के महाराजा के दरबार के वो संगीतज्ञ थे।

५. उस्ताद हबीब ख़ान, जो उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान के भाई व छात्र थे। (आज इन्हीं का बजाया हुआ विचित्र वीणा हम सुनेंगे)

कुछ और नाम हैं मोहम्मद शरीफ़ ख़ान पूँचावाले, पंडित गोपाल कृष्ण शर्मा, पंडित श्रीकृष्णन शर्मा, उस्ताद अहमद रज़ा ख़ान, पंडित गोपाल शंकर मिश्र (पंडित लालमणि मिश्र के सुपुत्र), डॊ. मुस्तफ़ा रज़ा, पंडित अजीत सिंह पंडित शिव दयाल बातिश, फ़तेह अली ख़ान, गियानी रिचिज़ी, विजय वेण्कट, पद्मजा विश्वरूप, डॊ. राधिका उम्देकर बुधकर आदि।

आइए आपको आज एक बेहद दुर्लभ रेकॊर्डिंग् सुनाते और दिखाते हैं (यू-ट्युब के सौजन्य से)। यह सन् १९३८ में रेकॊर्ड की हुई एक शॊर्ट फ़िल्म है जिसमें उस्ताद हबीब ख़ान नज़र आ रहे हैं विचित्र वीणा बजाते हुए। तबले पर उनका संगत कर रहे हैं उस्ताद अहमदजान थिरकवा। राग है सोहनी।

विचित्र वीणा वादन - उस्ताद हबीब ख़ान (१९३८)
न सिर्फ सुनिए मगर देखिये भी


आशा है इस दुर्लभ रेकॊर्डिंग को देख कर व सुन कर अच्छा लगा होगा। राग सोहनी की अब बात करते हैं। यह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मारवा ठाट का राग है। इसमेम पाँच स्वर लगते हैं आरोहन में और छह स्वर अवरोहन में। रिशभ (रे) कोमल है और मध्यम (मा) तीव्र है; बाकी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। पंचम (पा) का प्रयोग इस राग में नहीं होता है। वादी स्वर धा होता है तथा समवादी स्वर गा। यह एक उत्तरांग प्रधान राग है, जिसके ऊँचे सुर सप्तक तक पहूँचते हैं। राग सोहनी रात के आख़िरी या आठवें प्रहर में गाया जाता है, यानी कि सुबह ३ से ६ बजे के बीच। सोहनी राग मारवा और पूरिया रागों से मिलता जुलता राग है मारवा ठाट में ही, और पूर्वी ठाट के राग बसंत से भी मेल खाता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस राग का सब से पुराना रेकॊर्डिंग् अब्दुल करीम ख़ान साहब का है जो १९०५ में रेकॊर्ड हुई थी। लेकिन हम यहाँ पर सुनेंगे राग सोहनी पर आधारित फ़िल्म 'संगीत सम्राट तानसेन' का मुकेश का गाया "झूमती चली हवा याद आ गया कोई"। एस. एन. त्रिपाठी का संगीत है। इस गीत को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजा चुके हैं, लेकिन ऐसे मीठे सुरीले गीतों का आनंद तो हर रोज़ ही लिया जा सकता है, है न? .

गीत: झूमती चली हवा याद आ गया कोई (संगीत सम्राट तान्सेन)


इसी के साथ 'सुर-संगम' से आज हमें इजाज़त दीजिए, शाम ६:३० बजे सुरैया जी के गाये एक बेहद सुरीले नग़मे के साथ पुन: वापस आयेंगे, बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार

प्रस्तुति-सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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