Saturday, September 13, 2008

मिट्टी के गीत ( ३), कश्मीर की वादियों में महकता सूफी संगीत



उस्ताद गुलाम मोहमद साज़नवाज़ का जादूई संगीत

असाम के मिटटी की महक लेने के बाद आईये चलते हैं, हिमालय की गोद में बसे धरती के स्वर्ग कश्मीर की खूबसूरत वादियों में. यहाँ तो चप्पे चप्पे में संगीत है, बहते झरनों में कहीं संतूर की स्वरलहरियाँ मिलेंगीं तो कहीं चनारों के बीच बहती हवाओं में बजते सितारों के स्वर मिलेंगे आपको, कहीं रबाब तो कहीं नगाडा, कहीं "रौफ" पर थिरकती कश्मीरी सुंदरियाँ तो कहीं पानी का भरा प्याला सर पर रख कर "नगमा" पर नाचते लड़के. कश्मीर के संगीत में सूफियाना संगीत रचा बसा है.सूफियाना कलाम कश्मीरी संगीत की आत्मा है. गुलाम मोहमद साज़नवाज़ कश्मीरी सूफी संगीत के एक "लिविंग लीजेंड" कहे जा सकते हैं. आईये उन्ही की आवाज़ और मौसिकी का आनंद लें इस विडियो में, जो हम तक पहुँचा कश्मीर निवासी और कश्मीरी सूफी संगीत के बहुत बड़े प्रेमी साजिद हमदानी की बदौलत, तो सुनते हैं उस्ताद को और घूम आते हैं संगीत के पंखों पर बैठकर दिलकश कश्मीर की मस्त फ़िज़ाओं में.



Indian Folk Music Series, Kashmeeri Sudiyana Sangeet, Ustad Ghulam Md. Saaznawaaz

प्रेमचंद की कहानी 'अपनी करनी' का पॉडकास्ट



सुनो कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'अपनी करनी' का पॉडकास्ट

आवाज़ पर 'सुनो कहानी' के इस नियमित स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियों का पॉडकास्ट। अभी पिछले सप्ताह शिक्षक दिवस के अवसर पर आपने सुना था शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा' का पॉडकास्ट। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं अनुराग शर्मा की आवाज़ में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की कहानी 'अपनी करनी' का पॉडकास्ट। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

नीचे के प्लेयर से सुनें.

(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)
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आज भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं, तो कृपया यहाँ देखें।

#Fourth Story, Apni Karni: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2008/05. Voice: Anuraag Sharma

Friday, September 12, 2008

दोस्तों ने निभा दी दुश्मनी प्यार से...



दूसरे सत्र के ग्यारहवें गीत का विश्वव्यापी उदघाटन आज.

ग्यारहवें गीत के साथ हम दुनिया के सामने ला रहे हैं एक और नौजवान संगीतकार कृष्ण राज कुमार को, जो मात्र २२ वर्ष के हैं, और जिन्होंने अभी-अभी अपने B.Tech की पढ़ाई पूरी की है, पिछले १४ सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं. कृष्ण का परिचय हिंद युग्म से, "पहला सुर" के संगीतकार निरन कुमार ने कराया, कृष्ण कुमार जिस दिन हिंद युग्म के कविता पृष्ट पर आए, उसी दिन युग्म के वरिष्ट कवि मोहिंदर कुमार की ताजी कविता प्रकाशित हुई थी, कृष्ण ने उसी कविता / गीत को स्वरबद्ध करने का हमसे आग्रह किया.

लगभग डेढ़ महीने तक इस पर काम करने के बाद उन्होंने इस गीत को मुक्कमल कर अपनी आवाज़ में हमें भेजा, जिसे हम आज आपके समक्ष लेकर हाज़िर हुए हैं, हम चाहेंगे कि आप इस नए, प्रतिभावान संगीतकार/गायक को अपना प्रोत्साहन और मार्गदर्शन अवश्य दें.

गीत को सुनने के लिए प्लेयर पर क्लिक करें -



With this new song, we are introducing another new singer / composer from Cochi, Krishna Raj Kumar, lyrics are provided by another Vattern poet from Hind Yugm, Mohinder Kumar, the song is more like a poetry about relationships and the hard facts of life. We hope you will like this presentation, give your guidance to this young composer, so that he can better himself for the future.

Click on the player to listen to this brand new song



Lyrics - गीत के बोल

राहतें सारी आ गई हिस्से में उनके
और उजाले दामन के सितारे हो गये
चांद मेरा बादलों में खो गया है
कौन जाने इस घटा की क्या वजह है

आखिरी छोर तक जायेगा साथ मेरे
और फ़िर वो साया भी मेरा न होगा
ख्वाबों के लिये हैं ये सातों आसमान
हकीकत के लिये पथरीली सतह है


राहों से मंजिलों का पता पूछता है
बीच राह में गुमराह राही हो गया है
कौन जाने गुजरे पडाव मंजिलें हों
भूलना ही हार को असली फ़तह है

दोस्तों ने निभा दी दुश्मनी प्यार से
सोचने को अब बाकी क्या बचा है
राह शोलों पर भी चल कर कट जायेगी
इस दिल मे जख्मों के लिये जगह है...

