Saturday, May 8, 2010

क्रांतिकारी कवि प्रदीप ने फ़िल्मी गीतों को दी आकाश सी ऊंचाई, रचकर एक से एक कालजयी गीत



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १८

'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में हमारे आज के गीत के गीतकार एक ऐसे शख़्स हैं जिनकी लेखनी और गायकी में झलकता है उनका अपने देश के प्रति प्रेम और देशवासियों में जागरूक्ता लाने की शक्ति। कवि प्रदीप, जिन्होने असंख्य देश भक्ति के गीत और कविताएँ लिखे, जिन्हे पढ़कर देश प्रेम से जैसे ख़ून गरम हो उठता है। पराधीन भरत में भी आज़ादी पर ऐसे ऐसे गीत और कविताएँ लिखे कि उन्हे कई बार अंडरग्राउंड होना पड़ा। आज हम आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'जागृति' का वह मशहूर देश भक्ति गीत "आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांखी हिंदुस्तान की", जो उन्होने ही गाया था और यह गीत पिक्चराइज़ हुआ था अभि भट्टाचार्य और बच्चों पर। इस फ़िल्म के संगीतकार थे हेमंत कुमार। क्योंकि बात देश भक्ति की चल रही है और संगीतकार हैं हेमन्त कुमार, इसलिए आज हम रुख़ करते हैं हेमन्त दा द्वारा प्रस्तुत किए गए सन् १९७२ के उस 'जयमाला' कार्यक्रम की ओर, जो उन्होने 'बांगलादेश वार' के ठीक बाद प्रस्तुत किया था विविध भारती पर। हमारे वीर फ़ौजी भाइयों से मुख़ातिब उन्होने कहा था - "फ़ौजी भाइयों, विजय का सेहरा सदा आप के सर पर रहे। अन्याय का मुक़ाबला ना करना बहुत बड़ा पाप है। १४ रोज़ के इस जंग को जीत कर, दुश्मनों का मुक़ाबला कर आप ने जो विजय हासिल की है, उसकी तारीफ़ में कुछ कहने के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं है। दुनिया के इतिहास में जब भी इस लड़ाई का ज़िक्र आयेगा, आप लोगों का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा। आप ने अपने जान की बाज़ी लगाकर हमारे पड़ोसी मुल्क बांगलादेश के लोगों को उनका 'शोनार बांगला' (सोने का बांगला) उन्हे लौटा कर हमारे देश का नाम बहुत ऊँचा कर दिया है। न्याय और शांति के लिए हमारा देश हमेशा लड़ता रहेगा। मेरी पहली फ़िल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी। बंकिम चन्द्र चट्टॊपाध्याय का 'आनंदमठ' और उन्ही के कलम से निकला यह गीत, जिसके सहारे हम लोगों ने ना जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी, वंदे मातरम।"

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ...
कवर गायन - डाक्टर पारसमणी आचार्य, नंदिता, एन वी कृष्णन, प्रदीप सोमसुन्दरन, शारदा और आज़म खान




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डाक्टर पारसमणी आचार्य
मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

बाबू की बदली - हरिशंकर परसाई



सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "बाबू की बदली"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में हिंदी के अमर साहित्यकार पंडित सुदर्शन की कहानी "अठन्नी का चोर" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार हरिशंकर परसाई की मार्मिक कहानी "बाबू की बदली", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "बाबू की बदली" का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 11 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

ये टेढ़ी राह वाले दिन में तो सीधे चलते हैं परन्तु रात में चुपचाप सीधी राह पर गड्ढे खोदते हैं।
(हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "बाबू की बदली" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें।
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

#72th Story, Babu Ki Badli: Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2010/17. Voice: Anurag Sharma

Friday, May 7, 2010

दादा रविन्द्र जैन ने इंडस्ट्री को कुछ बेहद नयी और सुरीली आवाजों से मिलवाया, जिसमें एक हेमलता भी है



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १७

'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की आज की कड़ी में आप सुनेंगे रवीन्द्र जैन के गीत संगीत में फ़िल्म 'अखियो के झरोखों से' का वही मशहूर शीर्षक गीत जिसे हेमलता ने गाया था और फ़िल्म में रंजीता पर फ़िल्माया गया था। गीत सुनने से पहले थोड़ी हेमलता की बातें हो जाए, जो उन्होने विविध भारती के एक मुलाक़ात में कहे थे। "कलकत्ता के रवीन्द्र सरोवर स्टेडियम में एक बहुत बड़ा प्रोग्राम हुआ था। डॊ. बिधान चन्द्र रॊय आए थे उसमें, दो लाख की ऒडियन्स थी। उस शो के चीफ़ कोर्डिनेटर गोपाल लाल मल्लिक ने मुझे एक गाना गाने का मौका दिया। उस शो में लता जी, रफ़ी साहब, उषा जी, हृदयनाथ जी, किशोर दा, सुबीर सेन, संध्या मुखर्जी, आरती मुखर्जी, हेमन्त दादा, सब गाने वाले थे। मुझे इंटर्वल में गाना था, ऐज़ बेबी लता (हेमलता का असली नाम लता ही था उन दिनों) ताकि लोग चाय वाय पी के आ सके। मेरे गुरु भाई चाहते थे कि इस प्रोग्राम के ज़रिए मेरे पिताजी को बताया जाए कि उनकी बेटी कितना अच्छा गाती है (हेमलता के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनकी बेटी छुप छुप के गाती है)। तो वो जब जाकर मेरे पिताजी को इस फ़ंक्शन में आने के लिए कहा तो वो बोले कि मैं वहाँ फ़िल्मी गीतों के फ़ंक्शन में जाकर क्या करूँगा! बड़ी मुश्किल से मनाकर उन्हे लाया गया। तो ज़रा सोचिए, बिधान चन्द्र रॊय, सारे मिनिस्टेरिएल लेवेल के लोग, दो लाख ऒडियन्स, इन सब के बीच मेरे पिताजी बैठे हैं और उनकी बेटी गाने वाली है और यह उनको पता ही नहीं। उस समय मेरा आठवाँ साल लगा था। मैंने "जागो मोहन प्यारे", फ़िल्म 'जागते रहो', यह गाना गाया। जैसे ही मैंने वह आलाप लिया, पब्लिक ज़ोर से शोर करने लगी। मैंने सोचा कि क्या हो गया, फिर पता चला कि वो "आर्टिस्ट को ऊँचा करो" कह रहे हैं। फिर टेबल लाया गया और मैंने फिर से गाया, वन्स मोर भी हुआ। कलकत्ता की ऒडियन्स, दुनिया में ऐसी ऒडियन्स आपको कहीं नहीं मिलेगी, वाक़ई! फिर उस दिन मैंने एक एक करके १२ गीत गाए, सभी बंगला में, हिंदी में, जो आता था सब गा दिया। फिर शोर हुआ कि दीदी (लता जी) आ गईं हैं। बी. सी. रॊय ने बेबी लता के लिए गोल्ड मेडल अनाउन्स किया। पिता जी भी मान गए, उनको भी लगा कि उसकी प्रतिभा को रोकने का मुझे कोई अधिकार नहीं है, फिर राशी देख कर 'ह' से हेमलता नाम रखा गया और मैं लता से हेमलता बन गई।"

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - अखियों के झरोखों से...
कवर गायन - रश्मि नायर




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रश्मि नायर
इन्टरनेट पर बेहद सक्रिय और चर्चित रश्मि मूलत केरल से ताल्लुक रखती हैं पर मुंबई में जन्मी, चेन्नई में पढ़ी, पुणे से कॉलेज करने वाली रश्मि इन दिनों अमेरिका में निवास कर रही हैं और हर तरह के संगीत में रूचि रखती हैं, पर पुराने फ़िल्मी गीतों से विशेष लगाव है. संगीत के अलावा इन्हें छायाकारी, घूमने फिरने और फिल्मों का भी शौक है


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



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एक नया दिन चला, ढूँढने कुछ नया - मालविका निराजन की पेशकश



