Saturday, April 25, 2009

चल री सजनी अब क्या सोचें...सुनकर मुकेश के इस गीत कौन न रो पड़े...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 61

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ६१-वीं कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। हिंदी फ़िल्मों में विदाई गीतों की बात करें तो सब से पहले "बाबुल की दुआयें लेती जा" ज़्यादातर लोगों को याद आती है। लेकिन इस विषय पर कुछ और भी बहुत ही ख़ूबसूरत गीत बने हैं और ऐसा ही एक विदाई गीत आज हम चुन कर ले आये हैं। मुकेश की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'बम्बई का बाबू' का गाना "चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाये रोते रोते"। मेरे ख़याल से यह गाना फ़िल्म संगीत का पहला लोकप्रिय विदाई गीत होना चाहिए। 'बम्बई का बाबू' १९६० की फ़िल्म थी। इससे पहले ५० के दशक में कुछ चर्चित विदाई गीत आये तो थे ज़रूर, जैसे कि १९५० में फ़िल्म 'बाबुल' में शमशाद बेग़म ने एक विदाई गीत गाया था "छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा", १९५४ में फ़िल्म 'सुबह का तारा' में लता ने गाया था "चली बाँके दुल्हन उनसे लागी लगन मोरा माइके में जी घबरावत है", और १९५७ में मशहूर फ़िल्म 'मदर इंडिया' में शमशाद बेग़म ने एक बार फिर गाया "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली"। लेकिन मुकेश के गाये इस गीत में कुछ ऐसी बात थी कि गीत सीधे लोगों के दिलों को छू गया और आज भी इस गीत को सुनते ही जैसे दिल रो पड़ता है उस बेटी के लिये जो अपने बाबुल का घर छोड़ एक नये संसार में प्रवेश करने जा रही है। "बाबुल पछताए हाथों को मल के, काहे दिया परदेस टुकड़े को दिल के", "ममता का आँचल, गुड़ियों का कंगना, छोटी बड़ी सखियाँ घर गली अँगना, छूट गया रे" जैसे बोलों ने इस गीत को और भी ज़्यादा भावुक बना दिया है। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और संगीतकार थे हमारे बर्मन दादा।

'बम्बई का बाबु' के मुख्य कलाकार थे देव आनंद और सुचित्रा सेन। यूँ तो इस फ़िल्म के दूसरे कई गाने भी मशहूर हुए लेकिन इस गीत को सब से ज़्यादा लोकप्रिय इसलिये कहा जा सकता है क्योंकि अमीन सायानी के बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में इस फ़िल्म के केवल इसी गीत को स्थान मिला था और वह भी पाँचवाँ। फ़िल्म की कहानी के मुताबिक यह गीत फ़िल्म में ख़ास जगह रखता है। सीन ऐसा है कि सुचित्रा सेन की शादी हो जाती है और वो अपने बाबुल का घर छोड़ विदा होती है। यह बात इस गीत को और भी ज़्यादा ग़मगीन बना देती है कि सुचित्रा सेन की शादी फ़िल्म के नायक देव अनंद से नहीं बल्कि किसी और से हो रही होती है। इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों में रफ़ी साहब की आवाज़ थी, बस यह एक गीत ही सिर्फ़ मुकेश की आवाज़ में था। इस गीत में बर्मन दादा ने 'कोरस' का इतना बेहतरीन इस्तेमाल किया है कि 'इन्टरल्युड म्युज़िक' केवल शहनाई और कोरल सिंगिंग से ही बनाया गया है। इस गीत के आख़िर में करीब डेढ़ मिनट का संगीत है जो इसी तरह के शहनाई और कोरल सिंगिंग से बना है। यह ऐसा संगीत है जो कानों से सीधे दिल में उतर जाता है। तो लीजिये सुनिये विदा हो रही एक बेटी की व्यथा। हमें उम्मीद है कि गीत को सुनते हुए विदा हो रही किसी बेटी की तस्वीर आपके आँखों के सामने ज़रूर आ जाएगी क्योंकि मजरूह, दादा बर्मन और मुकेश ने मिलकर यही तस्वीर तो बनाई थी!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. चंदामामा को बुला रही है द्वार आशा की आवाज़.
२. बर्मन दा का संगीत, नर्गिस के अभिनय से सजी फिल्म.
३. मुखड़े में शब्द है - "हार"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार बहुत से विजेता रहे. नीरज जी, नीलम जी, मनु जी, सुमित जी, सलिल जी सभी के जवाब सही रहे, नीलम जी और पी एन साहब आपकी पसंद का गीत वाकई बहुत प्यारा है....जल्द ही सुनेंगे बने रहिये ओल्ड इस गोल्ड के साथ. अनिल जी और अवध जी, आपके जानकारी के बाद इन गीतों को सुनना और भी सुखद रहेगा...आभार

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'आत्म-संगीत'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'आत्म-संगीत'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'स्‍वामिनी' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी आत्म-संगीत, जिसको स्वर दिया है शोभा महेन्द्रू और अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 9 मिनट और 50 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

रानी का हृदय उछलने लगा। आह ! कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।
(प्रेमचंद की 'आत्म-संगीत' से एक अंश)


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कल रविवार (२६ अप्रैल २००९) का आकर्षण - पॉडकास्ट कवि सम्मलेन

#Eightenth Story, Atma-sangeet: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/13. Voice: Shobha Mahendru, Anurag Sharma

Friday, April 24, 2009

हम देखेंगे... लाज़िम है कि हम भी देखेंगे...



पाकिस्तान से कोई ताज़ा ख़बर है?... ज़रूर कोई बुरी ख़बर होगी। याद नहीं पिछली बार कब इस मुल्क से कोई अच्छी ख़बर सुनने को मिली थी। करेले जैसी ख़बरें वो भी नीम चढ़ी कि उनपर अफ़सोस करने के लिये न तो दिमाग़ के पास फ़ालतू-दिमाग़ रह गया है और न दिल के पास वो धड़कनें जो आंसू में ढल जाती हैं। नहीं दोस्त ये वाक़ई बुरी ख़बर है... और फिर जो कुछ मोबाइल पर कहा गया वो वाक़ई यक़ीन करने वाला नहीं था। इक़बाल बानों नहीं रहीं।

हँसी कब ग़ायब हो गई, बेयक़ीनी कब यक़ीन में बदल गई, पता ही नहीं चला। एक ऐसे मुल्क में जहाँ ख़तरनाक ख़बरें रोज़मर्रा की हक़ीक़त बन चुकी हैं। जहां मौत तमाशा बन चुकी है वहां इक़बाल बानों की मौत ने उस आवाज़ को भी हमसे छीन लिया जो ज़ख़्म भरने का काम करती थी, जो रूह का इलाज थी। “दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं…” फ़ैज़ की ये नज़्म अगर सुननेवालों के दिलों में ज़िंदा है तो इसकी एक बड़ी वजह इक़बाल बानों की वो आवाज़ है जो इसका जिस्म बन गई। बहरहाल ये सच है कि 21 अप्रैल 2009 को इकबाल बानो अपने चाहने वालों को ख़ुदा हाफिज़ कहके हमेशा-हमेशा के लिये रुख़सत हो गईं। और इसी के साथ ठुमरी, दादरा, ख़याल और ग़ज़ल की एक बेहतरीन ख़िदमतगुज़ार एक न मिटने वाली याद बन कर रह गई।

“हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे... हम देखेंगे” यूनिवर्सिटी के ज़माने से लेकर अब तक जब कभी ये नज़्म गायी गई, बदन में सिरहन दौड़ा गई। कई बार टेप की हुई आवाज़ में इसे सुना और साथ ही सुनीं वो हज़ारों तालियाँ जो लय के साथ-साथ गीत को ऊँचा और ऊँचा उठाती रहीं। मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे कि इस नज़्म के अलावा शायद ही कभी किसी और गीत को जनता का, श्रोताओं का, दर्शकों का इतना गहरा समर्थन कभी मिला हो, हमने तो कभी नहीं देखा-सुना हालांकि सब कुछ देखने-सुनने का कोई दावा भी हम नहीं करते। अवाम की आवाज़ में हुक्मरानों के ख़िलाफ़ पंक्ति दर पंक्ति व्यंग्य की लज़्ज़त महसूस करना और ताली बजाकर उसके साथ समर्थन का रोमांच जिन श्रोताओं की यादों का हिस्सा है उन्हें इक़बाल बानो की मौत कैसे खल रही होगी इसका अंदाज़ा हम लगा सकते हैं।

पता नहीं कितनों को ये इल्म है कि इकबाल बानों की पैदाइश इसी दिल्ली में हुई। दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खान ने उन्हें शास्त्रीय संगीत और लाइट क्लास्किल म्यूज़िक में प्रशिक्षित किया। पहली बार उनकी आवाज़ को लोगों ने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली से सुना। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। अगर इजाज़त हो तो ये कहना चाहूँगा कि हमारे पास दो बेगम अख़्तर थीं, विभाजन में हमने एक पाकिस्तान को दे दी। 1952 में, 17 साल की उम्र में उनकी शादी एक ज़मींदार से कर दी गई। इक़बाल बानो की इस शर्त के साथ कि उनके शौहर उन्हें गाने से कभी नहीं रोकेंगे। ताज्जुब है कि मौसिकी के नाम पर, एक इस्लामी गणराज्य में, एक शौहर अपनहे वचन के साथ अंत तक बँधा रहा और इक़बाल बानो की आवाज़ के करिश्में दुनिया सुनती रहीं।
1957 से वो संगीत की अपनी प्रस्तुतियों के द्वारा लोकप्रियता की सीढियाँ चढ़ने लगीं। और जल्दी ही फ़ैज़ के कलाम को गाने की एक्सपर्ट कही जाने लगीं। प्रगतिशील आंदोलन के बैनर तले जब भी, कहीं भी, कोई भी आयोजन हुआ तो इक़बाल बानो की आवाज़ हमेशा उसमें शामिल रही। हर ख़ास और आम ने इस आवाज़ को सराहा, उसे दिल से चाहा। हिंद युग्म उन्हें अपना सलाम पेश करता है।

