नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष की २२ वीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आप सभी को क्रिस्मस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस साप्ताहिक विशेषांक में अधिकतर समय हमने 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' पेश किया, जिसमें आप ही के भेजे हुए ईमेल शामिल हुए और कई बार हमने नामचीन फ़नकारों से संपर्क स्थापित कर फ़िल्म संगीत के किसी ना किसी पहलु का ज़िक्र किया। आज हम आ पहुँचे हैं इस साप्ताहिक शृंखला की २०१० वर्ष की अंतिम कड़ी पर। तो आज हम अपने जिस दोस्त के ईमेल से इस शृंखला में शामिल कर रहे हैं, वो हैं ख़ानसाब ख़ान। हर बार की तरह इस बार भी उन्होंने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की तारीफ़ की है और हमारा हौसला अफ़ज़ाई की है। लीजिए ख़ानसाब का ईमेल पढ़िए...
******************************
आदाब,
नौ रसों की 'रस माधुरी' शृंखला बहुत पसंद आई। आपने केवल इन रसों का बखान फ़िल्मी गीतों के लिए ही नहीं किया, बल्कि हमारी ज़िंदगी से जोड़ कर भी आप ने इनको पूरे विस्तार से बताया, जिससे हमें हमारी ज़िंदगी से जुड़े पहलुओं को भी जानने को मिला। और हमें ज्ञात हुआ कि हमारे मन की इन मुद्राओं को भी फ़िल्मी गीतों में किस तरह से अभिव्यक्ति मिली है। आपके इन अथक प्रयासों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। और आपकी बात बिल्कुल सही है। मैं भी यह सोच रहा था कि "फिर छिड़ी रात बात फूलों की" ग़ज़ल और "फूल आहिस्ता फेंको" गीत के बोलों में, बड़े ही सुंदर तरीक़े से "फूल" शब्द का इस्तेमाल किया गया, जिसको सुनकर दिलों में भी फूलों की तरह नर्मोनाज़ुक अहसास पैदा हो जाते हैं। इससे ज़्यादा और किसी गीत की कामयाबी क्या होगी!
'ओल्ड इज़ गोल्ड - सफ़र अब तक' पढ़कर मज़ा आ गया। और हमारे जो साथी बाद में जुड़े थे, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, सब को मालूम हो गया कि पिछे का भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र कितना शानदार रहा है। मैं एक दिन ऐसा सोच ही रहा था कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का पिछला सफ़र कैसा रहा होगा, इसमें किस तरह के और कौन कौन से गीत बजे होंगे, और आपने शायद मेरे मन की आवाज़ को सुन ली। क्योंकि हमारे इस महफ़िल का नाम भी तो आवाज़ ही है, जो कि पीछे की, आगे की, अभी की सारी आवाज़ों को अपने में शामिल किए हुए है। इसके लिए मैं आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। इसकी वजह से हम भी अब आवाज़ की इस महफ़िल से किसी भी तरह से अंजान नहीं रहे हैं।
धन्यवाद।
************************************************ वाह ख़ानसाब, और आपका बहुत बहुत शुक्रिया भी। आइए आज एक ऐसा गीत सुनते हैं जो आज के दिन के लिए बहुत ही सटीक है। आज क्रिसमस है और इस अवसर पर बनने वाले फ़िल्मी गीतों की बात करें तो सबसे पहले जिस गीत की याद आती है वह है फ़िल्म 'ज़ख़्मी' का "जिंगल बेल जिंगल बेल.... आओ तुम्हे चाँद पे ले जाएँ"। गौहर कानपुरी का लिखा और बप्पी लाहिड़ी का संगीतबद्ध किया हुआ यह गीत है जिसे लता मंगेशकर और सुषमा श्रेष्ठ ने गाया है। गीत फ़िल्माया गया है आशा पारेख और बेबी पिंकी पर। कहानी के सिचुएशन के मुताबिक़ गीत का फ़िल्मांकन दर्दीला है। गीत "जिंगल बेल्स" से शुरु होकर मुखड़ा "आओ तुम्हे चांद पे ले जाएँ, प्यार भरे सपने सजाएँ" पे ख़त्म होता है। अंतरों में भी एक सपनों की सुखद दुनिया का चित्रण है। गीत के फ़िल्मांकन से अगर बोलों की तुलना की जाये तो एक तरह से विरोधाभास ही झलकता है। राजा ठाकुर निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुनिल दत्त, आशा पारेख, राकेश रोशन और रीना रॊय। तो आइए सुनते हैं यह गीत और आप सभी को एक बार फिर से किरस्मस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
गीत - जिंगल बेल्स... आओ तुम्हे चाँद पे (ज़ख़्मी)
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी के साथ आपसे कल फिर मुलाक़ात होगी, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी "उखड़े खंभे" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी "आती क्या खंडाला?", उन्हीं की आवाज़ में। कहानी "आती क्या खंडाला?" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
इस कथा "आती क्या खंडाला?" का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"सब लोग बातें बनायेंगे, पहले ही हमारा नाम जोडते रहते हैं।"
(अनुराग शर्मा की "आती क्या खंडाला?" से एक अंश)
नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें: VBR MP3 #117th Story, Ati Kya Khandala: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/49. Voice: Anurag Sharma
फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ सदाबहार युगल गीतों से सज रही है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल इन दिनों। ये वो प्यार भरे तराने हैं, जिन्हे प्यार करने वाले दिल दशकों से गुनगुनाते चले आए हैं। ये गानें इतने पुराने होते हुए भी पुराने नहीं लगते। तभी तो इन्हे हम कहते हैं 'सदाबहार नग़में'। इन प्यार भरे गीतों ने वो कदमों के निशान छोड़े हैं कि जो मिटाए नहीं मिटते। आज इस 'एक मैं और एक तू' शृंखला में हमने एक ऐसे ही गीत को चुना है जिसने भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। लता मंगेशकर और किशोर कुमार की सदाबहार जोड़ी का यह सदाबहार नग़मा है फ़िल्म 'ज्वेल थीफ़' का - "आसमाँ के नीचे, हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसाके चले, क़दम के निशाँ बनाते चले"। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को दादा बर्मन ने स्वरबद्ध किया था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के शुरुआती दिनों में, बल्कि युं कहें कि कड़ी नं - ६ में हमने आपको इस फ़िल्म का "रुलाके गया सपना मेरा" सुनवाया था, और इस फ़िल्म की जानकारी भी दी थी। आज इस युगल गीत के फ़िल्मांकन की आपको ज़रा याद दिलाते हैं। हमारी फ़िल्मों में कई फ़ॊरमुला पहलुएँ हुआ करती हैं। जैसे कि एक दौर था कि जब रोमांटिक गीतों में नायक नायिका को बाग़ में, पहाड़ों में, वादियों में, भागते हुए गीत गाते हुए दिखाए जाते थे। आज वह परम्परा ख़त्म हो चुकी है, लेकिन आज के प्रस्तुत गीत में वही बाग़ बग़ीचे वाला मंज़र देखने को मिलता है। फ़िल्मांकन में कुछ कुछ हास्य रस भी डाला गया है, जैसे कि गीत के शुरु में ही देव आनंद साहब वैजयंतीमाला की टांग खींच कर उन्हे गिरा देते हैं। इसका बदला वो लेती हैं देव साहब के पाँव में अपनी पाँव जमा कर और यह गाते हुए कि "क़दम के निशाँ बनाते चले"। देव साहब के मैनरिज़्म्स को किशोर दा ने क्या ख़ूब अपनी गायकी से उभारा है इस गीत में।
सचिन देव बर्मन ने जितने भी लता-किशोर डुएट्स रचे हैं, उनका स्कोर १००% रहा है। चलिए आपको एक फ़ेहरिस्त ही पेश किए देता हूँ जिस पर नज़र दौड़ाते हुए आपको इस बात का अंदाज़ा हो जाएगा। तो ये रहे वो फ़िल्में और उनके गानें जिन्हे लता जी और किशोर दा ने दादा के लिए गाए थे। अभिमान - "तेरे मेरे मिलन की ये रैना" आराधना - "कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा" गैम्बलर - "चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है", "अपने होठों की बंसी बना ले मुझे" गाइड - "गाता रहे मेरा दिल" ज्वेल थीफ़ - "आसमाँ के नीचे हम आज अपने पीछे" जुगनु - "गिर गया झुमका गिरने दो" प्रेम नगर - "किसका महल है, किसका ये घर है" प्रेम पुजारी - "शोख़ियों में घोला जाए फूलों का शबाब" शर्मिली - "आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन" तीन देवियाँ - "लिखा है तेरी आँखों में किसका फ़साना", "ऊफ़ कितनी ठण्डी है ये रात" तेरे मेरे सपने - "हे मैंने क़सम ली", "जीवन की बगिया महकेगी" ये गुलिस्ताँ हमारा - "गोरी गोरी गाँव की गोरी रे"
देखा दोस्तों, क्या एक से एक सुपरहिट गानें थे ये सब के सब अपने ज़माने के। ये सभी इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल होने के हक़दार हैं। तो चलिए आज इनमें से जो गीत हमने चुना है उसे सुन लेते हैं। लता जी, किशोर दा, बर्मन दा और मजरूह साहब के साथ साथ याद करते हैं देव साहब और वैजयंतीमाला जी के प्यार भरे टकरारों की भी। और चलते चलते आप सभी को हम दे रहे हैं क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
क्या आप जानते हैं... कि लता मंगेशकर और किशोर कुमार ने साथ में कुल ३२७ युगल गीत गाए हैं।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 6/शृंखला 06 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - किसी अन्य सूत्र की दरकार नहीं.