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SONG # 11, SEASON # 02, "RAHATEN SAARI" OPENED ON 12/09/2008, ON AWAAZ, HIND YUGM.
Music @ Hind Yugm, Where music is a passion


ब्लॉग/वेबसाइट/ऑरकुट स्क्रैपबुक/माईस्पैस/फेसबुक में "राहतें सारी" का पोस्टर लगाकर नये कलाकारों को प्रोत्साहित कीजिए


Thursday, September 11, 2008

जिन्होंने सजाये यहाँ मेले...कुछ यादें अमर संगीतकार सलिल दा की



आज आवाज़ पर, हमारे स्थायी श्रोता, और गजब के संगीत प्रेमी, इंदौर के दिलीप दिलीप कवठेकर लेकर आए हैं महान संगीतकार सलिल चौधरी के दो अदभुत गीतों से जुड़ी कुछ अनमोल यादें.

अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा..

सलिल चौधरी- इस क्रान्तिकारी और प्रयोगवादी संगीतकार को जब हम पुण्यतिथि पर याद करते हैं तो अनायास ही ये बोल जेहन में उभरते है, और साथ में कई यादें ताज़ा होती हैं. अपने विविध रंगों में रचे गानों के रूप में जो निशानी वो छोड गये हैं, उन्हें याद करने का और कराने का जो उपक्रम हम सुर-जगत के साथी कर लेते हैं, वह उनके प्रति हमारी छोटी सी श्रद्धांजली ही तो है.


गीतकार योगेश लिख गये है- जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुन कर खामोशी, यूँ चले जाये अकेले कहां?

आनंद के इस गीत के आशय को सार्थक करते हुए यह प्रतिभाशाली गुलुकार महज चालीस साल की अपने संगीतयात्रा को सजाकर अकेले कहीं दूर निकल गया.

गीतकार योगेश की बात चल पड़ी है तो आयें, कुछ उनके संस्मरण सुनें, जो हमें शायद सलिलदा के और करीब ले जाये.

आनंद फ़िल्म में योगेश को पहले सिर्फ़ एक ही गीत दिया गया था, सलिलदा के आग्रह पर- कहीं दूर जब दिन ढल जाये. उसके बाद, एक दिन दादा ने एक बंगाली गीत की रिकॉर्ड योगेश के हाथ में रखी, और उसपर बोल लिखने को कहा. यह उस प्रसिद्ध गीत का मूल बंगाली संस्करण था - ना, जिया लागे ना.. योगेश के पास तो ग्रमोफ़ोन तक नहीं था. खैर, कुछ जुगाड़ कर उन्होंने यह मूल गीत सुना और बैठ गये बोल बिठाने.

उधर एक और ग़फ़लत हो गयी थी. फ़िल्म के निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने यह गीत गुलज़ार को भी लिखने दे दिया. उन्होंने लिखा - ना ,जिया लागे ना, और योगेश ने लिखा - ना, ना रो अखियां. संयोग से गुलज़ार का गीत रिकॉर्ड हो गया, योगेश का गीत रह ही गया.

एक दिन हृषिकेश दा ने उन्हें बुलाकर उनके हाथ में चेक रख दिया. योगेश ने अचंभित हो कहा- कहीं दूर के तो पैसे मिल गये है. ये फिर किसके लिये? 'ये ना, ना रो अंखियां के पैसे' हृषि दा बोले। "यदि गाना रिकॉर्ड होता तो पैसे ले लेता , मगर यूँ लेना अच्छा नहीं लगता." योगेश ने संकोचवश कहा. अब दादा तो मान नहीं रहे थे, तो सलिलदा ने एक उपाय सुझाया. हम लोग फ़िल्म के टाईटल गीत के लिये एक गाना और लिखवा लेते है योगेश से, तो कैसा रहेगा. योगेश मान गये, और तैयार हुई एक कालजयी, आसमान से भी उत्तुंग संगीत रचना-

ज़िंदगी , कैसी है पहेली हाये, कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये....

जब बाद में राजेश खन्ना ने यह गीत सुना तो उन्होंने हृषि दा को मनाया के यह गीत इतना अच्छा बन पड़ा है तो इसे टाईटल पर जाया ना करें, मगर उन पर पिक्चराईज़ करें. हृषि दा बोले, सिच्युएशन कहां है इस गीत के लिये. राजेश खन्ना ने हठ नहीं छोड़ा, कहा "पैदा कीजिये" . वैसे इस गाने को सिर्फ़ एक दिन में ही चित्रित कर लिया गया.

