ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष की छठी कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास प्रस्तुति में हम आप तक पहुँचा रहे हैं शृंखला 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें'। हमारे नए दोस्तों की जानकारी के लिए हम यह बता दें कि इस शृंखला के तहत हम आप ही की यादों के ख़ज़ानों को पूरी दुनिया के साथ बाँट रहे हैं। ये वो यादें हैं जो यकीनन आपकी ज़िंदगी के अविस्मरणीय क्षण हैं, जिन्हें बाँटते हुए आपको जितना आनंद आता होगा, हमें भी इन्हें पढ़ते हुए उतना ही आनंद आ रहा है। तो हमारे नए दोस्तों से भी अनुरोध है कि आप अपनी ज़िंदगी के यादगार लम्हों व घटनाओं को हमारे साथ बाँटें हमें oig@hindyugm.com पर ईमेल भेज कर। आप किसी भी विषय पर हमें ईमेल कर सकते हैं। लेकिन हो सके तो किसी पुराने गीत के साथ अगर अपनी यादों को जोड़ सकते हैं तो फिर सोने पे सुहागा वाली बात होगी।
और अब आज का ईमेल। यह ईमेल पाकर हम जितने ख़ुश हुए हैं उससे भी ज़्यादा आश्चर्यचकित हुए हैं, क्योंकि यह ईमेल आया है जिबूति से। आप ने इस देश का नाम शायद सुना होगा या नहीं सुना होगा। यह अफ़्रीका महाद्वीप का एक बहुत ही छोटा सा देश है। उस दूर देश से यह ईमेल हमें लिखा है श्री महेन्द्र चौधरी ने। तो आइए सीधे इस ईमेल को पढ़ा जाए!
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प्रिय 'ओल्ड इस गोल्ड',
मेरा यह ईमेल पाकर शायद आपको हैरानी हो। मैं जिबूति (Djibouti) का रहने वाला हूँ। क्या आप ने कभी इस देश का नाम सुना है? यह अफ़्रीका में है और बहुत ही छोटा सा देश है। मेरा नाम महेन्द्र चौधरी है। मेरे पूर्वज बहुत समय पहले बिहार से निकलकर यहाँ आ कर बसे थे। वाणिज्यिक कारणों से ही शायद। और फिर यहीं के हो कर रह गए थे। मैं आज ६८ वर्ष का हूँ और मेरे दोनों बेटे भी यहीं ज़िबूति में हमारे साथ ही रहते हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं आज तक कभी भी भारत नहीं गया, या युं कहें कि जाने का अवसर नहीं मिला। मेरे पूर्वज जब यहाँ आए थे, तब वो बहुत गरीब थे। लेकिन धीरे धीरे आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और आज हमारा जेनरेशन एक मध्यम वर्गीय परिवार की हैसीयत रखता है। वैसे हम आर्थिक रूप से इतने भी बुलंद नहीं हैं कि इतनी महँगी यात्रा को तय करें और भारत जाएँ। और वैसे भी वहाँ हमारा कोई है भी तो नहीं जिन्हें हम जानते हैं। अब तो सब कुछ यही जिबूति में ही है हमारा। हम घर पर हिंदी में ही बात करते हैं। मेरे बेटे भी हिंदी बोल लेते हैं लेकिन पढ़ना व लिखना नहीं आता उन्हें। लेकिन मैंने एक काम ज़िंदगी में अच्छा ज़रूर किया कि मैंने हिंदी सीख ली। मेरी ख़ुशकिस्मती कि मेरा एक ऐसे भारतीय सज्जन से सम्पर्क हुआ यहीं जिबूति में जो यहाँ पर चंद सालों के लिए आए थे किसी प्रोजेक्ट पर। उनका नाम था अजय जोशी। उन्हीं के संस्पर्श में रह कर मैंने हिंदी सीख ली। और आज मुझे आपको हिंदी में यह ईमेल भेजते हुए बड़ा आनंद आ रहा है।
अजय जी का प्रोजेक्ट पूरा हो गया और वो भारत वापस चले गए। पहले पहले हम एक दूसरे से पत्र के माध्यम से संपर्क में रहे, लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गया। कई बरस बाद मैंने एक पत्र भेजा तो था लेकिन कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं क्या बात हुई। शायद पता बदल गया होगा या फिर कुछ और! उस ज़माने में अगर ईमेल और इंटरनेट होता तो शायद आसानी से एक दूसरे के सम्पर्क में रह सकते। आज मुझे नहीं मालूम वो कहाँ हैं, लेकिन ईश्वर से कामना करता हूँ कि वो जहाँ पर भी रहें, ख़ुश रहें। उनका मेरे जीवन में महत्वपूर्ण योगदान ही कहूँगा क्योंकि ये वो ही थे जिन्होंने मुझे अपनी राष्ट्रभाषा को लिखना सिखाया। मुझे मालूम है कि मेरी हिंदी अच्छी नहीं है, इसलिए आप ख़ुद ही इन्हें सुधार लीजिएगा।
