Saturday, September 4, 2010

ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें -दूर जिबूति से आया एक स्नेह सन्देश



ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष की छठी कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास प्रस्तुति में हम आप तक पहुँचा रहे हैं शृंखला 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें'। हमारे नए दोस्तों की जानकारी के लिए हम यह बता दें कि इस शृंखला के तहत हम आप ही की यादों के ख़ज़ानों को पूरी दुनिया के साथ बाँट रहे हैं। ये वो यादें हैं जो यकीनन आपकी ज़िंदगी के अविस्मरणीय क्षण हैं, जिन्हें बाँटते हुए आपको जितना आनंद आता होगा, हमें भी इन्हें पढ़ते हुए उतना ही आनंद आ रहा है। तो हमारे नए दोस्तों से भी अनुरोध है कि आप अपनी ज़िंदगी के यादगार लम्हों व घटनाओं को हमारे साथ बाँटें हमें oig@hindyugm.com पर ईमेल भेज कर। आप किसी भी विषय पर हमें ईमेल कर सकते हैं। लेकिन हो सके तो किसी पुराने गीत के साथ अगर अपनी यादों को जोड़ सकते हैं तो फिर सोने पे सुहागा वाली बात होगी।

और अब आज का ईमेल। यह ईमेल पाकर हम जितने ख़ुश हुए हैं उससे भी ज़्यादा आश्चर्यचकित हुए हैं, क्योंकि यह ईमेल आया है जिबूति से। आप ने इस देश का नाम शायद सुना होगा या नहीं सुना होगा। यह अफ़्रीका महाद्वीप का एक बहुत ही छोटा सा देश है। उस दूर देश से यह ईमेल हमें लिखा है श्री महेन्द्र चौधरी ने। तो आइए सीधे इस ईमेल को पढ़ा जाए!
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प्रिय 'ओल्ड इस गोल्ड',

मेरा यह ईमेल पाकर शायद आपको हैरानी हो। मैं जिबूति (Djibouti) का रहने वाला हूँ। क्या आप ने कभी इस देश का नाम सुना है? यह अफ़्रीका में है और बहुत ही छोटा सा देश है। मेरा नाम महेन्द्र चौधरी है। मेरे पूर्वज बहुत समय पहले बिहार से निकलकर यहाँ आ कर बसे थे। वाणिज्यिक कारणों से ही शायद। और फिर यहीं के हो कर रह गए थे। मैं आज ६८ वर्ष का हूँ और मेरे दोनों बेटे भी यहीं ज़िबूति में हमारे साथ ही रहते हैं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं आज तक कभी भी भारत नहीं गया, या युं कहें कि जाने का अवसर नहीं मिला। मेरे पूर्वज जब यहाँ आए थे, तब वो बहुत गरीब थे। लेकिन धीरे धीरे आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और आज हमारा जेनरेशन एक मध्यम वर्गीय परिवार की हैसीयत रखता है। वैसे हम आर्थिक रूप से इतने भी बुलंद नहीं हैं कि इतनी महँगी यात्रा को तय करें और भारत जाएँ। और वैसे भी वहाँ हमारा कोई है भी तो नहीं जिन्हें हम जानते हैं। अब तो सब कुछ यही जिबूति में ही है हमारा। हम घर पर हिंदी में ही बात करते हैं। मेरे बेटे भी हिंदी बोल लेते हैं लेकिन पढ़ना व लिखना नहीं आता उन्हें। लेकिन मैंने एक काम ज़िंदगी में अच्छा ज़रूर किया कि मैंने हिंदी सीख ली। मेरी ख़ुशकिस्मती कि मेरा एक ऐसे भारतीय सज्जन से सम्पर्क हुआ यहीं जिबूति में जो यहाँ पर चंद सालों के लिए आए थे किसी प्रोजेक्ट पर। उनका नाम था अजय जोशी। उन्हीं के संस्पर्श में रह कर मैंने हिंदी सीख ली। और आज मुझे आपको हिंदी में यह ईमेल भेजते हुए बड़ा आनंद आ रहा है।

अजय जी का प्रोजेक्ट पूरा हो गया और वो भारत वापस चले गए। पहले पहले हम एक दूसरे से पत्र के माध्यम से संपर्क में रहे, लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गया। कई बरस बाद मैंने एक पत्र भेजा तो था लेकिन कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं क्या बात हुई। शायद पता बदल गया होगा या फिर कुछ और! उस ज़माने में अगर ईमेल और इंटरनेट होता तो शायद आसानी से एक दूसरे के सम्पर्क में रह सकते। आज मुझे नहीं मालूम वो कहाँ हैं, लेकिन ईश्वर से कामना करता हूँ कि वो जहाँ पर भी रहें, ख़ुश रहें। उनका मेरे जीवन में महत्वपूर्ण योगदान ही कहूँगा क्योंकि ये वो ही थे जिन्होंने मुझे अपनी राष्ट्रभाषा को लिखना सिखाया। मुझे मालूम है कि मेरी हिंदी अच्छी नहीं है, इसलिए आप ख़ुद ही इन्हें सुधार लीजिएगा।

जब से इंटरनेट पर हिंदी के वेबसाइटों का बोलबाला हुआ है, मैं इन तमाम वेबसाइटों को सर्फ़ करता रहता हूँ। 'हिंद युग्म' मेरा मनपसंद ब्लॊग है जिसका स्तर बहुत ऊँचा है। यहाँ जो कुछ भी पोस्ट होता है, उसका एक अलग ही दर्जा होता है। 'आवाज़' के तमाम स्तंभों के तो क्या कहने! मुझे हिंदी फ़िल्मों का ज़्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पुराने गानें सुन कर बहुत अच्छा लगता है और इसमें दी जाने वाली जानकारियों से हिंदी फ़िल्म संगीत के उस पुराने ज़माने का एक चित्र उभरता है आँखों के सामने। मैं चाहता हूँ कि मैं अपने उस दोस्त व मेरे हिंदी के गुरु श्री अजय जोशी जी को एक गीत डेडिकेट करूँ। अब देखिए, भारत में शिक्षक दिवस भी सर पर है, तो क्यों ना अपने इस टीचर को इसी बहाने मैं याद कर लूँ। कौन सा गीत डेडिकेट करूँ? आप ही बताइए ना। चलिए आप ही कोई अच्छा सा गीत बजा दीजिए मेरी तरफ़ से अजय जी के लिए।

आप सब मुझसे उम्र में छोटे ही होंगे मेरा यह विश्वास है। इसलिए आप सभी को मेरी और मेरे परिवार की तरफ़ से बहुत सारा प्यार और आशिर्वाद। ऐसे ही हिंदी की सेवा करते रहिए। ईश्वर आपको जीवन में तरक्की दे।

आपका,

महेन्द्र चौधरी,


जिबूति

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महेन्द्र जी, हम कह नहीं सकते कि आपके इस ईमेल को पा कर हम किस किस तरह से धन्य हो गए हैं। यह बहुत ही ज़्यादा आश्चर्य की बात है कि उस गुमनाम अफ़्रीकन देश जिबूति में रह कर भी और एक बार भी भारत आए बिना आप यहाँ की संस्कृति से इतने वाक़ीफ़ हैं और सब से बड़ी बात है कि आपको हिंदी भाषा से इतना ज़्यादा लगाव है। हर कोई आपकी तरह विदेश में रह कर हिंदी नहीं सीख सकता। और रही बात आपके ईमेल में ग़लतियों की, तो भाषा तो वह होती है कि जिससे एक दूसरे के बीच विचारों का आदान प्रदान हो सके। आपके ईमेल में लिखा हर एक शब्द हमारे दिल में उतर गया है। बस यही काफ़ी है हमारे लिए। हमें अफ़सोस है कि आपका वो दोस्त और हिंदी टीचर आपसे बिछड़ गया, लेकिन क्या पता कभी कहीं उनसे आपकी मुलाक़ात हो जाए। आप ने गीत चुनने का ज़िम्मा हमें दे दिया है। तो महेन्द्र जी, क्योंकि आपको तलाश है अपने उस दोस्त व टीचर की, तो क्यों ना १९६२ की फ़िल्म 'रंगोली' का वह सदाबहार गीत अजय जी के नाम डेडिकेट किया जाए - "छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल"। इस गीत के दो वर्ज़न है - ख़ुशनुमा वर्ज़न किशोर कुमार की आवाज़ में है तो ग़मज़दा वर्ज़न लता जी ने गाया है। आइए इन दोनों वर्ज़नों को एक के बाद एक सुनते हैं। अजय जोशी के साथ साथ सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ।

गीत - छोटी सी ये दुनिया (रंगोली - किशोर/ लता)


महेन्द्र जी, हमें फिर से ईमेल कर के ज़रूर बताइएगा कि हमारे पसंद का यह गीत आपको कैसा लगा। तो दोस्तों, ये था इस हफ़्ते का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें'। आप से यह अनुरोध है कि अगर आपने जिबूति का नाम नहीं सुना हुआ है तो अफ़्रीका के मानचित्र में उसे ढूंढ़ने की कोशिश करें। आपको यह देश उस क्षेत्र में मिलेगा जहाँ अफ़्रीका और मिडल-ईस्ट एक दूसरे से बिलकुल पास पास हैं। और अब एक विशेष सूचना -

विशेष सूचना - २८ सितंबर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का जन्मदिवस है। इस उपलक्ष्य पर २५ सितंबर के 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़नें' में होगा 'लता मंगेशकर विशेष'। लता जी की तारीफ़ में कुछ कहना चाहते हैं? या उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ देना चाहते हैं? उनके किसी गीत से जुड़ी हुई कोई ख़ास यादें हैं आपकी? लता जी के गाए आपके फ़ेवरीट १० गीत कौन कौन से हैं? लता जी से जुड़ी अगर कोई भी बात हो आपके मन में जिसे आप हम सभी के साथ बाँटना चाहें, तो हमें ईमेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। बहुत ही ख़ास होगा यह विशेषांक। अगर आप चाहते हैं कि इस विशेषांक में आपका नाम और ईमेल भी दर्ज हो जाए तो अपना ईमेल हमें २० सितंबर से पहले पहले भेज दें।
इसी सूचना के साथ हम आज इजाज़त ले रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल से। अगले शनिवार फिर इस विशेषांक के साथ उपस्थित होंगे, लेकिन हमारी आपकी अगली मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत कड़ी में। तब तक के लिए विदा, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी

भारतेंदु हरिश्चंद्र की सच्चा घोड़ा - अनुराग शर्मा के स्वर में



सुनो कहानी: भारतेंदु हरिश्चंद्र की सच्चा घोड़ा

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने राजेन्द्र गुप्ता की आवाज़ में प्रसिद्ध लेखिका सुधा अरोड़ा की बहुचर्चित कहानी "रहोगी तुम वही" का अंतिम भाग सुना था।

आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र की कहानी "सच्चा घोड़ा", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 1 मिनट 3 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
~ भारतेंदु हरिश्चंद्र

(१८५०-१८८५)

हर शनिवार को सुनें एक नई कहानी - आवाज़ पर

हुजूर, यह जानवर गजब का सच्चा है।
(भारतेंदु हरिश्चंद्र की "सच्चा घोड़ा" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
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#100th Story, Sachcha Ghoda: Bharatendu Harishchandra/Hindi Audio Book/2010/33. Voice: Anurag Sharma

Friday, September 3, 2010

ये इंतज़ार बड़ा मुश्किल, कितनी हीं रंगीं हो महफ़िल...महसूस किया कुहू ने रूचि और वेंकटेश के साथ



Season 3 of new Music, Song # 18

नए गीतों से रोशन आवाज़ महोत्सव २०१० में आज बारी है १८ वें गीत की, और आज फिर उसी गायिका की आवाज़ से रोशन है ये महफ़िल जो पहले ही इस सत्र में ५ गीतों को अपनी आवाज़ दे चुकी हैं, जी हाँ आपने सही पहचाना ये उभरती हुई बेहद प्रतिभशाली गायिका है कुहू गुप्ता, जिन पर पूरे आवाज़ परिवार को नाज़ है, तभी तो वो हर उभरते हुए संगीतकार की पहली पसंद बन चुकी हैं आज. आज का गीत कुछ शास्त्रीय रंग लिए हुए है जिसके माध्यम से पहली बार आवाज़ के मंच पर उतर रहे हैं एक हुनरमंद संगीतकार और एक बेहद नयी गीतकारा. संगीतकार वेंकटेश शंकरण हैं जिनका परिचय आप नीचे पढ़ सकते हैं, गीत को लिखा है रूचि लाम्बा ने. निलंजन नंदी ने गीत का संयोजन किया है. हमें पूरा यकीन है बेहद मधुर और बेहद कर्णप्रिय इस गीत को आप हमेशा अपने संकलन में रखना चाह्गें. तो सुनिए ये गीत

गीत के बोल -

कुछ ना भाये मन को मेरे,
हर पल देखूँ सपने तेरे, तेरे , तेरे
जिया लागे ना, तेरे बिन..

जिया लागे ना, नहीं लागे लागे, नहीं लागे लागे, जिया लागे ना,
तेरे बिन, नींद आवे ना, नैना जागे जागे, नैना जागे जागे, नींद आवे ना,
तेरे बिन, जिया लागे ना..

जग को रजनी सुलाए,
मझको यादें जगाए,
सर्द पुरवा के झोंके,
तेरी आहट सुनाए..

जिया लागे ना, तेरे बिन,
जिया लागे ना, नहीं लागे लागे, नहीं लागे लागे, जिया लागे ना,
तेरे बिन
नींद आवे ना,
तेरे बिन
जिया लागे ना,
तेरे बिन

साँझ के धुंधले आँचल छाए,
मुझको घेरे यादों के साये, जिया लागे ना,

साँझ के धुंधले आँचल छाए,
मुझको घेरे यादों के साये, जिया लागे ना,

ये इंतज़ार बड़ा मुश्किल,
कितनी हीं रंगीं हो महफ़िल

तू हीं मेरे
मन में है,
तू हीं धड़कन में है,
तेरे बिना,
मेरा जिया,
कहीं नहीं,
लागे पिया.. ना ना ना ना ना

तेरे बिन, जिया लागे ना,
जिया लागे ना, नहीं लागे लागे, नहीं लागे लागे, जिया लागे ना,
तेरे बिन, नींद आवे ना, नैना जागे जागे, नैना जागे जागे, नींद आवे ना,
तेरे बिन, जिया लागे ना..



मेकिंग ऑफ़ "तेरे बिन" - गीत की टीम द्वारा

वेंकटेश शंकरण: मैंने कुहू के साथ पहले भी एक गाना किया है, जो अब एक व्यावसायिक एलबम का हिस्सा बन चुका है। मुझे कुहू के बारे में जानकारी एक अंतर्जालीय संगीत समूह (इंटरनेट म्युज़िक फोरम) से मिली थी। जहाँ तक रूचि का सवाल है, तो इनसे मैं सबसे पहले अपनी हीं अकादमी में मिला था और अपनी धुन पर गीत लिखने की मैंने इनसे पेशकश की थी। मेरा यह सौभाग्य है कि ये खुशी-खुशी राजी हो गईं। निलंजन के अरेंजमेंट के बारे में मैं क्या कहूँ, मैंने इनसे जिस चीज की उम्मीद की थी, आखिरकार मैंने वही पाया। मैं तो यही कहूँगा कि कैलिफ़ोर्निया के इन दो हुनरमंदों और कुहू के साथ काम करने का मेरा अनुभव बहुत हीं अच्छा रहा। गाने की फाईनल मिक्सिंग आने से पहले इसमें थोड़े-बहुत बदलाव हुए थे, ताकि गाना जो बनकर निकले वह लोगों के दिलों को छू जाए। कोशिश तो यही थी, पता नहीं हम इसमें कितना सफल हुए हैं। अब सब कुछ आप श्रोताओं के हाथ में हैं..उम्मीद करता हूँ कि हमारा यह प्रयास आप सबों को पसंद आएगा।

रूचि लांबा: इस गाने की धुन वेंकटेश जी ने जब मुझे सुनाई, तो ये गीत मुझे सुनते हीं पसंद आ गया। धुन इतनी सुंदर थी कि इस पर गीत के बोल अपने आप हीं आते गए। ये मेरा सौभाग्य है कि वेंकटेश जी ने मुझसे गीत के बोल लिखने को कहे। बिरहा (विरह) और प्रेम से भरा ये गीत, कुहू जी ने बहुत खूबसूरती से गाया है। मैं आशा करती हूँ कि ये गीत और लोगों को भी बहुत पसंद आएगा।

कुहू गुप्ता: वेंकटेश के साथ किया गया मेरा पहला गाना बहुत हीं लोकप्रिय रहा है और ये गाना भी मुझे बेहद पसंद आया। इस गाने के लफ़्ज़ों में जो दर्द है वो गाने में ज़ाहिर करना मेरे लिए एक मुश्किल काम था। ऐसा खूबसूरत गीत लिखने के लिए मैं रूचि को बधाई देना चाहूँगी। निलंजन ने जो अरेंजमेंट किया है, वो गाने के लिए एकदम उपयुक्त है। आशा करती हूँ कि श्रोताओं को यह गाना पसंद पाएगा।

वेंकटेश शंकरण (संगीतकार)
कैलिफोर्निया में रह रहे वेंकटेश संगीत को अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा मानते हैं। इन्होंने अब तक न सिर्फ़ हिन्दुस्तानी कलाकारों के लिए धुनें तैयार की हैं, बल्कि कई सारे अमरीकियों के लिए भी गानों का निर्माण किया है। ये वहाँ पर "सुर म्युज़िक अकादमी" नाम की एक संगीत संस्था चलाते हैं, जहाँ पर हिन्दुस्तानी संगीत, हिन्दुस्तानी साज़ और नृत्य की शिक्षा दी जाती है। आवाज़ पर "तेरे बिन" गाने के साथ ये पहली बार हाज़िर हुए हैं।

रूचि लांबा (गीतकारा)
इनका जन्म मुंबई में हुआ , लेकिन जब ये बस ग्यारह साल की थीं तभी अपने परिवार के साथ आस्ट्रेलिया चली गईं। वहाँ पर पलने-बढने के बावजूद इन्हें हिन्दुस्तानी संगीत और कविताओं से बहुत प्यार रहा है। शादी के बाद ये कैलिफ़ोर्निया आ गईं और आठ साल से अमरीका में हीं हैं। ये पेशे से एक जर्नलिस्ट (पत्रकार) और पब्लिक रिलेशन्स कंसल्टेंट हैं। जब भी वक़्त मिलता है, ये गीत और शेर लिख लिया करती हैं। "तेरे बिन" आवाज़ पर इनकी पहली प्रस्तुति है।

निलंजन नंदी (अरेंजर एवं मिक्सिंग इंजीनियर)
१९६९ में जब निलंजन महज ६ साल के थे, तभी से इन्होंने बाल-कलाकार के तौर पर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। बचपन से हीं (छठी कक्षा से) इनमें संगीतकार बनने की एक ललक थी। इसलिए इन्होंने वोकल म्युज़िक, गिटार, सरोद, मेलोडिका, पियानो, सिंथेसाइज़र एवं इंडो-अफ़्रो वाद्य-यंत्रों,जिनमें ड्रम इन्हें सबसे ज्यादा पसंद था, को सीखना शुरू कर दिया। ये फ़्युज़न संगीत एवं एथनीक तरीकों(स्टाइल्स) में पारंगत हैं। ये अपनी धुनों को प्रोग्राम करना, साथ हीं साथ अपने स्टुडियो में मिक्स एवं रिकार्ड करना काफी पसंद करते हैं। किसी भी धुन को अरेंज करते समय इनकी दिली ख्वाहिश रहती है कि कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हो। "तेरे बिन", जो आवाज़ पर इनकी पहली पेशकश है, को अरेंज करते समय भी इन्होंने इसी बात का ध्यान रखा है।

कुहू गुप्ता (गायिका)
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म के ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है। इस संगीत के सत्र में भी यह इनका छठा गीत है।

Song - Tere Bin
Voice - Kuhoo Gupta
Music - Venkatesh Sankaran
Lyrics - Ruchi Lamba
Arrangement and Mixing - Nilanjan Nandy
Graphics - Prashen's media


Song # 18, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, September 2, 2010

न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफ़र की क्योंकि ये इश्क इश्क है....कहा रोशन और मजरूह के साथ गायक गायिकाओं की एक पूरी टीम ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 475/2010/175