यहां सलिल दा ने कोरस का जो प्रयोग किया है, उसके बारे में भी आर.डी. बर्मन बोले थे - झकास... ऐसे प्रयोग शंकर जयकिशन ने भी कहीं किये थे. सलिलदा ने उससे भी आगे जा कर एक अलग शैली विकसित की, जिसकी बानगी मिलेगी इन गीतों में -

मेरे मन के दिये (परख), जाने वाले सिपाही से पूछो ( उसने कहा था), ए दिल कहां तेरी मंज़िल (माया), न जाने क्यूं होता है ये (छोटी सी बात), जागो मोहन प्यारे (जागते रहो)

तो यूँ हुआ उस बेहतरीन गीत का आगमन हमारे दिल में. आईये सुनते है:



इसी तरह रजनीगंधा फ़िल्म के प्रसिद्ध गीत 'रजनी गंधा फूल हमारे, यूँ ही महके जीवन में ' लिखने के बाद जब ध्वनिमुद्रित किया गया तो सुन कर फ़िल्म के निर्देशक बासु चटर्जी बोले, सलिल दा, इस गाने को थोड़ा १०-१५ सेकंड छोटा करो. सलील दा को समझ नहीं आया . उन्होंने कहा- तो शूटिंग थोड़ी ज्यादा कर लेना. तो बासु दा बोले - दादा, यह गाना तो पहले ही शूट हो चुका है. दरसल यह गाना बैकग्राऊंड में था!!!

पूरी रिकॉर्डिंग फिर से करने का निश्चय किया गया. मगर एक अंतरे में कुछ अलग बोल थे, जो गाने के सिचुयेशन से मेल नहीं खाते थे. योगेश ने लिखा था-

अपना उनको क्या दूं परिचय
पिछले जन्मों के नाते हैं,
हर बार बदल कर ये काया,
हम दोनो मिलने आते है..
धरती के इस आंगन में.....


फ़िल्म के रशेस देखकर सलिल दा को लगा की नायिका के मन के अंतर्द्वंद का, दो नायकों के बीच फ़ंसी हुई उसकी मनस्थिती का यहां वर्णन जम नहीं रहा है. उन्होंने योगेश से फ़िर लिखने को कहा, और बना यह अंतरा..

हर पल मेरी इन आंखों में
अब रहते है सपने उनके ,
मन कहता है कि मै रंगूँ
एक प्यार भरी बदली बन के,
बरसूं उनके आंगन में....

तो यह गीत भी सुनें, सुरों की सिम्फ़नी के बागा़नों से छन कर आती हुई खुशबू का लुत्फ़ उठाएं-



चलते चलते एक पहेली-
माया फ़िल्म का गीत - ऐ दिल! कहां तेरी मंज़िल, ना कोई दीपक है ,ना कोई तारा है, गु़म है ज़मीं, दूर आसमां.. गीत किसने गाया है?

हमें लगता है दिलीप जी का ये सवाल हमारे संगीत प्रेमियों के लिए बेहद आसान होगा, तो जल्दी से लिख भेजिए हमें, अपने जवाब टिप्पणियों के माध्यम से.

प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
चित्र "रजनीगंधा फूल तुम्हारे" गीत की रिकॉर्डिंग के दौरान का है

Wednesday, September 10, 2008

सितम्बर माह के कवि सम्मेलन के लिए अपनी रिकॉर्डिंग भेजें



पिछले दो महीनों से हम पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहे हैं। दूसरे अंक से मृदुल कीर्ति ने संयोजन की जिम्मेदारी सम्हाली है। हम उत्साह से लबरेज़ हैं और तीसरे पॉडकास्ट सम्मेलन के लिए कवियों से कविताओं की रिकॉर्डिंग आमंत्रित करते हैं।

कृपया अपनी आवाज़ में अपनी १ या १ से अधिक रचनाओं का पाठ करके २४ सितम्बर २००८ तक podcast.hindyugm@gmail.com पर भेज दें। यदि रिकॉर्डिंग करने में परेशानी आये तो हमारा मुफ़्त ट्यूटोरियल देखें।

हमें उम्मीद है कि इस बार बहुत से कवि इस ऑनलाइन कवि सम्मेलन में भाग लेंगे।


पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का दूसरा अंक

पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का पहला अंक

कुछ बातें गौरव सोलंकी से



आवाज़ पर हमारे इस हफ्ते के सितारे गौरव सोलंकी का सपना है - "ऑस्कर"