सवाल १ - किन युगल आवाजों में है ये गीत - १ अंक सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - शृंखला के मध्यांतर तक शरद जी आगे हैं श्याम जी से, इंदु जी भी इस शृंखला में कुछ सक्रिय हैं. कल का कमेन्ट ऑफ द डे रहा सुमित चक्रवर्ति जी के नाम, बधाई
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
जीव जगत की तमाम अनुभूतियों में सब से प्यारी, सब से सुंदर, सब से सुरीली, और सब से मीठी अनुभूति है प्रेम की अनुभूति, प्यार की अनुभूति। यह प्यार ही तो है जो इस संसार को अनंतकाल से चलाता आ रहा है। ज़रा सोचिए तो, अगर प्यार ना होता, अगर चाहत ना होती, तो क्या किसी अन्य चीज़ की कल्पना भी हम कर सकते थे! फिर चाहे यह प्यार किसी भी तरह का क्यों ना हो। मनुष्य का मनुष्य से, मनुष्य का जानवरों से, प्रकृति से, अपने देश से, अपने समाज से। दोस्तों, यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल है, जो बुना हुआ है फ़िल्म संगीत के तार से। और हमारी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों का केन्द्रबिंदु भी देखिए प्रेम ही तो है। प्रेमिक-प्रेमिका के प्यार को ही केन्द्र में रखते हुए यहाँ फ़िल्में बनती हैं, और इसलिए ज़ाहिर है कि फ़िल्मों के ज़्यादातर गानें भी प्यार-मोहब्बत के रंगों में ही रंगे होते हैं। दशकों से प्यार भरे युगल गीतों की परम्परा चली आई है, और एक से एक सुरीले युगल गीत हमें कलाकारों ने दिए हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर से चु्ने हुए कुछ सदाबहार युगल गीत 'एक मैं और एक तू' लघु शृंखला के अंतर्गत। यह तो सच है कि केवल दस गीतों में हम सुनहरे दौर के सदाबहार युगल गीतों की फ़ेहरिस्त को समेट नहीं सकते। यह बस एक छोटी सी कोशिश है इस विशाल समुंदर में से कुछ दस मोतियाँ चुन लाने की जो फ़िल्म संगीत के बदलते मिज़ाज को दर्शा सके, कि किस तरह से ३० के दशक से लेकर ८० के दशक तक फ़िल्मी युगल गीतों का मिज़ाज, उनका रूप रंग बदला। ३०, ४० और ५० के दशकों से एक एक गीत सुनने के बाद आज हम क़दम रख रहे हैं ६० के दशक में। ६० का दशक, जिसे हम 'स्वीट सिक्स्टीज़' भी कहते हैं, और इस दशक में ही सब से ज़्यादा लोकप्रिय गीत बनें हैं। इसलिए हम इस दशक से एक नहीं बल्कि तीन तीन युगल गीत आपको एक के बाद एक सुनवाएँगे। इन गीतों का आधार हमने लिया है उन तीन गायिकाओं का जो इस दशक में सब से ज़्यादा सक्रीय रहे। ये गायिकाएँ हैं लता मंगेशकर, आशा भोसले और सुमन कल्याणपुर।
आज के अंक में प्रस्तुत है आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ों में फ़िल्म 'कश्मीर की कली' का सदाबहार युगल गीत "दीवाना हुआ बादल, सावन की घटा छायी"। युं तो यह १९६४ की फ़िल्म है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है जैसे इस फ़िल्म के गीतों पर वक़्त की ज़रा सी भी आंच नहीं लग पायी है। आज भी इस फ़िल्म के तमाम गानें उसी रूप में ब-दस्तूर बजते चले जा रहे हैं जैसे फ़िल्म के प्रदर्शन के दौर में बजे होंगे। ओ. पी. नय्यर के ६० के दशक की शायद यह सफलतम फ़िल्म रही होगी। शम्मी कपूर, शर्मीला टैगोर और नज़ीर हुसैन अभिनीत इस फ़िल्म के गीत लिखे थे एस.एच. बिहारी साहब ने। शक्ति दा, यानी शक्ति सामंत की यह फ़िल्म थी, और आप में से कुछ दोस्तों को याद होगा कि शक्ति दा के निधन के बाद जब हमने उन पर एक ख़ास शृंखला 'सफल हुई तेरी आराधना' प्रस्तुत की थी, उसमें हमने इस फ़िल्म की विस्तारीत चर्चा की थी। आज इस गीत के बारे में बस यही कहना चाहते हैं कि इसके मुखड़े का जो धुन है, वह दरअसल नय्यर साहब ने एक पीस के तौर पर "आँखों ही आँखों में इशारा हो गया" गीत के इंटरल्युड म्युज़िक में किया था। यह १९५६ की फ़िल्म 'सी.आइ.डी' का गीत है, और देखिये इसके ८ साल बाद इस धुन का इस्तमाल नय्यर साहब ने दोबारा किया और यह गीत एक माइलस्टोन बन गया ना केवल उनके करीयर का बल्कि फ़िल्म संगीत के धरोहर का भी। तो आइए अब इस गीत का आनंद उठाते हैं। रुत तो नहीं है सावन की, लेकिन ऐसे मधुर गीतों की बौछार का तो हमेशा ही स्वागत है, है न!
क्या आप जानते हैं... कि 'कश्मीर की कली' फ़िल्म साइन करने के वक़्त शर्मीला टैगोर की उम्र केवल १४ वर्ष थी।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 5/शृंखला 06 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - किसी अन्य सूत्र की दरकार नहीं.