ज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। इस पवित्र पर्व पर हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। दोस्तों, आप समझ रहे होंगे कि क्योंकि क़व्वालियों की शृंखला चल रही है, तो जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण का कोई गीत तो हम सुनवा नहीं पाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, है न? लेकिन ज़रा ठहरिए, कम से कम एक क़व्वाली ऐसी ज़रूर है जिसमें श्री कृष्ण का भी ज़िक्र है, और साथ ही राधा और मीरा का भी। क्यों चौंक गए न? जी हाँ, यह सच है, इस राज़ पर से अभी पर्दा उठने वाला है। फ़िल्म संगीत में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा नहीं कि उनसे पहले किसी ने मशहूर क़व्वाली फ़िल्मों के लिए नहीं बनाई, लेकिन रोशन साहब ने पारम्परिक क़व्वालियों का जिस तरह से फ़िल्मीकरण किया और जन जन में लोकप्रिय बनाया, ऐसा करने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता रहा है। आज 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में रोशन साहब की बनाई हुई सब से लोकप्रिय क़व्वाली की बारी, और बहुत लोगों के अनुसार यह हिंदी फ़िल्म संगीत की सब से यादगार क़व्वाली है। दरअसल ये दो क़व्वालियाँ हैं जो ग्रामोफ़ोन रेकॊर पर अलग अलग आती है, लेकिन फ़िल्म के पर्दे पर एक के बाद एक आपस में जुड़ी हुई है। इसलिए हम भी यहाँ आपको ये दोनों क़व्वालियाँ इकट्ठे सुनवा रहे हैं। फ़िल्म 'बरसात की रात' की यह क़व्वाली जोड़ी है "न तो कारवाँ की तलाश है" और "ये इश्क़ इश्क़ है"। मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा, बातिश और साथियों की आवाज़ें, तथा साहिर लुधियानवी के कलम की जादूगरी है यह क़व्वाली। दरअसल रोशन साहब ने पाक़िस्तान में एक बार एक क़व्वाली सुनी "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" जो उन्हें इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होंने उस क़व्वाली को ऐसा फ़िल्मी जामा पहनाया कि ना केवल यह क़व्वाली सुपर डुपर हिट साबित हुई, बल्कि अगली फ़िल्म 'दिल ही तो है' में निर्माता ने उनसे एक और क़व्वाली ("निगाहें मिलाने को जी चाहता है") की माँग कर बैठे। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं - "'बरसात की रात' का संगीत व्यावसायिक दृष्टि से रोशन का सफलतम संगीत था। "ना तो कारवाँ की तलाश है" का अंजाम हुअ "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" में और फ़तेह अली ख़ाँ से अनुमति उपरान्त ली गई उनकी धुन पर रोशन ने फ़िल्म संगीत के इतिहास की सब से हिट क़व्वाली बना डाली। यह एक तरह का समझौता तो अवश्य था जिसके लिए ख़य्याम तैय्यार नहीं हुए थे, पर ऐसे समझौते रोशन ने भी कम ही किए। इस क़व्वाली का तरन्नुम, बहाव, बिलकुल अभिभूत कर देने वाला है। इसकी रेकॊर्डिंग् २९ घंटे में सम्पन्न हुई औत तब जाकर वह ऐतिहासिक प्रभाव उत्पन्न हुआ, जैसा रोशन चाहते थे। भले ही धुन की प्रेरणा कहीं और से मिली हो, पर उसका विस्तार इस क़व्वाली की सुंदर विशेषताएँ बनकर आज तक लोगों के ज़हन में ताज़ा है। 'बरसात' में क़व्वालियों की धूम रही। "निगाहें नाज़ के मारों का" और "जी चाहता है चूम लूँ" जैसी क़व्वालियाँ भी अच्छी चली।"

सन् १९९८ में गायक मन्ना डे विविध भारती पर तशरीफ़ लाए थे और कई संगीतकारों की चर्चा हुई थी, जिनमें एक नाम रोशन साहब का भी उन्होंने लिया था, और ख़ास तौर से इस क़व्वाली का ज़िक्र छिड़ा था उद्‍घोषक कमल शर्मा द्वारा ली गई उस इंटरव्यु में। रोशन साहब को याद करते हुए मन्ना दा ने कहा था "रोशन साहब, he was a strict student of good music, यानी वो ख़याल, ठुमरी, ग़ज़लें, फ़ोक, ये सब मिलाके जो एक चीज़ वो लाते थे न, वो अनोखे ढंग से नोट्स का कॊम्बिनेशन करते थे। हम तो पागल थे उनके गानों के लिए। उस्ताद आदमी थे वो और बहुत मेहनती आदमी थे। "ना तो कारवाँ की तलाश है" के लिए मुझे याद है, रामपुर के तरफ़ से क़व्वाल लोगों को बुलाये थे। उनके प्रोग्राम सुना करते थे, नोट कर कर के कर कर के फिर उन्होंने बनाना शुरु किया। और साहिर साहब ने लिखा, और उन्होंने बनाया। और वो जो तकरारें जो हैं ना बीच में, कितने मेहनत किए वो, ओ हो हो, माइ गॊड, और फिर जब हम लोगों को सुनाते थे, बोलते थे 'देखो मज़ा आना चाहिए', वो जैसे क़व्वाल लोग करते थे। वो सब तो हमें मालूम नहीं था, रफ़ी को भी मालूम नहीं था, आशा को भी मालूम नहीं था, लेकिन उन्होंने सब करवाया हमसे। और एक एक कर के ८-१० दिन रिहर्सल करके करवाया।" दोस्तों, ऐसे ऐसे ही वह फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं हुआ। सुनहरा उसे बनाया उस दौर के फ़नकारों की लगन ने, उनके अथक परिश्रम ने, उनके डेडिकेशन ने। साहिर साहब ने इस क़व्वाली में ऐसे अल्फ़ाज़ लिखे हैं कि इसे सुनते हुए हम ट्रान्स में चले जाते हैं और जैसे उस परम शक्ति के साथ एक कनेक्शन बनने लगता है। बड़ी धर्म निरपेक्ष क़व्वाली है जिसमें साहिर साहब लिखते हैं कि "इश्क़ आज़ाद है, हिंदु ना मुसलमान है इश्क़, आप ही धर्म है और आप ही इमान है इश्क़"। इश्क़ को केन्द्रबिंदु बनाकर चलने वाली इस क़व्वाली में बहुत से विषय शामिल किए गए हैं। यहाँ तक कि श्री कृष्ण, राधा, मीरा, सीता, भगवान बुद्ध, मसीह का भी उल्लेख है, भजन और श्री कृष्ण लीला के साथ साथ लोक-संगीत का भी अंग है। "जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के, जान अजान का ध्यान भुला के, लोक लाज को तज के, है बन बन डोली जनक दुलारी, पहन के प्रेम की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गई विष का प्याला"। तो दोस्तों, अब आपको अहसास हो गया ना कि क्यों हमने यह क़व्वाली आज के लिए चुनी है! तो आइए सुना जाए कुल १२ मिनट की यह क़व्वाली। श्री कृष्ण जन्माष्टमी और रमज़ान के मुबारक़ मौक़े पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक और सुरीला नज़राना क़बूल कीजिए।



क्या आप जानते हैं...
कि साल १९६० के अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीत माला के वार्षिक कार्यक्रम में 'मुग़ल-ए-आज़म', 'चौदहवीं का चांद', 'दिल अपना और प्रीत पराई', 'धूल का फूल', 'छलिया' और 'काला बाज़ार' जैसे फ़िल्मों को पछाड़ते हुए 'बरसात की रात' फ़िल्म का शीर्षक गीत ही बना था उस वर्ष का सरताज गीत।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. एक मल्टी स्टारर फिल्म की है ये कव्वाली, फिल्म बताएं - १ अंक.
२. किस अदाकार पर फिलमाया गयी है ये कव्वाली - २ अंक.
३. गायक बताएं - २ अंक.
४ रवि का है संगीत, फिल्म के निर्देशक बताएं - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है हमारे प्रोत्साहन का नतीजा निकल, अवध जी ३ अंक चुरा गए. इंदु जी, आपको नाराज़ कर मरना है क्या?, पर ये बात समझ नहीं आती कि आप एक अंक वाले सवालों का ही जवाब क्यों देती हैं. पवन जी सही जवाब के साथ वापसी की बधाई. कनाडा टीम कहाँ गायब रही...खैर अब तक के स्कोर जान लेते हैं - अवध जी ७४, इंदु जी ४०, प्रतिभा जी २८, किशोर जी २६, पवन जी २४, और नवीन जी २२ पर हैं.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, September 1, 2010

तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगें...एक मास्टरपीस फिल्म की मास्टरपीस कव्वाली



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 474/2010/174

'मज़लिस-ए-क़व्वाली' की तीसरी कड़ी में आज हम पहुँचे हैं साल १९५९-६० में। और इसी दौरान रिलीज़ हुई थी के. आसिफ़ की महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म'। इस फ़िल्म की और क्या नई बात कहूँ आप से, इस फ़िल्म का हर एक पहलु ख़ास था, इस फ़िल्म की हर एक चीज़ बड़ी थी। आसिफ़ साहब ने पानी की तरह पैसे बहाए, अपने फ़ायनेन्सर्स से झगड़ा मोल लिया, लेकिन फ़िल्म के निर्माण के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। नतीजा हम सब के सामने है। जब भी कभी पिरीयड फ़िल्मों का ज़िक्र चलता है, 'मुग़ल-ए-आज़म' फ़िल्म का नाम सब से उपर आता है। जहाँ तक इस फ़िल्म के संगीत का सवाल है, तो पहले पण्डित गोबिंदराम, उसके बाद अनिल बिस्वास, और आख़िरकार नौशाद साहब पर जाकर इसके संगीत का ज़िम्मा ठहराया गया। इस फ़िल्म के तमाम गानें सुपर डुपर हिट हुए, और इसकी शान में इतना ही हम कह सकते हैं कि जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने १०० एपिसोड पूरे किए थे, उस दिन हमने यह महफ़िल इसी फ़िल्म के "प्यार किया तो डरना क्या" से रोशन किया था। आज 'मुग़ल-ए-आज़म' ५० साल पूरे कर चुकी है, लेकिन इसकी रौनक और लोकप्रियता में ज़रा सी भी कमी नहीं आई है। ऐसे में जब इस फ़िल्म में दो बेहतरीन क़व्वालियाँ भी शामिल हैं, तो इनमें से एक को सुनाए बग़ैर हमारी ये शृंखला अधूरी ही मानी जायेगी! याद है न आपको ये दो क़व्वालियाँ कौन सी थीं? "जब रात है ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम क्या होगा" और "तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे"। और यही दूसरी क़व्वाली से रोशन है आज की यह मजलिस। लता मंगेशकर, शम्शाद बेग़म और साथियों की आवाज़ों में यह शक़ील-नौशाद की जोड़ी का एक और मास्टरपीस है।

