पसंदीदा गीतों की इस शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हमने एक ऐसे शख़्स का फ़रमाइशी गीत चुना है जो ख़ुद एक कवि हैं, एक मशहूर ब्लॊगर हैं, पॊडकास्ट के क्षेत्र में इनका एक मशहूर ब्लॊग है। इस शख़्स को उभरते गायक आभास जोशी के मार्गदर्शक और गुरु कहा जा सकता है, जिन्होने आभास की पहली ऐल्बम के लिए गीत लिखे हैं। जी हाँ, इस शख़्स का नाम है गिरिश बिल्लोरे। गिरिश जी की पसंद के गीत के बारे में उन्हे के शब्द प्रस्तुत है - "आजा पिया तोहे प्यार दूँ", जो मेरी उस मित्र ने गाया था जिसे पहला प्यार कहा जा सकता है। उस दौर मे सामाजिक अनुशासन के चलते बस मैं खुद प्यार का इज़हार न कर सका। जानते हैं उसने मुझे दिल की बात बेबाक कह देने की नसीहत दी थी। आज वो अपने परिवार मे खुश है। अब बस वो रोमान्टिक एहसास है मेरे पास और अपना प्रतिबंधों के सामने घुटने टेक देने का अहसास।" गिरिश जी, आपके जीवन इन बातों को जानकर हमें अफ़सोस हुआ। हम आपको बस यही मानने की सलाह देंगे कि "तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है, मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे साथ है"। आज आपकी पसंद पर हम सुनवा रहे हैं १९६७ की फ़िल्म 'बहारों के सपनें' से आशा पारेख पर फिल्माया हुआ लता मंगेशकर का गाया "आजा पिया तोहे प्यार दूँ"। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल और राहुल देव बर्मन का संगीत। पंचम पर केन्द्रित शुंखला के अन्तर्गत हमने इस फ़िल्म से "चुनरी संभाल गोरी" गीत आपको सुनवाया था और फ़िल्म की तमाम जानकारी भी दी थी।
क्योंकि प्रस्तुत गीत के साथ लता, पंचम और मजरूह साहब की तिकड़ी जुड़ी हुई है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना मजरूह साहब द्वारा प्रस्तुत उस 'जयमाला' कार्यक्रम के कुछ अंश यहाँ पेश किए जाएँ, जिसमें उन्होने ना केवल लता जी और पंचम के बारे में कहे थे बल्कि दो गानें बैक टू बैक सुनवाए थे जो लता के गाए, पंचम के स्वरबद्ध किए हुए और ख़ुद के लिखे हुए थे। ये हैं वो अंश - "तो मेरे सिपाहियों, अब एक ख़ुशख़बरी भी सुन लीजिए जिसे मैंने, आर. डी. बर्मन ने और लता ने मिलकर आप के सामने पेश किया है। फ़िल्म है 'सवेरेवाली गाड़ी'।" यहाँ पर "दिन प्यार के आएँगे सजनिया" बजाया जाता है। गीत ख़त्म होते ही मजरूह साहब कहते हैं - "तो मेरे अज़ीज़ फ़ौजी भाइयों, लता जी की इस आवाज़ के बाद, वैसे तो सभी को आप ने अपने दिलों में बसाया है, यह मेरी ज़ाती पसंद है, बुरा मानने की कोई बात नहीं, लेकिन लता जी की आवाज़ सुनने के बाद जी नहीं चाहता कि कोई दूसरी आवाज़ आए। यह आवाज़ सदियों में पैदा होती है। तो 'बहारों के सपनें' फ़िल्म का एक गाना पेश है जिसे लिखा मैंने और संगीत आर. डी. बर्मन का है। देखिए, कैसा लगता है!" तो आइए सुना जाए गिरिश बिल्लोरे की पसंद पर यह गीत जो याद उन्हे दिलाती है अपने पहले प्यार की, उन मीठी यादों की।
क्या आप जानते हैं... कि मजरूह सुल्तानपुरी को दादा साहब फाल्के पुरस्कार सन् १९९४ में मिला था।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. फिल्म के नाम में एक ही शब्द का दो बार इस्तेमाल हुआ है, गीत बताएं -३ अंक. 2. शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध ये गीत किसकी कलम से निकला है- २ अंक. 3. बप्पी सोनी के निर्देशन में बनी इस फिल्म के प्रमुख कलाकार कौन कौन थे-२ अंक. 4. फिल्म का नाम बताएं -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- सभी धुरंधर इन दिनों बेहद सावधानी से जवाब दे रहे हैं.....बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने नीलम मिश्रा की आवाज़ में रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर की पहली कहानी "कामरेड", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी "कामरेड" का कुल प्रसारण समय 22 मिनट है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
यह सत्य भी है कि कामरेड की 'रेड' से सरकार तक चौंक जाती है। ~ कमलेश्वर (1932-2007) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी इन जालिमों के अत्याचार मिटाने को तुम्हें संगठित होना पड़ेगा, अपने हक के लिए तुम्हें लड़ना पड़ेगा। (कमलेश्वर की "कामरेड" से एक अंश)
नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें: VBR MP3
'पसंद अपनी अपनी' में फ़रमाइशी गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज बारी है योगेश पाटिल के पसंद के गाने की। आप ने सुनना चाहा है फ़िल्म 'खट्टा मीठा' से "तुमसे मिला था प्यार, कुछ अच्छे नसीब थे, हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे"। बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत है और आम गीतों से अलग भी है। यह उन गीतों की श्रेणी में आता है जिन गीतों में गायक गायिका के आवाज़ों के साथ साथ नायक नायिका की आवाज़ें भी शामिल होती हैं। इस गीत में मुख्य आवाज़ लता मंगेशकर की है, अंत में किशोर कुमार दो पंक्तियाँ गाते हैं, गीत की शुरुआत में राकेश रोशन और बिंदिया गोस्वामी के संवाद हैं और इंटरल्युड में भी राकेश रोशन के संवाद हैं। इस गीत को लिखा है गुलज़ार ने और संगीतकार हैं राजेश रोशन। भले ही राजेश रोशन समय समय पर विवादों से घिरे रहे, लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि उन्होने कुछ बेहद अच्छे गानें भी हमें दिए हैं। और उनके द्वारा रचे लता-किशोर के गाए सभी युगलगीत बेहद लोकप्रिय हुए हैं। आज के प्रस्तुत गीत में गुलज़ार साहब ने संवादों के साथ गीत को इस ख़ूबसूरती के साथ जोड़ा है कि जिस शब्द से संवाद ख़त्म होता है, उसी शब्द से फिर गीत का अंतरा शुरु हो जाता है। गुलज़ार साहब की शब्दों में सुनने वालों को उलझाने की अदा उन्ही दिनों शुरु हो चुकी थी; जैसे कि इस गीत के पहले अंतरे में वो लिखते हैं कि "सोचा था मय है ज़िंदगी और ज़िंदगी की मय, प्याला हटा के तेरी हथेली से पीएँगे"। सुनने वाला कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाता है कि इसका भावार्थ क्या है!
