Saturday, December 4, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१९) - ई मेल तो नहीं पर आज बात एक खत की जो किशोर दा ने लिखा था लता को



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक में। युं तो हम इसमें 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' पेश किया करते हैं, लेकिन आज इसमें हम आपके लिए कुछ अलग चीज़ लेकर आये हैं। यह ईमेल तो नहीं है, लेकिन ख़त ज़रूर है। वही ख़त, जिसे हम काग़ज़ पर लिखा करते हैं। और पता है आज जिस ख़त को यहाँ हम शामिल करने वाले हैं, उसे किसने लिखा है और किसको लिखा है? यकीन करेंगे आप अगर हम कहें कि किशोर कुमार ने यह ख़त लिखा है लता मंगेशकर को? दिल थाम के बैठिए दोस्तों, पिछले दिनों लता जी ने किशोर दा के एक ख़त को स्कैन कर ट्विटर पर अपलोड किया था, तो मैंने सोचा कि क्यों ना उसे डाउनलोड करके अपनी उंगलियों से टंकित कर आपके लिए इस स्तंभ में पेश करूँ। तो चलिए अब मैं बीच में से हट जाता हूँ, ये रहा किशोर दा का ख़त लता जी के नाम...

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28.11.65

बहन लता,

अच्छी तो हो! अचानक एक मुसीबत में आ फंसा हूँ। तुम ही मेरी जीवन नैय्या पार लगा सकती हो। घबराने की बात नहीं पर घबराने की बात भी है!!! सुनो, ज़िंदगी में पहली मर्तबा फ़ौजी भाइयों की सेवा करने जा रहा हूँ। तुम तो जानती हो कि मैं कभी किसी समारोह या गैदरिंग् में भाग नहीं लेता, लेकिन यह एक ऐसा अवसर है जिसे मैं टाल नहीं पा रहा हूँ ... हाँ, तो मैं कह रहा था कि अगर आज का गाना तुम अपनी मर्ज़ी से किसी दूसरी तारीख़ पे रखवा दो तो मैं तुम्हारा उपकार ज़िंदगी भर नहीं भूलूँगा... यह एक भाई की विनती है अपनी बहिन से। आशा है तुम मेरी बात को समझ गई होगी। महाराज कल्याणजी आनंदजी के साथ मुझे गाने का बेहद शौक है और साथ में तुम हो तो सोने पे सुहागा। कैसा अच्छा है ये प्रेम का धागा... टूटने ना पाए.. अंग्रेज़ी में लिखना चाहता था मगर एक हिंदुस्तानी होने के नाते मैंने हिंदी में ही लिखना उचित समझा। मैं जानता हूँ तुम्हे कठिनाई होगी, लेकिन मेरे लिए किसी प्रकार बात को बना दो। और क्या लिखूँ, बस तुम सब सम्भाल लेना। दिसंबर दो, तीन, चार, पाँच तक किसी भी दिन, किसी भी वक़्त रिकार्डिंग् रखवा दो। मैंने रात को फ़ोन किया था लेकिन तुम निद्रा में मग्न थी। मैंने जगाना उचित नहीं समझा।

अच्छा बहन, लौटने के बाद फिर भेंट होगी। मेरा प्यार, बड़ों को प्रणाम, छोटों को स्नेहाशीष,

तुम्हारा ही भाई,

किशोर दा
"गड़बड़ी"


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दोस्तों, देखा आपने लता जी और किशोर दा के बीच किस तरह का भाई-बहन का रिश्ता था! आइए इसी रिश्ते को सलाम करते हुए आज आपको दो ऐसे गीत सुनवाए जाएँ जो अपने आप में बेहद अनूठे हैं। अनूठे इसलिए कि पहले गीत के संगीतकार हैं लता मंगेशकर और गायक हैं किशोर कुमार, और दूसरे गीत के संगीतकार हैं किशोर कुमार और गायिका हैं लता मंगेशकर। क्यों, एक बार फिर से चौंक गए ना आप? हिंदी में तो नहीं, लेकिन बंगला के दो ऐसे गीत ज़रूर हैं। तो लीजिए एक के बाद एक इन दोनों गीतों को सुनिए, हमें पूरी उम्मीद है कि अलग ही अनुभूति आपको मिलेगी।

पहले ये रहा लता जी के संगीत निर्देशन में किशोर दा की आवाज़...

गीत - तारे आमि चोखे देखिनी, तार ऒनेक गॊल्पो शुनेछी


इस गीत के मुखड़े का तरजुमा कुछ इस तरह का है - "उसे मैंने अपनी आँखों से तो नहीं देखा, पर उसकी बहुत सारी बातें लोगों से सुनी है, और इन बातों को सुनने के बाद मैं उससे थोड़ा थोड़ा प्यार करने लगा हूँ"।

और ये है किशोर दा के संगीत में लता जी की आवाज़...

गीत - की लिखी तोमाये, तुमि छाड़ा आर कोनो किछु भालो लागेना आमार


गीत के मुखड़े का भाव यह था कि "क्या लिखूँ तुम्हे, तुम्हारे बिना और कुछ भी मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या लिखूँ तुम्हे"। देखिए दोस्तों, हमने किशोर दा के लिखे ख़त से शुरुआत की थी, और अब इस अंक का समापन भी एक ऐसे गीत से हुआ जिसमें भी ख़त में कुछ लिखने की बात कही गई है। आप भी हमें ज़रूर लिख भेजिएगा कि कैसा लगा आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आज का यह साप्ताहिक विशेषांक। हमारी कोशिश हमेशा यही रहती है कि अच्छे से अच्छा और मनोरंजक प्रस्तुति हम आपके लिए तैयार कर सकें। इसमें आप भी अपना अमूल्य योगदान हमें दे सकते हैं बस एक ईमेल के बहाने। तो लिख भेजिएगा अपनी यादों के ख़ज़ाने oig@hindyugm.com के पते पर। अगले शनिवार आपसे फिर मुलाक़ात होगी इस साप्ताहिक विशेषांक में, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी के साथ कल शाम को ही हम हाज़िर होंगे, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

सुजॉय चट्टर्जी

मृणाल पाण्डेय की कहानी 'लड़कियाँ'



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की संस्मरणात्मक कहानी "नसीब अपना अपना" का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं मृणाल पाण्डेय की कहानी "लड़कियाँ", जिसको स्वर दिया है प्रीति सागर ने। कहानी "लड़कियाँ" का कुल प्रसारण समय 18 मिनट 23 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

"अगर प्रोफेशनल दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउंटेंट नप सकता है, तो एक गैरजिम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं?"
~ मृणाल पाण्डेय

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"जब तुम लोग लड़कियों को प्यार नहीं करते तो झूठ मूठ में दिखावा क्यों करते हो?"
(मृणाल पाण्डेय की कहानी 'लड़कियाँ' से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#114th Story, Ladkiyan: Mrinal Pandey/Hindi Audio Book/2010/46. Voice: Priti Sagar

Thursday, December 2, 2010

दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है....महबूब खान ने दिल तो नहीं तोडा मगर दिल उन्हें ढूंढ रहा है आज भी शायद



