Saturday, November 26, 2011

मिलिए २३-वर्षीय फ़िल्मकार हर्ष पटेल से



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 69

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष' में मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, आज हम आपकी मुलाक़ात करवाने जा रहे हैं एक ऐसे फ़िल्म-मेकर से जिनकी आयु है केवल २३ वर्ष। ज़्यादा भूमिका न देते हुए आइए मिलें हर्ष पटेल से और उन्हीं से विस्तार में जाने उनके जीवन और फ़िल्म-मेकिंग् के बारे में।

सुजॉय - हर्ष, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' पर। यह साहित्य, संगीत और सिनेमा से जुड़ी एक ई-पत्रिका है, इसलिए हमने आपको इस मंच पर निमंत्रण दिया और आपको धन्यवाद देता हूँ हमारे निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए।

हर्ष - आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद!

सुजॉय - हर्ष, यूं तो आपकी उम्र बहुत ही कम है, और भविष्य में आप बहुत बड़े फ़िल्मकार बनेंगे ऐसी हम ईश्वर से दुआ करते हैं, पर अब तक भी आपकी जो उपलब्धियाँ रही हैं, वो भी कुछ कम नहीं हैं। हम शुरु करना चाहेंगे आपके परिवार से। कौन कौन हैं आपके परिवार में?

हर्ष - मेरा जन्म अहमदाबाद में ४ अक्टूबर १९८८ को हुआ था। हमारा संयुक्त परिवार है जिसमें ९ सदस्य हैं। मैं, मेरा छोटा भाई, मेरे मम्मी-पापा, मेरी दादी, और मेरे चाचा जी के परिवार के ४ सदस्य। इस तरह से ९ सदस्यों का हमारा परिवार है। मेरा बचपन भी बहुत अच्छे से गुज़रा। हमारे परिवार में लगभग २५ साल बाद किसी बच्चे का जन्म हुआ और वह मैं था। मेरा भाई मेरे से ५ साल बाद और चाचाजी के बच्चे भी बाद में आये। इसलिए मुझे अपने परिवार और आस-पड़ोस से बहुत लाड-प्यार मिला। मैंने अपने दादाजी को नहीं देखा, पर मेरी दादी नें जैसे मेरी सारी ज़िम्मेदारियाँ ले रखी थीं।

सुजॉय - वाह! बहुत अच्छा लगा आपके परिवार के बारे में जान कर। बचपन में कौन कौन से खेल खेला करते थे?

हर्ष - बचपन में ज़्यादातर आउटडोर गेम्स का मुझे शौक था। छुटपन से ही मैं बहुत ज़्यादा धार्मिक भी था क्योंकि मैं अपनी दादी के बहुत करीब था। खेलों में मुझे तैराकी ही सबसे ज़्यादा पसन्द था। और मुझे क्रिकेट से सख़्त नफ़रत थी जो कि हमारे देश में सबसे ज़्यादा फ़ेवरीट है।

सुजॉय - ये तो थी खेल-कूद की बात, कला के क्षेत्र में आपकी किस तरह की रुचि थी, यह हम आपसे अभी जानेंगे, लेकिन उससे पहले हम चाहेंगे कि आप अपनी पसन्द का कोई गीत हमारे श्रोता-पाठकों को सुनवाएँ?

हर्ष - हिन्दी फ़िल्मों में इतने अच्छे अच्छे गानें आये हैं कि किसी एक गीत को चुनना बड़ा मुश्किल लगता है। फिर भी, इस वक़्त जो गीत मुझे याद आ रहा है, वह है "हँसता हुआ नूरानी चेहरा", 'पारसमणि' फ़िल्म का।

सुजॉय - वाह! मुझे ताज्जुब हो रहा है कि आपनें इतने पुराने गीत को चुना, लता मंगेशकर और कमल बारोट की आवाज़ों में पेश है यह गीत।

गीत - हँसता हुआ नूरानी चेहरा (पारसमणि)


सुजॉय - हर्ष, अब बताइए आपकी कलात्मक रुचियों के बारे में।

हर्ष - मुझे शुरु से ही कला के विभिन्न क्षेत्रों में गहरी दिलचस्पी रही है। डान्स, मॉडलिंग्, ऐक्टिंग्, पेण्टिंग्, फ़ैशन-डिज़ाइनिंग् और भी न जाने किस किस में रुचि थी। पर सबसे ज़्यादा जो माध्यम, जो कला मुझे आकर्षित करती, वह था 'मोशन मीडियम'। I used think like How these Characters play with magic in Ramayana & Mahabharata. कोई फ़िल्म देखता तो उसके डिरेक्शन और एडिटिंग् के नज़रिये से विश्लेषण किया करता, किस तरह से शॉट्स लिए गए होंगे, लॉंग् शॉट्स, क्लोज़-अप, आदि।

सुजॉय - यानि आप फ़िल्म देखते समय उसकी तकनीकी पहलुओं पर भी ग़ौर किया करते थे।

हर्ष - बिलकुल!

सुजॉय - तो फिर इस शौक को करीयर बनाने के लिए आपने कौन सी राह अख़्तियार की?

हर्ष - मैं C-DAC इन्स्टिट्युट में भर्ति हो गया जहाँ मैंने 'मौल्टि-मीडिया' सीखा, और साथ ही साथ साइन्स में ग्रजुएशन भी पास किया। मीडिया स्टडी के बाद मैं मुम्बई में Vision 2000 स्टुडियो जॉइन कर ली और एडिटिंग् के क्षेत्र से अपने सफ़र की शुरुआत की। Documentary, short films, film teaser जैसे प्रोजेक्ट्स में मैंने काम किया। फिर फ़िल्म-मेकिंग् सीखने के लिए मैं 'बालाजी टेलीफ़िल्म्स लिमिटेड' के साथ जुड़ गया। वहाँ मैंने टीवी धारावाहिक 'कितनी मोहब्बत है' में सहायक के रूप में काम किया, और 'प्यार की यह एक कहानी' धारावाहिक के कई एपिसोड्स एडिट किए। और अब मैं गुजरात के गांधीनगर में CPIFT (City Pulse Institute of Film & TV) में काम कर रहा हूँ बतौर प्रोडक्शन ऐसिस्टैण्ट और एडिटर।

सुजॉय - बहुत ख़ूब! हर्ष, अब आपके पसन्द के एक और गीत की बारी।

हर्ष - "गुनगुना रहे हैं भँवरें", 'आराधना' फ़िल्म से।

गीत - गुनगुना रहे हैं भँवरें (आराधना)


सुजॉय - हर्ष, बहुत अच्छा लग रहा है आपसे बातें करते हुए, और आपके पसन्द की भी मैं दाद दूंगा। अच्छा, यह बताइए कि आप ने अब तक कौन कौन सी फ़िल्मों का निर्माण किया है?