7 जुलाई, 1986 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के 'जिवाना गुलियान' गाँव में जन्मे गौरव के मन में इंजीनियर बनने की लगन के साथ-साथ एक नन्हे से कवि की कोमल कल्पनायें भी बचपन से पलती रहीं। एक दिन हाथों ने लेखनी को थाम ही लिया और लेखन शुरू हो गया। 15 वर्ष की आयु में काव्य-लेखन आरंभ किया।

आई.आई.टी. रुड़की में प्रवेश के बाद शौक अधिक गति से बढ़ने लगा और कवि के शब्दों में अब वे अधिक 'परिपक्व' कविताएँ लिखने लगे हैं। साहित्य पढ़ते समय रुचि अब भी गद्य में ही रही और एक कहानीकार भी भीतर करवट लेने लगा। कहानियाँ लिखनी शुरू की और फिर उपन्यास भी। युग्म के ताज़ा गीत "खुशमिज़ाज मिटटी" के गीतकार गौरव से हमने की एक संक्षिप्त सी बातचीत -


हिंद युग्म- गौरव सोलंकी, पहले एक इंजीनियर या एक कवि?

गौरव- पहले कवि और बाद में भी :)

हिंद युग्म - माँ का स्वेटर, पिता के साथ चाँद तक जाने की तमन्ना, प्रियसी के लिए एक तरफा प्यार, किस कविता ने सबसे ज्यादा संतोष दिया?


गौरव- सभी ने अपने अपने वक़्त पर लगभग उतना ही संतोष दिया। शायद चुनकर नहीं बता सकता कि कब ज्यादा संतोष मिला। जब भी लिखा, इसी उद्देश्य से लिखा कि आत्मसंतुष्टि तो हो ही।

हिंद युग्म- हिन्दी ब्लॉगिंग और हिंद-युग्म, कैसा रहा ये सफर लगभग दो सालों का?

गौरव- बहुत अच्छा सफ़र रहा। हिन्द-युग्म से ही कितने सारे पढ़ने वाले लोग मिले। हिन्दी ब्लॉगिंग फल-फूल रही है, लेकिन इसके अंदाज़ से मैं बहुत ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूं। और अच्छा हो सकता है।

हिंद युग्म- खुशमिज़ाज मिटटी, क्या है इस गीत की कहानी?

गौरव- एक दिन पार्क में घूमते घूमते शुरुआती दो पंक्तियाँ दिमाग में आईं और फिर उसी शाम पूरा गीत जुड़ता चला गया। पहली दो पंक्तियाँ अब भी मुझे काफ़ी पसंद हैं। अब भी लगता है कि शायद पूरा गीत उस स्तर का बनता तो कुछ और ही बात होती। सुबोध की आवाज़ बहुत अच्छी है। अब मैं भी गुनगुनाता हूं तो उसी धुन में। जिस धुन को सोच कर लिखा था, वह अब भूल ही गया।

हिंद युग्म - युग्म का पहला गीत जिसका वीडियो भी बना, आप ख़ुद भी फ़िल्म निर्देशन में रूचि रखते हैं, इस वीडियो को आप किस तरफ़ रेट करेंगे?

गौरव -वीडियो मुझे पसंद नहीं आया। किसी गाने का अच्छा वीडियो बनाने के लिए उसमें एक कहानी भी चले तो बेहतर रहता है। नहीं तो बोझिल सा लगने लगता है। हर एक दृश्य के लिए आपके पास एक जवाब होना चाहिए कि कोई इसे क्यों देखे?

हिंद युग्म - अगले ५ सालों में गौरव ख़ुद को क्या करते हुए देखना चाहेगा?

गौरव - ऑस्कर जीतते हुए। कोशिश तो करूंगा ही। :)

हिंद युग्म - और जाते जाते कुछ अपने ही अंदाज़ में "आवाज़" के लिए कुछ ख़ास हो जाए

गौरव - क्या इतना काफ़ी नहीं है? :)

आपको पढ़ना और सुनना कभी काफ़ी नहीं हो सकता गौरव, हिंद-युग्म परिवार को आपसे बहुत सी उम्मीदें हैं, हम सब आपको ओस्कर जीतते हुए देखना चाहेंगे. युग्म पर गौरव का काव्य संग्रह आप यहाँ पढ़ सकते हैं, फिलहाल सुनते हैं एक बार फिर गौरव का लिखा और सुबोध का गाया ये बेहद खूबसूरत सा गीत "खुशमिज़ाज मिटटी"




आप भी इसका इस्तेमाल करें

Tuesday, September 9, 2008

लता संगीत उत्सव ( २ ) - लावण्या शाह



आज भी कहीं कुरमुरा देख लेतीं हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं..