सवाल १ - लता जी के साथ किस गायक ने दिया है यहाँ - १ अंक सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - शरद जी बहुत बढ़िया चल रहे हैं इस बार, प्रतिभा जी और रोमेंद्र जी बहुत दिनों में दिखे
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
३० और ४० के दशकों से एक एक मशहूर युगल गीत सुनने के बाद 'एक मैं और एक तू' शुंखला में आज हम क़दम रख रहे हैं ५० के दशक में। इस दशक में युगल गीतों की संख्या इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि एक से बढ़कर एक युगल गीत बनें और अगले दशकों में भी यही ट्रेण्ड जारी रहा। अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, सचिन देव बर्मन, शंकर जयकिशन, रोशन, ओ. पी. नय्यर, हेमन्त कुमार, सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों ने एक से एक नायाब युगल गीत हमें दिए। अब आप ही बतायें कि इस दशक का प्रतिनिधित्व करने के लिए हम इनमें से किस संगीतकार को चुनें। भई हमें तो समझ नहीं आ रहा। इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना किसी कमचर्चित संगीतकार की बेहद चर्चित रचना को ही बनाया जाये ५० के दशक का प्रतिनिधि गीत! क्या ख़याल है? तो साहब आख़िरकार हमने चुना लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी का गाया फ़िल्म 'बारादरी' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत युगलगीत "भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है दग़ा नहीं देना जी दग़ा नहीं देना"। संगीतकार हैं नौशाद नहीं, नाशाद। नाशाद का असली नाम था शौक़त अली। उनका जन्म १९२३ को दिल्ली में हुआ था। बहुत छोटे उम्र से वो अच्छी बांसुरी बजा लेते थे और समय के साथ साथ उस पर महारथ भी हासिल कर ली। संगीत के प्रति उनका लगाव उन्हें बम्बई खींच लाया, जहाँ पर उन्हें उस समय के मशहूर संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर और नौशाद अली के साथ बतौर साज़िंदा काम करने का मौका मिला। नाशाद के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि इस नाम को धारण करने से पहले उन्होंने कई अलग अलग नामों से फ़िल्मों में संगीत दिया है। और ऐसा उन्होंने १९४७ से ४९ के बीच किया था। 'दिलदार', 'पायल' और 'सुहागी' फ़िल्मों में उन्होंने शौकत दहल्वी के नाम से संगीत दिया तो 'जीने दो' में शौकत हुसैन के नाम से, 'टूटे तारे' में शौकत अली के नाम से तो 'आइए' में शौकत हैदरी का नाम पर्दे पर आया। और 'दादा' फ़िल्म में उनका नाम आया शौकत हुसैन हैदरी। इन फ़िल्मों के एक आध गानें चले भी होंगे, लेकिन उनकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। आख़िरकार १९५३ में निर्देशक और गीतकार नक्शब जराचवी ने उनका नाम बदलकर नाशाद कर दिया, और यह नाम आख़िर तक उनके साथ बना रहा। नक्शब ने अपनी १९५३ की फ़िल्म 'नग़मा' के लिए नाशाद को संगीतकार चुना, जिसमें अशोक कुमार और नादिरा ने अभिनय किया था।
नाशाद के नाम से उन्हें पहली ज़बरदस्त कामयाबी मिली सन् १९५५ में जब उनके रचे गीत के. अमरनाथ की फ़िल्म 'बारादरी' में गूंजे और सर्वसाधारण से लेकर संगीत में रुचि रखने वाले रसिकों तक को बहुत लुभाये। ख़ास कर आज के प्रस्तुत गीत ने तो कमाल ही कर दिया था। अजीत और गीता बाली पर फ़िल्माया यह गीत १९५५ के सबसे लोकप्रिय युगल गीतों में शामिल हुआ। ख़ुमार बाराबंकवी ने 'बारादरी' के गानें लिखे थे। इसी फ़िल्म में लता-रफ़ी का एक और युगल गीत "मोहब्बत की बस इतनी दास्तान है, बहारें चार दिन की फिर ख़िज़ाँ है" को भी लोगों ने पसंद किया। तलत महमूद की आवाज़ में "तसवीर बनाता हूँ तसवीर नहीं बनती" को भी ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल हुई और आज भी तलत साहब के सब से लोकप्रिय गीतों में शुमार होता है। आगे चलकर यह गीत भी ज़रूर शामिल होगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ख़ुमार साहब ने हो सकता है कि बहुत ज़्यादा फ़िल्मी गानें नहीं लिखे हों, लेकिन जितने भी लिखे बहुत ही सुंदर और अर्थपूर्ण लिखे। नाशाद और ख़ुमार का इसी साल १९५५ में एक बार फिर से साथ हुआ था फ़िल्म 'जवाब' में, जिसमें भी तलत साहब के गाये लोरी "सो जा तू मेरे राजदुलारे सो जा, चमके तेरी क़िस्मत के सितारे राजदुलारे सो जा" को लोगों ने पसंद किया। वापस आते हैं आज के गीत पर। मैंडोलीन का बड़ा ही ख़ूबसूरत और असरदार प्रयोग इस गीत में नाशाद ने किया है और बंदिश भी कितनी प्यारी है। तो आइए अब मैं आपके और इस सुमधुर गीत के बीच में से हट जाता हूँ, कल फिर मुलाक़ात होगी ६० के दशक में। नमस्कार!
क्या आप जानते हैं... कि नाशाद १९६६ में पाक़िस्तान स्थानांतरित हो गये थे और वहाँ जाकर 'सालगिरह', 'ज़ीनत', 'नया रास्ता', 'रिश्ता है प्यार का', 'फिर सुबह होगी' जैसी कुछ पाक़िस्तानी फ़िल्मों में संगीत दिया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 4/शृंखला 06 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - किसी अन्य सूत्र की दरकार नहीं.
सवाल १ - आवाजें बताएं - १ अंक सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - इंदु जी आप बिल्कुल सही हैं, शरद जी और श्याम जी का मुकाबला दिलचस्प है
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
सजीव - नये संगीत के चाहनेवालों का 'ताज़ा सुर ताल' के इस ख़ास अंक में बहुत बहुत स्वागत है, और सुजॊय तथा विश्व दीपक, आप दोनों का भी मैं स्वागत करता हूँ।
सुजॊय - नमस्कार आप दोनों को। कितनी जल्दी समय बीत जाता है, मुझे ऐसा लग रहा है जैसे अभी हाल ही में २०१० की वार्षिक समीक्षा की थी, और देखिए देखते ही देखते एक साल गुज़र गया।
विश्व दीपक - मेरी तरफ़ से भी आप दोनों को और सभी पाठकों को नमस्कार। आज बहुत ही अच्छा लग रहा है क्योंकि यह शायद पहला मौका है कि जब हम तीनों एक साथ किसी स्तंभ को प्रस्तुत कर रहे हैं। तो सजीव जी, आप ही बताइए कि हम तीनों मिलकर किस तरह से इस ख़ास अंक को आगे बढ़ाएँ।
सजीव - ऐसा करते हैं कि कुछ विभाग या कैटेगरीज़ बना लेते हैं ठीक उस तरह से जिस तरह से वार्षिक पुरस्कार दिए जाते हैं, जैसे कि सर्वश्रेष्ठ गीत, सर्वश्रेष्ठ संगीतकार वगैरह। हम तीनों हर विभाग के लिए दो दो गीत सुझाते हैं। इस तरह से हर विभाग के लिए ६ गीत चुन लिए जाएँगे। फिर हम अपने पाठकों पर छोड़ेंगे कि वो हर विभाग के लिए इन ६ गीतों में कौन सा गीत चुनते हैं। कहिए क्या ख़याल है?
सुजॊय - बहुत बढ़िया! तो चलिए शुरु करते हैं पहले कैटगरी से जो है 'सर्वश्रेष्ठ गीत'। इस साल बने इतने सारे गीतों में से किन दो गीतों को चुना जाये, यह एक बड़ी समस्या थी। आख़िर में मैंने सोचा कि दो ऐसे गीतों को चुनूँ जो थोड़े से ऒफ़बीट फ़िल्मों से हों। ये फ़िल्में भले ही ऒफ़बीट या कम चलने वाले रहे हों, लेकिन ये दो गीत उत्कृष्टता में दूसरे गीतों से कम नहीं हैं। पहला गीत है 'माधोलाल कीप वाकिंग' फ़िल्म का - "नैना लागे तोसे", जिसके तीन तीन वर्ज़न थे। मैंने भूपेन्द्र के गाये वर्ज़न को चुना है। और दूसरा गीत है आमिर ख़ान की ऒस्कर में जाने वाली फ़िल्म 'पीपलि लाइव' से रघुवीर यादव और साथियों का गाया "महंगाई डायन खाये जात है"।