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 540/2010/240

'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इस शृंखला के दूसरे खण्ड में इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्मकार महबूब ख़ान के फ़िल्मों के गानें और महबूब साहब के फ़िल्मी यात्रा का संक्षिप्त विवरण। आज हम आ पहुँचे हैं इस खण्ड की अंतिम कड़ी पर। कल हमारी चर्चा आकर रुकी थी महबूब साहब की सब से मशहूर फ़िल्म 'मदर इण्डिया' पे आकर। आइए 'मदर इण्डिया' फ़िल्म से जुड़े कुछ और रोचक तथ्य आपको बताएं। फ़िल्म के ओपेनिंग् सीक्वेन्स में एक हथोड़ा और कटारी दिखाया जाता है, जो कि महबूब साहब की कंपनी का लोगो था। लेकिन क्योंकि इस फ़िल्म को ऒस्कर में शामिल किया जा रहा था और ऐण्टि-कम्युनिस्ट का दौर था, इसलिए इस सीक्वेन्स को फ़िल्म से हटा दिया गया था। शुरु शुरु में सुनिल दत्त द्वारा निभाया गया बिरजु का किरदार साबू द्वारा निभाया जाना था, जो कि भारतीय मूल के एक मशहूर हॊलीवूड ऐक्टर थे। शूटिंग के दौरान एक अग्निकांड के सीक्वेन्स में नरगिस आग के घेरे में आ गईं थीं और आग बेकाबू हो गयी था। ऐसे में ख़ुद सुनिल दत्त ने एक कम्बल के सहारे नरगिस को आग से बाहर निकाला था। और यहीं से दोनों में प्रेम संबंध शुरु हुआ और एक साल के अंदर दोनों ने शादी भी कर ली। ये तो थी कुछ दिलचस्प बातें 'मदर इण्डिया' के बारे में। आइए अब महबूब साहब की फ़िल्मी सफ़र के अगले पड़ाव की ओर बढ़ा जाए। 'मदर इण्डिया' के बाद ६० के दशक में उन्होंने एक और महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'सन ऒफ़ इण्डिया' की योजना बनाई। उनका यह सपना था कि यह फ़िल्म 'मदर इण्डिया' को भी पीछे छोड़ दे, लेकिन निशाना चूक गया और बदकिस्मती से यह महबूब ख़ान की सबसे कमज़ोर फ़िल्मों में से एक साबित हुई। यह १९६२ की फ़िल्म थी। इसके दो साल बाद, महबूब ख़ान कशमीर की कवयित्री-रानी हब्बा ख़ातून पर एक फ़िल्म बनाने की परियोजना बना रहे थे, लेकिन काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हम सब से हमेशा हमेशा के लिए जुदा कर दिया। २८ मई, १९६४ को महबूब ख़ान इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए, और पीछे छोड़ गए अपनी रचनात्मक्ता, अपने उद्देश्यपूर्ण फ़िल्मों की अनमोल धरोहर। फ़िल्म जगत कर्ज़दार है महबूब ख़ान के उनके अमूल्य योगदान के लिए।

और अब आज का गीत। आज हम आपको सुनवा रहे हैं लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के गाये हुए युगल गीतों में से चुन कर एक बेहद लोकप्रिय गीत फ़िल्म 'सन ऒफ़ इण्डिया' से - "दिल तोड़ने वाले तूझे दिल ढूंढ़ रहा है, आवाज़ दे तू कौन सी नगरी में छुपा है"। महबूब साहब की और तमाम फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी शक़ील और नौशाद की जोड़ी ने गीत संगीत का पक्ष सम्भाला था। महबूब ख़ान द्वारा निर्मित व निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे कमलजीत और सिमी गरेवाल। महबूब साहब के बेटे साजिद ख़ान ने बाल कलाकार की भूमिका निभाई थी जिन पर शांति माथुर के गाये "नन्हा मुन्ना राही हूँ" और "आज की ताज़ा ख़बर" गीत फ़िल्माये गये थे। ये दोनों ही गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं। महबूब साहब को इस फ़िल्म के निर्देशन के लिए उस साल के 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' के लिए नॊमिनेट किया गया था। तो लीजिए लता-रफ़ी की आवाज़ों में यह जुदाई वाला गीत सुना जाए। हम भी महबूब साहब के लिए यही कहते हैं कि तूझे दिल ढूंढ़ रहा है, आवाज़ दे तू कौन सी नगरी में छुपा है!!! इसी के साथ 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला का दूसरा खण्ड अब यहीं सम्पन्न होता है जिसमें हमने महबूब ख़ान को फ़ीचर किया। रविवार से इस शृंखला के तीस्रे खण्ड में एक और महान फ़िल्मकार का फ़िल्मी सफ़र लेकर हम पुन: उपस्थित होंगे, और शनिवार को 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में तशरीफ़ लाना ना भूलिएगा। अब दीजिए इजाज़त, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि साजिद ख़ान महबूब ख़ान के गोद लिए हुए पुत्र थे, जो 'मदर इण्डिया' और 'सन ऒफ़ इण्डिया' में बतौर बालकलाकार नज़र आये। १९८३ की फ़िल्म 'हीट ऐण्ड डस्ट' में वो आख़िरी बार नज़र आये थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०१ /शृंखला ०५
गीत के अंतरे से ये हिस्सा सुनें -


अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ लता जी की है.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - बताएं कि बातें अब किस फिल्मकार की होंगीं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कल दरअसल मुझे कार्यालय जल्दी जाना पड़ा, सोचा था कि वहाँ जाकर अपडेट कर दूँगा, मगर कुछ यूँ फंसा काम में कि याद ही नहीं रहा.....लगभग शाम ८-९ बजे तक फ्री हुआ, तब जाकर शरद जी का कमेन्ट पढ़ा. माफ़ी चाहूँगा....खैर एक समाधान है अगर आप सब को मंजूर हो तो....कल की पहेली से पहले श्याम जी के १२ अंक थे और शरद जी के १०. कल सबसे पहले शरद जी उपस्थित हुए और जाहिर है उन्होंने गीत पहचान लिया था, वो २ अंकों वाले सवाल का सही जवाब देते इस पर उनके अब तक रिकॉर्ड को देखकर जरा भी संशय नहीं किया जा सकता. श्याम जी उनके बाद आये और उन्होंने गायक का नाम भी बता ही दिया, यानी कि अगर कोई १ अंक वाला जवाब होता तो वो भी जरूर बता देते. तो इस तरह अगर शरद जी २ अंक कमा भी लेते तो भी श्याम जी उनसे १ अंक से आगे रहते. अब अगर पहेली को निरस्त भी किया जाए तो उस स्तिथि में भी श्याम जी ही विजेता ठहरेगें. तो हम चौथी शृंखला के विजेता के रूप में श्याम जी नाम रखते हैं, अगर चूंकि ये भूल हुई है, तो आप सब की राय अपेक्षित है.....आज से नयी शृंखला आरंभ हो रही है....शुभकामनाएँ

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, December 1, 2010

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे.....एक क्लास्सिक फिल्म का गीत जिसके निर्देशक थे महबूब खान