हर्ष - मैं स्वतंत्र रूप से लघु फ़िल्में बनाता हूँ। इसके अलावा सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थानों के लिए वृत्तचित्र (documentary) भी बनाता हूँ। मेरी पहली लघु फ़िल्म थी 'After Black'।

सुजॉय - इस फ़िल्म के बारे में बताइए।

हर्ष - इस फ़िल्म की कहानी में वर्ष २०१४ दिखाया गया है। जैसा कि आप जानते हैं कि २०१२ के दिसंबर में दुनिया के समाप्त हो जाने की बात या अफ़वाह, जो भी कहें, चल रही है, तो अगर ऐसा हुआ तो २०१४ में धरती पर क्या-कुछ हो सकता है, उसी का अनुमान है इस लघु फ़िल्म में। बहुत कम लोग शेष रह गए हैं धरती पर। पेड़-पौधे मर चुके हैं, हरियाली ग़ायब है, इन्सान आदमख़ोर बन चुका है। खेती के लिए धरती उपयुक्त नहीं रही। कुछ जीवित वैज्ञानिक ऐसी धरती की तलाश में है जहाँ पर जीवन-यापन किया जा सके। एक वैज्ञानिक नें ऐसा बीज और तकनीक तैयार कर लिया है जो केवल ४८ घण्टों में पैदावार दे सके। ज़मीन की भी खोज मिल जाती है पर वहाँ पहुँचने पर वहाँ मौजूद आबादी उन्हें मार कर खा जाती है। उनके बाद उनकी बहन उसके अधूरे मिशन को कामयाब करने वहाँ जाती है।

सुजॉय - बड़ा ही रोमांचक विषय चुना है आपने। हम आपकी अगली फ़िल्म के बारे में भी जानना चाहेंगे, पर उससे पहले एक और गीत हो जाए?

हर्ष - "एक चतुर नार बड़ी होशियार"

गीत - एक चतुर नार बड़ी होशियार (पड़ोसन)


सुजॉय - आपकी दूसरी फ़िल्म कौन सी थी?

हर्ष - मेरी दूसरी फ़िल्म का नाम था 'Corruption Live in Action'। यह ३० मिनट की लघु फ़िल्म थी। कहानी जवान लड़के-लड़कियों की थी जिन्होंने अभी अभी पढ़ाई पूरी की है और उन्हें समझ में आने लगा है कि अब और मौज-मस्ती का वक़्त नहीं रहा, अगर ज़िन्दा रहना है तो काम करना पड़ेगा। पर वो जहाँ भी काम ढूंढने गए, वहीं उन्हें भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ा। अन्त में उन युवक-युवतियों नें हिडन कैमरों की मदद से भ्रष्टाचारियों का पर्दाफ़ाश किया, और इस प्रयास में उन लोगों ने मीडिया का भी सहारा लिया।

सुजॉय - वाह! यह बहुत ही सार्थक विषय है आज, अभी हाल ही में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ पूरे हिन्दुस्तान को आवाज़ उठाते हुए हमने देखा था।

हर्ष - जी। मेरी तीसरी फ़िल्म थी 'समय नी हाथताली', जो ७ मिनट की एक गुजराती फ़िल्म थी। जौनर था सोशल ड्रामा। कहानी पिता-पुत्र की थी जिनके बीच मतभेद है और जिसका कारण है जेनरेशन गैप। पुत्र घर बेचना चाहता है क्योंकि उसके १० गुणा ज़्यादा कीमत मिल रही है; जबकि पिता का उस घर के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी होने की वजह से उसे नहीं बेचना चाहते। 'सुवर्ण पथ' एक डॉकुमेन्टरी-ड्रामा थी जिसे मैंने BAPS स्वामीनारायण संस्था के लिए एडिट किया था और जिसकी बहुत चर्चा हुई थी और राज्य स्तर पर प्रथम पुरस्कार भी मिला था।

सुजॉय - वाह! और किन किन फ़िल्मों के लिए आपको पुरस्कार मिले?

हर्ष - 'Corruption Live in Action' गुजरात की पहली लघु फ़िल्म थी जिसे सबसे ज़्यादा दर्शकों के बीच में प्रदर्शित किया गया था। 'समय नी हाथताली' को 'अहमदाबाद फ़िल्म प्रोजेक्ट' के लिए चुना गया था।

सुजॉय - अब एक और गीत की बारी, बताइये कौन सा गीत सुनवाना चाहेंगे?

हर्ष - "बीती न बिताई रैना"

सुजॉय - क्या बात है!

गीत - बीती न बिताई रैना (परिचय)


सुजॉय - निकट भविष्य में क्या कर रहे हैं?

हर्ष - भविष्य में मैं और भी कई लघु फ़िल्में बनाना चाहता हूँ और एक टेलीफ़िल्म भी प्लैन कर रहा हूँ। और एक फ़ीचर फ़िल्म में भी बतौर सहायक निर्देशक और एडिटर काम करने जा रहा हूँ।

सुजॉय - बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपको कि आप अपने लक्ष्य तक पहुँचे, कामयाबी आपके कदम चूमे।

हर्ष - धन्यवाद!