Season 3 of new Music, Song # 06

हिन्द-युग्म के संगीत सत्र में ऐसा बहुत कम ही बार हुआ है जब गीत को लिखने वाला, संगीतबद्ध करने वाला और गाने वाला कोई एक ही हो। हिन्दी फिल्मी संगीत में भी कुल गानों की तुलना में इनका प्रतिशत निकाला जाय तो शायद नगण्य ही आये। पर जब भी इस तरह के गाने बनते हैं तो बहुत ही खूबसूरत बन पड़ते हैं। सुधी श्रोताओं को कई फिल्मी गाने याद आने लगे होंगे। असल में लिखने वाला अगर संगीतकार हो तो उसे इस बात की बेहतर समझ होती है कि गीत में कहाँ कैसा उतार-चढ़ाव है। हिन्द-युग्म के पहले संगीतबद्ध एल्बम 'पहला-सुर' में गायिका-संगीतकार और कवयित्री सुनीता यादव का गीत तू है दिल के पास एक ऐसा ही गीत था। दूसरे संगीतबद्ध सत्र में गायक-संगीतकार और कवि सुदीप यशराज के दो गीत 'बेइंतहा प्यार' और 'उड़ता परिंदा' रीलिज हुये। आज हम तीसरे संगीतबद्ध सत्र में मालविका निराजन द्वारा रचित एक गीत रीलिज कर रहे हैं जिस इन्होंने ही गाया भी है और संगीतबद्ध भी किया है। इनको आवाज़ मंच तक लाने का श्रेय रश्मि प्रभा को जाता है।

गीत के बोल -

एक नया दिन चला, ढूँढने कुछ नया
मिलेगा क्या, किसे खबर, नही फिकर, नही पता..

मैने तो चाहा आसमान ही मेरा हो, पर वो बन के सपना ही रहा
ओर जब मैं जागूँ, एक नया सवेरा हो, पर ना पाई वैसी एक सुबह
होओओ...फिर भी ना जानूँ, ये अरमान क्यूँ जागे हैं
पा लूँगा/लूँगी उनको, जिनको सपनो में जिया...

अनजानी राहें, चल पड़ी मुझे लेकर, एक सफ़र पे जानूँ ना कहाँ
मुड़ के जो देखा, जाने सब कहाँ छूटा, सपनों का मेरा वो जहाँ
अबके दिल चाहे, उनको कह दूँ अलविदा
अलबेले दिन की होगी अलबेली अदा...
चुन के जो, वो लाएगा, जानूँ मैं वो भायेगा
मिल जाएगी, मुझको कोई, जीने की फिर...मीठी वजह...



मेकिंग ऑफ़ "एक नया दिन चला"

मालविका निराजन: आज जब मेरा बेटा चार महीने का हो गया है तो यही लगता है की शायद उसके आने की आहट ने ही मुझसे ये गीत लिखवाया. मेरे गुरु श्री मधुप मुदगल भी हमेशा यही कहते हैं की किसी भी कलाकार को ये नहीं कहना चाहिए की 'मैंने ये रचना की', बल्कि ये कहना चाहिए की 'मुझसे ये रचना बन गयी'. मेरा सच यही है और ये बात मेरे दिल के बहुत करीब है. मै यही मानती हूँ की हर रचना के पीछे कारण कहीं कुछ अनदेखा, अनसुना सा ही होता है. ऐसा कुछ दिल, दिमाग में चल रहा था ये भी पता तब चलता है जब हम कुछ अचानक ही लिख लेते हैं; गा लेते हैं; कह लेते हैं; किसी भी माध्यम से.

गीत की शुरुआत तो २००८ में ही हुयी होगी जब पुनीत ने पहली बार ये धुन सुनाई होगी. आदतन वो अपनी धुनों पर कुछ शब्द बना ही लेता है. उस समय जो उसने सुनाया उसके शब्द थे.."शाम तो जाएगी, तभी सुबह आयेगी, किसी को तो पता नहीं, किसी को तो पता नहीं". हम आखिरी पंक्ति पर खूब हँसते थे क्योंकि धुन पर गाने के लिए कुछ तो होना चाहिए था और यही रोल उस पंक्ति का था:)

ये तो थी शुरुआत. पर ये हलकी-फुल्की, खुशनुमा सी धुन हमेशा मेरे आस पास रहती थी. पुनीत ने भी कई बार कहा और मुझे भी ये लगता रहा की बिना किसी कोशिश के ही इस धुन पर मेरा मन कई सारी बातें कह सकता था जो की प्रेम या श्रृंगार से जुडी नहीं थी. बस बातें थीं मेरे मन की. पहली दो पंक्ति लिख कर मैंने सोमप्रभ (मेरे पति) को सुनाई. उसे पसंद आयीं. फिर उसी जोश में मैंने ऑफिस में बैठे बैठे ही पूरा गाना लिख लिया.

फिर मन हुआ उसे रिकॉर्ड करने का. किसी ख़ास उद्देश्य से नहीं, बस ऐसे ही. मज़ा आ रहा था क्योंकि सारी चीज़ें अपनी थीं. धुन, शब्द, और अपने तरीके से गाने के लिए खुली छूट. ये बताना चाहूंगी की मैंने इस गाने को इक वोयस डेमो की तरह ही रखना चाहा इसीलिए इसके म्यूजिक tracks मिक्स्ड नहीं हैं. तो पुनीत के ही इक दोस्त (नारायणन) ने चेन्नई से इसका म्यूजिक अर्रंजेमेंट कर के भेजा और ५ अप्रैल, २००९ में हमने रिकॉर्ड किया - 'इक नया दिन चला, ढूँढने कुछ नया, मिलेगा क्या किसे खबर, नहीं फिकर, नहीं पता"

और इस गीत के जैसी ही मेरी मनःस्थिति थी क्योंकि इन सब के बीच चल रहा था इक इंतज़ार. लम्बा और संघर्षपूर्ण. आशावादी होना इक और बात है पर जब ये गीत लिख भी रही थी तो भी हमेशा ये लगता था की 'क्या कुछ ऐसी नयी-नयी सी बात होगी जो मेरे इस गीत जैसी होगी ?'..'क्या सच में कुछ ऐसा होगा जो मुझे बहुत खुश कर जायेगा?"

"चुन के वो , जो लायेगा, जानूँ मै वो भायेगा, मिल जाएगी, मुझको कोई, जीने की फिर, मीठी वजह..."

ऐसा होने वाला था. २१ अप्रैल, २००९ को ही मुझे वो वजह मिली - अपने बेटे श्रेहान के आने की पहली खबर:). उस ख़ुशी को शब्दों में व्यक्त करना तो शायद बहुत मुश्किल होगा. इक और गीत ही उस ख़ुशी के नाम करना होगा. और संयोग ऐसा है की गीत रिकॉर्ड होने के ठीक इक साल बाद, ५ अप्रैल, २०१० को ही रश्मि प्रभा ने, जो की मेरी मौसी हैं और हिन्दीयुग्म की सक्रिय सदस्य, मुझे इस गीत को प्रतियोगिता में भेजने को कहा.

शायद यह गीत अब मेरी पहचान है. मेरे जीवन, मेरे संगीत में होने वाले उतार चढ़ाव का इक सुरीला इशारा:-)

मालविका निराजन
मालविका निराजन ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायन में प्रशिक्षण लिया है। और सोनू निगम के साथ सारेगामा के स्टेज पर भी रही हैं। इससे पहले इन्होंने गायक और कत्थक उस्ताद पं॰ बिरजू महाराज और उनके विद्यार्थियों के साथ ढेरों प्रोग्रेम किये हैं। इसके अलावा पंडित बिरजू महाराज द्वारा उनके विद्यार्थियों के लिए तैयार किये गये एल्बम 'छंद काव्य' में मालविका ने एकल और युगल गाया है।
Song - Ek Naya Din Chala
Voices, Music & Lyrics - Malvika Nirajan
Graphics - Samarth Garg


Song # 05, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

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Thursday, May 6, 2010

गुदगुदाने वाले गीतों से श्रोताओं को झूमने वाले झुमरू किशोर दा का था एक संजीदा चेहरा भी