--नाज़िम नक़वी


दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं (फैज़ अहमद फैज़)


हम देखेंगे.....लाज़िम है कि हम भी देखेंगे (फैज़ अहमद फैज़)


गोरी तोरे नैना काजर बिन कारे (ठुमरी)

संगत- साबरी खान (सारंगी), ज़ाहिद खान (हारमोनियम), रमज़ान खान (तबला), अबदुल हमीद साबरी (सुरमनदल) और साईद खान (सितार)।


इक़बाल बानो को हिन्द-युग्म की श्रद्धाँजलि

हम देखेंगे का वीडियो


सफल "हुई" तेरी अराधना...शक्ति सामंत पर विशेष (भाग 3)



दोस्तों, शक्ति सामंत के फ़िल्मी सफ़र को तय करते हुए पिछली कड़ी में हम पहुँच गए थे सन् १९६५ में जिस साल आयी थी उनकी बेहद कामयाब फ़िल्म 'कश्मीर की कली'। आज हम उनके सुरीले सफ़र की यह दास्तान शुरु कर रहे हैं सन् १९६६ की फ़िल्म 'सावन की घटा' के एक गीत से। इस फ़िल्म का निर्माण और निर्देशन, दोनो ही शक्तिदा ने किया था और इस फ़िल्म में भी नय्यर साहब का ही संगीत था।

गीत: आज कोई प्यार से दिल की बातें कह गया (सावन की घटा)


"आज कोई प्यार से दिल की बातें कह गया, मैं तो आगे बढ़ गयी पीछे ज़माना रह गया"। एस. एच. बिहारी के लिखे इस गीत के बोल जैसे शक्तिदा को ही समर्पित थे। 'हावड़ा ब्रिज', 'चायना टाउन', और 'कश्मीर की कली' जैसी 'हिट' फ़िल्मों के बाद इसमें कोई शक़ नहीं रहा कि शक्तिदा फ़िल्म जगत में बहुत ऊपर पहुँच चुके थे। उनका नाम भी बड़े बड़े फ़िल्म निर्माता और निर्देशकों की सूची में शामिल हो गया। और साल दर साल उनकी प्रतिभा और सफलता साथ साथ परवान चढ़ती चली गयी। 'सावन की घटा' के अगले ही साल, यानी कि १९६७ में एक और मशहूर फ़िल्म आयी 'ऐन ईवनिंग इन पैरिस' जिसके गीत संगीत ने तो हंगामा मचा दिया। शम्मी कपूर, शंकर जयकिशन और मोहम्मद रफ़ी की तिकड़ी पहले से ही लोकप्रियता के चरम शिखर पर पहुँच चुकी थी। इस फ़िल्म ने उनकी मुकुट पर एक और चमकता हीरा जड़ दिया। शक्तिदा किसी विदेशी शहर को आधार बनाकर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। उनके अनुसार उस ज़माने में पैरिस को लेकर लोगों में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी थी और यूरोप के सबसे ख़ास शहर के रूप में भारतीय इसे मानते थे। इसलिए इस फ़िल्म के लिए पैरिस को ही चुना गया। उन्होने यह भी कहा था कि इस फ़िल्म की कहानी में कोई ख़ास बात नहीं थी, फ़िल्म चली अपने किस्मत के बलबूते। फ़िल्म के गीतों के लिए पैरिस से ही नर्तकियों को लिया गया था। एक फ़्रेंच निर्माता ने जब यह फ़िल्म देखी तो उन्होने शक्तिदा से अनुरोध किया कि वो उन्हे इस फ़िल्म के कुछ दृश्य उनकी अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करने की अनुमती दे दें। 'ऐन ईवनिंग इन पैरिस' के शूटिंग से जुड़ा एक मज़ेदार क़िस्सा शक्तिदा ने फ़ौजी भाइयों के लिए प्रसारित विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में बताया था। हुआ यूँ कि वो लोग पैरिस में फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। उन दिनो 'जंगली' और 'संगम' के गानें पूरी दुनिया में धूम मचा रहे थे। एक दिन शक्तिदा, जयकिशन और शम्मी कपूर एक 'रेस्तोराँ' में बैठे हुए थे कि अचानक कुछ लोगों ने उन्हे घेर लिया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक कि जयकिशन और शम्मी कपूर ने उनको "आइ आइ या करूँ मैं क्या सुकू सुकू" गाना नहीं सुनाया। 'ऐन ईवनिंग इन पैरिस' के जिस गाने को वो उन दिनों फ़िल्मा रहे थे वह गाना था यह...

गीत: आसमान से आया फ़रिश्ता (ऐन ईवनिंग इन पैरिस)


साल १९६९। उस समय राजेश खन्ना राजेश खन्ना नहीं बने थे। उन्होने कुछ दो तीन फ़िल्मों में काम किया था, लेकिन वो फ़िल्में बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हो पायी थी। जब 'आराधना' की कहानी शक्तिदा के दिमाग़ में आयी, तो उन्हे लगा कि इस कहानी पर एक सफ़ल फ़िल्म तभी बनायी जा सकती है अगर नायक की भूमिका में कोई नया अभिनेता हो। उन्होने राजेश खन्ना का अभिनय देख रखा था और उन्हे उनका अभिनय काफ़ी पसंद भी आया था। जब उन्होने राजेश खन्ना से 'आराधना' में काम करने की बात की तो पहले पहले तो वो ज़्यादा ख़ुश नहीं हुए क्योंकि उनका किरदार 'इंटर्वल' से पहले ही मर जाता है और उनका डबल रोल काफ़ी देर बाद शुरु होता है। उन्हे लगा कि यह नायिका प्रधान फ़िल्म है जो उन्हे कामयाबी नहीं दिला सकती। लेकिन शक्तिदा ने उन्हे हर तरीके से समझाया, यहाँ तक कहा कि अगर फ़िल्म नाकामयाब भी होती है तो भी उन्हे उनके पूरे पैसे मिल जाएंगे। आख़िरकार राजेश खन्ना राज़ी हो गए और फ़िल्म का निर्माण शुरु हो गया। शक्तिदा ने बहुत ही कम बजट में यह फ़िल्म बना डाली और जब फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो वो लखपति बन गए। 'आराधना' मुंबई के 'बांद्रा टाकीज़' में रिलीज़ हुई थी। मद्रास के एक सिनेमाघर में यह फ़िल्म लगातार दो साल तक चली। इस फ़िल्म ने राजेश खन्ना के रूप में फ़िल्म जगत को दिया उसका पहला 'सुपर स्टार'। शर्मिला टैगोर के स्टाइल को भी उस युग की युवतियों ने गले लगाया। और इसी फ़िल्म से शुरुआत हुई राजेश खन्ना, आनंद बख्शी, सचिन देव बर्मन और किशोर कुमार के टीम की।

गीत: मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू (आराधना)


'आराधना' की बातें इतनी ज़्यादा हैं दोस्तों कि केवल एक गीत सुनवाकर हम आगे नहीं बढ़ सकते, भले ही एक और अंक हमें बढ़ाने पड़ जाए। तो हुआ यूँ कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनो रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। उन दिनो किशोर देव आनंद के लिए गाया करते थे, इसलिए सचिनदा पूरी तरह से शंका-मुक्त नहीं थे कि किशोर गाने के लिए राज़ी हो जाएंगे। शक्तिदा ने किशोर को फ़ोन किया, जो उन दिनों उनके दोस्त बन चुके थे बड़े भाई अशोक कुमार के ज़रिए। किशोर ने जब गाने से इनकार कर दिया तो शक्तिदा ने कहा, "नखरे क्यूँ कर रहा है, हो सकता है कि यह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा हो जाए"। आख़िर में किशोर राज़ी हो गए। शुरु शुरु में सचिनदा बतौर गीतकार शैलेन्द्र को लेना चाह रहे थे, लेकिन यहाँ भी शक्तिदा ने सुझाव दिया कि क्यूँ ना सचिनदा की जोड़ी उभरते गीतकार आनंद बख्शी के साथ बनाई जाए। और यहाँ भी उनका सुझाव रंग लाया। जब तक रफ़ी साहब अपनी विदेश यात्रा से लौटते, इस फ़िल्म के करीब करीब सभी गाने रिकार्ड हो चुके थे सिवाय दो गीतों के, जिन्हे फिर रफ़ी साहब ने गाया। इनमें से एक गीत का संगीत राहुल देव बर्मन ने तैयार किया था क्युंकि सचिनदा की तबीयत उन दिनों कुछ ठीक नहीं चल रही थी। तो क्यूँ ना यहाँ पर वही गीत सुन लिया जाए!