लता संगीत उत्सव की दूसरी कड़ी के रूप में हम आज लेकर आए हैं, लता जी की मुंहबोली छोटी बहन और मशहूर कवि गीतकार, स्वर्गीय श्री पंडित नरेन्द्र शर्मा (जिन्होंने नैना दीवाने, ज्योति कलश छलके, और सत्यम शिवम् सुन्दरम जैसे अमर गीत रचे हैं) की सुपुत्री, लावण्या शाह का यह आलेख -

पापाजी और दीदी, २ ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है -
सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं- सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उनपर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन २ व्यक्तियों से सीखा। उनका सानिध्य मुझे ये सिखला गया कि अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है- उनके उदाहरण से हमें इंसान के अच्छे गुणों में विश्वास पैदा करवाता है।

पापा जी का लेखन,गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत, कला और परिश्रम करने का उत्साह, मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया।

उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था। दोनों ही व्यक्ति ऐसे जिनमें इंसानियत का धर्म कूटकूट कर भरा हुआ मैंने बार बार देखा और महसूस किया ।

जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर पैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फिर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में --

दीदी ने अपनी संगीत के क्षेत्र में मिली हर उपलब्धि को सहजता से स्वीकार किया है और उसका श्रेय हमेशा परमपिता ईश्वर को दे दिया है। पापा और दीदी के बीच, पिता और पुत्री का पवित्र संबंध था जिसे शायद मैं मेरे संस्मरण के द्वारा बेहतर रीत से कह पाऊँ -

हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी.

हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी, लता दीदी ही थीं- उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में, ये सारे किस्से मशहूर हैं। पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं--उनकी मुलाक़ात, पापा से, मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई थी- पापा को याद है दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊँ चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा--- दीदी जान गयी थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं- संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र हृदय को समझ पायी थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दीखलाई दी थी। वे हमारे खार के घर पर आयी थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं-- संगीत ही उनका जीवन था-गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि-मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि बंबई का शोर-शराबा शाम होने पे थमता- दीदी से एक बार सुन कर आज दोहराने वाली ये बात है !

कई बार वे भूखी ही, बाहर पड़ी किसी बेंच पे सुस्ता लेती थीं, इंतजार करते हुए ये सोचतीं "कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें, उनके पास पहुँचकर आराम करूंगी!" दीदी के लिए माई कुरमुरों से भरा कटोरा ढँक कर रख देती थी जिसे दीदी खा लेती थीं पानी के गिलास के साथ सटक के ! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेती हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :)

ये शायद उन दिनों की याद है- क्या इंसान अपने पुराने समय को कभी भूल पाया है? यादें हमेशा साथ चलती हैं, ज़िंदा रहती हैं-- चाहे हम कितने भी दूर क्यों न चले जाएँ --

फ़िर समय चक्र चलता रहा - हम अब युवा हो गए थे -- पापा आकाशवाणी से सम्बंधित कार्यों के सिलसिले में देहली भी रहे .फिर दुबारा बंबई के अपने घर पर लौट आए जहाँ हम अम्मा के साथ रहते थे, पढाई करते थे। हमारे पड़ौसी थे जयराज जी- वे भी सिने कलाकार थे और तेलगु, आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं (उनके बारे में आगे लिखूंगी ) -- उनके घर फ्रीज था सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे ..पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था- एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" जिसे हमने , अनसुना कर दिया। :-))... आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था ...ना कि ऐसी बातों का !!
बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें .....
और उनका मन पसीज गया !

- जिसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी,बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी ... देखती क्या हूँ कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रस्सियों से बंधा हुआ।

तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापा, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। दीदी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं "पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... ".अम्मा पापा को समझा रही थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे। ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!!

पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे- सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले, आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान !

खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है ..शायद मरम्मत की ज़रूरत हो ..पर चल रहा है !

हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं ..अम्मा से कहने लगीं, "भाभी,लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें? रख लो ..ससुराल जाएँगीं, वहाँ सबके सामने अच्छा दीखेगा" -- कहना न होगा हम सभी रो रहे थे ..और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं ! ममता का ये रूप, आज भी आँखें नम कर रहा है जब ये लिखा जा रहा है ...मेरी दीदी ऐसी ही हैं। भारत कोकीला और भारत रत्ना भी वे हैं ही ..मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही,याद रहता है --



फिर पापा की ६०वीं साल गिरह आयी-- दीदी को बहुत उत्साह था कहने लगीं- "मैं,एक प्रोग्राम दूंगीं,जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।"

पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा- "मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।"

उसके बाद, प्रोग्राम नहीं हुआ- हमने साथ मिलकर, अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए।
आज भी यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक जी पाई हूँ, ये अंदेशा नहीं है फिर भी कोशिश जारी है .........