आज क़व्वालियों के जिस पहलु पर हम थोड़ी चर्चा करेंगे, वह है इसके प्रकार। 'हम्द' एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो अल्लाह की शान में गाया जाता है। पारम्परिक तौर पर किसी भी क़व्वाली की महफ़िल हम्द से शुरु होती है। उसके बाद आता है 'नात' जो प्रोफ़ेट मुहम्मद की शान में गाया जाता है और जिसे नातिया क़व्वाली भी कहते हैं। नात हम्द के बाद गाया जाता है। 'मन्क़बत' फिर एक बार अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो इमाम अली या किसी सूफ़ी संत की शान में गायी जाती है। उल्लेखनीय बात यह है कि मन्क़बत सुन्नी और शिआ, दोनों की मजलिसों में गायी जाती है। अगर मन्कबत गाई जाती है तो उसका नंबर नात के बाद आता है। क़व्वाली का एक और प्रकार है 'मरसिया' जो किसी की मौत पर दर्द भरे अंदाज़ में गाई जाती है। इसकी शुरुआत हुई थी उस वक़्त जब इमाम हुसैन का परिवार करबला के युद्ध में शहीद हो गया था। यह किसी शिआ के मजलिस में ही गाई जाती है। क़व्वाली का एक प्रकार 'ग़ज़ल' भी है। यह वह ग़ज़ल नहीं जिसे भारत और पाक़िस्तान में हम आज सुना करते हैं, बल्कि इसका अंदाज़ क़व्वालीनुमा होता है। इसके दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं - शराब पीने का मज़ा और अपनी महबूबा से जुदाई का दर्द। लेकिन इनमें भी अल्लाह के तरफ़ ही इशारा होता है। 'शराब' का मतलब होता है 'दैवीय ज्ञान' और साक़ी यानी अल्लाह या मसीहा। 'काफ़ी' क़व्वाली का वह प्रकार है जो पंजाबी, सेरैकी या सिंधी में लिखा जाता है और जिसका अंदाज़-ए-बयाँ शाह हुसैन, बुल्ले शाह और सचल सरमस्त जैसे कवियों के शैली का होता है। "नि मैं जाना जोगी दे नाल" और "मेरा पिया घर आया" दो सब से लोकप्रिय काफ़ी हैं। और अंत में 'मुनदजात' वह रात्री कालीन संवाद है जिसमें गायक अल्लाह का शुक्रिया अदा करता है विविध काव्यात्मक तरीकों से। फ़ारसी भाषा में गाए जाने वाले क़व्वाली के इस रूप के जन्मदाता मौलाना जलालुद्दीन रुमी को माना जाता है। तो दोस्तों, यह थी जानकारी क़व्वालियों के विविध रूपों की और यह जानकारी हमने बटोरी विकिपीडिया से। और आइए अब सुनते हैं आज की क़व्वाली और हम आपसे भी यही कहेंगे कि हमारी इस महफ़िल के पहेली प्रतियोगिता में आप भी अपनी क़िस्मत आज़माकर देखिए!



क्या आप जानते हैं...
कि 'मुग़ल-ए-आज़म' के रंगीन संस्करण ने साल २००६ में पाक़िस्तान में भारतीय फ़िल्मों के प्रदर्शन पर लगी पाबंदी को ख़्तम कर दिया, जो पाबंदी सन्‍ १९५६ से चल रही थी।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस कव्वाली में कहीं श्रीकृष्ण का भी जिक्र है, किस मशहूर फिल्म से है ये लाजवाब कव्वाली - १ अंक.
२. गायक गायिकाओं की पूरी फ़ौज है इसमें, संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. किस शायर की कलम से निकली है ये कव्वाली - ३ अंक.
४ फिल्म के नायक बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कनाडा टीम (प्रतिभा जी, नवीन जी, और किशोर जी के लिए सामूहिक संबोधन) बहुत बढ़िया कर रही है. अवध जी, इंदु जी, जरा जोश दिखाईये.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी को



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९८

कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना,
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं।

"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का हीं रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की मक़बूलियत का बेजोड़ नज़ारा पेश किया है। ये आगे लिखते हैं:

मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़समें पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’, ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई? जागीर मिलने और उच्च पदवियोंसे विभूषित होनेके अतिरिक्त १५०० रू० मासिक वेतन, राजसी ठाट-बाट और नवाब हैदराबाद के उस्ताद होने का महान् गौरव मिर्जा़ ‘दाग़’ को प्राप्त था। सच मानिए तो १९वीं शताब्दीका अन्तिम युग ‘दाग़’ युग था।

दाग़ की ख्याति का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्तमें ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था। मिर्जा दाग़के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरुका उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है।

कहा जाता है कि दाग़ के २००० से अधिक शागिर्द थे। इन शागिर्दों में दो ऐसे भी शागिर्द रहे हैं, जिन्हें उत्तराधिकारी कहे जाने का कोई शौक़ या कोई जिद्द नहीं थी, लेकिन इन्हीं दोनों ने दाग़ का नाम सबसे ज्यादा रौशन किया है। उनमें से एक थे जिगर मुरादाबादी, जिनके बारे में हम पिछली एक महफ़िल में ज़िक्र कर चुके हैं और दूसरे थे मोहम्मद अल्लामा इक़बाल। इक़बाल अपनी कविताएँ डाक द्वारा ‘दाग़’ देहलवी को संशोधनार्थ भेजा करते थे। महज २२ वर्ष की आयु में हीं इक़बाल ऐसी दुरूस्त गज़लें लिखने लगे थे कि मिर्ज़ा दाग़ को भी उनकी काबिलियत का लोहा मानना पड़ा था। दाग़ ने उनकी रचनाएँ इस टिप्पणी के साथ वापस करनी शुरू कर दीं कि रचनाएँ संशोधन की मोहताज नहीं हैं।

अभी ऊपर हमने दाग़ के सुपूर्द-ए-खाक होने की बातें कीं, लेकिन इससे पहले जो चार दिन की ज़िंदगी होती है या फिर जन्म होता है, उसका ज़िक्र भी तो लाजिमी है। तो दाग़ का जन्म नवाब मिर्ज़ा खान के रूप में २५ मई १८३१ को हुआ था। इन्होंने बस दस वर्ष की अवस्था से ही ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। १८६५ में वे रामपूर चले गए। रामपुर में इनकी मक़बूलियत का हवाला देते हुए हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -"मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्ब अली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहबका शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरोंको जाते थे।" २४ साल रामपुर में व्यतीत करने के बाद दाग़ १८९१ के आस-पास हैदराबाद चले गए। यहीं पर १७ फरवरी १९०५ को इन्होंने अंतिम साँसें लीं।

दाग़ के बारे में और जानने के लिए चलिए अब हम निदा फ़ाज़ली साहब की शरण में चलते हैं:

दाग़ के पिता नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी बंदूक से देश प्रेम में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को उड़ा दिया था. नवाब साहब को फाँसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पाँच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं. जहाँ उन्हें मदद मिली वहाँ-वहाँ इसकी क़ीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी. जिसके नतीजे में दाग़ के एक भाई और बहन अंग्रेज़ नस्ल से भी हुए. यह अभागिन महिला आख़िर में, आख़िरी मुगल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्ज़ा फखरू के निकाह में आई. यह १८५७ से पहले का इतिहास है. महल में आने के बाद माँ को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत, बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई. १८५७ से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ और उसके बाद माँ और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए. दाग़ उस वक़्त शायर बन चुके थे. मशहूर हो चुके थे. शायरी ने उस समय के रामपुर नबाव को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर-बार बसाया.

रामपुर में हर साल एक मेला लगता था. जिसमें देश की मशहूर तवायफ़ें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं. उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की प्रेमिका थी. दाग़ का दिल उसी पर आ गया. उनका नाम था मुन्नी बाई हिजाब. मुहब्बत की दीवानगी में पत्नी के मना करने के बावजूद नवाब साहब के नाम दाग़ ने खत लिख डाला: "नवाब साहब आपको ख़ुदा ने हर ख़ुशी से नवाज़ा है, मगर मेरे लिए सिर्फ़ एक ही ख़ुशी है और वह है मुन्नी बाई."

नवाब तो दाग़ की शायरी के प्रशंसक थे. उन्होंने मुन्नी बाई के ज़रिए ही उत्तर भेजा. लिखा था - "दाग़ साहब हमें आपकी ग़ज़ल से ज़्यादा मुन्नी बाई अजीज़ नहीं है." मुन्नी बाई दाग़ साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगीं. लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नी बाई उन्हें छोड़ के चली गईं. इसी बेवफ़ाई पर शायद दाग़ ने यह शेर कहा था:

तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं, और सही

लखनवी और देहलवी अंदाज़ की शायरी का सम्मिश्रण दाग की शायरी में बखूबी नज़र आता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये दो अंदाज़ हैं क्या और इनमें अंतर क्या है। इसी प्रश्न का जवाब देवी नागरानी आर०पी०शर्मा "महर्षि" से पूछ रही हैं: (साभार: साहित्य कुंज) "देहलवी शायरी में प्रेमी का उसके सच्चे प्रेम तथा दुख-दर्द का स्वाभाविक वर्णन होता है, जब कि लखनवी शायरी अवध की उस समय विलासता से प्रभावित रही। अतः उसमें प्रेम को वासना का रूप दे दिया गया तथा शायरी प्रेमिका के इर्द -गिर्द ही घूमती रही। वर्णन में कृत्रिमता एवं उच्छृंखलता से काम लिया गया। अब लखनवी शायरी में सुधार आ गया है।" ये तो हुई अंतर की बात, लेकिन अगर इनमें मेल-मिलाप जानना हो तो दाग़ के इन शेरों से बढकर और मिसाल नहीं मिल सकते:

ग़म से कहीं निजात मिले चैन पाएं हम,
दिल खुं में नहाए तो गंगा नहाएं हम

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा


दाग़ के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। महफ़िल तभी सफ़ल मानी जाती है जब शेरों के साथ-साथ शायर की भी दिल खोलकर बातें हों। आज की महफ़िल भी कुछ वैसी हीं थी। इसलिए मैं मुतमुईन होकर ग़ज़ल की और बढने को बेकाबू हूँ। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल से रूबरू हुआ जाए। इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है मल्लिका पुखराज की सुपुत्री ताहिर सैय्यद ने, जो खुद हीं बेमिसाल आवाज़ की मालकिन रही हैं। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है आज की ग़ज़ल, जिसमें दाग़ ज़ाहिद से यह दरख्वास्त कर रहे हैं कि ये प्यार में पागल मस्ताने और दीवाने आदमी हैं, इसलिए इन्हें बुरा न कहा जाए:

ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं

गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, ____ आदमी हैं

तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते. आख़िर वीराने आदमी हैं

क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "बला" और शेर कुछ यूँ था-

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

वो जब चाहे छीन ले मुझको ही मुझसे
उनकी बला से फिर में भले तड़पता ही रहूँ (अवनींद्र जी)

जल गया दिल मगर ऐसी जो बला निकले है
जैसे लू चलती मेरे मुँह से हवा निकले है। (मीर तक़ी ’मीर’)

उनकी बला से जीउँ या मरूँ मैं ,
उनकी आदत रिवाज बन गई रे ! (मंजु जी)

आईने में वो अपनी अदा देख रहे है
मर जाये की मिट जाये कोई उनकी बला से (सोहेल राना)

ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्‍से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ (जावेद अख्तर)

रुतबा है जिनका ना आपे में वो हैं
सरे आम मुल्क में तबाही मची है
न है परवाह उनको उनकी बला से
इज्ज़त लुटी या किसी की बची है. (शन्नो जी)

पूरे दो घंटे बैठकर लिखी गई महफ़िल पोस्ट करते वक़्त डिलीट (गायब) हो गई। मैं पूरी तरह से हतोत्साहित हो चुका था। लेकिन फिर हिम्मत जुटाकर महज़ २५ मिनट में मैंने इसे याद से तैयार किया है।

पिछली महफ़िल की शान बने अवनींद्र जी। इस मुकाम के लिए आप बधाई के पात्र हैं। आपके बाद महफ़िल में शरद जी की आमद हुई। उस्ताद ज़ौक़ को समर्पित महफ़िल में उस्तादों के उस्ताद मीर तक़ी मीर का शेर पेश करके आपने सोने पर सुहागा जड़ दिया। इसके लिए किन लफ़्ज़ों में आपका शुक्रिया अदा करूँ! शन्नो जी और मंजु जी, आप दोनों के स्वरचित शेर कमाल के हैं। इन्हें पढकर मज़ा आ गया। आशीष जी, दाग़ का शेर "खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं... " आप पर फिट बैठता है। आप की यह लुकाछिपी, किसी एक महफ़िल में आना, किसी से नदारद रहना कोई अदा है क्या? नहीं ना? तो फिर नियमित हो जाईये। :) चलिए आप सब आए तो कम से कम, न जाने हमारे बाकी मित्र किधर गायब हैं। सीमा जी, नीलम जी, आप दोनों तो नियमित हुआ करती थीं। भई.. जिधर भी हैं आप, तुरत लाईन-हाज़िर होईये, आपको तलब किया जाता है। :) उम्मीद है कि हमारे वे सारे भूले-भटके दोस्त आज भटकते हुए महफ़िल की ओर रूख कर लेंगे। दिल पर हाथ रखकर कह रहा हूँ, हमारा यह दिल मत तोड़िएगा। अरे हाँ, बातों-बातों में पिछले बुधवार की अपनी गैर-मौजूदगी की तो मुआफ़ी माँगना हीं भूल गया। दर-असल मैं अपने गृह-नगर (गाँव हीं कह लीजिए) गया हुआ था, वहाँ न तो बिज़ली सही थी और न हीं इंटरनेट, इसलिए लाख कोशिशों के बावजूद महफ़िल पोस्ट न कर सका। आप हमारी मजबूरी समझ रहे हैं ना? बढिया है।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, August 31, 2010

हमें तो लूट लिया मिलके हुस्न वालों ने...फ़िल्म 'अल-हिलाल' की मशहूर सदाबहार क़व्वाली जो आज कव्वाल्लों की पहली पसंद है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 473/2010/173

मज़ान के मुबारक़ मौक़े पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी ख़ुशनुमा बनाने के लिए इन दिनों हर शाम हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को रोशन कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कुछ शानदार क़व्वालियों के ज़रिए। और इन्ही क़व्वालियों के ज़रिए ४० के दशक से ८० के दशक के बीच क़व्वालियों का मिज़ाज किस तरह से बदलता रहा, इसका भी आप ख़ुद ही अंदाज़ा लगा पाएँगे और महसूस भी करेंगे एक के बाद एक इन क़व्वालियों को सुनते हुए। पिछली दो कड़ियों में आपने ४० के दशक की दो क़व्वालियाँ सुनी, आइए आज एक लम्बी छलांग मार कर पहुँच जाते हैं साल १९५८ में। इस साल एक ऐसी क़व्वाली आई थी जिसने इतनी ज़्यादा लोकप्रियता हासिल की कि आने वाले सालों में बहुत से क़व्वालों ने इस क़व्वाली को गाया और आज भी गाते हैं। इस तरह से इस क़व्वाली के बहुत से संस्करण बन गए हैं लेकिन जो मूल क़व्वाली है वह १९५८ के उस फ़िल्म में थी जिसका नाम है 'अल-हिलाल'। जी हाँ, "हमें तो लूट लिया मिलके हुस्नवालों ने, काले काले बालों ने, गोरे गोरे गालों ने"। इस्माइल आज़ाद और साथियों की गाई इस क़व्वाली को लिखा था शेवन रिज़्वी ने। फ़िल्म में संगीत था बुलो सी. रानी का। १९५४ में 'बिलवामंगल' फ़िल्म में लोकप्रिय संगीत देने के बाद 'अल-हिलाल' की यह क़व्वाली उनकी मशहूर हुई थी। वैसे यह बताना मुश्किल है कि इस क़व्वाली में उनका योगदान कितना था और इस्माइल आज़ाद के क़व्वाली वाले अंदाज़ का कितना! लेकिन इस कामयाबी के बावजूद बुलो सी. रानी का करीयर ग्राफ़ ढलान पर ही चलता गया और धीरे धीरे वो फ़िल्म जगत से दूर होते चले गए। 'अल-हिलाल' के निर्देशक थे राम कुमार, और फ़िल्म के नायक नायिका थे महिपाल और शक़ीला।

और आइए अब कुछ बातें की जाए क़व्वाली के विशेषताओं की। कल हमने आपको क़व्वाली के उत्स की जानकारी दी थी, आज बात करते हैं कि किन किन भाषाओं में क़व्वाली गाई जाती है। वैसे तो सामान्यत: क़व्वाली में उर्दू और पंजाबी भाषा का ज़्यादा इस्तेमाल होता है, लेकिन बहुत सी क़व्वालियाँ परशियन, ब्रजभाषा और सिरैकी में भी गाई जाती है। कुछ स्थानीय भाषाओं में भी क़व्वालियाँ बनती है, मसलन, बंगला में छोटे बाबू क़व्वाल की गाई हुई क़व्वालियाँ मशहूर हैं, हालाँकि ये संख्या में बहुत कम है। इन बंगला क़व्वालियों की गायन शैली भी इस तरह की है कि उर्दू क़व्वालियों से बिल्कुल अलग सुनाई देती है। इनमें बाउल गायन शैली का ज़्यादा प्रभाव महसूस किया जा सकता है। आज ये बंगला क़व्वालियाँ बंगलादेश में ही गाई और सुनी जाती है। किसी भी क़व्वाली का उद्देश्य है आध्यात्म की खोज। क़व्वाली का जो मूल अर्थ है, वह यही है कि इसे गाते गाते ऐसे ध्यानमग्न हो जाएँ कि ईश्वर के साथ, अल्लाह के साथ एक जुड़ाव सा महसूस होने लगे। क़व्वाली केन्द्रित होती है प्रेम, श्रद्धा और आध्यात्म के खोज पर। वैसे हल्के फुल्के और सामाजिक क़व्वालियाँ भी ख़ूब मशहूर हुआ करती हैं। हिंदी फ़िल्मों में मज़हबी और सामाजिक, दोनों तरह की क़व्वालियों का ही चलन शुरु से रहा है। हम इस शृंखला में ज़्यादातर सामाजिक क़व्वालियाँ ही पेश कर रहे हैं, जिनमें है प्यार, मोहब्बत, हुस्न-ओ-इश्क़ की बातें हैं, मीठी नोक झोक और तकरार की बातें हैं, जीवन दर्शन की बातें भी होंगी आगे चलकर किसी क़व्वाली में। लेकिन प्यार मोहब्बत और इश्क़ भी तो ईश्वर से जुड़ने का ही साधन होता है। इसलिए ये हुस्न-ओ-इश्क़ की क़व्वालियों में भी स्पिरिचुअलिटी समा ही जाती है। तो आनंद लेते रहिए इस शुंखला का और अब सुनिए फ़िल्म 'अल-हिलाल' की मशहूर सदाबहार क़व्वाली।



क्या आप जानते हैं...
कि मशहूर बैनर रणजीत मूवीटोन के जानेमाने संगीतकारों में शुमार होता है बुलो सी. रानी का। रणजीत मूवीटोन में स्वतंत्र संगीतकार बनने से पहले वो ज्ञान दत्त और खेमचंद प्रकाश जैसे संगीतकारों के सहायक हुआ करते थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ये है एक क्लास्सिक एतिहासिक फिल्म की मशहूर कव्वाली, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
२. किस संगीतकार गीतकार जोड़ी ने रचा है ये गीत - २ अंक.
३. लता का साथ किस गायिका ने दिया है इस कव्वाली में - ३ अंक.
४ मुखड़े में शब्द है -"नजदीक". फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी, नवीनजी, प्रतिभा जी, और किशोर जी को बधाई, दादी और शरद जी ने आकर महफ़िल की शान दुगनी की है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

किलिमांजारो में बूम बूम रोबो डा.. रोबोट की हरकतों के साथ हाज़िर है रहमान, शंकर और रजनीकांत की तिकड़ी



ताज़ा सुर ताल ३३/२०१०

सुजॊय - आज है ३१ अगस्त! यानी कि आज 'ताज़ा सुर ताल' इस साल का दो तिहाई सफ़र पूरा कर रहा है। पीछे मुड़ कर देखें तो इस साल बहुत ही कम फ़िल्में ऐसी हैं जिन्होंने बॊक्स ऒफ़िस पर कामयाबी के झंडे गाड़े हैं।

विश्व दीपक - हाँ, लेकिन फ़िल्म संगीत की बात करें तो इन फ़िल्मों के अलावा भी कई फ़िल्मों का संगीत सुरीला रहा है। 'वीर', 'इश्क़िया', 'कार्तिक कॊलिंग‍ कार्तिक', 'आइ हेट लव स्टोरीज़', 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता', 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसे फ़िल्मों के गानें काफ़ी अच्छे हैं। अब देखते हैं कि २०१० का बेस्ट क्या अभी आना बाक़ी है!