गीत: बाग़ों में बहार है (आराधना)


'आराधना' में किशोर कुमार का गाया "रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना" उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी 'बोल्ड' गीत था। सचिनदा ने इस गीत के लिए पहले जो धुन बनाई थी, उसमें किशोर कुमार को कुछ कमी सी लग रही थी, यानी कि जिस नशीले अंदाज़ की ज़रूरत थी वह नहीं आ पा रही थी। तब किशोरदा ने ही इसकी धुन को थोड़ा सा 'मॊर्डन' बना दिया जो बर्मन दादा को भी पसंद आया। अब बारी थी इस गाने के फ़िल्मांकन की। शक्तिदा साधारणतः अपने फ़िल्मों के रिकार्ड किए हुए गाने रात के वक़्त सुना करते थे और उनके फ़िल्मांकन के बारे में योजनाएँ बनाया करते थे। इस गीत के लिए उनके दिमाग़ में एक ख्याल आया कि क्यूँ ना इस गीत को एक ही 'शौट' में फ़िल्माया जाए! उन्होने एक काग़ज़ का पन्ना लिया और उस पर तीन अक्षर लिखे - ए, बी, सी। 'ए' नायक के लिए, 'बी' नायिका के लिए, और 'सी' कैमरे के लिए। और इस तरह से वो अपने मन ही मन में गाने का पूरा फ़िल्मांकन क़ैद कर लिया। उन्होने एक गोलाकार 'ट्राली' का इंतज़ाम किया और फ़िल्मालय स्टुडियो में इस गीत को फ़िल्मा लिया गया। शुरु शुरु में कई लोगों ने उनके इस एक शौट वाले विचार का विरोध किया था। किसी ने यहाँ तक कहा भी था कि "इसका दिमाग़ ख़राब हो गया है जो इतना अच्छा गाना एक ही शौट में ले रहा है"। उस समय सभी के सवालों का शक्तिदा ने एक ही जवाब दिया था कि "जब रात को गाना सुन रहा था तो समझ ही नहीं आया कि कहाँ 'कट' करूँ"। और इस तरह से यह गीत हिंदी फ़िल्म जगत का पहला गाना बन गया जिसे केवल एक ही शौट में फ़िल्माया गया था। तो चलिए हम भी इस गीत की मादकता और नशीलेपन का आनंद उठाते हैं।

गीत: रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना (आराधना)


'आराधना' की कामयाबी सिर्फ़ शक्ति सामंत की कामयाबी नहीं थी, बल्कि राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर, आनंद बख्शी, किशोर कुमार जैसे तमाम कलाकारों के लिए यह फ़िल्म यादगार साबित हुई। इस फ़िल्म की कामयाबी के झंडे को लहराते हुए शक्तिदा ने प्रवेश किया ७० के दशक में। १९७० में उनके निर्देशन में फ़िल्म आयी 'पगला कहीं का'। निर्माता थे अजीत चक्रवर्ती। शम्मी कपूर और आशा पारेख अभिनीत इस फ़िल्म में शंकर जयकिशन ने एक बार फिर से 'ऐन ईवनिंग इन पैरिस' की तरह अपने सुरीले संगीत के जलवे बिखेरे हसरत जयपुरी के लिखे और लता मंगेशकर, आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी और मन्ना डे के गाए गीतों के ज़रिए। इस फ़िल्म का एक गीत ऐसा था जो हमें कभी उसे भुलाने नहीं देता। आप समझ गए होंगे कि हमारा इशारा किस तरफ़ है, जी हाँ, लताजी और रफ़ी साहब का गाया 'डबल वर्ज़न' गीत "तुम मुझे युँ भुला ना पायोगे"।

गीत: तुम मुझे युं भुला ना पायोगे (पगला कहीं का)


"तुम मुझे युँ भुला ना पायोगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग संग तुम भी गुनगुनायोगे"। इसमें कोई शक़ नहीं कि शक्तिदा के फ़िल्मों के गीतों को आज भी लोग बड़े प्यार से गुनगुनाते हैं, याद करते हैं। रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में यही गानें तो हैं जो हमारे सुख दुख के साथी हैं। ना कभी हम इन गीतों को भुला सकते हैं और ना ही इन गानों और इनके फ़िल्मों से जुड़े कलाकारों को। और शायद यही वजह है कि आज हम 'आवाज़' के इस मंच पर शक्ति सामंत को याद कर रहे हैं, उन्हे श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं। पहले हमने सोचा था कि इस श्रद्धांजली को हम चार भागों में पोस्ट करेंगे, लेकिन शक्तिदा के फ़िल्मों की सूची इतनी लम्बी है और इन फ़िल्मों के गाने इतने प्यारे हैं कि हम बड़ी मुशकिल में पड़ गए कि किस फ़िल्म को छोड़ें, और किस फ़िल्म का ज़िक्र करें। इसलिए हमने तय किया है कि हम इस श्रद्धांजली को तब तक जारी रखेंगे जब तक शक्तिदा के सभी फ़िल्मों का ज़िक्र हम इत्मीनान से कर नहीं लेते। चौथे भाग के साथ हम बहुत जल्द वापस आयेंगे, तब तक पढ़ते रहिए और सुनते रहिए 'आवाज़'।

प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी

Thursday, April 23, 2009

तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा....रफी साहब के श्रेष्ठतम गीतों में से एक



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 60

दोस्तों, जब हमने आपको फ़िल्म बैजु बावरा का गीत "मोहे भूल गए सांवरिया" सुनवाया था तब हमने इस बात का ज़िक्र किया था कि इस फ़िल्म का हर एक गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल होने की काबिलियत रखता है। इसलिए आज हमने सोचा कि क्यों न इस फ़िल्म का एक और गीत आप तक पहुँचाया जाए! तो लीजिए पेश है बैजु बावरा फ़िल्म का सबसे 'हिट' गीत "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा"। युं तो इस गीत को मुख्य रूप से रफ़ी साहब ने ही गाया है, लेकिन आख़िर में लताजी और साथियों की भी आवाज़ें मिल जाती हैं। राग भैरवी पर आधारित यह गीत संगीतकार नौशाद और गीतकार शक़ील बदायूनीं की जोड़ी का एक महत्वपूर्ण गीत है। इस गीत के लिए नौशाद साहब को १९५४ में शुरु हुए पहले 'फ़िल्म-फ़ेयर' पुरस्कार के तहत सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार मिला था। मीना कुमारी को भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था इसी फ़िल्म के लिये। लेकिन फ़िल्म के नायक भारत भूषण को पुरस्कार न मिल सका क्योंकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार उस साल ले गये दिलीप कुमार फ़िल्म "दाग़" के लिए। १९५३ में बैजु बावरा बनी थी और उसी साल से अमीन सायानी का मशहूर रेडियो प्रोग्राम गीतमाला शुरु हुआ था और इसी गीत को उस साल के सबसे लोकप्रिय गीत के रूप में इस कार्यक्रम में चुना गया था।

'बैजु बावरा' फ़िल्म के इस गीत के बारे में तो हम बता चुके, आइए अब कुछ बातें इस फ़िल्म के बारे में भी हो जाए! जैसा कि आपको पता होगा फ़िल्मकार भाइयों की जोड़ी विजय भट्ट और शंकर भट्ट प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले फ़िल्में बनाया करते थे। ४० के दशक में एक के बाद एक धार्मिक और पौराणिक फ़िल्में बनाने की वजह से एक समय ऐसा आया कि उनकी आर्थिक अवस्था काफ़ी हद तक ख़राब हो गई। यहाँ तक की प्रकाश पिक्चर्स को बंद करने की नौबत आने ही वाली थी। कोई और उपाय न पा कर दोनो भाई पहुँच गए नौशाद साहब के पास। नौशाद साहब के सम्पर्क में आकर उनके क़िस्मत का सितारा एक बार फिर से चमक उठा 'बैजु बावरा' के रूप में। 'बैजु बावरा' की अपार सफ़लता ने भट्ट भाइयों को डूबने से बचा लिया। दोस्तों, 'बैजु बावरा' से संबंधित कुछ और जानकारियाँ हम सुरक्षित रख रहे हैं किसी और अंक के लिए जब हम आपको इस फ़िल्म का एक और गाना सुनवायेगे। तो लीजिये, आज पेश है "तू गंगा की मौज..."



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. फिल्म के शीर्षक में "बम्बई" शब्द है. देव आनंद मुख्य कलाकार हैं.
२. बर्मन दा के संगीत से सजा एक अमर गीत है ये.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"बाबुल".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
भाई कल तो जम कर वोटिंग हुई, दो खेमे बँट गए एक तरफ रहे समीर लाल जी, पी एन साहब और नीलम जी, और दूसरी तरफ हमारे दिग्गज मनु और नीरज. इस बार जीत दिग्गजों की हुई. दरअसल जिस गीत का समीर लाल जी ने जिक्र किया वो भी नौशाद साहब का ही है पर वो लता और रफी का एक युगल गीत है जो दिलीप कुमार और मीना कुमारी पर फिल्माया गया है. जबकि आज का ये गीत मूलतः रफी साहब के स्वर में है, बस यही फर्क है. पर आपका सुझाया गीत भी बेहद प्यारा है और जल्द ही ओल्ड इस गोल्ड पर आएगा. निश्चिंत रहें. संगीता जी और प्रकाश जी का भी महफिल में स्वागत.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



आदमी बुलबुला है पानी का..... महफ़िल-ए-यादगार और तख़्लीक-ए-गुलज़ार



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०७

कुछ फ़नकार ऎसे होते हैं,जिनके बारे में लिखने चलो तो न आपको मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं और न हीं आपको अतिशयोक्ति का सहारा लेना होता है, शब्द खुद-ब-खुद हीं पन्ने पर उतरने लगते हैं। यूँ तो आलेख लिखते समय लेखक को कभी भी भावुक नहीं होना चाहिए, लेकिन आज के जो फ़नकार हैं उनकी लेखनी का मैं इस कदर दीवाना हूँ कि तन्हाई में भी मेरे इर्द-गिर्द उनके हीं शब्द घूमते रहते हैं। और इसलिए संभव है कि आज मैं जो भी कहूँ जो भी लिखूँ, वह आपको अतिशय प्रतीत हो। पिछले अंक में हमने "गज़लजीत" जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का मजा लूटा था और उस पुरकशिश आवाज़ के सम्मोहन का असर देखिए कि हम आज के अंक को भी उन्हीं की स्वरलहरियों के सुपूर्द करने पर मजबूर हैं। तो आप समझ गए कि हम किस फ़नकार की बातें कर रहे थे... जगजीत सिंह। वैसे आज के गीत को साज़ और आवाज़ से इन्हीं से सजाया है, लेकिन आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वह इस गाने के संगीतकार या गायक नहीं बल्कि इसके गीतकार हैं। बरसों पहले "काबुलीवाला" नाम की एक फिल्म आई थी, जो अपनी कहानी और अदायगी के कारण तो मकबूल हुई हीं, उसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाया था "ऎ मेरे प्यारे वतन,ऎ मेरे प्यारे बिछड़े चमन" ने। इस गीत के गीतकार "प्रेम धवन" थे। अरे नहीं... आज हम उनकी बात नहीं कर रहे। उनकी बात समय आने पर करेंगे। इस फिल्म में एक और बड़ा हीं दिलकश और मनोरम गीत था- "गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे" । आज हम इसी गीत के गीतकार की बात कर रहे हैं। शायद आप समझ गए होंगे। नहीं समझे तो एक और हिंट देता हूँ। इसी साल इनको एकेडमी अवार्ड से सुशोभित किया गया है। अब समझ गए ना...... जी हाँ हम पद्म भूषण श्री संपूरण सिंह "गुलज़ार" की बात कर रहे हैं।