विश्व दीपक - वाह! मैंने साल के सर्वश्रेष्ठ गीत के लिए जिन दो गीतों को निर्धारित किया है, उनमें से एक है फ़िल्म 'रावण' से "रांझा रांझा" तथा दूसरा गीत है "सजदा" 'माइ नेम इज़ ख़ान' फ़िल्म का। "रांझा रांझा" गीत के बारे में 'टी.एस.टी' में चर्चा करते वक़्त हमने इस बात का ज़िक्र भी किया था कि यह गीत वार्षिक टॊप-१० में शामिल होगा, और देखिए साल के अंत होने पर इस गीत ने हमारी बात का पूरा पूरा सम्मान किया है। और जहाँ तक "सजदा" की बात है, इसे भी तीन गायकों ने गाया है और यह गीत भी सूफ़ियाना अंदाज़ का है। इस तरह से मेरे चुने हुए दोनों सर्वश्रेष्ठ गीतों में कुछ समानता ज़रूर है। और सजीव जी, अब आप बताइए कि आप ने किन दो गीतों को चुना है।
सजीव - वर्ष २०१० के दो सर्वश्रेष्ठ गीतों के लिए मेरा नामांकन ये है- १. बस इतनी सी तुमसे गुज़ारिश है. २. तेरे मस्त मस्त दो नैन....गुज़ारिश के शीर्षक गीत मुझे क्यों इस हद तक पसंद है इस पर मै अपनी राय अपनी समीक्षा में कर चुका हूँ. इससे पहले भी फ़िल्मी गीतों में गायक/गायिका ने अपने लिए मौत मांगी है पर ये अंदाज़ एकदम अनूठा है और उस पर के के की गहराईयों में डूबी आवाज़ और संजय भंसाली का संगीत जहाँ ओपेरा स्टाइल में कुछ संवाद भी है, इस गीत को एक अलग ही मुकाम दे देते हैं. "तेरे मस्त मस्त दो नैन" सुनते सुनते कब मन में समां गया मै खुद नहीं जानता. वैसे इसके फिल्मांकन का भी इसमें हाथ है. फिल्म देखने से पहले मैंने बस एक दो बार ये गीत सुना था पर फिल्म के बाद इसे लगातार सुनता रहा, राहत साहब ने बहुत कशिश के साथ निभाया है इसे और संगीत संयोजन भी कमाल का है. एक और बात है कि ये गीत हर किसी को पसंद आता है, चाहे वो पुराने संगीत के शौकीन हो या आज के दौर के युवा हों। चलिए अब दूसरे कैटगरी पर आ जाते हैं, यह है 'सर्वश्रेष्ठ ऐल्बम' का। सर्वश्रेष्ठ अल्बम के लिए मैं नामांकित कर रहा हूँ - 'गुज़ारिश' और 'दबंग' को. 'गुज़ारिश' तो एक ऐसी अल्बम है जिसे मैं आज से ५ साल बाद भी इसी उत्साह से सुन पाऊंगा. 'दबंग' के गीतों का खालिस देसीपन मुझे बहुत भाया है. दो मशहूर गीतों के अलावा "चोरी किया", "हमका पीनी है" और शीर्षक गीत भी मुझे बेहद प्रभावी लगे. फिल्म की आपार सफलता में इसके संगीत का योगदान भी कम नहीं है।
सुजॊय - सजीव जी, जहाँ तक 'दबंग' की बात है, सल्लु मियाँ के फ़िल्मों के गानें हमेशा ही सुपर-डुपर हिट होते रहे हैं, और 'गुज़ारिश' में संजय लीला भंसाली ने भी अनोखा संगीत दिया है। आपके चुने इन दोनों फ़िल्मों को पूरा पूरा सम्मान देते हुए मैंने जिन दो फ़िल्मों को चुना है, वो हैं 'माइ नेम इस ख़ान' और 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसिस मेहता'। 'माइ नेम इज़ ख़ान' की तो ख़ूब चर्चा हुई है, लेकिन दूसरे फ़िल्म के गानें लोगों तक पहुँच ही नहीं पाये जो कि बेहद अफ़सोस की बात है। सजीव और विश्व दीपक जी, आपको याद होगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक ने हमें बधाई और धन्यवाद दिया था जब हमने इस फ़िल्म के गीतों का पॊज़िटिव रिव्यू 'टी.एस.टी.’ में पोस्ट किया था।
विश्व दीपक - बिल्कुल याद है और वाक़ई यह अफ़सोस की ही बात है कि इतना अच्छा संगीत अनसुना सा रह गया। और मुझे पूरा यकीन है कि प्रचलित व्यावसायिक पुरस्कारों में इसका कहीं नामोनिशान तक नहीं मिलेगा। इस मामले में 'आवाज़' का यह मंच बिल्कुल अलग है। हम जानते हैं अच्छे संगीत को किस तरह से सराहा जाता है। अच्छा, अब मैं उन दो फ़िल्मों के नाम बता दूँ जिन्हें मैंने चुने हैं। एक तो है 'पीपलि लाइव' और दूसरी फ़िल्म है 'स्ट्राइकर'। क्यों चौंक गये ना आप दोनों?
सजीव - 'पीपलि लाइव' तो ठीक है, लेकिन 'स्ट्राइकर' का नाम सुन कर थोड़ा चौंक ज़रूर गया था, लेकिन झट से यह अहसास भी हो गया और याद भी आ गया कि 'स्ट्राइकर' का संगीत बहुत अच्छा था। मुझे याद है कि इस फ़िल्म में ६ गीतकार और ६ संगीतकारों ने काम किया है और फ़िल्म के सभी गानें अच्छे बने हैं भले ही फ़िल्म ज्यादा ना चली हो। वैसे इस फिल्म की खासियत यह है कि यह हिन्दुस्तान की पहली फिल्म है, जिसे थियेटर में रीलिज के दिन हीं यूट्युब पर रीलिज किया गया था और यूट्युब पर इसे रिकार्ड हिट्स भी हासिल हुए थे। इस मामले में फिल्म को सफल कहा जा सकता है। 'माधोलाल कीप वाकिंग' और 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसिस मेहता' की तरह इस कमचर्चित फ़िल्म के अच्छे संगीत को भी हम सलाम करते हैं। चलिए आगे बढ़ते हैं और ज़िक्र करते हैं 'सर्वश्रेष्ठ गायक' की। सुजॊय, तुम पहले बताओ कि कौन से गायकों को तुमने चुना है इस विभाग के लिए।
सुजॊय - पता नहीं क्या बात है उनकी आवाज़ में, लेकिन हर साल मुझे के.के की आवाज़ ही सर्वश्रेष्ठ आवाज़ लगती है, और देखिए इस साल के लिए भी एक नाम मैंने के.के का चुना है। युं तो कई फ़िल्मों में इन्होंने इस साल गाने गाये हैं, लेकिन जिस फ़िल्म में उनके गाये गीत सब से ज़्यादा मकबूल हुए वह फ़िल्म है 'काइट्स'। इस फ़िल्म में उन्ही के गाये दो गीत "ज़िंदगी दो पल की" और "दिल क्यों ये मेरा शोर करे" कामयाबी की बुलंदी तक पहँचे, और मेरी तरफ़ से भी के.के का नामंकन इन दो गीतों के लिए आ रहा है। दूसरा नामांकन है रघुवीर यादव का जिन्होंने 'पीपलि लाइव' में "महंगाई डायन" गाया है। एक और नामांकन देना चाहूँगा, वह है मोहित चौहान के नाम का, जिन्होंने 'वन्स अपोन ए टाइम' में "पी लूँ" गाया था। वैसे इस गीत में कार्तिक का गाया "आइ ऐम इन लव" भी मुझे बहुत पसंद है।
विश्व दीपक - 'सर्वश्रेष्ट गायक' के लिए मैंने दो ऐसे गायकों को चुना है जो सूफ़ी शैली में गायन के लिए जाने जाते हैं। इनमें से एक हैं कैलाश खेर और दूसरे हैं राहत फ़तेह अली ख़ान। कैलाश तो आजकल फ़िल्मी गीतों में थोड़े कम कम ही सुनाई दे रहे हैं, लेकिन राहत साहब के गाये गीत तो लगभग हर फ़िल्म में आ रहे हैं। तो कैलाश खेर का गाया जो गीत मैंने चुना है, वह है 'लव सेक्स और धोखा' फ़िल्म का "तू गंदी लगती है" तथा राहत साहब का गाया "दिल तो बच्चा है जी" फ़िल्म 'इश्क़िया' से। "दिल तो बच्चा है जी" क्यों चुना.. मुझे नहीं लगता कि इसकी वज़ह बताने की जरूरत भी पड़ेगी। हाँ, आप दोनों और सभी श्रोतागण (पाठकगण) "एल एस डी" के गाने के लिए कैलाश खेर का नाम देखकर हैरत में जरूर पड़ गए होंगे। दर-असल इस चुनाव का एक और एकमात्र कारण है "कैलाश खेर" की अनकन्वेशनल गायकी। इस गाने या फिर "एल एस डी" के टाईटल ट्रेक को सुनने के पहले किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि कैलाश खेर ऐसा भी गाना गा सकते हैं.. ये गाने उनके अंदाज के थे हीं नहीं। फिर भी इन गानों को जिस तरह से "कैलाश खेर" ने गाया और गायकी की वज़ह से गाना जितना मक़बूल हुआ, उसमें कैलाश के महत्व को थोड़ा भी कम करना मुमकिन नहीं। मैं यहाँ पर "दिबाकर बनर्जी" को भी बधाई देना चाहूँगा, न सिर्फ़ वे ढर्रे से हटकर फिल्म बनाने में कामयाब हुए, बल्कि लीक से हटकर संगीत तैयार करवाने (संगीतकार: स्नेहा खनवल्कर) और बोल लिखने में भी सफल हुए। इस फिल्म ने यह भी साबित किया कि सेक्स शब्द से जुड़ी हर चीज निचले स्तर की नहीं होती.. खैर आगे बढते हैं!!!