जब से इंटरनेट पर हिंदी के वेबसाइटों का बोलबाला हुआ है, मैं इन तमाम वेबसाइटों को सर्फ़ करता रहता हूँ। 'हिंद युग्म' मेरा मनपसंद ब्लॊग है जिसका स्तर बहुत ऊँचा है। यहाँ जो कुछ भी पोस्ट होता है, उसका एक अलग ही दर्जा होता है। 'आवाज़' के तमाम स्तंभों के तो क्या कहने! मुझे हिंदी फ़िल्मों का ज़्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पुराने गानें सुन कर बहुत अच्छा लगता है और इसमें दी जाने वाली जानकारियों से हिंदी फ़िल्म संगीत के उस पुराने ज़माने का एक चित्र उभरता है आँखों के सामने। मैं चाहता हूँ कि मैं अपने उस दोस्त व मेरे हिंदी के गुरु श्री अजय जोशी जी को एक गीत डेडिकेट करूँ। अब देखिए, भारत में शिक्षक दिवस भी सर पर है, तो क्यों ना अपने इस टीचर को इसी बहाने मैं याद कर लूँ। कौन सा गीत डेडिकेट करूँ? आप ही बताइए ना। चलिए आप ही कोई अच्छा सा गीत बजा दीजिए मेरी तरफ़ से अजय जी के लिए।
आप सब मुझसे उम्र में छोटे ही होंगे मेरा यह विश्वास है। इसलिए आप सभी को मेरी और मेरे परिवार की तरफ़ से बहुत सारा प्यार और आशिर्वाद। ऐसे ही हिंदी की सेवा करते रहिए। ईश्वर आपको जीवन में तरक्की दे।
आपका,
महेन्द्र चौधरी,
जिबूति
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महेन्द्र जी, हम कह नहीं सकते कि आपके इस ईमेल को पा कर हम किस किस तरह से धन्य हो गए हैं। यह बहुत ही ज़्यादा आश्चर्य की बात है कि उस गुमनाम अफ़्रीकन देश जिबूति में रह कर भी और एक बार भी भारत आए बिना आप यहाँ की संस्कृति से इतने वाक़ीफ़ हैं और सब से बड़ी बात है कि आपको हिंदी भाषा से इतना ज़्यादा लगाव है। हर कोई आपकी तरह विदेश में रह कर हिंदी नहीं सीख सकता। और रही बात आपके ईमेल में ग़लतियों की, तो भाषा तो वह होती है कि जिससे एक दूसरे के बीच विचारों का आदान प्रदान हो सके। आपके ईमेल में लिखा हर एक शब्द हमारे दिल में उतर गया है। बस यही काफ़ी है हमारे लिए। हमें अफ़सोस है कि आपका वो दोस्त और हिंदी टीचर आपसे बिछड़ गया, लेकिन क्या पता कभी कहीं उनसे आपकी मुलाक़ात हो जाए। आप ने गीत चुनने का ज़िम्मा हमें दे दिया है। तो महेन्द्र जी, क्योंकि आपको तलाश है अपने उस दोस्त व टीचर की, तो क्यों ना १९६२ की फ़िल्म 'रंगोली' का वह सदाबहार गीत अजय जी के नाम डेडिकेट किया जाए - "छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल"। इस गीत के दो वर्ज़न है - ख़ुशनुमा वर्ज़न किशोर कुमार की आवाज़ में है तो ग़मज़दा वर्ज़न लता जी ने गाया है। आइए इन दोनों वर्ज़नों को एक के बाद एक सुनते हैं। अजय जोशी के साथ साथ सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ।
गीत - छोटी सी ये दुनिया (रंगोली - किशोर/ लता)
महेन्द्र जी, हमें फिर से ईमेल कर के ज़रूर बताइएगा कि हमारे पसंद का यह गीत आपको कैसा लगा। तो दोस्तों, ये था इस हफ़्ते का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें'। आप से यह अनुरोध है कि अगर आपने जिबूति का नाम नहीं सुना हुआ है तो अफ़्रीका के मानचित्र में उसे ढूंढ़ने की कोशिश करें। आपको यह देश उस क्षेत्र में मिलेगा जहाँ अफ़्रीका और मिडल-ईस्ट एक दूसरे से बिलकुल पास पास हैं। और अब एक विशेष सूचना -