- लावण्या

(चित्र - स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर पँडित नरेन्द्र शर्मा की " षष्ठिपूर्ति " के अवसर पर, माल्यार्पण करते हुए)

Monday, September 8, 2008

वह कभी पीछे मुडकर नहीं देखती, इसीलिए वह आशा है



सजय पटेल ने दो बरस पहले ख्यात गायिका आशा भोंसले से उनके जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले बात की थी.उसी गुफ़्तगू की ज़ुगाली आज आवाज़ पर....

संघर्ष हर एक के जीवन में हमेशा ही रहता है, लेकिन उन्होंने पीछे मुड़कर देखना नहीं सीखा और शायद इसीलिए वह सिर्फ़ नाम की आशा नहीं, ज़िंदगी का वो फ़लसफ़ा हैं जिसमें "निराशा' शब्द के लिए कोई जगह नहीं। वह वैसा फूल भी नहीं हैं जिसे कल मुरझाना है, वह ऐसी ख़ुशबू हैं जिसकी महक में उल्लास है, ख़ुशी है, ज़ज़्बा है।ये सारे शब्द उस आवाज़ के लिये यहाँ झरे हैं, जो साठ बरसों से मादकता, मदहोशी और मुस्कान का मीठा सिलसिला पेश करती आई हैं, आशा भोंसले।

दो बरस पहले टेलीफ़ोन पर उनसे जब चर्चा हुई थी तब आशाजी ने कहा- जीवन ताल और लय में होना ज़रूरी है। सुर उतरा तो चढ़ जाएगा, लेकिन ताल बिगड़ी तो समझिए संगीत का समॉं ही बिगड़ गया। मनुष्य के लिए "चाल-ढाल और गाने वालों के लिए ताल' बहुत ज़रूरी है। मैंने न जाने कितने संगीतकारों के साथ काम किया तो उसे अपना एक विनम्र कर्तव्य माना। कभी काम करके थकान नहीं महसूस की मैंने। मानकर चली कि संगीत का काम भी एक इबादत है, उसे तो करना ही है।

बातचीत में ज़ेहन में उनके सैकड़ों गीत उभरे लेकिन मैंने उनसे दो ख़ास प्रोजेक्ट की चर्चा की। एक उस्ताद अली अकबर ख़ॉं के साथ किए शास्त्रीय संगीत के एलबम की और दूसरे ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली द्वारा रचे गए ग़ज़लों के एलबम की। आशाजी ने बताया कि उस्ताद अली अकबर ख़ॉं साहब अपने एलबम के लिए क्लासिकल मौसिक़ी के कई बड़े नाम आज़मा चुके थे। लेकिन बात इसलिए नहीं बन रही थी कि वो जो चाहते वह बनता नहीं। गाने वाला अपना रंग उसमें उड़ेल देता। मैं ठहरी "प्लेबैक सिंगर' सो जैसा उन्होंने बताया, मैंने गाया। उनका सबसे बढ़िया कॉम्प्लीमेंट मेरे लिए यह था कि आशाबाई आपने बाबा के संगीत को पुनर्जीवित कर दिया। न जाने कौन-कौन से कैसे-कैसे क्लिष्टतम राग और बंदिशें थीं उसमें। लेकिन बस पन्द्रह दिन ख़ॉं साहब के साथ बैठी और रिकॉर्ड कर दिया। ग़ुलाम अली साहब के साथ भी पहले गाने में घबरा रही थी, पर मेरी बेटी वर्षा ने कहा - आप कीजिए। रात को एक कम्पोज़िशन गाकर सोई और सुबह दिमाग़ में धुन मुकम्मिल हो गई। बस बाकी तो आप संगीतप्रेमी जानते ही हैं कि वह एलबम लोगों को कितना पसंद आया।

जन्मदिन बिताने की तैयारी क्या है, पूछने पर उन्होंने कहा - अब जन्मदिन या जीवन की सारी ख़ुशियॉं मैं अपने नाती-पोतों में तलाशती हूँ। यह पूछने पर कि क्या यह कहना बेहतर होगा कि भारत में पॉप की साम्राज्ञी आप हैं, तो आशाजी ने ठहाके के साथ कहा कि मैंने अण्णा (संगीतकार सी.रामचंद्र) के साथ "इना मीना डीका' गाया था। वहॉं से पॉप को एक नई पहचान मिली। अब "रंग रंग रंगीला' तक सारा सिलसिला पॉप और मस्ती का ही तो है। उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में कहा- लोगों के जीवन में जैसे "पाप' है वैसे ही मेरे जीवन में "पॉप' है।आशा जी बोले जा रहीं थीं और मेरे दिलों-दिमाग़ में सुरों का समंदर उमड़ता आ रहा था. यक़ीन जाने लें मुझ जैसे कानसेन के लिये इस सुरगंध से बतियाना लगभग एक क़िस्म से हिप्नॉटाइज़ हो जाने जैसा था.



