Saturday, May 7, 2011

ओल्ड इस् गोल्ड - शनिवार विशेष- 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' ((भाग-१))



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' आज अपना चालीसवाँ सप्ताह पूरा कर रहा है। दोस्तों, "आनंद बक्शी" एक ऐसा नाम है जो किसी तारीफ़ का मोहताज नहीं। यह वह नाम है जिसे हम बचपन से ही सुनते चले आ रहे हैं। रेडियो पर फ़िल्मी गीत सुनने में शौक़ीनों के लिये तो यह नाम जैसे एक दैनन्दिन नाम है। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जिस दिन बक्शी साहब का नाम रेडियो पर घोषित न होता होगा। जिस आनंद बक्शी का नाम छुटपन से हर रोज़ सुनता चला आया हूँ, आज उसी बक्शी साहब के बेटे से एक लम्बी बातचीत करने का मौका पाकर जैसे मैं स्वप्नलोक में पहुँच गया हूँ। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दिन भी कभी आयेगा। दोस्तों, आज से हम एक शृंखला ही कह लीजिये, शुरु कर रहे हैं, जिसमें गीतकार आनंद बक्शी साहब के बारे में बतायेंगे उन्ही के सुपुत्र राकेश बक्शी। चार भागों में सम्पादित इस शृंखला का शीर्षक है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का पहला भाग।

सुजॉय - राकेश जी, 'हिंग-युग्म' की तरफ़ से, हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से, और मैं अपनी तरफ़ से आपका 'हिंद-युग्म' के इस मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ, नमस्कार!

राकेश जी - नमस्कार!

सुजॉय - राकेश जी, सच पूछिये तो हम अभिभूत हैं आपको हमारे बीच में पाकर। फ़िल्म संगीत के सफलतम गीतकारों में से एक थे आनंद बक्शी जी, और आज उनके बेटे से बातचीत करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिये आपको हम जितना भी धन्यवाद दें, कम होगी।

राकेश जी - बहुत बहुत धन्यवाद!

सुजॉय - राकेश जी, वैसे तो बक्शी साहब के बारे में, उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी के बारे में, उनके करीयर के बारे में हम कई जगहों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए इस बातचीत में हम उस तरफ़ न जाकर उनकी ज़िंदगी के कुछ ऐसे पहलुयों के बारे में आपसे जानना चाहेंगे जो शायद पाठकों को मालूम न होगी। और इसीलिए बातचीत के इस सिलसिले का नाम हमने रखा है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'।

राकेश जी - ज़रूर!

सुजॉय - तो शुरु करते हैं, मेरा पहला सवाल आपके लिए बहुत ही आसान सा सवाल है, और वह है कि कैसा लगता है 'राकेश आनंद बक्शी' होना? मान लीजिए आप कहीं जा रहे हैं, और अचानक कहीं से बक्शी साहब का लिखा गीत बज उठता है, किसी पान की दुकान पे रेडियो पर, कैसा महसूस होता है आपको?

राकेश जी - उनके लिखे सभी गीत मुझे नॉस्टल्जिक बना देता है। उनके लिखे न जाने कितने गीतों के साथ कितनी हसीन यादें जुड़ी हुईं हैं, या फिर कोई पर्सनल ईक्वेशन। कहीं से उनका लिखा गीत मेरे कानों में पड़ जाये तो मैं उन्हें और भी ज़्यादा मिस करने लगता हूँ।

सुजॉय - अच्छा राकेश जी, किस उम्र में आपको पहली बार यह अहसास हुआ था कि आप 'आनंद बक्शी' के बेटे हैं? उस आनंद बक्शी के, जो कि फ़िल्म जगत के सबसे लोकप्रिय गीतकारों में से एक हैं? अपने बालपन में शायद आपको अंदाज़ा नहीं होगा कि बक्शी साहब की क्या जगह है लोगों के दिलों में, लेकिन जैसे जैसे आप बड़े होते गये, आपको अहसास हुआ होगा कि वो किस स्तर के गीतकार हैं और इंडस्ट्री में उनकी क्या जगह है। तो कौन सा था वह पड़ाव आपकी ज़िंदगी का जिसमें आपको इस बात का अहसास हुआ था?

राकेश जी - यह अहसास एक पल में नहीं हुआ, बल्कि कई सालों में हुआ। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब मैं स्कूल में पढ़ता था। मेरे कुछ टीचर मेरी तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिया करते। या डॉक्टर के क्लिनिक में, या फिर बाल कटवाने के सलून में, कहीं पर भी मुझे लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ता। बड़ा होने पर मैंने देखा कि पुलिस कमिशनर और इन्कम टैक्स ऑफ़िसर, जिनसे लोग परहेज़ ही किया करते हैं, ये मेरे पिताजी के लगभग चरणों में बैठे हैं, और उनसे अनुरोध कर रहे हैं उनके लिखे किसी नये गीत या किसी पुराने हिट गीत को सुनवाने की।

सुजॉय - वाक़ई मज़ेदार बात है!

राकेश जी - जब मैं पहली बार विदेश गया और वहाँ पर जब NRI लोगों को यह बताया गया कि मैं बक्शी जी का बेटा हूँ, तो वो लोग जैसे पागल हो गये, और मुझे उस दिन इस बात का अहसास हुआ कि कभी विदेश न जाने के बावजूद मेरे पिताजी नें कितना लम्बा सफ़र तय कर लिया है। और यह सफ़र है असंख्य लोगों के दिलों तक का। मैं आपको यह बता दूँ कि उनका पासपोर्ट बना ज़रूर था, लेकिन वो कभी भी विदेश नहीं गये क्योंकि उन्हें हवाईजहाज़ में उड़ने का आतंक था, जिसे आप फ़्लाइंग-फ़ोबिआ कह सकते हैं। लेकिन यहाँ पर यह भी कहना ज़रूरी है कि सेना में रहते समय वो पैराट्रूपिंग्‍ किया करते थे अपनी तंख्वा में बोनस पाने के लिये।

सुजॉय - इस तरह के और भी अगर संस्मरण है तो बताइए ना!

राकेश जी - जब हम अपने रिश्तेदारों के घर दूसरे शहरों में जाते, तो वहाँ हमारे ठहरने का सब से अच्छा इंतज़ाम किया करते, या सब से जो अच्छा कमरा होता था घर में, वह हमें देते। एक वाक़या बताता हूँ, एक बार मैंने कुछ सामान इम्पोर्ट करवाया और उसके लिये एक इम्पोर्ट लाइसेन्स का इस्तमाल किया जिसमें कोई तकनीकी गड़बड़ी (technical flaw) थी। कम ही सही, लेकिन यह एक ग़ैर-कानूनी काम था जो सज़ा के काबिल था। और उस ऑफ़िसर नें मुझसे भारी जुर्माना वसूल करने की धमकी दी। लेकिन जाँच-पड़ताल के वक़्त जब उनको पता चला कि मैं किनका बेटा हूँ, तो वो बोले कि पिताजी के गीतों के वो ज़बरदस्त फ़ैन हैं। उन्होंने फिर मुझे पहली बार बैठने को कहा, मुझे चाय-पानी के लिये पूछा, जुर्माने का रकम भी कम कर दिया, और मुझे सलाह दी कि भविष्य में मैं इन बातों का ख़याल रखूँ और सही कस्टम एजेण्ट्स को ही सम्पर्क करूँ ताकि इस तरह के धोखा धड़ी से बच सकूँ। उन्होंने यह भी कहा कि अगर मैं पुलिस या कस्टम्स में पकड़ा जाऊँगा तो इससे मेरे पिताजी का ही नाम खराब होगा। उस दिन से मैंने अपना इम्पोर्ट बिज़नेस बंद कर दिया। इन सब सालों में और आज भी मैं बहुत से लोगों का विश्वास और प्यार अर्जित करता हूँ, जिनसे मैं कभी नहीं मिला, जो मेरे लिये बिल्कुल अजनबी हैं। यही है बक्शी जी का परिचय, उनकी क्षमता, उनका पावर। और मैंने भी हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि मैं कभी कोई ऐसा काम न करूँ जिससे कि उनके नाम को कोई आँच आये, क्योंकि मेरे जीवन में उनका नाम मेरे नाम से बढ़कर है, और मुझे उनके नाम को इसी तरह से बरकरार रखना है।

सुजॉय - वाह! क्या बात है! अच्छा, आपने ज़िक्र किया कि स्कूल में आपको स्पेशल अटेंशन मिलता था बक्शी साहब का बेटा होने के नाते।

राकेश जी - जी

सुजॉय - तो क्या आपको ख़ुशी होती थी, गर्व होता था, या फिर थोड़ा एम्बरेसिंग्‍ होता था, यानी शर्म आती थी?

