Saturday, April 11, 2009

सफल 'हुई' तेरी आराधना...शक्ति सामंत पर विशेष (भाग 1)




ज़िन्दगी की आख़िरी सच्चाई है मृत्यु। जो भी इस धरती पर आता है, उसे एक न एक दिन इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर जाना ही पड़ता है। लेकिन कुछ लोग यहाँ से जा कर भी नहीं जाते, हमारे दिलों में बसे रहते हैं, हमेशा हमेशा के लिए, और जिनकी यादें हमें रह रह कर याद आती हैं। अपनी कला और प्रतिभा के ज़रिये ऐसे लोग कुछ ऐसा अमिट छाप छोड़ जाते हैं इस दुनिया में कि जो मिटाये नहीं मिट सकते। उनका यश इतना अपार होता है कि सूरज चाँद की तरह जिनकी रोशनी युगों युगों तक, बल्कि अनंतकाल तक प्रकाशमान रहती है। ऐसे ही एक महान कलाकार, फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध निर्माता एवं निर्देशक शक्ति सामंत अब हमारे बीच नहीं रहे। गत ९ अप्रैल को मुंबई में ८३ वर्ष की आयु में उन्होने इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर अपनी अनंत यात्रा पर चले गये। लेकिन वो हमेशा जीवंत रहेंगे, हमारे दिलों में सदा राज करेंगे अपनी अनगिनत मशहूर फ़िल्मों और उन 'हिट' फ़िल्मों के सुमधुर गीतों के ज़रिये। मेरी तरफ़ से, 'आवाज़' की तरफ़ से, और 'आवाज़' के सभी पाठकों तथा श्रोताओं की तरफ़ से स्वर्गीय शक्ति सामंत को हम श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं।

गीत: सारा प्यार तुम्हारा मैने बांध लिया है आँचल में (आनंद आश्रम)


शक्ति सामंत का जन्म बंगाल के बर्धमान में हुआ था। उनके पिता एक इंजिनीयर थे जिनकी एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उस वक़्त शक्तिजी केवल डेढ़ साल के थे। पढ़ाई के लिए उन्हे उत्तर प्रदेश के बदायुँ में उनके चाचा के पास भेज दिया गया। देहरादून से अपनी 'इंटरमिडीयट' पास करने के बाद उन्होने कलकत्ते जाकर 'इंजिनीयरिंग एंट्रान्स' की परीक्षा दी और अव्वल भी आये। लेकिन जब वो भर्ती के लिए गये तो उन्हे यह कह कर वापस कर दिया गया कि वह परीक्षा केवल बंगाल, बिहार और ओड़िसा के छात्रों के लिए थी और वो यु.पी से आये हुए थे। दुर्भाग्य यहीं पे ख़तम नहीं हुई। जब वो वापस यु.पी गये तो वहाँ पर सभी कालेजों में भर्ती की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी थी। उनका एक साल बिना किसी वजह के बरबाद हो गया। उनके चाचा के कहने पर शक्ति उनके साथ उनके काम में हाथ बँटाने लग गये। साथ ही साथ वो थियटर और ड्रामा के अपने शौक को भी पूरा करते रहे। एक रात जब वो थियटर के रिहर्सल से घर देर से लौटे तो उनके चाचा ने उन्हे कुछ भला बुरा सुनाया। उन्हे उनका वह बर्ताव पसंद नहीं आया और उन्होने अपने चाचा का घर हमेशा के लिए छोड़ दिया।

गीत: काहे को रोये चाहे जो होये सफल होगी तेरी आरधना (आराधना)


अपने चाचा के घर से निकलने के बाद शक्ति मुंबई के आस-पास काम की तलाश कर रहे थे क्युंकि उन्हे पता था कि उनका अंतिम मुक़ाम यह कला-नगरी ही है। उन्हे दापोली में एक 'ऐंग्लो हाई स्कूल' में नौकरी मिल गई। यहाँ से मुंबई स्टीमर से एक घंटे में पहुँची जा सकती थी। उस स्कूल के छात्र ज़्यादातर अफ़्रीकन मुस्लिम थे और २३-२४ साल की आयु के थे, जब कि वो ख़ुद २१ साल के थे। शक्ति ने देखा कि स्कूल में छात्रों की चहुँमुखी विकास के लिए साज़-ओ-सामान का बड़ा अभाव है। उन्होने स्कूल के प्रिन्सिपल से इस बात का ज़िक्र किया और छात्रों के लिए खेल-कूद के कई चीज़ें खरीदवाये। छात्र शक्ति के इस अंदाज़ से मुतासिर हुए और उनके अच्छे दोस्त बन गये। अपने चाचा के साथ काम करते हुए शक्ति को महीने के ३००० रुपय मिलते थे, जब कि यहाँ उन्हे केवल १३० रुपय मिलते। उसमे से ३० रुपय खर्च होते और १०० रुपय वो बचा लेते। फ़िल्म जगत में कुछ करने की उनकी दिली तमन्ना उन्हे हर शुक्रवार मुंबई खींच ले जाती। शुक्रवार शाम को वो स्टीमर से मुंबई जाते, वहाँ पर काम ढ़ूंढ़ते और फिर सोमवार की सुबह वापस आ जाते। वो कई फ़िल्म निर्मातायों से मिले, लेकिन वह राजनैतिक हलचल का समय था। देश के बँटवारे के बाद बहुत सारे कलाकार पाक़िस्तान चले गये थे। फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए बुरा वक़्त चल रहा था। शक्ति अंत में जाकर दादामुनि अशोक कुमार से मिले, जो उनके पसंदीदा अभिनेता भी थे, और जो उन दिनो 'बॊम्बे टॊकीज़' से जुड़े हुए थे। दादामुनि ने उन्हे इस शर्त पर सहायक निर्देशक के तौर पर 'बॊम्बे टॊकीज़' में रख लिया कि उन्हे कोई तनख्वाह नहीं मिलेगी, सिवाय दोपहर के खाने और चाय के। शक्ति राज़ी हो गये। यु.पी में रहने की वजह से उनकी हिंदी काफ़ी अच्छी थी। इसलिए वहाँ पर फनी मजुमदार के बंगला में लिखे चीज़ों को वो हिंदी में अनुवाद किया करते। इस काम के लिए उन्हे पैसे ज़रूर दिये गये। कुछ दिनो के बाद शक्ति ने अशोक कुमार से अपने दिल की बात कही कि वो मुंबई दरसल अभिनेता बनने आये हैं। पर उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व को समझकर दादामुनि ने उनसे अभिनय में नहीं बल्कि फ़िल्म निर्माण के तक़नीकी क्षेत्र में हाथ आज़माने के लिए कहा। दोस्तों, क्या आप जानते हैं कि शक्ति सामंत ने सबसे पहली बार किस फ़िल्म की 'शूटिंग' देखी थी? वह एक गाना था फ़िल्म 'मशाल' का। जब उन्होने देखा कि एक तांगे को एक टेबल के उपर स्थिर रखा गया है और 'फ़्रेम' में सिर्फ़ घूमते हुए पहिये को दिखाया जा रहा है तो उन्हे बड़ी हैरत हुई। क्या आप सुनना नहीं चाहेंगे इस गीत को? सुनिये मन्न डे की आवाज़ में "ऊपर गगन विशाल" इसी फिल्म मशाल से.