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १६

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' पर पेश है फ़िल्म 'मिली' का एक गीत। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २३२ वीं कड़ी में, १३ अक्तुबर के दिन (जो किशोर दा की पुण्य तिथि और दादामुनि अशोक कुमार की जयंती है), हमने इस फ़िल्म से "आए तुम याद मुझे" गीत सुनवाया था। आज उसी फ़िल्म से किशोर दा का गाया दूसरा गीत "बड़ी सूनी सूनी है ज़िंदगी" हम सुनवा रहे हैं। तो उसी आलेख से हम आज आपको फिर एक बार बता रहे हैं फ़िल्म 'मिली' के बारे में। फ़िल्म 'मिली' की कहानी कुछ इस तरह की थी कि मिली (जया बच्चन) एक बहुत ही हँसमुख और ज़िंदादिल लड़की है, जो अपने पिता (अशोक कुमार) के साथ एक हाउसिंग्‍ कॊम्प्लेक्स में रहती है। उसे उस कॊम्प्लेक्स के बच्चों से बहुत लगाव है और वो उन्ही के दल में भिड़ कर दिन भर सारी शैतानियाँ करती रहती हैं। याद है ना लता जी का गाया "मैने कहा फूलों से" गीत? तो साहब, ऐसे में उस बिल्डिंग में आ बसते हैं हमारे अमिताभ बच्चन साहब (किरदार का नाम मुझे याद नहीं), जो एक निहायती गम्भीर, बद-मिज़ाज नौजवान है जिसके चेहरे पर शायद ही कभी मुस्कुराहट आयी हो! किस तरह से मिली उसका दिल जीत लेती है, और उसके दिल पर क्या असर होता है जब उसे पता चलता है कि मिली को कैन्सर है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। कहानी के अंत में मिली को अपने पिता के साथ चिकित्सा के लिए अमेरिका जाते हुए दिखाया जाता है, और वहीं पर फ़िल्म समाप्त हो जाती है। एक पिता को जब पता चलता है कि उसकी एकलौती बेटी को कैन्सर है, तो उन पर क्या बीतती है, दादामुनि के सशक्त अभिनय प्रतिभा ने उस किरदार में जान डाल दी है। नैचरल ऐक्टिंग् की जब बात आती है, तो दादामुनि का नाम शुरूआती नामों में ही लिया जाता है। और इस फ़िल्म में गुरुगम्भीर अमिताभ बच्चन के चरित्र के अनुसार किशोर दा ने दो गीत ऐसे गाए हैं कि बस पूछिए मत। अपने हास्य गीतों और मैनरिज़्म्स से गुदगुदानेवाले किशोर दा जब भी ऐसे संजीदे गीत गाते थे तब उनका रूप ही बिल्कुल बदल जाता था। यकीन ही नहीं होता कि ये दोनों रूप एक ही इंसान के हैं। "बड़ी सूनी सूनी है ज़िंदगी" ना केवल इस फ़िल्म के चरित्र को जीवंत करता है, बल्कि किशोर दा के निजी ज़िंदगी में भी जो सूनापन उन्होने हमेशा महसूस किया है (उनकी माँ की मृत्यु के बाद से), उसका दर्द भी उनकी आवाज़ में उभर आया है।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - बड़ी सूनी सूनी है...
कवर गायन - बिस्वजीत नंदा




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बिस्वजीत
बिस्वजीत युग्म पर पिछले लगभग १८ महीनों से सक्रिय हैं। हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।


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खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



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Wednesday, May 5, 2010

दर्द और मुकेश के स्वरों में जैसे कोई गहरा रिश्ता था, जो हर बार सुनने वालों की आँखों से आंसू बन छलक उठता था



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १५

हिंदी फ़िल्मों में विदाई गीतों की बात करें तो सब से पहले "बाबुल की दुयाएँ लेती जा" ज़्यादातर लोगों को याद आता है। लेकिन इस विषय पर कुछ और भी बहुत ही ख़ूबसूरत गीत बने हैं और ऐसा ही एक विदाई गीत आज हम चुन कर ले आये हैं। मुकेश की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'बम्बई का बाबू' का गाना "चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाये रोते रोते"। मेरे ख़याल से यह गाना फ़िल्म संगीत का पहला लोकप्रिय विदाई गीत होना चाहिए। 'बम्बई का बाबू' १९६० की फ़िल्म थी। इससे पहले ५० के दशक में कुछ चर्चित विदाई गीत आये तो थे ज़रूर, जैसे कि १९५० में फ़िल्म 'बाबुल' में शमशाद बेग़म ने एक विदाई गीत गाया था "छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा", १९५४ में फ़िल्म 'सुबह का तारा' में लता ने गाया था "चली बाँके दुल्हन उनसे लागी लगन मोरा माइके में जी घबरावत है", और १९५७ में मशहूर फ़िल्म 'मदर इंडिया' में शमशाद बेग़म ने एक बार फिर गाया "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली"। लेकिन मुकेश के गाये इस गीत में कुछ ऐसी बात थी कि गीत सीधे लोगों के दिलों को छू गई और आज भी इस गीत को सुनते ही जैसे दिल रो पड़ता है उस बेटी के लिये जो अपने बाबुल का घर छोड़ एक नये संसार में प्रवेश करने जा रही है। "बाबुल पछताए हाथों को मल के, काहे दिया परदेस टुकड़े को दिल के", "ममता का आँचल, गुड़ियों का कँगना, छोटी बड़ी सखियाँ घर गली अँगना, छूट गया रे" जैसे बोलों ने इस गीत को और भी ज़्यादा भावुक बना दिया है। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और संगीतकार थे हमारे बर्मन दादा। 'बम्बई का बाबु' के मुख्य कलाकार थे देव आनंद और सुचित्रा सेन। युं तो इस फ़िल्म के दूसरे कई गाने भी मशहूर हुए लेकिन इस गीत को सब से ज़्यादा लोकप्रिय इसलिये कहा जा सकता है क्योंकि अमीन सायानी के बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में इस फ़िल्म के केवल इसी गीत को स्थान मिला था और वह भी पाँचवाँ। फ़िल्म की कहानी के मुताबिक यह गीत फ़िल्म में ख़ास जगह रखती है। सीन ऐसा है कि सुचित्रा सेन की शादी हो जाती है और वो अपने बाबुल का घर छोड़ विदा होती है। यह बात इस गीत को और भी ज़्यादा ग़मगीन बना देती है कि सुचित्रा सेन की शादी फ़िल्म के नायक देव अनंद से नहीं बल्कि किसी और से हो रही होती है। इस गीत में बर्मन दादा ने 'कोरस' का इतना बेहतरीन इस्तेमाल किया है कि 'इन्टरल्युड म्युज़िक' केवल शहनाई और कोरल सिंगिं‌ग् से ही बनाया गया है।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - चल री सजनी...
कवर गायन - रफीक शेख




ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं


रफ़ीक़ शेख
रफ़ीक़ शेख आवाज़ टीम की ओर से पिछले वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गायक-संगीतकार घोषित किये जा चुके हैं। रफ़ीक ने दूसरे सत्र के संगीत मुकाबले में अपने कुल 3 गीत (सच बोलता है, आखिरी बार, जो शजर सूख गया है) दिये और तीनों के तीनों गीतों ने शीर्ष 10 में स्थान बनाया। रफ़ीक ने पिछले वर्ष अहमद फ़राज़ के मृत्यु के बाद श्रद्धाँजलि स्वरूप उनकी दो ग़ज़लें (तेरी बातें, ज़िदंगी से यही गिला है मुझे) को संगीतबद्ध किया था। बम्पर हिट एल्बम 'काव्यनाद' में इनके 2 कम्पोजिशन संकलित हैं।


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात... फ़ैज़ साहब के बेमिसाल बोल और इक़बाल बानो की मदभरी आवाज़