सुजॉय - अच्छा हर्ष, ये जो आपने अपने पसन्द के गानें हमें बताए, मुझे ऐसा लगता है कि आपको संगीत में भी ज़रूर रुचि होगी, क्योंकि आपकी पसन्द जो इतनी अच्छी है, इतनी रुचिकर है।

हर्ष - मुझे भारतीय शास्त्रीय संगीत से बहुत प्यार है और साथ ही इण्डियन-वेस्टर्ण फ़्युज़न से भी। मैंने 'सप्तक म्युज़िक फ़ेस्टिवल' अटेण्ड की थी जो संगीत-प्रेमियों में बहुत लोकप्रिय है। मेरी ख़ुशकिस्मती है कि इन दिनों मैं एक म्युज़िक शो भी एडिट कर रहा हूँ गुजरात के GTPL चैनल पर और शो का नाम है 'दि फ़्राइडे'। 'दि फ़्राइडे' CPIFT द्वारा आयोजित एक ईवेण्ट है जो हर शुक्रवार को होता है और मैं उस ईवेण्ट शूटिंग्‍ का डिरेक्टर और एडिटर हूँ। अब तक जिन महान संगीत शिल्पियों के साथ ईवेण्ट करने का मौका मिला है, उनमें शुभा मुदगल और शुजात ख़ान शामिल हैं।

सुजॉय - बहुत अच्छा लगा हर्ष जो आप हमारे साथ इतनी सारी बातें की। आप बहुत बड़े फ़िल्मकार बनें, और अपने परिवार का नाम रोशन करें, ऐसी हम आपको शुभकामना देते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद, नमस्ते।

हर्ष - मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपसे बातें करते हुए, आपका बहुत अभुत धन्यवाद!

तो ये था आज का 'शनिवार विशेष', आशा है आपको पसन्द आया होगा, आज बस इतना ही, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!

Thursday, November 24, 2011

साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार....कोई कैसे भूल सकता है दादु के संगीत योगदान को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 795/2011/235

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं सुरीले संगीतकार व अर्थपूर्ण गीतों के गीतकार रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' का। आज पाँचवीं कड़ी में हम आपको बताने जा रहे हैं रवीन्द्र जैन का हिन्दी फ़िल्म जगत में आगमन कैसे हुआ। ४० के दशक के अन्त और ५० के दशक के शुरुआती सालों में अलीगढ़ में रहते हुए ही रवीन्द्र जैन के अन्दर संगीत का बीजारोपण हो चुका था। वो गोष्ठियों में जाया करते, मुशायरों में जाया करते। उनमें शायर इक़बाल उनके अच्छे दोस्त थे। उनका एक और दोस्त था निसार जो रफ़ी, मुकेश और तमाम गायकों के गीत उन्हीं के अंदाज़ में गाया करते थे। इस तरह से वो शामें बड़ी हसीन हुआ करती थीं। कभी बाग में, कभी रेस्तोरां में, देर रात तक महफ़िलें चला करतीं और रवीन्द्र जैन उनमें हारमोनियम बजाया करते गीतों के साथ। अन्ताक्षरी में जब कोई अटक जाता तो वो तुरन्त गीत बता दिया करते। ६० के दशक में रवीन्द्र जैन कलकत्ता आ गए। वहाँ पर नामचीन फ़िल्मकार हृतिक घटक से उनकी मुलाकात हुई जिन्होंने उन्हें सुन कर यह कहा था कि वे बड़ा तरक्की करेंगे। कलकत्ते से बम्बई किस तरह से आना हुआ यह जानिए दादु के ही शब्दों में - "घूमते फिरते आए। शंकर था मेरे साथ, मेरा छोटा भाई, राधेश्याम जी और शंकर, हम लोग वहाँ से बाइ रोड आए यहाँ पे, तमाम जगहों से गुज़रते हुए, जैसे पंचमरही, फिर रायपुर; रायपुर में जहाँ मेरी मुलाक़ात हुई डॉ. सेन से, अरुण कुमार जी, जिनके बेटे शेखर कल्याण आजकल अच्छा काम कर रहे हैं। और कलकत्ते में जैसा मैंने आपको बताया कि संगीत की बहुमुखी प्रतिभाओं से मेरा साक्षात हुआ है। वहाँ पे क्लासिकल का भी लोगों में उतना ही लगाव है और सुनने का, रात-रात भर कॉनफ़रेन्सेस होती थी, हम लोग सुना करते थे, हमारे वो मित्र राधेश्याम जी के भतीजे, महेन्द्र जी, रघुनाथ जी, हम सब जाया करते थे, टिकट लेके कॉनफ़रेन्सेस सुना करते थे, लेकिन वो बड़ा काम आया, क्योंकि देश के जो शीर्ष के जितने कलाकार हैं न, सब वहाँ होते थे।" आगे की कहानी अगली कड़ी में।

आज हम दादु के लिखे और संगीतबद्ध किए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाये हैं, वह है आशा भोसले का गाया फ़िल्म 'कोतवाल साहब' का गीत "साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार"। १९७७ में बनी इस फ़िल्म में मुख्य कलाकार थे शत्रुघ्न सिन्हा और अपर्णा सेन। पवन कुमार निर्मित इस फ़िल्म को ऋषी दा नें, यानी ऋषीकेश मुखर्जी नें निर्देशित किया था। प्रस्तुत गीत बड़ा ही सुन्दर गीत है, जितने सुन्दर बोल दादु नें लिखे हैं, उतना ही सुरीला संगीत है इस गीत का, और आशा जी नें भी उतनी ही ख़ूबसूरती से इसे निभाया है। फ़िल्मांकन में इस गीत का पार्श्वगीत के रूप में इस्तमाल किया गया है। पता नहीं क्यों, पर इस गीत को सुनते हुए एक हौन्टिंग् सी फ़ील होती है। गीत का मूड तो ज़रा सा संजीदा है, पर यहाँ पर हम रवीन्द्र जैन जी से जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा आपके साथ बाँटना चाहते हैं जिसे दादु नें ही उस साक्षात्कार में बताया था - "एक बार मैं और मेरा एक दोस्त, हम लोग कटपुरा एक जगह है, वहाँ एक दिन बाहर खाने का बड़ा शौक हुआ, तो हमने एक टिन ली और गाने बजाने लगे और लोगों से पैसे इकट्ठा किए। जब मेरे पिताजी को यह बात पता चली तो बड़े नाराज़ हुए और बोले कि जाओ, जिन जिन से पैसे लिए थे, उनको लौटा के आओ। लेकिन यह कैसे हो सकता है, किससे कितने लिए यह मैं कैसे याद रखता! फिर मैंने सोचा कि इससे अच्छा है मन्दिर में जाके डाल देता हूँ। थोड़े से पैसों से हमने खा लिए थे जो हमको खाना था, लेकिन ऐसे ही बड़े मज़ेदार घटनाएँ हैं। बहुत बार प्रोग्राम में बुला लिया लोगों ने, और वहाँ से लौट रहे हैं बाजा हाथ में उठाए, ना रिक्शा के पैसे दिए ना...."। तो दोस्तों, रवीन्द्र जी के इन मज़ेदार यादों के बाद आइए अब ज़रा सा मूड को बदलते हुए सुनें आशा जी की आवाज़ में "साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार"।