आशा जी ने बताया कि लता मंगेशकर की छोटी बहन होना हमेशा से फ़ख़्र का विषय रहा है और हमने हमेशा एक व्यावसायिक अनुशासन को क़ायम रखा है. वे (दीदी)हमेशा एक महान गुलूकारा रहीं है और न जाने कितने गायक-गायिकाओं ने उनसे प्रेरणा ली है तो मेरे लिये तो वे बड़ी बहन और एक प्यारी सखी रहीं हैं.आशाजी ठीक कहतीं हैं.और बुरा न मानें जब भी कोई इन दो स्वर-महारानियों में तुलता करता है तो मुझे बेहद अफ़सोस होता है. देखा जाए तो दोनों एक तरह एक ध्वनि-मुद्रिका दो साइड हैं.बताइये कैसे करें तुलना. एक तरफ़ कोई गीत अधिक अच्छा है , दूसरी तरफ़ कोई दूसरा अच्छा.

आशा भोंसले गायकी में विविधता का दूसरा नाम है. ज़रा ग़ौर फ़रमाइये इस छोटी सी फ़ेहरिस्त पर : अब के बरस भेज भैया को बाबुल,रंग,रंग,रंगीला,दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये,दम मारो दम,आगे भी जाने न तू,पीछे भी जाने तू, जो भी है बस वही एक पल है,चैन से हमको कभी आपने जीने न दिया,सुन सुन दीदी तेरे लिये एक रिश्ता आया है;कितनी विविधता है इन गीतों के मूड में और यहीं आकर आशाजी अपवाद हो जातीं है.वे वैरायटी का सरमाया हैं.

आशा भोंसले अपनी निजी ज़िन्दगी में बहुत टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुज़रीं हैं,लेकिन अपने नाम की तरह उन्होंने अपने आप को साबित किया है.समय की अदला-बदली चलती रहेगी,तहज़ीब छुपा-छाई खेलती रहेगी,ज़ुबान के तेवर बदलेंगें लेकिन आशा भोंसले हर दौर में प्रासंगिक होंगी.इस सर्वकालिक महान गायिका को ज़िन्दगी की पिचहत्तरवीं पायदान पर हम सब संगीतपेमियों का प्रेमल सलाम !

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(चित्र में आशा जी एक कंसर्ट में गाती हुईं, संगीत दे रहे हैं, मरहूम संगीतकार और पति आर डी बर्मन साहब)
चित्र साभार - हमाराफोटोस

Sunday, September 7, 2008

समीक्षा के अखाडे में पहली बार "अगस्त के अश्वारोही"



"अगस्त के अश्वारोही" गीतों ने जनता की अदालत में अपनी धाक बखूबी जमाई है, अब बारी है, समीक्षकों के सुरीले कानों से होकर गुजरने की, यहीं फैसला होगा कि किस गीत में है दम, सरताज गीत बनने का. आईये, पहले चरण के पहले समीक्षक से जानते हैं कि "अगस्त के अश्वारोही" गीतों के बारे में उनकी क्या राय है.

मैं नदी .. इस गीत में एक आशावाद झलकता है। कवि प्रकृति , नदी , पवन, धरा, पेड़ों, शाखों जैसे हल्के फुल्के शब्दों के माध्यम से अपनी बात बड़ी सरलता से कह देते हैं।
संगीत बढ़िया है पर जब गायिका गाती है मैं वहां , मुसाफिर मेरा मन.. जब संगीत अपनी लय खोता नजर आता है। मुसाफिर.. मेरा मन शब्द में संगीतकार उतना न्याय नहीं कर पाये, जितना गीत के बाकी के हिस्से में है। पार्श्व संगीत और दो पैरा के बीच में संगीत बढ़िया बना है, मानो नदी बह रही हो।
गायिका मानसी की आवाज में एक अल्हड़पन नजर आता है, बढ़िया गाया भी है परन्तु उन्हें लगता है अभी ऊंचे सुर पर अभी मेहनत करनी होगी। कुल मिला कर प्रस्तुति बढ़िया कही जायेगी।

गीत 4/5, संगीत 3/5, गायकी 3/5, प्रस्तुति 2/5, कुल 12/20.
वास्तविक अंक 6/10.

वो पीपल का पत्ता..गीत सामान्य गीत है। गीत के शब्द दिल को नहीं छू पाते.. गीत ऐसा होता है जो कि पहली पंक्तियाँ सुनने के साथ ही दिल में उतर जाता है। पर मैं कलाकार से क्षमा चाहता हूँ, वे इस गीत में ऐसा कुछ खास नहीं कर पाये। सिर्फ जज करने के लिये पूरा गीत सुनना पड़ा।
मात्र संगीत के बल पर गाना बढ़िया गीत नहीं बन पाता, उसके लिये बढ़िया बोल और उतनी ही बढ़िया गायकी होनी चाहिये। सिर्फ युवा पीढ़ी को ध्यान में रख कर बनाया गीत।
आवाज में भी एक कच्चापन स्पष्ट सुनाई देता है।

गीत 3/5, संगीत 2/5, गायकी 2/5, प्रस्तुति 3/5, कुल 10/20.
वास्तविक अंक 5/10.