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८२

बात तो दर-असल पुरानी हो चुकी है, फिर भी अगर ऐसा मुद्दा हो, ऐसी घटना हो जिससे खुशी मिले तो फिर क्यों न दोस्तों के बीच उसका ज़िक्र किया जाए। है ना? तो हुआ यह है कि आज से कुछ ३३ दिन पहले यानि कि २ अप्रैल के दिन महफ़िल-ए-गज़ल की सालगिरह थी। अब हमारी महफ़िल कोई माशूका या फिर कोई छोटा बच्चा तो नहीं कि जो शिकायतें करें ,इसलिए हमें इस दिन का इल्म हीं न हुआ। हाँ, गलती हमारी है और हम अपनी इस खता से मुकरते भी नहीं, लेकिन आप लोग किधर थे... आप तमाम चाहने वालों का तो यह फ़र्ज़ बनता था कि हमें समय पर याद दिला दें। अब भले हीं हमारी यह महफ़िल नाज़ न करे या फिर तेवर न दिखाए, लेकिन इसकी आँखों से यह ज़ाहिर है कि इसे हल्का हीं सही, लेकिन बुरा तो ज़रूर हीं लगा है। क्या?..... क्या कहा? नहीं लगा... ऐसा क्यों... ऐसा कैसे.... ओहो... यह वज़ह है.. सही है भाई.. जब महफ़िल में चचा ग़ालिब विराजमान हों और वो भी पूरे के पूरे ढाई महिने के लिए तो फिर कौन नाराज़ होगा.. नाराज़ होना तो दूर की बात है.. किसी को अपनी खबर हो तो ना वो कुछ और सोचे। यही हाल हमारी महफ़िल का भी था... यानि कि अनजाने में हीं हमने महफ़िल की नाराज़गी दूर कर दी है। अगर फिर भी कुछ कसर बाकी रह गई हो, तो आज की महफ़िल में हम उसका निपटारा कर देंगे। अब चूँकि चचा ग़ालिब को हम वापस नहीं बुला सकते, लेकिन पिछली सदी (बीसवीं सदी) के ग़ालिब, जिन्हें ग़ालिब का एकमात्र उत्तराधिकारी (हमने इस बात का ज़िक्र पिछली कुछ महफ़िलों में भी किया था) कहा जाता है, को निमंत्रण देकर हम उस कमी को पूरा तो कर हीं सकते हैं। तो लीजिए आज की महफ़िल में हाज़िर हैं दो बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किए जा चुके "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" साहब।

महफ़िल में फ़ैज़ का एहतराम करने की जिम्मेदारी हमने मशहूर लेखक "विश्वनाथ त्रिपाठी" जी को दी है। तो ये रहे त्रिपाठी जी के शब्द (साभार: डॉ. शशिकांत):

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी लाश को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था। फ़ैज़ साहब से मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फ़ैज़ साहब ने कहा, "इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है।" उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ।

फ़ैज़ साहब के बारे में ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस्तान टाइम्स" के संपादक थे। गांधीजी की शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था मेरी चले तो में उसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटूं। गांधीजी के व्यक्तित्व का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा। फ़ैज़ साहब ने लिखा था- "अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होनेवाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं लेकिन जिस मिललत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा है और जिस मुल्क़ से अपने मुल्क़ की लड़ाई हो रही है, उस पर शहीद होनेवाले गांधीजी अकेले थे।" पाकिस्तान बनने के बाद फ़ैज़ साहब जब भी हिंदुस्तान आते थे तो नेहरू जी उन्हें अपने यहां बुलाते थे और उनकी कविताएं सुनते थे। विजय लक्ष्मी पंडित और इंदिरा जी भी सुनती थीं। दरअसल नेहरूजी कवियों और शायरों की क़द्र करते थे। नेहरू जी ने लिखा था- "ज़िन्दगी उतनी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए जितनी कविता।"

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू में प्रगतिशील कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फ़िराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वे सबसे लोकप्रिय थे। उन्हें नोबेल प्राइज को छोड़कर साहित्य जगत का बड़े से बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला। फ़ैज़ साहब मूलत: अंगेजी के अध्यापक थे। पंजाबी थे। लेकिन उन कवियों में थे जिन्होंने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। उनके एक काव्य संकलन का नाम है- ‘ज़िन्दांनामा’ इसका मतलब होता है कारागार। अयूब शाही के ज़माने में उन्होंने सीधी विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जानेवाले कई गीत लिखे जो आज भी प्रसिद्ध हैं। मसलन- "एक मुल्क नहीं, दो मुल्क नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।"

फ़ैज़ एक अच्छे अर्थों में प्रेम और जागरण के कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपभोग करते हैं जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं। फ़ैज़ साहब ने कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं जैसे उनकी एक प्ररंभिक कविता "रकीब से" है। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि अपनी प्रमिका के रूप से मैं कितना प्रभावित हूँ ये मेरा रकीब जानता है। लेखकों के लिए उन्होंने लिखा- "माता-ए-लौह कलम छिन गई तो क्या ग़म है कि खून -ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें।" दरअसल फ़ैज़ में जो क्रांति है उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की भी कविताएं हैं और सरस कविताएं हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंत्र्य की कल्पना का जो उल्लास होता है, वो सब मौजूद हैं।

फ़ैज़ की कविताओं में संगीतात्मकता, गेयता बहुत है। मैं समझता हूं कि जिगर मुरादाबादी, जो मूलत: रीतिकालीन भावबोध के कवि थे, में आशिकी का जितना तत्व है, बहुत कुछ वैसा ही तत्व अगर किसी प्रगतिशील कवि में है तो फ़ैज़ में है। फ़ैज़ की दो और ख़ासियतें हैं- एक, व्यंग्य वे कम करते हैं लेकिन जब करते हैं तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे- "शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की।" और दूसरी बात, फ़ैज़ रूमान के कवि हैं। अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करनेवाले कवि हैं लकिन क्रांति तो सफल नहीं हुई। ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई ज़माने को गालियाँ देते हैं। फ़ैज़ वैसे नहीं हैं। फ़ैज़ में राजनीतिक असफलता से भी कहीं ज़्यादा अपनी कविता को मार्मिकता प्रदान की है। उनका एक शेर है- "करो कुज जबी पे सर-ए-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया।" अर्थात कफ़न में लिपटे हुए मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो, इसलिए कि मेरी हत्या करनेवालों का यह भरम नहीं होना चाहिए कि मरने के बाद मुझ में प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है।

सो, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ केवल रूप, सौदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं बल्कि असफलताओ और वेदना के क्षणों में भी साथ खड़े रहनेवाले पंक्तियों के कवि हैं।

फ़ैज़ साहब महफ़िल में आसन ले चुके हैं, तो क्यों ना उनसे उनकी यह बेहद मक़बूल नज़्म सुन ली जाए:

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले


शायद आपको(फ़ैज़ साहब को भी.. हो सकता है कि वो भूल गए हों..आखिर इनकी उम्र भी तो हो चली है)पता न हो कि फ़ैज़ साहब की महत्ता बस हिन्दुस्तान और पाकिस्तान तक हीं सीमित न थी, बल्कि इनकी रचनाओं का विश्व की दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया था। रूस में हिंदुस्तानी प्रायद्वीप के देशों के साहित्य और संस्कृति की रूसी प्रसारक और प्रचारक सुश्री मरियम सलगानिक, जिन्हें हाल में हीं "पद्म-श्री" से सम्मानित किया गया है, ने फ़ैज़ की कई रचनाओं का रूसी में अनुवाद किया है। रूस में फ़ैज़ की जितनी भी किताबें छपीं है, सभी में उनका बड़ा सहयोग रहा है। सोवियत लेखक संघ में काम करते हुए मरियम सलगानिक ने बरीस स्लूत्स्की ओर मिखायल इसाकोव्स्की जैसे बड़े रूसी कवियों को फ़ैज़ की रचनाओं के अनुवाद के काम की ओर आकर्षित भी किया है।

यह तो थी फ़ैज़ के बारे में थोड़ी-सी जानकारी। अब हम आज की नज़्म की ओर रुख करते हैं। फ़ैज़ साहब के सामने उनकी किसी नज़्म को गाना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और आज यह काम फ़हद हुसैन जी करने जा रही हैं। फ़हद जी! हम आपके बारे में जानना चाहेंगे, अंतर्जाल पे कुछ भी नहीं होने की वज़ह से हम आपसे पूरी तरह से नावाकिफ़ हैं। उम्मीद करते हैं कि आप हमें निराश नहीं करेंगी। इक़बाल बानो जी करने जा रही हैं। वैसे इक़बाल बानो इस काम में खासी अभ्यस्त हैं क्योंकि फ़ैज़ साहब की आधी से अधिक गज़लों और नज़्मों को इन्होंने हीं अपनी आवाज़ दी है। हमें जहाँ तक याद है.. फ़ैज़ जी हमारी महफ़िल में ३ या ४ बार पहले भी आ चुके हैं और उनमें से २ बार उन्हें इक़बाल जी का हीं सान्निध्य मिला था। यह तो हुई महफ़िल की बात.... हमनें तो इक़बाल जी को तब भी याद किया था जब जहां-ए-फ़ानी से इनकी रुख्सती हुई थी। वह घटना हम कभी भूल नहीं पाएँगे। उस श्रद्धांजलि के बारे में पढने के लिए यहाँ जाएँ। मन दु:खी हो गया ना.... क्या कीजिएगा.. इक़बाल जी थी हीं ऐसी शख्सियत। अब हमें वो वापस तो नहीं मिल सकती, लेकिन उनकी आवाज़ में यह नज़्म सुनकर हम अपना मन हल्का ज़रूर कर सकते हैं।:

दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर् ____ पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "शगूफ़े" और शेर कुछ यूँ था-

फूल क्या, शगूफ़े क्या, चाँद क्या, सितारे क्या,
सब रक़ीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं।

बहुत दिनों के बाद सीमा जी महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुईं। आपको आपके मामूल (रूटीन) पर वापस देखकर बहुत खुशी हुई। ये रहे आपके शेर:

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं (फ़राज़)

हँसते हैं मेरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है (साग़र सिद्दीकी)

शरद जी, आपने तो हरेक आशिक के दिल की बात कह दी। किसी सुंदर मुखरे को देखने को बाद आशिक का यही हाल होता है:

शगूफ़ों को अभी से देख कर अन्दाज़ होता है
जवानी इन पे आयेगी तो आशिक हर कोई होगा।

शन्नो जी, मौसम और शगूफ़ों के बीच ऐसी खींचातानी। वाह! क्या ख्यालात हैं:

शगूफों की तो भरमार थी गुलशन में
पर मौसम के नखरों से न खिल पाए.

मंजु जी, सेहरा और चेहरा से तो हम बखूबी वाकिफ़ थे, लेकिन इनका एक-साथ इस तरह इस्तेमाल कभी देखा न था। मज़ा आ गया:

दिल ने शगूफों से बनाया अनमोल सेहरा ,
अरे !किस खुशनसीब का सजेगा चेहरा .

नीलम जी, अंतर्जाल (इंटरनेट) पर हर शब्द का अर्थ मौजूद है। वैसे भी पहले के शेरों को देखकर आप मतलब जान सकती थीं। फिर भी मैं बताए देता हूँ। शगूफ़े = कलियाँ ... आपसे शेर की उम्मीद थी... खैर अगली बार....

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, May 4, 2010

मल्टी स्टारर फिल्मों में सुनाई दिए कुछ अनूठे यादगार मल्टी सिंगर गीत भी



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १४

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' पर हम एक ऐसा गीत लेकर आए हैं जिसे ऒरिजिनली चार महान गायकों ने गाया था। इतना ही नहीं, इन चारों गायकों का एक साथ में गाया हुआ यह एकमात्र गीत भी है। इसीलिए यह गीत फ़िल्म संगीत के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय गीत बन जाता है। जी हाँ, फ़िल्म 'अमर अकबर ऐंथनी' का वही मशहूर गीत "हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें", जिसे आवाज़ दी थी लता मंगेशकर, किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश ने। फ़िल्म के परदे पर लता जी ने तीनों नायिकाओं का पार्श्वगायन किया था - परवीन बाबी, नीतू सिंह और शबाना आज़मी; किशोर दा बनें अमिताभ बच्चन की आवाज़; रफ़ी साहब ने प्लेबैक दिया ऋषी कपूर को तथा विनोद खन्ना के लिए गाया मुकेश ने। आज इस गीत का जो रिवाइव्ड वर्ज़न हम सुनेंगे उसे भी चार आवाज़ों ने गाए हैं, जिनके बारे में आपको अभी थोड़ी देर में पता चल जाएगा। इस गीत को लिखा है आनंद बक्शी और संगीत दिया लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने। इसी फ़िल्म में एक अन्य गीत है किशोर दा और अमिताभ साहब का गाया हुआ "माइ नेम इज़ ऐंथनी गोनज़ल्वेस"। तो आज प्यारेलाल जी से जान लेते हैं कि आख़िर ये कौन शख़्स हैं ऐंथनी गोनज़ल्वेस! पेश है 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम से एक अंश। प्यारेलाल जी से बात कर रहे हैं विविध भारती के कमल शर्मा:

हम लोग १९५७ में जा रहे थे विएना। सब कुछ फ़िक्स हो गया था। मतलब हम लोग यहाँ से शिफ़्ट करेंगे वहाँ, मतलब अपना ग्रीन कार्ड ले लेंगे, वहाँ जाएँगे। मैंने पिताजी से कहा कि मैं वहाँ जाऊँगा, क्योंकि मुझे बनना था यहूदी मेनन। तो मैंने बहुत प्रैक्टिस की वायलिन की। अभी अभी जब मैं गया था तो बहुत मज़ा आया, सब ने कहा 'इतना प्ररफ़ेक्ट पोज़िशन', इसका श्रेय जाता है मिस्टर ऐंथनी गोनज़ल्वेस को। उन्होने सीखाया मुझको कि कैसे होल्ड करना है वायलिन।

प्र: तो आपने जो एक गाना है 'अमर अकबर ऐंथनी' में, क्या आप ने उनको डेडिकेट किया?

इसका आप सुनिए, जब यह पिक्चर साइन हो गई, तो पिक्चर का नाम था 'अमर अकबर ऐंथनी, तो लक्ष्मी बोले कि 'प्यारे, इसमें गुरु का नाम आ गया है'। तो उनका नाम था पहले, 'पिक्चर' में, ऐंथनी फ़रनंडेज़। तो वो चेंज करके ऐंथनी गोनज़ल्वेस हमने करवाया और वह गाना भी बनाया, और हमने ख़ास कहा बच्चन साहब को कि भई मेरे गुरु का है, ऐक्टिंग् ठीक से करना, ऐसे ही मज़ाक में कहा। 'he was very happy' और कभी मैं बच्चन साहब से मिलवाऊँगा भी उनको। अभी वो हैं, गोवा में रहते हैं, 'now he is, I think, 81'.

प्र: अभी भी मुलाक़ात होती है बीच में?

हमेशा। मैं कोई भी काम करता हूँ तो हमेशा उनसे पूछता हूँ, 'and he is very soft-spoken', बहुत अच्छे, और अभी वो ८१ वर्ष के हैं, लेकिन एक बाल भी सफ़ेद नहीं है।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - हमको तुमसे हो गया है प्यार...
कवर गायन - पारसमणी आचार्य/प्रदीप सोमसुन्दरन/आज़म खान/एन वी कृष्णन




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डाक्टर पारसमणी आचार्य
मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं

प्रदीप सोमसुन्दरन
जो लोग टीवी पर म्यूजिकल शो देखने के शौक़ीन हैं, उन्होंने भारतीय टेलीविजन पर पहले सांगैतिक आयोजन 'मेरी आवाज़ सुनो' को ज़रूर देखा होगा। प्रदीप सोमसुंदरन को इसी कार्यक्रम में सन 1996 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक चुना गया था और लता मंगेशकर सम्मान से सम्मानित किया गया था। 26 जनवरी 1967 को नेल्लूवया, नेल्लूर, केरल में जन्मे प्रदीप पेशे से इलेक्ट्रानिक के प्राध्यापक हैं। त्रिचुर की श्रीमती गीता रानी से 12 वर्ष की अवस्था में ही प्रदीप ने कर्नाटक-संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दी थी और 16 वर्ष की अवस्था में स्टेज-परफॉर्मेन्स देने लेगे थे। प्रदीप कनार्टक शास्त्रीय गायन के अतिरिक्त हिन्दी, मलयालम, तमिल, तेलगू, अंग्रेज़ी और जापानी आदि भाषाओं में ग़ज़लें और भजन गाते हैं। इन्होंने कई मलयालम फिल्मी गीतों में अपनी आवाज़ दी है। और गैर मलयालम फिल्मी तथा गैर हिन्दी फिल्मी गीतों में ये काफी चर्चित रहे हैं।