पहचानें अगला गीत - राजश्री की एक लो बजेट फिल्म से है ये गीत जिसके शीर्षक में "पिया" शब्द आता है और जिसे हेमलता ने गाया है

पिछले अंक में
किशोर जी की आमद हुई बहुत दिनों बाद

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, November 23, 2011

अकेला चल चला चल...मंजिल की पुकार सुनाता ये गीत दादु का रचा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 794/2011/234

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी साथियों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार और स्वागत है आप सभी का रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों से सजी लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की चौथी कड़ी में। आइए एक बार फिर रुख़ करते हैं विविध भारती के उसी साक्षात्कार की ओर जिसमें दादु बता रहे हैं अपने शुरुआती दिनों के बारे में। पिछली कड़ी में ज़िक्र आया था दादु के बड़े भाई डी. के. जैन का, जिनका रवीन्द्र जैन के जीवन में बड़ा महत्व है, आइए आज वहीं से बात को आगे बढ़ाते हैं। "भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे लिए ग़ज़लें इकट्ठा करती थीं, गुल्दस्ता, एक मैगज़िन आती थी 'शमा', उर्दू साहित्य की बहुत पॉपुलर मैगज़िन थी, उसमें से ग़ज़लें छाँट-छाँट के सुनाया करती थी मुझे। ख़ूबसूरत दिन थे, मैंने एक शेर कहा कि "आज कितने भी हसीन रंग में गुज़रे लेकिन कल जो गुज़रे थे वो ही लगते हैं बेहतर लम्हे"। तो ठीक है, दिनों के साथ साथ आदमी तरक्की भी करता है, शोहरत दौलत भी कमाता है लेकिन वो जो अतीत हम कहते हैं, माज़ी जिसको कहते हैं न, वो हमेशा ही हौन्ट करता है और पंडित जनार्दन से जब मैं सीखता था, तब मेरे एक और कन्टेम्पोररी दोस्त थे, हमारी एक फ़मिली थी अलीगढ़ में, हेमा जी मेरे साथ सीखा करती थीं, अब तो अमरीका में रह रही हैं, तो साथ में अभ्यास किया करते थे, फिर मेरी सिस्टर लक्ष्मी, मुन्नी जिसको हम बुलाते थे, उनका भी निधन हो गया है, और वो भी हमारे साथ साथ सुर अभ्यास करती थी।"

दोस्तों, अब तक आप दादु से उनके अलीगढ़ के दिनों का हाल जान रहे हैं, अगली कड़ी में आप जानेंगे उनके कलकत्ते के दिनों के बारे में और बम्बई में उनके पदार्पण के बारे में। फ़िल्हाल आज के गीत पर आया जाए! आज सुनिए १९७६ की फ़िल्म 'फ़कीरा' का शीर्षक गीत "सुन के तेरी पुकार, संग चलने को तेरे कोई हो न हो तैयार, हिम्मत न हार, चल चला चल अकेला चल चला चल, फ़कीरा चल चला चल"। इस गीत के दो संस्करण हैं, एक महेन्द्र कपूर का गाया हुआ और एक हेमलता की आवाज़ में। आज सुनिए महेन्द्र कपूर की आवाज़। दोस्तों, यह एक बड़ा ही प्रेरणादायक गीत रहा है, और जैसा कि आप जानते हैं कि रवीन्द्र जैन जी की भी आँखों की रोशनी नहीं थी और उन्होंने भी हिम्मत नहीं हारी और जो राह उन्होंने चुनी थी, उसी राह पे राही की तरह चलते चले गए और आज भी चल रहे हैं। जानते हैं इस बारे में और ख़ास कर इस गीत के बारे में दादु का क्या कहना है? "मैं जानता हूँ कि दुनिया में हर आदमी किसी न किसी पहलु से विकलांग है, चाहे वो शरीर से हो, मानसिक रूप से हो, है न, या कोई अभाव जीवन में हो, है न! विकलांगता का मतलब यह नहीं कि टांग या हाथ की प्रॉबलेम है, कहीं न कहीं लोग मोहताज हैं, अपाहिज हैं, और उसी पर विजय प्राप्त करना होता है, उसी को ओवरकम करना होता है, वो एक चैलेंज हो जाता है आपके सामने, है न! तो उससे कभी निराश होने की ज़रूरत नहीं है, आज तो मेडिकल भी बहुत उन्नत हो गया है, और मैं समझता हूँ कि अब इस तरह की कोई बात रही नहीं है जैसा कि मैंने कहा कि 'डिज़अबिलिटी कैन बी योर अबिलिटी ऑल्सो', उससे आपकी क्षमता दुगुनी हो जाती है। "चल चला चल" गीत में भी यही बात है। टैगोर का एक गीत है "जोदी तोर डाक शुने केउ ना आशे, तॉबे ऐक्ला चॉलो रे" (अगर तुम्हारी पुकार सुन कर कोई न आए तो तुम अकेले ही चल पड़ो)। इसी से इन्स्पायर्ड होकर मैंने 'फ़कीरा' का वह गीत लिखा था। इसमें मुझे वह अंतरा पसंद है अपना लिखा हुआ कि "सूरज चंदा तारे जुगनु सबकी अपनी हस्ती है, जिसमें जितना नीर वो उतनी देर बरसती है, तेरी शक्ति अपार, तू तो लाया है गंगा धरती पे उतार, हिम्मत न हार, चल चलाचल"।" तो दोस्तों, आइए अब इस गीत का आनन्द लिया जाए महेन्द्र कपूर की आवाज़ में, गीत-संगीत एक बार फिर रवीन्द्र जैन का।



पहचानें अगला गीत - आशा जी का गाया ये गीत है जिसमें शत्रुघ्न सिन्हा फिल्म के नायक हैं