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 539/2010/239

हबूब ख़ान की फ़िल्मी यात्रा पर केन्द्रित इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड आप पढ़ और सुन रहे हैं। इस खण्ड की आज चौथी कड़ी में हम रुख़ कर रहे हैं महबूब साहब के ५० के दशक में बनीं फ़िल्मों की तरफ़। वैसे पिछले तीन कड़ियों में हमने गानें ५० के दशक के ही सुनवाए हैं, जानकारी भी दी है, लेकिन महबूब साहब के फ़िल्मी सफ़र के ३० और ४० के दशक के महत्वपूर्ण फ़िल्मों का ज़िक्र किया है। आइए आज की कड़ी में उनकी बनाई ५० के दशक की फ़िल्मों को और थोड़े करीब से देखा जाए। इस दशक में उनकी बनाई तीन मीलस्तंभ फ़िल्में हैं - 'आन', 'अमर' और 'मदर इण्डिया'। 'आन' १९५२ की सफलतम फ़िल्मों में से थी, जिसे भारत के पहले टेक्नो-कलर फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त है। दिलीप कुमार, निम्मी और नादिर अभिनीत इस ग्लैमरस कॊस्ट्युम ड्रामा में दिखाये गये आलिशान राज-पाठ और युद्ध के दृष्य लोगों के दिलों को जीत लिया। 'आन' बम्बई के रॊयल सिनेमा में रिलीस की गयी थी । इस फ़िल्म के सुपरहिट संगीत के लिए नौशाद ने कड़ी मेहनत की थी। उन्होंने १०० पीस ऒरकेस्ट्रा का इस्तेमाल किया पार्श्वसंगीत तैयार करने के लिए। उस ज़माने में ऐसा बहुत कम ही देखा जाता था। केवल शंकर जयकिशन ने १०० पीस ऒरकेस्ट्रा का इस्तेमाल किया था 'आवरा' में। नौशाद साहब की आदत थी कि वो अपने नोटबुक में गानों के नोटेशन्स लिख लिया करते थे। और इसी का नतीजा था कि 'आन' का पार्श्वसंगीत लंदन में री-रेकॊर्ड किया जा सका। अमेरिका में एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है 'आन' के नोटेशन्स की, और जिसे नौशाद साहब के हाथों ही जारी किया गय था। इस तरह का सम्मान पाने वाले नौशाद पहले भारतीय संगीतकार थे। 'आन' के बाद १९५४ में महबूब ख़ान ने बनाई 'अमर' जिसमें दिलीप कुमार और निम्मी के साथ मधुबाला को लिया गया। शक़ील - नौशाद ने एक बार फिर अपना कमाल दिखाया। इस फ़िल्म के ज़्यादातर गानें शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। लेकिन ५० के दशक में महबूब ख़ान की सब से महर्वपूर्ण आई १९५७ में - 'मदर इण्डिया', जो हिंदी सिनेमा का एक स्वर्णिम अध्याय बन चुका है। अपनी १९४० की फ़िल्म 'औरत' का रीमेक था यह फ़िल्म। नरगिस, सुनिल दत्त, राज कुमार और राजेन्द्र कुमार अभिनीत यह फ़िल्म १४ फ़रवरी के दिन प्रदर्शित किया गया था। 'मदर इण्डिया' की कहानी राधा (नरगिस) की कहानी थी, जिसका पति (राज कुमार) एक दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गँवाने के बाद उससे अलग हो जाता है। राधा अपने बच्चों को बड़ा करती है हर तरह की सामाजिक और आर्थिक परेशानियों का सामना करते हुए। उसका एक बेटा बिरजु (सुनिल दत्त) बाग़ी बन जाता है जबकि दूसरा बेटा रामू (राजेन्द्र कुमार) एक आदर्श पुत्र है। अंत में राधा बिरजु की हत्या कर देती है और उसका ख़ून उनकी ज़मीन को उर्वर करता है। 'मदर इण्डिया' के लिए महबूब ख़ान को फ़िल्मफ़ेयर के 'सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म' और 'सर्वश्रेष्ठ निर्देशक' के पुरस्कर मिले थे। नरगिस को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था। इसके अलावा फ़रदून ए. ईरानी को सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र और कौशिक को सर्वश्रेष्ठ ध्वनिमुद्रण का पुरस्कार मिला था।

आज की कड़ी में हम आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'मदर इण्डिया' का गीत "दुख भरे दिन बीते रे भइया अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे"। मोहम्मद रफ़ी, शम्शाद बेग़म, आशा भोसले और मन्ना डे की आवाज़ें, और शक़ील-नौशाद की जोड़ी। इस गीत के बनने की कहानी ये रही मन्ना दा के शब्दों में (सौजन्य: 'हमारे महमान', विविध भारती) - "जब हम 'मदर इण्डिया' के गा रहे थे वह "दुख भरे दिन बीते रे भइया...", अभी मैं, रफ़ी साब, आशा, गा रहे थे सब लोग, और शम्शाद बाई थीं, और कोरस। रिहर्सल करने के बाद, नौशाद साहब के घर में हो रहा था रिहर्सल, तो बोले कि 'अच्छा मन्ना साहब, कल फिर कितने बजे?' तो मैंने बोला कि 'ठीक है नौशाद साहब, मैं आ जाऊँगा १० बजे'। तो रफ़ी साहब, बहुत धीरे बोलते थे, कहने लगे, 'दादा, कल सवेरे रेकॊर्डिंग् है'। बोला कि 'नौशाद साहब, रफ़ी साहब की कल रेकॊर्डिंग् है'। नौशाद साहब बोले कि 'ठीक है शाम को बैठते हैं'। तो आशा ने कहा, 'शाम को तो मैं नहीं आ सकती, शाम को रेकोर्डिंग् है मेरी'। 'अच्छा फिर परसों बैठते हैं'। तो परसों का तय हो गया। तो परसों सब फिर मिले और फिर से "दुख भरे दिन...", फिर से सब किया। कुछ तीन तीन घंटे रिहर्सल। अब फिर कब करना है? तो किसी ने पूछा कि 'और भी रिहर्सल करना है?' 'क्या बात कर रहे हैं?', नौशाद साहब। 'नहीं साहब, दो एक रिहर्सल चाहिए'। 'तो फ़लाना दिन बैठते हैं, ठीक है न रफ़ी मियाँ?' 'हाँ'। 'क्यों शम्शाद बाई?' 'आशा बाई, ठीक है ना?' 'मन्ना जी तो आएँगे'। ऐसे हम फिर मिले। इस तरह से रेकोडिंग् करते थे। पूरी तरह से तैयार करने के बाद जम के रेकोडिंग् 'स्टार्ट' हुई। नौशाद साहब पहुँच गए रेकॊर्डिंग् बूथ में। रेकोडिस्ट के पास जाकर बैठ गए। नौशाद साहब के रिहर्सल्स इतने पर्फ़ेक्ट हुआ करते थे कि रेकॊर्डिंग् के बीच में कभी कट नहीं होते थे। लेकिन इस गाने में 'रेडी वन टू थ्री फ़ोर स्टार्ट', "दुख भरे दिन बीते रे भइया अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे", "कट", सब चुप। नौशाद साहब बाहर आये, 'वाह वाह वाह वाह, बेहतरीन, नंदु, तुमने वह क्या बजाया उधर?' वो कहता है, 'नौशाद साहब, मैंने यह बजाया'। 'वह कोमल निखार, वह ज़रा सम्भाल ना, वह ज़रा ठीक नहीं है, एक मर्तबा और'। 'अरे रफ़ी साहब, वह कौन सा नोट लिया उपर? "देख रे घटा घिर के आई, रस भर भर लाई, हो ओ ओ ओ ओ...", इसको ज़रा सम्भालिए, यह फिसलता है उधर'। 'एक मर्तबा और'। और फिर अंदर चले गए।" तो देखा दोस्तों, कि किस तरह से इस गीत की रेकॊर्डिंग् हुई थी। तो लीजिए इस अविस्मरणीय फ़िल्म का यह अविस्मरणीय गीत सुनते हैं महबूब ख़ान को सलाम करते हुए।



क्या आप जानते हैं...
कि 'मदर इण्डिया' को ऒस्कर पुरस्कारों के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म की श्रेणी में नामांकन मिला था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली १० /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान है इसलिए कोई अन्य सूत्र नहीं.