आज़म खान
रफ़ी साहब, किशोर कुमार, येसुदास, हरिहरन, सुरेश वाडेकर, सोनू निगम और उदित नारायण इनके पसंदीदा गायक हैं. आज़म फर्मवेयर इंजिनियर है अमेरिका में और गायन का विशेष शौक रखते हैं. इन्टरनेट पर बहुत से संगीत मंचों पर इनकी महफिलें सजती रहती हैं


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

दरिया उबालने को आ पहूँचे हैं अमित त्रिवेदी और शेल्ली.... फिल्म है "एडमिशन्स ओपन"



ताज़ा सुर ताल १७/२०१०

सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' की एक और कड़ी के साथ मैं और विश्व दीपक तन्हा जी हाज़िर हैं। विश्व दीपक जी, आज आप हमारे श्रोताओं को किस नए फ़िल्म के गानों से रु-ब-रु करवा रहे हैं।

विश्व दीपक - आज हमने एक ऐसी फ़िल्म चुनी है जो शायद फ़ॊरमुला फ़िल्मों की ज़रूरतें पूरी नहीं करती। आजकल बहुत सारे निर्माता-निर्देशक नए नए विषयों पर फ़िल्में बना रहे हैं। 'लारजर दैन लाइफ़ इमेज' कहानियों से बाहर निकल कर वास्तविक ज़िंदगी से जुड़ी विषयों पर कई फ़िल्में पिछले कुछ सालों से बन रही है, जिन्हे एक बहुत सराहनीय प्रयास कहा जा सकता है। आज हम ज़िक्र कर रहे हैं आने वाली फ़िल्म 'एडमिशन्स ओपन' की।

सुजॊय - मैंने इस फ़िल्म के बारे में कुछ कुछ सुना है और प्रोमोज़ भी देखे हैं। ऐसा लगता है कि इस फ़िल्म के माध्यम से यही संदेश दिया जा रहा है कि जिस विषय में दिलचस्पी हो, जिस क्षेत्र के लिए ईश्वर ने प्रतिभा प्रदान की हो, आदमी को चाहिए कि उसी तरफ़ प्रयास करें। आजकल के माता पिता जिस तरह से अपने बच्चों को ज़बरदस्ती ईंजिनीयरिंग और डाक्टरी की तरफ़ धकेल देते हैं, इससे आगे चलकर ज़िंदगी में पैसे तो कमा लेते हैं, लेकिन दिल में कहीं एक उदासी छाई रहती है, 'जॊब सैटिस्फ़ैक्शन' जिसे हम कहते हैं, वह नहीं मिल पाता।

विश्व दीपक - और कई बार तो हालात इतने गम्भीर हो जाते हैं कि माता पिता की उम्मीदों पर खरा ना उतरने पर बच्चे मानसिक संतुलन खो बठते हैं और ख़ुदकुशी जैसे भयानक क़दम भी उठा लेते हैं। तो 'एडमिशन्स ओपन' फ़िल्म का पहला गीत सुनवाने से पहले हम आज इस स्तंभ के माध्यम से हर माता-पिता से यही अनुरोध करते हैं कि आप अपने बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। उन पर ज़्यादा दबाव ना डालें जिससे कि वो कोई ग़लत क़दम उठा लें और आपको ज़िंदगी भर पछताना पड़े। ख़ैर, आइए सुनते हैं 'एडमिशन्स ओपन' फ़िल्म का पहला गीत।

गीत: मेरी रूह रूह में तू ही बसे


सुजॊय - यह गीत था नरेश अय्यर और अदिति सिंह शर्मा की आवाज़ों में। पिछले साल संगीतकार अमित त्रिवेदी ने 'देव-डी' के संगीत के माध्यम से अपने नाम का डंका बजाया था। 'इमोशनल अत्याचार' और दूसरे तमाम गीत ख़ूब पसंद किए गए थे। अब देखना है कि 'एडमिशन्स ओपन' में भी क्या वो वही कमाल दिखा पाते हैं! इस गीत में नरेश अय्यर ने अमित की मेलोडियस धुन पर अच्छी गायकी का नमूना पेश किया है, और पार्श्व में अदिति की आवाज़ सुनाई देती है। गिटार और स्ट्रिंग्स का काफ़ी इस्तेमाल है। एक बार सुन कर तो यह गीत दिल में कुछ खास जगह नहीं बना पाता, लेकिन इस गीत की जिस तरह क्वालिटी है, उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि दो-चार बार सुन लेने पर यह गीत लोगों को ज़रूर पसंद आने लगेगा।

विश्व दीपक - सुजॊय, आपने फ़िल्म के संगीतकार का ज़िक्र तो कर दिया, अब मैं यह बता दूँ कि फ़िल्म के गीतों को लिखा है शेल्ली ने। ये वही शेल्ली हैं, जिन्होंने "देव डी" में भी कुछ गीत लिखे थे, वैसे उस फिल्म में ज्यादातर गीत अमिताभ भट्टाचार्य के थे। वैसे अगर आप ध्यान दें तो यह पाएँगे कि भले हीं इस फिल्म में अमिताभ ने गीत न लिखे हों, लेकिन उन्होंने कुछ गानों में अपनी आवाज़ें ज़रूर दी हैं। वे गाने कौन से हैं, इस बात का पता जल्द हीं चल जाएगा। इस फ़िल्म में बहुत से कलाकार हैं, जिनमें कुछ प्रमुख नाम हैं अनुपम खेर, आशिष विद्यार्थी, अंकुर खन्ना, प्रमोद माउथो और रति अग्निहोत्री। निर्माता हैं मोहम्मद इसरार अंसारी और निर्देशक के. डी. सत्यम। अब दूसरे गीत की बारी। इसमें भी गिटार और स्ट्रिंग्स की ध्वनियाँ विशेष रूप से सुनाई देती हैं। यह है "म्युज़िक ही हाए... मन को महकाए"। गीत गाया है कविता सेठ और कविश सेठ ने।

सुजॊय - गीत की ख़ासियत यह है कि यह एक माँ और बेटे का वार्तालाप है। इसमें बेटा संगीत में अपना रुझान ज़ाहिर करता है जब कि माँ पढ़ाई और शिक्षा की ज़रूरत पर बल देती है। यानी कि बेटा म्युज़िक में जाना चाहता है जब कि माँ उसे पढ़ाई में ध्यान देने की सलाह देती है। गीतकार शेल्ली ने अच्छी तरह से इस वार्तालाप रूपी गीत को लिखा है और अमित त्रिवेदी ने भी अच्छी धुन बनाई है। बड़ी बात यह है कि कविता और कविश वास्तव में माँ-बेटे हैं।

विश्व दीपक - जी हाँ.. और यही कारण है कि इस गाने में इनकी भावनाएँ खुलकर नज़र आती हैं। जब कविता कहती हैं कि "पढ इतना कि माँ नाज़ से सर को उठाए" तो सच में लगता है कि कविता कविश को पढने के लिए कह रही हों। वैसे मेरे हिसाब से यह गाना कविता की प्रतिभा के सामने थोड़ा कम पड़ जाता है। हमें उनसे ढेर सारी उम्मीदें है। अहा! बातों-बातों में तो हम गाना सुनना भूल हीं गए।

गीत: म्युज़िक ही हाये मन को महकाए


विश्व दीपक - अमित की सब बड़ी खासियत यह है कि उनकी धुनों में दूसरे संगीतकारों की छाया दिखाई नहीं देती। उन्होने बहुत ही कम समय मे अपना एक अलग स्टाइल बना लिया है। इस फ़िल्म के गीतों में भी उनका वही ख़ास अंदाज़ सुनने को मिलता है जो 'देव-डी' में सुनाई दिया था। अगला जो गीत हम सुनाने जा रहे हैं उसे सुन कर आपको इस बात का अंदाज़ा हो जाएगा। यह गीत है श्रुति पाठक का गाया "रोशनी"।

सुजॊय - इस गीत का ओकेस्ट्रेशन में काफ़ी दमदार बीट्स का इस्तेमाल किया गया है और सैक्सोफ़ोन के पीस भी सुनाई देते हैं। अंतिम अंतरे से पहले की इंटरल्युड संगीत में सितार के सुर भी सुनने को मिलते हैं। इस गीत का पार्श्व संगीत को सुनते हुए आपको 'देव-डी' की श्रुति की ही आवाज़ में "पायलिया" गीत की याद आ सकती है। कुल मिलाकर एक अच्छा गीत है। इस गीत के साथ अमित-शेल्ली-श्रुति की टीम वापस लौटी है।