मैने पहले हीं लिख दिया है कि "गुलज़ार" के बारे में लिखने चलूँगा तो भावों के उधेड़-बुन में उलझ जाऊँगा..इसलिए सीधे-सीधे गाने पर आता हूँ। २००६ में गु्लज़ार साहब (इन्हें अमूमन इसी नाम से संबोधित किया जाता है) और जगजीत सिंह जी की गैर-फिल्मी गानों की एक एलबम आई थी "कोई बात चले"। यूँ तो जगजीत सिंह गज़ल-गायकी के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस एलबम के गीतों को गज़ल कहना सही नहीं होगा, इस एलबम के गीत कभी नज़्म हैं तो कभी त्रिवेणी। त्रिवेणी को तख़्लीक़-ए-गुलज़ार भी कहते हैं क्योंकि इसकी रचना और संरचना गुलज़ार साहब के कर-कमलों से हीं हुई है। त्रिवेणी वास्तव में क्या है, क्यों न गु्लज़ार साहब से हीं पूछ लें। बकौल गु्लज़ार साहब : "शुरू शुरू में जब ये फ़ार्म बनाई थी तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा, जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल ,एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है, नज़र नहीं आती। त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है । तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है।" गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी जो मुझे बेहद पसंद है:

"कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में

अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!"


इसे क्या कहियेगा कि जो चीज हमें सबसे आसानी से हासिल हो, उसे समझना सबसे ज्यादा हीं मुश्किल हो। ज़िंदगी कुछ वैसी हीं चीज है। और इस ज़िंदगी को जो बरसों से बिना समझे हीं जिए जा रहा है,उसे क्या कहेंगे। इंसान न खुद को समझ पाया है और न खुद की ज़िंदगी को, फिर भी बेसाख़्ता हँसता है, बोलता है और हद यह कि खुद पर गुमां करता है और दूसरों को समझने का दावा भी करता है। इस जहां में जो भी जंग-औ-जु्नूं है, उसकी सलामती का बस एक हीं सबब है और वह है नासमझी की नुमाइंदगी: अपनी हस्ती की नासमझी, अपनी ज़िंदगी की नासमझी और तो और दूसरों की ज़िंदगी की नासमझी। जिस रोज यह अदना-सी चीज हमारे समझ में आ गई, उस दिन सारी तकरारें खत्म हो जाएँगीं और फिर हम कह सकेंगे कि बस कुछ रोज जीकर हीं हमने इस ज़िंदगी को जान लिया है।

मैने कभी इन्हीं भावों को एक त्रिवेणी में पिरोने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:

यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब जिंदगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।

आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥

"ज़िंदगी क्या है जानने के लिए" में गुलज़ार साहब इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है ज़िंदगी की बेबाक तस्वीर:

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।

ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।

आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥

सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।

किसने बारूद बोया बागों में॥

आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।

सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥

हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।

तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥

हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।

ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥

लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।

बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥

ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।

तुमने मुझको पिरोके रखा था॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
(आज आप इस शब्द में गुंथी त्रिवेणियाँ भी पेश कर सकते हैं)

पहले रग रग से मेरी खून निचोडा उसने,
अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी नीली है...

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था -"सर". सलिल जी क्या शुरुआत की है आपने दमदार, लगता है शब्द सुनकर जोश आ गया...

सर को कलम कर लें भले, सरकश रहें हम.
सजदा वहीं करेंगे, जहाँ आँख भी हो नम.

उलझे रहो तुम घुंघरुओं, में सुनते रहो छम.
हमको है ये मालूम,'सलिल'कम नहीं हैं गम.

वाह...चुनावी मौसम का असर लगता है मनु जी पे छा गया है तभी तो कहा -

उंगलियाँ घी में सभी और सर कढाई में ,
इतना सब खाके भी वो देख मुकर जाते हैं

पर भाई ग़ालिब के शेर याद दिला कर एहसान किया ...वाह -

हुआ जब गम से यूं बेहिस तो गम क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता.....

इस बात पर बशीर साहब का शेर भी याद आया -

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा...

बदले से आसार हैं मन लगता नहीं है अब लोगों के दरमियाँ
रंगे-महफ़िल जमी हो जहाँ गानों की, वहीँ सर छुपा के सुकूं पाते हैं.

शन्नो जी, नीलम जी और पूजा जी, महफिले सजती रहेंगी जब तक आप जैसे कद्रदान यहाँ आते रहेंगे....

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Wednesday, April 22, 2009

सन्डे के सन्डे....एक सदाबहार मस्ती से भरा गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 59

फ़िल्म संगीत के जानकारों को पता होगा कि ऐसे ५ संगीतकार हैं जिन्हें फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार का ख़िताब दिया गया है। ये ५ संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचन्द्र, ओ. पी. नय्यर, आर. डी. बर्मन, और ए. आर. रहमान। इन्हें क्रांतिकारी संगीतकार इसलिए कहा गया है क्यूँकि इन्होंने अपने नये अंदाज़ से फ़िल्म संगीत की धारा को नई दिशा दी है। यानी कि इन्होंने फ़िल्म संगीत के चल रहे प्रवाह को ही मोड़ कर रख दिया था और अपने नये 'स्टाइल' को स्वीकारने पर दुनिया को मजबूर कर दिया। इनमें से जिस क्रांतिकारी की बात आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कर रहे हैं वो हैं सी. रामचन्द्र। सी. रामचन्द्र ने फ़िल्म संगीत में पाश्चात्य संगीत की धारा को इस तरह से ले आए कि उसने फ़िल्मी गीतों के रूप रंग को एक निखार दी, और लोकप्रियता के माप-दंड पर भी खरी उतरी। और यह सिलसिला शुरू हुआ था सन १९४७ की फ़िल्म 'शहनाई' से। इस फ़िल्म में "आना मेरी जान मेरी जान सन्डे के सन्डे" एक 'ट्रेन्ड-सेटर' गीत साबीत हुआ। और यही मशहूर गीत आज आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में।

'शहनाई' १५ अगस्त १९४७ को बम्बई के नोवेल्टी थिएटर में प्रदर्शित हुई थी जब पूरा देश स्वाधीनता की ख़ुशियां मना रहा था। शहनाई की वो पाक़ तरंगें और इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "हमारे अंगना आज बजे शहनाई" चारों तरफ़ गूंज रहे थे। पी. एल. संतोषी निर्देशित एवं रेहाना और नासिर ख़ान अभिनित यह फ़िल्म फ़िल्मिस्तान के बैनर तले बनी थी। कहा जाता है कि फ़िल्मिस्तान के शशधर मुखर्जी को शुरू में यह गीत पसंद नहीं आया और इस गीत को फ़िल्म में रखने के वो ख़िलाफ़ थे। लेकिन संतोषी साहब ने गाने का फ़िल्मांकन किया और यह गीत पूरे फ़िल्म का सब से कामयाब गीत सिद्ध हुआ, और फ़िल्म की कामयाबी के पीछे भी इस गाने का बड़ा हाथ था। चितलकर यानी कि सी. रामचन्द्र और मीना कपूर का गाया यह गीत हास्य गीतों की श्रेणी में एक इज़्ज़तदार मुक़ाम रखता है। पश्चिमी ऑर्चेस्ट्रेशन और संगीत संयोजन के अलावा इस गीत की एक और ख़ास बात यह है कि इस गीत में फ़िल्म संगीत के इतिहास में पहली बार सीटी यानी कि व्हिस्‍लिंग (whistling) का इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद कई गीतों में इस शैली का प्रयोग हुया जैसे कि "तुम पुकार लो (ख़ामोशी)", "ये हवा ये नदी का किनारा (घर संसार)", "हम हैं राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिये (नौ दो ग्यारह)", "मैं खो गया यहीं कहीं (12 O'Clock)", "नख़रेवाली (न्यू डेल्ही)", "जीना इसी का नाम है (अनाड़ी)" वगेरह। अब शायद आपको अंदाज़ा हो गया होगा कि क्यूँ सी. रामचन्द्र को कांतिकारी संगीतकार का दर्जा दिया गया है। तो चलिये सी. रामचन्द्र की गायिकी और संगीत को नमन करते हुए फ़िल्म 'शहनाई' का यह सदाबहार गीत सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. इस फिल्म का एक गीत पहले भी बजाया जा चूका है.
२. नौशाद का संगीत रफी साहब की आवाज़.
३. मुखड़े में शब्द है - "मिलन"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी लौटे सही जवाब के साथ और मनु ने मोहर लगायी...शाबाश भाई....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



