Saturday, July 2, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 48 - "मेरे पास मेरा प्रेम है"



पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत
पहले पढ़ें ये पुराने एपिसोड्स
भाग ०१
भाग ०२
भाग ०३
अब पढ़ें आगे...

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। इस साप्ताहिक स्तंभ में पिछले तीन सप्ताह से हम सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार, दार्शनिक व फ़िल्मी व ग़ैर-फ़िल्मी गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से बातचीत कर रहे हैं। पिछली कड़ी में आपनें जाना कि स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ पंडित जी का किस तरह का पिता-पुत्री जैसा सम्बंध था और उनके परिवार के साथ किस तरह लता जी जुड़ी हुई थीं। आइए बातचीत को आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की चौथी व अंतिम कड़ी।

सुजॉय - लावण्या जी, पिछले तीन सप्ताह से हम आपसे बातचीत कर रहे हैं, आज फिर एक बार आपका बहुत बहुत स्वागत है 'हिंद-युग्म आवाज़' के इस मंच पर, नमस्कार!

लावण्या जी - नमस्ते!

सुजॉय - लावण्या जी, एक पिता के रूप में आपनें अपने जीवन के अलग अलग पड़ावों में अपने पिताजी को कैसा कैसा पाया? यानी कि बचपन में, यौवन में, आपने उन्हें कैसा महसूस किया? क्या एक आदर्श पिता के रूप में आप उनका परिचय करवाना चाहेंगी?

लावण्या जी - पापा जी को जब भारत सरकार ने अमरीका भेजा था तब पापा ने सूट पहना था, पर हमेशा भारत मे और घर या बाहर जाते वे बहुत सादा लिबास पहनते धोती - कुर्ता और जाकेट, गर्मियों मे खादी और सर्दीयों मे सिल्क का कुर्ता! बचपन मे, हम हमेशा रात को अगर तबीयत ठीक न हो तो पापा जी को ही उठाया करते थे पापा जी ने मुझे 'सजयति सिंदुर वदनो देवो' ये गणेश पूजा सीखलायी थी जब मैं ३ साल की थी। वे हमे बहुत सुन्दर कहानियां सुनाते, गुजराती कविता भी भावार्थ के साथ सिखलाते। आगे आप इस लिंक में जाकर विस्तृत पढ़ सकते हैं।

http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/03/blog-post_16.html

सुजॉय - पंडित जी से सम्बंधित कुछ यादगार घटनाओं के बारे में बताइए। वो घटनाएँ या संस्मरण जो भुलाये नहीं भूलते।

लावण्या जी - ( अ ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बड़े सो रहे थे, पड़ोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड कर किलकारियाँ भर रहे थे कि अचानक, पापाजी वहाँ आ पहुँचे, गरज कर कहा, "अरे! यह आम पूछे बिना क्योँ तोड़े? जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो"। एक तो चोरी करते पकड़े गए और उपर से माफी माँगनी पडी!!! पर अपने और पराये का भेद आज तक भूल नही पाए, यही उनकी शिक्षा थी।
( ब ) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की। पापाजी ने, कवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति " मेघदूत " से पढ़ने को कहा। संस्कृत कठिन थी परँतु, जहीँ कहीँ , मैँ लड़खड़ाती, वे मेरा उच्चारण शुद्ध कर देते। आज, पूजा करते समय, हर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ।
( स ) मेरी बिटिया, सिंदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठती, पापा, मेरे पास सहारा देते, मिल जाते, मुझसे कहते, "बेटा, मैँ हूँ , यहाँ"। आज मेरी बिटिया की प्रसूति के बाद, यही वात्सल्य उड़ेलते समय, पापाजी की निश्छल, प्रेम-मय वाणी और स्पर्श का अनुभव हो जाता है। जीवन अतित के गर्भ से उदित होकर, भविष्य को संजोता आगे बढ रहा है।


सुजॉय - वाह, बहुत सुंदर! पंडित जी का 'आकाशवाणी' और 'विविध भारती' में ख़ासा योगदान है। किस तरह से उनके कंधों पर 'विविध भारती' के निर्माण का दायित्व सौंपा गया था, किस तरह से यह कारगर हुआ, इस बारे में कुछ बतायें।

लावण्या जी - ये कुछ लिंक अवश्य देखिएगा...

http://www.lavanyashah.com/2008/10/blog-post_03.html

http://www.lavanyashah.com/2009/04/blog-post_25.html

http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/09/prasaargeet-from-aakashvani-


सुजॉय - पंडित जी नें जहाँ एक तरफ़ कविताएँ, साहित्य, और फ़िल्मी गीत लिखे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ ग़ैर फ़िल्मी भक्ति रचनाएं, ख़ास कर माता को समर्पित बहुत से गीत लिखे हैं, जिन्हें हमनें पिछले साल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर 'नवरात्रि' में शामिल भी किया था। उनके लेखनी के इस पक्ष के बारे में भी बताइए। क्या वो अंदर से भी उतने ही धार्मिक थे? आध्यात्मिक थे? कैसी शख्सियत थी उनकी?

लावण्या जी - पापा जी दार्शनिक, विचारशील, तरुण व्यक्ति और प्रखर बुद्धिजीवी रहे। धार्मिक तो वे थे ही पर भारतीय वांग्मय, पुराण, वेद, धर्म ग्रन्थ के अध्येता थे। कईयों का अनुभव है और लोग कहते थे 'नरेंद्र शर्मा चलता फिरता विश्व कोष है'। 'राम चरित मानस' को पढ़ते और आंसू बहाते भी देखा है। उनका धर्म , सच्ची मानवता थी। सभी को एक समान आदर दिया करते चाहे वो आनेवाला महाराणा मेवाड़ हो या हमारे घर कपड़े लेने आनेवाला हमारा इस्त्रीवाला हो। हमारी बाई को चिट्ठी बांच कर सुनाते और घंटों existansilism इस गूढ़ विषय पे वे बोलते। बी.बी.सी सुनते और मारग्रेट थेचर को चुनाव लड़ने की शुभ तारीख भी उन्होंने बतलाई थी, हाँ सच! और मैडम जीती थीं! वे पूरी बंबई, पैदल या लोकल ट्रेन से या बस से घूम आते। दूरदर्शन पे संगीत का प्रोग्राम रेकॉर्ड करवा के सहजता से घर पर बतियाते। कभी कोई पर्चा या नोट नहीं रखते। किसी भी विषय पे साधिकार, सुन्दर बोलते। पंडित नेहरू के निधन पर भी 'रनिंग्‍ कमेंट्री' की थी। भारत माता के प्रति अगाध प्रेम व श्रद्धा थी जो उनकी कविताओं मे स्पष्ट है। उन्होँने "कदली वन " काव्य -सँग्रह की "देश मेरे " शीर्षक कविता मे कहा है - "दीर्घ जीवी देश मेरे, तू, विषद वट वृक्ष है"। देखें लिंक :

"नरेन्द्र शर्मा के काव्योँ मेँ राष्ट्रीय चेतना :डा. अमरनाथ दुबे- -- भाग -- १"

पापा जी का धर्म आडम्बरहीन और मानवतावादी था सर्वोदय और ' सर्वे भवन्तु सुखिन ' का उद्घोष लिये था।

सुजॉय - अपने पापाजी के लिखे फ़िल्मी रचनाओं में अगर पाँच गीत हम चुनने के लिए कहें, तो आप कौन कौन से गीतों को चुनेंगी?