गीत: ऊपर गगन विशाल (मशाल)


अभिनय करने कि चाहत अभी पूरी तरह से बुझी नहीं थी शक्ति सामंत के दिल में। वो फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल निभाकर इस शौक को पूरा कर लेते थे। उनके अनुसार उन्हे हर फ़िल्म में पुलिस इंस्पेक्टर का रोल दे दिया जाता था और एक ही संवाद हर फ़िल्म में उन्हे कहना पड़ता कि "फ़ॊलो कार नम्बर फ़लाना, इंस्पेक्टर फ़लाना स्पीकींग"। फ़िल्म जगत से जुड़े रहने की वजह से कई बड़ी हस्तियों से उनकी जान-पहचान होने लगी थी। दो ऐसे बड़े लोग थे गुरु दत्त और लेखक ब्रजेन्द्र गौड़। गौड़ साहब को फ़िल्म 'कस्तुरी' निर्देशित करने का न्योता मिला, लेकिन किसी दूसरी कंपनी की फ़िल्म में व्यस्त रहने की वजह से इस दायित्व को वो ठीक तरह से निभा नहीं पा रहे थे। इसलिए उन्होने शक्ति सामंत से उन्हे इस फ़िल्म मे उनकी मदद करने को कहा। सामंत साहब ने इस काम के २५० रुपय लिए थे। किसी फ़िल्म से यह उनकी पहली कमाई थी। 'कस्तुरी' १९५४ की फ़िल्म थी जिसमें संगीत था पंकज मल्लिक का। शक्ति सामंत की कहानी को आगे बढ़ाने से पहले आइए सुनते चलें इसी फ़िल्म का एक गीत पंकज मल्लिक की आवाज़ में जिसे ब्रजेन्द्र गौड़ ने ही लिखा था।

गीत: काहे हुआ नादान मनवा (कस्तुरी)


गीतकार और निर्माता एस. एच. बिहारी तथा लेखक दरोगाजी 'इंस्पेक्टर' नामक फ़िल्म के निर्माण के बारे में सोच रहे थे। फ़िल्म को 'प्रोड्यूस' करवाने के लिए वो लोग नाडियाडवाला के पास जा पहुँचे। नाडियाडवाला ने कहा कि इस कहानी पर सफल फ़िल्म बनाने के लिए मशहूर और महँगे अभिनेतायों जैसे कि अशोक कुमार, प्राण वगैरह को लेना पड़ेगा। बजट का संतुलन बिगड़ न जाये इसलिए उन लोगों ने इस फ़िल्म के लिए किसी नये निर्देशक को नियुक्त करने की सोची ताकी निर्देशक के लिए ज़्यादा पैसे न खर्चने पड़े। और इस तरह से शक्ति सामंत ने अपनी पहली फ़िल्म 'इंस्पेक्टर' का निर्देशन किया जो रिलीज़ हुई सन १९५६ में पुष्पा पिक्चर्स के बैनर तले। फ़िल्म 'हिट' रही और इस फ़िल्म के बाद उन्हे फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। इस फ़िल्म के गाने भी ख़ासा पसंद किये गये। इस फ़िल्म के संगीतकार थे हेमन्त कुमार। उन्ही की आवाज़ में इस फ़िल्म का एक सदाबहार नग्मा यहाँ पर पेश है - "दिल छेड़ कोई ऐसा नग़मा जिसे सुन ज़माना खो जाये, ये आह मेरी दुनिया के लिये सपनों का तराना हो जाये"। इस गीत का एक एक शब्द जैसे शक्ति सामंत के लिए ही उस वक़्त लिखी गई थी। उनकी फ़िल्मों को देख कर ज़माना उनमें आज भी खो जाता हैं, उनकी फ़िल्मों के मधुर गीतों में आज भी अपने दिल का कोई तराना ढ़ूंढ़ते हैं लोग।

गीत: दिल छेड़ कोई ऐसा नग्मा (इंस्पेक्टर)


शक्ति सामंत ने काम तो पहले 'इंस्पेक्टर' का ही शुरु किया था लेकिन उनकी दूसरी फ़िल्म 'बहू' पहले प्रदर्शित हो गई। साल था १९५५। करण दीवान और उषा किरण अभिनीत इस फ़िल्म के संगीतकार भी हेमन्त कुमार ही थे। तलत महमूद और गीता दत्त की आवाज़ों में इस फ़िल्म का एक युगलगीत आपको सुनवाये बग़ैर मैं आगे नहीं बढ़ सकता क्युंकि यह गीत इतना ख़ूबसूरत है कि एक बहुत लम्बे अरसे के बाद इस गीत को सुनने का मौका आप भी छोड़ना नहीं चाहेंगे।

गीत: ठंडी हवाओं में तारों की छायों में आज बलम मेरा डोले जिया (बहू)


'बहू' और 'इंस्पेक्टर' में शक्ति सामंत के निर्देशन की काफ़ी प्रशंसा हुई और वो सही माईने मे दुनिया के नज़र में आये। पुष्पा पिक्चर्स ने 'इंस्पेक्टर' की कामयाबी से ख़ुश होकर शक्ति सामंत को अपनी अगली फ़िल्म 'हिल स्टेशन' को निर्देशित करने का फिर एक बार मौका दिया। इस फ़िल्म में मुख्य कलाकार थे प्रदीप कुमार और बीना राय। और एक बार फिर हेमन्त कुमार का संगीत। १९५७ की इस फ़िल्म का एक बहुत ही मीठा, बहुत ही सुरीला गीत गाया था लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार ने। सुनते चलिये इस गीत को।

गीत: नयी मंज़िल नयी राहें नया है महरबान अपना (हिल स्टेशन)


"नयी मंज़िल नयी राहें नया है मेहरबान अपना, न जाने जाके ठहरेगा कहाँ यह कारवाँ अपना", दोस्तों, शक्ति सामंत के जीवन का कारवाँ तो ठहर गया है हमेशा हमेशा के लिए, लेकिन जैसा कि शुरु में ही मैने कहा था कि कला और कलाकार कभी नहीं मरते, कला कालजयी होता है, वक्त उसको छू भी नहीं सकता। शक्ति सामंत की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है दोस्तों, बहुत जल्द इस लेख और शक्ति-दा के फ़िल्मों के कुछ और सुमधुर गीतों के साथ हम फिर वापस आयेंगे।


(पढ़िए-सुनिए इस संगीतमयी आलेखमाला की दूसरी किस्त)


प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'मंदिर और मस्जिद'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'मंदिर और मस्जिद'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में 'मंटो की एक लघुकथा' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी मंदिर और मस्जिद, जिसको स्वर दिया है लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 28 मिनट और 12 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

इतना ही नहीं, उनके बगीचे में एक पंडित बारहों मॉस दुर्गा-पाठ भी किया करते थे.
(प्रेमचंद की 'मंदिर और मस्जिद' से एक अंश)


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#Sixteenth Story, Mandir aur masjid: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/11. Voice: Shanno Aggarwal

Friday, April 10, 2009

ठंडी हवा काली घटा आ ही गयी झूम के....गीता दत्त की पुकार पर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 48

ज के 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम एक ऐसा गीत लेकर आए हैं जिसे सुन कर आप खुश हो जाएँगे. भाई, मुझे तो यह गीत बेहद पसंद है और जब भी कभी मैं इस गीत को सुन लेता हूँ तो दिल में एक खुशी की लहर सी दौड जाती है. आज की परेशानियाँ भरी ज़िंदगी में यह गीत कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हमारे होंठों पे मुस्कान लाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. ठंडी हवाओं और काली घटाओं पर बहुत सारे गाने आज तक बने हैं, लेकिन यह गीत भीड से अलग अपनी एक मज़बूत पहचान रखता है. मिस्टर & मिसिस 55 फिल्म का यह गीत ओपी नय्यर के संगीत और मजरूह के बोलों से सज़ा है.

यूँ तो इस गीत के गायिकाओं में गीता दत्त और साथियों का नाम दर्ज किया गया है, लेकिन इस गीत में शामिल आवाज़ें अपने आप में कई राज़ छुपाये हुए है. इसमें कोई दोराय नहीं कि गीता दत्त की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन गौर से अगर आप यह गीत सुने तो कम से कम दो और अलग आवाज़ें भी आप आसानी से महसूस कर सकते हैं, ख़ास कर गीत के शुरूआती मुखड़े में ही. गीत कुछ इस तरह से शुरू होता है...

पहली आवाज़: ठंडी हवा
दूसरी आवाज़: काली घटा
तीसरी आवाज़: आ ही गयी झूम के
गीता दत्त : प्यार लिए डोले हँसी नाचे जिया घूम के.

