'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है शनिवार के इस साप्ताहिक विशेषांक में। आज बारी 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' की। आज बहुत दिनों के बाद हमारी प्रिय इंदु जी का ईमेल इसमें शामिल हो रहा है। आप में से बहुत से पाठकों को शायद याद होगा कि इंदु जी के एक पहले के ईमेल में उन्होंने एक बच्चे के बारे में बताया था। हम आप से यही गुज़ारिश करेंगे कि अगर आप ने उस समय उस ईमेल को नहीं पढ़ा था तो पहले यहाँ क्लिक कर उसे पढ़ के दुबारा यहीं पे वापस आइए। तो आज के ईमेल में भी इंदु जी ने उसी बच्चे के बारे में कुछ और बातें हमें बता रही हैं। जिस तरह से पिछले ईमेल ने हमारी आँखों को नम कर दिया था, आज के ईमेल को पढ़ कर भी शायद आलम कुछ वैसा ही होगा। आइए इंदु जी का ईमेल पढ़ा जाये!
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प्रिय सजीव और सुजॊय,
प्यार!
तुमने (आपने नही लिखूंगी सोरी न) कहा मैं अपनी पसंद का गाना बताऊँ तुम सुनोगे, सुनाओगे। हंसी तो नही उडाओगे न कि ये हरदम ........?????? मैंने एक बार बताया था न एक बच्चे के बारे में? नन्नू बुलाती थी मैं उसे; नन्हू से नन्नू बन गया था वो हम सबका। अपने से दूर करने के बारे में कभी सोचा भी नही था। किन्तु पिछले अठारह उन्नीस साल से डायबिटिक हूँ और उम्र के इस पडाव पर... उसे बड़ा करने और पैरों पर खड़ा होने तक कम से कम पच्चीस साल चाहिए.....इतना समय मेरे पास है? जिसे जीवन और खुशियाँ देना चाहती थी हो सकता है कल मेरे ना रहने पर उसका जीवन नर्क बन जाता.......... और इसीलिए हमे एक सख्त कदम उठाना पड़ा उसे अपने से दूर करने का। इससे पहले भी कई बच्चे मेरे जीवन में आये और अच्छे परिवारों में चले गये। घर नही आया था कोई। नन्नू चार महीने हमारे पास रहा। वो अब पलटी मारने लगा था। 'इन्हें' देखते ही पलटी मारना शुरू कर देता। 'ये' खूब हंसते -'ओ मेरा बेटा पलती माल लहा है गुड...गुड..वेरी गुड।' और वो जैसे समझने लगा था। इन्हें देखते ही इतराना चालू कर देता..............मगर उसे जाना था.....वो चला गया।
पन्द्रह दिन बाद हम उसे सँभालने उसके नए मम्मी पापा के घर गये। 'इनकी' गोदी में जाते ही नन्नू गोदी से लुढक गया और...पलटिया मारने लगा। हर पलटी के बाद इनके चेहरे की ओर देखता, इस बार वो मुस्करा नही रहा था और ना ही गोस्वामीजी बोले-'ओ मेरा बेटा पलती.....' ये बुरी तरह रोने लगे.......हम सब फूट फूट कर रोये जा रहे थे। हमने सोचा वो बहुत छोटा है, हमे क्या याद करता होगा, पर...क्या हमारे पहली बार छोड़ कर आने के बाद उसकी आँखों ने चारों ओर हमे नही ढूँढा होगा? हमे नही पा कर अंदर नही रोया होगा? क्या वो अपने दुःख को किसी को बता पाया होगा? या...कोई समझ पाया होगा? बाबू! ऐसे कई प्रश्न आज भी हमे घेरे रहते हैं....उस दिन को ले के... कृष्ण यशोदा को छोड़ कर एक बार गये। और कभी वापस नही आये। मेरे कृष्ण तो हर बार मेरी गोदी चुनते हैं और चले जाते हैं और फिर नये रूप में आ जाते हैं .... यही कारण है ये गीत मेरे दिल के इतना करीब हो गया है। इसमें मुझे मेरे नन्नू की आवाज आती है। जानती हूँ वो मुझे भूल चूका है। अब माँ नही नानी बोलता है। फोन करता है, 'नानी आओ.एपल,भुट्टा लाना'। किन्तु उस दिन को नही भूल पाती जब हम कार से गये तीन व्यक्ति थे और लौटे....दो।