'खट्टा मीठा' १९७७-७८ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था रोमू एन. सिप्पी और गुल आनंद ने, निर्देशक थे बासु चटर्जी तथा राकेश रोशन व बिंदिया गोस्वामी के अलावा फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाईं इफ्तेखार, देवेन वर्मा, अशोक कुमार, पर्ल पदमसी, डेविड, प्रीति गांगुली और केश्टो मुखर्जी ने। उस ज़माने में पार्सी परिवार के पार्श्व पर कई फ़िल्में बन रही थीं, यह उन्ही में से एक है। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि होमी मिस्त्री (अशोक कुमार) की पत्नी के गुज़रे हुए कई साल बीत चुके हैं, और उनका समय अपने चार बेटों की देखभाल, घर की देख रेख और फ़ैक्टरी के काम काज में निकलता है। उधर नरगिस सेठना (पर्ल पदमसी) भी एक विधवा है जिसके दो बेटे और एक बेटी है, और रहने के लिए एक बहुत बड़ा मकान भी है। सोली (डेविड), जो होमी और नरगिस दोनों के दोस्त हैं, वो इन दोनों को आपस में शादी कर लेने का सुझाव देते हैं ताकि कम से कम दोनों घर के बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार मिल सके, और रहने के लिए एक बड़ा मकान भी मिले। शादी हो जाती है और उसके बाद कहानी एक हास्यास्पद मोड़ लेती है जब दो घरों के बच्चे आपस में और नए माहौल में ऐडज्स्ट करने की कोशिश करते हैं। यही है इस फ़िल्म की मूल कहानी और इसी कहाने में फ़ीरोज़ सेठना (राकेश रोशन) और ज़रीन (बिंदिया गोस्वामी) की प्रेम कहानी को भी ख़ूबसूरती से मिलाया गया है। इस फ़िल्म का लता-किशोर का गाया "थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है" गीत काफ़ी मशहूर हुआ, जिसके शीर्षक से एक लोकप्रिय टी.वी धारावाहिक भी बनी थी एक ज़माने में। किशोर कुमार व उषा मंगेशकर की आवाज़ों में फ़िल्म का शीर्षक गीत भी याद किया जाता है। तो आइए योगेश पाटिल की पसंद पर सुनते हैं "तुमसे मिला था प्यार"। योगेश जी, आप अपनी पसंद के साथ साथ मेरी पसंद भी शामिल कर लीजिए इस गीत के लिए क्योंकि मुझे भी यह गीत बेहद पसंद है। और जैसे कि इस गीत के बोलों में कहा गया है कि "हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे", तो हम भी 'आवाज़' की तरफ़ से आप सभी से यही कहेंगे कि 'आवाज़' अमीर है आप लोगों के करीब होने से, आपके प्यार से। आप अपना प्यार 'आवाज़' पर युंही लुटाते रहिएगा ताकि हम और अमीर, और ज़्यादा अमीर होते जाएँ।
क्या आप जानते हैं... कि गुलज़ार और राजेश रोशन ने 'खट्टा मीठा' के अलावा 'स्वयंवर' फ़िल्म में एक साथ काम किया था जिसका गीत "मुझे छू रही है तेरी गर्म सांसें" लोकप्रिय हुआ था।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. फिल्म के नाम में "सपने" शब्द हैं, गीतकार बताएं -३ अंक. 2. आशा पारिख पर फिल्माए इस गीत को किस गायिका ने गाया है- २ अंक. 3. आगे चलकर इस गीत के मशहूर रीमिक्स संस्करण भी बने, संगीतकार बताएं-२ अंक. 4. फिल्म का नाम बताएं -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- शरद जी के क्या कहने, कभी गलत होते ही नहीं...इंदु जी सुजॉय को आपने आशीर्वाद दिया, शुक्रिया
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
फिर एक नया शुक्रवार आया और लाया हिंद युग्म के तीसरे संगीत सत्र का तीसरा गीत. दोस्तों कुहू गुप्ता से आप हमारी पिछली पेशकश में रूबरू हो चुके हैं, कुहू की तरह ही काव्यानद के माध्यम से आवाज़ से जुड़े एक बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार जिन्होंने लगातार ३ बार काव्यनाद प्रतियोगिता में विजय पताका फहराई, और उनका गीत "जो तुम आ जाते एक बार" तो जैसे सबकी जुबाँ पर चढ गया, प्रदीप सोमसुन्दरन और निखिल आनंद के साथ उन्होंने "कलम आज उनकी जय बोल" से भी खूब वाह वाही लूटी. जी हाँ हम बात कर रहे हैं श्रीनिवास पंडा की. संगीत महोत्सव के इस तीसरे संस्करण में आज पहली बार श्रीनिवास पंडा एक बार फिर एक नए अंदाज़ में आपके सामने आ रहे हैं, साथ हैं युग्म के वरिष्ठ गीतकारों में से एक सजीव सारथी. इन दोनों के संगम से बना एक आत्मीय भजन जिसे दो संस्करणों में प्रस्तुत किया गया है. एक में आवाज़ है कुहू की तो दूसरा संस्करण खुद श्रीनिवास ने गाया है. तो दोस्तों आज आम प्रेम गीतों से कुछ अलग, भक्ति रस में डूब कर सुना जाए ये भजन, अपने व्यस्त और उलझे बिगड़े इस जीवन में जब दो पल फुर्सत के निकलते हैं तब "उसकी" शरण में कुछ ऐसे ही भाव लेकर हम पहुँचते हैं. सुनिए और अपने स्नेह सुझावों से इन कलाकारों का मार्गदर्शन करें.
गीत के बोल -
(Female) प्रभु जी, प्रभु जी , ये दिल मेरा टूटा तारा, आँखों में नम है खारा खारा, प्रभु जी, प्रभु जी, जीवन मेरा दुःख से हारा, आँखों में नम है खारा खारा…. प्रभु जी….
तुम्हीं दो उजाले, घना है अँधेरा, भंवर में है नैय्या, दिखा दो किनारा, मुझे पार उतारो, आओ ना, सुधि न बिसारो, आओ ना, प्रभु जी, प्रभु जी, सहारा हो तुम्हीं मेरा, तुम बिन न कोई आसरा मेरा, प्रभु जी, संवारो जीवन भी मेरा, तुम बिन न कोई आसरा मेरा, प्रभु जी……
भुला दो न मेरे, अव गुण सारे, पथ है कठिन ये, सुनो अब सखा रे कोई छाँव दे दो आओ ना, बिगड़ी बना दो आओ ना, प्रभु जी, प्रभु जी, मेरी है आस बस तुमसे, शंका मिटा दो सारी दिल से, प्रभु जी, प्रभु जी, हाथ अपना रख दो सर पे, शंका मिटा दो सारी दिल से, प्रभु जी……
(Male) प्रभु जी, प्रभु जी, ये दिल मेरा टूटा तारा, आँखों में नम है खारा खारा, प्रभु जी, प्रभु जी, जीवन मेरा दुःख से हारा, आँखों में नम है खारा खरा, प्रभु जी…….
कहीं तोड़ दे न, मुझे ये निराशा, जला कोई दीपक, जगा दो न आशा, अँधेरे बुझा दो आओ न, कोई राह सुझा दो आओ न,
प्रभु जी, प्रभु जी, करो न अनसुनी मेरी, विनती सुनो न अब करो देरी, प्रभु जी, प्रभु जी, यही है प्रार्थना मेरी, विनती सुनो न अब करो देरी, प्रभु जी……
कड़े रास्तों पे, मेरे पग न डोले, घनी धूप है तुम, र खना संभाले, विपदा छुड़ाने आओ न, दुविधा मिटाने आओ न….
यह गीत अब आर्टिस्ट एलोड़ पर बिक्री के लिए उपलब्ध है...जिसकी शर्तों के चलते इस पृष्ठ से निकाल दिया गया है, कृपया सुनने और खरीदने के लिए यहाँ जाएँ.
मेकिंग ऑफ़ "प्रभु जी" - गीत की टीम द्वारा
श्रीनिवास पंडा- इस गीत ने लगभग ६ साल का सफर पूरा किया है. मई २००४ जब इंजीनियरिंग के फाईनल वर्ष में था, तब रोज शाम को मेडिटेशन करने लिए होस्टल की छत पर अकेला जाया करता था. ठंडी ठंडी हवा चल रही थी, तभी जाने कहाँ से ये धुन जेहन में आ गयी, मेडिटेशन पूरा करने के बाद पाया कि धुन अपना आकार ले चुकी थी, लगा जैसे खुद प्रभु ने ये धुन भेजी है मेरे लिए, वापस कमरे में आकर उस धुन पर दो पंक्तियाँ ओडिया में लिख डाली और एक छोटे से रिकॉर्डर में रिकॉर्ड कर लिया, कुछ दोस्तों को सुनाया, सब ने खूब तारीफ़ की, पर फिर वो मुखडा उसी टेप में ही धरा रह गया. समय गुजरता चला गया, इतना व्यस्त हो चुका था कि मेडिटेशन तो छूट ही गया, बस सुबह ५ मिनट भागवत गीता के २ श्लोक अवश्य पढ़ लेता हूँ. एक शाम थोडा उदास था, सोचा एक भजन क्यों न किया जाए प्रभु जी से प्रार्थना करके मन भी थोडा हल्का हो जायेगा...तब से वही धुन कई बार गुनगुनाता रहा, फिर की बोर्ड लेकर बैठा और अंतरा को भी रिकॉर्ड कर लिया कंप्यूटर में. उसी दिन शाम को सजीव जी को फोन किया, और उनके कहने पर जितना भी रिकॉर्डएड था भेज दिया. इस बीच बाकी संयोजन में जुट गया. होली के अगले दिन सजीव ने शब्द भेज दिए थे. बात बनती हुई लगी तो गीत को थोडा और बढ़ा दिया, फिर लगा कि एक फीमेल संस्करण भी होना चाहिए सेम फीलिंग का, तय हुआ कि दोनों में मुखडा एक सा रखेंगें और अंतरे में जेंडर के अनुरूप बदलाव होंगें. एक हफ्ते में दोनों संस्करण तैयार हुए....मैंने पहली बार कोई गाना गाया है, सजीव जी ने बहुत जगह मेरी मदद की शब्दों को सही करने में, और कुहू ने तो अपने अंदाज़ में इसे एक अलग ही मुकाम दे दिया है...अंतिम परिणाम आपके सामने हैं.
कुहू गुप्ता- श्रीनिवास बहुत ही प्रतिभापूर्ण संगीतकार और सोफ्ट स्पोकेन इंसान हैं. उनके साथ मैं कुछ और गाने भी कर चुकी हूँ. जब उन्होंने ये भजन मुझे भेजा तो मैंने ये मौक़ा मैंने दोनों हाथों से लपक लिया. इसकी रचना बहुत ही सुन्दर है और शब्द भी बहुत ही संवेदनशील जो सजीव ने बखूबी लिखे हैं. इस भजन का पुरुष संस्करण खुद श्रीनिवास ने गाया है. बहुत अच्छे संगीतकार होने के साथ साथ ये बहुत अच्छे गायक भी हैं. मैंने आज तक कोई भी भजन नहीं रिकॉर्ड किया था और मुझे लगा मेरी क्षमता को विस्तारने के लिए ये भजन बिलकुल सही रहेगा. मैं कुछ और कामों में व्यस्त थी तो थोड़ा समय लगा इसे रिकॉर्ड करने में मगर एक दिन लग कर बैठी और भेज दिया श्रीनिवास को मिक्सिंग के लिए. उन्होंने कुछ सुझाव दिए और मैंने एक रीटेक और करके उन्हें फिर भेज दिया. और अगले ही दिन श्रीनिवास ने मिक्सिंग करके फ़टाफ़ट भजन मुझे मेल कर दिया ! मैं तो स्तब्ध ही रह गयी. इस भजन में एक लड़की अपने जीवन का सबके खराब हिस्सा व्यतीत कर रही है और प्रभुजी से उसे बचाने की प्रार्थना कर रही है. आशा करती हूँ आप सभी इस अभिव्यक्ति को मेरी गायकी के द्वारा महसूस कर पायेंगे!