गीता दत्त से पहले की यह तीन आवाज़ें किनकी हैं इसका आज तक कोई खुलासा नहीं हुआ है. ज़्यादातर लोगों का अनुमान रहा है कि पहली आवाज़ गीता दत्त की ही है, दूसरी आवाज़ शमशाद बेगम की है, लेकिन तीसरी आवाज़ में कुछ संशय है. कुछ लोग कहते हैं कि तीसरी आवाज़ भी गीता जी की ही हैं और उन्होंने अपनी आवाज़ को थोडा सा बदल कर वो 'लाइन' गाई है. फिल्म के पर्दे पर गीता दत्त ने मधुबाला का पार्श्वगायन किया है जब कि पहले की तीन आवाज़ें मधुबाला की तीन सखियों के लिए है. दोस्तों, इस आलेख को लिखने से पहले मैने कई वरिष्ठ फिल्म संगीत रसिकों से राय मांगी थी, लेकिन किसी से भी कोई ठोस बात नहीं निकाल पाया. और अब ना तो नय्यर साहब हमारे बीच हैं, ना ही मजरूह साहब, और ना ही गुरु दत्त. शायद यह राज़ राज़ ही रह जायेगा हमेशा के लिए. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि कोई राज़ की बात हो ही ना, यानी कि पहले की तीन आवाज़ें 'कोरस' में से किन्ही तीन लड़कियों ने गाया होगा, ऐसा भी हो सकता है. खैर, आप भी ज़रा पता लगाने की कोशिश कीजिए, मैं भी करूँगा. लेकिन आज इन सब बातों को भूल कर गीता दत्त, ओपी नय्यर और मजरूह साहब को याद करते हुए इस रंगीले गीत का आनंद उठाइये और ठंडी हवाओं काली घटाओं को दावत दीजिए.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मुकेश का एक और दर्द भरा नग्मा.
२. रजा मेहंदी अली खान के बोल और एल पी का संगीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"जीवन"

कुछ याद आया...?



खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



नसीर और "फिराक" की बातें




दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा ने बहुत से कलाकार दिए है सिनेमा जगत को पर एक नाम जो इनमें सबसे अहम् है वो है नसीरूदीन शाह का. नसीर अदाकारी का आफताब है. अभिनय की ऐसी रेंज बहुत कम कलाकारों में देखने को मिलती है. जिस दौरान नसीर फिल्मों में आये, उस दौर में व्यवसायिक फिल्मों में अभिनय को कम और "स्टार वैल्यू" को अधिक तरजीह दी जाती थी पर ऐसा भी नहीं था कि सोचपूर्ण और अर्थवान फिल्मों के कद्रदान नहीं थे. यही वो दौर था जब कलात्मक फिल्में जिन्हें समान्तर फिल्मों ने भी अपने चरम को छुआ. श्याम बेनेगल, कुंदन शाह, केतन मेहता, सईद मिर्जा, मुज़फ्फ़र अली, प्रकाश झा, महेश भट्ट सरीखे निर्देशकों ने और नसीर, ओम् पूरी, शबाना आज़मी, और स्मिता पाटिल जैसे दिग्गज फनकारों ने सिनेमा को व्यवस्यिकता की अंधी दौड़ में गुम होने से बचा लिया. इनमें से नसीर ने अभिनय का एक लम्बा सफ़र तय किया है. उनकी सबसे ताजा फिल्म है - फिराक. आगे बढ़ें इससे पहले सुनिए इसी फिल्म से रेखा भारद्वाज की आवाज़ में दर्द की कसक-



"मिर्च मसाला" में तानाशाह सूबेदार की भूमिका हो, या "पार" में नौरंगिया का जटिल किरदार हो, "मंडी" का टुगरुस, "मंथन" का भोला हो या "जनून" का सरफ़राज़, "लिबास" का रंगकर्मी सुधीर या फिर "स्पर्श", "आक्रोश", "भूमिका", "अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है", "पेस्टन जी", "बाज़ार", "उमराव जान" और "इजाज़त" जैसी फिल्मों की जटिल भूमिकायें. "जाने भी दो यारों" में वो जम कर हंसाते हैं तो व्यवसायिक "वोह सात दिन", "मासूम", "करमा", "गुलामी", "हीरो हीरालाल", "त्रिदेव", "सरफ़रोश", "कभी हाँ कभी ना", "चमत्कार" और "क्रिश" जैसी फिल्मों में भी सहज ही ढल जाते हैं. "मिर्जा ग़ालिब" को वे अपने अभिनय से जिन्दा कर देते हैं तो हालिया प्रर्दशित "a wednesday" में आम आदमी के आकोश को बिना लाउड हुए परदे पर उतार देते हैं. अभिनेत्री से निर्देशिका बनी नंदिता दास ने उन्हें "फिराक" में एक मुस्लिम शास्त्रीय गायक की भूमिका दी है. नसीर के चाहने वालों के लिए ये फिल्म भी एक ट्रीट है. इस फिल्म के प्रीव्यू के दौरान नसीर ने कहा कि - "मैं ऐसी फिल्में करना चाहता हूँ जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करे." फिल्म की सफलता से प्रेरित होकर एक संगीत एल्बम भी अभी हाल ही में रीलीस किया गया है. सुनिए इसी एल्बम से नसीर की आवाज़ में ये कमेंट्री-



"फिराक" गुजरात दंगों पर आधारित है. नंदिता दास की इस पहली निर्देशित फिल्म ने पहले ही ढेरों रास्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान जीत लिए हैं. फिल्म में नसीर के आलावा दीप्ति नवल, परेश रावल, रघुबीर यादव, संजय सूरी, और टिस्का चोपडा जैसे अदाकार हैं. कहने की जरुरत नहीं कि किस खूबी से नसीर ने अपने किरदार "खान साहब" को निभाया है. खान साहब गुजरात के ताजे हालातों से वाकिफ तो हैं पर शायद विश्वास नहीं कर पा रहे हैं या फिर नहीं करना चाह रहे हैं कि सिर्फ मजहब के नाम पर कैसे इंसान इंसान के खून का प्यासा हो चुका है. फिल्म में एक संवाद है जहाँ हालातों से मायूस हो चुके एक वरिष्ठ फनकार को ये कहना पड़ता है -"सिर्फ सात सुरों में इतनी ताक़त कहाँ जो इतनी नफरतों का सामना कर सके..". यकीन मानिए जब नसीर ऐसा कहते हैं तब दर्शकों के भीतर भी कहीं कुछ टूट सा जाता है. फिल्म का साउंड ट्रेक भी बहुत जोरदार है. संगीत प्रेमियों के लिए यह एक सार्थक संकलन है. महसूस कीजिये जगजीत सिंह की आवाज़ में "गुजरात के फिराक" को-




एक समय था जब कलात्मक फिल्मों को मिलने वाली उपेक्षा से दुखी होकर नसीर ने व्यावसायिक फिल्मों की तरफ रुख किया था, पर ऐसे किरदार जिनमें कोई चुनौती नहीं इस गहन अभिनेता को कहाँ संतुष्ट कर सकते थे. यही वजह थी कि नसीर ने वापस रंगमंच की तरफ रुख किया. सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई के बहुत से कथा पात्रों को न सिर्फ उन्होंने अपने अभिनय से सजाया बल्कि उनके नाट्यरूपान्तरों का निर्देशन भी किया. हालाँकि अपनी पहली निर्देशित फिल्म "यूँ होता तो क्या होता" बहुत अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पायी पर इस फिल्म से उन्होंने अपने बेटे इमाद शाह को बड़े परदे पर उतारा. अपने अभिनय से इमाद उम्मीदें तो जागते ही हैं. multiplex के दौर में अब जब व्यावसायिक और समान्तर सिनेमा के बीच की दूरिया ख़तम हो चुकी है और अधिक से अधिक निर्देशक आज सार्थक और मौलिक संवेदनाओं पर आधारित फिल्में रच रहे हैं नसीर जैसे कलाकारों को फिर से उनके कद के अनुरूप किरदार मिलने लगे हैं. "दस कहानियां", "परजानिया", "खुदा के लिए", "बारह आना", "तीन दीवारें", "a wednesday", "ओमकारा" और "फिराक" जैसी फिल्में इसी बात का सबूत है. मुझे लगता है अभी भी नसीर को उस रोल की तलाश है जिसमें वो अपना सब कुछ दे सके. जल्द ही हमें उनके अभिनय से सजी कुछ और बहतरीन फिल्में देखने को मिलेंगीं इस विश्वास के साथ सुनते हैं फिल्म फिराक से ही ये गीत -



नोट - फिल्म "फिराक" एल्बम के कुछ गीत मात्र ३२ kbps पर आपके लिए एक प्रीव्यू स्वरुप रखे गए हैं. पूरे गीतों को उच्चत्तम क्वालिटी पर सुनने के लिए ओरिजनल सी डी खरीदें.