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, November 22, 2011

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233

"तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - "तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी, उसका ख़याल मुझे आ रही है, (गाते हुए) "लबों पे तबस्सुम निगाहों में बिजली, क़यामत कहीं से चली आ रही है..."। जी. एल. जैन, यानि घमण्डी लाल जी, घमण्ड कुछ नहीं था, सीधे सादे व्यक्तित्व के धनि थे। उसके बाद पंडित जनार्दन शर्मा, जिन्होंने स्वर का ज्ञान कराया। बड़ी मेहनत कराई उन्होंने, उनका अभ्यास कराने का एक ढंग था, वो ऐसे नहीं कहते थे कि इतनी बार इसको गाना है तुमको, एक 'मैच-बॉक्स' ले लिया, माचिस की तीलियाँ निकाल के रख ली, उन्होंने कहा कि इसमें से आप एक एक तीली निकाल के रखते जाइए और १०-१० बार उन सरगमों को गाइए, अब किसको गिनना है कि उसमें कितनी तीलियाँ हैं और उतनी बार गाना है, क़ैद नहीं थी समय की। ऐसे ही एक कटोरी ले ली चने की, उसमें से एक एक चना निकालिए और गाइए उसको, सरगम गाते रहिए। इस तरह पूरा दिन निकल जाता था, कब दिन निकल गया पता भी नहीं चला। उस समय मेरी उम्र थी पाँच साल। मुझे एक छोटा सा हारमोनियम दिया था खिलौने के जैसा, क्योंकि बड़ा हारमोनियम तो हैण्डल नहीं कर सकता था, हाथ ही नहीं जाता था वहाँ तक, तो छोटा हारमोनियम दिया गया था और फिर पंडित जनार्दन शर्मा नें रागों से परिचित कराया, स्वर-ज्ञान कराया, और एक छोटा सा कोर्स है प्रयाग संगीत समिति का, फ़ॉरमल एडुकेशन जिसे हम कहते हैं, अलीगढ़ के ही पंडित नथुराम शर्मा, उनके साथ बैठ के फिर उनके शिक्षण में संगीत प्रभाकर की डिग्री हासिल की, फिर गुरुदेव नें कहा कि तुम्हारी अलीगढ़ की जो सीखना है वह हो चुका है, अब देशाटन करो और इस बीच में बड़े भैया के साथ, डी.के. जैन जी के साथ, इनका बड़ा योगदान है मेरे करीयर में, मेरे साहित्यिक प्रकाश में, ख़ास तौर से उन्होंने बड़ा योगदान दिया, तो उनके साथ नागपुर आया और इत्तेफ़ाक़ की बात है कि नागपुर से बम्बई की दूरी एक रात की थी। और रांची फिर गया, रांची से कलकत्ते की दूरी एक रात की थी, तो मेरे कज़िन थे जो मुझे कलकत्ते ले गए और कलकत्ते से ही जो मेरा फ़िल्मी करीयर और गैर-फ़िल्मी रेकॉरडिंग्स शुरु हुई।"

'मेरे सुर में सुर मिला ले' में आज हमने जिस गीत को चुना है, वह गीत है रवीन्द्र जैन के करीयर का एक बेहद उल्लेखनीय पड़ाव 'चितचोर' का। इस फ़िल्म में केवल चार ही गीत थे, पर चारों ही एक से बढ़ कर एक। येसुदास के गाये दो एकल गीत "गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा" और "आज से पहले आज से ज़्यादा" तथा येसुदास और हेमलता के गाये दो युगल गीत "जब दीप जले आना" और "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले", इनमें से कौन किससे बेहतर है कहना आसान नहीं। हमनें इस अन्तिम गीत को आज की कड़ी के लिए चुना है। 'चितचोर' बासु चटर्जी निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें अमोल पालेकर और ज़रीना वहाब मुख्य कलाकार थे। 'सौदागर' और 'गीत गाता चल' ही की तरह 'चितचोर' भी राजश्री प्रोडक्शन्स की ही फ़िल्म थी। 'चितचोर' को बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी मिली और उस वर्ष कई पुरस्कारों के लिए मनोनित हुई। इस फ़िल्म से अमोल पालेकर नें अपनी डॆब्यु सिल्वर जुबिली हैट्रिक पूरी की - 'रजनीगंधा' (१९७४), 'छोटी सी बात' (१९७५) और 'चितचोर' (१९७६)। "गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा" गीत के लिए येसुदास को राष्ट्रीय पुरस्कार और आज के प्रस्तुत गीत के लिए हेमलता को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। हेमलता इस गीत के बारे में बताते हैं - "इस गीत की रेकॉर्डिंग् के दिन मैं स्टुडियो लेट पहुँची, किस कारण से लेट हुई थी, यह तो अब याद नहीं, बस लेट हो गई थी। वहाँ येसुदास जी आ चुके थे। गाने की रेकॉर्डिंग् के बाद दादु नें मुझसे कहा कि अगर तुम मेरे गुरु की बेटी नहीं होती तो वापस कर देता। यह सुन कर मैं इतना रोयी उस दिन। मुझे उन पर बहुत अभिमान हो गया, कि वो मुझे सिर्फ़ इसलिए गवाते हैं क्योंकि मैं उनके गुरु की बेटी हूँ? बर्मन दादा, कल्याणजी भाई, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, ये सब भी तो मुझसे गवाते हैं, तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों कह दिया? मुझे बहुत बुरा लगा और मैं दिन भर बैठ के रोयी। मैं दादु से जाकर यह कहा कि देर से आने के लिए अगर आप मुझे बाहर निकाल देते तो मुझे एक सबक मिलता, बुरा नहीं लगता पर आप ने ऐसा क्यों कहा कि अगर गुरु की बेटी न होती तो बाहर कर देता। तो उन्होंने मुझसे बड़े प्यार से कहा कि एक दिन ऐसा आएगा कि जब तुम्हारे लिए सारे म्युज़िक डिरेक्टर्स वेट करेंगे, तुम नहीं आओगी तो रेकॉर्डिंग् ही नहीं होगी।" 'चितचोर' फ़िल्म की कई रीमेक भी बनी है। ॠतीक रोशन, करीना कपूर, अभिषेक बच्चन अभिनीत 'मैं प्रेम की दीवानी हूँ' के अलावा १९९० में मलयालम में 'मिन्दाप्पुचयक्कू कल्याणम्', तेलुगू में 'अम्मयी मनासू' और बंगला में 'शेदिन चैत्र मास' जैसी फ़िल्में इसी कहानी पर आधारित थीं। तो आइए रवीन्द्र जैन के सुरों में हम भी सुर मिलाते हैं और सुनते हैं यह अवार्ड-विनिंग् गीत जो आधारित है राग पीलू पर।