एक मुलकात यूफोरिया के पलाश सेन से



हिंद युग्म की सबसे बड़ी सफलता रही है कि जब से ये सफ़र शुरू हुआ है, इसके बहाव में नयी प्रतिभाएं जुड़ती चली जा रही हैं, और हर आती हुई लहर बहाव को एक नए रंग से भर जाती है. हिंद युग्म के इस रंगीन परिवार में दो नए नाम और जुड़ गए हैं. दरअसल ये दो होते हुए भी एक हैं, एक सी कद काठी, चेहरा मोहरा, और व्यवसाय भी एक है इन जुड़वां भाईयों का. जामिया स्नातक अकबर और आज़म कादरी के रूप में हिंद युग्म को मिले हैं दो नए युवा निर्देशक. जालौन, बुदेलखंड जैसे छोटे क़स्बे में उनका बचपन बीता. बारहवीं पास कर, आँखों में आसमान छूने के सपने लेकर दोनों भाई दिल्ली आये. बचपन से ही थिएटर से जुडाव तो था ही, जामिया में मॉस मीडिया की पढाई के दौरान ये शौक और परवान चढा. २००५ में इनके द्वारा निर्देशित एक लघु फिल्म आई "मैसेल्फ़ संदीप" जिसमें संगीत था रॉक बैंड यूफोरिया का. किसानों की आत्महत्या विषय पर एक नाटक लिखा जिसका शीर्षक दिया गया "मौसम को जाने क्या हो गया है". जब इस नाटक का मंचन हुआ तो दर्शकों में शामिल थे ओक्सफेम इंडिया के कुछ सदस्य. चूँकि ओक्सफेम भारत में गरीबी उन्मूलन और जलवायु परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दों पर पिछले कई सालों से कार्यरत है उन्हें अकबर और आज़म संभावनाएं नज़र आई.
पलाश के साथ अकबर कादरी और आज़म कादरी
अकबर और आज़म ने ने ओक्सफाम में एक प्रोजेक्ट पेश किया, आईडिया ये था कि किसी लोकप्रिय माध्यम से पर्यावरण सम्बंधित समस्याओं, खतरों और उनके निवारण में जन भागीदारी के सन्देश को आम से आम आदमी तक प्रेषित किया जाए. ताकि ये वातानुकूलित कमरों की चर्चा बन कर ही न रह जाए. जाहिर है संगीत से अधिक लोकप्रिय और सरल माध्यम और क्या हो सकता था, तो इस तरह शुरआत हुई एक सार्थक संगीत प्रोजेक्ट की. यूफोरिया के पलाश सेन आगे आये, और गीत बना "ज़मीन" (पायेंगें ऐसा जहाँ...), जिसे मुक्तलिफ़ लोकेशनों पर शूट किया अकबर और आज़म ने. ओक्सफेम ने निर्माण का जिम्मा उठाया और निर्मित हुआ एक सशक्त गीत और एक बेहद उत्कृष्ट विडियो, जो ५.३० मिनट की छोटी अवधि में वो सब कह देता है, जो कहा तो पिछले कई सालों से जा रहा है पर शायद अभी भी जन साधारण समस्या की गंभीरता से वाकिफ नहीं हो पाया है. मुझे लगता है कि ये प्रयास तो बस एक शुरुआत भर है, इस तरह के और भी आयोजन होने चाहिए और ओक्सफेम और उन जैसी अन्य संस्थाओं को जनप्रिय माध्यमों का सहारा लेकर अपने सन्देश लोगों तक पहुचने का बीडा उठाना चाहिए. बहरहाल हम बात कर रहे थे अकबर और आज़म की. "ज़मीन" गीत और उसके विडियो को ओक्सफेम एक भव्य समारोह में लॉन्च करने जा रहा था. इसी समारोह का निमत्रण लेकर अकबर और आज़म मेरे कार्यालय में आकर मुझसे मिले. उनसे मिलकर और उनके विचार जानकर मुझे लगा कि आने वाले समय में मीडिया जगत इस युवा लेखक-निर्देशक जोड़ी से बहुत सी उम्मीदें कर सकता है. हम अकबर और आज़म के बारे में आपको और जानकारी देंगें उनको आपके रूबरू भी लेकर आयेंगे बहुत जल्दी, साथ ही दिखायेंगे उनका नया विडियो भी. ओक्सफेम और उनके उद्देश्यों के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगें, पर आज बात करते हैं उस "लौन्चिंग" समारोह की, पलाश की और यूफोरिया की.

शुक्रवार १७ अप्रैल दिल्ली के फिक्की सभगार में होना था ये कॉन्सर्ट. निखिल आनंद गिरी चुनावी व्यस्तताओं के चलते आने में असमर्थ थे (हालाँकि अकबर और आज़म को हिंद युग्म का परिचय इन्होने ही दिया था), तो मैं, शैलेश भारतवासी और छायाकार कवि (मैं इन्हें इसी तरह संबोधित करना पसंद करता हूँ) मनुज मेहता पहुंचे समारोह का आनंद लेने. इरादा ये भी था कि लगे हाथों पलाश से कुछ सवाल भी पूछ लिए जाएँ. मनुज ने कुछ सवाल तैयार कर रखे थे, आपसी सलाह से उसमें कुछ नए सवाल जोड़ दिए गए और कुछ हटा दिए गए और करीब १० सवालों की एक सूची तैयार हो गयी. हॉल लगभग पूरा भर चूका था, और जैसा कि उम्मीद थी युवाओं की संख्या इनमें ज्यादा थी. ओक्सफेम जिन ग्रामीण इलाकों में कार्यरत है वहां से भी कुछ किसान प्रतिनिधि आये थे जिन्होंने अपनी समस्याओं को रखा और उनके निवारण के लिए ओक्फेम द्वारा किये जा रहे प्रयत्नों का भी उन्होंने जिक्र किया. उसके बाद मंच पर आये ओक्सफेम के एम्बेसडर अभिनेता राहुल बोस. राहुल बोस की छवि एक बुद्धिजीवी ऐक्टर की है, और उन्होंने अपने छोटे मगर बेहद प्रभावशाली संवाद में चेताया कि जिस जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिन्ग का असर देश के ७० प्रतिशत लोगों पर होगा उससे बचे हुए ३० प्रतिशत भी भी अछूते नहीं रह पायेंगें. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अब समय महज बातों का नहीं काम का है और हम सब को वो सब कुछ करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, जैसे उर्जा की खपत कम करना, छोटी दूरी के सफ़र के लिए पेट्रोल युक्त वाहन की उपेक्षा करना, पर्यावरण सहयोगी थैलों का इस्तेमाल करना, बारिश के पानी को सहेजना आदि.

राहुल बोस ने इस विषय पर एक हस्ताक्षर आन्दोलन का भी शुभारम्भ किया, जिसमें स्वस्थ मंत्री डाक्टर किरण वालिया ने भी अपने हस्ताक्षर कर मुद्दे की गंभीरता पर अपनी चिंता की मोहर लगायी. उसके बाद लोकार्पण हुआ उस शानदार विडियो का जिसका जिक्र हमने उपर किया. विडियो को जम कर सराहना मिली और तालियों की गडगडाहट के बीच मंच पर उतरे यूफोरिया के संगीत कर्मी. "वक्र्तुंडा महाकाय सूर्याकोटि समप्रभा.." की ध्वनि से सभागार गूँज उठा और अवतरित हुए पलाश सेन. उनके आते ही जैसे समां बदल गया, और अपने पहले ही गाने "रोक सको तो रोक लो" से ही उन्होंने श्रोताओं से खुद को जोड़ लिया, फिर "धूम पिचक" ने तो धूम ही मचा दी. आज लगभग १० साल बाद इस गाने की चमक फीकी नहीं हुई है. उसके बाद कुछ धीमे गीतों से दर्शकों का उत्साह कुछ ठंडा देखा तो पलाश ने फैका अपने तुरुप का इक्का- "मायी री.." इस गीत के बाद जो तूफ़ान उठा वो फिर थमा ही नहीं...एक के बाद एक फरमाईशें और उन फरमाईशों को पूरा करते उर्जा से भरे पलाश. बीच बीच में अपना जौहर दिखा रहे थे उनके बैंड के अन्य सितारे भी पर बागडोर पूरी तरह से पलाश के हाथों में ही थी.

१९९८ से अपना कारवाँ लेकर चले पेशे से डॉक्टर पलाश सेन ने यूफोरिया में बहुत कुछ बदलते देखा है, पर कुछ है जो नहीं बदला, वो था यूफोरिया का मूल मन्त्र -समय के साथ बदलकर कुछ अच्छा और नया करने की चाहत. यूफोरिया को हिदुस्तान में रॉक बैंड का अगुवा माना जा सकता है. दस साल तक कवर वर्ज़न करने के बाद पलाश ने महसूस किया कि जब तक हिंदुस्तान में रॉक को हिद्नुस्तानी भाषा में प्रस्तुत नहीं किया जायेगा तब तक कुछ भी विशेष हासिल नहीं किया जा सकेगा. और यूँ खुला रास्ता "धूम" का. धूम की धूम ने इंडी रॉक संगीत को एक नयी पहचान दी. हाल ही में आई फरहान अख्तर की "रॉक ऑन" की कमियाबी ने साबित कर दिया है कि अच्छे संगीत को हिन्दुस्तानी श्रोता सर आँखों पर बिठाएंगे ही. वैसे हिंदुस्तान के मुकाबले पाकिस्तान जैसे छोटे देश में रॉक बैंड अधिक है और उन्हें यहाँ भी खूब सराहा जाता है. दरअसल यूफोरिया वाला फार्मूला अभी यहाँ के अन्य रॉक बैंड शायद समझ नहीं पाए हैं. वापस आते हैं कॉन्सर्ट पर जहाँ पलाश जब अपने सभी हिट गीत गा चुके तो कुछ फ़िल्मी और कवर वर्ज़न भी सुनाने लगे थे, मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि अब पलाश और उनकी टीम को हर कॉन्सर्ट में केवल अपने ही गाने गाने चाहिए. खैर आयोजन का अंतिम गीत था -"ज़मीन". यूफोरिया के इस सबसे नए गाने को बहुत खूब लिखा और संगीत से संवारा गया है. इस इस गाने के बाद पलाश ने ओक्सफेम की सहयोगी टीम और विडियो निर्देशक अकबर-आज़म का मंच पर आमंत्रित किया साथ ही परिचय करवाया अपने उन साथियों का भी जिनसे मिलकर बनता है -"यूफोरिया".