सवाल १ - किन किन पुरुष गायकों की आवाज़ है इस समूह गीत में - २ अंक
सवाल २ - महिला गायिकाओं के नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी २ अंक अभी भी पीछे हैं यानी आज अगर श्याम जी एक अंक वाले सवाल का भी जवाब दे देते हैं तो बाज़ी उन्हीं के हाथ रहेगी...देखते हैं क्या होता है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

छल्ला कालियां मर्चां, छल्ला होया बैरी.. छल्ला से अपने दिल का दर्द बताती विरहणी को आवाज़ दी शौकत अली ने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०४

यूँतो हमारी महफ़िल का नाम है "महफ़िल-ए-ग़ज़ल", लेकिन कभी-कभार हम ग़ज़लों के अलावा गैर-फिल्मी नगमों और लोक-गीतों की भी बात कर लिया करते हैं। लीक से हटने की अपनी इसी आदत को ज़ारी रखते हुए आज हम लेकर आए हैं एक पंजाबी गीत.. या यूँ कहिए पंजाबी लोकगीतों का एक खास रूप, एक खास ज़ौनर जिसे "छल्ला" के नाम से जाना जाता है। इस "छल्ला" को कई गुलुकारों ने गाया है और अपने-अपने तरीके से गाया है। तरीकों के बदलाव में कई बार बोल भी बदले हैं, लेकिन इस "छल्ला" का असर नहीं बदला है। असर वही है, दर्द वही है... एक "विरहणी" के दिल की पीर, जो सुनने वालों के दिलों को चीर जाती है। आखिर ये "छल्ला" होता क्या है, इसके बारे में "एक शाम मेरे नाम" के मनीष जी लिखते हैं (साभार):

जैसा कि नाम से स्पष्ट है "छल्ला लोकगीत" के केंद्र में वो अंगूठी होती है, जो प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलती है। पर जब उसका प्रेमी दूर देश चला जाता है तो वो अपने दिल का हाल किससे बताए? और किससे? उसी छल्ले से जो उसके साजन की दी हुई एकमात्र निशानी है। यानि कि छल्ला लोकगीत छल्ले से कही जाने वाली एक विरहणी की आपबीती है। छल्ले को कई पंजाबी गायकों ने समय-समय पर पंजाबी फिल्मों और एलबमों में गाया है। इस तरह के जितने भी गीत हैं उनमें रेशमा, इनायत अली, गुरदास मान, रब्बी शेरगिल और शौकत अली के वर्ज़न काफी मशहूर हुए।

तो आज हम अपनी इस महफ़िल को शौकत अली के गाए "छल्ला" से सराबोर करने वाले हैं। हम शौकत अली को सुनें, उससे पहले चलिए इनके बारे में कुछ जान लेते हैं। (सौजन्य: विकिपीडिया)

शौकत अली खान पाकिस्तान के एक जानेमाने लोकगायक हैं। इनका जन्म "मलकवल" के एक फ़नकरों के परिवार में हुआ था। शौकत ने अपने बड़े भाई इनायत अली खान की मदद से १९६० के दशक में हीं अपने कॉलेज के दिनों में गाना शुरू कर दिया था। १९७० से ये ग़ज़ल और पंजाबी लोकगीत गाने लगे। १९८२ में जब नई दिल्ली में एशियन खेलों का आयोजन किया गया था, तो शौकत अली ने वहाँ अपना लाईव परफ़ारमेंश दिया। इन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन प्रेसिडेंशियल अवार्ड भी प्राप्त है। अभी हाल हीं में आए "लव आज कल" में इनके गाये "कदि ते हंस बोल वे" गाने (जो कि अब एक लोकगीत का रूप ले चुका है) की पहली दो पंक्तियाँ इस्तेमाल की गई थी। शौकत अली साहब के कई गाने मक़बूल हुए हैं। उन गानों में "छल्ला" और "जागा" प्रमुख हैं। इनके सुपुत्र भी गाते हैं, जिनका नाम है "इमरान शौकत"।

"छल्ला" गाना अभी हाल में हीं इमरान हाशमी अभिनीत फिल्म "क्रूक" में शामिल किया गया था। वह छल्ला "लोकगीत वाले सारे छ्ल्लों" से काफ़ी अलग है। अगर कुछ समानता है तो बस यह है कि उसमें भी "एक दर्द" (आस्ट्रेलिया में रह रहे भारतीयों का दर्द) को प्रधानता दी गई है। उस गाने को बब्बु मान ने गाया है और संगीत दिया है प्रीतम ने। प्रीतम ने उस गाने के लिए "किसी लोक-धुन" को क्रेडिट दी है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। दो महिने पहले जब मैंने और सुजॉय जी ने "क्रूक" के गानों की समीक्षा की थी, तो उस पोस्ट की टिप्पणी में मैंने सच्चाई को उजागर करने के लिए यह लिखा था: वह गाना बब्बु मान ने नहीं बनाया था, बल्कि "बब्बल राय" ने बनाया था "आस्ट्रेलियन छल्ला" के नाम से... वो भी ऐं वैं हीं, अपने कमरे में बैठे हुए। और उस वीडियो को यू-ट्युब पर पोस्ट कर दिया। यू-ट्युब पर उस वीडियो को इतने हिट्स मिले कि बंदा फेमस हो गया। बाद में उसी बंदे ने यह गाना सही से रीलिज किया .. बस उससे यह गलती हो गई कि उसने रीलिज करने के लिए बब्बु मान के रिकार्ड कंपनी को चुना... और आगे क्या हुआ, यह हम सबके सामने है। कैसेट पर कहीं भी बब्बल राय का नाम नहीं है, जबकि गाना पूरा का पूरा उसी से उठाया हुआ है। यह पूरा का पूरा पैराग्राफ़ आज की महफ़िल के लिए भले हीं गैर-मतलब हो, लेकिन इससे दो तथ्य तो सामने आते हीं है: क) हिन्दी फिल्मों में पंजाबी संगीत और पंजाबी संगीत में छल्ला के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। ख) हिन्दी फिल्म-संगीत में "कॉपी-पेस्ट" वाली गतिविधियाँ जल्द खत्म नहीं होने वाली और ना हीं "चोरी-सीनाजोरी" भी थमने वाली है।

बातें बहुत हो गईं। चलिए तो अब ज्यादा समय न गंवाते हुए, "छल्ला" की ओर अपनी महफ़िल का रूख कर देते हैं और सुनते हैं ये पंजाबी लोकगीत। मैं अपने सारे पंजाबी भाईयों और बहनों से यह दरख्वास्त करूँगा कि जिन्हें भी इस नज़्म का अर्थ पता है, वो हमसे शेयर ज़रूर करें। हम सब अच्छे गानों और ग़ज़लों के शैदाई हैं, इसलिए चाहते हैं कि जो भी गाना, जो भी ग़ज़ल हमें पसंद हो, उसे समझे भी ज़रूर। बिना समझे हम वो आनंद नहीं ले पाते, जिस आनंद के हम हक़दार होते हैं। उम्मीद है कि आप हमारी मदद अवश्य करेंगे। इसी विश्वास के साथ आईये हम और आप सुनते हैं "छल्ला":

जावो नि कोई मोर लियावो,
नि मेरे नाल गया नि लड़ के,
अल्लाह करे आ जावे सोणा,
देवन जान कदमा विच धर के।

हो छल्ला बेरीपुर ए, वे वतन माही दा दूरे,
जाना पहले पूरे, वे गल्ल सुन छल्लया
ओ छोरा,
दिल नु लावे झोरा/छोरा

हो छल्ला कालियां मर्चां, ओए मोरा पी के मरसां,
सिरे तेरे चरसां, वे गल्ल सुन छल्लया,
ओ ढोला,
वे तैनु कागा होला/ओला

हो छल्ला नौ नौ थेवे, पुत्तर मित्थे मेवे,
अल्लाह सब नु देवे, छल्ला छे छे
ओ पाया,
ओए दिया तन/धन ने/दे पराया

हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन _____
ढोला,
ओए सार के कित्ते कोला

हो छल्ला होया बैरी, सजन भज गए कचहरी,
रोवां शिकर दोपहरी, ओ गल सुन छलया
पावे,
बुरा वेला ना आवे

हो छल्ला हिक वो कमाई, ओए जो बहना दे भाई,
अल्लाह अबके जुदाई, परदेश....
ओ गल्ल सुन छलया
ओ सारां (?),
वीरा नाल बहावां




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मेहरबानी" और शेर कुछ यूँ था-

ज़िंदगी की मेहरबानी,
है मोहब्बत की कहानी,
आँसूओं में पल रही है... हो..