सजीव - सुजॊय, तुम्हे यह जानकर अच्छा लगेगा कि सर्वश्रेठ गायक के रूप में एक बार फिर के.के हैं मेरे पसंदीदा 'गुज़ारिश' के शीर्षक गीत के लिए। के.के जो भी गाते हैं दिल से गाते हैं और यहाँ भी उनका वही जलवा बरकरार है। सोनू के क्या कहने, "स्ट्राईकर" का गीत इस वर्ष के सबसे मधुरतम मगर मुश्किल गीतों में से एक है और इसे इतना खास बनाने में सोनू की भूमिका सबसे अधिक है। यह गीत है "चम चम"। चलिए, अब बारी है 'सर्वश्रेष्ठ गायिका' की। सुनिधि चौहान ने जिस ऊर्जा के साथ "उडी" गाया है 'गुज़ारिश' में, वो लाजवाब है। सुनिधि को अधिकतर आईटम नंबर दिए जाते हैं. पर जब भी उन्हें मौका मिलता है वो दूसरे जेनर में भी कमाल कर जाती हैं. रेखा भारद्वाज ने "ससुराल गेंदाफूल" के बाद जैसे एक के बाद एक हिट गीतों की लड़ी लगा दी है. पर विशाल के लिए गाये 'इश्किया' के दो गीत बेमिसाल हैं. "बड़ी धीरे जली" की धुन और संगीत संयोजन पंचम की याद दिलाता है और रेखा ने जिस सहजता ने इस भावपूर्ण गीत को अंजाम दिया है, इसके लिए मेरा नामांकन उन्हें ही जाता है।
सुजॊय - के.के को मैंने 'काइट्स' के लिए चुना और आपने 'गुज़ारिश' के लिए। दोनों में जो बात कॊमन है, वह है हृतिक रोशन। जहाँ तक गायिका का सवाल है, मैंने जिन दो गायिकाओं को चुना है, वो हैं कविता सेठ, जिन्होंने फ़िल्म 'राजनीति' में आदेश श्रीवास्तव के संगीत में शास्त्रीय रचना "मोरा पिया मोसे बोलत नाही" गाया है। समीर ने इस गीत को लिखा है। और दूसरी गायिका हैं नगीन तनवीर, जिन्होंने 'पीपलि लाइव' में "चोला माटी के राम" गाया था। इस गीत को सुनते हुए एक अलग ही अनुभूति होती है। एक अनोखी आवाज़, सब से अलग सब से जुदा। काश उन्हें इस साल का सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का पुरस्कार दिया जाए!
विश्व दीपक - 'वीर' के लिए सजीव जी ने तो रेखा भारद्वाज का नाम मनोनीत कर ही दिया है, मैं भी करने वाला था। चलिए दो और नाम सुझाता हूँ। एक हैं श्रेया घोषाल, जिन्होंने 'ऐक्शन रीप्ले' में "ओ बेख़बर" गाया है। और दूसरा नाम है शिल्पा राव, जिन्होंने 'लफ़ंगे परिंदे' में "नैन परिंदे" गाया है।
सजीव - वाह! बहुत ही सुरीला पसंद है वी.डी भाई, निस्संदेह ये दोनों गीत इस साल के दो बेहतरीन गीतों में से हैं। अब अगले कैटगरी की बारी। 'सर्वश्रेष्ठ युगल गीत' की बात करें तो 'झूठा ही सही' का जावेद और श्रेया का गाया "क्राई क्राई" मुझे बहुत भाया। गाने का थीम अलग है और एक्सप्रेशंस दोनों के कमाल के हैं। 'खेलें हम जी जान से' में "सपने सलोने" अख्तर साहब ने लिखा है और सोहेल सेन और पामेला जैन ने प्यार और कर्तव्य के द्वंद्व को बहुत खूबी से उभारा है।
सुजॊय - युगल गीतों में पहला गीत मैं चुनूँगा फ़िल्म 'वीर' का, "सलाम आया"। इस साल के शुरु शुरु में यह फ़िल्म आयी थी, फ़िल्म तो नहीं चली लेकिन इस गीत ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। रूप कुमार राठोड़ और श्रेया घोषाल ने इस गीत को गाया है। वैसे सुज़ेन डी'मेलो ने भी अपनी आवाज़ दी है, इस तरह से यह युगल गीत तो नहीं है, लेकिन फिर भी मैंने इसे चुन लिया। साजिद वाजिद ने गुलज़ार के बोलों को बहुत ही मीठे धुनों में पिरोया, और साबित किया कि अच्छे बोल मिले तो संगीतकार अच्छा काम कर ही निकलता है। और दूसरा गाना है फ़िल्म 'खट्टा मीठा' का, "सजदे किए हैं लाखों", के.के और सुनिधि चौहान की आवाज़ों में। लोक शैली (बंगाल की लोकधुनों पर आधारित) में प्रीतम ने इस गीत को स्वरबद्ध किया है जो मुझे पसंद है। विश्व दीपक जी, आपने किन दो युगल गीतों को चुना है?
विश्व दीपक - एक तो है फ़िल्म 'लम्हा' का "मदनो", जिसे क्षितिज तारे और चिनमयी ने गाया है, तथा दूसरा गीत है फ़िल्म 'दबंग' का "चोरी किया रे जिया" जो सोनू निगम और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में है। रोमांटिक डुएट्स में साजिद वाजिद हमेशा ही अच्छा काम दिखाते आये हैं, जैसे कि 'मुझसे शादी करोगी' के तमाम गीत और जैसा कि ऊपर आप ने 'वीर' का "सलाम आया" चुना है। 'लम्हा' में संगीत था मिथुन का और इस गीत को भी अच्छा रेस्पॊन्स मिला था, भले ही फ़िल्म बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही हो। चलिए अब आगे बढ़ते हैं अगले कैटगरी की ओर, और यह कैटगरी वह कैटगरी है जिसके बग़ैर शायद आज फ़िल्में बनती ही नहीं है। जी हाँ, आइटम नंबर। 'सर्वश्रेष्ठ आइटम सॊंग' के लिए जो दो गीत मैं सुझा रहा हूँ, उनमें एक है फ़िल्म 'वन्स अपोन ए टाइम' का "परदा"। यह दर-असल एक रीमिक्स नंबर है। ७० के दशक के दो जबरदस्त राहुल देब बर्मन हिट्स "दुनिया में लोगों को" और "मोनिका ओ माइ डारलिंग" को मिलाकर इस गीत का आधार तय्यार किया गया है और उसमें नए बोल डाले गए हैं "परदा परदा अपनों से कैसा परदा"। एक तरह से ट्रिब्यूट सॊंग माना जा सकता है उस पूरे दशक के नाम। सुनिधि चौहान इस तरह के गीतों को तो ख़ूब अंजाम देती है ही है, लेकिन आर. डी. बर्मन जैसी आवाज़ निकालने वाले गायक राना मजुमदार को भी दाद देनी ही पड़ेगी। और दूसरा आइटम सॊंग है फ़िल्म 'राजनीति' का "इश्क़ बरसे"। प्रणब बिस्वास, हंसिका अय्यर और स्वानंद किरकिरे की आवाज़ों में यह गीत एक मस्ती भरा गीत है। 'लागा चुनरी में दाग' फ़िल्म के "हम तो ऐसे हैं भइया" की थोड़ी बहुत याद आ ही जाती है इस गीत को सुनते हुए। स्वानंद किरकिरे क्रमश: एक ऐसे गीतकार की हैसियत रखने लगे हैं जिनकी लेखन शैली में एक मौलिकता नज़र आती है। भीड़ से अलग सुनाई देते हैं उनके लिखे हुए गीत। और भीड़ से अलग है शांतनु का संगीत भी।
सुजॊय - आइटम सॊंग्स में मैं सब से पहले नाम लूँगा मुन्नी का, यानी "मुन्नी बदनाम हुई", फ़िल्म 'दबंग' से। यह गीत जितनी वितर्कित रही, उतनी ही लोकप्रिय भी साबित हुई। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'आक्रोश' का "तेरे इसक से मीठा कुछ भी नहीं"। "बीड़ी" जलै ले" जैसी बात तो इन दोनों में ही नहीं आ पायी, लेकिन इस साल के आइटम गीतों की लिस्ट को देखते हुए मुझे ये गीत ही ठीक लगे। सजीव, आपका क्या कहना है?