शो के समापन के बाद बधाईयों का सिलसिला शुरू हुआ, मैंने भी अकबर को गले लग कर बधाई दी, तो अकबर ने हिंद युग्म की टीम को ग्रीन रूम का दरवाज़ा दिखला दिया, जहाँ अपने "अति-उर्जामय" प्रदर्शन के बाद कुछ पल चैन की साँस ले रहे थे पलाश और यूफोरिया के अन्य सदस्य. शैलेश रिकॉर्डर साथ लाये ही थे, मनुज ने संभाला जिम्मा सवाल दागने का. तो लीजिये आप भी सुनिए, उस छोटी सी मुलाकात की ये रिकॉर्डिंग-




देखिए 17 अप्रैल 2009 को फिक्की सभागार में हुए यूफोरिया के जीवंत प्रदर्शन की स्लाइडशो





Tuesday, April 21, 2009

लागी नाही छूटे रामा...लता तलत का गाया एक मधुर भोजपुरी गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 58

जकल भारी तादाद में भोजपुरी फ़िल्में बन रही हैं। अगर हम ज़रा इतिहास में झांक कर देखें तो पता चलता है कि भोजपूरी फ़िल्मों का इतिहास भी बड़ा पुराना है। 'लागी नाही छूटे राम' एक बहुत ही मशहूर भोजपुरी फ़िल्म रही है जो सन् १९६३ में बनी थी। यह फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ साथ रिलीज़ होने के बावजूद भी उत्तर और पूर्वी भारत में सुपरहिट रही। १९७७ की फ़िल्म 'नदिया के पार' भी एक कालजयी भोजपुरी फ़िल्म रही है। एक ज़माने में हिन्दी फ़िल्म जगत की बहुत मशहूर हस्तियाँ भोजपूरी सिनेमा से जुड़ी रही हैं। कुंदन कुमार निर्देशित इस फ़िल्म में नायक बने थे नासिर हुसैन साहब। हिन्दी फ़िल्म जगत के ऐसे दो मशहूर संगीतकार उस ज़माने मे रहे हैं जिनका भोजपुरी फ़िल्म संगीत में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ये थे एस. एन. त्रिपाठी और चित्रगुप्त। फ़िल्म 'लागी नाही छूटे राम' में चित्रगुप्त का संगीत था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी फ़िल्म से एक बहुत ही मीठा गाना हम आपके लिए चुनकर लाए हैं। हमें पूरी पूरी उम्मीद है कि इस गीत को सुनने के बाद यह गीत आपके दिलोदिमाग़ में पूरी तरह से घर कर जाएगा, और इसकी मधुरता एक लम्बे अरसे तक आपके कानों में रस घोलती रहेगी। लता मंगेशकर और तलत महमूद की आवाज़ों में यह है मजरूह सुल्तानपूरी की गीत रचना और यह इस फ़िल्म का शीर्षक गीत भी है। "जा जा रे सुगना जा रे, कही दे सजनवा से, लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये, भयी ली आवारा सजनी, पूछ ना पवनवा से, लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये".

बिहार के लोक-संगीत में जो मिठास है, जो मधुरता है, उसका एक छोटा सा उदाहरण है यह गीत। दोस्तों, यह तो हमने आपको बता दिया कि इस गीत के संगीतकार हैं चित्रगुप्त, लेकिन क्या आपको यह पता है कि उनके दो संगीतकार बेटे आनंद और मिलिन्द ने जब फ़िल्म संगीत संसार में क़दम रखा तो अपने शुरूआती दौर की मशहूर फ़िल्म 'क़यामत से क़यामत तक' में एक गीत ऐसा बनाया जो हू-ब-हू इस भोजपूरी गीत की धुन पर आधारित था! अगर याद नही आ रहा तो मैं ही याद दिलाये देता हूँ, वह गीत था अल्का याग्निक का गाया "काहे सताये, काहे को रुलाये, राम करे तुझको नींद न आये"। केवल दो मिनट का वह गाना था और वह भी बिना किसी साज़ों का सहारा लेते हुए। कहिये, याद आ गया ना? तो चलिए पिता-पुत्र की संगीत साधना को सलाम करते हुए सुनते हैं आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड'। यह गीत मुझे भी बेहद पसंद है!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सी रामचंद्र का एक ट्रेंड सेट्टर गीत.
२. फिल्म का शीर्षक एक वाध्य यंत्र पर है जिसे शादियों में ख़ास तौर पर बजाया जाता है.
३. मुखड़े में शब्द है -"मुर्गी".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
बेहद मुश्किल था पर मनु जी आपकी याद्दाश्त को सलाम. एक दम सही पकडा आपने....बहुत बधाई...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



जेहन को सोच का सामान भी देते हैं भूपेन दा अपने शब्दों और गीतों से



बात एक एल्बम की # 03

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - भूपेन हजारिका.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - मैं और मेरा साया, - भूपेन हजारिका (गीत अनुवादन - गुलज़ार)


असम का बिहू, बन गीत और बागानों के लोकगीत को राष्ट्रीय फ़लक पे स्थपित करने का श्रेय हजारिका को ही जाता है. उनके शब्द आवाम की आवाज़ को सुन कर उन्ही के मनोभावों और एहसासों को गीत का रूप दे देते हैं और बहुत ही मासूमियत से फिर दादा पूछते हैं - 'ये किसकी सदा है'. भूपेन दा ने बतौर संगीतकार पहली असमिया फ़िल्म 'सती बेहुला' (१९५४) से अपना सफ़र शुरू क्या.

भूपेन दा असमिया फ़िल्म में काम करने के बाद अपना रुख मुंबई की ओर किया वहाँ इनकी मुलाकात सलिल चौधरी और बलराज सहानी से हुई। इनलोगों के संपर्क में आ कर भूपेन दा इंडियन पीपल थियेटर मोवमेंट से जुड़े. हेमंत दा भी इस थियेटर में आया करते थे. हेमंत दा और भूपेन दा की कैमेस्ट्री ऐसी जमी कि भूपेन दा उनके घर में हीं रहने लगे. एक दिन अचानक हेमंत दा हजारिका को लता जी से मुलाकात करवाने ले गए. लता से उनकी ये पहली मुलाकात थी भूपेनदा खासा उत्साहित थे.जब लता जी से मुलाकात हुई तब आश्चर्य से बोली कि 'आप ही भूपेन हो जितना आपका नाम है उतनी तो आपकी उम्र नही है!' भूपेन दा ने लता जी को बातो ही बातो में ये इकारानाम भी करवा लिए कि जब भी कोई हिन्दी फ़िल्म बनाऊंगा तब आप मेरे लिए गायेंगी ।

किसी गीत के सरल माध्यम से एक सशक्त सन्देश कैसे दिया जाता है ये कोई भूपेन दा से सीखे. एल्बम "मैं और मेरा साया" में भी उन्होंने कुछ ऐसे ही विचारों को उद्देलित करने वाले गीत रचे हैं, उदाहरण के लिए सुनिए आसाम के बागानों में गूंजती ये सदा..एक कली दो पत्तियां...नाज़ुक नाज़ुक उँगलियाँ....



सुनिए एक और कहानी इस गीत के माध्यम से, आवाज़ में ऐसा दर्द भूपेन दा के अलावा और कौन भर सकता है...




साप्ताहिक आलेख - उज्जवल कुमार



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की. इस स्तम्भ को आप तक ला रहे हैं युवा स्तंभकार उज्जवल कुमार. यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.



Monday, April 20, 2009

ख्यालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते...रोशन साहब का एक नायाब गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 57

न १९४९ में एक नौजवान अपनी पत्नी का प्रोत्साहन और ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करने का ख्याल लेकर मायानगरी मुंबई पहुँचे थे। एक दिन ख़ुशकिस्मती से दादर स्टेशन पर उनकी मुलाक़ात हो गई फ़िल्मकार केदार शर्मा से। केदार शर्मा उन दिनो मशहूर थे नये नये प्रतिभाओं को अपनी फ़िल्मों में मौका देने के लिए। बस फिर क्या था, उन्होने इस नौजवान को भी अपना पहला 'ब्रेक' दिया बतौर संगीतकार, फ़िल्म थी 'नेकी और बदी'। और वह नौजवान जिसकी हम बात कर रहे हैं, वो और कोई नहीं बल्कि संगीतकार रोशन थे। दुर्भाग्यवश 'नेकी और बदी' में रोशन अपनी संगीत का कमाल नहीं दिखा सके और ना ही यह फ़िल्म दर्शकों के दिलों को छू सकी। इस असफलता से रोशन इतने निराश हो गए थे कि उनकी जीने की चाहत ही ख़त्म हो गई थी। केदार शर्माजी का बड़प्पन देखिये कि उन्होने रोशन की यह हालत देख कर उन्हे अपनी अगली फ़िल्म 'बावरे नैन' में भी संगीत देने का एक और मौका दे दिया। और इस बार इस मौके को रोशन ने इस क़दर अंजाम दिया कि उन्हे फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। बावरे नैन कामयाब रही और इसके संगीत ने भी काफ़ी धूम मचाया। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में प्रस्तुत है इसी फ़िल्म का एक सदाबहार युगल गीत।