लावण्या जी - यूं तो मुझे उनके लिखे सभी गीत बहुत पसंद हैं, पर आपने ५ के लिये कहा है तो मैं इन्हें चुनती हूँ

१ ) ' ज्योति कलश छलके ' -

गायिका लतादीदी , संगीत सुधीर फडके जी , शब्द पं. नरेंद्र शर्मा

२ ) ' सत्यम शिवम् सुंदरम ' -

गायिका लतादीदी , लक्ष्मीकांत प्यारे लाल जी का संगीत , शब्द पापा के

३ ) ' नाच रे मयूरा ' -

विविध भारती का सर्व प्रथम प्रसार - गीत

स्वर श्री मन्ना डे , संगीत अनिल बिस्वास जी और शब्द - पंडित नरेंद्र शर्मा के ये गीत नॉन फिल्म केटेगरी मे आएगा

http://www.lavanyashah.com/2009/04/blog-post_25.html

लिंक : http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/09/prasaargeet-from-aakashvani-air.html

४ ) "स्वागतम शुभ स्वागतम" - स्वागत गान एशियाड खेलों के उदघाटन पर संगीत पंडित रवि शंकर जी , शब्द - पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा के

http://www.lavanyashah.com/2009/05/blog-post_22.html

५ ) नैना दीवाने, एक नहीं माने, करे मन मानी माने ना -

गायिका सुरैया जी और संगीत श्री एस डी बर्मन तथा शब्द नरेंद्र शर्मा फिल्म "अफसर" जो देवानन्द जी के " नवकेतन बेनर " की प्रथम पेशकश थी ..लिंक :

http://www.lavanyashah.com/2008/04/blog-post_28.html


सुजॉय - और अब अंतिम सवाल, पंडित नरेन्द्र शर्मा एक ऐसी शख्सियत का नाम है जिनके व्यक्तित्व और उपलब्धियों का मूल्यांकन शब्दों में संभव नहीं। लेकिन फिर भी हम आपसे जानना चाहेंगे कि अगर केवल एक वाक्य में आपको अपने पापाजी के बारे में कुछ कहना हो तो आप किस तरह से उनकी शख़्सीयत का व्याख्यान करेंगी?

लावण्या जी - मैं मानती हूँ कि हर एक इंसान ईश्वर की अप्रतिम कृति है। हम ईश्वर के अंश हैं शायद , ईश्वर को कविता, गीत व संगीत बेहद प्रिय हैं! सबसे अलग, सबसे विशिष्ट हैं हम सभी। जैसे हमारे फिंगर प्रिंट सब से अलग होते हैं। पर पापा जी, पंडित नरेंद्र शर्मा के लिये एक वाक्य मे कहूं तो यही कहूंगी - ' न भूतो न भविष्यति ' ! एक अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी, जो आजीवन सर्वथा साधारण और सहज बने रहे शायद यही उनकी तपस्या का फल था और उनकी आत्मा का अंतिम चरण ...अंतिम सोपान ...

सुजॉय - बहुत बहुत धन्यवाद लावण्या जी आपका, 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, अपनी व्यस्त जीवन से समय निकालकर आपनें हमें समय दिया, और पंडित जी के बारे में न केवल इतनी जानकारी दी, अपने तमाम ब्लॉग्स में उनसे सम्बंधित लेखों के लिंक्स भी दिये, जिन्हें हम समय निकालकर ज़रूर पढ़ेंगे। बहुत बहुत धन्यवाद, नमस्कार!

लावण्या जी - सुजॉय भाई, आपके अनेक इंटरव्यू पढ़ कर खुश हुई हूँ और 'हिन्द-युग्म' हिन्दी भाषा के प्रति समर्पित होकर महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। समग्र सम्पादक मंडल व पूरी टीम को मेरे सस्नेह आशिष। आपको मेरे सच्चे मन से कहे धन्यवाद, बड़ी लम्बी बातचीत हो गयी। आप सब को समय देने के लिये भी शुक्रिया, फिर मिलेंगें, नमस्ते!

गीत - ईश्वर सत्य है, सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है (सत्यम् शिवम् सुंदरम्)


तो प्रिय श्रोता-पाठकों, ये था सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार, दार्शनिक व फ़िल्मी व ग़ैर-फ़िल्मी गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई लम्बी बातचीत का चौथा व अंतिम भाग। आशा आपको यह शृंखला पसंद आई होगी। अपने विचार और सुझाव टिप्पणी के अलावा आप oig@hindyugm.com के ईमेल आइडी पर लिख भेज सकते हैं। अब आज बस इतना ही, फिर मुलाक़ात होगी। हाँ दोस्तों, क्या बात है, 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' को तो आप सब भुला ही बैठे हैं? अपने जीवन की कोई स्मरणीय घटना को हमें आप लिख भेज सकते हैं उसी ईमेल आइडी पर, जिसे हम इसी साप्ताहिक स्तंभ में शामिल करेंगे। इसी उम्मीद के साथ कि आपके ईमेल हमें जल्द ही प्राप्त होंगे, अब मुझे अनुमति दीजिये, कल सुबह सुमित के साथ 'सुर-संगम' में और शाम को कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में पधारना न भूलियेगा, नमस्कार!

सुनो कहानी: जयशंकर प्रसाद की कला



जयशंकर प्रसाद की कहानी कला

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा की आवाज़ में अनुराग शर्मा की कथा 'बेमेल विवाह' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं जयशंकर प्रसाद की कहानी "कला", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 9 मिनट 26 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



झुक जाती है मन की डाली, अपनी फलभरता के डर में।
~ जयशंकर प्रसाद (30-1-1889 - 14-1-1937)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

अब मैं घर जाऊंगी, अब मेरी शिक्षा समाप्त हो चुकी।
(जयशंकर प्रसाद की "कला" से एक अंश)


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(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#135th Story, Kala: Jaishankar Prasad/Hindi Audio Book/2011/16. Voice: Anurag Sharma

Friday, July 1, 2011

कुछ अनजाने अफ़साने सुना रही है आवाज़ की संगीत टीम अपनी नयी अल्बम "मन जाने" में



Taaza Sur Taal (TST) - 19/2011 - Mann Jaane

दोस्तों, संगीत की विविधताओं से भरे इस देश में ये दुर्भाग्य ही है कि आज कल हमें संगीत के नाम पर केवल फिल्म संगीत ही सुनने को मिल रहा है. और बहुत से कारणों के चलते इसमें भी कोई विविधता नज़र नहीं आ रही है. यहाँ तक कि फिल्म संगीत के सबसे बुरे माने जाने वाले ८० के दशक में भी गैर फ़िल्मी ग़ज़लों की अल्बम्स एक अलग तरह के श्रोताओं की जरूरतें पूरी कर रहीं थी, और उस दौर के युवा श्रोताओं के लिए भी बहुत सी गैर फ़िल्मी अल्बम्स जो रोक्क्, पॉप, डिस्को, आदि जोनर का प्रतिनिधित्व कर रहीं थी, उपलब्ध थी. पर आज के इस दौर में तो लगता है, गैर फ़िल्मी संगीत लगभग गायब हो चुका है क्योंकि सबपर फिल्म संगीत हावी हो चुका है. ढेरों टेलंट की खोजों के नाम पर बहुत से नए कलाकारों को एक मंच तो दिया जा रहा है पर कितने इंडियन आइडल्स को हम आज सुन पा रहे हैं कुछ नया करते हुए. संगीत के इस सूखे दौर में फिल्मों से इतर जो संगीत की कोशिशें हो रही है उनको पर्याप्त प्रोत्साहन मिलना चाहिए, ताकि सचमुच ये तथाकथित नया टेलंट वाकई में कुछ नया करने की गुन्जायिश पैदा कर सके और श्रोताओं को भी कुछ अलग, कुछ नया सुनने को मिल सके.