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

बहुत शुक्रिया बडी मेहरबानी
मेरी जिन्दगी मे हजूर आप आये

ज़िन्दगी से हम भी तर जाते,
जीते जी ही हम मर जाते,
पर उनकी नज़रों की ज़रा सी मेहरबानी न हो सकी (प्रतीक जी)

चीनी से भी ज्यादा मीठी माफ़ी ,
महफिल सजा के की मेहरबानी (मंजु जी)

शमा के नसीब में तो बुझना ही लिखा है
मेहरबानी है उसकी जो जला के बुझाता है. (शन्नो जी)

दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए

ऐ मेरे यार ज़रा सी मेहरबानी कर दे
मेरी साँसों को अपनी खुशबु की निशानी कर दे (अवनींद्र जी)

मेहरवानी थी उनका या कोई करम था ,
या खुदा ये उनको कैसा भरम था (नीलम जी)

अवध जी, माफ़ कीजिएगा.. अगर समय पर मैं एक शब्द गायब कर दिया होता तो शायद आप हीं पिछली महफ़िल की शान होते। हाँ, लेकिन आपका शुक्रिया ज़रूर अदा करूँगा क्योंकि आपने समय पर हमें जगा दिया। सुमित भाई, आप "महफ़िल में फिर आऊँगा" लिखकर चल दिए तो हमें लगा कि इस बार भी आप एक-दो दिन के लिए नदारद हो जाएँगे और "शान" की उपाधि से कोई और सज जाएगा। लेकिन आप ६ मिनट में हीं लौट आए और "शान-ए-महफ़िल" बन गए। बधाई स्वीकारें। प्रतीक जी, हमारी मेहनत को परखने और प्रोत्साहित करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी, बड़े हीं नायाब तरीके से आपने हमारी प्रशंसा कर दी। धन्यवाद स्वीकारें! शन्नो जी, आपकी डाँट भी प्यारी होती है। आपने कहा कि "कितनी हीं पंजाबी कुड़ियाँ इत-उत मंडराती होगी" तो मैं उन कुड़ियों में से एकाध से अपील करूँगा कि वो हमारी महफ़िल में तशरीफ़ लाएँ और हमें "छल्ला" का अर्थ बता कर कृतार्थ करें :) वैसे, वे अगर महफ़िल में न आना चाहें तो हमसे अकेले में हीं मिल लें। इसी बहाने मेरी पंजाबी थोड़ी सुधर जाएगी। :) अवध जी, शेर तो आपने बहुत हीं जबरदस्त पेश किया, लेकिन शायर का नाम मैं भी नहीं ढूँढ पाया। अवनींद्र जी, मुझे भी आप लोगों से वापस मिलकर बेहद खुशी हुई। कोशिश करूँगा कि अपने ये मिलने-मिलाने का कार्यक्रम यूँ हीं चलता रहें। और हाँ, आपको तो पंजाबी आती है ना? तो ज़रा हमें "छल्ला गाने" का मतलब बता दें। बड़ी कृपा होगी। :) नीलम जी, क्या बात है, दो-दो शेर.. वो भी स्वरचित :) चलिए मैंने अपने पसंद का एक चुन लिया।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, November 30, 2010

इन्साफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.....विश्वास से टूटे हुओं को नयी आस देता ये भजन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 538/2010/238

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इसके दूसरे खण्ड में इस हफ़्ते आप पढ़ रहे हैं सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र के बारे में, और साथ ही साथ सुन रहे हैं उनकी फ़िल्मों के कुछ सदाबहार गानें और उनसे जुड़ी कुछ बातें। आइए आज उनकी फ़िल्मी यात्रा की कहानी को आगे बढ़ाते हैं ४० के दशक से। द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न अस्थिरता के लिए सागर मूवीटोन को भी कुर्बान होना पड़ा। कंपनी बिक गई और नई कंपनी 'नैशनल स्टुडिओज़' की स्थापना हुई। 'सागर' की अंतिम फ़िल्म थी १९४० की 'अलिबाबा' जिसका निर्देशन महबूब ख़ान ने ही किया था। नैशनल स्टुडिओज़ बनने के बाद महबूब साहब इस कंपनी से जुड़ गये और इस बैनर पे उनके निर्देशन में तीन महत्वपूर्ण फ़िल्में आईं - 'औरत' (१९४०), 'बहन' (१९४१) और 'रोटी' (१९४२)। 'सागर' और 'नैशनल स्टुडिओज़' के जितनी भी फ़िल्मों की अब तक हमने चर्चा की, उन सभी में संगीत अनिल बिस्वास के थे। अनिल दा महबूब साहब के अच्छे दोस्त भी थे। 'औरत' फ़िल्म की कहानी एक ग़रीब मज़दूर औरत की थी जिसे अमीर ज़मीनदारों का शोषण सहना पड़ता है। सरदार अख़्तर और सुरेन्द्र अभिनीत इसी फ़िल्म का रीमेक थी 'मदर इण्डिया'। 'औरत' में अनिल दा का गाया "काहे करता देर बाराती" ख़ूब चला था। 'अलिबाबा' मे सुरेन्द्र और वहीदन बाई का गाया "हम और तुम और ये ख़ुशी" भी उस दौर का एक लोकप्रिय गीत था। महबूब साहब ने अपनी फ़िल्मों में ग़रीबों पर हो रहे शोषण को बार बार उजागर किया है। १९४२ की फ़िल्म 'रोटी' में भी ग़रीब जनजाति के लोगों पर हो रहे अमीर उद्योगपतियों द्वारा अत्याचार का मुद्दा उठाया गया था। संगीत के पक्ष से भी 'रोटी' हिंदी सिनेमा का एक उल्लेखनीय फ़िल्म है क्योंकि इस फ़िल्म में महबूब ख़ान और अनिल बिस्वास ने बेग़म अख़्तर को गाने के लिए राज़ी करवा लिया था। उन दिनों बेग़म अख़्तर फ़िल्मों में नहीं गाती थीं, लेकिन इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कुछ ग़ज़लें गाईं। १९४३ में महबूब ख़ान ने अपने करीयर का रुख़ मोड़ा और नैशनल स्टुडिओज़ से इस्तीफ़ा देकर अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'महबूब प्रोडक्शन्स' की स्थापना की। संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी को लेकर इस साल उन्होंने दो फ़िल्में बनाईं - 'नजमा' और 'तक़दीर'। १९४५ में महबूब ख़ान प्रोडक्शन्स की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फ़िल्म आई - 'हुमायूँ'। इस फ़िल्म मे मास्टर ग़ुलाम हैदर को चुना गया संगीतकार। इस फ़िल्म में शम्शाद बेगम के गाये गानें ख़ूब लोकप्रिय हुए थे। और फिर आया साल १९४६ और इस साल महबूब ख़ान ने बनाई अब तक की उनकी सब से सफलतम फ़िल्म 'अनमोल घड़ी', और इसी फ़िल्म से वो जुड़े नौशाद साहब से, और आगे चलकर उनकी हर फ़िल्म में नौशाद साहब ने संगीत दिया। महबूब और नौशाद साहब ने 'अनमोल घड़ी' से जो संगीतमय सफल फ़िल्मों की परम्परा शुरु की, वो अंत तक जारी रहा। नूरजहाँ, सुरेन्द्र और सुरैय्या अभिनीत यह फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई और फ़िल्म के गानें ऐसे लोकप्रिय हुए कि "जवाँ है मोहब्बत" और "आवाज़ दे कहाँ है" जैसे गीत आज तक लोग सुनते रहते हैं। ४० के दशक की बाक़ी की तीन फ़िल्में हैं - 'ऐलान', 'अनोखी अदा' और 'अंदाज़', जिनकी चर्चा हम परसों की कड़ी में कर चुके हैं।