पहचानें अगला गीत - आवाज़ है महेंद्र कपूर की, गीत मूल रूप से एक प्रेरणादायक कविता से प्रेरित है

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, November 21, 2011

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....दादु का ये गीत कितना सकून भरा है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 792/2011/232

गीतकार-संगीतकार-गायक रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की दूसरी कड़ी में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, जैसा कि कल हमने कहा था कि रवीन्द्र जैन की दास्तान शुरु से हम आपको बताएंगे, तो आज की कड़ी में पढ़िए उनके जीवन के शुरुआती दिनों का हाल दादु के ही शब्दों में (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। जब दादु से यह पूछा गया कि वो अपने बचपन के दिनों के बारे में बताएँ, तो उनका जवाब था - "बचपन तो अभी गया नहीं है, क्योंकि जहाँ तक ज्ञान का सम्बंध है, आदमी हमेशा बच्चा ही रहता है, यह मैं मानता हूँ। उम्र में भले ही हमने बचपन खो दिया हो, लेकिन ज्ञान में अभी बच्चे हैं। तो अलीगढ़ में थे मेरे माता-पिता, अलीगढ़ से ही जन्म मुझको मिला, अलीगढ़ में ही हो गया था शुरु ये गीत और संगीत का सिलसिला। डॉ. मोहनलाल, जो मेरे पिताश्री के कन्टेम्पोररी थे, मेरे पिताजी का नाम पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी, तो मोहनलाल जी नें जन्म के दिन ही आँखों का छोटा सा एक ऑपरेशन किया, उन्होंने आँखें खोली, क्योंकि बन्द थी आँखें, आँखें बन्द होने का वरदान मुझे जन्म से मिला है। क्योंकि यह मैं मानता हूँ कि आँखें इन्सान को भटका देते हैं क्योंकि आँखें जो हैं न, इन्सान का ध्यान यहाँ-वहाँ लगा देता है, तो कन्सेन्ट्रेशन के लिए वैसे भी हम आँखें बन्द कर लेते हैं। तो डॉ. मोहनलाल नें ऑपरेट किया आँखों को, अलीगढ़ के बड़े नामी डॉक्टर थे, और उन्होंने कहा कि इस बच्चे की आँखों में रोशनी धीरे-धीरे आ सकती है और आयेगी लेकिन पढ़ना मुनासिब नहीं रहेगा उतना क्योंकि उससे जितना देख पाएगा उसका नुकसान होगा। तो ऐसे में मेरे पिताजी, उनकी दूरदर्शिता को मैं सराहता हूँ कि देखिए उन्होंने क्या मेरे लिए निर्णय लिया, कि संगीत ही मेरे जीवन का लक्ष्य होगा और संगीत में ही मेरी पहचान बनेगी।"

दोस्तों, रवीन्द्र जैन जी की सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपनी आँखों की रोशनी के न होने की वजह से जीवन से हार नहीं मान लिया, बल्कि अपनी इस विकलांगता पर विजय प्राप्त कर न केवल अपनी ज़िन्दगी को संवारा, बल्कि दूसरे नेत्रहीन लोगों के लिए भी प्रेरणास्रोत बनें। और अब आते हैं आज के गीत पर। धार्मिक और पौराणिक फ़िल्मों के संगीतकारों की बात करें तो ४०, ५० और ६० के दशकों में जो नाम सुनाई देते थे, वो थे शंकरराव व्यास, चित्रगुप्त, एस. एन. त्रिपाठी, अविनाश व्यास प्रमुख। और ७०-८० के दशकों में अगर इस जौनर की बात करें तो शायद रवीन्द्र जैन का नाम सर्वोपरी रहेगा। दादु के संगीत से सजी जो धार्मिक फ़िल्में आईं, वो हैं 'सोलह शुक्रवार', 'हर हर गंगे', 'गंगा सागर', 'गोपाल कृष्ण', 'राधा और सीता', 'दुर्गा माँ', 'जय देवी सर्वभूतेषु', 'शनिव्रत महिमा', 'जय शकुम्भरी माँ' आदि। और कई फ़िल्मे ऐसी भी रहीं जो धार्मिक या पौराणिक विषयों की तो नहीं थीं, पर उनमें भी रवीन्द्र जैन नें भक्ति रस के कई सुमधुर गीत रचे। उदाहरण स्वरूप फ़िल्म 'लड़के बाप से बढ़के' में हेमलता की आवाज़ में "रक्षा करो भवानी माता" काफ़ी लोकप्रिय हुआ था। लेकिन इस तरह की ग़ैर-भक्ति रस की फ़िल्मों में भक्ति रस पर आधारित जो गीत सर्वाधिक सफल हुआ, वह था १९७५ की फ़िल्म 'गीत गाता चल' का "श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम, लोग करे मीरा को यूंही बदनाम"। जसपाल सिंह और आरति मुखर्जी की गाई यह भक्ति रचना इतनी कामयाब हुई कि हर धार्मिक पर्व पर मन्दिरों में यह गीत गूंजती हुई सुनाई देती है। गीत के बोल भी दादु नें ऐसे लिखे हैं कि सुन कर ही जैसे मन पवित्र हो जाता है। कभी कभी तो आश्चर्य होता है कि क्या इसे दादु नें ही लिखा है या फिर कोई पारम्परिक रचना है। दरअसल यह दादु के पौराणिक विषयों के अगाध ज्ञान का नतीजा है। आइए आनद ली जाये इस कालजयी भक्ति रचना की फ़िल्म 'गीत गाता चल' से।



पहचानें अगला गीत - इन युगल स्वरों में दो गीत हैं फिल्म में एक के मुखड़े में शब्द है "शाम", गायक गायिका का नाम बताएं