जीत के गीत के संग.. कमाल का गीत। कवि को पूरे नंबर देने चाहिये.. गीत में एक बार फिर आशावाद झलका, जीवन से निराश पात्र को आशावाद की प्रेरणा देता गीत सचमुच दिल को छू जाता है। संगीतकार ने गीत में झालझोल नहीं रखा, संगीत में एक लयबद्धता है। संगीतकार ने शब्दों के साथ संगीत का तालमेल बहुत बढ़िया जमाया है। पर्वत सा इरादा...कर ले खुद से वादा.. शब्द जब गायक गाता है तब यूं अहसास मानो इससे बढ़िया धुन इस गीत की हो ही नहीं सकती थी।
अब आते हैं इस गीत के तीसरे पक्ष यानि गायकी की तरफ , गायक की आवाज में एक मिठास है, ताजगी है। सुंदर गीत, मधुर संगीत के बाद इतनी सुंदर आवाज गीत को कर्ण प्रिय बना देते हैं। गीत एक बार सुनने से मन नहीं भरता, बार बार सुना.. समीक्षा लिखना भुला दिया। बहुत बढ़िया प्रस्तुति।

गीत 4.5/5, संगीत 4.5/5, गायकी 4/5, प्रस्तुति 4/5, कुल 17/20.
वास्तविक अंक 8.5/10.

चले जाना... गीत बढ़िया। शिवानी जी बहुत उम्दा शायरा है उनके लिखे की समीक्षा करना आसान नहीं है। उनका गीत बहुत शानदार है। संगीतकार ने बढ़िया संगीत दिया है। पर फिर भी चले जाना.. शब्दों के बाद इल्केट्रोनिक वाद्ययंत्रों की आवाज को थोड़ा कम (लाऊडली) किया जाना चाहिये था। गीत/ गज़ल के मूड को देखते हुए संगीत थोड़ा भारी पड़ जाता है। थोड़ा गंभीर संगीत होता तो ज्यादा प्रभावित कर सकता था, ज्यादा मधुर हो सकता था।
इस गज़ल के गायक की आवाज में भी ताजगी है, बहुत संभावनायें है। कुल मिलाकर सुनने लायक..

गीत 4/5, संगीत 3/5, गायकी 4/5, प्रस्तुति 4/5, कुल 15/20.
वास्तविक अंक 7.5/10.

इस बार नजरों के वार.. गीतकार के शब्दों में दम है, संगीत बहुत बढ़िया। पिछले गीतों की तुलना में शुभोजेत के संगीत में परिपक्वता दिखी। जैसा मैने पिछली बार कहा था, संगीतकार में अपार संभावनाये हैं। उन्हें एक बात का ध्यान रखना होगा कि बाद्ययंत्र गीत पर हावी नहीं होने चाहिये पर उनका संगीत गायक की आवाज पर हावी हो जाता है। संगीत युवा पीढ़ी को थिरका सकता है पर लम्बे समय तक उसका प्रभाव बना सकने में ज्यादा सफल नहीं होते। संगीत दिमाग पर असर करता है पर दिल पर नहीं। ४ नंबर इस गीत की प्रस्तुति को सुनकर दिये हैं।
गायक की आवाज में भी अभिजित का स्पर्श लगता है जो सुखद है। गायक संगीत सीखे हुए लगते हैं और उनके गले में एक बढ़िया लोच है। बढ़िया प्रस्तुति के चलते गीत सुनने लायक बन गया है।

गीत 4.5/5, संगीत 4/5, गायकी 4.5/5, प्रस्तुति 3/5, कुल 16/20.
वास्तविक अंक 8/10.

चलते चलते

तो पहले चरण की पहली समीक्षा के बाद "जीत के गीत" है, सबसे आगे, पर "मेरे सरकार" और "चले जाना" भी बहुत पीछे नही हैं, अगले रविवार, अगले समीक्षक की समीक्षा के बाद हम जानेंगे कि क्या "जीत के गीत" अपनी बढ़त बनाये रखने में सफल हो पायेगा या नही.

अपनी मूल्यवान समीक्षाओं से हमारे गीतकार / संगीतकार / गायकों का मार्गदर्शन करने के लिए अपना बहुमूल्य समय निकाल कर, आगे आए हमारे समीक्षकों के प्रति हिंद युग्म अपना आभार व्यक्त करता है.

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