पिछले दिनों मैंने दो अल्बम्स का जिक्र किया था. आमिर खान प्रोडक्शन की "डेल्ही बेल्ली" जिसमें राम संपंथ ने बहुत ही अनूठा संगीत रचा है, पर विडम्बना देखिये कि अमिताभ भट्टाचार्य जैसे अच्छे गीतकार को भी इसमें "डी के बॉस" जैसे गीत लिखने पड़े (नाम डी के बॉस ही क्यों चुना गया इसे समझने के लिए आपको बहुत अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी). कहने का तात्पर्य ये है फिल्म संगीत में हमेशा ही कलाकारों को बंध कर ही काम करना पड़ता रहा है, इसी बंदिश को तोड़ने का एक प्रयास का जिक्र हमने किया था पिछले हफ्ते निलेश मिश्रा और उनके "बैंड कोल्ल्ड नाईन" की पेशकश "रिवाईंड" का जिक्र करते हुए. आज भी हम एक ऐसी ही अल्बम का जिक्र कर रहे हैं जो फ़िल्मी धारा की लीक को तोड़ने का ही एक प्रयास है. आज कि अल्बम का जिक्र करते हुए हमें इसलिए भी अधिक खुशी हो रही है, कि इसके सभी कलाकार यहीं अपने आवाज़ मंच से जुड़े हुए हैं और इस अल्बम को आवाज़ समर्थित संगीत लेबल "सोनोरे यूनिसन" ने जारी किया है. अल्बम का नाम है "मन जाने", आईये जरा तफ्तीश करें इस अल्बम में शामिल गीतों की.

अल्बम का पहला और शीर्षक गीत "मन जाने", आवाज़ के तीसरे संगीत सत्र का दूसरा गीत था, जिसे आपार लोकप्रियता मिली थी. आवाज़ पर गायिका कुहू का भी ये दूसरा गीत था, इससे पहले वो "काव्यनाद' अल्बम के लिए श्रीनिवास द्वारा स्वरबद्ध महादेवी वर्मा रचित "जो तुम आ जाते एक बार" गा चुकी थी. "मन जाने" में आवाज़ के सबसे पुराने और चर्चित संगीतकार ऋषि एस एकदम नए रूप में दिखे थे. ऋषि की अपनी आवाज़ में कुछ बोल हैं जो इस गीत को एक नया अंदाज़ देते हैं. कुहू की मधुर आवाज़ ने विश्व दीपक के सरल बोलों को बेहद अच्छे से उभारा है खास कर इन शब्दों में –

आगे जाके साँसें उसकी पी लूँ, मन बता
बैठे बैठे मर लूँ या कि जी लूँ, मन बता


"मन जाने" का एक "अनप्लग्ड" संस्करण भी है अल्बम में. जिसमें मुझे लगता है कि यदि ऋषि की आवाज़ वाला हिस्सा हटा दिया जाता तो और शानदार बन सकता था.

"चम्बल का दंगल" बताते हैं विश्व दीपक अगले गीत में इश्क को. "सैयां" एक पंजाबी अंदाज़ का गीत है जिसका नाम पहले "ढोल फॉर पीस" रखा गया था, बाद में जब इसी विरोधाभास को वी डी ने शब्द दिए तो नाम बदल कर "सैयां" रखा गया. कुहू की तरह एक और बहुत ही प्रतिभाशाली गायक हैं श्रीराम ईमनी, जिन्होंने इसे गाया है, खासकर इस गीत में जिस अंदाज़ से "इशक" बोला गया है कमाल है. ढोल का एफ्फेक्ट देकर एक अलग ही कलेवर रचा है ऋषि ने, जो हर बार कुछ नया करने में विश्वास रखते हैं. "सैयां" अपने बोल-संगीत और आवाज़ से आपको झुमा देगा निश्चित ही.

अगला गीत है "सुपारी" जिसकी शुरुआत बेहद शानदार सुनाई पड़ती है, कुहू एक गायिका के रूप में एक बिलकुल अलग रंग में मिलती है यहाँ. इस गीत में भी एक बार फिर वी डी इश्क को परिभाषित करते मिलते हैं. बैक अप आवाज़ देते हुए ऋषि कुछ कमाल सा कर जाते हैं जो गीत में समां सा बांध देते हैं. बोल देखिये –

अब मैं
छिल-छिल मरूँ…
या घट-घट जिऊँ
तिल-तिल मरूँ
या कट-कट जिऊँ

जिद्दी आँखें….
आँके है कम जो इसे,
फाँके बिन तोड़े पिसे,
काहे फिर रोए, रिसे…

वाह....ठेठ देसी शब्दों का इस्तेमाल गीत को और मुखरित करता है, एक और उदाहरण देखिये –

होठों के कोठों पे
जूठे इन खोटों पे
हर लम्हा सजती है
हर लम्हा रजती है…

टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है
…… नींदें उड़ीं!!


मैं हमेशा वी डी से कहता हूँ कि ये मुझे उनके लिखे गीतों में सबसे पसंद है, और जाहिर है इस अल्बम में भी ये मेरा सबसे पसंदीदा गीत है. हाँ गीत का नाम "कड़वी सुपारी" अधिक सटीक होता.

उभरते हुए गायक "पियूष कुमार" की आवाज़ में एक बहुत संक्षित गीत है –'दिल की दराजें". मर्ज़ हर ले मेरी.. रख ले मेरी मर्जी….इस गीत में ऋषि की आवाज़ उतनी प्रभावी नहीं हो पायी है. पियूष से यदि बोले गए शब्द कहलाये जाते तो शायद बेहतर परिणाम मिल सकते थे. एलबम का अंतिम गीत है "इलाही" जिसमें श्रीराम का साथ दिया है गायिका श्रीविध्या कस्तूरी ने, यहाँ वी डी ने जिगर मुरादाबादी के शेर को आगे बढाते हुए गीत की रचना की है –

हम कहीं जाने वाले हैं दामन-ए-इश्क़ छोड़कर,
ज़ीस्त तेरे हुज़ूर में, मौत तेरे दयार में.....


आगे वी डी लिखते हैं – "हमने जिगर की बातें सुनी है, मीलों आखें रखके रातें सुनी है....", गुलज़ार साहब याद आ गए न. खैर वी डी के आदर्श हैं गुलज़ार साहब तो कहीं न कहीं उनका प्रभाव आना लाजमी भी है. हालांकि इस शांत प्रार्थना सरीखे सूफी गीत में वी डी कुछ नए तो कुछ बेहद कम इस्तेमाल होने वाले शब्दों से भी खेलते हैं जैसे शाहे-खुबां, कासा-कलगी, सूफ़ी- साकी, हर्फ़े-हस्ती आदि. ऋषि को सूफी में डुबो देने वाली कशिश पैदा करने के लिए शायद अभी थोड़ी और मेहनत करनी पड़ेगी. श्रीविध्या की आवाज़ में ताजगी है वहीँ श्रीराम कुछ छोटी छोटी कमियों के बावजूद गीत को अच्छा निभा पाए हैं. अल्बम के अंत में वी डी का ये शेर आपको अवश्य प्रभावित कर पायेगा –

एक तेरे इश्क़ में डूबकर हमें मौत की कमी न थी,
पर जी गए तुझे देखकर, हमें ज़िंदगी अच्छी लगी।


तो दोस्तों जिंदगी यक़ीनन अच्छी लगेगी अगर आप भी नए नए संगीत का यूहीं आनंद लेते रहें, और जो वाकई अच्छा है उसे न सिर्फ सुनें सराहें बल्कि अपने मित्रों को भी सुझाएँ, सुनाएँ. फिलहाल हम आपको छोड़ते हैं सोनोरे यूनिसन की इस पहली अल्बम "मन जाने" के गीतों के साथ.