विशेष सूचना - २८ सितंबर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का जन्मदिवस है। इस उपलक्ष्य पर २५ सितंबर के 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़नें' में होगा 'लता मंगेशकर विशेष'। लता जी की तारीफ़ में कुछ कहना चाहते हैं? या उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ देना चाहते हैं? उनके किसी गीत से जुड़ी हुई कोई ख़ास यादें हैं आपकी? लता जी के गाए आपके फ़ेवरीट १० गीत कौन कौन से हैं? लता जी से जुड़ी अगर कोई भी बात हो आपके मन में जिसे आप हम सभी के साथ बाँटना चाहें, तो हमें ईमेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। बहुत ही ख़ास होगा यह विशेषांक। अगर आप चाहते हैं कि इस विशेषांक में आपका नाम और ईमेल भी दर्ज हो जाए तो अपना ईमेल हमें २० सितंबर से पहले पहले भेज दें।
इसी सूचना के साथ हम आज इजाज़त ले रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल से। अगले शनिवार फिर इस विशेषांक के साथ उपस्थित होंगे, लेकिन हमारी आपकी अगली मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत कड़ी में। तब तक के लिए विदा, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!
प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी



 कैलिफोर्निया में रह रहे वेंकटेश संगीत को अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा मानते हैं। इन्होंने अब तक न सिर्फ़ हिन्दुस्तानी कलाकारों के लिए धुनें तैयार की हैं, बल्कि कई सारे अमरीकियों के लिए भी गानों का निर्माण किया है। ये वहाँ पर "सुर म्युज़िक अकादमी" नाम की एक संगीत संस्था चलाते हैं, जहाँ पर हिन्दुस्तानी संगीत, हिन्दुस्तानी साज़ और नृत्य की शिक्षा दी जाती है। आवाज़ पर "तेरे बिन" गाने के साथ ये पहली बार हाज़िर हुए हैं।
 इनका जन्म मुंबई में हुआ , लेकिन जब ये बस ग्यारह साल की थीं तभी अपने परिवार के साथ आस्ट्रेलिया चली गईं। वहाँ पर पलने-बढने के बावजूद इन्हें हिन्दुस्तानी संगीत और कविताओं से बहुत प्यार रहा है। शादी के बाद ये कैलिफ़ोर्निया आ गईं और आठ साल से अमरीका में हीं हैं। ये पेशे से एक जर्नलिस्ट (पत्रकार) और पब्लिक रिलेशन्स कंसल्टेंट हैं। जब भी वक़्त मिलता है, ये गीत और शेर लिख लिया करती हैं। "तेरे बिन" आवाज़ पर इनकी पहली प्रस्तुति है।
 १९६९ में जब निलंजन महज ६ साल के थे, तभी से इन्होंने बाल-कलाकार के तौर पर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। बचपन से हीं (छठी कक्षा से) इनमें संगीतकार बनने की एक ललक थी। इसलिए इन्होंने वोकल म्युज़िक, गिटार, सरोद, मेलोडिका, पियानो, सिंथेसाइज़र एवं इंडो-अफ़्रो वाद्य-यंत्रों,जिनमें ड्रम इन्हें सबसे ज्यादा पसंद था, को सीखना शुरू कर दिया। ये फ़्युज़न संगीत एवं एथनीक तरीकों(स्टाइल्स) में पारंगत हैं। ये अपनी धुनों को प्रोग्राम करना, साथ हीं साथ अपने स्टुडियो में मिक्स एवं रिकार्ड करना काफी पसंद करते हैं। किसी भी धुन को अरेंज करते समय इनकी दिली ख्वाहिश रहती है कि कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हो। "तेरे बिन", जो आवाज़ पर इनकी पहली पेशकश है, को अरेंज करते समय भी इन्होंने इसी बात का ध्यान रखा है।
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म के ताजातरीन एल्बम 







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मन जाने - विवधताओं से भरी अल्बम








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सुप्रसिद्ध गायक, गीतकार और संगीतकार रविन्द्र जैन यानी इंडस्ट्री के दाद्दु पर एक विशेष शृंखला जिसके माध्यम हम सलाम कर रहे हैं फिल्म संगीत जगत में, इस अदभुत कलाकार के सुर्रिले योगदान को
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शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।