सजीव सारथी-काव्यानाद में श्रीनी और कुहू का काम देखकर बहुत दिनों से मन में इच्छा थी इन दोनों से साथ मिलकर कुछ करने का. एक गीत मैंने खास कुहू के लिए लिखा और श्रीनी को भेजा पर पता नहीं क्यों उस गीत में भी और उसके बाद भी एक आध गीतों में भी कोशिश तो हुई पर बात बन नहीं पायी. फिर २३ तारीख़ शाम को मुझे श्रीनी का फोन आया और कहा कि एक भजन लिखना है, २४ तारीख़ को मेरा जन्मदिन था, और हर जन्मदिन पर कुछ अवश्य लिखता हूँ मैं, मुझे लगा इस बार मुझे सौभाग्य मिला है एक भजन लिखने का, "प्रभु जी" शब्द श्रीनी का ही था, मुझे भी उसे बदलना सही नहीं लगा, धुन सुनने में बहुत सरल लगती थी, पर मीटर बड़ा ही मुश्किल था, शायद "प्रभु जी" ने ही मदद की और अंतिम परिणाम बेहद संतोषजनक रहा. श्रीनी की आवाज़ बहुत अस्वाभाविक है, और उनके गायन में मिटटी की सी खुशबू है कुछ शब्द उनके मुंह से बहुत बढ़िया लगते है जैसे- अनसुनी, बिपदा, दुविधा आदि. और कुहू के लिए क्या कहूँ. मैं उनकी आवाज़ का एक बहुत बड़ा फैन हूँ, उनकी आवाज़ पाकर गीत और भी सुरीला हो जाता है. उनके बाकी सब गीतों से अलग इस गीत में उन्होंने जो स्ट्रेन दिया है, जो कंपन लिया है आवाज़ में वो गजब का है और दर्द के भाव अंतिम पंक्तियों में बहुत उभर कर सामने आते हैं, शुक्रिया श्रीनी इस जन्मदिन के तोहफे के लिए और शुक्रिया कुहू, इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए
श्रीनिवास पांडा मूलरूप से तेलगू और उड़िया गीतों में संगीत देने वाले श्रीनिवास पांडा का एक उड़िया एल्बम 'नुआ पीढ़ी' रीलिज हो चुका है। इन दिनों हैदराबाद में हैं और अमेरिकन बैंक में कार्यरत हैं। गीतकास्ट में लगातार चार बार विजेता रह चुके हैं। 'काव्यनाद' एल्बम में इनके 3 गीत संकलित हैं। पेशे से तकनीककर्मी श्रीनिवास हर गीत को एक नया ट्रीटमेंट देने के लिए जाने जाते हैं
कुहू गुप्ता पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है।
सजीव सारथी हिन्द-युग्म के 'आवाज़' मंच के प्रधान संपादक सजीव सारथी हिन्द-युग्म के वरिष्ठतम गीतकार हैं। हिन्द-युग्म पर इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीत निर्माण का बीज सजीव ने ही डाला है, जो इन्हीं के बागवानी में लगातार फल-फूल रहा है। कविहृदयी सजीव की कविताएँ हिन्द-युग्म के बहुचर्चित कविता-संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में संकलित है। सजीव के निर्देशन में ही हिन्द-युग्म ने 3 फरवरी 2008 को अपना पहला संगीतमय एल्बम 'पहला सुर' ज़ारी किया जिसमें 6 गीत सजीव सारथी द्वारा लिखित थे। पूरी प्रोफाइल यहाँ देखें।
Song - Prabhu ji Voices - Kuhoo Gupta, Srinivas Panda Music - Srinivas Panda Lyrics - Sajeev Sarathie Graphics - Samarth Garg
Song # 02, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm
इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए
ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम हमारी पसंद के गीतों को तो सुनवाते ही रहते हैं। इन दिनों हम ख़ास आपकी पसंदीदा गीतों को समेट कर प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इस महफ़िल को सजाने के लिए हम लेकर आए हैं एक मुजरा गीत। युं तो बहुत सारी गायिकाओं ने मुजरे गाए गाए हैं, और अक्सर ऐसा हुआ है कि क्योंकि फ़िल्म में मुजरा हीरोइन पर नहीं बल्कि किसी चरित्र अभिनेत्री पर फ़िल्माया जाता रहा है, इसलिए कई बार फ़िल्म की मुख्य गायिका (जो ज़्यादातर लता जी हुआ करती थीं) से ये मुजरे नहीं गवाए जाते थे बल्कि आशा जी या उषा जी या फिर कोई और कमचर्चित गायिका की आवाज़ में ये मुजरे होते थे। वैसे लता जी ने भी बहुत से मुजरे गाए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से मुजरों में जान डालने में आशा जी का कोई सानी नहीं है। ५० के दशक से लेकर ८० के दशक तक आशा जी ने बेहिसाब मुजरे गाये हैं। किसी मुजरे की खासियत होती है कि उसमें नुकीली आवाज़ के साथ साथ थोड़ी सी शोख़ी, थोड़ी सी शरारत, थोड़ी सी बेवफ़ाई, थोड़ा सा दर्द, और अपनी तरफ़ आकृष्ट करने की क्षमता होनी चाहिए। और ये सब गुण आशा जी की गायकी में कूट कूट कर भरी हुई है। और शायद यही वजह है कि आशा जी जब कोई मुजरा गाती हैं तो सचमुच ऐसा लगता है कि जैसे किसी महफ़िल में या किसी कोठे में वह गाई जा रही है। यानी कि मुजरे का जो मूड और स्थान काल पात्र है, उन्हे पूरी तरह से न्याय प्रदान करती है आशा जी की खनकती आवाज़। तो मित्रों, आज आशा जी की आवाज़ में हम जो मुजरा सुनेंगे उसके लिए फ़रमाइश लिख भेजी है मंदार नारायण ने। इन्होने पहली बार हम से इस फ़रमाइश के ज़रिए सम्पर्क किया है, तो हम आपका हार्दिक स्वागत करते हैं 'आवाज़' की इस महफ़िल में। और आप से गुज़ारिश करेंगे कि आगे भी आप अपना साथ बनाए रखिएगा।
तो साहब, मंदार जी की पसंद है फ़िल्म 'संघर्ष' से आशा जी का गाया "तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें हमने वो शीशा तोड़ दिया तोड़ दिया तोड़ दिया, हँस हँस के जीना सीख लिया घुट घुट के मरना छोड़ दिया छोड़ दिया छोड़ दिया"। शक़ील बदायूनी का गीत है और नौशाद साहब की तर्ज़। 'संघर्ष' फ़िल्म का निर्माण हुआ था सन् १९६८ में और इसके मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला, संजीव कुमार और बलराज साहनी। प्रस्तुत गीत फ़िल्माया गया है वैजयंतीमाला पर। इस गीत में सितार के बहुत ख़ूबसूरत पीसेस सुनाई देते हैं, और साथ ही इंटरल्युड संगीत में ग्रूप वायलिन्स का भी प्रयोग हुआ है। लेकिन जो बेसिक रीदम जो है वह क़व्वाली शैली का है। कुल मिलाकर इस गीत को सुनते हुए एक अजीब सी थिरकन महसूस होती है और बार बार सुनने का मन होता है। तो लीजिए यह गीत सुनिए जिसके बोल हम नीचे लिख रहे हैं...
तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें हमने वो शीशा तोड़ दिया, हँस हँस के जीना सीख लिया घुट घुट के मरना छोड़ दिया। फिर है झंकार वही, फिर है बाज़ार वही,
फिर हँसी शाम वही, फिर मेरा काम वही, या दिल के टुकड़े कर डाले या दिल को दिल से जोड़ दिया। दिल की आवाज़ है क्या, जाने ये राज़ है क्या, आज समझे तो कोई हमसे पूछे तो कोई, या ख़ुद ही मोहब्बत टूट गई या हमने प्यार तोड़ दिया, हँस हँस के जीना सीख लिया घुट घुट के मरना छोड़ दिया।
प्यार का नामोनिशाँ आज दुनिया में कहाँ, दिल को जब ठेस लगी आई होठों पे हँसी, तक़दीर के ग़म से घबरा कर रुख़ ज़िंदगी का मोड़ दिया, तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें हमने वो शीशा तोड़ दिया।
क्या आप जानते हैं... कि फ़िल्म 'संघर्ष' नौशाद की आख़िरी फ़िल्म थी शक़ील बदायूनी और दिलीप कुमार के साथ।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मुखड़े में शब्द है -"नसीब", गीत बताएं -३ अंक. 2. गुलज़ार के लिखे इस गीत के संगीतकार कौन हैं - २ अंक. 3. गीत के बीच में संवाद भी हैं जो नायक नायिका ने बोले हैं, नायक संगीतकार के भाई है, पहचानिये इन्हें-२ अंक. 4. बासु चट्टर्जी निर्देशित इस फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- शरद जी, इंदु जी, पदम जी और अल्पना जी को बधाई. अनीता जी और रोमेंद्र जी की पसंद हमने नोट कर ली है जरूर कोशिश करेगें
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
दोस्तों, पिछले तीन दिनों से हम आप ही के पसंद के गानें सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ये तीनों ही गीत कुछ संजीदे या फिर थोड़े दर्द भरे रहे। तो आज मूड को बिल्कुल ही बदलते हुए हम जिस गीत को सुनेंगे उसका ताल्लुख़ है खट्टे मीठे नोंक झोंक से, प्यार भरे तकरारों से, प्यार में रूठने मनाने से। यह गीत है रोहित राजपूत की पसंद का गीत है, रोहित जी ने पहेली प्रतियोगिता के पहले सीज़न में मंज़िल के बहुत करीब तक पहुँच गए थे, लेकिन शायद व्यस्तता की वजह से बाद में वो कुछ ग़ायब से हो गए। लेकिन हमारा अनुमान है कि जब भी उन्हे समय मिल पाता है, वह आवाज़ के मंच को दस्तक ज़रूर देते हैं। तभी तो उन्होने अपनी फ़रमाइश लिख भेजी है हमें। तो उनकी फ़रमाइश है फ़िल्म 'आस का पंछी' से, "तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ कि इन अदाओं पे और प्यार आता है"। लता मंगेशकर और मुकेश का गाया यह गीत है जिसे लिखा है हसरत जयपुरी ने और स्वरबद्ध किया है शंकर जयकिशन ने। १९६१ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे वैजयंतीमाला, राजेन्द्र कुमार और राज मेहरा। राजेन्द्र सिंह बेदी लिखित इस फ़िल्म का निर्देशन किया था मोहन कुमार ने। लता-मुकेश का गाया यह गीत रूठने मनाने पर बने गीतों में एक अहम स्थान रखता है। बहुत ही हल्का फुल्का गीत है, जिसे हम कुछ कुछ रोमांटिक कॊमेडी की श्रेणी में डाल सकते हैं। हसरत साहब को वैसे भी रोमांटिक युगल गीतों का जादूगर समझा जाता है जिनके लिखे तमाम लोकप्रिय लता-रफ़ी व लता-मुकेश डुएट्स इस बात को साबित करता है। आख़िरी अंतरे मे हसरत साहब लिखते हैं कि "चाहे कोई डगर हो प्यार की, ख़त्म होगी ना तेरी मेरी दास्ताँ, दिल जलेगा तो होगी रोशनी, तेरे दिल में बनाया मैंने आशियाँ"। हम भी यही कहेंगे कि हम और आप मिल कर जो इस सुरीली डगर पर चल पड़े हैं यह डगर कभी ख़त्म नहीं होगी, और यह दास्ताँ युंही चलती रहेगी। भले ही कभी कभार कुछ पड़ाव आ जाए, लेकिन वो बहुत कम समय के लिए होगा, फिर से कारवाँ चल पड़ेगा अपनी अगली सुरीली मंज़िल की तरफ़।
आज हम बहुत दिनों के बाद फिर एक बार रुख़ कर रहे हैं तबस्सुम द्वारा प्रस्तुत उस दूरदर्शन के मशहूर कार्यक्रम 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' की ओर जिसमें एक बार संगीतकार शंकर जयकिशन के शंकर ने शिरकत की थी। उसमें तबस्सुम जी ने शंकर साहब से आख़िर में एक सवाल किया था कि "शंकर जी, लोग यह महसूस करते हैं कि जयकिशन जी के बाद फ़िल्म जगत में आप का नाम भी कम नज़र आने लग गया है।" इसके जवाब में शंकर जी ने कहा था "उसकी वजह है। आपको इससे पहले भी मैंने बतलाया, जैसे कि आजकल के वक़्त में एक अच्छा आदमी जो नाम किया है, अच्छा वक़्त देखा है, तो ऐसे काम के लिए के घर जाना, किसी की ख़ुशामद करना, ये मैं समझता हूँ कि बेइज़्ज़ती है। इंसान को अगर शान से काम करना हो तो ठीक है, काम का मुक़ाबला कीजिए ना, काम अगर अच्छा चाहिए तो हम हैं, चाहे आज हो, आज से २५ साल पहले का काम हो तो वैसा अगर काम करना हो तो हम करके दिखा सकते हैं और आज भी हमारा म्युज़िक, जो भी हमने किया है, आज के गानों से भी ज़्यादा हमारे गानों का रीदम आज भी उतना फ़ास्ट है।" तो दोस्तों, फ़ास्ट गानों की जब ज़िक्र चल ही रही है तो आज का यह गीत भी फ़ास्ट रीदम पर ही बना है, तो आइए सुनते हैं रोहित राजपूत की फ़रमाइश का यह प्यारा सा युगल गीत।
क्या आप जानते हैं... कि हसरत जयपुरी का असली नाम इक़बाल हुसैन था और गीतकार बनने से पहले वो एक बस कंडक्टर थे।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मुखड़े में शब्द है -"शीशा", गीत बताएं -३ अंक. 2. आशा भोसले की आवाज़ में इस गीत को किस शायर ने लिखा है- २ अंक. 3. संगीतकार बताएं-२ अंक. 4. दिलीप कुमार और वैजयंती माला अभिनीत इस फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- चलिए इंदु जी ग़लतफ़हमी ही सही, पर इस बहाने एक सुन्दर गीत तो सुना, कल तो सभी विजेताओं में जम कर जवाब दिए, सभी को बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
पिछली किसी कड़ी में इस बात का ज़िक्र आया था कि "ग़ालिब" के उस्ताद "ग़ालिब" हीं थे। उस वक्त तो हमने इस बात पे ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब आज का आलेख लिखने की बारी आई तो हमने सोचा कि क्यों न एक नया मुद्दा,एक नया विषय ढूँढा जाए, अंतर्जाल पर ग़ालिब से जु़ड़ी सारी कहानियों को हमने खंगाल डाला और फिर ढूँढते-ढूँढते बात चचा ग़ालिब के उस्ताद पे आके अटक गई। श्री रामनाथ सुमन की पुस्तक "ग़ालिब" में इस सुखनपरवर के उस्ताद का लेखा-जोखा कुछ इस तरह दर्ज़ है:
फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे। इसी ज़माने (१८१०-१८११ ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इनका पुराना नाम हरमुज़्द था। फ़ारसी तो उनकी घुट्टीमें थी। अरबी का भी उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इस समय मिर्ज़ा १४ के थे और फ़ारसी में उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया और उनमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे ख़ुद ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उँडेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गये तब भी दोनों का पत्र-व्यवहार जारी रहा। एकबार गुरु ने शिष्य को एक पत्र में लिखा—"ऐ अजीज़ ! चः कसी? कि बाई हमऽ आज़ादेहा गाह गाह बख़ातिर मी गुज़री।" इससे स्पष्ट है कि मुल्लासमद अपने शिष्य को बहुत प्यार करते थे।
काज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्जा से स्वयं भी एकाध बार सुना गया कि "अब्दुस्समद एक फर्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग बे उस्ताद कहते थे, उनका मुँह बन्द करनेको मैंने एक फ़र्जी उस्ताद गढ़ लिया है।" पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं। अपने शिक्षण के सम्बन्ध में स्वयं मिर्ज़ा ने एक पत्र में लिखा है—
"मैंने अय्यामे दबिस्तां नशीनीमें ‘शरह मातए-आमिल’ तक पढ़ा। बाद इसके लहवो लईव और आगे बढ़कर फिस्क़ व फ़िजूर, ऐशो इशरतमें मुनमाहिक हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-सख़ुन का जौक़ फ़ितरी व तबई था। नागाह एक शख़्स कि सासाने पञ्चुम की नस्ल में से....मन्तक़ व फ़िलसफ़ा में मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम का नज़ीर मोमिने-मूहिद व सूफ़ी-साफ़ी था, मेरे शहर में वारिद हुआ और लताएफ़ फ़ारसी...और ग़वामज़े-फ़ारसी आमेख़्ता व अरबी इससे मेरे हाली हुए। सोना कसौटी पर चढ़ गया। जेहन माउज़ न था। ज़बाने दरी से पैवन्दे अज़ली और उस्ताद बेमुबालग़ा...था। हक़ीक़त इस ज़बान की दिलनशीन व ख़ातिरनिशान हो गयी।" यानि कि
"पाठशाला में पढने के दिनों में मैने "शरह मातए-आमिल" तक पढा। आगे चलकर खेल-कूद और ऐशो-आराम में मैं तल्लीन हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-कविताओं में रूचि मेरी स्वाभाविक थी। तभी ये हुआ कि सासाने-पंचुम की नस्ल में से तर्कशास्त्र और दर्शन में पारंगत एक इंसान जो कि मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम जैसा हीं धर्मात्मा और संत था, मेरे शहर में दाखिल हुआ (यहाँ पर ग़ालिब का इशारा मुल्ला अब्दुस्समद की ओर हीं है) और उसी से मैने फ़ारसी और अरबी की बारीकियाँ जानीं। धीरे-धीरे फ़ारसी मेरे ज़हन में घर करती गई और एक दिन यूँ हुआ कि यह ज़बान मेरी दिलनशीन हो गई।"