दोस्तों, युं तो महबूब ख़ान की फ़िल्मों में अनिल बिस्वास, रफ़ीक़ ग़ज़नवी, ग़ुलाम हैदर जैसे दिग्गज संगीतकारों ने संगीत दिया है, लेकिन सब से ज़्यादा जिस संगीतकार के साथ उनकी ट्युनिंग् जमी थी वो थे नौशाद साहब, और शायद इसी ट्युनिंग का नतीजा है कि नौशाद साहब के साथ बनाई हुई फ़िल्मों के गानें ही सब से ज़्यादा लोकप्रिय हुए। इसलिए इस शृंखला में हम बातें भले ही हर दशक के कर रहे हैं, लेकिन गानें नौशाद साहब के ही सुनवा रहे हैं। और आज का जो गीत हमने चुना है वह है १९५४ की फ़िल्म 'अमर' की एक भजन "इंसाफ़ का मंदिर है ये, भगवान का घर है"। रफ़ी साहब की पाक़ आवाज़, शक़ील बदायूनी के दिव्य बोल। आइए आज भी नौशाद साहब की ज़ुबानी महबूब ख़ान से जुड़ी कुछ बातें जानी जाए। "एक दिन रेकॊर्डिस्ट कौशिक मेरे घर में आए महबूब साहब के तीनों बेटों को लेकर। कहने लगे कि आप उस वक़्त मौजूद नहीं थे जब महबूब साहब का इंतकाल हुआ था। महबूब साहब ने अपनी वसीयत में लिखा है कि "नौशाद साहब को उतनी रकम दी जाए जितनी वो माँगते हैं। नौशाद ने मेरी बहुत सी फ़िल्में बिना पैसे लिए किए हैं, इसलिए उन्हें उनका महनताना मिलना ही चाहिए, नहीं तो मैं अल्लाह का कर्ज़दार रहूँगा।" मैंने कहा कि महबूब साहब के साथ मेरा प्रोफ़ेशनल रिलेशन नहीं था, हम लोग एक परिवार के सदस्य थे। मैंने 'मदर इण्डिया', 'अनोखी अदा' वगेरह फ़िल्मों के लिए पैसे नहीं लिए, लेकिन अब जब वो इस दुनिया में नहीं रहे, तो मैं पैसे माँगने की सोच भी नहीं सकता, यह चैप्टर अब कोल्ज़ हो चुका है। उनके इंतेकाल के बाद स्टुडिओ जाना अच्छा नहीं लगता था, उनकी याद आती थी। मैंने महबूब साहब से बहुत कुछ सीखा, यहाँ तक कि नमाज़ पढ़ना भी। मैंने उन्हें लंदन जाते समय फ़्लाइट में नमाज़ पढ़ते देखा है। मैंने उनकी बातों से इन्स्पायर्ड हो जाता था। अपनी फ़िल्मों के लिए वो जिस तरह के विषय चुनते थे, यह कोई महान आदमी ही कर सकता है। ऐसा आदमी बार बार जन्म नहीं लेत। उन्हें यह भी मालूम था कि अपना नाम कैसे लिखते हैं, लेकिन जब लेखकों के साथ बैठते थे तो कभी कभी ऐसे आइडियाज़ कह जाते थे कि जिनके बारे में किसी ने नहीं सोचा। किसी ने कहा कि कलम फेंक दे यार, ये ज़ाहिल आदमी ने जो सोच लिया हम नहीं सोच पाए। ये महबूब ख़ान ही थे जिन्होंने फ़ॊरेन मार्केट खोल दी, फ़ॊरेन डिस्ट्रिब्युटर्स ले आये, अपनी फ़िल्म 'आन' से। और 'मदर इण्डिया' से फ़ॊरेन टेरिटरी खोल दी।" महबूब साहब के बारे में आज बस यहीं तक, आइए अब आज का गीत सुना जाए रफ़ी साहब की आवाज़ में, फ़िल्म 'अमर' से। यह गीत आधारित है राग भैरवी पर।



क्या आप जानते हैं...
कि नौशाद ने एक बार कहा था कि "जिसको मैं कह सकूँ कि यह मेरा पसंदीदा गाना है, अभी तक वह नहीं आया, मैं यह सोच कर काम नहीं करता कि लोगों को पसंद आएगा कि नहीं, जो मुझे अच्छा लगता है मैं वही करता हूँ। कभी कोने में बैठ कर कोई गाना बनाया और ख़ुद ही रोने लगता।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - इस सुपर डुपर हिट फिल्म के क्या कहने.

सवाल १ - किन किन पुरुष गायकों की आवाज़ है इस समूह गीत में - २ अंक
सवाल २ - महिला गायिकाओं के नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कल तो श्याम कान्त जी और शरद जी के बीच टाई हो गया, परंपरा अनुसार हम दोनों को ही २-२ अंक दे रहे हैं, यानी मुकाबला अभी भी कांटे का ही है, अमित जी और अवध जी १-१ अंक की बधाई....इंदु जी आप तो आ जाया कीजिए, आपको देखकर ही हम तो खुश हो जाते हैं....कितने लोग हैं दुनिया में जो आपकी तरह मुस्कुरा सकते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

मस्ती, धमाल और धूम धडाके में "शीला की जवानी" का पान....यानी तीस मार खान



टी एस टी यानी ताज़ा सुर ताल में आज हम हाज़िर हैं इस वर्ष की अंतिम बड़ी फिल्म “तीस मार खान” के संगीत का जिक्र लेकर. फराह खान ने नृत्य निर्देशिका के रूप में शुरूआत की थी और निर्देशिका बनने के बाद तो उन्होंने जैसे कमियाबी के झंडे ही गाढ़ दिए. “मैं हूँ न” और “ओम शांति ओम” जैसी सुपर डुपर हिट फिल्म देने वाली ये सुपर कामियाब निर्देशिका अब लेकर आयीं हैं – तीस मार खान. जाहिर है उम्मीदे बढ़ चढ़ कर होंगीं इस फिल्म से भी. पहली दो फिल्मों में शाहरुख खान के साथ काम करने वाली फराह ने इस बार चुना है अक्षय कुमार को और साथ में है कटरीना कैफ. संगीत है विशाल शेखर का और अतिथि संगीतकार की भूमिका में हैं शिरीष कुंदर जो फराह के पतिदेव भी हैं और अक्षय –सलमान को लेकर “जानेमन” जैसी फिल्मों का निर्देशन भी कर चुके हैं.

अल्बम की शुरूआत होती है शिशिर के ही गीत से जो कि फिल्म का शीर्षक गीत भी है. इस गीत में यदि आप लचर शब्दों को छोड़ दें तो तीन ऐसी बातें हैं जो इस गीत को तुरंत ही एक हिट बना सकता है. पहला है सोनू की बहुआयामी आवाज़ का जलवा. पता नहीं कितनी तरह की आवाजों में उन्होनें इस गीत गाया है और क्या जबरदस्त अंजाम दिया है ये आप सुनकर ही समझ पायेंगें. दूसरी खासियत है इसका सिग्नेचर गिटार पीस, एक एकदम ही आपका ध्यान अपनी तरफ़ खींच लेता है और तीसरी प्रमुख बात है गीत का अंतिम हिस्सा जो डांस फ्लोर में आग लगा सकता है. कुल मिलकार ये शीर्षक गीत आपका इस अल्बम और फिल्म के प्रति उत्साह जगाने में सफल हुआ है ऐसा कहा जा सकता है.