बावरे नैन १९५० की फ़िल्म थी जिसका निर्माण केदार शर्मा ने अपनी बैनर ऐम्बिशियस पिक्चर्स के तले बनाई। राज कपूर और गीता बाली परदे पर नज़र आए। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि १९४७ में शर्माजी ने ही राज कपूर को अपनी फ़िल्म नीलकमल में पहली बार बतौर नायक मौका दिया था और १९४८ में गीता बाली को फ़िल्म सुहाग रात में। सुहाग रात में ही उन्होने संगीतकार स्नेहल भाटकर को भी अपना पहला ब्रेक दिया था। ख़ैर, 'बावरे नैन' में रोशन का संगीत लोकप्रिय हुआ, जिसमें गीता रॉय, मुकेश, राजकुमारी, आशा भोंसले और मोहम्मद.रफ़ी ने गाने गाये। आज इस फ़िल्म का जो गीत हम आप के लिये चुन कर लाये हैं, वह गीत है मुकेश और गीता रॉय का गाया हुआ। यह गीत इस गायक-गायिका जोड़ी की सबसे लोकप्रिय युगल गीतों में से एक है। केदार शर्मा के ही बोल हैं। ४० के दशक के आख़िर के सालों से फ़िल्म संगीत में और्केस्ट्रेशन का प्रभाव बढ़ने लगा था। इस वजह से गीतों की अवधी भी बढ़ने लगी थी। प्रस्तुत गीत ने एक साधारण युगल गीत होते हुए और केवल ३ अंतरे के होते हुए भी ५ मिनट की सीमा को छू लिया। तो सुनिये यह गीत और याद कीजिये उसे जिसे आपने अपने ख्यालों में बसा रखा है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. एक भोजपुरी फिल्म जो मुग़ले आज़म की टक्कर दे गयी, उसका शीर्षक गीत है ये.
२. लता -तलत की आवाजें, चित्रगुप्त का संगीत.
३. मुखड़े में एक प्यारा शब्द है - "सुगना".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी क्या बात है...एक बार फिर वही जोश नज़र आ रहा है. नीलम जी आपकी फरमाईश वाला गीत "मेरी जान तुम पे सदके" पहले ही ओल्ड इस गोल्ड का हिस्सा बन चूका है...ज़रा अतीत में झांकिए. बबली जी आपका स्वागत है...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



यह ऎसी प्यास है जिसको मिले मुद्दत से मयखाना.....महफ़िल-ए-गज़ल और जगजीत सिंह



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०६

हफ़िल-ए-गज़ल में आज हम जिस फ़नकार को ले आए हैं, उन्हें अगर गज़ल-गायकी का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। कई जमाने बीत गए, लेकिन इनकी गायकी की मिठास अभी भी कायम है और कायम क्या यह कहिये कि उसमें और भी मिसरी घुलती जा रही है। इन्होंने लगभग सभी शायरों को अपनी आवाज़ दी है। तो चलिए फिर लगे हाथ हम उस गज़ल की भी बात कर लेते हैं जिसके लिए इस महफ़िल को सजाया गया है। १९९६ में "फ़ेस टू फ़ेस" नाम की गज़लों की एक एलबम आई थी, जिसमें ९ गज़लें थी। आप सभी श्रोताओं के लिए हम उन सभी नौ गज़लों को उनके गज़लगो के नाम के साथ पेश कर रहे हैं, फिर आप खुद अंदाजा लगाईये कि इसमें से वह कौन सी गज़ल है जो हमारे आज की महफ़िल की शान है और हाँ वह फ़नकार भी:

१) सच्ची बात: सबीर दत्त
२) दै्र-औ-हरम: ख़ामोश गाज़ीपुरी
३) बेसबब बात: शाहिद कबीर
४) ज़िंदगी तूने: राजेश रेड्डी
५) तुमने बदले हमसे: दाग़ दहलवी,अमीर मीनाइ
६) प्यार का पहला खत: हस्ती
७) ज़िंदगी ऎ ज़िंदगी : ज़क़ा सिद्दक़ी
८) शेख जी: सुदर्शन फ़ाकिर
९) कोई मौसम: अज़हर इनायती

उम्मीद है अब तक आपने अंदाजा लगा हीं लिया होगा और अगर नहीं भी लगाया तो हम किसलिए हैं। तो हज़ूर आज हम जिस गज़ल की बात कर रहे हैं वह है "प्यार का पहला ख़त" जिसे लिखा है हस्ती ने और जिसे अपनी साज़ और आवाज़ से सजाया है पद्म भूषण "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी ने। गज़ल-गायकी में जगजीत सिंह का एक अपना मुकाम है। सत्तर के दशक में जब नूरजहां, मल्लिका पुखराज, बेग़म अख्तर, तलत महमूद और गुलाम अली जैसे नामी-गिरामी फ़नकारों की गज़लें क्लासिकल और सेमि-क्लासिकल भारतीय रागों पर आधारित हुआ करती थीं, तभी १९७६ में "द अनफौरगेटेबल्स" नाम के मेलोडी से सनी गज़लों की पहली एलबम के साथ हीं जगजीत सिंह ने इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्शा दी थी। गज़लें पहले बुद्धिजीवी वर्ग को हीं समझ आती थीं, लेकिन जगजीत सिंह ने यह ढर्रा हीं बदल दिया। और उस पर आश्चर्य यह कि जगजीत सिंह भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ पाश्चात्य वाद्ययंत्रों का भी बखूबी इस्तेमाल करते हैं, तब भी उनकी गज़लों में वही पुराना हिन्दुस्तानी अंदाज दिखता है।

सदियों पहले कबीर ने कहा था:
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर,
समय पाये तरूवर फले केतक सींचो नीर।

और कुछ ऎसे विचार थे रहीम के:
रहीमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए,
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।

"प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है" इस गज़ल में इन्हीं दो भावनाओं को पिरोया गया है। प्यार ऎसी कोमल भावना है जिसे पनपने में अच्छा खासा वक्त लगता है,इसलिए जल्दबाजी जायज नहीं। वहीं दूसरी ओर प्यार ऎसी कोमल डोर है जो अगर टूट जाए तो जुड़ने में भी वक्त लगता है और यह भी मुमकिन है कि गांठ पड़ी डोर में वेसी पकड़ न हो और आलम यह भी है कि अगर खोलना चाहें तो इस गांठ को खुलने में भी वक्त लगता है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि प्यार एक ऎसी शय है जो न आसानी से मिलती है, न आसानी से भुलाई जाती है और खोने के बाद आसानी से लौटती भी नहीं है।मैने कभी इन्हीं भावों को अपने शब्दों में उकेरने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:

मोहब्बत की जरूरत हो तो फुर्सत से कभी आना,
यह ऎसी प्यास है जिसको मिले मुद्दत से मयखाना।


आईये हम सब प्यार के इन्हीं इशारों को समझते हुए पहले ख़त के अनुभव को महसूस करते हैं और हस्ती के बोल और जगजीत सिंह के धुनों में खो जाते हैं:


प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।

जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था,
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।

गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हो या डोरी,
लाख करें कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।

हमने इलाज-ए-जख़्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन,
गहरे जख़्मों को भरने में वक्त तो लगता है।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी,
सर झुकाए हुए चुप चाप गुजर जाते हैं ..

इरशाद ....


पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था "समुन्दर" शरद तैलंग जी ने स्वरचित कुछ शानदार शेर सुनाये, मुलाहजा फरमायें -

यारी जो समुन्दर को निभानी नहीं आती
ये तय था कश्तियों में रवानी नहीं आती ।

समेटे सब को अपने में समुन्दर की निशानी है
हमें ये खासियत उसकी सभी के दिल में लानी है ।

समुन्दर की अगर जो प्यास यूं बढ़ती गई दिन दिन
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी।

वाह वाह शरद जी मज़ा आ गया. और मनु ने एक बार फिर रंग जमाया अपने ख़ास अंदाज़ में -

समुंदर आज भी लज्जत को उसकी याद करता है,
कभी इक बूँद छूट कर आ गिरी थी दोशे बादल से

वाह... शन्नो जी आचार्य जी और पूजा अनिल जी आप सब का भी यह आयोजन अच्छा लगा..जानकर ख़ुशी हुई.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Sunday, April 19, 2009

हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए - साहिर का लिखा एक खूबसूरत युगल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 56

. पी. नय्यर ने अगर आशा भोंसले से सबसे ज़्यादा गाने लिये तो संगीतकार रवि ने भी लताजी से ज़्यादा आशाजी से ही गाने लिये। यहाँ तक की रवि के सबसे सफलतम गीत आशाजी ने ही गाये हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पेश है संगीतकार रवि और गायिका आशा भोंसले की जोड़ी का एक शायराना नग्मा । महेन्द्र कपूर की भी आवाज़ शामिल है इस गाने में। जोड़ी की अगर बात करें तो रवि के साथ शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की जोड़ी भी ख़ूब जमी थी। हमराज़, नीलकमल, पारस, काजल, दो कलियाँ, गुमराह, आँखें, एक महल हो सपनों का, धुंध, और वक़्त जैसी कामयाब फ़िल्मों में साहिर और रवि ने एक साथ काम किया। आज aasha -महेन्द्र की आवाज़ों में जो गीत हम चुन कर लाए हैं वह है फ़िल्म वक़्त का। साहिर हमेशा से सीधे शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। इस गीत में भी सीधे सीधे वो लिखते हैं कि "हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, लाखों हसीन ख़्वाब निगाहों में आ गए"। बात है तो बड़ी सीधी, लेकिन तरीका बेहद सुंदर और रुमानीयत से भरपूर।