हमने ग़ालिब के उस्ताद के बारे में तो जान लिया (भले हीं लोग कहें कि ग़ालिब का कोई उस्ताद नहीं था, लेकिन हरेक शख्स किसी न किसी को गुरू मानता जरूर है, फिर वह गुरू प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, सीधे तौर पे जुड़ा हो या फिर किसी और माध्यम से, लेकिन गुरू की आवश्यकता तो हर किसी को होती है.. ऐसे में ग़ालिब अपवाद हों, यह तो हो हीं नहीं सकता था), अब क्यों न लगे हाथों हम ग़ालिब की शायरी में छुपी जटिलताओं का भी ज़िक्र कर लें। (साभार: अनिल कान्त .. मिर्ज़ा ग़ालिब ब्लाग से)
ग़ालिब अपनी शायरी में बातों को घुमा-फिराकर उनमें जद्दत पैदा करने की कोशिश करते हैं। ग़ालिब के पूर्वार्द्ध जीवन का काव्य तो हिन्दी कवि केशव की भाँति (जिन्हें 'कठिन काव्य का प्रेत' कहा गया है) जान बूझकर दुर्बोध बनाया हुआ काव्य है। ज़नाब 'असर' लखनवी ने ग़ालिब का ही एक शेर उद्धत करके इस विषय पर प्रकाश डाला है :
लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन, करता जो न मरता कोई दिन आहोफ़ुँगा और ।
जब किसी ने इसका मतलब पूछा तो ग़ालिब ने कहा :
"यह बहुत लतीफ़ तक़रीर है। लेता को रब्त चैन से, करता मरबूत है में आहोफ़ुँगा से। अरबी में ता'कीद लफ्ज़ी व मान'वी दोनों मा'यूब हैं । फ़ारसी में ता'की़दे मान'वी ऐब और ता'की़दे लफ्ज़ी जायज़ बल्कि फ़सीह व मलीह। रेख्त: तक़लीद है फ़ारसी की। हासिल मा'नी मिस्त्र-ऐन यह कि अगर दिल तुम्हें न देता तो कोई दम चैन लेता, न मरता तो कोई दिन आहो फ़ुँगा करता।"
यानि कि "यह बहुत हीं सुंदर प्रयोग है। यहाँ लेता का संबंध चैन से है और करता का आहोफ़ुँगा से। अरबी में लफ़्ज़ों को इधर-उधर करना जिसमें अर्थ या तो वही रहे या फिर बदल जाए मान्य है, लेकिन फ़ारसी में लफ़्ज़ों के उस हेरफ़ेर को ऐब माना जाता है जिसमें अर्थ हीं बदल जाए, हाँ इतना है कि जब तक अर्थ वही रहे हम शब्दों को आराम से इधर-उधर कर सकते हैं और इससे शायरी में सुन्दरता भी आती है। चूँकि उर्दू की पैदाईश फ़ारसी से हुई है, इसलिए हम इसमें फ़ारसी का व्याकरण इस्तेमाल कर सकते हैं।"
वैसे यह कलाबाज़ी ग़ालिब का अंदाज़ है । वर्ना शेर को इस रूप में लिखा गया होता तो सबकी समझ में बात आ जाती :
देता न अगर दिल तुम्हें लेता कोई दम चैन, मरता न तो करता कोई दिन आहोफ़ुँगा और।
इसी घुमाव के कारण उनके जमाने के बहुत से लोग उनका मज़ाक उड़ाया करते थे. किसी ने कहा भी :
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे, मज़ा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे। कलामे मीर समझें और ज़बाने मीरज़ा समझें, मगर इनका कहा यह आप समझें या खुदा समझें।
मिर्ज़ा शायरी में माहिर थे, लेकिन शायरी के अलावा भी उनके कुछ शौक थे। कहा जाता है कि मिर्ज़ा को शराब और जुए का नशे की हद तक शौक था। जुआ खेलने के कारण वे कई बार हुक्मरानों के हत्थे चढते-चढते बचे थे। ऐसी हीं एक घटना का वर्णन प्रकाश पंडित ने अपनी पुस्तक "ग़ालिब और उनकी शायरी" में किया है:
मई १८४७ ई. में मिर्ज़ा पर एक और आफ़त टूटी। उन्हें अपने ज़माने के अमीरों की तरह बचपन से चौसर, शतरंज आदि खेलने का चसका था। उन दिनों में भी वे अपना ख़ाली समय चौसर खेलने में व्यतीत करते थे और मनोरंजनार्थ कुछ बाजी बदलकर खेलते थे। चांदनी चौक के कुछ जौहरियों को भी जुए की लत थी, अतएव वे मिर्ज़ा ही के मकान पर आ जाते थे। एक दिन जब मकान में जुआ हो रहा था, शहर कोतवाल ने मिर्ज़ा को रंगे-हाथों पकड़ लिया। शाही दरबार (बहादुरशाह ज़फ़र) और दिल्ली के रईसों की सिफ़ारिशें गईं। लेकिन सब व्यर्थ। उन्हें सपरिश्रम छः महीने का कारावास और दो सौ रुपये जुर्माना हो गया। बाद में असल जुर्माने के अतिरिक्त पचास रुपये और देने से परिश्रम माफ़ हो गया और डॉक्टर रास, सिविल सर्जन दिल्ली की सिफ़ारिश पर वे तीन महीने बाद ही छोड़ दिए गए। लेकिन ‘ग़ालिब’ जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए यह दण्ड मृत्यु के समान था। एक स्थान पर लिखते हैं:
"मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग(लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत(उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।" यह दुर्घटना व्यक्तिगत रूप से उनके स्वाभिमान की पराजय का संदेश लाई, अतएव
बंदगी में भी वो आज़ाद-ओ-खुदबी हैं कि हम, उल्टे फिर आयें दरे-काबा अगर वा न हुआ।।
कहने वाले शायर ने विपत्तियों और आर्थिक परेशानियों से घबराकर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ का दरवाज़ा खटखटाया। बहादुरशाह ज़फ़र ने तैमूर ख़ानदान का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखने का काम मिर्ज़ा के सुपुर्द कर दिया और पचास रुपये मासिक वेतन के अतिरिक्त ‘नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम-जंग’ की उपाधि और दोशाला आदि ख़िलअ़त प्रदान की और यों मिर्ज़ा बाक़ायदा तौर पर क़िले के नौकर हो गए।
इन बातों से यह भी मालूम पड़ता है कि खस्ताहाल आर्थिक स्थिति और शराब/जुए की लत के कारण मिर्ज़ा को कैसे-कैसे दिन देखने पड़े। सुखन के आसमान का चमकता हीरा किन्हीं गलियों में पत्थर के मोल बिकने को मजबूर हो गया। अब इससे ज्यादा क्या कहें.. अच्छा यही होगा कि हम मिर्ज़ा के जाती मामलों पे ध्यान दिए बगैर उनके सुखन को सराहते रहें। जैसे कि मिर्ज़ा के ये दो शेर: आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे
"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
मिर्ज़ा से जुड़े तीन-तीन किस्सों को हमने आज की इस महफ़िल में समेटा। इतना कुछ कहने के बाद "एक गज़ल सुन लेना" तो बनता है भाई!! क्या कहते हैं आप? है ना? तो चलिए आपकी आज्ञा लेकर हम आज की इस गज़ल से पर्दा उठाते हैं जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है जनाब जसविंदर सिंह जी ने। जसविंदर सिंह कौन है, यह बात क्यों न हम उन्हीं के मुँह से सुन लें:- "मैं मुंबई का रहने वाला हूँ और संगीत से जुड़ी फैमिली से संबंध रखता हूं। मेरे गुरु मेरे पिता कुलदीप सिंह हैं, जिन्होंने गज़ल ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ और गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता’ को कंपोज किया। अगर मैं गज़ल गायक नहीं होता तो निस्संदेह एक शास्त्रीय गायक होता। अभी तक मेरे तीन एलबम बाज़ार में आ चुके हैं- योर्स ट्रूली, दिलकश और इश्क नहीं आसान।" मेरे हिसाब से जसविंदर जी की यह गज़ल "इश्क़ नहीं आसान" एलबम का हीं एक हिस्सा है। वैसे जो रिकार्डिंग हमारे पास है वो किसी लाईव शो की है..इसलिए दर्शकों की तालियों का मज़ा भी इसमें घुल गया है। यकीन नहीं होता तो खुद सुन लीजिए: नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने
मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो _____ "ग़ालिब" कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "नदीम" और शेर कुछ यूँ था-
तुमसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ऐ नदीम मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले
मालूम होता है कि दूसरे शब्दों की तुलना में यह शब्द थोड़ा मुश्किल था, इसलिए हर बार की तुलना में इस बार हमें कम हीं शेर देखने और सुनने को मिलें। आगे बढने से पहले मैं यह बताता चलूँ कि यहाँ "नदीम" किसी शायर का नाम नहीं ,बल्कि इस शब्द का इस्तेमाल इसके अर्थ(नदीम = जिगरी दोस्त) में हुआ है..
अमूमन ऐसा कम हीं होता है कि शरद जी सीमा जी के पहले महफ़िल में आ जाएँ, लेकिन इस बार की स्थिति कुछ और हीं थी। वैसे यह होना हीं था क्योंकि शरद जी तो अपने वक्त पे हीं थे (आलेख पोस्ट होने के ४ घंटे बाद वो महफ़िल में आए थे), लेकिन सीमा जी हीं कहीं पीछे रह गईं। शरद जी ने अपने स्वरचित शेर से महफ़िल को तरोताज़ा कर दिया। यह रहा आपका शेर:
खंज़र को भी नदीम समझ कर के एक दिन हाथों से थाम कर उसे दिल से लगा लिया । (स्वरचित)
महफ़िल में अगली हाज़िरी लगाई सीमा जी ने। सीमा जी, हम यहाँ एक हीं शेर पेश कर सकते हैं क्योंकि दूसरा शेर "नदीम" साहब का है। हमें उन शेरों की दरकार थी जिसमें नदीम का कुछ अर्थ निकले। खैर..
ये जो चार दिन के नदीम हैं इन्हे क्या ’फ़राज़’ कोई कहे वो मोहब्बतें, वो शिकायतें, मुझे जिससे थी, वो कोई और है. (अहमद फ़राज़)
कविता जी, महफ़िल में आपका स्वागत है... प्रस्तुति पसंद करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। तो लगे हाथों आप भी कोई शेर पेश कर दीजिए ताकि महफ़िल की रवायतें बनी रहें..