राकेश जी - मैं आज भी बहुत ही शाई फ़ील करता हूँ जब भी इस तरह का अटेंशन मुझे मिलता है, हालाँकि मुझे उन पर बहुत बहुत गर्व है। अगर मैं ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो स्टेटस में मुझसे नीचे है, तो मैं अपना सेलफ़ोन या घड़ी छुपा लेता हूँ या उन्हें नहीं जानने देता कि मैं किस गाड़ी में सफ़र करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनके साथ घुलमिल जाऊँ और उनसे सहजता से पेश आ आऊँ और वो भी मेरे साथ सहजता अनुभव करें।

सुजॉय - बहुत ही अच्छी बात है यह, और कहावत भी है कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। आनंद बक्शी साहब भी इतने बड़े गीतकार होते हुए भी बहुत सादे सरल थे, और शायद यही बात आप में भी है। अच्छा, यह बताइए कि एक पिता के रूप में बक्शी साहब कैसे थे? किस तरह का रिश्ता था आप दोनों में?

राकेश जी - वो एक सख़्त पिता थे। सेना में एक सिपाही और रॉयल इण्डियन नेवी के कडेट होने की वजह से उन्होंने हमें भी अनुशासन, पंक्चुअलिटी और अपने पैरों पर खड़े होने की शिक्षा दी। वो मुझे लेकर पैदल स्कूल तक ले जाते थे जब कि घर में गाड़ियाँ और ड्राइवर्स मौजूद थे। कॉलेज में पढ़ते वक़्त भी मैं बस और ट्रेन में सफ़र किया करता था। जब मैं काम करने लगा, तब भी मैं घर की गाड़ी और ड्राइवर को केवल रात की पार्टी में जाने के लिये ही इस्तमाल किया करता। पिताजी कभी भी सिनेमा घरों के मैनेजरों या मालिकों को फ़िल्म की टिकट भिजवाने के लिये नहीं कहते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि वो पैसे नहीं लेंगे। इसलिये हम भी सिनेमाघरों के बाहर लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदते। सिर्फ़ प्रीमियर या ट्रायल शो के लिये हमें टिकट नहीं लेना पड़ता और वो परिवार के सभी लोगों को साथ में लेकर जाते थे।

सुजॉय - वाह! बहुत मज़ा आता होगा उन दिनों!

राकेश जी - जी हाँ! रात को जब वो घर वापस आते और हमें सोये हुए पाते, तो हमारे सर पर हाथ फिराते। वो चाहते थे कि हम इंजिनीयर या डॉक्टर बनें। वो नहीं चाहते थे कि हम फ़िल्म-लाइन में आये।

सुजॉय - राकेश जी, आप किस लाइन में गये, उसके बार में भी हम आगे चलकर बातचीत करेंगे, लेकिन इस वक़्त हम और जानना चाहेंगे कि बक्शी साहब किस तरह के पिता थे?

राकेश जी - दिन के वक़्त, जब उनके लिखने का समय होता था, तब वो बहुत ही कम शब्दों के पिता बन जाते थे, लेकिन रात को खाना खाने से पहले वो हमें अपने बचपन और जीवन के अनुभवों की कहानियाँ सुनाया करते। उन्हें किताब पढ़ने का शौक था और ख़ुद पढ़ने के बाद अगर उन्हें अच्छा लगता तो हमें भी पढ़ने के लिये देते थे; ख़ास कर मासिक 'रीडर्स डाइजेस्ट'। हम देर रात तक घर से बाहर रहे, यह उन्हें पसंद नहीं था। जब हम स्कूल में थे, तब रात को खाने के वक़्त से पहले हमारा घर के अंदर होना ज़रूरी था। खेलकूद के लिये वो हमें प्रोत्साहित किया करते थे। हम पढ़ाई या करीयर के लिये कौन सा विषय चुनेंगे, इस पर उनकी कोई पाबंदी नहीं थी, उनका बस यह विचार था कि हम पढ़ाई को जारी रखें और पोस्ट-ग्रैजुएशन करें। उनको उच्च शिक्षा का मोल पता था और वो कहते थे कि यह उनका दुर्भाग्य है कि वो सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख सके, देश के बँटवारे की वजह से। उनका इस बात पर हमेशा ध्यान रहता था कि हम अपनी माँ की सब से ज़्यादा इज़्ज़त करें क्योंकि उन्होंने अपनी माँ को बहुत ही कम उम्र में खो दी थी। जिन्हें माँ का प्यार मिलता है, वो बड़े ख़ुशनसीब होते हैं, ऐसा उनका मानना था।

सुजॉय - बहुत ही सच बात है! तो राकेश जी, बातों का सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन अगले हफ़्ते। आइए आज क्योंकि बातचीत माँ पर आकर रुकी है, तो चलने से पहले बक्शी साहब का लिखा और लता जी का गाया फ़िल्म 'राजा और रंक' का गीत ही सुन लेते हैं, "तू कितनी अच्छी है"।

गीत - तू कितनी अच्छी है (राजा और रंक)


तो दोस्तों, यह था फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के सुपुत्र राकेश बक्शी से बातचीत पर आधारित शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की पहली कड़ी। अगर आपके मन में भी बक्शी साहब के जीवन से संबंधित कोई सवाल है जिसका जवाब आप उनके बेटे से प्राप्त करना चाहें, तो हमें अपना सवाल oig@hindyugm.com के पते पर शीघ्रातिशीघ्र लिख भेजिये। आपका सवाल इसी शृंखला में शामिल किए जायेंगे। तो आज के लिये मुझे अनुमति दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "खून दो"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अल्ताफ़ फ़ातिमा की कहानी "गैर मुल्की लडकी" का पॉडकास्ट प्रीति सागर की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "खून दो", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "खून दो" का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 51 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

कहानी कहानी होती है, उसमें लेखक की आत्मकथा ढूँढना ज्यादती है।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"ऐसा क्या करुँ कि दान भी हो जाए और अंटी भी ढीली न हो?"
(अनुराग शर्मा की "खून दो" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#128th Story, Khoon Do: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/10. Voice: Anurag Sharma

Friday, May 6, 2011

यश राज की "लव का द एंड" है ठंडी संगीत के मामले में



Taaza Sur Taal (TST) - 11/2011 - LOVE KA THE END

नमस्कार! 'ताज़ा सुर ताल' मे आप सभी का स्वागत है। युवा पीढ़ी को नज़र में रख कर फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्म निर्माण कंपनियों में एक महत्वपूर्ण नाम है 'यश राज फ़िल्म्स'। इसी 'यश राज फ़िल्म्स' की एक सबसिडियरी बैनर का गठन हुआ है 'Y-Films' के नाम से, जिसका शायद मूल उद्देश्य है युवा पीढ़ी को पसंद आने वाली फ़िल्में बनाया, यानी कि Y for Youth। इस बैनर तले पहली फ़िल्म का निर्माण हुआ है जो आज देश भर में प्रदर्शित हो रही है। जी हाँ, 'लव का दि एण्ड'। फ़िल्म प्रेरीत है २००५ की अमरीकी फ़िल्म 'जॉन टकर मस्ट डाइ' से। १९ अप्रैल को फ़िल्म का संगीत रिलीज़ हुआ था। फ़िल्म में पर्दे पर नज़र आयेंगे नवोदित जोड़ी ताहा शाह और श्रद्धा कपूर।

किसी अमरीकी फ़िल्म को लेकर उसका भारतीयकरण करने में यश राज फ़िल्म्स नें पहले भी कोशिश की थी। पिचले साल ही 'लव इम्पॉसिबल' में यह नीति अपनाई गई थी, और उसके संगीत में भी वही यंग् शैली नज़र आयी थी, हालाँकि न फ़िल्म चली न ही उसका संगीत। देखते हैं 'लव का दि एण्ड' का क्या हाल होता है! और जब संगीत का पक्ष सम्भाला है राम सम्पत जैसे संगीतकार नें और गीत लिखे हैं आज के दौर के अग्रणी गीतकारों में से एक अमिताभ भट्टाचार्य नें, तो फ़िल्म के गीतों की तरफ़ कम से कम एक बार ध्यान देना तो अनिवार्य हो जाता है।