आवाज़ रेटिंग - 8.5/10





अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, June 30, 2011

भैरवी के सुरों में कृष्ण ने राह चलती राधा की चुनरी रंग डारी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 690/2011/130

ज सप्ताहान्त की प्रस्तुति में एक बार फिर आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत है| पिछले सप्ताह आपसे किये वायदे का पालन करते हुए आज भी हम एक मनमोहक ठुमरी भैरवी के साथ उपस्थित हैं| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में जब "बनारसी ठुमरी" के विकास के साथ-साथ लखनऊ से पूर्व की ओर, बनारस से लेकर बंगाल तक विस्तृत होती जा रही थी, वहीं दूसरी ओर लखनऊ से पश्चिम दिशा में दिल्ली तक "पछाहीं अंग" की "बोल-बाँट" और "बन्दिशी" ठुमरी का प्रचलन बढ़ता जा रहा था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद लखनऊ के सनदपिया रामपुर दरबार चले गए थे, जहाँ कुछ समय रह कर उन्होंने ठुमरी का चलन शुरू किया| रामपुर दरबार के सेनिया घराने के संगीतज्ञ बहादुर हुसेन खाँ और उस्ताद अमीर खाँ इस नई गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए और इसके विकास में अपना योगदान किया| इसी प्रकार ठुमरी शैली का दिल्ली के संगीत जगत में न केवल स्वागत हुआ, बल्कि अपनाया भी गया|

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को समृद्धि प्रदान की| इन्हीं में एक थे गोस्वामी श्रीलाल, जिन्होंने "पछाहीं ठुमरी" को एक नई दिशा दी| इनका जन्म 1860 में दिल्ली के एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था| संगीत शिक्षा इन्हें अपने पिता गोस्वामी कीर्तिलाल से प्राप्त हुई| ये सितारवादन में भी प्रवीण थे| "कुँवर श्याम" उपनाम से इन्होने अनेक ध्रुवपद, धमार, ख़याल, ठुमरी आदि की रचनाएँ की| इनका संगीत व्यसन स्वान्तःसुखाय और अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण को सुनाने के लिए ही था| जीवन भर इन्होने किशोरीरमण मंदिर से बाहर कहीं नहीं गाया-बजाया| इनकी ठुमरी रचनाएँ कृष्णलीला प्रधान तथा स्वर, ताल और साहित्य की दृष्टि से अति उत्तम है| राग भैरवी की ठुमरी -"बाट चलत नई चुनरी रंग डारी श्याम..." कुँवर श्याम की सुप्रसिद्ध रचना है| उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी देवालय संगीत की परम्परा कहीं-कहीं दीख पड़ती थी| संगीतज्ञ कुँवर श्याम इसी परम्परा के संवाहक और पोषक थे|

आज भैरवी की जो ठुमरी हम आपको सुनाने जा रहे हैं, वह इन्हीं कुँवर श्याम की बहुचर्चित ठुमरी है| 1953 की फिल्म 'लड़की' में इस ठुमरी को शामिल किया गया था| राग भैरवी की इस ठुमरी -"बाट चलत नई चुनरी रंग डारी श्याम...." में श्रृंगार रस के साथ कृष्ण की मुग्धकारी लीला का अत्यन्त भावपूर्ण अन्दाज में चित्रण किया गया है| रचना का साहित्य पक्ष ब्रज भाषा की मधुरता से सराबोर है| गायिका गीता दत्त ने इस ठुमरी को बोल-बाँट के अन्दाज़ में गाया है| अन्त के सरगम से ठुमरी का श्रृंगार पक्ष अधिक प्रबल हो जाता है| भारतीय संगीत जगत के अनेक संगीत विद्वानों ने ठुमरी अंग में इस रचना को गाकर अलग-अलग रंग भरे हैं| जिन उपशास्त्रीय गायकों ने इस ठुमरी को लोकप्रिय किया है उनमें उस्ताद मुनव्वर अली खां, उस्ताद मुर्तजा खां, उस्ताद शफकत अली खां आदि प्रमुख हैं| तीन ताल में निबद्ध फिल्म 'लड़की' में गीता दत्त की आवाज़ में गायी गई यह ठुमरी अभिनेत्री अंजली देवी पर फिल्माया गया है| फिल्म के इस प्रसंग में अभिनेता भारतभूषण भी शामिल है| आप सुनिए गीता दत्त की आवाज़ में भैरवी की यह आकर्षक ठुमरी और मैं कृष्णमोहन मिश्र आपसे आज यहीं अनुमति लेता हूँ| "रस के भरे तोरे नैन..." श्रृंखला की ग्यारहवीं कड़ी में रविवार की शाम आपसे पुनः भेंट होगी| आपको याद है ना, इस बार हमारी यह श्रृंखला 20 कड़ियों की है| और हाँ; ठुमरी सुनने के बाद आज की पहेली का उत्तर देना न भूलिएगा|



क्या आप जानते हैं...
कि आज की यह प्रस्तुत ठुमरी 1957 की फिल्म 'रानी रूपमती' में भी शामिल की गई थी, जिसे कृष्णराव चोनकर और मोहम्मद रफ़ी ने स्वर दिया था|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 11/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी से प्रेरित गीत.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के नायक की आवाज़ आपने सुनी, नायिका कौन है - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर प्रतीक जी सही समय पर पर २ अंक ही ले पाए इस बार. क्षिति जी आपके लिए जी बात हिन्दुस्तानी जी ने कही है उससे हम सहमत हैं. वैसे मुकाबल बेहद रोचक हो अगर शरद जी, श्याम कान्त जी, अनजाना जी और प्रतीक जी भी अमित जी के साथ साथ कोशिश करें. नाराजगी सब बहुत दिनों तक नहीं रखनी चाहिए दिलों में हम तो यही कहेंगें

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, June 29, 2011

सजन संग काहे नेहा लगाए...उलाहना भाव में करुण रस की अनुभूति कराती ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 689/2011/129

श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| कल के अंक में आपने रईसों और जमींदारों की छोटी-छोटी महफ़िलों में फलती-फूलती ठुमरी शैली की जानकारी प्राप्त की| इस समय तक ठुमरी गायन की तीन प्रकार की उप-शैलियाँ विकसित हो चुकी थी| नृत्य के साथ गायी जाने वाली ठुमरियों में लय और ताल का विशेष महत्त्व होने के कारण ऐसी ठुमरियों को "बन्दिश" या "बोल-बाँट" की ठुमरी कहा जाने लगा| इस प्रकार की ठुमरियाँ छोटे ख़याल से मिलती-जुलती होती हैं, जिसमे शब्द का महत्त्व बढ़ जाता है| ऐसी ठुमरियों को सुनते समय ऐसा लगता है, मानो तराने पर बोल रख दिए गए हों| ठुमरी का दूसरा प्रकार जो विकसित हुआ उसे "बोल-बनाव" की ठुमरी का नाम मिला| ऐसी ठुमरियों में शब्द कम और स्वरों का प्रसार अधिक होता है| गायक या गायिका कुछ शब्दों को चुन कर उसे अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| धीमी लय से आरम्भ होने वाली इस प्रकार की ठुमरी का समापन द्रुत लय में कहरवा की लग्गी से किया जाता है| ठुमरी के यह दोनों प्रकार "पूरब अंग" की ठुमरी कहे जाते हैं| एक अन्य प्रकार की ठुमरी भी प्रचलन में आई, जिसे "पंजाब अंग" की ठुमरी कहा गया| ऐसी ठुमरियों को प्रचलित करने का श्रेय बड़े गुलाम अली खां, उनके भाई बरकत अली खां और नजाकत-सलामत अली खां को दिया जाता है| ऐसी ठुमरियों में "टप्पा" जैसी छोटी- छोटी तानों का काम अधिक होता है|