सुजॊय - अच्छा विश्व दीपक जी, क्या आप ने कोई ऐसा कम्प्युटर देखा है जिसका स्पीड १ टेरा हर्ट्ज़ हो, और मेमरी १ ज़ीटा बाइट, जिसका प्रोसेसर पेण्टियम अल्ट्रा कोर मिलेनिया वी-२, और एफ़. एच. पी-४५० मोटर हिराटा, जापान का लगा हो?

विश्व दीपक - अरे अरे ये सब क्या पूछे जा रहे हैं आप? यह 'टी. एस. टी' है भई!

सुजॊय - तभी तो! आज हम जिस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं यह उसी से ताल्लुख़ रखता है। ये जो स्पेसिफ़िकेशन्स मैंने अभी बताए, यह दरसल किसी कम्प्युटर का नहीं, बल्कि एक अत्याधुनिक रोबोट का होगा जिसका निर्माण कर रहे हैं फ़िल्म निर्माता कलानिथि मारन निर्देशक शंकर के साथ मिल कर अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'रोबोट' में।

विश्व दीपक - 'रोबोट' इस देश में बनने वाली सब से महँगी फ़िल्म है और इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं साउथ सुपरस्टार रजनीकांत और ऐश्वर्या राय बच्चन। फ़िल्म में संगीत दिया है ए. आर. रहमान ने और गीतकार हैं स्वानंद किरकिरे। दोस्तों, इससे पहले कि हम 'रोबोट' की बातों को आगे बढ़ाएँ, आइए फ़िल्म का पहला गाना सुन लेते हैं जिसे गाया है ए. आर. रहमान, सुज़ेन, काश और क्रिसी ने।

गीत - नैना मिले


सुजॊय - फ़िल्म की कहानी और प्लॊट के हिसाब से ज़ाहिर है कि इस फ़िल्म के गानें हाइ टेक्नो बीट्स वाले होंगे और गायन शैली भी उसी तरह का रोबोट वाले अंदाज़ का होगा, और अभी अभी जो हमने गीत सुना उसमें इन सभी बातों का पूरा पूरा ख़याल रखा गया है। "नैना मिले, तुम से नैना मिले", स्वानंद किरकिरे के बोलों को ध्यान से सुना जाए तो उनका ख़ास अंदाज़ महसूस किया जा सकता है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि 'ध्यान से सुना जाए', क्योंकि टेक्नो बीट्स के चलते गीत के बोल पार्श्व में चले गए हैं और संगीत ही सर चढ़ कर बोल रहा है।

विश्व दीपक - वाक़ई एक 'रोबोटिक' गाना है। हाल में एक फ़िल्म आई थी 'लव स्टोरी २०५०' जिसका संगीत भी कुछ इसी तरह का डिमाण्ड करता था। "मिलो ना मिलो" गीत मशहूर हुआ था लेकिन कुल मिलाकर फ़िल्म पिट गई थी। ख़ैर, 'रोबोट' का दूसरा गीत पहले गीत की तुलना में टेक्नो बीट्स के मामले में हल्का है और एक रोमांटिक युगल गीत है मोहित चौहान और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में। सुनते हैं फिर चर्चा करते हैं।

गीत - पागल अनुकन (प्यारा तेरा गुस्सा भी)


विश्व दीपक - भले ही एक नर्मोनाज़ुक रूमानीयत से भरा गीत है, लेकिन स्वानंद किरकिरे इसमें भी वैज्ञानिक शब्दों को डालना नहीं भूले हैं। हिंदी सिनेमा का यह पहला गीत है जिसमें "न्युट्रॊन" और "ईलेक्ट्रॊन" शब्दों का इस्तमाल हुआ है।

सुजॊय - आइए अब इस फ़िल्म के प्रमुख किरदार रोबोट का परिचय आप से करवाया जाए। इस ऐण्ड्रो-ह्युमानोएड रोबोट का नाम है 'चिट्टी'। यह एक इंसान है जिसने जन्म नहीं लिया, बल्कि जिसका निर्माण हुआ है। चिट्टी गा सकता है, नाच सकता है, लड़ सकता है, पानी और आग का उस पर कोई असर नहीं होता। वो हर वो सब कुछ कर सकता है जो एक इंसान कर सकता है लेकिन शायद उससे भी बहुत कुछ ज़्यादा। वो विद्युत-चालित है और वो झूठ नहीं बोल सकता। चिट्टी की कुछ विशेषताओं के बारे में हमने आपको बताया, आइए अब सुनते हैं 'चिट्टी डान्स शोकेस'।

विश्व दीपक - 'चिट्टी डान्स शोकेस' एक डान्स नंबर है प्रदीप विजय, प्रवीन मणि, रैग्ज़ और योगी बी. का।

गीत - चिट्टी डान्स शोकेस


सुजॊय - वाक़ई ज़बरदस्त इन्स्ट्रुमेन्टल पीस था। हिप-हॊप डान्स के शौकीनों के लिए बहुत अच्छा पीस है। इस फ़्युज़न ट्रैक का इस्तमाल टीवी पर होने वाले डान्स रियल्टी शोज़ में किया जा सकता है।

विश्व दीपक - और अब एक ऐसा गीत जिसे सुनते हुए आप शायद ९० के दशक में पहुँच जाएँगे। और वह इसलिए कि इसमें आवाज़ें हैं हरिहरण और साधना सरगम की। लेकिन गाने के अंदाज़ में ९० के दशक की कोई छाप नहीं है। यह तो इसी दौर का गीत है। यह गीत दर-असल इस रोबोट की गरिमा और महिमा का बखान करता है। रहमान के शुरुआती दिनों में दक्षिण के फ़िल्मों में वो जिस तरह का संगीत दिया करते थे, इस गीत में कुछ कुछ उस शैली की छाया मिलती है। सुनते हैं "अरिमा अरिमा"।

गीत - अरिमा अरिमा


विश्व दीपकव - स्वानंद किरकिरे ने केवल "ईलेक्ट्रॊन" और "न्युट्रॊन" तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखा, अब एक ऐसा गीत जिसमें किलिमांजारो और मोहंजोदारो का उल्लेख है, और उल्लेख क्या, गीत के मुखड़े में ही ये दो शब्द हैं जिन पर इस गीत को आधार किया गया है। इस तरह के शब्दों के चुनाव का तो यही उद्येश्य हो सकता है कि धुन पहले बनी होगी और उस धुन पर ये शब्द फ़िट किए गए होंगे।

सुजॊय - जावेद अली और चिनमयी का गाया यह गीत एक मस्ती भरा गीत है जिसमें वह रोबोटिक शैली नहीं है, बल्कि तबले का भी इस्तमाल हुआ है। जावेद अली धीरे धीरे कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे हैं। आज के दौर के गायकों में उन्होंने अपनी एक अलग जगह बना ही ली है और फ़िल्म संगीत संसार में उन्होंने अपने क़दम मज़बूती से जमा लिए हैं। आइए सुनते हैं "किलिमांजारो"।

गीत - किलिमांजारो


विश्व दीपक - फ़िल्म के शुरु में चिट्टी कोई भी काम तो कर सकता है, लेकिन वो इंसान के जज़्बातों को समझ नहीं सकता। उसमें कोई ईमोशन नहीं है। और तभी डॊ. वासी चिट्टी के प्रोसेसर को अपग्रेड करते हैं और उसमें ईमोशन्स का सिम्युलेशन करते हैं यह सोचे बिना कि इसके परिणाम क्या क्या हो सकते हैं। अब चिट्टी महसूस कर सकता है और सब से पहले जो वो महसूस करता है, वह है प्यार। क्या यही प्यार डॊ. वासी के रास्ते पे दीवार बन कर खड़ा हो जाएगा? क्या डो. वासी का क्रिएशन ही उनका विनाश कर देगा? यही कहानी है 'रोबोट' की।

सुजॊय - और अब एक और रोबोटिक नंबर, फिर से टेक्नो बीट्स की भरमार लिए यह है "बोम बूम रोबोडा", जिसे गाया है रैग्ज़, योगी बी., मधुश्री, कीर्ति सगठिया और तन्वी शाह ने। मधुश्री को ए. आर. रहमान ने कई ख़ूबसूरत गीतों में गवाया है। बहुत ही मिठास है उनकी आवाज़ में। यह ताज्जुब की ही बात है कि मुंबई के फ़िल्मी संगीतकार क्यों उनसे गानें नहीं गवाते! ख़ैर, सुनते हैं यह गीत।

गीत - बूम बूम रोबोडा


विश्व दीपक - और अब फ़िल्म का अंतिम गीत "ओ नए इंसान"। श्रीनिवास और खतिजा रहमान का गाया यह गीत है। श्रीनिवास ने बिलकुल रोबोटिक अंदाज़ में यह गाया है। श्रीनिवास ने इस गीत में दो अलग अलग आवाज़ें निकाली हैं, जो एक दूसरे से बिलकुल अलग है। ऒर्केस्ट्रेशन पूरी तरह से ईलेक्ट्रॊनिक है और इस गीत को सुनते हुए एक साइ-फ़ाइ फ़ील आता है।

सुजॊय - और जिन्हें मालूम नहीं है, उन्हें हम यह बताना चाहेंगे कि खतिजा रहमान ए. आर. रहमान की बेटी है जो इस गीत के ज़रिए हिंदी पार्श्व गायन में क़दम रख रही है। चलिए सुनते हैं यह गीत।