इस गीत की पंक्तियाँ... 'प्यासा था बचपन, जवानी भी मेरी प्यासी, पीछे गमों की गली
आगे उदासी, मैं तन्हाई का राही, कोई अपना ना बेगाना अफ़साना, मुझे अब ना बुलाना ............. खुल कर ना रोया किसी काँधे पर झुक के'।
जितना चाहो पोस्ट कर देना बाकि को एडिट कर निकाल देना,जैसे सबने नन्नू को मेरे जीवन से निकाल दिया जबरन...पर मेरे दिल से.???? मेरे जीते जी....???...धुंधला सा भी कहीं क्यों हो उजाला! अब उन यादों से कह दो मेरी दुनिया में ना आना 'सुनो इसके एक एक शब्द। कहीं नन्नू, कहीं तुम्हारी दोस्त इंदु है इसमें।
प्यार
इंदु
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अब इसके बाद बिना कुछ कहे, आइए सुनते हैं फ़िल्म 'दादी माँ' का इंदु जी का चुना हुआ यह गीत "जाता हूँ मैं मुझे अब ना बुलाना"। आवाज़ मोहम्मद रफ़ी साहब की, गीत मजरूह सुल्तानपुरी साहब का, और संगीतकार रोशन साहब। यह १९६६ की फ़िल्म थी। आइए गीत सुना जाये!
गीत - जाता हूँ मैं मुझे अब ना बुलाना (दादी माँ)
और इंदु जी, अभी कुछ दिन पहले आपनें अफ़सोस जताया कि दुर्गा खोटे पर फ़िल्माया 'बिदाई' के जिस भजन को हमनें चुना था, उससे बेहतर भजन उसी फ़िल्म में मौजूद थी। आप ही के शब्दों में - "आपने शायद इस फिल्म का एक बेहद मधुर, मर्मस्पर्शी भजन नही सुना, अन्यथा उसे ही सुनाते, 'मैं जा रही थी मन लेके तृष्णा, अच्छे समय पे तुम आये, तुम आये, तुम आये कृष्णा'। एक एक शब्द भीतर तक एक हलचल सी मचा देता है। आँखें स्वयम मूँद जाती है और.... जैसे वो पास आके बैठ जाता और कहता है- 'तुम्हे छोड़ कर कहाँ जाता मैं इंदु? मुझे तो आना ही था। काश उस भजन को सुनाया होता। कहीं नही अड़ता, टिकता ये भजन उसके सामने। कहना नही चाहिए था। इतने दिनों बाद आई और उलाहने देने लगी। हा हा हा, क्या करूं ? ऐसिच हूँ मैं -झगडालू।" इंदु जी, आप बिल्कुल झगड़ालू नहीं हैं, बल्कि यकीन मानिये हमें कितनी ख़ुशी होती है यह देख कर कि कितने अपनेपन से आप सब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को सुनते हैं, पढ़ते हैं, और शिकवे शिकायतें भी तो अपनों से ही की जाती है न? तो लीजिए आज हम आपकी इस प्यारी सी शिकायत को दूर किए देते हैं, फ़िल्म 'बिदाई' के इस भजन को यहाँ पर बजाकर। वाक़ई बेहद सुंदर रचना है आशा भोसले का गाया हुआ। गीतकार आनंद बक्शी और संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। आइए सुनें।
गीत - अच्छे समय पे तुम आये कृष्णा (बिदाई)
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। इंदु जी की तरह आप भी अपने जीवन की एक ऐसी ही अविस्मरणीय घटना हमें इस स्तंभ के लिए लिख भेजिए oig@hindyugm.com के पते पर। अगले हफ़्ते एक ख़ास साक्षात्कार के साथ हम फिर उपस्थित होंगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में। अब मेरी और आपकी अगली मुलाक़ात होगी कल सुबह 'सुर-संगम' में। तब तक के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!