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Sunday, November 20, 2011

हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ...कहता हुआ आया वो सुरों का सौदागर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 791/2011/231

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार को हम सब जानते हैं रवीन्द्र जैन के नाम से। प्यार से फ़िल्म-इंडस्ट्री के लोग उन्हें दादु कह कर बुलाते हैं। आइए आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शुरु करते हैं दादु पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले'। यूं तो रवीन्द्र जैन नें बहुत से ऐसे फ़िल्मों में भी संगीत दिया है जिनके गीत किसी और गीतकार नें लिखे हैं, पर इस शृंखला में हम कुछ ऐसे गीतों को चुना है जिन्हें रवीन्द्र जैन नें लिखे और स्वरबद्ध किए हैं।

'मेरे सुर में सुर मिला ले' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हमने उस फ़िल्म का एक गीत चुना है जिसमें रवीन्द्र जैन को अपनी पहली कामयाबी हासिल हुई थी। १९७३ की अमिताभ बच्चन, नूतन और पद्मा खन्ना अभिनीत यह फ़िल्म थी 'सौदागर', जो बंगाल के ग्रामीण पार्श्व पर आधारित थी और खजूर के रस से गुड़ बनाने की प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमती कहानी थी। रवीन्द्र जैन का फ़िल्म जगत में किस तरह से आगमन हुआ इसके बारे में तफ़सील से हम आनेवाली कड़ियों में बताएंगे, आज बस 'सौदागर' फ़िल्म के बारे में जानिए दादु से ही। "जब हम बॉम्बे फ़ाइनली आ गए, तो फिर हरिभाई (संजीव कुमार) ही यहाँ मेरे आत्मीय या दोस्त थे, और हम बॉम्बे १९७० में आ गए, और यहाँ जो पहली नशिष्ट हुई रात को, उसी रात को मुरली हरि बजाज, राधेश्यामजी के दोस्त थे, उनके बेटे का जन्मदिन था, जहाँ मैंने गाना गाया और ख़ूब गाने गाए, और वहाँ रामजी मन्हर, हास्य कवि हमारे, तो उन्होंने सुना और उन्होंने कई लोगों से मीटिंग्स कराई। उन्होंने काफ़ी सहयोग दिया, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' वालों से उन्होंने ही मिलाया, सागर साहब से मिलाया और बहुत दिनों तक प्रोग्राम्स उनके लिए करता रहा जब तक काम नहीं था मेरे पास। इस तरह मदद की उन्होंने। 'सौदागर' में जब, एक बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में १० दिन के लिए आया था जब, तो राजश्री वालों से मुलाक़ात हुई थी, इन्होंने कहा था कि 'तुम्हारे लायक जब भी कोई सब्जेक्ट होगा तो ज़रूर बुलाएंगे और हम काम करेंगे साथ में'। और ताराचन्द जी उस समय हयात थे, वो ही प्रोडक्शन्स सारा देख भाल करते थे और धुनें सिलेक्ट करना, गानें सिलेक्ट करना, 'सौदागर' से उनके साथ यह सिलसिला शुरु हुआ, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' के साथ काम करने का। 'सौदागर' के सभी गानें बेहद मक़बूल हुए। यह एक शॉर्ट स्टोरी थी नरेन्द्रनाथ मित्र की लिखी हुई, जिसका शीर्षक था 'रस', बंगला कहानी थी, और गुड़ बनाने वाले की कहानी, खजूर के रस से गुड़ बनाना। तो बंगाल तो मेरे लिए मतलब, मेरा मनचाहा सब्जेक्ट मिल गया। तो मेरे गानें उस फ़िल्म में, मुझे रिकग्निशन सौदागर से मिला।" (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। तो लीजिए सुनते हैं फ़िल्म 'सौदागर' का यह गीत किशोर कुमार की आवाज़ में।



पहचानें अगला गीत - आरती मुखर्जी और एक पुरुष गायक की युगल आवाज़ में ये एक भक्ति गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है - "बदनाम"

पिछले अंक में
हा हा हा....खूब कहा कृष्ण मोहन जी

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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‘सिया रानी के जाये दुई ललनवा, विपिन कुटिया में...’ सोहर से होता है नवागन्तुक का स्वागत



सुर संगम- 44 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध

संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - पहला भाग

‘सुर संगम’ स्तम्भ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः उपस्थित हूँ। पिछले अंकों में आपने शास्त्रीय गायन और वादन की प्रस्तुतियों का रसास्वादन किया था, आज बारी है, लोक संगीत की। आज के अंक से हम आरम्भ कर रहे हैं, लोकगीतों के अन्तर्गत आने वाले संस्कार गीतों का सिलसिला।

किसी देश के लोकगीत उस देश के जनमानस के हृदय की अभिव्यक्ति होते हैं। वे उनकी हार्दिक भावनाओं के सच्चे प्रतीक हैं। प्रकृतिक परिवेश में रहने वाला मानव अपने आसपास के वातावरण और संवेदनाओं से जुड़ता है तो नैसर्गिक रूप से उनकी अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र साधन है, लोकगीत अथवा ग्राम्यगीत। भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों का जीवन आदिकाल से ही संगीतमय रहा है। वैदिक ऋचाओं को भी तीन स्वरों में गान की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रचलित लोकगीतों को हम चार वर्गों में बाँटते हैं। प्रत्येक उत्सव, पर्व और त्योहारों पर गाये जाने वाले गीतों को हम ‘मंगल गीत’ की श्रेणी में, तथा घरेलू और कृषि कार्यों के दौरान श्रम को भुलाने के लिए गाने वाले गीतों को ‘श्रम गीत’ के नाम से पुकारा जाता है। तीसरी श्रेणी के गीतों को ‘ऋतु गीत’ कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत चैती, कजरी, सावनी आदि का गायन होता है। लोकगीतों की चौथी श्रेणी है- ‘संस्कार गीत’ की, जिसका गायन मानव जीवन से जुड़े १६ संस्कार के अवसरों पर किया जाता है।