गीत - ओ नए इंसान


सुजॊय - हाँ तो विश्व दीपक जी, कैसा रहा इन रोबोटिक गीतों का अनुभव? मुझे तो बुरा नहीं लगा। हाल के कुछ फ़िल्मों में रहमान का जिस तरह का संगीत आ रहा था, ज़्यादातर सूफ़ियाने अंदाज़ का, उससे बिलकुल अलग हट के, बहुत दिनों के बाद इस तरह का संगीत सुनने में आया है। वैसे हाल में 'शिवाजी' में रहमान ने इस तरह का संगीत दिया था, लेकिन हिंदी के श्रोताओं में 'शिवाजी' के गानें कुछ ख़ास असर नहीं कर सके थे। अब देखना है कि 'रोबोट' के गीतों को किस तरह का रेसपॊन्स मिलता है! "पागल अनुकन" और "किलिमांजारो", ये दोनों गीत मुझे सब से ज़्यादा पसंद आए।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, भले हीं गाने सुनने के दौरान मैंने इलेक्ट्रान, प्रोटॉन, किलिमांजारो और मोहनजोदाड़ो जैसे शब्दों के लिए स्वानंद किरकिरे को क्रेडिट दिया था, लेकिन एक बात मेरे दिल में चुभ-सी रही थी.. शुरू में सोचा कि रहने देता हूँ, हर बात कहनी ज़रूरी नहीं होती, लेकिन जब हम समीक्षा हीं कर रहे हैं तो हमें कुछ भी छुपाने का हक़ नहीं मिलता। शायद आपने रोबोट के तमिल वर्ज़न ऐंदिरन के गाने नहीं सुने। मैंने सुने हैं.. गाने के बोल तो समझ नहीं आए लेकिन ऊपर बताए गए शब्द पकड़ में आ गए थे} और जब मैंने हिन्दी के गाने सुने और हिन्दी में उन्हीं शब्दों की पुनरावृत्ति मिली तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि गीतकार ने गाने का बस अनुवाद हीं किया है और कुछ नहीं। नहीं तो तमिल का "डा" (बूम बूम रोबो डा), जो हिन्दी के "रे" या "अरे" के समतुल्य है, हिन्दी में भी "डा" हीं क्यों होता। और भी ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं.. जिन्हें सुनने पर मुझे लगा था कि किसी साधारण-से गीतकार से गाने लिखवाए (अनुवाद करवाए) गए हैं। लेकिन गीतकार के रूप में "स्वानंद किरकिरे" का नाम देखकर मुझे झटका-सा लगा। अब जैसा कि आपके साथ हुआ और दूसरे हिन्दी-भाषी श्रोताओं के साथ होने वाला है, हम तो बस हिन्दी के गाने हीं सुनते हैं और उसी को "असल" समझ बैठते हैं। अब यहाँ पर दोषी कौन है, यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन स्वानंद साहब से मुझे ऐसी उम्मीद न थी। वे "गुलज़ार" और "महबूब" की तरह मिसाल बन सकते थे, जो तमिल के गानों (जिसे वैरामुतु जैसे बड़े कवि/गीतकार लिखा करते हैं) से बोल नहीं उठाते, बल्कि रहमान की धुनों पर अपने नए बोल लिखते हैं। बस इतना है कि स्वानंद साहब से निराश होने के बावजूद रहमान के संगीत के कारण हीं मैं इस एलबम को पसंद कर पा रहा हूँ। सुजॊय जी, आपने इस एलबम के लिए साढे तीन अंक निर्धारित किए थे, लेकिन मैं आधे अंक की कटौती गीतकार के कारण कर रहा हूँ। एक गीतकार/कवि के मन में शब्दों के लिए जो टीस उठती है, वह तो आप समझ हीं सकते हैं.. है ना? खैर.. मैं भी किस भावनात्मक दरिया में बह गया... हाँ तो, आज की समीक्षा को विराम देने का वक्त आ गया है, अगली बार "अनजाना अनजानी" के साथ हम फिर हाज़िर होंगे। तब तक के लिए शुभदिन एवं शुभरात्रि!!

आवाज़ रेटिंग्स: रोबोट: ***

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ९७- हरिहरण और साधना सरगम की आवाज़ में उस मशहूर गीत का मुखड़ा बताइए जिसके एक अंतरे में पंक्ति है "ये दिल बेज़ुबाँ था आज इसको ज़ुबाँ मिल गई, मेरी ज़िंदगी को एक हसीं दास्ताँ मिल गई"?

TST ट्रिविया # ९८- फ़िल्म 'रोबोट' के साउण्डट्रैक में आपने जितनी भी आवाज़ें सुनीं, उनमें से एक गायिका हैं जिनका असली नाम है सुजाता भट्टाचार्य। बताइए इस गायिका को अब हम किस नाम से जानते हैं?

TST ट्रिविया # ९९- परिवार की नाज़ुक आर्थिक स्थिति के चलते ए. आर. रहमान को कक्षा-९ में स्कूल छोड़ना पड़ा था। बताइए रहमान उस वक़्त किस स्कूल में पढ़ रहे थे?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. खुदा जाने (बचना ए हसीनों)
२. ६७
३. इन दोनों फ़िल्मों में विदेशी गीत की धुन का इस्तेमाल किया गया है। 'वी आर फ़मिली' में एल्विस प्रेस्ली के "जेल-हाउस रॊक" तथा 'कल हो ना हो' में रॊय ओरबिसन के "प्रेटी वोमेन"।

एक बार फिर सीमा जी २ सही जवाबों के साथ हाज़िर हुई, बधाई

Monday, August 30, 2010

क्या बताएँ कितनी हसरत दिल के अफ़साने में है...ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की आवाज़ में एक और दमदार कव्वाली



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 472/2010/172

मज़ान के पाक़ अवसर पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी ख़ुशनुमा बनाने के लिए 'आवाज़' की ख़ास पेशकश इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' के तहत। कल हमने १९४५ की मशहूर फ़िल्म 'ज़ीनत' की क़व्वाली सुनी थी। आज भी हम ४० के ही दशक की एक और ख़ूबसूरत क़व्वाली सुनेंगे, लेकिन उसका ज़िक्र करने से पहले आइए आज आपको क़व्वाली के बारे में कुछ दिलचस्प बातें बतायी जाए। मूल रूप से क़व्वाली सूफ़ी मज़हबी संगीत को कहते हैं, लेकिन समय के साथ साथ क़व्वाली सामाजिक मुद्दों पर भी बनने लगे। क़व्वाली का इतिहास ७०० साल से भी पुराना है। जब क़व्वाली की शुरुआत हुई थी, तब ये दक्षिण एशिया के दरगाहों और मज़ारों पर गाई जाती थी। लेकिन जैसा कि हमने बताया कि धीरे धीरे ये क़व्वालियाँ आम ज़िंदगी में समाने लगी और संगीत की एक बेहद लोकप्रिय धारा बन गई। क़व्वाली की जड़ों की तरफ़ अगर हम पहुँचना चाहें, तो हम पाते हैं कि आठवी सदी के परशिया, जो अब ईरान और अफ़ग़ानिस्तान है, में इस तरह के गायन शैली की शुरुआत हुई थी। ११-वीं सदी में जब परशिया से पहला प्रमुख स्थानांतरण हुआ, उस वक़्त संगीत की यह विधा, जिसे समा कहा जाता था, परशिया से निकलकर दक्षिण एशिया, तुर्की और उज़बेकिस्तान जा पहुँची। चिश्ति परिवार के सूफ़ी संतों के अमीर ख़ुसरौ दहल्वी ने परशियन और भारतीय तरीकों को एक ही ढांचे में समाहित कर क़व्वाली को वह रूप दिया जो आज की क़व्वाली का रूप है। यह बात है १३-वीं सदी की। आज 'समा' शब्द का इस्तेमाल मध्य एशिया और तुर्की में होता है और जो क़व्वाली के बहुत करीब होते हैं; जब कि भारत, पाक़िस्तान और बांगलादेश जैसे देशों में क़व्वालियों की महफ़िल को 'महफ़िल-ए-समा' कहा जाता है। अब आपको 'क़व्वाली' शब्द का अर्थ भी बता दिया जाए! अरबी में 'क़ौल' शब्द का अर्थ है 'अल्लाह की आवाज़' या ईश्वर की वाणी। 'क़व्वाल' वो होता है जो किसी 'क़ौल' का दोहराव करता है, और इसी को 'क़व्वाली' कहते हैं। तो दोस्तों, आज हमने आपको क़व्वाली की उत्पत्ति के बारे में बताया, कल क़व्वाली के किसी और पहलु पर बात करेंगे।

और अब आज की क़व्वाली का ज़िक्र किया जाए। दोस्तों, १९४७ में पहली बार नौशाद साहब और शक़ील बदायूनी की जोड़ी बनी थी ए. आर. कारदार की फ़िल्म 'दर्द' में। जहाँ एक तरफ़ इस फ़िल्म के गीतों ने अपार शोहरत हासिल की थी, वहीं दूसरी तरफ़ इसी साल कारदार साहब की ही अन्य फ़िल्म 'नाटक' कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सकी। इस फ़िल्म में भी शक़ील और नौशाद थे। एस. यू. सनी निर्देशित इस फ़िल्म में अमर और सुरैय्या की जोड़ी पर्दे पर नज़र आई थी। फ़िल्म के ना चलने से फ़िल्म के गानें भी कुछ पीछे रह गए थे। सुरैय्या, उमा देवी और ज़ोहराबाई जैसी गायिकाओं से नौशाद साहब ने इस फ़िल्म में गीत गवाए। सुरैया और सखियों का गाया लोक शैली में "काले काले आए बदरवा आओ सजन मोरे आओ", और उमा देवी का गाया "दिलवाले दिलवाले, जल जल कर ही मर जाना, तुम प्रीत ना कर पछताना" इस फ़िल्म के दो अलग अलग क़िस्म के गानें थे। इसी फ़िल्म में ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की गायी एक क़व्वाली भी थी जिसे ज़्यादा सुना नहीं गया, लेकिन अल्फ़ाज़ों के मामले में, तर्ज़ के मामले में, और गायकी के मामले में यह किसी भी चर्चित क़व्वाली से कम नहीं थी। क़व्वाली के बोल हैं "क्या बताएँ कितनी हसरत दिल के अफ़साने में है, सुबह गुलशन में हुई और शाम वीराने में है"। ४० के दशक के अग्रणी गयिकाओं में शुमार होता है ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का। फ़िल्म 'नाटक' १९४७ की फ़िल्म थी और इसी साल कुछ दूसरी फ़िल्मों में भी ज़ोहराबाई ने यादगार गीत गाए थे, जिनमें शामिल हैं "टूटा हुआ दिल गाएगा क्या गीत सुहाना, हर बात में ढूंढ़ेगा वो रोने का बहाना" (दूसरी शादी '४७), "भीगी भीगी पलकें हैं और दिल में याद तुम्हारी है" (बेला '४७), "आई मिलन की बहार रे आ जा साँवरिया" (नैया '४७), "सामने गली में मेरा घर है पता मेरा भूल ना जाना" (मिर्ज़ा साहिबाँ '४७) आदि। और आइए अब सुना जाए यह क़व्वाली और ज़रा महसूस कीजिए ४० के दशक के उस ज़माने को, उस दौर में बनने वाली फ़िल्मों को, और उस दौर के अमर फ़नकारों को।



क्या आप जानते हैं...
कि ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का २१ फ़रवरी १९९० को लगभग ६८ वर्ष की आयु में बम्बई में निधन हो गया। मृत्यु से मात्र एक माह पूर्व किसी टेलीफ़िल्म के लिए जब उनके घर पर शूटींग्‍ की गई तो बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने दो लाइनें "अखियाँ मिलाके जिया भरमाके" गाकर सुनाईं थीं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस मशहूर कव्वाली के गीतकार बताएं - ३ अंक.
२. निर्देशक राम कुमार की इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. किस फनकार की टीम ने गाया है इस लाजवाब कव्वाली को - २ अंक.
४ संगीतकारा बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी आपका बहुत बहुत स्वागत है. पर जवाब गलत है :), हाँ अवध जी को हम २ अंक अवश्य देंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, August 29, 2010