तीस मार खान


अब बात आइटम गीत “शीला की जवानी” की करें. एक बार फिर सुनिधि चौहान ने यहाँ बता दिया कि जब बात आइटम गीत की हो तो उनसे बेहतर कोई नहीं. अजीब मगर दिलचस्प बोल है विशाल के और अंतरे में हल्की कव्वाली का पुट शानदार है. बीट्स कदम थिरका ही देते है. कोई कितना भी इसे बेस्वदा कहे पर फराह के नृत्य निर्देशन और कटरीना के जलवों की बदौलत ये गीत “मुन्नी बदनाम” की ही तरह श्रोताओं के दिलों-दिमाग पर अपना जादू करने वाला है ये बात पक्की है.

शीला की जवानी


हम आपको बता दें कि फिल्म में सलमान खान एक गीत में अतिथि भूमिका में दिखेंगें. सलमान इन दिनों इंडस्ट्री में सबसे “हॉट” माने जा रहे हैं ऐसे में उनकी उपस्तिथि अगले गीत “वल्लाह रे वल्लाह” को लोगों की जुबान पर चढा दे तो भला आश्चर्य कैसा. परंपरा अनुसार फराह ने इस फिल्म में भी कव्वाली रखी है, यहाँ बोल अच्छे है अन्विता दत्त गुप्तन के विशाल शेखर ने भी रोशन साहब के पसंदीदा जेनर को पूरी शिद्दत से निभाया है.

वल्लाह रे वल्लाह


अगले दो गीत साधारण ही हैं “बड़े दिल वाला” में सुखविंदर अपने चिर परिचित अंदाज़ में है तो दिलचस्प से बोलों को श्रेया ने भी बहुत खूब निभाया है. “हैप्पी एंडिंग” गीत खास फराह ने रियलिटी शोस में दिए अपने वादों को निभाने के लिए ही बनाया है ऐसा लगता है. इंडियन आइडल से अभिजीत सावंत, प्राजक्ता शुक्रे, और हर्शित सक्सेना ने मिलकर गाया है इस गीत को जो संभवता फिल्म के अंतिम क्रेडिट में दिखाया जायेगा. वैसे पहले ३ गीत काफी हैं इस अल्बम को एक बड़ा हिट बनाने को. त्योहारों, शादियों के इस रंगीन मौसम में सोच विचार को कुछ समय के लिए दरकिनार कर बस कुछ गीत मस्ती से भरे सुनने का मन करे तो “तीस मार खान” को एक मौका देकर देखिएगा.

बड़े दिल वाला


हैप्पी एंडिंग


Monday, November 29, 2010

आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई....एक ख़ुशमिज़ाज नग्मा लता की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 537/2010/237

हबूब ख़ान का फ़िल्मी सफ़रनामा लेकर हमने कल से शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड। ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। महबूब साहब की फ़िल्मी यात्रा में कल हम आ पहुँचे थे उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' तक। अभिनय और निर्देशक बनने के साथ साथ उन्होंने लेखन कार्य में भी हाथ डाला था। 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' की कहानी और स्क्रीनप्ले तथा १९३८ की फ़िल्म 'वतन' की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। लेकिन महबूब साहब जाने गये एक उत्कृष्ट फ़िल्म निर्देशक के रूप में। तो आइए उनके निर्देशन करीयर को थोड़ा विस्तार से जानने की हम कोशिश करें। ३० के दशक के उस दौर में कुंदन लाल सहगल की वजह से कलकत्ते का न्यु थिएटर्स फ़िल्म जगत पर राज कर रही था। ऐसे में सागर मूवीटोन के महबूब ख़ान ने सुरेन्द्रनाथ को लौंच कर न्यु थिएटर्स के सामने प्रतियोगिता की भावना रख दी। १९३६ में सागर मूवीटोन के बैनर तले महबूब साहब ने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'डेक्कन क्वीन' और 'मनमोहन'। दोनों में गायक अभिनेता थे सुरेन्द्रनाथ। 'डेक्कन क्वीन' में उनके गाये "याद ना कर दिल-ए-हज़ीन" और "बिरहा की आग लगी" जैसे गीत लोकप्रिय हुए थे, और इन गीतों में सहगल साहब की झलक भी दिख जाती थी। १९३७ में आई फ़िल्म 'जागीरदार' जिसमें मोतीलाल और माया बनर्जी का गाया युगल गीत "नदी किनारे बैठ के आओ सुर में जी बहलाएँ" उस ज़माने में ख़ूब मशहूर हुआ था। १९३९ में महबूब ख़ान ने बनाई 'एक ही रास्ता' और इसी फ़िल्म से उनके सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ रुझान का पता चला। इस फ़िल्म का नायक एक फ़ौज से रिटायर्ड सैनिक है जिसने अपनी ज़िंदगी में काफ़ी मौत और तबाही देखी है, और जो एक अस्थिर मानसिक दौर से गुज़र रहा होता है। एक बलात्कारी के क़त्ल के इल्ज़ाम में उसकी सुनवाई अदालत में शुरु होती है, जहाँ पर वो इस कानून व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह कहते हुए कि युद्ध में निर्दोष लोगों का क़त्ल करने के लिए हमें पुरस्कृत किया जाता है जबकि एक दरींदे के क़त्ल के लिए उसे फाँसी की सज़ा होने जा रही है। इस फ़िल्म के बाद से तो जैसे इस तरह के संदेशात्मक फ़िल्मों की लड़ी सी लगा दी महबूब साहब ने, जिनकी चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे।