ठुमरी के साथ हमोनियम की संगति बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही शुरू हो गई थी| पिछली कड़ियों में हमने हारमोनियम पर ठुमरी बजाने में दक्ष कलाकार भैया गणपत राव की चर्चा की थी| आज की कड़ी में हम उस समय के कुछ और हारमोनियम वादकों की चर्चा करेंगे| बनारस के लक्ष्मणदास मुनीम (मुनीम जी), इस पाश्चात्य वाद्य पर गत और तोड़े बेजोड़ बजाते थे| राजा नवाब अली भी हारमोनियम पर रागों कि व्याख्या कुशलता से करते थे| इलाहाबाद के नीलू बाबू भी बहुत अच्छा हारमोनियम बजाते थे| ठुमरी और हारमोनियम का चोली-दामन का साथ रहा है|

आज जो ठुमरी हम आपको सुनवाने जा रहे हैं उसमें हारमोनियम की ही नहीं बल्कि अन्य कई पाश्चात्य वाद्यों की भी संगति की गई है| राज कपूर, माला सिन्हा, मुबारक और लीला चिटनिस द्वारा अभिनीत फिल्म "मैं नशे में हूँ" के एक प्रसंग में संगीतकार शंकर जयकिशन ने ठुमरी अंग में इस गीत का संगीत संयोजन किया है| लता मंगेशकर के गाये इस ठुमरी गीत का मुखड़ा तो एक पारम्परिक ठुमरी -"सजन संग काहे नेहा लगाए..." का है लेकिन दोनों अन्तरे गीतकार हसरत जयपुरी ने फिल्म के नायक के चरित्र के अनुकूल, परम्परागत ठुमरी की शब्दावली में रचे हैं| फिल्म के कथानक और प्रसंग के अनुसार इस ठुमरी के माध्यम से नायक (राज कपूर) और नायिका (माला सिन्हा) के परस्पर विरोधी सोच को दिखाना था| इसीलिए दोनों अन्तरों से पहले तेज लय में पाश्चात्य संगीत के दो अंश डाले गए हैं| शेष पूरा गीत ठहराव लिये हुए बोल- बनाव की ठुमरी की शक्ल में है| गीत में भारतीय और पाश्चात्य संगीत के समानान्तर प्रयोग से दर्शकों- श्रोताओं को बेहतर संगीत चुनने का अवसर देना ही प्रतीत होता है| स्वर-साधिका लता मंगेशकर ने उलाहना भाव से भरी इस ठुमरी में करुण रस का स्पर्श देकर गीत को अविस्मरणीय बना दिया है| राग तिलंग में निबद्ध होने से ठुमरी का भाव और अधिक मुखरित हुआ है| आइए सुनते हैं, रस से भरी इस ठुमरी को-



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर के पहले पार्श्वगायन का गीत -"पा लागूँ कर जोरी रे.." वास्तव में राग पीलू की ठुमरी है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी है.
सवाल १ - किस अभिनेत्री पर फिल्मांकित है गीत - ३ अंक
सवाल २ - गायिका कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी ने एकदम ६.३० पर ही जवाब देकर साबित किया है कि अमित और अनजाना जी के अलावा भी हैं योद्धा जो एक मिनट से भी पहले जवाब दे सकते हैं. बधाई. अविनाश जी और हिन्दुस्तानी जी को भी बधाई

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, June 28, 2011

"भर भर आईं अँखियाँ..." - जब महफ़िलों की शान बनी ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 688/2011/128

ल की कड़ी में हमने आपसे ठुमरी शैली के अत्यन्त प्रतिभाशाली कलासाधक और प्रचारक भैया गणपत राव के बारे में जानकारी बाँटी थी| फिल्मों में ठुमरी विषय पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन.." की आज की आठवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका पुनः स्वागत करता हूँ और भैया गणपत राव के एक शिष्य मौज़ुद्दीन खां के विषय में कुछ जानकारी देता हूँ| जिस प्रकार भैया जी अपने गुरु सादिक अली खां की ठुमरी का पाठान्तर करते थे, उसी तरह मौज़ुद्दीन खां अपने गुरु भैया जी की ठुमरी की अपने ढंग से व्याख्या करते थे| मौज़ुद्दीन खां ठुमरी के विलक्षण कलाकार थे| मात्र 33 वर्ष की उम्र में दिवंगत होने से पहले मौज़ुद्दीन खां ने ठुमरी शैली को इतना समृद्ध कर दिया था कि आज के ठुमरी गायक भी सम्मान के साथ उनकी गायन शैली को स्वीकार करते हैं|

आइए आपको मौज़ुद्दीन खां से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते हैं| बात 1909 की है, बनारस (अब वाराणसी) के प्रसिद्ध रईस और संगीत-प्रेमी मुंशी माधवलाल की विशाल कोठी में संगीत की महफ़िल का आयोजन हुआ था जिसमे उस समय की प्रसिद्ध गायिकाएँ राजेश्वरी बाई, हुस्ना बाई, मथुरा के शीर्षस्थ गायक चन्दन चौबे, ग्वालियर के भैया गणपत राव, कलकत्ता (अब कोलकाता) के श्यामलाल खत्री और प्रसिद्ध सारंगी-नवाज छन्नू खां आमंत्रित थे| भैया गणपत राव उस गोष्ठी का सञ्चालन कर रहे थे| बनारस के एक अन्य रईस सेठ धुमीमल उस महफ़िल में एक भोले-भाले किशोर को लेकर आए थे| चन्दन चौबे के ध्रुवपद गायन के बाद राजेश्वरी और हुस्ना बाई के ठुमरी गायन की तैयारी चल रही थी, उसी मध्यान्तर में सेठ धुमीमल ने पाँच मिनट के लिए उस भोले-भाले किशोर को सुन लेने का आग्रह किया| भैया गणपत राव की सहमति मिलने पर उस किशोर ने जब पूरे आत्मविश्वास के साथ राग "ललित" का आलाप किया तो पूरी महफ़िल दंग रह गयी| 15 साल का वह किशोर मौज़ुद्दीन था जिसने उस महफ़िल में बड़े-बड़े उस्तादों और संगीत के पारखियों के बीच "ललित" का ऐसा जादू चलाया कि उसके प्रवाह में सब बहने लगे| बन्दिश के बाद जब तानों की बारी आई तो हारमोनियम संगति कर रहे श्यामलाल खत्री की उंगलियाँ मौज़ुद्दीन की फर्राटेदार तानों से बार-बार उलझने लगीं| इस पर भैया गणपत राव ने हारमोनियम अपनी ओर खींच लिया और संगति करने लगे| दोनों में जबरदस्त होड़ लग गयी और पूरी महफ़िल वाह-वाह कर रही थी| जिस किशोर मौज़ुद्दीन को बतौर 'फिलर' पांच मिनट के लिए मंच दिया गया था, उसने कद्रदानों की उस महफ़िल को डेढ़ घण्टे से भी अधिक समय तक बाँधे रखा| इसी महफ़िल में मौज़ुद्दीन खां, भैया गणपत राव के गण्डाबद्ध शिष्य बने|

बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में रईसों और जमींदारों की कोठियों में संगीत की महफ़िलें सजती थी| ऐसी महफ़िलों में बड़े दरबारी संगीतकार और तवायफों की सहभागिता रहती थी| संगीत देवालयों से राज-दरबार और फिर वहाँ से निकल कर धनिकों की महफ़िलों तक पहुँच गया था| ठुमरी ने ऐसी महफ़िलों के जरिए ना केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखा बल्कि इस शैली में नित नये प्रयोग भी जारी थे| नवाब वाजिद अली शाह के समय में ठुमरी का विकास नृत्य के पूरक के रूप में हुआ था| आगे चल कर इसका विकास स्वतंत्र गायन के रूप में हुआ| ठुमरी के इस स्वरूप को "बन्दिश" अथवा "बोल-बाँट" की ठुमरी का नाम दिया गया| सच कहा जाए तो ऐसी ही छोटी-छोटी महफ़िलों के कारण ही तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद भारतीय संगीत की अस्तित्व-रक्षा हो सकी|

विश्वविख्यात फिल्मकार सत्यजीत रे ने 1959 में भारतीय संगीत की इसी दशा-दिशा पर बांग्ला फिल्म "जलसाघर" का निर्माण किया था| इस फिल्म में गायन-वादन-नर्तन के कई उत्कृष्ट कलासाधकों -उस्ताद बिस्मिल्लाह खां (शहनाई), उस्ताद वहीद खां (सुरबहार), रोशन कुमारी (कथक) और उस्ताद सलामत अली खां (ख़याल गायन) के साथ सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका बेग़म अख्तर को भी शामिल किया गया था| संगीत संयोजन उस्ताद विलायत खां का था| फिल्म में जमींदारों की महफ़िल में बेग़म अख्तर ने प्रत्यक्ष रूप से (पार्श्वगायन नहीं) राग "पीलू" की ठुमरी -"भर-भर आईं मोरी अँखियाँ.." का इतना संवेदनशील गायन प्रस्तुत किया है कि मैं इसे आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया| थोड़ी चर्चा बेग़म अख्तर के गायकी की भी आवश्यक है| बेग़म साहिबा की ठुमरी गायकी न तो लखनऊ की थी और न बनारस की, उनकी शैली मिश्रित शैली थी और उसमें पंजाब अंग अधिक झलकता था| उस्ताद अता खां से संगीत शिक्षा पाकर गायकी का यह निराला अन्दाज़ स्वाभाविक था| आइए सुनते हैं, बांग्ला फिल्म "जलसाघर" में बेग़म अख्तर की गायी राग "पीलू" की बेहतरीन ठुमरी-



क्या आप जानते हैं...
कि सत्यजीत रे के अनुसार हिंदी फ़िल्म जगत के लिए सबसे ख़ूबसूरत अभिनेत्री हुई हैं जया प्रदा।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - अन्तराल संगीत (इण्टरलयूड) छोड़ कर शेष पूरा गीत राग तिलंग में है.
सवाल १ - फिल्म की नायिका कौन है - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, June 27, 2011

"कासे कहूँ मन की बात..." - रंगमंच पर आने को आतुर ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 687/2011/127

फिल्मों में ठुमरी विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" में इन दिनों हम ठुमरी शैली के विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं| बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा| यह वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा रहे थे| कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था| भारतीय कलाविधाओं को अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया| ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया| भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों के कोठे पर ही फिल्माई गई|

पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ उस्ताद सादिक अली खां का जिक्र हुआ था| अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही "ठुमरी" का प्रचार देश के अनेक भागों में किया था| सादिक अली खां के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव; जो हारमोनियम वादन में दक्ष थे| सादिक अली से प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य पर ठुमरी और दादरा के बोल इतनी सफाई से बजाते थे कि श्रोता चकित रह जाते थे| भैयासाहब ने भी बनारस, गया, कलकत्ता आदि केन्द्रों में ठुमरी का प्रचार-प्रसार किया था| भैया गणपत राव ग्वालियर के थे और इनकी माँ का नाम चन्द्रभागा बाई था| महाराजा ग्वालियर की वह प्रेयसी थीं और एक कुशल गायिका भी थीं| भैया जी अपने समय के संगीतज्ञों में अद्वितीय थे| उनका पालन-पोषण संगीत के प्रमुख केन्द्र ग्वालियर में हुआ था, परन्तु उनकी स्वाभाविक अभिरुचि लोकप्रिय संगीत की ओर थी| सादिक अली की ठुमरियों पर दीवाने होकर उन्होंने लखनऊ की ठुमरी को अपनाया|

उन दिनों हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपेक्षित था| गायन संगति के लिए सारंगी का ही प्रयोग मान्य था| यह उचित भी था; क्योंकि सारंगी ही एक ऐसा वाद्य है जो मानव-कंठ के सर्वाधिक निकट है| ऐसे माहौल में गणपत राव ने हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य को अपनाया और उस साज़ पर वह ठुमरी के बोलों को इतनी कुशलता से बजाते थे कि बड़े-बड़े सारंगी वादक भी यह कार्य नहीं कर पाते थे| यह भैया गणपत राव के साहसिक कदम का ही प्रतिफल है कि आज हारमोनियम केवल ठुमरी में ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संगीत में धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है| यहाँ तक कि आजादी के बाद तक "आकाशवाणी" में प्रतिबन्धित हारमोनियम आज स्टूडियो की शोभा बढ़ा रहा है| ठुमरी की विकास-यात्रा में नये-नये प्रयोग हुए तो कुछ भ्रान्तियाँ और रूढ़ियाँ भी टूटीं| ठीक इसी प्रकार फिल्मों में भी ठुमरी के कई नए प्रयोग किये गए| राज-दरबारों से लेकर तवायफ के कोठे तक ठुमरियों का फिल्मांकन हुआ| बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में ब्रिटिश अधिकारियों की देखा-देखी शेक्सपीयर के नाटकों के मंचन और ओपेरा आदि के लिए बने रंगमंच पर ठुमरियों और कथक नृत्य की प्रस्तुतियाँ होने लगी थीं| ठुमरी दरबार की ऊँची दीवार से बाहर तो निकल आई, लेकिन जनसामान्य से उसकी दूरी अभी भी बनी हुई थी| ऐसे आयोजन विशिष्ठ लोगों के लिए ही होते थे|