Thursday, April 9, 2009

आज की ताजा खबर... बरसों पुराना यह गीत आज के मीडिया राज में कहीं अधिक सार्थक है.



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 47

गर मैं आप से यह पूछूँ कि क्या आप ने "नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ" गीत सुना है या नहीं, तो शायद ही आप में से किसी का जवाब नहीं में होगा. लेकिन अगर मैं आप से इस गीत की गायिका का नाम पूछूँ तो शायद आप में से कुछ लोग इनका नाम ना बता पाएँ. इस कालजयी देश भक्ति गीत को गाया था बाल गायिका शांति माथुर ने, और यह "सन ऑफ इंडिया" फिल्म का गाना है. ज़रा सोचिए कि केवल एक देशभक्ति गीत गाकर ही उन्होने अपनी ऐसी छाप छोडी है कि आज वो गीत ही उनकी पहचान बनकर रह गया है. आज हम 'ओल्ड इस गोल्ड' में यह गाना तो नहीं, लेकिन इसी फिल्म से शांति माथुर का ही गाया हुआ एक दूसरा गीत सुनवा रहे हैं. शांति माथुर का शुमार बेहद कमचर्चित गायिकाओं में होता है और उनके बारे में बहुत कम सुना और कहा गया है. दरअसल दो एक फिल्मों के अलावा इन्होने किसी फिल्म में नहीं गाया है और ना ही बडी होने के बाद फिल्मी गायन के क्षेत्र में वापस आईं हैं. अगर हम यह मानकर चलें कि 1962 की फिल्म सन ऑफ इंडिया के वक़्त उनकी उम्र 10 साल रही होगी, तो आज वो अपने 50 के दशक में होंगीं और हम उनकी सलामती की कामना करते हैं.

सन ऑफ इंडिया में शांति माथुर ने कई गीत गाए थे जिन्हे पर्दे पर गाया बाल कलाकार साजिद ख़ान ने. अगर आप यह सोच रहे हैं की यह साजिद ख़ान वही हैं जो आजकल फिल्म निर्माता और अभिनेता हैं, तो आप बिलकुल ग़लत सोच रहे हैं. सन ऑफ इंडिया के साजिद ख़ान फिल्मकार महबूब ख़ान के गोद लिए हुए बेटे हैं जिन्होने कुछ फिल्मों में अभिनय किया है. महबूब साहब की महत्वाकांक्षी फिल्म "मदर इंडिया" में भी मास्टर साजिद नज़र आए थे. 'हीट एंड डस्ट' नाम से एक फिल्म आई थी 1983 में जिसमें साजिद ने आखिरी बार अभिनय किया था. तो चलिए साजिद ख़ान और शांति माथुर को याद करते हुए फिल्म सन ऑफ इंडिया से एक गीत सुनते हैं "आज की ताज़ा खबर, आओ काकाजी इधर, सुनो दुनिया की खबर". इस गीत में समाज में चल रही बुराइयों और समस्याओं पर व्यंग-पूर्वक वार किया गया है जो हमें एक बार फिर से अपने सामाजिक दायित्वों की तरफ गौर करने पर मजबूर कर देता है. महबूब ख़ान की दूसरी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी गीतकार शक़ील बदायूनीं और संगीतकार नौशाद का गीत संगीत रहा.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मजरूह के बोल और ओपी नय्यर का संगीत.
२. गीता दत्त की शोख भरी आवाज़.
३. मुखड़े में शब्द है -"झूम के".

कुछ याद आया...?



खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो...बेगम अख्तर और आशा ताई एक साथ.



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०३

ग़मे-हस्ती, ग़मे-बस्ती, ग़मे-रोजगार हूँ,
ग़म की जमीं पर गुमशुदा एक शह्रयार हूँ।


बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना हीं पड़ता है। अब फ़र्क इतना हीं है कि वह सूरज ता-उम्र,ता-क़यामत खुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऎसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत हीं गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे। वहीं कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क एक ऎसी हीं किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज जमीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-औ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते,बल्कि ये सारे के सारे इसी जहां के जहांपनाहों के पनाह से हीं उसकी झोली में आते हैं। सच हीं है कि:

राह-ए-मोहब्बत के अगर मंजिल नहीं ग़म-औ-अज़ल,
जान लो हाजी की किस्मत में नहीं ज़मज़म का जल।


अपने जमाने के मशहूर शायर "शकील बदायूनी" इन इश्क-वालों का हाले-दिल बयां करते हुए कहते हैं:

"किनारों से मुझे ऎ नाख़ुदा दूर हीं रखना,
वहाँ लेकर चलो तूफां जहाँ से उठने वाला है।"

बेगम अख्तर ने इस गज़ल में उस दर्द की कोई भी गुंजाईश नहीं छोड़ी, मोहब्बत जिस दर्द की माँग करती है। सुनिए और खुद महसूस कीजिए कि दर्द जब हर्फ़ों से छलके तो कैसी टीस उठती है।



यह मेरी हक़-परस्ती भी ना मेरे काम है आई,
जिसे ज़ाहिद कहा मैने,वो निकला रब का सौदाई।


आख़िर ऎसा क्यों होता है कि हम औरों से ईमान की बातें करते हैं और जब खुद पर आती है तो ईमान से आँखें चुराने लगते हैं। हम वफ़ा के कसीदे पढते हैं,तहरीरें लिख डालते हैं लेकिन हक़ीक़त में अपने पास वफ़ा को फटकने भी नहीं देते। हद तो तब हो जाती है जब हम महफ़िलों और मुशाअरों में प्यार-मोहब्बत के रहनुमा नज़र आते हैं, लेकिन जब अपने घर का कोई प्यार के राह पर चल निकले तो शमशीर लेकर दरवाजे पर जम जाते हैं। और यह नहीं है कि यह बस किसी-किसी के साथ होता है, यकीं मानिए यह हर किसी के साथ होता है। हर किसी के अंदर एक बगुला भगत होता है, एक ढोंगी निवास करता है। और यही एकमात्र रोग है, जिसने हर दौर में दुनिया का नाश किया है। सच यह नहीं है कि दुनिया इश्क-वालों को नहीं समझती या समझना नहीं चाहती, सच यह है कि दुनिया ऎसी हीं है और वह अगर इश्क का मतलब जान भी ले तो भी अपनी आदत से बाज़ नहीं आएगी। और यह आदत इसलिए भी है क्योंकि दुनिया का हरेक शख़्स खुद को दूसरे से बड़ा और बेहतर साबित करने में लगा है। भाई, अगर दुनिया ऎसी हीं है तो फ़िर इश्क-वाले क्यों दूसरों की परवाह करें। जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो:

जहां वालों की तल्ख़ी का नज़ारा कर लिया मैने,
मुझे खुद पर गुमां है कि गुजारा कर लिया मैने।


यह बस इसी युग या इसी दौर की बात नहीं है। बरसों पहले नक़्श लायलपुरी ने दुनिया की इस तल्ख़ी को नज़र करके लिखा था:

"दुनिया वालों कुछ तो मुझको मेरी वफ़ा की दाद मिले,
मैने दिल के फूल खिलाए शोलों में,अंगारों में।"

ख़य्याम के संगीत से सजी यह गज़ल आशा ताई की आवाज़ में चमक-सी उठती है। शब्दों के मोड़ पर गले की झनकार ने इसे एक अलग हीं पहचान दे दी है। लीजिए आप खुद हीं इसका लुत्फ़ उठाईये।



चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करुँ, खूने-जिगर होने तक.