आइए अब उस गीत की चर्चा करते हैं जिसे आज हम लेकर आये हैं ख़ास आपको सुनवाने के लिए। कल लता जी आवाज़ में एक ग़मगीन गीत आपने सुना था। आज भी लता जी की ही आवाज़ है और नौशाद साहब का संगीत। अगर कुछ बदल गया है तो वो हैं गीतकार और गीत का मूड। यानी गीतकार शक़ील बदायूनी की रचना है और एक बेहद ख़ुशमिज़ाज नग्मा १९५२ की मशहूर फ़िल्म 'आन' का, "आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई"। फ़िल्म 'आन' के सभी गीतों की मिक्सिंग लंदन में हुई थी जिसके लिए महबूब ख़ान नौशाद को अपने साथ वहाँ ले गये थे। बदक़िस्मती से नौशाद साहब बीमार पड़ गये। विविध भारती के 'नौशाद-नामा' सीरीज़ में इस बारे में उन्होंने कहा था - "मेरी तबीयत ख़राब होती जा रही थी। बहुत तनाव था। मेरी और महबूब साहब की आये दिन झगड़े होने लगे फ़िल्म की एडिटिंग को लेकर। फ़िल्म १५ एम.एम का था और साउण्ड ३५ एम.एम का। इसलिए दोनों को आपस में सिंक्रोनाइज़ करना पड़ता था। लंदन की कंपनी ने कह दिया कि यह आख़िरी बार के लिए वो इस तरह का सिंक्रोनाइज़ेशन करेंगे, और वो हर फ़ूट के लिए ६ पाउण्ड चार्ज करेंगे। उस वक़्त एक पाउण्ड का मतलब था ३०-३५ रुपय। और महबूब साहब ने हज़ारों फ़ीट की फ़िल्म ले रखी थी। मैंने उनसे कहा कि यह तो बड़ा महँगा सौदा है। आख़िर में हम दोनों ने यह तय किया कि सिर्फ़ 'ओ.के.' शॊट्स को ही करवाएँगे। होटल रूम में बैठकर हम दिन भर 'ओ.के. शॊट्स को छाँटा करते थे। इस काम में कई हफ़्ते गुज़र गए। एक दिन किसी शॊट को लेकर मेरे और महबूब साहब के बीच झगड़ा हो गया और हम दोनों की बातचीत बंद हो गई। और महबूब साहब के बेटे इक़बाल हम दोनों के बीच के कम्युनिकेटर का काम करने लगा। हम एक ही फ़्लैट के अलग अलग कमरों में रहते थे। एक रोज़ सुबह सुबह महबूब साहब मेरे कमरे में आये और कहने लगे कि उनके मरहूम वालिद उनके ख़्वाब में आये थे और कहा कि नौशाद जो कह रहा है वही सही है। मैंने उनसे कहा कि आपके वालिद आपसे ज़्यादा होशियार हैं। फिर उसके बाद मेरी तबीयत और ख़राब होने लगी। यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ कि मैंने कैसे काम पूरा किया। साउण्ड मिक्सिंग ख़त्म हो जाने के बाद मैंने महबूब साहब से कहा कि मैं भारत वापस जाना चाहता हूँ। ना चाहते हुए भी उन्होंने मुझे रिहा कर दिया।" दोस्तों, नौशाद साहब और महबूब साहब की दोस्ती बहुत गहरी थी, और नौशाद साहब के साथ ही महबूब साहब की सब से बेहतरीन फ़िल्में आईं। तो आइए आज इस जोड़ी को सलाम करते हुए फ़िल्म 'आन' का यह गीत सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'आन' के लिए महबूब साहब को विश्व के महानतम फ़िल्मकारों में से एक सिसिल बी. डी'मेलो से तारीफ़ हासिल हुई थी, जिन्होंने महबूब साहब को एक पत्र में लिखा था - "I found it an important piece of work, not only because I enjoyed it but also because it shows the tremendous potential of Indian motion pictures for securing world markets. I believe it is quite possible to make pictures in your great country, which will be understood and enjoyed by all nations and without sacrificing the culture and customs of India. We look forward to the day when you will be regular contributors to our screen fare with many fine stories bringing the romance and magic of India."

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - ये है एक भजन

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कल आखिर शरद जी पहुँच ही गए श्याम जी से पहले....वैसे आप सभी के हिंदी फिल्म संगीत ज्ञान को देखकर बेहद खुशी होती है सच.....खैर अभी भी ३ अंकों से पीछे हैं शरद जी...क्या वो जीत पायेंगें श्याम जी से ये बाज़ी....:) वक्त बताएगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, November 28, 2010

उठाये जा उनके सितम और जीये जा.....जब लता को परखा निर्देशक महबूब खान ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ में छोटे मोटे काम करने लगे। उनके फ़िल्मी करीयर की शुरुआत हुई थी 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' में बतौर बिट-प्लेयर १९२७ की मूक फ़िल्म 'अलीबाबा और चालीस चोर' फ़िल्म में। उन चालीस चोरों में से एक चोर वो भी थे फ़िल्म में। बोलती फ़िल्मों की शुरुआत होने पर उन्होंने कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया, जिनमें शामिल हैं 'मेरी जान' (१९३१), 'दिलावर' (१९३१) और 'ज़रीना' (१९३२)। उसके बाद वो जुड़े 'सागर मूवीटोन' के साथ और कई फ़िल्मों में चरित्र किरदारों के रोल अदा किए। बतौर निर्देशक उन्हें पहला ब्रेक इसी कंपनी ने दिया सन १९३५ में, और फ़िल्म थी 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह'। सिसिल बी. डी'मिले की १९३२ की फ़िल्म 'दि साइन ऒफ़ दि क्रॊस' से प्रेरीत इस फ़िल्म का विषय था रोमन-अरब में मुठभेड़। फ़िल्म काफ़ी चर्चित हुई और इसी फ़िल्म से शुरु हुई एक ऐसी जोड़ी की जो अंत तक कायम रही। यह जोड़ी थी महबूब ख़ान और कैमरामैन फ़रदून ए. ईरानी की। ईरानी ने महबूब साहब के हर फ़िल्म को अपने कैमरे पर उतारा।

दोस्तों, महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी को हम कल फिर आगे बढ़ाएँगे, आइए अब आज के गीत का ज़िक्र किया जाए। आपको सुनवा रहे हैं १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और मशहूर गीत "उठाये जा उनके सितम और जीये जा"। लता मंगेशकर की कमसिन आवाज़ में यह है नौशाद साहब की संगीत रचना। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी। हुआ युं था कि महबूब साहब की १९४८ की फ़िल्म 'अनोखी अदा' बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही थी। और उससे पहले साल १९४७ में भी 'ऐलान' और 'एक्स्ट्रा गर्ल' फ़िल्मों के सितारे भी गर्दिश में ही रहे थे। ऐसे में महबूब साहब ने अपनी पूरी टीम को ही बदल डालने की सोची सिवाय संगीतकार नौशाद के। जहाँ तक गीत संगीत पक्ष का सवाल है, मुकेश और लता आ गये सुरेन्द्र और उमा देवी की जगह, और गीतकार शक़ील बदायूनी की जगह मजरूह साहब को चुना गया। फ़िल्म की कहानी प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी और इस फ़िल्म ने इस जौनर का ट्रेण्ड सेट कर दिया। राज कपूर, दिलीप कुमार और नरगिस का प्रेम त्रिकोण इस फ़िल्म में लोगों को ख़ूब रास आया और फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई। फ़िल्म के साथ साथ इसके गानें भी ऐसे लोकप्रिय हुए कि आज भी ये सुनाई पड़ जाते हैं। नौशाद साहब जब विविध भारती के 'जयमाला' में तशरीफ़ लाये थे, तब इसी गीत को बजाते हुए उन्होंने कहा था - "महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़' के लिए उन्होंने मुझे म्युज़िक डिरेक्टर चुना और उन्होंने प्लेबैक सिंगर्स चुनने का ज़िम्मा भी मुझे ही सौंपा। मैंने हीरोइन नरगिस के लिए पहली बार लता मंगेशकर की आवाज़ चुनी। महबूब साहब कहने लगे कि मराठी ज़ुबान की लड़की है, क्या ये उर्दू ज़बान के शब्द ठीक से बोल पाएगी? मैंने उनसे कहा कि यह ज़िम्मेदारी मेरी है, आपकी नहीं। उसके बाद वे बिल्कुल चुप हो गए। मैंने लता को ख़ूब रटाया, अच्छी तरह से सिखाया बिना धुन के। मैंने उससे कहा कि पहला टेक ही ओ.के होना चाहिए, मैंने सब लोगों को चैलेंज दिया है कि फ़र्स्ट टेक ही ओ.के. होगा। लता मेरे विश्वास पर खरी उतरी और नतीजा आपके सामने है। तो सुनिए यही गीत फ़िल्म 'अंदाज़ से।"



क्या आप जानते हैं...
कि शक़ील बदायूनी के अपने १८ वर्ष के करीयर में नौशाद साहब के संगीत में 'अंदाज़' ही एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने गीत नहीं लिखे। नौशाद की बाक़ी सभी फ़िल्मों में शक़ील ने ही गीत लिखे थे जब तक शक़ील ज़िंदा थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ७ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है लता की

सवाल १ - गीत के मुखड़े में किस संगीत वाध्य का जिक्र है - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
मुकाबला दिलचस्प है और बाज़ी किसी की भी हो सकती है, पर इस पल तो श्याम जी आगे हैं...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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