ऐल्बम का पहला गीत है गायिका अदिति सिंह शर्मा की आवाज़ में, जो है फ़िल्म का शीर्षक गीत। चैनल-वी पर एक कार्यक्रम आता है 'Axe your Ex'। इस सीरीज़ का अगर कोई टाइटल सॉंग् चुनना हुआ तो इस गीत का प्रयोग हो सकता है, क्योंकि गीत का भाव ही है अपने एक्स-लवर को सबक सिखाना। वह ज़माना गया जब प्यार में असफल होकर दर्द भरा गीत गाया जाता था। इस गीत का मूड ग़मगीन बिल्कुल नहीं है, बल्कि गीत एक पेप्पी नंबर है, और इसके बोलों को सुनकर मज़ा आता है। ७० के दशक में आपने सुना होगा "मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये, बोल तेरे साथ क्या सुलूग किया जाये"। "लव का दि एण्ड" गीत इसी गीत का २०११ संस्करण मान लीजिये, बस!। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से गीत अर्थपूर्ण ही प्रतीत हो रहा है, बाकि फ़िल्म देखते वक़्त पता चलेगा। लेकिन केवल सुन कर इस गीत का किसी के होठों पर सज पाना ज़रा मुश्किल सा लगता है।

दूसरा गीत है "टूनाइट"। भले ही यह दूसरा ट्रैक रखना है, इस गीत को पिछले गीत से पहले होना चाहिये था, क्योंकि इसका जो भाव है वह कुछ ऐसा है कि एक जवान लड़की जो थोड़ी डरी हुई है क्योंकि उसे अपने पहले पहले नाइट आउट पे जाना है अपने बॉय-फ़्रेण्ड के साथ। उसे पता नहीं कि क्या होने वाला है। यह भी यह यंग् नंबर है, एक टीनेजर सॉंग् और इस तरह का गीत अक्सर पश्चिमी फ़िल्मों में पाया जाता है। ज़्यादा साज़ों की भरमार नहीं है, एक सीधा सरल सा गीत है। भले ही गीत का अंदाज़ ज़रा उत्तेजक है, लेकिन अदायगी में मासूमीयत है, मिठास है, सादगी है। गायिका सुमन श्रीधर नें अच्छा निभाया है गीत को, और एक १८ वर्षीय लड़की पर उनकी आवाज़ ख़ूब जँची है। कम्पोज़िशन के पार्श्व में जैज़ म्युज़िक की झलक मिलती है।

अगला गीत है "फ़्रेक-आउट", जिसे अदिति सिंह शर्मा और जॉय बरुआ नें गाया है। इस गीत को इन दिनों ख़ूब लोकप्रियता मिल रही है, गीत के बोल या संगीत की वजह से नहीं, बल्कि इस बात के लिये कि यह पहला भारतीय फ़िल्मी गीत है जिसमें 'स्टॉप-मोशन' तकनीक का इस्तमाल हुआ है इसके विडियो में। इस रॉक-पॉप नंबर के पार्श्व में व्हिसल की ध्वनि का सृजनात्मक प्रयोग किया गया है। आज के युवाओं की ज़िंदगी में क्या कुछ हो रहा है, उन्हीं सब बातों को लेकर के है यह गीत। इस गीत को सुनने के लिये लोग जितने बेकरार हैं, उससे कई गुणा ज़्यादा प्रतीक्षा है इसके फ़िल्मांकन को देखने की।

और अब बारी एक आइटम नंबर की। "शीला" और "मुन्नी" के बाद अब पेश है "दि मटन सॉंग्‍"। कृष्णा बेउरा की आवाज़ में है यह गीत। चौंक गये न यह देख कर कि आइटम गीत में गायक का क्या काम? जी हाँ, फ़िल्म में एक मर्द औरत का भेस धारण कर इस गीत में नृत्य प्रस्तुत करता है। इससे पहले कृष्णा नें राहत फ़तेह अली ख़ान के साथ 'नमस्ते लंदन' में "मैं जहाँ रहूँ" गीत में क्या ख़ूब गायन प्रस्तुत किया था। लेकिन यह गीत न तो 'नमस्ते लंदन' के उस गीत के करीब है, और ना ही "मुन्नी" या "शीला" के साथ कोई टक्कर है। फ़िल्मांकन पर पूरी तरह से निभर करेगा इस गीत की कामयाबी। सिर्फ़ सुन कर तो न कान पर कोई असर हुआ, ना ही दिल पर।

पाँचवें नंबर पर है "फ़न फ़ना"। इन दिनों युवाओं की पसंदीदा गायकों में हैं अली ज़फ़र, जिन्होंने इस गीत को गाया है। इस टीनेजर गीत को सुन कर ज़रा सी निराशा हुई क्योंकि अली के पहले गीतों के मुक़ाबले यह गीत ज़रा कम कम ही लगा। वैसे इस हिंग्लिश गीत को अली नें अपनी तरफ़ से अच्छा-ख़ासा निभाया है, लेकिन अब जैसे इस ऐल्बम में एकरसता आने लगी है। विविधता की कमी महसूस होने लगी है। यह भी एक ज़िप्पी-पेप्पी नंबर है, रॉक शैली में निबद्ध।

और 'लव का दि एण्ड' का दि एण्ड हो रहा है "हैप्पी बड्डे बेबी" से। इसे गीत कम और हिजराओं द्वारा लड़की को दी जा रही बधाई ज़्यादा लग रही है। राम सम्पत को यह सूझा कि स्टैण्ड-अप कॉमेडियन जिमी मोसेस से इस "गीत" को गवाया जाये। यह हमारी ख़ुशक़िस्मती है कि इस "गीत" की अवधि ४५ सेकण्ड्स की ही है।

दोस्तों, जिस उम्मीद से इस ऐल्बम की तरफ़ मेरी निगाह गई थी, जिस बैनर के साथ इस फ़िल्म का संबंध है, मुझे तो भई निराशा ही हाथ लगी। ठीक है, माना कि यंग फ़िल्म है, लेकिन हर बार यंग फ़िल्म कहकर उसके संगीत के साथ अन्याय होता हुआ भी तो नहीं देखा जाता। क्या ख़राबी है अगर एक गीत "दिल पे नहीं कोई ज़ोर, तेरी ओर तेरी ओर" जैसा भी कम्पोज़ किया जाये तो? ख़ैर, पसंद अपनी अपनी, ख़याल अपना अपना। मेरी तरफ़ से इस ऐल्बम को ४ की रेटिंग्, और इस ऐल्बम से मेरा पिक है सुमन श्रीधर का गाया "टूनाइट"।

आज के लिये बस इतना ही। अगले हफ़्ते फिर किसी फ़िल्म के संगीत की समीक्षा के साथ उपस्थित होंगे, तब तक के लिये 'ताज़ा सुर ताल' केर मंच से इजाज़त दीजिये, नमस्कार!

इसी के साथ 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिये, नमस्कार!

ताज़ा सुर ताल के वाहक बनिये

अगर आप में नये फ़िल्म संगीत के प्रति लगाव है और आपको लगता है कि आप हर सप्ताह एक नई फ़िल्म के संगीत की समीक्षा लिख सकते हैं, तो हम से सम्पर्क कीजिए oig@hindyugm.com के पते पर। हमें तलाश है एक ऐसे वाहक की जो 'ताज़ा सुर ताल' को अपनी शैली में नियमीत रूप से प्रस्तुत करे, और नये फ़िल्म संगीत के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ाये!




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, May 5, 2011

भोर आई गया अँधियारा....गजब की सकात्मकता है मन्ना दा के स्वरों में, जिसे केवल सुनकर ही महसूस किया जा सकता है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 650/2010/90

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के चाहनेवालों, आज हम आ पहुँचे हैं, लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की समापन कड़ी पर। पिछली कड़ियों में हम मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ थोड़े से रंगों से ही आपका साक्षात्कार कर सके। सच तो यह है कि एक विशाल वटबृक्ष की अनेकानेक शाखाओं की तरह विस्तृत मन्ना डे का कार्य है, जिसे दस कड़ियों में समेटना कठिन है। मन्ना डे नें हिन्दी फिल्मों में संगीतकार और गायक के रूप में गुणवत्तायुक्त कार्य किया। संख्या बढ़ा कर नम्बर एक पर बनना न उन्होंने कभी चाहा न कभी बन सके। उन्हें तो बस स्तरीय संगीत की लालसा रही। यह भी सच है कि फिल्म संगीत के क्षेत्र में जो सम्मान-पुरस्कार मिले वो उन्हें काफी पहले ही मिल जाने चाहिए थे। 1971 की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत -"ए भाई जरा देख के चलो..." के लिए मन्ना डे को पहली बार फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था। एक पत्रकार वार्ता में मन्ना डे ने स्वयं स्वीकार किया कि 'मेरा नाम जोकर' का यह गाना संगीत की दृष्टि से एक सामान्य गाना है, इससे पहले वो कई उल्लेखनीय और उत्कृष्ट गाने गा चुके थे। मन्ना डे को पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 1969 की फिल्म 'मेरे हुज़ूर' के गीत -"झनक झनक तोरी बाजे पायलिया..." को मिला था। फिल्मों में राग आधारित गीतों की सूची में यह सर्वोच्च स्थान पर रखे जाने योग्य है। गीत में राग "दरबारी" के स्वरों का अत्यन्त शुद्ध और आकर्षक प्रयोग है। 1971 में मन्ना डे को दूसरी बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। इस बार यह पुरस्कार बांग्ला फिल्म 'निशिपद्म' में गायन के लिए मिला था। मन्ना डे हिन्दी और बांग्ला दोनों भाषाओं की फिल्मों में समान रूप से लोकप्रिय हुए थे। पत्रकार कविता छिब्बर से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था -"मैंने अब तक करीब 2500 बांग्ला गीत गाये हैं और इनमे से लगभग 75 प्रतिशत गीत मैंने स्वयं संगीतबद्ध भी किये हैं"। 1952 में मन्ना डे ने 'अमर भूपाली' नामक फिल्म में पार्श्वगायन किया था। यह फिल्म बांग्ला और मराठी, दोनों भाषाओं में बनी थी। इस फिल्म के गीतों से मन्ना डे पूरे बंगाल में लोकप्रिय हो गए थे।