आज जो ठुमरी गीत आपके लिए हम प्रस्तुत करने जा रहें हैं, वह भी ब्रिटिश शैली के रंगमंच पर, कुछ ख़ास लोगों के बीच फिल्माई गई है| 1959 में प्रदर्शित फिल्म "धूल का फूल" में शामिल इस ठुमरी के बोल हैं "कासे कहूँ मन की बात..."| गीत में श्रृंगार का वियोग पक्ष ही रेखांकित हुआ है, परन्तु एक अलग अंदाज़ में| नायिका अपने प्रेमी के प्रति शिकवे-शिकायत व्यक्त करती है| गीत का मुखड़ा एक परम्परागत ठुमरी पर आधारित है| राग "काफी", तीन ताल और कहरवा में निबद्ध इस ठुमरी का गायन सुधा मल्होत्रा ने किया है| परदे पर इसे नृत्य की संगति में गाया गया है| गायिका गायन के साथ-साथ सितार वादन भी करती है| गीत के प्रारम्भ में सितार पर बेहद आकर्षक आलाप और उसके बाद सरगम प्रस्तुत किया गया है| फिल्म "धूल का फूल" के इस ठुमरी गीत के प्रसंग में अशोक कुमार, नन्दा, राजेन्द्र कुमार और माला सिन्हा दर्शक के रूप मौजूद हैं| फिल्म में गीत साहिर लुधियानवी का और संगीत एन. दत्ता का है| आइए राग "काफी" में निबद्ध फिल्म "धूल का फूल" की यह ठुमरी सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में सुनते हैं|



क्या आप जानते हैं...
कि थोड़े फेर-बदल के साथ "कासे कहूँ मन की बात" के स्थायी की यही पंक्तियाँ कुछ अन्य फ़िल्मों में भी प्रयोग हुए हैं। 1954 की फिल्म "सुबह का तारा" और 1979 में बनी फिल्म "भलामानुष" में इस ठुमरी की स्थायी पंक्तियाँ प्रयोग की गई हैं|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है बेग़म अख्तर की.
सवाल १ - किस राग आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, अविनाश जी और क्षिति जी को बधाई, क्षिति जी अगर शृंखला जीतनी है तो थोड़ी और तेज़ी दिखानी पड़ेगी :)

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, June 26, 2011

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 686/2011/126

'ओल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के दूसरे सप्ताह में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| पिछले अंकों में हमने आपके साथ "ठुमरी" के प्रारम्भिक दौर की जानकारी बाँटी थी| यह भी चर्चा हुई थी कि उस दौर में "ठुमरी" कथक नृत्य का एक हिस्सा बन गई थी| परन्तु एक समय ऐसा भी आया जब "ठुमरी" की विकास-यात्रा में थोड़ा व्यवधान भी आया| इस शैली के पृष्ठ-पोषक नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बन्दी बना लिया गया| नवाब को बन्दी बना कर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर भेज दिया गया| नवाब यहाँ पर मृत्यु-पर्यन्त (1887) तक स्थायी रूप से रहे| नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ छूटने से पहले तक "ठुमरी" की जड़ें जमीन को पकड़ चुकी थीं|

इस दौर में केवल संगीतज्ञ ही नहीं बल्कि शासक, दरबारी, सामन्त, शायर, कवि आदि सभी "ठुमरी" की रचना, गायन और उसके भावाभिनय में प्रवृत्त हो गए थे| वाजिद अली शाह के रिश्तेदार और बादशाह नासिरुद्दीन हैदर के पौत्र वजीर मिर्ज़ा बालाकदर, "कदरपिया" उपनाम से ठुमरियों के प्रमुख रचनाकार थे| आज भी कदरपिया की ठुमरी रचनाएँ संगीत जगत में प्रचलित है| इसके अलावा उस दौर के ठुमरी रचनाकारों और गायकों में उस्ताद सादिक अली, मुहम्मद बख्श, चाँद मियाँ, बिन्दादीन, रमजानी, मिर्ज़ा वहीद कश्मीरी, घूमन, हुसैनी, लज्जतबख्श आदि के नाम उल्लेखनीय है| नवाब वाजिद अली शाह के बन्दी बनाए जाने के बाद कई ठुमरी गायक-गायिकाएँ और नर्तक-नर्तकियाँ नवाब के साथ कोलकाता चले गए| लखनऊ के अन्य ठुमरी कलाकारों ने भी संगीत के अन्य केन्द्रों; बनारस (वर्तमान वाराणसी), गया, पटना, आदि की ओर रुख किया| लखनऊ की ठुमरी का बनारस पहुँचना "ठुमरी" के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ| दरअसल उस दौर में बनारस का संगीत परिवेश काफी विकसित अवस्था में था| तबला-पखावज वादन, ध्रुवपद और ख़याल गायन के साथ-साथ लोक संगीत की भी एक समृद्ध परम्परा बनारस के संगीत परिवेश में मौजूद थी| ऋतु आधारित लोक संगीत; कजरी, चैती आदि का प्रचलन था| ऐसे वातावरण में जब लखनऊ की ठुमरी बनारस पहुँची तो उसे हाथों-हाथ लिया गया|

बनारस के कई गायक-गायिकाओं ने ठुमरी को न केवल अपनाया बल्कि इस नई शैली को विकसित करने में भी अपना योगदान किया| शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत तो ठुमरी में पहले से ही मौजूद थी; बनारस के संगीतज्ञों, विशेष तौर पर तवायफों ने लोक-तत्वों का मिश्रण करते हुए ठुमरी गायन आरम्भ का दिया| यह ठुमरी के साथ एक अनूठा प्रयोग था जिसे रसिकों ने हाथों-हाथ लिया| लोक-रस में भींग कर ठुमरी का सौन्दर्य और अधिक निखरा| आगे चल कर बनारस की यह ठुमरी "पूरब अंग की ठुमरी" के नाम से प्रचलित हुई| बनारस में ठुमरी के साथ हुए प्रयोगों की चर्चा हम श्रृंखला के अगले अंक में जारी रखेंगे| इससे पहले थोड़ी चर्चा आज प्रस्तुत की जाने वाली ठुमरी के विषय में हो जाए| बनारस पहुँचने पर ठुमरी का लोक-रंग में जैसा श्रृंगार हुआ; कुछ उसी प्रकार की फ़िल्मी ठुमरी आज हम आपके लिए लेकर उपस्थित हुए हैं|

आज हम आपको 1958 की लोकप्रिय फिल्म "कालापानी" की ठुमरी -"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर...." सुनवा रहे हैं| इस ठुमरी गीत में आपको मजरुह सुल्तानपुरी के लोक- तत्वों से गूँथे शब्द, सचिनदेव बर्मन द्वारा निबद्ध राग "खमाज" के स्वर और ठुमकते हुए ताल दादरा की थिरकन का अनूठा संयोजन मिलेगा| यह ठुमरी फिल्म में तवायफ के कोठे पर फिल्माया गया है| अभिनेत्री नलिनी जयवन्त ने इस ठुमरी पर नृत्य किया है| गीत में नायक के बंगले को लक्ष्य करके नायिका अपना समर्पण भाव व्यक्त करती है| दूसरे अन्तरे -"बरस रहती राजा..." के बाद अन्तराल संगीत में बर्मन दादा ने कथक का एक लुभावना "तत्कार" डाल कर ठुमरी को और भी आकर्षक रूप दे दिया है| बर्मन दादा ने इस गीत में एक और विशेषता उत्पन्न की है; उन्होंने ठुमरी का स्थाई और चारो अन्तरा राग खमाज में निबद्ध किया है, किन्तु अन्तराल संगीत राग विहाग में है| फिल्म "कालापानी" के नायक देवानन्द को फिल्मफेअर का श्रेष्ठ अभिनेता का और नलिनी जयवन्त को श्रेष्ठ सह अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ था|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म के इस दृश्य में राज कपूर, विमल रॉय और विजय आनन्द को अतिथि कलाकार के रूप में नलिनी जयवन्त के नृत्य का आनन्द लेते दिखाया गया है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 07/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - किस राग आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - गायिका कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी इस बार जबरदस्त टक्कर दे रहीं हैं अमित जी को, मैदान में अनजाना जी भी होते तो मज़ा आता, पर क्या करें लगता है उन्हें दर्शक बने रहने में ही आनंद आ रहा है. अवध जी आपको भी बधाई