सजीव - "मुन्नी" को सुजॉय नामांकित कर चुके हैं, तो मैं 'शीला' को चुन लेता हूँ। "शीला, शीला की जवानी", फ़िल्म 'तीस मार खान' का। वैसे गाना एवरेज ही है पर बीट्स और अंतरों में कव्वाली के पुट से गाने में जान आती है। 'हाउसफ़ुल' के "धन्नो" में पुराने अमिताभ के हिट गीत का तडका काफी जमता है. वाकई इसे सुनकर थिरकने का मन होता है। 'सर्वश्रेष्ठ भावप्रधान गीत' की बात करें तो "मिस्टर सिंह और मिसेस मेहता" में दिल्ली की कुड़ी रिचा शर्मा की सशक्त अभिव्यक्ति वाला गीत "फ़रियाद है" और शंकर महादेवन का ऊंची पट्टी पर गाया शुद्ध कवितामय गीत "धुंधली धुंधली शाम हुई" मेरी नज़र में सर्वश्रेष्ठ हैं।
विश्व दीपक - ईमोशनल कैटगरी के लिए पहला गीत मेरी पसंद का होगा फ़िल्म 'झूठा ही सही' का "दो निशानियाँ"। एक और सुंदर कम्पोज़िशन, और सोनू निगम और रहमान का वही पुराना "दिल से" वाला अंदाज़ वापस आ गया है। एक धीमी लय वाला, कोमल और सोलफ़ुल गीत। पियानो की लगातार बजने वाली ध्वनियाँ गीत के ऒरकेस्ट्रेशन का मुख्य आकर्षण है। थोड़ा सा ग़मगीन अंदाज़ का गाना है लेकिन सोनू ने जिस पैशन के साथ इसे निभाया है, यह इस ऐल्बम का एक महत्वपूर्ण ट्रैक बन गया है यकीनन। दूसरा भावप्रधान गीत जो मैं चुन रहा हूँ, वह है फ़िल्म 'अंजाना अंजानी' का "तुझे भुला दिया ओ"। इस गीत की ख़ासियत है कि इसे दो गीतकारों ने लिखा है। विशाल दादलानी ने भी लिखा है, और क़व्वाली वाला हिस्सा लिखा है गीतकार कुमार ने।
सुजॊय - मैं इस कैटगरी के लिए दो भक्तिमूलक गीत चुन रहा हूँ। इस साल यह देखा गया है कि कई फ़िल्मों में सूफ़ी गीतों के अलावा भी भक्ति रस के गीत आये हैं। मेरी नज़र में जो दो श्रेष्ठ रचनाएँ हैं, वो हैं जगजीत सिंह की आवाज़ में "फूल खिला दे शाखों पर", फ़िल्म 'लाइफ़ एक्सप्रेस' का यह गीत, तथा 'माइ नेम इज़ ख़ान' का "अल्लाह ही रहम" जिसे राशिद खान ने गाया है। इन दोनों गीतों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहिए, बल्कि सिर्फ़ सुन कर महसूस करना चाहिए। चलिए बढ़ते हैं आगे और चुनते हैं 'सर्वश्रेष्ठ गीतकार' के लिए दो दावेदार। मैं इस साल दो वरिष्ठ गीतकारों को ही चुन रहा हूँ, जिनके बारे में अलग से कुछ कहने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। बस गानें बता रहा हूँ, गुलज़ार ("दिल तो बच्चा है जी" - 'इश्क़िया') तथा जावेद अख़्तर ("ये देस है मेरा" - 'खेलें हम जी जान से')।
सजीव - गीतकारों में गुज़ारिश के दो नवोदित गीतकारों ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है. इस फिल्म से पहले मैंने इनके नाम भी नहीं सुने थे पर "सौ ग्राम जिंदगी" लिख कर विभु पुरी और "जाने किसके ख्वाब" जैसे गीत लिख कर ए एम् तुराज़ ने इंडस्ट्री में नए और काबिल गीतकारों की सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया है।
विश्व दीपक - मैं तीन नाम चुन रहा हूँ - गुलज़ार ("तुमसे क्या कहना है" - दस तोला, "कान्हा" - वीर), अमिताभ भट्टाचार्य ("आज़ादियाँ" - उड़ान, "तरक़ीबें" - बैण्ड बाजा बारात) एवं इरशाद कामिल ("सौदेबाज़ी", "इसक से मीठा" - आक्रोश, "पी लूँ" - वन्स अपोन ए टाइम इन मुंबई)। तीन इसलिए क्योंकि सुजॉय जी गुलज़ार साहब को पहले हीं चुन चुके हैं। इरशाद कामिल ऐसे गीतकार हैं जो सीधे-सादे शब्दों से सौदेबाजी करके सीधे दिल की नसों को पकड़ लेते है। एक हीं गीतकार ऐसा है, जिसने पिछले साल प्यार में डूबे पंछियों को "तेरा होने लगा हूँ" जैसा एंथम दिया था.. और इस बार "पी लूँ" या फिर "भींगी-सी भागी-सी" जैसे नशीले तोहफ़े दिए। मैं इरशाद साहब की लेखनी का कायल हूँ, इसलिए जब गुलज़ार साहब और जावेद साहब का नामांकन हो चुका था, तो मुझे सीधे इनकी याद हुई। जहाँ इरशाद साहब नर्मोनाजुक शब्दों से गीतों का जाल बुनते हैं, वहीं एक गीतकार ऐसा है, जो आज की पीढी को ध्यान में रखकर शब्दों का तानाबाना गढता है। मैंने जब "बैंड बाजा बारात" और "नो वन किल्ड जेसिका" की समीक्षाएँ लिखी थीं, तो इन महानुभाव, जिनका नाम अमिताभ है, का ज़िक्र विशेष तौर पर किया था।
सुजॊय - गीतकार के बाद अब 'सर्वश्रेष्ठ संगीतकार' की बारी। मैं अपने वोट 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता' तथा 'रावण' को दे रहा हूँ। वैसे तो और भी बहुत से फ़िल्मों में कामयाब गीत आये हैं, लेकिन अगर पूरे ऐल्बम की बात करें तो मुझे ये दो ऐल्बम ठीक लगे, वैसे 'पीपलि लाइव' और 'माइ नेम इज़ ख़ान' भी इसके हक़दार हैं। लेकिन क्योंकि मुझे दो ही नाम चुनने हैं, इसलिए उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान और ए. आर. रहमान को ही मैं अपना वोट दे रहा हूँ। विश्वदीपक जी, आपने किन दो संगीतकारों को चुना है?
विश्व दीपक - मैं दो ऐसे संगीतकारों को चुन रहा हूँ जिन्होंने जितनी भी फ़िल्मों में संगीत दिया इस वर्ष, कामयाब दिया। ये हैं अमित त्रिवेदी ('उड़ान', 'आयशा') तथा विशाल-शेखर ('आइ हेट लव स्टोरीज़', 'अंजाना अंजानी', 'ब्रेक के बाद')। सजीव जी, अब आपकी बारी, आपकी राय में कौन हैं सर्वश्रेष्ठ संगीतकार २०१० के?
सजीव - 'गुज़ारिश' के ही "तेरा ज़िक्र" गीत के लिए और "खेले हम जी जान से" के शीर्षक गीत के लिए मेरा नामांकन संजय लीला भंसाली और सोहैल सेन को जाता है संगीतकार श्रेणी में। संजय ने सीमित साजों का इस्तेमाल कर जहाँ संगीत को माधुर्य और शब्द गरिमा दी है वहीं सोहैल ने किशोर लड़कों के लिए बने गीत में परफेक्ट टोन और ओर्केस्टएशन देकर उसे एक यादगार गीत बना दिया है। और अब आख़िरी कैटगरी की बारी, और यह है 'सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मांकन'। यानी बेस्ट कोरीओग्राफ़्ड सॊंग। फिल्मांकन की बात करें तो 'गुज़ारिश' के "उडी" का कोई जवाब नहीं। एश्वर्या की सुंदरता और उनका नृत्य दोनों ही किसी जादू से कम नहीं है इस गीत में। "तेरे मस्त मस्त दो नैन" का फिल्मांकन शानदार है। सामान्य सड़क पर चलते हुए, रोज़मर्रा के चेहरों की भीड़ में कैसे कोई व्यक्ति सपनों में पहुँच जाता है जहाँ वही आस पास की दुनिया, वही लोग उसके साथ होते है उसकी खुशी में, बेहद दिलचस्प है सब पर्दे पर देखना।
सुजॊय - पता नहीं इस विभाग में मैं न्याय कर पाऊँगा कि नहीं क्योंकि मैंने इस साल पर्दे पर ज़्यादा फ़िल्में देखी नहीं है, हाँ कुछ गानें टीवी पर ज़रूर देखे हैं। उन्हीं में से मैं दो गीत सुझाता हूँ। एक तो है 'कार्तिक कॊलिंग कार्तिक' का "उफ़ तेरी अदा" और दूसरा है 'हाउसफ़ुल' फ़िल्म का "वाल्युम कम कर पप्पा जग जाएगा"। और विश्व दीपक जी, आप भी बताइए कि आपके हिसाब से कौन से गानों की शानदार फ़िल्मांकन हुआ है।
विश्व दीपक - पहला गीत है "छान के मोहल्ला", फ़िल्म 'ऐक्शन रीप्ले' का, और दूसरा है 'रोबोट' फ़िल्म का "नैना मिले"। "छान के मोहल्ला" एक पारंपरिक होली गीत की तरह पिक्चराईज़ न होकर अलग हीं रंग और ढंग से फिल्मांकित हुआ लगता है। इस गाने में कई सारे डांसरों का इस्तेमाल किया गया है, जो पूरी तरह "सिंक" में हैं। इसलिए मुझे यह गीत बहुत पसंद है। जहाँ तक "रोबोट" की बात है तो इस फिल्म और इस फिल्म से जुड़े हर दृश्य की बात हीं निराली है। बस "नैना मिले हीं क्यों", इस फिल्म में ऐसा कौन-सा गाना है जो किसी खास अंदाज में न फिल्माया गया हो। रजनीकांत और ऐश्वर्या की जोड़ी हर गाने में कमाल की नज़र आई है, लेकिन इस गाने में ऐश्वर्या ने तो "डांस" के अपने पुराने रिकार्ड्स पीछे छोड़ दिए हैं। इसलिए सारे गानों में से मैंने इसे प्राथमिकता दी है। आप दोनों ने शायद यब बात गौर की होगी कि जिन छ: गानों को हमने नामांकित किया है, उनमें से तीन में ऐश्वर्या है। फिर न जाने क्यों लोग ऐश्वर्या की काबिलियत पर ऊंगली उठाते हैं!! चलिए आगे बढते हैं।
सजीव - तो हमें मिल गये हैं इन सभी श्रेणियों के लिए ६ ६ नामांकन, अब हम ज़िम्मा अपने श्रोताओं व पाठकों पर ही छोड़ते हैं कि हर श्रेणी में अपना वोट किसे दें। आपको ऊपर दिए हुए पूल बॉक्स में जाकर अपना मत देना है.