1961-62 में मन्ना डे को भोजपुरी फिल्मों में गाने का अवसर मिला। उन्होंने 'आइल बसन्त बहार', 'बिदेसिया', 'लागी नाहीं छूटे राम', 'सीता मैया' आदि फिल्मों में स्तरीय गीत गाये। इन गीतों में से कुछ गीत पारम्परिक लोकगीतों पर आधारित थे। फिल्म 'बिदेसिया' का गीत "हँसी हँसी पनवा खियौले बेईमानवाँ...." बिहार के चर्चित लोकनाट्य शैली 'बिदेसिया' पर आधारित है। इसी प्रकार 1964 की फिल्म 'नैहर छूटल जाये' में होरी -"जमुना तट श्याम खेलत होरी...." और कजरी -"अरे रामा रिमझिम बरसेला....." में पारम्परिक लोकगीतों का सौन्दर्य था। मन्ना डे ने डा. हरिवंश राय बच्चन की कालजयी कृति 'मधुशाला' की 20 रुबाइयों को अपना स्वर देकर साहित्यप्रेमियों के घरों में भी अपनी पैठ बनाई। 1971 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान "पद्मश्री", 2005 में "पद्मभूषण" तथा 2007 में "दादासाहेब फालके पुरस्कार" प्रदान किया गया।

हिन्दी फिल्मों में छह दशक तक अपने श्रेष्ठ संगीत से लुभाने वाले मन्ना डे ने 2006 में 'उमर' फ़िल्म का गीत -"दुनिया वालों को नहीं कुछ भी खबर...." सोनू निगम, कविता कृष्णमूर्ति और शबाब साबरी के साथ गाया था। इस गीत के बाद सम्भवतः उन्होंने हिन्दी फिल्म में गीत नहीं गाया है। इस श्रृंखला को विराम देने से पहले हम आपको एक ऐसा गीत सुनवाना चाहते हैं जिसमें जीवन का उल्लास है, विसंगतियों से संघर्ष करने की प्रेरणा है और अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का आह्वान है। 1972 की "बावर्ची" फिल्म के इस गीत में मन्ना डे का साथ सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका निर्मला देवी और लक्ष्मी शंकर ने दिया है. साथ में है किशोर दा. गीत के बीच में हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की आवाज़ भी है। संगीतकार मदनमोहन ने इस गीत को राग "अलहैया विलावल" के स्वरों में और 'तीन ताल', 'सितारखानी' और 'कहरवा' तालों में निबद्ध किया है। इसी गीत के साथ लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' को यहीं विराम देते हैं, और सुर-गंधर्व मन्ना डे को एक बार फिर से बहुत सारी शुभकामनाएँ देते हुए मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आपसे अनुमति लेता हूँ, नमस्कार!

गीत : "भोर आई गया अँधियारा...."


'हिंद-युग्म', 'आवाज़' और विशेषत: 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ की तरफ़ से, इसके तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और मैं, सुजॉय चटर्जी, अपनी तरफ़ से श्री कृष्णमोहन मिश्र का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ इस अनुपम शृंखला को प्रस्तुत करने के लिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन दस कड़ियों के माध्यम से उन्होंने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्तर को जहाँ तक पहुँचा दिया है, उस स्तर को कायम रखना हमारे लिए चुनौती का काम होगा। रविवार एक नई शृंखला के साथ हम उपस्थित होंगे, लेकिन आप शनिवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड विशेषांक' में शामिल होना न भूलिएगा। और अब मुझे भी अनुमति दीजिए, नमस्कार!

पहेली 1/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक फीमेल युगल गीत है ये.

सवाल १ - किन दो अभिनेत्रियों पर प्रमुख रूप से फिल्माया गया है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बेहद समझदारी से चलते हुए अनजाना जी ने मुकाबला जीता, और हैट ट्रिक पूरी की बहुत बधाई. अगली शृंखला में हम एक और क्लोस फिनिश की प्रतीक्षा कर सकते हैं

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, May 4, 2011

हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 649/2010/349

न्ना डे के गीतों की चर्चा महमूद के बिना अधूरी रहेगी। हास्य अभिनेता महमूद नें रुपहले परदे पर बहुतेरे गीत गाये, जिन्हें मन्ना डे ने ही स्वर दिया। एक समय ऐसा लगता था, मानो मन्ना डे, महमूद की आवाज़ बन चुके हैं। परन्तु बात ऐसी थी नहीं। इसका स्पष्टीकरण फिल्म "पड़ोसन" के प्रदर्शन के बाद स्वयं महमूद ने दिया था। पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में महमूद ने कहा था -"मन्ना डे साहब को मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी ज़रुरत होती है। उनके गाये गानों पर स्वतः ही अच्छा अभिनय मैं कर पाता हूँ। महमूद के इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। यह तो निर्विवाद है कि उन दिनों शास्त्रीय स्पर्श लिये गानों और हास्य मिश्रित गानों के लिए मन्ना डे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उस दौर के प्रायः सभी हास्य अभिनेताओं के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था।

1961 में एक फिल्म आई थी "करोड़पति', जिसमें किशोर कुमार नायक थे। किशोर कुमार उन दिनों गायक के रूप में कम, अभिनेता बनने के लिए अधिक प्रयत्न कर रहे थे। फिल्म में संगीत शंकर-जयकिशन का था। मन्ना डे नें उस फिल्म में हास्य गीत -"पहले मुर्गी हुई कि अंडा, जरा सोच के बताना...." गाया था जो परदे पर किशोर कुमार पर फिल्माया गया था। इसके अलावा जाने-माने हास्य अभिनेता जॉनी वाकर के लिए 1962 की फिल्म -"बात एक रात की" में सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में हास्य गीत -"किसने चिलमन से मारा नज़ारा मुझे..." गाया था। इस गीत में कव्वाली के साथ हास्य का अनूठा मिश्रण था। 1966 में हास्य अभिनेता आग़ा के लिए मन्ना डे नें रोशन के संगीत निर्देशन में फिल्म -"दूज का चाँद" में ठुमरी (भैरवी) अंग में हास्य गीत -"फूल गेंदवा ना मारो, लगत करेजवा में चोट...." गाया। दरअसल मन्ना डे को 'बोल-बनाव की ठुमरी' का अच्छा अभ्यास था, इस कारण वो शब्दों को स्वरों के माध्यम से अपेक्षित रस-भाव की ओर मोड़ लेते थे।

महमूद के लिए मन्ना डे नें कई हिट गाने गाये। 1966 की फिल्म 'पति-पत्नी' में मन्ना डे ने महमूद के लिए राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में गीत -"अल्ला जाने मैं हूँ कौन, क्या है मेरा नाम...." गाया था। इसी वर्ष फिल्म 'लव इन टोकियो' का गीत-"मैं तेरे प्यार का बीमार...", 1968 में फिल्म 'दो कलियाँ' का गीत -"मुस्लिम को तस्लीम अर्ज़ है, हिन्दू को परनाम..." आदि ऐसे कई गाने हैं, जिन्हें खूब लोकप्रियता मिली। मन्ना डे द्वारा महमूद के लिए गाये गए गीतों में से दो गीतों का उल्लेख आवश्यक है। पहला हास्य गीत है फिल्म 'पड़ोसन' का जिसमे मन्ना डे के साथ किशोर कुमार की आवाज़ भी शामिल है। आपको याद ही होगा कि 1961 की फिल्म 'करोडपति' में मन्ना डे ने किशोर कुमार के लिए पार्श्वगायन किया था। वही किशोर कुमार 1968 की फिल्म 'पड़ोसन' में मन्ना डे के साथ मिल कर एक अविस्मरणीय हास्य गीत -"एक चतुर नार..." फिल्म-संगीत-प्रेमियों को देते हैं। किशोर कुमार की प्रशंसा करते हुए मन्ना डे ने कहा भी था -"किशोर जन्मजात प्रतिभा के धनी थे। बिना सीखे वह इतना अच्छा गाकर सबको चकित कर देते थे"। फिल्म 'पड़ोसन' के इस गीत की चर्चा करते हुए मन्ना डे ने यह भी कहा था -"गाने के रिहर्सल और रिकार्डिंग के अवसर पर महमूद उपस्थित थे। उनकी सलाह से गाने में कई 'मसाले' डाले गए, जिससे गाना और अधिक लोकप्रिय हुआ"।