विश्व दीपक - वैसे सुजॊय, क्या आपको यह पता है कि श्रुति को २००८ में "फैशन" के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगर की केटेगरी में नामांकित भी किया गया था। अलग बात है कि यह पुरस्कार ४ बार रास्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकीं श्रेया घोषाल की झोली में गया। अब श्रेया से हारना भी तो एक उपलब्धि हीं है।

गीत: अरमानों की रोशनी


सुजॊय - अब जिस गीत की बारी है वह एक पेप्पी, जोशीला, थिरकता हुआ आशावादी गीत है, जिसे आज के युवाओं का ऐंथम कह सकते हैं। "आसमाँ के पार चलो पार चलो यार" गीत है आज के युवाओं के जो ज़िंदगी में कुछ बड़ा कर दिखाने के सपने देखते हैं। पूरे गीत में उसी जोश-ए-जवानी की बातें कही गई है। इस तरह के गानें पहले भी कई बनें हैं, जैसे कि 'जो जीता वही सिकंदर' फ़िल्म में था "जवाँ हो यारों ये तुमको हुआ क्या"।

विश्व दीपक - मुझे एक गीत याद आ रहा है, पता नहीं लोगों ने ज़्यादा इसे सुना होगा या नहीं, हृतिक रोशन की एक फ़िल्म आई थी 'आप मुझे अच्छे लगने लगे', जिसमें सोनू निगम ने गाया था "कुछ हम में ऐसी बातें हैं जो सब में है कहाँ, छू लेंगे आसमाँ"।

सुजॊय - "आसमाँ के पार चलो" गीत में बहुत सारी आवाज़ें शामिल हैं, जैसे कि रमण महादेवन(जिन्होंने "तारे जमीन पर" में "खोलो खोलो दरवाजे" गाया था), शिल्पा राव, जॊय बरुआ, अमिताभ भट्टाचार्य और तोची रैना(जिन्होंने "देव डी" का "परदेशी" गाया था)। आइए सुनते हैं यह गीत जो आपको जोश से भर देगा और एक 'पॊज़िटिव फ़ीलिंग्‍' का संचार कर देगा आप के नस नस में।

गीत: आसमाँ के पार चलो


विश्व दीपक - और अब फ़िल्म का अंतिम गीत। इस गीत(दरिया उबालें) को शोन पिंटो ने गाया है। मुझे इस गीत के बोल खासे मज़ेदार लगे... और इसके लिए मैं शैल्ली को खास तौर पर बधाई देना चाहूँगा। और वैसे भी यह ऐसा गाना है जिसमें बोलों की विशेष आवश्यकता है क्योंकि अगर बोल न होंगे तो सुनने वालों में जोश कैसे पैदा किया जाएगा। शैल्ली ने "दरिया उबालें" शब्द-युग्म के रूप में कविता-प्रेमियों को एक नया बिंब दिया है, जो मन और कान.... दोनों को भा जाता है।

सुजॊय - विश्व दीपक जी, बोल के बारे में तो मैं कुछ नहीं कहूँगा, लेकिन हाँ संगीत में नयापन ज़रूर है। वैसे अगर आप ध्यान से सुनें तो आपको इसमें "देव-डी" के "इमोशनल अत्याचार... रोक वर्शन" का थोड़ा असर ज़रूर दिखेगा। शोन की आवाज़ कुछ हद तक बोनी चक्रवर्ती से मिलती जुलती भी है। चूँकि इस गाने से पहले मैंने शोन को सुना नहीं है, इसलिए इनके बारे में कुछ खास जानकारी हासिल नहीं कर पाया हूँ। इसलिए अच्छा होगा कि हम सीधे-सीधे गाने की ओर रुख कर लें। तो यह रहा शोन पिंटो की आवाज़ में "दरिया उबाले":

गीत: दरिया उबाले


"ऐडमिशन्स ओपन" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***

विश्व दीपक - जैसी अमित त्रिवेदी से उम्मीदें रहती है, मेरे हिसाब से अमित इस फिल्म में उतने कामयाब नहीं हो पाएँ हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता हैं कि 'एडमिशन्स ओपन' का गीत-संगीत पक्ष बहुत ज़्यादा मज़बूत नहीं है, लेकिन हाँ इनकी धुनों में ताज़गी है जो इन्हे आगे और भी फ़िल्में दिलवाएँगी। नई पीढी के संगीतकारों में मुझे बस अमित हीं एक ऐसे दिखते हैं(और कुछ हद तक स्नेहा खनवलकर, जिन्होंने "ओए लकी लकी ओए" और "एल एस डी" में संगीत दिया था), जो रहमान की तरह प्रयोगधर्मी हैं और अपने प्रयोगों में कुछ न कुछ हद तक सफल भी हो रहे हैं।

सुजॊय - मुझे भी ऐसा लगता है कि यह एल्बम ठीक ठाक है, फ़िल्म की कहानी और प्लाट ही कुछ ऐसी है कि इसके संगीत से बहुत ज़्यादा उम्मीद करना उचित नहीं। अमित त्रिवेदी के संगीत में कई जगहों पर उनके 'देव-डी' के संगीत का प्रभाव नज़र आया, लेकिन एकरसता नहीं आई है। अमित त्रिवेदी और 'ऐडमिशन्स ओपन' की पूरी टीम को हम अपनी शुभकामनाएँ देते हैं, और आज की यह संगीत समीक्षा यहीं समाप्त करते हैं।

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ४९- अमित त्रिवेदी को इस साल फ़िल्मफ़ेयर के अंतरगत दो पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, बताइए ये दो पुरस्कार कौन कौन से हैं?

TST ट्रिविया # ५०- "म्युज़िक ही हाये मन को महकाए" गीत में माँ बेटे का वार्तालाप है। कुछ साल पहले माँ बेटे के सम्पर्क को लेकर एक गीत बना था जिसमें एक आवाज़ ए. आर. रहमान की थी। गीत बताएँ।

TST ट्रिविया # ५१- आजकल के युवाओं के मनोभाव को लेकर यह फ़िल्म है 'एडमिशन्स ओपन'। कुछ कुछ इसी तरह के भाव पर हाल ही में एक फ़िल्म आई थी, जिसमें उसी गायिका ने एक शानदार गीत गाया था जिन्होने 'एडमिशन्स ओपन' में भी एक गीत गाया है। और उन्हे उस गीत के लिए पुरस्कृत भी किया जा चुका है। बताइए हम किस गायिका और किस फ़िल्म की बात कर रहे हैं।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. फ़िल्म 'मीनाक्षी - ए टेल ऒफ़ थ्री सिटीज़' में "यह रिश्ता"।
२. फ़िल्म 'बीवी नंबर वन' में "चुनरी चुनरी"।
३. फ़िल्म 'ढाई अक्षर प्रेम के' का गीत "दो लफ़्ज़ों में लिख दी मैंने", बाबुल सुप्रियो, अनुराधा पौडवाल।

सीमा जी, आपका पहला जवाब पूरी तरह से सही है, लेकिन तीसरे जवाब में आपने फिल्म का नाम गलत लिखा है, इसलिए आधे हीं नंबर मिलेंगे। वैसे, आपको नंबर की क्या परवाह.. आप यूँ हीं शीर्ष पर विराजमान हैं :)

Monday, May 3, 2010

मादक गीतों में जब घुलती थी आशा की नशीली आवाज़ तो रवानगी कुछ और ही होती थी



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १३

क्योंकि आज रिवाइवल हो रहा है एक ऐसे गीत का जो उपज है आशा भोसले, ओ.पी. नय्यर और मजरूह सुल्तानपुरी के तिकड़ी की, तो यह गीत सुनवाने से पहले हो जाए कुछ बातें नय्यर साहब से जुड़ी हुई! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नंबर ३२४ में नय्यर साहब से की गई विविध भारती टीम के मुलाक़ात का अंश हमने प्रस्तुत किया था। आज उसी का दोहराव...