इरशाद ....


पिछली महफ़िल के साथी-

ग़ैर फिल्मी गीतों की यह महफिल भी सजने लगी है। शन्नो जी अब आप तन्हा कहाँ हैं! आवाज़ की तमाम पेशकश आपके एकांत को दूर करने को तैयार हैं।

नीलम जी, शौक अगर जीने का है तो समझौता नहीं, जिंदगी को गले लगाइए, आपको लगेगा कि वह समझौता नहीं है। गाना गाइए- ऐ जिंदगी! गले लगा ले।

राज़ जी, ख़ुदा करे कि यह मुश्किल बनी रहे, इसका अपना मज़ा है।

संजीव जी, दोहों के बाद शे'र, आपके क्या कहने! मनु जी, इसीलिए तो कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ कुछ और था। अपना-अपना मतलब निकालते रहें।


प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.





Wednesday, April 8, 2009

जो चला गया उसे भूल जा....मुकेश की आवाज़ में गूंजता दर्द



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 46

गायक मुकेश ने सबसे ज़्यादा संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और शंकर जयकिशन के लिए लोकप्रिय गीत गाए हैं, और कई गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए भी. संगीतकार नौशाद के मनपसंद गायक थे मोहम्मद रफ़ी जिनसे उन्होने अपने सबसे ज़्यादा गाने गवाए. लेकिन कुछ गीत ऐसे भी हैं नौशाद साहब के जिन्हे मुकेश ने गाए हैं. एक ऐसी ही फिल्म है "साथी" जिसमें मुकेश ने कई गीत गाए. इन्ही में से एक गीत आज हम आप को सुनवा रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. फिल्म "साथी" आई थी सन 1968 में. दक्षिण के निर्माता वीनस कृष्णमूर्ती की यह फिल्म थी जिसके लिए उन्होने नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी को गीत संगीत का भार सौंपा गया. इस फिल्म में सबसे लोकप्रिय गीत लताजी ने गाए - "मेरे जीवन साथी कली थी मैं तो प्यासी", "यह कौन आया रोशन हो गयी महफ़िल" और "मैं तो प्यार से तेरे पिया माँग सजाउंगी". मुकेश और सुमन कल्याणपुर का गाया "मेरा प्यार भी तू है यह बहार भी तू है" भी सदाबहार नग्मों में शामिल होता है. लेकिन इस फिल्म में मुकेश की आवाज़ में 3 गाने ऐसे भी हैं जिन्हे दूसरे गीतों के मुक़ाबले थोडा सा कम सुना गया है. और इसीलिए आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम आप को सुनवा रहे हैं इनमें से एक गीत.

मुकेश की आवाज़ में "जो चला गया उसे भूल जा" गीत में एक रूहानी, एक 'हॉनटिंग' सा अहसास है. गीत का संगीत संयोजन कुछ इस तरह का है कि जिसे सुन कर ऐसा लगता है कि यह फिल्म जैसे किसी 'सस्पेन्स' या 'हॉरर सब्जेक्ट' पर बनाई गयी है. लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है. मजरूह सुल्तानपुरी के बोलों में भी उसी डरावने अंदाज़ की झलक मिलती है, जैसे कि "यह हयात-ए-मौत की है डगर, कोई खाक में कोई खाक पर". गीत के 'इंटरल्यूड' संगीत में भी कुछ इसी तरह की बात है. कुल मिलाकर यह गीत टूटे दिल की पुकार है जिसका असर कुछ ऐसा है कि सुनने के बाद एक लंबे समय तक इसका असर बरक़रार रहता है. हमें पूरी उम्मीद है की इस गीत को सुनने के बाद कई दिनों तक इसका असर आप के दिल-ओ-दिमाग़ पर छाया रहेगा. तो सुनिए यह रूहानी गीत फिल्म साथी से...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. शांति माथुर के गाये गिने चुने गानों में से एक.
२. ताजा ख़बरों की आड़ में देश के हालातों पर तीखा व्यंग है गीत के बोलों में.
३. महबूब खान की फिल्म और गीत संगीत जोड़ी- शकील और नौशाद.

कुछ याद आया...?



खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन...महादेवी वर्मा को आवाज़ का नमन



छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में महादेवी वर्मा एक हैं !इनका जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक संपन्न कला -प्रेमी परिवार में सन् १९०७ में होली के दिन हुआ !महादेवी जी अपने परिवार में लगभग २०० वर्ष बाद पैदा होने वाली लड़की थी! इसलिए उनके जन्म पर सबको बहुत प्रसन्नता हुई !अपने संस्मरण `मेरे बचपन के दिन' में उन्होंने लिखा है कि,"मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी खातिर हुई और मुझे वह सब नहीं सहन करना पड़ा जो अन्य लड़कियों को सहना पड़ता है !"इनके बाबा (पिता)दुर्गा के भक्त थे तथा फ़ारसी और उर्दू जानते थे !इनकी माता जी जबलपुर कि थीं तथा हिंदी पढ़ी लिखी थीं !वे पूजा पाठ बहुत करती थी !माताजी ने इन्हें पंचतंत्र पढना सिखाया था तथा बाबा इन्हें विदुषी बनाना चाहते थे !इनका मानना है कि बाबा की पढ़ाने की इच्छा और विरासत में मिले सांस्कृतिक आचरण ने ही इन्हें लेखन की प्रवर्ति की ओर अग्रसर किया !इनकी आरंभिक शिक्षा इंदौर में हुई !माता के प्रभाव ने इनके ह्रदय में भक्ति -भावना के अंकुर को जन्म दिया !मात्र ९ वर्ष की उम्र में ये विवाह -बंधन में बांध गयीं थीं !विवाह के उपरांत भी इनका अध्ययन चलता रहा !

आस्थामय जीवन की साधिका होने के कारण ये शीघ्र ही विवाह बंधन से मुक्त हो गयीं !सन् १९३३ में इन्होने प्रयाग में संस्कृत विषय में ऍम.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की !नारी समाज में शिक्षा प्रसार के उद्देश्य से प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की !कुछ समय तक मासिक पत्रिका `चाँद 'का उन्होने निशुल्क सम्पादन किया !

महादेवी जी का कार्य क्षेत्र बहुमुखी रहा है !उन्हें सन् १९५२ में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया !सन् १९५४ में वे साहित्य अकादमी दिल्ली की संस्थापक सदस्य बनीं !सन् १९६० में प्रयाग महिला विद्यापीठ की कुलपति नियुक्त हुई !सन् १९६६ में साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने पदमभूषण अलंकरण से विभूषित किया !विक्रम कुमांयुं तथा दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया !१९८३ में चम ओर दीपशिखा पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरूस्कार दिया गया !उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी `भारती'नाम से स्थापित हिंदी के सर्वोत्तम पुरूस्कार से महादेवी जी को सम्मानित किया !सन् १९८७ में इनका स्वर्गवास हो गया !

महादेवी जी ने गद्य ओर पद्य दोनों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है !कविता में अनुभूति तत्व की प्रधानता है तो गद्य में चिंतन की !महादेवी उच्च कोटि की रहस्यवादी छायावादी कवियित्री हैं !वे मूलतः अपनी छायावादी रचनाओं के लिए प्रसिद्द हैं !गीत लिखने में महादेवी जी को आशातीत सफलता मिली है !उनकी रचनाओं में माधुर्य प्रांजलता ,करुणा,रोमांस ओर प्रेम की गहन पीडा ओर अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति मिली है !इनके गीतों को पढ़ते समय पाठक का हृदय

भीग उठता है !विरह-वेदना को अपनी कला के रंग में रंग देने के कारण ही उन्हें आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है !उन्हें अपने जीवन `दीपक'का प्रतीक अत्यंत प्रिय रहा है,जो उनकी कविताओं में जीवन का पर्याय बनकर प्रयुक्त हुआ है!`नीहार',`रश्मि',`नीरजा',`सांध्यगीत',`दीपशिखा'और `चामा 'उनकी प्रसिद्द काव्य -रचनाएँ हैं !गद्य के अंतर्गत `श्रंखला की कड़ियाँ ',`अतीत के चलचित्र ',`स्मृति की रेखाएं ',`पथ के साथी ' इत्यादि ऐसे संग्रह हैं ,जिनको पढ़ते समय आँखें भीगे बिना नहीं रहतीं और दिल सोचता ही रह जाता है ,कई प्रश्न और कई समस्याएं हमारे सामने चुनौतियों के रूप में कड़ी हो जाती हैं ,जिनका उत्तर हम स्वयं ही दे सकते हैं ,कोई और नहीं !