महमूद के लिए मन्ना डे का दूसरा उल्लेखनीय गीत 1960 की फिल्म 'मंजिल' से है। सचिनदेव बर्मन इस फिल्म के संगीतकार थे। उन्होंने इस फिल्म के लिए एक परम्परागत 'दादरा' चुना, जिसके बोल हैं -"बनाओ बतियाँ हटो काहे को झूठी....."। राग "भैरवी" में निबद्ध यह 'दादरा' भी मन्ना डे के लिए एक चुनौती था, क्योंकि इससे पहले कई शास्त्रीय गायक इसे गा चुके थे। उस्ताद मुनव्वर अली खां (उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के सुपुत्र) और गायिका गुलशन आरा सईद (बाद में पाकिस्तान चली गईं) ने इस 'दादरा' को अपने स्वरों से सजा दिया था। मान-मनुहार से ओत-प्रोत इस दादरा में मन्ना डे ने हास्य का ऐसा सूक्ष्म भाव भर दिया कि महमूद पर फिल्माए जाने के बाद यह 'दादरा' एक नये अनूठे रंग से भर गया। आज हमने आपको सुनाने के लिए फिल्म 'मंजिल' का यही 'दादरा' चुना है| गीतकर मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार सचिन देव बर्मन।



पहेली 10/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गीत के बीच बीच में कुछ संवाद भी गीत रूप में गाये गए हैं इस लंबे से गीत में.

सवाल १ - मन्ना दा का साथ किन दो कलाकारों ने दिया है इस गीत में - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अगर कोई बड़ा उलट फेर नहीं होता तो ये बाज़ी भी अनजाना जी के हाथ रहेगी क्योंकि वो २ अंकों से आगे हैं, क्षिति जी माफ़ी चाहेंगें....अब गलती नहीं होगी :)

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, May 3, 2011

लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे....देखिये कैसे लौकिक और अलौकिक स्वरों के बीच उतरते डूबते मन्ना दा बाँध ले जाते हैं हमारा मन भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 648/2010/348

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस शृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, कृष्णमोहन मिश्र आप सभी का स्वागत करता हूँ। शंकर-जयकिशन और अनिल विश्वास के अलावा एक और अत्यन्त सफल संगीतकार थे, जो मन्ना डे की प्रतिभा के कायल थे।| उस संगीतकार का नाम था- रोशनलाल नागरथ, जिन्हें फिल्म संगीत के क्षेत्र में रोशन के नाम से खूब ख्याति मिली थी। अभिनेता राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन उनके पुत्र हैं तथा अभिनेता ऋतिक रोशन पौत्र हैं। रोशन जी की संगीत शिक्षा लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) से हुई थी। उन दिनों महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर थे। रोशन जी डा. रातनजनकर के प्रिय शिष्य थे। संगीत शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद रोशन ने दिल्ली रेडियो स्टेशन में दिलरुबा (एक लुप्तप्राय गज-तंत्र वाद्य) वादक की नौकरी की। उनका फ़िल्मी सफ़र 1948 में केदार शर्मा की फिल्म 'नेकी और बदी' से आरम्भ हुआ, किन्तु शुरुआती फिल्मे कुछ खास चली नहीं। मन्ना डे से रोशन का साथ 1957 की फिल्म 'आगरा रोड' से हुआ जिसमे मन्ना डे ने गीता दत्त के साथ एक हास्य गीत -"ओ मिस्टर, ओ मिस्टर सुनो एक बात..." गाया था। 1959 में मन्ना डे ने रोशन की तीन फिल्मों -'आँगन', 'जोहरा ज़बीं' और 'मधु' में भक्ति गीतों को गाया, जिसमें 'मधु' फिल्म का भजन -"बता दो कोई कौन गली गए श्याम..." बहुत लोकप्रिय हुआ। 1960 की फिल्म 'बाबर' की कव्वाली -"हसीनों के जलवे परेशान रहते....." ने भी संगीत प्रेमियों को आकर्षित किया। परन्तु इन दोनों बहुआयामी कलाकारों की श्रेष्ठतम कृति तो अभी आना बाकी था।

1960 में फिल्म 'बरसात की रात' आई, जिसके लिए रोशन ने एक 12 मिनट लम्बी कव्वाली का संगीत रचा। इसे गाने के लिए मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा और एस.डी. बातिश को चुना गया। मन्नाडे को इस जवाबी कव्वाली में उस्ताद के लिए, मोहम्मद रफ़ी को नायक भारत भूषण के लिए और आशा भोसले को नायिका के लिए गाना था। इस कव्वाली के बोल थे -"ना तो कारवाँ की तलाश है...."। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कव्वाली फिल्म संगीत के क्षेत्र में 'मील का पत्थर' सिद्ध हुआ (इस क़व्वाली को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में शामिल किया था)। रोशन और मन्ना डे, दोनों शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित, लोक संगीत की समझ रखने वाले थे। 1963 में रोशन को एक अवसर मिला, अपना श्रेष्ठतम संगीत देने का। फिल्म थी 'दिल ही तो है', जिसमे राज कपूर और नूतन नायक-नायिका थे। यह गाना राज कपूर पर फिल्माया जाना था। फिल्म के प्रसंग के अनुसार एक संगीत मंच पर एक नृत्यांगना के साथ बहुत बड़े उस्ताद को गायन संगति करनी थी। अचानक उस्ताद के न आ पाने की सूचना मिलती है। आनन-फानन में चाँद (राज कपूर) को दाढ़ी-मूंछ लगा कर मंच पर बैठा दिया जाता है। रोशन ने इस प्रसंग के लिए गीत का जो संगीत रचा, उसमे उपशास्त्रीय संगीत की इतनी सारी शैलियाँ डाल दीं कि उस समय के किसी फ़िल्मी पार्श्व गायक के लिए बेहद मुश्किल काम था। मन्ना डे ने इस चुनौती को स्वीकार किया और गीत -"लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे...." को अपना स्वर देकर गीत को अमर बना दिया।

इस गीत का ढांचा 'ठुमरी' अंग में है, किन्तु इसमें ठुमरी के अलावा 'तराना', 'पखावज के बोल', 'सरगम', नृत्य के बोल', 'कवित्त', 'टुकड़े', यहाँ तक कि तराना के बीच में हल्का सा ध्रुवपद का अंश भी इस गीत में है। संगीत के इतने सारे अंग मात्र सवा पाँच मिनट के गीत में डाले गए हैं। जिस गीत में संगीत के तीन अंग होते हैं, उन्हें 'त्रिवट' और जिनमें चार अंग होते हैं, उन्हें 'चतुरंग' कहा जाता है। मन्ना डे के गाये इस गीत को कोई नया नाम देना चाहिए। यह गीत भारतीय संगीत में 'सदा सुहागिन राग' के विशेषण से पहचाने जाने वाले राग -"भैरवी" पर आधारित है। कुछ विद्वान् इसे राग "सिन्धु भैरवी" पर आधारित मानते हैं किन्तु जाने-माने संगीतज्ञ पं. रामनारायण ने इस गीत को "भैरवी" आधारित माना है। गीत की एक विशेषता यह भी है कि गीतकार साहिर लुधियानवी ने कबीर के एक निर्गुण पद की भावभूमि पर इसे लिखा है। आइए इस कालजयी गीत को सुनते हैं-



पहेली 08/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - किस कलकार ने परदे पर निभाया है इस गीत को - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षितिज जी और शरद जी जवाब तो सही दे रहे हैं, पर कोई भी अमित जी और अनजाना जी को वास्तविक टक्कर नहीं दे पा रहा है, न जाने क्यों ?