अवनींद्र जी, बातों-बातों में आपने कई शेर पेश किए... आपके तीनों शेरों में से मुझे यह शेर बड़ा हीं मज़ेदार लगा,इसलिए इसी को यहाँ डाल रहा हूँ:
कभी तो आओगे मेरी कब्र पे फातिहा पढने ऐ नदीम कफ़न बिछा के तुम्हे शायरी सुना देंगे ,पका देंगे रुला देंगे
शन्नो जी, इन पंक्तियों में आपने क्या कहने की कोशिश की है, मुझे इसका हल्का-सा अंदाजा हुआ है, लेकिन पूरी तरफ़ से समझ नहीं पाया हूँ... वैसे आपकी यह "कलाकारी" और "अदाकारी" कहाँ से प्रेरित है, मुझे यह पता है :)
यहाँ कोई नदीम नहीं किसी का, ये दुनियां तो है बस अदाकारी की कोई मरता या जीता है बला से, सबको पड़ी है बस कलाकारी की. (स्वरचित)
मंजु जी, इस बार आपके शेर में बहुत सुधार है.... पढ कर मज़ा आ गया:
गले लगाकर नदीम का रिश्ता आपने जो दिया , पूरा शहर इस रस्म का दीवाना हो गया . (स्वरचित)
नीलम जी, अब लगता है कि मुझे भी आपको ठाकुर (ठकुराईन) मानना होगा। अब तक तो मैं बस महफ़िल हीं सजाया करता था, लेकिन अब से मुझे आपके शेरों को पूरा करने का काम भी मिल भी गया है। यह रही मेरी कोशिश:
नदीम नहीं न सही, रकीब ही सही , बंदगी नहीं न सही, सलीब ही सही।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'पसंद अपनी अपनी' के तहत इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं अपनी ही पसंद के गानें। आज बारी है इंदु जी के फ़रमाइश की। वैसे भए इस गीत की फ़रमाइश इंदु जी ने लिख भेजी है, लेकिन इस गीत के चुनाव के पीछे हमारे अति परिचित पाबला जी का भी योगदान है। तो हम इस गीत को इन दोनों की मिली जुली फ़रमाइश ही मान लेते हैं। यह गीत है फ़िल्म 'दूज का चांद' का "पड़े बरखा फुहार, करे जियरा पुकार, दुख जाने ना हमार, बैरन रुत बरसात की"। लता मंगेशकर की आवाज़, साहिर लुधियानवी के बोल और रोशन का संगीत। इसे संयोग ही हम कहेंगे कि पिछले तीन दिनों से हम जो फ़रमाइशी गीत सुन रहे हैं वो सभी साहिर साहब के ही लिखे हुए हैं। फ़िल्म 'दूज का चांद' के इस गीत को चुनने के पीछे जो विशेष कारण है उसे हम आप सब के साथ बाँटना चाहेंगे। पाबला जी की बेटी जब बहुत छोटी थी, तो किसी बिमारी की वजह से वो कई दिनों तक अवचेतन रही। किसी भी तरीके से कुछ हो नहीं पा रहा था। ऐसे में कहीं से जब यह गीत गूंजा तो उनकी बेटी ने रेस्पॊण्ड किया और उसकी चेतना वापस आई और फिर धीरे धीरे वो बिल्कुल ठीक हो गई। इसी वजह से पाबला जी के लिए यह गीत अविस्मरणीय है और होना भी चाहिए। हम तो शुक्रिया अदा करना चाहेंगे इंदु जी का जिन्होने अपने दोस्त पाबला जी के जीवन की इस अनोखी बात को हम तक पहुँचाया।
फ़िल्म 'दूज का चांद' आई थी सन् १९६४ में। नितिन बोस निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी लिखी राजेन्द्र सिंह बेदी ने और मुख्य भूमिकाएँ अदा की राजकुमार, बी. सरोजा देवी, चन्द्रशेखर, भारत भूषण और अशोक कुमार ने। इस फ़िल्म के दूसरे गीतों की बात करें, तो रफ़ी साहब और सुमन कल्याणपुर का गाया "चांद तकता है इधर", मन्ना दा का गाया "फूल गेंदवा ना मारो लगत करेजवा में चोट", रफ़ी साहब का गाया "महफ़िल से उठ जाने वालों तुम पर अब क्या इल्ज़ाम", "सुन ऐ माहजबीं मुझे तुझसे इश्क़ नहीं", सुमन कल्याणपुर का गाया "झाँकती है मेरी आँखों से" तथा आशा और लता का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "सजन सलोना माँग लो जी कोई निकला है दूज का चांद, सखी री आज न करियो लाज", ये सभी गानें अपने आप में सुरीले हैं सुमधुर हैं, लेकिन साहिर-रोशन की जोड़ी की जो दूसरी फ़िल्में हैं, जैसे कि 'बरसात की रात', 'ताजमहल', 'चित्रलेखा', 'दिल ही तो है' आदि, इन फ़िल्मों के संगीत के चमक के आगे 'दूज का चांद' थोड़ा ठंडा रहा, लेकिन ख़ास कर मन्ना डे का गाया "फूल गेंदवा ना मारो" को आज भी शास्त्रीय संगीत पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं में बहुत ऊँचा दर्जा दिया जाता है। आज का प्रस्तुत गीत "पड़े बरखा फुहार" जुदाई का एक ग़मगीन नग़मा है। क्योंकि सावन के महीने को मिलन का महीना भी माना जाता है, तो ऐसे में जुदाई का दर्द और ज़्यादा गहरा जाता है। तभी तो हमारी फ़िल्मों में अक्सर जुदाई को सावन के साथ जोड़ा जाता है माहौल को और भी ज़्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए। इस जौनर के गीतों में "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ", "अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में" जैसे गीत शामिल होते हैं। तो आइए इंदु जी और पाबला जी की फ़रमाइश पर सुनते हैं 'दूज का चांद' फ़िल्म का यह गीत लता जी की आवाज़ में।
क्या आप जानते हैं... कि रोशन ने फ़िल्म 'दूर नहीं मंज़िल' के लिए सुमन कल्याणपुर से एक गीत रिकार्ड करवाया था "लिए चल गड़िया ओ मेरे मितवा दूर नहीं मंज़िल", पर उनकी मृत्यु के कारण बाकी गीत शंकर जयकिशन ने तैयार किए।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मुखड़े में शब्द है -"शिकायत", फिल्म का नाम बताएं-३ अंक. 2. शंकर जयकिशन के स्वरबद्ध किये इस गीत को किसने लिखा है- २ अंक. 3. रूठने मनाने का खेल है इस युगल गीत में, पुरुष गायक बताएं-२ अंक. 4. राजेन्द्र कुमार अभिनीत इस फिल्म के निर्देशक बताएं-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- अल्पना जी आपका स्वागत है सही जवाब है, शरद जी, इंदु जी और अवध जी तो अब गुरु हैं ही, दिलीप जी और आशा जी आपके स्नेह शब्द सुखद लगे
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है आप ही के पसंदीदा गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी के पसंद का एक गीत। इससे पहले कि हम रश्मि जी के पसंद के गाने का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि ये वही रश्मि जी हैं जो एक जानी मानी लेखिका हैं, और प्रकाशन की बात करें तो "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है जिसमें अभी हाल ही में हिंद युग्म से प्रकाशित "शब्दों का रिश्ता" भी शामिल है. जिन्हे मालूम नहीं उनके लिए हम यह बता दें कि रश्मि जी कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त जी ने ही किया था। रश्मि जी आवाज़ से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुईं हैं और कविताओं के अलावा 'आवाज़' के 'गुनगुनाते लम्हे' सीरीज़ में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तो रश्मि जी ने जिस गीत की फ़रमाइश की हैं वह एक बड़ा ही अनूठा और ख़ूबसूरत गीत है किशोर कुमार और सुधा मल्होत्रा का गाया हुआ, "कश्ती का ख़ामोश सफ़र है, शाम भी है तन्हाई भी, दूर किनारे पर बजती है लहरों की शहनाई भी"। फ़िल्म 'गर्ल फ़्रेंड' का यह गीत है जिसे लिखा है गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार हैं हेमन्त कुमार। इस गीत का फ़ॊरमैट थोड़ा अलग हट के है। गीत शुरु तो होता है उपर लिखे मुखड़े से, लेकिन इसके बाद ही आता है "आज मुझे कुछ कहना है, लेकिन यह शर्मीली निगाहें मुझको इजाज़त दें तो कहूँ..., आज मुझे कुछ कहना है"। "आज मुझे कुछ कहना है" को बतौर मुखड़ा ट्रीट किया जाता है कहीं कहीं। दरसल इस गीत को मुखड़े और अंतरे में विभाजित नहीं किया जा सकता। आप ख़ुद ही सुन कर अनुभव कीजिए। गीत ख़त्म होता है "छोड़ो अब क्या कहना है" के साथ। ये एक खूबसूरत नज़्म है साहिर साहब की लिखी हुई.