इन सबके अतिरिक्त देश-प्रेम भी इनके हृदय में कूट कूट कर भरा है !इनका मानना था कि यदि मनुष्य अपनी मन को जीत लेगा तो कोई दुनियाकी ताकत उसको पराजित नहीं कर सकती !इसका परिचय उनके द्वारा रचित कविता `जाग तुझको दूर जान' से मिलता है !जिसके अंतर्गत उन्होंने लिखा है कि -

"नभ तारक सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों सा झूम रहा
अनमोल बना रहने को कब
टूटा कंचन हीरक ,पिघला ?"


इसमें महादेवी जी का कहना है कि आकर्षक रूप प्राप्त कर अमूल्य बने रहने के लिए सोना भला कब टूटा है और हीरा कब पिघला है ?भाव यह है कि दोनों अपनी अपनी प्रकृति के अनुरूप साधन अपनाकर ही अनुपम सौन्दर्य को प्राप्त करते हैं !सोने को तपना ही पड़ता है तथा हीरे को खंडित ही होना पड़ता है !वेदना कि अनुभूति कर ही दोनों अमूल्य बन जाते हैं !महादेवी जी ने अपने गीतों में आलस ,प्राक्रतिक आपदा ,सांसारिक मोह माया ,विभिन्न प्रकार के आकर्षण व् व्यक्तिगत कमजोरियों आदि पर विजय प्राप्त कर निरंतर साध्य पथ पर अग्रसर होते रहने कि बात कही है !यानिकी प्रत्येक परिस्थिति में स्वतंत्रता प्राप्त करना समस्त देशवासियों का फ़र्ज़ है !

दोस्तों, युग्म परिवार के आचार्य संजीव सलिल जी, आदरणीय महादेवी जी के भतीजे हैं. चूँकि मार्च २४ को उनकी जयंती थी, हमने मृदुल जी के संचालन में इस माह का पॉडकास्ट कवि सम्मलेन भी उन्ही को समर्पित किया था. आईये सुनें आचार्य संजीव सलिल जी से उनके अपने संस्मरण.





आलेख - शिवानी सिंह





Tuesday, April 7, 2009

रात के हमसफ़र थक के घर को चले....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 45

क्ति सामंता एक ऐसे फिल्मकार थे जिन्हे हमेशा यह मालूम होता था कि लोग किस तरह की फिल्म देखना पसंद करते हैं. और यही वजह थी कि उनकी ज़्यादातर फिल्में सफल रहीं. 1964 में शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर को लेकर "कश्मीर की कली" बनाने के बाद वो इन दोनो को लेकर एक ऐसी फिल्म का निर्माण करना चाहते थे जो किसी विदेशी शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित हो. शक्ति बाबू ने पैरिस को चुना और अपने फिल्म का शीर्षक "अन इवनिंग इन पैरिस" रखने का निश्चय किया. एक मुलाक़ात में उन्होने कहा था कि इस फिल्म की कहानी में कोई ख़ास बात नहीं थी. लेकिन दोस्तों, किसी साधारण कहानी को लेकर ऐसी सफल फिल्म बनाना भी तो एक ख़ास बात ही है. फिल्म की कहानी के अनुसार इस फिल्म का संगीत भी पाश्चात्य रंग में रंगा हुआ होना था. और उस ज़माने में पाश्चात्य 'ऑर्केस्ट्रेशन' के लिए शंकर जयकिशन का नाम सबसे उपर आता था. बस, फिर क्या था! शक्ति सामंता ने इस फिल्म के संगीत के लिए शंकर जयकिशन को नियुक्त किया, और इस जोडी के साथ साथ गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी भी शामिल हो गये. यूँ तो इस फिल्म के ज़्यादातर गीत रफ़ी साहब ने अकेले ही गाए हैं जो बेहद मशहूर भी हुए हैं. लेकिन एक युगल गीत ऐसा है जो इन सब गीतों से बिल्कुल अलग है. शैलेंद्रा का लिखा और आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी का गाया हुआ यही युगल गीत आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की शान है.

जब हम फिल्मी युगल गीतों की बात करते हैं तो आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी की जोडी एक मशहूर जोडी रही है जिन्होंने असंख्य लाजवाब युगल गीत हमें दिए हैं. और "अन इवनिंग इन पैरिस" फिल्म का यह गीत भी इन्ही लाजवाब गीतों में शामिल है. रूमानियत और मादकता से भरपूर यह गीत किसी कविता से कम नहीं. शैलेंद्रा ने अपने ख्यालों को इस क़द्र शक्ल दिया है इस गाने में जो हमें किसी और ही दुनिया में ले जाती है. रात और सुबह का मानवीकरण बेहद सुंदर तरीके से किया गया है इस गीत में. और शंकर जयकिशन के संगीत के तो क्या कहने, जैसी ज़रूरत बिल्कुल वैसा ही संगीत उन्होने हमेशा दिया है. 'गिटार' का असरदार प्रयोग इस गीत में सुनने को मिलता है. अगर आपने इस गीत को पर्दे पर देखा है तो आपको याद होगा कि पूरे गीत के पार्श्व में रात का पॅरिस शहर नज़र आता है जिसमें जगमगाहट भी है लेकिन एक अकेलापन भी जो रूमानियत से भरे दो दिलों को और भी ज़्यादा जज़्बाती बना देते हैं. तो याद कीजिए पॅरिस की वो रंगीनियाँ और सुनिए यह खूबसूरत नग्मा.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. मजरूह साहब का लिखा एक शानदार गीत, नौशाद का संगीत है.
२. यूँ तो पूरा गाना मुकेश ने गाया है पर शुरू में कुछ ऊंचे नोट्स महेंद्र कपूर से गवाए गए हैं.
३. मुखड़े में शब्द युग्म है - "तेरी सदा".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी राज की बात है आसान सिर्फ आपके लिए दी है हमने, ताकि काफी दिनों से आपका खोया हुआ "फॉर्म" लौट आये. खैर बधाई, अरे नीलम जी भी हैं और इस बार सौ फीसदी सही जवाब के साथ. आचार्य जी किशोर की आवाज़ में ये गीत वाकई बहुत मधुर है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





मैं और मेरा साया - भूपेन दा का एक नायाब एल्बम.



बात एक एल्बम की # ०१

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - भूपेन हजारिका.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - मैं और मेरा साया, - भूपेन हजारिका (गीत अनुवादन - गुलज़ार)


दोस्तों आज बात एक ऐसी शख्सियत की हो रही है जिनके बारे में कुछ कहने में ढेरों मुश्किलों से साक्षत्कार होना पड़ता है. इस एक शख्स में कई शख्सियत समायी हुई है ।बुद्धिजीवी संगीतकार, उत्कृष्ट गायक, सवेदनशील कवि, अभिनेता, लेखक, निर्देशक, समाज सेवक और न जाने कितने रूप. दोस्तों मै दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित डॉक्टर भूपेन हजारिका के बारे में बात कर रहा हूँ .जब भी हिन्दी सिने जगत में लोकसंगीत की बात आएगी तो भूपेन दा के का नाम शीर्ष पर रहेगा. उन्होंने अपने संगीत के जरिये आसाम की मिट्टी की सोंधी खुश्बू कायनात में घोल दी है.