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

द अवेकनिंग सीरीस की पहली पेशकश आतंकवाद के खिलाफ - दोहराव



हिंद युग्म ने आधारशिला फिल्म्स के साथ सहयोग कर अलग अलग मुद्दों को दर्शाती एक लघु शृंखला "द अवेकनिंग सीरिस" शुरू की है. अभी शुरुआत में ये एक जीरो बजेट प्रयोगात्मक रूप में ही है, जैसे जैसे आगे बढ़ेगें इसमें सुधार की संभावना अवश्य ही बनेगी.

इस शृंखला में ये पहली कड़ी है जिसका शीर्षक है -दोहराव. विचार बीज और कविता है सजीव सारथी की, संगीत है ऋषि एस का, संपादन है जॉय कुमार का और पार्श्व स्वर है मनुज मेहता का. फिल्म संक्षिप्त में इस विचार पर आधारित है -

जब किसी इलाके में मच्छर अधिक हो जाए तो सरकार जाग जाती है और डी टी पी की दवाई छिडकती है, ताकि मच्छर मरे और जनता मलेरिया से बच सके. आतंकवाद रुपी इस महामारी से निपटने के लिए सरकार अभी और कितने लोगों की बलि का इंतज़ार कर रही है ? क्या हम सिर्फ सरकार के जागने का इंतज़ार कर सकते हैं या कुछ और....


Monday, May 2, 2011

ऋतु आये ऋतु जाए...अनिल दा का एक पसंदीदा गीत जिसमें मन्ना और लता ने सांसें फूंकी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 647/2010/347

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के कल के अंक में हमने भारतीय फिल्म संगीत जगत की ऐतिहासिक फिल्म 'बसन्त बहार' और उस फिल्म में स्वर शिल्पी मन्ना डे द्वारा गाये गए गीतों की चर्चा की थी। आज के अंक में हम मन्ना डे के शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग की चर्चा को ही आगे बढ़ाते हैं। पहली कड़ी में इस बात पर चर्चा हो चुकी है कि मन्ना डे को प्रारम्भिक संगीत शिक्षा उनके चाचा कृष्णचन्द्र डे से प्राप्त हुई थी। मुम्बई आने से पहले उस्ताद दबीर खां से भी उन्होंने ख़याल गायकी सीखी थी। मुम्बई आकर भी उनकी संगीत सीखने की पिपासा शान्त नहीं हुई, उन्होंने उस्ताद अमान अली खां और उस्ताद रहमान अली खां से संगीत सीखना जारी रखा। अपने संगीतबद्ध किए गीतों में रागों का हल्का-फुल्का प्रयोग तो वो करते ही आ रहे थे, फिल्म 'बसन्त बहार' में राग आधारित गीतों के गायन से उनकी छवि ऐसी बन गई कि जब भी कोई संगीतकार राग आधारित गीत तैयार करता था, उसे गाने के लिए सबसे पहले मन्ना डे का नाम ही सामने आता था। शास्त्रीय संगीत आधारित गीतों के लिए मन्ना डे हर संगीतकार की पहली पसन्द बन गए थे।

संगीतकार अनिल विश्वास मन्ना डे की प्रतिभा को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे। 1953 में फिल्म 'हमदर्द' के लिए उन्होंने संगीत रचनाएँ की थी। इस फिल्म का एक गीत उन्होंने 'रागमाला' में तैयार किया था। "रागमाला' संगीत का वह प्रकार होता है, जब किसी गीत में एक से अधिक रागों का प्रयोग हो और सभी राग स्वतंत्र रूप से रचना में उपस्थित हों। अनिल विश्वास ने गीत के चार अन्तरों को चार अलग- अलग रागों में संगीतबद्ध किया था। उन दिनों का चलन यह था कि ऐसे गीतों को गाने के लिए फिल्म जगत के बाहर के विशेषज्ञों को बुलाया जाता था। परन्तु अनिल विश्वास ने ऐसा नहीं किया। यह एक युगल गीत था, जिसे गाने के लिए उन्होंने पुरुष स्वर के लिए मन्ना डे को और नारी स्वर के लिए लता मंगेशकर का चयन किया। अनिल दा से अपने मधुर सम्बन्धों के बारे में चर्चा करते हुए मन्ना डे नें डा. मन्दार से कहा भी था -"अनिल दा अच्छे इन्सान, मधुर गायक और अद्भुत संगीतकार थे। उन्हें उर्दू शेर-ओ-शायरी का बेहद शौक था। वे प्रायः मुझे 'लॉन्ग ड्राइव' पर लिवा ले जाते थे। मैं कुछ समय तक उनका सहायक रहा और उस दौर मे मैनें उनसे बहुत कुछ सीखा। वह निर्विवाद रूप से कुशल संगीत सर्जक थे।" मन्ना डे की क्षमता पर अनिल विश्वास को भरोसा था और इसीलिए यह महत्वाकांक्षी गीत उन्हें दिया भी गया था।

फिल्म 'हमदर्द' के इस प्रसंग में अभिनेता शेखर एक अन्ध-गायक की भूमिका में हैं, जो निम्मी को संगीत की शिक्षा दे रहे हैं। गीत के बोल हैं -"ऋतु आए ऋतु जाए सखी री, मन के मीत न आए...."। गीत की स्थायी की पंक्ति -"ऋतु आए ऋतु जाए...." से लेकर पहले अन्तरे के अन्त ".......करूँ मैं कौन उपाय" तक ज्येष्ठ मास के सूर्य की तपिश और विरह से व्याकुल नायिका का चित्रण करने के लिए राग 'गौड़ सारंग', दूसरे अन्तरे में -"बरखा ऋतु बैरी हमार....." से लेकर "....बिंदिया करे पुकार" तक राग 'गौड़ मल्हार', तीसरे अन्तरे में "पी बिन सूना री....." से लेकर "....मेरा दिल भी अँधेरा" तक प्रातःकालीन राग 'जोगिया' तथा चौथे अन्तरे में -"आई मधु ऋतु..." से लेकर "....कब लग करूँ सिंगार" तक राग 'बहार' में पूरे गीत को पिरोया गया है। इस प्रकार मन्ना डे और लता मंगेशकर ने रागानुकूल स्वरों की शुद्धता बनाए रखते हुए इस अनूठे गीत को गाया है। गीतकार प्रेम धवन हैं। इस गीत को ऐतिहासिक बनाने में वाद्य संगीत के श्रेष्ठतम कलाकारों का योगदान भी रहा। गीत में सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पन्नालाल घोष और सारंगी वादक पं. रामनारायण ने संगति की थी। रिकार्डिंग पूरी हो जाने के बाद जाने-माने सितार-नवाज उस्ताद विलायत खां ने कहा था -' फिल्म संगीत जगत में आज एक श्रेष्ठतम गीत रिकार्ड हुआ है'।| स्वयं मन्ना डे भी इस गीत को अपने श्रेष्ठ गीतों की श्रेणी में शीर्ष पर मानते हैं। आइए आज हम प्रेम धवन के लिखे, अनिल विश्वास द्वारा संगीतबद्ध किये तथा मन्ना डे व लता मंगेशकर के स्वरों में 'हमदर्द' फिल्म का यह 'रागमाला' गीत सुनते हैं -

संस्करण ०१

संस्करण २


(हमदर्द के क्लिप १ में गीत का पहला, दूसरा और तीसरा अन्तरा है किन्तु चौथा अन्तरा नहीं है | क्लिप २ में केवल तीसरा और चौथा अन्तरा ही है | तीसरा अन्तरा दोनों क्लिप में शामिल है।)

एक मशहूर रेडिओ ब्रॉडकास्टर को दिये साक्षात्कार में मन्ना डे नें इस गीत के बारे में कुछ इन शब्दों में कहा था - "लता जी और मैंने, हमलोग बहुत मेहनत करके यह गाना गाये थे, बहुत मुश्किल था गाना, और चार रागों में गाना था, और मेरे ख़याल से कुछ ६-७ घंटों में हम रेकॉर्ड कर डाले। उसके बाद जो गाना जब सुनाया गया और अनिल दा को अच्छा लगा तो ऐसा नाचा, ऐसा नाचा, मैं, अनिल दा। अनिल दा बहुत वर्सेटाइल, नाच भी सकते हैं, बहुत अच्छी तरह नाच सकते हैं।" और फिर अनिल दा नें भी तो इस गीत से जुड़ा प्रसंग बताया था उसी मशहूर रेडिओ ब्रॉडकास्टर को - "आजकल के गायकों और संगीतकारों के पास रिहर्सल के लिए वक़्त नहीं है। और हमारे साथ तो ऐसी बात हुई कि लता दीदी नें ही, उनके पास भी समय हुआ करता था रिहर्सल देने के लिए, और एक गाना शायद आपको याद होगा, जो चार ख़याल मैंने पेश किया था फ़िल्म 'हमदर्द' में, १५ दिन बैठके लत दीदी और मन्ना दा, १५ दिन बैठके उसका प्रैक्टिस किया था।" और दोस्तों, पता है संगीतकार अनिल विश्वास की आत्मकथा ग्रन्थ का शीर्षक भी है "ऋतु आए ऋतु जाए"। अनिल दा की संगीत यात्रा में फिल्म 'हमदर्द' के इस गीत का क्या महत्त्व था, यह पुस्तक के शीर्षक से स्वतः सिद्ध हो जाता है। 'आवाज़' मंच पर भी इस गीत का ज़िक्र इससे पहले दो बार आ चुका है। पहली बार संगीतकार तुषार भाटिया के साक्षात्कार में उन्होंने इस गीत की चर्चा की थी, और अनिल दा की सुपुत्री शिखा विश्वास वोहरा के साक्षात्कार में भी उन्होंने अपनी पसंदीदा गीतों में इसका शुमार किया था। तो इन्हीं बातों पर आज का यह अंक सम्पन्न करने की कृष्णमोहन मिश्र को दीजिए अनुमति, नमस्कार!