आहें ना भरी शिकवे ना किए और ना ही ज़ुबाँ से काम लिया....इफ्तार की शामों में रंग भरती एक शानदार कव्वाली



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 471/2010/171

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का फिर एक बार स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। दोस्तों, माह-ए-रमज़ान चल रहा है। रमज़ान के इन पाक़ दिनों में इस्लाम धर्म के लोग रोज़ा रखते हैं, सूर्योदय से सूर्यास्त तक अन्न जल ग्रहण नहीं करते, और फिर शाम ढलने पर रोज़े की नमाज़ के बाद इफ़्तार आयोजित किया जाता हैं, जिसमें आस-पड़ोस, और रिश्तेदारों को दावत देकर सामूहिक भोजन कराया जाता है। तो दोस्तों, हमने सोचा कि इन इफ़्तार की शामों को थोड़ा सा और रंगीन किया जाए फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कुछ बेमिसाल क़व्वालियों की महफ़िल सजाकर। इसलिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से लेकर अगले दस अंकों में सुनिए ऐसी ही कुछ नायाब फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी हमारी नई लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। इन क़व्वालियों को सुनते हुए आप महसूस कर पाएँगे कि किस तरह से ४० के दशक से लेकर ८० के दशक तक फ़िल्मी क़व्वालियों का चलन बदलता रहा है। इस शृंखला में क़व्वालियों को सुनवाते हुए हम आपको क़व्वालियों के बारे में भी बताएँगे, किस तरह से इसकी शुरुआत हुई, किस किस तरह से ये गाया जाता है, वगैरह। बहरहाल आज जिस क़व्वाली को हमने चुना है उसे फ़िल्म जगत की पहली लोकप्रिय क़व्वाली होने का गौरव प्राप्त है। और यही नहीं यह पहली ऐसी क़व्वाली भी है जिसे केवल महिला गायिकाओं ने गाया है। १९४५ की फ़िल्म 'ज़ीनत' की यह क़व्वाली है "आहें ना भरी शिकवे ना किए और ना ही ज़ुबाँ से काम लिया", जिसे गाया था नूरजहाँ, ज़ोहराबाई, कल्याणीबाई और साथियों ने। इस फ़िल्म में दो संगीतकार थे - मीर साहब और हाफ़िज़ ख़ान (ख़ान मस्ताना)। युं तो नूरजहाँ के गाए कई एकल गीत इस फ़िल्म में मशहूर हुए थे जैसे कि "आंधियाँ ग़म की युं चली", "बुलबुलो मत रो यहाँ" आदि, पर यह क़व्वाली सब से ज़्यादा चर्चित रही और इसने वह धूम मचाई कि इसके बाद फ़िल्मों में क़व्वालियों का चलन बढ़ा और इसी धुन को कम ज़्यादा बदलाव कर फ़िल्मी संगीतकार बार बार क़व्वालियाँ बनाते रहे। बस अफ़सोस की बात यह है कि 'ज़ीनत' के बाद हाफ़िज़ ख़ान को बहुत ज़्यादा सफलता और किसी फ़िल्म में ना मिल सका।

फ़िल्म 'ज़ीनत' की यह क़व्वाली फ़िल्मायी गयी थी शशिकला, श्यामा और शालिनी पर। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में जब शशिकला जी तशरीफ़ लाई थीं, उन्होंने इस क़व्वाली का ज़िक्र किया था, आइए उसी अंश को यहाँ आज पेश किया जाए!

कमल शर्मा: आप ने 'ज़ीनत' का ज़िक्र किया, १९४५ में यह फ़िल्म आई थी, इसमें एक मशहूर क़व्वाली जो है....

शशिकला: जी हाँ, आप कोई यक़ीन नहीं करेंगे, अगर वह पिक्चर आज भी लगे तो सिर्फ़ उस क़व्वाली को देखने और सुनने के लिए लोग वहाँ पे बैठते थे, थिएटर्स में। और उन दिनों जो है क़व्वाली आदमी लोग गाया करते थे, मगर सारी लेडीज़ लोगों ने गाया है, हम लोगों ने उसमें काम किया है।

कमल शर्मा: शशि जी, आप ने नूरजहाँ जी के साथ काम किया है। जैसा उनका अभिनय था, उससे भी ज़्यादा अच्छा वो गाती थीं। आप ने उनको कैसा पाया?

शशिकला: मैं बतायूँ आपको, उन दोनों को मैं भाई साहब और आपा जी कह कर ही बुलाती थी। भाई साहब और आपा जी, इसके सिवा बात नहीं होती थी।

कमल शर्मा: क्या बात है!

शशिकला: और ख़ूबसूरत तो थीं वो, और शौक़त भाई साहब भी उतने ही ख़ूबसूरत थे। मैं कराची गई थी और आपा जी को मिल नहीं सकी। शौक़त भाई साहब से मेरी मुलाक़ात हुई, बहुत रोये वो, बहुत रोये वो, क्योंकि उस वक़्त उनका सेपरेशन हो गया था। और जब कभी मैं वहाँ से गुज़रती हूँ जहाँ वो रहते थे, अपने भी वो दिन याद आ जाते हैं। अगर वो आज होतीं तो मेरी ज़िंदगी कुछ ना कुछ हो जाती। मगर उसके लिए अब मुझे अफ़सोस नहीं है। मदर टेरेसा के पास आने के बाद मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं है।

कमल शर्मा: तो 'ज़ीनत' की वही क़व्वाली सुनी जाए!

शशिकला: ज़रूर, ज़रूर!

तो चलिए दोस्तों, 'मजलिस-ए-क़व्वाली' की पहली क़व्वाली कर रहे हैं आपकी नज़र...



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'चौदहवीं का चाँद' में रवि के संगीत से सजी क़व्वाली "शर्मा के युं फिर पर्दानशीं आँचल को सँवारा करते हैं" की धुन फ़िल्म 'ज़ीनत' के इसी क़व्वाली की धुन से प्रेरीत थी।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस कव्वाली की गायिका बताएं - ३ अंक.
२. ए आर कारदार की इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. धुन थी नौशाद साहब की, गीतकार बताएं - २ अंक.
४ मुखड़े में शब्द है "सुबह", कव्वाली के बोल बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतिभा जी, किशोर जी, नवीन जी और अवध जी को सही जवाबों की बधाई. प्रतिभा जी आपने आपने बारे आपने थोडा बहुत बताया, कुछ अधिक बताना चाहें तो oig@gmail.com पर जरूर लिखें. स्वप्निल जी आपने एकदम सही कहा, "कोई बात चले" में केवल दो ही त्रिवेनियाँ है. भूल सुधारने के लिए धन्यवाद.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और एक और क्लास्सिक "अंदाज़" के दो अप्रदर्शित और दुर्लभ गीत



नौशाद अली की रूहानियत और मजरूह सुल्तानपुरी की कलम जब जब एक साथ मिलकर परदे पर चलीं तो एक नया ही इतिहास रचा गया. उस पर महबूब खान का निर्देशन और मिल जाए तो क्या बात हो, जैसे सोने पे सुहागा. राज कपूर और नर्गिस जिस जोड़ी ने कितनी ही नायाब फ़िल्में भारतीय सिनेमा को दीं हैं उस पर अगर दिलीप कुमार का अगर साथ और मिल जाए तो कहने की ज़रुरत नहीं कि एक साथ कितनी ही प्रतिभाओं को देखने का मौका मिलेगा......अब तक तो आप समझ गए होंगे के हमारी ये कलम किस तरफ जा रही है...जी हाँ सही अंदाजा लगाया आपने लेकिन यहाँ कुछ का अंदाजा गलत भी हो सकता है. साहब अंदाजा नहीं अंदाज़ कहिये. साथ में मुराद, कुक्कु वी एच देसाई, अनवरीबाई, अमीर बानो, जमशेदजी, अब्बास, वासकर और अब्दुल. सिनेमा के इतने लम्बे इतिहास में दिलीप कुमार और राज कपूर एक साथ इसी फिल्म में पहली और आखिरी बार नजर आये. फिल्म की कहानी प्यार के त्रिकोण पर आधारित थी जिस पर अब तक न जाने कितनी ही फिल्मे बन चुकी हैं. फिल्म में केवल दस गीत थे जिनमे आवाजें थीं लता मंगेशकर, मुकेश, शमशाद बेगम और मोहम्मद रफ़ी साब की. फिल्म को लिखा था शम्स लखनवी ने, जी बिलकुल वोही जिन्होंने सेहरा १९६३ के संवाद लिखे थे. फिल्म १४८ मिनट की बनी थी जो बाद में काटकर १४२ मिनट की रह गयी. ये ६ मिनट कहाँ काटे गए इसका जवाब हम आज लेकर आये हैं.

फिल्म में जैसे कि मैं कह चुका हूँ और आप भी जानते हैं दस गीत थे लेकिन बहुत कम लोग ये जानते होंगे के इस फिल्म में दो और गीत थे एक मुकेश के अकेली आवाज़ में और दूसरा मोहम्मद रफ़ी तथा लता मंगेशकर कि आवाज़ में. आज हम यहाँ दोनों ही गीतों को सुनवाने वाले हैं.पहला गीत है क्यूँ फेरी नज़र मुकेश कि आवाज़ में जिसकी अवधि कुल २ मिनट ५८ सेकंड है. दूसरा गीत जो युगल मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर कि आवाज़ में है जिसकी अवधि २ मिनट ४५ सेकंड है, गीत के बोल हैं सुन लो दिल का अफसाना मेरा अपना जो विचार है कि फिल्म के जो ६ मिनट कम हुए होंगे वो शायद इन्ही दो गीतों कि वजह से हुए होंगे जिनकी कुल अवधि ५ मिनट ५६ सेकंड है. बातें तो इस फिल्म और इसके गीतों के बारे में इतनी है के पूरी एक वेबसाइट बनायीं जा सके लेकिन आपका ज्यादा वक़्त न लेते हुए सुनते हैं ये दोनों गीत.

Song- Kyon feri nazar (mukesh), An Unreleased Song From the movie "Andaaz"


Song - Sun lo dil ka afsana (Lata-Rafi), An Unreleased song from the movie "Andaaz"


प्रस्तुति- मुवीन



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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