अहमद वसी: वक़्त चलता हुआ, चलता हुआ, कभी ना कभी आपको इस उमर पे लाता होगा जहाँ यह गुज़रा हुआ ज़माना जो है, ये गरदिशें जो हैं, ये अक्सर परछाइयाँ बन के चलती रहती हैं। तो क्या आप समझते हैं कि जो वक़्त गुज़रा वो बड़ा सुनहरा वक़्त था?

ओ. पी. नय्यर: वसी साहब, एक तो मैंने आप से अर्ज़ की कि मेरी ज़िंदगी का 'aim and inspiration have been an woman'. अगर उसके अंदर ७०% स्वीट मिली है तो बाक़ी के ३०% अगर मिर्ची भी लगी है तो ३०% मिर्ची में क्यों चिल्लाते हो बेटा, 'you have enjoyed your life, I have loved you, what else do you want'

यूनुस ख़ान: नय्यर साहब, जब आपकी युवावस्था के दिन थे, जब आप कुछ करना चाह रहे थे, तो आपके अंदर का एक अकेलापन ज़रूर रहा होगा आपकी जवानी के दिनों में।

नय्यर: मैं बार बार कई दफ़ा बता चुका हूँ कि मैं सड़कों पे अकेला रोया करता था 'alone in the nights and for no reason'। एक दफ़ा तो हमको मार पड़ी, मैंने बोला हम आपके बेटे ही नहीं हैं, मेरे माँ बाप तो कोई और हैं। बहुत पिटाई हुई, 'But they could not understand the loneliness in me'। हमने धोखा खाया तो पुरुषों से खाया है, औरतों ने धोखा नही दिया है। मेरी ज़िंदगी में कई औरतें रहीं जिनके साथ बड़ा मेरा दिल खोल के बात होती थी, और वो 'this was about when I was 19 years old'। लाहोर में। मैंने उसको २१.५ बरस तक छोड़ा। बड़े हसीन दिन थे वो, क्योंकि एक तो मुझे लाहोर शहर पसंद था, और मेरी जो 'romantic life' शुरु हुई वो लाहोर से हुई।

कमल शर्मा: आपकी जो शादी थी वो अरेन्ज्ड थी या...

नय्यर: 'that was a love marriage'।

यूनुस: नय्यर साहब, बात लाहोर की चल रही थी, आप ने कहा आपकी 'romantic life' वहाँ से शुरु हुई, किस तरह से आप मिलते थे और किस तरह से अपनी बातें करते थे?

नय्यर: यूनुस साहब, पब्लिक में थोड़े मिलेंगे! हम तो कोना ढ़ूंढते थे कि अलग जगह बैठ के बातें करने का मौका मिले। या उसी लड़की के घर ही चले जाते थे।

यूनुस: आप ने कभी किसी को प्रेम पत्र लिखा?

नय्यर: कमाल है कि मेरे पास चिट्ठियाँ रहीं, पर मैं चिट्ठियाँ लिखने के लिए 'I feel bored'. जो कुछ कहना था अपने ज़बान से कह दिया जी।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा...
कवर गायन - कुहू गुप्ता




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कुहू गुप्ता
कुहू गुप्ता पेशे से पुणे में कार्यरत एक सॉफ्टवेर इंजिनियर हैं लेकिन इनका संगीत के साथ लगाव बचपन से ही रहा है. कहा जा सकता है कि इन्हें भगवान ने एक मधुर आवाज़ से नवांजा है और इनकी कोशिश यही है कि अपनी गायकी को हर दिन बेहतर बनाती जाएँ. इन्होने हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत कि शिक्षा ११ साल की उम्र से शुरू की और ४ साल तक सीखा. ज़ी टीवी के मशहूर प्रोग्राम सारेगामापा में ये २ बार अपनी गायकी दिखा चुकी हैं. इन्होने कुछ मूल रचनाएँ भी गई हैं, जिनमे से एक हिंद युग्म के काव्य नाद एल्बम का हिस्सा है और कुछ व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल हुई हैं. इनके गाये हुए हिन्दी फिल्मों के गानों के कवर्स आज कल इन्टरनेट डेक्कन रेडियो पर भी सुनाये जा रहे हैं. इन सब के साथ साथ ये स्टेज शोव्स भी करती हैं.


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Sunday, May 2, 2010

न कोई था, न कोई होगा हरफनमौला किशोर दा जैसा



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १२

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में किशोर कुमार की यादें ताज़ा होंगी। फ़िल्म 'झुमरू' का वही दर्द भरा नग़मा "कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे, कोई हमारा न रहा"। गीत मजरूह साहब का और बाकी सब कुछ किशोर दा का। आइए आज इस गीत को एक नए अंदाज़ में सुनने से पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की बीती हुई कड़ियों के सुर सरिता में ग़ोते लगा कर किशोर दा के बारे में कहे गए कुछ बातें ढूंढ निकाल लाते हैं। ये हैं आनंदजी भाई जो बता रहे हैं किशोर कुमार के बारे में विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में:

प्र: अच्छा आनंदजी, किशोर कुमार ने कोई विधिवत तालीम नहीं ली थी, इसके बावजूद भी कुछ लोग जन्मगत प्रतिभाशाली होते हैं, जैसे उपरवाले ने उनको सब कुछ ऐसे ही दे दिया है। उनकी गायकी की कौन सी बात आप को सब से ज़्यादा अपील करती थी?

देखिये, मैने बतौर संगीतकार कुछ ४०-५० साल काम किया है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि 'it should be a matured voice', और यह कुद्रतन होता है। और यहाँ पर क्या है कि कितना भी अच्छा गाते हों आप, लेकिन 'voice quality' अगर माइक पे अच्छी नहीं है तो क्या फ़ायदा! फ़िल्मी गीतों में ज़्यादा मुर्कियाँ लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हमारे यहाँ कुछ गायक हैं जो समझते हैं कि दो मुर्कियाँ ले लूँ तो मेरा गाना चलेगा, लेकिन फिर क्या होता है कि फिर हर वक़्त वो वैसा ही लगते हैं। सिर्फ़ गाना ही होगा, 'ऐक्टिंग्' नहीं। लेकिन एक भोला भाला सीधा सादा आदमी खड़े खड़े ही गाना गा रहा है तो उसी तरह का गाना होना चाहिए। आप को मुड़कियाँ लेने की ज़रूरत नहीं है।

प्र: किशोर कुमार एक हरफ़नमौला, हर फ़न में माहिर एक कलाकार। एक खिलंदरपन था उनमें और बचपना भी। लेकिन जब वो सीरियस गाना गाते थे तो रुला देते थे। और जब वो हास्य का गाना गाते थे तो हँसी के फ़व्वारे छूटने लगते थे।

नहीं नहीं, जैसे आप स्विच बदलते हैं, वो वैसी ही थे। किसी को सीखाने से ये सब आयेगी नहीं। ये अंदर से ही आता है। उनकी 'voice quality' बहुत अच्छी थी। 'ultimate judgement' तो आप को ही लेना है, कि 'मैं सुर में गाऊँ कि नहीं', ये मुझे ही मालूम है। ये जो मैने 'सरगम' की कैसेट निकाली है उसमें यही कहा गया है कि आप अपने बच्चों में अभी से आदत डालेंगे।

प्र: आनंदजी, किशोर दा को जो समय आप देते थे उसमें वो आ जाते थे?

हम लोग उनको दोपहर का 'टाइम' ही देते थे। वो कहते थे कि 'आप के गाने में मुझे कोई प्रौब्लेम नहीं होती'। "ख‍इके पान बनारस वाला" वो दोपहर को गा कर चले गये थे, हम को याद ही नहीं था, क्योंकि पिक्चर के चार गानें बन गये थे, 'रिकार्ड' भी बन कर आ गया था, बाद में यह गाना डाला गया 'सिचुयशन' बनाकर।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत - कोई हमदम न रहा...
कवर गायन - दिलीप कवठेकर




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दिलीप कवठेकर
पेशे से इंजिनियर दिलीप कवठेकर मन से एक सहज कलाकार हैं, ब्लॉग्गिंग की दुनिया में अपने संगीत ज्ञान और आवाज़ के लिए खासे जाने जाते हैं, ओल्ड इस गोल्ड निरंतर पढते हैं, गुजरे जमाने के लगभग हर गायक को ये अपनी स्वरांजलि दे चुके हैं


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