आज से हम ‘सुर संगम’ के आगामी अंकों में संस्कार गीतों पर आपसे चर्चा करेंगे। भारतीय समाज में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के जीवन को १६ संस्कारों में बाँटा जाता है। भारत के गैर हिन्दू समुदाय में भी इन अवसरों पर थोड़े नाम परिवर्तन और भिन्न रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। १६ संस्कारों में से आज हम ‘जातकर्म संस्कार’ अर्थात पुत्र-जन्म के अवसर पर मनाए जाने वाले उत्सव और इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों की चर्चा करेंगे। इस विधा के गीतों में सन्तान के जन्म का उल्लास होता है, नवगन्तुक शिशु के प्रति मंगल-कामनाएँ प्रकट की जाती है और शिशु की माता को बधाई दी जाती है। शिशु जन्मोत्सव के गीतों का चलन देश के हर प्रान्त और हर क्षेत्र में है। भाषा में आंचलिक परिवर्तन के होते हुए भी गीतों का मूलभाव सर्वत्र एक ही रहता है। समूचे उत्तर भारत में इस प्रकार के गीत को ‘सोहर’ के नाम से जाना जाता है। सोहर-गायन की कई धुने प्रचलित हैं। एक सर्वाधिक लोकप्रिय धुन में बँधे सोहर से हम आज शुरुआत करते हैं। जाने-माने शास्त्रीय गायक पण्डित छन्नूलाल मिश्र इस पारम्परिक सोहर में प्रयुक्त स्वरों के माध्यम से सामवेद की ऋचाओं के स्वरों की व्याख्या और तुलना कर रहे हैं। लीजिए पहले आप सुनिए यह सोहर-

भोजपुरी सोहर : ‘मोरे पिछवरवा चन्दन गाछ....’ : स्वर – पण्डित छन्नूलाल मिश्र


‘जातकर्म संस्कार’ पुत्र-जन्म के अवसर पर मनाया जाता है। परन्तु १६ संस्कारों की सूची में यह चौथे क्रमांक पर है। जातकर्म से पूर्व के तीन संस्कार और मनाए जाते हैं, जिन्हें गर्भाधान, पुंसवन और सीमान्त संस्कार कहते हैं। इन अवसरों पर प्रस्तुत किए जाने वाले गीतों में गर्भस्थ शिशु और माँ के स्वास्थ्य की कामना की जाती है। अवध क्षेत्र में इन गीतों को ‘सरिया’ कहा जाता है। सरिया गीतों में प्रायः ननद-भाभी के बीच रोचक और कटाक्षपूर्ण वार्तालाप भी उपस्थित रहता है। सोहर गीतों के वर्ण्य विषयों में पर्याप्त विविधता होती है। इन गीतों में कहीं सास और ननद पर कटाक्ष होता है तो ससुर से धन-धान्य का मुक्त-हस्त दान का अनुरोध होता है। नवजात शिशु के स्वस्थ रहने, बुद्धिमान बनने और भावी जीवन में सफलता पाने की कामना भी इन गीतों में की जाती है। ब्रज, बुन्देलखण्ड, अवध और भोजपुर क्षेत्र के सोहर गीतों में राम और कृष्ण के जन्म के प्रसंग सहज और सरल लौकिक रूप में चित्रण अनिवार्य रूप से मिलता है। कुछ सोहर गीतों में बाल्मीकि आश्रम में सीता के पुत्रों- लव और कुश के जन्म का प्रसंग भी वर्णित होता है। आइए, अब हम आपको एक ऐसा ही सोहर सुनवाते हैं, जिसमे लव-कुश के जन्म का प्रसंग है। यह सोहर गीत पारम्परिक नहीं है। इसकी रचना और गायन लखनऊ के भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर तथा शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत की विदुषी कमला श्रीवास्तव ने किया है। आइए सुनते हैं, यह मनमोहक अवधी सोहर गीत-

अवधी सोहर : ‘सिया रानी के जाये दुई ललनवाँ...’ : स्वर – विदुषी कमला श्रीवास्तव


सोहर गीतों का वर्ण्य विषय कुछ भी हो, कोई भी भाषा हो अथवा किसी भी क्षेत्र की हो, नवजात शिशु के स्वागत और उसके भावी सुखमय जीवन की कामना तथा उल्लास का भाव हर गीत में मौजूद होता है। एक भोजपुरी सोहर की एक पंक्ति है- ‘सासु लुटावेली रुपैया, त ननदी मोहरवा रे....’, जिसका भाव यह है कि शिशु के आगमन से हर्षित सास रूपये का और ननद सोने की मोहरों का दान करतीं हैं। सोहर का ही एक प्रकार होता है- ‘मनरजना’, जिसे प्रसव से ठीक पहले गाया जाता है। नाम से ही सहज अनुमान हो जाता है इन गीतों का उद्देश्य परिवार के सदस्यों का मनोरंजन करना होता है। मनरजना गीतों का एक उद्देश्य यह भी होता है कि गर्भवती के कष्ट को कम किया जा सके। ऐसी ही एक अवधी मनरजना गीत की एक पंक्ति देखें- ‘ननदी जो तोरे हुईहैं भतीजवा, तोहे देहों गले की तिलरी...’। इस गीत में वर्णित ‘तिलरी’ का अर्थ है, तीन लड़ियों वाला गले का आभूषण। अब हम आपको अवध क्षेत्र का एक लोकप्रिय सोहर गीत सुनवाते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस सोहर की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने किया था। इस सोहर गीत को स्वर दिया है, सुपरिचित गायिका इन्दिरा श्रीवास्तव ने।

अवधी सोहर : ‘चैतहि के तिथि नौमी त नौबत बाजै हो...’ : स्वर – विदुषी इन्दिरा श्रीवास्तव


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अन्दर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुर संगम 45 की पहेली : एक भोजपुरी फिल्म में सोहर गीत शामिल किया गया था। इस ऑडियो क्लिप को सुन कर गीत की गायिका को पहचानिए। गायिका के नाम की सही पहचान करने पर आपको मिलेंगे 5 अंक।


पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 44 वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर है- सोहर, और पहेली का सही उत्तर दिया है- क्षिति जी ने, जिन्हें मिलते हैं 5 अंक, बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। परन्तु सोहर गीतों पर यह चर्चा हम ‘सुर संगम’ के अगले अंक में भी जारी रखेंगे। अगले रविवार को हम पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं। आप अपने विचार और सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६-३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

संग्रहालय

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