सुजॊय - तो इसी के साथ आज का यह चर्चा हम समाप्त कर सकते हैं, लेकिन आज एक ऐसा गीत ज़रूर सुन सकते हैं जिसकी चर्चा उपर नहीं हुई है। बहुत ही स्पेशल है यह गीत इस लिहाज़ से कि इसे लता मंगेशकर ने गाया है, और हाल ही में रिलीज़ हुई 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' फ़िल्म का यह गीत है। फ़िल्म के ना चलने से इस गीत की तरफ़ बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। लता जी का नाम आज के दौर के कलाकारों के साथ नामांकित करना हमें शोभा नहीं देता, इसलिए उन्हें हमने इस चर्चा से अलग ही रखा है। लेकिन इस विशेषांक को समाप्त करते हुए उनका गाया यह गीत ज़रूर सुन सकते हैं।
गीत - डोन्नो व्हाई न जाने क्यों
सजीव - चलिए अब सब हम अपने दोस्तों पर छोड़ते हैं, आपके वोटों का नतीजा हम लेकर उपस्थित होंगें ३१ तारीख़ को टी एस टी के विशेष एपिसोड में, आपके पास वोट करने के लिए २९ तारीख़ रात ११.४५ तक का टाइम है. एक बात और हम आपको बता दें कि अगले साल से टी एस टी संवाद रूप में नहीं होगा, इसे मैं या वी डी आपके लिए लेकर आयेगें एकल प्रस्तुति के रूप में. सुजॉय जी अगले वर्ष से हर रविवार लेकर आयेंगें शास्त्रीय संगीत पर आधारित एक नयी शृंखला. आशा है आप इस नयी शृंखला को भी भरपूर स्नेह देंगें.
'एक मैं और एक तू' - फ़िल्म संगीत के सुनहरे दशकों से चुने हुए युगल गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की शुरुआत कल हमने की थी 'अछूत कन्या' फ़िल्म के उस युगल गीत से जो फ़िल्म संगीत इतिहास का पहला सुपरहिट युगल गीत रहा है। आज आइए इस शृंखला की दूसरी कड़ी में पाँव रखें ४० के दशक में। सन् १९४७ में देश के बंटवारे के बाद बहुत से कलाकार भारत से पाक़िस्तान चले गये, बहुत से कलाकार वहाँ से यहाँ आ गये, और बहुत से कलाकार अपने अपने जगहों पर कायम रहे। ए. आर. कारदार और महबूब ख़ान यहीं रह जाने वालों में से थे। लेकिन नूरजहाँ जैसी गायिका अभिनेत्री को जाना पड़ा। लेकिन जाते जाते १९४७ में वो दो फ़िल्में हमें ऐसी दे गईं जिनकी यादें आज धुंधली ज़रूर हुई हैं, लेकिन आज भी इनका ज़िक्र छिड़ते ही हमें ऐसा करार मिलता है कि जैसे किसी बहुत ही प्यारे और दिलअज़ीज़ ने अपना हाथ हमारे सीने पर रख दिया हो! शायद आप समझ रहे होंगे कि आज हम आपको कौन सा गाना सुनवाने जा रहे हैं। जी हाँ, नूरजहाँ और जी. एम. दुर्रानी की युगल आवाज़ों में १९४७ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा साहिबाँ' का "हाथ सीने पे जो रख दो तो क़रार आ जाये, दिल के उजड़े हुए गुलशन में बहार आ जाये"। एक फ़िल्म 'मिर्ज़ा साहिबाँ' का ज़िक्र तो हमने किया, दूसरी फ़िल्म थी 'जुगनु'। ये दोनों ही फ़िल्में बेहद मक़बूल हुईं थी। 'मधुकर पिक्चर्स' के बैनर तले निर्मित और के. अमरनाथ निर्देशित 'मिर्ज़ा साहिबाँ' फ़िल्म में नूरजहाँ के नायक बने थे त्रिलोक कपूर। संगीतकार पंडित अमरनाथ की यह अंतिम फ़िल्म थी। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद उन्हीं के संगीतकार भाइयों की जोड़ी हुस्नलाल और भगतराम ने इस फ़िल्म के गीतों को पूरा किया। अज़ीज़ कशमीरी और क़मर जलालाबादी ने इस फ़िल्म के गानें लिखे जो उस ज़माने में बेहद चर्चित हुए। ख़ास कर आज का प्रस्तुत गीत तो गली गली गूंजा करता था। इसी गायक-गायिका जोड़ी ने इस फ़िल्म में एक और युगल गीत भी गाया था, जिसके बोल थे "तुम आँखों से दूर हो, हुई नींद आँखों से दूर", हालाँकि यह एक ग़मज़दा डुएट था। नूरजहाँ के गाये एकल गीतों में शामिल थे "आजा तुझे अफ़साना जुदाई का सुनाएँ, जो दिल पे गुज़रती है वह आँखों से बतायें" और "क्या यही तेरा प्यार था, मुझको तो इंतज़ार था"। ज़ोहराबाई ने अपनी पंजाबी अंदाज़ में "सामने गली में मेरा घर है, पता मेरा भूल ना जाना" गाया जो चरित्र अभिनेत्री कुक्कू पर फ़िल्माया गया था। नूरजहाँ, शम्शाद बेग़म और ज़ोहराबाई ने भी दो अनूठे गीत गाये थे, "हाये रे उड उड़ जाये मोरा रेशमी दुपट्टा" और "रुत रंगीली आई चांदनी छायी चांद मेरे आजा"।
दोस्तों, नूरजहाँ की बातें तो हमने बहुत की है पहले भी, हाल में भी, और आगे भी करेंगे, क्यों ना आज दुर्रानी साहब की बातें की जाए। हम क्या बातें करेंगे उनकी, लीजिए उन्हीं से सुनिए उनकी दास्तान जो उन्होंने कहे थे अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यु में। "उस वक़्त प्लेबैक सिस्टेम नहीं था। ऐक्टर को ख़ुद ही गाना पड़ता था। बात यह हुई कि जब मैंने अपने आप को फ़िल्म के पर्दे पर हीरो हीरोइन और लड़कियों के आगे पीछे दौड़ते भागते देखा तो मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। और दो एक फ़िल्मों में काम करने के बाद मैंने फ़िल्मों में काम करने से मना कर दिया, भई हम काम नहीं करेंगे। मतलब यह हुआ कि काम ठुकराने का मतलब भूखों मरना हुआ। अब अपने साथ भी यही मामला हुआ। ख़ैर, मरता क्या ना करता! घर वापस लौटकर जा नहीं सकते, क्योंकि घरवाले बहुत ही पुराने ख़यालात के थे, और फिर नाचाकी भी थी, वो सब इस तरह के काम करने वालों को कंजर कहा करते थे, यानी कि कंजर, 'अरे यार, फ़लाने आदमी का लड़का कंजर हो गया, फ़िल्म-लाइन में काम करता है'। ख़ैर साहब, हम ऐक्टर तो नहीं बन सके, पर गाना हमें बहुत भाया। और हम किसी भी सूरत हाथ पैर मारकर बम्बई रेडियो स्टेशन में ड्रामा आर्टिस्ट की हैसियत से नौकर हो गये"। फिर इसके बाद रेडियो से प्लेबैक सिंगर कैसे बने जी. एम. दुर्रानी साहब, यह कहानी हम फिर किसी रोज़ आपको बताएँगे, आइए फ़िल्हाल सुनते हैं दुर्रानी साहब के साथ नूरजहाँ का गाया फ़िल्म 'मिर्ज़ा साहिबाँ' का यह युगल गीत। आगामी २३ दिसंबर को नूरजहाँ जी की पुण्यतिथि के अवसर पर यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की श्रद्धांजली भी है उनके नाम।
क्या आप जानते हैं... कि जी. एम. दुर्रानी का पूरा नाम ग़ुलाम मुस्तफ़ा दुर्रानी था। १९३५ में ३० रुपय महीने पर सोहराब मोदी की कंपनी 'मिनर्वा' में उन्हें नौकरी मिल गई। उनका गाया हुआ पहला मशहूर गाना था "नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे" (नई कहानी, १९४३)।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 3/शृंखला 06 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -संगीतकार हैं नाशाद.