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - वैदिककालीन तंत्रवाद्य रूद्रवीणा के साधक उस्ताद असद अली खाँ के तंत्र-स्वर शान्त हुए



सुर संगम - 26 - उस्ताद असद अली खाँ

वे भगवान शिव को रूद्रवीणा का निर्माता मानते थे|

साप्ताहिक स्तम्भ 'सुर संगम' के इस विशेष अंक में आज हम रूद्रवीणा के अनन्य साधक उस्ताद असद अली खाँ को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उपस्थित हुए हैं, जिनका गत 14 जून को दिल्ली में निधन हो गया| उनके निधन से हमने वैदिककालीन वाद्य रूद्रवीणा को परम्परागत रूप से आधुनिक संगीत जगत में प्रतिष्ठित कराने वाले एक अप्रतिम कलासाधक को खो दिया है| उस्ताद असद अली खाँ जयपुर बीनकार (वीणावादकों) घराने की बारहवीं पीढी के कलासाधक थे | यह घराना जयपुर के सेनिया घराने का ही एक हिस्सा है| असद अली खाँ का जन्म 1937 में अलवर (राजस्थान) रियासत में हुआ था, परन्तु उनकी संगीत-शिक्षा रामपुर में हुई| उनके पिता उस्ताद सादिक अली खाँ रामपुर दरबार में रूद्रवीणा के प्रतिष्ठित वादक थे| उनके प्रपितामह उस्ताद रज़ब अली खाँ जयपुर घराने के दरबारी वीणावादक थे तथा रूद्रवीणा के साथ-साथ सितार और दिलरुबावादन में भी दक्ष थे| असद अली खाँ के पितामह उस्ताद मुशर्रफ अली खाँ को भी जयपुर के दरबारी वीणावादक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी|

आज हम जिसे संगीत का जयपुर घराना के नाम से पहचानते हैं, उसकी स्थापना में असद अली खाँ के प्रपितामह (परदादा) उस्ताद रजब अली खाँ का योगदान रहा है| उस्ताद रजब अली खाँ जयपुर दरबार के केवल संगीतज्ञ ही नहीं; बल्कि महाराजा मानसिंह के गुरु भी थे| महाराजा ने उन्हें जागीर के साथ-साथ एक विशाल हवेली दे रखी थी तथा उन्हें किसी भी समय बेरोक-टोक महाराजा के महल में आने-जाने की स्वतन्त्रता थी| असद अली खाँ के दादा जी उस्ताद मुशर्रफ अली खाँ ने भी जयपुर दरबार में वही प्रतिष्ठा प्राप्त की| वीणावादकों का यह घराना ध्रुवपद संगीत के खण्डहार वाणी में वादन करता रहा है; जिसका पालन उस्ताद असद अली खाँ ने किया और अपने शिष्यों को भी इसी वाणी की शिक्षा दी| ध्रुवपद संगीत में चार वाणियों का वर्गीकरण तानसेन के समय में ही हो चुका था| "संगीत रत्नाकर" ग्रन्थ में यह वर्गीकरण शुद्धगीत, भिन्नगीत, गौड़ीगीत और बेसरागीत नामों से हुआ है; जिसे आज गौड़हार वाणी, डागर वाणी, खण्डहार वाणी और नौहार वाणी के नाम से जाना जाता है| उस्ताद असद अली खाँ और उनके पूर्वजों का वादन खण्डहार वाणी का था| इसके अलावा खाँ साहब दूसरी वाणियों की विशेषताओं को प्रदर्शित करने से हिचकते नहीं थे| ध्रुवपद अंग में वीणावादन का चलन कम होने के बावजूद उन्होंने परम्परागत वादन शैली से कभी समझौता नहीं किया| आइए यहाँ पर थोड़ा रुक कर उनकी वादन शैली की सार्थक अनुभूति करते हैं| इस प्रस्तुति में उस्ताद असद अली खाँ ने ध्रुवपद अंग में राग "आसावरी" का पहले लयबद्ध किन्तु तालरहित झाला और फिर चौताल में एक बन्दिश का वादन किया है| नाथद्वारा परम्परा के पखावज वादक पण्डित डालचंद्र शर्मा ने पखावज-संगति की है|

राग आसावरी : रूद्रवीणा वादन - उस्ताद असद अली खाँ : पखावज संगति - पं. डालचंद्र शर्मा


उस्ताद असद अली खाँ ने अपने पिता उस्ताद सादिक अली खाँ से रामपुर दरबार में लगभग 15 वर्षों तक रूद्रवीणा-वादन की शिक्षा ग्रहण की, और फिर कई घंटों तक निरन्तर रियाज करके उन्होंने इस वैदिककालीन वाद्य को सिद्ध कर लिया| उन्होंने ध्रुवपद अंग में विकसित अपनी रूद्रवीणा-वादन शैली को "खान दरबारी" शैली नाम दिया था| खाँ साहब 17 वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीत के प्रोफ़ेसर थे| वे आजन्म अविवाहित थे| अपने भतीजे अली जाकी हैदर को उन्होंने दत्तक पुत्र बना लिया था और उन्हें रूद्रवीणा वादन में प्रशिक्षित| अली जाकी के अलावा अन्य कई शिष्यों को भी उन्होंने संगीत शिक्षा दी है; जो इस परम्परा को आगे बढ़ाएँगे| भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था "स्पिक मैके" के साथ जुड़ कर खाँ साहब ने स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों के बीच रूद्रवीणा से नई पीढी को परिचित कराने का अभियान चलाया था, जो खूब सफल रहा| नई पीढी को रूद्रवीणा वादन से परिचित कराने के साथ-साथ वो यह बताना नहीं भूलते थे कि यह तंत्रवाद्य विश्व का सबसे प्राचीन वाद्य है और ध्वनि के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आज भी खरा उतरता है| वे भगवान शिव को रूद्रवीणा का निर्माता मानते थे|

उस्ताद असद अली खाँ को अनेक सम्मान और पुरस्कार से नवाज़ा गया था; जिनमें 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2008 में पद्मभूषण सम्मान, तानसेन सम्मान आदि प्रमुख हैं| उनके निधन से भारतीय संगीत जगत में रिक्तता तो आ ही गई है; किन्तु यह विश्वास भी है कि उनके शिष्यगण रूद्रवीणा-वादन की वैदिककालीन परम्परा को आगे बढ़ाएँगे| इस आलेख को विराम देने से पहले लीजिए सुनिए- उस्ताद असद अली खाँ का रूद्रवीणा पर बजाया राग "शुद्ध सारंग" में एक ध्रुवपद बन्दिश| पखावज संगति वरिष्ठ पखावजी पण्डित गोपाल दास ने की है| इसी रचना के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपनी ओर से और "आवाज़" परिवार की ओर से उस्ताद असद अली खाँ की स्मृतियों को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ|

राग शुद्ध सारंग : रूद्रवीणा वादन - उस्ताद असद अली खाँ : पखावज संगति - पं. गोपाल दास


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: परदेस में जब घर-परिवार और साजन - सजनी की याद आई तब उपजा यह लोक संगीत|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी बाल-बाल बचे, आपको और क्षिति जी दोनो को मिलते हैं ५-५ अंक, बधाई!

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय चटर्जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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