पहेली 08/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - किस संगीतकार के लिए था मन्ना का ये क्लास्सिक गीत - २ अंक
सवाल २ - कौन थी नायिका इस फिल्म की - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी और अमित जी ३ शानदार अंकों की बधाई. अनजाना जी और हिन्दुस्तानी जी भी आये सही जवाब के साथ. अवध जी आपकी बात से कौन नहीं सहमत होगा

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, May 1, 2011

भय भंजना वंदना सुन हमारी.....इस भजन के साथ जन्मदिन की शुभकामनाएँ प्रिय मन्ना दा को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 646/2010/346

'ओल्ड इज गोल्ड' के इस नये सप्ताह में सभी संगीतप्रेमी पाठकों-श्रोताओं का एक बार फिर स्वागत है। इन दिनों हमारी श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' जारी है। आज के शुभ दिन को ही ध्यान में रख कर बहुआयामी प्रतिभा के धनी गायक-संगीतकार पद्मभूषण मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हमने यह श्रृंखला आरम्भ की थी। भारतीय फिल्म संगीत जगत के जीवित इतिहास मन्ना डे का आज 93 वाँ जन्मदिन है, इस शुभ अवसर पर हम 'ओल्ड इज गोल्ड' परिवार और सभी संगीत प्रेमियों की ओर से मन्ना डे को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं और उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करते हैं।

पिछले अंक में हमने 'आर.के. कैम्प' में मन्ना डे के प्रवेश की चर्चा की थी। राज कपूर की फिल्मों के संगीतकार शंकर-जयकिशन का भी वह शुरुआती दौर था। मन्ना डे की प्रतिभा से यह संगीतकार जोड़ी, विशेष रूप से शंकर, बहुत प्रभावित थे। 'बूट पालिश' के बाद शंकर-जयकिशन की जोड़ी के साथ मन्ना डे नें अनेक यादगार गाने गाये। 1953 में मन्ना डे नें शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में तीन फिल्मों- 'चित्रांगदा', 'घर-बार' और 'दर्द-ए-दिल' में गीत गाये। 1955 में मन्ना डे के गायन से सजी दो ऐसी फ़िल्में बनीं, जिन्होंने उनकी गायन प्रतिभा में चाँद-सितारे जड़ दिये। फिल्म 'सीमा' का गीत- "तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम...." फ़िल्मी भक्ति-गीतों में आज भी सर्वश्रेष्ठ पद पर प्रतिष्ठित है। इसी वर्ष मन्ना डे को राज कपूर की आवाज़ बनने का एक और अवसर मिला, फिल्म 'श्री 420' के माध्यम से। इस फिल्म में उन्होंने तीन गाने गाये, जिनमें एक एकल -"दिल का हाल सुने दिलवाला..." दूसरा, आशा भोसले के साथ युगल गीत -"मुड़ मुड़ के ना देख मुड़ मुड़ के...." और तीसरा लता मंगेशकर के साथ गाया युगल गीत -"प्यार हुआ, इकरार हुआ...."। फिल्म 'श्री 420' के गीत उन दिनों जबरदस्त हिट हुए थे और आज भी वही आलम बरकरार है। बच्चे-बच्चे की जबान पर ये गीत चढ़े हुए थे और विवाह के अवसर पर बजने वाले बैंड बाजे से इन्ही गानों की धुन बजती थी। मन्ना डे के स्वर में एकल गीत -"दिल का हाल सुने दिलवाला....." में लोक संगीत का पुट है। इस गीत के एक अन्तरे -"बूढ़े दरोगा ने चश्मे से देखा..." में तो मन्ना डे अपने स्वरों से शब्दों का ऐसा अभिनय कराते हैं कि परदे का दृश्य देखे बिना ही जीवन्त हो उठता है। गाने के इस अंश में परदे पर राज कपूर नें मन्ना डे के गले की हरकतों के अनुरूप अभिनय किया है। इसी प्रकार लता मंगेशकर के साथ गाया युगल गीत -"प्यार हुआ इकरार हुआ..." प्रेम की अभिव्यक्ति में बेजोड़ है। इस फिल्म के गानों को गाकर मन्ना डे नें संगीतकार द्वय में से शंकर को इतना प्रभावित कर दिया कि आगे चल कर शंकर उनके सबसे बड़े शुभचिन्तक बन गए।

1956 में शंकर-जयकिशन को फिल्म 'बसन्त बहार' में संगीत रचना का दायित्व मिला। इस फिल्म में उस समय के सर्वाधिक चर्चित और सफल अभिनेता भारत भूषण नायक थे और निर्माता थे आर चंद्रा। फिल्म के निर्देशक ए.वी. मयप्पन थे। संगीतकार शंकर-जयकिशन नें फिल्म के अधिकतर गीत शास्त्रीय रागों पर आधारित रखे थे। इससे पूर्व भारत भूषण की कई फिल्मों में मोहम्मद रफ़ी उनके लिए सफल गायन कर चुके थे। शशि भूषण इस फिल्म में मोहम्मद रफ़ी को ही लेने का आग्रह कर रहे थे, जबकि मयप्पन मुकेश से गवाना चाहते थे। यह बात जब शंकर जी को मालूम हुआ तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि राग आधारित इन गीतों को मन्ना डे के अलावा और कोई गा ही नहीं सकता। यह विवाद इतना बढ़ गया कि शंकर-जयकिशन को इस फिल्म से हटने की धमकी तक देनी पड़ी। अन्ततः मन्ना डे के नाम पर सहमति बनी। फिल्म 'बसन्त बहार' में मन्ना डे के गाये गीत 'मील के पत्थर' सिद्ध हुए। फिल्म के एक गीत -"केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूलें....." में तो मन्ना डे ने सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. भीमसेन जोशी के साथ गाया है | (यह गीत 'सुर संगम' के पांचवें अंक में पं. भीमसेन जोशी को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत किया गाया था, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बज चुका है) उपरोक्त प्रसंग मन्ना डे ने पत्रकार कविता छिब्बर से बातचीत में बताया था।

फिल्म 'बसन्त बहार' के अन्य गीत थे -"सुर ना सजे...." (एकल), "नैन मिले चैन कहाँ....." (लता मंगेशकर के साथ) तथा "भय भंजना वन्दना सुन हमारी...." (भजन)। आज आपको सुनवाने के लिए हमने 'बसन्त बहार' का भक्तिरस से ओत-प्रोत यही गीत चुना है। मन्ना डे के स्वरों में फिल्म 'बसन्त बहार' का यह गीत (भजन) गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा है और यह राग "मियाँ की मल्हार" पर आधारित है और फ़िल्मी गीतों में बहुत कम प्रचलित दस मात्रा के ताल "झपताल" में है। राग "मियाँ की मल्हार" के स्वरों में अधिकतर रचनाएँ चंचल, श्रृंगार रस प्रधान और वर्षा ऋतु में नायिका की विरह व्यथा को व्यक्त करने वाली होती हैं, किन्तु यह गीत मन्ना डे के स्वरों में ढल कर भक्तिरस की अभिव्यक्ति करने में कितना सफल हुआ है, इसका निर्णय आप गीत सुन कर स्वयं करें -



पहेली 07/शृंखला 15
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - फिल्म संगीत खजाने का एक श्रेष्ठतम नगीना है ये गीत, ऐसा मान उस्ताद विलायत खान ने भी.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - किस बांसुरी वादक ने इस युगल गीत में संगति की थी - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना जी, अमित जी और शरद जी को बधाई