सवाल १ - किस किस की आवाजें हैं गीत में - १ अंक सवाल २ - अजीत और गीता बाली पर फिल्माए इस गीत के गीतकार बताएं - २ अंक सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - वाह श्याम जी, कुछ मुश्किल थी कल की पहेली, पर आपके क्या कहने.....शरद जी और अमित जी भी सही जवाब लाये, इंदु जी और दादी की हजारी सलामत
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है बहुत बहुत आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस सुरीली महफ़िल में। पिछली कड़ी के साथ ही पिछले बीस अंकों से चली आ रही लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' सम्पन्न हो गई, और आज से एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ हम कर रहे हैं। और यहाँ पर आपको इस बात की याद दिला दूँ कि यह साल २०१० की आख़िरी लघु शृंखला होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। जी हाँ, देखते ही देखते यह साल भी अब विदाई के मूड में आ गया है। तो कहिए साल के आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' लघु शृंखला को कैसे यादगार बनाया जाए? क्योंकि साल के इन आख़िरी कुछ दिनों में हम सभी छुट्टी के मूड में होते हैं, हमारा मिज़ाज हल्का फुल्का होता है, मौसम भी बड़ा ख़ुशरंग होता है, इसलिए हमने सोचा कि इस लघु शृंखला को कुछ बेहद सुरीले प्यार भरे युगल गीतों से सजायी जाये। जब से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई है, तभी से प्यार भरे युगल गीतों का भी रिवाज़ चला आ रहा है, और उस ज़माने से लेकर आज तक ये प्रेम गीत ना केवल फ़िल्मों की शान हैं, बल्कि फ़िल्म के बाहर भी सुनें तो एक अलग ही अनुभूति प्रदान करते हैं। और जो लोग प्यार करते हैं, उनके लिए तो जैसे दिल के तराने बन जाया करते हैं ऐसे गीत। तो आइए आज से अगले दस अंकों में हम सुनें ३० के दशक से लेकर ८० के दशक तक में बनने वाली कुछ बेहद लोकप्रिय फ़िल्मी युगल रचनाएँ, जिन्हें हमने आज तक अपने सीने से लगाये रखा है। वैसे तो इनके अलावा भी बेशुमार सुमधुर युगल गीत हैं, बस युं समझ लीजिए कि आँखें बंद करके समुंदर से एक मुट्ठी मोतियाँ हम निकाल लाये हैं, और आँखें खोलने पर ही देखा कि ये मोती कौन कौन से हैं। पेश-ए-ख़िदमत है साल २०१० के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की अंतिम लघु शृंखला 'एक मैं और एक तू'। जैसा कि हमने कहा कि हम युगल गीतों का यह सफ़र ३० के दशक से शुरु करेंगे, तो फिर ऐसे में फ़िल्म 'अछूत कन्या' के उस यादगार गीत से ही क्यों ना शुभारम्भ की जाए! "मैं बन की चिड़िया बनके बन बन बोलूँ रे, मैं बन का पंछी बनके संग संग डोलूँ रे"। अशोक कुमार और देविका रानी के गाये इस गीत का उल्लेख आज भी कई जगहों पर चल पड़ता है। और इस गीत को सुनते ही आज भी पेड़ की टहनी पर बैठीं देविका रानी और उनके पीछे खड़े दादामुनि अशोक कुमार का वह दृष्य जैसे आँखों के सामने आ जाता है।
'अछूत कन्या' १९३६ की फ़िल्म थी जो बनी थी 'बॊम्बे टॊकीज़' के बैनर तले। संगीतकार थीं सरस्वती देवी। यह वह दौर था जब गांधीजी ने अस्पृश्यता को दूर करने के लिए एक मिशन चला रखी थी। निरंजन पाल की लिखी कहानी पर आधारित इस फ़िल्म में भी अछूतप्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाया गया था। पंडित नेहरु और सरोजिनी नायडू 'बॊम्बे टॊकीज़' में जाकर यह फ़िल्म देखी थी। 'अछूत कन्या' पहली बोलती फ़िल्म है जिसके गानें सर्वसाधारण में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुए। सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि इसके गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड्स इंगलैण्ड तक भेजे गये। कहा जाता है कि सरस्वती देवी घण्टों तक अशोक कुमार और देविका रानी को गाना सिखाती थीं, ठीक वैसे जैसे कोई स्कूल टीचर बच्चों को नर्सरी राइम सिखाती है। उस ज़मानें में प्लेबैक का चलन शुरु नहीं हुआ था, इसलिए अभिनेता अशोक कुमार और देविका रानी को अपने गानें ख़ुद ही गाने थे। ऐसे में संगीतकार के लिए बहुत मुश्किल हुआ करता था कम्पोज़ करना और जहाँ तक हो सके वो धुनें ऐसी बनाते थे जो अभिनेता आसानी से गा सके। इसलिए बहुत ज़्यादा उन्नत कम्पोज़िशन करना सम्भव नहीं होता था। फिर भी आज का प्रस्तुत गीत उस ज़माने में ऐसी लोकप्रियता हासिल की कि उससे पहले किसी फ़िल्मी गीत ने नहीं की थी। उस समय के प्रचलित नाट्य संगीत और शास्त्रीय संगीत के बंधनों से बाहर निकलकर सरस्वती देवी ने हल्के फुल्के अंदाज़ में इस फ़िल्म के गानें बनाये जो बहुत सराहे गये। इस फ़िल्म के संगीत की एक और महत्वपूर्ण बात आपको बताना चाहूँगा। फ़िल्म में एक गीत है "कित गये हो खेवनहार"। कहा जाता है कि इस गीत को सरस्वती देवी की बहन चन्द्रप्रभा द्वारा गाया जाना था जो उस फ़िल्म में अभिनय कर रही थीं। लेकिन जिस दिन इस गाने की शूटिंग् थी, उस दिन उनका गला ख़राब हो गया और गाने की हालत में नहीं थीं। ऐसे में सरस्वती देवी ने पर्दे के पीछे खड़े होकर ख़ुद गीत को गाया जब कि चन्द्रप्रभा ने केवल होंठ हिलाये। इस तरह से सरस्वती देवी ने प्लेबैक की नींव रखी। वैसे पहले प्लेबैक का श्रेय न्यु थिएटर्स के आर. सी. बोराल को जाता है जिन्होंने १९३५ की फ़िल्म 'धूप-छाँव' में इसकी शुरुआत की थी, लेकिन उस फ़िल्म में उस अभिनेता ने अपने लिए ही प्लेबैक किया। "प्योर प्लेबैक" की बात करे तो सरस्वती देवी ने अपनी बहन चन्द्रप्रभा के लिए प्लेबैक कर 'प्लेबैक' के असली अर्थ को साकार किया। तो लीजिए दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर प्रस्तुत है हिंदी सिने संगीत का ना केवल पहला मशहूर युगल गीत, बल्कि यु कहें कि पहला मशहूर गीत। अशोक कुमार और देविका रानी के साथ साथ सरस्वती देवी को भी 'आवाज़' का सलाम।
क्या आप जानते हैं... कि सरस्वती देवी का असली नाम था ख़ुरशीद मंचशेर मिनोचा होमजी (Khursheed Manchersher Minocher Homji)। उस समय पारसी महिलाओं को फ़िल्म और संगीत में जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उन्हें अपना नाम बदल कर इस क्षेत्र में उतरना पड़ा।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 2/शृंखला 06 गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत की गायिका हैं नूरजहाँ.
सवाल १ - गायक बताएं - १ अंक सवाल २ - एक अमर प्रेम कहानी पर आधारित थी फिल्म, नाम बताएं - १ अंक सवाल ३ - किस संगीतकार की अंतिम फिल्म थी ये - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - एक बार फिर पहले सवाल के साथ शरद जी ने बढ़त बनाई है, पर क्या वो पिछली बार की तरह इस बार भी श्याम जी से पिछड़ जायेगें आगे चल कर या वो और अमित जी मिलकर ४ बार के विजेता श्याम जी को पछाड पायेंगें, देखना दिलचस्प होगा, बधाई
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
हिन्द-युग्म YouTube Channel
आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
हमसे जुड़ें
आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
यदि आप अपनी कविताओं/गीतों/कहानियों को एक प्रोफेशनल आवाज़ में डब्ब ऑडियो बुक के रूप में देखने का ख्वाब रखते हैं तो हमसे संपर्क करें-hindyugm@gmail.com व्यवसायिक संगीत/गीत/गायन से जुडी आपकी हर जरुरत के लिए हमारी टीम समर्पित है