फ़िल्म वक़्त बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था यश चोपड़ा ने। यह हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की पहली 'मल्टी-स्टारर फ़िल्म' थी जिसमें कई बड़े और दिग्गज कलाकारों ने काम किया जैसे कि सुनिल दत्त, साधना, राज कुमार, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, बलराज साहनी, मोतीलाल और रहमान। पहले बी. आर. चोपड़ा इस फ़िल्म को पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटे राज, शम्मी और शशि को लेकर बनाना चाहते थे, लेकिन हक़ीक़त में केवल शशि कपूर को ही फ़िल्म में 'कास्ट' कर पाए। 'वक़्त' ने १९६६ में बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि धरम चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र), अख़्तर-उल-इमान (सर्वश्रेष्ठ संवाद), यश चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), अख़्तर मिर्ज़ा (सर्वश्रेष्ठ कहानी), राज कुमार (सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता), और बी. आर. चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म)। भले ही इस फ़िल्म के गीत संगीत के लिए किसी को कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन असली पुरस्कार तो जनता का प्यार है जो इस फ़िल्म के गीतों को भरपूर मिला और आज भी मिल रही है। चलिये, उसी प्यार को बरक़रार रखते हुए सुनिये आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड'।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. एक और बेमिसाल युगल गीत मुकेश और गीता दत्त का.
२. रोशन साहब का संगीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"बेवफा"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर नीरज और मनु जी की टीम को बधाई...सही गीत के लिए.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (3)



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीतों की सौगात लेकर हम फिर से हाज़िर हैं. आज आपके लिए कुछ ख़ास लेकर आये हैं हम सबके प्रिय पंकज सुबीर जी. हमें उम्मीद ही नहीं यकीन है कि पंकज जी का ये नायाब नजराना आप सब को खूब पसंद आएगा.

असमिया संगीतकार और गायक श्री भूपेन हजारिका का गीत "ओ गंगा बहती हो क्‍यों" जब आया तो संगीत प्रेमियों के मानस में पैठता चला गया । हालंकि भूपेन दा काफी पहले से हिंदी फिल्‍मों में संगीत देते आ रहे हैं किन्‍तु उनको हिंदी संगीत प्रेमियों ने इस गाने के बाद हाथों हाथ लिया । यद्यपि 1974 में आई फिल्‍म "आरोप" जिसके निर्देशक श्री आत्‍माराम थे तथा जिसमें विनोद खन्‍ना और सायरा बानो मुख्‍य भूमिकाओं में थे उस फिल्‍म का एक गीत जो लता जी तथा किशोर दा ने गाया था वो काफी लोकप्रिय हुआ था । गीत था- "नैनों में दर्पण है दर्पण में कोई देखूं जिसे सुबहो शाम" । इस फिल्‍म के संगीतकार भी भूपेन दा ही थे । भूपेन दा और गुलजार साहब ने मिलकर जब "रुदाली" का गीत संगीत रचा तो धूम ही मच गई । रुदाली में इस जादुई जोड़ी के साथ त्रिवेणी के रूप में आकर मिली लता जी की आवाज । और फिर श्रोताओं को मिले दिल हूम हूम करे, समय ओ धीरे चलो जैसे कई सारे अमर गीत । रुदाली का संगीत बहुत पापुलर संगीत है और वो उस दौर का संगीत है जब "माया मेमसाब", "लेकिन", "रुदाली" जैसी फिल्‍मों में हट कर संगीत आ रहा था । किन्‍तु आज हम बात करेंगें एक ऐसी फिल्‍म की जिसमें यही टीम थी और संगीत भी ऐसा ही अद्भुत था लेकिन किसी कारण से न तो फिल्‍म को कोई महत्‍व मिला और संगीत भी उसी प्रकार से आकर चुपचाप ही चला गया । यहां तक कि रुदाली फिल्‍म की निर्देशिका कल्‍पना लाजमी ही इस फिल्‍म "एक पल" की भी निर्देशिका थीं । किन्‍तु जहां रुदाली आई थी 1993 में तो एक पल आई थी 1985 में । अर्थात लगभग आठ साल पहले ।

तो आइये बात करते हैं एक पल की और सुनते हैं उसके वे अद्भुत गीत ।
1985 में आई एक पल में शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और फारुख शेख जैसे कलाकार थे । जाहिर सी बात है कि ये एक आफ बीट फिल्‍म थी । 1985 में मार धाड़ की फिल्‍मों का दौर चल रहा था और शायद इसीलिये ये फिल्‍म और इसके गीत कुछ अनसुने से होकर गुज़र गये थे । संगीत भूपेन दा का था और गीत लिखे थे कैफी आजमी साहब और गुलजार साहब ने मिलकर ।

यदि अपनी बात कहूं तो मुझे लता जी का गाया तथा गुलजार सा‍हब का लिखा गीत 'जाने क्‍या है जी डरता है, रो देने को जी करता है, अपने आप से डर लगता है ' सबसे पसंद है । जाने किस मानसिकता में लिखा गया है ये गीत । शब्‍द ऐसे कि लगता है मानो किसी ने हमारे ही भावों को अभिव्‍यक्ति दे दी है । उस पर लता जी ने जिस हांटिंग स्‍वर में गाया है, ऐसा लगता है कि बार बार सुनते रहो इस गीत को ।

जाने क्‍या है जी डरता है


एक और गीत है जो लता जी, भूपेन दा तथा गुलजार साहब की ही त्रिवेणी ने रचा है । शब्‍द देखें 'चुपके चुपके हम पलकों में कितनी सदियों से रहते हैं, आ डूब के देखें नीले से सागर में कैसे बहते हैं, आ जाना डूब के देखेंगें' ये गीत भी एक ऐसा गीत है जिसे रात की ख़ामोशी में सुन लो तो नशा ही छा जाये ।' जो सोचा है वो झूठ नहीं महसूस किया वो पाप नहीं, हम रूह की आग में जलते हैं ये जिस्‍म का झूठा ताप नहीं' जैस्‍ो शब्‍दों का जादू देर तक सर पर चढ़ा रहता है ।

चुपके चुपके


कैफी आजमी साहब का लिखा हुआ एक गीत है जो कि दो स्‍वरों में है भूपेंद्र तथा आशा भौंसले जी ने अलग अलग इस गीत को अपनी तरह से गाया है । 'आने वाली है बहार सूने चमन में, कोई फूल खिलेगा प्‍यारा सा कोमल तन में' ये गीत दोनों ही बार आनंद देता है । आशा जी की खनकदार आवाज़ जो गीतों में प्राण फूंक देती है उसने इस गीत को अमर कर दिया है । भूपेंद्र ने गीत का सेड वर्शन गाया है । जाहिर सी बात है उसमें संगीत भी वैसा ही है ।

आने वाली है बहार


आने वाली है बहार (आशा)


एक और गीत जो मुझे हांट करता है वो लता जी और भूपेन दा के स्‍वरों में है तथा गुलजार साहब ने लिखा है । गीत के बोल हैं 'मैं तो संग जाऊं बनवास, स्‍वामी न करना निरास, पग पग संग जाऊं, जाऊं बनवास हे' गीत के बोल ही बता रहे हैं कि राम के बनवास गमन पर गीत है । जिसमें लता जी बनवास ग वन गमन की जिद कर रहे हैं और भूपेन दा रोकने के लिये अपनी बात कर रहे हैं । 'जंगल बन में घूमे हाथी भालू शेर और हिरना, नारी हो तुम डर जाओगी न जाओ बनवास हे '' । अनोखा सा गीत है ये ।

मैं तो संग


गुलजार साहब के एक और गीत को झूम कर गाया है नितिन मुकेश, भूपेन दा और भूपेंद्र ने । 'फूले दाना दाना फूले डालियां भंवराता आया बैसाख' इस गीत में असम के बीहू की ध्‍वनियां भूपेन दा ने उपयोग की हैं ।'बाजरे की बाली सी छोरिया, गेहूं जैसी गोरिया, रात को लागे चांदनी, ऐसी ला दे जोरुआ' । मुझे नहीं मालूम असम में बैसाख कैसा आता है किन्‍तु इस गीत में तो अद्भुत मस्‍ती है बैसाख की । और अंत में जब गीत तेज होता है तो वो पंक्तियां 'पूर्णिमा अगनी जल गई रजनी, जल्‍दी करा दे रे मंगनी, हो मैया करा दे रे' गीत देर तक मस्‍ती देता रहता है । बीच बीच में भूपेन दा का स्‍वर किसी जादू की तरह आता है ।

फूले दानादाना


गुलज़ार साहब का एक और गीत है जो दो बार है एक बार सेड है और एक हैप्‍पी है । सेड में केवल भूपेंद्र ने गाया है और हैप्‍पी वर्शन में भूपेन दा, भूपेंद्र, उषा मंगेशकर तथा हेमंती शुक्‍ला ने इसे गाया है । विवाह गीत है ये 'जरा धीरे जरा धीमे ले के जइहो डोरी, बड़ी नाज़ुक मेरी जाई मेरी बहना भोली' । गीत में भी लोक संगीत की ध्‍वनियां हैं और भरपूर हैं ।

जरा धीरे


तो ये है संगीत फिल्‍म 'एक पल' का जिसे निर्देशित किया था कल्‍पना लाजमी ने । फिल्‍म भले ही यूंही आकर यूंही चली गई हो किन्‍तु इसका संगीत अमर है । ये लोक का संगीत है ।

प्रस्तुति - पंकज सुबीर

पिछले अंक में विकास शुक्ल जी ने हमसे लता जी के गाये एक गीत की फरमाईश की थी, हमने एक बार फिर अजय जी का दरवाज़ा खटखटाया और उन्होंने ढूंढ निकला वह दुर्लभ गीत जिसे विकास जी ढूंढ रहे थे. आप भी सुनिए फिल्म "गजरे" से ये गीत "बरस बरस बदरी बिखर गयी...", संगीत है अनिल बिस्वास का -





"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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