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - सुनिए पं. विश्वमोहन भट्ट और उनकी मोहन वीणा के संस्पर्श में राग हंसध्वनी



सुर संगम - 18 - मोहन वीणा: एक तंत्र वाद्य की लम्बी यात्रा
1966 के आसपास एक जर्मन हिप्पी लड़की अपना गिटार लेकर मेरे पास आई और मुझसे आग्रह करने लगी कि मैं उसे उसके गिटार पर ही सितार बजाना सिखा दूँ| उस लड़की के इस आग्रह पर मैं गिटार को इस योग्य बनाने में जुट गया कि इसमें सितार के गुण आ जाएँ

सुप्रभात! सुर-संगम की एक और संगीतमयी कड़ी में मैं, सुमित चक्रवर्ती सभी श्रोताओं व पाठकों का स्वागत करता हूँ। आप सबको याद होगा कि सुर-संगम की १४वीं व १५वीं कड़ियों में हमने चैती पर लघु श्रंख्ला प्रस्तुत की थी जिसमें इस लोक शैली पर हमारा मार्गदर्शन किया था लखनऊ के हमारे साथी श्री कृष्णमोहन मिश्र जी ने। उनके लेख से हमें उनके वर्षों के अनुभव और भारतीय शास्त्रीय व लोक संगीत पर उनके ज्ञान की झलक मिली। अब इसे हमारा सौभाग्य ही समझिये कि कृष्णमोहन जी एक बार पुनः उपस्थित हैं सुर-संगम के अतिथि स्तंभ्कार बनकर, आइये एक बार फिर उनके ज्ञान रुपी सागर में गोते लगाएँ!

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सुर-संगम के सभी श्रोताओं व पाठकों को कृष्णमोहन मिश्र का प्यार भरा नमस्कार! बात जब भारतीय संगीत के जड़ों के तलाश की होती है तो हमारी यह यात्रा वैदिक काल के "सामवेद" तक जा पहुँचती है| वैदिक काल से लेकर वर्तमान आधुनिक काल तक की इस संगीत यात्रा को अनेक कालखण्डों से गुज़रना पड़ा| किसी कालखण्ड में भारतीय संगीत को अपार समृद्धि प्राप्त हुई तो किसी कालखण्ड में इसके अस्तित्व को संकट भी रहा| अनेक बार भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर की संगीत शैलियों ने इसे चुनौती भी दी, परन्तु परिणाम यह हुआ कि वह सब शैलियाँ भारतीय संगीत की अजस्र धारा में विलीन हो गईं और हमारा संगीत और अधिक समृद्ध होकर आज भी मौजूद है| परम्परागत विकास-यात्रा में नई-नई शैलियों का जन्म हुआ तो वैदिककालीन वाद्य-यंत्रों का क्रमबद्ध विकास भी हुआ| इनमें से कुछ वाद्य तो ऐसे हैं जिनका अस्तित्व वैदिक काल में था, बाद में इनके स्वरुप में थोडा परिवर्तन हुआ तो ये पाश्चात्य संगीत का हिस्सा बने| पश्चिमी संगीत जगत में ऐसे वाद्यों ने सफलता के नए मानक गढ़े| ऐसे वाद्यों की यात्रा यहीं नहीं रुकी, कई प्रयोगधर्मी संगीतज्ञों ने वाद्यों के इस पाश्चात्य स्वरूप में संशोधन किया और इन्हें भारतीय संगीत के अनुकूल स्वरुप दे दिया| अनेक पाश्चात्य वाद्य, जैसे- वायलिन, हारमोनियम, मेन्डोलीन, गिटार आदि आज शास्त्रीय संगीत के मंच पर सुशोभित हो रहें हैं|

सुर-संगम के आज के अंक में हम एक ऐसे ही तंत्र वाद्य- "मोहन वीणा" पर चर्चा करेंगे, जो विश्व-संगीत जगत की लम्बी यात्रा कर आज पुनः भारतीय संगीत का हिस्सा बन चुका है| वर्तमान में "मोहन वीणा" के नाम से जिस वाद्य यंत्र को हम पहचानते हैं, वह पश्चिम के 'हवाइयन गिटार' या 'साइड गिटार' का संशोधित रूप है| 'मोहन वीणा' के प्रवर्तक हैं, सुप्रसिद्ध संगीत-साधक पं. विश्वमोहन भट्ट, जिन्होंने अपने इस अनूठे वाद्य से समूचे विश्व को सम्मोहित किया है| श्री भट्ट इस वाद्य के सृजक ही नहीं, बल्कि उच्चकोटि के तंत्र-वाद्य-वादक भी हैं| सुप्रसिद्ध सितार वादक पं. रविशंकर के शिष्य विश्वमोहन भट्ट का परिवार मुग़ल सम्राट अक़बर के दरबारी संगीतज्ञ तानसेन और उनके गुरु स्वामी हरिदास से सम्बन्धित है| प्रारम्भ में उन्होंने सितार वादन की शिक्षा प्राप्त की, किन्तु 1966 की एक रोचक घटना ने उन्हें एक नये वाद्य के सृजन की ओर प्रेरित कर दिया| एक बातचीत में श्री भट्ट ने बताया था -"1966 के आसपास एक जर्मन हिप्पी लड़की अपना गिटार लेकर मेरे पास आई और मुझसे आग्रह करने लगी कि मैं उसे उसके गिटार पर ही सितार बजाना सिखा दूँ| उस लड़की के इस आग्रह पर मैं गिटार को इस योग्य बनाने में जुट गया कि इसमें सितार के गुण आ जाएँ|" श्री भट्ट के वर्तमान 'मोहन वीणा' में केवल सितार और गिटार के ही नहीं बल्कि प्राचीन वैदिककालीन तंत्र वाद्य विचित्र वीणा और सरोद के गुण भी हैं| मोहन वीणा का मूल उद्‍गम 'विचित्र वीणा' ही है| आइए हम आपको 'विचित्र वीणा' वादन का एक अंश सुनवाते हैं इस वीडियो के माध्यम से| राग 'रागेश्वरी' में यह एक ध्रुवपद है जो 12 मात्रा के 'चौताल' में निबद्ध है और इस रचना के विदेशी वादक हैं विदेशी मूल के गियान्नी रिक्कीज़ी जिन्हें वर्तमान का विचित्र वीणा दिग्गज माना जाता है।

राग - रागेश्वरी : विचित्र वीणा : वादक - गियान्नी रिक्कीज़ी

देखिये विडियो यहाँ
श्री विश्वमोहन भट्ट मोहन वीणा पर सभी भारतीय संगीत शैलियों- ध्रुवपद, धमार, ख़याल, ठुमरी आदि का वादन करने में समर्थ हैं| आइए यहाँ थोड़ा रुक कर एक और वीडियो द्वारा मोहन वीणा पर राग 'हंसध्वनि' में एक अनूठी रचना सुनते हैं जिसे प्रस्तुत कर रहे हैं स्वयं पं. विश्वमोहन भट्ट| रचना के पूर्वार्ध में धमार ताल, ध्रुवपद अंग में तथा उत्तरार्ध में कर्णाटक संगीत पद्यति में एक कृति "वातापि गणपतये भजेहम..." का वादन है| मोहन वीणा के बारे में हम और भी जानेंगे सुर-संगम की आगामी कड़ी में।

राग हंसध्वनि में धमार एवं कृति : मोहन वीणा : वादक - विश्वमोहन भट्ट



और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

हिंदी सिनेमा में हवायन गिटार का प्रयोग सबसे पहले संभवतः १९३७ की एक फ़िल्म के गीत में हुआ था जिसमें संगीतकार केशवराव भोले ने फ़िल्म की अभिनेत्री से एक अंग्रेज़ी गीत गवाया था। आपको बताना है उस अभिनेत्री - गायिका का नाम।

पिछ्ली पहेली का परिणाम: श्रीमति क्षिति तिवारी जी ने लगातार तीसरी बार सटीक उत्तर देकर ५ अंक और अपने खाते में जोड़ लिये हैं, बधाई! अमित जी, अवध जी, कहाँ ग़ायब हैं आप दोनों? देखिये कहीं बाज़ी हाथ से न निकल जाए!

सुर-संगम के आज के अंक को हम यहीं पर विराम देते हैं, परंतु 'मोहन वीणा' पर कई तथ्य एवं जानकारी अभी बाक़ी है जिनका उल्लेख हम करेंगे हमारी आगामी कड़ी में। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामी रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए कृष्णमोहन मिश्र को आज्ञा दीजिए| और हाँ! शाम ६:३० बजे हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के प्यारे साथी सुजॉय चटर्जी के साथ पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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