अभी हाल में मैंने एक एच.एम.वे की सी.डी खरीदी है 'किशोर सिंग्स फ़ॊर किशोर', जिसमें इस गीत को शामिल किया गया है। दोस्तों, वैसे यह गीत आजकल बहुत कम ही सुनाई देता है, लेकिन कितना सुंदर गीत है। किशोर दा के गाए सॊफ़्ट रोमांटिक गीतों में इस गीत का दर्जा बहुत ऊँचा होना चाहिए। जितने सुंदर बोल साहिर साहब ने लिखे हैं, उतनी ही ख़ूबसूरत धुन है हेमन्त दा का, और गीत को सुन कर ऐसा लगता है जैसे इन दोनों गायकों के लिए ही बना था यह गाना। सुधा मल्होत्रा वैसे तो कमचर्चित ही रह गईं, लेकिन इस तरह के बहुत से सुमधुर सुरीले गीत उन्होने गाए हैं जिन्हे आज सुनो तो दिल उदास हो जाता है यह सोच कर कि ऐसे सुरीले गीतों को गाने वाली गायिका को वह मुक़ाम क्यों नहीं हासिल हुआ जिसकी वो हक़दार थीं। 'गर्ल फ़्रेंड' १९६० की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे किशोर कुमार व वहीदा रहमान। सत्येन बोस निर्देशित इस फ़िल्म का निर्माण किया था बासु चटर्जी ने। किशोर कुमार ने लता मंगेशकर और आशा भोसले के साथ ही ज़्यादातर युगल गीत गाए हैं। लेकिन कुछ ऐसी ऐसी गायिकाओं के साथ भी गाए हैं जिनके साथ उनके जोड़ी की कल्पना करना मुश्किल सा लगता है। जैसे कि शमशाद बेग़म, गीता दत्त, सुधा मल्होत्रा, सुलक्षणा पण्डित आदि। तो आइए आज का यह गीत सुना जाए और रश्मि जी का हम शुक्रिया अदा करना चाहेंगे इतनी ख़ूबसूरत गीत को चुनने के लिए।
क्या आप जानते हैं... कि बतौर संगीतकार किशोर कुमार की पहली फ़िल्म थी १९६१ की 'झुमरू' और अंतिम फ़िल्म थी १९८९ की 'ममता की छाँव में', जो उनकी मृत्यु के दो साल बाद प्रदर्शित हुई थी।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मुखड़े में शब्द है -"जियरा", गायिका का नाम बताएं-३ अंक. 2. फिल्म के नाम में "चाँद" शब्द है, निर्देशक बताएं- २ अंक. 3. गीतकार बताएं -२ अंक. 4. ठंडी फुहारों सा मन को भाता ये गीत किस संगीतकार की दें है-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- शरद जी एक दम सही, आपको तो मानना पड़ेगा, पदम जी, इंदु और अवध जी खरे उतरे परीक्षा में
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
सुजॊय- सजीव, कुछ निर्देशक और अभिनेता ऐसे हैं जिनकी फ़िल्मों का लोग बेसबरी से इंतज़ार करते हैं। ये कलाकार ना केवल बहुत कम फ़िल्में बनाते हैं, बल्कि हर फ़िल्म में कुछ नया इस फ़िल्म जगत को देते हैं। राकेश रोशन और उनके सुपुत्र हृतिक रोशन के फ़िल्मों का जो कारवाँ 'कहो ना प्यार है' की ज़बरदस्त कामयाबी से शुरु हुआ था, वह कारवाँ उसी कामयाबी की राह पर आगे बढ़ता हुआ, 'कोई मिल गया' और 'क्रिश' जैसी ब्लॊकबस्टर फ़िल्मों के पड़ाव से गुज़र कर अब एक और महत्वपूर्ण पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहा है, जिस पड़ाव का नाम है 'काइट्स'।
सजीव - 'काइट्स' की चर्चा काफ़ी समय से हो रही है और इस फ़िल्म से लोगों को बहुत सी उम्मीदें हैं। लेकिन इस फ़िल्म को राकेश रोशन ने ज़रूर प्रोड्युस किया है, लेकिन इस बार निर्देशन की बगडोर उन्होने अपने हाथ में नहीं लिया, बल्कि यह भार सौंपा गया 'लाइफ़ इन अ मेट्रो' और 'गैंगस्टर' जैसी सफल फ़िल्मों के निर्देशक अनुराग बासु को।
सुजॊय - संगीत की बात करें तो अनुराग बासु की फ़िल्मों में अक्सर प्रीतम का ही संगीत होता है। लेकिन क्योंकि यह रोशन परिवार की फ़िल्म है तो फिर राजेश रोशन के अलावा और कौन हो सकता है फ़िल्म के संगीतकार। और वैसे भी जितनी भी बार राकेश, राजेश और ऋतिक की तिकड़ी एक जुट हुई है, हमें अच्छा संगीत सुनने को मिला है।
सजीव - भले ही राजेश रोशन अपने करीयर में कई संगीत संबंधित विवादों से घिरे रहे हैं, यह बात भी सच है कि वो उन बहुत ही गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने बदलते वक़्त, रुचि और चलन के साथ अपने आप को ढाला है और जिसका नतीजा यह है कि ७० के दशक में उनका सगीत जितना हिट था, आज २०१० के दशक में भी युवाओं के दिलों पर उतने ही हावी हैं।
सुजॊय - तो सजीव, हृतिक रोशन और बारबरा मोरी अभिनीत 'काइट्स' के गीत संगीत की चर्चा आज 'ताज़ा सुर ताल' में हो रही है, आइए इस फ़िल्म का पहला गीत सुनते हैं के.के की आवाज़ में, जिसे लिखा है नासिर फ़राज़ ने। पहले गीत सुन लेते हैं, फिर अपनी चर्चा आगे बढ़ाएँगे।
गीत: ज़िंदगी दो पल की
सजीव - वाह! बहुत ही अच्छी धुन जो एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह आई। जैसा कि मैंने कहा था कि राजेश रोशन हर दौर के टेस्ट के अनुरूप अपने संगीत को हाला है। के.के की आवाज़ की मिठास और पैशन, दोनों ही साफ़ झलकता है इस गीत में। भारतीय और पाश्चात्य साज़ों का जो तालमेल रोशन साहब ने बनाया है, गीत को बड़ा ही मेलडियस बनाता है। और जहाँ पर के.के "इंतेज़ार कब तलक" गाते हैं, उसमें राजेश रोशन का अंदाज़ आप नोटिस कर सकते हैं।
सुजॊय - कुल मिलाकर यह गीत इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय हो रहा है और इसी गीत के ज़रिए टीवी के परदे पर फ़िल्म को प्रोमोट भी किया जा रहा है। के.के. ने इस फ़िल्म में एक और गीत गाया है "दिल क्यों ये मेरा शोर करे"। बड़ा ही सॊफ़्ट नंबर है। एक जालस्थल पर किसी ने इस गीत के बारे में यह लिखा है कि आप किसी लॊंग् ड्राइव पे निकल पड़े हो, चारों तरफ़ प्रकृति की शोभा पूरे शबाब पे हो, और एक कभी ना ख़त्म होनेवाली सड़क, ऐसे में इस गीत को बार बार सुनने का मज़ा कुछ और ही होगा।
सजीव - नासिर फ़राज़ के नर्मोनाज़ुक और काव्यात्मक शब्द और के.के. की नर्म आवाज़ ने इस गीत को बेहद कर्णप्रिय बनाता है। के.के. की खासियत है कि वो दमदार और नर्म, दोनों ही तरह के गीत वो बख़ूबी गा लेते हैं। वैसे इस गीत में आगे चलकर उनकी आवाज़ की वही दमदार और पैशन वाली अंदाज़ सुनाई देती है। वैसे इस गीत में कुछ कुछ अनुराग बासु - प्रीतम - के.के वाले गीतों की झलक भी मिलती है।
सुजॊय - और शायद बैण्ड म्युज़िक के इस्तेमाल की वजह से भी कुछ हद तक ऐसा लगा हो। जो भी है, के.के के गाए ये दोनों ही गीत लोग पसंद करेंगे ऐसी उम्मीद की जा सकती है। तो आइए अब इस गीत को सुना जाए।
गीत: दिल क्यों ये मेरा शोर करे
सजीव - 'काइट्स' फ़िल्म का अगला गीत है विशाल दादलानी और सूरज जगन की आवाज़ों में। ये दो नाम सुनते ही आप समझ ही चुके होंगे कि गाना किस अंदाज़ का होगा! जी हाँ, रॊक शैली में बना यह गीत गीटार की धुन से शुरु हो कर विशाल की आवाज़ टेक-ओवर कर लेती है। बाद में सूरज जगन अपनी उसी गायकी का परिचय देते हैं जिसे अंग्रेज़ी में 'फ़ुल थ्रोटेड रेंडिशन' कहते हैं।
सुजॊय - इससे पहले 'क्रेज़ी-४' फ़िल्म में विशाल दादलानी को राजेश रोशन ने गवाया था। आजकल बहुत से संगीतकार विशाल से गानें गवा रहे हैं।
सजीव - इस गीत को भी नासिर फ़राज़ ने ही लिखा है, लेकिन पिछले दो गीतों की तरह शायद यह गीत आपके दिल में बहुत ज़्यादा जगह ना बना सके। पर हो सकता है कि फ़िल्म में कहानी के अनुरूप यह गीत होगा और उसे परदे पर देखते हुए इसका अलग ही मज़ा आएगा।
सुजॊय - वैसे सजीव, कई बार अगर इस गीत को सुनें तो अच्छा ज़रूर लगने लगता है। आइए इस गीत को सुनते हैं और इस गीत के बारे में राय हम श्रोताओं पर ही छोड़ते हैं।
गीत: तुम भी हो वही
सजीव - फ़िल्म 'जुली' में प्रीति सागर ने गाया था "माइ हार्ट इज़ बीटिंग्", जो कि एक पूर्णत: अंग्रेज़ी गीत था। राजेश रोशन द्वारा स्वरबद्ध यह गीत कालजयी हो गया है। अब फ़िल्म 'काइट्स' के लिए भी उन्होने एक अंग्रेज़ी गीत कॊम्पोज़ किया है, जो कि इस फ़िल्म का शीर्षक गीत भी है - "काइट्स इन द स्काई"। इस गीत में एक अंतर्राष्ट्रीय अपील है और संगीत संयोजन भी बिल्कुल उसी अंदाज़ का है जो अंदाज़ आजकल विदेशी ऐल्बम्स के गीतों में सुनाई देता है।
सुजॊय - और उससे भी बड़ी बात यह कि इस गीत को और कोई नहीं बल्कि ऋतिक रोशन ने गाया है और यह उनका पहला गीत है। और मानना पड़ेगा कि उन्होने बहुत ही अच्छे गायन का परिचय दिया है। और क्यों ना दें, वो हैं ही परफ़ेक्शनिस्ट। जो भी काम वो करते हैं, पूरे परफ़ेक्शन के साथ करते हैं।
सजीव - इस गीत में ऋतिक का साथ दिया है सुज़ेन डी'मेलो ने। इस गीत को लिखा है आसिफ़ अली बेग ने। सुनते हैं।
गीत: काइट्स इन द स्काई
सुजॊय - ऋतिक रोशन की फ़िल्म हो और उसमें उनकी ज़बरदस्त नृत्यकला का परिचय ना मिले यह कैसे हो सकता है! फ़िल्म 'कोई मिल गया' में "इट्स मैजिक" की तरह 'काइट्स' में भी राजेश रोशन ने अपने भतीजे साहब के लिए एक ऐसा ज़बरदस्त गीत रचा है जिसका शीर्षक है "फ़ायर"। यानी कि अंग्रेज़ी में कहें तो Hrithik is gonna set the stage on fire!!!