बचपन में पिता शंकर देव का उपदेश ज्यादातर गेय रूप में प्राप्त होता था. उन्ही दिनों उनके मन में संगीत ने अपना घर बना लिया और वे ज्योति प्रसाद अग्रवाल, विष्णु प्रसाद शर्मा और फणी शर्मा जैसे संगीतविदों के संपर्क में आकर लोकगीत की तालीम लेने लगे।

भूपेन दा के आवाज़ में वह बंजारापन है जो उस्तादों से लेकर आम जन -जन को अपने गिरफ्त में ले लेता हैं और अपनी आवाज़ को सबकी आवाज़ बना देता हैं। भूपेन दा की रचनाओं की वेदना की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है जब वे एक दफ़ा नागा रिबेल्स से बात करने गए तो आपनी एक रचना 'मानुहे मनोहर बाबे' को वहां के एक नागा युवक को उन्हीं कि अपनी भाषा में अनुवाद करने को कहा और जब उन लोगों ने इस गीत को सुना तो सभी के आंखों में आँसू आ गए। भूपेन दा के इस गीत के बंगला अनुवाद 'मानुष मनुषेरे जन्में', को बी.बी.सी.की तरफ़ से 'सॉंग ऑफ द मिलेनियम,के खिताब से नवाजा गया. इस गीत के जरिये भूपेन दा का कवि रूप का चिंतन हमारे सामने आता है.

हमारे फीचर्ड आर्टिस्ट भूपेन दा पर होंगी और बातें अगले मंगलवार, फिलहाल सुनते हैं इस महीने की फीचर्ड एल्बम, "मैं और मेरा साया" से भूपेन हजारिका की आवाज़. भूपेन दा के मूल गीत का हिंदी अनुवाद किया है गुलज़ार साहब ने.



साप्ताहिक आलेख - उज्जवल कुमार



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की. इस स्तम्भ को आप तक ला रहे हैं युवा स्तंभकार उज्जवल कुमार. यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.



Monday, April 6, 2009

मुखड़े पे गेसू आ गए आधे इधर आधे उधर...किशोर कुमार की मीठी शिकायत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 44

दोस्तों, कुछ दिन पहले 'ओल्ड इस गोल्ड' में हमने आपको किशोर कुमार का गाया और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया हुआ फिल्म "आशा" का मशहूर गीत सुनवाया था "ईना मीना डीका". यह गीत किशोर और सी रामचंद्र की जोडी का शायद सबसे लोकप्रिय गीत रहा है. यूँ तो इस गायक - संगीतकार की जोडी ने साथ साथ बहुत ज़्यादा काम नहीं किया, लेकिन एक और ऐसी फिल्म है जिसमें इन दोनो ने अपने अपने हुनर के जलवे दिखाए, और वो फिल्म है "पायल की झंकार". आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में एक बार फिर से किशोर कुमार और सी रामचंद्र को सलाम करते हुए आप की खिदमत में हम लेकर आए हैं पायल की झंकार फिल्म का एक बडा ही अनूठा सा गीत जिसे आपने बहुत दिनों से शायद सुना नहीं होगा. क़मर जलालाबादी ने इस गीत को लिखा था. सन 1966 में बनी फिल्म "पायल की झंकार" के मुख्य कलाकार थे किशोर कुमार, राजश्री और ज्योति लक्ष्मी. इसी शीर्षक से राजश्री प्रोडक्शन ने 1980 में एक फिल्म बनाई थी, और 1980 की इस फिल्म में गायिका अलका याग्निक ने अपना पहला हिन्दी फिल्मी गीत गाया था.

बहरहाल 1980 से हम वापस आते हैं 1966 की फिल्म "पायल की झंकार" पे. "मुखड़े पे गेसू आ गये आधे इधर आधे उधर". इस गीत को सुनते हुए आप यह महसूस करेंगे कि यूँ तो शास्त्रीय संगीत को आधार मानकर इस गीत को बनाया गया है लेकिन 'इंटरल्यूड म्यूज़िक' में एक पाश्चात्य रंग भी है. और अंतरे में फिर से वही शास्त्रीय रंग वापस आ जाता है. कुल मिलाकर इस गीत का संगीत संयोजन कमाल का है. क़मर साहब ने भी इस गीत में अपने शब्दों से जान डाल दी है, वो लिखते हैं "आज हमने रूप देखा चाँदनी के भेस में, एक परदेसी बेचारा लुट गया परदेस में, दिल के दुश्मन आ गये आधे इधर आधे उधर". नायिका के चेहरे की खूबसूरती को छुपाने वाले गेसुओं से शिकायत की गयी है इस गीत में लेकिन बडे ही खूबसूरत अंदाज़ में. इस गीत के लिए ज़्यादा कुछ कहने के बजाए यही बेहतर होगा कि इस गाने को सुना जाए और इसका आनंद उठाया जाए.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. शैलेन्द्र, आशा भोंसले, मोहम्मद रफी और शंकर जयकिशन की टीम.
२. पेरिस में शाम बिताते शम्मी कपूर और शर्मीला टैगोर.
३. अंतरे में पंक्ति है - "नींद तो अब तलक जाके लौटी नहीं..."

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी इकलौते विजेता रहे इस बार. मुश्किल था पर आपने क्या खूब पकडा. मज़ा आ गया. गले लग कर बधाई. शोभा जी, नीलम जी, राज भाटिया जी और शन्नो जी, आप सब ने गीत का आनंद लिया जानकार ख़ुशी हुई. मनु जी कोई बात नहीं आज कोशिश कीजिये, और किशोर कुमार का ये गाना कैसा लगा ये भी बताईयेगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





आबिदा और नुसरत एक साथ...महफिल-ए-ग़ज़ल में



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०२

नकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष,
पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश।


इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं:

संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा रहे,
काफ़ी है कि मेरी तरफ बस वो खु़दा रहे।


बेग़म आबीदा परवीन,जिनके लिए सितारा-ए-इम्तियाज़ की उपाधि भी छोटी है,की आवाज़ में खुदावंद ने एक अलग हीं कशिश डाली है। आईये अब हम इन्हीं की पुरकशिश आवाज़ में कराँची के हकीम नसीर की लिखी गज़ल सुनते हैं।



गुजरे पहर में रात ने जो ख़्वाब कत्ल किये,
अच्छा है उनको भूलना,शब भर न वे जिये।


इंसान ईश्वर का सबसे पेचीदा आविष्कार है। वह वर्तमान में जीता है, भविष्य के पीछे भागता है और भूत की होनी-अनहोनी पर सर खपाता रहता है। ना हीं वह माज़ी का दामन छोड़ता है और ना हीं मुस्तकबिल से नज़रें हटाता है। इसी माज़ी-मुस्तकबिल के पेंच में उलझा वह मौजूद की बलि देता रहता है। वह जब किसी की चाह पाल लेता है तो या तो उसे पाकर हीं दम लेता है या फिर हरदम उसी की राह जोहता रहता है। और वही इंसान अगर इश्क के रास्ते पर हो तो उसे एक हीं मंज़िल दीखती है,फिर चाहे वह मंजिल कितनी भी दूर क्यों न हो या फिर उस रास्ते की कोई मंजिल हीं न हो। वह उसी रास्ते पर मुसलसल चलता रहता है, ना हीं वह मंजिल को भूलता है और ना हीं रास्ता बदलता है। उस नासमझ को इस बात का इल्म नहीं होता कि "जिस तरह दुनिया बेहतरी के लिए बदलती रही है, उसी तरह इंसान से भी फ़िज़ा यही उम्मीद करती है कि वह बेहतरी के लिए बदलता रहे।" कहा भी गया है कि "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए" । काश यह बात हर इंसान की समझ में आ जाए:

शिकवा क्यों अपने-आप से, ग़र पास सब न हो,
किस्मत में मोहतरम के भी मुमकिन है रब न हो।


मौजूदा गज़ल में अमज़द इस्लाम अमज़द कहते हैं -
"कहाँ आके रूकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था उसे भूल जा,
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा।"

उस्ताद नुसरत फतेह अली खान की आवाज़ ने इस गज़ल को दर्द से सराबोर कर दिया है। आईये हम और आप मिलकर इस दर्द-ए-सुखन का लुत्फ उठाते हैं।



चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

जिंदगी तुझसे हर एक बात पे समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको मगर इतना भी नहीं...

इरशाद ....


प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.



Sunday, April 5, 2009

निगाहें मिलाने को जी चाहता है...एक श्रेष्ठ फ़िल्मी कव्वाली



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 43

हाँ तक फिल्मी क़व्वालियों का सवाल है, तो फिल्म संगीत में क़व्वाली को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का महत्वपूर्ण और सराहनीय योगदान रहा है. यूँ तो उनसे पहले भी फिल्मों में कई क़व्वालियाँ आईं, लेकिन उनमें फिल्मी रंग की ज़रा कमी सी थी जिसकी वजह से वो आम जनता में लोकप्रिय तो हुए लेकिन वो मुकाम हासिल ना कर सके जो दूसरे साधारण गीतों ने किये. रोशन ने क़व्वालियों में वो फिल्मी अंदाज़, वो फिल्मी रंग भरा जो सुननेवालों के दिलों पर ऐसा चढा कि आज तक उतरने का नाम नहीं लेता. हुआ यूँ कि एक बार रोशन ने पाकिस्तान में एक क़व्वाली सुन ली "यह इश्क़ इश्क़ है". यह उन्हे इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होने इस क़व्वाली को अपनी अगली फिल्म "बरसात की रात" में शामिल कर लिया. यह क़व्वाली इतना लोकप्रिय हुई कि अगली फिल्म "दिल ही तो है" में निर्माता ने उनसे एक और ऐसी ही क़व्वाली की माँग कर बैठे. और एक बार फिर से रोशन ने अपने इस हुनर का जलवा बिखेरा "निगाहें मिलाने को जी चाहता है" जैसी क़व्वाली बनाकर. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में सुनिए यही मशहूर क़व्वाली.

फिल्म "दिल ही तो है" बनी थी सन् 1963 में. बी एल रावल निर्मित और सी एल रावल और पी एल संतोषी निर्देशित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे राज कपूर और नूतन. इस फिल्म का संगीत बेहद मक़बूल हुआ और मन्ना डे का गाया "लागा चुनरी में दाग" तो एक मील का पत्थर है इस गीत से जुडे हर एक कलाकार के संगीत सफ़र की. आशा भोंसले और साथियों का गाया "निगाहें मिलाने को जी चाहता है" एक मशहूर क़व्वाली के रूप में आज भी याद किया जाता है. इस क़व्वाली को लिखा था साहिर लुधियानवी ने, जिन्होने बरसात की रात की क़व्वाली भी लिखी थी. फिल्म "दिल ही तो है" की इस क़व्वाली के फ़िल्मांकन की अगर हम बात करें तो नूतन ने अपना बहुत ही अलग और खूबसूरत अंदाज़ इसमें पेश किया है. नूतन नृत्यांगना नहीं थी और ना ही इस तरह के पात्र उन्होने निभाए थे. बावजूद इसके, उन्होने बहुत ही अच्छे तरीके से इस जमीला बानो के चरित्र को निभाया जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया. अब शायद आपका भी "जी चाह रहा" होगा इस क़व्वाली को सुनने का, तो पेश-ए-खिदमत है...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सी रामचंद्र के संगीत में किशोर की आवाज़.
२. कमर जलालाबादी ने बोल लिखे हैं और परदे पर किशोर कुमार ने निभाया है गीत को.
३. गीत शुरू होता है इस शब्द से -"मुखड़े पे..."

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
पारुल जब भी आती है बाजी मार ले जाती है, मनु और नीरज जी आप सब को भी बधाई, सही कहा आपने रोशन साहब हिंदी फिल्म संगीत के कव्वाली किंग हैं. आचार्य जी आशा के कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें उनके आलावा कोई दूसरा गा ही नहीं सकता.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (1)



सुनिए १९४९ में आयी फिल्म "बाज़ार" से लता के कुछ दुर्लभ गीत

रविवार की अलसाई सुबह का आनंद और बढ़ जाता है जब सुबह सुबह की कॉफी के साथ कुछ ऐसे दुर्लभ गीत सुनने को मिल जाएँ जिसे कहीं गाहे बगाहे सुना तो था, पर फिर कभी सुनने का मौका नहीं मिला -

एक पुराना मौसम लौटा , यादों की पुरवाई भी,
ऐसा तो कम ही होता है, वो भी हो तन्हाई भी...

चलिए आपका परिचय कराएँ आवाज़ के एक संगीत प्रेमी से. अजय देशपांडे जी नागपुर महाराष्ट्र में रहते हैं, आवाज़ के नियमित श्रोता हैं और जबरदस्त संगीत प्रेमी हैं. लता मंगेशकर इनकी सबसे प्रिय गायिका है, और रोशन साहब को ये संगीतकारों में अव्व्वल मानते हैं. मानें या न मानें इनके पास १९३५ से लेकर १९६० तक के लगभग ८००० गीतों का संकलन उपलब्ध है, जाहिर है इनमें से अधिकतर लता जी के गाये हुए हैं. आवाज़ के श्रोताओं के साथ आज वो बंटाना चाहते हैं १९४९ में आई फिल्म "बाज़ार" से लता और रफी के गाये कुछ बेहद मधुर गीत. फिल्म "बाज़ार" में संगीत था श्याम सुंदर का, दरअसल १९४९ का वर्ष श्याम सुंदर के लिए सर्वश्रेष्ठ रहा, "बाज़ार" के आलावा "लाहौर" में भी उनका संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ. हालाँकि उनके काम को तो १९४५ में आई फिल्म "गाँव की गोरी" के बाद से ही सराहना मिलनी शुरू हो चुकी थी पर "बाज़ार" में आया लता की आवाज़ में गीत "साजन की गलियां छोड़ चले..." शायद उनके कैरियर का सर्वोत्तम गीत था. लता के भी अगर सर्वश्रेष्ठ गीतों की बात की जाए तो इस गाने का जिक्र अवश्य किया जायेगा. श्याम सुंदर ने इसके बाद "कमल के फूल", "काले बादल", "ढोलक" और १९५३ में आई "अलिफ़ लैला" में भी एक से एक हिट गीत दिए. उनके संगीत पर किसी परंपरा या जमाने का असर नहीं था. उनकी शैली पूर्णतया मौलिक थी, और धुनों में जो मिठास थी वो अदभुत ही थी.

"बाज़ार" के इन दुर्लभ गीतों को सुनने से पहले ज़रा उन गीतों की फेहरिस्त देखिये जो श्याम सुंदर के मधुर संगीत से रोशन हुई - "ज़रा सुन लो...", "शहीदों तुमको मेरा सलाम... "(बाज़ार), "बैठी हूँ तेरी याद में...", "किस तरह भूलेगा दिल..."(गाँव की गोरी), "बहारें फिर भी आयेंगीं..", "युहीं रोता हुआ दिल...", "टूटे हुए अरमानों की..."(लाहौर), "खामोश क्यों हो तारों..."(अलिफ़ लैला), "चोरी चोरी आग सी दिल में..."(ढोलक). दोस्तों ऐसे गीत आजकल कहीं सुनने को नहीं मिल पाते. पर आवाज़ की अब ये कोशिश रहेगी कि इन दुर्लभ मोतियों को आप तक निरंतर पहुंचाए. इस कार्य में हमें आपका भी सहयोग चाहिए. आप भी अपने संकलन से कुछ दुर्लभ गीत हमें भेजें और अन्य श्रोताओं के साथ बांटे.

अब सुनिए फिल्म "बाज़ार" से ये दुर्लभ गीत -

साजन की गलियां छोड़ चले...


ऐ मोहब्बत उनसे...


बसा लो अपनी निगाहों में...


ऐ दिल उनको याद न करना...


यदि कोई गीत, खास कर लता जी का गाया (1940-1960)आप सुनना चाहते हैं तो हमें लिखे हम आपका सन्देश अजय जी तक अवश्य पहुंचाएंगे.



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.



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