सजीव - और इस गीत को राजेश रोशन ने ख़ुद गाया भी है और उनका साथ दिया है विशाल दादलानी, अनुश्का मनचंदा और अनिरुद्ध भोला ने। गीत में बोल बहुत ही कम है, डान्स म्युज़िक ही हावी है और पूरी तरह से टेक्नो म्युज़िक है।
सुजॉय- इसे फिल्म का थीम संगीत भी कहा जा सकता है, "दिल तो पागल है" फिल्म में जिस तरह संगीत से और नृत्य से "जलन" की भावना को परदे पर साकार किया गया था, इस ट्रैक में "फायर" को परिभाषित किया गया है. संगीत आपके जेहन को रचनात्मक बनाता है, वेल डन राजेश रोशन साहब
गीत: फ़ायर
"काईट्स" के संगीत को आवाज़ रेटिंग **** बहुत ही अगल किस्म का संगीत है जिसे सफर में या फिर रात अँधेरे कमरे में अकेले बैठ कर सुना जा सकता है. रोमांटिक गीतों में जैसे के के ने जाँ फूंक दी है. ऋतिक की आवाज़ में एक गीत है जो खूब भाता है. राजेश रोशन ने आज के दौर के संगीत में मेलोडी का सुन्दर मिश्रण किया है. एक अच्छी एल्बम.
और अब आज के ३ सवाल
TST ट्रिविया # ४३- जोश', 'हेल्लो ब्रदर' और 'काइट्स' फ़िल्म को आप किस तरह से आपस में जोड़ सकते हैं?
TST ट्रिविया # ४४-राजेश रोशन ने 'काइट्स' के एक गीत में अपनी आवाज़ दी है। उनकी आवाज़ में क्या आपको कोई और गीत भी याद आता है? बताइए फ़िल्म का नाम और गीत के बोल।
TST ट्रिविया # ४५- बताइए उस फ़िल्म का नाम जिसमें हृतिक रोशन ने पहली बार काम किया था बतौर बाल कलाकार।
TST ट्रिविया में अब तक - सीमा जी सभी जवाब सही हैं, बधाई
'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में सभी श्रोताओं व पाठकों का फिर एक बार स्वागत है। पिछले दिनों हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक नए ई-मेल पते की शुरुआत की थी जिस पर हम आप से आपकी पसंद और सुझावों का स्वागत किया करते हैं। हमें बेहद ख़ुशी है कि आप में से कई 'आवाज़' के चाहनेवाले इस पते पर ना केवल अपनी पसंद लिख कर भेज रहे हैं, बल्कि साथ ही साथ सुझाव भी भेज रहे हैं और हमारी ग़लतियों को भी सुधार रहे हैं। हम पूरी कोशिश करते हैं कि आलेखों में लिखे जाने वाले तथ्य १००% सही हो, लेकिन कभी कभी ग़लतियाँ हो ही जाती हैं। इसलिए हम आप से फिर एक बार निवेदन करते हैं कि जब भी कभी आपको लगे कि दी जाने वाली जानकारी ग़लत है, तो हमें ज़रूर सूचित करें। और अब हम आते हैं आपकी पसंद पर। हमारा मतलब है, उन फ़रमाइशों पर जिन्हे आप ने की है हम से। जी हाँ, पिछले दिनों हमें आप की तरफ़ से जिन जिन गीतों को सुनवाने की फ़रमाइशें प्राप्त हुई हैं, उन्ही गीतों को लेकर हम आज से शुरु कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। हमारे ई-मेल पते पर सब से पहली पसंद जो हमें प्राप्त हुई है, वह है गुड्डो दादी का। दादी का आशीर्वाद हमारे साथ हमेशा रहा है और कई बार उन्होने हमारे इस प्रयास की सराहना भी की हैं। यहाँ तक कि सजीव जी के जन्मदिन पर अमेरीका से टेलीफ़ोन कर उन्होने शुभकामनाएँ दी थी। 'आवाज़' के इस माध्यम से जिस तरह का प्यार हम सब को मिला है और मिल रहा है, उसका मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं। तो गुड्डो दादी की पसंद का गीत है फ़िल्म 'चन्द्रकान्ता' का "मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी, मुझको रातों की स्याही के सिवा कुछ ना मिला"। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़, एन. दत्ता का संगीत और गीतकार हैं साहिर लुधियानवी।
'चन्द्रकान्ता' १९५६ की फ़िल्म थी। सचिन देव बर्मन के सहायक के रूप में काम कर रहे एन. दत्ता को बतौर स्वतन्त्र संगीतकार पहला मौका दिया था जी. पी. सिप्पी ने १९५५ में फ़िल्म 'मरीन ड्राइव' में। इसके अगले ही साल, १९५६ में एन. दत्ता के संगीत से सजी दो फ़िल्में प्रदर्शित हुईं - 'दशहरा' और 'चन्द्रकान्ता'। रफ़ी साहब के गाए 'चंद्रकान्ता' के इस गीत ने एन. दत्ता को आपार ख्याति दिलाई। 'चन्द्रकान्ता' भी जी. पी. सिप्पी की ही फ़िल्म थी। दरअसल इस साल सिप्पी साहब ने दो फ़िल्में बनाई; एक तो थी 'चन्द्रकान्ता', और दूसरी फ़िल्म थी 'श्रीमति ४२०' जिसके लिए उन्होने ओ. पी. नय्यर को संगीतकार चुना था। भारत भूषण और बीना राय अभिनीत 'चन्द्रकान्ता' अगर आज लोगों की यादों में ताज़ा है तो सिर्फ़ इस गीत की वजह से। किस ख़ूबसूरती के साथ साहिर साहब ने जीवन के सपनों को चमकते चांद और सितारों के साथ तुलना की है, और दूसरी तरफ़ दुखों की तुलना रात के अंधकार से और अंधकार की तुलना काली स्याही से की है। अपनी व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से साहिर साहब जब भी कभी इस तरह का ग़मज़दा नग़मा लिखते थे तो उसमें जैसे कलेजा चीर कर रख देते थे। दत्ता साहब की मेलडी में ढल कर किस तरह का पैथोस उभर कर आया है इस अंतरे में जब शायर लिखते हैं कि "प्यार मांगा तो सिसकते हुए अरमान मिले, चैन चाहा तो उमड़ते हुए तूफ़ान मिले, डूबते दिल ने किनारे की तमन्ना की थी, मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी"। तो गुड्डो दादी, आपकी फरमाईश के इस गीत को सुनने और हम सब को सुनवाने की जो तमन्ना थी, वो तो हो रही है पूरी। आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आगे भी इसी तरह से हमसे जुड़े रहिएगा। धन्यवाद!
क्या आप जानते हैं... कि एन. दत्ता ने १९५६ में जिस 'दशहरा' नामक फ़िल्म में संगीत दिया था, उसी फ़िल्म में संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी ने पर्दे पर एक भूमिका अदा की थी।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"खामोश" फिल्म बताएं-३ अंक. 2. इस युगल गीत में एक आवाज़ सुधा मल्होत्रा की भी है, गायक बताएं- २ अंक. 3. सुधा जी को जिस शायर के साथ जोड़ कर देखा जाता है उन्हीं का लिखा है ये गीत,नाम बताएं-२ अंक. 4. संगीतकार कौन हैं इस खूबसूरत गीत के-२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम- इंदु जी आपका कार्यक्रम बढ़िया हो ये तो हम चाहेंगे, पर ओल्ड इस गोल्ड में हजारी भी जरूरी है याद रखिये, शरद जी शुक्रिया....आपके क्या कहने...अर्चना और अवध जी शुक्रिया
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
हिन्द-युग्म YouTube Channel
आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
हमसे जुड़ें
आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
यदि आप अपनी कविताओं/गीतों/कहानियों को एक प्रोफेशनल आवाज़ में डब्ब ऑडियो बुक के रूप में देखने का ख्वाब रखते हैं तो हमसे संपर्क करें-hindyugm@gmail.com व्यवसायिक संगीत/गीत/गायन से जुडी आपकी हर जरुरत के लिए हमारी टीम समर्पित है